प्रेम-रंग-रस ओढ़ चुंदरिया-(दूल्हन)
प्रवचन-सातवां
दिनांक : 07-फरवरी, सन् 1979;
श्री ओशो आश्रम, पूना।
सारसूत्र-
गुरु ब्रह्मा गुरु बिस्नु है, गुरु संकर गुरु साध।
दूलन गुरु गोविंद भजु, गुरूमत अगम अगाध।।
श्री सतगुरु-मुखचंद्र तें, सबद-सुधा-झरि लागि।
हृदय-सरोवर राखु भरि, दूलन जागे भागि।।
दूलन गुरु तें विषै-बस, कपट करहिं जे लोग।
निर्पल तिनकी सेव है, निर्पल तिनका जोग।।
दूलन यहि जग जनमिकै, हरदम रटना नाम।
केवल राम-सनेह बिनु, जन्म-समूह हराम।।
सुनत चिकार पिपील की, ताहि रटहु मन माहिं।
दूनलदास बिस्वास भजु, साहिब बहिरा नाहिं।।
चितवन नीची, ऊंच मन, नामहि जिकिर लगाय।
दूलन सूझै परम-पद, अंधकार मिटि जाय।।
गुरूवचन बिसरै नहीं, कबहुं न टूटै डोरि।
पियत रहौ सहजै दुलन, राम-रसायन घोरि।।
विपति-सनेही मीत सो, नीति-सनेही राउ।
दूलन नाम-सनेह दृढ़, सोई भक्त कहाउ।।
राम नाम दुइ अच्छरै, रटै निरंतर कोइ।
दूलन दीपक बरि उठै, मन परतीति जो होइ।।
सत्य
की यात्रा में तीन सीढ़ियों को समझ लेना जरूरी है। एक है सीढ़ी विद्यार्थी की।
विद्यार्थी का संबंध गुरु से नहीं हो सकता। गुरु मिल भी जाए तो भी विद्यार्थी का
संबंध उससे हो नहीं पाएगा। विद्यार्थी का संबंध तो केवल शिक्षक से हो सकता है।
विद्यार्थी की भूमिका ही शिक्षक के ऊपर नहीं जाती। विद्यार्थी की आकांक्षा भी सत्य
के संबंध में जानने की है, सत्य
जानने की नहीं;
ईश्वर
के संबंध में जानने की है, ईश्वर
को जानने की नहीं।
विद्यार्थी
सूचनाएं इकट्ठा करने में उत्सुक है। विद्यार्थी कुतूहल की एक अवस्था है; बचकानी अवस्था है। और अभागे
हैं वे लोग जो वृद्धावस्था तक भी विद्यार्थी ही बने रहते हैं; जो शास्त्र से ही जुड़े रहते
हैं, शब्द से और सिद्धांत से।
शास्त्र,
शब्द
और सिद्धांत विद्यार्थी के जगत् के हिस्से हैं।
दूसरी
भूमिका है शिष्य की। शिष्य की भूमिका में गुरु का आविर्भाव होता है। विद्यार्थी तो
केवल सत्य के संबंध में जानना चाहता है, शिष्य सत्य को जानना चाहता है। उसकी तृप्ति
सूचना से नहीं है। उसकी तृप्ति उधार वचनों से नहीं है, वह अनुभव चाहता है। उसके भीतर
कुतूहल ही नहीं है, जिज्ञासा
जगी है;
गहन
जिज्ञासा जगी है। विद्यार्थी कुछ भी दांव पर लगाने का राजी नहीं होगा, मुफ्त जितना मिल जाए ले लेगा।
शिष्य दांव पर लगाने को राजी होगा। विद्यार्थी कीमत नहीं चुका सकता है। और बिना
कीमत चुकाए इस जगत् में क्या मिलता है? कौड़ियां ही बटोर सकते हो, हीरे-जवाहरात नहीं। शिष्य
कीमत चुकाने को राजी है।
विद्यार्थी
बिना झुके सीखना है। और अगर झुकता भी है तो झुकना उसका औपचारिक होता है। शिष्य की
तो पूरी भाव-भंगिमा प्रणाम की है। शिष्य तो एक प्रणाम है। शिष्य का तो भाव ही झुके
होने का है। शिष्य तो एक झोली है। शिष्य में ज़रा भी अहंकार नहीं है। विद्यार्थी तो
अहंकार के ही केंद्र से सक्रिय होता है। शिष्य अहंकार को विसर्जित करता है, झुकता है, गुरु के चरण पकड़ता है।
विद्यार्थी
शब्द ही सुन पाएगा, शिष्य
के कानों में निःशब्द भी पड़ने लगता है। विद्यार्थी विचारों से जुड़ पाएगा, शिष्य निर्विचार से भी जुड़ने
लगता है। विद्यार्थी स्थूल को पकड़ सकता है, शिष्य के भीतर सूक्ष्म का भी अवतरण होने
लगता है। विद्यार्थी पढ़ता है पंक्तियों को, शिष्य पंक्तियों के बीच में खाली, रिक्त स्थानों को भी पढ़ने
लगता है। विद्यार्थी रंगता नहीं; सूचना
बटोर लेता है,
स्वयं
रंगने से बच जाता है; शिष्य
अपने को रंगता है। बिना रंगे अनुभव हो भी नहीं सकता। प्रेम-रंग-रस ओढ़ चदरिया!
विद्यार्थी
का शिक्षक से जो नाता है, व्यावसायिक
है, बाजारू है। शिष्य का नाता
प्रीति का है,
प्रेम
का है;
वह
बाजार की घटना नहीं है। शिष्य का नाता हृदय का है, विद्यार्थी का नाता मस्तिष्क
का है। विद्यार्थी उत्सुक है गुरु की जानकारी में, गुरु में नहीं; शिष्य उत्सुक है गुरु में, जानकारी गौण बात है। जब वृक्ष
ही हाथ लग गया तो उसके सब फूल अपने आप हाथ लग जाएंगे।
विद्यार्थी
फूल चुन लेता है,
वृक्ष
को छोड़ देता है। ये फूल वृक्ष से टूटते ही मर जाते हैं। और ये फूल कितनी देर गंध
देंगे?
जल्दी
ही बासे हो जाएंगे। विद्यार्थी बासे फूल के ही ढेर लगाता रहता है! उसके भीतर से
सुगंध आनी तो जल्दी ही बंद हो जाती है, दुर्गंध आने लगती है। हर पंडित से दुर्गंध
आएगी, आना अनिवार्य है। सड़े हुए
शास्त्र और सड़े हुए शब्द और सदियों पुराना कूड़ा-कचरा उसने इकट्ठा कर लिया है।
पंडित तो एक तरह का गुदड़ी बाजार है, जहां गंदगी बिकती है। हालांकि गंदगी के ऊपर
अच्छे-अच्छे नाम लगाए गए हैं, सुंदर-सुंदर
शब्द चिपकाए गए हैं, मगर
लेबिल को उखाड़ो और भीतर तुम लाश पाओगे, जीवन नहीं।
शिष्य
गुरु में उत्सुक है, वृक्ष
को ही पकड़ लेता है। फूल तो वृक्ष में खिलते ही रहे, खिलते ही रहेंगे। फूलों को
क्या पकड़ना! पत्तों-पत्तों को क्या पकड़ना! शिष्य जड़ को ही पकड़ लेता है। फूलों का
राज उसके हाथ में आ जाता है। फूलों का जीवन स्रोत उसके हाथ में आ जाता है।
विद्यार्थी
सूचना से ही तृप्त होकर लौट जाता है, शिष्य के जीवन में ज्ञान का पदार्पण होता
है। ज्ञान वह जो तुम्हें रूपांतरित करे, सूचना वह जो तुम्हारी स्मृति को भरे। सूचना
तुम्हारी जानकारी को बढ़ाती है, ज्ञान
तुम्हें बढ़ाता है। सूचना संसार में काम की हो सके शायद, लेकिन ज्ञान परमात्मा में काम
आएगा। सूचना की नौका से तुम बाजार में शायद थोड़ा सुविधा पाओगे लेकिन ज्ञान की नौका
तुम्हें उस परम प्यारे के तट तक ले जा सकती है।
ज्ञान
और सूचना एक जैसे मालूम पड़ते हैं, एक
जैसे नहीं हैं। जैसे लाश भी मालूम तो ऐसे ही पड़ती है जैसे जिंदा हो। पास आओगे तब
दुर्गंध आएगी। जांच-पड़ताल करोगे तब समझ में आएगा कि प्राण-पखेरू तो उड़ चुके। सूचना
ऐसी है जिसमें से प्राणों का हंस कभी का उड़ चुका। ज्ञान ऐसा है जिसमें हृदय अभी
धड़कता है,
श्वास
अभी चलती है,
देह
अभी उत्तप्त है,
अभी
प्राणों ने वास किया है, अभी
मिट्टी अमृत से भरी है।
विद्यार्थी
एक शिक्षक,
दूसरे
शिक्षक,
तीसरे
शिक्षक--हजार शिक्षक के पास भटकता रहेगा। उसे तो जहां से मिल जाए; जैसे मिल जाए! उसे सूचनाओं से
प्रयोजन है। उसके हार्दिक लगाव कहीं बनते ही नहीं। उसकी आत्मीयता कहीं निर्मित
नहीं होती। जैसे कोई बाजार में दुकानों से चीजें खरीदता है, ऐसे विद्यार्थी शिक्षकों से
ज्ञान खरीदता फिरता है।
शिष्य
का नाता बन जाता है, भांवर
पड़ जाती है। और ऐसी भांवर जिसके टूटने का फिर कोई उपाय नहीं। अगर टूट जाए तो यही
समझना कि पड़ी ही न थी। भ्रांति समझ ली होगी। मान लिया होगा कि पड़ गई। गांठ बंधी न
थी। यह गांठ ऐसी जो खुलती नहीं। संसार में जो भांवर पड़ती है वह खुल सकती है; उसमें तलाक का उपाय है। लेकिन
यह जो आध्यात्मिक भांवर है--गुरु और शिष्य के बीच पड़ती है, इसके खुलने का कोई उपाय ही
नहीं है। क्योंकि यह स्थूल की गांठ नहीं है जो खुल जाए, यह सूक्ष्म की गांठ है। और
सूक्ष्म की गांठ अदृश्य होती है, उसे
खोलोगे कैसे?
पड़
कैसे जाती है यह भी पता नहीं चलता तो खोलोगे कैसे? पड़ जाती है। घट जाती है घटना।
यह प्रेम की घटना है।
जैसे
तुम किसी के प्रेम में गिर जाते हो, कुछ करते थोड़े ही हो! पहली नजर में भी प्रेम
हो जाता है। तुम्हारे वश की थोड़े ही बात होती है, तुम अवश होते हो। शिष्य और
गुरु के बीच इसी प्रेम की आत्यंतिक घटना घटती है। अवश होकर शिष्य गुरु में लीन
होने लगता है। अवश होकर! चाहे भी तो भी अब भागने का उपाय नहीं। अपने बावजूद भी उसे
जाना ही पड़ेगा इस यात्रा पर। यह ऐसी अनिवार्य यात्रा है, यह प्रेम की ऐसी अनिवार्य
पुकार है जो ठुकरायी नहीं जा सकती; जिसे इनकारा नहीं जा सकता।
विद्यार्थी
और शिक्षक भिन्न-भिन्न होते हैं। गुरु और शिष्य के बीच तादात्म्य बनने लगता है। वे
एक-दूसरे में लीन होने लगते हैं। एक-दूसरे का आकाश एक-दूसरे के आकाश में प्रवेश
करने लगता है।
और
तीसरी भूमिका है--आत्यंतिक, अंतिम
भूमिका,
जब कि
शिष्य गुरु को गुरु ही नहीं देखता, वरन परमात्मा का द्वार देखने लगता है।
गुरुर्ब्रह्मा। वह आत्यंतिक अवस्था है, जहां शिष्य के लिए गुरु भगवान हो जाता है।
गुरु तो मिट जाता है। गुरु तो रह ही नहीं जाता, गुरुद्वारा बचता है। एक द्वार--जिसके पार
परमात्मा खड़ा है।
यह
आत्यंतिक भूमिका है। यहां शिष्य भक्त हो जाता है। जब विद्यार्थी होता है तो गुरु
शिक्षक होता है। जब विद्यार्थी शिष्य बनता है तो शिक्षक गुरु होता है। और जब शिष्य
भक्त हो जाता है तो गुरु भगवान हो जाता है। यह तो वैसी ही बात है जो जिनको हो जाए
उनको ही समझ में आए। क्योंकि जिन्होंने बुद्ध में भगवान को देखा, जिन्होंने देखा उन्होंने देखा; जिन्होंने नहीं देखा उन्होंने
कहा, यह बात हमारी समझ में नहीं
आती। मांस-मज्जा-हड्डी के बने हुए मनुष्य को भगवान कहते हो? उसे भी भूख लगती है, प्यास लगती है। वह भी बीमार
होता है। जरा आ रही है, बुढ़ापा
आ रहा है,
मृत्यु
भी आएगी;
उसे
भगवान कहते हो?
