प्रेम-रस-रंग ओढ़ चदरिया-(दूलन)
प्रवचन-दूसरा
दिनांक: 02 फरवरी सन् 1979 ,
श्री ओशो आश्रम , पूना।
प्रश्नसार:
1—जब भी आकाश की तरफ देखता हूं
तो करोड़ों तारों को देखकर चकित हो जाता हूं। और ऐसा घंटों तक होता है। सोचता हूं
ये करोड़ों तारे,
जो
हमारे सूरज से बड़े हैं, यह सब
कैसे हुआ,
किसलिए
हुआ?क्या ब्रह्मांड में हम अकेले
पृथ्वीवासी हैं। कृपया समझाएं।
2—प्रभु!
तुम्हें रिझाऊं कैसे
मीरा
जैसा नृत्य न आया
कोयल
जैसा कंठ न पाया
जम्बू
जैसा ध्यान न ध्याया
तेरी
महिमा इस जड़ वाणी से
समझाऊं
कैसे
प्रभु
तुम्हें रिझाऊं कैसे?
3—भगवान!
बुझे
दिल में दीया जलता नहीं, हम
क्या करें?
तुम्हीं
कह दो कि अब ऐ जाने-वफा, हम
क्या करें?
4—भगवान!
भजन, प्रार्थना और ध्यान में क्या
भेद है?
पहला प्रश्न : भगवान! जब भी आकाश की तरफ देखता हूं तो करोड़ों तारों
को देखकर चकित हो जाता हूं। और ऐसा घंटों तक होता है। सोचता हूं ये करोड़ों तारे, जो हमारे सूरज से बड़े हैं, यह सब कैसे हुआ, किसलिए हुआ? क्या ब्रह्मांड में हम अकेले
पृथ्वीवासी हैं? कृपया समझाएं।
*
शामून
अली, विस्मय जब जागे तब भूलकर भी
उसे प्रश्न की सूली पर मत चढ़ाना। जब आश्चर्य-विमुग्ध हो मन तब चिंता को पास भी न
फटकने देना। चिंता जहर है। और विस्मय मरा कि धर्म की मृत्यु हो जाती है और चिंता, विस्मय की हत्या है।
जब
चित्त विस्मय-विभोर हो, आंखें
आंसुओं से भर जाएं, शरीर
रोमांचित हो उठे,
हृदय
गद्गद् हो,
नाचने
का मन हो तो नाचना हजारों-लाखों-करोड़ों तारों के नीचे! प्रश्न बनाने की बजाय नाचना
ज्यादा सार्थक है। प्रेमी का हृदय हो पास, गुफ्तगू करनी हो तारों से, तो दो बात कर लेना, एक गीत गा देना, एक प्रार्थना कर लेना। आकाश
की अपूर्व अनुभूति के समक्ष सिर झुका देना, कि भूमि पर पड़ जाना, साष्टांग दंडवत कर लेना; पर प्रश्न मत बनाना। मत पूछना, क्यों! जैसे ही पूछा क्यों, चूक हो गई। बड़ी चूक हो गई!
फिर तीर निशाने पर कभी न लगेगा।
जैसे
ही हम पूछते हैं क्यों, जो
विस्मय हृदय को आंदोलित कर देता, वह
हृदय तक नहीं पहुंच पाएगा अब। अटक जाएगा क्यों के जाल में, मस्तिष्क में उलझ जाएगा।
"क्यों'
का
कांटा उसे मस्तिष्क में अटका लेगा। फिर चिंतन चलेगा, विचार चलेगा, दर्शन-शास्त्र का जन्म होगा; मगर धर्म की अनुभूति नहीं
होगी। और अनुभूति से ही सत्य के द्वार खुलते हैं। चिंतन-विचार सत्य के द्वार खोलने
में असमर्थ हैं। चिंतन-विचार की कुंजियां सत्य के द्वार पर पड़े ताले के समक्ष
बिलकुल नपुंसक हैं। सोचोगे भी तो क्या सोचोगे? जिसे नहीं जानते हो उसे सोचोगे तो कैसे
सोचोगे?
सोचना
तो जुगाली की प्रक्रिया है।
भैंस
को देखा,
घास चर
लेती है,
फिर
बैठ जाती है,
फिर
उसे वापिस निकाल-निकाल कर जुगाली करती है। जो चर लिया है उसी की जुगाली हो सकती
है। जो नहीं चरा है उसकी जुगाली नहीं हो सकती। विचार जुगाली है। किताबों में पढ़
लिया, लोगों से सुन लिया; फिर उसी को बैठ कर जुगाली
करने लगे।
विचार
कभी मौलिक नहीं होता और सत्य सदा मौलिक है। इसलिए विचार और सत्य के रास्ते कभी
एक-दूसरे को काटते नहीं। जो विचार में पड़ा, सत्य से चूक जाता है। जिसे सत्य में जाना हो
उसे विचार से सावधान होना होगा। विचार को तो देखते ही कि सिर उठा रहा है, सावधान हो जाना, सजग हो जाना। विस्मय प्रीतिकर
है, विचार घातक है।
यह तो
उचित है शामून अली, कि
तुम्हें करोड़ों तारों को देखकर एक विस्मय जगता है, हठात तुम अवाक रह जाते हो, तुम्हारी आंखें ठगी रह जाती
हैं, कि क्षण भर को जैसे हृदय न
धड़कता हो,
कि
जैसे श्वास अवरुद्ध हो जाती हो! यह तो शुभ है। लेकिन जैसे ही तुमने पूछा क्यों, यह सब किसलिए हुआ, किसने किया, क्या है इसके पीछे कारण--कि
तुम चूके,
कि तुम
रिपटे,
कि तुम
गिरे सीढ़ी से,
कि
धर्म से तुम्हारा साथ छूटा। अब तुम्हारा चिंतन दर्शन का होगा। और दर्शन का चिंतन
अनिवार्य रूप से विज्ञान के चिंतन में परिणत हो जाता है।
इसलिए
जहां-जहां दार्शनिक चिंतन ने जड़ें जमा लीं वहां-वहां धर्म नष्ट हो गया, विज्ञान पैदा हुआ। पश्चिम में
यही हुआ। लोगों ने पूछा--क्यों, किसलिए, कारण क्या है, मूल कारण कहां है? कारण की खोज जल्दी ही विज्ञान
बन जाती है। और विज्ञान का अर्थ है थोथे में, छिछले में, उथले में जीवन व्यतीत होने
लगता है।
जीवन
की गहराइयां प्रश्नों में बांधे नहीं बंधतीं। और जितना गहरा सागर हो उतना ही
मुट्ठी में नहीं आता। करोड़-करोड़ तारे, इनसे बरसती हुई अमृत ज्योति... .प्रश्न मत
उठाओ, गीत गाओ! और गीत तुम गा सको
तो तुम्हारे भीतर से, तुम्हारे
ही अंतस से,
बिना
प्रश्न पूछे,
उत्तर
का आविर्भाव हो जाएगा। और उत्तर भी ऐसा उत्तर नहीं कि जिसे तुम उत्तर कह
सको--उत्तर भी ऐसा उत्तर कि जिसमें तुम गीले हो जाओगे, भीग जाओगे, जो तुम्हें रूपांतरित कर
जायेगा;
जो
केवल बौद्धिकता नहीं होगा, बल्कि
तुम्हारी अंतरात्मा बनेगा।
तुम
पूछते हो : क्या हम ब्रह्मांड में अकेले पृथ्वीवासी हैं?
जान कर
भी क्या होगा?
अगर
अनंत-अनंत पृथ्वियों पर भी लोग हों तो क्या होगा? पड़ोसी से तो प्रेम नहीं हो पा
रहा है। शामून अली! मुसलमान हिंदू को प्रेम नहीं कर पा रहा है, जैन मुसलमान को प्रेम नहीं कर
पा रहा है। भारतीय चीनी को प्रेम नहीं कर पा रहा है। पड़ोसी से प्रेम नहीं हो पा
रहा है। दूर तारों पर अगर लोग बसे भी होंगे तो क्या करोगे? अभी पड़ोसी से तो संबंध नहीं
जुड़े हमारे। अभी पति तो पत्नी से प्रेम नहीं कर पा रहा है, पत्नी तो पति से प्रेम नहीं
कर पा रही है। अभी तो प्रेम के नाम पर न मालूम कितने ढंग की राजनीतियां चल रही
हैं! अभी तो प्रेम के नाम पर एक-दूसरे पर कब्जे की कोशिश की जा रही है। अभी तो भाई
भाई का दुश्मन है,
अभी तो
आदमी आदमी की हत्या के पीछे संलग्न है। अभी तो इस पृथ्वी से युद्ध अंत नहीं हुए, घृणा अंत नहीं हुई। अभी इस
पृथ्वी पर भाईचारा, प्रेम, अभी मैत्री का सूरज यहां नहीं
उगा। अगर होंगे भी दूर कहीं चांदत्तारों के पास किन्हीं ग्रह-उपग्रहों पर लोग तो
क्या करोगे?
मान लो
कि हैं,
फिर? या मान लो कि नहीं हैं. . .।
इस तरह
के परिकाल्पनिक प्रश्नों में उलझ कर समय व्यय न करो। क्योंकि यही समय यही ऊर्जा
प्रार्थना बन सकती है। क्यों बना है अस्तित्व, इसका कभी कोई उत्तर नहीं दिया जा सकता।
क्योंकि जो भी उत्तर दिए जाएंगे उन्हीं उत्तरों पर यह प्रश्न पुनः पूछा जा सकता
है। कोई कहे ईश्वर ने बनाया है तो पूछा जा सकता है, क्यों? और कोई कहे ईश्वर ने अपनी मौज
से बनाया है तो पूछा जा सकता है, इसके
बनाने के पहले उसे मौज न थी? दुःखी
था ? कोई कहे कि लीला कर रहा है, तो अकेला ही है, लीला किसके सामने हो रही है? तो क्या कोई छोटा बच्चा है जो
भटक गया है--जो रात के अंधेरे में अपने को ही ढाढस बंधाने को सीटी बजा रहा है?
ईश्वर
ने जगत् क्यों बनाया? यह
प्रश्न वैसे का वैसा ही रहेगा। और अगर कोई उत्तर भी मिल जाए तो सवाल उठेगा, ईश्वर क्यों है? ईश्वर को किसने बनाया? क्या प्रयोजन होंगे? इन प्रश्नों का कोई अंत न
होगा। एक प्रश्न और हजार प्रश्नों को अपने साथ ले आता है।
धार्मिक
व्यक्ति को यह बात बहुत गहराई से समझ लेनी चाहिए कि प्रश्न गिरेंगे तो प्रार्थना
जन्मेगी। अगर प्रश्न बने रहे तो प्रार्थना कभी जग नहीं सकती।
चला जा
रहा हूं!
न इस
राह का आदि मैं जानता हूं,
न इस
राह का अंत मैं मानता हूं,
दिशा
पंथ की एक पहचानता हूं
नहीं
जानता छल रहा पंथ को मैं
स्वयं
पंथ से या छला जा रहा हूं।
चला जा
रहा हूं!
नहीं
है मुझे ध्यान जीवन मरण का
नहीं
ज्ञान है तप्त कण और तन का
मुझे
एक ही ज्ञान है बस जलन का!
नहीं
ज्ञात,
मरु जल
रहा आज मुझमें
स्वयं
या कि मरु में जला जा रहा हूं
चला जा
रहा हूं
नहीं
ज्ञात तट पर कि मझधार हूं मैं
निराधार
हूं कि साधार हूं मैं
यही लग
रहा बस,
निराकार
हूं मैं
नहीं
जानता,
ढल रहा
शून्य मुझ में
स्वयं
शून्य में या ढला जा रहा हूं!
