मंगलवार, 14 मार्च 2017

हीरा पायो गांठ गठियायो-प्रवचन-01

माई डायमंड डे विद ओशो

( हीरा पायो गांठ गठियायो)
मां प्रेम शुन्‍यो
           

ओशो के प्रति जो प्रेम मैं अनुभव करती हूं, वह हमेशा आध्‍यात्‍मिक रहा है। मेरा उनके साथ ध्‍यान का सम्‍बंध रहा है। यह स्‍त्री और पुरूष दोनों साधकों के लिए समान है। दैहिक आकर्षण का कोई प्रश्न ही नहीं है। यदि ऐसा प्रेम में ओशो के साथ अनुभव कर पाई तो मुझे आशा है कि एक दिन सबके साथ, इस ग्रह के सभी प्राणियों के साथ यह प्रेम अनुभव कर सकूंगी।
मां प्रेम शुन्यों



मैं यहीं हूं  (अध्‍याय—01 )

      
कुछ कहना है?
      एक आवाज भीतर पुकार-पुकार कर कहती है। मैं यहीं हूं, मैं यहीं हूं। मैं अवाक हूं। और तभी वे आंखें।
      जब गुरु शिष्‍य की आंखों में देखता है, यह देखता है, और वह देखता है। वह पूरी कहा कहानी देख रहा है अतीत वर्तमान और भविष्‍य—सभी कुछ। गुरु के सामने शिष्‍य पारदर्शी है। और यह उसमें छिपे अप्रकट बुद्ध को देख सकता है। मैं वहां बैठी ही रह सकती थी ताकि वे मेरे भीतर तक पहुंच जाएं.....क्‍योंकि हीरे को पाने का बस यही एकमात्र उपाय है।
भीतर एक भय है कि कहीं वे मेरे अचेतन में पड़ी उन बातों को ने देख लें। जिन्‍हें मैं छिपाए रखना चाहती थी। परंतु वह मेरी ओर ऐसी प्रेम पूर्ण दृष्‍टि से देखते है कि मैं केवल इतना ही कह पाती हूं, हां।
      कभी-कभी ऐसी दृष्‍टि-स्‍मृति पटल पर कोई चिन्‍ह छोड़ सकती बस एक हर्षोल्‍लास की अनुभूति, एक आनन्‍द पूर्ण ऊर्जा का ज्‍वार मुझे अश्रु धारा में बह जाने के लिए छोड़ जाता है।
      बुद्ध पुरूष ओशो से यह मेरी प्रथम भेंट थी। यह सन 1976 की बात है। भारत में यह बसंत का मौसम था।
      लगभग एक वर्ष पूर्व मैं लन्‍दन वाले फ्लैट के स्‍वच्‍छ शुभ्र रसोइघर में खड़ी थी। मुझे अहसास हुआ कि मेरा जीवन या मेरा ढंग जिससे मैं जीवन जी रही थी—समाप्‍त हो गया। उसका आभास इतना सुनिश्चित था जितना कि वर्ष काल के आगमन से पहले हड्डियों को होता है। इसका कोई स्‍पष्‍ट कारण भी नहीं दिखाई दे रहा था। मित्र मुझसे पूछते, लेकिन ऐसा क्‍यों?’ मैं क्‍या कह सकत थी? उन्‍हें रास्‍ता कैसे मिल जाता है? यह सब उस समय घटित हुआ जि मेरे पास वह सब कुछ था जो मुझे चाहिए था। जीवन बहुत सुविधाजनक था; मैं प्रसन्‍न थी; अच्‍छे मित्र थे। एक बहुत अच्‍छा प्रेमी था। मैंने वहीं काम किया जो मुझे अच्‍छा लगा। और मैं सोचती, बस अब ऐसा और कुछ नहीं है जो मैं करना चाहती हूं। हवाओं में परिवर्तन की गंध का आभास हुआ,परन्‍तु मुझे कुछ मालूम नहीं था। कैसा होगा वह परिवर्तन।
      पोर्टोबेलो रोड़ पर एक पुस्‍तक भंडार में श्री रजनीश (पन्‍द्रह वर्षों के पश्‍चात वे अपना नाम बदलकर ओशो रखने वाले थे।) की पुस्‍तक द सायलेंट एक्‍सप्‍लोजन मेरे हाथ आई। धूप-अगरबत्‍ती सी सुगन्‍ध भी उसमें थी।  
      मैं वर्षों से एक तरंग का शिकार थी। मैं जानती थी, चक्र घूमेगा और मैं उसके लिए तैयार रहना चाहती थी। मैं अपने मित्र लॉरेंस के साथ इबिज़ा गई। लॉरेंस बहुत सुन्‍दर था—लम्‍बा कद, सांवला रंग। वह रहस्‍यवाद का पंडित था। उसे सब और एक रहस्‍य, एक चमत्‍कार ही दिखाई पड़ता था। और उसमें ईश्‍वर-प्रदत योग्‍यता थी कि उसे शाब्‍दिक अभिव्‍यक्‍ति व फिल्‍म के माध्‍यम से सम्‍प्रेषित कर सके। उसने अपनी पहली पुस्‍तक रिद्मजद़ ऑफ विजन अभी-अभी पूरी की थी। और अब अपनी सु-अर्जित छुट्टियों का आनंद ले रहा था। इबिज़ा एयरपोर्ट पहुंचने पर मैं लॉरेंस की लीडिया से पहली बार मिली। वह प्रथम मिलन की छवि मेरे ह्रदय पर आज भी वैसे ही अंकित है। जैसे यह कल की बात हो। लीडिया मेरी आध्‍यात्‍मिक मां है। उसके साथ मेरा सम्‍बन्‍ध बहुत गहरा और पुराना है। वह वर्षों तक इंडोनेशिया में एक आध्‍यात्‍मिक समूह के साथ रही थी। और गुरजिएफ के लोगों के साथ रहकर भी उसने अध्‍ययन किया था। हम तीनों उसके खूबसूरत