असंभव क्रांति-(ओशो)
साधना-शिविर माथेरान, दिनांक १८-१०-६७ रात्रि
(अति-प्राचिन प्रवचन)
प्रवचन-पहला-(सत्य का द्वार)
मेरे
प्रिय आत्मन्,
एक
सम्राट एक दिन सुबह अपने बगीचे में निकला। निकलते ही उसके पैर में कांटा गड़ गया।
बहुत पीड़ा उसे हुई। और उसने सारे साम्राज्य में जितने भी विचारशील लोग थे, उन्हें
राजधानी आमंत्रित किया। और उन लोगों से कहा, ऐसी कोई आयोजना
करो कि मेरे पैर में कांटा न गड़ पाए।
वे
विचारशील लोग हजारों की संख्या में महीनों तक विचार करते रहे और अंततः उन्होंने यह
निर्णय किया कि सारी पृथ्वी को चमड़े से ढांक दिया जाए, ताकि
सम्राट के पैर में कांटा न गड़े। यह खबर पूरे राज्य में फैल गई। किसान घबड़ा उठे।
अगर सारी जमीन चमड़े से ढंक दी गई तो अनाज कैसे पैदा होगा? सारे
लोग घबड़ा उठे--राजा के पैर में कांटा न गड़े, कहीं इसके पहले
सारी मनुष्य जाति की हत्या तो नहीं कर दी जाएगी? क्योंकि
सारी जमीन ढंक जाएगी तो जीवन असंभव हो जाएगा।
लाखों
लोगों ने राजमहल के द्वार पर प्रार्थना की और राजा को कहा, ऐसा न
करें कोई और उपाय खोजें। विद्वान थे, बुलाए गए और उन्होंने
कहा, तब दूसरा उपाय यह है कि पृथ्वी से सारी धूल अलग कर दी
जाए, कांटे अलग कर दिए जाएं, ताकि आपको
कोई तकलीफ न हो।
कांटों
की सफाई का आयोजन हुआ। लाखों मजदूर राजधानी के आसपास झाडुएं लेकर रास्तों को, पथों को,
खेतों को कांटों से मुक्त करने लगे। धूल के बवंडर उठे, आकाश धूल से भर गया। लाखों लोग सफाई कर रहे थे। एक भी कांटे को पृथ्वी पर
बचने नहीं देना था, धूल नहीं बचने देनी थी, ताकि राजा को कोई तकलीफ न हो, उसके कपड़े भी खराब न
हों, कांटे भी न गड़ें। हजारों लोग बीमार पड़ गए, इतनी धूल उड़ी। कुछ लोग बेहोश हो गए, क्योंकि चौबीस
घंटा, अखंड धूल उड़ाने का क्रम चलता था। धूल वापस बैठ जाती थी,
इसलिए क्रम बंद भी नहीं किया जा सकता था।
सारी
प्रजा में घबड़ाहट फैल गई। लोगों ने राजा से प्रार्थना की यह क्या पागलपन हो रहा
है। इतनी धूल उठा दी गई है कि हमारा जीना दूभर हो गया, सांस लेना
मुश्किल है। कृपा करके ये धूल के बादल वापस बिठाए जाएं। कोई और रास्ता खोजा जाए।
फिर
हजारों मजदूरों को कहा गया कि वे जाकर पानी भरें और सारी पृथ्वी को सीचें। नदी और
तालाब सूख गए। लाखों भिश्तियों ने सारी राजधानी को, राजधानी के आसपास की भूमि
को पानी से सींचा। कीचड़ मच गई, गरीबों के झोपड़े बह गए। बहुत
मुसीबत खड़ी हो गई। फिर राजा से प्रार्थना की गई कि यह क्या हो रहा है--क्या आप
हमें जीने न देंगे? क्या आपके पैर में एक कांटा लगता है तो
हम सबका जीवन मुश्किल हो जाएगा? कोई और सरल रास्ता खोजें।
और
तभी एक बूढ़े आदमी ने आकर राजा को कहा, मैं यह जूता आपके लिए बना लाया हूं,
इसे पहन लें, कांटा फिर आपको न गड़ेगा और हमारा
जीवन भी बच जाएगा।
राजा
हैरान हुआ। इतना सरल उपाय भी हो सकता था क्या? पैर ढंके देखकर वह चकित हो गया।
क्या कोई इतना बुद्धिमान मनुष्य भी था जिसने इतनी सरलता से बात हल कर दी, जिसे लाखों विद्वान हल न कर सके! करोड़ों रुपया खर्च हुआ, हजारों लोग परेशान हुए--इतनी सरल बात थी।
और
सारे पंडित, सारे विद्वान क्रोध औरर् ईष्या से भर गए--यह बूढ़ा आदमी खतरनाक था। इस सब
के प्रति, इस बूढ़े आदमी के प्रति, उन
सबके मन में तीव्र रोष भर गया। उन्होंने कहा, जरूर इस आदमी
को शैतान ने ही सहायता दी होगी। क्योंकि हम इतने विचारशील लोग नहीं खोज पाए जो बात,
इसने खोज ली है! जरूर इसमें कोई खतरा है।
राजा
को उन्होंने समझाया। यह जूता खतरनाक सिद्ध होगा, शैतान का हाथ इसमें होना
चाहिए। क्योंकि हमारी सारी बुद्धिमत्ता जो नहीं खोज सकी, यह
बूढ़ा आदमी कैसे खोज लेगा? राजा को उन्होंने भड़काया, समझाया। राजा भयभीत हो गया। उस बूढ़े आदमी को सूली दे दी गई। वह पहला
समझदार आदमी सूली पर चढ़ा। और उसके बाद जितने लोगों ने यह सलाह दी है कि कृपा करें,
पृथ्वी को परेशान न करें, अपने पैर ढंक लें,
उन सभी को सूली दी जाती रही है।
शायद
इसीलिए वह पहला क्रांतिकारी व्यक्ति जिसने जूते की ईजाद की थी, उसके वंशज
आज भी अपमानित हैं--आज भी चमार का कोई आदर नहीं है। शायद पंडितों का ही हाथ होगा
इसमें।
इस
कहानी से इन तीन दिनों की चर्चा को मैं शुरू करना चाहता हूं। इस वजह से कि सारी
दुनिया में सभी मनुष्यों का एक ही प्रश्न है--दुख के कांटे जीवन को पीड़ित किए रहते
हैं। अशांति के कांटे,
चिंता के कांटे, अज्ञान और अंधकार के कांटे
गड़ते हैं और कोई उपाय समझ में नहीं आता कि इनसे कैसे बचा जाए। और सभी लोग
बुद्धिमानों की, तथाकथित बुद्धिमानों की सलाह मानकर सारी
पृथ्वी को ढंकने की आयोजना में लग जाते हैं--अपने को छोड़कर, अपने
को भूलकर! अपने पैर को ढंकने की सीधी सी युक्ति किसी की भी समझ में नहीं आती।
इतनी
सीधी युक्ति है,
लेकिन इस जमीन पर दस-पांच ही ऐसे लोग हुए हैं, जिन्होंने अपने पैर ढंके हों। अधिक लोग पृथ्वी को ही बदलने की कोशिश करते
रहे हैं। और ये अधिक लोग, जितनी इन्होंने कोशिश की है,
जमीन को ढंक देने की, धूल-कांटों से अलग कर
देने की, उतनी ही जमीन मुश्किल में पड़ती चली गई। इन सभी
सुधारकों के कारण ही मनुष्य जाति इतनी पीड़ाओं में उलझ गई है कि आज कोई छुटकारा भी
दिखाई नहीं पड़ता है।
लेकिन
एक सीधी सी बात थी कि हर आदमी अपने पैर ढंक ले और कांटों से मुक्त हो जाए। लेकिन
यह सीधी सी बात--आश्चर्य ही है कि मुश्किल से ही कभी किसी को दिखाई पड़ती है। इस
सीधी सी बात को ही इन तीन दिनों में समझाने की आपको कोशिश करूंगा। नाराज आप जरूर
होंगे मन में क्योंकि सीधी बात किसी को समझाई जाए तो नाराजगी होती है। इतनी सीधी
बात को भी समझाने की कोशिश करने से गुस्सा आता है। ऐसा लगता है कि क्या आप हमें
इतना नासमझ समझते हैं कि इस सीधी सी बात को हमें समझाएं।
लेकिन
क्षमा मैं बाद में मांग लूंगा, बात तो यही मुझे समझानी है। क्योंकि यही
एकमात्र कष्ट है मनुष्य के सामने। कांटे उसे चुभते हैं, लेकिन
पैर को जूते से ढंकने का खयाल नहीं आता है। सब तरफ दृष्टि जाती है, हजारों उपाय सूझते हैं जीवन को शांत कर लेने के--एक उपाय भर नहीं सूझता है,
अपने को बदल लेने का, अपने को ढंक लेने का। और
सब योजना चलती है--सुख की और आनंद की। खोज की सब दिशाएं खोज ली जाती हैं, सिर्फ एक दिशा अनछुई रह जाती है--वह है स्वयं की दिशा। जैसे स्वयं को हम
देखते ही नहीं और सबको देखते रहते हैं।
तो
यहां इन तीन दिनों में इस सीधी सी बात पर थोड़ा सा हम विचार करेंगे कि क्या स्वयं
को भी देखा जा सकता है?
क्या यह संभव नहीं है कि हम अपने को बदल लें? क्या
यह संभव नहीं है कि हमारी दृष्टि स्वयं के परिवर्तन और चिकित्सा पर चली जाए?
क्या यह नहीं हो सकता है कि हम अपने को ढंक लें और दुखों और पीड़ाओं
से मुक्त हो जाएं। क्या उस राजा को जो समझदार लोगों ने सलाहें दी थीं, वे ही हम भी मानते रहेंगे? क्या उस बूढ़े और सीधे
आदमी की बात हमारे खयाल में भी नहीं आएगी?
इसी
संबंध में थोड़ी सी बातें इन तीन दिनों मैं आपसे कहूंगा। इसके पहले कि वे तीन दिनों
की चर्चाएं शुरू हों,
कुछ और थोड़ी सी प्राथमिक बातें आज ही मुझे कह देनी हैं। क्योंकि आज
रात से जो तीन दिन का जीवन शुरू होगा उसे मैं चाहूंगा--आपका मन भी चाहता होगा,
इसीलिए आप यहां आए हैं--कि वे तीन दिन उपलब्धि के दिन हो जाएं। उन
तीनों दिनों में कोई झलक, कोई किरण जीवन के अंधेरे को आलोकित
कर दे। उन तीन दिनों में कोई मार्ग सूझ जाए। उलझाव के बाहर निकलने की कोई दिशा
खयाल में आ जाए। वह खयाल में लेकिन अकेली मेरी कोशिश से नहीं आ सकती है। मेरी
अकेली कोशिश और आपका सहयोग न हो तो फिर मैं आपके सामने नहीं, दीवालों के सामने बोल रहा हूं। आपके सहयोग से ही आप दीवाल नहीं रह जाते,
सचेतन व्यक्ति बन जाते हैं।
एक
फकीर हिंदुस्तान से चीन गया था, कोई चौदह सौ वर्ष पहले। बड़ा प्यारा आदमी रहा
होगा। अगर वह यहां मेरी जगह होता तो आपकी तरफ मुंह करके न बोलता, वह आपकी तरफ पीठ करके बोलता। वह जब भी किसी से बोलता तो पीठ उसकी तरफ करता
था और मुंह दीवाल की तरफ। लोग हैरान थे। चीन का सम्राट उससे मिलने आया और जब उसने
पीठ की और दीवाल की तरफ मुंह करके बात करने लगा तो उसने कहा, यह क्या पागलपन है! आप मुझसे बात करते हैं, और दीवाल
की तरफ मुंह किए हैं। उस फकीर ने कहा, अब तक मुझे ऐसा आदमी
नहीं मिला, जो दीवाल न हो। कोई सहयोग ही नहीं करता तो उससे
बोलने का प्रयोजन भी क्या है! सिर्फ भ्रम होता है कि हम बोल रहे हैं। सुनने वाला
मौजूद ही नहीं होता है।
तो
तीन दिनों में आप किस भांति सहयोग कर सकेंगे, उस संबंध में कुछ तीन सूत्र आज
मुझे आपसे कह देने हैं। उन तीन सूत्रों के आधार पर ही आपका सहयोग, आपका को-आपरेशन मिल सकता है, और मैं जो कहना चाहता
हूं--मैं तो उसे कहूंगा ही, लेकिन आपका सहयोग होगा तो आप भी
उसे सुन सकेंगे। अन्यथा मेरा कहना तो पूरा हो जाएगा, आपके
सुनने की भी शुरुआत नहीं होगी। इतने से ही काफी मत समझ लेना की मैंने बोला,
तो आपने सुन लिया। यह बात इतनी आसान नहीं है। आपको सुनने के लिए भी
कुछ करना होगा, जैसा कि बोलने के लिए मुझे कुछ करना पड़ता है।
आप यहां निष्क्रिय होकर, आप यहां पैसिव होकर अगर तीन दिन
बैठे रहे, जैसे आप सिनेमा देखते हैं--वैसे, तो फिर मेरी बात आपको सुनाई नहीं पड़ेगी।
जिन
सत्यों की हमें यहां चर्चा करनी है, उन सत्यों को सुनने के लिए आपको
एक्टिव-पार्टिसिपेंट, आपको सक्रिय-सहयोगी होना पड़ेगा,
अन्यथा वे बातें आप तक नहीं पहुंचेंगी। तो आप कैसे अपना सहयोग दे
सकेंगे? मैं तो बोलूंगा, लेकिन आप कैसे
सुन सकेंगे? और आप नहीं सुन सके तो कोई अर्थ मेरे श्रम का
नहीं होता है। और आप नहीं सुन सके तो शायद आप कहेंगे मैं गया, लेकिन कुछ भी नहीं हो पाया। बहुत कुछ हो सकता है। लेकिन उसमें मुझसे
ज्यादा महत्वपूर्ण आप हैं। मैं बहुत महत्वपूर्ण नहीं हूं। आप ही ज्यादा महत्वपूर्ण
हैं। और वे तीन छोटे से सूत्र हैं, जिनके अनुकूल इन तीन
दिनों अगर आपने थोड़ी तैयारी की तो जिस बात की आप कामना लेकर आए हैं, वह हो सकता है।
उनमें
पहला सूत्र है--इन तीन दिनों में इस भांति जीएं, जैसे कि पीछे अब कुछ भी
नहीं है और आगे भी कुछ नहीं।
हम
तो इस भांति जीते हैं,
जैसे इस समय कुछ भी नहीं है--जो कुछ है, पीछे
था और जो कुछ है, आगे है। वर्तमान का, प्रजेंट
का--जो मौजूद है, हमारी दृष्टि में कोई आकलन ही नहीं होता
है। और सच्चाई यह है कि वर्तमान की ही केवल सत्ता है। एक्जिस्टेंस केवल उसका ही है,
जो मौजूद है। न तो जो बीत गया उसकी कोई सत्ता है और न उसकी जो आने
को है।
लेकिन
या तो हम पीछे की तरफ देखते हुए जीते हैं, या आगे की तरफ। या तो अतीत की
चिंता हमारे मन में होती है, या भविष्य की कल्पना। लेकिन
वर्तमान का कोई बोध नहीं होता है। और वर्तमान का बोध न हो, तो
न तो आप जी सकते हैं और न सुन सकते हैं, न समझ सकते हैं--और
न सत्य को जानने का द्वार खुल सकता है।
हमारा
चित्त निरंतर की आदत के कारण या तो पीछे की स्मृतियों में खोया रहता है, जिनकी अब
कोई जगह नहीं रह गई जमीन पर, पृथ्वी पर। सत्ता में जिनके कोई
चिह्न नहीं रह गए, सिवाय हमारी मेमोरी, हमारी स्मृति को छोड़कर। और या फिर हम भविष्य की ऊहापोह में, कल्पना में, आने वाले कल के इरादे और विचारों में
खोए रहते हैं। ये दोनों ही तरह के लोग कभी भी सत्य को नहीं जान सकते हैं। क्योंकि
सत्य है वर्तमान में--इस क्षण में, अभी और यहां। और हम अभी
और यहां कभी भी नहीं होते हैं। हम कहीं पीछे या कहीं आगे होते हैं।
बुद्ध
बारह वर्षों के बाद अपने गांव वापस लौटे थे। उनके पिता बुद्ध का स्वागत करने गांव
के बाहर गए। लेकिन मन में उनके बहुत क्रोध था। बारह वर्ष पहले यह लड़का घर-द्वार
छोड़कर भाग गया था,
उसकी पीड़ा थी, दुख था। जाकर उन्होंने बुद्ध से
कहा, तू अभी भी वापस लौट आ, मेरे द्वार
खुले हैं। बहुत चोट, बहुत दुख तूने मुझे पहुंचाया है,
लेकिन आखिर मैं पिता हूं। पिता का प्रेम...मैं अपने दरवाजे बंद नहीं
कर सकता, तुझे क्षमा कर दूंगा, तू वापस
आ जा।
बुद्ध
ने क्या कहा,
पता है?
बुद्ध
ने कहा: मैं निवेदन करूंगा,
कृपा करके आप एक बार मुझे देखें, जो मैं हूं।
जो बारह साल पहले आपके घर से गया था, वह अब कहीं भी नहीं है।
मैं दूसरा ही होकर लौटा हूं। मैं बिलकुल नया हूं। और आप मुझे देख ही नहीं रहे हैं,
क्योंकि आपकी आंखों में बारह वर्ष पहले का चित्र ही मौजूद है। आप
उसी से बातें कर रहे हैं, जो बारह साल पहले था। गंगा में
बहुत पानी बह गया बारह वर्षों में, मुझमें भी बहुत पानी बह
गया बारह वर्षों में, मैं अब बिलकुल दूसरा आदमी होकर लौटा
हूं।
लेकिन
बुद्ध के पिता की आंखें तो क्रोध से भरी थीं। वे कहने लगे, मैं और
तुझे नहीं जानूंगा? मैंने जिसने तुझे पैदा किया और जन्म दिया;
मुझे तू शिक्षा देगा, मुझे तू समझाएगा?
बुद्ध ने कहा, परमात्मा करे किसी दिन आपके
खयाल में आए कि जिसको आपने पैदा किया था, वह अब कहां है। मैं
निवेदन करता हूं, एक बार मुझे देखें, जो
मैं हूं।
पता
नहीं बुद्ध के पिता देख पाए या नहीं। हम भी नहीं देख पाते हैं। हम भी पीछे-पीछे
अटके रह जाते हैं। और जिंदगी रोज बदल जाती है। जिंदगी रोज बदल जाती है, प्रतिपल
सब कुछ बदल जाता है, और हम पीछे ही उलझे रह जाते हैं। इसलिए
जीवन से हमारा संस्पर्श नहीं हो पाता। और या फिर हम आगे के ऊहापोह में और कल्पना
में खो जाते हैं।
मैंने
सुना है एक आदमी एक ट्रेन में न्यूयार्क की तरफ सफर कर रहा था। एक बीच के स्टेशन
पर एक युवक भी सवार हुआ। उस युवक के हाथ के बस्ते को देखकर लगता था वह किसी
इंश्योरेंस का एजेंट होगा। उस बूढ़े आदमी के पास वह बैठा। फिर थोड़ी देर बाद उसने
पूछा कि क्या महाशय आप बात सकेंगे आपकी घड़ी में कितना बजा हुआ है? वह बूढ़ा
थोड़ी देर चुप रहा और उसने कहा क्षमा करें, मैं न बता सकूंगा।
उस युवक ने कहा, क्या आपके पास घड़ी नहीं है। उस बूढ़े ने कहा,
घड़ी तो जरूर है, लेकिन मैं थोड़ा आगे का भी
विचार कर लेता हूं, तभी कुछ करता हूं। अभी तुम पूछोगे कितना
बजा है और मैं घड़ी में देखकर बताऊंगा कितना बजा है। हम दोनों के बीच बातचीत शुरू
हो जाएगी। फिर तुम पूछोगे, आप कहां जा रहे हैं। मैं कहूंगा,
न्यूयार्क जा रहा हूं। तुम कहोगे, मैं भी जा
रहा हूं। आप किस मोहल्ले में रहते हैं। तो मैं अपना मोहल्ला बताऊंगा। संकोचवश मुझे
कहना पड़ेगा, अगर कभी वहां आएं, तो मेरे
घर भी आना। मेरी जवान लड़की है। तुम घर आओगे, निश्चित ही उसके
प्रति आकर्षित हो जाओगे। तुम उससे कहोगे कि चित्र देखने चलती हो। वह जरूर राजी हो
जाएगी। और यह मामला यहां तक बढ़ेगा कि एक दिन मुझे विचार करना पड़ेगा कि बीमा एजेंट
से अपनी लड़की की शादी करनी है या नहीं करनी है। और मुझे बीमा एजेंट बिलकुल भी पसंद
नहीं आते। इसलिए कृपा करो, मुझसे तुम घड़ी का समय मत पूछो।
इस
आदमी पर जरूर हमें हंसी आ सकती है। लेकिन हम सब इसी तरह के आदमी हैं। हमारा चित्त
प्रतिपल वर्तमान से छिटक जाता है और, और भविष्य में उतर जाता है। और
भविष्य के संबंध में आप कुछ भी सोचें, सभी ऐसा ही फिजूल और
व्यर्थ है। क्योंकि भविष्य है नहीं। जो भी आप सोचेंगे, सभी
कल्पना, सभी इमेजिनेशन है। जो भी आप सोचेंगे, वह इसी तरह का झूठा और व्यर्थ है। जैसे इस आदमी का, इस
छोटी सी बात से कि घड़ी में कितना बजा है, इतनी लंबी यात्रा
पर कूद जाना। इसका चित्त हम सबका चित्त है।
हम
सब प्रतिपल खड़े होते नहीं वर्तमान पर और भविष्य में कूद जाते हैं, या,
या अतीत में कूद जाते हैं। लेकिन जो क्षण मौजूद होता है, उसमें हम मौजूद नहीं हो पाते। और उसकी ही सत्ता है, वही
वास्तविक है। अतीत और भविष्य इन दोनों के बंधनों में मनुष्य की चेतना वर्तमान से
अपरिचित रह जाती है। अतीत और भविष्य दोनों मनुष्य की ईजादें हैं। जगत की सत्ता में
उनका कोई भी स्थान नहीं, उनका कोई भी अस्तित्व नहीं।
भविष्य
और अतीत, पास्ट और फ्यूचर--कल्पित समय हैं, स्यूडो टाइम हैं,
वास्तविक समय नहीं। वास्तविक समय, रियल टाइम
तो केवल वर्तमान का क्षण है। वर्तमान के इस क्षण में जो जीता है, वह सत्य तक पहुंच सकता है, क्योंकि वर्तमान का क्षण
ही द्वार है। लेकिन जो अतीत और भविष्य में भटकता है, वह सपने
देख सकता है, स्मृतियों में खो सकता है। लेकिन सत्य, सत्य से उसका साक्षात कभी भी संभव नहीं है।
इन
तीन दिनों में ऐसे जीएं कि जो क्षण आपके पास है, बस वही है। दूसरा क्षण
मनुष्य के हाथ में होता भी नहीं। एक ही क्षण होता है, दो
क्षण नहीं होते। और उस एक क्षण को हम गंवा दें--बीते हुए क्षणों के लिए या आने
वाले क्षणों के लिए, तो बड़ी भूल हो जाती है। एक छोटा सा क्षण
मिलता है मनुष्य को, उससे ज्यादा नहीं। उस छोटे से क्षण को
जीने की कला ही धर्म में प्रवेश की कला है, वही है आर्ट।
आज
रात से ऐसा जीएं कि जो क्षण है, वही है। जो काम आप कर रहे हैं, वही कर रहे हैं। यहां सुन रहे हैं तो सिर्फ सुन रहे हैं। इस सुनने में फिर
और कुछ भी नहीं।
मैं
बोल रहा हूं--उस वक्त अगर आप सोचने लगें, यही गीता में भी लिखा है, तो आप पीछे चले गए। कभी आपने पढ़ा होगा, उससे आप
मेल-जोल बिठालने लगे--मैं जो कहता था, उसका आपसे संबंध टूट
गया। अगर मैं कुछ कह रहा हूं--और आप सोचने लगे कि अगर मैं ऐसा करूं या सोचूं,
तो कहीं ऐसा तो न हो कि मुझे घर-द्वार छोड़ देना पड़े--आप भविष्य में
चले गए। आप समय बताने की जगह लड़की के विवाह का चिंतन करने लगे। क्या होगा मेरी बात
से अगर यह सोचने लगे तो आप आगे चले गए। या पुरानी बातों से मेल करने लगे तो पीछे
चले गए। और वंचित हो गए उस बात को सुनने से, जो मैं आपसे
कहता था।
जो
मैं आपसे कह रहा हूं अगर उसे ही सुनना है तो उस सुनने के क्षण में फिर और कहीं आप
नहीं होना चाहिए। लेकिन यह केवल सुनने के लिए नहीं हो सकता। यह तो तभी हो सकता है, जब हम
चौबीस घंटे ऐसा जीएं--जब आप पानी पी रहे हों तो सिर्फ पानी पीएं, और भोजन करते हों तो सिर्फ भोजन, और रास्ते पर चलते
हों तो सिर्फ रास्ते पर चलें। और उस क्षण को ही समझ लें--कि इसके आगे कुछ नहीं और
पीछे कुछ नहीं--यही है और इसी में मुझे पूरी तरह मौजूद होना है।
यह
तो पहला ध्यान रखने का है,
इन तीन दिनों में। कठिन नहीं है, खयाल में आ
जाएगा तो बहुत सरल है। कठिन तो वह है जो आप कर रहे हैं। जो मैं कह रहा हूं वह तो
बहुत सरल है। लेकिन अपने पैर पर जूता चढ़ाने जैसी सरल बात भी मुश्किल से खयाल में
आती है। कठिन वह है जो आप कर रहे हैं। जिस ढंग से आप जी रहे हैं वह जीना एकदम कठिन
है। आश्चर्य है कि हम जीए चले जा रहे हैं। जो मैं कह रहा हूं वह बहुत सरल है।
यहां
से लौटते वक्त उसका प्रयोग करते लौटें। और कम से कम तीन दिन तो कोशिश करें। हो
सकता है, तीन दिन में उसकी सच्चाई दिखाई पड़ जाए। और फिर जिसकी सच्चाई हमें दिखाई पड़
जाती है, उससे इस जीवन में अलग होना कठिन है। तीन दिन के लिए
हिम्मत करें--पीछे को छोड़ दें।
छूट
गया है अतीत आपसे--आप व्यर्थ ही उसे पकड़े हैं। कहां है वह? कल का दिन
अब कहां है? बीता क्षण अब कहां है? जो
गया, वह जा चुका। जो अभी नहीं आया, वह
नहीं आया। जो है, बस वही है।
तीन
दिन देखें। एक-एक पल जीकर देखें। आगे-पीछे नहीं--मौजूद में, प्रजेंट
में, वर्तमान में। सुबह उठें--तो ऐसे ही बस यही है--दोपहर
यही है, सांझ यही है। जो क्षण सामने आए उसको इस तरह लें,
जैसे इसके आगे-पीछे और कुछ भी नहीं है। बहुत हैरान हो जाएंगे। इस
खयाल से जीने की गति और ही हो जाती है। एक बहुत अदभुत शांति, क्षण में जीने से शुरू होती है।
आदमी
कभी शांत नहीं है।
सुनते
हैं, एक बार सिर्फ सारी मनुष्य जाति शांत हो गई थी, एक
क्षण को। कोई बहुत होशियार आदमी ने तरकीब निकाली थी, तब कहीं
यह हो पाया था। लेकिन यह बहुत पुरानी घटना है, आपमें से किसी
को भी याद नहीं होगी। किसी किताब में नहीं लिखी गई, क्योंकि
किताबें बहुत बाद में लिखी गईं। यह उसके पहले की घटना है। और शायद आपने सुनी भी न
होगी, क्योंकि बहुत ही मुश्किल से किसी को यह पता है।
एक
बार एक समझदार आदमी ने,
एक तरकीब निकाली थी कि सारी मनुष्य जाति को शांत रहने का अनुभव करा
दे। उसने यह अफवाह उड़ाई, सारी दुनिया में कि चांद पर भी लोग
रहते हैं। अगर हम सारे लोग बहुत ताकत से चिल्लाएं तो शायद वे सुन लें। तो सारी
पृथ्वी पर एक खास नियत दिन, खास समय पर सारे लोग जोर से
"हो, हो, हो...' की आवाज करके चिल्लाएंगे। यह अफवाह उड़ा दी।
सारी
दुनिया में बड़ी उत्सुकता से उस दिन की प्रतीक्षा की गई। वह क्षण आ गया, वह घड़ी आ
गई, वह पल करीब आने लगा। सारी दुनिया के लोग, बच्चों से बूढ़ों तक तैयार थे, क्योंकि सारे लोग
चिल्लाएंगे तो ही शायद चांद तक रहने वाले लोगों तक आवाज पहुंच सके। और उनसे संबंध
पैदा करना था।
ठीक
क्षण भी आ गया,
लेकिन कोई भी नहीं चिल्लाया। क्योंकि हर एक सोचता था कि मैं चुप रह
जाऊं तो इतनी बड़ी आवाज सुनने का मौका फिर दोबारा आने वाला नहीं है। सब
चिल्लाएंगे--कितनी अदभुत आवाज होगी मैं सुन लूं। और एक के न चिल्लाने से क्या फर्क
पड़ेगा। दुनिया में कोई भी नहीं चिल्लाया। और वह एक क्षण टोटल साइलेंस का क्षण था,
क्योंकि सभी प्रतीक्षा कर रहे थे। कोई भी पीछे के खयाल में नहीं था,
आगे के खयाल में नहीं था। इसी वक्त एक घटना घट रही थी कि सारी
दुनिया में सारे लोग चिल्लाएंगे "हो, हो, हो...'--और इस आवाज को हम सुन लें।
उस
क्षण--उस अदभुत होशियार आदमी ने बड़ी तरकीब का काम किया था। फिर बहुत समय से ऐसा
कोई काम नहीं हुआ। और आदमी की जिंदगी में कोई शांति का क्षण नहीं। उस वक्त सारे
लोग हैरान रह गए थे। उस पल के बीत जाने पर लोगों को पता चला था, कितनी
गहरी शांति संभव है। क्योंकि उस क्षण कोई पास्ट नहीं था, कोई
फ्यूचर नहीं था। एक उसी पल में घटना घटने वाली थी। जरा चूक गए तो चूक गए। तो सारे
लोग सचेत, और प्रत्येक आदमी ने सोचा था मैं सुन लूं। सुना
सबने--आवाज नहीं सुनी, शांति सुनी। आवाज तो हुई ही नहीं।
लेकिन साइलेंस सुनी।
देखें
कल से, एक-एक पल में थोड़ा खड़े होकर। हो सकता है वह शांति आप भी सुन सकें। और वह
सुन लें तो आपकी जिंदगी दूसरी हो जाती है।
तो
अगर आप नहीं मानेंगे इस तरह तो हो सकता है मैं भी किसी दिन अफवाह उड़ाऊं और फिर इस
तरह की कोशिश करूं। लेकिन बड़ा कठिन है, आजकल आदमी बहुत समझदार हो गया है।
पुराने दिन की बात है, लोग राजी हो गए होंगे चिल्लाने को। अब
तो शायद ही कोई चिल्लाने को राजी भी हो। और राजी भी हो जाए तो भी शायद शोरगुल
सुनने के लिए कोई न रुके, क्योंकि वैसे ही बहुत शोरगुल हो
रहा है। और अब उस शोरगुल से भी कोई फर्क न पड़ेगा।
यह
तो पहला सूत्र है: पल-पल,
मूमेंट टु मूमेंट जीने का।
दूसरा
सूत्र। हम निरंतर एक अजीब बीमारी से ग्रसित हैं, और वह बीमारी है अत्याधिक
व्यस्त होने की, आक्युपाइड होने की। हर आदमी ऐसा लग रहा है,
जैसे बहुत भारी काम में उलझा हुआ है। शायद काम कुछ भी नहीं है,
लेकिन आदत अत्याधिक काम में उलझे होने की हमने खड़ी कर ली है। हर
आदमी भाग रहा है, दौड़ रहा है और इस भांति संलग्न है, जैसे सारे जगत का भार उसके ऊपर है। इतना व्यस्त मालूम हो रहा है। और यह
व्यस्तता, यह जो आक्युपाइड माइंड है--यह दिन-रात व्यस्त होना
इसके कारण चित्त निरंतर क्षीण होता चला जाता है। विश्राम का कोई भी क्षण न होने से
चित्त दुर्बल हो जाता है। और दुर्बल चित्त सत्य को नहीं जान सकता है। सत्य को
जानने के लिए शक्ति से परिपूर्ण, बहता हुआ, भरा हुआ चित्त चाहिए। और ऐसा चित्त तभी हो सकता है, जब
आप अव्यस्त होने की थोड़ी सामर्थ्य पैदा कर लें।
इन
तीन दिनों में इस दूसरे सूत्र पर थोड़ा काम करना है। इन तीन दिनों यहां इस भांति
जीएं जैसे आप कोई काम नहीं कर रहे हैं, विश्राम कर रहे हैं।
कभी
आपने देखा आकाश में सांझ को, चीलें आकाश से उतरती हैं, तब उनको देखा। वे परों को फैलाकर अत्यंत विश्राम में हवा पर डोलती हुई
धीरे-धीरे उतरती आती हैं। कभी खयाल किया? कभी चीलों के पर
देखे तुले हुए--न तो पंख हिल रहे हैं, न वे हवाओं में तैरने
की कोशिश कर रही हैं, उन्होंने सिर्फ पंख छोड़ दिए हैं और
हवाओं पर सवार हो गई हैं, हवाएं उन्हें धीर-धीरे नीचे उतारती
ला रही हैं।
सारी
प्रकृति इसी भांति विश्राम में जी रही है, सिर्फ मनुष्य को छोड़कर। मनुष्य अति
तनाव में है। और उसे खयाल भी नहीं है कि इतना तना हुआ होना, इतना
व्यस्त, इतना उलझा हुआ होना ही उसे वंचित कर रहा है किसी
सत्य को, किसी आनंद को जानने से।
तो
इन तीन दिनों में अत्यंत शांत और अव्यस्त--जैसे आप कोई काम नहीं कर रहे हैं, विश्राम
कर रहे हैं। इन तीन दिनों को सब भांति आध्यात्मिक छुट्टी के दिन बना लें, स्प्रीचुअल हाली-डे समझ लें। साधारणतः छुट्टी हम मनाते हैं, वह भी शरीर की छुट्टी होती है, मन की छुट्टी नहीं
होती। इन तीन दिनों में मन को भी छुट्टी दे दें। इस भांति जीएं, जैसे कोई भी काम नहीं है। और यहां क्या काम है? आप
बिलकुल बिना काम हैं यहां। और इन ती दिनों को बिलकुल ही ऐसे गुजार देना है,
जैसे कोई सो कर, विश्राम करके गुजार देता है।
तो
इन दिनों में आप पाएंगे आपका मन एक नई ताजगी, ऊर्जा और शक्ति से भर गया। और यह
शक्ति बहुत जरूरी है। इस शक्ति के बिना कोई रास्ता नहीं है कि आप तय कर सकें।
लेकिन अव्यस्त होना जरूरी है। कोई आक्युपाइड चित्त की दशा न हो।
लेकिन
हम तो...एक आदमी को मैं देखता था रोज सांझ वे घूमने जाते थे। लेकिन घूमने भी वे
ऐसे जाते थे,
इतनी तेजी से कि जैसे किसी युद्ध पर जा रहे हों। तो मैंने उन्हें
टोका और मैंने कहा कि आप किसी लड़ाई पर जाते हैं रोज? उन्होंने
कहा, लड़ाई पर! मैं तो घूमने जाता हूं। तो मैंने कहा, लेकिन जाते आप ऐसे हैं, इतने तने हुए, इतने खिंचे हुए, इतने परेशान, इतने
भागे हुए, जैसे कहीं पहुंचना हो। कहां पहुंचने के लिए जाते
हैं? उन्होंने कहा, पहुंचने! मैं सिर्फ
घूमने जाता हूं। लेकिन मैंने कहा, आपका मन घूमने की दशा में
नहीं होता। घूमने जाने का मतलब है ऐसे जाना, जैसे कहीं
पहुंचना नहीं है। कोई हम यात्रा थोड़े ही कर रहे हैं। यात्रा जब कोई करता है तो तना
हुआ, खिंचा हुआ--उसे कहीं पहुंचना है।
आपको
कहीं पहुंचना नहीं है। और अगर आप सम-वेअर, कहीं पहुंचने की कोशिश करेंगे तो
एक बात तय समझ लेना, वहां नहीं पहुंच सकेंगे जहां आप हैं। और
जिस दिन आप इस तरह जीएंगे, नो-वेअर, कहीं
भी नहीं पहुंचना है, उस दिन आप वहां पहुंच जाएंगे, जहां आप हैं। जहां मैं बैठा हूं, वहां पहुंचने के
लिए मुझे सब पहुंचने की जो दौड़ है चित्त से, वह छोड़ देनी
होगी।
तो
इन दिनों में ऐसी कोशिश न करें कि आप ध्यान सीख रहे हैं। आप ऐसी कोशिश न करें कि
सत्य को खोज रहे हैं। ऐसी कोशिश न करें कि परमात्मा के दर्शन करने हैं। अगर यह
कोशिश आपके भीतर रही तो आप शांत ही नहीं हो सकेंगे, दर्शन तो बहुत दूर है। आप
शांत ही नहीं हो सकेंगे, सत्य तो बहुत दूर है। आप शांत ही
नहीं हो सकेंगे, परमात्मा की यात्रा फिर नहीं हो सकती।
परमात्मा
की यात्रा बड़ी अजीब है। परमात्मा की यात्रा वही करता है--वही कर सकता है, जो सब
यात्रा छोड़ देता है। इतना शांत हो जाता है कि उसे कहीं भी नहीं पहुंचना है।
एक
फकीर था। एक पहाड़ी के किनारे चुपचाप बैठा रहता, सोया रहता। एक युवक सत्य की,
ईश्वर की खोज में पहाड़ पर गया था। उसने उस फकीर से पूछा कि आप
चुपचाप यहां क्यों बैठे हैं? ईश्वर को नहीं खोजना है?
उस फकीर ने कहा, जब तक खोजता था, तब तक नहीं मिला। फिर मैं ऊब गया और मैंने वह खोज छोड़ दी और जिस दिन मैंने
सब खोज छोड़ दी, मैं हैरान हो गया। मैं तो उसमें मौजूद ही था।
खोज रहा था, इसलिए दिखाई नहीं पड़ रहा था।
कई
बार खोजने का तनाव ही खोजने में बाधा बन जाता है। कई बार हम जिस चीज को खोजते हैं, खोजने के
कारण ही उसको नहीं उपलब्ध हो पाते हैं।
कभी
खयाल किया आपने--किसी आदमी का नाम खो गया है आपके मन में और आप खोजने को लगे हुए
हैं। खोजते हैं और परेशान हो जाते हैं, सिर ठोंक लेते हैं कि बिलकुल जबान
तक आता है, लेकिन आता नहीं। पता नहीं चलता, कहां गया, कैसे खो गया! मालूम है मुझे! यह भी मालूम है
कि मुझे मालूम है। भीतर आता है, पर न मालूम कहां अटक जाता
है। फिर आप खोज छोड़ देते हैं। फिर आप अपनी बगिया में गङ्ढा खोद रहे हैं, या अपने कुत्ते के साथ खेल रहे हैं, या अपने बच्चे
से गपशप कर रहे हैं और एकदम आप हैरान हो जाते हैं, वह नाम
मौजूद हो गया, वह आ गया है। और तब आप समझ भी नहीं पाते कि यह
कैसे आ गया।
आप
खोजते थे--खोजने के तनाव की वजह से मन अशांत हो गया। अशांत होने की वजह से उसे
रास्ता नहीं मिलता था आने का। वह अटका रह गया पीछे। आप शांत हो जाओ तो वह आ जाए।
आप अशांत हो तो वह आए कहां से, द्वार कहां मिले, रास्ता
कहां मिले?
भीतर
परमात्मा निरंतर आप तक आने की कोशिश कर रहा है। लेकिन आप? आप इतने
व्यस्त हैं कि आपकी इस व्यस्तता में बाधा देने जैसी अशिष्टता परमात्मा न करेगा। वह
आपको परेशान नहीं करेगा। जब आप शांत हो जाएं तो वह आ जाएगा। वह उन मेहमानों में से
नहीं है कि आप कुछ भी कर रहे हों और वह आ जाए। जब देखेगा कि आप तैयार हैं, तो वह तो हमेशा मौजूद है। भीतर कोई हमारे रास्ता खोज रहा है। लेकिन हम
इतने, सतह पर इतने व्यस्त हैं, इतनी
लहरों से भरे हैं कि उसे रास्ता नहीं मिलता है। कृपा करें रास्ता दें।
आपको
परमात्मा को नहीं खोजना है--परमात्मा आपको ही खोज रहा है। आप इतनी ही कृपा करें कि
रास्ता दे दें। आप बीच में न खड़े हों अपने और परमात्मा के, तो सारी
बात हल हो जाती है।
लेकिन
शायद हमें इसका खयाल नहीं है। इन तीन दिनों में इस खयाल पर थोड़ा सा ध्यान ले जाएं।
तीन दिन इस तरह जीएं कि आपको कोई भी काम नहीं है। और आश्रमों में, और संतों,
साधुओं और महात्माओं के पास आप जाते होंगे, उस
भांति मेरे पास न आएं। वे आपको काम सिखाते हैं। वे सिखाते हैं--प्रार्थना करो,
पूजा करो, नाम जपो, गीता
पढ़ो, यह करो, वह करो। बहुत जोर से करो।
जितना ज्यादा करोगे--एक हजार दफे नाम जपोगे तो, एक लाख दफे
जपोगे तो और फायदा है; एक करोड़ दफे जपोगे तो और फायदा है। एक
दफा गीता पढ़ोगे तो कम, हजार दफे पढ़ोगे तो और ज्यादा। एक
उपवास करोगे तो कम, हजार कर लोगे तो बहुत ज्यादा। वे आपको
कोई काम सिखाते हैं। वे आपको किसी काम में लगाते हैं।
मैं
आपको कोई काम सिखाने को यहां नहीं हूं। मैं तो चाहता हूं कि आप थोड़ी देर को बेकाम
हो जाएं। आपके मन में,
तन में कोई काम न रह जाए, तो शायद उस काम से
रहित चित्त की अन-आक्युपाइड स्थिति में, अव्यस्त स्थिति में
कुछ फलित हो जाए, कुछ घटित हो जाए।
तो
दूसरा सूत्र इन तीन दिनों के लिए--व्यस्तता न दिखाएं यहां। कोई फिक्र नहीं अगर
मेरी एक चर्चा में न आ पाएं, तो कोई हर्जा नहीं हुआ जाने वाला। कोई फिक्र
नहीं, अगर ध्यान को वक्त पर न पहुंच पाएं, कोई हर्जा नहीं हुआ जाने वाला। लेकिन इतनी शांति से जीएं इन तीन दिनों में
कि आप कोई काम में नहीं लगे हैं--मौज में, एक आनंद में यहां
हैं। यहां कोई साधना करने आए हैं--तो साधना की हमारी धारणा ही कुछ अजीब है। उसमें
तो जो जितना बड़ा साधक है, उतना ही तनकर और चुस्त बैठा रहता
है। उतना ही तनाव से भरा रहता है। ऐसी साधना यहां नहीं है। मैं तो साधना ही इसको
कहता हूं कि आप सब तरह से उपराम को, विश्रांति को--एकदम
चित्त के तल पर सब तरह के काम से छुटकारा पा जाएं।
तीन
दिन इस तरह का,
इस तरफ ध्यान देने का आपसे निवेदन है। और जैसे ही आप थोड़े से
विश्राम में रहना जान पाएंगे, आप हैरान हो जाएंगे। यहां इतने
दरख्त हैं, इतने पक्षी बोलते हैं, चुपचाप
उनके पास दरख्तों के पास जाकर बैठ जाएं, लेट जाएं--कुछ न
करें। तीन दिनों में ज्यादा समय कुछ न करें। और देखें कि उस न-करने से कुछ हो सकता
है क्या? अब तक जिन्होंने भी जीवन की गइराइयां जानी हैं,
वे वे ही लोग हैं, जिन्होंने किन्हीं न-करने
के क्षणों में परमात्मा से संबंध जोड़ लिया है।
लाओत्से
कहा करता था,
कुछ करना हो तो संसार की तरफ जाओ; कुछ न करना
हो तो परमात्मा की तरफ।
मैं
यह नहीं कह रहा हूं कि आप अपनी दुकानें बंद कर देंगे, नौकरियां
छोड़ देंगे, अपने काम-धंधे बंद कर देंगे, वह मैं नहीं कह रहा हूं। मैं तो सिर्फ इतना निवेदन कर रहा हूं, इन तीन दिनों में आप इस एटीटयूड में, इस दृष्टि में
जीने का थोड़ा प्रयोग करें। फिर आप पाएंगे कि बिलकुल चित्त के तल पर बिना काम रहकर
भी, बाहर के तल पर काम किया जा सकता है। और तब काम योग बन
जाता है। भीतर अकर्म हो, भीतर चित्त पर कोई भी कर्म की
भाग-दौड़ न हो, और बाहर जीवन पूरा सक्रिय हो तो जीवन योग हो
जाता है। और अकर्म हो भीतर तो कर्म बाहर अपने आप कुशल हो जाता है। दूसरा सूत्र।
और
तीसरा सूत्र,
अंतिम और वह है: सचेत होकर तीन दिन जीने की।
सचेत
होकर कभी किसी बिल्ली को चूहा पकड़ते देखा होगा। शायद खयाल न किया हो, क्योंकि
अगर हम जीवन के चारों तरफ खयाल कर लें तो छोटी-छोटी बातों में जीवन के सारे संदेश
मौजूद हैं। लेकिन बिल्ली को कौन गुरु बनाना चाहेगा? न तो
बिल्ली भगवा वस्त्र पहनती है, न टीका लगाती है, न त्याग करती है। न बिल्ली कोई तीर्थंकर है, न कोई
अवतार है।
बिल्ली
से कौन सीखने जाएगा?
लेकिन
कभी बिल्ली को देखें--चूहे को पकड़ने के लिए कितनी तत्परता से बैठी है, कितनी
सचेत। एक पत्ता हिल जाएगा, तो बिल्ली अपने पूरे प्राण-पण से
कूदने को मौजूद है। एक चूहे की जरा सी खड़खड़ाहट होगी, किसी
चूहे के बिल में थोड़ी सी आवाज होगी, किसी को पता नहीं चलेगा,
लेकिन बिल्ली--बिल्ली सचेत है और जागी हुई है।
बिल्ली
की भांति सचेत होने का जो आदमी अपने चित्त की तैयारी कर लेता है, उस आदमी
से सत्य बचकर नहीं निकल सकता। बिल्ली से चूहा बचकर निकल भी जाए, लेकिन सचेत मनुष्य से सत्य बचकर नहीं निकल सकता। इतनी सचेतना चाहिए।
लेकिन
हम तो सोए-सोए जीते हैं। रास्ते पर निकल जाते हैं--न तो हमें वृक्ष दिखाई पड़ते हैं, न उन पर
बैठे हुए पक्षी हमें सुनाई पड़ते हैं, न आकाश में उगा हुआ
चांद हमें दिखाई पड़ता है। हमें कुछ भी दिखाई नहीं पड़ता। हम तो जैसे सोए हुए चले जा
रहे हैं। कई बार अनुभव हुआ होगा--किसी किताब का एक पन्ना पढ़ते हैं, बाद में पता चलता है कि मुझे तो जैसे, मैंने कुछ भी
नहीं पढ़ा, कुछ खयाल नहीं आता। लेकिन आप पढ़ तो गए, सोए-सोए पढ़ गए होंगे।
कभी
खयाल आता है,
कोई आदमी कोई बात करता है और चूक जाती है--बाद में हमें खयाल आता है,
सुनी तो थी! लेकिन कुछ खयाल नहीं पड़ता, सोए-सोए
सुनी होगी। केवल चौबीस घंटे में मुश्किल से कोई क्षण होता होगा, जब हम जागकर जिंदगी को थोड़ा-बहुत अनुभव करते हों, अन्यथा
हम सोए-सोए चलते हैं।
एक
शिक्षक था, युवकों को दरख्तों पर चढ़ना सिखाता था। एक युवक को सिखा रहा था। एक
राजकुमार सीखने आया हुआ था। राजकुमार चढ़ गया था ऊपर की चोटी तक, वृक्ष की ऊपर की शाखाओं तक। फिर उतर रहा था, वह बूढ़ा
चुपचाप दरख्त के नीचे बैठा हुआ देख रहा था। कोई दस फीट नीचे से रह गया होगा युवक,
तब वह बूढ़ा खड़ा हुआ और चिल्लाया, सावधान! बेटे
सावधान होकर उतरना, होश से उतरना!
वह
युवक बहुत हैरान हुआ। उसने सोचा, या तो यह बूढ़ा पागल है। जब मैं सौ फीट ऊपर था
और जहां से गिरता तो जीवन के बचने की संभावना न थी--जब मैं बिलकुल ऊपर की चोटी पर
था, तब तो यह कुछ भी नहीं बोला, चुपचाप
आंख बंद किए, वृक्ष के नीचे बैठा रहा! और अब! अब जबकि मैं
नीचे ही पहुंच गया हूं, अब कोई खतरा नहीं है तो पागल चिल्ला
रहा है, सावधान! सावधान!
नीचे
उतरकर उसने कहा कि मैं हैरान हूं! जब मैं ऊपर था, तब तो आपने कुछ भी नहीं
कहा--जब डेंजर था, खतरा था? और जब मैं
नीचे आ गया, जहां कोई खतरा न था...उस बूढ़े ने कहा, मेरे जीवनभर का अनुभव यह है कि जहां कोई खतरा नहीं होता, वहीं आदमी सो जाता है। और सोते ही खतरा शुरू हो जाता है। ऊपर कोई खतरा न
था--क्योंकि खतरा था और उसकी वजह से तुम जागे हुए थे, सचेत
थे, तुम गिर नहीं सकते थे। मैंने आज तक ऊपर की चोटी से किसी
को गिरते नहीं देखा--कितने लोगों को मैं सिखा चुका। जब भी कोई गिरता है तो
दस-पंद्रह फीट नीचे उतरने में या चढ़ने में गिरता है, क्योंकि
वहां वह निश्चिंत हो जाता है। निश्चिंत होते ही सो जाता है। सोते ही खतरा मौजूद हो
जाता है। जहां खतरा मौजूद है, वहां खतरा मौजूद नहीं होता,
क्योंकि वह सचेत होता है। जहां खतरा नहीं है, वहां
खतरा मौजूद हो जाता है, क्योंकि वह सो जाता है।
मनुष्य
सभी पक्षियों से ज्यादा सो गया है। क्योंकि जीवन में उसने सभी पक्षियों-पशुओं से
ज्यादा सिक्योरिटी,
सुविधा जुटा ली है। कोई पशु-पक्षी इतना सोया हुआ नहीं, जितना आदमी। देखें, किसी कौए को आपके घर के पास बैठा
हुआ। जरा आप आंख भी हिलाएं और कौआ अपने पर फैला देगा। आंख हिलाएं! आप जरा हाथ
हिलाएं और कौआ तैयार है, सचेत है। जानवरों को भागते हुए
देखें, दौड़ते हुए देखें, उनको खड़े हुए
देखें--वे सचेत हैं।
आदमी
ने एक तरह की सिक्योरिटी,
एक तरह की सुरक्षा अपने चारों तरफ खड़ी कर ली है। और उस सुरक्षा की
वजह से वह आराम से सो गया है। और सचाई यह है कि सब सिक्योरिटी झूठी है। क्योंकि
मौत इतनी बड़ी असलियत है कि हमारी सब सुरक्षा झूठी ही सिद्ध होती है। कोई सुरक्षा
हमारी सच्ची नहीं है। लेकिन एक फाल्स, एक मिथ्या खयाल हमने
पैदा कर लिया है कि हम सुरक्षित हैं। सुरक्षित कोई भी मनुष्य नहीं है। जीवन
असुरक्षा है, इनसिक्योरिटी है।
कौन
सी चीज सुरक्षित है?
आपकी
पत्नी सुरक्षित है--कि आप सोचते हैं, कल भी वह आपको प्रेम देगी? आपके बच्चे सुरक्षित हैं--कि आप सोचते हैं, वे बड़े
होने पर आपको आदर देंगे? आपके मित्र सुरक्षित हैं--कि वे कल
शत्रु नहीं हो जाएंगे? आप खुद किन अर्थों में सुरक्षित हैं?
आपकी मौत आपकी सब सुरक्षा को दो कौड़ी का सिद्ध कर देने को है।
एक
आदमी ने एक महल बनवाया था। उसमें एक ही दरवाजा रखा था कि कोई शत्रु घर के भीतर न
घुस सके। दरवाजे पर सख्त पहरा रखा था। फिर पड़ोस का राजा उसके महल को देखने आया।
उसने कहा, और सब ठीक है, एकदम अच्छा है, मैं
भी ऐसा ही महल बनाना चाहूंगा। लेकिन एक गलती है तुम्हारे महल में। इसमें एक दरवाजा
है, यह खतरा है। दरवाजे से मौत भीतर आ सकती है। तुम कृपा करो,
यह दरवाजा और बंद कर लो। फिर तुम पूर्ण सुरक्षित हो जाओगे। फिर न
कोई भीतर आ सकता है, न कोई बाहर जा सकता है।
उस
राजा ने कहा,
खयाल तो मुझे भी यह आया था, लेकिन अगर दरवाजा
भी मैं बंद कर लूंगा तो फिर सुरक्षा की जरूरत भी किसे रह जाएगी। मैं तो मर ही
जाऊंगा। जी रहा हूं, क्योंकि दरवाजा खुला है। तो उस दूसरे
राजा ने कहा, इसका मतलब यह हुआ कि दरवाजा अगर बिलकुल बंद हो
जाए तो तुम मर जाओगे। एक दरवाजा खुला है तो तुम थोड़े जी रहे हो। दो दरवाजे खुलेंगे,
तुम थोड़ा और ज्यादा जीओगे। अगर सब दरवाजे खुले रहेंगे तो तुम पूरी
तरह से जीओगे।
लेकिन
सब दरवाजे खोलने में हम डरते हैं, और इसलिए जी नहीं पाते। सब दरवाजे बंद कर लेते
हैं जिंदगी के, फिर भीतर सिक्योरिटी में, सुरक्षा में निश्चिंत होकर सो जाते हैं। उसी सोने को हम जिंदगी समझ लेते
हैं।
इन
तीन दिनों में इस तरह जीएं,
जैसे कि जीवन में कोई सुरक्षा नहीं है। हो सकता है आप आए हैं
माथेरान, वापस न लौट सकें। कोई जरूरी नहीं है आपका वापस लौट
जाना। कौन सा जरूरी है? इस बात को मान लेने का क्या कारण है
कि आप चार सौ आए हैं, चार सौ ही वापस लौट जाएंगे। हो सकता है
कोई वापस न लौट पाए। एक दिन तो ऐसा होगा ही कि आप कहीं जाएंगे और वहां से वापस न
लौट सकेंगे। प्रति घड़ी कोई एक लाख आदमी अपना जीवन खो देते हैं, कहीं न कहीं पृथ्वी पर। आप भी किसी क्षण खो देंगे। वह क्षण यही क्षण हो
सकता है, आने वाला क्षण हो सकता है।
सुरक्षा
कहीं भी नहीं है। और सुरक्षा के कारण आप व्यर्थ जो सो रहे हैं, वह सारे
जीवन को, जीवन के आनंद-उत्फुल्लता से, ज्ञान
से वंचित कर रहा है।
तो
इन दिनों ऐसे जीएं,
जैसे आप जागे हुए हैं प्रतिपल, होश से भरे हुए
हैं। एक-एक घटना, एक-एक पत्थर, एक-एक
पत्ता, एक-एक पत्ते पर चमकती सूरज की रोशनी, चांद की रोशनी बदलियों पर--सब आपको दिखाई पड़ रहा है, आप जागे हुए हैं। सब चीजों के प्रति आप सचेत हैं। जीवन एक खतरा है और आप
चेतना से भरे हुए हैं। उठते-बैठते सब तरह से जागे हुए हैं।
जागे
हुए होने का अर्थ एक छोटी कहानी से समझाऊं, फिर मैं अपनी चर्चा पूरी करूं।
एक
बहुत अदभुत आदमी था। वह चोरों का गुरु था। सच तो यह है कि चोरों के अतिरिक्त और
किसी का कोई गुरु होता ही नहीं। चोरी सीखने के लिए गुरु की बड़ी जरूरत है। तो
जहां-जहां चोरी,
वहां-वहां गुरु। जहां-जहां गुरु, वहां-वहां
चोरी। तो वह चोरों का गुरु था, मास्टर थीफ था। उस जैसा कुशल
कोई चोर नहीं था। कुशलता थी। वह तो एक टेकनिक था, एक शिल्प
था। जब बूढ़ा हो गया तो उसके लड़के ने कहा कि मुझे भी सिखा दें। उसके गुरु ने कहा,
यह बड़ी कठिन बात है।
पिता
ने चोरी करनी बंद कर दी थी। उसने कहा, यह बहुत कठिन बात है। फिर मैंने
चोरी करनी बंद कर दी, क्योंकि चोरी में कुछ ऐसी घटनाएं घटीं
कि जिनके कारण मैं ही बदल गया। उसके लड़के ने पूछा, कौन सी
घटनाएं? उसने कहा, कुछ ऐसे खतरे आए कि
उन खतरों में मैं इतना जाग गया--जागने की वजह से चोरी मुश्किल हो गई। और जागने की
वजह से उस संपत्ति का खयाल आया है, जो सोने के कारण दिखाई
नहीं पड़ती थी। अब मैं एक दूसरी ही चोरी में लग गया हूं। अब मैं परमात्मा की चोरी
कर रहा हूं। पहले आदमियों की चोरी करता रहा।
लेकिन
मैं तुम्हें कोशिश करूंगा,
शायद तुम्हें भी यह हो जाए। चाहता तो यही हूं कि तुम आदमियों के चोर
मत बनो, परमात्मा के ही चोर बनो। लेकिन शुरुआत आदमियों की
चोरी से कर देने में भी कोई हर्जा नहीं है।
ऐसे
हर आदमी ही, आदमी की ही चोरी से शुरुआत करता है। हर आदमी के हाथ दूसरे आदमी की जेब में
पड़े होते हैं। जमीन पर दो ही तरह के चोर हैं--आदमियों से चुराने वाले और परमात्मा
से चुरा लेने वाले। परमात्मा से चुरा लेने वाले तो बहुत कम हैं--जिनके हाथ
परमात्मा की जेब में चले जाएं। लेकिन आदमियों के तो हाथ में सारे लोग एक-दूसरे की
जेब में डाले ही रहते हैं। और खुद के दोनों हाथ दूसरे की जेब में डाल देते हैं,
तो दूसरों के तो उनकी जेब में हाथ डालने की सुविधा हो जाती है।
स्वाभाविक है, क्योंकि अपनी जेब की रक्षा करें तो दूसरे की
जेब से निकाल नहीं सकते। दूसरे की जेब से निकालें तो अपनी जेब असुरक्षित छूट जाती
है, उसमें से दूसरे निकालते हैं। एक म्युचुअल, एक पारस्परिक चोरी सारी दुनिया में चल रही है।
उसने
कहा कि लेकिन चाहता हूं कि कभी तुम परमात्मा के चोर बन सको। तुम्हें मैं ले
चलूंगा। दूसरे दिन वह अपने युवा लड़के को लेकर राजमहल में चोरी के लिए गया। उसने
जाकर आहिस्ता से दीवाल की ईंटें सरकाईं, लड़का थर-थर कांप रहा है खड़ा हुआ।
आधी रात है, राजमहल है, संतरी द्वारों
पर खड़े हैं, और वह इतनी शांति से ईंटें निकालकर रख रहा है कि
जैसे अपना घर हो। लड़का थर-थर कांप रहा है। लेकिन बूढ़े बाप के बूढ़े हाथ बड़े कुशल
हैं। उसने आहिस्ता से ईंटें निकालकर रख दीं। उसने लड़के से कहा, कंपो मत। साहूकारों को कंपना शोभा देता है, चोरों को
नहीं। यह काम नहीं चल सकेगा। अगर कंपोगे तो क्या चोरी करोगे? कंपन बंद करो। देखो, मेरे बूढ़े हाथ भी कंपते नहीं।
सेंध
लगाकर बूढ़ा बाप भीतर हुआ। उसके पीछे उसने अपने लड़के को भी बुलाया। वे महल के अंदर
पहुंच गए। उसने कई ताले खोले और महल के बीच के कक्ष में वे पहुंच गए। कक्ष में एक
बहुत बड़ी बहुमूल्य कपड़ों की अलमारी थी। अलमारी को बूढ़े ने खोला। और लड़के से कहा, भीतर घुस
जाओ और जो भी कीमती कपड़े हों, बाहर निकाल लो। लड़का भीतर गया,
बूढ़े बाप ने दरवाजा बंद करके ताला बंद कर दिया। जोर से सामान पटका
और चिल्लाया--चोर। और सेंध से निकलकर घर के बाहर हो गया।
सारा
महल जग गया। और लड़के के प्राण आप सोच सकते हैं, किस स्थिति में नहीं पहुंच गए
होंगे। यह कल्पना भी न की थी कि यह बाप ऐसा दुष्ट हो सकता है। लेकिन सिखाते समय
सभी मां-बाप को दुष्ट शायद होना पड़ता है। लेकिन एक बात हो गई, ताला बंद कर गया है बाप, कोई उपाय नहीं छोड़ गया बचने
का। चिल्ला गया है--महल के संतरी जाग गए, नौकर-चाकर जाग गए
हैं, प्रकाश जल गए हैं, लालटेनें घूमने
लगी हैं, चोर की खोज हो रही है। चोर जरूर मकान के भीतर है।
दरवाजे खुले पड़े हैं, दीवाल में छेद है।
फिर
एक नौकरानी मोमबत्ती लिए हुए उस कमरे में भी आ गई है, जहां वह
बंद है। अगर वे लोग न भी देख पाएं तो भी फर्क नहीं पड़ता, क्योंकि
वह बंद है और निकल नहीं सकता, दरवाजे पर ताला है बाहर। लेकिन
कुछ हुआ। अगर आप उस जगह होते तो क्या होता?
आज
रात सोते वक्त जरा खयाल करना कि उस जगह अगर मैं होता--उस लड़के की जगह तो क्या होता? क्या उस
वक्त आप विचार कर सकते थे? विचार करने की कोई गुंजाइश ही
नहीं थी। उस वक्त आप क्या सोचते? सोचने का कोई मौका नहीं था।
उस वक्त आप क्या करते? कुछ भी करने का उपाय नहीं था। द्वार
बंद, बाहर ताला लगा हुआ है, संतरी अंदर
घुस आए हैं, नौकर भीतर खड़े हैं, घर भर
में खोजबीन की जा रही है--आप क्या करते?
उस
लड़के के पास करने को कुछ भी नहीं था। न करने के कारण वह बिलकुल शांत हो गया। उस
लड़के के पास सोचने को कुछ नहीं था। सोचने की कोई जगह नहीं थी, गुंजाइश
नहीं थी। सो जाने का मौका नहीं था, क्योंकि खतरा बहुत बड़ा
था। जिंदगी मुश्किल में थी। वह एकदम अलर्ट हो गया। ऐसी अलर्टनेस, ऐसी सचेतता, ऐसी सावधानी उसने जीवन में कभी देखी
नहीं थी। ऐसे खतरे को ही नहीं देखा था। और उस सावधानी में कुछ होना शुरू हुआ। उस
सचेतता के कारण कुछ होना शुरू हुआ--जो वह नहीं कर रहा था, लेकिन
हुआ।
उसने
कुछ, अपने नाखून से दरवाजा खरोंचा। नौकरानी पास से निकलती थी। उसने सोचा शायद
चूहा या कोई बिल्ली कपड़ों की अलमारी में अंदर है। उसने ताला खोला, मोमबत्ती लेकर भीतर झांका। उस युवक ने मोमबत्ती बुझा दी। बुझाई, यह कहना केवल भाषा की बात है। मोमबत्ती बुझा दी गई, क्योंकि
युवक ने सोचा नहीं था कि मैं मोमबत्ती बुझा दूं। मोमबत्ती दिखाई पड़ी, युवक शांत खड़ा था, सचेत, मोमबत्ती
बुझा दी, नौकरानी को धक्का दिया; अंधेरा
था, भागा।
नौकर
उसके पीछे भागे। दीवाल से बाहर निकला। जितनी ताकत से भाग सकता था, भाग रहा
था। भाग रहा था कहना गलत है, क्योंकि भागने का कोई उपक्रम,
कोई चेष्टा, कोई एफर्ट वह नहीं कर रहा था। बस,
पा रहा था कि मैं भाग रहा हूं। और फिर पीछे लोग लगे थे। वह एक कुएं
के पास पहुंचा, उसने एक पत्थर को उठाकर कुएं में पटका।
नौकरों ने कुएं को घेर लिया। वे समझे कि चोर कुएं में कूद गया है। वह एक दरख्त के
पीछे खड़ा था, फिर आहिस्ता से अपने घर पहुंचा।
जाकर
देखा, उसका पिता कंबल ओढ़े सो रहा था। उसने कंबल झटके से खोला और कहा कि आप यहां
सो रहे हैं, मुझे मुश्किल में फंसाकर? उसने
कहा, अब बात मत करो। तुम आ गए, बात खतम
हो गई। कैसे आए--तुम खुद ही सोच लेना। कैसे आए तुम वापस? उसने
कहा मुझे पता नहीं कि मैं कैसे आया हूं। लेकिन कुछ बातें घटीं। मैंने जिंदगी में
ऐसी अलर्टनेस, ऐसी ताजगी, ऐसा होश कभी
देखा नहीं था। और आउट आफ देट अलर्टनेस, उस सचेतता के भीतर से,
फिर कुछ शुरू हुआ, जिसको मैं नहीं कह सकता कि
मैंने किया। मैं आ गया हूं।
उस
बूढ़े ने कहा,
अब दोबारा भीतर जाने का इरादा है? उस युवक ने
कहा, उस सचेतता में, उस अवेयरनेस में
जिस आनंद का अनुभव हुआ है, अब मैं चाहता हूं, मैं भी परमात्मा का चोर हो जाऊं। अब आदमियों की संपदा में मुझे भी कोई रस
दिखाई नहीं पड़ता। क्योंकि उस सचेतता में मैंने अपने भीतर जो संपदा देखी है,
वह इस संसार में कहीं भी नहीं है।
तो
मैं परमात्मा के चोर होना आपको सिखाना चाहता हूं। लेकिन उसके पहले इन तीन सूत्रों
पर...इन तीन दिनों में अगर आप सहयोग देंगे, तो इसमें कोई बहुत आश्चर्य नहीं है
कि जाते वक्त आप अपने सामान में परमात्मा की भी थोड़ी सी संपदा ले जाते हुए अपने
आपको अनुभव करें। वह संपत्ति सब जगह मौजूद है। लेकिन हिम्मतवर चोर आता ही नहीं कि
उस संपत्ति को चुराए और अपने घर ले जाए।
परमात्मा
करे, आप भी एक मास्टर थीफ हो सकें, एक कुशल चोर हो सकें।
उस बड़ी संपदा को चुराने में उस चोरी के सिखाने का ही राज तीन दिनों में आपसे मैं
कहूंगा। और अगर आपका सहयोग रहा तो यह बात हो सकती है।
आज
के लिए तो इतना बस। क्योंकि रात बहुत हो गई। और जिनको चोरी की तैयारी करनी है, उन्हें
अपनी-अपनी जगह चले जाना चाहिए।
मेरी
बातों को इतने प्रेम और शांति से सुना है, उसके लिए बहुत-बहुत धन्यवाद।
अंत
में यही प्रार्थना करता हूं, प्रभु करे, वह आशा और वह
सपना पूरा हो सके, जिसके लिए हम सबके प्राण लालायित हैं। वह
हो सकता है, सिर्फ आपके सहयोग की जरूरत है।
अंत
में सबके भीतर बैठे परमात्मा को प्रणाम करता हूं, मेरे प्रणाम स्वीकार करें।
आज इतना ही।
साधना-शिविर माथेरान, दिनांक १८-१०-६७ रात्रि
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें