कानो सुनी सो झूठ सब-(संत दरिया)
दरिया लच्छन साध का
प्रवचन: सतावां
दिनांक: १७.७.१९७७
श्री रजनीश आश्रम, पूना।
सारसूत्र:
दरिया लच्छन साध का क्या गिरही क्या भेख।
निहकपटी निरसंक रहि बाहर भीतर एक।
सत सब्द सत गुरुमुखी मत गजंद-मुखदंत।
यह तो तोड़ै पौलगढ़ वह तोड़ै करम अनंत।
दांत रहै हस्ति बिना पौल न टूटे कोए।
कै कर थारै कामिनी कै खेलारां होए।
मतवादी जाने नहीं ततवादी की बात।
सूरज ऊगा उल्लुआ गिन अंधारी रात।।
सीखत ग्यानी ग्यान गम करै ब्रह्म की बात।
दरिया बाहर चांदनी भीतर काली रात।
दरिया बहु बकवाद तज कर अनहद से नेह।
औंधा कलसा ऊपरे कहा बरसावै मेह।।
जन दरिया उपदेस दे भीतर प्रेम सधीर।
गाहक हो कोई हींग का कहां दिखावै हीर।।
दरिया गैला जगत को क्या कीजै सुलझाय।।
सुलझाया सुलझै नहीं सुलझ-सुलझ उलझाय।।
दरिया गैला जगत को क्या कीजै समझाय।
रोग नीसरै देह में पत्थर पूजन जाय।
कंचन कंचन ही सदा कांच कांच सो कांच।
दरिया झूठ सो झूठ है सांच सांच सो सांच।।
कानों सुनी सो झूठ सब आंखों देखी सांच।
दरिया देखे जानिए यह कांचन यह कांच।।
दरिया लक्षण साध का क्या गिरही क्या भेख
निहकपटी निरसंग रहि बाहर भीतर एक
साधुता की परिभाषा। संन्यास की व्याख्या।
ऐसे तो
संन्यास की व्याख्या हो नहीं सकती। ऐसे तो संन्यास बस अनुभव की बात है। फिर भी जो
उस अदृश्य में नहीं गए, जिन्होंने
उस अगम में गति नहीं की उनके लिए कुछ शब्द का सहारा चाहिए; उन्हें कुछ इशारे चाहिए।
चांद
को बताती हुई उंगलियां चांद तो नहीं है लेकिन फिर भी चांद की तरफ इशारा तो है। और
जिन्होंने कभी आंखें चांद की तरफ उठाई न हो, उनके लिए वे उंगलियां भी सहीं है यद्यपि कोई
भूल से भी यह न समझे कि चांद की तरफ उठाई गई उंगली चांद है। उंगली में कहां चांद? उंगली में कैसे चांद? लेकिन फिर भी दूर आकाश के
चांद की तरफ इशारा हो सकता है।
आज के
सूत्र बड़े इशारे के सूत्र हैं। मील के पत्थरों की भांति हैं। अगर ठीक से समझें तो
ये पड़ाव बन जाएंगे तुम्हारी अनंत यात्रा के।
पहला
सूत्र।
दरिया
लक्षण साध का क्या गिरही क्या भेख
साधु
का लक्षण क्या है?
घर में
हो कि घर के बाहर,
इससे
भेद नहीं पड़ता--क्या गिरही क्या भेख। संन्यासी हो कि गैरिक वस्त्रों में संन्यासी
हो, इससे कुछ भेद नहीं पड़ता। घर
में हो कि मंदिर में हो, इससे
भेद नहीं पड़ता। बाजार में हो कि हिमालय पर हो, इससे भेद नहीं पड़ता। कहां है इससे भेद नहीं
पड़ता, क्या है इससे भेद पड़ता है।
कैसे कपड़े पहने है, इससे
कैसे भेद पड़ सकता है?कैसी
अंतरात्मा है,
कैसी
चेतना का प्रवाह है, कैसा
बोध है?
तो न
तो कपड़ों से भेद पड़ता, न तो
घर-द्वार छोड़ने से भेद पड़ता, न
बाजार-दुकान छोड़ने से भेद पड़ता, न
बच्चे परिवार छोड़ने से भेद पड़ता। ये तो धोखे हैं। इनसे जिसने भेद डाल लेना चाहा, वह बड़ी मूढ़ता में पड़ गया। घर
द्वार छोड़कर भाग जाओगे, मन
कहां छोड़ेंगे,
जो
घर-द्वार को पकड़ता था? मन
तुम्हारे साथ चला जाएगा। और साथ रहा तो तुम कहीं फिर घर द्वार बसा लोगे। मन साथ
रहा तो तुम फिर कहीं कुछ पकड़ने लगोगे। पकड़ने की मूल भित्ति तो तुम्हारे भीतर है।
पत्नी
के कारण तुम संसार में नहीं हो, न पति
के कारण संसार में हो। तुम्हारा मन अकेला नहीं रह सकता इसलिए तुम संसार में हो।
अकेले में भयभीत होते हो। अकेले में डरते हो। अकेले में अंधेरा घेर लेता है। किसी
का संग-साथ चाहिए। इसलिए संसार में हो। तो पत्नी को छोड़कर जाओगे इससे क्या फर्क
पड़ेगा?
कोई और
संग-साथ खोज लोगे। संग-साथ तुम्हें खोजना ही पड़ेगा। वह जो मन तुम्हारे भीतर बैठा, जो अकेले में डरता है, जो अकेला नहीं होना चाहता, जो मन तुम्हारे भीतर बैठा, जो अकेले में डरता है, जो अकेला नहीं होना चाहता, जो कहता है कोई तो संगी हो, कोई साथी हो; जीवन की राह पर अकेला नहीं
होना चाहता,
जो
कहता है कोई तो संगी हो, कोई
साथी हो;
जीवन
की राह पर अकेला कैसे चलूं?
अकेले
चलने की हिंमत नहीं है। संसार के कारण संसार नहीं है, अकेले होने का साहस नहीं है
इसलिए संसार है। इसलिए पत्नी भी हो, बच्चे भी हों और अगर तुम अकेले होने को राजी
हो गए तो संसार मिट गया। पत्नी पास बैठी रहे, पत्नी न रही। पति पास बैठा रहे, पति न रहा। पति का रहना पति
के होने में नहीं है, पति का
रहना तुम्हारी आकांक्षा में है कि कोई संगी चाहिए, कोई साथी चाहिए। इस दुर्बलता
में है कि मैं अकेला काफी नहीं हूं। मैं अकेला दुख में पड़ जाऊंगा। मेरा सुख दूसरे
पर निर्भर है,
इसमें
संसार है। दूसरे से मुझे सुख मिल सकता है। मैं अकेला कैसे सुखी होऊंगा? फिर यह दूसरा कौन है इससे
फर्क नहीं पड़ता। अ को बदलोगे तो ब होगा, मगर कोई दूसरा मौजूद रहेगा। और जहां तक
दूसरे की मौजूदगी जरूरी है, वहां
तक संसार है।
दरिया
लक्षण साध का--
साधु
की क्या लक्षणा?
दरिया
कहते हैं: क्या गिरही क्या भेख। घर में हो कि घर के बाहर हो, संसारी हो कि संन्यासी हो, इससे कुछ फर्क नहीं पड़ता।
हकपटी
निरसंक रही बाहर भीतर एक
फिर
किस बार से फर्क पड़ता है? निष्कपटी।
कपट का अर्थ होता है, कुछ है, भीतर, कुछ दिखाते हैं बाहर। भीतर
कुछ और छिपा है। मुख में राम--मुंह पर तो राम है। मुंह में तो राम का स्मरण चल रहा
है। बगल में छुरी। कुछ है भीतर, कुछ
दिखाते हैं बाहर। भीतर और बाहर में भेद ही नहीं है, विरोध है। भीतर दुख है, बाहर मुस्कराते हैं। तो कपट
हो गया। भीतर मुस्कुराहट है, बाहर
आंसू गिराते हैं तो कपट हो गया।
कपट का
अर्थ है,
भीतर
और बाहर में द्वंद्व है, द्वैत
है। भीतर और बाहर दो अलग खंडों में बंटे हैं, अखंड नहीं है, तो कपट हो गया। और कपट बड़ा
दुख झेलता है। और आश्चर्य यह है, इस आशा
में दुख झेलता कि कपट से शायद सुख मिले। लेकिन झूठ से कभी सुख मिलता नहीं। झूठ से ही दुख मिल जाए तो फिर
तो रेत से भी निचोड़ो तो तेल निकल आए। झूठ से सुख नहीं मिलता। सुख तो सत्य की छाया
है। सुख तो सहजता में फलता है। और जो आदमी कपटी है, कैसे सहज होगा? वह सारी दुनिया को प्रवंचना
में रखना चाहता है। अंततः स्वयं प्रवंचना में पड़ जाता है। जो गङ्ढे तुमने दूसरों
के लिए खोदे हैं उनमें तुम गिरोगे। दुख पाओगे बहुत।
दुख है
ही इसीलिए जगत में, क्योंकि
हमने सुख का सार-सूत्र नहीं समझा। सुख का सार-सूत्र है सहजता, और दुख का सार-सूत्र है कपट।
सहज का अर्थ होता है, बाहर
भीतर एक। जैसा भीतर है, वैसा
ही बाहर है। तुमने उसे बाहर से पढ़ लिया तो
उसकी अंतरात्मा को पढ़ लिया। रत्तीभर भेद न पाओगे उसके बाहर भीतर में।
छोटे
बच्चों में ऐसी सहजता होती है। इसलिए तो संतों का एक लक्षण सदा कहा गया है कि वे
फिर वे छोटे बालकों की भांति हो जाते हैं। बच्चा नाराज हो गया है तो फिर वह
नाराजगी प्रगट करेगा। पैर पटकेगा, खिलौना
तोड़ देगा,
दीवार
से सिर मार लेगा। उस छोटे से क्षण में, उस छोटे बालक में ऐसा क्रोध लपटों की तरह
उठेगा,
जैसे
सारे संसार को नष्ट कर देगा। और क्षण भर बाद क्रोध आया भी और गया भी। बादल आए और
बरस गए। और वह तुम्हारी गोद में बैठा है और प्रसन्न है। और बड़े प्यार की बातें कर
रहा है। तुम जानते हो, जब वह
क्रोध में था तो पूरे क्रोध में था। और जब अब प्रेम में है तो पूरे प्रेम में है।
छोटा बच्चा जहां भी होता है पूरा होता है; यह उसकी सहजता है।
इसलिए
छोटे बच्चों के चेहरे पर एक सौंदर्य है, जो बड़ों के चेहरों पर खो जाता है। बड़ों के
चेहरे पर सौंदर्य खो जाता है। क्योंकि बड़ों को एक चेहरा नहीं है। बड़ों के बड़े
चेहरे हैं;
बहुत
चेहरे हैं;
चेहरों
पर चेहरे हैं;
मुखौटों
पर मुखौटे लगाए हुए हैं। एकाध चेहरा तुमने ओढ़ा है ऐसा भी नहीं है, तुम न मालूम कितने चेहरे साथ
लिए चलते हो। स्पेयर चेहरे तुम अपने पास रखते हो। कब कहां, कैसी जरूरत पड़ जाए। दिन में
हजार बार तुम्हें चेहरे बदलने पड़ते हैं।
जब तुम
अपने मालिक से मिलते हो दफ्तर में तो एक चेहरा रखते हो। जब तुम अपने नौकर की तरफ
देखते हो तब दूसरा चेहरा। और यह भी हो सकता है कि नौकर एक तरफ खड़ा हो, और मालिक एक तरफ खड़ा हो। तो
तुम एक तरफ एक चेहरा दिखाते हो, दूसरी
तरफ दूसरा चेहरा दिखाते हो। मालिक की तरफ एक मुस्कुराहट होती है, नौकर की तरफ एक उदासीनता होती
है, उपेक्षा होती है। नौकर में
तुमने आत्मा थोड़े ही कभी मानी है। इसलिए नौकर जब तुम्हारे कमरे में प्रवेश करता है, तुम अखबार पढ़ते हो तो पढ़ते ही
रहते हो,
जैसे
कोई नहीं आया। जैसे कोई भी नहीं गया। नौकर है, नौकर की कोई गिनती आदमी में थोड़े ही आत्मा
में थोड़े ही! तुम ऐसे उदासीन बैठे रहते हो जैसे कमरे में कोई न आया, न कोई गया। पत्नी की तरफ एक
चेहरा है तुम्हारा। प्रेयसी की तरफ दूसरा चेहरा है तुम्हारा। बच्चों की तरफ एक
चेहरा है,
बड़ों
के प्रति दूसरा चेहरा है। अपनों के प्रति एक चेहरा है, परायों के प्रति दूसरा चेहरा
है।
रास्ते
पर चलते हुए किसी दिन तुम अपने चेहरों की संख्या तो करना। कितनी बार तुम बदल लेते
हो। जिस आदमी से तुम्हें काम है, जिस
आदमी से तुम्हें मतलब है, उससे
तुम कैसे मिलते हो। कैसे प्रेम भाव से मिलते हो! और यह वही आदमी है जिसकी तरफ कल
तुमने आंख भी न उठाई थी। कल कोई काम ही न था। और यह वही आदमी है, कल फिर तुम आंख न उठाओगे, जब काम न रह जाएगा।
देखते
ना, राजनेता तुमसे मत लेने आता है, वोट लेने आता है, तो कैसा चरणों का सेवक हो
जाता है! तुम्हें लगता है ऐसा, जैसे
बस तुम्हारी सेवा करने के लिए ही इस आदमी का जीवन बना है। एक बार यह सत्ता में
पहुंच गया फिर तुम्हें पहचानेगा भी नहीं; फिर तुम्हारी तरफ आंख भी न उठाएगा। तुमसे
कोई मतलब न रहा। तुमसे कोई प्रयोजन न रहा। और ऐसा मत समझना यह राजनेता की ही बात
है, तुम्हारी भी यही बात है। सबकी
यही बात है।
कपट का
अर्थ है,
पाखंड।
कपट का अर्थ है,
बहुत
चेहरे। और इन बहुत चेहरों में तुम्हारा मौलिक चेहरा तो खो ही गया। परमात्मा ने जो
चेहरा बनाया था तुम्हारा, उसका
तो कुछ पता ही नहीं चलता इस भीड़-भाड़ में चेहरे की--कहां खो गया, कहां भटक गया। उसे तुम, पहचान भी न पाओगे। उसे तुम
खुद भी नहीं जानते कि तुम्हारा असली चेहरा कौन सा है। दर्पण के सामने भी जब तुम
खड़े होते हो तब तुम दूसरों को धोखा देते हो ऐसा नहीं है, अपने को भी धोखा दे लेते हो।
दर्पण के सामने खड़े होकर तुम अपने को भी धोखा दे लेते हो। धोखा ऐसा गहरा हो गया है, ऐसा खून में मिल गया है, ऐसा हड्डी-मांस-मज्जा में
प्रविष्ट हो गया है, ऐसा
खून में मिल गया है, ऐसा
हड्डी-मांस-मज्जा में प्रविष्ट हो गया है, कि दर्पण के सामने भी तुम वही नहीं होते जो
तुम हो।
निष्कपटी!