पारंम्परिक घर में देवदारू—फलों की आग के सामने बैठे थे। हम द सायलेंट एक्सप्लोजन की चर्चा करते रहे। में इस बारे में उसकी सलाह लेना चाहती थी। कि क्‍या वह उसे सुरक्षित समझती थी। और उसने कह कि हां, मुझे ध्‍यान विधियों का प्रयोग कर के देखना चाहिए। पुस्‍तक के सम्‍बन्‍ध में मेरी केवल एक शंका थी। उसमें अन्‍तिम पृष्‍ठ पर जीवन-सम्‍बन्‍धी एक नोट था कि सात सौ वर्ष पहले रजनीश अपने पिछले जन्‍म में तिब्‍बत में थे। यह बात इतनी विलक्षण इतनी काल्‍पनिक लगी कि विश्‍वास नहीं हो रहा था। परन्‍तु मुझे अच्‍छी तरह याद है कि लॉरेंस ने कैसे अपनी भौहें ऊपर उठाई थी। जब मैंने ऐसा कहा था, फिर भी मैं आशा नहीं करती कि मैं परिपूर्ण आध्‍यात्‍मिक गुरु पा सकूंगी। जब तक मुझे यह स्‍वयं ही ज्ञात नहीं कि मुझे क्‍या खोजना है। वह मेरी दृष्‍टि में पूर्ण कैसे हो सकता है।
      कोई भी, जो कभी इबिज़ा गया हो, जानता होगा कि यह एक ऐसा द्वीप है जो प्रबल मनोभावों को पोषित करता है। इस द्वीप पर देवी यानेट का प्रभाव है। स्‍त्रियों पर उसकी विशेष कृपा-दृष्‍टि है। वह उनकी रक्षा करती है। ज्‍योतिष के अनुसार इस द्वीप की राशि वृश्‍चिक है। प्रगाढ़ता ओर तीव्रता अन्‍धकार और जादू। कुछ भी हो मैं तो छुट्टियाँ मना रही थी। किन्‍हीं आलोकिक अनुभवों की तलाश में नहीं थी। लीडिया के बग़ीचे में दिन-भर काम करके मैं बहुत प्रसन्‍न थी। मिट्टी से यह नाता मुझे एक सुखद अनुभूति देता था। मुझे समुद्र के रेतीले किनारों या पर्यटकों के लिए सामान्‍य दर्शनीय स्‍थलों पर जाने में कोई रूचि नहीं थी।
      यही पर मुझे ध्‍यान का वर्तमान के इस पल में जीने का प्रथम अनुभव हुआ था; यह आवश्‍यकता से उत्‍पन्‍न हुआ था।
      मैं और लॉरेंस अपने कुछ मित्रों के साथ पिकनिक पर गए। लीडिया तबीयत ठीक न होने के कारण हमारे साथ नहीं आ पाई। मैं उसके लिए कुछ फूल ढूंढते-ढूंढते अपने मित्रों से बिछुड़ गई। मैंने वहां अपने की ऊँचाई के गुच्‍छेदार पौधे का एक झुरमुट देखा जिस पर बड़े-बड़े गुलाबों और सफ़ेद फूल लगे थे। जैसे ही उन्‍हें तोड़ने के लिए मैं उन तक पहुंची तो पाया कि वे आसानी से टूटने वाले नहीं है। मुझे टहनियों को कुछ ऐसे ढंग से चीरना पडा  कि झाड़ी ही टूट गई। मैंने अपने कारण हुई उस बरबादी को देखा; जहां मैंने उसे ऊपर से नीचे ते तोड़ डाला था, वहां से सफेद रस रिस रहा था। मुझे बहुत दुःख हुआ। ऐसा लग रहा था मानो उससे रक्‍त बह रहा हो। मैंने झाड़ी से कहा, देखो, यदि मैं तुम्‍हें इस तरह बुरे ढंग से चीर सकती हूं तो कम से कम अच्‍छे ढंग से चाट भी सकती हूं। मैंने टहनी से उसके अश्रु रूप रस को अपनी जीभ से चाट लिया और फूल लेकर मैं पिकनिक वाले स्‍थान पर लौट आई। मेरी जीभ और गले का पिछला भाग सुन्‍न होने लगा। ऐसा लगा जैसे मैंने दन्‍त चिकित्‍सक से नोवोकेन का टीका लगवाया था।
      जैसे ही मैं अपने मित्रों के पास—जो ज़मीन पर बैठे थे—पहुंची तो एक महिला एकदम उछली और बोली, इन फूलों को जल्‍दी फेंक दो, और अपने हाथ धो लो। ये फूल घातक रूप से विषैले है। सफ़ेद रस मेरे भीतर था। मैंने सोचा कि जो कुछ भी हुआ है यदि मैं इन लोगों को बताती हूं तो वे घबरा जाएंगे। इन सबके घबरा जाने से मैं घबरा जाऊंगी और बीमार हो जाऊंगी। यहां तो कोई अस्‍पताल भी नहीं है। मैंने स्‍वयं को समझाया, और क्‍या किया जा सकता है। उचित है कि मैं इस विष को अपने शरीर में स्‍वीकार कर लूं और इसे अपना ही एक हिस्‍सा हो जाने दूं। इसलिए मैंने किसी को नहीं बताया कि मैंने क्‍या किया था।
      कार से घर लौटने के लिए वह रास्‍ता बहुत लम्‍बा था और मैं बिल्‍कुल चुप थी। मेरे मित्र उन लोगों की कहानियां सुना रहे थे। जिनकी मृत्‍यु इन विषैले फूलों के कारण हुई थी। अभी दो-तीन महीने पहले एक पूरे परिवार, मात-पिता और दो बच्‍चों की मृत्‍यु सींखो पर पकाए भोजन का खाने से हुई थी। और उस भोजन को पकाने के लिए आग इस झाड़ी की जलाई गई।