पूछने
वाले चूक गए। वे जो भक्त हो गए थे बुद्ध के, वे इस मांस-मज्जा की बनी देह को भगवान नहीं
कह रहे थे। उन्हें इस द्वार के पार भगवान दिखाई पड़ रहा था। मांस-मज्जा से द्वार
बना था यह तो चौखट थी इस चौखट के पार अनंत आकाश दिखाई पड़ रहा था, उस अनंत आकाश को भगवान कह रहे
थे।
विद्यार्थी
और शिक्षक तो बड़े दूर होते हैं। दो अलग लोक! शिष्य और गुरु करीब आ जाते हैं, बंद जाते हैं, एक-दूसरे में आबद्ध हो जाते
हैं, संयुक्त हो जाते हैं। और भक्त
और भगवान एक ही हो जाते हैं, संयुक्त
भी नहीं। द्वैत ही गिर जाता है।
दूलनदास
के आज के पदों में उसी तीसरी भूमिका से चर्चा की गई है। उसी प्रेम की आत्यंतिक
स्थिति की बात कही गई है। उसे समझना तुम्हें कठिन तो होगा लेकिन अगर कभी जीवन में
प्रेम किया हो तो शायद उस प्रेम से थोड़ा-थोड़ा सुराग मिले।
कुछ
सुन लें,
कुछ
अपना कह लें!
जीवन-सरिता
की लहर-लहर
मिटने
को बनती यहां प्रिये!
संयोग-क्षणिक!--फिर
क्या जानें
हम
कहां और तुम कहां प्रिये?
पल-भर
तो साथ-साथ बह लें;
कुछ
सुन लें,
कुछ
अपनी कह लें;
आओ कुछ
ले लें औ" दे लें!
हम हैं
अजान पथ के राही,
चलना--जीवन
का सार प्रिये!
पर
दुःसह है,
अति
दुःसह है
एकाकीपन
का भार प्रिये!
पल-भर
हमत्तुम मिल हंस-खेलें;
आओ कुछ
ले लें औ" दे लें!
हमत्तुम
अपने में लय कर लें!
उल्लास
और सुख की निधियां,
बस
इतना इनका मोल प्रिये!
करुणा
की कुछ नन्हीं बूंदें
कुछ
मृदुल प्यार के बोल प्रिये!
सौरभ
से अपना उर भर लें;
हमत्तुम
अपने में लय कर लें!
हमत्तुम
जी-भर खुलकर मिल लें!
जग के
उपवन की यह मधु-श्री,
सुषमा
का सरस वसंत प्रिये!
दो
सांसों में बस जाए और
ये
सांसें बनें अनंत प्रिये!
मुरझाना
है आओ खिल लें,
हमत्तुम
जी-भर खुलकर मिल लें।
जैसे
प्रेमी एक-दूसरे से मिल जाना चाहते हैं, क्षणभर को ही सही! क्योंकि जगत् का मिलन तो
क्षणभर का ही हो सकता है। जैसे क्षणभर को प्रेमी और प्रेयसी एक-दूसरे में डूब जाना
चाहते हैं,
और
क्षणभर को भी सुख की एक पुलक, एक
उल्लास,
एक झलक, एक किरण उतरती है। वह तो किरण
ही होगी--आई और गई! पहचान भी न पाओगे कि कब आई, कब गई! बस, भनक कान में पड़ेगी और जाना भी
हो जाएगा।
लेकिन
भक्त और सद्गुरु के बीच जो मिलन की घटना घटती है वह शाश्वत के तल पर है क्योंकि
समाधि के तल पर है। मैंने कहा, विद्यार्थी
मिलता है शिक्षक से बुद्धि के तल पर। शिष्य मिलता है गुरु से हृदय के तल पर। भक्त
मिलता है भगवान से समाधि के तल पर। हृदय से भी एक और गहरी जगह है तुम्हारे भीतर, वहीं तुम हो, वहीं तुम्हारी आत्मा है।
आत्मा के तल पर जब मिलन होता है तब मिलन शाश्वत है। बुद्धि का मिलन तो बनता है, टूटता है। हृदय का मिलन टूट
नहीं सकता,
मगर जो
मिले हैं वो अभी दो होते हैं। आबद्ध हैं, आलिंगनबद्ध हैं, पर हैं अभी भिन्न! टूट नहीं
सकते--सच,
निश्चय
ही। मगर अभी दो हैं, अभी एक
नहीं हो गए हैं।
भत्त
और सद्गुरु का मिलन मिलन नहीं है, सम्मिलन
है। एक हो गए,
संगम
हो गया,
तीर्थराज
निर्मित हुआ। और इस संबंध में यह समझ लेना जरूरी होगा कि जहां भक्त और सद्गुरु का
मिलन होता है वहां एक तीसरा और आ मिलता है जिसकी किसी को भी कानों-कान खबर न
पड़ेगी। इसी को प्रतीक रूप में समझाने के लिए प्रयाग को तीर्थराज कहा है। गंगा
दिखाई पड़ती है,
यमुना
दिखाई पड़ती है,
सरस्वती
दिखाई नहीं पड़ती। दो नदियां दिखाई पड़ती हैं, एक अदृश्य है। दो मिलती हैं, उन दोनों के मिलते हुए जल को
भी तुम देख सकते हो क्योंकि दोनों का रंग अलग है। होगा ही। शिष्य का रंग और गुरु
का रंग अलग होगा,
भेद
होगा। मिल जाने के बाद भी तुम देख सकोगे कि दोनों की धाराएं अलग हैं। मगर एक और
सरस्वती आ मिली जो दिखाई नहीं पड़ती।
यह तो
प्रतीक है। यह उस अंतस के मिलन का प्रतीक है। जहां शिष्य और गुरु मिलते हैं वहीं
भगवान भी आ मिलता है भगवान सरस्वती है; अदृश्य है। शिष्य और गुरु का मिलन कोई
साधारण घटना नहीं है, इस
जगत् की सबसे असाधारण घटना है। क्योंकि उसी घटना में परमात्मा का प्रवेश होता है!
इस जगत् की सबसे ऊंचे. . .सबसे ऊंचा शिखर है, गौरीशंकर है, क्योंकि वहीं उसी ऊंचाई पर
परमात्मा का प्रारंभ है।
दूलनदास
के शब्दों को हृदय में लेना। शब्द तो सीधे-सादे हैं, उनके भाव गहरे हैं।
गुरु
ब्रह्मा गुरु बिस्नु है, गुरु
संकर गुरु साध
दूलन
गुरु गोबिन्द भजु,
गुरुमत
अगम अगाध
गुरु
ब्रह्मा,
गुरु
विष्णु,
गुरु
शंकर। त्रिमूर्ति की इस धारणा को ठीक से समझो। ऐसी धारणा केवल भारत में ही जन्मी।
और इस अनूठे अर्थ के साथ जन्मी कि जैसा अर्थ दुनिया के किसी भी देश में, किसी भी धर्म ने परमात्मा को
देने की हिम्मत नहीं की।
ब्रह्मा
परमात्मा का एक चेहरा, विष्णु
दूसरा चेहरा,
महेश
तीसरा चेहरा! परमात्मा एक, उसके
चेहरे तीन। क्योंकि परमात्मा एक लेकिन उसकी अभिव्यक्तियां तीन। ब्रह्मा है उसकी
सृष्टि की अभिव्यक्ति, विष्णु
है संभालने की अभिव्यक्ति, शंकर
या महेश हैं उसके विनाश करने की क्षमता। ब्रह्मा से जगत् का निर्माण, विष्णु से जगत् का अवधान, महेश से जगत का अवसान।
दुनिया
का कोई भी धर्म इतनी हिम्मत नहीं कर सका कि परमात्मा को मृत्यु-रूप भी मान ले।
जीवन-रूप तो माना। यहूदी हैं, ईसाई
हैं, मुसलमान हैं उन्होंने
परमात्मा का ब्रह्मा रूप स्वीकार किया, सिर्फ ब्रह्मा रूप। एक ही चेहरा स्वीकार कर
सके वे। परमात्मा ने जगत् बनाया इतना माना। परमात्मा का विष्णु रूप भी स्वीकार
नहीं कर सके क्योंकि जगत् में इतनी भूल-चूकें दिखाई पड़ती हैं; अगर परमात्मा ही संभाल रहा है
तो ये भूल-चूकें नहीं होनी चाहिएं। इतनी बीमारी, इतना रोग, इतने युद्ध, इतना उपद्रव! अंधे बच्चे पैदा
होते हैं,
लंगड़े
बच्चे पैदा होते हैं, कोढ़ी बच्चे
पैदा होते हैं। अगर परमात्मा अभी भी संभाल रहा है तो ये भूल-चूकें कैसी हो रही हैं?
तो
तीनों धर्मो ने जो भारत के बाहर पैदा हुए, परमात्मा का ब्रह्मा-रूप स्वीकार किया कि
उसने छह दिन में दुनिया बना दी और फिर हट गया। फिर दुनिया अपने से चल रही है। फिर
इसमें जितनी विकृतियां हैं वे शैतान पर थोप दीं।
मगर
इसमें एक बड़ी तार्किक भ्रांति हो गई, भूल हो गई। इसका अर्थ हुआ कि इस जगत के दो
नियामक हैं--परमात्मा और शैतान। और इसका यह भी अर्थ हुआ कि शैतान परमात्मा से
ज्यादा बलशाली मालूम होता है। क्योंकि शांति तो कभी-कभी, युद्ध रोज। प्रेम तो कभी-कभी, घृणा रोज। करुणा तो कभी-कभी, क्रोध रोज। बुद्ध और महावीर
और कृष्ण और क्राइस्ट तो कभी-कभी, और
विकृत,
अस्वस्थ, रुग्ण-चित्त लोगों की इतनी
बड़ी भीड़! शैतान जीतता मालूम पड़ता है, परमात्मा हारता मालूम पड़ता है। लेकिन एक
छोटी-सी कमजोरी के कारण यह अड़चन खड़ी हुई।
संसार
में जो भूल-चूक है उसकी कोई व्याख्या न खोज पाए, तो परमात्मा को दूर हटाकर
रखा। लेकिन परमात्मा ने छह दिन में दुनिया बना दी, फिर दूर हट गया। फिर दुनिया
परमात्मा से खाली और हीन हो गई। जैसे किसी बच्चे ने अपने खिलौनों से कुछ दिन खेला
और उन्हें कोने में फेंक दिया, धूल
जमने लगी उन पर। और बच्चा उनकी फिकिर लेना भूल गया। न अब उन्हें धुलाता है, न नहलाता है, न सुलाता है। जगत् उपेक्षित!
तो हमारी प्रार्थना भी क्या उस परमात्मा तक पहुंचेगी! जो न मालूम कब जगत् को बनाकर
दूर हट गया! शायद भूल ही चुका हो कि उसने जगत् बनाया भी था। हमारी प्रार्थना उस तक
कैसे पहुंचेगी?
हमारे
उद्गार उस तक कैसे पहुंचेंगे?