कोई चेहरा न हो। या बस एक ही चेहरा हो, जो परमात्मा ने तुम्हें दिया।
झेन
फकीर कहते हैं अपने साधकों को: मौलिक चेहरा खोजो। उस चेहरे को खोजो, जो जन्म के पहले तुम्हारे पास
था, मां के गर्भ में तुम्हारे पास
था। तब तो कोई पाखंड नहीं हो सकता क्योंकि मां के गर्भ में न कोई लेना न देना, न मिलना न जुलना, न कोई मालिक न कोई नौकर। जीवन
का विस्तार वहां नहीं, जंजाल
वहां नहीं। तो मां के पेट में नौ महीने जो तुम्हारा चेहरा था उसमें कोई भी रेखा न
रही होगी धोखे की। कोई था ही नहीं जिसको धोखा देना हो। उस चेहरे को खोजो।
मुखौटे
उतारना ध्यान की अनिवार्य शर्त है।
ध्यान
की घड़ी में जिस तारतम्य बैठ जाता है उस दिन अचानक एक झलक मिलती है तुम्हारे चेहरे
की। वह अपूर्व है। उसके सौंदर्य की कोई तुलना नहीं। वह चेहरा तुम्हारा नहीं है, परमात्मा का ही चेहरा है।
तुम्हारे चेहरे तो वे हैं जो तुमने बनाए हैं। एक ऐसा भी चेहरा तुम्हारे पास है, जो तुम्हारा बनाया हुआ नहीं
है; वही असली है। कहो, वही असली में तुम्हारा है।
तुम्हारे बनाए तो तुम्हारे नहीं हैं।
तो
दरिया कहते हैं--
दरिया
लक्षण साध का,
क्या
गिरही क्या भेख,
निहकपटी
निरसंक रही--
जिसकी
शंका तिरोहित हो गई, जो
श्रद्धा को उपलब्ध हुआ है वही साधु।
श्रद्धा
को समझो। हम तो जो भी करते हैं जीवन में, शंका बनी ही रहती है। करते भी जाते हैं और
शंका भीतर बनी भी रहती है। इसलिए कोई भी बात कभी तन मन से नहीं कर पाते। कोई भी
बात कभी समग्रता से नहीं कर पाते। शंका के कारण समग्र कैसे होओगे? करते भी हो तो एक मन तो कहे
ही चला जाता है कि गलत कर रहे हो। और ऐसा नहीं कि गलत में ही यह मन कहता हो, यह ठीक में भी मन यही कहता
है। मन की यह आदत है। मन का यह स्वभाव है कि यह कभी भी अविभाजित नहीं होता, विभाजित रहता है।
तुम
चोरी करने जाओ तो मन कहता है अरे! चोरी कर रहे, शर्म नहीं आती, संकोच नहीं खाते? क्या कर रहे हो? मत करो। तुम यह मत सोचना कि
यह मन चोरी करते वक्त ऐसा कहता है तो हमारा साथी है। इस मन की तो यह आदत है। तुम
जो कहोगे...।
तुम
दान देने लगोगे तो यह मन कहता है, यह
क्या कर रहे हो?
कैसी
मूढ़ता कर रहे हो। अरे वे जमाने गए देनेवालों के। और यह धोखेबाज खड़ा है। जिसको तुम
दे रहे हो। धोखा मत खाओ। ऐसे चालबाजों की बातें में मत आओ।
इससे
दुनिया में भिखमंगी बढ़ती है। इससे आदमी बिना मेहनत किए खाने की तरकीबें खोजने लगता
है। तुम जैसा बुद्धिमान आदमी और दान दे रहा है?
तुम यह
मत सोचना कि मन जब बुरा करते हो तभी रोता है, तभी शंका खड़ी करता है। नहीं, मन की शंका करने की वृत्ति
है। तुम जो भी करोगे, मन
शंका करेगा। जैसी वृक्षों में पत्ते लगते हैं, ऐसे मन में शंकाएं लगती हैं। मन शंकालु है।
श्रद्धा
मन का हिस्सा ही नहीं। श्रद्धा का अर्थ होता है, मन को तुमने हटाकर अलग कर
दिया। तुमने कहा,
तू
द्वंद्व मत खड़ा कर। मुझे निर द्वंद्व रहने दे। कुछ तो मुझे जीवन में ऐसा करने दे
जिसमें मैं पूरा-पूरा हूं। जिसमें कोई हां और ना नहीं। जिसमें कुछ विवाद नहीं
निर्विवाद कुछ तो मुझे करने दे। प्रेम करने दे निर्विवाद। कम से कम प्रार्थना करने
दे निर्विवाद। कम से कम किसी के चरणों में तो मुझे निर्विवाद बैठने दे। किसी मंदिर
में
किसी मस्जिद में, किसी गुरुद्वारे में कहीं तो
मुझे थोड़ी देर को अविभाजित छोड़ दे, विभाजित मत कर। कहीं तो मुझे अनकटा छोड़ दे, काट मत। टुकड़े-टुकड़े मत कर वे
जो थोड़े से क्षण तुम्हारे मुझे अनकटा छोड़ दे, काट मत। टुकड़े-टुकड़े मत कर वे जो थोड़े से
क्षण तुम्हारे जीवन में अनकटे होते हैं अखंड होते हैं, वहीं श्रद्धा का आविर्भाव
होता है।
श्रद्धा
अखंड चेतना की सुवास है।
कभी-कभी
हो जाता है। और जब भी हो जाता है तब तुम परमात्मा के अति निकट होते हो। तब तुम
साधु होते हो। अगर तुम मुझसे पूछो तो कभी-कभी सामान्य जीवन में भी ऐसी बात घट जाती
है। तुम उस पर ध्यान नहीं देते। अगर ध्यान दो तो बड़े रहस्य खुल जाएं। तुम्हारे हाथ
कुंजी आ जाए।
कभी
किसी सुबह प्रभात की बेला में, प्राची
के लाली को देखकर उगते सूरज को उठता देखकर, पक्षियों की चहचहा सुनकर...सुबह की ताजी
हवा! रातभर का विश्राम! तुम्हारी आंखें नई-नई खुली हैं। फिर से तुमने जीवन को
देखा। यह किरणों का जाल, ये
सागर की लहरें,
यह
सुबह का संगीत,
यह
तरोत्ताजगी। और एक क्षण को तुम्हारे भीतर कोई हां ना नहीं होती। कोई शंका नहीं
होती। यह सौंदर्य अप्रतिम रूप से तुम्हें घेर लेता है। एक क्षण को तुम श्रद्धा से
भर जाते हो,
हांलाकि
तुमने इसे कभी श्रद्धा नहीं कहा है--समझना इसीलिए तुम चुकते जा रहे हो। एक क्षण को
श्रद्धा जन्मती है। उसी श्रद्धा में परमात्मा के तुम करीब होते हो।
तो
जिन्होंने सूर्य नमस्कार खोजा था, इसी
श्रद्धा के कारण खोजा था, इसी
श्रद्धा के कारण खोजा था। सुबह के सूरज को देखकर जो श्रद्धा उठी थी, तो नमस्कार न करते तो क्या
करते? ब्रह्म-मुहूर्त की प्रशंसा
में गीत गाएं हैं,
इसी
कारण गाए हैं। रात भर के विश्राम के बाद रात भर की गहरी निद्रा में डुबकी लग जाने
के बाद...क्योंकि जब गहरी नींद होती है और स्वप्न भी खो गए होते हैं तब तुम वहीं
पहुंच जाते हो जहां साधु समाधि मग पहुंचता है। क्योंकि फिर अखंड हो। गहरी नींद में
जहां स्वप्न बंद गए, मन भी
समाप्त हो गया।
इसलिए
पतंजलि ने कहा है,
समाधि
और सुषुप्ति में एक बात समान है कि दोनों में मन नहीं रह जाता। फर्क क्या है! फर्क
इतना है कि सुषुप्ति में तुम बेहोश होते हो, समाधि में तुम जागरूक हो। मगर एक बात समान
है कि दोनों में ही मन नहीं रह जाता। गहरी सुषुप्ति में जब स्वप्न की तरंगें भी
नहीं हैं,
तुम
कहां होते हो?
तुम
श्रद्धा में होते हो, क्योंकि
अखंड होते हो कोई बांटनेवाला नहीं बचा वह राजनीतिज्ञ मन जो सदा बांटता था और
बांट-बांटकर तुम पर हुकूमत करता था, तुम्हें दो टुकड़े में तोड़ देता और उसी के
कारण तुम्हारा मालिक हो जाता था; दोनों
टुकड़ों को लड़ाता था और तुम्हें कमजोर कर देता था, वह राजनीतिज्ञ गया। गहरी
निद्रा में तुम अखंड हो जाते हो।
इसलिए
अभागे हैं वे लोग जो सुषुप्ति में नहीं उतर पाते हैं। रात भर जो करवटें लेते हैं
और सपनों में ही डूबे रहते हैं। सुबह उठकर पाते हैं कि वे और भी थके-मांदे
हैं--उससे भी ज्यादा, जितनी
रात सोते समय गए बिस्तर पर तब थे; उससे
भी ज्यादा थके-मांदे हैं। उन्हें सुषुप्ति नहीं मिली। उन्हें जो अचेतना में थोड़ी
देर के लिए परमात्मा का सान्निध्य मिल जाता था वह भी न मिला। चेतना में तो
परमात्मा से कोई संबंध जुड़ ही नहीं रहा है, अचेतना में भी संबंध टूट गया है। इसलिए
अनिद्रा से पीड़ित आदमी बड़ा दयनीय आदमी है। उतनी तो प्रकृति ने ही सुविधा दी कि
चौबीस घंटे अगर तुम परमात्मा के पास न जा सको कोई हर्ज नहीं, लेकिन गहरी रात, गहरी नींद में तो थोड़ी देर को
पहुंच जाना। होश तो नहीं रहेगा, लेकिन
उसके पास पहुंचने से उस परम स्रोत में डुबकी लगाने से जो लाभ होना है वह तो हो ही
जाएगा। इसलिए सुषुप्ति के बाद सुबह तुममें एक अलग बात होती है। जब पहली दफा तुम
आंख खोलते हो गहरी नींद के बाद, तुमने
थोड़ी सी श्रद्धा होती है। इसलिए सारे धर्मों ने कहा है, प्रार्थना सुबह, भोर में कर लेना।
सांझ
तक तो तुम संसार में रह-रहकर इतने विभाजित हो जाते हो। संसार के धोखे खा-खाकर और
धोखे दे-देकर,
तुम
इतने विषाद से भर जाते हो, सांझ
होते-होते तो तुम इतने थक जाते हो कि कैसे प्रार्थना करना। दिन भर की बेईमानियां, धोखे-धड़ियां, कार-गुजारियां, तुम्हें इतना तोड़ जाएगी कि
सांझ तुम बिलकुल बिखर गए। कहां श्रद्धा, कहां निशंका भाव, कहां अखंडता! कोई तुम्हें
धोखा दे गया उसकी भी चुभन, किसी
को तुमने धोखा दिया उसकी भी चुभन, किसी
को धोखा नहीं दे पाए उसकी भी चुभन। हजार तरह के कांटे छिद गए।
इसलिए
तुम देखते हो,
भिखमंगे
सुबह आते हैं,
सांझ
नहीं आते। क्योंकि जानते हैं सांझ कौन देगा? सांझ तो भिखमंगा डरता है कि किसी से मांगा
तो झपट्टा मारकर जो मरे पास है, वही न
छीन ले। सांझ तक तो हालत लोगों की पागलपन की हो जाती है। सुबह भिखमंगे आते हैं।
सुबह थोड़ा भरोसा किया जा सकता है कि आदमी झपट्टा नहीं मारेगा। और सुबह थोड़ा शायद
दया उमगे। सुबह शायद थोड़ी करुणा हो। सुबह शायद थोड़ा श्रद्धा भाव हो तो दे भी सके
कुछ, बांट भी सके कुछ। सांझ तो
कठिन है। सांझ तो हर आदमी डाकू हो जाता है।
यह
आश्चर्य की बात नहीं है कि सांझ जब तुम घर लौटते हो तो अनिवार्य रूप से पत्नी से
झगड़ पड़ते हो। दिन भर थके-मांदे, दिन भर
की परेशानियों से भरे हुए, दिन भर
के बाजार से परेशान जब तुम सांझ लौटते हो तो तुम होश में नहीं होते। तुम्हारे भीतर
कोई श्रद्धा नहीं होती। और प्रेम हो कि प्रार्थना हो, सभी श्रद्धा के अंग हैं। इधर
पत्नी भी दिन भर बैठी-बैठी परेशान हो गई है। इधर पत्नी भी दिन भर में थक गई है।
बच्चे हैं और नौकर है, बिजली
काम नहीं करती और फोन बिगड़ा है। दिन भर में पत्नी भी थक गई है, दिन भर में पत्नी भी परेशान
हो गई है,
दिन भर
में पत्नी का परमात्मा भी खंडित हो गया है। जैसे तुम्हारा परमात्मा खंडित हो गया।
ये दो खंडित व्यक्ति जब सांझ को मिलते हैं तो एक दूसरे पर क्रोध से भर जाते हैं।
पश्चिम
में एक नई हवा पैदा हो रही है, उसमें
बड़ा सार है। उसे अभी लोगों ने इस तरह से देखा नहीं है। शायद जो कुछ लोग इस हवा में
उतरे हैं उनको भी इस बात का पता नहीं है। सारी दुनिया में मनुष्य जाति के इतिहास
में स्त्री और पुरुष रात को प्रेम करते रहे हैं। लेकिन अमरीका में एक नई हवा पैदा
हो रही है। सुबह प्रेम करने की। अभी तो अमरीका के मनोवैज्ञानिकों को भी साफ नहीं
है कि बात क्या है। लेकिन सांझ प्रेम की संभावना ही कम होती गई है। अब तो सुबह ही
प्रेम किया जा सकता है। वहीं थोड़ी सी श्रद्धा रहती है। वहीं थोड़ा एक-दूसरे के
संग-साथ होने की संभावना रहती है क्योंकि अपने संग-साथ जब कोई होता है, जब अपने भीतर रस-विमुग्ध होता
है, जब अपने भीतर तरंग उठती होती
है शांति की,
मौन की, सुख की तो ही तो किसी दूसरे
को प्रेम दे सकता है या दूसरे से प्रेम ले सकता है। तभी तो थोड़ी सी देर के लिए हम
एक दूसरे में डूब सकते हैं। एक दूसरे में डूबना भी परमात्मा में ही डूबना है। वह
भी उलटी तरफ से कान पकड़ना है, मगर है
तो कान का ही पकड़ना। दूसरे में डूबकर भी डूबते तो हम अपने में ही हैं। सुबह का
मूल्य है क्योंकि सुबह थोड़ी शंका कम होती है। सुबह हां कहने का मन ज्यादा होता है, ना कहने का मन कम होता है।
तुम
जरा जांचना,
अपना
ही जीवन जांचना,
सुबह
तुम बहुत सी बातों में हां कह दोगे, उन्हीं बातों में सांझ शायद तुम हां न कह
पाओ। और सांझ जिन बातों में तुम ना कह दोगे, सोचना कि अगर किसी ने सुबह पूछा होता
तो...तो शायद तुम हां कह देते। सांझ होते-होते सभी लोग नास्तिक हो जाते हैं। ना
पैदा होने लगती है। ना यानी नास्तिक। नहीं कहने की जिद्द आ जाती है। सांझ
होते-होते! सुबह सभी आस्तिक होते हैं। आस्तिक यानी हां कहना सहज मालूम होता है।
कोई अड़चन नहीं मालूम होती।
दरिया
लच्छन साध का क्या गिरही क्या भेख
निहकपटी
निरसंक रही बाहर भीतर एक
तो
लक्षण बताते हैं। कि उसके जीवन में कोई कपट न हो, और उसके जीवन में कोई शंका न
हो। श्रद्धा अखंड हो। उसका भीतर व्यक्तित्व अविभाजित हो--बाहर भीतर एक। ऐसा ही
व्यक्ति बाहर भीतर एक होता है।
तो खंड
दो तरह के होते हैं, इसलिए
दो लक्षण बताए। एक तो खंड होता है कि बाहर अलग, भीतर अलग। यह एक प्रकार का खंड हुआ। इसको हम
कहते हैं पाखंड। एक तरह का खंड है। बाहर कुछ, भीतर कुछ। यह एक दिशा में दो टुकड़े हो गए।
यह एक तरह का खंड है।
दूसरी
तरह का खंड यह है कि बाहर कुछ, भीतर
कुछ, यह तो ठीक ही है, भीतर भी एक नहीं है। भीतर भी
अनेक। तब तो और भी खंड हो गए। तब तो तुम्हारे भीतर एक भीड़ हो गई। तुम व्यक्ति न
रहे अविभाजित,
तुम तो
एक भीड़ हो गए। तुम्हारे भीतर एक कोलाहल हो गया। इसी कोलाहल में हम जीते हैं। हम
कोलाहल से मुक्त हो जाने का नाम साधु। यह अपूर्व व्याख्या हुई। साधु की तरफ यह
गहरी लक्षणा हुई।
सत
शब्द सत गुरुमुखी,
मत
गजंद मुखदंत
यह तो
तोड़ पौलगढ़ वह तोड़े करम अनंत
सत
शब्द सत गुरुमुखी...
अगर
ऐसी श्रद्धा में बैठकर किसी ने साधुभाव से गुरु का वचन सुना हो, गुरु का शब्द सुना हो, ऐसी श्रद्धा में--तो ही सुना
जा सकता है,
स्मरण
रहे। शंका में तो गुरु का शब्द सुना नहीं जा सकता। शंका से तो गुरु का कोई संबंध
ही नहीं बनता। शंकालु के पास तो सेतु ही होता कि गुरु से जुड़ जाए। शंकालु ने तो
अपनी शंका के कारण सब सेतु सिकोड़ लिया। गुरु से तो जुड़ता वही है जो निःशंक है। जो
बाहर भीतर अलग-अलग है वह तो गुरु से कैसे जुड़ेगा?
तुम
जाकर गुरु के चरणों में सिर भी झुका देते हो मगर तुम्हारा अहंकार पीछे अकड़ा खड़ा
रहता है--यह बाहर भीतर अलग-अलग हो तुम। खोपड़ी तो झुक रही है, शरीर तो झुक रहा है मगर
अहंकार मन तो खड़ा है; अकड़ा
हुआ खड़ा है। सिर के साथ असली सिर भी झुक जाए, अहंकार भी झुक जाए तो संबंध जुड़ता है। उसी
क्षण में संबंध जुड़ जाता है। गुरु के साथ होना किसी विवाद की घड़ी में नहीं हो
सकता। संवाद की घड़ी चाहिए, जहां
गुरु और तुम्हारा हृदय एक साथ धड़के। जहां तुम अलग-अलग धड़क रहे, अलग-अलग नाच रहे, अलग-अलग सोच रहे, वहां गुरु से संबंध न हो
सकेगा। जहां गुरु की तरंग और तुम्हारी तरंग एक साथ हो गई, जहां तुमने गुरु के साथ जरा
भी अमैत्री भाव न रखा, जरा भी
शत्रुता का भाव न रखा। विवाद में शत्रुता है। विवाद का मतलब है, मुझे मेरी रक्षा करनी है। पता
नहीं यह आदमी कहां ले जाए, क्या
करे। मुझे मेरा अपना खुद हिसाब रखना है। जो जंचेगी बात, मान लूंगा। जो नहीं जंचेगी, नहीं मानूंगा।
यह
साधारणतः हमारी मनोदशा होती है कि जो मुझे जंचेगी वह मैं मानूंगा। तुम्हें सत्य का
पता है?
पता ही
हो तो किसी की तुम्हें मानने की जरूरत ही क्या है? यह तो ऐसा हुआ कि तुम बीमार
हो और चिकित्सक के पास गए हो और तुम कहो कि जो औषधि मुझे जंचेगी वह मैं लूंगा।
तुम्हें चुनाव की स्वतंत्रता है, चिकित्सकों
में चुन लो तुम्हें जो चिकित्सक चुनना हो। चुनने के पहले तुम्हें स्वतंत्रता है कि
तुम अ के पास जाओ कि ब के पास, किस के
पास। तुम बुद्ध को पकड़ो कि मोहम्मद को कि नानक को कि कबीर को कि दरिया को, तुम्हें स्वतंत्रता है।
चिकित्सक बहुत हैं दुनिया में। कोई चिकित्सकों की कमी नहीं है। चिकित्सक तुम चुन
लो लेकिन एक बार तुमने चुन लिया, फिर
उसके साथ अपनी तरंग जोड़नी पड़ती है। फिर तो वह जो कहे, उसमें हिसाब नहीं रखना पड़ता
कि यह दवा मैं लूंगा और यह मैं नहीं लूंगा। और यह मैं इतनी मात्रा में लूंगा और यह
मैं इतनी मात्रा में नहीं लूंगा। एक बार गुरु को चुना तो फिर तुमने समर्पण किया।
अगर ऐसा समर्पण न हो तो गुरु के वचनों का कोई परिणाम नहीं होगा।
सत
शब्द सत गुरुमुखी--गुरु के मुख से जो निकल रहा है वह तो सत्य है। वह तो परम सत्य
है। वह बड़ा शक्तिशाली है।
मत
गजंद मुखदंत--ज्यादा शक्तिशाली है उस हाथी से भी, जो धक्के मारकर बड़े से बड़े
किले के द्वार को तोड़ देता है। जो अपने दांतों से बड़े से बड़े किले के द्वार को
हिला देता है,
गिरा
देता है।
गुरु
के सत्य वचन उस मतवाले हाथी से भी ज्यादा शक्तिशाली है। तुम्हारे अंधकार को गिरा
देने की क्षमता है लेकिन--यह तो तोड़े पोलगढ़ वह तोड़े कर्म अनंत। तुम पर निर्भर है।
तुम उसे अंगीकार करो तो ही यह क्रांति घट सकती है। तुम स्वीकार करो तो ही क्रांति
घट सकती है।
हाथी
केवल किले का द्वार तोड़ सकता है, लेकिन
गुरु के वचन तुम्हारे जन्मों जन्मों में बनाई गई तुम्हारी जो अपनी ही निर्मित
व्यवस्था है,
जिसको
तुम जीवन कहते हो--जो जीवन तो नहीं है, मृत्यु से भी बदतर है। और जिसे तुम अपना घर
कहते हो--जो तुम्हारा घर तो नहीं है महा कारागृह है। जो किला तुमने अपने चारों तरफ
खड़ा कर लिया है,
जिसमें
तुम खुद ही फंस गए हो और दुखी हो रहे हो और पीड़ित हो रहे हो, तड़फ रहे हो। जो जाल तुमने
अपने चारों तरफ रच लिया है और खुद ही जिसमें तुम उलझ गए हो--हाथी, मस्त हाथी तो केवल किले का
द्वार तोड़ सकेगा लेकिन गुरु की मस्ती और भी गहरी है। वह परमात्मा के रस को पीकर
मस्त हुआ है।
हाथी
को तो शराब पिला देते हैं। जब हाथी से कोई दरवाजा तुड़वाना हो किले का तो उसको शराब
पिलानी पड़ती है। बिना शराब पीए तो वह भीजाकर किले के दरवाजे पर चोट नहीं करेगा। यह
तो पागल मस्ती में ही कर पाएगा वह। नहीं तो सोचेगा हजार बार, शंका उठेगी, विचार करेगा। और फिर ऐसा ही
थोड़े ही होता है किले का दरवाजा। किले के दरवाजे पर भाले लगे होते हैं। उसमें सिर
मारना--भालों से चुभने की तैयारी चाहिए। हाथी डरेगा। उसे पहले शराब पिला देते
हैं।शराब पीकर मस्त हो जाता है तो फिर वह फिक्र नहीं करता--न भालों की, न खतरों की; वह जूझ जाता है।
सदगुरु
परमात्मा की शराब पीए है, इसलिए
तुमसे जूझता है;
नहीं
तो तुमसे जूझेगा भी नहीं क्योंकि तुम्हारा किला खूब प्राचीन है और बड़े भाले लगे
हैं। और तुमसे टकराना सिर्फ मस्तों के लिए संभव है। जिनका गणित ही छूट गया है, जिन्होंने हिसाब किताब छोड़
दिया है,
तर्क
छोड़ दिया है। ऐसी मस्ती में जो डूबे हैं, वही तुमसे टकराएंगे; वही तुम्हें तोड़ पाएंगे। किसी मस्त का सान्निध्य मिल जाए तो
सौभाग्य। क्योंकि मस्त की ही सहायता से तुम बाहर निकल पाओगे, अन्यथा तुम निकलने वाले नहीं
हो। होशियार आदमी तो तुमसे बचकर चलेंगे। चालबाज आदमी तो कहेगा, कहां की झंझट में पड़ता!
तुम्हारा किला पड़ा है क्योंकि जन्मों जन्मों के कर्मों से तुमने उसे निर्मित किया
है।
यह तो
तोड़े पोलगढ़ वह तोड़े करम अनंत
गुरु
जूझ जाता है। मगर जूझता तभी है जब उसके पास सत्य हो।
दांत
रहै हस्ति बिना पौल न टूटे कोए
देखते
हो ना?
हाथी
दांत से टूट जाता है किले का दरवाजा, लेकिन इससे यह मत सोचना कि अकेले हाथी दांत
को लेकर गए तो किले का दरवाजा खोल लोगे। हाथी चाहिए पीछे, नहीं तो हाथी दांत लेकर पहुंच
गए किले के दरवाजे को ठकठोरने से, उससे
कुछ खुलेगा नहीं।
दांत
रहै हस्ति बिना पौल न टूटे कोए
फिर
कोई दरवाजा न खुलेगा, न कोई
किले की दीवाल टूटेगी। अकेले दांत की तो जो स्थिति होगी, वह क्या होगी--
कै कर
घारे कामिनी...
अकेले
दांत से या तो स्त्रियां आभूषण बना लेंगी और हाथी में पहन लेंगी।
कै
खैलारा होए--
या
बच्चे खिलौना बना लेंगे और खेलेंगे। उससे फिर किले नहीं टूटते।
दरिया
यह कह रहे हैं कि सदगुरु के वचन से किला तभी टूटता है जब उसके पीछे आत्मानुभव हो।
हाथी हो पीछे,
परमात्मा
हो पीछे तभी। पंडित से नहीं टूटेगा। पंडित वे ही वचन बोलता है जो सदगुरु बोलता है।
वचनों में कोई भेद नहीं। पंडित के पास सिर्फ दांत है, हाथी नहीं है। सदगुरु के पीछे
हाथी है। वह मतवाला परमात्मा उसके साथ जुड़ा है। उसने अपने को परमात्मा से जोड़ लिया
है। अब वह अकेला नहीं है।
मैंने
सुना है,
एक
ईसाई फकीर औरत थेरेसा चर्च बनाना चाहती थी। उसने सारे गांव को इकट्ठा किया। उसने
कहा, एक चर्च बनाना है। जीसस का
बड़े से बड़ा चर्च इस गांव में बनाना है। लोग हंसने लगे; उन्होंने कहा, हम गरीब आदमी हैं, यह चर्च कैसे बनेगा? तुझे कोई खजाना मिल गया है
थेरेसा,
जो
चर्च बनाएगी?उसने कहा, हां, खजाना मुझे मिल गया है। यह
देखो। उसने खीसे से पैसे निकाले--दो पैसे।
लोग
हंसने लगे। उन्होंने कहा, हमें
सदा से ही शक था कि तेरा दिमाग खराब है। अब तू बिलकुल पागल हो गई। दो पैसे से
दुनिया का सब से बड़ा चर्च बनाना है? उसने कहा, तुम्हें दो पैसे ही दिखाई
पड़ते हैं,
और
पीछे परमात्मा जो मेरे साथ है वह तुम्हें दिखाई नहीं पड़ता। दो पैसे शुरू करने के
लिए काफी हैं। फिर बाकी परमात्मा तो है ही; वह फिक्र लेगा।
लोग तो
हंसे लेकिन चर्च बना। और दुनिया का बड़े से बड़ा चर्च आज वहां खड़ा है। दो पैसे के बल
बना। लेकिन थेरेसा ने जो बात कही, बड़ी प्यारी कही। कि तुम्हें
सिर्फ दो पैसे दिखाई पड़ते है, तुम्हें
मेरे भीतर जो परमात्मा खड़ा है वह दिखाई नहीं पड़ता। मैं उस खजाने की बात कर रही
हूं। यह तो थेरेसा का संबंध हुआ--दो पैसे। यह तो थेरेसा की संपत्ति--दो पैसे। और
फिर परमात्मा,
उसकी
कितनी संपत्ति?
उसे
जोड़ लो। चर्च बनेगा।
कहते
हैं, अबू बकर ने मोहम्मद के
संस्मरणों में लिखा है कि दोनों भागते हुए दुश्मन से बचने के लिए एक गुफा में चले
गए। दुश्मन पीछे आ रहे हैं, अबू
बकर बहुत घबड़ाया हुआ है। घोड़ों की टाप सुनाई पड़ने लगी। टाप करीब आती जाती है। अबू
बकर पसीना-पसीना हो रहा है, मोहम्मद
बड़े शांति से बैठे हैं। आखिर उसने कहा, आप शांत क्यों बैठे हैं? आखिरी घड़ी आई जा रही। कुछ
परमात्मा से प्रार्थना वगैरह करनी हो तो कर लो। अब ज्यादा देर नहीं है। यह श्वास
थोड़ी देर की और है। घोड़ों की टाप बढ़ती जा रही है। दुश्मन करीब आ रहा है। और हम
केवल दो हैं और दुश्मन हजारों हैं।
मोहम्मद
ने कहा,
वहां
तू गलती करता है। हम दो नहीं हैं, हम तीन
हैं, गिनती ठीक से कर। अबू बकर ने
गौर से देखा कि कहीं मैं घबड़ाहट में गिनती तो नहीं भूल गया। देखा तो दो ही हैं।
छोटी सी गुफा में दो बैठे हैं। अबू बकर ने कहा, आप होश में हैं हजरत? डर के मारे कहीं आप घबड़ा तो
नहीं गए हैं?
तीन
गिन रहे हैं दो को? मोहम्मद
ने कहा,
तुम
परमात्मा को गिनते नहीं, जो
हमारे सदा साथ है। हम तीन हैं--दो हम और एक परमात्मा। दुश्मन हजारों हों, कोई फिक्र न कर। उस एक की
मौजूदगी काफी है। और जब मोहम्मद यह बात कर रहे थे तभी आवाज घोड़ों के टाप की कम
होने लगी। ठीक उसी क्षण वे किसी और रास्ते पर मुड़ गए। थोड़ी ही देर में टापो की
आवाज बंद हो गई। दुश्मन कहीं दूर निकल गए।
दांत
रहै हस्ति बिना पौल न टूटे कोए
अकेले
दांत से नहीं टूटता है किले का दरवाजा, पीछे हाथी चाहिए। हाथी भी साधारण नहीं चाहिए, मस्त चाहिए; मतवाला चाहिए शराब में डूबा
चाहिए। नहाया हुआ चाहिए शराब में। रोआं-रोआं शराबी का हो तो टूटता है।
कै कर
धारे कामिनी--
अकेले
हाथी दांत लिए घूमना। यही तो लोग करते हैं जो शास्त्र लिए घूम रहे हैं--अकेले हाथी
दांत। यही तो लोग करते हैं जो सिद्धांतों की चर्चा करते रहते हैं--बिना किसी
स्वानुभव के,
बिना
किसी आत्म-साक्षात्कार के, बिना
परमात्मा से आंख मिलाए जो परमात्मा की बात करते रहते हैं। जिन्होंने समाधि का जरा भी रस नहीं चखा, और समाधि की शास्त्रीय
व्याख्या करते रहते हैं। जो कभी प्रार्थना में नहीं उतरे और प्रार्थना पर शास्त्र
लिखते रहते हैं,
उनसे
सावधान रहना।
कै कर
धारे कामिनी...
वह जो
हाथी दांत लिए हैं, आज
नहीं कल किसी स्त्री के हाथ में या तो आभूषण बन जाएगा।
कै
खेलारा होए--
या
खिलौना बन जाएगा। कोई बच्चा उससे खेलेगा। इससे ज्यादा मूल्य नहीं है। कोरे शब्दों
का कोई भी मूल्य नहीं है।
और
खयाल रखना कि कोरे शब्द भी ठीक वैसे ही दिखाई पड़ते हैं जैसे भरे शब्द। शब्दों में
कोई फर्क नहीं है। हाथी दांत तो वे ही हैं, पीछे हाथी हो कि न हो। अगर तुम हाथी दांत को
ही देखते हो तो क्या फर्क करोगे? दोनों
हालत में हाथी दांत हाथी दांत है। अगर तुम हाथी दांत को ही काटकर रसायनिक परीक्षण
करवाओगे तो दोनों में एक सा ही रसायनिक परीक्षण मिलेगा; कोई फर्क न होगा।
दरिया
बोलते हैं,
कोई
पंडित बोलता हो,
दोनों की
भाषा का अगर जाकर भाषाशास्त्री से विश्लेषण करवाओगे तो वह कहेगा कि दोनों की भाषा
एक ही जैसी है। दोनों एक ही बात कह रहे हैं। एक ही बात नहीं कह रहे हैं; हालांकि एक जैसे ही शब्दों का
उपयोग हो रहा है। बात बड़ी फर्क है। बात बड़ी भिन्न है।
तुम
तोते को रटवा दो तो तोता भी बोल देता है। मगर तोता जब कुछ बोलता है तो सिर्फ दांत।
भीतर कोई हाथी नहीं है। तोते को पता ही नहीं है कि अर्थ भी क्या है। तोता सिर्फ
पुनरुक्त कर देता है। तोता सिर्फ नकल कर रहा है। तोते को हिंदू के घर में होता है
तो लोग सिखा देते;
राम-राम
हरे राम। तो तोता राम-राम हरे राम कहने लगता। इससे यह मत समझना कि तोता हिंदू हो
गया। मुसलमान घर में होता तो अल्लाह-अल्लाह कहता। ईसाई घर में होता तो कुछ और
कहता। जैन घर में होता तो नमोकार मंत्र पढ़ता। यह तोता यही होता। यह तोते को कुछ
लेना-देना नहीं है।
और दुख
की बात तो यह है कि आदमियों में बहुत लोग तोतों की भांति हैं पंडित तो बिलकुल पोपट, तोता। दांत ही भर उसके पास
हैं। उसके दांतों से धोखे में मत आ जाना। दरिया कहते हैं, सदगुरु खोजो जहां मस्ती हो; जहां शब्दों में रसधार बह रही
हो; जहां शब्दों के पीछे निशब्द
खड़ा हो। और ऐसा गुरु मिल जाए तो निःशंक भाव से उससे जुड़ जाना। तो फिर निष्कपट भाव
से उसके साथ एक हो जाना। फिर हिंमत कर लेना। फिर दुस्साहस कर लेना। फिर जोखम उठा
लेना। जोखमियों का धंधा है धर्म। जुआरियों का धंधा है धर्म। यह कमजोरों का, हिसाब-किताब लगाने वालों का, दुकानदार का नहीं है। जो
दो-दो कौड़ी का हिसाब लगाते रहते हैं, वे कभी धार्मिक नहीं हो पाते। जो छलांग
लगाने को राजी है। जो कहते हैं ठीक है, या तो इस पार या उस पार; केवल उनका है।
मेरे
पैरों के निशां अब भी परेशां है यहां
खाक
छानी है इन्हीं राहों की बरसों मैंने
वक्त
आया तो गदागर से भी बदतर निकले
तमकन
देखी थी जिन साहों की बरसों मैंने
बन के
जंजीर गला घोंट रही है मेरा
राह
देखी थी इन्हीं बाहों की बरसों मैंने
इनकी
गरमी से पसीजे न पसीजे वह मगर
आग
तापी है इन्हीं आहों की बरसों मैंने
बन के
जंजीर गला घोंट रही है मेरा
राह
देखी थी इन्हीं बाहों की बरसों मैंने
राह
देखी थी इन्हीं बाहों की बरसों मैंने
जागो
थोड़े। थोड़े समझना शुरू करो। मुर्दा मंदिरों से राह नहीं जाती, कोई जिंदा गुरु चाहिए।
किताबों से मार्ग नहीं मिलता, कोई
धड़कता हुआ हृदय चाहिए।
लेकिन
कुछ कारण है कि हम मुर्दा किताबों से ज्यादा आसानी से संबंध जोड़ लेते हैं। उसका
कारण साफ है। मुर्दा किताब तुम्हें बदलती नहीं; बदल नहीं सकती। वही सुरक्षा है ।रखे बैठे हैं कुरान कि
गुरुग्रंथ कि वेद कि बाइबल। क्या करेगी बाइबल तुम्हारा? दो फूल चढ़ा दिए, वह भी तुम्हारी मस्ती। कभी
चढ़ा दिए,
तो चढ?ा दिए, नहीं चढ़ाए तो नहीं चढ़ाए। क्या
करेगी बाइबल तुम्हारा? फिर
कभी पढ़ ली,
इधर-उधर
ली, फिर जो मतलब निकालना चाहा वह
मतलब निकाल लिया।
तो
किताब तो तुम्हारी गुलाम हो जाती है। किताब तुम्हें क्या बदलेगी! तुम्हीं किताब तो
बदल देते हो। इसलिए किताब की तो पूजा लोग करते हैं। मर गए गुरु की हजारों साल तक
पूजा होती है। बुद्ध को गए ढाई हजार साल हो गए, अब पूजा चलती है। बुद्ध जब जिंदा थे तो यही
लोक उनसे बचकर भागते थे। क्योंकि जिंदा बुद्ध आग हैं। जिंदा बुद्ध के पास जाओगे तो
जलोगे। और जलोगे तो ही निखरोगे भी। जलोगे तो ही तुम्हारा कचरा जलेगा और तुम्हारा
सोना कुंदन बनेगा,
शुद्ध
होगा। इसलिए लोग राख पूजा की करते हैं। आग से बचते हैं, राख की पूजा करते हैं। राख
में खतरा नहीं है,
राख
में बड़ी सुरक्षा है।
कल ही
एक युवक ने मुझे आकर कहा कि मैं जब दूर जर्मनी में होता हूं तो आपकी बड़ी याद आती
है और आप बड़े प्यारे लगते हैं। और चौबीस घंटे आपके ही रस में रहता हूं। और जब यहां
आता हूं तो डर लगने लगता है, भय
लगने लगता है। आपके पास आने से घबड़ाने लगता हूं। हजार-हजार विचार बाधाएं डालने
लगते हैं। तो उसने कहा, मैं
बड़े पसोपेश में हूं। यह बात क्या है? और ऐसा दो चार बार हो गया है। जर्मनी लौट
जाता हूं,
पहुंचते
ही जर्मनी सब ठीक हो जाता है। यहां आया नहीं कि फिर गड़बड़ शुरू हो जाता है।
उसके
पसोपेश को समझो। उसका पसोपेश अधिक लोगों का पसोपेश है। उसकी उलझन अधिक लोगों की
उलझन है। जब वह जर्मनी में है तब कोई अड़चन नहीं है। तब आग से तुम इतने दूर हो कि
अब आग की तस्वीर ही रह गई है तुम्हारे मन में। तस्वीर तुम्हारी है। तुम जैसी चाहो, बना लो। जैसा रंग डालना चाहो
उस तस्वीर में डाल दो। आग की तस्वीर तुम्हें जलाएगी नहीं। आग की तस्वीर के पास
जाने से कौन डरता है? आग की
तस्वीर को तो लोग अपने हृदय में लगा सकते हैं। लेकिन आग के पास जाने से तो डर
लगेगा,
घबड़ाहट
होगी।
तो
मैंने उससे कहा कि यह तो बड़ा सूचक है, यह तो बात साफ है। जब तू दूर होता है तो
मेरे वचनों का जो तुझे अर्थ करना है कर लेता होगा; तब मैं तेरे हाथ में हूं। जब
तू मेरे पास आता है तो तू मेरे पास में है और अड़चन है।
इसलिए
मुर्दा गुरुओं की प्रतिष्ठा चलती है, पूजा चलती है। जिंदा गुरु का तिरस्कार, निंदा, विरोध। मुर्दा गुरु का
सम्मान। और ये सब मुर्दा गुरु किसी दिन जिंदा थे, तब तुमने इनके साथ भी यहीं
व्यवहार किया।
मतवादी
जाने नहीं ततवादी की बात
सूरज
ऊगा उल्लुआ गिने अंधेरी रात
प्यारा
वचन है।
मतवादी
जाने नहीं ततवादी की बात मतवाद का अर्थ होता है, सिद्धांत की पकड़। मतवाद का
अर्थ होता है,
बिना
अनुभव के शब्दों का आग्रह--मेरी कुरान ठीक कि मेरी गीता ठीक। और तुम्हें ठीक का
कुछ पता नहीं है। ठीक का तुम्हें कभी दर्शन नहीं हुआ। ठीक का दर्शन हो सके इसके
लिए तुमने कभी आंख ही नहीं खोली। ठीक से संबंध जुड़ सके इतनी तुमने कभी हिंमत ही
नहीं की। और मेरी कुरान ठीक, और
मेरी गीता ठीक,
और तुम
लड़ रहे हो और विवाद कर रहे हो--मतवादी! मतवाद से सावधान रहना। जंजीर बन जाएगी
तुम्हारी।
हिंदू, मुसलमान, ईसाई, सिक्ख, जैन, बौद्ध सब जंजीरों में ग्रसित
हैं। अलग अलग नाम हैं जंजीरों के, मगर
जंजीरें जंजीरें ही हैं। अगर तुम हिंदू हो तो मुसलमान की मस्जिद में जाने में
तुम्हें पता चलेगा कि जंजीर है पैर में। अगर जंजीर की परख करनी हो, हिंदू हो, जरा मुसलमान की मस्जिद में
जाने की कोशिश करना, तुम
अचानक पाओगे,
पैर
रुकते हैं,
कोई
चीज पीछे रोकती है। यह कौन चीज रोकती होगी? दिखाई तो नहीं पड़ती है। पैर में एक सूक्ष्म
जंजीर पड़ी है,
वह
मस्जिद में नहीं जाने देती है। मंदिर में खींच
लेती है,
मस्जिद
में रोकती है। अगर किसी तरह हिंमत करके चले भी गए तो मस्जिद में हाथ झुकने, सिर झुकने ही इच्छा पैदा नहीं
होगी। अकड़े रह जाओगे। पीठ झुकेगी नहीं, सिर झुकेगा नहीं। कौन रोक रहा है? एक जंजीर पड़ी है, जो बड़ी अदृश्य है।
मुसलमान
फकीर के सामने तुम जाकर उसके चरणों में सिर न रख सकोगे। मुसलमान--और उसके चरणों से
रखें? और तुम ब्राह्मण या तुम जैन।
और तुम शुद्ध शाकाहारी और यह मांसाहारी! इसके चरणों में सिर रखें! यह म्लेच्छ, तुम शुद्ध--इसके चरणों में
सिर रखें?
कोई
चीज रोक लेगी। और यह सामने जो आदमी खड़ा है, हो सकता है एक जाग्रत पुरुष तुम्हें दिखाई
नहीं पड़ सकता क्योंकि तुम्हें और चीजों का निर्णय करना है पहले। अगर तुम जैन हो तो एक पाखंडी जैन मुनि
के चरणों में भी तुम सिर झुका दोगे और एक असली मुसलमान फकीर के चरणों में भी सिर
झुका न पाओगे। इससे पता चलता है जंजीर का। और यही हालत मुसलमान की है। वह पाखंडी
फकीर के पैरों में सिर झुका देगा, मदारी
के चरणों में सिर झुका देगा, और
किसी जैन मुनि के,
जहां
जीवन की सचमुच तपश्चर्या प्रगट हुई हो, जहां जलती आग हो, वहां अटका रह जाएगा। वहां
अचानक पाएगा कि सब उत्साह खो गया। वहां झुकने की इच्छा नहीं होती। यह तुम्हारी
इच्छा है या तुम्हारी जंजीरों की इच्छा है? यह तुम स्वतंत्र हो, तुम सोचते हो तुम मुक्त हो? तो अगर तुम मुक्त होते हो जो
था, उसे देखते।
महावीर
को हिंदुओं ने नहीं देखा। महावीर चले इसी जमीन पर, हिंदुओं ने नहीं देखा।
हिंदुओं की किताबों में महावीर का उल्लेख भी नहीं है। इतना अपूर्व पुरुष हुआ उसका
उल्लेख भी नहीं हिंदुओं की किताबों में; बात क्या है? ऐसी उपेक्षा की? ऐसी पीठ कर ली इसकी तरफ, इस आदमी तरफ!
जैनों
के कृष्ण को नरक में डाल रखा है अपनी किताबों में। क्योंकि जैनों के हिसाब से इसी
आदमी ने युद्ध करवा दिया महाभारत का। अर्जुन तो संन्यासी हुआ जा रहा था। अर्जुन तो
जैन मुनि होने की तैयारी कर रहा था। वह तो कहता था चला मैं छोड़कर। यह हिंसा करने
की, यह मारना अपने लोगों को, यह मुझसे न हो सकेगा। तो
कृष्ण ने उसको समझा-बुझाकर घोंट-घोंट कर गीता पिला दी। और वह बेचारा बहुत भागा, बहुत भागा, मगर ये भागने नहीं दिए और
किसी तरह उसको हिंसा में उतार दिया। लाखों लोग मारे गए, हिंसा हुई। उसका जिम्मा किस
पर है?
तो
जैनों ने कृष्ण को सातवें नर्क में डाला है। उससे नीचे कोई नरक नहीं है तो सातवें
में डाल दिया। और थोड़े-बहुत दिन के लिए
नहीं डाला,
काफी
लंबे काल के लिए डाला है। जब यह सृष्टि नष्ट होगी तब छूटेंगे। तब तक तो उनको नर्क
में रहना पड़ेगा।
मतवादी
तो कृष्ण जैसी चेतना को भी न देख पाएगा, महावीर जैसी चेतना को भी न देख पाएगा।
क्राइस्ट को यहूदियों ने सूली पर चढ़ा दिया। यहूदी बेटा था, यहूदी घर में पैदा हुआ था, लेकिन कुछ ऐसी अनूठी बातें
कहने लगा जो कि पंडितों को न जमीं। जो रबाई थे उनको न जमीं। उनके आसन डावांडोल
होने लगे। इसको फांसी देनी पड़ी। इसको सूली लगानी पड़ी। यहूदी बेटे को यहूदी बापों
ने मारा। यह बेटे की हत्या की। इसकी कोई ज्यादा उम्र भी न थी, तैंतीस साल की उम्र में जीसस
को सूली पर लटका दिया। आग बड़ी प्रचंड रही होगी। घबड़ा गई होगी सारी की सारी
व्यवस्था,
स्थापित
निहित स्वार्थ।
मतवादी
जाने नहीं ततवादी की बात
दरिया
कहते हैं,
मतवादी
मत बन जाना;
नहीं
तो तुम तत्व जिसने जाना है, उसकी
बात न समझ पाओगे। तत्व को जाननेवाला सिद्धांतों की बात नहीं करता। तत्व को जाननेवाला अनुभव को बात करता है, साक्षात्कार की बात करता है।
तत्व को जाननेवाले को छोटी-छोटी भाषाओं के झगड़ों में रस नहीं होता। मान्यताओं, सिद्धांतों, शास्त्रों में रस नहीं होता।
तत्ववादी को तो सिर्फ एक बात में रस होता है: जो है, उनको तुम जान लो। जो है, जैसा है, वैसा ही उसको जान लो। आदमी के
द्वारा बनाए गए दर्शनशास्त्र किसी मूल्य के नहीं है। तुम्हारी आंख सभी
दर्शनशास्त्रों से मुक्त होनी चाहिए।
रंजी
सास्तर ग्यान की अंग रही लिपटाए
दरिया
कहते हैं,
अंग पर
बड़ी धूल जम गई है शास्त्र की, ज्ञान
की--सास्तर ग्यान की। कोई गुरु खोजो कि उसे धो दे। कोई गुरु खोजो कि उसकी अमृत
वर्षा में तुम्हारी धूल बह जाए। सदगुरु गहो, जो तुम्हें शास्त्रों की धूल से मुक्त करा
दे; शब्दों के आग्रह से मुक्त करा
दे; तुम्हारी आंखों को निर्मल कर
दे, दर्पण की तरह निर्मल--कि जो
है, उसी का प्रतिबिंब बनने लगे।
मतवादी
जाने नहीं ततवादी की बात
तो अगर
तुम मतवाद लेकर गुरु के पास गए तो तुम समझ ही न पाओगे, क्योंकि वहीं से झंझट शुरू हो गई। वह है तत्व को जाननेवाला और
तुम हो केवल सिद्धांत को बकवास में लगे हुए।
मैं एक
गांव में गया,
दो
बूढ़े मेरे पास आए। दोनों पड़ोसी हैं। एक जैन है, एक ब्राह्मण है। दोनों ने मुझसे कहा कि आप आ
गए, तो अच्छा हुआ। एक बात हमें
पूछनी है। हम दोनों बचपन के साथी हैं। उनकी उम्र होगी कोई सत्तर पचहत्तर साल अब
तो। और बचपन से ही हममें विवाद है और हम पड़ोसी भी हैं। हम सिर लड़ा-लड़ाकर हार गए।
मैं जैन हूं और यह ब्राह्मण। ये कहते हैं दुनिया को परमात्मा ने बनाया, और मैं कहता हूं किसी ने नहीं
बनाया। कोई स्रष्टा नहीं है। यह तो अनादि काल से चली आ रही है। इसका बनानेवाला कोई
है ही नहीं। हम थक गए हैं इसमें विवाद कर-करके, और पास ही रहते हैं। फिर सुबह मिल जाते हैं, फिर सांझ मिल जाते हैं। अ तो
दोनों रिटायर भी हो गए हैं तो कोई काम ही नहीं है। तो हम बहुत परेशान हो गए हैं।
और इसमें कुछ हल भी नहीं होता। यह भी तर्क करने में बहुत कुशल है, मैं भी बहुत कुशल हूं। मैं भी
शास्त्रों का उल्लेख देता हूं, यह भी
उल्लेख देता है। हमारे घरवाले भी परेशान हो गए हैं। जैसे ही हम दोनों बैठते हैं कि
सब लोग हट जाते हैं वहां से, कि अब
इनकी फिर बकवास शुरू हुई। और हम बैठे नहीं पास कि वह झंझट खड़ी हो जाती है। आपके
पास हम आए हैं,
तय
करने कि इन दोनों में कौन ठीक है?
मैंने
उनसे कहा,
अगर
तुम मेरी सुनो तो तुम दोनों गलत हो। कहने लगे, यह कैसे हो सकता है? दो मैं से कोई एक तो ठीक होगा
ही। सीधी बात है--या तो किसी ने बनाया, या नहीं बनाया। अब इसमें दोनों कैसे गलत हो
सकते हैं?
मैंने
कहा, तुम मेरी बात समझो। तुम दोनों
गलत हो,
क्योंकि
तुम दोनों मतवादी हो। मैं यह नहीं कहा रहा कि तुम्हारा सिद्धांत ठीक, उनका सिद्धांत ठीक। तुम्हारा
सिद्धांत गलत,
या
उनका सिद्धांत गलत। यह मैं कह ही नहीं रहा। सिद्धांत से मुझे कुछ लेना-देना ही
नहीं है,
मतवाद
गलत। तुम दोनों गलत हो। क्योंकि न तुमने तत्व का दर्शन किया है, न उन्होंने तत्व का दर्शन
किया। तुम विवाद किस बात का कर रहे हो? तुमने देखा? पहले ने कहा, देखा तो नहीं। दूसरे से पूछा, तुमने देखा? उन्होंने कहा, यह तो नहीं कह सकता कि देखा, अब आपके सामने झूठ कैसे बोलना? देखा तो नहीं। मैंने कहा, दो अंधे विवाद कर रहे हैं कि
प्रकाश कैसा होता है।
रामकृष्ण
कहते थे एक कहानी,
वह
मैंने उनसे कही। कि एक अंधे आदमी को मित्रों ने घर बुलाया, निमंत्रण दिया और खीर बनाई।
उसे खीर खूब पसंद आई। पहली दफा खीर उसने खाई। गरीब अंधा था, कभी खीर खाई न थी। वह पूछने
लगा, यह खीर कैसी! बड़ी प्यासी लगती
है, इसके संबंध में मुझे कुछ समझाओ। तो पास में बैठे एक पंडित ने--गांव
का ही पंडित था--उसने कहा, खीर
कैसी? खीर बिलकुल सफेद है, शुभ्र श्वेत वस्त्र जैसी।
उसने कहा,
अब
उलझन मत बनाओ। मैं अंधा हूं। सफेद यानी क्या? पंडित तो पंडित। पंडित कोई ऐसे हारते तो नहीं।
पंडित ने कहा,
सफेद
यानी क्या?
अरे, बगुला देखा कभी? बिलकुल बगुले की जैसी सफेद।
अब यह पंडित इस अंधे से भी ज्यादा अंधा है। तुम अंधे आदमी को समझाने चले कि खीर
सफेद, सफेद कपड़ों जैसी। अब सफेद की
झंझट उठी तो बगुले जैसी सफेद। उस अंधे ने कहा कि आप तो मुझे और उलझाए जा रहे हैं।
एक प्रश्न तो वही खड़ा है, और दो
खड़े कर दिए। यह सफेद क्या? यह
बगुला क्या?
यह
बगुला कैसा होता है?
मगर
पंडित भी पंडित था। मतवादी हारने नहीं, एक मत से दूसरा मत निकालते जाते हैं। उसने
कहा, बगुला कैसा, यह भी एक झंझट है। उसने कहा, अच्छा देख। यह मेरा हाथ, इस पर हाथ रख। उसने बगुले की
तरह का हाथ अपना मोड़ लिया, जैसे
बगुले की गरदन मुड़ी हो। कहा, इसमें
हाथ फेर। ऐसी बगुले की गरदन होती है। अंधा बड़ा प्रसन्न हो गया। उसने कहा कि मैं
समझ गया,
खीर
मुड़े हुए हाथ जैसी होती है। अब समझ आई बात।
मतवाद
ऐसा ही है;
जिसका
हमें कोई अनुभव नहीं है, जिसका
हमें अनुभव हो नहीं सकता क्योंकि हमारे अनुभव के द्वार अवरुद्ध हैं।
उन
दोनों को समझाने में मुझे बड़ी कठिनाई पड़ी कि तुम दोनों गलत हो। वे बार-बार यही
कहने लगे लौटकर कि एक होगा गलत, मगर
दोनों?
वे
कहने लगे,
आपने
और झंझट कर दी। अभी तक तो हम लोगों को एक ही झंझट थी, कि एक गलत होगा, एक तो सही होगा। कभी न कभी
निर्णय हो जाएगा। आप कहते हैं, दोनों
गलत।
मतवाद
गलत है। अगर तुम ईसाई हो मतवादी की तरह तो तुम गलत। अगर हिंदू हो मतवादी की तरह, तुम गलत। अगर मुसलमान हो
मतवादी की तरह,
तुम
गलत। तत्ववादी बनो। दरिया बड़ी ऊंची बात कह रहे हैं। दरिया कह रहे हैं, जो है उसको देखो; उसको अनुभव करो, उसकी प्रतीति करो।
आरजू ए
जां निसारी वो हमारे दिल में है
क्या
करें लेकिन कि खंजर, कबजा-ए-कातिल
में है
अब न
बहलेगा चमन में तेरे दीवाने का दिल
फिर
हवस आवारगी की आज इसके दिल में है
इससे
क्या मतलब कि मैं गुलशन में हूं या सहरा में हूं
आप जिस
महफिल में हैं दिल मेरा उस महफिल में है
तह में
है दबहरे मुहब्बत कि वह गोहर और तू
यह
समझाता है कि शायद दामने साहिल में है
सादगी
कहिए इसे या होशियारी जानिए
उनसे
कह देते हैं जो कुछ हमारे दिल में है
जुस्तजू
में जिसकी हरेक राह रो हैरान है
अश्क
की मंजिल है वह और अश्क उस मंजिल में है
फेंक
दे चाहे हवादिश राह से हर बार दूर
जाएगी
मंजिल कहां जब जिंदगी मंजिल में है
समझो।
सत्य दूर नहीं है। सत्य बिलकुल आंख के सामने है। सामने ही क्यों, सत्य आंख में है। आंख में ही
क्यों,
सत्य
आंख के पीछे भी है। सत्य ही है। जो है उसी का नाम सत्य है।
फेंक
दे चाहे हवादिश राह से हर बार दूर
दुर्घटनाएं
घट जाएं और हम राह से भटक जाएं, फिर भी
कोई फर्क नहीं पड़ता। हम कितने ही सत्य को भूल जाएं, कुछ अंतर नहीं पड़ता।
फेंक
दे चाहे हवादिश राह से हर बार दूर
जाएगी
मंजिल कहां जब जिंदगी मंजिल में है
परमात्मा
दूर नहीं है। दूर जा भी नहीं सकते हम उससे। जरा आंख खोलकर देख लेने की बात है।
जाएगी
मंजिल कहां जब जिंदगी मंजिल में है
भटक
रहे हैं हम तो भी परमात्मा में ही भटक रहे हैं। आंख बंद किए खड़े हैं तो भी सत्य के
सामने ही आंख बंद किए खड़े हैं। लेकिन सत्य से हम दूर नहीं हो सकते।
मतवाद
आंख को बंद रखने में सहायता पहुंचाता है। मतवाद से एक भ्रांति पैदा होती है कि
मुझे तो पता है। बस यही सबसे बड़ी भ्रांति है, जो मतवाद पैदा करता है। पढ़ ली किताब, पढ़ा शास्त्र, सिद्धांत समझे, तर्क सीखा और तुम्हें एक
भ्रांति पैदा होती है कि मुझे पता है। और पता जरा भी नहीं। और ऐसा भी नहीं है कि
जिसका तुम पता बताने की बात कर रहे हो, वह दूर है। ऐसा भी नहीं है, वह तुम्हारे सामने खड़ा है।
लेकिन अगर तुम्हारी आंखें सिद्धांत और शब्दों से दबी हैं, तो तुम न देख पाओगे।
तह में
है दबहरे मुहब्बत कि वह गोहर और तू
यह
समझता है कि शायद दामने साहिल में है
मन यही
समझाए चला जाता है कि किनारे पर ही मिलन हो जाएगा, तट पर ही मिलना हो जाएगा।
शब्दों और सिद्धांतों के तट पर ही मिलना हो जाएगा। ऊपर-ऊपर की खोज, सतह-सतह पर तैरना इससे ही
मिलना हो जाएगा।
तह में
है दबहरे मुहब्बत की वह गोहर और तू
लेकिन
जिनको हीरे खोजने हैं, जिन्हें
मोती खोजने हैं उन्हें सागर की गहराई में उतरना पड़ता है। और मतवाद किनारे से अटका
रहा जाता है।
मतवादी
की हालत ऐसी है,
जैसे
एक रात कुछ शराबियों की हो गई थी। रात खूब शराब पी मधुशाला में। चांदनी रात थी, पूरा चांद आकाश में था, फिर उनको धन आई, मस्ती आई कि चलो नदी पर चलें, नौका-विहार करें। गए नदी पर।
मछुए जा चुके थे अपनी नौकाएं, बांधकर।
एक नौका में उतर गए, और
चले। पटवारी मारी,
खूब
पतवार मारी,
खूब
मारी। रातभर पतवार चलाते रहे। सुबह-सुबह जब ठंडी हवाएं आने लगीं और जब थोड़ा होश
लौटा, थोड़ा नशा उतरा तो उनमें से एक शराबी ने कहा, भाई, जरा नीचे उतरकर देख लो। हम
कहां चले आए,
पता
नहीं। उतर कि दक्षिण, ऊपर के
नीचे, कहां यात्रा हो गई? जरा किनारे पर उतरकर तो देख
लो, कितनी दूर निकल आए हो। अब घर
लौटें। सुबह होने लगी। पत्नियां बच्चे राह देखते होंगे।
तो
उनमें से एक किनारे पर उतरा और खूब हंसने लगा। पागल की तरह हंसने लगा। तो बाकी ने
कहा, क्यों हंसते हो, बात क्या है? उसने कहा, हम वहीं के वहीं खड़े हैं।
क्योंकि हम जंजीर तो खोलना भूल ही गए, जो किनारे से बंधी है। पतवार चलाने से ही
थोड़े ही कहीं कोई जाता है! जंजीर भी तो खुलनी चाहिए। उसने कहा, मत घबड़ाओ, उतर जाओ, घर चलें। रात भर नाहक ही
मेहनत हुई। बड़ी पतवार मारी।
ऐसा ही
मतवादी बड़ा विचार करता है, बड़ी
पतवार मारता है,
लेकिन
जब आंख खुलेगी तो तुम पाओगे कि जंजीर तो खोलना भूल ही गए। जंजीर ही तो विचार की
है। जब तक विचार है तुम्हारे भीतर तब तक तत्व का दर्शन न होगा। निर्विचार चित्त
में तत्व का दर्शन होता है।
इससे
क्या मतलब कि मैं गुलशन में हूं या सहरा में हूं
आप जिस
महफिल में हैं दिल मेरा उस महफिल में है
तो
हिंदू,
मुसलमान, ईसाई, जैन, बौद्ध, सिक्ख होने की चेष्टा छोड़ो।
यह पूरी महफिल उसकी है। यह सारा अस्तित्व उसका है। तुम उसके ही हो रहो।
आप जिस
महफिल में हैं दिल मेरा उस महफिल में है
परमात्मा
जहां जीता और जागता है--वृक्षों में हरा है, फलों में लाल है, बादलों में बादल है, पक्षियों में पक्षी है, पत्थरों में पत्थर है, नदियों में नदी, यह उसकी महफिल है। आदमियों
में आदमी,
स्त्रियों
में स्त्री,
बच्चों
में बच्चा,
यह
उसकी महफिल है। ये सारी लहरें उसकी हैं। तुम इसमें अपनी सी सीमाएं न बांधो। सीमाएं
बांधीं तो अनहद तक कैसे जाओगे? हद बना
ली तो अनहद तक कैसे जाओगे? हद बना
ली तो नौका बंधी रह गई किनारे से।
मतवादी
जाने नहीं ततवादी की बात
सूरज
ऊगा उल्लुआ गिने अंधेरी रात
सूरज
उग आता है तब उल्लू को लगता है, अंधेरी
रात आ गई। ऐसी हालत मतवादी की है।
ऐसा हुआ एक दिन। यह पास के गुलमोहर पर मैंने एक
उल्लू को सुबह-सुबह आकर बैठे देखा। सुबह होने के करीब है, उल्लू आकर बैठ ही रहा है और
एक गिलहरी भी वहां बैठी है। गिलहरी बड़ी प्रसन्न है, ताजगी से भरी है सुबह की।
उल्लू ने उससे पूछ कि बेटी, रात
हुई जाती है,
विश्राम
करने के लिए यह स्थान ठीक रहेगा? गिलहरी
ने कहा,
चाचा, आप भी क्या बातें कर रहे हैं।
रात? अरे सूरज निकल रहा है। उल्लू
नाराज हो गया। उल्लू ने कहा, छोटे
मुंह और बड़ी बात! रात है। कौन कहता है सूरज निकल रहा है? सूरज तो ढल गया।
उल्लू
को तो रात में दिखाई पड़ता है। जब उसे दिखाई पड़ता है तो स्वभावतः उसका तर्क है कि
तभी दिन। जब दिखाई पड़े तक दिन। जब दिखाई न पड़े तो रात।
मतवादी
को शब्द और विचार और सिद्धांत में ही दिखाई पड़ता है; उसे इसी में रस है। वेद क्या
कहते हैं,
कुरान
क्या कहती है,
बाइबल
क्या कहती है। वह इन्हीं की उधेड़बुन में लगा रहता है। यह उसका दिन है। मतवादी का
जो दिन है वह तत्ववादी की रात है। और तत्ववादी का जो दिन है वह मतवादी की रात है।
सूरज
ऊगा उल्लुआ गिने अंधेरी रात
इसीलिए
संतों से अगर पंडित नाराज रहे तो कुछ आश्चर्य नहीं क्योंकि पंडित को संत कहते हैं
उल्लुआ।
सूरज
ऊगा उल्लुआ गिने अंधेरी रात
अगर
उल्लू मिलकर फिर फांसी लगा दें तो राजी रहना चाहिए। उल्लू मिलकर नहीं लगाएंगे तो
करेंगे क्या?
सब
उल्लू एथेंस के इकट्ठे हो गए और उन्होंने सुकरात को जहर पिला दिया। ऐसा तत्ववादी
कभी-कभी पैदा होता है। सुकरात जैसा, लेकिन उल्लुओं की जमात। गिलहरी अकेली पड़ गई।
और उल्लुओं की जमात...!
सीखत
ग्यानी ग्यान गम करे ब्रह्म की बात
दरिया
बाहर चांदनी भीतर काली रात
सीखत
ग्यानी गम--तुम्हारे सिद्धांतों की सीमा है: गम; अगम नहीं हैं वे, उनकी परिभाषा है। सीखत ग्यानी
ग्यान गम--तुम जिस ज्ञानी का चर्चा कर रहे हो, जिन मतवादों की बात कर रहे हो वह सब सीमित
है। अगम में उनकी कोई गति नहीं है। उस विराट में उन सिद्धांतों के सहारे तुम न जा
सकोगे। उस विराट में तो जाना ही जिसको हो उसे सब सिद्धांत छोड़ देने पड़ते हैं; पीछे छोड़े देने पड़ते हैं।
सीखत
ग्यानी ग्यान गम करे ब्रह्म की बात
सिद्धांत
तो सीमित हैं और असीम की बातें करते हैं?
दरिया
बाहर चांदनी भीतर काली रात
तो फिर
बात ही बात रह जाती है। ऊपर-ऊपर चांदनी और भीतर अंधेरी रात। पंडित के भीतर तुम अमावस पाओगे। गहन
अमावस। गहन अंधेरा। कभी-कभी तो अज्ञानी से भी ज्यादा अंधेरा। पंडित के भीतर होता
है। क्योंकि अज्ञानी को कम से कम एक बात तो रहती है कि उसे पता होता है कि मुझे
पता नहीं। इतना तो सत्य होता है उसके संबंध में। इतनी बात तो सच है उसके संबंध में
कि उसे पता है,
मुझे
पता नहीं। और पंडित को पता है कि मुझे पता है, और पता जरा भी नहीं। पंडित की हालत अज्ञानी
से भी बदतर है। अज्ञानी तो कभी-कभी पहुंच भी जाए, पंडित कभी नहीं पहुंच पाता
है। पंडित को अज्ञानी होना पड़ेगा। उतार देना होगा सारा बोझ।
दरिया
बहु बकवाद तज कर अनहद से नेह
ये
हदों की बातें छोड़ो। हिंदू मुसलमानों की बातें छोड़ो।
दरिया
बहु बकवाद तज...
यह
व्यर्थ की बातें छोड़ो।
...कर अनहद से नेह
जो
असीम है,
जो
अनंत है,
जो
शाश्वत सनातन है,
उससे
जुड़ो। किताबें पैदा होती हैं, खो
जाती हैं। सिद्धांत बनते, बिखर
जाते हैं। तुम उसे खोजो जो न कभी बनता, न कभी बिखरता; जो सदा है।
औंधा
कलसा उपरे,
कहा
बरसावे मेह
और
गुरु भी क्या करे! गुरु भी गया, जैसे
कि मेह से भरा हुआ बादल होता है, जैसे
आषाढ़ में बादल उठते हैं, राजी
होते हैं बरसने को। तो गुरु तो मेह से भर गया तत्व के, बरसने को तैयार है। लेकिन
गुरु भी क्या करे?
अगर
तुम अपना कलसा उलटा रखे बैठे हो, अपना
घड़ा उलटा रखे बैठे हो, गुरु
बरसे भी तो व्यर्थ चला जाएगा।
औंधा
कलसा ऊपरे,
कहा
बरसाबे मेह
इसलिए
सदगुरु पंडितों को जरा भी ध्यान नहीं देते।
गुरजिएफ
के पास आस्पेंस्की गया, आस्पेंस्की
बड़ा पंडित था। गुरजिएफ ने कहा तू आया, ठीक; मगर एक बार पहले ही साफ कर ले। यह कागज ले, इस पर लिख एक तरफ जो तू जानता
है, और एक तरफ जो तू नहीं जानता
है। जो तू जानता उसकी हम फिर कभी चर्चा न करेंगे। बात ही खतम हो गई। तू जानता ही
है। जो तू नहीं जानता उसकी चर्चा करेंगे क्योंकि जो तू नहीं जानता वह तुझे सिखाने
जैसा है। जो पास के कमरे में, लिख
लो। आस्पेंस्की बड़ी प्रसिद्ध किताबों का लेखक था। उसकी एक किताब तो मनुष्य जाति के
इतिहास में अपूर्व किताबों में गिनी जाती है: तर्तियम आरगानम।
कहते
हैं, दुनिया में तीन बड़ी किताबें
हैं। एक किताब है अरस्तू की, उसका
नाम है आरगानम: सिद्धांत। दूसरी किताब है बेकन की, उसका नाम है नोदन आरगानम: नया
सिद्धांत। और तीसरी किताब है आस्पेंस्की की, तर्तियम आरगानम: तीसरा सिद्धांत। आस्पेंस्की
यह किताब लिख चुका था, जगत-जाहिर
था। गुरजिएफ को कोई जानता ही नहीं था। गुरजिएफ को लोगों ने जाना आस्पेंस्की के आने
के बाद। गुरजिएफ तो अनजान फकीर था। लेकिन गुरजिएफ ने आस्पेंस्की को दिक्कत में डाल
दिया। मतवादी को तत्ववादी ने बड़ी दिक्कत
में डाल दिया। वह कागज दे दिया, कहा, बगल के कमरे में चले जाओ।
मगर
आस्पेंस्की भी निष्ठावान आदमी था, ईमानदार
आदमी था। सोचने लगा, क्या
मैं जानता हूं। ठंडी रात थी, बाहर
बर्फ गिर रही थी,
उसे
पसीना आने लगा। पहली दफा उसकी जिंदगी में यह सवाल उठा, कि मैं सच में जानता क्या हूं? कलम हाथ में कंपने लगी। लिखने
बैठता है लेकिन कुछ लिखा नहीं जाता। क्या कहूं कि क्या जानता हूं? और तब धीरे-धीरे बात उसे साफ
हुई कि जानता तो मैं कुछ भी नहीं। लिखा तो मैंने बहुत, बिना जाने लिखा है। न मुझे
ईश्वर का पता है और ईश्वर की मैंने खूब चर्चा की। न मुझे आत्मा का पता है और आत्मा
की मैंने खूब चर्चा की।
सच तो
यह है कि चर्चा करना आसान है, जब
तुम्हें पता न हो। पता हो तब चर्चा करना मुश्किल हो जाता है। क्योंकि जब पता होता है तब यह भी पता होता है कि
शब्द में उसकी चर्चा बड़ी मुश्किल है, असंभव है। बांधे नहीं बंधती, छूट-छूट जाता है; बिखर-बिखर जाती है। सत्य तो
ऐसा है जैसे कि पाया-- पकड़ो कि बिखर-बिखर जाता है; पारे जैसा है।
घड़ी
बीती, दो घड़ी बीती, गुरजिएफ ने आवाज दी कि भई, इतनी देर कर रहा है तू। इतना
बड़ा ज्ञानी! जल्दी कर, लिखकर
ला। आस्पेंस्की आया, चरणों
पर गिर पड़ा। कोरा कागज रख दिया और कहा कि दोनों तरफ कोरा है। कुछ भी नहीं जानता
हूं। आप अ,
ब, स, से शुरू करें।
ऐसा जब
गुरु मिलता है,
और ऐसे
गुरु को जब ऐसे शिष्य मिलता है, जो
अपना कलसा सीधा करके रख देता है। कहता है, अ, ब, स से शुरू करें। कुछ जानता हूं अगर यह दंभ
होता तो यह कलसा अभी भी उलटा रहता। दंभ का कलसा उलटा रहता है।
औंधा
कलसा ऊपरे कहा बरसावे मेह
तो
गुरु भी मिल जाए तो बेकार चली जाएगी बात। एक तो मिलना कठिन, मिल भी जाए तो बेकार चली
जाएगी,
अगर
तुम मतवादी हो तो।
जन
दरिया उपदेश दे भीतर प्रेम सुधीर
सदगुरु
तो उसी को उपदेश देता है जो भीतर प्रेम से लेने को तैयार हो।
जन
दरिया उपदेश दे भीतर प्रेम सुधीर
जहां
अनंत प्रेम भीतर लेने को, ग्रहण
करने को राजी हो;
जहां
ग्राहकता हो,
जहां
पी जाने की तत्परता हो। शिष्य तो ऐसा चाहिए जैसे स्पंज। इधर गुरु से बहे कि वह पी
जाए, सीख लो। जैसे स्याही सीख। इधर
बूंद टपके नहीं कि वहां पी जाए।
शिष्य
तो स्त्रैण होता,
स्त्रैण
ही हो सकता है। जैसे स्त्री गर्भ को ग्रहण कर लेती है, फिर उसके जीवन, एक नए जीवन का जन्म उसके भीतर
होता है।
जन
दरिया उपदेश दे भीतर प्रेम सुधीर
ग्राहक
हो कोई हींग का कहा दिखावे हीर
और
हींग खरीदने जो आए हो, उनको
हीरे बताओ इससे तो कुछ सार नहीं; इसमें
तो कुछ अर्थ नहीं। जो हींग खरीदने आया हो उसे हीरा बताओ तो नाराज हो जाएगा। उसे
हींग चाहिए,
उसे
हीरा नहीं चाहिए।
तो
सदगुरु तो तभी तुम्हें दे सकता है, जब तुम लेने आए हो। जब तुम हीरा खरीदने ही
आओ तभी हीरा दिया जा सकता है।
मुझसे
लोग पूछते हैं कि यहां सभी क्यों नहीं आने दिया जाता? यहां रुकावट क्यों है? यहां हींग नहीं बेची जाती। जो
हीरा लेने आया हो और जो कसौटी देता हो कि
हीरा ले सकता है,
उसके
लिए जगह है। यहां कुछ भीड़-भड़क्का नहीं करना है। कोई बाजार नहीं भरना है।
बहुत
दिन तक मैं हजारों लोगों में बोलता था, लाखों लोगों में बोलता था। फिर मैंने देखा
कि वे सब हीरे लेने वाले लोग नहीं हैं, हींग खरीदने वाले लोग हैं। उनसे मैं हीरे की
बातें किए जा रहा हूं। सिर मारा-मारी होती, कुछ अर्थ नहीं है। सुन भी लेते हैं तो
ज्यादा से ज्यादा मनोरंजन है। जीवन को दांव पर लगाने की साहस और हिंमत है ही नहीं।
कुतूहल से आ गए हैं। न जिज्ञासा है, मुमुक्षा तो बहुत दूर, कुतूहलवश आ गए हैं कि देखें
क्या कहते हैं। कि शायद मतलब की बात मिल जाए। ऐसे ही चले आए हैं। नहीं गए सिनेमा, यहां आ गए। कि बैठकर गपशप
करते, कि शतरंज खेलते, चलो सोचा कि आज वहीं बैठेंगे।
चलो आज वहीं सुनेंगे। लाखों लोगों के बीच रहकर मुझे यह पता चला कि शायद थोड़े से ही
लोग हीरे की तलाश में हैं। इसलिए उनके लिए ही निमंत्रण है, जो हीरे की खोज को तैयार हों।
जन
जरिया उपदेश दे भीतर प्रेम सुधीर
ग्राहक
हो कोई हींग का कहां दिखावे हीर
दरिया
गैल जगत को क्या कीजै सुलझाए
और यह
पागल दुनिया को,
पूरी
पागल दुनिया को समझा-सुलझाने से भी क्या होनेवाला है? यह कोई सुलझनेवाली भी नहीं, समझनेवाली भी नहीं।
दरिया
गैला जगत को--पागल जगत को--क्या कीजै सुलझाए
सुलझाए
सुलझे नहीं सुलझ सुलझ उलझाए
इसको
जितना सुलझाने की कोशिश करो, यह और
उलझ जाता है। इसको सुलझाने के लिए जो बातें बताओ उनमें ही उलझ जाता है। इससे कहो, यह बात तुम्हें बाहर ले आएगी; वह बाहर तो नहीं लाती, यह उसी बात को विचार करने
लगता है,
मतवाद
बना लेता है।
इसी
तरह तो उलझा। मोहम्मत ने तो बात मतलब की कही थी; मुसलमान बनाने को न कही थी।
महावीर ने तो बात सुलझने को कही थी; जैन बनाने को न कही थी। बुद्ध ने तो बात
बाहर निकल आने को कही थी, संप्रदाय
खड़ा कर लेने को न कही थी। लेकिन हुआ यह। बुद्ध ने कहा है, मेरी मूर्ति मत बनाना और
बुद्ध की सब से ज्यादा मूर्तियां बनी हैं दुनिया में। अब यह बड़े मजे बात है। इतनी
मूर्तियां बनीं की कि उर्दू पर्शियन और अरबी में तो बुत शब्द जो है, वह बुद्ध का ही रूप है। इतनी
मूर्तियां बनीं कि अरबी मुल्कों में पहली दफा उन्होंने जब मूर्ति देखी तो बुद्ध की
ही देखी। तो बुद्ध को उन्होंने बुत...वही मूर्ति का पर्यायवाची हो गया। बुत परस्ती
का मतलब होता है बुद्धपरस्ती। और बुद्ध जिंदगी भर कहते रहे, मेरी मूर्ति मत बनाना; मगर मूर्ति बनी।
तो
दरिया ठीक कहते हैं। दरिया काफी अनुभव की बात कहते हैं।
दरिया
गैला जगत को क्या कीजै सुलझाए
सुलझाया
सुलझे नहीं,
सुलझ-सुलझ
उलझाए
यहां जितने सुलझाने वाले आए, उन्होंने जितनी बातें सुलझाने
को कहीं वे सब उलझाने का कारण बन गईं। बच्चों के हाथ में तलवार पड़ गई। खुद को भी
काट लिया,
दूसरों
को भी अंग-भंग कर लिया।
दरिया
गैला जगत को क्या कीजै समझाए
रोग
नीसरे देह में पत्थर पूजन जाए
ये ऐसे
पागल हैं,
इनको
कार्य-कारण तक का होश नहीं है। चेचक का रोग निकल आता है शरीर में और जाते हैं किसी
पत्थर को पूजने। काली माता को पूजने चले। इनको इतना भी होश नहीं है कि कारण कार्य
तो देखो। शरीर में बीमारी है तो शरीर की चिकित्सा करो; तो शरीर के चिकित्सक के पास
जाओ। पत्थर को पूजने चले।
दरिया
गैला जगत को क्या कीजै समझाए
इन
पागलों को क्या समझाने से होगा!
रोग
नीसरे देह में पत्थर पूजन जाए
इनको
कार्य-कारण का संबंध तक होश में नहीं है। तो इनको परमतत्व की बात कहने से कुछ अर्थ
नहीं है। ये सुन भी लें तो सुनेंगे नहीं। सुन लें, समझेंगे नहीं। समझ लें, कुछ का कुछ समझ लेंगे।
कंचन
कंचन ही सदा कांच कांच सो कांच
बड़े
अपूर्व वचन हैं। हृदय में संभालकर रख लेना।
कंचन
कंचन ही सदा कांच-कांच सो कांच
दरिया
झूठ सो झूठ है,
सांच
सांच सो सांच
झूठ को
लाख सिद्ध करो,
सिद्ध
नहीं होता।
मतवादों
को कितना ही सिद्ध करो, कुछ
सिद्ध नहीं होता। इसलिए तो कोई मतवादी जीत नहीं पाता। सदियां बीत गई हिंदू मुसलमान
से विवाद कर रहे हैं, कौन
जीता, कौन हारा? नास्तिक आस्तिकों से विवाद कर
रहे हैं,
कौन
जीता, कौन हारा? कब तक विवाद करोगे? निर्णय होता ही नहीं।
कंचन
कंचन ही सदा कांच कांच सो कांच
अनुभव
ले जाएगा स्वर्ण पर। यह कांचों को बैठे और विवाद करते रहने से कुछ भी न होगा। सोना
सोना है,
कांच
कांच है।
दरिया
झूठ सो झूठ है,
सांच
सांच सो सांच
और जो
सत्य है वह सत्य है। सत्य को सिद्ध नहीं करना होता, सत्य को जानना होता है, देखना होता है, दर्शन करना होता है। सत्य का
दर्शनशास्त्र नहीं बनाना होता। सत्य का दर्शन होता है, आंख खोलनी होती है।
कानों
सुनी सो झूठ सब आंखों देखी सांच
सिद्धांत
तो कान से सुने जाते हैं; हिंदू
तुम कैसे बने?
अब
सुनो। दरिया कहते हैं, कानों
सुनी सो झूठ सब। कान मत फंकवाना किसी से। कान फुंकवा लिया, हिंदू बन गए। कान फुंकवा लिया, मुसलमान बन गए। सिद्धांत तो
कान से सुने जाते हैं। तुम कैसे हिंदू बने? मां बाप से कान फूंके। मंदिर में भेजा, गीता पढ़वाई, रामायण सुनवाई, सत्यनारायण की कथा करवाई। तुम
कैसे बने हिंदू?
कान से
बने। और कान से भी कहीं कोई सत्य का अनुभव होता है?
कानों
सुनी सो झूठ सब आंखों देखी सांच
अपनी
ही आंख पर भरोसा करना, किसी
और पर भरोसा मत कर लेना। किसी और ने देखा होगा, देखा होगा। तुम जब तक न देख लो, तब तक रुक मत जाना। अपना देखा
ही काम पड़ेगा। प्यास लगी हो तो ही बुझेगी। दूसरे ने कितना पानी पीया है इससे क्या
होगा?
मेरे
पास लोग आते हैं,
वे
कहते हैं कि महावीर स्वामी ने ऐसा अनुभव किया। किया होगा, जरूर किया होगा। उनकी प्यास
बुझ गई इससे तुम्हारी प्यास बुझती? अब तुम काहे के लिए शोरगुल मचा रहे हो? तुम किस बात की डुंडी पीट रहे
हो? तुम ही पीयो। कृष्ण ने पीया
होगा तो नाचे। तुम्हारे जीवन में कहीं नाच नहीं दिखाई पड़ता। कृष्ण की मूर्ति की
पूजा कर रहे हो। नाचो! तुम्हारे जीवन में कुछ घटे। आंख तुम्हारी देखे।
कानों
सुनो सो झूठ सब आंखों देखी सांच
दरिया
देखे जानिए यह कंचन यह कांच
और जब
देखोगे तभी जानोगे कि क्या कंचन है और क्या कांच है। क्या असली स्वर्ण और क्या
केवल पीतल। पीतल भी सोने जैसा चमकता है। लेकिन सभी चमकनेवाली चीजें सोना नहीं होतीं।
और कभी-कभी तो पीतल भी इस तरह चमकाया जा सकता है कि सोने को भी मात करता मालूम
पड़े। ऐसा पालिश किया जा सकता है कि दूर से धोखा दे जाए। लेकिन करीब आकर अनुभव से
ही पता चलता है क्या असली, क्या
नकली। आंख ही निर्णायक है। कान निर्णायक नहीं हो सकता। आंख से अर्थ है: अपना ही
साक्षात्कार अपनी ही अनुभूति।
समस्त
सत्पुरुषों ने एक बात पर ही जोर दिया है कि तुम स्वयं परमात्मा को जान सकते हो।
इसलिए क्यों उधार बातों में पड़े हो? किसी ने जाना इससे क्या होगा?
मैंने
सुना है एक अंधा आदमी था, बूढ़ा
हो गया था। बुढ़ापे में ही अंधा हुआ। कोई अस्सी साल उसकी उम्र थी। चिकित्सकों ने
कहा, आंख ठीक हो सकती है। जाला है, इलाज से ठीक हो जाएगा। आपरेशन
कर दें,
कट
जाएगा।
लेकिन
बूढ़ा जो पंडित था,
उसने
कहा, क्या सार! अब इस बुढ़ापे में
क्या सार! साल दो साल जीऊं या न जीऊं, क्या पता? अब इसमें कौन झंझट में पड़े? फिर मेरे घर आंखों की कोई कमी
नहीं है। पंडित था, तर्कवादी
था, मतवादी था। डाक्टर ने पूछा, क्या मतलब? उसने कहा, मतलब साफ है। मेरी पत्नी, उसकी दो आंख, मेरे आठ लड़के हैं, उसकी सोलह आंखें, आठ लड़कों की आठ बहुएं हैं
उनकी सोलह आंखें। चौंतीस आंखें मेरी सेवा में रत हैं। मुझे और दो आंख हुई न हुई, क्या फर्क पड़ता है?
डाक्टर
भी रह गया,
क्योंकि
क्या कहे?
बात तो
ठीक ही कह रहा है। चौंतीस आंख है कि छत्तीस, कितना फर्क पड़ता है! दो आंख कम हुई, चौंतीस आंखें सेवा में लगी
है। मगर संयोग की बात, कोई
पंद्रह दिन बाद घर में आग लग गई। चौंतीस आंखें बाहर निकल गई, बूढ़ा भीतर रह गया। तब छाती
पीटकर चिल्लाने लगा, लगी
लपटों में भागने लगा--इस दरवाजे, उस
दरवाजे। उसे कुछ सूझे नहीं। भयंकर आग लगी। तब उसे याद आया कि आंख अपनी ही हो तो ही
काम आती है। जो चौंतीस आंखें बाहर निकल गईं, बाहर आकर उनको याद आया कि बूढ़ा पीछे छूट
गया। अब क्या करें?
मगर जब
घर में आग लगा हो तो तुम्हारी आंखें तुम्हारी पैरों को दौड़ाती है, दूसरे को पैरों को नहीं दौड़ा
सकतीं। तुम्हारे पैर तुम्हारी आंखों को लेकर बाहर हो जाते हैं। अब आग लगी हो तो
अपनी चिंता स्वभावतः पहले होती है। जब बाहर निकल गए--खतरे के बाहर तब उन्हें जरूर
याद आई;
नहीं
याद आई ऐसा भी नहीं, याद आई
कि बूढ़ा तो घर में रह गया लेकिन अब क्या करें? अब रोने-चिल्लाने लगे। बूढ़ा मरते वक्त जब आग
में भुना जा रहा था तब उसे समझ में आई। मगर यह बहुत देर हो चुकी थी।
इतनी
देर तुम्हें न हो,
इतनी
ही मेरी प्रार्थना है।
कंचन
कंचन ही सदा कांच कांच सो कांच
दरिया
झूठ सा झूठ है सांच सांच सो सांच
कानों
सुनी सो झूठ सब आंखों देखी सांच
दरिया
देखे जानिए यह कंचन यह कांच
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