      कार में बहुत गर्मी थी और कर खचाखच भरी थी। मैं लॉरेंस की गोदी में बैठी थी। सिर झुकाकर मैं खिड़की से बाहर देख रही थी। और मुझे लगा कि मेरा गला सुन्‍न हो रहा है। मैने स्‍वयं से कहां, यदि मैं विष को स्‍वीकार कर लूं और तनाव ग्रस्‍त न होऊं तो बिल्कुल ठीक हो जाऊंगी। मैंने चुपचाप उन फूलों से एक सौदा कर लिया कि उनका विष मेरे भीतर निष्‍क्रिय रहेगा। और तब तक कोई हानि नहीं पहुँचाएगा जब तक मैं स्‍वयं ही किसी दिन विष खाकर मरना न चाहूं। मुझे मालूम नहीं कि मेरा उससे क्‍या अभिप्राय था परन्‍तु मेरा मन यही कह रहा था।
      हम लीडिया के घर पहुंचे, सांझ होने को थी और मुझे आज भी याद है बादाम के वृक्ष पर ढलते सूर्य के वे रंग, वह चित्र आज भी मेरी स्‍मृति पर अंकित है। हमने रात्रि का भोजन पकाया और खाया। मैं एक शब्‍द भी नहीं बोली। मैं अब और यहीं की स्‍थिति की और खिंची जा रही थी। क्‍योंकि सम्‍भवत: प्रत्‍येक क्षण मेरे लिए अन्‍तिम क्षण था। मुझे चक्‍कर सा आने लगा और कुछ ऊँचाइयों को अनुभव होने लगा। जो कुछ भी मैंने किया उसमें एक गहन अर्थ और प्रगाढ़ता थी। मैं अपने  आस-पास की प्रत्‍येक वस्‍तु के प्रति ऐसी सजग थी जैसे पहले कभी न थी। मेरा शरीर, मेरे ह्रदय की हर धड़कन, प्रत्‍येक कृत्‍य। मुझे लग रहा था कि मैं कुछ-न-कुछ करती रहूं। अत: मैंने रसोईघर का कोना-कोना साफ किया। लीडिया और लॉरेंस मुझे पुकारते हुए मेरे पीछे रसोईघर में आ गए और पूछने लगे कि मैं रसोईघर क्यों साफ़ कर रही हूं। बाहर आकर क्‍यों  नहीं बैठती। मैं बहुत शान्‍त थी। किसी के सम्‍बन्‍ध में कुछ विशेष सोच नहीं रही थी। उस रात मैं बिस्‍तर पर गई तो सोचने लगी कि कौन जाने मैं कल उठूंगी भी कि नहीं। मैं आज भी उस कमरे को वैसे ही देख सकती हूं। जैसे उस रात अन्‍तिम बार उसे देखा था—उसकी छाप अमिट हो गई है। खैर मैं सुबह उठी और पूर्ण रूप से स्‍वस्‍थ थी। बाद में विश्‍वकोश में मैंने उन फूलों के बारे में पढ़ा; वहां लिखा था:
      ओलिएंडर (कनेर)
      इसमें विषैला दूधिया रस होता है। सामान्‍य ओलिएंडर सबसे अधिक जाना पहचाना है और भूमध्‍य खंड में पाए जाने वाले इन फूलों को रोज़बे नाम से भी जाना जाता है। ऊंची-ऊंची झाड़ियां इसकी एक विशेषता है। यूनान के एक व्‍यक्‍ति प्‍लाइनी ने इसका विस्तार से वर्णन किया है। जिसने इसके गुलाब जैसे फूलों और विषैले गुणों का उल्‍लेख किया है।
      वस्‍तुत: बात यह नहीं थी। मैंने पहली बार ऐसा अनुभव किया कि उसी क्षण में जीने का, पल-पल सजग और बोधपूर्ण होने का एहसास कैसा होता है। मेरा एक कदम उस मार्ग पर उठ चुका था।
      एक दूसरे अवसर पर मैं लॉरेंस और लीडिया के साथ एक कॉकटेल पार्टी में गई। उस पार्टी में जो अतिथि थे वे कुछ चुने हुए धनी-मानी, उंची उपाधियों से सम्‍मानित लोग थे। यूं कहिए कि घमंडी वर्ग के लोग थे। हमारे मित्र को, जिसने यह दावत दी थी, अपने आस-पास रोचक लोगों को एकत्र करने में बहुत प्रसन्‍नता मिलती थी। और मेरा अनुमान है कि हमें इसलिए आमन्‍त्रित किया गया था, क्‍योंकि अन्‍य अतिथियों की तुलना में हम एक तरह से कुछ विचित्र और सनकी प्रकार के लोग थे।
      दावत चल रही थी। सम्‍मानित अतिथि फुसफुसाहट में शिष्‍ट वार्तालाप करते हुए अपने-अपने गिलासों में से धीरे-धीरे चुस्कियां ले रहे थे। बाहर संकरी सड़क पर शायद कोई कुत्‍ता कार के नीचे आ गया था। उसकी चीखें पूरे खुले घर में, उसकी बालकनियों में गूंज गई। एक बात जान लीजिए, मैंने कभी कहीं भी कोई तमाशा खड़ा नहीं किया। आखिर मैं हूं। तो ब्रिटिश, प्रकृति से एक शान्‍त गम्‍भीर महिला। कुत्‍ते की चीख़ चिल्‍लाहट ने मेरे भीतर इतनी गहरी चोट की मैं कुत्‍ते के स्‍वर में स्‍वर मिलाकर चीख़ने लगी। ऐसा कोई विचार मेरे मस्‍तिष्‍क में नहीं आया कि किसी सम्‍भ्रांत महिला को यह शोभा नहीं देता, कि यह समाज स्‍वीकृत नहीं है। कि लोग मुझे पागल समझेंगे—यह सब अचानक घटित हुआ। मैं सचमुच फ़र्श पर लेट गई और कुत्‍ते की भांति चीख़ती हुई उसी पीड़ा में पूरी तरह खो गई।