नहीं, भारत ने हिम्मत की; उसका दूसरा रूप भी स्वीकार
किया-- विष्णु-रूप। ब्रह्मा की तरह उसने बनाया, विष्णु की तरह वही संभाल रहा है। और भूल-चूक
अगर है तो उसका कारण है, अकारण
नहीं है। क्योंकि यहां बिना अंधेरे के प्रकाश नहीं हो सकता; क्योंकि यहां बिना मृत्यु के
जन्म नहीं हो सकता; क्योंकि
यहां बिना बीमारी के स्वास्थ्य नहीं हो सकता। अस्तित्व के होने का ढंग
द्वंद्वात्मक है। अभिव्यक्ति द्वंद्व से ही हो सकती है। जहां द्वंद्व नहीं वहां
अभिव्यक्ति नहीं।
जब
जगत् नहीं था तो कोई बुराई न थी क्योंकि कोई भलाई भी न थी। जैसे ही जगत् हुआ, भलाई भी हुई, बुराई भी हुई; समान अनुपात में हुई। यह
वैज्ञानिक बात मालूम पड़ती है। इसके पीछे गणित साफ मालूम पड़ता है। तुम सोचते हो कि
दुनिया में गर्मी ही गर्मी हो, ठंड न
हो, यह कैसे होगा? ठंडक और गर्मी दो चीजें थोड़े
ही हैं! एक ही थर्मामीटर से दोनों नाप लिए जाते हैं तो दो नहीं हो सकते। एक ही रूप
है, अभिव्यक्ति दो है। और
अभिव्यक्त होने के लिए दो होना जरूरी ही है। अगर पुरुष ही पुरुष हों तो जगत् नहीं
चल सकता। स्त्रियां ही स्त्रियां हों तो जगत् नहीं चल सकता।
अब तो
विज्ञान भी इस बात को स्वीकार करता है कि अगर विद्युत में सिर्फ धन विद्युत हो, ऋण विद्युत न हो तो विद्युत
नहीं होगी। ऋण और धन दोनों साथ-साथ होने चाहिए। पश्चिम के बड़े दार्शनिक हीगल ने
इसी को द्वंद्वात्मक विकास कहा है, डायलेक्टिकल इवोलूशन कहा है। और इसी को
कार्ल माक्र्स ने अपने समाजवाद का आधार बनाया--इसी सिद्धांत को कि द्वंद्व जगत् का
स्वभाव है। यहां दो के बीच संघर्ष चल रहा है।
ज़रा
सोचो ऐसी रामकथा जिसमें राम तो हों और रावण न हो। रामकथा बनेगी नहीं। लाख उपाय करो, न बनेगी। कोई तरह से रामकथा
बिना रावण के नहीं बन सकती। इसलिए रावण राम की कथा का अनिवार्य अंग है। और न ही
रावण हो सकता है बिना राम के। राम और रावण दोनों मिलकर रामकथा में रंग भरते हैं।
काली पृष्ठभूमि पर सफेद रेखाएं उभर कर प्रकट होती हैं। इसलिए तो दिन में तारे नहीं
दिखाई पड़ते हैं। हैं तो जरूर, मगर
दिखाई नहीं पड़ते;
रात के
अंधेरे में दिखाई पड़ते हैं। अंधेरे में उनकी रोशनी स्पष्ट हो जाती है।
विपरीत
चाहिए अभिव्यक्ति के लिए। इस विपरीतता के सिद्धांत को स्वीकार करते ही जगत् की
भूल-चूकों को शैतान के ऊपर थोपने की कोई जरूरत न रही। भारत अकेला देश है जिसने
शैतान को गढ़ने की आवश्यकता नहीं समझी, परमात्मा काफी है। और भारत अकेला देश है
जिसने यह हिम्मत की कि परमात्मा फूल भी है और कांटा भी है। तब हमने कांटे को भी
गौरव दे दिया। फूल को तो गौरव कोई भी दे देता है, हमने कांटे को भी गौरव दे
दिया। हमने राम को ही सन्मान नहीं दिया, हमने रावण को भी सन्मान दे दिया क्योंकि राम
ही रावण के भीतर ही हैं।
एक ही
परमात्मा विपरीत रूपों में प्रकट हुआ है तो ही जगत् का विस्तार फैलाव विकास संभव
हुआ। वही अनंत-अनंत रूपों में प्रकट हुआ है। विष्णु संभालते हैं। तुमने एक बात
देखी कि ब्रह्मा का सिर्फ एक ही मंदिर है भारत में। विष्णु के सब मंदिर हैं
क्योंकि बाकी सब अवतार विष्णु के हैं। राम का मंदिर बनाओ तो विष्णु का मंदिर बनता
है और कृष्ण का मंदिर बनाओ तो विष्णु का मंदिर बनता है। बाकी सब मंदिर विष्णु के
हैं।
ब्रह्मा
का एक ही मंदिर?
क्योंकि
ब्रह्मा का काम तो पूरा हो चुका। वह तो बनाने के साथ ही पूरा हो गया। अब तो
प्रार्थना करनी है। मंदिर तो प्रार्थना के लिए बनता है इसलिए विष्णु का होगा।
पुकारना तो उस तक होगा जो संभाल रहा है। परमात्मा के उस रूप को पुकारना होगा जो संभाल
रहा है। इसलिए विष्णु की सारी प्रार्थनाएं हैं।
और
इससे भी अद्भुत एक बात भारत ने की, कि निर्माण तो ठीक है लेकिन निर्माण
कभी-न-कभी विध्वंस होना ही चाहिए। जो चीज शुरू होती है उसका अंत होगा। हम बड़े
वैज्ञानिक विचार से चले। हमने अपनी वैज्ञानिकता में ज़रा भी समझौता नहीं किया। धर्म
के नाम पर हमने वैज्ञानिकता को इनकार नहीं किया। हमने धर्म और वैज्ञानिकता के बीच
भी एक सेतु बना लिया। जो चीज शुरू होती है वह अंत होगी। जन्म होगा तो मृत्यु होगी।
और सृष्टि हुई है तो एक दिन विनाश होगा, प्रलय होगा तो फिर प्रलय का भी एक रूप होना
चाहिए परमात्मा का, जो
मिटाएगा। वे ही हाथ जिन्होंने बनाया, वे ही हाथ जिन्होंने संभाला, एक दिन मिटाएंगे भी। उस
मिटानेवाले रूप को हमने महेश कहा है।
ये तीन
अभिव्यक्तियां हैं परमात्मा की--सृजन, संभाल; प्रलय, अंत ये तीनों उसके चेहरे हैं। हमने मौत में
भी उसको पहचान लिया। जीवन में पहचानने में ही कई लोगों को मुश्किल पड़ती है। इसी
कारण तो हजारों-हजारों लोग नास्तिक हैं। वे जीवन में भी परमात्मा को नहीं पहचान
पाते हैं। और ऐसे अद्भुत लोग भी हुए जिन्होंने मृत्यु में भी उसे पहचान लिया। कुछ
हैं जिन्हें जीवन में भी दिखाई नहीं पड़ती उसकी रोशनी। जीवन में भी उसकी धड़कन नहीं
सुनाई पड़ती। जीवन में भी उसकी सांसें चलती नहीं मालूम पड़तीं। इतना विराट, अपूर्व जीवन चारों तरफ छाया
हुआ है और फिर भी लोग कहते हैं, परमात्मा
कहां है?
लेकिन
अद्भुत थे वे लोग,
गहरी
थी उनकी प्रतिभा,
आंखों
जैसी आंखें थीं उनके पास--इसको कहना चाहिए अंतर्दृष्टि, कि उन्होंने मृत्यु में भी
परमात्मा के हाथ देखे। क्योंकि सभी कुछ उसका है; जन्म भी उसका, मृत्यु भी उसकी। आधुनिक
विज्ञान इस बात को स्वीकार करता है कि पृथ्वियां बनती हैं, मिटती हैं; तारे बनते हैं, मिटते हैं। बड़ा लंबा समय लगता
है बनने और मिटने के बीच लेकिन इस अनंत काल में बड़े लंबे समय का भी क्या मूल्य है!
प्रति रात सैकड़ों तारे विसर्जित हो जाते हैं और सैकड़ों नए तारे निर्मित हो जाते
हैं। प्रतिपल यह घटना घट रही है। सृजन भी हो रहा है, संभालना भी हो रहा है, विनाश भी हो रहा है। जैसे कोई
बच्चे पैदा हो रहे हैं, कोई
जवान हैं और कोई मृत्यु के करीब मरणशय्या पर पड़े हैं। ये तीनों प्रक्रियाएं एक साथ
चल रही हैं अस्तित्व में।
कहीं
ब्रह्मा कार्य में संलग्न हैं, कोई
नया तारा रचा जा रहा है। कहीं विष्णु कार्य में संलग्न हैं; जो रच दिया गया है उसे संभाला
जा रहा है। फूल-फूल पर रंग भरा जा रहा है। तितली-तितली पर रंग डाला जा रहा है।
तारों की दीप-मालिका सजाई जा रही है। लोगों के प्राणों में जीवन का स्वर बजाया जा
रहा है। पक्षी गीत गा रहे हैं, वृक्षों
में फूल खिल रहे हैं। जहां जीवन बन गया है वहां जीवन को संभाला जा रहा है। और जहां
जीवन थक गया है और जहां ऊर्जा विश्राम में जाना चाहती है वहां कोई तारा मृत्यु के
करीब पहुंच रहा है, कोई
पृथ्वी मृत्यु के करीब पहुंच रही है।
पिछले
दस वर्षो में वैज्ञानिकों ने एक नई शोध की है जिसको वे कहते हैंः ब्लैक होल्स। अब
तक उनके बाबत पूरी जानकारी नहीं हो सकी। शायद कभी नहीं हो सकेगी क्योंकि मामला ही
कुछ ऐसा है। वैज्ञानिकों ने आकाश में कुछ ऐसे रिक्त स्थान खोजे हैं जिनमें कोई
तारा अगर चला जाता है तो समाप्त हो जाता है, एकदम विलुप्त हो जाता है। जैसे बूंद को
तुमने पानी की गरम तवे पर उड़ते देखा हो, धुन से उड़ जाती है एक क्षण पहले थी, एक क्षण बाद नहीं है।
वाष्पीभूत हो गई। या सुबह के सूरज में तुमने किसी पत्ते पर उड़ती ओस की किरण को
देखा हो,
ऐसे
तारे भी उन रिक्त स्थानों में प्रवेश करते ही विलीन हो जाते हैं। उनको ब्लैक होल
कहते हैं--काले छिद्र। काले क्योंकि उनमें मृत्यु घटती है। और अभी-अभी दो साल के
भीतर इस बात की भी खोज होनी शुरू हुई कि जैसे काले छिद्रों को खोजा गया, काले छिद्रों की दूसरी तरफ, दूसरा पहलू जैसे सिक्के का
दूसरा पहलू होता है, शुभ्र
छिद्र हैं--व्हाइट होल्स। जैसे काले छिद्रों में चीजें विलीन हो जाती हैं वैसे ही
उन शुभ्र छिद्रों से चीजें निकलती हैं, निर्मित होती हैं।
यह तो
एक छोर पर ब्रह्मा और दूसरे छोर पर महेश को खोज लिया गया। और दोनों के मध्य में
विष्णु। ब्रह्मा का तो मंदिर ही एक है क्योंकि कौन पूजा करे उसकी जिसका काम ही पूरा
हो गया?
पूजा
का प्रयोजन भी नहीं है। इसलिए ब्रह्मा को कोई पूजन नहीं मिलती। अधिकतम पूजन मिलती
है विष्णु को। और विष्णु से भी ज्यादा मंदिर तुम्हें मिलेंगे शंकर के। इतने ज्यादा, इतने लोगों ने बनाए कि फिर
मंदिर बनाना जरूरत न रही। किसी भी मंदिर के नीचे, किसी भी छप्पर के नीचे या
किसी वृक्ष के नीचे भी शंकर की पिंडी रख दी मंदिर खड़ा हो गया। गांव-गांव, चौपाल-चौपाल, राह-राह पर शंकर के मंदिर फैल
गए क्योंकि शंकर के हाथ में मृत्यु है, विनाश है। जिसके हाथ में मृत्य है और विनाश
है, उसकी प्रार्थना उठे यह
स्वाभाविक है। क्योंकि हमारा भविष्य उसके हाथ में है। आज नहीं कल हम उसके हाथ में
होंगे।
ये तीन
परमात्मा की ऊर्जाएं हैं। और दूलनदास कहते हैं कि तीनों मुझे मेरे गुरु में दिखाई
पड़ते हैं।
गुरु
ब्रह्मा गुरु बिस्नु है, गुरु
संकर गुरु साध
ये
तीनों मुझे मेरे गुरु में दिखाई पड़ते हैं। मैंने ब्रह्मा, विष्णु, महेश को, तीनों को अपने गुरु में देख
लिया। यह त्रिवेणी मैंने अपने गुरु में देख ली। और इतनी ही नहीं मैंने अपने गुरु
में उस साधु को भी पाया है जिसने यह त्रिवेणी दिखलाई। यह त्रिवेणी भी मेरे गुरु
हैं और इसको दिखाने वाला इशारा भी मेरे गुरु।
दूलन
गुरु गोबिंद भजु. . . और इसलिए दूलनदास कहते हैं, एक गुरु को भज लिया तो तीनों
को भज लिया। क्या अलग-अलग याद करते रहें ब्रह्मा की, विष्णु की, महेश की! एक गुरु को याद कर
लिया तो तीनों को याद कर लिया। एक के साधते ही तीनों सध गए। और न इतना कि केवल
तीनों सध गए,
एक
गुरु को ही याद कर लिया तो गुरु में सारे साधुओं की याद पूरी हो गई। णमो लोये सब्ब
साहूणं! सब साधुओं को नमस्कार हो गया।
गुरु
मत अगम अगाध. . . इसलिए कहते हैं कि जो गुरु की धारणा को समझ ले, जो गुरु शब्द में छिपे हुए
राज को समझ ले,
उसने
जीवन के अगाध सत्य को समझ लिया। क्योंकि इस छोटे-से शब्द से गुरु में हमने वह सब
समाकर भर दिया। यह तो एक छोटा सूत्र है जिस सूत्र में हमने सब भर दिया है। इस एक
छोटे शब्द में आध्यात्मिक जीवन के सारे रहस्यों को हमने निचोड़ कर रख दिया है। जैसे
हजार-हजार फूलों से निचोड़ कर इत्र बनता है, ऐसे हमने सारे आध्यात्मिक अनुभवों को निचोड़
कर जो इत्र बनाया है, वह
गुरु है। गुरु का कृत्य क्या है?
