असंभव क्रांति-(साधना-शिविर)
साधना-शिविर माथेरान,
दिनांक 19-10-67 रात्रि
(अति-प्राचिन प्रवचन)
प्रवचन-चौथा-(ध्यान की आँख)
एक मित्र ने पूछा है, कि क्या मैं संन्यास के पक्ष में
नहीं हूं?
मैं
संन्यास के तो पक्ष में हूं, लेकिन संन्यासियों के पक्ष में नहीं हूं।
संन्यास बड़ी और बात है और संन्यासी हो जाना बड़ी और। संन्यासी होकर शायद हम संन्यास
का धोखा देना चाहते हैं और कुछ भी नहीं। संन्यास तो अंतःकरण की बात है, अंतस की। और संन्यासी हो जाना बिलकुल बाह्य अभिनय है। और बाह्य अभिनेताओं
के कारण इस देश में संन्यास को, धर्म को जितनी हानि उठानी
पड़ी है, उसका हिसाब लगाना भी कठिन है।
संन्यास
जीवन-विरोधी बात नहीं है। लेकिन तथाकथित संन्यासी जीवन-विरोधी होता हुआ दिखाई पड़ता
है। संन्सास तो जीवन को परिपूर्ण रूप से भोगने का उपाय है। संन्यास त्याग भी नहीं
है। वस्तुतः तो जीवन के आनंद को हम कैसे पूरा उपलब्ध कर सकें--इसकी प्रक्रिया, इसकी
वैज्ञानिक प्रक्रिया ही संन्यास है। संन्यास दुख उठाने का नाम नहीं। और न जानकर
अपने ऊपर दुख ओढ़ने का, न जानकर अपने को पीड़ा, तकलीफ और कष्ट देने का।
सच्चाई
तो यह है कि जो लोग थोड़े आत्मघाती वृत्ति के होते है, थोड़े
स्युसाइडल होते हैं, वे लोग संन्यास के नाम से स्वयं को
सताने का, खुद को टार्चर करने का रास्ता खोज लेते हैं।
दुनिया में जिनकी दुष्ट प्रकृति है, जिनका मस्तिष्क और मन
वायलेंट और हिंसक है, वे दो तरह के काम कर सकते हैं। एक तो
यह कि वे दूसरों को सताएं। और दूसरा यह कि अगर वे दूसरों को न सताएं, तो खुद को सताएं। ये दोनों ही हिंसा के रूप हैं। जो आदमी दूसरों को सताने
से अपने को रोकता है जबर्दस्ती, वह अनिवार्य रूप से खुद को
सताने में लग जाता है। तो फिर चाहे वह उसे तपश्चर्या कहता हो, त्याग कहता हो, या कोई और अच्छे नाम चुन लेता हो।
इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है।
और
स्मरण रखें, जो आदमी अपने को सताता है, वह आदमी कभी भी अहिंसक
नहीं हो सकता है। जो अपने को ही प्रेम नहीं करता, वह इस
पृथ्वी पर किसी दूसरे को कभी प्रेम नहीं कर सकता है। दूसरों के प्रति दिखाया जाने
वाला प्रेम धोखा और पाखंड है। क्योंकि जो खुद को ही प्रेम करने में समर्थ नहीं हो
सका, वह और किसको प्रेम कर सकेगा?
मेरी
दृष्टि में संन्यासी वह है,
जो स्वयं को इतना प्रेम करता है कि इस स्वयं को प्रेम करने के कारण
ही उसका जीवन आमूल परिवर्तित हो जाता है। स्वयं के प्रति इस गहरे प्रेम में ही
उसके भीतर सबके प्रति प्रेम का जन्म होता है।
संन्यास
ऐसी चित्त दशा का नाम है,
जहां भीतर व्यक्ति ऐसे जीने लगता है, जैसे कि
हो ही नहीं। जैसे उसकी अस्मिता, उसका अहंकार, उसका इगो खो गया हो, शून्य हो गया हो। वह हवा,
पानी की भांति जीने लगता है। बाहर, इसका यह
अर्थ नहीं होता है कि वह निष्क्रिय हो जाएगा, बल्कि उलटे ही
इसका यह अर्थ होता है कि वही सबसे ज्यादा सक्रिय हो जाएगा। जिसके चित्त के तल पर
शून्य है, उसके परिधि पर, उसके जीवन की
परिधि पर बड़ी सृजनात्मक क्रियाओं का आविर्भाव होता है।
एक
गाड़ी को आप चलते देखते हैं। चके घूमते चले जाते हैं, लेकिन चाक के बीच में जो
कील है, वह थिर बनी रहती है। वह कील की थिरता के कारण ही चका
घूम पाता है। अगर कील भी घूम जाए तो फिर चका नहीं घूम पाएगा। कील ठहरी रहती है और
जितनी थिर होती है, उतना ही चाक घूम सकता है, सहजता से, सरलता से।
संन्यासी
ऐसा व्यक्ति है,
जिसका चित्त तो थिर है, लेकिन जिसके जीवन का
चाक बड़ी गति से घूमता है।
जिसके
जीवन का चाक ही रुक गया हो,
वह आदमी मर गया; वह आदमी संन्यासी नहीं है।
ऐसे ही मरे लोगों को हमने हजारों साल तक पूजा है। और ऐसे मरे लोगों की पूजा के
कारण हमारे पूरे कौम की आत्मा धीरे-धीरे जड़ हो गई है, मर गई
है।
इस
देश में संन्यास के नाम पर पलायनवादी, एस्केपिस्ट प्रवृत्तियों को अदभुत
रूप से पूजा मिली है। जो लोग जीवन को छोड़ दें, जीवन से भाग
जाएं, जीवन के शत्रु हो जाएं, उन सबको
हम आदर देते हैं! तो फिर अगर जीवन उजड़ जाता हो तो कसूर किसका है? फिर अगर जीवन बेरौनक हो जाता हो, अगर जीवन दुख से भर
जाता हो, और जीवन में आनंद की कोई वर्षा न होती हो, तो कौन जिम्मेवार है? फिर इसमें आश्चर्य क्या है?
एक
संन्यासी अपने भक्तों के बीच बोलता था। उसने एक प्रश्न किया। उसने अपने भक्तों से
कहा, तुम में से कितने लोग स्वर्ग जाना चाहते हैं? सभी
हाथ उठ गए, सिर्फ एक हाथ को छोड़कर। संन्यासी बहुत हैरान हुआ।
हाथ नीचे गिरवाकर उसने कहा, अब वे लोग हाथ उठाएं, जो नरक जाना चाहते हैं। एक भी हाथ नहीं उठा। उस आदमी ने भी हाथ नहीं उठाया,
जिसने स्वर्ग जाने के लिए भी हाथ नहीं उठाया था! संन्यासी हैरान हुआ,
उसने कहा, महानुभाव, आप
कहां जाना चाहते हैं?
उस
आदमी ने कहा,
न तो मैं स्वर्ग जाना चाहता हूं, न नरक। मैं
इस जमीन पर रहना चाहता हूं। और इस जमीन को, और इस जमीन के
जीवन को आनंदित देखना चाहता हूं। ये तुम्हारे स्वर्ग जाने वाले लोग इस जमीन को नरक
बनाने के कारण बने हैं। और नरक तो जाने को कोई तैयार नहीं है, सारे लोग स्वर्ग जाने को तैयार हैं, इस कारण यह
पृथ्वी नरक हो गई है। क्योंकि इस पृथ्वी को कौन स्वर्ग बनाए? इस जीवन को कौन सुंदरता दे? इस जीवन की कुरूपता को
कौन मिटाए?