      जब मैंने आंखें खोलों तो अन्‍तिम अतिथि दरवाजे के एक कोने से बाहर जा रहा था। लॉरेंस, लीडिया, मेजबान और मेरे अतिरिक्‍त अब कमरे में और कोई नहीं था। लीडिया जो स्‍वयं को रूढ़ियों से मुक्‍त समझती थी, कुछ लज्‍जित सी और चिन्‍तित सी दिखाई दी। मेरे पास आकर थोड़ा झुककर उसने पूछा, तुम ठीक तो हो प्रिये। मैंने जीवन में पहले कभी इतनी बेहतर महसूस नहीं किया था। भीतर कुछ निर्मुक्‍त हो गया था। और मुझे एक अद्भुत अनुभूति हुई। हमारा आतिथेय भी प्रसन्‍न था। मुझे लगता है कि उसकी प्रसन्‍नता का यह कारण था कि उसकी दावत एक महान चर्चा का विषय बन गई थी।
      मेरी छुट्टियाँ खूब बीत रही थी। अगले सप्‍ताहों में मैने कुछ ऐसे देह-मुक्‍त चेहरे देखे जिनके विषय में किसी को कुछ मालूम न था। और एक अवसर पर मैंने कुछ आवाज़ों को गाते भी सुना। मैंने निश्‍चित किया कि लन्‍दन वापस पहुंचते ही मैं रजनीश ध्‍यान केन्‍द्र में जाकर ध्‍यान करना आरम्‍भ करूंगी; क्‍योंकि निश्‍चित रूप से मेरे जीवन में कुछ सुलझ रहा था।
      मैं कभी किसी धार्मिक संगठन या गुरु के साथ नहीं रही थी। मैंने यदा-कदा ज़ेन और कृष्णामूर्ति पर किताबें तो पढ़ी थीं। लेकिन मैंने स्‍वयं को कभी साधक, सत्‍यान्‍वेषी नहीं समझा। सत्‍यान्‍वेषी होना क्‍या है। मेरी दृष्‍टि में सत्‍य का खोजी होना यह जानना है कि जो कुछ तुम अनुभव कर रहे हो उससे कहीं और अधिक अनुभव करने के लिए है। तुम्‍हारा एक अंश जीवन्‍त है, परंतु पूर्ण रूप से उसके साथ, तुम्‍हारा सम् पर्क नहीं है। तुम जानते हो कि जो जीवन तुम जी रहे हो वह पर्याप्‍त नहीं है—तुम जानते हो कि पाने को कुछ और भी है। और इसीलिए तुम खोज शुरू कर देते हो।
      मेरा कोई हिस्‍सा बेचैन था, जैसे कोई नींद में करवटें बदल रहा हो; जैसे वह वास्‍तव में था। मुझे स्‍मरण है, जब मैंने भारत आने के लिए कॉर्नवाल में अपना घर छोड़ा था। मैं उन खड़ी चट्टानों और छोटी सी खाड़ी को अलविदा कहने गई। जहां मैंने अपना बचपन का अधिकतम समय बिताया था। मैंने उन चट्टानों की और देखकर उनसे कहा था, मैं तुम्‍हारे पास तब तक लौटकर न आऊंगी, जब तक मैं तुम्‍हें वास्‍तव में न देख सकूं।’—मैं जानती थी कि मैं उनको वास्‍तव में देख नहीं पाई थी।
      पहली बार जब मैं ध्‍यान-केंद्र में गई तो देर से पहुंची। ध्‍यान अभी-अभी समाप्‍त हुआ था। केंद्र लन्‍दन की बेल स्‍ट्रीट के एक भवन के तहख़ाने में था। बाहर सब्‍जी-मंडी थी और गलियों में बहुत भीड़ थी। मैं एक लम्‍बी, सफेद रंग में पूती सुरंग में प्रविष्‍ट हुई जो मुश्‍किल से पाँच-फुट ऊंची थी। दोनों और गद्दियां रखी थी। मानों यह बैठक थी जहां संन्‍यासी मिलते, चाय पीते और गपशप करते। मैंने उस लम्‍बी सुरंग में प्रवेश किया,वहां दूसरी और से आते हुए ध्‍यानियों से मेरा सामना हुआ। उनमें पुरूष और स्‍त्रियां दोनों थे। पसीने से लथपथ। यह तो कोई ध्‍यान न हुआ?’ मैंने अपने-आप से कहा। मैंने आसपास देखा। दीवारें एक व्‍यक्‍ति के चित्रों से भरी पड़ी है। मैंने अनुमान लगाया वे ओशो ही होंगे। इतने सारे चित्र और उनके पैरों में बैठे लोग। क्‍या समझते है उन्‍हें, ये लोग?’ मैंने अपने आप से पूछा, कोई फिल्‍म स्‍टार या कुछ और। निश्‍चित ही यह स्‍थान मेरे लिए नहीं था। मैं क्रोध में तेजी से बाहर आ गई और पाँव पटकती घर तक पहुंची। मैं इतने आवेश में थी कि बस या टैक्‍सी लेने की भी न सूझी। जबकि घर का रास्‍ता लम्‍बा था।