जहां
संगरेज़ों पे गिरते हैं गाहक
वहां
जिंसे-लालो-गुहर बेचता हूं
जहां
क़द्रदां हैं जमअ?
तल्ख़ियों
के
वहां क?न्दो-शहदो-शकर बेचता हूं
परस्तारियां
हैं जहां ज़ुल्मतों की
वहां
नूरे-शम्सो-क़मर बेचता हूं
जहां
दर्दे-दिल का मख़लिफ़ है आलम
वहां
दर्दे-दिल का असर बेचता हूं
छुपाकर
रदीफो-क़वाफ़ी के अंदर
मैं
दिल बेचता हूं,
जिगर
बेचता हूं
गुरु
का कृत्य यह हैः जहां संगरेज़ों पे गिरते हैं गाहक। जहां पत्थर के टुकड़ों को लोग
खरीद रहे हैं,
जहां
पत्थर के टुकड़ों पर गिर-गिर पड़ रहे हैं, जहां कंकड़ बीन रहे हैं और सोचते हैं कि
हीरे-जवाहरात इकट्ठे कर रहे हैं. . . !
जहां
संगरेज़ों पे गिरते हैं गाहक
वहां
जिंसे-लालो-गुहर बेचता हूं
--वहां लाल, मोती जैसे जवाहरात, वहां कोहिनूर बेचता हूं। गुरु
का यह कृत्य है कि जहां लोग कंकड़ खरीदने में लीन हैं वहां वह जवाहरात लाता
है--जवाहरात जो इस जगत् के नहीं हैं; कोहिनूर जो किसी और लोक के हैं; कोहिनूर जो उसकी समाधि में
उसे मिले हैं। कोहिनूर जो उसने अपने अंतर्तम की गहराइयों में उतर कर पाए हैं।
जहां
संगरेज़ों पे गिरते हैं गाहक
वहां
जिंसे-लालो-गुहर बेचता हूं
जहां
क़दद्रां है जमअ?
तल्ख़ियों
के
वहां
क़ंदो-शहदो-शकर बेचता हूं
और
जहां लोग कटुताओं के आदी हो गए हैं वहां मिठास बेचता हूं। जहां लोग जहर पीने को ही
जीवन समझ लिए हैं वहां मिठास बेचता हूं। जहां लोग कांटों को ही सब कुछ मान लिए हैं
वहां फूलों की गंध बेचता हूं।
जहां
क़दद्रां है जमअ?
तल्ख़ियों
के
वहां
क़ंदो-शहदो-शकर बेचता हूं
जहां
लोगों ने कड़वे स्वाद को ही मिठास समझ लिया है, जहां नीम को ही लोग आम समझ रहे हैं, वहां सद्गुरु वही है जो
मधुशाला खोल दे। परस्तारियां हैं जहां जुल्मतों की--जहां अंधेरों की पूजा हो रही
है. . .।
परस्तारियां
हैं जहां ज़ुल्मतों की
वहां
नूरे-शम्सो-क़मर बेचता हूं
वहां
सूर्य-चंद्र का प्रकाश बेचता हूं। जहां लोग अंधेरों की पूजा कर रहे हैं, जहां अमावस देवी हो गई है
वहां पूर्णिमा की खबर लाता हूं। और जहां लोग रातों के आदी हो गए हैं और भूल ही गए
हैं कि रातों की कोई सुबह भी होती है, वहां सुबह बेचता हूं।
परस्तारियां
हैं जहां ज़ुल्मतों की
वहां
नूरे-शम्सो-क़मर बेचता हूं
जहां
दर्दे-दिल का मुख़ालिफ़ है आलम
वहां
दर्दे-दिल का असर बेचता हूं
और उस
संसार में जहां प्रेम को खरीदने को कोई तैयार ही नहीं है, जहां सारा संसार हृदयविरोधी
है, जहां लोग मस्तिष्क को ही
एकमात्र मूल्य देते हैं, जहां
हृदय का विरोध है,
इनकार
है, निंदा है, अस्वीकार है; जहां प्रेम को अंधा कहा जाता
है और तर्क को आंखवाला कहा जाता है; जहां गणित जाननेवाले को होशियार कहा जाता है
और जहां प्रेम जाननेवाले को लोग भोला-भाला, बुद्धू समझते हैं; जहां निर्दोष होना बुद्धूपन
जैसा हो गया है और जहां चालबाज और चालाक होना होशियारी और प्रतिभा हो गई है। जहां
दर्दे-दिल का मुख़ालिफ़ है आलम . . .जहां प्रेम की पीड़ा का विरोध हो रहा है वहां
दर्दे-दिल का असर बेचता हूं। वहां प्रेम की पीड़ा की ही बेचने की मैंने दुकान खोल
रखी है क्योंकि प्रेम की पीड़ा से ही सेतु बनता है परमात्मा तक। जो हृदय में आंसुओं
से भर जाते हैं वे ही केवल उस तक पहुंच पाते हैं।
छुपाकर
रदीफ़ो-क़वाफ़ी के अंदर
मैं
दिल बेचता हूं,
जिगर
बेचता हूं
अपने
शब्दों में,
अपने
काव्य में छिपा-छिपाकर मैं दिल बेचता हूं, जिगर बेचता हूं। सद्गुरु वही है जो तुम्हारे
सोए दिल को जगा दे; जो
अपने धड़कते दिल के करीब तुम्हारे दिल को ले आए; उसके धड़कते दिल को देखकर तुम्हारा दिल धड़क
उठे; जो अपनी प्यास तुम्हें दे दे
और अपनी पीड़ा तुम्हें दे दे और अपने प्रेम तुम्हें दे दे; और एक दिन आए वैसी शुभ घड़ी जब
अपना परमात्मा तुम्हें दे दे।
श्री
सतगुरु-मुखचंद्र तें, सबद-सुधा-झरि
लागि।
हृदय
सरोवर राखु भरि,
दूलन
जागे भागि।।
दूलन कहते
हैं, मेरे भाग्य जागे। मेरे भाग्य
जागे क्योंकि सद्गुरु की शब्द-सुधा बरस रही है, उनकी वाणी का अमृत झर रहा है और मैं अपने
हृदय-सरोवर में भर रहा हूं। ऐसा ही तुम भी करो, दूलन कहते हैं। श्री सतगुरु-मुखचंद्र तें, सबद-सुधा-झरि लागि।
सद्गुरु
के शब्द शब्दों की तरह मत सुनना, उन
शब्दों में कुछ और भी है, कुछ
ज्यादा भी है जो शब्दों में नहीं होता। वे शब्द डूबे आ रहे हैं किसी शराब से। वे
किसी सुधा से भरे हैं, किसी
अमृत में डुबकी लगाकर आ रहे हैं। वे शब्द साथ में समाधि की गंध ला रहे हैं।
सबद-सुधा-झरि लागि. . .और जैसे झरी लगी हो वर्षा में. . .चूक मत जाना। कोई-कोई तो
वर्षा में भी चूक जाते हैं ऐसे अभागे हैं। अपने बर्तन को उल्टा रखकर बैठ गए तो
वर्षा में भी चूक जाओगे। और जो लोग भी बुद्धि से सुनते हैं वे बर्तन को उल्टा रखकर
बैठे हैं। हृदय को खोलो। पियो! सुनो मत, पियो। तो ही तुम्हारा हृदय-सरोवर भर सकेगा
अमृत से।
हृदय-सरोवर
राखु भरि,
दूलन
जागे भागि
और एक
बूंद भी पड़ जाए तो क्रांति घट जाती है। सरोवर भर जाए तब तो कहना ही क्या! एक बूंद
पड़ जाए तो क्रांति घट जाती है। एक बूंद पड़ जाए तो तुम्हारी जिंदगी की रौ बदल जाती
है, रंग बदल जाता है, ढंग बदल जाता है। तुम्हारे
पैरों में नृत्य आ जाता है। तुम्हारी आंखों में रौनक और तेज, और तुम्हारे प्राणों में जीने
की एक नई अभिलाषा! और तुम्हारे आसपास धुन बजने लगती है शाश्वत की, अनाहत की। फिर तुम इसी जिंदगी
में से,
इसी
भीड़-भाड़ में से नाचते हुए निकल सकते हो।
मसर्रत
की तानें उड़ाता गुज़र जा
तरब के
तराने सुनाता गुज़र जा
बशाशत
के दरिया बहाता गुज़र जा
ज़माने
से गाता-बजाता गुज़र जा
गुज़र
जा ज़मीं को नचाता गुज़र जा
सुन
सको तो यह हो जाए। हृदय से सुन सको तो यह हो जाए। विद्यार्थी की तरह नहीं, शिष्य की तरह सुन सको तो यह
हो जाए। और भक्त की तरह सुन लो तब तो तुम भी कहोः दूलन जागे भागि।
मसर्रत
की तानें उड़ाता गुज़र जा
तरब के
तराने सुनाता गुज़र जा
बशाशत
के दरिया बहाता गुज़र जा
ज़माने
से गाता-बजाता गुज़र जा
गुज़र
जा ज़मीं को नचाता गुज़र जा
मिटा
डाल एहसासे आज़ारे-ग़म को
जो
दाना है तो फेंक दे बारे-ग़म को
जला दे
फ़रामीने-सरकारे-ग़म को
जरी है
तो हर-एक दीवारे-ग़म को
हिलाता, बिठाता, गिराता गुज़र जा
ज़मानो-मकां
की सितमरानियों पर
मसायब
की हंगामा-सामानियों पर
हयाते-दोरोज़ा
की नादानियों पर
ख़ता और
ख़ता की पशेमानियों पर
नज़र
डालता मुस्कुराता गुज़र जा
ये
माना कि ये ज़िंदगी पुर-अलम है
ये
माना कि ये ज़िंदगी मौजे-सम है
ये
माना कि ये ज़िंदगी इक सितम है
ये
माना कि ये ज़िंदगी ग़म ही ग़म है
सरे-ग़म
पे ठोकर लगाता गुज़र जा
अगर हर
नफ़स है सताने पे माइल
अगर
ज़िंदगी है रुलाने पे माइल
अगर
आस्मां है मिटाने पे माइल
अगर
दहर है रंग उड़ाने पे माइल
खुद इस
दहर का रंग उड़ाता चला जा
जहां
की रविश है बहुत ज़ालिमाना
रिया
हर फ़सूं है,
दग़ा, हर फ़साना
न कर
फिर भी ये शिकवाए-आमियाना
कि
आंखें दिखाता है तुझको ज़माना
ज़माने
को आंखें दिखाता चला जा
मसर्रत
की तानें उड़ाता गुज़र जा
तरब के
तराने सुनाता गुज़र जा
बशाशत
के दरिया बहाता गुज़र जा
ज़माने
से गाता-बजाता गुज़र जा
गुज़र
जा ज़मीं को नचाता गुज़र जा
एक
बूंद भी पड़ जाए तो तुम नाच उठो। तो ठीक ही कहते हैं दूलन कि कैसे मेरे भाग्य, कैसा मेरा सौभाग्य!
हृदय-सरोवर
राखु भरि,
दूलन
जागे भागि
दूलन
गुरु तें विषै-बस,
कपट
करहिं जे लोग
निर्पल
तिनकी सेव है,
निर्पल
तिनका जोग
लेकिन
ऐसे अभागे भी हैं कि गुरु के पास भी कपट से जाते हैं। ऐसे नासमझ भी हैं, ऐसे नादान भी हैं, ऐसे मूढ़ भी हैं कि गुरु के
पास जाकर भी उनके भीतर की जो आकांक्षा होती है वह क्षुद्र को ही मांगने की होती
है। गुरु चाहे कोहिनूर देता हो, उनकी
नजर कंकड़-पत्थरों पर लगी रहती है। गुरु के पास जाकर भी वे अपने हृदय को पूरा नग्न
नहीं छोड़ पाते। वहां भी छिपा लेते हैं, वहां भी आड़ रखते हैं, वहां भी पर्दा रखते हैं।
चिकित्सक के पास बीमारी छिपाओगे तो चिकित्सा कैसे होगी? गुरु के पास कुछ भी नहीं
छिपाना,
तो ही
तुम विद्यार्थी के जगत् से ऊपर उठोगे और शिष्य बनोगे।
दूलन
गुरु तें विषै-बस,
कपट
करहिं जे लोग
लेकिन
हृदय में न मालूम कितने-कितने तरह की वासनाएं छिपाए हुए हैं लोग, उनको भी प्रकट नहीं करते।
कहते नहीं कि मैं कैसा हूं। कहते नहीं कि मैं कैसे जहर से भरा हूं। कहते नहीं कि
मेरी कैसी अपात्रता है। और तुम्हीं न कहो तो तुम्हें स्वच्छ कैसे किया जा सके? तुम्हारे पात्र को निखारा
कैसे जाए?
निर्पल
तिनकी सेव है. . .फिर तुम कितनी ही सेवा करो, गुरु के पैर दबाते रहो, पैर दबाने से कुछ भी न होगा
और सेवा करने से कुछ भी न होगा। एक ही सेवा है कि तुम गुरु के समक्ष अपने को अपनी
समग्रता में,
अपनी
समग्र नग्नता में खुला कर दो। तुम वैसे प्रकट हो जाओ जैसे हो। सारे संसार को धोखा
देते हो,
कम-से-कम
गुरु को तो धोखा मत दो! एक जगह तो ऐसी हो जहां तुम निर्भार हो सको और धोखा न देना
पड़े। एक जगह तो ऐसी हो जहां कुछ छिपाना न पड़े, जहां कोई झूठ न हो। और उसी जगह से त्राण
मिलेगा,
नहीं
तो सब योग,
सेवा, भजन-कीर्तिन-सब व्यर्थ है।
सुनत
चिकार पिपील की,
ताहि
रटहु मन माहिं
दूलनदास
बिस्वास भजु,
साहिब
बहिरा नाहिं
और
कहते हैं कि चींटी की पुकार भी पहुंच जाती है उस तक। सुनत चिकार पिपील की, ताहि रटहु मन माहिं। इसलिए
चिल्ला-चिल्लाकर कहने की कोई जरूरत नहीं है, सिर्प हृदय में ही निवेदन कर दिया तो बात हो
गई। बिन बोले कहा जा सकता है।
और
गुरु के पास यही कला सीखनी चाहिए बिन बोले कहने की, चुपचाप बैठ जाने की, भाव की तरंग से खबर पहुंचाने
की। और जब तुम्हें गुरु तक भाव से तरंग पहुंचने लगेगी तब तुम्हें भरोसा आएगा, जब गुरु तक पहुंचने लगी तो अब
परमात्मा तक भी पहुंच सकेगी। और असली प्रार्थना शब्द की नहीं होती निःशब्द होती है, मौन होती है; मुखर नहीं होती। बोलने को है
भी क्या हमारे पास? परमात्मा
से बोलना भी चाहेंगे तो क्या बोलेंगे? जो हम बोलेंगे उसे वह पहले से जानता है।
हमारे जानने से पहले उसने जाना है। कहने को क्या है? वह तो चींटी की आवाज भी सुन
लेता है। वह तो वृक्षों की आवाज भी सुन लेता है। वह तो पत्थरों की आवाज भी सुन
लेता है। वह तो सबके भीतर रमा बैठा है।
दूलन
यहि जग जनमिकै,
हरदम
रटना नाम
केवल
राम-सनेह बिनु,
जन्म-समूह
हराम
राम के
नाम को लेने की कला सीखो--चुपचाप, भाव के
जगत् में!
दूलन
यहि जग जनमिकै,
हरदम
रटना नाम--और अगर राम-राम राम-राम, ऐसा रटना पड़े तो तो चौबीस घंटे रट भी न
सकोगे। सोओगे तब तो बंद हो जाएगा रटना। और भी तो काम करने होंगे। बाजार भी जाना
होगा, दुकान भी चलानी होगी, रोटी भी कमानी होगी, बच्चों की देखभाल भी करनी
होगी। उसने तुम्हें जो जगत् और जीवन दिया है उसे छोड़कर भागना उसका अपमान होगा।
इसलिए
मैं भगोड़ों का पक्षपाती नहीं हूं। भगोड़े संन्यासी नहीं हैं, भगोड़े सिर्फ कायर हैं।
परमात्मा ने जिंदगी दी है, जीने
को दी है और उसके पीछे कुछ राज है। क्योंकि जिंदगी जीने से ही कोई जिंदगी के पार
जाने की कला सीखता है। जो जिंदगी से भाग गया वह जिंदगी का अतिक्रमण नहीं कर पाता।
सीढ़ी ही न चढ़ोगे तो सीढ़ी के पार कैसे जाओगे? सीढ़ी से ही भाग जाओगे तो पार कैसे जाओगे? इसलिए कोई राम-राम राम-राम
ऐसे रटते रहने का सवाल नहीं है, भाव के
जगत् में. . .।
तुम्हारा
किसी से प्रेम हो जाता है तो याद बनी रहती है। मां हजार काम करती है और बच्चे की
याद बनी रहती हैः वह झूले से नीचे तो नहीं उतर गया, कि वह सीढ़ी के पास तो नहीं
पहुंच गया,
कि दीए
के पास तो नहीं पहुंच गया! रात भी मां सोती है आकाश में बादल गरजते रहें वे उसे
सुनाई नहीं पड़ते लेकिन बच्चे की ज़रा-सी आवाज, बच्चे का ज़रा कुनमुनाना, और उसकी नींद खुल जाती है।
कैसा चमत्कार है! आकाश में बादल गरज रहे हैं, बिजली कौंध रही है और मां की नींद नहीं टूटी
और बच्चा ज़रा-सा कुनमुनाया और नींद खुल गई? कहीं भीतर भाव के लोक में स्मरण सतत बह रहा
है; नींद में भी बह रहा है।
दूलन
यहि जग जनमिकै,
हरदम
रटना नाम
केवल
राम-सनेह बिनु,
जन्म-समूह
हराम
सुनत
चिकार पिपील की,
ताहि
रटहु मन माहिं
मन ही
मन में रटो।
दुलनदास
बिस्वास भजु,
साहिब
बहिरा नाहिं।
और याद
रखो कि परमात्मा बहरा नहीं है--कि तुम्हें खूब चिल्लाना पड़े, कि तुम्हें जोर-जोर से अजान
करनी पड़े,
कि
तुम्हें जोर-जोर से मंदिर के घंटे बजाने पड?। परमात्मा बहरा नहीं है। परमात्मा तो
तुम्हारे भीतर ही बैठा है, घंटे
बजाकर तुम किसको सुना रहे हो? जोर-जोर
से चिल्लाकर तुम किसकी पूजा कर रहे हो? आंख बंद कर लो, चुप हो जाओ, और तुम्हारी पूजा पहुंच गई।
बंद आंख भीतर अपने खालीपन में ही अर्चना करो, साधना करो। भीतर के शून्य को ही उसके चरणों
में चढ़ाओ और सब फूल व्यर्थ हैं।
हम
जीवन के ही हिसाब से परमात्मा के संबंध में सोचने लगते हैं। हम सोचते हैं, जोर से चिल्लाओ तो लोग
सुनेंगे। तो हम सोचते हैं, परमात्मा
भी तभी सुनेगा जब जोर से चिल्लाएंगे। लोग शायद चिल्लाने से सुनते हों क्योंकि लोग
बहरे हैं। परमात्मा बहरा नहीं है। लोग शायद चिल्लाने से सुनते हों क्योंकि लोग
बहुत व्यस्त हैं और हजार विचारों में व्यस्त हैं। तुम्हारे विचार को पहुंचाने के
लिए आवाज देनी पड़ती है। लेकिन परमात्मा व्यस्त नहीं है, परमात्मा तो महाशून्य है।
वहां तो तुम्हारी ज़रा-सी भाव की तरंग जल्दी पहुंच जाएगी। और जितना तुम चिल्लाओगे
उतनी ही तुम खबर दोगे कि तुम्हें परमात्मा की कोई पहचान नहीं है। चिल्लाने वाले
चूक जाएंगे। जिंदगी में बड़े विरोधाभास हैं। जो गणित बाहर की दुनिया में काम आता है, वह भीतर की दुनिया में काम
नहीं आता। बाहर एक और एक मिलकर दो होते हैं, भीतर की दुनिया में एक और एक मिलकर एक होता
है।
जो चीज़
इकहरी थी वो दोहरी निकली
सुलझी
हुई जो बात थी उलझी निकली
सीपी
तोड़ी तो उससे मोती निकला
मोती
तोड़ा तो उससे सीपी निकली
जिंदगी
गहराइयों पर गहराइयां हैं, पर्तो
पर पर्ते हैं। और तुम सबसे गहरी पर्त को अगर तोड़ते ही चले गए, तोड़ते ही चले गए तो तुम शून्य
को पाओगे अपने भीतर, सन्नाटा
पाओगे। वही सबसे गहरी पर्त है तो वही सबसे गहरी प्रार्थना भी बनेगी।
चितवन
नीची, ऊंच मन, नामहि जिकिर लगाय
दूलन
सूझै परम-पद,
अंधकार
मिटि जाए
शुरू-शुरू
में तो भरोसा न आएगा कि बिना कहे और उस तक खबर पहुंच जाएगी? यहां तो कह-कहकर खबरें नहीं
पहुंचतीं तो बिना कहे कैसे पहुंच जाएगी? शुरू-शुरू में तो भरोसा न आएगा कि बिना कुछ
किए परमात्मा मिल सकता है। यहां तो कितना श्रम करते हैं और धन नहीं मिलता, ध्यान कैसे मिलेगा? पद नहीं मिलता तो परमात्मा
कैसे मिलेगा?
मगर
गणित अलग-अलग है।
कभी
किसी झील के पास जाकर खड़े हुए हो, झील
में झांककर देखा है? तो
तुम्हारा झील में जो प्रतिबिंब बनता है वह उल्टा बनता है। उसमें सिर नीचे की तरफ, पैर ऊपर की तरफ होंगे। जो
मछलियां झील में तैर रही हैं, वे अगर
तुम्हारे प्रतिबिंब को देखें और सोचें कि ऐसे ही तुम होओगे तो बड़ी भूल हो जाएगी।
तुम प्रतिबिंब से ठीक उल्टे हो।
यह
संसार तो केवल प्रतिबिंब है। यह तो सपने में बनी एक छाया है। यह तो माया है। इससे
ठीक उल्टा गणित काम करता है। यहां कहना हो कुछ तो बोलना पड़ता है, वहां कहना हो तो चुप होना
पड़ता है। यहां पहुंचना हो कहीं तो यात्रा करनी पड़ती है, वहां पहुंचना हो कहीं तो सारा
चलना छोड़ देना पड़ता है। यहां प्रयास से मिलता है कुछ, महाप्रयास से मिलता है। वहां
अप्रयास से मिलता है, प्रसाद
से मिलता है। इससे ठीक उल्टा है वह जगत्। लेकिन शुरू-शुरू में तो कैसे भरोसा आए? शुरू-शुरू में तो किसी
सद्गुरु के साथ-साथ चलना सीखना पड़ेगा। किसी सद्गुरु की आंखों में आंखें डालकर शायद
थोड़ी संभावना बने भरोसे की। नहीं तो बड़ा अविश्वसनीय लगता है, हजार संदेह उठते हैं।
मित्र
आशा के सहारे,
सोचता
था लग सकेगी पार ये नौका किनारे।
किंतु
सागर की हिलोरें,
और
मेघाच्छन्न अंबर।
तेज
चलता था प्रभंजन,
और
नौका जीर्ण-जर्जर।
बुझ
चुके थे आह,
नन्हें
दीप नभ के,
मौन
तारे।
हाथ
में पतवार जिसके,
था न
कुछ विश्वास उसका।
और
यात्री बन चुका था,
मद्दतों
से दास उसका।
अब उसी
पर था डुबोए और चाहे तो उबारे।
डूब
जाना है उदधि का,
किंतु
शायद पार पाना।
और खो
देना मुहब्बत का
उसे मन
में छिपाना।
फिर न
कैसे छोड़ देता नाव आशा के सहारे।
मित्र
आशा के सहारे।
पहली
बार तो सिर्फ आशा के सहारे ही नाव छोड़नी पड़ती है। किसी के प्रेम से अगर तुम्हारे
भीतर आशा की किरण पैदा हो जाए तो तुम नाव छोड़ दो। क्योंकि इस जगत् में बच-बच कर भी
आदमी डूब जाता है और उस जगत् में डूबने में ही बचना है। उस जगत् में वे ही पार
उतरे जो डूब गए,
जिन्होंने
अपने को पूरा डुबा लिया। लेकिन डूबने से डर तो लगेगा, मन तो घबड़ाएगा! मन तो हजार
शंकाएं उठाएगा। उस घड़ी कौन बंधाएगा ढाढस?
इसलिए
दूलन कहते हैं,
गुरु
के शब्दों को पीना हृदय में, भरना
हृदय में। उन्हीं शब्दों से साहस आएगा, आशा आएगी, विश्वास आएगा। उन्हीं शब्दों
के आस-पास तुम्हारे भीतर धीरे-धीरे श्रद्धा की ऊर्जा उमगेगी, निर्मित होगी। और ज़रा-सी
श्रद्धा पहुंचा देती है। बड़े-से-बड़ा तर्क हार जाता है, ज़रा-सी श्रद्धा पहुंचा देती
है। तर्को के पहाड़ व्यर्थ हैं; श्रद्धा
की राई काफी है।
मगर
मनुष्य की अड़चन भी समझने जैसी है। यहां जहां-जहां विश्वास किया वहां-वहां धोखा
खाया। जिस पर भरोसा किया उसी ने धोखा दिया। जब भरोसा किया तभी धोखा खाया। इसलिए
धीरे-धीरे भरोसे की आदत टूट गई है। हमने एक अजीब दुनिया बनाई है। हमने एक ऐसी
दुनिया बनाई है जिसमें संदेह को तो बनने के लिए सब उपाय हैं और श्रद्धा को बनाने
के कोई उपाय नहीं हैं।
इसलिए
मैं कहता हूं,
यह
दुनिया अभी धार्मिक नहीं है। और इस दुनिया में अभी कोई देश धार्मिक नहीं हुआ।
इक्के-दुक्के लोग धार्मिक हुए हैं। कोई देश अभी धार्मिक नहीं हुआ। भारत भी अभी
धार्मिक नहीं हुआ। ये भ्रांतियां हैं। किसी देश को मैं धार्मिक कहूंगा? मेरी परिभाषा में वह देश
धार्मिक होगाः जहां का जीवन लोगों में सहज ही श्रद्धा को जन्माता होः उसको हम
धार्मिक देश कहेंगे। जहां संदेह अपने आप मर जाते हों; जहां जीना, लोगों से संबंधित होना
अपने-आप संदेह की मृत्यु हो जाती हो; जहां जीवन के सारे अनुभव श्रद्धा को भरते
हों, परिपूरित करते हों, परिपुष्ट करते हों उस देश को
धार्मिक कहेंगे। और कोई परिभाषा नहीं हो सकती धर्म की। धर्म की एक ही परिभाषा हो
सकती हैः जिस माहौल में, जिस
हवा में,
जिस वातावरण
में श्रद्धा सहज ही पैदा होती हो और संदेह का पैदा होना ही मुश्किल हो।
अभी तो
हालात उल्टे हैं,
सब जगह
उल्टे हैं। अभी तो संदेह सहज पैदा होता है। पहली बात ही संदेह की उठती है। श्रद्धा
तो करीब-करीब असंभव मालूम पड़ती है। अपनों पर भी लोग श्रद्धा नहीं करते। पति पत्नी
पर श्रद्धा नहीं करता, पत्नी
पति पर श्रद्धा नहीं करती। दोनों एक-दूसरे की जासूसी करते रहते हैं कि कहीं दूसरा
धोखा न दे रहा हो! बच्चे मां-बाप पर भरोसा नहीं करते, मां-बाप बच्चों पर भरोसा नहीं
करते। मित्र मित्र पर भरोसा नहीं करते, शत्रुओं की तो बात ही छोड़ दो। तुम किस पर
भरोसा करते हो,
तुमने
कभी सोचा?
तुम
किसी पर भरोसा करते हो या सबसे तुम्हारे संबंध संदेह के हैं? चाहे तुम कहो चाहे तुम न कहो
कहने की बात नहीं कर रहा हूं। भीतर खोजना तुम्हारे सारे संबंध संदेह के हैं तो फिर
तुम्हारे जीवन में श्रद्धा कैसे और कब पैदा होगी? इन सारे संदेहों से भरे जगत्
में, जहां संदेह को सब तरफ से बल
मिलता है,
प्राण
मिलते हैं,
हर
अनुभव से संदेह और पुष्ट होता है, तुम और
चालबाज और कपटी और बेईमान हो जाते हो, वहां किसी एक ऐसे संबंध को तो निर्मित कर लो
जीवन में,
कम-से-कम
एक संबंध तो ऐसा हो जहां सारे संदेह उतारकर रख दो; जहां श्रद्धा से जुड़ो--वही
शिष्य-भाव है।
मर-मर
के जब इक बला से पीछा छूटा
इक
आफ़तेत्ताज़ादम ने आकर लूटा
इक
आबला-ए-नौ से हुआ सीना दो चार
जैसे
ही पुराना कोई छाला टूटा
तुम्हारी
जिंदगी का अनुभव ऐसा है कि मर-मर के जब इक बला से पीछा छूटा। किसी तरह छुटकारा एक
बला से हो भी नहीं पाता, इक
आफ़तेत्ताज़ादम ने आकर लूटा--कि एक नई मुसीबत आकर लूट लेती है। इक आबला-ए-नौ से हुआ
सीना दो चार--हृदय में एक छाला बना, किसी तरह वह घाव भर भी नहीं पाया था, जैसे ही पुराना कोई छाला
टूटा. . .कि नया आ गया। देर नहीं लगती। धोखे पर धोखे, बेईमानी पर बेईमानियां। चारों
तरफ बेईमानियां हैं। चारों तरफ राजनीति है। हर आदमी तुम्हारी गर्दन काटने को उतारू
है, चाहे मुस्कुरा रहा हो!
क्योंकि यहां मुस्कुराकर ही गर्दन काटी जाती है। चाहे तुम्हारे पैर दबा रहा हो!
क्योंकि यहां पैर दबाकर ही गर्दन पकड़ी जाती है। तुमसे बातें कुछ भी कर रहा हो
लेकिन नजर तुम्हारी जेब पर लगी है। कब तुम्हारी जेब काट लेगा कहना मुश्किल है।
यहां
चारों तरफ बेईमानी है, चारों
तरफ धोखा है। इस धोखे के बीच यह चमत्कार है कि कोई व्यक्ति शिष्यत्व को उपलब्ध हो
जाए। यह सौभाग्य की घड़ी है कि तुम्हें ऐसा व्यक्ति मिल जाए जिसके पास तुम श्रद्धा
कर लो और तुम कह दो कि ठीक है, लूटना
हो तो लूट लो,
लेकिन
मैं संदेह न करूंगा। मिटाना हो तो मिटा डालो, मैं संदेह न करूंगा। कर लिया संदेह बहुत, हाथ राख ही लगी। अब थोड़ा
श्रद्धा का रस लेकर भी देखूं।
सर घूम
रहा है नाव खेते-खेते
अपने
को फ़रेबे-ऐश देते-देते
उफ़
जहदे-हयाते! थक गया हूं माबूद
दम टूट
चुका है सांस लेते-लेते
मनुष्य
की ऐसी हालत है--सर घूम रहा है नाव खेते-खेते। न कहीं पहुंचती नाव, न किसी किनारे लगती, गोल चक्कर खा रही है--जैसे
कोल्हू का बैल हो!
सर घूम
रहा है नाव खेते-खेते
अपने
को फ़रेबे-ऐश देते-देते
और हम
दूसरों को ही धोखा नहीं दे रहे हैं, अपने को भी धोखा दे रहे हैं। कल भी तुमने
क्रोध किया था और कल भी तुमने कसम खाई थी कि अब क्रोध न करेंगे, कोई सार नहीं है। आज फिर तुम
क्रोध कर रहे हो। तुम खुद को ही धोखा दे रहे हो? कल भी तुमने कहा था यह सब
व्यर्थ है,
इसमें
कोई सार नहीं है,
अब
दुबारा नहीं पड़ना है। आज फिर पड़े जा रहे हो, अपने को ही धोखा दे रहे हो? कल भी कहा था बहुत दौड़ चुके
धन के पीछे,
क्या
सार! कल आएगी मौत,
सब पड़ा
रह जाएगा। मगर आज भी दौड़ रहे हो। और अगर तुम्हारे अतीत का हिसाब रखा जाए तो तुम कल
भी दौड़ोगे,
परसों
भी दौड़ोगे,
तुम
दौड़ते-दौड़ते मौत में ही गिर जाओगे, तब तक दौड़ोगे। तुम अपने को भी धोखा दे रहे
हो।
और ऐसा
नहीं कि तुम्हें अनुभव नहीं हुए। ऐसा नहीं कि तुम्हें कई बार यह बोध नहीं मिला कि
पहुंच गए बड़े पद पर, क्या
पाया? मगर फिर भी दौड़ जारी है। धन
भी मिल गया,
क्या
पाया? फिर भी दौड़ जारी है। जैसे कि
तुम रुकना ही भूल गए हो; जैसे
कि तुम रुको कैसे यही तुम्हें समझ में नहीं आता; जैसे कि तुम्हारी गाड़ी बिना
बेक्र के है। चिल्लाते हो, चीखते
हो कि रुकना है,
रुकना
चाहता हूं मगर गाड़ी है कि चलती चली जाती है। अपने को ही धोखा दे रहे हो!
सर घूम
रहा है नाव खेते-खेते
अपने
को फ़रेबे-ऐश देते-देते
उफ़
जहदे-हयात! थक गया हूं माबूद
हे
ईश्वर! जिंदगी के संग्राम से बहुत थक गया हूं। दम टूट चुका है सांस लेते-लेते। अगर
ऐसा अनुभव आ गया हो तो अब श्रद्धा का पाठ सीखो। अब एक नई सांस लो। एक नए लोक में, एक नई हवा में, नई किरणें पियो, नई शबनम पियो। नए चांदत्तारों
से जुड़ो। देख लिया संदेह का एक संसार, अब थोड़ा श्रद्धा का लोक भी अनुभव करो।
चितवन
नीची, ऊंच मन, नामहि जिकिर लगाय
अब आंख
नीची कर लो,
अर्थात्
अहंकार को अब हटा दो। बहुत अकड़ कर देख लिया, कुछ पाया नहीं, सिर्फ कष्ट पाया। चितवन नीची.
. .अब आंख नीची कर लो अब अहंकार को हटा दो। ऊंच मन--अब चैतन्य को जगाओ। अहंकार को
तो गिराओ और चैतन्य को जगाओ।
नामहि
जिकिर लगाय. . .और प्रक्रिया इसकी, दोनों काम की प्रक्रिया एक ही है। अगर प्रभु
के नाम का स्मरण लगने लगे तो एक तरफ अहंकार घटेगा और दूसरी तरफ चैतन्य जगेगा।
नामहि जिकिर लगाय।
दूलन
सूझै परम-पद,
अंधकार
मिटि जाए
तो
जल्दी ही परम पद मिल जाएगा। परम पद का अर्थ होता है, जिसे पाने के बाद फिर और कुछ
पाने को न रह जाए;
जिसे
पाते ही सब पा लिया। जिसे पाया तो पता चला कि कभी कुछ खोया ही नहीं था उसे कहते
हैं परम पद।
और
अंधकार मिटि जाए--अंधकार हमारे संदेहों के कारण है। हमारे संदेह ही जम-जमकर गहन
अंधकार हो गए हैं। हमारा संदेह ही हमारी अमावस बन गई है। और हमारी श्रद्धा के ही
छोटे-छोटे दीए जलने लगें तो दीवाली हो जाए।
मगर
ऐसा लगता है कि संदेह समझदारी है और श्रद्धा भोलापन है। संदेह लगता है बुद्धिमानी
है और श्रद्धा अपने हाथ लुटने की तैयारी है। लगता ऐसा है, हालत बिल्कुल उल्टी है। यहां
संदेह के हाथों लोग लुटे हैं और श्रद्धा के हाथों पहुंचे हैं। अब तक कोई भी अगर
पहुंचा है तो श्रद्धा से पहुंचा है और संदेह से लुटा है।
फ़क़ीहे-शहर
गर दाना-ए-राजे-ज़िंदगी होता,
तो फिर
वो भी शरीके-महफ़िले-बादाकशी होता।
किसी
ने वक्ते-म?स्ती जामे-मैं छलका दिया वरना,
चिराग़ेत्तूर
पर दारो-मदारे-रोशनी होता।
दलीलों
में उलझ कर रह गई थी अक्ल? बेचारी,
ग़ज़ब
होता अगर दिल भी हलाके-आगही होता।
यही इक
इम्तियाज़ी शान है हम बेनवाओं की,
फ़क़ीहे-शहर--शहर
का महापंडित,
गर
दाना-ए-राजे-ज़िंदगी होता--अगर वह भी जीवन के भेद का ज्ञाता होता। तो फिर वो भी
शरीके-महफ़िले-बादाकशी होता--तो उसने भी फिर पियक्कड़ों की महफिल में सम्मिलित होने
के लिए दरख्वास्त दे दी होती। अगर पंडित को कुछ पता होता तो वह भी पियक्कड़ हो गया
होता। फिर वह भी शास्त्रों में ही न उलझा रहता, जहां मधु-कलश छलक रहे हैं वहां गया होता; उसने भी सद्गुरु खोजे होते।
फ़क़ीहे-शहर
गर दाना-ए-राजे-ज़िंदगी होता,
तो फिर
वो भी शरीके-महफ़िले-बादाकशी होता।
अगर सच
में ही वह पंडित पंडित होता तो किताबों में ही न उलझा रह जाता तो फिर उसने भी पी
होती; तो फिर वह भी पियक्कड़ों के
साथ बैठा होता;
तो
उसने भी फिर मस्तों के साथ दोस्ती बनाई होती; तो वह भी किसी सत्संग में सम्मिलित हुआ
होता।
किसी
ने वक्ते-म?स्ती जामे-मै छलका दिया वरना,
चिराग़ेत्तूर
पर दारो-मदारे-रोशनी होता।
दलीलों
में उलझ कर रह गई थी अक्ल? बेचारी,
ग़ज़ब
होता अगर दिल भी हलाके-आग ही होता।
बुद्धि
में ही उलझे रहोगे या कभी दिल को भी डुबाओगे कहीं? बुद्धि यानी संदेह, दिल यानी हृदय। जब तक दिल
ज्ञान का घायल न हो जाए, जब तक
ज्ञान का तीर दिल को न लगे तब तक तुम्हारी जिंदगी में चमत्कार न होगा। तुम्हारी
जिंदगी ऐसे ही रहेगी थोथी, धूल-भरी।
दलीलों
में उलझ कर रह गई थी अक्ल? बेचारी,
ग?ज़ब होता अगर दिल भी हलाके-आग
ही होता।
ये
बुद्धि में ही लगते रहे तीर प्रश्नों के। अगर एकाध तीर हृदय में चुभ गया होता तो
ग़ज़ब होता;
तो
चमत्कार होता--
ग़ज़ब
होता अगर दिल भी हलाके-आग ही होता
यही इक
इम्तियाज़ी शान है हम बेनवाओं की
यही
विशिष्टता है इस जगत् में एकमात्र। यही इक इम्तियाज़ी शान है हम बेनवाओं की। बाहर
से निर्धन दिखाई पड़ने वाले, बाहर
से सरल-सीधे दिखाई पड़ने वाले लोग! मगर उनकी यही शान है, उनकी यही प्रतिभा है, उनका हृदय घायल है। वे प्रेम
से पीड़ित हैं। उनके भीतर श्रद्धा का आविर्भाव हुआ है। उनके भीतर शिष्यत्व जन्मा
है।
गुरुवचन
बिसरै नहीं,
कबहुं
न टूटै डोरि
पियत
रहौ सहजै दुलन,
राम-रसायन
घोरि
कहते
हैं दूलन कि कुछ भी करूं, गुरु
के वचन नहीं बिसरते मुझे। बिसारना चाहूं तो भी नहीं बिसरते। छाया की तरह पीछे पड़े
रहते हैं। उठूं-बैठूं, जागूं-सोऊं, वे साथ ही होते है; हवा की तरह घेरे रहते हैं।
जैसे श्वास चलती रहती है ऐसे ही उनका स्मरण चलता रहता है।
गुरुवचन
बिसरै नहीं,
कबहुं
न टूटै डोरि! वह जो धागा जुड़ गया है प्रेम का वह जो प्रीति का धागा जुड़ गया है वह
टूटता ही नहीं;
तोड़ने
का उसे उपाय नहीं। कोई तलवार उसे काट नहीं सकती। और कोई आग उसे जला नहीं सकती।
पियत
रहौ सहजै दुलन,
राम-रसायन
घोरि! और अब तो पीता रहता हूं, पीता
ही रहता हूं,
राम-रसायन
को घोलता रहता हूं और पीता जाता हूं।
ऐसे ही
दूलन कहते हैं,
तुम भी
सौभाग्यशाली बनो जैसा मैं बना। कि मैंने गुरु के पास राम-रसायन पी। डोर टूटने दी, भीतर जिक्र को जगाए रखा, ऐसे ही तुम भी पियो। सुनो ही
मत, पियो। पचाओ! रक्त-मांस-मज्जा
बन जाएं गुरु के वचन। तुम्हारे अंग बन जाएं। तुम्हारी बुद्धि की सूचनाएं ही न रहें, तुम्हारे हृदय पर फैल जाएं।
तुम्हें कोई काटे तो भी गुरु के ही वचनों को तुम्हारे भीतर पाए, या वही जिक्र परमात्मा का।
कहते
हैं सरमद की जब गर्दन काटी गई तो ऐसा चमत्कार हुआ--होना चाहिए; हुआ हो या न हुआ हो मगर होना
चाहिए। यह बात ऐतिहासिक हो या न हो मगर यह बात आध्यात्मिक है और गहरी है; इतिहास से ज्यादा गहरी है।
तथ्य न भी हो मगर सत्य है। सरमद का यह कसूर कि वह घोषणा करता था अनलहक की, कि मैं ईश्वर हूं। और यह
मुसलमानों को बरदाश्त न हुआ। यह कैसे बरदाश्त हो?
यह
इतनी हिम्मत तो केवल इस देश में हुई कि "अहं ब्रह्मास्मि' की उद्घोषणा को हमने अंगीकार
किया। हमने तत्त्वमसि की उद्घोषणा को अंगीकार किया। हमने कहा यह और वह एक हैं, इसे हमने सिद्धांततः स्वीकार
किया। हमने किसी "अहं ब्रह्मास्मि' की घोषणा करनेवाले को सूली नहीं दी और न
गर्दन काटी। भारत के नाम पर और बहुत तरह के लांछन हैं, कम-से-कम एक लांछन नहीं
है--इसने किसी अनलहक के उद्घोषक को मंसूर की तरह या सरमद की तरह मारा नहीं। इतनी
समझ रखी,
इतना
शिष्टाचार रखा।
सरमद
की गर्दन काट दी गई। जब गर्दन काटी गई तो आखिरी वक्त सरमद से कहा गया कि अब भी तू
माफी मांग ले और कह दे कि मैं ईश्वर नहीं हूं, तो तुझे क्षमा मिल सकती है। लेकिन सरमद ने
कहा कि यह मेरे वश से बाहर है। जैसा है उससे अन्यथा मैं कैसे कह दूं? और मैं तुमसे इतना कहता हूं
कि गर्दन मेरी काटो या न काटो, गर्दन
नहीं कटेगी तो भी वही कहूंगा गर्दन कट गई तो भी वही कहूंगा। यह मैं कह ही नहीं रहा
हूं, यह वह कह रहा है जो गर्दन के
पार है। फिर उसकी गर्दन काट दी गई। और लाखों लोगों की भीड़ इकट्ठा थी और उस भीड़ ने
एक चमत्कार देखा। मस्जिद की सीढ़ियों से उसकी गर्दन लुढ़कती हुई नीचे आई और हर सीढ़ी
पर उस गर्दन ने आवाज दीः अनलहक! मैं ईश्वर हूं। तीन बार आवाज दी।
यह
प्रीतिकर बात है। ऐसा ऐतिहासिक रूप से हो यह जरूरी नहीं है, मगर सरमद जैसे व्यक्ति के आंतरिक
सत्य की उद्घोषणा है इसमें। जिसके रोएं-रोएं में बात समा गई हो उसकी मृत्यु में भी
घोषणा हो सकती है।
और यह
भी हो सकता है कि ऐसा हुआ हो। इस जगत् में इतने चमत्कार हो रहे हैं कि यह
छोटा-मोटा चमत्कार है, यह भी
हो सकता है। इस तरह का उल्लेख सरदार पूर्णसिंह ने स्वामी रामतीर्थ के संबंध में भी
किया है;
और वह
तो पुरानी बात नहीं है। और सरदार पूर्णसिंह सजग, विचारशील व्यक्ति थे, कोई भावुक भक्त नहीं।
एक रात
स्वामी राम के साथ रुके। टिहरी गढ़वाल की पहाड़ियों में राम मेहमान थे। टिहरी गढ़वाल
के नरेश का बंगला था दूर पहाड़ियों में, उसमें ठहरे थे। सरदार पूर्णसिंह साथ रुके।
आधी रात अचानक राम-राम-राम, ऐसी
आवाजें आने लगीं। चौंके। कौन राम-राम कर रहा है? क्या रामतीर्थ बैठकर ध्यान कर
रहे हैं?
उठे, लालटेन जलाई, राम तो सोए हैं लेकिन आवाज आ
रही है। सोचा,
कोई
बाहर होगा। वरांडे में जाकर चक्कर लगा आए। पूरे बंगले का चक्कर लगा आए, कोई नहीं है। सब तरफ सन्नाटा
है। लेकिन हैरान हुए कि बाहर गए तो आवाज थोड़ी धीमी आने लगी और भीतर आए तो आवाज जोर
से आने लगी। फिर आए राम के पास, जब
बिल्कुल पास आए खाट के तो देखा कि आवाज और जोर से आने लगी। तो राम के हाथ पर कान
रखकर, पैर पर कान रखकर सुना तो आवाज
बहुत जोर से आने लगी। तो राम को जगाया और कहा कि आप क्या कर रहे हैं? आपके शरीर से राम-राम-राम की
आवाज आ रही है।
तो राम
ने कहा,
बहुत
स्मरण किया पहले,
वह
स्मरण समा गया है। अब मैं तो नहीं करता मगर वह अपने से होता रहता है। प्रतिध्वनि
गूंजती रहती है। तुम घबड़ाओ न, तुम
मजे से सो जाओ। क्षमा करना मुझे, तुम्हारी
नींद में बाधा पड़ी मगर मेरे वश के बाहर है।
अगर
शरीर से राम की ध्वनि उठ सकती है तो कुछ आश्चर्य नहीं कि सरमद की गर्दन से भी उठ
आई हो। मगर ऐसा ही जब जिक्र तुम्हारे भीतर समा जाए तभी जानना कि राम-रसायन को घोल
कर पिया;
कि अब
उसे पचाया। और जितना दोहराओगे, जितना
भाव में गहराओगे उतनी ही भीतर और भीतर. . . क्योंकि तुम्हें अपनी गहराइयों का पता
नहीं है कि तुम कितने गहरे हो! तुम उतने ही गहरे हो जितना यह आकाश गहरा है।
मिक़राज़
ख़ुद अपने को कतर जाती है
जम
जाती है लौ,
आग
ठिठर जाती है
जितना
भी उभारती है जिस चीज़ को अक्ल?
उतना
ही वो ग़ार में उतर जाती है
उभारो!
अपनी प्रतिभा में किसी भी बात को उभारो और तुम पाओगे वह तुम्हारे भीतर और भीतर, और तुम्हारी गहराइयों में उतर
गई है। और तुम्हारे भीतर ऐसी गहराइयां हैं जहां जो नहीं होना चाहिए, होता है। कैंची खुद को नहीं
काट सकती--मिक़राज ख़ुद अपने को कतर जाती है। लेकिन तुम्हारे भीतर ऐसी गहराइयां हैं
जहां कैंची ख़ुद कैंची को काट देती है। जम जाती है लौ। अब आग की लौ नहीं जम सकती।
क्योंकि आग की लौ आग है, जम
कैसे सकती है?
कोई
बर्प तो नहीं। जम जाती है लौ, आग
ठिठर जाती है। तुम्हारे भीतर ऐसी गहराइयां हैं, ऐसे रहस्यों के लोक हैं!
जितना
भी उभारती है जिस चीज़ को अक्ल?
उतना
ही वो ग़ार में उतर जाती है
तुम्हें
अपनी ही गहराइयों का कोई पता नहीं है। तुम अपने ही घर के द्वार पर बैठे हो, भीतर ही नहीं गए। तुम अपने
महल में ही प्रविष्ट नहीं हुए। तुम महल के बाहर ही घूम रहे हो और बड़े प्रसन्न हो।
तुम्हें अपने ही खजानों से कोई नाता-रिश्ता नहीं बना है और तुम दूसरों के खजानों
पर आंखें ललचा रहे हो। काश, तुम्हें
अपना खजाना मिल जाए तो तुम्हारीर् ईष्या, तुम्हारी जलन, तुम्हारा लोभ तत्क्षण गिर
जाए। क्योंकि उससे ज्यादा पाने को न कहीं कुछ है, न कभी कुछ था, न कभी कुछ होगा। तुम परम धन
हो। तुम परम पद हो!
विपति-सनेही
मीत सो,
नीति-सनेही
राउ
दूलन
नाम-सनेह दृढ़,
सोई
भक्त कहाउ
कहते
हैं, विपत्ति में जो साथ दे वह
मित्र। सद्चरित्र,
नीति
में जो साथ दे वह राजा। दूलन नाम-सनेह दृढ़, सोई भत्त कहाउ। और जो अपने हृदय में स्नेह
को ऐसा दृढ़ कर ले,
ऐसा
दृढ़ कि जहां--
मिक़राज़
ख़ुद अपने को कतर जाती है
जम
जाती है लौ,
आग
ठिठर जाती है
सोई
भक्त कहाउ. . .वही भक्त कहलाता है।
विद्यार्थी, शिष्य और भक्त। भक्त
पराकाष्ठा है। वहां बस, स्नेह
ही स्नेह रह जाता है, और सब
विलीन हो जाता है। प्रीति ही प्रीति रह जाती है। प्रीति की उस परम सघनता का नाम
भक्ति है।
अपने
तो फिर अपने हैं ग़ैरों का चलन बदला।
अंदाज़े
नज़र बदला,
उनवाने-सुख़न
बदला।
दीवाने
तो दीवाने खोए गए फरफ़ाने,
यूं
फ़स्ले-बहार आई यूं रंगे-चमन बदला।
फिर
दौर में साग़र है फिर मौज में सहबा है,
तक़दीरे-चमन
बदली आईने-चमन बदला।
जो
क़तरा है मोती है जो ज़र्रा है नाफ़ा है,
मएयारे-नज़र
बदला हर नक्शे-कुहन बदला।
तुम्हारे
भीतर प्रीति सघन हो तो सारी दुनिया दूसरी हो जाती है।
अपने
तो फिर अपने हैं,
ग़ैरों
का चलन बदला।
अंदाज़े
नजर बदला,
उनवाने-सुखन
बदला।
दीवाने
तो दीवाने खोए गए फरफ़ाने,
दीवाने
तो खो ही जाते हैं जब प्रीति सघन होती है। बड़े-बड़े बुद्धिमान! वे भी दीवाने हो
जाते हैं। प्रेम की अलमस्ती ऐसी है।
दीवाने
तो दीवाने खोए गए फरफ़ाने,
यूं
फ़स्ले-बहार आई यूं रंगे-चमन बदला।
जब
बहार आती है,
फ़स्ले-बहार
आती है और जब चमन का रंग बदलता है तो फूल तो फूल, कांटे भी खिल जाते हैं। फूल
तो फूल,
पत्थर
भी खिल जाते हैं।
दूलन
नाम-सनेह दृढ़,
सोइ
भक्त कहाउ
इस चमत्कार
को घटने दो अपने में। बनो भक्त। तो ही तुम जान सकोगे कि जीवन का रहस्य क्या है; तो ही तुम जान सकोगे कि
परमात्मा ने कितना दिया है और फिर भी तुम नंगे के नंगे! फिर भी तुम भिखमंगे के
भिखमंगे! और परमात्मा ने इतना दिया है कि तुम सम्राट हो।
राम
नाम दुइ अच्छरै,
रटै
निरंतर कोइ
दूलन
दीपक बरि उठै,
मन
परतीति जो होइ
रटते
रहो! रटने से खयाल रखना, शब्दों
का ही मतलब नहीं है, भाव
में गहराते रहो,
गहराते
रहो। राम नाम दुइ अच्छरै. . .यह छोटा-सा नाम राम का रटते रहो। रटै निरंतर कोइ।
दूलन दीपक बरि उठै. . .इसको रटते-रटते ही भीतर का दीया जल उठता है।
तुमने
इस तरह की कहानियां तो सुनी हैं न कि शास्त्रीय संगीत में पुराने दिनों में दीपक
राग होता था! एक विशिष्ट राग के बजाने से बुझे हुए दीए में ज्योति जल जाती थी। आज
तो बात कल्पना जैसी लगती है, कहानी
जैसी लगती है,
पुराण
जैसी लगती है। लेकिन वैज्ञानिक कहते हैं कि यह संभव है क्योंकि ध्वनि विद्यतु का
ही एक रूप है। और ध्वनि की एक खास तरह की चोट आग पैदा कर सकती है।
इसलिए
जब फौजी टुकड़ी कभी किसी पुल पर से गुजरती है तो उनको कह दिया जाता है वे लयबद्धता
से न चलें जैसे उनकी चलने की आदत होती है--लैफ्ट-राइट, लफ्ट-राइट उसको तोड़ दें।
क्योंकि बहुत बार ऐसा हुआ है कि सब तरफ से मजबूत पुल टुकड़ी के लैफ्ट-राइट करते हुए
गुजरने से टूट गया है। और धीरे-धीरे यह समझ में आया कि वह एक खास लय की जो चोट है
वह पुल को तोड़ देती है। उस लय से पुल पर से गुजरना नहीं होता। इसलिए दुनिया के
सारे देशों में,
जब भी
कोई सेना पुल पर से गुजरती है तो उसको कह दिया जाता है कि लयबद्धता से न चले, लय को तोड़ दे। लय का आघात, ध्वनि का आद्यात अग्नि को
पैदा कर सकता है।
इस बात
की संभावना है कि दीपक राग जैसी कोई चीज रही हो। मगर रही हो न रही हो, मुझे उससे प्रयोजन नहीं।
शास्त्रीय संगीत से मुझे कुछ लेना-देना नहीं है, पर भीतर के संबंध में तो वह
बात बिल्कुल सच है कि एक ऐसा है जो भीतर के दीए को जला देता है। शायद भीतर के दीए
को जला देने की बात ही धीरे-धीरे बाहर शास्त्रीय संगीत की कहानी बन गई हो। वह है
राम की रटन;
वह है
प्रभु-नाम। कोई भी नाम! कुछ यह मत सोचना कि राम-राम ही कहोगे तो। स्मरण की बात है, अल्लाह कहोगे तो भी चलेगा। या
कुछ और जो तुम्हारी मर्जी हो।
महाकवि
अंग्रेजी का हुआ टेनिसन। उसने अपने संस्मरणों में लिखा है कि मुझे बचपन से ही न
मालूम कैसे यह बात सूझ गई, कब
सूझी, क्यों सूझी, कुछ मुझे पता नहीं है। कि जब
मैं अकेला होता तो मैं बैठकर, मस्त
होकर "टेनिसन-टेनिसन' . . . अपना ही नाम दोहराने लगता। और उसमें मुझे इतना मजा आता, और ऐसी मस्ती छा जाती जैसे
नशा कर लिया हो। डोलने लगता। तो जब मुझे मौका मिलता अकेले में तो बस मैं
टेनिसन-टेनिसन-टेनिसन. . .। और उसने लिखा है कि धीरे-धीरे जिसको ध्यानियों ने
समाधि कहा है वह मुझे लगने लगी अपने ही नाम दोहराने से! मैं तो बहुत हैरान हुआ।
क्योंकि राम का नाम लो, ईश्वर
का नाम लो समझ में आता है; अपना
ही नाम?
लेकिन
नाम सभी उसके हैं।
टेनिसन
की बात तुम्हारे पर भी उतनी ही लागू हो सकती है। अपना ही नाम दोहराओगे तो भी चल
जाएगा। असली सवाल यही है, किसी
एक भावदशा में समग्रता से डूब जाना, इतनी समग्रता से डूब जाना कि सारा जगत् भूल
जाए। इस तरह एकाग्रता हो जाए भीतर कि एक ही चोट, एक ही आघात पड़ने लगे। तो उस
एक ही चोट में भीतर का बुझा दीया जल सकता है।
राम
नाम दुइ अच्छरै,
रटै
निरंतर कोई
दूलन
दीपक बरि उठै,
मन
परतीति जो होइ
मन में
भाव हो तो सब हो सकता है।
करती
है गुहर को अश्कबारी पैदा
तमकीन
को मौजे-बेक़रारी पैदा
सौ बार
चमन में जब तड़पती है नसीम
होती
है कली पर एक धारी पैदा
करती
है गुहर को अश्कबारी पैदा
आंसुओं
की वर्षा हो तो मोती पैदा होते हैं।
तमकीन
को मौजे-बेक़रारी पैदा
सौ बार
चमन में जब तड़पती है नसीम
और जब
हवा सौ बार गुजरती है चमन से--होती है कली पर एक धारी पैदा। कली जैसी कोमल चीज पर
सौ बार हवा को गुजरना पड़ता है, तब एक
छोटी-सी धारी पैदा होती है। अनंत-अनंत बार जब तुम स्मरण करोगे परमात्मा को, तब तुम्हारे भीतर का दीया
जलेगा। जल सकता है, जलाना
है; बिना जलाए नहीं जाना है। जो
बिना जलाए गया वह व्यर्थ ही आया और व्यर्थ ही गया। उसने जीवन का सदुपयोग न किया।
एक ही चीज पा लो--
फ़िक्र
ही ठहरी तो दिल को फ़िक्रे-खूबां क्यों न हो
ख़ाक
होना है तो ख़ाके-कू-ए-जाना क्यों न हो
जिंदगी
में फिक्र तो है ही। हजार चिंताएं लगी हैं। फ़िक्र ही ठहरी तो दिल को फ़िक्रे-खूबां
क्यों न हो। तो फिर कोई कीमत की बात की चिंता करो। चिंता तो है ही, फ़िक्र तो लगी ही है तो फिर
कुछ ऊंची फिक्र हो ले, असली
फिक्र हो ले। जिक्र तो भीतर कुछ न कुछ होता ही रहता है तो फिर परमात्मा का ही
जिक्र हो ले।
फ़िक्र
ही ठहरी तो दिल को फ़िक्रे-खूबां क्यों न हो
ख़ाक
होना है तो ख़ाके-कू-ए-जाना क्यों न हो
जब मिट्टी
ही हो जाना है तो उस प्यारे की गली की ही मिट्टी क्यों न हो जाएं।
दहर
में ऐ ख्वाज़ा जब ठहरी असीरी नागुज़ीर
दिल
असीरे-हल्क़ा-ए-गैसू-ए-पैचां क्यों हो
ज़ीस्त
है जब मुस्तक़िल आवारागर्दी ही का नाम
अक्ल? वालो! फिर तवाफ़े-कू-ए-जानां
क्यों न हो
अगर
जिंदगी एक आवारागर्दी ही है, एक
व्यर्थ की यात्रा ही है तो चलो यही सही, फिर उस प्यारे की गली में ही क्यों न आवारा
गर्दी की जाए!
ज़ीस्त
है जब मुस्तक़िल आवारगर्दी ही का नाम
अक्ल? वालो! फिर तवाफ़े-कू-ए-जानां
क्यों न हो
इक-न-एक
हंगामें पर मौक़ूफ़ है जब ज़िंदगी
मैकदे
में रिंद रक्स?ानो-ग़ज़लख्व?ा क्यों न हो
और जब
जिंदगी में सभी कुछ खोया जा रहा है तो फिर क्यों न पीकर मस्त होकर नाच लें!
इक-न-इक
हंगामे पर मौक़ूफ़ है जब ज़िंदगी
मैकदे
में रिंद रक्सानो-ग़ज़लख्वां क्यों न हो
फिर आओ
पियक्कड़ो! पियो और नाचो। जब जिंदगी हाथ से चली जाएगी तो क्यों न इसे नाच बना लें!
जब यह देह चली ही जाएगी तो इस देह को उस प्यारे की गली में ही क्यों न गिर जाने
दें! और जब चिंताएं घेरे ही हैं तो सारी चिंताओं का निचोड़ कर एक उसकी ही चिंता
क्यों न कर लें!
जब
फ़रेबों ही में रहना है तो ऐ अहले-ख़िरद
लज्ज़ते-पैमाने-यारे-सुस्तपैमां
क्यों न हो
यां जब
आवेज़िश ही ठहरी है जो ज़र्रे छोड़कर
आदमी
खुरशीद से दस्ते-गिरेबां क्यों न हो
यां जब
आवेज़िश ही ठहरी है तो ज़र्रे छोड़कर. . .जब जीवन संघर्ष ही है तो क्या छोटी-छोटी
चीजों से टकराना! क्या अणु-परमाणुओं से टकराना!
यां जब
आवेज़िश ही ठहरी है तो ज़र्रे छोड़कर
आदमी
खुरशीद से दस्ते-गिरेबां क्यों न हो
जब
टकराना ही है तो चांदत्तारों से टकरा जाएं, फिर सूरज से टकरा जाएं।
फ़िक्र
ही ठहरी तो दिल को फ़िक्रे-खूबां क्यों न हो
ख़ाक
होना है तो ख़ाके-कू-ए-जानां क्यों न हो
ऐसा
तुम्हारे जीवन में संकल्प उठ आए तो सौभाग्य की घड़ी आ गई, सुदिन आ गया। जल सकता है
दीपक। संकल्प की सघनता!
राम
नाम दुइ अच्छरै,
रटै
निरंतर कोइ
दूलन
दीपक बरि उठै,
मन
परतीति जो होइ
आज इतना ही।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें