सारसूत्र :
बनत बनत बनि जाई, पड़ा रहै संत के द्वारे।।
तन मन धन सब अरपन कै कै, धका धनी के खाय।
मुरदा होय टरै नहिं टारै, लाख कहै समुझाय।
स्वान-बिरति पावै सोई खावै, रहै चरन लौ लाय।
पलटूदास काम बनि जावै, इतने पर ठहराय।।
मितऊ देहला न जगाए, निंदिया बैरिन भैली।।
की तो जागै रोगी, की चाकर की चोर।
की तो जागै संत बिरहिया, भजन गुरु कै होय।।
स्वारथ लाय सभै मिलि जागैं, बिन स्वारथ न कोय।
पर स्वारथ को वह नर जागै, किरपा गुरु की होय।।
जागे से परलोक बनतु है, सोए बड़ दुख होय।
ज्ञान-खरग लिए पलटू जागै, होनी होय सो होय।।