जो
लोग जीवन को छोड़ने की शिक्षा देते हैं, वे तो जीवन को सुंदर न बनाना
चाहेंगे, क्योंकि जीवन अगर सुंदर हो जाए, उसकी सारी अग्लीनेस, उसकी कुरूपता मिट जाए, तो शायद कोई जीवन को छोड़ने की, भागने की कल्पना भी न
करे।
इसलिए
जो लोग जीवन से भागने की शिक्षा देते हैं, वे तो चाहते हैं कि जीवन जितना दुख
और जितनी कुरूपता से भर जाए, उतना अच्छा। क्योंकि तब छोड़ने
की प्रेरणा और तीव्रता से अर्थ और अपील पकड़ लेगी।
हमारे
देश में, या पुराने हजारों वर्षों में ऐसे लोग बहुत कम रहे हैं, जिन्होंने इस पृथ्वी के प्रेम को प्रदर्शित किया हो। जिन्होंने यह कहा हो,
हम इस जीवन को सुंदर, सत्य बनाना चाहते हैं।
मैं
तो ऐसे ही व्यक्ति को धार्मिक कहता हूं, जो इस जीवन को सुंदर बनाने की
चेष्टा में संलग्न है। जो इस जीवन की कुरूपताओं को दूर करना चाहता है, जो इस मौजूदा जिंदगी को, इस पृथ्वी को स्वर्ग बनाने
के लिए चेष्टारत है--वही आदमी धार्मिक है। और जिस आदमी ने अपने पूरे प्राणों को इस
दिशा में संलग्न कर दिया है, वह संन्यस्त है। उसकी अपनी अब
कोई आकांक्षा नहीं, इस जीवन को सुंदर बनाने के अतिरिक्त।
और
यह भी मैं आपसे कह दूं,
जो थोड़े से लोग इस जीवन को सुंदर बनाने के लिए श्रम करते हैं,
वे यहां तो स्वर्ग को उपलब्ध हो ही जाते हैं। और अगर कहीं भी कोई
स्वर्ग होगा तो वे उससे वंचित नहीं रह सकते। उन्होंने वह दूसरा स्वर्ग भी कमा लिया,
इस पृथ्वी को स्वर्ग बनाने में।
लेकिन
जो लोग इस जीवन को उजाड़ते हैं--और तथाकथित साधुओं और संन्यासियों के ऊपर ही यह
सारा जिम्मा है कि उन्होंने भागने की, छोड़ने की ऐसी हवा पैदा की, ऐसी वृत्ति पैदा की कि इस जीवन को बसाने का और बनाने का तो खयाल ही--खयाल
ही खो गया।
यह
हैरानी होगी जानकर कि हमारे जीवन में जितना अकल्याण-अमंगल दिखाई पड़ता है, जितना दुख;
उसमें तथाकथित साधु और संन्यासियों का हाथ है। और इस तथ्य को जब तक
हम न देखेंगे, तब तक न तो जीवन को बदलने के लिए हमारी,
हमारी दृष्टि स्पष्ट हो सकती है और न ही संन्यास का, धर्म का सही अर्थ। और न संन्यस्त जीवन की सही प्रक्रिया का ही हमें बोध हो
सकता है।
हम
तो एक पलायनवादी दृष्टि में, एक एस्केपिस्ट दृष्टि के अंतर्गत बड़े हुए हैं।
और हमने भागते हुए आदमी को आदर दिया है। इस आदर से जितना अमंगल हुआ है, उसकी कल्पना करनी भी कठिन है।
मैं
ऐसे संन्यास,
ऐसे संन्यासी के पक्ष में नहीं हूं। मेरी तो समझ यही है कि जीवन के
अतिरिक्त और कोई परमात्मा नहीं। यह जो विराट जीवन है, सब तरफ
अनंत तक छाया और फैला हुआ, यह जो हम में, और आप में, और पत्तों में, और
पक्षियों में, और पत्थरों में, और आकाश
के तारों में--यह जो विराट जीवन सब तरफ प्रगट होता है, इसी
जीवन की समग्रता का नाम परमात्मा है।
इस
जीवन की समग्रता में जो अपने को इस भांति खो देता है, अपने
अहंकार को--कि उसे इससे कोई पृथकता की दीवाल नहीं रह जाती, उसके
बीच और जीवन के बीच कोई फासला, कोई डिस्टेंस नहीं रह जाता।
क्योंकि एक ही फासला है--अहंकार का, और कोई फासला है भी
नहीं। एक मनुष्य और दूसरे मनुष्य के बीच भी अहंकार का फासला है। एक जीवन और समस्त
जीवन के बीच भी अहंकार का फासला है।
सामान्यतः
संन्यासी मैं उसे कहना चाहूंगा, जिसने इस फासले को पार कर लिया। जिसके और जीवन
के बीच अब कोई फासला नहीं है। लेकिन ऐसा आदमी जीवन से भागेगा नहीं, ऐसा आदमी तो परिपूर्ण रूप से जीवन में सम्मिलित हो जाएगा। जीवन का सब कुछ
उसे स्वीकार हो जाएगा। अब वह है ही नहीं--अस्वीकार कौन करे, भागे
कौन? और भागे तो कहां भागे? अब तो वह
जीवन से एक है। जीवन से एकता की अनुभूति धार्मिक चित्त की आधारशिला है। जो उस
अनुभूति को उपलब्ध होता है, उसे मैं संन्यासी कहूंगा।
लेकिन
संन्यासी के नाम से जो सब चलता रहा है--तो चूंकि हम उसके आदी हो गए हैं देखने के, इसलिए
हमें खयाल नहीं आता कि संन्यासी के नाम से कैसा पाखंड, कैसी
एक्टिंग, कैसा अभिनय चल रहा है।
अगर
हमारी आंखें गहरी होंगी देखने को, तो हम यह देख पाएंगे कि फिल्मों के अभिनेता भी
इतने कुशल अभिनेता नहीं हैं। क्योंकि बेचारे वे कम से कम इतना तो जानते ही हैं कि
अभिनय कर रहे हैं। लेकिन वस्त्रों को बदल लेने वाले संन्यासी, उनको यह भी पता नहीं है कि वे ये क्या कर रहे हैं। वस्त्रों को बदल लेना,
घर-द्वार को बदल लेना, जीवन के बाह्य आवरण में
परिवर्तन कर लेने से कोई संन्यास नहीं उपलब्ध हो जाता है। कपड़े बदल लेने से,
आत्मा बदलने का क्या कोई संबंध है? कपड़े रंग
लेने से, क्या आत्मा के बदल जाने का कोई भी नाता है? और जिसको यह दिखाई पड़ता हो कि कपड़े बदल लेने का इतना मूल्य है, वह बहुत चाइल्डिश है, बहुत बचकाना है। अभी उसकी समझ
जरा भी मेच्योरिटी को उपलब्ध नहीं हुई, वह प्रौढ़ नहीं हुआ
है। लेकिन यह चलता रहा है, चल रहा है और हम सब इसके चलने में
सहयोगी हैं।
मैं
निवेदन करना चाहूंगा ऐसे किसी संन्यास की मेरे मन में कोई आदर, ऐसे
संन्यास के प्रति कोई सदभाव, कोई सहयोग मेरे मन में नहीं है
और आप भी सोचेंगे, तो बहुत कठिन है कि आपके मन में भी रह
जाए। लेकिन हम देखते नहीं जीवन को उघाड़कर। हम तो स्वीकार कर लेते हैं, जो चलता है उसे चुपचाप।
अगर
मनुष्य के भीतर थोड़ी सी भी अस्वीकार की हिम्मत आ जाए, तो जीवन
के हजारों तरह के पाखंड इसी क्षण छूट जाएं, इसी क्षण टूट
जाएं, उनके टिकने की कोई जगह न रह जाए। लेकिन हम अपनी
शिथिलता में, हम अपने आलस्य में, हम
अपनी नींद में आंख खोलकर देखते भी नहीं। जो चल रहा है--हम भी उसमें सहयोगी और साथी
हो जाते हैं।
जीवन
का इतना जो कुरूप रूप उपस्थित हो गया है, इसमें किन लोगों का हाथ है?
उन्हीं
लोगों का जिन्होंने किसी न किसी रूप में भी जीवन से भागने की, पलायन की,
मोक्ष की, किन्हीं दूर की कल्पनाओं के लिए,
इस जीवन को कुर्बान कर देने की बातें की हैं; लोगों
को समझाया है और लोगों में जीवन-विरोधी, लाइफ-निगेटिव दृष्टि
को जन्म दिया है।
मैं
तो लाइफ-अफरमेशन को,
जीवन के स्वीकार को, जीवन के प्रति आदर को,
जीवन के प्रति परिपूर्ण प्रेम को, जीवन जैसा
है--उस जीवन की समग्रता में, उसकी स्वीकृति को ही संन्यास
कहता हूं। जीवन को पूरे ढंग से जीना ही संन्यास है। भाग जाना नहीं, आंख बंद कर लेना नहीं।
लेकिन
ऐसा संन्यासी अभी पैदा होने को है, जो जीवन का शत्रु न हो, मित्र हो। और जिस दिन भी हम ऐसे संन्यासी को जन्म दे सकेंगे, उसी दिन धर्म और जीवन के बीच जो आज खाई खुदी है, वह
समाप्त हो जाएगी। जीवन और धर्म एक हो सकेगा। तब मंदिर और दुकान को अलग रहने की
जरूरत न रहेगी। तब दुकान मंदिर हो सकती है।
वैसे
मंदिर तो बहुत दिनों से दुकान हो ही चुका है। लेकिन दुकान मंदिर नहीं हो पाई है।
तब बाजार, जीवन की सघनता से पहाड़ की चोटियों पर भागने का कोई सवाल नहीं है। कपड़े
बदलने का, घर-द्वार छोड़ देने का नहीं कोई सवाल है। तब सवाल
है स्वयं को बदल लेने का। और जो लोग स्वयं को नहीं बदलना चाहते, वे छोटी-मोटी बदलाहट करके स्वयं को कंसोलेशंस दे लेते हैं, सांत्वना दे लेते हैं--कि हमने अपने को बदल लिया।
यह
धोखा बहुत चल चुका। ऐसे संन्यास को अब कोई जगह, आने वाली मनुष्य की चेतना में नहीं
होनी चाहिए। और हमने बहुत अहित भी भोग लिया। हमने बहुत अमंगल भी भोग लिया। हमने
जीवन को बहुत रूप से उपेक्षित करके; दुखी, परेशान; बेचैन भी, अशांत भी
बना लिया। लेकिन अब तक भी जीवन की परिपूर्ण स्वीकृति को लेने वाले धर्म को,
विचार को हम जन्म नहीं दे सके। कहीं आसमान से वह पैदा होगा भी नहीं।
हम ही उसे मार्ग देंगे, तो वह पैदा हो सकता है।
तो
मैं संन्यास के तो पक्ष में हूं, लेकिन संन्यासी के नहीं। क्योंकि संन्यास एक और
ही क्रांति है, जिससे व्यक्ति गुजर जाता है। और संन्यासी हो
जाना एक ढोंग है। जो लोग क्रांति से बिना गुजरे, क्रांति से
गुजर जाने का वहम पाल लेना चाहते हैं, उनके लिए बड़ा सुगम
उपाय है।
और
कभी तो हैरानी होती है कि तथाकथित बड़े-बड़े नाम भी बच्चे मालूम पड़ते हैं। उनके
आग्रह इतनी छोटी-छोटी बातों के होते हैं कि हैरानी होती है। और इतनी क्षुद्र बातों
में जिनका चित्त लीन होता हो, इतनी क्षुद्र बातों में जो निरंतर ग्रस्त रहते
हों, वे भी विराट की तरफ उड़ान भर पाते होंगे, इसकी कल्पना भी नहीं हो सकती।
एक और मित्र ने पूछा है--कि मैंने कहा कि शास्त्रों में सत्य
नहीं है,
तो फिर मेरी किताबें क्यों हैं? क्यों बेची
जाती हैं? क्यों लोगों को दी जाती हैं?
वे
शास्त्र और किताब के फर्क को नहीं समझ पाए। किताबों के विरोध में मैं नहीं हूं।
गीता एक किताब हो,
तो ठीक। कुरान एक किताब हो, तो ठीक। जिस दिन
कोई किताब शास्त्र बनती है, उसी दिन से खतरा शुरू होता है।
शास्त्र
और किताब में फर्क क्या है?
जब
कोई किताब आथारिटी बन जाती है, आप्त बन जाती है--जब कोई किताब यह दावा करती है
कि ईश्वरीय है, होली है, पवित्र है--जब
कोई किताब यह दावा करती है कि इसमें जो लिखा है, वह त्रिकाल
में सत्य है--जब कोई किताब यह दावा करती है कि इससे अन्यथा जो है, वह सब गलत है--जब कोई किताब यह कहती है कि मेरी पूजा करो--जब कोई किताब
पूजा पाने लगती है, आप्त बन जाती है, दावे
करने लगती है कि जो कुछ है मैं हूं, यही सत्य है, इस पर श्रद्धा लाने से ही ज्ञान उपलब्ध होगा--तब किताब, किताब नहीं रह जाती, शास्त्र बन जाती है। और शास्त्र
खतरनाक सिद्ध होते हैं--किताबें--किताबें तो बहुत निर्दोष हैं। उनमें कोई खतरा
नहीं है।
तो
ये जो मेरी किताबें हैं,
जब तक किताबें हैं, तब तक कोई खतरा नहीं है।
लेकिन अगर कुछ नासमझ यहां इकट्ठे हो गए, और इनमें से किसी
किताब को उन्होंने शास्त्र कह दिया, तो खतरा शुरू हो जाएगा।
उस दिन इनको जला देना, इनको एक क्षण बचने मत देना--जिस दिन
भी कोई इनको शास्त्र कहे। क्योंकि तब यह मनुष्य को बांधने वाली हो जाती हैं।
एक
खलीफा सिकंदरिया पहुंचा था। और सिकंदरिया के बहुत बड़े विराट पुस्तकालय में उसने आग
लगवा दी थी। उस पुस्तकालय में, कहा जाता है संभवतः दुनिया की सर्वाधिक किताबें
संगृहीत थीं। एक बड़ी संपदा थी वह। इतनी पुस्तकें थीं वहां कि आग लगाने पर छह महीने
तक आग बुझ नहीं सकी। छह महीने तक पुस्तकालय जलता रहा।
जिस
खलीफा ने वहां आग लगाई थी,
वह अपने हाथ में एक शास्त्र लेकर पहुंचा था, वह
कुरान लेकर पहुंचा था। अगर कुरान भी एक किताब होती तो उस लाइब्रेरी में आग लगाने
की कोई जरूरत न थी। वहां और किताबें थीं, कुरान भी एक किताब
थी। यह भी उन किताबों में सम्मिलित हो सकती थी।
लेकिन
कुरान था एक शास्त्र। लाइब्रेरी में कोई शास्त्र नहीं था। क्योंकि एक शास्त्र, दूसरे
शास्त्र को नहीं मानता; दूसरे शास्त्र के प्रति बड़ार्
ईष्यालु होता है, क्योंकि शास्त्र हो सकता है एक, पच्चीस दावे सही नहीं हो सकते। एक ही दावा सही हो सकता है।
उस
खलीफा ने जाकर उस पुस्तकालय के अध्यक्ष को कहा था--एक हाथ में कुरान लेकर और एक
हाथ में मशाल--उससे कहा था कि मैं यह पूछने आया हूं कि कुरान में जो कुछ लिखा है, तुम्हारे
इस पुस्तकालय में जो किताब हैं, क्या उनमें भी वही लिखा है
जो कुरान में लिखा है? अगर वही लिखा है तो इतनी किताबों की
कोई जरूरत नहीं, कुरान काफी है, कुरान
पर्याप्त है। अगर वही बातें लिखी हैं तो इतना यहां...इतना उपद्रव मचाने की क्या
जरूरत है? और अगर तुम्हारी इन किताबों में ऐसी बातें भी लिखी
हैं जो कुरान में नहीं हैं, तब तो इस पुस्तकालय को एक क्षण
बर्दाश्त नहीं किया जा सकता। क्योंकि कुरान के अतिरिक्त जो कुछ भी है, सब गलत है। सत्य तो कुरान है।
तो
उस खलीफा ने कहा,
दोनों हालत में--तुम्हारा उत्तर चाहे कुछ भी हो, मैं आग लगाने आया हूं। चाहे तुम कहो कि इनमें भी वही बातें लिखी हैं जो
कुरान में हैं, तब मैं कहूंगा कि फिजूल हैं ये किताबें। और
अगर तुम कहो कि इनमें ऐसी बातें भी हैं जो कुरान में नहीं, तो
मैं कहूंगा खतरनाक हैं ये किताबें। इनको इसी वक्त जला देना जरूरी है।
उसने
एक हाथ में...कुरान को नमस्कार करके और उस पुस्तकालय में आग लगा दी।
यह
कुरान शास्त्र था,
अगर किताब होती तो इस पुस्तकालय में आग नहीं लग सकती थी।
मैंने
किताबों के विरोध में कुछ भी नहीं कहा है। जो कहा है शास्त्र के विरोध में कहा है।
शास्त्र किताब नहीं है--पागल हो गई किताब है।
एक
साधारण आदमी,
एक आदमी है। और फिर एक आदमी पागल हो जाए और कहने लगे मैं ईश्वर हूं,
परमेश्वर हूं, सर्वज्ञ हूं, केवली हूं, तीर्थंकर हूं, अवतार
हूं, ईश्वर का पुत्र हूं, यह आदमी पागल
हो गया है। यह आदमी जितना ज्ञान से भरता है, उतना भूल जाता
है कि मैं हूं। इसके तो दावे और बड़े हो गए हैं कि मैं मनुष्य ही नहीं, मैं ईश्वर हूं! यह ईश्वर के जितने निकट पहुंचता, उतना
विलीन हो जाता। इससे कोई पूछता कि तुम हो? तो शायद यह कहता
कि मैं तो बहुत खोजता हूं, लेकिन पाता नहीं कि कहां हूं।
लेकिन यह तो कहने लगा मैं ईश्वर हूं! और इतना ही कहे तो ठीक। यह, यह भी कहता है कि और अगर कोई कहता हो कि मैं ईश्वर हूं, तो वह झूठ कहता है।
एक
मुसलमान राजधानी में,
एक आदमी ने आकर घोषणा कर दी कि मैं पैगंबर हूं। उसे पकड़ लिया गया।
उस बादशाह ने उसे कैद में बंद करवा दिया और चौबीस घंटे बाद उसके पास गया। और उससे
कहा स्मरण रखो, मोहम्मद के बाद अब कोई पैगंबर नहीं। इस तरह
की बातें कहोगे, तो मौत के सिवाय और कोई सजा नहीं होगी।
चौबीस घंटे में कुछ अकल आई? उसे बहुत कोड़े मारे गए थे,
पीटा गया था, भूखा रखा गया था, लहूलुहान कर दिया था, चमड़ी कट गई थी, वह बंधा था एक खंभे से। होश आया हो, माफी मांग लो,
तो छूट सकते हो?
वह
पैगंबर हंसा। और उसने कहा कि तुम्हें पता नहीं, जब परमात्मा ने मुझसे कहा था मैं
तुम्हें पैगंबर बनाकर भेज रहा हूं, तो उसने मुझे यह भी कहा
था कि पैगंबरों पर मुसीबतें आती हैं। सो मुसीबतें आनी शुरू हो गईं। इससे यह सिद्ध
नहीं होता कि मैं पैगंबर नहीं हूं। इससे तो यह बिलकुल सिद्ध होता है कि मैं पैगंबर
हूं। क्योंकि हमेशा पैगंबरों पर मुसीबतें आती हैं, पत्थर मारे
जाते हैं, चोटें की जाती हैं। यह बात वह कह ही रहा था कि
पीछे सींखचों में बंद एक आदमी चिल्लाया कि यह बिलकुल झूठ बोल रहा है। इस आदमी को
एक महिने पहले बंद किया गया था।
उस
सुलतान ने पूछा कि कैसे तुम कहते हो, यह झूठ बोल रहा है? उस आदमी ने कहा, आप भूल गए। मैं खुद परमात्मा हूं।
मोहम्मद के बाद मैंने किसी को भेजा ही नहीं, यह आदमी बिलकुल
झूठ बोल रहा है। वे परमात्मा के जुर्म में गिरफ्तार किए गए थे एक महीने पहले। उसने
कहा, यह बिलकुल सरासर झूठ बोल रहा है कि यह पैगंबर है,
मैंने इसको कभी पैगंबर बनाया ही नहीं। मोहम्मद के बाद मैंने किसी को
बनाया ही नहीं।
अब
इनको हम जानते हैं,
इनका इलाज होना चाहिए। ये आदमी पागल हो गए। इनके अहंकार ने अंतिम
घोषणा कर दी। इनका अहंकार फूलकर अंतिम गुब्बारा बन गया। अब यह विक्षिप्त स्थिति की
अंतिम सीमा पर हैं। जब आदमी पागल होते हैं, तो वे पैगंबर होने
के दावे शुरू कर देते हैं। और जब किताबें पागल हो जाती हैं भक्तों के कारण,
तो वे शास्त्र बन जाती हैं।
शास्त्र
के तो मैंने जो कुछ कहा,
जरूर कहा। लेकिन किताब के खिलाफ मैंने कुछ भी नहीं कहा है। गीता
किताब रहे, कुरान किताब रहे, वेद किताब
रहें--बड़ा स्वागत है उनका पुस्तकालय में, और सब किताबों के
साथ उनको भी रैक पर जगह होगी। लेकिन शास्त्र अब दुनिया में नहीं चल सकते। क्योंकि
शास्त्रों ने एक तरह का पागलपन पैदा किया है। और शास्त्र सत्य की खोज में बाधा बन
गए अपने दावों के कारण। और शास्त्रों पर विश्वास की शिक्षा ने मनुष्य को जड़ता सिखा
दी है। विचार नहीं, चिंतन नहीं--आस्था, अंधी आस्था, अंधविश्वास। इसलिए मैंने कहा।
तो
मैं फिर से कह दूं,
ये किताबें जरूर हैं यहां, जब तक ये किताबें
हैं, ठीक हैं, जिस दिन ये किताबें न
हों, इनके साथ वही करना, जो शास्त्रों
के साथ करना उचित होता है।
एक
साधु का अंतिम क्षण आ गया था मृत्यु का। जीवनभर उसके भक्त, उसे पूजने
वाले, उसकी तरफ आंख उठाकर देखने वाले--उसके शिष्यों ने
बार-बार उससे कहा था कि तुम अपने जीवन के अनुभव एक किताब में लिख दो। वह साधु
हमेशा टालता रहा था। अंतिम दिन, लाखों लोग इकट्ठे हुए थे।
उसने घोषणा कर दी थी कि आज सूरज के डूबने के साथ मैं समाप्त हो जाऊंगा। हजारों लोग
उसके दर्शन को आए थे।
सुबह
ही सुबह उठकर उसने कहा कि मुझसे बहुत बार कहा गया था कि मैं कोई किताब लिख दूं।
मैंने वह किताब अंततः लिख दी। और जो उसका सबसे प्यारा निकटतम मित्र था, उससे उसने
कहा कि यह तुम किताब सम्हालो, इसे सम्हालकर रखना। यह बहुत
बहुमूल्य है। इसमें मैंने सब कुछ लिख दिया है, जो सत्य है।
और यह हजारों वर्ष तक मनुष्य के लिए बड़ी ऊंची संपदा सिद्ध होगी। यह कहकर उसने अपने
मित्र और शिष्य के हाथ में वह किताब दी। लोगों ने जय-जयकार किया, तालियां पीटीं, उनकी वर्षों की आकांक्षा पूरी हो गई
थी।
लेकिन
उस शिष्य ने,
जिसे किताब दी गई थी, किताब हाथ में लेकर पास
में जलती अंगीठी में डाल दी। झट से किताब जल गई। सारे लोग हैरान रह गए, सारे लोग परेशान हो गए कि यह क्या किया। इतने वर्षों की प्रार्थना के बाद
किताब लिखी गई थी और खुद गुरु ने कहा सम्हालकर रखना और इसने आग में डाल दी!
लेकिन
गुरु की आंखों में खुशी के आंसू आ गए। उसने उस युवक को अपनी छाती से लगा लिया। और
उसने कहा कि मैं खुश हूं। कम से कम एक आदमी मुझे समझ सका है। मैंने जीवनभर यही कहा
कि किताबों से सत्य नहीं मिल सकता है। अगर तुम किताब को सम्हालकर रख लेते, तो मैं
दुखी मरता। मैं सोचता एक भी आदमी मुझे नहीं समझा। तुमने आग में डाल दी बात,
तुमने किताब आग में फेंक दी, मैं बहुत आनंदित
हूं इस अंतिम क्षण में। और आखिर में तुम्हें बताए देता हूं कि उस किताब में मैंने
कुछ भी नहीं लिखा था, क्योंकि सत्य लिखा नहीं जा सकता है। वह
किताब कोरी थी। अगर तुम बचा भी लेते, तो कोई खतरा नहीं हो
सकता था, वह किताब शास्त्र नहीं बन सकती थी।
लेकिन
मैं आपसे कह सकता हूं कि वह गुरु गलती में भी हो सकता था। क्योंकि भक्त ऐसे हैं कि
किताब खोलकर कभी देखते नहीं कि उसमें लिखा क्या है। वह गुरु गलती में भी हो सकता
था। हो सकता था वह किताब भी शास्त्र बन जाती। उसकी भी पूजा चलती और घोषणाएं चलतीं
कि हमारी किताब में सबसे बड़ा सत्य है। झगड़े चलते, हत्याएं हो जातीं। और शायद
यह भी हो सकता था कोई खोलकर देखता ही नहीं कि वहां कोरे पन्ने हैं, वहां कुछ भी नहीं है। और अगर आप कोई भी शास्त्र खोलकर देखेंगे, तो पाएंगे वहां भी कोरे पन्ने हैं, वहां भी कुछ नहीं
है। कोई सत्य वहां नहीं है।
स्याही
के धब्बों से थोड़े ही सत्य मिल सकता है। कागज के पन्नों पर थोड़े ही सत्य लिखा जा
सकता है। सत्य तो जीवंत अनुभूति है, जो अपने हृदय के द्वार खोलता है
उसे उपलब्ध होता है। कागजों पर आंखें गड़ा लेने से नहीं, बल्कि
जीवन में आंखें खोलने से।
अगर
पूछते ही हों कि क्या कोई भी शास्त्र नहीं है--एक भी? सभी
किताबें हैं?
तो
अंत में इतना आपको जरूर कहूंगा, एक शास्त्र है। लेकिन वह कोई किताब नहीं है।
जितनी किताबें हैं, उनमें कोई भी शास्त्र नहीं है। एक
शास्त्र है, लेकिन वह कोई किताब नहीं है। और वह शास्त्र किसी
आदमी का बनाया हुआ नहीं है। वह यह जो सब तरफ फैला हुआ जीवन है, यह जरूर परमात्मा का शास्त्र है। जो इसे पढ़ने में समर्थ हो जाते हैं,
वे जरूर सत्य को उपलब्ध होते हैं।
लेकिन
इस शास्त्र को पढ़ने के रास्ते बड़े अलग हैं, उन रास्तों से जो स्कूल में पढ़ने
के सिखाए जाते हैं। स्कूल में तो किताब ही पढ़ने का रास्ता सिखाया जा सकता है,
शास्त्र पढ़ने का नहीं। शास्त्र पढ़ने का, इस
शास्त्र को जो परमात्मा का है, चारों तरफ मौजूद, इसको पढ़ने का कोई और ही रास्ता है। उसी रास्ते के संबंध में कोई--कोई झलक
हमें खयाल में आ जाए, उसी तरफ कोई इशारा हमें दिखाई पड़ जाए,
उसी तरफ कोई ध्वनि हमें सुनाई पड़ जाए। इसलिए हम यहां इकट्ठे भी हुए
हैं।
ऐसे
मैं शास्त्रों के विरोध में बोलता हूं, बोल रहा हूं। लेकिन अगर आप मुझे
समझेंगे, तो मैं परमात्मा के शास्त्र के बहुत पक्ष में हूं
और उसके पक्ष में हूं इसीलिए आदमियों की किसी भी किताब को शास्त्र का ओहदा नहीं
देना चाहता हूं। आदमी की कोई भी किताब जब शास्त्र बनती है, तो
परमात्मा के शास्त्र की खोज बंद हो जाती है। फिर उस तरफ हमारी आंखें नहीं उठती
हैं। फिर यही किताब दीवाल बन जाती है। हम इसको ही शास्त्र समझ लेते हैं और रुक
जाते हैं।
तो, अगर
शास्त्र ही पढ़ना हो प्रभु का तो आदमी के सब शास्त्र बीच में बाधा हैं, यह जान लेना जरूरी है। और आंखें उनसे मुक्त हो जानी चाहिए, तो ही आंखें उस विराट शास्त्र की तरफ, उस सत्य की
तरफ उठ सकती हैं। और वह शास्त्र बड़ा अजीब है। वह पत्ते पर भी लिखा है, हवाओं में भी, बादलों में भी, चांदत्तारों
में भी, आदमी की आंखों में भी। लेकिन आदमी की आंखें बहुत
झूठी हो गई हैं, शायद वहां पढ़ा न जा सके।
मैंने
सुना है, एक बहुत बड़ा राजनीतिज्ञ अपने सेक्रेटरी के लिए चुनाव कर रहा था। उसने अनेक
लोगों को बुलाया हुआ था, उनका इंटरव्यू ले रहा था। एक बहुत
योग्य युवक उसे दिखाई पड़ा। पच्चीसों युवक आए थे, एक युवक
बहुत योग्य मालूम पड़ता था। सोचा उसने इसको चुन लें। लेकिन चुनने के पहले उसने एक
परीक्षा लेनी चाही।
उसने
उस युवक से कहा कि मैं तुम्हें नौकरी पर रख लूंगा। इन पच्चीस युवकों में तुम्हीं
मुझे सबसे ज्यादा योग्य मालूम पड़े हो। लेकिन एक शर्त, एक परीक्षा
पहले। और वह परीक्षा यह, मेरी दो आंखों में एक आंख नकली है
और एक असली। क्या तुम पहचानकर बता सकते हो, कौन सी नकली है
और कौन सी असली है?
उस
युवक ने आंखों को थोड़ी देर गौर से देखा और फिर कहा, आपकी बाईं आंख असली है। वह
राजनीतिज्ञ हैरान हुआ। उसने कहा, तुमने पहचाना कैसे। उसने
कहा, आपकी बाईं आंख असली है। राजनीतिज्ञ ने पूछा, तुमने पहचाना कैसे?
उसने
कहा, आपकी दाईं आंख जो कि नकली है, उसमें थोड़ी सहानुभूति
दिखाई पड़ती है। असली आंख में तो आपके सहानुभूति हो ही नहीं सकती, इतना मैं भी समझता हूं। तो जिस आंख में सहानुभूति दिखाई पड़ती है, उसको मैंने नकली समझ लिया। और जिसमें कोई सहानुभूति नहीं दिखाई पड़ती,
उसको मैंने असली समझ लिया। ऐसे ही नाप-जोख करके मैंने बताया कि आपकी
बाईं आंख असली है। बाईं आंख असली थी।
आदमी
तो, हो सकता है कि उसकी आंख में न भी दिखाई पड़े। फिर जितना पंडित हो, जितने बड़े पद पर हो, जितना बड़ा ज्ञानी हो, जितना बड़ा संन्यासी हो, उतना ही उसकी आंख में दिखाई
पड़ना मुश्किल हो जाएगा। लेकिन हो सकता है सीधे-साधे सरल लोग, विनम्र लोग, जो कुछ भी नहीं हैं, जो नो-बडी हैं, उनकी आंखों में शायद परमात्मा की
किताब का अभी भी कोई अंश आपको दिखाई पड़ जाए। लेकिन उतना सवाल किसी की आंख में
दिखाई पड़ने का नहीं, पहले तो आपकी आंख देखने वाली होनी
चाहिए। नहीं तो आपको कहीं भी दिखाई नहीं पड़ेगा।
जिनके
पास देखने की आंख होती है,
उन्हें तो न मालूम कैसी चीजों में क्या दिखाई पड़ जाता है, जिसकी हम कल्पना भी नहीं कर सकते। एक वृक्ष से सूखा पत्ता गिरता हो और
उनका जीवन बदल जाता है। एक मटकी फूट जाए और उनका जीवन बदल जाता है।
मैंने
सुना है, एक युवा सत्य की खोज में था। और न मालूम कहां-कहां भटका। और एक दिन पतझड़
होती थी और वृक्ष से सूखे पत्ते गिर रहे थे और हवाएं उन पत्तों को जगह-जगह नचा रही
थीं--पूर्व और पश्चिम। और वह युवक खड़ा देख रहा था--और वह नाच उठा, और उसे वह मिल गया जिसकी वह खोज में था।
और
बाद में जब लोग उससे पूछे,
तुम्हें मिला क्या उन सूखे पत्तों को हवा में उड़ते देखकर? उसने कहा, सूखे पत्तों को हवा में उड़ते देखकर मुझे
मेरे संबंध में सारी समझ आ गई। मुझे दिखाई पड़ा--मैं भी एक पत्ते से ज्यादा कहा
हूं। जिसे हवाएं पूरब ले जाती हैं, तो पूरब जाता है; पश्चिम ले जाती हैं, तो पश्चिम जाता है। और तब से
मैं एक सूखा पत्ता ही हो गया हूं। अब मेरा कोई रेजिस्टेंस नहीं है, अब जीवन के प्रति मेरा कोई विरोध नहीं। जीवन जहां ले जाता है, मैं चला जाता हूं।
और
जिस दिन से मैंने अपना विरोध छोड़ दिया है जीवन से, उसी दिन से मेरे जीवन का
सारा दुख विलीन हो गया। अब मैं जानता हूं कि मैं दुखी था, अपने
कारण--चूंकि मैं था। अब मैं सूखे पत्ते की तरह हूं--हवाएं जहां ले जाती हैं,
चला जाता हूं। हवाएं नहीं ले जातीं, तो वहीं
पड़ा रह जाता हूं। हवाएं आकाश में उठा लेती हैं, तो आकाश में
उठ जाता हूं। हवाएं नीचे गिरा देती हैं, तो नीचे गिर जाता
हूं। अब मेरा अपना कोई होना नहीं है। अब मैं नहीं हूं। अब हवाएं हैं और मैं एक सूखा
पत्ता हूं। लेकिन यह मुझे एक सूखे पत्ते से ही दिखाई पड़ा था।
देखने
वाली आंख होगी,
तो दिखाई पड़ गया। नहीं तो सूखे पत्ते इस माथेरान में कितने नहीं हैं?
और आपके पैरों के नीचे कितने नहीं आकर कुचल जाते होंगे? और आपकी आंखों के सामने कितने नहीं वृक्षों से गिर जाते होंगे?
लेकिन
सूखे पत्ते क्या करेंगे। अगर सूखे पत्ते कुछ करते होते तो बड़ी आसान बात थी। हम हर
गांव में एक वृक्ष लगा लेते और उसमें से सूखे पत्ते टपकाते रहते, और गांव
में जो भी निकलता ज्ञान को उपलब्ध हो जाता। नहीं, लेकिन सूखे
पत्ते में हम तभी देख पाएंगे, जब हम देखने में समर्थ हैं।
एक
युवक सत्य की खोज पर था। बहुत घूमा, बहुत भटका था। एक दिन कुएं से पानी
भरकर आ रहा था। दोनों कंधे पर लकड़ी डालकर दो मटकियां बांधी हुई थीं। लकड़ी छूट गई,
मटकी फूट गई, पानी बह गया। वह नाच उठा,
लोगों ने उससे पीछे पूछा, तुम्हें क्या हो गया?
उसने कहा, मटकी क्या फूटी, मैं ही फूट गया। मटकी के फूटने के क्षण में मुझे दिखाई पड़ा, अरे! मटकी में जो पानी था, वह भी सागर का था,
लेकिन मटकी रोके थी। मटकी फूट गई, पानी बह गया
और एक हो गया उससे, जिससे वह एक था। केवल बीच में एक मिट्टी
की दीवाल थी। उसी दिन मेरे मन की मटकी फूट गई और अब तो मेरा भीतर जो है, वह उस सागर से मिल गया, जो सबका सागर है। अब मैं
नहीं हूं, अब परमात्मा ही है।
लेकिन
मटकी फूटने से! घर में रोज मटकी फूट जाती हैं, घर-घर में मटकी फूटती रहती हैं।
लेकिन किसी को यह नहीं दिखाई पड़ता! देखने वाली आंख चाहिए, तो
कहीं भी दिखाई पड़ जाता है।
एक
वृद्ध, एक घर के द्वार से निकलता था। सुबह घूमने निकला था। उस वृद्ध का बचपन का
नाम ही बुढ़ापे तक चलता आया था। उसे सभी लोग--बूढ़ा हो गया था तो भी राजा बाबू ही
कहते थे। घूमने निकला था, एक झोपड़े के भीतर--सूरज उग रहा था
बाहर, कोई मां अपने बेटे को, या अपने
देवर को, या किसी को उठाती होगी। और भीतर कह रही थी कि राजा
बाबू उठो, कब तक सोए रहोगे? और यह राजा
बाबू जो बाहर घूमने निकले थे, वे एकदम ठिठककर खड़े हो गए।
उन्हें सुनाई पड़ा--राजा बाबू उठो, कब तक सोए रहोगे। वे वापस
लौट पड़े।
घर
आकर उन्होंने कहा,
मैं दूसरा आदमी हो गया। अब राजा बाबू सोए नहीं रह सकते। मैं उठ गया।
मुझे एक जगह बात सुनाई पड़ी और मैं बदल गया।
उस
स्त्री को पता भी नहीं होगा कि बाहर भी कोई मौजूद था। उसे खयाल भी नहीं होगा कि
उसने जो कहा था...उसके राजा बाबू तो शायद सोए ही रहे होंगे, क्योंकि
राजा बाबू जिनको हम कहते हैं, वे जल्दी नहीं उठते। लेकिन
बाहर एक आदमी जाग गया होगा, इसकी कल्पना भी नहीं थी। हम भी
उस घर के सामने से निकल सकते हैं। घर-घर में औरतें राजा बाबूओं को उठाती रहती हैं,
लेकिन हमको शायद ही वह बात सुनाई पड़े।
जीवन
में तो सब कुछ है। आंख हमारे पास होनी चाहिए। वह आंख ध्यान से उपलब्ध होती है।
ध्यान ही उस आंख का दूसरा नाम है। शांत क्षणों में, मौन क्षणों में, सायलेंस में वह आंख उपलब्ध होती है।
थोड़ी
सी बातें उस आंख,
यानी ध्यान के संबंध में और फिर उसके बाद हम ध्यान के लिए बैठेंगे।
ध्यान
के संबंध में दोत्तीन छोटी सी बातें समझ लेनी बहुत जरूरी हैं।
एक
तो...क्योंकि ध्यान ही आंख है। और उस ध्यान से ही परमात्मा का शास्त्र पढ़ा जा सकता
है। और उस ध्यान से ही जीवन के जो छिपे हुए रहस्य हैं, वे अनुभव
में आ सकते हैं।
तो
ध्यान को ठीक से समझ लेना जरूरी है कि ध्यान क्या है?
ध्यान
को समझने में सबसे बड़ी जो बाधा है, वह ध्यान के संबंध में हमारी बहुत
सी धारणाएं हैं। वे धारणाएं रोक देती हैं--समझ हम नहीं पाते कि ध्यान क्या है।
ध्यान
के संबंध में,
एक तो निरंतर हजारों वर्षों से यह खयाल पैदा हुआ है कि ध्यान कोई एफर्ट
है, कोई प्रयत्न है, कोई चेष्टा है।
कोई बहुत चेष्टा करनी है ध्यान के लिए। ध्यान चेष्टा नहीं है। बल्कि ध्यान चित्त
की बड़ी निश्चेष्ट, बड़ी एफर्टलेस, बड़ी
प्रयत्नरहित अवस्था और दशा है। जितनी आप ज्यादा चेष्टा करेंगे, उतना ही ध्यान मुश्किल हो जाएगा। क्योंकि चेष्टा में आपका चित्त तन जाएगा,
खिंच जाएगा, तनाव से बेचैन हो जाएगा और जो
चित्त बेचैन है, वह ध्यान में नहीं जा सकता है।
तो
ध्यान के संबंध में पहली बात तो यह समझ लेनी जरूरी है कि ध्यान है एफर्टलेसनेस, समस्त
प्रयास रहितता। कोई प्रयास नहीं है ध्यान।
क्या
आप बैठे हैं आंख बंद करके,
प्राणायाम करके--दबा रहे हैं खुद के चित्त को, खींच रहे हैं, ला रहे हैं--यहां से वहां, इस पर लगा रहे हैं, उस पर लगा रहे हैं--यह सब ध्यान
नहीं है। यह होगा व्यायाम। इससे ध्यान का कोई संबंध नहीं। कोई कसरत करनी हो,
तो बात अलग है। यह कसरत है--इस तरह का जो ध्यान है।
मेरी
दृष्टि में ध्यान तो एक विश्राम है, टोटल रिलेक्सेशन है। चित्त इतना
निष्क्रिय, इतना अक्रिय, इतना
निश्चेष्ट कि जैसे कुछ भी नहीं कर रहा है। जैसे कोई झील चुपचाप सोई है। और उस
चुपचाप सोई झील में चांद का प्रतिबिंब बन रहा है, रिफ्लेक्शन
बन रहा है। ऐसा ही चित्त जब एक झील की तरह शांत, चुपचाप सोया
है, चुपचाप मौन पड़ा है, तब, तब चित्त एक दर्पण बन जाता है। और उसमें जीवन का जो शास्त्र है, परमात्मा का जो शास्त्र है, वह प्रतिफलित होने लगता
है, उसके प्रतिबिंब बनने लगते हैं।
तो
ध्यान के लिए पहली तो बात है--कि हम प्रयास न करें। हमारा जीवन तो सब प्रयास है।
हम जो भी करते हैं,
प्रयास से ही करते हैं। अप्रयास का हमें कोई पता ही नहीं, कोई खयाल ही नहीं। वह हमारे जीवन का अनुभव ही नहीं है।
लेकिन
कुछ चीजें हैं जो प्रयास से नहीं आतीं। जैसे आपके परिचय में एक चीज है--नींद। नींद
प्रयास से नहीं आती। अगर आप कोशिश करें नींद लाने की, तो आपकी
कोशिश ही नींद नहीं आने देगी। करें, कोशिश करके देखें?
किसी दिन नींद लाने की कोशिश करके देखें? करवट
बदलें, जंत्र-मंत्र पढ़ें, कुछ और करें,
कुछ देवी-देवताओं का स्मरण करें, और नींद लाने
की कोशिश करें? उठें, बैठें, दौड़ें, नींद लाने की कोशिश करें? आप जितनी कोशिश करेंगे, नींद उतनी दूर हो जाएगी।
जिन
लोगों को नींद न आने की बीमारी होती है, उनको असल में पता ही नहीं है,
उनको नींद न आने की बीमारी नहीं है, उनको नींद
लाने की बीमारी है। वह नींद लाने की जो कोशिश में पड़ गए हैं, तो एक चक्कर खड़ा कर लिया है, अब नींद उन्हें नहीं आ
सकती। नींद न आने की बीमारी किसी को भी नहीं है। नींद लाने की बीमारी जरूर कुछ
लोगों को पैदा हो जाती है। और फिर, फिर नींद आनी बंद हो जाती
है। नींद लाने की कोशिश से नींद नहीं आ सकती, क्योंकि कोशिश
नींद विरोधी है।
अमरीका
में कोई तीस प्रतिशत लोग बिना नींद की दवाओं के नहीं सो रहे हैं। और वहां के
मनोचिकित्सकों का खयाल है कि सौ वर्ष बाद अमरीका में एक भी आदमी स्वाभाविक रूप से
सोने में समर्थ नहीं रह जाएगा। एक ही शर्त खयाल में रखकर--अगर अमरीका या आदमी बचा
सौ साल बाद। तो ऐसा नहीं हो सकता कि कोई आदमी बिना ही दवा के सो जाए।
अगर
सौ साल बाद अमरीका के उन लोगों को कहा जाएगा कि एक जमाना ऐसा भी था कि लोग बस जाते
थे, सिर रखा बिस्तर पर और सो जाते थे। तो क्या वे लोग विश्वास कर सकेंगे?
क्या वे मान सकेंगे कि ऐसा भी कभी हो सकता है कि कोई आदमी जाए और बस
सो जाए! हद हो गई। यह तो हो ही नहीं सकता।
अभी
भी जिसको नींद नहीं आती है,
उससे आप कहिए कि हम तो तकिए पर सिर रखते हैं और सो जाते हैं। तो वह
कहेगा, आप क्या झूठी बातें कर रहे हैं, कोई तरकीब होगी जरूर आपकी, बताते नहीं हैं। क्योंकि
मैं तो तकिए पर बहुत सिर रखता हूं, लेकिन नहीं सो पाता।
ध्यान
भी इतनी ही सरल बात है,
इतनी ही सरल। लेकिन प्रयास करिएगा, तो बाधा पड़
जाएगी।
अभी
हम जब यहां, अभी रात्रि के ध्यान के लिए बैठेंगे, तो एक बात खयाल
में रखिए, कोई प्रयास नहीं करना है। ऐसा ढीले-ढाले चुपचाप रह
जाना है, कोई चेष्टा नहीं करनी। ध्यान लगाने की, लाने की कोई कोशिश नहीं करनी। फिर आप कहेंगे, हम
क्या करेंगे? बस, आप एक ही कृपा करें,
कुछ न करें। और ध्यान आना शुरू हो जाएगा।
लेकिन
यह काम बड़ा कठिन है। अगर करने का होता तो आप कर देते, चाहे वह
कितना ही कठिन होता। लेकिन न करने का काम बड़ा कठिन है। क्योंकि हमारी पकड़ में नहीं
आता कि हम क्या करें? और न करने की हमारी कोई आदत नहीं है कि
हम खाली बैठ जाएं और कुछ न करें। हम कहेंगे, कुछ तो
बताइए--राम-राम जपें, माला दे दीजिए, कुछ
बताइए, हम कुछ करें?
मेरे
पास रोज लोग आते हैं। वे कहते हैं, सब ठीक है। लेकिन आप कुछ तो बता
दीजिए कि हम करें। करने जैसा कुछ बता दीजिए तो फिर सब ठीक हो जाए। अब कठिनाई यह है
कि जैसे ही आपने करना शुरू किया, आप ध्यान के बाहर हो गए।
करना यानी ध्यान के बाहर हो जाना। न करना, नो एक्शन, यानी ध्यान में हो जाना। न करने की सारी बात है। कुछ भी न करें।
लेकिन
आप कुछ न भी करेंगे,
तो भी भीतर तो विचार चलेंगे ही। उनकी तो आदत है निरंतर की। वे भीतर
गतिमान होते रहेंगे, उनका चक्कर भीतर चलता रहेगा। उनके साथ
क्या करें? उनके साथ भी कुछ न करें। चुपचाप उन्हें देखते
रहें। वे आपका बिगाड़ भी क्या रहे हैं? वे आपका क्या हर्ज कर
रहे हैं? आपका कौन सा नुकसान हुआ जा रहा है? झींगुर बोल रहे हैं दरख्तों पर, आकाश में बादल चल
रहे हैं, हवाएं बह रही हैं, ऐसे ही
विचार चल रहे हैं--आप परेशान क्यों हैं उनसे?
लेकिन
हमें सिखाया गया है,
विचारों को रोको। विचारों को रोक लिया तो ध्यान हो जाएगा। हो गई
मुसीबत। विचार रोक नहीं सकेंगे आप और ध्यान कभी होगा नहीं।
विचार
को रोकने की कोशिश ही विचार को निमंत्रण है।
विचार
का सीधा सा सूत्र है। जिस चीज को हम रोकना चाहेंगे विचार के तल पर, वह चीज
दुगने बल से आनी शुरू हो जाएगी। रोककर देख लें कोई एकाध विचार। कोशिश कर लें कि
इसको हम न आने देंगे।
सुनी
होगी कथा आपने। तिब्बत के एक फकीर के पास एक युवक गया था। उससे चाहता था कोई मंत्र
दे दे, कोई सिद्धि हो जाए। उस फकीर ने बहुत समझाया, कोई
मंत्र मेरे पास नहीं, कोई सिद्धि मेरे पास नहीं, मैं बिलकुल सीधा-साधा आदमी हूं। मैं कोई बाजीगर नहीं हूं, कोई मदारी नहीं हूं। किन्हीं मदारियों के पास जाओ। वैसे कई मदारी
साधु-संन्यासी के वेश में उपलब्ध होते हैं, उन्हें खोज लो
कहीं, वे शायद कोई तुम्हें मंत्र दे दें।
लेकिन
वह युवक माना नहीं। जितना उस साधु ने समझाया कि जाओ, उतना ही उसे लगा कि है कुछ
इसके पास, रुको। पर उसे पता नहीं चला कि यही सीक्रेट था,
इसी में वह उलझ गया। साधु धक्के देने लगा कि जाओ, दरवाजे बंद कर लेता।
हमारे
मुल्क में...ऐसे साधु सारी दुनिया में होते हैं। पत्थर मारेंगे, गाली
देंगे...जितना पत्थर मारेंगे, जितना गाली देंगे, उतने ही रसलीन भक्त उनके आसपास इकट्ठे होंगे! क्योंकि यह आकर्षण बन गया कि
जरूर कुछ होना चाहिए यहां। जहां कुछ होता है, वहां से भगाए
जाते हैं। तो जरूर यहां कुछ होना चाहिए। कई होशियार लोगों को यह तरकीब पता चल गई।
वे पत्थर फेंकने लगे, गाली देने लगे, गोबर
फेंकने लगे, लोगों को चिल्लाने लगे, यहां
मत आओ--और लोग वहां इकट्ठे होने लगे। इकट्ठा करने का यह एक ढंग हुआ।
उस
साधु ने, बिचारे को पता नहीं था, वह तो सहज ही उसे भगाता था,
लेकिन वह युवक पीछे पड़ गया। वह आकर दरवाजे पर बैठा रहता, पैर पकड़ लेता। आखिर उसने देखा कि कोई रास्ता नहीं है, इसे मंत्र देना ही पड़ेगा। और उसने मंत्र दिया भी। लेकिन उसको मंत्र मिल
नहीं सका। एक कंडीशन, एक शर्त लगा दी और सब गड़बड़ हो गया।
सभी
होशियार लोग कुछ न कुछ शर्त जरूर पीछे लगा देते हैं। ताकि जब मंत्र सिद्ध न हो, तो कहने
को रह जाए कि शर्त पूरी नहीं हुई। नहीं तो मंत्र तो बराबर सिद्ध होता। शर्त तुमने
पूरी नहीं की, कसूर तुम्हारा है। और शर्त कुछ ऐसी होती हैं
कि वे पूरी हो ही नहीं सकतीं।
उसने
एक शर्त लगा दी। उसने कहा,
यह मंत्र ले जाओ, पांच ही बार पढ़ना, सिद्ध हो जाएगा आज रात। लेकिन जैसे ही वह उतरने लगा, सीढ़ियों से मंत्र लेकर। उसने कहा, ठहरो, मैं शर्त तो भूल ही गया बताना। उसके बिना तो कुछ होगा नहीं। कौन सी शर्त?
कहा, बंदर का स्मरण न आए। बस पांच बार पढ़ लेना
बिना बंदर को स्मरण किए, सब ठीक हो जाएगा।
उस
युवक ने कहा,
क्या शर्त बताई है आपने भी फिजूल, जिंदगी हो
गई मुझे बंदर का स्मरण नहीं आया। मैं कोई डार्विन का भक्त थोड़े ही हूं कि मुझे
बंदर का स्मरण आता हो। मैं डार्विन को मानता ही नहीं। मैं यह विकासवाद, यह ईवलूशन कुछ नहीं मानता। बंदर से मेरा क्या नाता। बंदर कोई मेरे मां-बाप
थोड़े ही हैं।
लेकिन
उसे पता चला कि डार्विन को मानो या न मानो--बंदर को रोक लगा दी गई थी, बंदर आना
शुरू हो गया। वह चला भी था, सीढ़ियां भी नहीं उतर पाया था कि
उसने देखा भीतर बंदर मौजूद हो गया। वह बहुत घबड़ाया। बाहर बंदर हो तो भगा भी सकते
हैं, अब भीतर हो तो क्या करें? घर
पहुंचते-पहुंचते उसने एक बंदर को हटाने की कोशिश की, उसने
पाया कि और बंदर चले आ रहे हैं। घर पहुंचते-पहुंचते उसके मन में बंदर ही बंदर बैठ
गए। सब तरफ से वे उसे चिढ़ा रहे हैं। सब तरफ से पूंछ हिला रहे हैं। अब बहुत मुश्किल
हो गई।
वह
तो बहुत घबराया कि अजीब बात है। आज तक जीवन में ये बंदरों से कभी कोई संबंध नहीं
रहा, कोई मैत्री नहीं रही। कोई वास्ता नहीं रहा इन बंदरों से, यह हो क्या गया है मुझे! नहाया, धोया, सब उपाय किए, अगरबत्ती जलाई, धूप-दीप
जलाए--जैसे कि धार्मिक लोग करते हैं, जैसे इनसे कुछ हो
जाएगा! कमरा बंद किया, नहा-धोकर बैठा, लेकिन
कितने ही नहाओ-धोओ, बंदर कोई पानी से डरते नहीं हैं। और
कितने ही धूप-दीप जलाओ, बंदरों को पता भी नहीं उनका। और बंदर
बाहर होते तो कोई उपाय भी था। बंदर थे भीतर। उनको निकालने का कोई रास्ता न था। वह
जितनी आंख बंद करने लगा, रात जितनी बीतने लगी--मंत्र हाथ में
उठाता था, मंत्र बाहर ही रह जाता था, बंदर
भीतर। सुबह तक वह घबड़ा गया। समझ गया कि यह मंत्र इस जीवन में अब सिद्ध नहीं हो
सकता।
गया, साधु को
मंत्र वापस दिया और कहा, अगले जन्म में फिर मिलेंगे। लेकिन
खयाल रखना यह कंडीशन फिर से मत लगा देना। यह शर्त मत लगा देना दोबारा, मुश्किल हो जाएगा। यह बंदर तो! हद हो गई! निकालना चाहा, तो बंदर मौजूद हो गए।
आप
भी कुछ निकालना चाहें,
जिसे निकालना चाहें, वह मौजूद हो जाएगा। यह
सीक्रेट ट्रिक है। यह तरकीब है भीतर कि आपको समझाया जाता है विचारों को निकालो,
फिर आप आंख बंद करके बैठे हैं, वे निकलते नहीं
हैं, वे और चले आ रहे हैं। अब आप परेशान हुए जा रहे हैं।
और
जिनने कहा है आपसे,
विचारों को निकालो, उन्हीं के पास पहुंच रहे
हैं सलाह के लिए कि कैसे विचारों को निकालें! वे कहते हैं और ताकत लगाओ। जितनी आप
ताकत लगाओगे, उतना ही निकालना असंभव होता चला जाएगा। और तब
आप सिर पीट लोगे। और उनसे पूछोगे कि एक्सप्लेनेशन क्या है इस बात का कि मैं
निकालने की कोशिश करता हूं, विचार तो निकलते नहीं है?
वे
कहेंगे, इसमें पिछले जन्मों के पापों का फल है! इसमें प्रारब्ध है! इसमें परमात्मा
का हाथ है! इसमें और न मालूम कितनी बातें वे आपसे कहेंगे। और आपको वे भी मान लेनी
पड़ेंगी, क्योंकि विचार आप निकाल नहीं सकते। तो कोई
एक्सप्लेनेशन तो चाहिए, कि आपको समझ में आ जाए कि विचार
क्यों नहीं निकलते। आप कमजोर हैं, पापी हैं--वे पच्चीस बातें
आपको समझा दी जाएंगी। एक बात छोड़कर कि विचार इसलिए नहीं निकल रहे हैं, क्योंकि आप उन्हें निकालना चाहते हैं। इतना सा सीक्रेट है, इतनी सी सच्चाई है, बाकी सब बकवास है।
तो
विचार को निकालने की कोशिश न करें।
फिर
क्या करें?
तो
चुपचाप देखते रहें। आने दें, जाने दें--आप देखते रहें। देखने में इतनी
घबड़ाहट क्या है, इतना डर क्या है? लेकिन
डर है और आपको पता नहीं है। और जब तक आपको उस भय का, उस फिअर
का पता न हो जाए, तब तक आप देखने में भी समर्थ नहीं हो सकते।
मैं लाख कहूं कि देखते रहें--आप देख नहीं सकते। क्योंकि देखने के पीछे भी हजारों
साल की परंपरा ने एक भय पैदा कर दिया। वह परंपरा यह कहती है कि बुरे विचार मन में
नहीं होने चाहिए। सो आपने सब बुरे विचार भीतर दबाकर और उनके ऊपर बैठ गए हैं आप।
तो
जब भी आप शांत होकर देखना शुरू करेंगे, तो अच्छे विचार तो कम आएंगे,
बुरे विचार ज्यादा आएंगे। फिजूल विचार ज्यादा आएंगे, जिनको आप दबाकर बैठे हुए हैं। और उनसे डर लगता है, क्योंकि
सिखाया गया है बुरे विचार नहीं होने चाहिए। तो उस भय के कारण देख भी नहीं सकते। भय
के कारण दबाना चाहते हैं, दबाते हैं, उपद्रव
शुरू हो जाता है। मन में बंदर इकट्ठे होने लगते हैं। फिर मंत्र सिद्ध नहीं होता
है।
पहली
बात। यह भय छोड़ दें कि बुरा विचार है या अच्छा विचार है। सब विचार एक जैसे हैं। सब
विचार एक जैसे हैं। विचार सिर्फ विचार हैं। उनको तो सिर्फ देखें। यह भय मन से
निकाल दें कि बुरा विचार न उठ आए कहीं। जो भी विचार चल रहे हैं, उनके
चुपचाप साक्षी रह जाएं--उन्हें चलने दें, बुरा चले तो बुरे
को, अच्छा चले तो अच्छे को। आप कौन हैं बाधा देने वाले?
आप कौन हैं निर्णय करने वाले कि कौन बुरा है, कौन
अच्छा? आप क्यों यह जजमेंट लेना चाहते हैं? यह क्यों आप तय करना चाहते हैं कि यह अच्छा है, यह
बुरा? आपको पता है, क्या अच्छा है और
क्या बुरा है?
काश!
यही पता होता तो सब बदल गया होता अब तक। यह बिलकुल पता नहीं है। तो चुपचाप निकलने
दें जो भी निकल रहा है। लाल मुंह के बंदर अच्छे हैं और काले मुंह के बंदर बुरे
हैं--ऐसा मत सोचें। बंदर,
बंदर हैं--चाहे लाल मुंह के, चाहे काले मुंह के।
वह
अच्छे और बुरे का सवाल न रखें। अच्छे और बुरे के कारण ही आपका चित्त दुविधा से भर
जाता है। डर जाते हैं आप कि कहीं बुरा विचार तो नहीं आ रहा है।
नहीं, विचार सब
एक जैसे हैं। न कोई बुरा है और न कोई अच्छा है। विचार, विचार
हैं। आप सिर्फ देख रहे हैं। एक रास्ते पर खड़े हैं, लोग जा
रहे हैं। एक साधुजी जा रहे हैं, वे बहुत अच्छे हैं। एक चोर
जा रहा है, वह बहुत बुरा है। आपको क्या लेना-देना है--वे
रास्ते से जा रहे हैं?
और
किसको पता कौन अच्छा है,
कौन बुरा है। हो सकता है साधुजी चोरी का विचार कर रहे हों और हो
सकता है चोर साधु हो जाने की योजना बना रहा हो। कोई पक्का नहीं है। कोई हिसाब तय
नहीं है कि कौन, कौन है।
तो
भीतर क्या-क्या है--इसका बहुत ज्यादा निर्णय आप करेंगे, तो आप
जागरूक नहीं हो सकते। आप निर्णय में उलझ जाएंगे और निर्णय में उलझ गए, तो आप विचार में उलझ जाएंगे। और विचार में आप उलझ गए तो--वह तो आप उलझे ही
हुए हैं, उससे निकलने का कैसे रास्ता बन सकता है?
खयाल
में लें यह बात कि विचार सिर्फ विचार हैं। और हम केवल तटस्थ साक्षी हैं। हम सिर्फ
देख रहे हैं। न उन्हें निकालना है, न निकालने की कोई जरूरत है,
न कोई सवाल है। सिर्फ देखना है। और जैसे-जैसे आपका देखना गहरा होगा,
आप पाएंगे कि जिनको आप कभी नहीं निकाल पाए थे, वे नहीं आ रहे हैं। जैसे-जैसे देखना गहरा होगा, आप
पाएंगे--न अच्छा, न बुरा, कोई भी नहीं
आ रहा है।
जिस
दिन देखना पूरा होता है,
जिस दिन वह अंतर्दृष्टि पूरी सजग होती है, उस
दिन कोई विचार नहीं रह जाता। न अच्छा, न बुरा--विचार-मात्र
नहीं रह जाता है।
तो
लोग आपसे कहेंगे कि विचार अलग कर दें तो ध्यान उपलब्ध हो जाएगा। मैं आपसे उलटी बात
कहना चाहता हूं। ध्यान को उपलब्ध हो जाएं, विचार विलीन हो जाएंगे।
और
ध्यान का अर्थ है: दर्शन,
देखना।
वह
जो विचारों की धारा बह रही है, उसे देखना चुपचाप।
इस
प्रयोग को अभी हम करेंगे।
आज इतना ही।
साधना-शिविर माथेरान, दिनांक १९-१०-६७, रात्रि
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