रविवार, 20 मई 2018

काहे होत अधीर-प्रवचन--07


साहिब से परदा न कीजै—(प्रवचन—सातवां)

सारसूत्र :


बनत बनत बनि जाई, पड़ा रहै संत के द्वारे।।
तन मन धन सब अरपन कै कै, धका धनी के खाय।
मुरदा होय टरै नहिं टारै, लाख कहै समुझाय।
स्वान-बिरति पावै सोई खावै, रहै चरन लौ लाय।
पलटूदास काम बनि जावै, इतने पर ठहराय।।


मितऊ देहला न जगाए, निंदिया बैरिन भैली।।
की तो जागै रोगी, की चाकर की चोर।
की तो जागै संत बिरहिया, भजन गुरु कै होय।।
स्वारथ लाय सभै मिलि जागैं, बिन स्वारथ न कोय।
पर स्वारथ को वह नर जागै, किरपा गुरु की होय।।
जागे से परलोक बनतु है, सोए बड़ दुख होय।
ज्ञान-खरग लिए पलटू जागै, होनी होय सो होय।।

गुरुवार, 17 मई 2018

काहे होत अधीर-(प्रवचन--06)

क्रांति की आधारशिलाएं—(प्रवचन—छठवां)
प्रश्न-सार:

1—मेरा खयाल है कि आपके विचारों में, आपके दर्शन में वह सामर्थ्य है, जो इस देश को उसकी प्राचीन जड़ता और रूढ़ि से मुक्त करा कर उसे प्रगति के पथ पर आरूढ़ करा सकती है। लेकिन कठिनाई यह है कि यहां के बुद्धिवादी और पत्रकार आपको अछूत मानते हैं और आपके विचारों को व्यर्थ प्रलाप बताते हैं। इससे बड़ी निराशा होती है। कृपा कर मार्गदर्शन करें।

2—आप तो कहते हैं, हंसा तो मोती चुगै। लेकिन आज तो बात ही दूसरी है। आज का वक्त तो कहता है: हंस चुनेगा दाना घुन का, कौआ मोती खाएगा। और इसका साक्षात प्रमाण है तथाकथित पंडित-पुरोहितों को मिलने वाला आदर-सम्मान और आप जैसे मनीषी को मिलने वाली गालियां।

काहे होत अधीर-(प्रवचन--05)

बैराग कठिन है—(प्रवचन—पांचवां)

सारसूत्र :


जनि कोई होवै बैरागी हो, बैराग कठिन है।।
जग की आसा करै न कबहूं, पानी पिवै न मांगी हो।
भूख पियास छुटै जब निंद्रा, जियत मरै तन त्यागी हो।।
जाके धर पर सीस न होवै, रहै प्रेम-लौ लागी।
पलटूदास बैराग कठिन है, दाग दाग पर दागी हो।।

अब तो मैं बैराग भरी, सोवत से मैं जागि परी।।
नैन बने गिरि के झरना ज्यों, मुख से निकरै हरी-हरी।
अभरन तोरी बसन धै फारौं, पापी जिव नहिं जात मरी।।
लेउं उसास सीस दै मारौं, अगिनि बिना मैं जाऊं जरी।
नागिनि बिरह डसत है मोको, जात न मोसे धीर धरी।।
सतगुरु आई किहिन बैदाई, सिर पर जादू तुरत करी।
पलटूदास दिया उन मोको, नाम सजीवन मूल जरी।।


जल औ मीन समान, गुरु से प्रीति जो कीजै।।
जल से बिछुरै तनिक एक जो, छोड़ि देति है प्रान।
मीन कहै लै छीर में राखे, जल बिनु है हैरान।।
जो कछु है सो मीन के जल है, उहिके हाथ बिकान।
पलटूदास प्रीति करै ऐसी, प्रीति सोई परमान।।

काहे होत अधीर-(प्रवचन--04)

मौलिक धर्म—(प्रवचन—चौथा)

प्रश्न-सार :

1—बुनियादी रूप से आप धर्म के प्रस्तोता हैं--वह भी मौलिक धर्म के। आप स्वयं धर्म ही मालूम पड़ते हैं। लेकिन आश्चर्य की बात है कि अभी आपका सबसे ज्यादा विरोध धर्म-समाज ही कर रहा है! दो शंकराचार्यों के वक्तव्य उसके ताजा उदाहरण हैं। क्या इस पर कुछ प्रकाश डालने की कृपा करेंगे?

2—मैं बुद्ध होकर मरना नहीं चाहती; मैं बुद्ध होकर जीना चाहती हूं।

3—आप कहते हैं कि जीवन में कुछ मिलता नहीं। फिर भी जीवन से मोह छूटता क्यों नहीं? समझ में बात आती है और फिर भी समझ में नहीं आती; समझ में आते-जाते छूट जाती है, चूक जाती है।

काहे होत अधीर-(प्रवचन--03)


 साजन-देश को जाना—(प्रवचन—तीसरा)

सारसूत्र:

जेकरे अंगने नौरंगिया, सो कैसे सोवै हो।
लहर-लहर बहु होय, सबद सुनि रोवै हो।।
जेकर पिय परदेस, नींद नहिं आवै हो।
चौंकि-चौंकि उठै जागि, सेज नहिं भावै हो।।
रैन-दिवस मारै बान, पपीहा बोलै हो।
पिय-पिय लावै सोर, सवति होई डोलै हो।।
बिरहिन रहै अकेल, सो कैसे कै जीवै हो।
जेकरे अमी कै चाह, जहर कस पीवै हो।।
अभरन देहु बहाय, बसन धै फारौ हो।
पिय बिन कौन सिंगार, सीस दै मारौ हो।।
भूख न लागै नींद, बिरह हिये करकै हो।
मांग सेंदुर मसि पोछ, नैन जल ढरकै हो।।
केकहैं करै सिंगार, सो काहि दिखावै हो।
जेकर पिय परदेस, सो काहि रिझावै हो।।
रहै चरन चित लाई, सोई धन आगर हो।
पलटूदास कै सबद, बिरह कै सागर हो।।

शिक्षा में क्रांति-प्रवचन-31

शिक्षा में क्रांति-ओशो
प्रवचन-इक्कतीसवां
शिक्षा: नया धर्म

मेरे प्रिय आत्मन्!
बीसवीं सदी नये मनुष्य के जन्म की सदी है। इस संबंध में थोड़ी सी बात आपसे करना चाहूंगा। इसके पहले कि हम नये मनुष्य के संबंध में कुछ समझें, यह जरूरी होगा कि पुराने मनुष्य को समझ लें।
पुराने मनुष्य के कुछ लक्षण थे। पहला लक्षण पुराने मनुष्य का था कि वह विचार से नहीं जी रहा था, विश्वास से जी रहा था। विश्वास से जीना अंधे जीने का ढंग है। मानव की अंधे होने की भी अपनी सुविधाएं हैं। और यह भी माना कि विश्वास के अपने संतोष हैं और अपनी सांत्वनाएं हैं। और यह भी माना कि विश्वास की अपनी शांति और अपना सुख है लेकिन यदि विचार के बाद शांति मिल सके और संतोष मिल सके, विचार के बाद यदि सांत्वना मिल सके और सुख मिल सके तो विचार के आनंद का कोई भी मुकाबला, विश्वास का सुख नहीं कर सकता है।

शिक्षा में क्रांति-प्रवचन-30

शिक्षा में क्रांति-ओशो
प्रवचन-तीसवां
बोध का जागरण
(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)

पहली बात तो, साधारणतः हम ऐसा ही सोचते हैं कि गुलामियों के कारण हमारे चरित्र का पतन हुआ, गुलामी के कारण हमारा व्यक्तित्व नष्ट हुआ!
गुलामी आई, तभी हम चरित्रहीन हुए! गुलामी आई तभी, जब कि हम चरित्रहीन हुए?
 उसको ही मैं कहना चाहता हूं कि चरित्रहीनता जो है वह गुलामी के कारण नहीं आई, बल्कि चरित्रहीनता के कारण ही गुलामी आई। और चरित्रहीन हम बने, ऐसा कहना मुश्किल है, चरित्रहीन हम थे। बनने का तो मतलब यह होता है कि हम चरित्रवान थे, फिर हम चरित्रहीन बने। तो हमें कारण खोजने पड़ें कि हम चरित्रवान कैसे थे, कब थे। और कैसे हम चरित्रहीन बने! मुझे नहीं दिखाई पड़ता कि हम कभी चरित्रवान थे। हमारी चरित्रहीनता बड़ी पुरानी है और चरित्रहीन का काफी जो बुनियादी कारण है, वह हमारी संस्कृति में सदा से मौजूद है। उसकी वजह से है। गुलामी का आना बिलकुल स्वाभाविक था, और आज भी आ जाना बिलकुल स्वाभाविक है। और अगर हम जो भी काम करेंगे चरित्रवान बनने के, वे सफल होने वाले नहीं हैं। वे सफल इसलिए नहीं होंगे कि हम फिर वही काम करेंगे जो हमने सदा से किया है।

शिक्षा में क्रांति-प्रवचन-29

शिक्षा में क्रांति-ओशो
प्रवचन-उन्नतीसवां
नई दिशा, नया बोध
(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)

लक्ष्मी ने जो पूछा है, वह सवाल तो छोटा मालूम पड़ता है लेकिन उससे बड़ा कोई और दूसरा सवाल नहीं है। नई पीढ़ी को कैसे शिक्षित करना, यह बड़े से बड़ा सवाल है। और मनुष्यता का सारा भविष्य इस पर निर्भर है। इसकी दो-तीन गहरी बातों को खयाल में लेना चाहिए।
एक तो अब तक बच्चे का पूरी दुनिया में कहीं भी कोई आदर नहीं है। बच्चे से आदर हम मांगते थे, बच्चे को आदर देते नहीं थे। प्रेम देते थे, आदर नहीं देते थे। इसके बहुत ही भयानक परिणाम हुए। इसका सबसे बुरा जो परिणाम हुआ, वह यह हुआ कि जब तक बच्चे को आदर न दिया जाए तब तक हम किसी न किसी गहरे रूप में यह प्रकट करते हैं कि वह हमसे हीन है। हम उसमें हीनता का भाव पैदा करते हैं। यह हीनता का भाव बहुत तरह की विकृतियां पैदा करेगा, करता है और बच्चे बड़े होकर इसी हीनता का बदला जब लेना शुरू करते हैं तभी हमें पता चलता है कि यह क्या हो गया। लेकिन तब भी हम बीमारी को नहीं समझ पाते, क्योंकि बीमारी के बीज बचपन में बोए गए थे और उनका जवाब और उनके फूल और फल बहुत देर बाद आने शुरू होते हैं।

बुधवार, 16 मई 2018

काहे होत अधीर-(प्रवचन--02)

अमृत में प्रवेश—(प्रवचन—दूसरा)
दिनांक 12 सितम्‍बर सन् 1979;
ओशो आश्रम पूना।

प्रश्न-सार :

1—कोई तीस वर्ष पूर्व, जबलपुर में, किसी पंडित के मोक्ष आदि विषयों पर विवाद करने पर दद्दाजी ने कहा था कि शास्त्र और सिद्धांत की आप जानें, मैं तो अपनी जानता हूं कि यह मेरा अंतिम जन्म है।
एक और अवसर पर कार्यवश वे काशी गए थे। किसी मुनि के सत्संग में पहुंचे। दद्दाजी को अजनबी पा प्रवचन के बाद मुनि ने पूछा, आज से पूर्व आपको यहां नहीं देखा!
कहा, हां, मैं यहां का नहीं हूं।
पूछा, आप कहां से आए हैं और यहां से कहां जाएंगे?
कहा, निगोद से आया हूं और मोक्ष जाऊंगा।
पांच वर्ष पूर्व हृदय का दौरा पड़ने पर, मां को चिंतित पाकर उन्होंने कहा था, चिंता न लो। अभी पांच वर्ष मेरा जीवन शेष है।
उनकी इन उद्घोषणाओं के रहस्य पर प्रकाश डालने की अनुकंपा करें।

2—संत रज्जब, सुंदरो और दादू की मृत्यु की कहानी मेरे लिए बड़ी ही रोमांचक रही। परंतु मेरे गुरु और हमारे प्यारे दादा, जो मेरे मित्र भी थे, उनकी मृत्यु के समय की आंखों देखी घटना का अनुभव मेरे लिए उससे भी कहीं अधिक रोमांचकारी हुआ। इससे मेरी आंखें मधुर आंसुओं से भर जाती हैं।

काहे होत अधीर-(प्रवचन--01)


पाती आई मोरे पीतम की—(प्रवचन—पहला)

दिनांक 11 सितम्‍बर सन् 1979,
ओशो आश्रम पूना।
सूत्र:
पूरन ब्रह्म रहै घट में, सठ, तीरथ कानन खोजन जाई।
नैन दिए हरि—देखन को, पलटू सब में प्रभु देत दिखाई।।
कीट पतंग रहे परिपूरन, कहूं तिल एक न होत जुदा है।
ढूंढ़त अंध गरंथन में, लिखि कागद में कहूं राम लुका है।।
वृद्ध भए तन खासा, अब कब भजन करहुगे।।
बालापन बालक संग बीता, तरुन भए अभिमाना।
नखसिख सेती भई सफेदी, हरि का मरम न जाना।।
तिरिमिरि बहिर नासिका चूवै, साक गरे चढ़ि आई।

सुत दारा गरियावन लागे, यह बुढ़वा मरि जाई।।
तीरथ बर्त एकौ न कीन्हा, नहीं साधु की सेवा।
तीनिउ पन धोखे ही बीते, नहिं ऐसे मूरख देवा।।
पकरी आई काल ने चोटी, सिर धुनि—धुनि पछिताता।
पलटूदास कोऊ नहिं संगी, जम के हाथ बिकाता।।
पाती आई मोरे पीतम की, साईं तुरत बुलायो हो।।