शुक्रवार, 24 मार्च 2017

सबै सयाने एक मत-(संंत दादू दयाल)-प्रवचन-05

सबै सयाने एक मत-(संत दादू दयाल)
दिनांक : 15 सित्‍म्‍बर, सन् 1975,
श्री रजनीश आश्रमपूना।

पांचवां प्रवचन
समरथ सब बिधि साइयां
सारसूत्र:

समरथ सब बिधि साइयां, ताकी मैं बलि जाऊं।
अंतर एक जु सो बसे, औरां चित्त न लाऊं।।

ज्यूं राखै त्यूं रहेंगे, अपने बल नाहीं।
सबै तुम्हारे हाथि है, भाजि कत जाहीं।।

दादू दूजा क्यूं कहै, सिर परि साहब एक।
सो हमको क्यूं बीसरै, जे जुग जाहिं अनेक।।

कर्म फिरावै जीव को, कर्मों को करतार।
करतार को कोई नहीं, दादू फेरनहार।।

आप अकेला सब करै, औरुं के सिर देई।
दादू सोभा दास कूं, अपना नाम न लेई।।


ए क पुरानी कथा है। एक सम्राट संसार से विरागी हो गया; संन्यास का भाव उठा। घर छोड़ा, राज्य छोड़ा, दूर पहाड़ों में एकांतवास करने के मन से स्थान खोजने निकला--कहां ठहरूं, कहां बसूं। नदी में एक नाव पर उसने यात्रा की। दोनों तट सुंदर थे, अलौकिक थे, मन-लुभावने थे। चुनाव करना कठिन था, इस तट पर बसूं या उस तट पर। सोचा, लोगों से पूछ लूं।
बाएं तट पर बसे लोगों से पूछा। उन्होंने कहा, चुनाव का सवाल ही नहीं है। बसना हो, यहीं बसना है। स्वागत है आपका! क्योंकि इस हिस्से को स्वर्ग कहते हैं। और उस तरफ, नदी का जो दूसरा किनारा है, वह नरक है। वहां भूल कर मत जाना। वहां दुख पाओगे, सड़ोगे। वहां बड़े दुष्ट प्रकृति के लोग हैं।
सम्राट को किनारा तो स्वर्ग जैसा लगा, लेकिन स्वर्ग में रहने वाले लोगों के मन में दूसरे किनारे बसे लोगों के प्रति ऐसी दुर्भावना होगी, यह बात न जंची।
वह दूसरे किनारे भी गया। दूसरा किनारा भी अति सुंदर था। एक से दूसरा किनारा ज्यादा सुंदर था। उसने लोगों से पूछा कि मैं बसने का सोचता हूं, किस किनारे को चुनूं?
उन्होंने कहा, चुनाव का कोई सवाल ही नहीं है। बसना हो तो यहीं बसो। इस तरफ देवता बसते हैं, उस तरफ दानव। भूल कर भी उस तरफ मत बस जाना, अन्यथा सदा पछताओगे। फंस गए तो निकलना भी मुश्किल हो जाएगा। महाक्रूर प्रकृति के लोग हैं। उन दुष्टों से तो परमात्मा बचाए। उनकी तो छाया भी पड़ जाती है तो आदमी भटक जाता है। उस किनारे तो भूल कर भी उतरना भी मत; नाव भी मत लगाना।
सम्राट बड़ी दुविधा में पड़ गया। दोनों किनारे सुंदर थे, लेकिन दोनों तरफ रहने वाले लोग असुंदर थे। दोनों तरफ स्वर्ग था, लेकिन रहने वाले लोग वंचित हो गए थे। क्योंकि जब तक दूसरे की बुराई दिखाई पड़ती रहे, तब तक अपने भीतर छिपी भलाई को भोगने का अवसर नहीं आता। और जब तक दूसरे के कांटे गिनने की आदत बनी रहे, तब तक अपने भीतर खिले फूल की सुगंध नहीं मिलती। कांटों को गिनने वाला व्यक्ति धीरे-धीरे फूल की गंध लेने की कला ही भूल जाता है। नरक पर जिसकी आंखें लगी हों, उसकी आंखों की क्षमता ही खो जाती है स्वर्ग को देखने की। खुरदरे पत्थरों के साथ ही जो दिन-रात अपने हाथों को लगाए रहा हो, वह फिर हीरों को नहीं पहचान पाता। हीरे भी पत्थरों जैसे ही लगते हैं।
इससे उलटी बात भी सच है कि जिसने अपने भीतर खिला हुआ फूल देखा हो, उसे सब तरफ फूल दिखाई पड़ने शुरू हो जाते हैं। क्योंकि व्यक्ति अंततः अपने को ही सब तरफ झलकता हुआ पाता है। सारा अस्तित्व दर्पण है। उसमें हम विभिन्न रूपों में अपने ही चेहरे देखते हैं। उस किनारे जो दिखाई पड़ता है वह अपना ही चेहरा है। दुश्मन में जो दिखाई पड़ता है वह अपना ही चेहरा है। नरक में जलती हुई जो लपटें दिखाई पड़ती हैं वह अपना ही चेहरा है।
सम्राट ने कहा, इन्हीं उपद्रवों से तो बच कर भागना चाहा है साम्राज्य से। वह इस शांत पहाड़ की झील में बसे हुए लोगों में, इस घाटी में बसे हुए लोगों में भी वही का वही द्वंद्व है।
तो नाव को बढ़ाता आगे चला गया। उसने कहा, अब तो वहीं रुकूंगा जहां आदमी न हो। क्योंकि जहां तक आदमी है वहां तक मन रहेगा। और जहां तक मन है वहां तक संसार से बाहर जाने का कोई उपाय नहीं। मन ही तो संसार है। जहां तक मन है वहां तक द्वैत रहेगा, द्वंद्व रहेगा, विरोध रहेगा, पक्षपात रहेगा, अपना-पराया रहेगा, मैंत्तू रहेगा। नदी दिखाई न पड़ेगी, किनारे महत्वपूर्ण रहेंगे--अपना किनारा, पराया किनारा। वह दूर का किनारा, दुश्मन का किनारा। वह बढ़ता गया। ऐसा समय आया, कोई लोग न मिले, बस्ती समाप्त हो गई। अब वह बस सकता था। लेकिन उसने कहा, अब भी मैं बसूंगा तो किसी एक किनारे पर बसूंगा। मैं भी आदमी हूं। अभी छूट नहीं गया हूं, छूटने की कोशिश कर रहा हूं। बंधन तोड़ रहा हूं, थोड़े ढीले हुए हैं, लेकिन जंजीरें खुल नहीं गई हैं। अगर एक किनारे पर बसूंगा, कौन जाने दूसरा किनारा मुझे भी बुरा दिखाई पड़ने लगे!
मनुष्य की स्वाभाविक दुर्बलताएं हैं। तुम जहां हो, उसे महिमावान सिद्ध करने के लिए अनिवार्यरूपेण तुम्हें, तुम जहां नहीं हो, वहां की निंदा करनी पड़ती है। तुम जो हो, उस अहंकार की तृप्ति के लिए दूसरों का खंडन करना होता है।
अहंकार को एक ही रास्ता पता है अपने को बड़ा करने का, वह है दूसरों को छोटा करना। आत्मा का रास्ता अहंकार को पता नहीं है। आत्मा का रास्ता है अपने को बड़ा करना। और मजा यह है कि जब कोई अपनी आत्मा को बड़ा करता है, तो दूसरे भी उसके साथ बड़े होते चले जाते हैं।
और जब अहंकार अपने को बड़ा करना चाहता है तो उसे एक ही गणित मालूम है, दूसरे को छोटा करना। और दूसरी बात भी समझ लेने जैसी है, जितने दूसरे छोटे होते जाते हैं, उतने ही छोटे तुम भी होते चले जाते हो। क्योंकि छोटे के साथ बड़े होने का उपाय नहीं है। छोटे के साथ जीना हो तो तुम्हें भी छोटा होना पड़ेगा। बुरे आदमी के साथ जीना हो तो तुम्हें भी बुरा होना पड़ेगा। और अगर तुमने सब में बुराई ही देखी है तो तुम भले कैसे रह सकोगे? रहना तो बुरे लोगों के साथ होगा, जिनमें तुमने बुराई देखी है। तुम भी बुरे हो जाओगे।
शायद गहरे में तुम बुरे होने के लिए सुविधा चाहते हो इसीलिए दूसरे में बुराई देखते हो। तुम दूसरे को छोटा बताते हो ताकि तुम्हें अपना छोटापन अखरे न। तुम दूसरे को छोटा करते हो ताकि कम से कम छोटों में तो बड़े दिखाई पड़ सको। जितने दूसरे छोटे हो जाएंगे उतना तुम्हें ऐसा लगता है, मैं थोड़ा बड़ा हूं।
लेकिन जिसने दूसरों को छोटा किया वह खुद भी छोटा हो गया। तुम छोटे करने की चेष्टा कर ही नहीं सकते बिना छोटे हुए। क्योंकि तुम्हारा प्रत्येक कृत्य तुम्हें निर्मित करता है। तुम्हारे प्रत्येक कृत्य की छाप तुम पर पड़ जाती है। तुम जो करते हो, करते-करते वही तुम हो जाते हो।
सम्राट ने सोचा, रुक जाऊं इस किनारे। दोनों किनारे सुंदर हैं। किसी भी किनारे रुकना हो सकता है। लेकिन क्या पता, मनुष्य का मन! मैं भी कहीं ऐसा ही सोचने लगूं कि मेरा किनारा सुंदर। क्योंकि मेरा किनारा है, सुंदर होना ही चाहिए। मेरा किनारा और सुंदर न हो! और अपने किनारे को सुंदर बताने के लिए दूसरे के किनारे को छोटा बताने लगूं।
तो सम्राट ने कहा, आदमी तो छूट गए, लेकिन किनारे अभी भी हैं। किनारे भी जहां छूट जाएं वहीं रुकूंगा। वह नाव बढ़ाता चला गया। वह मूल उदगम पर पहुंच गया नदी के। वहां नदी ही समाप्त हो गई थी, किनारे भी समाप्त हो गए थे। जिस पर्वत से नदी निकलती थी, वह पर्वत न इस किनारे था, न उस किनारे था, बीच में खड़ा था। बीच में भी नदी के तल पर न था, नदी से बहुत ऊपर खड़ा था। उसने उस पर्वत के ही ऊपर अपना भवन बनाया। वह वहीं रहा। उसने अपने भवन का नाम रखा: नेति-नेति। उपनिषद का प्राचीन वचन है: न यह, न वह। न यह किनारा, न वह किनारा।
जब उसके मित्र प्रियजन आते उससे मिलने, उसके दर्शन करने, तो वे सभी पूछते कि इस भवन का नाम नेति-नेति किस कारण? तो वह यह सारी कहानी कहता जो मैंने तुमसे कही।
जहां तक मनुष्य है, वहां तक तुम मन से बाहर न हो सकोगे। मन के फैलाव का नाम ही तो मनुष्य है। हमारा शब्द "मनुष्य' बड़ा बहुमूल्य है। वह मन से ही बना है। अंग्रेजी का "मैन' भी "मन' का ही रूपांतर है। वह भी मनुष्य का ही आधा हिस्सा है। मन का अर्थ है: चुनाव। मन का अर्थ है: इस किनारे, उस किनारे; इस पक्ष में, उस पक्ष में। हिंदू, मुसलमान; जैन, ईसाई; ब्राह्मण, शूद्र; भारतीय, चीनी--मन हमेशा तोड़ता है दो में। एक को पकड़ता है, एक से लड़ता है। मन बिना शत्रुता के नहीं जीता। इसलिए मन कभी शांत नहीं हो सकता।
मुझसे, आते हैं लोग, पूछते हैं कि मन कैसे शांत हो जाए?
मैं उनसे कहता हूं, मन कभी शांत न होगा। मन के पार जाना होगा, तभी शांति है। मन शांत होता ही नहीं। जब मन नहीं होता तभी शांति होती है। मन के अभाव का नाम शांति है। मन के भाव का नाम अशांति है। मन यानी अशांति; इसलिए मन के शांत होने की बात ही मत सोचना। वह भूल हो जाएगी। वह तो तुमने बीमारी को ही स्वास्थ्य समझ लिया। अब तुम बीमारी को ही निखारने में लग जाओगे। हां, मन निखर सकता है, बड़ा सूक्ष्म हो सकता है, बड़ा चमत्कार उससे पैदा हो सकता है, लेकिन शांत नहीं होगा। कितना ही बलशाली हो सकता है, लेकिन शांत नहीं होगा।
बड़े प्रसिद्ध झेन फकीर रिंझाई की कथा है कि वह अपने गुरु के आश्रम में था और वर्षों से चेष्टा कर रहा था मन को शांत करने की। मन बलशाली हो गया। दूर के दृश्य दिखाई पड़ने लगे। दूसरों के विचार पढ़ने में आने लगे। छू देता, बीमारियां हट जातीं। चमत्कार घटने लगे। छाया पड़ जाती उसकी, कुम्हलाए फूल फिर से खिल जाते, सूखता हुआ वृक्ष फिर हरा हो जाता। दूर-दिगंत तक उसकी खबर पहुंचने लगी। और वह अभी भी लगा ही था श्रम में। मन उसका रोज-रोज शुद्ध होने लगा। रोज-रोज मन में नई शक्तियों के आविर्भाव होने लगे।
एक दिन उसका गुरु उसके द्वार पर आकर बैठ गया। वह ध्यान कर रहा था। वह अपने मन को मांज रहा था। उसके सामने ही बैठ कर गुरु ने एक ईंट को घिसना शुरू कर दिया पत्थर पर।
रिंझाई तो बैठा हुआ अपने को ध्यान में ही खींचता रहा। थोड़ी देर में उसे हैरानी भी हुई कि यह गुरु को क्या हुआ है, क्या पागलपन हुआ है? इस तरह उपद्रव करना, ध्यान करते शिष्य को बाधा देनी, यह कोई गुरु का ढंग है! गुरु तो बचाने को है कि विघ्न उपस्थित करने को है? पर फिर भी उसने सोचा कि शायद मेरी परीक्षा लेते हों कि मैं अभी परेशान होता हूं या नहीं होता। तो वह डटा रहा। सांझ हो गई। और गुरु भी डटा रहा; वह घिसता ही रहा। सिर भी पक गया रिंझाई का। आखिर उसने चिल्ला कर कहा कि बंद भी करो! क्या कर रहे हो? ईंट को घिसने से क्या होगा?
गुरु ने कहा कि ईंट को घिस-घिस कर सोचता हूं कि दर्पण बना लेंगे।
रिंझाई हंसने लगा। उसने कहा, पागल हुए हो बुढ़ापे में? सठिया गए? कहीं ईंट को घिसने से दर्पण बना है!
गुरु हंसने लगा। उसने कहा, तो तेरा अभी होश खोया नहीं। ईंट घिसने से दर्पण नहीं बनता, मन घिसने से कभी आत्मा बनती है? तू भी ईंट घिस रहा है। हां, ईंट घिसने से साफ-सुथरी हो जाएगी, चिकनी हो जाएगी, सूक्ष्म हो जाएगी, सुंदर हो जाएगी; रूप-रंग दे सकते हो घिस-घिस कर, लेकिन दर्पण तो न बनेगा।
मन को घिस-घिस कर कई रूप आ जाएंगे, कई भीतर के इंद्रधनुष प्रकट हो जाएंगे; लेकिन वह तो न मिलेगा जो सभी रूपों के पार है। मन के घिसने से शांति न मिलेगी।
और ध्यान की दो विधियां हैं संसार में। एक, जो मन को घिसने में ही भरोसा करते हैं। उन्हें सिद्धियां उपलब्ध होती हैं, चमत्कार होते हैं। लेकिन आत्मा नहीं मिलती। वे भीतर की संपदा में भटक गए। वे भीतर के बाजार में भटक गए। बाहर के बाजार से बचे तो भीतर के बाजार में उलझ गए। बच न पाए, बाजार से उठ न पाए ऊपर।
दूसरी ध्यान की विधियां हैं, जो मन को घिसने की नहीं, मन के त्यागने की हैं। मन का त्याग ही ध्यान है। मन की साधना नहीं, मन का अभ्यास नहीं, मन का विसर्जन ध्यान है। और जहां मन जाता है वहां पक्ष चले जाते हैं। जब तक मन है तब तक पक्ष रहेगा। तुम कितना ही सोचो कि निष्पक्ष हो जाऊं; तुम निष्पक्षता के पक्षपाती हो जाओगे, इससे ज्यादा और कुछ भी न होगा। अब तुम निष्पक्षता को ही अपनी अकड़ और पकड़ बना लोगे कि मैं तटस्थ हूं, मैं निष्पक्ष हूं। अब तुम निष्पक्षता के लिए लड़ने लगोगे। लेकिन लड़ाई जारी रहेगी; लड़ाई का अंत न होगा। क्योंकि तुम मूल बात चूक ही गए।
मैंने सुना है, एक गांव के रास्ते पर दो आदमी लड़ रहे थे। बड़ी गाली-गलौज बक रहे थे, मार-पीट पर उतारू थे, ईंट-पत्थर लिए खड़े थे। मुहल्ले के एक बुद्धिमान आदमी ने कहा कि भाई, बात क्या है? यह झगड़ा क्या है? पूरे गांव को क्यों इकट्ठा किया हुआ है? अगर कोई झगड़े की ही बात है, तो पंच नियुक्त कर लो, निपटारा हो जाए। लड़ते क्यों हो?
बात समझ में आ गई। लोगों ने औरों ने भी कहा कि ठीक है, तीनत्तीन पंच नियुक्त कर लो।
सांझ वह आदमी जब वापस बाजार से अपने काम करके लौटा तो वहां और भी बड़ा झगड़ा मचा हुआ था। सुबह दो आदमी लड़ रहे थे, अब वहां आठ आदमी लड़ रहे थे। उसने कहा, मामला क्या है? यह तो बात और बिगड़ गई!
पता चला कि वे जो पंच नियुक्त किए हैं, अब वे भी लड़ रहे हैं। वे दो तो लड़ ही रहे हैं, वे जो तीनत्तीन पंच नियुक्त किए थे दोनों की तरफ से, अब वे भी लड़ रहे हैं।
अगर मूल न बदले और बोध न हो, तो तुम जो भी करोगे वह वही होगा नये रूप में। उसमें फर्क नहीं पड़ने वाला, जब तक मूल दृष्टि न साफ हो जाए। पत्ते काटने से कुछ हल न होगा, जब तक जड़ पर ही हाथ न पहुंच जाए।
उस सम्राट ने ठीक किया कि वह किनारों पर न रुका। क्योंकि पक्ष पर रुक जाता तो मन पर ही रुक जाता। नेति-नेति का भवन है मन के पार। वह अद्वैत है। वहां यह किनारा भी नहीं है, वह किनारा भी नहीं है।
तुम्हारे जीवन की सारी दुविधा क्या है? कि तुमने कभी भी अद्वैत का कोई क्षण भर का भी अनुभव नहीं पाया। यह शब्द तुमने सुना है--ब्रह्म, अद्वैत, एक; पर तुमने जो भी अनुभव पाए हैं जीवन में, वे सब द्वैत के हैं। तुम्हारे श्रेष्ठतम अनुभव भी द्वैत के ही हैं।
तुम किसी के प्रेम में पड़े हो। किसी स्त्री, किसी पुरुष, किसी मित्र, किसी बच्चे को, किसी को तुमने प्रेम किया है। बड़ा गहरा अनुभव है, लेकिन वह भी द्वैत का है, वह भी दो के बीच है। अभी वह भी मन के पार नहीं है। तुमने कभी संगीत सुना है। और कभी संगीत के साथ बह गए हो, बड़ी दूर की यात्रा की है। लेकिन वह भी द्वैत का ही अनुभव है। संगीत भी है और तुम भी हो। ऐसा नहीं हुआ है कि संगीत ही रह गया हो और तुम न रहे हो। जब भी तुम खोजोगे, अपने को पाओगे। उस गहरे से गहरे संगीत में भी द्वैत ही है।
तो तुम कितने ही उदगम के करीब पहुंच गए होओ, लेकिन बिलकुल उदगम के पार नहीं जा पाए हो। किनारे बने ही रहे हैं। नदी छोटी होती गई होगी। जैसे-जैसे स्रोत पास आता है, नदी छोटी होती है; छोटा सा झरना रह गया होगा। लेकिन छोटे झरने के भी दो किनारे होते हैं। अगर गौर से देखो तो एक बूंद के भी दो किनारे होते हैं। बूंद कितनी ही छोटी हो, उसके भी दो पहलू होते हैं।
तो तुमने जीवन में कभी-कभी झलक भी पाई है, गहरी झलक भी पाई है, तो भी द्वैत के पार नहीं गई है। अद्वैत तो खाली शब्द है; उसका कोई अनुभव नहीं है। और उसे तुम शास्त्रों से न समझ सकोगे। उसका तो स्वाद चाहिए।
एक सूफी फकीर था बायजीद। वह एक दिन अपने शिष्यों को समझा रहा है। जब वह आया था बोलने, तो अपने हाथ में एक टोकरी लेकर आया था। शिष्य थोड़े चौंके भी, लेकिन टोकरी को उसने ढांक रखा था। उत्सुकता भी जगी। कभी वह ऐसा कुछ लेकर न आया था और आज यह टोकरी लेकर क्यों चला आया?
जैसे मैं कल टोकरी लेकर चला आऊं, तो तुम मुसीबत में पड़ जाओ--कि यह टोकरी किसलिए लाई गई है?
सब सजग, सध कर बैठ गए कि कुछ मामला होने को है। और उसने बोलना शुरू किया और वह समझाने लगा नासपातियों के संबंध में। और उसने कहा कि ऐसी-ऐसी नासपातियां दुनिया में हैं। उनके अलग-अलग ढंग से वर्णन किए। अलग-अलग ढंग की नासपातियां हैं, उनके स्वाद, उनके रंग, उनके आकार, उनकी ताजगी। और फिर उसने कहा कि एक वैज्ञानिक ने सारे संसार की नासपातियों को इकट्ठा करके एक नई तरह की नासपाती पैदा की है। ऐसा फल तुमने देखा भी नहीं है। उसका उसने बड़ा गहरा वर्णन किया। लोगों के मुंह में पानी आ गया। और तब लोगों को थोड़ा शक भी होने लगा कि टोकरी में क्या है? लेकिन वह बातचीत ही करता रहा। और लंबी उसने चर्चा की और लोगों को बिलकुल भाव से भर दिया उस नासपाती के लिए। तैयार ही थे कि वहां से छूटें कि बाजार जाएं। जब सारी बात हो गई तब उसने कहा कि मैं तुमसे पूछता हूं, मैंने इतनी चर्चा की, तुम्हें स्वाद मिला?
उन्होंने कहा, स्वाद तो नहीं मिला, लेकिन स्वाद की आकांक्षा जगी।
तब उसने अपनी टोकरी का कपड़ा उघाड़ दिया और उसने नासपातियां बांटीं। और उसने कहा, अब तुम स्वाद भी ले लो। और तब मुझे कहो कि जो मैंने कहा था क्या उससे तुम्हें इसकी जरा सी भी झलक मिली थी?
तब उन्होंने नासपातियां चखीं। उन्होंने कहा, हम तो सोचते थे कि आपके शब्द बड़े अनूठे हैं। आप कुछ भी प्रकट कर सकते हैं। लेकिन अब हमें पता चला कि नासपाती का स्वाद भी आप न कह सके। यह तो बात ही और है। जो आपने कहा था, उससे इसका क्या लेना-देना? वह तो ऐसे था जैसे रूखी-सूखी रेगिस्तान की चर्चा हो। और यह तो हरित उद्यान है। इसका उससे कोई लेना-देना नहीं है। वह तो जैसे मरी हुई लाश हो और यह जीवित नाचती हुई प्रतिमा है। जैसे वह कोई बासा, जन्मों-जन्मों का सूख गया फूल हो और यह अभी-अभी खिला हुआ गुलाब है।
और उन्होंने कहा, लेकिन हम भी कुछ नहीं कह सकते हैं। एक युवक उठा और उसने कहा कि आप भी एक नासपाती चखें। क्योंकि हम भी कैसे कहें जो हमारे भीतर हुआ है, नासपाती से जो स्वाद हमें मिला है।
बायजीद ने उनसे कहा, परमात्मा के संबंध में मैंने तुमसे जो कहा है, वह सब ऐसा ही है। और मेरी मजबूरी है कि मैं परमात्मा को टोकरी में भर कर नहीं ला सकता, नासपातियों की तरह तुम्हें नहीं दे सकता। आकांक्षा तुम्हें देता हूं। लेकिन ध्यान रखना, मेरी आकांक्षा को जो मैंने तुम्हारे भीतर जगाई, जो अभीप्सा पैदा की, वह बस ऐसी ही है जैसे नासपातियों के संबंध में की गई मधुर चर्चा। कितनी ही काव्यात्मक हो, कितने ही गीत से भरी हो, लेकिन स्वाद का तो मुकाबला नहीं कर सकती। तो तुम मेरे शब्दों से राजी मत हो जाना, तुम परमात्मा का स्वाद लेने निकलना। जब तक स्वाद न मिल जाए तब तक रुकना मत, तब तक यात्रा पूरी नहीं हुई। बहुत कमजोर शब्दों पर ही रुक जाते हैं। बहुत थोड़े लोग हैं जो अनुभव की यात्रा पर जाते हैं।
अद्वैत अनुभव है, स्वाद है। कोई दूसरा तुम्हें दे नहीं सकता। दूसरे से तुम्हें थोड़ी सी प्यास मिल जाए, बस काफी है। परमात्मा नहीं मिलता किसी से।
दादू के वचन बड़े मधुर हैं। इन वचनों में उन्होंने सब भर दिया है जो वे भर सकते थे। लेकिन इन वचनों को समझ कर मत रुक जाना। यह मत समझ लेना कि समझ लिए वचन, अब और क्या बाकी बचा! शास्त्र जब पूरा समझ लिया जाता है तभी असली यात्रा शुरू होती है। शास्त्र को पूरा समझ लेने के बाद यह मत समझना कि अब क्या बाकी बचा? समझ तो लिया पूरा! जब तुमने पूरा समझ लिया, अभी पूरा बाकी है। अभी बात ही शुरू नहीं हुई है। क्योंकि स्वाद तो अभी आया नहीं। अभी तो तुम सिर्फ नींद से जगाए गए हो। अभी तुम उठे नहीं; अभी तुम्हारे पैर बढ़े नहीं; अभी उस मंदिर की तरफ तुम चले नहीं। अभी तो दूर मंदिर की गूंजती हुई घंटियां तुम्हारे कानों में पड़ी हैं। अभी मंदिर बहुत दूर है। कितनी ही मधुर हो घंटियों की आवाज, उसी को सुनते मत बैठ जाना।
संतों की आवाज मंदिर में गूंजती घंटियों की आवाज है। वे स्वर मंदिर से आते हैं। लेकिन वे स्वर मंदिर नहीं हैं। बहुत उनको पकड़ कर बैठ जाते हैं। तब बड़ी भ्रांति हो जाती है। तब जीवन एक डबरा बन जाता है और जीवन में गति नहीं रह जाती।
तुम जीवन को डबरा मत बनाना। दादू के वचन समझो, उनसे पुलक लो और यात्रा पर निकल जाओ। उनसे गति लो थोड़ी सी; थोड़ा सा धक्का लो। ऐसे ही जैसे हम कार के इंजन को स्टार्ट करते हैं, तो बैटरी का थोड़ा सा धक्का। फिर बैटरी के ही सहारे कोई इंजन नहीं चलाता है; थोड़ा सा धक्का--और इंजन शुरू हो गया। बैटरी नहीं होती तो हम किसी से धक्का लगवा लेते हैं। उससे भी काम चल जाता है। कोई नहीं होता धक्का लगाने वाला तो थोड़ा गाड़ी को उतार पर खड़ा करके चला लेते हैं। उससे भी काम चल जाता है।
बस वह पहली पुलक और गति! संत-वचन उससे ज्यादा कुछ भी नहीं कर सकते। लेकिन वह भी बहुत बड़ा है। वह भी हो जाए तो भी सौभाग्य है।
समरथ सब बिधि साइयां, ताकी मैं बलि जाऊं।
अंतर एक जु सो बसे, औरां चित्त न लाऊं।।
वह जो साइयां है, वह जो प्यारा है, वह जो प्रियतम है...
इन शब्दों पर भी ध्यान देना। अगर तुम दार्शनिक के पास जाओगे तो वह कहेगा, सत्य। अगर तुम भक्त के पास जाओगे, वह कहेगा, साइयां, प्रियतम, पीव। बड़ा फर्क है। सत्य तो रूखा-सूखा शब्द है। वह शब्द गणित का है, तर्क का है। वह शब्द हृदय का नहीं है, काव्य का नहीं है। उसमें बास सोच-विचार की आती है। उसमें भाव की खिलखिलाहट नहीं है।
तो जब दादू, कबीर, नानक, मीरा, चैतन्य परमात्मा के लिए कोई शब्द का प्रयोग करते हैं, तो वे बड़े मीठे शब्द का प्रयोग करते हैं। क्योंकि संतों का यह अनुभव है कि उस परमात्मा से जुड़ना हो तो तुम इस तरह न जुड़ सकोगे जैसे कोई व्यक्ति गणित और तर्क से जुड़ता है। तुम उससे ऐसे ही जुड़ सकोगे जैसे प्रेमी प्रेमी से जुड़ता है। प्रेम तुम्हारे द्वैत को अधिक से अधिक मिटाता है। बिलकुल नहीं मिटाता, पूरा नहीं मिटाता, लेकिन प्रेम तुम्हारे द्वैत को अधिक से अधिक मिटाता है। बड़ी नदी नहीं रह जाती, किनारे बड़े दूर नहीं रह जाते, बड़ी छोटी सी झीनी धार रह जाती है। किनारे बिलकुल करीब-करीब आ जाते हैं; कभी-कभी तो छू लेते हैं।
मैं जबलपुर में बहुत वर्षों तक था। वहां नर्मदा की बड़ी सुंदर दुनिया है संगमरमर की चट्टानों की। उन संगमरमर की चट्टानों में, अगर आप में कोई कभी गया हो, या कभी जाए, तो एक जगह है, उसका नाम है, बंदरकूदनी। वहां दो चट्टानें दोनों किनारों से इतनी करीब आ गई हैं कि बंदर ऊपर से कूद जाते हैं। तो जब भी मैं जाता था तो मैं कहता था, प्रेम इतने ही करीब आ जाता है। बंदरकूदनी है प्रेम। किनारे दो हैं, द्वैत मिट नहीं गया है, लेकिन इतने करीब आ गए हैं किनारे, दोनों तरफ से चट्टानें उठ कर इतने करीब आ गई हैं ऊपर कि अगर कोई हिम्मत करे तो व्यक्ति भी कूद सकता है; बंदर तो कूद ही जाते हैं।
तो प्रेम बंदरकूदनी है। फासला कम से कम है। इसलिए संतों ने प्रेम से भरे शब्दों के प्रयोग किए हैं। यद्यपि द्वैत बिलकुल नहीं मिट गया है, लेकिन शब्दों में कहना हो तो प्रेम के शब्द निकटतम हैं। सत्य तो बड़ा दूर है।
कभी तुमने सोचा? सत्य को छुओ, छूने में नहीं आता; देखो, दिखाई नहीं पड़ता; गुनगुनाओ, कंठ से संगीत नहीं पैदा होता। सत्य का स्मरण करो, पता नहीं चलता--कहां है, कैसा है! सत्य से तुम कैसे जुड़ोगे?
लेकिन दादू कहते हैं: समरथ सब बिधि साइयां।
साइयां से जुड़ सकते हो। बात बहुत करीब आ गई। परमात्मा को निकट लाना पड़ेगा। उपनिषद कहते हैं, वह दूर से भी दूर और पास से भी पास है। अगर तुमने सत्य जैसे शब्दों का प्रयोग किया तो बहुत दूर है। अगर साइयां जैसे शब्दों का प्रयोग किया तो बिलकुल पास है, श्वासों की श्वास है। तुमसे भी तुम्हारे ज्यादा पास है। तुम भी अपने से थोड़े दूर हो सकते हो, लेकिन वह तुमसे इतना भी दूर नहीं है। लेकिन तब, जब तुम उसे भाव से देखो।
एक तो ढंग है बुद्धि से देखने का। बुद्धि तो मरुस्थल है, बिलकुल सूखा मरुस्थल है; वहां कोई जलधार नहीं; वहां कोई काव्य के वृक्ष नहीं लगते; वहां कोई कोयल कूकती नहीं; वहां कोई इंद्रधनुष प्रेम के नहीं उत्पन्न होते। बस मरुस्थल है। पारावारहीन मरुस्थल है।
एक फिर हृदय का मरूद्यान है। वहां वृक्षों की घनी छाया है; वहां जल के शीतल झरने हैं; वहां कोई विश्राम करना चाहे तो कर सकता है। थके-मांदे यात्री के लिए वहां फिर से प्राण जीवित हो उठते हैं। टूट गए, हताश हो गए को फिर से पुनरुज्जीवन मिल जाता है।
तो एक तो भाव से देखने का ढंग है और एक बुद्धि से देखने का ढंग है। पंडित बुद्धि से देखता है। इसलिए परमात्मा जितनी दूर हो सकता है उतनी दूर दिखाई पड़ता है। पंडित सदा वहां देखता है आकाश में। उसका परमात्मा सदा दूर है। भक्त देखता है हृदय में। उसका परमात्मा सदा पास है। उसका परमात्मा इतना पास है कि वह परमात्मा के सिवाय धीरे-धीरे फिर किसी को भी नहीं देखता। वही दिखाई पड़ता है।
मैंने सुना है, एक व्यक्ति नास्तिक था। उससे गांव परेशान था। सब समझा-समझा कर हार गए। पंडितों ने बड़े तर्क दिए, लेकिन तर्कों के वह खंडन कर देता था। सभी तर्क खंडित हो सकते हैं। ऐसा कोई भी तर्क नहीं है जो खंडित न हो सके। अगर तुमसे न होता हो तो उसका इतना ही मतलब है कि तुम्हें थोड़े और तर्कवान होने की जरूरत है; और कुछ मामला नहीं है। आज तक पृथ्वी पर ऐसा कोई भी तर्क नहीं है जो खंडित न किया जा सके।
तो पंडितों ने तर्क दिए, समझाने की कोशिश की, लेकिन वह नास्तिक युवक सब तर्क खंडित कर देता। कोई उपाय न रहा, तो उन्होंने कहा, तू एक काम कर। अब एक ही आदमी बचा है। शायद वह तुझे कुछ सहारा दे सके। तू संत एकनाथ के पास चला जा।
वह युवक गया। सोचा उसने कि शायद वहां मेरे तर्कों को शांति मिल जाए। जाकर देखा तो एक शिव के मंदिर में एकनाथ सो रहे हैं। पैर उन्होंने शिव की पिंडी पर टिका रखे हैं। यह नास्तिक भी थोड़ा घबड़ाया। इसने कहा, नास्तिक मैं कितना ही होऊं, लेकिन पैर तो मैं भी शिव की प्रतिमा पर टिकाने की हिम्मत नहीं जुटा सकता। यह तो आदमी महानास्तिक है। मैं तो अभी टटोल ही रहा हूं, यह तो सिद्ध नास्तिक है। और इसके पास भेज दिया! वह भी घबड़ाया। पर बैठा; कि अब आ गए हैं इतनी यात्रा करके तो इससे कुछ ज्ञान लेकर जाएं; लेकिन इससे कुछ आशा नहीं है अब। कोई नौ बजे एकनाथ ने आंख खोली, तो उस युवक ने उठाया संदेह पहला कि आप साधुपुरुष हैं; शास्त्रों में कहा है, साधुपुरुष ब्रह्ममुहूर्त में उठता है; और आप नौ बजे तक सो रहे हैं! और यह तो कभी किसी जगह सुना भी नहीं गया कि साधुपुरुष, परमात्मा की प्रतिमा पर और पैर टेक कर सोता है।
एकनाथ ने कहा, सब जगह पैर टेक कर देखे, सब जगह परमात्मा पाया। तो यह तो फिर बात ही न रही कि कहां पैर टेको; क्योंकि परमात्मा सभी जगह पाया। फिर तो सवाल यह रहा कि जहां पैर को सुविधा मिले वहीं टेको; क्योंकि परमात्मा तो सभी जगह है। इस पिंडी पर बड़ी सुविधा है; ठंडी भी है, शीतल भी है और सहारा भी है। कभी-कभी सिर भी टेकते हैं; ऐसा नहीं कि पैर ही टेकते हैं। जैसी सुविधा होती है।
उस युवक ने कहा, और ब्रह्ममुहूर्त?
तो एकनाथ ने कहा कि जब भीतर का ब्रह्म आंख खोलता है वही ब्रह्ममुहूर्त। हम किसी और नियम को नहीं मानते। हम तो ब्रह्म को ही मानते हैं; वही भीतर है, वही बाहर है। जब आंख बंद हो गईं तब सो गए; जब आंख खुल गईं तब जग गए।
झेन फकीर एकनाथ से राजी हो जाते। झेन फकीर कहते थे, जब नींद खुल गई तब जग गए; जब नींद लग गई तब सो गए। और कोई नियम नहीं है। क्योंकि जिसने भी नियम थोपा ऊपर से, वह तो परमात्मा पर मनुष्य के नियम थोप रहा है।
परम संन्यासी तो अनुशासन-मुक्त होता है। प्रारंभ में नियम बनाने पड़ते हैं, क्योंकि तुम अभी परम संन्यासी होने के योग्य नहीं। जिस दिन योग्यता परम हो जाती है, उस दिन कोई नियम नहीं रह जाता। परम संन्यासी तो अमर्याद होता है; उसकी कोई मर्यादा नहीं होती। क्योंकि परम संन्यासी का मतलब यह कि अब परमात्मा पर ही सब छोड़ दिया। तो अब वही जाने अनुशासन भी। अब हम कौन रहे बीच में अनुशासन देने को? वही उठना नहीं चाहता हो तो सोए।
युवक को बड़ी हैरानी हुई। इस आदमी से तो विवाद करना मुश्किल है। यह तो हाथ के बाहर है। पर यह आदमी बड़ा प्यारा लगा। इस आदमी में बड़ी मिठास लगी। इसके चारों तरफ की हवा में कुछ धुन मालूम पड़ी। कुछ बजता है, कुछ किसी और लोक की घंटियां गूंजती हैं। यह आदमी देखने जैसा है। इसका सौंदर्य अप्रतिम है, अलौकिक है। यह इस पृथ्वी पर चलता है, लेकिन कहीं और से है; कहीं और का है; किसी और लोक का है।
संदेह अभी भी मिटा नहीं कि परमात्मा के ऊपर पैर रख कर सोया है और कहता है कि जब परमात्मा की नींद खुली तब उठे; वही ब्रह्ममुहूर्त है।
एकनाथ गए, भीख मांग कर लाए, उन्होंने बाटियां बनाईं। वे जब बाटियां बना कर तैयार ही थे और घी में डुबाने ही वाले थे, तभी एक कुत्ता आया और एक बाटी ले भागा। तो एकनाथ उसके पीछे भागे। वह युवक भी पीछे-पीछे भागा कि हद हो गई! इतना बड़ा साधुपुरुष! अब कुत्ता एक बाटी ले गया तो उसके पीछे इतनी भागदौड़ मचाने की क्या जरूरत? दो मील तक एकनाथ भागे। तो वह युवक भी भागा। थक गया, लेकिन उसने कहा, देखना जरूरी है कि यह आदमी अब करता क्या है! कुत्ते को मार डालेगा, या क्या करेगा? शक तो पहले ही हुआ था, उसने सोचा, कि परमात्मा की प्रतिमा पर पैर रख कर सोया है। यह आदमी खतरनाक मालूम होता है। या पागल भी हो सकता है।
लेकिन जब एकनाथ ने कुत्ते को पकड़ ही लिया तो कुत्ते से कहा, देख, हजार दफे तुझसे कह दिया राम कि जब तक हम घी में न डुबा लें बाटी, तब तक मत उठाया कर! जब हम नहीं खाते बिना घी में डूबी, तुझे कैसे खाने देंगे? वही राम भीतर, वही राम तुझमें।
कुत्ते को पकड़ कर कान से बाटी समेत वे वापस ले आए। उसकी बाटी डुबाई घी में, उसके मुंह में दी और कहा, कल से याद रख! भाग लेकर जब भागना हो, बाकी जब हम घी में डुबा लें तब; पहले नहीं।
अब यह एक व्यक्ति है, जिसके लिए परमात्मा सिद्धांत नहीं हो सकता। यह कोई परमात्मा एक प्रत्यय नहीं है, कोई दर्शनशास्त्र की निष्पत्ति नहीं है। यह इसके चारों तरफ जीवन का जो फैलाव है, उसी का नाम है। उसमें कुत्ता भी सम्मिलित है। उसमें वृक्ष, चट्टानें भी सम्मिलित हैं। उसमें समस्त समा गया है। परमात्मा कोई व्यक्ति नहीं है, समष्टि है।
समरथ सब बिधि साइयां, ताकी मैं बलि जाऊं।
और वह सब है इसीलिए समर्थ है। अगर वह कुछ होता तो समर्थ नहीं हो सकता था। कुछ की तो सीमा हो जाती है। कुछ की तो सीमा हुई, सीमा में असामर्थ्य आया।
समरथ सब बिधि साइयां...
वह सभी विधियों से समर्थ है। वह साईं है, वह स्वामी है, वह मालिक है।
...ताकी मैं बलि जाऊं।
मैं उस पर निछावर हो जाऊं, बस इतनी ही आकांक्षा है भक्त की।
अंतर एक जु सो बसे, औरां चित्त न लाऊं।।
वह एक ही मुझमें बसे। और की स्मृति चित्त में न आए।
तुम परमात्मा की स्मृति और स्मृतियों के साथ जोड़ नहीं सकते। तुम यह नहीं कह सकते कि हमारे मन में एक फेहरिस्त है। मकान बनाएंगे, दुकान में कमाएंगे, धन जमा करेंगे, यश पाएंगे, परमात्मा भी पाएंगे। ऐसी और भी बहुत सी चीजें हैं, उनमें एक परमात्मा भी है।
अगर तुम्हारा परमात्मा तुम्हारी और बहुत सी आकांक्षाओं में एक आकांक्षा है, तो परमात्मा से तुम्हारा अभी कोई भी संबंध और रस नहीं जुड़ा। जब तुम्हारी सारी आकांक्षाएं ही परमात्मा में गिर जाती हैं, जैसे सभी नदियां सागर में गिर जाती हैं; जब एक आकांक्षा ही बचती है, तभी--तभी उसकी धुन बजती है, उसके पहले नहीं। तुमने अगर परमात्मा को बहुत आकांक्षाओं में एक आकांक्षा की तरह माना है, तो बेहतर है कि तुम उसे मानो ही मत। कम से कम ईमानदार तो रहो। क्योंकि वह मान्यता झूठ होगी। जब तुम्हारी सभी आकांक्षाएं संयुक्त हो जाएं उसी में, जब वही एकमात्र आकांक्षा हो, तभी वह सत्य हो सकता है।
लेकिन न केवल तुमने बहुत आकांक्षाओं में उसे एक आकांक्षा की तरह माना है, बल्कि तुमने और आकांक्षाओं को उसके ऊपर रखा है; वह आखिरी आकांक्षा है।
मेरे पास लोग आते हैं। वे कहते हैं, ध्यान करना चाहते हैं, लेकिन समय नहीं।
और सब चीजों के लिए समय है। निश्चित ही ध्यान की आकांक्षा आखिरी होगी। वे यह कह रहे हैं कि अगर और सब कामों से समय बच जाए तो हम ध्यान करें; लेकिन बचता नहीं। समय नहीं है, यह बात झूठ है। क्योंकि समय तो चौबीस घंटे उनके भी पास है, जितना किसी और के पास है। समय के संबंध में तो कोई गरीब और अमीर नहीं है। समय के संबंध में तो बात बिलकुल सबके पास बराबर है।
लेकिन जब वे कहते हैं समय नहीं है, तो वे असल में यह कह रहे हैं कि समय तो है, लेकिन परमात्मा का नंबर आने तक बचता नहीं। वह क्यू में आखिरी खड़ा है। दुकान का राशन क्यू में आगे खड़े लोगों में ही बिक जाता है, परमात्मा तक आ नहीं पाता। हम करें क्या?
सिनेमा देखने जाना पड़ता है, तो समय है। होटल में बैठना पड़ता है, तो समय है। क्लब में जाना पड़ता है, तो समय है। मित्रों से मिलना है, शादी-विवाह में जाना है, तो समय है। और ये ही लोग हैं, जो तुम्हें कभी कहते मिल जाएंगे...ताश खेल रहे हैं; पूछो: क्या कर रहे हो? वे कहते हैं, समय काट रहे हैं। समय काटे नहीं कटता, ऐसी घड़ी भी आ जाती है। लेकिन इसके भी पीछे परमात्मा का नंबर है--ताश खेलने के भी पीछे। जब कट-कट कर भी न कटे, जब कोई उपाय ही न रह जाए, जब सारा संसार समाप्त हो जाए, क्यू बिलकुल समाप्त ही हो जाए, तब मजबूरी में वे कहते हैं, चलो अब मंदिर चले चलें।
इसलिए तो लोगों ने परमात्मा को मरने के आखिरी क्षण तक टाला हुआ है। करीब-करीब आदमी मर जाता है, पंडित आकर उसके कान में नाम लेते हैं भगवान का। यह भी बड़े मजे की बात है। इसको जिंदगी भर समय न मिला। मरते वक्त भी इसको और दूसरे काम थे। अपनी वसीयत लिखवा रहा था, उसी में इसकी सांस टूटने लगी, होश खो गया। अब इसके पास अपनी तरफ से राम का नाम लेने की भी सुविधा नहीं है। अब पंडित उधार इसके कान में राम-नाम का जाप कर रहे हैं। और ऐसा मत सोचना कि पंडित को कोई समय है राम का नाम लेने का। यह उसका व्यवसाय है। अपने लिए उसके पास भी समय नहीं है। उसके भी कान में कोई दूसरा पंडित उधार का दोहराएगा। यह तो दूसरे के लिए धंधा कर रहा है। इससे उसका कोई लेना-देना नहीं है।
तो अगर परमात्मा तुम्हें न मिलता हो तो आश्चर्य नहीं है। परमात्मा के मिलने की शर्त ही तुम पूरी न कर पाए। वह शर्त है: परमात्मा तुम्हारी सभी आकांक्षाओं का संयुक्त रूप हो जाए। तुम सभी आकांक्षाओं में उसी को खोजो। सभी आकांक्षाएं उसी की तरफ दौड़ने लगें। तुम्हारा रोआं-रोआं, श्वास-श्वास उसी की तरफ गतिमान होने लगे। तुम उठो तो उसके लिए, बैठो तो उसके लिए, सोओ तो उसके लिए, भोजन करो तो उसके लिए।
महावीर ने कहा है अपने शिष्यों को, उतना ही भोजन करना, जितना ध्यान के लिए जरूरी हो। उससे ज्यादा क्या करना! उतना ही शरीर को बचा लेना, जितना ध्यान के लिए जरूरी हो। और ज्यादा का क्या प्रयोजन है? क्योंकि परमात्मा मिला तो सब मिला और परमात्मा खो गया तो सब खो गया।
समरथ सब बिधि साइयां, ताकी मैं बलि जाऊं।
अंतर एक जु सो बसे, औरां चित्त न लाऊं।।
बस तुम एक बसो मेरे अंतर में, कोई और मेरे चित्त में न आए।
ज्यूं राखै त्यूं रहेंगे...
यह बड़ा प्यारा वचन है।
ज्यूं राखै त्यूं रहेंगे, अपने बल नाहीं।
यह भक्त की भावना है। यही उसकी प्रार्थना है, यही उसकी पूजा-अर्चना है, यही उसका नैवेद्य है। वह कहता है:
ज्यूं राखै त्यूं रहेंगे, अपने बल नाहीं।
अगर तुम परमात्मा को पाने में भी अपने बल पर भरोसा करते हो, तुम न पा सकोगे। क्योंकि तुम्हारा भरोसा परमात्मा पर अभी भी नहीं है। भरोसा तुम्हारा अपने पर है। यही अपने पर भरोसा तो संसार में था। अपने ही भरोसे पर सोचते थे सफलता पा लेंगे संसार में। अपने ही भरोसे पर सोचते थे धन कमा लेंगे संसार में। अपने ही भरोसे पर सोचते थे यह कर लेंगे, वह कर लेंगे। यही भरोसा तुम फिर यहां भी ले आए, मंदिर में भी। अब तुम कहते हो, अपने ही भरोसे पर पा लेंगे भगवान को भी।
अहंकार कैसे उसे पा सकेगा? यह अपने पर भरोसा तो अहंकार है। तुम ही तो बाधा हो। तुम्हारे बल तुम उसे न पा सकोगे। तुम निर्बल होकर ही उसे पा सकोगे। यह गणित बड़ा उलटा है--निर्बल के बल राम। यहां बली हार जाते हैं, निर्बल जीत जाते हैं।
जीसस का बड़ा प्रसिद्ध वचन है: ब्लेसेड आर दि मीक, बिकाज दे शैल इनहेरिट दि अर्थ। धन्यभागी हैं कमजोर, निर्बल धन्यभागी हैं, क्योंकि वे ही पृथ्वी के सम्राट होंगे।
बात कल्पना की मालूम पड़ती है, सपने की मालूम पड़ती है।
लाओत्से कहे चला जाता है: अगर जीतना है तो जीतने की आकांक्षा छोड़ दो। हारने को तैयार हो जाओ, फिर तुम्हें कोई हरा न सकेगा। निर्बल के बल राम--सारा गणित एक है।
तो सांसारिक मनुष्य वह है जो अपने बल जीता है। चाहे वह धर्म कर रहा हो, तो भी सांसारिक है; तपश्चर्या कर रहा हो, तो भी सांसारिक है; उपवास कर रहा हो, व्रत कर रहा हो, तो भी सांसारिक है--अपने बल। समर्पित नहीं है, संघर्ष कर रहा है, लड़ रहा है। वह कहता है, परमात्मा को भी पाकर बता देंगे। उसे भी मुट्ठी में बांध कर बता देंगे। उसे भी बांध लाएंगे अपनी संपदा के घेरे में। उसे भी खड़ा कर देंगे वहीं, जहां हमने और जीत और सफलताओं के चिह्न और प्रमाणपत्र इकट्ठे कर रखे हैं वहीं उसे भी लगा देंगे दीवाल पर।
ज्यूं राखै त्यूं रहेंगे...
भक्त कहता है, तू जैसा रखेगा वैसे रहेंगे। अब हम अपनी जिद छोड़ते हैं। अब हम अपना होना छोड़ते हैं। अब हम यह बात ही बंद करते हैं कि हम भी कुछ कर सकते हैं।
...अपने बल नाहीं।
बहुत करके देख लिया अपने बल, कुछ भी न हुआ। अपने बल सिर्फ मिटे; अपने बल सिर्फ भटके; अपने बल अंधकार पैदा हुआ; अपने बल अज्ञान बढ़ा; अपने बल नरक और महानरक निर्मित हुए। अपने बल कोई सुख न मिला, कोई शांति न मिली। क्योंकि वह अपना आपा ही सब दुख का जड़ है। वह अहंकार ही सारे नरकों का बीज है।
ज्यूं राखै त्यूं रहेंगे, अपने बल नाहीं।
यह अनुभूति जिस दिन समझ में आ जाती है, उस दिन कुछ करने को बचता नहीं। क्योंकि करने की बात ही तुम्हारी भ्रांत है कि तुम कुछ कर सकते हो। तुम सिर्फ हो सकते हो, कर नहीं सकते हो। तुम सोचते हो कि तुम कर रहे हो, तब भी तुम नहीं कर रहे हो। बस भ्रांति तुम ढोए चलते हो।
मैंने सुना है, एक महल के पास पत्थरों का एक ढेर लगा था। एक छोटा बच्चा वहां से निकला और उसने एक पत्थर उठा कर महल की खिड़की की तरफ फेंका। पत्थर ऊपर उठने लगा। आकांक्षा तो सभी पत्थरों की होती है कि पंख लग जाएं, आकाश में उड़ें। ऐसा पत्थर तो तुम न पा सकोगे जिसने सपना न देखा हो आकाश में उड़ने का। इस पत्थर ने भी सपने देखे थे आकाश में उड़ने के। आज घटना घट गई। उसने अपने नीचे पड़े अन्य साथियों से कहा, मित्रो! आकाश की सैर को जा रहा हूं।
कसमसा गए होंगे नीचे पड़े पत्थर। आकांक्षा तो उनकी भी यही थी; मगर कोई सौभाग्यशाली, कभी कोई भाग्यशाली पंख पाता है। यह सभी के बस की बात नहीं। यह पत्थर धन्यभागी है। यह विशिष्ट है, महापुरुष है, असाधारण, अद्वितीय है। आंखें चौंक कर रह गईं नीचे पड़े पत्थरों की। कहना भी मुश्किल था, इनकार करना भी मुश्किल था।र् ईष्या से भर गए, आग लग गई, लेकिन कुछ उपाय भी न था। पत्थर जा ही रहा था। प्रत्यक्ष था उड़ना। कुछ घटना घट गई है, पत्थर ने पंख पा लिए हैं!
पत्थर फेंका गया था। लेकिन पत्थर ने सोचा, उड़ रहा हूं।
टकराया जाकर महल की कांच की खिड़की से; कांच चकनाचूर हो गया। पत्थर ने कहा, हजार बार कहा मेरे मार्ग में कोई न आए। जो भी आएगा, चकनाचूर हो जाएगा। अब भोगो!
यद्यपि पत्थर ने कांच को चकनाचूर नहीं किया था। पत्थर का कोई भी कृत्य है क्या कांच को चकनाचूर करने में? यह तो कांच और पत्थर का स्वभाव है कि जब वे टकराते हैं, तो कांच टूट जाता है, पत्थर नहीं टूटता। इसमें पत्थर ने कांच को तोड़ा ऐसा क्या है? पत्थर ने कुछ किया क्या? क्या यह पत्थर के बस में था कि टकराता और कांच को न तोड़ता? क्या यह पत्थर के हाथ की बात थी कि चाहता तो तोड़ता और चाहता तो न तोड़ता? यह हाथ की तो बात ही न थी। यह हो रहा था। यह किया नहीं जा रहा था।
लेकिन कांच से टकराने के कारण पत्थर की गति भी टूट गई। वे जो पंख थे, वे भी टूट गए। टकरा कर, प्रतिरोध पाकर, वह जो बल मिला था उस लड़के के हाथ से फेंकने का, वह भी खो गया। पत्थर धम से जाकर महल के भीतर बिछे कालीन पर गिरा।
पत्थर गिरा, लेकिन पत्थर ने कहा, थक गया। लंबी यात्रा--थोड़ा विश्राम जरूरी है। फिर पत्थर ने चारों तरफ देखा और उसने कहा, तो स्वागत की तैयारियां पहले से कर ली गई थीं। तो मेरे आने की खबर पहले ही पहुंच गई है। कालीन लगे हैं, बिछे हैं, चित्र सजे हैं, फानूस लटके हैं, प्रकाश जला है। तो मैं अतिथि हूं। स्वाभाविक भी है, क्योंकि मैं कोई साधारण पत्थर नहीं हूं, पत्थरों का नेता हूं। गौरव-गरिमा हूं पत्थरों की। मेरे कारण ही उनका इतिहास बनेगा कि उड़ा था कभी एक पत्थर। सदियों तक वे याद रखेंगे। कहानियां बच्चे पढ़ेंगे।
तभी नौकर भागा हुआ आया। आवाज सुनी पत्थर की, कांच के टूटने की, उठाया पत्थर को हाथ में फेंक देने के लिए। लेकिन पत्थर ने कहा, तो ठीक; खुद भवन का सम्राट हाथ में उठा कर स्वागत कर रहा है।
नौकर था, भवन के सम्राट को कोई पता भी न था। नौकर भी स्वागत न कर रहा था, सिर्फ फेंक देने के लिए तैयारी कर रहा था। वापस पत्थर फेंक दिया गया। लेकिन तब भी पत्थर ने यह न देखा कि वापस फेंका जा रहा हूं। उसने कहा, प्रियजनों की बहुत याद आती है। घर स्वर्ग है। पराए महलों में रुकने में वह बात कहां जो अपने झोपड़ों में है। वह जैसे दिल्ली से जब लोग फेंके जाते हैं, तो वे कहते हैं, जो बात पूना में है वह दिल्ली में कहां! घर जा रहे हैं। राजधानियों में रखा ही क्या है?
पत्थर वापस ढेर पर गिरा। उसने कहा, तुम्हारी याद आती थी। महलों में मेहमान हुआ, दूर आकाश और तारों की यात्राएं कीं। कैसे-कैसे स्वागत समारंभ! कैसे कालीन! तुम सपने भी न देख सकोगे। सम्राटों ने स्वागत किए, हाथों में उठाया, अपनी आंखों से देखा, प्रेम दिया। लेकिन फिर भी तुम्हारी याद आती थी। घर स्वर्ग है। जन्मभूमि का मन में आकर्षण खिंचता रहा। छोड़ दिए सब महल, कालीन, साज-सामान, सम्राट। वापस लौट आया हूं। तुम्हारे बीच ही रहूंगा।
यही सारे व्यक्तियों की कथा है। यही तुम्हारी कथा है। सबकी कथा यही है। जो हुआ है, उसे तुम कहते हो, किया है। किसी के प्रेम में पड़ गए; कहते हो, मैं इस स्त्री को प्रेम करता हूं। यह हुआ है या किया है? कोई कभी प्रेम कर सकता है? हो जाए, हो जाए; न हो, न हो। करने का कोई उपाय है? तुम्हारा बल है करने का?
जैसे ही व्यक्ति को दिखाई पड़ने लगती है जीवन की वास्तविक स्थिति, वह स्वभावतः कहेगा: ज्यूं राखै त्यूं रहेंगे। क्योंकि चाहे हम कहें या न कहें, वह जैसे रखना चाहता है वैसे ही रखता है। हमारे कहने न कहने से कुछ फर्क नहीं पड़ता। हमारे कहने न कहने से हमारी जीवन-दिशा में फर्क पड़ता है। उसके व्यवहार में तो कोई फर्क नहीं पड़ता। नदी तो पूरब की तरफ बह ही रही है, चाहे नदी पश्चिम की तरफ बहना चाहे। तो तकलीफ पाएगी, कष्ट पाएगी, बेचैन होगी, हारा हुआ अनुभव करेगी, हताश होगी; कहेगी कि जीवन एक विफलता है। जीवन में कोई अर्थ नहीं है। मैं पश्चिम बहना चाहती हूं, मुझे पूरब बहना पड़ रहा है। दुख से बहेगी। बहेगी तो पूरब ही।
लेकिन फिर नदी समझ ले और कहे कि ज्यूं राखै त्यूं रहेंगे। अब भी पूरब ही बहेगी। लेकिन अब बहने में बात और हो गई। अब विरोध नहीं है; अब आनंद से बहेगी। अब उसकी मर्जी है। और वह ज्यादा जानता है, क्योंकि वह समग्र है। और हम खंड हैं, वह अखंड है। हम अंश हैं, वह अंशी है। हम छोटे हैं बहुत, आणविक हैं; वह विराट है। हम उस विराट के साथ हैं। हम उस महोत्सव में एक छोटे से भागीदार हैं। हम उस विराट संगीत में एक छोटा सा स्वर हैं। हमारा स्वर उस संगीत के साथ बहे तो ही शोभा है। विपरीत बहने का उपाय ही नहीं है। जो विपरीत बहने की कोशिश कर रहा है, वह हारा हुआ अनुभव करता है, बस। उसके जीवन में विषाद होता है, इतना ही। विराट को कोई फर्क नहीं पड़ता। लेकिन जो उसके साथ बहने लगता है, विषाद छूट जाता है। उसके जीवन की धारा उन्मुक्त हो जाती है। वह प्रसन्नता से चलता है। उसके चलने में नृत्य होगा, उसकी वाणी में गीत होगा, उसकी आंखों में अहोभाव होगा।
ज्यूं राखै त्यूं रहेंगे, अपने बल नाहीं।
सबै तुम्हारे हाथि है, भाजि कत जाहीं।।
भाग कर कहां जाएंगे? जहां भी हैं, तुम्हारे ही हाथ हैं। जहां भी हो, तुम ही हो।
सबै तुम्हारे हाथि है, भाजि कत जाहीं।।
भागने का उपाय कहां?
इस बोध के आते ही व्यक्ति भागना छोड़ देता है। तुमने सुना होगा, धार्मिक लोगों को लोग पलायनवादी कहते हैं--कि भगोड़े हैं, भाग गए। सचाई बिलकुल उलटी है। जो सांसारिक हैं वे भगोड़े हैं। धार्मिक ने तो भागना बंद कर दिया। उसने तो छोड़ दिया अपने को कि अब तू जहां ले जाए। सांसारिक अभी भी भाग रहा है। उसकी अभी भी निजी मर्जी है। वह कह रहा है कि थोड़ा पैसा और कमा लूं। तेरी इच्छा नहीं है, कोई फिक्र नहीं। तू न साथ दे तो भी कमा लेंगे। उपाय करेंगे, बुद्धि लगाएंगे, चोरी करेंगे, जालसाजी करेंगे। कुछ मार्ग खोज लेंगे। तू न भी दे साथ तो ठीक है। दे दे तो अच्छा। दे दे तो तेरी मर्जी। दे दे तो थोड़ा प्रसाद तुझे भी लगा देंगे। न दे, तू जान! फिर याद रख, मंदिर में पूजा न चढ़ेगी। मंदिर के द्वार बंद करवा देंगे।
हम तो परमात्मा से भी सौदा पटाते हैं। हम तो कहते हैं कि थोड़ा तुझे भी देंगे, तू भी भागीदार हो जा। हमारी योजना है; उसमें तू भी थोड़ा साथ दे तो तू भी पाएगा। नहीं तो हम तो पा ही लेंगे। अगर तूने साथ नहीं दिया तो तू ही वंचित रह जाएगा; फिर पछताना मत। जब हम जीतेंगे तब हमारी लूट का कोई भी हिस्सा तुझे न मिलेगा।
यह आदमी भगोड़ा है। यह जीवन के यथार्थ से भाग रहा है। यथार्थ यही है कि न तुम्हारे हाथ में तुम्हारा जीवन है, न तुम्हारा जन्म, न तुम्हारी मृत्यु, न तुम्हारा प्रेम। तुम्हारी श्वास आती-जाती है, वह भी तुम्हारे हाथ में नहीं है। वही श्वास लेता है, वही चलता है तुम्हारे भीतर, वही जागता है, वही सोता है। यह तो यथार्थ है। इस यथार्थ से जो भी अन्यथा करने की कोशिश कर रहा है वह पलायनवादी है। और जो इस यथार्थ के साथ एक हो गया, उसको तुम पलायनवादी कहते हो? उसने भागना छोड़ दिया। दादू बिलकुल ठीक शब्द का उपयोग किए हैं।
सबै तुम्हारे हाथि है, भाजि कत जाहीं।।
भागेंगे कहां? जहां भी भागेंगे वहीं तुम्हें पाएंगे। भाग कर भी जहां पहुंचेंगे, तुम्हारा ही हाथ होगा।
दादू दूजा क्यूं कहै, सिर परि साहब एक।
सो हमको क्यूं बीसरै, जे जुग जाहिं अनेक।।
दादू दूजा क्यूं कहै...
दूसरे की बात ही क्या करनी! दूसरे की चर्चा ही क्या उठानी! एक ही है।
...सिर परि साहब एक।
वह कोई हिंदू का परमात्मा और कोई मुसलमान का अल्लाह अलग नहीं। दो की बात क्या करनी! इसलिए दादू नाम भी नहीं देते उसको कुछ--साइयां, प्रेमी, प्रियतम।
दादू दूजा क्यूं कहै, सिर परि साहब एक।
सो हमको क्यूं बीसरै, जे जुग जाहिं अनेक।।
और चाहे कितने ही युग बीत जाएं, हम उसे भूल न सकेंगे।
यह बात थोड़ी समझने की है। भूल-भूल कर भी न भूल सकेंगे। कोई उपाय ही भूलने का नहीं है। तुम कितनी ही कोशिश करो भूलने की, तुम भूल कैसे सकोगे? क्योंकि वह जो भूलने वाला है वह भी वही है। भागने का उपाय नहीं है उससे।
मुझसे लोग पूछते हैं, ईश्वर को कहां खोजें?
मैं उनसे पूछता हूं, तुमने खोया कहां? खोजने के पहले पक्का तो कर लो कि खो दिया है। अगर पक्का हो जाए तो मुझसे पूछना, मैं तुम्हें रास्ता बता दूंगा। लेकिन जो भी पक्का करने गया कि खोया कहां है, वह एक दिन अचानक पाता है, खोया ही नहीं है।
तुमने भीतर झांका ही नहीं। खोया तुमने कहां है? जो खोया जा सके वह परमात्मा नहीं। इसे परिभाषा समझो। परमात्मा यानी तुम्हारा स्वभाव, तुम्हारे होने की आत्यंतिक दशा, तुम्हारा गहनतम जीवन, तुम्हारी गहराई, तुम्हारी ऊंचाई। तुम्हारा सब कुछ परमात्मा है।
तुम उसे खोओगे कहां? तुम उसे भूल कहां आओगे? अगर तुम उसे भूल आते तो तुम होते ही कैसे? तुम यहां कैसे आते उसे भूल कर?
वह जो खोज रहा है, वह जो पूछ रहा है परमात्मा कहां है, वही है। खोजने वाले में ही छिपा है। यात्रा के बाद में नहीं है मंजिल; यात्री में है। इसलिए जिस दिन पहचान लोगे, जिस दिन जरा झकझोर दोगे अपने को और जाग जाओगे, वहीं पा लोगे। एक इंच भी कहीं और जाने की जरूरत नहीं है--न काबा, न काशी। एक रत्ती भर भी कुछ करने की जरूरत नहीं है--न पूजा, न पाठ; न मंदिर, न मस्जिद; न त्याग, न तपश्चर्या। सिर्फ जागने की जरूरत है। तुम जो हो, वही हो। जरा झपकी खा गए हो, जरा सो गए हो, जरा सपना देखने लगे हो, लेकिन कुछ भी खोया नहीं है। ऐसे ही जैसे एक सम्राट सो जाए; सपना देखे कि भिखारी हो गया है। सपने में चिल्लाने-चीखने लगे, घबड़ा जाए, रोने लगे, थरथराने लगे। पूछने लगे लोगों से कि मेरे साम्राज्य का क्या हुआ? मेरे सिंहासन का क्या हुआ? मैं भिखारी कैसे हो गया? मुझे मेरा राज्य कैसे वापस मिलेगा? रोने लगे, गांव-गांव पूछने लगे। लोगों से मंत्र और दीक्षा लेने लगे कि कैसे मैं अपने साम्राज्य को वापस पाऊं? और इसी घबड़ाहट में उसकी नींद खुल जाए और वह देखे कि सपना था। महल वहीं के वहीं है। मेरा सम्राट होना वहीं के वहीं है। क्षण भर को मैं कहीं बाहर नहीं गया हूं। सिर्फ एक सपने में हो गया था।
परमात्मा को पाने का अर्थ कुछ पाना नहीं है, वरन कुछ छोड़ना है। वह सपना छोड़ना है। परमात्मा को पाने का अर्थ कुछ जोड़ना नहीं है; कुछ जुड़ गया है परमात्मा के साथ, उतना काट देना है। थोड़ी सी नींद है। कुछ पाप नहीं हो गया है। कुछ भूल नहीं हो गई है। कुछ भूल हो नहीं सकती। क्योंकि अगर वही सबके भीतर है तो भूल कैसे हो सकती है? विश्राम हो गया होगा, भूल नहीं हुई है। थोड़ा ज्यादा सो गए हैं। थोड़ी समय से ज्यादा नींद ले ली है। थोड़े सपनों में बहुत दूर निकल गए हैं।
लेकिन सपने में तुम कितने ही दूर निकल जाओ, हजार कोस की यात्रा कर लो, क्या जागने पर फिर हजार कोस वापस लौटना पड़ता है? जागे कि पाया कि वापस ही थे। सोओ पूना में, सपना देखो टिम्बकटू का; जागोगे पूना में ही, टिम्बकटू में नहीं जाग सकते। कुछ ऐसा थोड़े ही है कि जाग कर फिर अब जल्दी भागोगे, हवाई जहाज पकड़ोगे कि अब जाएं पूना।
सोए हो परमात्मा में; जागोगे भी परमात्मा में ही। बीच में सब संसार है। कितने ही टिम्बकटू हैं। कितनी ही लंबी यात्रा है।
दादू दूजा क्यूं कहै, सिर परि साहब एक।
सो हमको क्यूं बीसरै, जे जुग जाहिं अनेक।।
अनेक-अनेक युग बीत जाएं, उसे बिसरने का उपाय नहीं। भूल कर भी भूलने का उपाय नहीं। खोकर भी खोया न जा सके जो, वही परमात्मा है।
कर्म फिरावै जीव को, कर्मों को करतार।
करतार को कोई नहीं, दादू फेरनहार।।
कर्म फिरावै जीव को...
व्यक्ति भटकता है कर्मों के कारण। वह जो-जो करता है, सोचता है मैंने किए हैं। मैंने किए--और अहंकार निर्मित हुआ। और फिर अहंकार भटकाता चला जाता है।
कर्म फिरावै जीव को, कर्मों को करतार।
और भ्रांति यह है कि कर्मों को चलाने वाला परमात्मा है, तुम नहीं। जिस दिन यह तुम्हें समझ में आ गया कि कर्मों को चलाने वाला वह है, मैं नहीं; कर्ता मैं नहीं हूं, कर्ता वह है; उसी दिन तुम बाहर हो गए नींद के। नींद की कुल कला इतनी है कि तुम सोचते हो, कर्ता मैं हूं।
कर्ता परमात्मा है। जैसे कि कोई कठपुतलियों को नचाता है। धागे छिपे होते हैं भीतर। भीतर छिपा होता है नचाने वाला। धागे तुम्हें दिखाई नहीं पड़ते। कठपुतलियां नाचती दिखाई पड़ती हैं। न मालूम कितने कृत्य करती हैं। दर्शक धोखा खा जाए, वह तो ठीक है। क्योंकि दर्शक को कुछ पता नहीं कौन पीछे छिपा है; धागे छिपे हैं; कठपुतलियां नाचती हैं, लड़ती हैं, प्रेम करती हैं, विवाह करती हैं, सब होता है। लेकिन कठपुतलियों को भी भ्रांति हो सकती है अगर होश हो। क्योंकि कठपुतलियों को तो बिलकुल दिखाई नहीं पड़ेगा कि धागे पीछे बंधे हैं, कोई पीछे नचा रहा है। कठपुतलियां तो समझेंगी, हम नाचते हैं। वही कहानी जो पत्थर की हुई, कठपुतलियों की होगी।
वही सारे मनुष्य की कथा है भ्रांति की। सारा कृत्य परमात्मा का है, समग्र का है। परमात्मा शब्द न लेना हो, कोई हर्जा नहीं। कृत्य अस्तित्व का है। तुम सिर्फ कठपुतली हो पांच तत्वों से बने। धागे सब पीछे छिपे हैं। उन्हीं धागों के अनुसार सारा खेल चलता है।
लेकिन तुम सोचते हो, कर्ता मैं हूं। बस, तब फिर कर्म तुम्हें भटकाने लगते हैं। तब तुम गहरी नींद में खो गए। जैसे ही समझ लोगे कि कर्ता सिर्फ परमात्मा है--कर्मों को करतार--वही फिरा रहा है कर्मों को, तुम बाहर हो गए। तब तुम कठपुतली की तरह नाचो।
कृष्ण गीता में अर्जुन से यही कह रहे हैं कि तू कठपुतली हो जा। तू यह सोच ही मत कि तू मारने वाला है, कि तू मरने वाला है, कि तू करने वाला है। तू निमित्त हो जा, तू कठपुतली हो जा। उसे खींचने दे धागे, उसे करने दे खेल, तू बीच में मत आ। बस फिर तेरा कोई कर्म नहीं है। फिर कोई कर्म बांधता नहीं है।
करतार को कोई नहीं, दादू फेरनहार।।
और परमात्मा के पार कोई भी नहीं है, जो उसे फिरा दे। यद्यपि तुम्हारी चेष्टा न केवल तो यह होती है, तुम यह तो मानते ही हो कि तुम अपने को चलाते हो, तुम परमात्मा को भी चलाने की कोशिश करते हो। जाते हो, प्रार्थना करते हो कि देखो पत्नी बीमार है, इसे ठीक करो। नारियल चढ़ाएंगे, पूजा करेंगे, श्रद्धा करेंगे, प्रार्थना करेंगे। लड़का नहीं है, लड़का दे दो। अदालत में मुकदमा है, जिता दो। तुम परमात्मा को भी फिराने की कोशिश करते हो। तुम्हारी सारी प्रार्थनाएं परमात्मा को फिराने की चेष्टाएं हैं। इसलिए तो तुम्हारी सारी प्रार्थनाएं व्यर्थ चली जाती हैं। उनका कोई परिणाम नहीं होता। क्योंकि उनका आधार गलत है। परमात्मा को फिराने की कोशिश तो हद पागलपन हो गई। अपने को चलाते थे, यह मानना ही भ्रांति है, अब तुम परमात्मा को भी चलाने लगे! यह तो तुम मानते ही नहीं कि तुम्हारे धागे उसके हाथ में हैं; तुम्हारी चेष्टा यह है कि उसके धागे भी तुम्हारे हाथ में हो जाएं। और इसको तुम प्रार्थना कहते हो! इसको तुम धार्मिक व्यक्ति कहते हो!
यह अधार्मिक व्यक्ति का लक्षण है। सौ में निन्यानबे प्रार्थनाएं अधार्मिक हैं। धार्मिक प्रार्थना तो वही हो सकती है जो दादू कह रहे हैं--
ज्यूं राखै त्यूं रहेंगे, अपने बल नाहीं।
सबै तुम्हारे हाथि है, भाजि कत जाहीं।।
काफी है! अगर इतना ही तुम्हारे हृदय का भाव रोज-रोज उठने लगे, अहर्निश एक छोटी सी पंक्ति तुम्हारे भीतर गूंजने लगे:
ज्यूं राखै त्यूं रहेंगे, अपने बल नाहीं।
सबै तुम्हारे हाथि है, भाजि कत जाहीं।।
पर्याप्त है। और क्या प्रार्थना चाहिए?
और ये भी कोई शब्द थोड़े ही दोहराने हैं, यह भाव भर रह जाए गूंजता भीतर; यह तुम्हारे हृदय पर छा जाए; उठो, बैठो, यह तुम्हारे भीतर रहे। कोई शब्दों में कहने की बात थोड़े ही है। परमात्मा को शब्द से कहने की कोई भी जरूरत नहीं है। वह तुम्हारे निःशब्द को समझता है; वह तुम्हारे शून्य को भी पहचानता है; वह तुम्हारे मौन को भी पढ़ता है। मुखर होने की बात गलत है। उससे कुछ कहना नहीं है, उसके सामने सिर्फ होना है।
सूफियों में एक कहावत है कि जब फकीर सच में ही प्रार्थना को उपलब्ध होता है तो वह एक भी शब्द का उपयोग नहीं करता--न बाहर, न भीतर। वह सिर्फ खड़ा हो जाता है--चुप।
बायजीद से किसी ने पूछा कि तुम्हारी प्रार्थना क्या है? क्योंकि हमने कभी तुम्हारे मुंह से शब्द निकलते नहीं देखे। तुम भीतर क्या गुनगुनाते हो?
बायजीद ने कहा, बात ही मत करो गुनगुनाने की। उससे छिपा क्या है? उसे बताना क्या है? उसे समझाना क्या है? उससे कहना क्या है? मेरी हालत उस फकीर जैसी है, जो एक बार सम्राट के सामने खड़ा हो गया था--नग्न, फटे कपड़े, सूखी देह, पेट पीठ से लगा, बस आंखों में टिमटिमाता जीवन। सम्राट ने उससे पूछा कि कहो, क्या चाहते हो? उसने कहा, अगर मुझे देख कर तुम्हें समझ में नहीं आता कि क्या चाहता हूं, तो मेरे कहने से क्या खाक समझ में आएगा! मुझे देखो, इतना काफी है। तो बायजीद ने कहा कि सम्राट भला न समझ पाया हो, लेकिन वह आखिरी सम्राट तो समझ ही लेगा। मैं सिर्फ उसके द्वार पर खड़ा हो जाता हूं।
वह मस्जिद के सामने जाकर खड़ा हो जाता था। घंटों खड़ा रहता था, चला आता था। कभी एक शब्द न कहा, भीतर भी न उठाया। प्रार्थना का शब्दों से कुछ लेना-देना नहीं। प्रार्थना, उसके सामने, तुम जैसे हो वैसे ही खड़े हो जाने का नाम है। तुम जैसे हो अपनी निपट निजता में, नग्नता में, बिना कुछ छिपाए उसके सामने प्रकट हो जाने का नाम है। प्रार्थना एक प्रागटय है अपने भाव का।
अगर दोहराने से न छुटकारा मिलता हो, कुछ न कुछ दोहराने का मन होता हो, तो दादू का वचन अच्छा है: ज्यूं राखै त्यूं रहेंगे। इसको मंत्र बना लेना। इसकी अहर्निश गूंज को गूंजने देना। धीरे-धीरे गूंज रह जाएगी, मंत्र खो जाएगा। फिर गूंज भी खो जाएगी, भाव रह जाएगा। फिर भाव भी खो जाएगा, तुम्हारा शुद्ध अस्तित्व रह जाएगा।
आप अकेला सब करै, औरुं के सिर देई।
दादू सोभा दास कूं, अपना नाम न लेई।।
दादू कहते हैं, कर्ता वही एक है और सभी के सिरों पर बांट देता है।
आप अकेला सब करै, औरुं के सिर देई।
कर्ता अकेला है, लेकिन सभी को मजा दे देता है कि तुम्हें अपना-अपना अहंकार पूरा करना है, कर लो। कोई कहता है कि मैं महाज्ञानी! कर्ता एक है। कोई कहता है, मैं महापुण्यात्मा! कर्ता एक है; औरुं के सिर देई। कोई कहता है, मैं महात्यागी! कर्ता एक है।
लेकिन ये सिर भारी हुए जा रहे हैं।
इस धोखे में मत पड़ो। जब वह तुम्हारे सिर देने लगे, उससे कहना, तू ही सम्हाल। हमारे सिर मत दे।
दादू सोभा दास कूं...
दास की तो शोभा यही है, दादू!
...अपना नाम न लेई।
कह दे कि मेरा नाम बीच में मत ला। तू ही कर रहा है। तू ही करने वाला, तू ही न करने वाला। मुझे बीच में मत ला।
अगर तुम यह याद रख सको, अगर यह स्मरण तुम्हारे जीवन में बैठ जाए, एक दीये की तरह जलने लगे भीतर कि जब भी भ्रांति तुम्हें पकड़ने लगे कर्ता की, तत्क्षण छोड़ दो। हंस कर आकाश की तरफ देख लेना और कहना: फिर! फिर वही! मेरे सिर दिया! तू ही सम्हाल।
थोड़े दिन में दीया ठीक से जलने लगेगा। फिर यह कहने की सोचने की भी जरूरत न रह जाएगी। जो कुछ भी होगा, तुम जानोगे, वही कर रहा है; अच्छा हो, बुरा हो। फिर तुम जब बीच में न रहे तो क्या अच्छा और क्या बुरा! जब सभी उसका है तो अच्छा ही होगा। फिर दोनों नदी के किनारे स्वर्ग हैं। फिर दूसरा किनारा नरक नहीं है।
मैं तुमसे कहता हूं, स्वर्ग के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है। नरक आदमी की ईजाद है। स्वर्ग अस्तित्व है। नरक आदमी का खयाल है। क्योंकि तुम्हें नरक तो बनाना ही पड़ेगा; दुश्मनों को कहां डालोगे? शत्रुओं को कहां डालोगे? कोई जगह तो चाहिए। और इस नरक के साथ तुमने जिस स्वर्ग की कल्पना की है, वह भी झूठ है। क्योंकि वह असली स्वर्ग नहीं हो सकता। असली स्वर्ग में तो नरक है ही नहीं। बुरा तो है ही नहीं। यही तो धार्मिक व्यक्ति की परम क्रांति की दशा है, जहां उसे बुरा दिखाई ही नहीं पड़ता। भला ही है, क्योंकि सभी पर उसी एक का हस्ताक्षर है। सभी स्वर उसके हैं, तो बुरा हो कैसे सकता है?
अगर तुम्हें बुरा भी दिखाई पड़ता हो तो समझना कि अपनी आंख की ही कोई भूल होगी, अपनी दृष्टि की कोई भूल होगी, अपनी व्याख्या की कोई भूल होगी। लेकिन बुरा हो नहीं सकता।
जिस दिन तुम्हें शुभ ही शुभ दिखाई पड़ने लगे, उस दिन तुम परमात्मा को उपलब्ध हुए। उस दिन तुमने वह भवन खोज लिया जिसका नाम नेति-नेति है--न यह, न वह। द्वंद्व गया। अद्वैत का स्वाद आना शुरू हुआ। और वही एक स्वाद पा लेने जैसा है। और सब स्वाद तुम पाते रहो, वे कोई भी स्वाद तुम्हें तृप्त न कर सकेंगे। परितृप्ति उन स्वादों में नहीं है। उस एक स्वाद को पाकर ही सारी भूख मिट जाती है, सारी स्वाद की आकांक्षा मिट जाती है। उस गहन परितोष की उपलब्धि होती है, जिसका कोई अंत नहीं है।

आज इतना ही।



                        

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