रजनीशपुरम
अमरीका में
नहीं था। वह
अपने में एक देश
था—अमरीकी स्वप्नों
से मुक्त।
शायद
यही कारण था
कि अमरीका
राजनीतिज्ञों
ने उसके साथ
युद्ध छेड़
दिया।
आशीष,
अर्पिता, गायन और मैं
हवाई जहाज़ से
अमरीका के पार
आ गए।
आशीष
लकड़ी का
जादूगर था। वह
केवल एक उत्कृष्ट
बढ़ई ही नहीं
था जो ओशो के
लिए कुर्सीया
बनाता है। बल्कि
और कोई भी
तकनीकी या
बिजली का काम
हो तो वह उसे
करने में
सक्षम है। जब
भी कहीं कुछ
जोड़ना होता या
लगाना होता,
आशिष-आशिष, कहां है, आशिष? यही
पूकार सुनाई
देती। इटालियन
होने के नाते
उसके पास
हाथों के माध्यम
से बोलने की
महान कला है।
अर्पिता
ने हमेशा ओशो
के लिए चप्पलें
बनाई है। वह
मनमौजी किस्म
की महिला है।
ज़ेन चित्र
बनाती है।
सनकी सा उसका
व्यक्तित्व
है। जब उसने
ओशो के कपड़ों
को डिजायन
करने में
सहायता की तो
उकसा वह रूप
प्रकट हुआ।
गायन तब
न्यूजर्सी
पहुंच गई थी।
जब विवेक ने
उसे जर्मनी
में फोन किय
और कहां, ‘तुम
आ जाओं’
विवेक उसे
हवाई अड्डे पर
लेने गई और आते
ही उससे कहा, ‘आशा
है तुम सिलाई
का काम कर
सकती हो।’ उसने
हामी भरी। ओशो
के सभी
विलक्षण
कपड़ों की सिलाई
का श्रेय उसी
को जाता है।
वह एक नर्तकी
भी है। रैंच
पर उत्सव के
दिनों में
तैयार की गई
विडियो में आप
उसे मेडिटेशन
हॉल,
रजनीश मंदिर
के मंच पर ओशो
के इर्द-गिर्द
अपने लम्बे
बालों को
लहराते हुए
आनन्दपूर्वक
नाचते हुए देख
सकत है।
हम सभी
ओशो के
पहुंचने से
बारह घंटे पूर्व
ओरेगॉन पहुंच
गए। मुझे उस
हवाई यात्रा का
कुछ स्मरण नही है
लेकिन ‘द
बिग मडी’ तक घुमावदार
पहाड़ी मार्ग
से होती हुई
लम्बी
कार-यात्रा
कभी नहीं
भूलेगी।
मीलों तक सड़क
के किनारे उगे
धूल से भरे
लम्बे
नुकीले व सूखे
हुए फूल तथा केकटस
के पौधे जो
कार की हेड
लाइट से चमक
उठते भूतों जैसे
डरावने पीले
सफेद वह सुरमई
प्रतीत होते।
ओशो के
ट्रेलर और
उसके साथ वाले
ट्रेलर जो हमारे
आवास गृह होने
वाला था उसमे
काम की बहुत
भगदड़ मची थी।
उनमें इस तरह
काम हो रहा था
जैसे मधुमक्खी
के छत्ते में
होता है। कारण
हमेशा की तरह
वही था—समय का
अभाव और काम
अधिक। रात्रि
का अधिकतर समय
हमने सफ़ाई
करने,
पर्दों को अन्तिम
रूप देने के
लिए बिताया।
बाहर कालीन की
तरह हरा लॉन
बिछाया जा रहा
था। ट्रेलर
पूरा प्लास्टिक
का बना हुआ
था। मैंने ऐसी
चीज़ पहले कभी
नहीं देखी थी।
अगर कहीं आग
लग जाए तो दस
सैकंड में सब
जल कर राख हो जाये।
एक
ट्रेलर में हम
ग्यारह लोग
रहनेवाले थे।
और उसमें ही
सिलाई के लिए
भी एक कमरा
था। ओशो का
चिकित्सक
देवराज तथा
दंत चिकित्सक
देव गीत एक ही
कमरे में थे।
कमर तक लम्बे
सुनहरे बालों
वाली निरूपा
भी इस ग्रुप
में थी। लम्बा–ऊँचा
जर्मन हरिदास
भी था। उसकी
आयु पैंतालीस वर्ष
की रही होगी।
लेकिन अपनी
आयु से वह
पंद्रह वर्ष
छोटा दिखाई
देता था। और
ओशो के पहले
पश्चिमी
शिष्यों में
से एक था। और
वह साठ वर्ष
की निगुर्ण भी
हमारे नए
आविष्कृत
संगीत के साथ
घंटों नाच कर
हमें मात कर
दिया था। साथ
वाले ट्रेलर
में विवेक का अलग
कमरा था और
ओशो की बैठक, बेडरूम
और बाथरुम था।
जब हम
पहुंचे तो
इतना अँधेरा
था कि आस-पास
के दृश्य देख
पाना संभव
नहीं था। मैं
बहुत थकी हुई
थी। कुछ चिड़चिड़ी
सी हो रही थी।
अत: सोने के
लिए चली गई।
अगली सुबह स्नान
करते समय
मैंने खिड़की
से बारह देखा।
ट्रेलर एक
छोटी सी घाटी
में था। और
हमारे पीछे एक
चट्टान थी—इतनी
बड़ी इतनी
शानदार कि मैं
नग्न और भीगते
शरीर से बाहर
भाग गई। और
झुककर धरती को
प्रणाम किया।
ओशो जिस
सुबह वहां
पहुंचे
मुट्ठी भर
संन्यासी
तत्काल
तैयार किए गए।