      उस रात मैंने एक सपना देखा कि मैं बहुत कठोर परिश्रम कर रही हूं। यह स्‍वप्‍न दृश्‍य का नहीं, भावनाओं का था। स्‍वप्‍न में देखा कि मैं संकल्‍पपूर्वक कार्य कर रही थी। और दो वर्षों के अन्‍त में मुझे एक उपहार मिला। यह उपहार मुझे उस मित्र द्वारा प्राप्‍त हुआ जिसे मैं वर्षों से जानती थी। और उससे प्रेम करती थी। उसने अभी-अभी संन्‍यास लिया था। और अपना नाम बदलकर ऋषि रख लिया था। मैंने उस भेंट को लेने के लिए हाथ आगे बढ़ाए लेकिन हाथ खाली थे। कहीं सक एक आवाज ने कहा, ठीक, मैं उसे कुछ अधिक महत्‍व नहीं देता। तुमने इसके लिए दो वर्ष परिश्रम किया है और तुम यह भी नहीं समझती कि तुम्‍हें क्‍या मिला है। तुम इसे देख भी नहीं सकती हो। और मैंने इसकी परवाह नहीं की। मैं जानती थी कि मैं और दो वर्ष काम करूंगी। फिर और दो वर्ष। उसके साथ ही मैने अपने पीछे के एक झोंके को महसूस किया। मैंने क्षितिज की और देखा और लगा कि मैं सदा-सदा दूर तक देख सकती थी। स्‍वप्‍न इतना प्रभावशाली था कि उसने मुझे जगा दिया। मैंने अपने आप से कहा कि हो न हो इस स्‍वप्‍न का कारण वह ध्‍यान केंद्र है और वापस वहां जाना चाहिए। मैं अगले ही दिन वहां गई और सक्रिय ध्‍यान करना शुरू  कर दिया। सक्रिय ध्‍यान करने से मेरा जीवन ही परिवर्तित हो गया।
      ध्‍यान का पहला चरण है—टेप पर रिकॉड किए संगीत की पृष्‍ठभूमि में गहरे अराजक श्‍वास लेना और दूसरा चरण है रेचन का, दमित मनोभावों के विरेचन का। मैं सोचती थी कि मेरी कोई दमित भावनाएं नहीं है। और मेरे भीतर ऐसा कुछ नहीं है। जिसके लिए मैं चीखूं और चिल्‍लाऊं। इसलिए दूसरे चरण में मैं सौम्‍य ढंग से नृत्‍य करती। कुछ ही दिन हुए थे ध्‍यान करते कि एक दिन मैं आश्‍चर्यचकित रह गई। जब मैंने रेचन की अवस्‍था में देखा कि मैं एक लम्‍बी ऊंची अमेज़न स्त्री के रूप में पहाड़ी पर खड़ी हूं। भीतर से एक तीव्र चीख फूट पड़ी, जो इतनी आदिम थी कि उसने पूरे विश्‍व को गूंज से भर दिया। मैं अंधकार में चीख रही थी। ऐसा लगा मानो यह समस्‍त मानव-जाति के अतीत की व्‍यथा की अभिव्‍यक्‍ति हो। लेकिन मैंने स्‍वयं को निर्लिप्‍त और उसे पृथक महसूस किया। मैं उसे ऐसे देख और सून रही थी जैसे मैं नहीं कोई और चीख़ रहा हो।
      इससे पहले कि ध्‍यान घटित हो सके। रेचन शुद्धीकरण की प्रक्रिया है। मैं जानती थी कि यह मेरी सामर्थ्‍य के बाहर है। कि मैं बस चुपचाप शांत बैठ जाऊं और ध्‍यान को घटित होने दूं। क्‍योंकि मेरा मन बहुत व्‍यस्‍त था। वास्‍तव में जीवन के इस मोड़ पर मैं यही सोचती थी कि मैं मन हूं। मेरे मस्‍तिष्‍क में निरंतर दौड़ते विचारों में कोई अन्‍तराल न था। मुझे चेतना की कोई अनुभूति नहीं थी। मैं केवल अपने विचारों को ही जानती थी। परंतु इस अनुभव के बाद मुझे यह समझ आने लगी कि जो मैं सोचती थी उसके अतिरिक्‍त मैं और भी बहुत कुछ हूं।
      कुछ दिनों के पश्‍चात रेचन-अवस्‍था के दौरान मुझे एक अनुभव हुआ। मुझे लगा कि मेरा  शरीर मैं नहीं हूं। मेरा शरीर एक कुबड़े का शरीर हो गया। मेरा चेहरा बदल गया। मेरा मुंह खुलकर लटक गया। और मेरी आंखें टेढ़ी हो विचित्र ढंग से देखने लगी। मेरा पूरा बायां हिस्‍सा निष्‍प्राण सा होने लगा और मुख से विचित्र ध्‍वनियां निकलीं जैसे कि मैं बोल न पा रही होऊं। मैं एक कोने में दूबक कर बैठ गई। और लगा जैसे कि मुझे ग़लत समझा जा रहा है। लेकिन सबसे प्रबल अनुभूति प्रेम की थी। प्रेम की इस अनुभूति ने इस जीव को जिसे मैं अपना शरीर समझती थी। चारों और से घेर लिया। मुझे लगा मैं पुरूष हूं। और वह विकृत कुरूप पुरूष अनूठे प्रेम, मधुरता और मृदुता से भर गया है। इतना सुन्‍दर, इतना ह्रदय-स्‍पर्शी अनुभव था वह। उसके लिए मुझे किसी व्‍याख्‍या की आवश्‍यकता नहीं थी। क्‍योंकि एक बार फिर मैंने अनुभव किया कि मैं पृथक हूं। जैसे कि मात्र एक दर्शक हूं। मुझे कोई भय नहीं था। क्‍योंकि यह सब कुछ मुझे आश्‍चर्यजनक रूप से स्‍वाभाविक लगा था। फिर भी कई वर्षों तक मैंने किसी से इसका उल्‍लेख नहीं किया। भय था कि कहीं लोग मुझे पागल न समझ लें।     
      तीसरा चरण है—दोनों भुजाओं को हवा में उठाए, ऊंचे स्‍वर में हूं’! ‘हूं’! की आवाज करते हुए दस मिनट तक ऊपर नीचे कूदने का। फिर स्‍टॉप की आवाज़ आती है। और आपको उसी अवस्‍था में रूक जाना है। जिस अवस्‍था में आप होते है। चौथे चरण में ध्‍यान स्‍वत: घटित होता है। कुछ करना नहीं होता। अंतिम चरण में नृत्‍य का और उत्‍सव का, एक आनंद भाव से नृत्‍य में डूब जाना है।
      मेरे साथ कुछ ऐसा घटा कि ध्‍यान करने से मुझे केवल आनंद ही प्राप्‍त नहीं हुआ, बल्‍कि निरंतर यह बोध बढ़ने लगा कि मैंने जो कुछ जाना था, वह मेरे लिए अर्थहीन होता जा रहा है। एक समय था जब मैं नाइट-क्‍लब और पार्टियों में जाने के विचार मात्र से रोमांचित हो जाती थी। और अब मुझे ऐसा महसूस होने लगा कि सब चेहरे जिनके लिए मैं सजती-संवरती थी। वे खोखले है। मुर्दा है। यहां तक कि सर्वाधिक धनी लोगों के पास भी कुछ नहीं है, वे निर्धन है। मेरे बुद्धि शील मित्र परस्‍पर बड़ी-बड़ी परिचर्चाएं करते हुए बातें किसी से करते है और उनकी नज़रे कहीं होती है।  एक बार एक मित्र से उसकी आर्ट गैलरी के उद्घाटन के समय वार्तालाप करते हुए मैंने देखा कि वह वहां था ही नहीं। उन आंखों के पीछे घर में कोई नहीं था। उसका इस और भी ध्‍यान नहीं गया कि मैं कब बोलते-बोलते बीच में रुककर विस्‍मित हो उसकी और देखने लगी थी।
      सब कुछ झूठ लगने लगा। मैंने ओशो को पत्रों पर पत्र लिखे, यह पूछने के लिए कि कुछ भी वास्‍तविक क्‍यों नही है? सौभाग्‍य से मुझमें इतनी अक्‍ल तो बची थी कि अधिकतर पत्र मैंने डाक में नहीं डाले। ये आरंम्भिक दिन थे, बड़े कठिन थे। बड़े अशांत कर देनेवाले। कारण जब मैंने अपने तथा आस पास के लोगों के जीवन पर दृष्‍टि डाली तो सब कुछ अस्‍त-व्‍यस्‍त हो गया। मैंने सचमुच कुछ ऐसी बातें देखीं जो भयभीत कर देने वाली थी। अत: पहले कुछ महीनों में ध्‍यान करते समय मैंने पाया कि बहुत सी चीजों को मैंने पहली बार ठीक से देखा। सक्रिय ध्‍यान प्राण-ऊर्जा को जगाता है। जिससे ध्‍यान करने वाले व्‍यक्‍ति की आंखों और एक स्‍पष्‍टता आती है।
      मैं कुछ फ़ैशन छापा-चित्रकारों और उनके एक कलाकार मित्र के लिए सप्‍ताह में दो दिन सैक्रेटरी के रूप में कार्य कर रही थी। वह कलाकार मित्र हमेशा नीले रंग के कपड़े पहनता। उसकी पत्‍नी और उसका बच्‍चा भी नीले रंग के कपड़े पहनते। उसका घर, घर का कालीन, फर्नीचर, दीवारें, दीवारों पर लगे चित्र, सब नीले थे। जब में केवल गैरिक वस्‍त्र पहनने लगी तो उसे लगा की मैं पागल हो गई हूं। उसने फोटो ग्राफ़र मित्रों को फ़ोन किया,और मेरे बारे में चर्चा की और कहा कि वे इस बात से बहुत चिन्‍तित है कि मैं पागल हो गई हूं, क्‍योंकि मैं ध्‍यान करने लगी हूं। उन्‍होंने मुझसे यह भी कहा कि जितने लोगों को वे जानते है, उनमें से मैं ही एक ऐसी हूं जिसे ध्‍यान करने की कोई आवश्‍यकता नहीं। तुम तो सदा इतनी प्रसन्‍न व शांत रहती हो; उन्‍होंने कहा।
      दो दूसरे मित्र मुझे एक और ले जाकर बहुत गम्‍भीर चेहरे बनाकर पूछने लगे कि क्‍या में कोई तेज़ नशा कर रही हूं।
      नहीं, मैं ध्‍यान कर रही हूं। मैंने उत्‍तर दिया। मैं एक अभिनेता के लिए भी सप्‍ताह में एक दिन काम करती थी। वह मुझे निजी सहायिका कहता था। वास्‍तव में अधिक समय मैं केवल उसे सुनती थी। जो वह बोलता था। वह एक बहुत ही सुंदर तथा धनी युवक था। लेकिन कभी-कभी वह शराब पीकर अपने पिंजड़ानुमा घर के फर्नीचर व खिड़कियों को अपने नंगे-ज़ख्‍मी हाथों से तोड़ता। उसका भी यही कहता था। मैं अपना जीवन ध्‍यान करके नष्‍ट कर रही हूं। और समर्थ होने पर भी वह किसी प्रकार की मेरी आर्थिक सहायता नहीं करेगा।
      मैं उस व्‍यक्‍ति से मिलने की अनिवार्यता अनुभव करने लगी जिसने इस ध्‍यान का आविष्‍कार किया था। और मेरे जीवन को इस कदर बदल दिया था। और अब मैं संन्‍यास लिये बिना एक पल भी नहीं रह सकती थी। मैंने लन्‍दन में श्‍याम सिंह से संन्‍यास लिया जो एक विद्रोही शिष्‍य था; नर रूप में सिंह, जिसकी प्रज्‍वलित पीली हरी आंखें थी। वह अद्भुत चमत्‍कारी और प्रज्ञावान व्‍यक्‍ति था, उसने मेरी बहुत सहायता की। परंतु बाद में हमारे रास्‍ते बदल गए। उसने मुझे एक काग़ज दिया जिस पर ओशो के हाथ से लिखा नाम था। धर्म चेतना। वृश्‍चिक राशि के आठवें घर में नया चन्‍द्र-ग्रहण था। और मैंने उसे शुभ शगुन माना।
      ओशो को मैंने अपना पहला पत्र लिखा। मैंने उन्‍हें लॉर्ड ऑफ़ द फुल मून—जो रजनीश का अर्थ है—से सम्‍बोधित किया। उस पत्र में मैंने उनसे कहा कि मैंने उन्‍हें द पाथ (अन्‍तिम पथ) के बारे में प्रवचन देते सुना है लेकिन मैं इतनी भटकी हुई हूं कि उस पथ पर चलने के लिए मुझे अपने पांव ही नहीं मिल रहे। उनका उत्‍तर था, आ जाओ, बस आ जाओ,पाँव या बिना पाँव के। प्रारम्‍भ में ही इतना रोमानी विनोदपूर्ण।
      मैंने भारत रवाना होने के लिए तिथि निश्‍चित कर ली। मेरे पास पैसे नहीं थे। लेकिन निश्‍चित तिथि को मैं प्रस्‍थान करने ही वाली थी। टिकट या बिना टिकट के।
      मैंने सारा सामान बाँध लिया मानों मैं कभी वापस ही नहीं आनेवाली होऊं। अपनी दोनों बिल्‍लियां गांव की एक सनकी महिला के पास छोड़ आई। उसने दो सौ बिल्‍लियां पाल रखी थी। मेरी दो बिल्‍लियों को उसने अपने बग़ीचे में अलग घर दे दिया।
      मैं अपने शीहत्‍जु कुत्‍ते द बीस्‍ट को कॉर्नवाल में अपने माता-पिता के घर ले गई। उन्‍होंने मेरी उस अधिक दिनों तक न चलने वाली सनक को पूर्ण रूप से स्‍वीकृति दे दी। और मेरी मां तो हर सुबह मेरे साथ समुंदर तट पर जाती जहां मैं सक्रिय ध्‍यान करती थी। इस छोटे से कस्बे में वह मुझे अपने साथ ले जाती थी। और खरीदारी करते हुए दुकानदारों और अपने पड़ोसियों को सगर्व कहती, हमारी सैंड्रा आजकल ध्‍यान कर रही है। लेकिन कुछ दिनों के बाद वह चिंतित हुई। कि रोज ध्‍यान करना कुछ ज्‍यादा ही हो गया है। और अपने भविष्‍यवाणी की कि या तो मैं पागल हो जाऊंगी या फिर पूरा जीवन किसी मठ में व्‍यतीत होगा। मेरी मां का सबसे बड़ा सौंदर्य उनकी निर्दोषता है। और पिता जी का उनकी विनोदप्रियता है। जब मैंने अपनी दाद,अपने भाई और बहन को अलविदा कहा तो मैं रो पड़ी। और जैसे ही गाड़ी लिस्‍कार्ड की पहाड़ी पर स्‍थित पुराने रेलवे स्‍टेशन से छूटी मैं रेलगाड़ी की खिड़की से बाहर लटक गई। मुझे लगा की मैं सदा के लिए जा रही हूं। और उनमें से किसी को दोबारा मिल न पाऊंगी। लॉरेंस मुझे छोड़ने लन्‍दन हवाई अड्डे पर आया जहां से मैं अपने आन्‍तरिक जीवन की साहसिक यात्रा पर जा रही थी। वह हॉलीवुड से न्‍यू गिनी की जंगली आदिवासी जातियों के बीच जोखिम भरी बाह्म यात्रा शुरू करने वाला था। हमें मालूम नहीं था हम फिर कब मिलेंगे, आंसुओं के बीच से मैंने पूछा, तुम्‍हें लगता है कि मैं वहां योग सीख पाऊंगी। उसने अपनी बांहें मेरे गले में डाली ओर कहा, क्‍यों नहीं, मुझे पूरा विश्‍वास है कि तुम वहां बहुत कुछ सीख पाओगी।
      मैंने लगभग छह महीने प्रतिदिन  सन्‍ध्‍या के समय सक्रिय ध्‍यान किया। मैं ध्‍यान केंद्र से इस तरह आनन्‍द विभोर बाहर निकलती जैसे मैंने कोई नशा किया हो। बेल स्‍ट्रीट लन्‍दन के सबसे खराब इलाके में है। यह हैरोरो से कुछ हटकर फ्लाई ओवर के नीचे है। यहां ट्रक और भारी वाहन लगातार चलते रहते है। यह पैडिंग्‍टन रेलवे स्‍टेशन के समीप है। इसके आसपास लाल ईंटों से बनी पुरानी वह भद्दी इमारतें है। मैं वाहनों की निष्ठुर अराजकता के धुँधलके में आ पहुँचती। और चारों और दृष्‍टि दौड़ाती हुई कहती, कितना सुंदर है, यह सब। साथ ही मेरे जीवन में यह पहला अवसर था जब मैं किसी कार्य के लिए समय पर पहुंच पाती। हर सायं ठीक छह बजे मैं पैडिंग्‍टन से होकर जानेवाली बस में बैठी अपने-आप से पूछती, मुझे क्‍या हो गया है। मैं जरूर पागल हो गई हूं। यह मेरे साथ क्‍या घट रहा है? मैं अपने जीवन में कभी किसी बात के लिए इतनी वक्‍त की पाबन्‍द न रही थी। चाहे वह स्‍कूल हो, कार्य हो या प्रेम निमन्त्रण हो।...
      उन दिनों संन्‍यास के लिए तीन छोटी-छोटी बातों की प्रतिबद्धता थी। एक ओशो के चित्र वाले प्‍लास्‍टिक से बने लॉकेट वाली एक सो आठ मनकों की माला पहननी जरूरी थी। भारत वर्ष में हजारों वर्षों से पारंम्परिक संन्‍यास माला ( बिना लॉकेट के) पहनते चले आ रहे थे। उन दिनों हर समय गैरिक वस्‍त्र पहने जाते थे। पुराना नाम बदल कर एक नया संस्‍कृत नाम दिया जाता था। ताकि व्‍यक्‍ति उससे जुड़ी स्‍मृति से टूट सके। भारत में जब मैंने पहली बार पारंम्परिक संन्‍यासियों को देखा तो स्‍तब्‍ध रह गई। वे वैसे ही गैरिक वस्‍त्र और माला पहने थे। जैसे मैंने पहनी थी। मैं समझ सकती थी कि किसी पाश्‍चात्‍य व्‍यक्‍ति (विशेषकर स्‍त्री) को उनके साधु महात्‍मा ओर के परिधान में देखकर किसी भारतीय को कितना आघात पहुंचता होगा। परम्‍परागत संन्‍यासी ने संसार का त्‍याग कर दिया है। और वह प्रात: कोई वृद्ध पुरूष होते है। स्‍त्री तो वह निश्‍चित रूप से नहीं होती। और कभी-कभी स्‍त्री के संग नहीं होता। अब (इस पुस्तक को लिखते समय) हम इस रंग के वस्‍त्र नहीं पहनते। शायद उनका प्रयोजन पूरा हो गया है।
      गैरिक वस्‍त्र पहनना मेरे लिए सहज स्‍वाभाविक रूप से घटित हो गया। क्‍योंकि गैरिक ऐसा कुछ आभास नहीं हुआ कि यह कोई नियम है। माला पहनना मेरे लिए अनिवार्य हो गया था। कारण मुझे निरन्‍तर ऐसा लग रहा था जैसे मेरा कुछ खो गया है। ध्‍यान शुरू करने के कुछ समय पश्‍चात ही ऐसा होने लगा था। मैं हांफने लगती ओर वक्षस्‍थल पर कुछ पकड़ने की चेष्‍टा करती, जैसे कि मैंने अपने गले का हार खो दिया हो। ऐसा किसी भी समय कहीं भी घटने लगा, मैं बहुत लज्‍जित अनुभव करती। अन्ततः मैंने सोचा, कुछ भी हो मुझे यह माला प्राप्‍त करनी है।
      वे संन्‍यासी जो मुझे केन्‍द्र में मिले उनका व्‍यक्‍तित्‍व मुझे प्रभावित नहीं कर सका। उदाहरणार्थ मुझे आजा तक कोई ऐसी स्‍त्री नहीं मिली जिसने सौन्‍दर्य प्रसाधनों का प्रयोग न किया हो। परन्‍तु यहां ऐसी स्‍त्रियां थी। जिनके चेहरे जर्द, और चमड़ी कोमल वे गोरी ओर लम्‍बे बिखरे बाल किसी प्रकार के केशविन्‍यास के थे। और पुरूष मुझे अत्‍यन्‍त स्‍त्रैण लगे। वे लोग ऐसे नहीं थे जिन्‍हें में अपने घर आमन्‍त्रित करना चाहूं और अपने मित्रों से परिचित कराऊं। फिर भी अनजाने मे मैं उनकी और आकृष्‍ट हो रही थी। और अपने मित्रों के साथ दावतों पर न जाकर मैं अपना अधिकाधिक समय ध्‍यान केन्‍द्र में बिताने लगी।
      वहां एक महिला थी जिसे मैं प्रत्‍येक रात्रि उस सफेद गोलाकार सुरंग में बैठे  जातीय नमूने का एक बहुरंगी स्‍कार्फ बुनते देखती। वह संन्‍यासिन नहीं थी। और जो कुछ मैंने सुना उससे मालूम हुआ कि उसका युवा अति आकर्षक चेहरा, अफगानी वस्‍त्रों तथा तिब्‍बती बूटों में उसकी अभिरूचि इस तथ्‍य को छुपाए हुई थी। कि वह एक सफल व्‍यवसायी महिला थी। एक वकील थी। उसका नाम था सू एप्‍पलटन जो कि शीध्र ही बदलकर आनन्‍दो हो गया। तब मुझे क्या मालूम था कि आनेवाला समय में हमारे जीवन भी रंगीन धागों की बुनाई की तरह परस्‍पर गूँथ जाएंगे।

मा प्रेम शुन्‍यो

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