चला जा
रहा हूं!
न ही
कुछ ज्ञात है,
न ही
कुछ कभी ज्ञात होगा। यहीं तो धर्म और विज्ञान की मौलिक भिन्नता है। विज्ञान कहता
है, अस्तित्व दो हिस्सों में तोड़ा
जा सकता है--ज्ञात और अज्ञात। जो कल अज्ञात था, आज ज्ञात हो गया है। और जो आज अज्ञात है, कल ज्ञात हो जाएगा। विज्ञान
कहता है,
बस दो
ही कोटियां पर्याप्त हैं--ज्ञात और अज्ञात। और अंततः एक ही कोटि बचेगी--ज्ञात की; सभी अज्ञात धीरे-धीरे ज्ञात
हो जाएगा।
अगर यह
सच है,
अगर
विज्ञान की धारणा उचित है, सम्यक
है, तो जल्दी ही एक दिन आएगा, विस्मय पैदा नहीं होगा।
अज्ञात ही कुछ न होगा तो विस्मय कैसे पैदा होगा? जल्दी ही वह दुर्भाग्य की घड़ी
आ जाएगी कि आश्चर्य का जन्म न होगा। और उस दिन आश्चर्य न होगा उस दिन आदमी आत्मघात
कर लेगा,
एक
क्षण जी न सकेगा। जीवन व्यर्थ हो जाएगा। अर्थ ही आश्चर्य के कारण है। अर्थ ही
अज्ञात के कारण है। अर्थ ही रहस्य के कारण है।
धर्म
अस्तित्व को तीन खंडों में बांटता है--ज्ञात, अज्ञात और अज्ञेय। जो अज्ञात है, ज्ञात बन जाएगा। जो ज्ञात बन
गया है,
वह भी
कभी अज्ञात था। लेकिन एक और कोटि है, अज्ञेय, जो न कभी ज्ञात हुई और न कभी ज्ञात
होगी--जिसका स्वभाव ही अज्ञेय है; जो
अनजानी है,
अनजानी
रहेगी। अनजानापन संयोगिक नहीं है, अनजानापन
उसकी नियति है। जैसे हम जान लेंगे कि गुलाब का फूल किन चीजों से बना है--मिट्टी, पानी, हवा, सूरज. . .। निश्चित जान
लेंगे। जो अज्ञात है, ज्ञात हो जाएगा। लेकिन सूरज
की किरणों को पहचान लेंगे पृथ्वी की मिट्टी को पहचान लेंगे, हवा को पहचान लेंगे, जल को पहचान लेंगे। लेकिन कुछ और भी है
गुलाब के फूल में,
सौंदर्य, वह अज्ञेय है और अज्ञेय ही
रहेगा। वह न सूरज से बना है, न
पृथ्वी से,
न हवा
से, न पानी से। उस पर पकड़ नहीं
बैठती;
वह हाथ
से छिटक-छिटक जाता है। वह पारे जैसा है; जितना पकड़ो उतना बिखर-बिखर जाता है।
सौंदर्य
अज्ञात है और अज्ञात रहेगा। हम जान लेंगे कि मनुष्य के भीतर कामवासना के पैदा होने
के क्या कारण हैं। करीब-करीब जानने की बात शुरू हो गई। स्त्री-पुरुष के हारमोन हम
पहचान लेंगे। उनके भीतर आकर्षण है, वह पहचान लेंगे। वह आकर्षण भी चुंबकीय है, वह पहचान लेंगे। लेकिन फिर भी
प्रेम की कहानी अज्ञात है और अज्ञात ही रहेगी। अज्ञेय है; उसके ज्ञात होने का कोई उपाय
नहीं है।
हारमोन
को समझ लेने से प्रेम को नहीं समझा जा सकेगा। प्रेम कुछ है, जिस पर हमारी पकड़ नहीं बैठती; जो अपरिहार्य रूप से हमारे
ज्ञान की परिधि में नहीं आता; जितना
हम उसके पीछे दौड़ते हैं उतना हमसे दूर होता जाता है।
प्रेम, सौंदर्य, सत्य, ध्यान, परमात्मा, निर्वाण, ये सब अज्ञेय हैं और अज्ञेय
रहेंगे। और जब तुम्हारे भीतर प्रकृति के किसी संस्पर्श में रहस्य की लहर उठे तो
जल्दी से उसे प्रश्न मत बना लेना, अन्यथा
आ गए थे मंदिर के द्वार के पास और भटक गए; उठने-उठने को था घूंघट और चूक गए!
मैं कब
से ढूंढ रहा हूं
अपने
प्रकाश की रेखा!
तम के
तट पर अंकित है
निःसीम
नियति का लेखा
देने
वाले को अब तक
मैं
देख नहीं पाया हूं;
पर पल
भर सुख भी देखा
फिर पल
भर दुःख भी देखा;
किस का
आलोक गगन से
रवि
शशि उड्डगन बिखराते?
किस
अंधकार को लेकर
काले
बादल घिर आते?
उस
चित्रकार को अब तक
मैं
देख नहीं पाया हूं;
पर
देखा है चित्रों को
बन-बन
कर मिट-मिट जाते!
फिर
उठना, फिर गिर पड़ना,
आशा है, वहीं निराशा;
क्या
आदि-अंत संसृति का
अभिलाषा
ही अभिलाषा?
अज्ञात
देश से आना
अज्ञात
देश को जाना
अज्ञात!
अरे क्या इतनी ही
है हम
सब की परिभाषा?
पल-भर
परिचित वन-उपवन
परिचित
है जग का प्रति कन,
फिर पल
में वहीं अपरिचित
हमत्तुम, सुख-सुषमा, जीवन।
है
क्या रहस्य बनने में?
है कौन
सत्य मिटने में?
मेरे
प्रकाश दिखला दो
मेरा
भूला अपनापन!
उठते
हैं प्रश्न। उठना स्वाभाविक है। लेकिन अगर सजग रहो तो प्रश्नों के जाल से बच सकते
हो। चित्रों को देखो, रस-मग्न
हो देखो। वह जो दान दे रहा है, जिसके
हाथों से न मालूम कितना प्रसाद तुम्हारी झोली में पड़ रहा है, उस प्रसाद को देखो। उस प्रसाद
के लिए अनुग्रह मानो। मगर याद रखो--
देने
वाले को अब तक
मैं
देख नहीं पाया हूं;
उस
चित्रकार को अब तक
मैं
देख नहीं पाया हूं;
पर
देखा है चित्रों को
बन-बन
कर मिट-मिट जाते!
बदलियां
उठती हैं,
बिखर
जाती हैं। चांदत्तारे बनते हैं और समाप्त हो जाते हैं। लोग आते हैं और विदा हो
जाते हैं। अज्ञात है आगमन, अज्ञात
है होना,
अज्ञात
है जाना। लहर क्यों उठती, क्यों
होती, क्यों विदा हो जाती--सब
अपरिचित है। और सुंदर है कि अपरिचित है। और शुभ है कि अपरिचित ही रहे। क्योंकि इसी
अपरिचय के बीच तो प्रार्थना का आविर्भाव होता है। इस रहस्य को नहीं समझ पाते, इसलिए तो सिर झुकाने की
आकांक्षा जगती है। यह रहस्य बेबूझ रह जाता है, इसलिए तो आंखें आनंद से गीली हो उठती हैं।
यह
पक्षियों की चहचहाहट, यह
वृक्षों का चुपचाप खड़ा ध्यानमग्न रूप, ये सूरज की किरणें, यह आकाश से गिरती शीतलता--यह
सब छूता है,
अनुभव
में आता है;
मगर
नहीं, कोई सिद्धांत से समझा नहीं
पाता। सब सिद्धांत छोटे पड़ जाते हैं। सब शब्द ओछे पड़ जाते हैं। यही तो संभव बनाता
है कि मंदिर उठें,
मस्जिद
उठें, कि गीता जगे कि कुरान गायी
जाए। इसी रहस्य के आघात में तो हमारा हृदय-कमल खिलता है।
शामून
अली! विस्मय को तो भरो, विस्मय
में तो जगो। आंखें विस्फारित रह जाएं, टकटकी बंध जाए। मगर प्रश्न न उठाओ, क्योंकि सभी प्रश्न व्यर्थ के
उत्तरों में ले जाएंगे। और आदमी जब थक जाता है प्रश्न पूछ-पूछ कर, तो किन्हीं भी उत्तरों को मान
लेता है। मानना पड़ता है, न मानो
तो बेचैनी होती है, प्रश्न
सताता है। इसलिए फिर लोग कोई भी उत्तर मान लेते हैं। फिर किसी ने कुरान मान ली, किसी ने वेद, किसी ने गीता, किसी ने धम्मपद। फिर किसी ने
कोई उत्तर मान लिया। क्योंकि कब तक प्रश्न पूछे चले जाओ? प्रश्न का कांटा चुभता है, घाव बनता है, तो फिर कोई उत्तर मान लो।
हालांकि तुम्हारे सब उत्तर माने हुए हैं और जरा ही उत्तरों को उलटोगे-पलटोगे तो
पाओगे कि प्रश्न उनके नीचे जिंदा हैं जैसे कि राख के नीचे अंगार जिंदा होता है।
तुम्हारे
उत्तर राख की तरह हैं; हर
उत्तर के पीछे अंगार जिंदा है, तुम्हारा
प्रश्न जिंदा है। प्रश्न मरते ही नहीं। हां, लेकिन प्रश्नों का अतिक्रमण जरूर होता है।
उसी अतिक्रमण को मैं धर्म कहता हूं। प्रश्न का अतिक्रमण, यही धर्म का सार-सूत्र है।
प्रश्न उठे,
उठने
दो; मगर तुम उसके जाल में न पड़ो, तुम सरक जाओ, तुम बच कर अपना दामन बचा कर
निकल जाओ। काश,
तुम यह
कर सको तो नमाज पैदा होगी शामून अली! तो पहली बार तुम पाओगे, अज्ञात, अनंत अज्ञात के समक्ष
तुम्हारा सिर झुक गया है! उसकी चौखट पर तुमने अपना सिर रख दिया है। और अपूर्व है
शांति फिर,
अपूर्व
है आनंद फिर!
उत्तर
को लेकर क्या करोगे, आनंद
मांगो! उत्तर को लेकर क्या करोगे, कोई
स्कूल में परीक्षाएं नहीं देनी हैं; जीवन मांगो! उत्तर लेकर क्या करोगे, अनुभूति मांगो! अनुभूति, जो तुम्हें नहला दे! अनुभूति, जो तुम्हें निखार दे! अनुभूति, जो तुम्हें नया जन्म दे दे!
यह हो
सकता है। इसलिए मैं तुम्हारे प्रश्नों के उत्तर नहीं दे रहा हूं यहां; इतना ही समझा रहा हूं कि
प्रश्नों से बचने की कला सीखो। मेरे उत्तर तुम्हारे प्रश्नों के उत्तर नहीं हैं।
मेरे उत्तर तुम्हारे भीतर और और नए-नए विस्मय को जगा देने की चेष्टा है; और-और नए-नए रहस्यों को उमगा
देने का उपाय हैं। मैं तुम्हारे हृदय को ऐसे रहस्य से भर देना चाहता हूं कि तुम्हें
लगने लगे : मुझे कुछ भी आता नहीं है, कि मैं अज्ञानी हूं। जिस दिन तुम ऐसा जान
लोगे कि मैं अज्ञानी हूं, निपट
अज्ञानी,
उस दिन
ज्ञान का आकाश तुम पर टूट पड़ेगा! होगी बहुत वर्षा फूलों की! जैसे बुद्ध पर हुई, जैसे सुकरात पर हुई, जैसे महावीर पर हुई। तुम भी
उसके अधिकारी हो। प्रत्येक उसका अधिकारी है।
दूसरा प्रश्न : प्रभु! तुम्हें रिझाऊं कैसे?
मीरा जैसा नृत्य न आया
कोयल जैसा कंठ न पाया
जम्बू जैसा ध्यान न ध्याया
तेरी महिमा इस जड़ वाणी से
समझाऊं कैसे
प्रभु, तुम्हें रिझाऊं कैसे?
अनेकांत!
रिझाने की बात ही नहीं है, परमात्मा
तुम पर रीझा ही हुआ है। न रीझा होता तो तुम होते ही नहीं। रीझा है इसलिए तुम हो।
तुम्हें बनाया,
इसी
में उसने घोषणा कर दी है कि तुम पर रीझा है।
जब कोई
बांसुरीवादक गीत गाता है तो गाता ही इसीलिए है कि उस गीत पर रीझा है। नहीं तो
क्यों उठाएं बांसुरी, क्यों
बजाएं बांसुरी। और जब कोई नर्तक पैर में घुंघरू बांध कर नाच उठता है तो साफ है कि
रीझा है इस नृत्य को बिना नाचे नहीं रह सकता। परमात्मा तुम्हें नाच रहा है
परमात्मा तुम्हें गा रहा है अनेकांत रीझाने का कोई सवाल नहीं है, परमात्मा तुम पर रीझा हुआ है।
काश, तुम इस सत्य को समझ पाओ तो
तुम्हारे जीवन से इसी क्षण अंधकार टूट जाए! जिस पर परमात्मा रीझा हुआ हो, उसे क्या चाहिए? परमात्मा ने जिसकी आंखों में
काजल दिया हो और परमात्मा ने जिसके ओंठों को रंग दिया हो और परमात्मा ने जिसके
अंग-अंग गढ़े हों,
उसे और
क्या चाहिए?
जिसके
रोएं-रोएं पर परमात्मा का हस्ताक्षर है, उसे और क्या चाहिए? यह सारा जगत् उसके रीझे होने
की खबर दे रहा है।
अगर
परमात्मा रीझा न हो अस्तित्व पर तो अस्तित्व कभी का समाप्त हो जाए। फिर श्वास कौन
ले? फिर नए पत्ते क्यों फूटें? फिर नए बच्चे क्यों पैदा हों? फिर नए तारे क्यों जन्में? तुम यह चिंता छोड़ो कि
परमात्मा को कैसे रिझाएं।
और
इसलिए भी कहता हूं कि यह चिंता छोड़ो कि परमात्मा को किन्हीं विशिष्ट गुणों के कारण
नहीं रिझाया जाता। तुम क्या सोचते हो, मीरा इस देश की सबसे बड़ी नर्तकी थी, इसलिए रीझा पायी परमात्मा को? जो नृत्य-शास्त्र को जानते
हैं उनसे पूछो। वे कहेंगे : बहुत नर्तकियां थीं, मीरा कोई बड़ी नर्तकी है? शायद ठीक-ठीक नाचना आता भी न
होगा। ऐसे दीवानों को कहीं ठीक-ठीक नाचना आता है? ऐसे दीवाने कि उनके पैर
ठीक-ठीक पड़ रहे हैं, इसका
होश कौन रखेगा?
तबले
की थाप के साथ संगति बैठ रही कि नहीं, मीरा को इसका होश होगा?--जो कहती है, "लोक-लाज खोई', सब लोक-लाज खो कर जो नाची!
जिसे अपने वस्त्रों का भी होश नहीं रहता था, उसे छंद, संगीत, मात्रा, ताल, लय इनका स्मरण रहता होगा?
नहीं; मीरा कोई बहुत बड़ी नर्तकी
नहीं थी। नर्तकियां तो बहुत रही होंगी। राजाओं के जमाने थे, रजवाड़ों के दिन थे, हर दरबार में नर्तकियां थीं, बड़ी-बड़ी नर्तकियां थीं। सारे
देश में नाचनेवालों का एक अलग जगत् था। संगीत की एक प्रतिष्ठा थी। क्या तुम सोचते
हो मीरा के पास बड़ा मधुर कंठ था इसलिए परमात्मा को रीझा लिया? इन भूलों में मत पड़ना।
परमात्मा रीझता है न तो मीरा के नृत्य के कारण, न गीत के कारण। परमात्मा तो रीझा ही हुआ है।
इस सत्य को मीरा ने समझ लिया कि परमात्मा रीझा ही हुआ है; इस सत्य को समझने के कारण
नाची, जी-भर कर नाची, आह्लादित हो कर नाची। कंठ फूट
पड़ा हजार-हजार गीतों में। यह गीत अनगढ़ है। यह नृत्य भी अनगढ़ है। लेकिन यह भाव कि
परमात्मा ने मुझे इस योग्य समझा कि बनाए, धन्यवाद के लिए पर्याप्त है।
मीरा
धन्यवाद देने को नाची। मीरा का नृत्य उसके अनुग्रह से पैदा हो रहा है। और अगर
परमात्मा से उसका संबंध जुड़ गया तो किसी गुण, विशिष्टता के कारण नहीं, किसी प्रतिभा के कारण नहीं, वरन केवल भाव की स्वच्छता के
कारण। कबीर का जुड़ गया, इसलिए
नहीं कि कबीर कोई बड? महाकवि
हैं। जुड़ गया संबंध--कविता के कारण नहीं। जुड़ गया संबंध--भाव के कारण।
इस बात
को खूब हृदय में संभाल कर रख लो : तुम किसी गुण के कारण परमात्मा के करीब न पहुंच
सकोगे। गुण के कारण पहुंचने की आकांक्षा तो अहंकार की ही आकांक्षा है--कि मैं कुछ
गुणी हूं,
प्रतिभावान
हूं, कि देखो मुझे नोबल प्राइज
मिला, अब परमात्मा मुझ पर रीझना
चाहिए! तुमने सुना किसी नोबल-प्राइज पानेवाले पर परमात्मा रीझा है, ऐसा तुमने सुना? रीझा कबीर पर। रीझा रैदास पर, फरीद पर। रीझा मंसूर पर, नानक पर। रीझा अलमस्तों पर।
ये कोई बहुत बड़े-बड़े विद्वान नहीं थे, न बड़े शास्त्रज्ञ थे। कबीर ने तो कहा ही है :
"मसी कागद छुओ नहीं!' कभी
छुआ ही नहीं कागज,
स्याही
हाथ में नहीं लगाई। अगर परमात्मा पूछता कि कितने शास्त्र जानते हो, कितने वेदों के ज्ञाता हो, तो कबीर क्या करते? वेद तो उनके पास थे ही नहीं।
वेद की जगह,
परमात्मा
भी थोड़ा चौंकता,
हाथ
में लट्ठ लिए खड़े पाते उनको! क्योंकि कबीर ने कहा है--"कबिरा खड़ा बाजार में, लिए लुकाठी हाथ!' लट्ठ लिए हाथ में खड़ा हूं और
तो कुछ है नहीं।. . ."घर जो बारे आपना चलै हमारे साथ!' हो घर जला देने की इच्छा तो आ
जाओ, हमारे साथ हो लो।
फक्कड़ों
पर रीझा परमात्मा। फक्कड़पन चाहिए। भाव कि स्वच्छता, निर्मलता चाहिए। श्रद्धा
चाहिए। किसी और गुण का स्वभाव नहीं है कि पी-एच० डी० हो कि डी० लिट० हो कि
विश्वविद्यालय की डिग्री हो कि महावीर-चक्र मिला हो कि पद्मश्री कि भारत-रत्न, कुछ इस तरह की बातें हों। इन
सब बातों से परमात्मा का कोई संबंध नहीं जुड़ता। परमात्मा तो इन पत्तों पर रीझा है, फूलों पर रीझा है, तितलियों पर रीझा है, पत्थरों पर रीझा है। तुम पर न रीझेगा? परमात्मा तो रीझा ही हुआ है।
तुम जरा हिम्मत जुटाओ। तुम ज़रा आंख खोलो। तुम ज़रा हिम्मत बांधो, साहस बांधो--इस बात को देखने
का कि परमात्मा तुम पर रीझा हुआ है और तत्क्षण जोड़ हो जाएगा।
अनेकांत!
मत पूछो--
प्रभु!
तुझे रिझाऊं कैसे
मीरा
जैसा नृत्य न आया. . .
अच्छा
ही है,
नहीं
तो एक नकली मीरा होती और। और अनेकांत जंचते भी नहीं नकली मीरा की हालत में। ज़रा
गड़बड़ ही मालूम होती।
".
. . कोयल
जैसा कंठ न पाया. . .'
बड़ी
कृपा है! आदमी होकर और कोयल जैसा कंठ होता तो अड़चन में पड़ते, जहां जाते वहीं अड़चन में
पड़ते। कोयल का कंठ कोयल को ही ठीक है।
".
. . जम्बू
जैसा ध्यान न ध्याया
तेरी
महिमा इस जड़ वाणी से समझाऊं कैसे . . . '
तुम्हारा
भाव समझ में आ रहा है। वाणी जड़ है और उस चैतन्य को नहीं समझा पाती। मगर वाणी ही तो
नहीं है,
मौन भी
तो है तुम्हारे पास है! तुम मौन को गुनगुनाने दो, तुम मौन के नाद को उठने दो।
और अगर तुमने मीरा का सोचा तो नकल हो जाएगी। महावीर का सोचा तो नकल हो जाएगी।
मुहम्मद की सोची तो नकल हो जाएगी।
और इस
दुनिया में नकल से बड़ी अड़चन हो गई है, सारे नकली लोग भरे हुए हैं। सारे जैन मुनि
हैं, वे महावीर होने की कोशिश कर
रहे हैं। अगर महावीर हो भी गए तो भी परमात्मा के द्वार पर इन्हें प्रवेश नहीं
मिलेगा,
क्योंकि
एक महावीर काफी है। इतनी भीड़ क्या करेंगे महावीरों की लेकर? और ये सब नकली होंगे और ये सब
थोथे होंगे,
ऊपर-ऊपर
होंगे। क्योंकि असली तो कभी भी किसी दूसरे की नकल नहीं होता।
परमात्मा
ने तुम्हें इतना गौरव दिया है, इतनी
गरिमा दी है;
तुम्हें
एक आत्मा दी है--और तुम अनुकरण करोगे! आत्मा का अर्थ क्या होता है आत्मा का अर्थ
होता है : जिसका अनुकरण नहीं किया जा सकता। वह विशिष्ट रूप से तुम्हारी है और बस
तुम्हारी है;
और
किसी की न कभी थी और किसी की कभी होगी भी नहीं। तुम अद्वितीय हो, यही तो तुम्हारी आत्मा है।
अगर तुम महावीर जैसे चलने लगे, उठने
लगे, बैठने लगे तो सब थोथा हो
जाएगा,
सब
झूठा हो जाएगा। और झूठ तो औपचारिक रहता है।
कुछ
दिन पहले तीन जैन साध्वियां यहां सुनने आयीं। अब जैन साध्वियां तो पिच्छी लेकर
चलती हैं। ऊन की बनी होती है पिच्छी। जहां बैठें वहां पहले झाड़-बुहार लें। ऊन की
बनाते हैं ताकि चींटी को भी चोट न लगे। कोई चींटी इत्यादि चलती हो तो झाड़-बुहार
लें। दरवाजे पर द्वारपालों ने कहा कि यह सामान यहीं छोड़ दो, सामान भीतर नहीं ले जाना है।
पर जैन साध्वी बिना पिच्छी के तो कहीं जा ही नहीं सकती। अब बड़ी मुश्किल खड़ी हो गई।
आना भी है और बिना पिच्छी के जैन साध्वी को चलना भी नहीं चाहिए, वह नियम के प्रतिकूल है। और
जाना भी है और पिच्छी छोड़ी भी नहीं जा सकती, तो फिर. . .तो कानूनी मन रास्ता निकाल लेता
है। तो इन जैन साध्वियों ने तरकीब निकाल ली : पिच्छी की डंडी अपने साथ रख ली, सिर्फ डंडी! पिच्छी वहीं छोड़
दी, लेकिन डंडा निकाल कर अपनी बगल
में रख लिया। चलो आधा-आधा सही, फिफ्टी-फिफ्टी!
जहां
नकल होती है वहां समझौते हो जाते हैं, क्योंकि अंतरात्मा में तो कोई बात होती
नहीं। पिच्छी से कुछ प्रयोजन तो है नहीं; जबरदस्ती है, थोप दी है ऊपर। लेकिन डर भी
है कि कहीं पता न चल जाए श्रावकों को, कहीं जैन गृहस्थों को पता न चल जाए कि
पिच्छी छोड़ी! तो कम-से-कम कहने को रहेगा कानूनी, कि पिच्छी छोड़ी थी! मगर डंडा
हाथ में रखा था! आधा तो साथ में था ही। चलो आधा दंड कम हो, इतना ही बहुत है!
जब भी
लोग नकल करेंगे,
औपचारिक
होंगे,
तो
समझौते हो जाएंगे। क्योंकि औपचारिकता कभी भी आंतरिक नहीं हो सकती, उसकी गहराई नहीं हो सकती।
मैं एक
घर में मेहमान था,
सांझ
हो गई,
अंधेरा
हो गया है। जैन परिवार, अंधेरा
हो जाए तो भोजन नहीं करना चाहिए। लेकिन भूख भी लगी है, जिनके घर मैं ठहरा हूं, उनको। वे मुझसे बोले : जल्दी
चलिए, जल्दी चलिए! बाहर चलें, कमरे के बाहर चलें! वहां बाहर
भोजन कर लेंगे।
मैंने
कहा : बाहर और भीतर से क्या फर्क पड़ेगा, समय तो वही है! चाहे कमरे के भीतर बैठ कर
भोजन करें चाहे बाहर. . .।
उन्होंने
कहा : बाहर थोड़ी रोशनी है। ज्यादा नहीं है, मगर थोड़ी है। सूरज तो डूब गया है, मगर थोड़ी-सी रोशनी बाहर है।
समय वही है बाहर और भीतर, लेकिन
बाहर थोड़ी रोशनी है। इतनी ही मन को सांत्वना रहेगी कि बिलकुल अंधेरा नहीं हो गया
था।
तो
मैंने कहा कि बिजली जला कर यहां रोशनी क्यों नहीं कर लेते, ज्यादा रोशनी हो जाती!
उन्होंने
कहा : लेकिन बिजली, बिजली
का तो शास्त्रों में कोई विधान नहीं है।
हो भी
नहीं सकता,
मैंने
कहा। क्योंकि महावीर के वक्त में बिजली थी भी नहीं। होती तो शायद विधान किया होता, क्योंकि महावीर का कुल
प्रयोजन इतना था कि रात के अंधेरे में तुम भोजन करोगे, कोई कीड़ा-मकोड़ा गिर जाए, कोई मच्छर गिर जाए, कोई हिंसा हो जाए! अगर बिजली
होती, तब तो बड़ी सरलता से यह रोका
जा सकता था। फिर रोशनी सूरज की हो कि बिजली की, कोई फर्क नहीं पड़ता है। रोशनी तो एक ही है।
रोशनी का स्वभाव एक है। मगर जो लोग लकीर के फकीर होकर चलते हैं, उनको अड़चनें आ जाती हैं। समय
बदल जाता है,
पुरानी
लकीरें रह जाती हैं, वे
उन्हीं को पीटते रहते हैं, वे
हमेशा समय के पीछे मालूम पड़ते हैं। उनकी हालत बड़ी पिटी-पिटायी हो जाती है। वे
मुर्दों की भांति होते हैं।
मैं
तुमसे कहता भी नहीं कि तुम मीरा जैसे होओ। मीरा सुंदर थी, जैसी थी भली थी, प्यारी थी। मगर तुम्हें
अनेकांत,
अनेकांत
होना है,
मीरा
नहीं। न तुम्हें कोयल जैसा कंठ चाहिए, न जरूरत है। और कभी-कभी खतरे हो जाते हैं।
क्योंकि जब भी तुम किसी चीज को ऊपर से आरोपित कर लोगे तो एक बात तो निश्चित है, उसके भीतर भाव की सलिल-धारा न
रहेगी,
भाव की
अंतर्धारा न रहेगी। यह भी हो सकता है कि मीरा का गीत कोई मीरा से भी बेहतर ढंग से
गा दे,
लेकिन
तो भी परमात्मा का प्यारा नहीं हो जाएगा।
सोनचिड़ी
आंगन में बोल गई है
शकुन
शुभ हुआ है कि आएंगे कंत
पीड़ा
प्रतीक्षा की पाएगी अंत
नीम
में मधुर मिसरी घोल गई है
कौंध
गए सुखद सब बीते दिन-रैन
सुख की
पुलक में ही भर आए नैन
स्मृतियों
की परत-परत खोल गई है
छोड़
उड़ी कचनार शेवंती फूल
प्रिया
के प्रदेश की गंधायित धूल
ओस-बिंदु
पाटल पर रोल गई है
घायल-सी
सांसें और उलझे केश
देने
को नयन में आंसू ही शेष
निर्धन
के कोष सब टटोल गई है
सोनचिड़ी
आंगन में बोल गई है
तुम्हारे
पास जो हो,
तुम्हारा
अपना जो,
आंसू
सही, नहीं कि मीरा के गीत चाहिए और
मीरा का कंठ,
नहीं
कि कोयल का कंठ चाहिए, नहीं
कि बुद्ध जैसा ध्यान, कि
चैतन्य जैसा नर्तन--नहीं, जो
तुम्हारे पास हो,
जो
तुम्हारा अपना. . .दो आंसू भी अगर भाव से तुम गिरा सको परमात्मा के लिए, तो सब हो जाएगा। सोनचिड़ी आंगन
में बोल गई है! आ जाएगी खबर कि प्रिया आती, कि प्रेमी आता, कि प्रीतम आते।
शकुन
शुभ हुआ कि आएंगे कंत
पीड़ा
प्रतीक्षा की पाएगी अंत
नीम
में मधुर मिसरी घोल गई है
बस दो
आंसू तुम्हारे अपने हों। मगर अपने हों, इसे भूलना ही मत। तो नीम में भी मिश्री घुल
सकती है। अपने हों। जो भी तुम्हारा अपना है, वही तुम चढ़ा सकते हो। अपने को ही अर्पण किया
जा सकता है।
कौंध
गए सुखद सब बीते दिन-रैन
सुख की
पुलक में ही भर आए नैन
स्मृतियों
की परत-परत खोल गई है
नीम
में मधुर मिसरी घोल गई है
छोड़
उड़ी कचनार शेवंती फूल
प्रिया
के प्रदेश की गंधायित धूल
ओस-बिंदु
पाटल पर रोल गई है
नीम
में मधुर मिसरी घोल गई है
घायल-सी
सांसें और उलझे केश
देने
को नयन में आंसू ही शेष
निर्धन
के कोष सब टटोल गई है
सोनचिड़ी
आंगन में बोल गई है।
फिकर न
करो कि कंठ कोयल का नहीं है। फिकर न करो कि नृत्य मीरा का नहीं है। फिकर न करो कि
ध्यान बुद्ध का नहीं है। तुम्हारा कुछ भी हो, जो भी हो, अच्छा-बुरा, सुंदर-कुरूप, मूल्यवान-मूल्यहीन, तुम्हारा हो, प्रामाणिक रूप से तुम्हारा
हो--बस उसी को परमात्मा के चरणों में रख देना। और तुम्हारी भेंट निश्चित ही
स्वीकार हो जाएगी। तुम स्वीकार हो ही, सिर्फ तुम्हें पता नहीं है।
तीसरा प्रश्न : भगवान!
बुझे दिन में दीया जलता नहीं, हम क्या करें?
तुम्हीं कह दो कि अब ऐ जाने-वफा, हम क्या करें?
कृष्णतीर्थ!
दिल का दीया तो कभी बुझता ही नहीं। राख कितनी ही जम जाए, ज़रा कुरेदोगे और अंगार मिल
जाएगी। दिल का दीया तो कभी बुझता ही नहीं, यह शाश्वत सत्य है। बुझ सकता नहीं, क्योंकि यह दीया साधारण दीया
नहीं है--बिन बाती बिन तेल! न तो इसकी कोई बाती है और न कोई तेल है। तेल होता, बुझ जाता, तेल चुक जाता तो बुझ जाता।
बाती होती तो बुझ जाता। बाती चुक जाती तो बुझ जाता। और जो बिन बाती बिन तेल जल रहा
है तुम्हारे भीतर,
वहां
तक हवाओं के कोई कंप भी नहीं पहुंचते। वहां न आंधियां पहुंचती हैं न बवंडर पहुंचते
हैं। तुम्हारे अंतस्तल के केंद्र पर कोई भी तरंग नहीं पहुंचती; वहां सब निस्तरंग है।
और जो
यह दिल का दीया है, यही तो
तुम्हारे जीवन का दूसरा नाम है। यह बुझ जाता कृष्णतीर्थ, तो पूछता कौन? वह बुझ जाता तो तुम यहां होते
कैसे? दिल का दीया न कभी बुझा है, न कभी बुझता है। लेकिन मैं
तुम्हारे प्रश्न का अर्थ समझता हूं। कई बार लगता है कि बुझा-बुझा हो गया। बारबार
लगता है कि कोई चमक नहीं है, कोई
लपट नहीं है। बारबार लगता है कि कोई अर्थ नहीं है, अभिप्राय नहीं है। क्यों जिए जा
रहा हूं?
कोई
उत्साह नहीं है। बारबार लगता है कि न तो कहीं कोई प्रेम की किरण है, न कोई प्रार्थना की किरण है।
यह मेरा कैसा दिल का दीया है, इसमें
कोई रस-स्रोत तो बहते ही नहीं! न फूल खिलते हैं, न गंध उठती है। यह कैसा मेरा
दिल का दीया है?
अगर
यही जिंदगी है तो फिर मौत क्या बुरी है। अगर यों ही ठोकरें खाते रहना है, रोज सुबह उठना और रोज सांझ सो
जाना और यों ही व्यर्थ भटकाव में भटकते रहना, अगर यही जिंदगी है और फिर एक दिन मर जाना है, तो आज ही मर जाने में बुराई
क्या है?
मैं
तुम्हारा प्रश्न समझा। तुम यह कह रहे हो कि जीवन में कोई अर्थ क्यों नहीं है। तुम
यह कह रहे हो कि जीवन में कोई अभिप्राय क्यों नहीं है। जीवन एक दुर्घटना जैसा
क्यों मालूम होता है? जीवन
एक उत्सव क्यों नहीं है? मैं
नाच क्यों नहीं रहा हूं? मैं
गीत क्यों नहीं गा रहा हूं? मेरे
भीतर अहोभाव क्यों नहीं है? मैं तुम्हारा
प्रश्न समझा। तुम्हारा प्रश्न यही है। यही तुम्हारा अभिप्राय।
"बुझे दिल में दीया जलता नहीं, हम क्या करें?
तुम्हीं
कह दो,
कि अब
ऐ जाने-वफा हम क्या करें?'
तुम्हारे
किए से कुछ होगा भी नहीं। शायद तुम जो कर रहे हो, उसी के कारण तुम्हारी पहचान
नहीं हो पा रही है दिल के दिए से। तुम्हारा कर्ता-भाव ही तुम्हें चैतन्य से
अपरिचित रख रहा है। या तो तुम कर्ता हो सकते हो या साक्षी। कल दूलनदास के वचन समझे
न! तुम दो में से एक ही हो सकते हो-- या तो साक्षी या कर्ता। अगर कर्ता हुए, साक्षी भूल जाएगा; अगर साक्षी हुए, कर्ता भूल जाएगा।
तुमने
बच्चों की किताबों में कभी यह तस्वीर देखी? एक बूढ़ी स्त्री की तस्वीर होती है बच्चों की
किताबों में। और उसी तस्वीर में एक जवान स्त्री भी छुपी होती है। उन्हीं लकीरों
में! लेकिन एक बड़े मजे की बात है उस तस्वीर के संबंध में : अगर तुम्हें बूढ़ी
स्त्री दिखाई पड़े तो जवान स्त्री दिखाई नहीं पड़ेगी। फिर तुम लाख कोशिश करो, जब तक बूढ़ी दिखाई पड़ती रहेगी
जवान स्त्री दिखाई नहीं पड़ेगी। क्योंकि वे ही लकीरें जो बूढ़ी स्त्री की तस्वीर को
बनाती हैं,
उन्हीं
लकीरों के द्वारा जवान स्त्री बनेगी। और वे लकीरें अभी बूढ़ी को बनाने में उलझी हैं
तो जवान को बनाने के लिए मुक्त नहीं हैं। अगर तुम गौर से देखते ही रहो, देखते ही रहो तो एक घड़ी ऐसी
आएगी कि बूढ़ी स्त्री खो जाएगी और जवान दिखाई पड़ेगी। वह भी एक भीतरी नियम से होता
है। हमारी आंख ज्यादा देर एक चीज पर स्थिर नहीं रह सकती; बदलाहट चाहती हैं। हम जिस चीज
पर थिर हो जाते हैं उबने लगते हैं। बदलना चाहते हैं तो अगर तुम बूढ़ी स्त्री को
देखते रहे,
एक तो
बूढ़ी स्त्री और फिर देखते ही रहे देखते ही रहे, थोड़ी देर में घबड़ा जाओगे, बेचैन हो जाओगे। तुम्हारी
आंखें इधर-उधर हटना चाहेंगी, भागना
चाहेंगी,
बचना
चाहेंगी। उसी बचने में अचानक जवान स्त्री प्रकट हो जाएगी। और तब तुम चकित होओगे कि
जब जवान स्त्री दिखाई पड़ेगी तो फिर बूढ़ी दिखाई नहीं पड़ती, क्योंकि अब वे ही लकीरें जवान
को बनाने लगीं।
पश्चिम
में एक पूरा मनोविज्ञान इसी आधारशिला पर खड़ा हुआ है--गेस्टाल्ट मनोविज्ञान। यह जो
स्त्री है बूढ़ी,
यह एक
गेस्टाल्ट है,
एक
ढांचा--उन्हीं लकीरों का। और वह जो जवान स्त्री है वह दूसरा ढांचा--उन्हीं लकीरों
का। दूसरा गेस्टाल्ट। मगर एक साथ दो गेस्टाल्ट नहीं देखे जा सकते। एक साथ तो केवल
एक ही गेस्टाल्ट,
एक ही
ढांचा देखा जा सकता है।
ठीक
ऐसी ही अवस्था भीतर है। एक ढांचा है कर्ता का और एक ढांचा है साक्षी का। अगर कर्ता
में जुड़ गए तो साक्षी नहीं दिखाई पड़ेगा। और साक्षी दिखाई पड़े तो ही दीया दिल का
जलता हुआ मालूम पड़े। साक्षी चैतन्य ही तो ज्योति है अंतर की। कर्ता ही तो अंधेरा
है। कर्ता ही तो धुआं है। तुम कर्ता में खो गए हो जैसे सभी लोग कर्ता में खो गए
हैं।
लेकिन
फिर भी तुम पूछ रहे हो. . . "तुम्हीं कह दो कि अब ऐ जाने-वफा हम क्या करें?' और अभी भी तुम पूछते हो कि
क्या करें! वह करनेवाला अभी भी पूछ रहा है कि और क्या करूं। लेकिन जब तक तुम कुछ
करोगे,
साक्षी
न हो सकोगे। इसलिए ज्ञानी कहते हैं : कुछ करो न, साक्षी हो जाओ। थोड़ी देर को
न-करने में बैठ जाओ। उस न-करने का ही पारिभाषिक नाम ध्यान है। एक घड़ी-भर चौबीस
घंटों में बस आंख बंद करके रह जाओ, कुछ न करो। करो ही मत! कृत्य से सारा संबंध
ही तोड़ लो। विचार भी नहीं, वासना
भी नहीं,
कृत्य
भी नहीं,
करने
की कोई छाया ही नहीं--बस हूं! सिर्फ रह जाओ।
शुरू-शुरू
में अड़चन होगी,
क्योंकि
जन्मों-जन्मों की आदत है कर्ता होने की, कुछ न कुछ लोग करते ही रहते हैं। खाली नहीं
बैठ सकते। अगर कोई करने योग्य काम न हो तो गैर-करने योग्य काम करने लगते हैं, मगर करते हैं। अगर छुट्टी का
दिन हो,
जिसके
लिए छह दिन से राह देखते थे दफ्तर में बैठे कि छुट्टी आ रही है, रविवार आ रहा है, रविवार आ रहा है और जब रविवार
आता है तो बड़ी मुश्किल में पड़ जाते हैं, अब क्या करें! पत्नियां डरती हैं पतियों से
रविवार को,
क्योंकि
घड़ी जो बिलकुल ठीक चल रही थी उसे खोल कर बैठ गए--ठीक करने के लिए, जो ठीक चल ही रही थी। कि कार
को खोल कर बैठ गए,
जो कि
ठीक चल ही रही थी! कि कैंची उठाकर बगीचे में झाड़ों को काटने लगे। कुछ न कुछ
करेंगे। बिना किए नहीं रह सकते। करने की ऐसी पागल आदत हो गई है!
इसलिए
तुम जब नए-नए ध्यान करने बैठोगे तो पुरानी आदत लौट-लौटकर हमला बोलेगी। फिकर मत
करना! तीन से छह महीने तक हमले होते हैं। तीन से छह महीने तक अगर तुमने इतनी
हिम्मत रखी कि हमले बर्दाश्त कर लिए और तुम रोज बैठते ही गए; तुमने कहा कोई हर्जा नहीं, कुछ न मिला तो कोई हर्जा नहीं, खोया भी क्या; कुछ करते भी तो क्या कर लेते, कर-कर के भी क्या पा लिया
है--छह महीने अगर तुमने यह तय रखा कि एक घंटा बैठे ही रहेंगे, कुछ फिकर न करेंगे, जो हो, हो, तो तुम एक दिन पाओगे अचानक एक
नई सुगंध उठने लगी तुम्हारे भीतर। ऐसी सुगंध, जिससे तुम परिचित नहीं हो। तुम्हारे नासापुट
भरने लगे एक अपूर्व सुवास से! सब फूल फीके होने लगेंगे। और तुम्हारे भीतर एक किरण
जगने लगेगी,
जिसके
सामने सूरज छोटे पड़ जाते हैं, और
तुम्हारे भीतर एक शांति का आकाश फैलने लगेगा, जिसके सामने यह बड़ा आकाश भी एक छोटा-सा आंगन
है।
और जिस
दिन यह अपूर्व क्रांति तुम्हारे भीतर उतरनी शुरू होती है, उस दिन तुम्हें पहली बार पता
चलता है : तुम कौन हो! तुम बुद्ध हो, महावीर हो, कृष्ण हो, क्राइस्ट हो! उस दिन तुम्हें
पता चलता है कि तुम कितनी बड़ी संपदा के मालिक थे और नाहक ही भिक्षापात्र लिए भीख
मांगते फिरते थे। कर्ता को जाने दो।
और
कर्ता में हमारा बड़ा रस है, क्योंकि
कर्ता में ही हमारे अहंकार की सारी जड़ें हैं। मैं कर्ता हूं तो मैं हूं। और अगर
मैं कर्ता नहीं हूं तो मैं भी गया। इसलिए लोग बढ़ा-चढ़ा कर अपनी बातें करते हैं।
थोड़ा-सा कर लेंगे और बहुत बढ़ा कर बताएंगे। ज़रा-सा टीला चढ़ जाएंगे और कहेंगे
ऐवरेस्ट चढ़ गए। छोटे और बड़ो में कुछ भेद नहीं है।
एक
छोटे बच्चे ने भीतर आकर घबड़ाकर अपनी मां को कहाः मां! एक सिंह चला आ रहा है और
एकदम दहाड़ कर मेरे पीछे दौड़ा। उसकी मां ने कहा कि भरे बाजार में, एम० जी० रोड पर कहां का सिंह!
तू झूठ बोलना बंद कर! अतिशयोक्ति करना बंद कर। तुझसे करोड़ बार कह चुकी हूं कि
अतिशयोक्ति मत कर!
करोड़
बार! कुछ बहुत भेद नहीं है छोटों और बड़ों में। अभी बच्चे की इतनी उम्र भी नहीं है
कि करोड़ बार कहा हो, कि
उसने करोड़ बार अतिशयोक्ति की हो। "करोड़ बार कह चुकी हूं कि अतिशयोक्ति मत कर, मगर तू मानता ही नहीं। जा ऊपर
अपने कमरे में बैठ कर भगवान से प्रार्थना कर और क्षमा मांग कि अब झूठ नहीं बोलूंगा, अतिशयोक्ति नहीं करूंगा।'
लड़का
ऊपर गया। थोड़ी देर बाद वापस नीचे आया। मां ने कहाः तूने प्रार्थना की, क्षमा मांगी?
उसने
कहाः हां,
मैंने
प्रार्थना की,
क्षमा
भी मांगी। लेकिन परमात्मा बोलाः तू फिकर मत कर, जब मैंने पहली दफा देखा उसे तो मैंने भी यही
समझा कि सिंह आ रहा है, हालांकि
है कुत्ता। मगर तूने ही धोखा खाया ऐसा नहीं है, मैं भी धोखा खा गया।
यह जो
बच्चा कुत्ते को देखकर सिंह की घोषणा कर रहा है, इससे तुम भिन्न समझते हो
बूढ़ों की घोषणाएं?
बस यही
अतिशयोक्ति चलती है। क्यों इतनी अतिशयोक्ति चलती है? किसी तरह हम अपने अहंकार को
बढ़ा कर के बताना चाहते हैं। बच्चा यह कह रहा है कि सिंह मेरे पीछे पड़ गया, मेरा बाल नहीं बिगाड़ पाया।
तुम भी यही कह रहे हो। ज़रा अपनी घोषणाओं को देखना, अपने वक्तव्यों को देखना।
छोटी-छोटी बातों को कितना बढ़ा रहे हो! और पीछे कुल खेल एक है कि इस तरह अहंकार
भरता है। मैं कुछ खास हूं, ऐसे
प्रतीति होती है।
जरूरत
नहीं है यह प्रतीति की। तुम खास हो ही! इसकी घोषणा करना बिल्कुल ही व्यर्थ है। और
तुम्हीं खास नहीं हो, यहां
प्रत्येक व्यक्ति खास है। परमात्मा खास लोग ही बनाता है, गैर-खास बनाता ही नहीं।
तोड़ दो
मन! अहम् तोड़ दो
मत
शिखर पर अकेले रहो
मुक्त
मैदान में भी बहो
अंध
क्षण में कभी ली हुई
दंभ की
हर कसम तोड़ दो
गीत
लिक्खे न सूरजमुखी
चेतना
हो दुःखी की दुःखी
काव्य
लिखना जरूरी नहीं--
कुंठिता
हो कलम तोड़ दो
जिंदगी
बंध गई झील-सी
एक
बीमार कंदील-सी
आदमी
के हितों के लिए
निर्दयी
सब नियम तोड़ दो
श्रेष्ठतम
सृष्टि की सर्जना
व्यर्थ
उस प्यार की वर्जना
स्वस्थ
संशोधनों के लिए
रूढ़ियों
की रसम तोड़ दो
स्वप्न
वह जो कि पैदल चले
धूल
जलती हुई मुख मले
सिर्फ
रेशम नहीं जिंदगी
इंद्रधनुषी
वहम तोड़ दो
एक ही
वहम है इस जगत् में--सारे वहमों का स्रोत--एक ही इंद्रधनुषी वहम हैः अहंकार का!
तोड़ दो
मन! अहम् तोड़ दो
दंभ की
हर कसम तोड़ दो
और फिर
तुम पाओगेः दीया न तो कभी बुझा था न बुझ सकता है। ज़रा अहंकार का परदा हटे और दीया
जल रहा है!
एक झेन
फकीर हुआ,
बोकोजू।
सर्द रात है और एक अतिथि बोकोजू के घर मेहमान हुआ है। अंगीठी जल रही है, लेकिन धीरे-धीरे अंगीठी बुझने
लगी। राख जम गई। सर्दी बढ़ने लगी। बोकोजू ने उस अतिथि भिक्षु से कहाः भिक्षु, जरा अंगीठी में देखो, कोई अंगार बची या नहीं? बोकोजू के रास्तों का उस
अजनबी भिक्षु को कुछ पता न था। बोकोजू बाहर की अंगीठी की बात ही नहीं कह रहा था।
बोकोजू तो भीतर की अंगीठी की बात कर रहा था। वह यह कह रहा था कि ज़रा भाई, भीतर देख, कुछ अंगार बची या नहीं कि सब
राख ही राख हो गया? बड़ी
देर से इस अतिथि को देख रहा था। देख रहा होगा परत-पर-परत राख-पर-राख जमी है। लेकिन
स्वभावतः उस अतिथि ने समझा कि अंगीठी की बात हो रही है, तो उसने पास में पड़ी एक लकड़ी
का टुकड़ा उठाया और अंगीठी में घुमाया और फिर कहा कि नहीं, कोई अंगार नहीं है, राख ही राख है।
बोकोजू
हंसने लगा । उसने कहा कि नहीं-नहीं, अंगार है। अंगार कभी बुझती ही नहीं। अब तो
बात और भी जटिल हो गई । उस अतिथि ने कहाः अंगार कभी बुझती नहीं, आप क्या बात कर रहे हैं!
बोकोजू उठा,
लकड़ी
के टुकड़े को फिर उसने उठाया, अंगीठी
में फिर घुमाया,
खूब
खोजा और एक छोटा-सा अंगार राख में कहीं दबा पड़ा रह गया होगा, उसे बाहर लाया। पूंका और कहा
देखो। बाहर तक का अंगार अभी नहीं बुझा है तो भीतर का तो कैसे बुझेगा? राख कितनी ही हो, ढेर लग जाएं राख के, पहाड़ लग जाएं राख के, अंबार हों राख के; मगर भीतर की अंगार न बुझती है
न बुझ सकती है। भीतर की अंगार शाश्वत जीवन की अंगार है। ज़रा अहंकार को हटाओ; बस इसी की राख है।
कृष्णतीर्थ, कुछ और नहीं करना है। न-करना
सीखना है। साक्षी-भाव सीखना है। तुम जरूर ऊब रहे होओगे जिंदगी से क्योंकि बिना इस
भीतर की साक्षी चेतना के जिंदगी निश्चित ही ऊब हो जाती है, बड़ी ऊब हो जाती है। सब
बासा-बासा लगता है। बेस्वाद! जैसे बहुत दिन बुखार के बाद भोजन लगता है, ऐसी जिंदगी लगती है और यह
बुखार बहुत दिन पुराना है, जन्मों-जन्मों
पुराना है।
ऊब
सुबह की,
घुटन
दोपहर और उदासी शाम की
कई
दिनों से यही दशा है
क्या
मर्जी है राम की
सिर्फ
औपचारिकता भर है
रस ही
कहां रहा रिश्तों में
एक
उम्र जीने की खातिर
रह-रहकर
मरना किश्तों में
यह
कितना तीखा मज़ाक जिंदगी बराए नाम की
कई
दिनों से यही दशा है
क्या
मर्ज़ी है राम की
तन के
सुख की स्पर्धाओं में
मन
जैसे बीमार पड़ा हो
आमुख
के पहले ही जैसे
लिखना
उपसंहार पड़ा हो
यह
कैसा प्रारंभ कि चर्चा होती पूर्ण विराम की
कई
दिनों से यही दशा है
क्या
मर्ज़ी है राम की
चिंता
वह तेज़ाब कि जिसमें
यह
अस्तित्व घुला जाता है
पढ़ना
हमें समर्पण लेकिन
अंतिम
पृष्ठ खुला जाता है
यह
कैसा स्वागत है जिसमें ध्वनि आखिरी प्रणाम की
कई
दिनों से यही दशा है
क्या
मर्ज़ी है राम की
कृष्णतीर्थ! जितना चिंतनशील-विचारशील व्यक्ति हो
उतनी ही ज्यादा ऊब का अनुभव होता है। सिर्फ भैंसें ऊबती नहीं। सिर्फ गधे अर्थहीनता
का अनुभव नहीं करते। मनुष्यों में भी केवल वे ही लोग जो बहुत अंधों की तरह जीते
हैं, मूच्र्छित, जो अभी पशु-जगत् से मुक्त
नहीं हुए हैं,
उनके
जीवन भर में ऊब नहीं होती। उनके जीवन में
बड़ी दौड़-धाप देखोगे तुम, बड़ी
गरमा-गरमी। उनके जीवन में बड़ा उत्तेजन देखोगे तुम। चले जा रहे हैं दिल्ली की तरफ!
उनके जीवन में एक गंतव्य हैः दिल्ली पहुंचना है! किसी को राष्ट्रपति बनना है, किसी को प्रधानमंत्री बनना है, किसी को कुछ और बनना है।
तुमने
एक मजा देखा है,
राजनीतिज्ञों
को तुम ऊबा हुआ नहीं देखोगे। बड़े उत्फुल्ल मालूम होते हैं। ऊबने लायक बुद्धि भी तो
चाहिए। ऊबने लायक सोच-विचार भी तो चाहिए! कोई धन की दौड़ में है, ऊबता नहीं; कोई पद की दौड़ में है, ऊबता नहीं। लेकिन जो लोग थोड़ा
भी सोचेंगे जीवन के संबंध में, थोड़ा
विराम लेकर आंख डालेंगे भीतर, उन्हें
ऊब स्वाभाविक मालूम होगी। लगेगाः प्रयोजन क्या है? ठीक, राष्ट्रपति भी हो गए तो फिर
क्या है?
सिकंदर
ने डायोजनीज़ से पूछा था कि तू इतना आनंदित क्यों है, तेरे पास कुछ भी तो नहीं! और
डायोजनीज़ ने कहाः मैं तुझसे पूछता हूं कि तू इतना दुःखी क्यों है, तेरे पास सब कुछ तो है!
सिकंदर ने कहाः मैं दुःखी हूं क्योंकि अभी सारे जगत् का सम्राट् नहीं हो पाया हूं।
होकर रहूंगा।
डायोजनीज़
ने कहाः समझ लो कि हो गए, फिर
क्या करोगे?
यह एक
बड़ा अद्भुत प्रश्न हैः समझ लो कि हो गए, फिर क्या करोगे? सिकंदर एक क्षण को ठिठका रह
गया, जवाब न दे सका। यह किसी ने
पूछा ही नहीं था उसे कभी कि हो गए समझ लो, फिर क्या करोगे? किसी ने पूछा नहीं था। उत्तर
भी उसके पास तैयार नहीं था। इसलिए एक क्षण ठिठका। फिर उसने कहाः फिर क्या करूंगा, फिर जैसे तुम आराम कर रहे हो, ऐसे मैं भी आराम करूंगा।
तो
डायोजनीज़ ने कहाः अभी आराम करने में क्या अड़चन आ रही है? मैं कर ही रहा हूं, तुम भी करो। फिर क्यों यह
आपाधापी?
मगर
सिकंदर ने कहाः नहीं, यह अभी
नहीं हो सकता। अभी तो अभियान पर निकला हूं। यह तो दुनिया में करके दिखाना है।
जिनको
दुनिया में कुछ करके दिखाना है, उनको
तुम ऊबे हुए न पाओगे। उनमें तुम एक तरह की सतत तीव्रता पाओगे। उनके पैर हमेशा
तत्पर हैं दौड़ने को। वे प्रतियोगी हैं। उनके जीवन में तुम हमेशा एक तरह की भ्रांति
पाओगे,
जो
उनके रस को बनाए रखती है। लेकिन जो थोड़ा सोच-विचारशील है... डायोजनीज़ जैसा जो
पूछेगा कि समझो कि पा लिया दुनिया का राज्य फिर क्या करूंगा, उसके जीवन में ऊब आएगी, उदासी आएगी, अर्थहीनता आएगी।
इसलिए
पश्चिम में बहुत जोर से अर्थहीनता आ रही है; पूरब में नहीं, क्योंकि पूरब अभी भी इतनी
दीनता में पड़ा है कि अभी हम किसी तरह जिंदा रह लें, यही बहुत है। हमें इतनी
सुविधा नहीं है कि बैठ कर हम विचार करें कि जिंदगी का अर्थ क्या है। रोटी ही पास
नहीं, कपड़ा पास नहीं, छप्पर पास नहीं। रोटी हो, कपड़ा हो, छप्पर हो, तो फिर आदमी बैठ कर विचार करे
कि जीवन का अर्थ क्या? पहले
तो रोटी चाहिए। जब तक रोटी नहीं मिलती तब तक जीवन का अर्थ, है भी कुछ या नहीं है कुछ, ये प्रश्न नहीं उठते हैं।
पश्चिम में ये प्रश्न बड़े जोर से उठ रहे हैं, क्योंकि रोटी का सवाल हल हो गया है। मकान का
सवाल हल हो गया है, काम का
सवाल हल हो गया है, अब? अब जिंदगी का प्रयोजन क्या है?
कृष्णतीर्थ!
ऐसे यह अच्छा लक्षण है कि तुम्हारे मन में सवाल उठा।
ऊब
सुबह की घुटन दोपहर और उदासी शाम की
कई
दिनों से यही दशा है
क्या
मर्ज़ी है राम की
सिर्फ
औपचारिकता भर है
रस ही
कहां रहा रिश्तों में
एक
उम्र जीने की खातिर
रह-रहकर
मरना किश्तों में
यह
कितना तीखा मज़ाक ज़िंदगी बराए नाम की
कई
दिनों से यही दशा है
क्या
मर्ज़ी है राम की
मगर इस
ऊब से दो परिणाम हो सकते हैं। एक--आत्मघात, कि आदमी को लगे कि जिंदगी इतनी व्यर्थ है कि
जिएं ही क्यों मर ही क्यों न जाएं? दोस्तोवस्की के एक उपन्यास ब्रदर्ज़ कर्माज़ोव
का एक पात्र ईश्वर से कहता हैः लो यह अपनी टिकट, वापिस लो, मैं जिंदा नहीं रहना चाहता।
यह तुम्हारी जिंदगी व्यर्थ है। संभालो! न तो मैं अनुगृहीत हूं, न अनुग्रह का कोई कारण देखता
हूं। सिर्फ मुझे बाहर हो जाने दो। बड़ी कृपा होगी, मुझे जिंदगी से बाहर हो जाने
दो।
सार्त्र, कामू, पश्चिम के और आधुनिक विचारक
एक ही चिंतना से भरे हुए हैं कि जिंदगी ऊब है, इससे छुटकारा कैसे हो? पश्चिम में आत्मघात करनेवाले
लोगों की संख्या बढ़ती जाती है।
तो एक
तो उपाय है कि समाप्त कर लो अपने को, जिंदगी बेकार है, सार क्या दौड़े रहना? और एक दूसरा उपाय है कि
आत्मक्रांति कर लो। यह जिंदगी बेकार है। यह कर्ता के होने की जिंदगी बेकार है।
कर्ता के केंद्र पर बनी जिंदगी बेकार है। एक और जिंदगी है, जो साक्षी के केंद्र पर बनती
है। बुद्धों के जीवन, उस
जिंदगी में यात्रा करो।
मेरी
दृष्टि में आत्मघात की घड़ी और संन्यास की घड़ी एक साथ उपस्थित होती हैं; एक ही घड़ी के दो पहलू हैं। जब
जिंदगी इतनी व्यर्थ मालूम होती है कि या तो इसे खत्म करो या इसे बदलो, दो के अतिरिक्त कोई विकल्प
नहीं छूटता,
तभी
मनुष्य के जीवन में कुछ घटता है। बुद्ध को भी एक दिन लगा था कि सब व्यर्थ है, लेकिन उन्होंने आत्मघात नहीं
किया।
पूरब
इस सत्य को सदियों से जानता रहा है कि जीने का एक और ढंग भी है, जो सार्थक होता है, जो सुगंधपूर्ण होता है, जो रोशनी से भरा होता है। यही
एक ढंग,
जिसे
हम जानते हैं,
एकमात्र
ढंग नहीं है;
एक और
भी जिंदगी के जीने का ढंग है। कर्ता की भांति, एक; साक्षी की भांति, एक। कर्ता की भांति जो जिएगा, वह आज नहीं कल ऊब का अनुभव
करेगा। अगर उसमें थोड़ी बुद्धि होगी तो जरूर ऊब का अनुभव करेगा। अगर बुद्धि बिल्कुल
नहीं होगी तो ऊब का अनुभव नहीं करेगा। मगर वह और भी बदतर दशा है। बुद्धि का इतना न
होना कि जिंदगी में ऊब का अनुभव ही न हो, बड़ी बुरी दशा है। वह तो मनुष्य से नीचे की
दशा है।
मनुष्य
तो वही,
जो मनन
करे। मनन से ही मनुष्य शब्द बना है। सोचे-विचारे, विमर्श करे। और जब विमर्श
करोगे तो यह सवाल उठेगा कि क्या सार है, क्यों जियूं? एक सांस और क्यों लूं; अगर इसी तरह जीना है जैसा आज
तक जिए हैं,
तो फिर
क्यों जिएं,
कल
क्यों जिएं?
फिर तो
यह जीना सिर्फ कायरता होगी।
आमतौर
से तुम सोचते हो कि जो लोग आत्महत्या कर लेते हैं वे कायर हैं; लेकिन आत्महत्या के पक्षपाती
लोगों का कहना कुछ और है। वे कहते हैं: जो आत्महत्या नहीं करते, वे कायर हैं! मरने से डरते
हैं, इसलिए चले जाते हैं। मरने की
हिम्मत नहीं जुटा पाते, इसलिए
जिए चले जाते हैं।
मुल्ला
नसरुद्दीन ने एक बार आत्महत्या का इंतजाम किया। समझदार आदमी! सोचा-विचारा बहुत।
देखा, जिंदगी में कोई अर्थ नहीं।
सयाना आदमी है तो सब इंतजाम किए। एक चूक जाए तो दूसरा न चूके। तो साथ में एक
पिस्तौल ले ली,
रस्सी
ले ली,
घासलेट
के तेल का एक पीपा ले लिया, माचिस
ले ली,
सब
लेकर पहुंचा नदी के किनारे। चढ़ गया एक टीले पर, एक झाड़ से रस्सी बांधी--फांसी लगाने के लिए।
फांसी लगा ली,
तेल
उंडेल लिया,
आग लगा
ली, गोली चला दी। और जब दूसरे दिन
मुझे मिला तो मैंने कहा कि नसरुद्दीन, क्या हुआ? उसने अपना सिर ठोंक लिया, उसने कहाः भाग्य की खराबी!
इतने इंतजाम किए और सब बेकार गए।
मैंने
कहाः पूरा ज़रा विस्तार से कहो। तो उसने कहा कि जब रस्सी बांधी और गले में फांसी
लगाई, तेल डाला, तब तक ऐसा लगता था सब ठीक चल
रहा है। फिर जो मैंने गोली मारी, मारी
तो सिर में थी,
सिर
में न लगी,
रस्सी
में लगी। रस्सी कट गई। नदी में गिरा सो आग बुझ गई। और फिर अगर मुझे तैरना न आता
होता तो कल जिंदगी से गए थे। वह तो तैरना आता था, यह कहो, कि अपने घर भलीभांति वापिस आ
गए।
जो लोग
आत्मघात के पक्षपाती हैं. . .ऐसे दार्शनिक हैं जो आत्मघात के पक्षपाती हैं, उनका कहना है कि लोग कायरता
के कारण जी रहे हैं। उनकी बात में भी थोड़ा बल तो है; क्योंकि जहां कोई अर्थ न हो, जहां सब व्यर्थ हो, वहां क्यों आदमी जीता है? मैं भी उनसे राजी हूं, लेकिन सिर्फ आधी दूर तक--कि
लोग कायरता के कारण ही चुपचाप जिंदगी को घसीटे जाते हैं कोल्हू के बैल की भांति।
मगर मैं उनकी दूसरी बात से राजी नहीं हूं कि लोगों को आत्महत्या कर लेनी चाहिए।
उससे तो कुछ भी न होगा। इधर आत्महत्या होगी उधर दूसरे गर्भ में जन्म हो जाएगा। फिर
वही यात्रा शुरू हो जाएगी। यह तो कोई बचने का उपाय नहीं।
जिंदगी
की इस व्यर्थ दौड़-धाप से बचने का हमने और भी अद्भुत उपाय खोजा है--कि फिर न जन्म
होता और न फिर मृत्यु होती। उस क्रांति की प्रक्रिया का नाम ही संन्यास है, ध्यान है, धर्म है। और जो रूपांतरण करना
है, वह साक्षी को जगाना है और
कर्ता को भुलाना है। अभी कर्ता साक्षी की छाती पर बैठा है। कर्ता को छाती से उतर
जाने दो। और कृष्णतीर्थ, तुम
अचानक पाओगे,
दीया
जल ही रहा था। दीया कभी बुझा ही न था।
कुछ
करना नहीं है;
सिर्फ
कर्ता से हमारी आंखें धुंधली हो गई हैं, अंधी हो गई हैं। कर्ता की धूल हमारी आंख पर
जम गई हैं;
उसे
झाड़ दो,
और
तुम्हें भीतर की ज्योति उपलब्ध हो जाएगी। उसका उपलब्ध हो जाना बिल्कुल सुनिश्चित
है। आश्वासन है। उसने भी भीतर थोड़ा-सा भी जागकर साक्षी को तलाशा है उसे जीवन के
परमस्रोत सदा ही मिल गए हैं।
चौथा प्रश्नः भगवान! भजन, प्रार्थना और ध्यान में क्या
भेद है?
धर्मरक्षिता!
ध्यान है भजन की निष्क्रिय अवस्था और भजन है ध्यान सक्रिय की अवस्था। जब भजन मौन
में होता है तो ध्यान और जब ध्यान मुखर होता है तो भजन।
जैसे
नील नदी मीलों तक जमीन के नीचे बहती है; जब तक जमीन के नीचे बहती है तब तक ध्यान और
जब प्रकट होकर जमीन के ऊपर बहने लगती है तब भजन।
ध्यान
की अभिव्यक्ति है भजन। भाव की अभिव्यक्ति है भजन।
जैसे
मां के पेट में नौ महीने तक बच्चा रहता है--छिपा, प्रच्छन्न, अदृश्य--यह ध्यान। फिर एक दिन
जन्म होता है बच्चे का और किलकारी और बच्चे का पदार्पण, एक नए अतिथि का प्रवेश जगत्
में--वह है भजन।
ध्यान
है शुद्ध आत्मा और भजन है जब आत्मा देह ले लेती है। ध्यान है निराकार; भजन है निराकार का आकार में
प्रकट होना,
रूप
में प्रकट होना,
रंग
में प्रकट होना। दोनों अद्भुत हैं। बीज है ध्यान, फूल है भजन। बीज में फूल छिपा
पड़ा, तुम तोड़ोगे तो मिलेगा नहीं।
लेकिन बीज की सार्थकता यही है कि फूल बने। और जब फूल बनेगा तो बीज खो चुका होगा।
गंध उड़ेगी आकाश में। रंग उड़ेंगे आकाश में। तितलियांर् ईष्या से भरेंगी। बीज अपने
गंतव्य पर पहुंच गया।
ध्यान
और भजन एक ही यात्रा के दो पड़ाव हैं। और चूंकि दुनिया में दो तरह के लोग हैं, इसलिए इस बात की संभावना है
कि कुछ लोग ध्यान से ही उपलब्ध हो जाएंगे और कुछ लोग भजन से ही उपलब्ध हो जाएंगे।
यह
सारा अस्तित्व दो तरह के लोगों में बंटा हुआ है। स्त्री-पुरुष का भेद सिर्फ जैविक
भेद नहीं है;
स्त्री-पुरुष
का भेद सारे अस्तित्व में सामस्त तलों पर है। चाहे विद्युत हो तो वहां भी ऋण और धन
विद्युत है और चाहे चुम्बकीय शक्ति हो, तो वहां भी ऋण और धन चुम्बकीय शक्ति है।
चाहे कोई भी तल हो, हर तल
पर स्त्री और पुरुष का भेद है।
पुरुष
है ध्यान,
स्त्री
है भजन। बुद्ध शुद्धतम ध्यान के प्रतीक हैं और मीरां शुद्धतम भजन का। ऐसा मत समझ
लेना कि पुरुष भजन नहीं कर सकते, क्योंकि
चैतन्य भी उसी जगह पहुंच जाते हैं जहां मीरां। लेकिन चैतन्य का स्वभाव भी मीरां
जैसा है,
स्त्रैण
है, माधुर्य से भरा है, लावण्य से भरा है, मृदु है, कोमल है, सुकुमार है। और ऐसी स्त्रियां
भी हुईं जो ध्यान से पहुंचीं; जैसे
कश्मीर की लल्ला या सूफी फकीर राबिया। लेकिन इनका व्यक्तित्व बुद्ध और महावीर जैसा
है--पुरुष। स्त्री जैसा तरल नहीं, सुकोमल
नहीं। संकल्प प्रगाढ़ है।
तो मैं
यह नहीं कह रहा हूं कि पुरुष और स्त्री का मतलब तुम जैविक अर्थो में लेना। पुरुषों
में बहुत होंगे जो भजन से पहुंचेंगे; स्त्रियों में बहुत होंगी जो ध्यान से
पहुंचेंगी। लेकिन ऊर्जा का भेद साफ है।
भजन--अभिव्यक्ति
है, अभिव्यंजना है, गुंजार है, गीत की गुनगुनाहट है, मुखरता है। ध्यान चुप्पी है, सन्नाटा है, मौन है।
और एक
बात याद रखनाः जहां भजन होगा उसके पीछे छिपा ध्यान हमेशा होता है, नहीं तो भजन प्राण कहां से
पाएगा?
अगर
मौन न होगा तो मुखरता कहां से आएगी? अगर भीतर शून्य न होगा तो शून्य की
अभिव्यक्ति करने वाले गीत कहां से पैदा होंगे? बिना बीज के फूल तो नहीं होगा। बिना ध्यान
के भजन भी नहीं होगा। और उससे उल्टा भी सच हैः जहां-जहां ध्यान हो वहां-वहां
संभावना है भजन की। प्रकट हो या न हो यह और बात, मगर संभावना है। यह हो सकता
था कि बुद्ध भी गाते। यह हो सकता था। यह हुआ नहीं, यह दूसरी बात है। या यह हुआ
इतने अदृश्य ढंग से हमारी सीधी-सीधी पकड़ में नहीं आया। बुद्ध के चलने में एक
लयबद्धता है। जैसा मीरां के नृत्य में है वैसा बुद्ध के चलने में है। इसको नाच
नहीं कह सकते। मगर एक संगीत है। बुद्ध के उठने-बैठने में एक प्रसाद है, एक काव्य है। बुद्ध की आंख के
झपने, खुलने में एक ताल है, एक संगीत है, एक सरगम है। यह प्रकट नहीं है
मीरां जैसा। यह अदृश्य-अदृश्य है। यह बड़ा चुप-चुप है। इसकी कोई उद्घोषणा नहीं की
जा रही है। इसकी पगध्वनि भी नहीं सुनाई पड़ती।
मीरां
तो ऐसे है जैसे छप्परों पर चढ़कर किसी ने आवाज दी हो, पुकार दी हो, अजान दी हो। बुद्ध ऐसे हैं
जैसे दो प्रेमी आस-पास बैठकर खुस-पुस करें, किसी और को सुनाई भी न पड़े। उनको भी
एक-दूसरे का सुनाई पड़ रहा है, इसका
भी कोई प्रेमियों को प्रयोजन नहीं होता । मजा इसका नहीं होता कि कुछ कहा जाए; एक-दूसरे के कान के पास मुंह
ले जाना ही काफी होता है। कुछ कहने को प्रेमियों के पास होता भी क्या है! अंग्रेजी
में कहते हैं "स्वीट नथिंग्स'! कुछ कहने के होता ही नहीं--मीठा-मीठा नाकुछ।
यह सवाल नहीं है कि कुछ कहो, कि कान
में कुछ कहा ही जाए। बस कान के पास ओंठ पहुंच गए, यह काफी है, वाणी प्रकट हो या न हो।
धर्मरक्षिता, तेरा प्रश्न महत्त्वपूर्ण है।
दर्द
कुछ और हो जवान नया गीत लिखूं
और
व्याकुल हो ज़रा प्राण नया गीत लिखूं
सिसकती
सांस को पहले मिलें तो स्वर
आंसुओं
को मिले ज़ुबान नया गीत लिखूं
सुप्त
अनुभूति जगे,
सिहरे
संवेदन
भावना
में उठे उफान नया गीत लिखूं
यह जो
आवाज है कहीं हृदय टूटा
क्रौंच
का वध हुआ विधान नया गीत लिखूं
संशयों
की यह लंबी रात तो कटे
विवेक
का हो फिर विहान नया गीत लिखूं
रूप
यूं ही रहे कुछ बीमार उदास
काम मत
खींचना कमान नया गीत लिखूं
करें
यथार्थ अगर कल्पना का वरण
सत्य
हो स्वप्न का निदान नया गित लिखूं
मेरी
रचना के संदर्भो में सदा
आदमी
ही रहे प्रधान नया गीत लिखूं
एक ही
श्लोक बस गीता तो दे मुझे
एक आयत
तो दे कुरान नया गीत लिखूं
भजन तो
एक नए गीत का स्फुरण है। और जहां भजन है वहां भगवान अभिव्यक्त है। जहां चार दीवाने
बैठकर भजन करते हैं वहां परमात्मा को खींच लाते हैं पृथ्वी पर; वहां आकाश को उतार लेते हैं
जमीन पर!
एक ही
श्लोक बस गीता तो दे मुझे
एक आयत
तो दे कुरान नया गीत लिखूं
और एक
गीता की कड़ी पैदा हो जाए तुम्हारे भीतर--अपनी, तुम्हारे प्राणों में सरजी, तुम्हारे प्राणों में जन्मी
या एक आयत पैदा हो जाए तुम्हारे भीतर कुरान की, बस पर्याप्त है। उस एक कड़ी में, उस एक लड़ी में सारा जीवन धन्य
हो जाएगा।
लेकिन
भजन पैदा तभी हो सकता है जब ध्यान का थोड़ा अनुभव हो। बीज तो चाहिए ही चाहिए, नहीं तो फूल न हो सकेंगे।
बूंद तो चाहिए ही चाहिए, नहीं
तो सागर कैसे बनेगा? भाव तो
चाहिए ही चाहिए,
नहीं
तो अभिव्यंजना कहां से होगी?
साक्षी
में डूबो। अगर कोमल कवि का चित्त हुआ तो साक्षी में डुबकी लगाते ही तुम्हारे हाथ
में हीरे आ जाएंगे और गीत जन्मेंगे। तुम्हारे हाथ में गीता की कड़ी आ जाएगी, कुरान की आयत आ जाएगी। अपने
ही साक्षी में डूबते अगर तुम्हारे भीतर थोड़ा कोमल स्त्रैण कवि का हृदय हुआ, चित्रकार का, संगीतज्ञ का, नर्तक का--तो भजन अपने से
पैदा होता है। भजन सीखने नहीं होते। साक्षी से संबंध जुड़ा कि भजन पैदा होते हैं।
जैसे वृक्षों में फूल लगते हैं, ऐसे
तुम्हारे भीतर भजन लगने शुरू हो जाएंगे। और जिसके भीतर भजन लगता है उसके चारों तरफ
भगवान की उपस्थिति अनुभव होने लगती है।
चांद
चढ़ा
निशिगंधा
द्वार महकी
बार
बार महकी
कांटों
का पहरा या पत्तों में बंद
कली
रोक पायी न यौवन की गंध
दृष्टि
ओट
परकोटे
पार महकी
बार
बार महकी
ज्वार
चढ़े सागर में अंगों पर रूप
कौन
रोक पाता जब चढ़ती है धूप
अंग
अंग
चंद्रिमा
निखार महकी
बार
बार महकी
प्यास
पी पुकारेगी स्वर न करो मंद
कौन
नहीं रचता समर्पण के छंद
लाज
भरी
पिया
को पुकार महकी
बार
बार महकी
चांद
चढ़ा
निशगंधा
द्वार महकी
बार
बार महकी
तुम्हारे
भीतर साक्षी का भाव ऊपर उठे। चांद चढ़े ज़रा साक्षी का! और--
निशिगंधा
द्वार महकी
बार
बार महकी
परकोटे
पार महकी
बार
बार महकी
चंद्रिमा
निखार महकी
बार
बार महकी
पिया
को पुकार महकी
बार
बार महकी
तुम्हारे
भीतर-बाहर पिया की पुकार उठने लगेगी। नहीं कि तुम इसके लिए आयोजन करोगे। यह बिना
किसी आयोजन के,
बिना
किसी विधि-उपाय के अनायास अपने से हो जाता है। और जब भजन अपने से पैदा होता है तो
उसका सौंदर्य अपरिसीम, उसकी
महिमा अपूर्व। वह फिर इस लोक का नहीं होता। फिर तुम्हारे भीतर गंधर्व उसे गाते
हैं। फिर तुम्हारे भीतर आकाश उसे गुनगुनाता है।
लेकिन
तुम्हारे व्यक्तित्व के ढांचे पर निर्भर होगा। मीरां ने गाया, चैतन्य ने गाया, कबीर ने गाया। लेकिन ऐसे भी
लोग हुए जो साक्षी में गए तो चुप हो गए, बिल्कुल चुप हो गए, शब्द भी न टूटा, शब्द भी न फूटा, सन्नाटा ही हो गया! वह भी एक
अभिव्यक्ति है--वह ध्यान की। वह बड़ी भिन्न है। उसे समझने के लिए ध्यानी चित्त
चाहिए। उसे समझने के लिए शून्य की भाषा को पकड़ पाने की सामर्थ्य चाहिए।
भजन
शब्द में प्रकट हो जाता है; ध्यान
शून्य में प्रकट होता है। भजन बोलता है, सुन सकते हो। ध्यान बोलता नहीं, सिर्फ होता है; गुन सकते हो।
लेकिन
ध्यान रहे,
कुछ भी
अपने ऊपर ओढ़ना मत। ध्यान बने तो ध्यान, भजन बने तो भजन। चेष्टा मत करना। चेष्टा से
सब कृत्रिम हो जाता है। परमात्मा जो तुमसे करवाना चाहे करने देना। तुम्हें गुलाब
बनाए तो गुलाब बन जाना, कमल
बनाए तो कमल बन जाना, गेंदा
बनाए तो गेंदा,
चंपा
बनाए तो चंपा,
घास का
फूल बनाए तो घास का फूल। परमात्मा के हाथ में अपने को छोड़ देना। तुम अपने को बीच
में लाना ही मत। तुम कह देना उससेः जो तेरी मर्जी! और अगर तुम यह कह सको जो तेरी
मर्जी,
तो
परमात्मा औघड़दानी है।
रूठे
तन की निजता ले ली, माने
मन का प्यार दे दिया
रुष्ट
हुए तो सांस मांग ली, रीझे
तो संसार दे दिया
ऐसे
कृपण कि बिना प्यार के
एक
उम्र कट गई अबोली
वह
औघड़दानी याचक की
छोटी
पड़ जाती है झोली
बिगड़े
तो हर बूंद बटोरी,
विहंसे
पारावार दे दिया
लेने
लगे इकाई ले ली,
देने
लगे हजार दे दिया
परिचय
का विस्तार जहां तक
तुमको
उससे आगे माना
जितना
ज्यादा जाना तुमको
मैंने
उतना कम पहचाना
मौन
हुए करुणा भी छीनी, बोले
तो श्रृंगार दे दिया
रोए तो
सावन भी सोखे,
गाए तो
मल्हार दे दिया
औसत
कोई बिंदु न तुममें
जो भी
हो तुम सिर्फ शिखर हो
शीतल
हो तो चंद्र सरीखे
तपे
अगर तो सूर्य प्रखर हो
सोए तो
स्मृतियां समेट लीं, जागे
जीवन-ज्वार दे दिया
हठ कर
लिया कनेर न छोड़ा,
दिया
अगर कचनार दे दिया
सिर्फ
छोड़ दो उस पर,
बिल्कुल
छोड़ दो उस पर! जो उसकी मर्जी! जो राम की मर्जी! और तुम चकित होओगेः भर जाएगी
तुम्हारी झोली बहुत! और भर जाएगी वैसी जैसी भरनी चाहिए। किसी की शून्य से, किसी की संगीत से। किसी की
शब्द से,
किसी
की निःशब्द से। किसी के भीतर भजनों का अंबार और किसी के भीतर ऐसा सन्नाटा कि जिसका
ओर-छोर न मिले।
रूठे
तन की निजता ले ली, माने
मन का प्यार दे दिया
रुष्ट
हुए तो सांस मांग ली, रीझे
तो संसार दे दिया
बिगड? तो हर बूंद बटोरी, विहंसे पारावार दे दिया
लेने
लगे इकाई ले ली,
देने
लगे हजार दे दिया
मौन
हुए करुणा भी छीनी, बोले
तो श्रृंगार दे दिया
रोए तो
सावन भी सोखे,
गाए तो
मल्हार दे दिया
सोए तो
स्मृतियां समेट लीं, जागे
तो जीवन-ज्वार दे दिया।
हठ कर
लिया कनेर न छोड़ा,
दिया
अगर कचनार दे दिया।
आज इतना ही।
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