जो उनके लॉन
में बैठे गीत
गा रहे थे। वे
आए और हमारे
साथ ध्यान
में बैठ गए।
उनका मौन इतना
अभिभूत कर
देनेवाला था
कि संगीत धीमा
होते-होते बंद
हो गया और हम
सब उस रूक्ष पहाड़ियों
की तराई में
बैठे मौन में
चले गये। ओशो
उठे चारों और
देखा और फिर
सीढ़ियां
चढ़ते हुए
अपने ट्रेलर
में चले गये।
हम उन्हें
पोर्च में
कमरे के पीछे
हाथ रखे खड़ा
देख पा रहे
थे। ऐसा लगा
कि वे कहेंगे
कि इतनी विस्तृत
भूमि पर एक भी
पेड़ नहीं।
उन्होंने
ऐसा नग्न घर
पहले कभी नहीं
देखा था। नग्न
से अभिप्राय
यह है कि बिना
किसी
बाग़-बग़ीचे
के या पेड़-पौधों
के निश्चित
ही यह भारत
में उनके
निवास स्थान
के सर्वथा
विपरीत था
जहां चारों ओर
आकर्षक व
हराभरा उपवन
था।
जब हम
वहां पहुंचे
तब रजनीशपुरम
की धरती पर केवल
दो इमारतें
थी। प्रारम्भ
के कुछ महीनों
में कुछ महत
कार्य कर
दिखाने का
अपूर्व उत्साह
था। हम वहां
अगस्त के
महीने में पहुँचे
थे। और एक
कोशिश थी कि
किसी भी तरह
ट्रेलर में रहने
का प्रबंध हो
जाए। और
सर्दियों के
आगमन से पहले
इनमें
सेंट्रल
हीटिंग की
सुविधा हो जाए।
अधिकतर
लोग टेंटों
में रह रहे
थे। और वहां
सर्दियों में
तापमान शून्य
से बारह
डिग्री तक
नीचे गिर सकता
था।
रैंच की
एक इमारत के
बाहर लगाई गई
मेज़ों पर हम
सब इकट्ठे
भोजन करते और
जैसे-जैसे
सर्दी बढ़ती
गई हम प्लेट
रखने से पहल
मेज़ पर पड़ी बर्फ़
खुरचनी पड़ती
अन्यथा प्लेट
फिसल कर गोदी
में आ गिरती।
हमने बीयर का
एक बड़ा बैरल
एक दालान में
दबाकर रखा हुआ
था, क्योंकि
हमारे पास
फ्रिज नहीं
था। लेकिन
हमारे खाने का
समय बहुत
मजेदार होता।
पुरूष और महिलाएं
एक ही तरह के
वस्त्र
पहनकर आते।
मोटी रजाई नुमा
जैकेट, जींस
काऊबॉय हैट और
बूट। यदि कुछ
वर्ष पहले मैंने
सोचा था कि
पुरूष संन्यासी
स्त्रैण है
तो अब सब बिल्कुल
उसके विपरीत
था।
ओशो की
बैठक की छत से
वर्षा के
दौरान पानी
टपकने लगा।
पानी को रोकने
के लिए रखी दो
बाल्टियों
के बीच एक
कुर्सी पर ओशो
को बैठे देखना
बहुत पीड़ा
दायी था। कमरा
बिलकुल ख़ाली
था। केवल
बांझ(ओक)
वृक्ष की
लकड़ी से बना
एक मेज़ और एक
कुर्सी थी
वहां। उनके
कमरे हमेशा
सादे ही होते
है। बिना किसी
फर्नीचर की
भीड़-भाड़ के।
दीवारों पर
कोई चित्र न
थे कोई सजावट
नहीं थी। टेप-रिकॉर्ड
के अतिरिक्त
और कुछ वहां
नहीं था।
लेकिन प्लास्टिक
के इस कमरे के
खालीपन में
संगमरमर के
कमरे जैसी भव्यता
और ज़ेन जैसी
कोई विशेषता
भी न थी। इस
प्रकार की व्यवस्था
के बीच उन्हें
बैठे एक अजीब विस्तरण
एक गहरी हीनता
का मैं एहसास
कर रही थी।
अस्तित्व
की यही मर्जी
है इस भाव से
सब स्वीकार
करते ही उन्हें
देखा है। और
मैंने हमेशा
महसूस किया है
कि वे जानते
थे, उन्हें
विश्वास था
कि हम उनके
प्रति अपने
प्रेम के कारण
उनके लिए
सर्वोत्तम
रूप से कर रह
थे। वही हमनें
किया है। वे
इसके लिए
आभारी होते।
लेकिन हम जो
कर रहे थे वह
सर्वोतम नहीं
कहा जा सकता।
संकटकाल
में रहने की
जगह के लिए और
चिकित्सा
सम्बंधी
सुविधाओं के
लिए ट्रेलर को
विस्तार
देने का कार्य
प्रारम्भ
हुआ। एक बात
मैं कभी समझ न
पाई कि
संकटकाल से क्या
तात्पर्य
था।
नौ
महीने बाद
विस्तार
कार्य पूरा हो
गया। नया स्थान
इतना सुंदर था
कि ओशो प्लास्टिक
ट्रेलर को
छोड़ उसमे
रहने के लिए
चले गए। इस
कारण शीला और
विवेक में विवाद
खड़ा हो गया
क्योंकि कुछ
कारणों से
शीला नहीं
चाहती थी कि
ओशो वहां जाकर
रहें। यह भाग
विवेक के
मित्र रिचर्ड
ने बनाया था।
इसके शयन कक्ष
और स्नानगृह
में लकड़ियों
की पट्टियाँ
लगाई गई थी।
यह स्नान गृह
ओशो के अब तक
के सभी स्नान
गृहों में
सबसे सुंदर
था। बहुत बड़ा
भी था। इसके झिकूजि
(जल धारा की
मालिश) की
सुविधा भी थी।
एक लम्बा
गलियारा ओलम्पिक
आकार के स्विमिंग
पूत तक जाता
था। चिकित्सा
की सुविधाओं
के लिए अस्पताल
के सभी आधुनिक
उपकरणों से
युक्त एक
ऑपरेशन कक्ष
था।
विवेक
को रैंच
प्रारम्भ से
पसंद नहीं था।
वह वहां अकसर
दुखी ही रहती
और बीमार भी
हो जाती थी।
उसे अपने मन
की बात कहने
में कोई संकोच
न थी। और एक
दिन उसने लाउड
पीकर पर घोषणा
कर दी ताकि
कम्यून सुन
ले कि उस ‘बंजर
मरुस्थल’ में उसकी क्या
राय है। उसने
कहा कि उसका
बस चले तो वह
पूरे रैंच को
जलाकर राख कर
दे। जब वह
प्रसन्न
होती तो
समग्रता से
आनंदित हाथी—बिल्कुल
बच्चों की
भांति। ऐसा
बाल-सुलभ स्वभाव
वाला व्यक्तित्व
मैंने पहले
कभी नहीं देखा
था; लेकिन
जब वह नाराज
होती तो बस देखने
जैसी होती थी।
उसे समस्याएं
खोज निकालने
और व्यक्तियों
की कमज़ोरियों
को पकड़ने की
कला आती थी।
उसके साथ
विवाद करना
असम्भव था।
क्योंकि मुझ
पर उसका ऐसा
प्रभाव था।
मुझे वह सदा
सही लगती।
मुझे लगता है
कि प्रशंसा की
बजाय आलोचना
में वज़न होता
है।
अगर विवेक
ओशो के साथ
कार-भ्रमण के
लिए न जाना
चाहती तो मैं
या निरूपा
जाती। कई बार
वे पूछते कि
शिला का कम्यून
कैसा है। उनके
लिए वह हमेशा
शीला का कम्यून
था, बाद में
उन्होंने
कहां था:
‘…..मैं तो तुम्हारे
कम्यून का
हिस्सा भी
नहीं हूं। मैं
तो मात्र एक
पर्यटक हूं, निवासी
तक नहीं हूं।
यह मकान मेरा
निवास स्थल
नहीं है। केवल
एक गेस्ट
हाऊस है। तुम्हारे
कम्यून में
मैं किसी पर
नहीं हूं। मैं
तुम्हारे
कम्यून का
प्रधान भी
नहीं हूं, मैं
यहां कोई भी
नहीं हूं। मैं
लाल चोगे (रोब)
में होना पसंद
करता,
लेकिन मैंने
ऐसा केवल इसलिए
नहीं किया
ताकि आपको यह
स्पष्ट हो
जाए कि मैं
किसी भी रूप
में आपका हिस्सा
नहीं हूं।’
‘फिर
भी आपने मेरी
बात सूनी है।
जब कि मेरे
पास कोई सत्ता
नहीं है। मैं
आप पर कुछ थोप
नहीं सकता।
में आपको
आज्ञा नहीं दे
सकता। मैं
आपको
धर्मादेश नहीं
दे सकता। मेरी
बातें केवल
बातें है। मैं
अनुगृहीत हूं
कि आप मुझे
सुनते है। जो
मैं कहता हूं
उसे तुम मानों
या न मानों यह
तुम्हारी स्वतंत्रता
है। तुम सुनो
या न सुनो यह
तुम्हारा
निर्णय है।
तुम्हारी
निजता में
किसी तरह का
हस्तक्षेप
नहीं है।’ (फ्रॉम
डार्कनेस टू
लाईट)
उन
प्रारम्भिक
दिनों में सब
कुछ ठीक चल
रहा था।
सैंकड़ो की
संख्या में
लोग आ रहे थे
और मरुस्थल अदभुत
गति से नगर
में बदल रहा
था। एक ही
वर्ष में एक हजार
व्यक्तियों
के लिए आवास
स्थल की और
दस हजार
अतिथियों के
लिए ठहरने की
व्यवस्था
हो गई। हवाई
अड्डे, होटल, डिस्को,
सब्जियां
उगाने के लिए
फार्म,
चिकित्सा-सुविधाओं
के लिए अस्पताल,
एक बाँध और
सबके खाने
पीने के लिए
एक कैनटीन के
निर्माण की
शुरूआत हो
चुकी थी।
जब
ओशो ने मुझसे
पूछा कि शीला
का कम्यून
कैसा है तो
मैंने कहा कि
मुझे लगता है
कि जैसे मैं
संसार में
हूं। यह कोई
शिकायत नहीं
थी। इससे केवल
इतना ही पता चलता
था कि अब
कितना अंतर है
उन दिनों से
जब ध्यान
हमारे जीवन का
परम ध्येय
था। शीला ध्यानी
नहीं थी। उसके
लिए कार्य और
केवल कार्य ही
महत्वपूर्ण
था। काम के
बहाने वह
लोगों पर अपना
प्रभुत्व
जमा सकती थी।
क्योंकि अच्छा
काम
करनेवालों को
अपने ढंग से
पुरस्कृत
करती। ध्यान
को समय का
अपव्यय समझा
जाने लगा और
विरल अवसरों
पर जब मैं ध्यान
करती तो अपने
सामने कोई
पुस्तक रख
लेती ताकि कोई
अगर कमरे में
आ जाये तो मुझे
पकड़ न पाये।
मेरे लिए ध्यान
के महत्व का
परिप्रेक्ष्य
ही खो गया। और
वे सारे वर्ष
जिनमें ओशो
इसकी चर्चा
करते रहे थे।
इस घड़ी खो
गए। पूना में
आकाश में ऊंची
उड़ानें भरने
के बाद मुझे
महसूस हुआ कि
मैं धरती पर
वापस आ गई
हूं। दोबारा
इस धरती से
बंध गई हूं।
इस समय मैं एक
अलग प्रकार के
स्कूल में
थी। मुझे लगा
की शायद मेरे
व्यक्तित्व
के दूसरे आयाम
को अभी विकसित
होना है। यदि
हम पूना में लम्बे
चोगे पहने ‘हवाई
परियों’
की दुनियां
में होते तो
शायद हम सब
बुद्धत्व को
उपलब्ध हो
गये होते।
लेकिन व्यवहारिक
रूप से जगत को
इसका कोई लाभ
नहीं होता।
मुझे तब तक यह
मालूम न था।
कि यह पाठ
कितना कठिन
होगा। शिष्य
के रूप में
मेरी यात्रा
तो आरम्भ हो
चुकी थी और
पीछे लौटने का
अब कोई प्रश्न
नहीं उठता।
सदगुरू के साथ
होने का अर्थ
है, हर
एक कठिनाई को
एक चुनौती की
तरह स्वीकार
करने का और
अपने भीतर
बदलाहट के
प्रति हो रहे
प्रतिरोध को
देखने का एक
अवसर। अधिक
बोधपूर्ण
होना
प्राथमिकता
बन जाता है।
ओशो
केवल विवेक से
मिलते ओर हर
रोज शीला के
साथ कार्य
करती। कई
अवसरों पर
निरूपा,
देवराज ओर
मुझसे भी
मिलते।
कभी-कभी किसी
को ओशो का
सपना भी आ
जाता तो
सुनिश्चित
रूप से मान
लेता की ओशो
उसे सपने में
मिलने के लिए
आये थे। मैंने
बाद में एक
प्रवचन में इस
सम्बंध में
पूछा और
उनहोंने कहा:
‘मेरा
कार्य अलग
प्रकार का है
मैं किसी के
जीवन में हस्तक्षेप
नहीं करना
चाहता। वैसे
ऐसा होता रहा
है, ऐसा
किया जा सकता
है। देह से
मुक्त हुआ जा
सकता है और जब
कोई
निद्रावस्था
में हो तो उस
पर कार्य किया
जा सकता है।
लेकिन यह किसी
की स्वतंत्रता
का अतिक्रमण
है, और
मैं किसी भी
तरह के
अतिक्रमण के
सर्वथा विरूद्ध
हूं। चाहे फिर
वह आपकी भलाई
के लिए ही क्यों
न हो: क्योंकि
मेरे लिए स्वतंत्रता
का परम मूल्य
है। तुम जैसे
भी हो मैं
तुम्हारा
आदर करता हूं
और आपने उस
आदर के कारण
कहता रहता हूं
कि और अधिक
सम्भावना
है। परंतु
इसका अर्थ यह
नहीं कि अगर
तुम न बदलोगे
तो मैं तुम्हारा
आदर न करूंगा।
इसका अर्थ यह
भी नहीं है कि
अगर तुम अगर
बदल जाओगे तो
मैं तुम्हारा
और अधिक आदर
करता रहूंगा।
मेरा आदर एक
सा रहेगा। तुम
बदलों या न
बादलों,
तुम चाहे मेरे
साथ रहो या
मेरे विरूद्ध
हो जाओ। मैं
तुम्हारी
मानवीयता का
आदर करता हूं।
और तुम्हारी
समझ का आदर
करता हूं।.... ’
‘…तुम्हारी
मूर्च्छा
में तुम्हारी
निंद्रा में,
मैं तुम्हें
परेशान नहीं
करना चाहता।
मेरा मार्ग
पूर्णतया व्यक्ति
के आदर का
मार्ग है। और
तुम्हारी
चेतना के आदर
का मार्ग है,
मुझे अपने
प्रेम और तुम्हारी
चेतना के
प्रति अपने
आदर पर पूर्ण
विश्वास है
कि यह तुम्हें
बदल डालेगा।’
मुझसे
कुछ कहना न
होता। मेरा
उदेश्य होता
मौन रहना और
इसलिए में
अपने लिए कोई
लक्ष्य
निर्धारित कर
लेती। जैसे,
‘अच्छा
यहां से उस
पुराने भूसे
के गोदाम तक
कोई विचार
नहीं। इत्यादि...इत्यादि।’
आनेवाले
मौन के वर्षों
में ओशो और भी
पारदर्शी,
और भी नाज़ुक
होते जाएंगे।
एवं देह के
द्वारा हमें
बहुत ही कम
दर्शन देंगे।
ऐसा महसूस
होता था। ओशो
हमेशा कहा
करते थे कि
संन्यासियों
से बातें करने
के कारण ही
उनका देह में
रह पाना सम्भव
है। परंतु
जैसे-जैसे समय
बीता जा रहा
था,
उनके लिए इस
धरती से सम्पर्क
रखना मुश्किल
हो रहा था।
अब
उनकी
दिनचर्या
पूना के व्यस्त
दिनों से भिन्न
थी।
वहां
वह सुबह छह
बजे उठ जाते,
फिर आठ बजे
सुबह का
प्रवचन देते
तत्पश्चात
लक्ष्मी के
साथ विचार
विमर्श करते
और श्याम को
साधकों को
संन्यास
दीक्षा संध्या
दर्शन एवं
उर्जा दर्शन
से अनुगृहित
करते रहे थे।
एक सप्ताह
में वह एक सौ
से भी अधिक
किताब पढ़ते
थे। यही उनकी
उस समय की
जीवन चर्या
थी। ओशो यहां
भी सुबह छ: बजे
ही उठ जाया
करते थे।
परंतु अब वह
देर तक स्नान
करते और अपने
निजी स्विमिंग
पूल में तैरने
का आनंद लेत
एंव संगीत भी
सुना करते थे।
ओशो
अब सिर्फ दिन
में एक बार
कार-भ्रमण के
समय ही कम्यूनवासियों
को दर्शन दिया
करते थे;
इसके अतिरिक्त
उनका लोगों से
कोई संपर्क
नहीं रह गया
था। वहां वह
ज्यादातर
अपने कमरे में
मौन बैठा करते
थे।
वर्षों
तक कमरे में
मौन बैठे रहना
कैसा लगता
होगा। .....ओशो ने
अपने प्रारम्भिक
जीवन के
प्रवचनों मे
कुछ इस तरह का
वर्णन किया
था:
‘जब
वह (बुद्ध
पुरूष) किसी
कार्य में रत
नहीं है,
जब वह न तो बोल
रहा है,
न खा रह है। न
चल रहा है,
तब सांस लेना
एक आनंदपूर्ण
अनुभव हो जाता
है। तब मात्र ‘होना’
सांस की गति
इतना आनंद
देती है कि
उसकी किसी से
तुलना नहीं की
जा सकती। यह
अत्यंत
संगीत पूर्ण
हो जाती है।
और नाद (अनाहत
अंतर्नाद) से
भर जाती है।’
(दि मिस्टिक एक्सापिरियंस)
मैं
भी अपना एक
गुप्त जीवन
जी रही थी।
जिसके बारे
में किसी को
कुछ भी पता
नहीं था। मैं
जहां कपड़े
सुखाने जायजा
करती थी,
वह जगह घर के
पीछे
पहाड़ियों के
बीच थी। और वहां
पहुंचने के लिए
मुझे चलकर
पाँच मिनट
लगते थे। मैं
वहां पहुँचती,
धुले कपड़ों
को रस्सी पर टाँगती,
टोकरी को
ज़मीन पर रखकर
मैं अपने वस्त
उतार फेंकती।
और पहाड़ियों
में किसी जंगल
स्त्री की
भांति नग्न
दौड़ती।
मीलों तक फैले
हुए पहाड़ों
के बीच में एक
सूखी पुरानी
नदी के तल से गुजरती
या फिर
गर्मियों में
ऊंची घास के
बीच बनी हुई
मृग-पगडंडियों
पर चलती।
पहाड़ियों की और
जाने वाले
रास्ते पर
मेरी अपनी एक
वाटिका थी।
मैंने उस
वाटिका पर बहुत
कड़ी मेहनत की
और एक समय,
एक साथ उसमे
बहुत सुंदर
फूल खिल उठे।
जब
मैं पहली बार
पहाड़ियों
में शांत खड़ी
थी तो मौन
इतना सधन था,
कि मैं अपने
ह्रदय की
धड़कने और रक्त
स्पंदन को
अपने ही कानों
से सुन सकती थी।
पहले तो मैं
उस आवाज़ों को
पहचान न पाई
और घबड़ा गई
थी। फिर जब
मैं उन पहाड़ों
में सोई तो
मुझे लगा जैसे
मैं धरती के गर्भ
मे लिपटी हुई
थी। उस समय
ग्रीष्म ऋतु
थी। और फिर
सर्दियों में
मैं बर्फ़ में
दौड़ती उसके बाद
आश्रय लेने
जूनिपर के
पेड़ो के नीचे
बैठ जाती थी।
मैं एक काऊबॉय
के प्रेम में
पड़ गई। जिसकी
आंखें नीली,बाल
सुनहरे,
त्वचा
ताम्रवर्ण और
उच्चारण ठेठ वर्जीनिया
था। वह मिलारेपा
के नाम से
पुकारा जाता
था। रैंच पर अधिकतर
पुरूष काऊबॉय
जैसी पोशाक
पहनते थे—आखिरकार
वह इलाक़ा काऊबॉय
का ही हो गया।
और फिर
मिलोरेपा भी
तो कोई अपवाद
नहीं था वह
लोग गीत एवं
पश्चिमी गीत
गाता और साथ
में बैंजो
बजाता।
सेजब्रुश,
जूनिपर,
हल्की-सी
सूखी हुई घास
और खुले-खुले
विशाल स्थानों
वाली उन
प्राकृतिक
रंगीन
पहाड़ियों के
जादू से मैं
तो लिपटी हुई
थी। वहां मृग
तथा विषैले
सांप भी थे।
और एक दिन तो
उन पहाड़ियों
से घर लौटते
वक्त मेरा
कायोटी (एक
जंगली जानवर)
से आमना सामना
हो गया। हम
सिर्फ एक
दूसरे से बीस
फीट की दूरी पर
थे। वह
गौरवपूर्ण
सुंदर और
चौकन्ना था।
उसकी खाल मोटी
और रेशमी थी।
और उसकी
आंखें सीधी
मेरी आंखों
में आंखें
गड़ाई हुई थी।
आश्चर्य में
डूबे हुए हम
दोनों कुछ
मिनटों तक एक दूसरे
को देखते रहे,
फिर उसने अपना
सिर घुमाया और
धीरे-से,
बडी शान से
वापस चला गया।
जैसा
कि ओशो ने
वादा किया था,
नए कम्यून
में दो झीलें
थी...कृष्णामूर्ति
झील बहुत
विशाल थी और
पतंजलि झील जो
कि पहाड़ियों
के बीच छिपी
हुई छोटी झील
थी। जिसमे नग्न
स्नान किया
जाना उपलब्ध
था।
रैंच
के प्रारम्भिक
दिनो में मैं
उधार मांगे
हुए छोटे ट्रक
में कुछ
लड़कों के साथ
वहां मछली
पकड़ने जाया
करती थी।
शाकाहारी
होने के नाते
शायद यह मुझे
शोभा नहीं
देता था।
हम
अंधेरे में
धूल भरे रास्तों
पर खड़खड़ाते
ट्रक से वहां
पहुंचते और गैर-क़ानूनी
करार दिए गए
भगोड़े व्यक्तियों
की भांति झट
से झील में
कूद जाते,
फिर विभिन्न
दिशाओं में
चले जाते यह
देखने के लिए
कि कौन सबसे
बड़ी मछली
पकड़ता है। या
कोई मछली पकड़
भी पाता है या
नहीं।
मुझे
मछली खाने से
कोई रूचि नहीं
थी। परंतु साहस
करने में आनंद
आता था और हम
हंसते भी खूब
थे।
किसी
को भी हमारी
उस बात पता
नहीं था।
लेकिन एक दिन
उसका भी अंत आ
ही गया। और सब
मज़ा चला गया।
मछली को पानी
से बाहर
निकालना
निर्दयतापूर्वक
कार्य प्रतीत होने
लगा और उस
कार्य की वहीं
पर अति हो गई।
रजनीशपुरम एक
ऐसी ही घाटी
में बसा हुआ
था। जो चारों
और से
बड़ी-छोटी पर्वत
मालाओं से
घिरी हुई थी।
हमारी
सम्पति की
सबसे ऊंचाई
वाली
जगह पर से
नीले क्षितिज
की धुन्ध में
ऊंची नीची पहाडियाँ
देखी जा सकती
थी। उस
शिखर तक
पहुंचने के
लिए बड़ी
सावधानी से कार
चलानी पड़ती
थी। क्योंकि
कई मोड़ वाली
वह सड़क खड़ी
ढलानों एवं
चढ़ाइयों से
भरपूर थी। न
जाने कितने
वर्षों से
उसकी मरम्मत
नहीं हुई थी।
और फिर सालों
तक गिरती
बर्फ़ एवं
वर्षा ने तो
उसका सत्यानाश
ही कर दिया
था।
उस
खतरनाक
पहाड़ी होकर
नीचे आने के
बाद हमारा सामना
रेडनेक्स से
हुआ करता था।
जो अपनी पिक
अप गाड़ियों
में बैठे केवल
दिल्लगी के
लिए हम पर
अपनी बंदूकों
से निशाना
साधते या सड़क
के किनारे
खड़े होकर
हमसे लिफ्ट
मांगते या तो
फिर हम पर पत्थर
फेंकने लगते
थे।
हिमस्खलन
के कारण बीच
सड़क में गिरी
हुई एकाध
चट्टान कई बार
रोल्स रॉयस
की वर्कशाप का
काम बढ़ा दिया
करती थी।
वहां
भूमि समतल और
निर्जन थी। कई
स्थानों पर
तो दूर तक
सड़क व
क्षितिज के
बीच न तो कोई
पेड़ था,
न ही कोई
इमारत दिखाई
देती थी। कुछ
मीलों की दूरी
पर कोई पुराना
घर या लकड़ी
का गोदाम
दिखाई देता।
तो निर्दय
मौसम के
थपेड़ों एवं
भारी तूफ़ान
से टकराने के
कारण काला पड़
गया था। और
झुक भी गया
था। वहां कुछ
विज्ञापन
बोर्ड लगे थे
जिन में लिखा
था—‘पापियों,
पश्चाताप
करो,
जीसस तुम्हारी
रक्षा करेगा।’ईसाइयों
की उस भूमि पर
ऑरेगान के लोग
सड़क के
किनारे लगी
अपनी कांटेदार
तारों की बाढ़
पर कायोटी की
सड़ी दुर्गन्ध
पूर्ण लाशों
को तब तक
लटकाए रखते जब
तक उनके सिर
या खाल के
अतिरिक्त
कुछ न बचता।
एक
रात पाले से
ढक लॉन पर से
होकर मैं घर
पहुंची तो
मैंने ओशो को
अकेले कार के
भीतर जाते देखा।
ऐसा पहले कभी
नहीं हुआ था।
कोई न कोई
जरूर उनके साथ
हमेशा जाता
था। मैंने
पीछे की सीट
का दरवाज़ा
खोला और पूछा
कि क्या मैं
उनके साथ जा
सकती हूं,
तब उन्होंने
सख्ती से कहा,
‘नहीं।’
मा विवेक के
पास आई। उसे
जब यह बात
बताई तो हम दोनों
ने उनका पीछा
किया। विवेक
कार चला रही
थी। ओशो हमसे
पाँच मिनट
पहले गये थे।
वह तो थे ‘रोल्स
रॉयस’
में और हम ‘ब्रान्को’
में, जो
कि बार-बार
अपना संतुलन
खो रही थी।
जिसका पता
हमें काफी देर
बाद चला। उस
रात बर्फ के
कारण फिसलन थी
और जब पहाड़ी सड़क
के मोड़ पर
हमारी कार
फिसली,
तब विवेक ने
मुझे बताया कि
उसने कभी कार
चलाने की
परीखा नहीं दी
है। और सच तो
यह था कि उसे
कार चलना आता
ही नहीं था। और
जब हम रैंच पर
आए तो चूंकि
उसे कार चाहिए
थी,
उसने शीला से
यह कह दिया था
कि उसके पास लाइसेंस
है। पीछे
लौटकर देखती
हूं तो सोचती
हूं कि मैं
अवश्य पागल
हूं। क्योंकि
मेरे दिमाग
में जो विचार
आया था,
वह यह था कि ‘मैं
इस स्त्री पर
भरोसा कर सकती
हूं क्योंकि
इस में साहस
है।’
ओले
पड़ने लगे तो
ओशो तक
पहुंचने के
लिए तूफ़ान के
बीच कार चलाते
हुए हमने गति
की सारी
सीमाएं तोड़
डाली। हमें
अनुमान लगाना
पडा कि वह
किसी रास्ते
से गए होंगे।
और फिर हमें
ख्याल आया कि
खुली सड़क पर
पहुंचकर तो हम
उन तक कभी न
पहुंच
पाएंगे। हम
सड़क पर ही
रूक गई। और प्रतीक्षा
करने लगे। इस
आशा में कि
लौटकर रजनीशपुरम
ही तो आएँगे।
जैसे ही कोई
कार तेज़ गति
से हमारी दिशा
में चौंधिया
देने वाली
रोशनी हम पर
फेंकती हुई आती
तो भारी वर्षा
में भीगते हुए
हमें सेकंड के
दसवें हिस्से
में ही देख
लेना होता था
कि उनमें ओशो
है या नहीं।
कुछ ग़लत
गाड़ियों का
व्यर्थ पीछा
करने के बाद
अंत में हमने
ओशो को देख
लिया। हम झट
से अपनी
ब्रांको में बैठी
और उनके पीछे
बहुत पास से
हार्न पर
हॉर्न बजाने
लगी। और बतियां
जला बुझा कर
उनका ध्यान
अपनी और खींचने
की कोशिश करती
रही। उन्होंने
हमें देखा। और
फिर लगा
रजनीशपुरम तक
उनके
पीछे-पीछे आना
बहुत अच्छा
लग रहा था। घर
वापस पहुंचने
पर किसी ने
कोई बात नहीं
की। हमने
अपनी-अपनी
कारें पार्क
की और सब अंदर
चले गए। इसके
बाद उस घटना
के विषय में
कभी चर्चा नहीं
हुई।
यद्यपि
मैं कभी कोई
अन्य बुद्ध
पुरूष की
संगति में
नहीं रही थी।
परंतु मुझे
विश्वास है
कि उन सब में
जो समानताएं होती
है,
उनमें से एक
तो यह है कि
तुम यह कदापि
नहीं जान सकते
कि वह कब क्या
करेंगे।
परंतु तुम
इतना अवश्य
जान लोगे कि
तुम्हें
जगाने के लिए
वह कुछ भी
करेंगे। आधी
रात को वह ‘रेडनेक्स’
के देश में इस
प्रकार क्यों
निकल पड़े थे
यह मैं कभी
नहीं जान सकी।
शीतकाल
के दौरान जब
सड़कें खतरे
से खाली नहीं
होती थी। उस
समय ओशो ने
अपनी कार को
पाँच बार गड्ढे
में फंसा दिया
था। हर बार,
जब भी उन्होंने
अपनी कार को गड्ढे
में फँसाया,
विवेक उनके
साथ थी। फिर
उसे कूदकर कार
से बाहर
निकलना पडा।
एक बार तो
उसकी पीठ में
काफी दर्द
होने के
बावजूद उसे
कार से उतर कर
किसी और कार
को इशारा देकर
रोकना पड़ा;
साथ में यह भय
भी था कि कार
वाला कहीं
हमारे पड़ोसी ‘रेडनेक्स’
में से ही कोई
एक न हो।
ओशो
को इस तरह कार
में अकेला
छोड़ना उसे
ठीक नहीं लगता
था लेकिन ओशो
तो वहां आंखें
मूंदे ऐसे
बैठे रहते
जैसे कि वह
अपने कमरे में
ध्यानस्थ
बैठे हो।
ओशो
दिन में दो
बार कार
ड्राइव के लिए
जाते। एक रात
विवेक बहुत
घबराई हुई घर
लौटी और उसने
हमे बताया कि
एक कार बहुत
नज़दीक से
हमारा पीछा कर
रही थी। और
ओशो की कार के
बम्पर के
बिलकुल पास आ
गई थी। यह आम
बात हो गई थी।
ऐसा प्रात:
होता और हमेशा
भयभीत कर
देता। पिक-अप
ट्रक में सवार
दो तीन काऊबॉय
अपमानजनक शब्दों
का इस्तेमाल
करते ओर ओशो
की कार को
सड़क से नीचे
धकेल देने का
प्रयास उन्हें
मनोरंजन खेल
लगता। उस रात
जैसे ही ओशो
रैंच के निकट
पहुंचे,
दो संन्यासी
उनकी और आ रहे
थे। ओशो ने
कार रोककर
उनसे सहायता
का अनुरोध
किया। वह व्यक्ति
जो उनका पीछा
कर रहा था
सहायता के लिए
किए इशारे को
देख कर दूसरी
और भाग गया। संन्यासियों
ने उसका पीछा
किया। वह कार
को अपने अहाते
में ले गया,
कार वहां खड़ी
की,
बंदूक लेकर
बाहर कूदा और
गोलियां
चलानी शुरू कर
दीं। वह स्पष्ट
रूप से पागल लग
रहा था। और वह
धमकी दे रहा
था कि वह ओशो
का मार कर ही
रहेगा। शेरिफ को
बुलाया गया
लेकिन उसने इस
बारे में कुछ
भी कार्रवाई
करने से इंकार
कर दिया। क्योंकि
उसने अभी तक
कोई अपराध
नहीं किया था।
अगली
रात ठीक उसी
समय पर हमेशा
की तरह वे उसी
मार्ग से
कार-भ्रमण के
लिए जाना
चाहते थे।
विवेक ने साथ
जाने से इंकार
कर दिया। अत:
मैं गई और
मैंने ओशो को
मनाने का प्रयत्न
किया कि कम से
कम वे दूसरा
मार्ग चुन
लें। क्योंकि
उस पागल व्यक्ति
को पता था कि
ओशो किस समय
कहां पर
होंगे। ओशो ने
इंकार कर
दिया। उन्होंने
कहां की यह
उनकी स्वतंत्रता
है कि वह कब और
कहां कार
ड्राइव के लिए
जाएं। वे अपनी
स्वतंत्रता
खोने के बजाएं
गोली खाना
बेहतर
समझेंगे। और
उन्होंने
कहना जारी रखा,
क्या होगा
अगर वे मुझे
गोली मार
देंगे। कोई
बात नहीं। सब
ठीक है। मैं
इस बात को पी
गई। निश्चित
रूप से यह बात
मेरे लिए ठीक
नहीं थी।
उस
रात हमेशा से
अधिक अँधेरा
था। और ओशो ने
बंजर भूमि के
मध्य में कार
रोक दी क्योंकि
उन्हें लघुशंका
के लिए जाना
था। मैं कांप
रही थी। मालूम
नहीं भय के
कारण या सर्दी
के कारण। मैं
कार से बाहर
निकल सड़क पर
इधर-उधर टहलती
रही। अंधेरे
में आंखें
गड़ाए देखती
रही और यह समझने
का प्रयत्न
करती रही कि
स्वतंत्रता
सुरक्षा से
पहले क्यों
रखी जाए।
वह
पागल व्यक्ति
उस दिन नहीं
आया। कई बार
जब हमें
धमकियां दी
जाती कि कोई
गिरोह बाहर सड़क
पर खड़ा उनकी
प्रतीक्षा कर
रहा है। वे
बिना परवाह
किए वहीं जाते
जहां और जब
उनका मन चाहा।
ओशो
ने प्रवचन में
कहा कि गति की
सीमा के भीतर कार
चलाने में कोई
मज़ा नहीं। जब
की कोई कार 140 मील
प्रति घंटा की
रफ्तार से चल
सकती है। और
फिर कौन
सीमा-निर्धारण
के लिए सड़क
के दाएं-बाएं
देखता रहे।
उनका कहना था
अपनी दृष्टि
सड़क पर रखना
बेहतर है।
चौराहे पर
दाएं-बाएं
देखना और यह
बताना कि कब
आगे बढ़ना
सुरक्षित है।
मेरा काम था।
कारण ओशो कार
चलते हुए ओशो
कभी अपनी
गर्दन न
घुमाते थे। वे
बस सीधा सामने
देखते। मैंने
कभी कार नहीं चलाई
थी। इसलिए न
तो मुझे गति
और फासले का
स्पष्ट
अनुमान था और
न ही सड़क के
नियमों का
ज्ञान था। हो
सकता है कि
अगर मुझे पता
होता तो मैं
अधिक घबराती;
लेकिन जैसा भी
था मुझे विश्वास
था कि जो भी
होगा होश में
होगा। और वही
वास्तव में
महत्वपूर्ण
था।
प्रथम
वार्षिक विश्व
महोत्सव
जुलाई 1982 में
हुआ। और विश्व-भर
से दस हजार से
भी अधिक लोग
इसमे सम्मिलित
हुए। यह प्रथम
अवसर था जब
भारत के बाहर
हम सब इकट्ठे
हुए थे। घाटी
में एक विशाल
बुद्ध सभागार
का अस्थायी
रूप से
निर्माण किया
गया था और जब
हम सबने मिलकर
एक साथ ध्यान
किया तो वहां
अत्यंत सघन
ऊर्जा थी और
ओशो आए। हमारे
बीच आकर बैठ
गए। उत्सव के
अंतिम दिन ओशो
ने गायन को
मंच पर आकर
नृत्य करने
को कहा। बीस
व्यक्ति यह
सोचकर कि वे
उनकी और संकेत
कर रहे है। उठ खड़े
हुए। और सैकड़ों
लोग उनके पीछे
चल दिये। ओशो
हमारी दृष्टि
से ओझल हो गए।
हो सकता है
भीड़ में घिर
जाने के कारण उन्हें
कोई क्षति पहुँचती।
लेकिन यह
मात्र सघन
ऊर्जा का
अतिरेक था।
बाद में उन्होंने
कहा कि हर कोई
उनके प्रति
सौम्य और
आदरपूर्ण था।
जब वे जा रहे
थे तो लोग स्वयं
पीछे हटते गए।
और उनके लिए
रास्ता
बनाते चले गए।
जिन्होंने
उन्हें स्पर्श
भी किया बड़ी
सतर्कता से
किया।
उस
समय सब कुछ
इतने सही ढंग
से चल रहा था
और ऐसा कोई
कारण नहीं
दिखाई दे रहा
था कि हमारा
मरूद्यान
जहां सहस्त्रों
व्यक्ति
समाज,
धर्म और राजनीति
की कुरूपता से
बचकर सह-अस्तित्व
की भावना से
रह सकत है। वह
क्यों
फूले-फलेगा
नहीं। विश्व
के लिए एक
आदर्श क्यो न
बन पाएगा।
वह
एक प्यारा
उत्सव था।
पूर्ण
चंद्रग्रहण
लगा था। मैने
पहाड़ के बीच
वाली अपनी क्यारी
से देखा। चाँद
लाल-लाल
होते-होते
आकाश में
विलीन हो गया।
मुझे लगा मैं
पृथ्वी ग्रह
पर नहीं हूं।
मा प्रेम शुुुन्यो-(चेतना)
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