सबै सयाने एक मत-(संत दादू दयाल)
दिनांक 18 सितम्बर सन् 1975,
श्री ओशो आश्रम पूना।
आठवां –प्रवचन-(प्रेम जीवन
है)
प्रश्न-सार
1—ध्यान, समाधि और प्रेम के अंतर्संबंध को
समझाने की कृपा करें।
2—क्या प्रेम ही जीवन है? जीवंतता है?
3—जिसके प्रति भी समर्पण का भाव हो, चाहे परमात्मा के
प्रति या गुरु के प्रति, उसके संबंध में कोई न कोई धारणा तो
होगी ही। तो यह समर्पण भी एक धारणा के प्रति ही होगा न!
4—भक्त कितना ही भाव में गहरा जाए, लेकिन अंत तक भी
शायद उसका संबंध द्वैत का ही बना रहता है। और द्वैत बना रहे तो मुक्ति क्या संभव
है?
5—क्या शरीर में रहते हुए चरम अद्वैत की उपलब्धि संभव नहीं है?
पहला प्रश्न: ध्यान, समाधि और प्रेम के अंतर्संबंध को
समझाने की कृपा करें। वे तीनों एकरूप कब होते हैं?
ध्यान
विधि है, प्रेम भी विधि है; समाधि लक्ष्य है।
दो
तरह के व्यक्ति हैं: हृदय-केंद्रित या मस्तिष्क-केंद्रित। जो बुद्धि-केंद्रित हैं, प्रेम
उनके लिए मार्ग नहीं है। वे कितनी ही चेष्टा करें, प्रेम
आरोपित मालूम होगा, प्रेम एक प्रयत्न मालूम होगा, सहज प्रवाह नहीं। और जो सहज न हो जाए, वह परमात्मा
तक न ले जा सकेगा।
यह
कोई छोटी यात्रा नहीं है कि खींचत्तान कर पूरी कर ली जाए। यह तो श्वास जैसी सहज हो
जाए तो ही पूरी हो सकती है।
तो
अगर बुद्धि-केंद्रित व्यक्ति भूल से भी प्रेम के मार्ग पर पड़ गया तो भटकेगा, पहुंच न
सकेगा। उसके लिए ध्यान ही मार्ग है। ध्यान है बुद्धि का धीरे-धीरे
निराकार-निर्विचार हो जाना। ध्यान की परिपूर्णता पर समाधि प्रकट होगी, व्यक्ति मिट जाएगा। और तब इस तरह के साधक के जीवन में प्रेम का आविर्भाव
होगा। ध्यान से चलने वाला साधक प्रेम से शुरुआत नहीं करेगा, प्रेम
पर उसका अंत होगा। ध्यान से शुरुआत करेगा, समाधि पर
पहुंचेगा। ध्यान होगा मार्ग, समाधि होगी मंजिल, प्रेम होगा परिणाम। अंततः अचानक वह पाएगा, उसके जीवन
में चारों तरफ प्रेम फैलने लगा। लेकिन यह आखिर में घटेगा।
जो
हृदय-केंद्रित व्यक्ति है,
भाव-केंद्रित व्यक्ति है, जिसके जीवन में
विचारों का ऐसे भी कोई बहुत मूल्य नहीं है; जिसकी बुद्धि गौण
है; जो जीता है भावनाओं से, संवेदनाओं
से; जिसके हृदय पर आघात पड़ता है; जिसके
जीवन का संबंध सीधा हृदय से है; सोचता कम है, भावता ज्यादा है; वैसा व्यक्ति प्रेम से ही शुरू कर
सकेगा। उसने अगर ध्यान से शुरू करने की कोशिश की तो उसका रास्ता भटकेगा। वह लाख
उपाय करे ध्यान करने का, उसमें उसे सफलता न मिलेगी। वह
चेष्टा ही रहेगी। वह लाख उपाय करे मन को शांत करने का, मन
उसका इतना अशांत है ही नहीं कि वह उसे शांत कर सके। उसे तो हृदय की ऊर्मि को जगाना
होगा। उसे ध्यान की बजाय प्रार्थना, पूजा, अर्चना और प्रेम के रूप ज्यादा सहज मालूम होंगे। उसकी आंख से आंसू बहेंगे,
तब उसके भीतर सन्नाटा होगा। उसके पैर नाचेंगे, तब उसके भीतर सन्नाटा होगा। जब वह किसी के प्रेम में मदमस्त होगा, तभी उसके भीतर ध्यान लगेगा। उसका ध्यान सीधा नहीं हो सकता कि वह शांत बैठ
जाए और ध्यान लग जाए। उसका ध्यान परमात्मा के माध्यम से होगा। उसे कोई चाहिए
प्रेमपात्र। प्रेमपात्र के बिना उसके हृदय में शांति न होगी।
तो
अगर प्रेम के मार्ग से चलने वाले व्यक्ति को ध्यान आकर्षित कर ले तो अड़चन होती है।
वह असहज होगा। वह बात जमेगी ही नहीं। वह मार्ग उसका है नहीं। उसे प्रेम से ही चलना
होगा।
प्रेम
से जो चलेगा वह अनायास समाधि को उपलब्ध होगा। लेकिन यह समाधि उसकी भाव-समाधि होगी।
और ऐसे व्यक्ति को ध्यान परिणाम में मिलेगा। ऐसे व्यक्ति को जो निर्विचारता है, वह परिणाम
में मिलेगी। समाधि में जब वह तल्लीन हो जाएगा, तब अचानक
पाएगा कि जिस ध्यान को साध-साध कर नहीं साध पाया, वह अपने आप
सध गया है।
प्रेम
से जो चलता है,
ध्यान उसके लिए परिणाम में मिलता है। ध्यान से जो चलता है, प्रेम उसे परिणाम में मिलता है। और दोनों से चलने वाले को समाधि तो
सुनिश्चित मिलती है।
इसलिए
सवाल यह नहीं है कि कौन सा मार्ग ठीक है--प्रेम का या ध्यान का। दोनों मार्ग ठीक
हैं और दोनों मार्ग गलत हैं। सवाल तुम्हारा है। तुम्हें जो ठीक लग जाए दो में से।
और एक ही ठीक लगेगा,
दोनों ठीक नहीं लग सकते। जो तुम्हें ठीक लग जाए वह ठीक है। जो ठीक न
लगे वह ठीक नहीं है। तुम भूल कर भी दूसरे की झंझट में मत पड़ना। दूसरे को भला ठीक
लग रहा हो, इससे तुम परेशान न होना। दूसरों के वस्त्र मत
ओढ़ना। दूसरों से उधार मत लेना अपनी जीवन-दृष्टि को। ठीक-ठीक अपने को ही पहचानने की
कोशिश करना। इसलिए स्वाध्याय--चाहे भक्त बनना हो, चाहे साधक
बनना हो--स्वाध्याय सभी के लिए अनिवार्य है: स्वयं का अध्ययन। ताकि तुम्हें
ठीक-ठीक पता हो जाए, तुम किस प्रकार के व्यक्तित्व हो। वह
पहली बात ठीक से पता चल जाए तो फिर सब सुलभ हो जाता है, सब
आसान हो जाता है।
जीवन
में सबसे बड़ी बात पहले कदम को ठीक-ठीक उठाना है। आखिरी कदम तो पहले कदम के सिलसिले
में आ जाता है। लेकिन अगर पहले कदम पर भूल हो गई तो आखिरी कदम कभी भी नहीं आता। तो
पहला कदम ही आखिरी कदम है। अगर वह बिलकुल ठीक उठ गया, तुम्हारे
अनुकूल उठ गया, रास आ गया, तुम्हारा
जोड़ बैठ गया, तुम्हारे भीतर की वीणा बजने लगी, ठीक जगह चोट पड़ गई, भीतर के जलस्रोत फूट पड़े,
तो मंजिल दूर नहीं है। मंजिल अपने आप आ जाएगी। अब तुम बहे जाओ। तुम
पहले कदम में ही बहे जाओ। उसी में डूबे चले जाओ।
पहले
कदम पर सर्वाधिक सावधानी की जरूरत है। और वहीं लोग असावधानी करते हैं। वहीं न
मालूम किस-किस कारणों से लोग मार्ग चुन लेते हैं। तुम किसी घर में पैदा हुए। हो
सकता है घर परंपरा से भक्ति संप्रदाय को मानता हो, तो तुमने भी भक्ति को शुरू
कर दिया। अगर यह तुम्हारे लिए योग्य न था, तो तुम जीवन भर
भटकोगे। अनंत जीवन भटक सकते हो और मंजिल न मिलेगी।
मनुष्य-जाति
को भटकाने में जन्म के द्वारा धर्म की धारणा ने बहुत बड़ा हाथ बंटाया है।
तुम
भाव वाले व्यक्ति हो;
किसी ऐसे घर में पैदा हो गए जो ध्यान की परंपरा का भरोसा करता है,
तुम मुश्किल में पड़ोगे। क्योंकि तुम चुनाव इस तरह करोगे कि पिता का
धर्म क्या है।
अब
पिता के धर्म से बेटे के धर्म का कोई लेना-देना नहीं है। मां के धर्म से बेटे के
धर्म का कोई लेना-देना नहीं है। बेटे को अपना धर्म खोजना होगा। स्वधर्म की खोज
करनी होगी। वह स्वाध्याय से होगी। वह कोई जाकर जन्म के दफ्तर को, जन्म की
रजिस्ट्री को देख लेने से नहीं हो जाती। तुम कहां पैदा हुए हो, इससे तुम्हारे किस धर्म में आविर्भाव, तुम्हारा
उत्थान, तुम्हारे जीवन की क्रांति होगी, इसका कोई पता नहीं चलता।
लेकिन
सारी पृथ्वी पर मनुष्य को अधार्मिक बनाने वाले बड़े से बड़े कारणों में जो कारण है, वह यह है
कि लोग जन्म के कारण धर्म को स्वीकार कर लेते हैं। फिर उसकी धारणा बंध जाती है।
तुम
जैन घर में पैदा हुए तो भक्ति की तुम्हारे जीवन में कोई धारणा न होगी, क्योंकि
वह मार्ग ध्यानियों का है। अब तुम उलझन में पड़ोगे। अगर तुम उस मार्ग पर चले तो
तुम्हारा तालमेल न बैठेगा। अगर न चले तो तुम्हें अड़चन होगी कि मैं मार्ग से च्युत
हो रहा हूं। अगर तुम कृष्ण के मंदिर में गए और नाचे तो तुम्हें ग्लानि होगी कि मैं
महावीर को छोड़ कर कृष्ण के साथ जा रहा हूं। तुम्हें अंतर्पीड़ा होगी। क्योंकि बचपन
से तुम्हारे मन में जो धारणा डाली गई है, उस धारणा ने काफी
जगह बना ली है। वह धारणा कहती है कि यही करना ठीक है, और कुछ
करना गलत है। अगर तुम उसी धारणा को मान कर चलो तो जीवन में तृप्ति नहीं मिलती।
जहां तृप्ति मिलती है वहां लगता है अपराध हो गया, यह तो उचित
नहीं है।
तो
भूल कर भी जन्म के द्वारा धर्म का निर्धारण मत होने देना। तुम्हें अपना धर्म खोजना
होगा, स्वधर्म खोजना होगा। स्वधर्म कोई देता नहीं। न जन्म से मिलता है, न जाति से मिलता है, न राष्ट्र से मिलता है। स्वधर्म
को प्रत्येक व्यक्ति को खोजना होता है। टटोलना होता है अंधेरे में। जिस दिन
स्वधर्म तुम्हें मिल जाता है, बस! फिर बहुत ज्यादा नहीं है
मामला। बात आसान हो जाती है।
और
ये दो बातें बहुत महत्वपूर्ण हैं: ध्यान या भक्ति; ध्यान या प्रेम। और आधी
मनुष्यता ध्यान से जाएगी, आधी मनुष्यता प्रेम से जाएगी।
अनुपात बराबर होगा। विशेषकर स्त्रियां भाव से जाएंगी, पुरुष
ध्यान से जाएंगे। सामान्यतया यह कह रहा हूं। क्योंकि पुरुषों में बहुत होंगे जो
भाव वाले होंगे; स्त्रियों में भी बहुत होंगी जो ध्यान वाली
होंगी। लेकिन मोटे अर्थों में स्त्रियां भाव से जाएंगी, पुरुष
ध्यान से जाएंगे। क्योंकि पुरुष मूलतः सक्रियता, कुछ करना,
उस पर भरोसा करता है। प्रेम तो ना-करना है। वह निष्क्रिय है। वह
प्रतीक्षा है। वह स्त्री के लिए सुगम है।
अब
यह बड़ी कठिनाई की बात है। क्योंकि अगर हम मनुष्य-जाति को ठीक-ठीक बांटें तो दुनिया
में दो धर्म काफी होंगे: एक पुरुष का धर्म और एक स्त्री का धर्म। कुछ पुरुष
स्त्रियों के धर्म में सम्मिलित होंगे, कुछ स्त्रियां पुरुष के धर्म में
सम्मिलित होंगी, लेकिन मोटा विभाजन दो होगा: भक्ति का धर्म
और ध्यान का धर्म। लेकिन पति की इच्छा होती है, उसकी पत्नी
भी उसी धर्म को माने जिसको वह मानता है। मां की इच्छा होती है, उसका बेटा भी उसी धर्म को माने जिसको वह मानती है। इस तरह दुनिया में
विकृति फैली।
स्त्री
का धर्म अलग ही होगा। उसकी सारी जीवन-दृष्टि, सोचना, विचारना,
होना, पुरुष से भिन्न है। इसलिए स्त्री कभी
ज्ञान को उपलब्ध होगी तो वह मीरा जैसी दशा में ही उपलब्ध होगी। वह नाचती हुई
उपलब्ध होगी। नाचते हुए कभी कोई चैतन्य भी उपलब्ध होता है, लेकिन
वह अपवाद मानना चाहिए। पुरुष तो बुद्ध और महावीर जैसा ही उपलब्ध होगा। यह अनुकूल
बैठेगा।
और
कृष्ण ने कहा है,
स्वधर्मे निधनं श्रेयः। अपने धर्म में मर जाना भी बेहतर।
लेकिन
अपने धर्म से तुम यह मत समझना कि हिंदू, मुसलमान, ईसाई।
स्वधर्म--जिसकी मैं बात कर रहा हूं। पहले तो स्वयं के धर्म को खोजना। और फिर अगर
उसमें मृत्यु भी हो जाए तो भी श्रेयस्कर है।
परधर्मो
भयावहः। दूसरे का धर्म खतरनाक है, उससे भयभीत रहना।
दूसरे
में तुम्हारे पिता,
तुम्हारी मां, तुम्हारे भाई, तुम्हारी बहन, पत्नी, पति,
सब सम्मिलित हैं। दूसरे से मतलब पाकिस्तानियों का नहीं, चीनियों का नहीं। तुम्हारे अतिरिक्त जो भी हैं वे सभी दूसरे हैं। उनके
धर्म से सावधान रहना। क्योंकि उसमें खतरा है।
इसको
अगर कोई गौर से समझ ले तो यह बड़ी गहरी मनोवैज्ञानिक बात है जो कृष्ण ने कही। स्व
को पहचानना, स्वधर्म को पहचानना। उसमें चलते-चलते मृत्यु भी मिले तो भी अमृत जैसी
होगी। और दूसरे के धर्म में चलते-चलते अमृत भी मिले तो जहर सिद्ध होगा। क्योंकि जो
तुमसे मेल न खाएगा, वह तुम्हें मुक्त नहीं कर सकता है। जो
तुमसे इतना मेल खा जाएगा कि तुममें और उसमें जरा भी फासला न रहेगा, वही तुम्हारी मुक्ति बन सकता है।
मैंने
सुना है, सूफियों में एक कहानी है कि एक पहाड़ के पास एक झील है। और उस झील के पास
जब भी कोई साधक पहुंच जाता है और आग्रह करता है झील से, और
आग्रह अगर वस्तुतः प्रामाणिक होता है, तो झील से उत्तर मिलते
हैं।
एक
फकीर वर्षों की तलाश के बाद अंततः उस झील के पास पहुंच गया। और उसने चिल्ला कर जोर
से पूछा कि मेरा एक ही सवाल है: जीवन क्या है? झील चुप रही। लेकिन वह पूछता ही
गया। कहते हैं तीन दिन अहर्निश, रात और दिन उसने एक कर डाले।
एक ही सवाल कि जीवन क्या है? आखिर झील के देवता को भी झुकना
पड़ा। और उसने कहा कि तेरी निष्ठा पूरी है। तू कोई साधारण कुतूहल से नहीं आया। तू
साधारण जिज्ञासु भी नहीं है, तू मुमुक्षु है; इसलिए तेरे प्रश्न का उत्तर हम देते हैं: जीवन एक वीणा है।
उस
आदमी ने कहा,
और पहेलियां अब नहीं चाहता। सीधा-सीधा उत्तर दो। मैं कोई संगीतज्ञ
नहीं हूं। वीणा मैंने अपने जीवन में अभी तक देखी भी नहीं। सुना है नाम; लेकिन मुझे जीवन का भी पता नहीं, वीणा का भी पता
नहीं। अब यह एक और उलझन हो गई। अभी मैं जीवन को हल करता रहा, अब वीणा का भी पता लगाऊं! तुम मुझे सीधा-सीधा ही कह दो।
झील
ने कहा, उत्तर दे दिया गया है।
तो
उस आदमी ने कहा,
थोड़े संकेत दो जिससे कि मैं रास्ता खोजूं।
तो
झील से उत्तर आया कि तू गांव में जा और पहली तीन दुकानों पर गौर से देख। और जो भी
तू पाए, लौट कर उत्तर दे।
वह
आदमी गया। उसने पहली दुकान पर देखा, वहां कुछ भी न था, लोहे-लंगर की दुकान थी, धातुओं के अलग-अलग तरह के
रूप-रंग के ढेर लगे थे। वह कुछ समझा नहीं कि जीवन से इसका क्या लेना-देना! दूसरी
दुकान पर गया। वह एक तारों की दुकान थी। वहां भी उसको समझ में नहीं आया कि जीवन से
तारों का क्या लेना-देना? तीसरी दुकान एक बढ़ई की दुकान थी।
वह
बड़ा नाखुश लौटा। उसने सोचा कि इससे तो हम पहले ही बेहतर थे। इस झील से पूछने के
पहले ही बेहतर थे। कम से कम इस तरह की मूढ़ता तो दिमाग में न थी। इससे जीवन का क्या
लेना-देना? यह तो ज्ञान न मिला और अज्ञानी हो गए। लौट कर नाराज आया और उसने झील से
कहा कि यहऱ्यह मैंने देखा। पर इससे जीवन का क्या संबंध है?
झील
ने पुनः कहा कि जीवन एक वीणा है। अब तू इस सूत्र को पकड़ ले और इसकी खोज कर।
वर्षों
बीत गए। वह आदमी करीब-करीब भूल ही गया वह खोज--जीवन का वीणा होना। एक दिन अचानक एक
बगीचे के पास से गुजरते वक्त उसने किसी को वीणा बजाते सुना। वह स्वरलहरी उसे खींच
ली। वह खिंचा हुआ जादू के वश बगीचे के भीतर पहुंच गया।
कोई
कलाकार वीणा बजा रहा था। साधक को पहली दफा दिखाई पड़ा कि वही तार हैं जो दुकान पर
पड़े थे। वही धातुएं हैं जो दुकान पर पड़ी थीं, वीणा में लग गईं। और उस बढ़ई ने भी
काम किया है। लकड़ी का भी इंतजाम है।
आज
उसे सूत्र साफ हुआ। आज उसे साफ हुआ कि जीवन एक वीणा है। लकड़ी भी है, तार भी
हैं, धातुएं भी हैं; अलग-अलग पड़े हैं।
कोई संगीत पैदा नहीं होता। तीनों जुड़ जाएं, एक ढंग में बैठ
जाएं, तालमेल आ जाए, तो संगीत उठ सकता
है। इतना अदभुत संगीत उठ सकता है--निराकार! इतना प्राणों को मोहित कर लेने वाला
संगीत उठ सकता है! ऐसी जादूभरी रहस्यपूर्ण घटना घट सकती है!
मैं
भी तुमसे यही कहता हूं: जीवन एक वीणा है। लेकिन तुम्हें अपनी वीणा जमानी है।
दूसरों की नकल मत करना। उन्हें अपनी वीणा जमानी है। वीणाएं बहुत तरह की हैं। और
हरेक व्यक्ति के पास अपने तरह की वीणा है और अपने ही तरह का छिपा हुआ संगीत है।
स्वधर्मे
निधनं श्रेयः।
तुम
अपनी वीणा को बजाते हुए मर जाओ तो भी तुम महाजीवन को उपलब्ध हो जाओगे। तुम दूसरे
की वीणाओं को ढोते-ढोते मरोगे, उनसे कितना ही सुंदर संगीत पैदा हो, तुम कोरे ही आए, कोरे ही जाओगे। तुम्हारे हाथों में
कोई संपदा न होगी। तुमने जीवन व्यर्थ ही गंवाया।
और
इस संसार में बड़े से बड़ा खतरा यही है कि कहीं तुम दूसरे के प्रभाव में न पड़ जाओ।
तुम प्रभावित होने को बिलकुल तैयार बैठे हो। क्योंकि अपनी वीणा को जमाना दुष्कर
काम है। उधार वीणा ले लेना बहुत सरल बात है। खुद खोजना, स्वाध्याय
करना जोखम से भरी बात है। भूल-चूक हो सकती है। दूसरे से ज्ञान उधार ले लेना
जोखमरहित है, सुरक्षित है। और अगर कभी उलझन भी हो जाए तो
जिम्मेवार दूसरा होगा। तुम्हें कोई पीड़ा न होगी कि मैंने कोई भूल की।
तुम
एक गुरु को पकड़ लेते हो। तुम सोचते हो, समर्पण किया। समर्पण सौ में से कभी
एकाध शिष्य करता है। निन्यानबे तो धोखा कर रहे हैं। निन्यानबे समर्पण नहीं कर रहे
हैं, सिर्फ गुरु को उत्तरदायित्व दे रहे हैं कि अब अगर भटके
हम, तुम जिम्मेवार। वे यह नहीं कह रहे हैं कि हम समर्पण करते
हैं अपने को। वे यह कह रहे हैं कि अब देख लो। अब खयाल रखना। भटके हम, जिम्मेवार तुम। डूबेंगे हम, बदनामी तुम्हारी होगी।
अब तुम्हीं बचाना; नहीं तो तुम्हीं फंसोगे।
कहीं
जीवन के दायित्व इस तरह टाले जा सकते हैं? गुरु से सीखा जा सकता है, लेकिन गुरु पर दायित्व नहीं टाला जा सकता। गुरु से मार्ग समझा जा सकता है,
लेकिन गुरु का मार्ग उधार नहीं लिया जा सकता। गुरु से संकेत लिए जा
सकते हैं, इशारे लिए जा सकते हैं, ताकि
तुम्हें तुम्हारे स्वाध्याय में सुविधा हो जाए।
तो
वास्तविक गुरु तुम्हें जीवन का ढंग नहीं देता; वास्तविक गुरु तुम्हें सिर्फ दीया
देता है, ताकि तुम अपने जीवन में अपने ढंग को खोज लो।
इस
फर्क को याद रखना। वास्तविक गुरु तुम्हें अनुशासन नहीं देता, आचरण नहीं
देता, तुम्हें अंतःकरण का जागरण देता है। तुम्हें होश देता
है, ताकि तुम अपने को पहचान कर अपना रास्ता बना लो। झूठा
गुरु तुम्हें होश नहीं देता, तुम्हें आचरण देता है। वह कहता
है, चोरी मत करना, बेईमानी मत करना,
सच बोलना; ऐसा नहीं करना, वैसा नहीं करना--वह तुम्हें बंधी हुई लकीरें देता है। उन बंधी लकीरों पर
चल कर तुम भटकोगे। परधर्म बहुत भयावह है। वह तुम्हें अपना मार्ग पकड़ा देता है। और
जिस गुरु ने तुम्हें मार्ग पकड़ा दिया वह तुम्हारा दुश्मन है। कोई सदगुरु मार्ग
नहीं पकड़ाता। सदगुरु केवल मार्ग की पहचान देता है। वह कहता है, यह पहचान है।
इस
फर्क को ठीक से समझ लेना;
बारीक है। असदगुरु तुम्हारे हाथ में देता है और वह कहता है, यह रहा सोना; सम्हालो। इसको खो मत देना। इसको सम्हाल
कर रखना, बहुमूल्य है। सदगुरु तुम्हें देता है कसौटी का
पत्थर; सोना नहीं देता। वह कहता है, यह
कसौटी का पत्थर; जहां कहीं सोना मिले, कस
लेना। ठीक उतरे तो समझना ठीक है; गलत उतरे तो समझना कि गलत
है।
शायद
असदगुरु और सदगुरु दोनों तुम्हारे सामने खड़े हों तो तुम असदगुरु की तरफ मोहित हो
जाओगे, क्योंकि उसके हाथ में सोना है। और सदगुरु के हाथ में तो केवल काला पत्थर
है। तुम भी सोचोगे, यह काला पत्थर लेकर क्या करेंगे?
लेकिन
सदगुरु केवल कसौटी देता है कि जीवन में जहां भी जरूरत हो, कस लेना;
सोने को तुम पहचान लोगे। और ध्यान रखना, मनों
सोने से छोटा सा कसौटी का पत्थर ज्यादा बहुमूल्य है।
प्रज्ञा
देता है तुम्हें सदगुरु--पहचानने की। बंधा हुआ आचरण नहीं देता, स्वतंत्र
बोध देता है। स्वधर्म ही मार्ग है। सदगुरु तुम्हें इतनी ही सूचनाएं देता है कि
ऐसे-ऐसे स्वधर्म को खोजा जाता है। ऐसे-ऐसे मैंने अपना स्वधर्म खोजा; ऐसे-ऐसे तुम भी तुम्हारा स्वधर्म खोज लेना।
स्वधर्म
को खोजने की विधियां एक जैसी हैं, लेकिन जब तुम स्वधर्म को खोजोगे तो तुम्हारी
वीणा अनूठी ही होगी। तुम्हारी वीणा तुम्हारे गुरु जैसी नहीं होगी। अगर ठीक गुरु
जैसी हो तो समझना कि यह नकली है। क्योंकि दो वीणाएं एक जैसी परमात्मा पैदा ही नहीं
करता। अगर तुम ठीक गुरु जैसे खड़े हो जाओ, वैसे ही वस्त्र पहन
लो या नग्न हो जाओ, सिर घुटा लो--या गुरु ने जैसा किया हो
वैसा तुम कर लो--तो तुम एक अभिनेता हो; तुम संन्यासी नहीं
हो। तुम शिष्य नहीं हो, तुम नकलची हो। तुम किसी सर्कस में
होते, अच्छा था। जीवन के विराट में, विराट
आंगन में तुम्हारी कोई भी जरूरत नहीं। तुम छोटे-मोटे नाटक के काम के लायक थे। तुम
नकली हो।
और
तुम किसी और को धोखा नहीं दे रहे, अपने को ही धोखा दे रहे हो। अपने को ही धोखा
देकर तुम मिटा लोगे।
दूसरा प्रश्न: क्या प्रेम ही जीवन है? जीवंतता
है?
निश्चय
ही। क्योंकि प्रेम का अर्थ है, देने की क्षमता। और देने की क्षमता उसी में हो
सकती है जिसके पास हो। तुम वही दे सकते हो जो तुम्हारे पास है।
प्रेम
जीवन का दान है।
जब
भी तुम प्रेम से किसी की तरफ देखते हो, तुम उसके जीवन में हजार चांद जोड़
देते हो। जब भी तुम प्रेम से किसी का हाथ हाथ में ले लेते हो, तुम उसके बुझते दीये को फिर ज्योति दे देते हो। जब भी तुम प्रेम से किसी
को गले लगा लेते हो, तब तुमने उसके आयुष्य को बढ़ा दिया।
वैज्ञानिक
बड़ा अध्ययन करते हैं इस बात का कि बच्चा मां के दूध से ही बचता है, या दूध के
अतिरिक्त कोई और भी अदृश्य प्रवाह है जो मां बच्चे को देती है? और अब तक बहुत से प्रयोग किए गए हैं, सभी से यह
सिद्ध हुआ है कि दूध तो शरीर को पोषण देता है, लेकिन दूध
जीवन नहीं है। दूध देकर देख लिया गया है, और बच्चे सिकुड़ गए,
समाप्त हो गए, अपने में ही बंद हो गए और मर
गए। दूध के साथ मां के स्तनों से प्रेम की धारा भी बह रही है। दूध ही नहीं दिया जा
रहा है बच्चे को, मां के हृदय की ऊष्मा भी बच्चे को जा रही
है। दूध से भी ज्यादा पोषक मां के हृदय की ऊष्मा है; प्रेम
से भरे हृदय की ऊष्मा है। बिना दूध के बच्चा थोड़े दिन बच जाए, बिना प्रेम के न बच सकेगा। और बिना प्रेम के बच जाए तो भी मुर्दा होगा।
प्रेम
अदृश्य जीवन है। इसलिए जब भी तुम्हें ऐसा लगता है, तुम्हें कोई प्रेम करने
वाला नहीं, तुम किसी को प्रेम करने वाले नहीं, तभी तुम्हें आत्मघात का विचार आ जाता है। आत्मघात का विचार ही तब उठता है
जब तुम पाते हो जीवन में प्रेम नहीं है। जहां प्रेम नहीं है, वहां मरने की धारणा उठने लगती है कि मिट जाओ! अब सार क्या है? अब होने का अर्थ क्या है? प्रयोजन क्या है? अब जीना किसलिए है?
जब
भी तुम्हारे मन में आत्महत्या का भाव उठता हो--और ऐसा आदमी खोजना कठिन है जिसको न
उठा हो--तो तुम विचार करना: कब उठता है यह भाव?
तुम
सदा पाओगे कि प्रेम जब नहीं होता जीवन में, तभी उठता है। तब बात साफ हो जाती
है कि प्रेम जीवन है। प्रेम का अभाव मृत्यु को पास लाने लगता है।
तुमने
कभी खयाल किया कि तुम बीमार पड़े हो, और अगर चिकित्सक तुम्हारे प्रति
अति प्रेमपूर्ण है, तो औषधियां शीघ्रता से काम करती हैं। और
चिकित्सक अगर सिर्फ उपेक्षा से भरा है, एक पेशेवर की तरह आता
है और देख कर चला जाता है, तटस्थ है; तुम्हारी
तरफ उसका कोई ध्यान नहीं है; बीमारी और दवा, इसमें उसका विचार है, लेकिन तुमसे कुछ लेना-देना
नहीं है; तुम हो या नहीं, इससे कोई
संबंध नहीं है, यंत्रवत तुम्हारे साथ व्यवहार करता है;
तुम्हारी बीमारी लंबी हो जाएगी। जो बड़े से बड़े चिकित्सक हुए हैं
दुनिया में, उन सभी के संबंध में यह बात है कि उनकी दवा से
ज्यादा उनके हाथ में गुण है। हाथ में गुण का क्या मतलब होता है? हाथ में गुण का मतलब यह है कि दवा गौण है; जिस ढंग
से वे देते हैं, वह महत्वपूर्ण है। उस देने में वे कुछ और भी
देते हैं।
कभी
तुमने खयाल किया कि तुम बीमार हो, चिकित्सक आया--अगर वह प्रेमपूर्ण है, तो उसने अभी दवा भी नहीं दी है, तुम्हारी जांच ही की
है, लेकिन जांच में ही तुम्हारी बीमारी आधी हलकी हो जाती है।
निरीक्षण करोगे तो साफ हो जाएगा। क्योंकि अभी दवा नहीं दी गई, इसलिए चिकित्सक ने कुछ किया तो है नहीं; सिर्फ नब्ज
ली, हृदय की धड़कन सुनी; लेकिन उसका ढंग,
उसका प्रेमपूर्ण व्यवहार, उसका आश्वस्त भरोसा
कि तुम ठीक हो जाओगे; उसका तुम्हारे प्रति इतनी उत्सुकता से
निरीक्षण करना कि तुम मूल्यवान हो, तुम्हारा बचना जरूरी
है--तुम्हारे भीतर कोई चीज बदल गई। अब तुम उतने बीमार नहीं हो। अभी चिकित्सक ने
कुछ किया भी नहीं है, लेकिन चिकित्सा शुरू हो गई।
ऐसे
प्रयोग किए गए हैं कि प्रेमपूर्ण चिकित्सकों ने सिर्फ पानी दिया है और बीमार ठीक
हो गए हैं। और तटस्थ चिकित्सकों ने कीमती से कीमती दवाएं दी हैं और मरीज पर परिणाम
नहीं हुआ है। पानी भी संवाहक हो जाए अगर प्रेम का, तो औषधि हो जाती है।
स्वर्ण-भस्में भी दी जाएं और प्रेम का हाथ पीछे न हो, तो
शरीर पर केवल बोझ-रूप हो जाती हैं, औषधि नहीं बनतीं।
अब
तो वैज्ञानिक कहते हैं,
वृक्षों-पौधों को भी अगर तुम प्रेम से देख लो तो उनकी बढ़ती तेज हो
जाती है। अगर तुम रोज उसे पौधे को आशीर्वाद के भाव से देख लो, उसके लिए प्रार्थना करो परमात्मा से, तुम पाओगे कि
दूसरे पौधे पीछे रह गए। जिस पौधे के लिए तुमने रोज-रोज प्रार्थना की है वह दुगुना
हो गया। कम दिनों में उसमें फूल आ जाएंगे। असमय में फल भी लग सकते हैं।
तुम
ऐसा ही इससे विपरीत व्यवहार दूसरे वृक्ष के साथ करो कि रोज उसको गालियां दो और रोज
उसे अभिशाप दो कि तू नाहक परेशान हो रहा है। तू बड़ा होने वाला नहीं, तू सड़ेगा।
पानी दो, खाद दो, लेकिन गालियां देते
चले जाओ--तुम पाओगे कि वह सिकुड़ गया।
अब
ये वैज्ञानिक प्रमाण हैं। अब इनके लिए कोई कविता की बात नहीं है, कहानियां
नहीं हैं। दुनिया की बहुत सी प्रयोगशालाओं में निर्णीत निष्कर्ष ले लिए गए हैं कि
प्रेम जीवन को बढ़ाता है। जिस गुलाब को तुमने प्रेम किया, उसके
फूल बड़े होंगे। होने ही चाहिए। क्योंकि तुमने उसे गरिमा दी। पौधे के प्राण पुलकित
हैं। वह तुम्हें प्रसन्न करना चाहता है; तुमने उसे प्रसन्न
किया। तुमने उसे दिया; वह तुम्हें लौटाना चाहता है। वह एक
बड़े फूल की तरह--और क्या कर सकता है?--एक बड़े फूल की तरह
खिलेगा।
सदगुरुओं
के प्रेम के नीचे शिष्य परमात्मा को उपलब्ध हो गए हैं। बिना कुछ किए भी कभी यह घटा
है। और कभी-कभी बहुत कुछ करने पर भी, अगर सदगुरु की प्रेम-छाया न हो,
तो कुछ भी नहीं घटा है। इसलिए तो समर्पण का इतना मूल्य है। समर्पण
का कुल इतना ही अर्थ है कि गुरु के जीवन से जो प्रेम की धारा बह रही है, उसके लिए तुम दीवाल मत बनो, दरवाजा बन जाओ। उसे आने
दो, ताकि वह तुम्हें रूपांतरित कर दे।
प्रेम
जीवन है। प्रेम से रहित जीवन का कोई अर्थ नहीं है। और प्रेम से भरी हुई मृत्यु भी
सार्थक हो जाती है। प्रेम से भरी मृत्यु में भी एक काव्य प्रकट होता है--अलौकिक।
और प्रेम से रहित जीवन में एक दुर्गंध होती है, एक सड़ांध होती है। आदमी जीता है,
लेकिन जीता नहीं। भीतर कुछ भी नहीं है। भीतर सब खाली है।
प्रेम
से रहित आदमी ऐसा है जैसे तुमने खेतों में खड़े आदमी देखे हों--झूठे, हंडी का
सिर, डंडा अटका बीच में। कुरता पहने रहते हैं। पशु-पक्षियों
को डराने के काम आते हैं। बस, प्रेम से रहित आदमी खेत में
खड़ा झूठा आदमी है--खाली! उसके भीतर कोई आत्मा नहीं है।
इसे
तुम भलीभांति जानते हो। तुम्हारे अनुभव से भी जानते हो कि जब भी तुमने प्रेम किया
है, तभी तुम्हारे भीतर एक पुलक उठी है, एक लपट उठी है।
तुमने जीवन को उसकी चरमता में जाना है। तुम्हारे भीतर मशाल दोनों तरफ से एक साथ
जलने लगी है। एकदम आलोकित हो गया है सब। कभी-कभी क्षण भर को ऐसा हुआ है, लेकिन फिर भी बिजली कौंध गई है।
और
जब तुम्हारे जीवन में कोई प्रेम न रहा, एक रोजमर्रा की आदतन जिंदगी
रही--उठना है, बैठना है, दफ्तर जाना है,
कमाना है--कर्तव्य तो रहे, प्रेम न रहा;
तभी तुमने पाया कि तुम्हारे भीतर कुछ मर गया है। तुम खिंचे जा रहे
हो, चले जा रहे हो, लेकिन अब चलने में
नृत्य नहीं है। बोलते हो, लेकिन बोलने में अब गीत नहीं है।
देखते हो, लेकिन आंखों से कुछ बरसता नहीं। आंखें कोरी और
खाली हैं। छूते हो, लेकिन स्पर्श में ऊष्मा नहीं है। ऐसे
छूते हो जैसे किसी ने मुर्दे का हाथ छू लिया हो; ठंडा है,
उसमें कोई भाव-दशा नहीं है; कोई लहर नहीं है;
कोई स्पंदन नहीं होता। एक ठूंठ की तरह हो गए हो, जिसमें न अब पत्ते लगते हैं, न फल आते हैं, न फूल खिलते हैं; न पक्षी जिस पर घोंसला बनाते हैं,
न राहगीर जिसके नीचे बैठ कर विश्राम करते हैं। एक ठूंठ की तरह तुम
खड़े हो। प्रतीक्षा में हो कि कभी कोई लकड़हारा आएगा, काट कर
ले जाएगा, झंझट मिटेगी। राह देख रहे हो मरने की। हिम्मत नहीं
है, नहीं तो तुम खुद ही अपने को समाप्त कर लेते। इसलिए
प्रतीक्षा कर रहे हो कि मौत तो आती ही होगी, जल्दी भी क्या
करनी! ले जाएगी। या इतने मुर्दा हो गए हो कि अब मरने की भी हिम्मत नहीं है। वह भी
तो थोड़ी जिंदगी चाहती है--मरने की हिम्मत। मरने का निर्णय भी तो थोड़ा सा जीवन
मांगेगा। पहाड़ के कगार तक जाने के लिए भी जाना तो पड़ेगा। अब उतनी भी चलने की इच्छा
नहीं रह गई है। जहां हो, पड़े हो। वहीं राह देख रहे हो।
अधिकतम लोग जीते नहीं, केवल मरने की प्रतीक्षा करते हैं। ऐसा
होगा ही; क्योंकि प्रेम के बिना कोई जीवन नहीं है। और बहुत
कम लोग प्रेम से परिचित हो पाते हैं।
प्रेम
है दान। और मजा यह है कि जितना तुम देते हो, उतना बढ़ता है तुम्हारे भीतर। और
जितना तुम रोकते हो, उतना सड़ जाता है। जैसे कुआं भरा है;
मत खींचो पानी, मत उलीचो पानी। सड़ जाएगा। और
इस बुरी तरह सड़ जाएगा कि सब झरने धीरे-धीरे धूल-धवांस से भर जाएंगे, बंद हो जाएंगे। उलीचो; और रोज झरने नये पानी को ले
आते हैं। कुआं चुकेगा नहीं। तुम जितना उलीचोगे, उतने ही नये
जलस्रोत आते जाएंगे।
ऐसा
ही जीवन का कुआं हो तुम। अगर दोगे, बांटोगे, उछालोगे,
कृपणता न करोगे जीवन की, जहां भी मौका पाओगे
उलीचोगे अपने को, बांटोगे, दोगे,
तुम पाओगे नये जलस्रोत तुम्हारे खुलते जाते हैं। तुम एक दिन पाओगे
कि तुम कुआं नहीं, सागर हो।
कुआं
है क्या आखिर?
कुआं सिर्फ एक खिड़की है जिससे सागर झांक रहा है। नीचे तो कुआं सागर
से जुड़ा है, अनंत-अनंत झरनों से जुड़ा है। कुआं एक झरोखा है,
जहां से सागर ने झांका है। घबड़ाओ मत। तुम भी एक झरोखे हो, जहां से परमात्मा ने झांका है। डरो मत। तुम भी जुड़े हो। उलीचो; और तुम पाओगे कि तुम बढ़ते हो। रोको; और तुम पाओगे कि
तुम घटते हो और सड़ते हो। और एक दुष्टचक्र है। अगर तुमने रोका, न बांटा, प्रेम न दिया, तो तुम
डरने लगोगे कि वैसे ही तो सड़ा जा रहा है सब, वैसे ही तो सब
चुका जा रहा है, अगर दिया तो और मुसीबत होगी और कम हो जाएगा।
तुम और घबड़ा कर रोक लोगे। जितना रोकोगे, उतना ही कम होता
जाएगा, सूखते जाओगे।
हिम्मत
करो। देकर देखो। और तुम पाओगे: जैसे ही तुमने दिया, कोई जलस्रोत खुल गया,
झरना सक्रिय हो गया, और जल आने लगा। तब तुम
पाओगे कि देते जाओ, बढ़ता जाता है। तब तुम बात ही छोड़ दोगे
रोकने की। तुम देने में ही लग जाओगे।
कबीर
ने कहा है: दोनों हाथ उलीचिए। एक हाथ से भी मत उलीचना, दोनों
हाथ!
उलीचने
में प्रेम है। प्रेम है अपने आनंद को बांटना।
पर
आनंद तुम्हारे पास हो तभी न! तुम्हारे पास अभी दुख है। अगर तुम देने भी जाते हो तो
दूसरे को दुख ही देते हो। प्रेम के नाम पर भी तुम दूसरे को दुख ही देते हो।
तुम्हारे पास कुछ और है नहीं। तुम्हारे पास आत्मा तो नहीं है कि तुम दे सको।
तुम्हारे पास एक गहन अंधकार है, वही तुम दे आते हो। दूसरे के मार्ग में वैसे ही
बहुत अड़चनें थीं, तुम और थोड़ी अड़चनें बढ़ा देते हो। दूसरा
वैसे ही मुश्किल में पड़ा था, तुम्हारी मुश्किल का और बोझ बढ़
जाता है। प्रेम के नाम पर तुम मुक्त थोड़े ही करते हो, बांधते
हो। प्रेम के नाम पर तुम दूसरे के गले में फांसी लगाते हो। पंख नहीं देते कि दूसरा
भी खुले आकाश में उड़ सके। पर जो तुम्हारे पास नहीं है वह तुम दोगे कैसे?
इसलिए
मैं कहता हूं,
पहले स्वयं को खोजो; पहले स्वयं को पहचानो;
पहले स्वयं को बढ़ाओ; पहले स्वयं को विकसित करो,
प्रौढ़ करो; पहले स्वयं की संपदा में नये-नये
फल लगने दो; कुछ घटने दो भीतर; तो तुम
बांट सकोगे।
मनुष्य-जाति
की बड़ी से बड़ी भूलों में एक भूल यह है कि प्रत्येक व्यक्ति यही सोचता है कि प्रेम
करने की क्षमता उसे जन्म से ही मिली है। इस भूल ने जितना नुकसान किया है, किसी और
भूल ने नहीं किया। हर आदमी यही सोचता है कि प्रेम तो जन्मगत मिला ही हुआ है।
पैदाइश से ही हम प्रेम करने की कला जानते हुए आए हैं। इसलिए अगर प्रेम नहीं घट रहा
है तो दूसरे की कोई भूल होगी। हम तो प्रेम करने में समर्थ ही हैं।
अगर
इस गलत तर्क में तुम पड़ गए तो भटक जाओगे। प्रेम सीखना पड़े। प्रेम अदभुत कला है।
उससे कोई सूक्ष्म कला नहीं। उससे ज्यादा कोई अदृश्य शिल्प नहीं। बड़ी सूक्ष्म है।
तुम सीखोगे धीरे-धीरे तो ही खयाल में आएगी। बड़ा नाजुक गीत है; उसे गाने
के लिए कंठ को साधना होगा। तुम भर्राए गले से उसे न गा सकोगे, अन्यथा गीत मर जाएगा।
तो
क्या करोगे? कैसे प्रेम को तुम सीखोगे?
संवेदनशीलता
बढ़ाओ और तुम्हारी प्रेम की कला बढ़ती जाएगी। चट्टान पर भी बैठो, तो चट्टान
को स्पर्श करो, छुओ, दोस्ती बनाओ। आसान
है आदमी की बजाय। क्योंकि आदमी के साथ तो अहंकार खड़ा हो जाता है। वृक्ष के पास जाओ,
उसे गले लगाओ। थोड़ी देर वृक्ष के कंधे पर सिर रख कर रुक जाओ। किसी
आदमी के कंधे पर सिर रखने में तुम्हें अड़चन होगी। पता नहीं, वह
इनकार कर दे, अस्वीकार कर दे। अस्वीकार का एक भय है। तुम
प्रेम का निवेदन लेकर जाओ, और वह कह दे कि हटो भी! क्या
बकवास लगा रखी है! क्या समझा है, यह मेरा कंधा है या कोई
विश्राम करने की जगह? कि तुम किसी को गले लगाने जाओ और वह
हटा दे दूर।
यही
तो भय है प्रेम का। छुटपन से ही छोटे-छोटे बच्चे भी डर जाते हैं। बच्चे की समझ में
ही नहीं आता। वह बड़े प्रेम से आया है, मां की साड़ी खींच रहा है, और मां झिड़क देती है कि दूर हट! उसे पता ही नहीं कि मां अभी नाराज है,
पिता से झगड़ा हुआ है, या बर्तन टूट गया है,
या आज रेडियो बिगड़ गया है, या दूधवाला नहीं
आया--हजार मुश्किलें हैं। इस बच्चे को तो इसका कुछ पता नहीं है--इस मां की अड़चन
का। और मां को कुछ पता नहीं है कि बच्चे को उसकी अड़चन का कोई भी पता नहीं है। वह
तो बड़े प्रेम से आया था, साड़ी पकड़ कर एक प्रेम का निवेदन
करने आया था और झिटक दिया।
बच्चा
सहम गया। अब दुबारा जब वह साड़ी के पास आएगा तो हाथ में भय होगा। सोचेगा दो बार, दस
बार--पकड़ना साड़ी कि नहीं पकड़ना! पहले मां के चेहरे को पहचान लो। पता नहीं इनकार हो
जाए। क्योंकि तब बड़ा दुख सालता है, घाव हो जाता है। जब
तुम्हारे प्रेम को कोई इनकार कर दे, तो इससे बड़ी कोई पीड़ा
संसार में दूसरी नहीं।
वह
बड़े प्रेम से आया था कि पिता की गोद में बैठ जाएगा। लेकिन पिता ने आज कीमती वस्त्र
पहने हैं, वे किसी शादी-विवाह में जा रहे हैं। अब यह उनकी सब क्रीज बिगाड़े दे रहा
है। इसे कुछ पता नहीं कि क्रीज भी होती है, कि शादी-विवाह
में क्रीज बिगाड़ कर नहीं जाना होता। इसे कुछ पता नहीं है। बाप ने झिटकार दिया। कहा
कि दूर हट, खेल; अभी पास मत आ। इसकी
कुछ समझ में नहीं आता कि क्या मामला है! कब पास जाना, कब
नहीं जाना? कब प्रेम का निवेदन स्वीकार होगा, कब अस्वीकार होगा, कुछ पक्का नहीं है। बच्चा नियम
नहीं बना पाता। दुविधा खड़ी हो जाती है। बच्चा भयभीत हो जाता है। और जब अपनों से
इतना डर है, तो परायों का तो कहना ही क्या! जब अपनों पर भी
भरोसा नहीं किया जा सकता कि हर घड़ी प्रेम मिलेगा, तो दूसरों
का तो क्या भरोसा!
फिर
बच्चा बड़ा होता है;
स्कूल जाता है। वहां कोई अपना नहीं है। शिक्षक अपना नहीं, संगी-साथी अपने नहीं, वह सिकुड़ा हुआ है। धीरे-धीरे
बड़ी दुनिया में प्रवेश करता है, वह सिकुड़ जाता है। अब वह
डरता है। अब उसको भय है कि वह किसी के पास प्रेम का निवेदन करे और वह कह दे,
हटो भी! अपनी शक्ल आईने में देखो!
तो
इससे तो बेहतर है,
अपमान से तो बेहतर है इस उपाय को ही कभी न करना। चुप रहो। कभी कोई प्रेम
करेगा तो शायद खुद आ जाएगा।
लेकिन
दूसरे की भी यही मुसीबत है। वह भी डरा हुआ है।
लोग
प्रेम करने को पैदा हुए हैं, और प्रेम से भयभीत हैं। लोग बिना प्रेम के जीवन
की गहनता को न जान पाएंगे, और प्रेम से भयभीत हैं। लोग बढ़ना
चाहते हैं, प्रेम करना चाहते हैं, लेकिन
डर है अस्वीकार का। चोट लगेगी। उससे बेहतर अकेले जी लेना है। कम से कम किसी को चोट
देने का मौका तो नहीं दिया; अपमान तो नहीं हुआ।
इसलिए
तुमसे कहता हूं कि चट्टान से, वृक्ष से--वे तुम्हें इनकार न करेंगे। और वे
उतने ही प्रेम के लिए आतुर हैं जितना कोई और। और उनसे तुम्हें कभी चोट न पहुंचेगी।
मनुष्य
की पीड़ा का तुम्हें अंदाज नहीं। मैं एक अंग्रेज लेखिका का जीवन पढ़ रहा था। उसने
लिखा है: वह इतनी अकेली है और प्रेम से इतनी डरी है, क्योंकि हर बार असफलता मिली
है। और कभी-कभी आधी रात अकेले घर में--बड़ा घर; समृद्ध है और
अकेली--इतना भय लगने लगता है और एकांत इस बुरी तरह सालने लगता है कि कुछ और उपाय न
देख कर वह टेलीफोन दफ्तर को फोन नंबर उठा लेती है--घड़ी, समय
पूछने के लिए। घड़ियां उसके पास बहुत हैं। और वहां कोई आदमी जवाब नहीं देता;
वहां तो टेप-रिकार्ड किया हुआ सब रखा है। टेप-रिकार्ड से आवाज आती
है--लेकिन मधुर--कि इस समय रात के ग्यारह बजे हैं।
वह
लिखती है कि मुझे पता है कि वहां कोई बोलने वाला भी नहीं है; वहां सब
टेप किया हुआ है। वह आवाज जो मधुर है, वह भी जीवित नहीं है।
लेकिन फिर भी किसी की आवाज सुन कर राहत मिलती है कि मैं बिलकुल अकेली नहीं हूं।
उसने
लिखा है, मैंने कुत्ता पाल रखा है, तोता पाल रखा है। तोते को
मैंने सिखा दिया है कि जब भी मैं उसके पास जाऊं, वह हमेशा
कहता है: आई लव यू। मैं तुम्हें प्रेम करता हूं। इसमें कभी भूल-चूक नहीं होती,
क्योंकि तोते के लिए तो यह रटंत है। इस पर हमेशा भरोसा किया जा सकता
है। आदमियों पर भरोसा नहीं किया जा सकता। कभी कहें, कभी न
कहें। यह तोता भरोसेऱ्योग्य है।
पश्चिम
में लोग कुत्ते,
बिल्लियां, तोते पालने में लग गए हैं, क्योंकि आदमी से भय हो गया है, घना हो गया है। यहां
भी वही हालत है। यहां भी एक आदमी दूसरे आदमी से डरा है। सोच-सोच कर हाथ बढ़ाता है।
इस तरह हाथ बढ़ाता है कि समय रहते वापस लौटाने की सुविधा रहे। कहीं अगर दूसरे की
नजर बदल जाए, तो उसके पहले मैं हाथ लौटा लूं। ऐसा न हो कि
मैंने हाथ बढ़ाया और तुमने इनकार किया। मैंने हाथ बढ़ाया ही न था।
तुमने
कभी खयाल किया?
रास्ते पर तुम जा रहे हो, कोई आता है, तुम नमस्कार करते हो, लेकिन उसने देखा ही नहीं तो
तुम सिर खुजलाने लगते हो। दिखाने के लिए कि हमने हाथ जोड़े ही नहीं थे; हम तो सिर खुजला रहे थे। अस्वीकृत न हो जाऊं किसी के द्वारा, इसकी बड़ी संवेदना मन में बनी रहती है कि कोई इनकार न कर दे। मैंने नमस्कार
किया और तुमने नमस्कार न किया? अपमान हो गया, चोट लग गई। हम नमस्कार कर ही न रहे थे।
ऐसा
भय है। इसलिए तुमसे कहता हूं, प्रेम के पहले पाठ सीखने हों तो चट्टानों के
पास, पहाड़ों के पास, नदियों के पास,
वृक्षों के पास। फिर धीरे-धीरे बढ़ना। और जब तुम प्रेम का पाठ खूब
सीख जाओ, जब तुम्हें यह पता चल जाए कि प्रेम की इसकी कोई
प्रयोजना ही नहीं है कि दूसरा लौटाएगा कि नहीं; प्रेम सिर्फ
दान है। जब तुम वृक्षों को दे-दे कर आनंदित होओगे और वृक्षों जैसी हरियाली
तुम्हारे भीतर छा जाएगी; जब तुम नदी, चांदत्तारों
को दे-दे कर आनंदित होओगे और ठीक वैसी ही स्वच्छता तुम्हारे भीतर उतर आएगी;
तब तुम इसकी फिक्र छोड़ दोगे कि दूसरा लौटाता या नहीं; दूसरा अस्वीकार करता या नहीं। तब तुम उन्मुक्त भाव से दोगे। अगर दूसरे ने
न लौटाया, तो तुम्हें दया आएगी कि बेचारा! प्रेम में यह तो
इतना असमर्थ हो गया है कि मैंने नमस्कार किया और वह नमस्कार भी न लौटा सका। कितना
सिकुड़ गया होगा! तुम्हें दया आएगी, अनुकंपा आएगी। क्रोध नहीं
आएगा और न ही पीड़ा होगी।
और
एक बार तुम यह राज जान गए कि प्रेम का मजा उसके देने में है, तब तुम
चकित होओगे कि हजारों तरफ से प्रेम हजारों गुना होकर लौटने लगता है। क्योंकि
प्रत्येक तैयार खड़ा है--कोई प्रेम दे, वह लौटा दे। क्योंकि
वह भी डरा हुआ है। तुम जैसा ही डरा हुआ है। एक बार तुम देना शुरू करो, लौटना शुरू हो जाता है।
लेकिन
लौटना प्रयोजन नहीं है;
न भी लौटे, तो देना ही इतना महत्वपूर्ण और
आनंदकारी है कि कौन फिक्र करता है लौटने की? तुमने गीत गाया,
यह इतना सुखद था कि किसी ने ताली बजाई या न बजाई, यह बात अर्थहीन है।
कोयल
गीत गाती है,
किसी की ताली की कोई फिक्र नहीं। ऐसा ही प्रेमी वस्तुतः बांटता है,
कोयल के गीत की भांति। कोई ताली बजाता है, नहीं
बजाता, यह उसकी मौज। बजाई तो खुद भी थोड़ा आनंदित ज्यादा हो
लेगा। नहीं बजाई तो दया का पात्र है। गीत सुन कर ताली न बजी, इससे केवल इतना ही पता चलता है कि गीत सुनना भी न आया; गाना तो बहुत दूर। गीत सुनने का भी सलीका न आया। ताली भी न बजा सके,
ऐसी कंजूसी! कुछ भी न लगता था; अहोभाव प्रकट न
कर सके, तो गा तो सकोगे ही नहीं।
जो
ताली बजाता है गीत सुन कर,
वह गाने की तरफ कदम उठा रहा है। वह आज नहीं कल गाएगा भी। आज नहीं कल
सोचेगा कि दूसरे के गाने से इतना आनंद मिलता है, अपना गीत जब
फूटेगा प्राणों से तो कितना आनंद न मिलेगा! जब दूसरे के झरने को बहते देख कर ऐसी
पुलक छा जाती है, तो अपना झरना जब बहेगा तो कैसा नृत्य न
घटेगा!
जब
तुम दूसरे के प्रेम को अहोभाव से स्वीकार करते हो तो तुम्हारे प्रेम को फैलने की
सुविधा बनती है,
रास्ता मिलता है।
प्रेम
सीखना होगा।
और
मनुष्य-जाति ने तुम्हें जिस तरह से बड़ा किया है, वह बिलकुल विपरीत ढंग है।
वह घृणा का ढंग है; वह प्रेम का ढंग नहीं है। तुम्हें तैयार
किया गया है घृणा करने के लिए। इसलिए तुम्हें भयभीत कर दिया गया है।
लेकिन
अब इस बात को बार-बार दोहराने से कोई प्रयोजन नहीं है। क्योंकि तुम पैदा हो चुके, बचपन जा
चुका, जो होना था हो गया। अब इस बात को रोने से कोई सार नहीं
है कि बचपन में गलत संस्कार डाले गए हैं। वह हो चुकी बात। अगर तुम समझ जाओ,
जाग जाओ, उन संस्कारों को पोंछा जा सकता है।
वे संस्कार तुम्हारे सहयोग से जी रहे हैं। तुम्हारा सहयोग टूट जाए, वे विसर्जित हो जाएंगे। तुमने उन्हें सम्हाला है। तुम हाथ हटा लो, वे गिर जाएंगे।
प्रेम
सीखना होगा। प्रेम देना होगा। दे-दे कर बढ़ेगा। और जब तुम पाओगे कि जितना तुम देते
हो उतना बढ़ता जाता है,
तो तुम्हारा जीवन सघन होता है। उसकी त्वरा बढ़ती है। वह घनीभूत होता
है। तुम एक छोटे से घर में विराट जीवन के मालिक हो जाते हो। छोटी सी देह में अनंत
समा जाता है। जैसे बूंद में सागर सिकुड़ गया हो; जैसे एक किरण
में पूरा सूरज समा गया हो; ऐसे तुम्हारी छोटी सी देह में और
छोटे से आंगन में अपूर्व नृत्य होता है विराट का।
और
जब तक कोई वैसी स्थिति को न पहुंच जाए तब तक कैसे धन्यवाद देगा परमात्मा को? जिस जीवन
में धन्यवाद के योग्य कुछ भी नहीं है, उससे प्रार्थना कैसे
उठेगी?
इसलिए
मैं कहता हूं,
प्रेम हो तो ही प्रार्थना होती है। अगर प्रेम न हो तो प्रार्थना के
नाम से शिकायत होगी, प्रार्थना नहीं हो सकती।
तुम्हारी
प्रार्थनाओं में तुम्हारी शिकायतों का पता चलता है। तुम्हारी प्रार्थनाओं में
तुम्हारा अहोभाव निनादित नहीं होता। तुम यह नहीं कहते मुक्त कंठ से कि मैं
धन्यभागी हूं कि तूने मुझे पैदा किया। मैं धन्यभागी हूं कि मैं हूं। मैं धन्यभागी
हूं कि श्वास चलती है। मैं धन्यभागी हूं कि मैं तेरे इस विराट उत्सव में सम्मिलित
होने का हकदार माना गया। मैं धन्यभागी हूं कि तेरे चांदत्तारे देखे, तेरे
फूलों को खिलते देखा, तेरे फूलों की सुवास को आकाश में उड़ते
देखा। मैं धन्यभागी हूं कि तेरे झरने, तेरे पहाड़ देखे। तेरे
सागर, तेरी अनंत लीला देखी।
जिस
दिन तुम्हारी प्रार्थना धन्यवाद की होगी, उसी दिन प्रार्थना है।
लेकिन
वह प्रार्थना के पहले तुम्हें प्रेम की प्रक्रिया सीखनी होगी। उसमें देर मत करो।
जितना समय बीता वह व्यर्थ ही गया। जल्दी करो और प्रेम को बुलाओ और प्रेम को अपने
घर में बसाओ। और प्रेम के बढ़ने में जिससे भी सहायता मिले, वह सब
करो। और प्रेम के घटने में जिन-जिन चीजों से सहायता मिलती हो, वह भूल कर मत करो। क्योंकि तुम्हारे भीतर अगर प्रेम घना न हो, तो घृणा घनी होगी। तुम बच न सकोगे--या प्रेम, या
घृणा; या प्रेम, या भय; या प्रेम, या मौत। तुम बच न सकोगे। चुनाव तो करना ही
होगा।
तुम
इतने डरे हो मौत से इसीलिए कि तुम प्रेम को नहीं जान पाए। प्रेमी मौत से नहीं
डरता। प्रेमी की कोई मौत ही नहीं है, क्योंकि प्रेम शाश्वत है। उसका
मृत्यु से कभी मिलना नहीं हुआ, ऐसे ही जैसे सूरज का कभी
अंधकार से मिलना नहीं हुआ है।
तीसरा प्रश्न: जिसके प्रति भी समर्पण का भाव हो, चाहे
परमात्मा के प्रति या गुरु के प्रति, उसके संबंध में कोई न
कोई धारणा तो होगी ही। तो यह समर्पण भी एक धारणा के प्रति ही होगा न! अथवा समर्पण
इससे भिन्न होता है? कृपया समझाएं।
धारणा
हो तो समर्पण नहीं होता। धारणा तुम्हारी है। तो तुम जो समर्पण करोगे वह भी
तुम्हारा अपने ही प्रति है। वह तुमने झुक कर अपने ही पैर छू लिए। तुमने दर्पण के
सामने खड़े होकर अपनी ही आरती उतार ली। तुम्हारी धारणा के कारण अगर समर्पण होगा तो
समर्पण नहीं हुआ। तुम्हारी धारणा तुम्हारी धारणा है। समझो!
समझो
तुमने एक सूत्र बना लिया अपनी धारणा का कि ऐसा व्यक्ति मिलेगा तो हम समर्पण
करेंगे। तुमने कहा कि वह नग्न खड़ा होगा, दिगंबर होगा, रात खाना नहीं खाता होगा, पानी छान कर पीता होगा,
मांसाहारी नहीं होगा--तुमने एक धारणा बना ली। या तुमने कोई और दूसरी
धारणा बना ली--कि मोर-मुकुट लगाए खड़ा होगा, बांसुरी बजाता
होगा, गौएं चराता होगा--उसके प्रति हम समर्पण करेंगे। या
तुमने धारणा बना ली कि बैठा होगा बोधिवृक्ष के नीचे, हिलता-डुलता
न होगा, आंख बंद होंगी, शांत चित्त
होगा, परम वीतरागता होगी--उसके प्रति हम समर्पण करेंगे।
समर्पण
के पूर्व तुमने धारणा बना ली। धारणा तुम्हारी है। अब तुम धारणा को लेकर चले
जांचने। कभी कोई आदमी अगर तुम्हारी धारणा से मेल खा जाएगा तो तुम समर्पण कर दोगे।
वह समर्पण तुमने उसके प्रति किया? या तुमने अपनी ही धारणा के प्रति किया? वह तुमने झुक कर अपने ही पैर छू लिए। वह आदमी तो बहाना हुआ, खूंटी हुआ। तुमने अपने को ही उस पर टांग दिया।
और
इस तरह का समर्पण हमेशा अधूरा रहेगा; पूरा नहीं हो सकता। क्योंकि तुम
कभी भी पूरे तृप्त नहीं हो सकते, कि पता नहीं यह आदमी कल बदल
जाए, कल बिना छाने पानी पीने लगे। फिर क्या करोगे? कल का क्या भरोसा है! आज बांसुरी बजाता है, कल फेंक
दे। जिंदा आदमी है। मर गया होता तो बांसुरी रखे रहता। मंदिर का कृष्ण है, वह बांसुरी रखे है। कोई उपाय नहीं है। जब तक तुम्हीं न हटाओ, बजानी पड़ेगी। लेकिन इस आदमी का क्या भरोसा! यह आज नग्न खड़ा है, कल कंबल ओढ़ ले। तो संदेह तो रहेगा ही।
और
फिर इस आदमी की पूरी जिंदगी का तो तुम्हें पता ही नहीं है। अतीत का कोई पता नहीं
है, कैसा आदमी था। पता नहीं आज ही नग्न खड़ा हो गया हो। आज ही पानी छान कर पीने
लगा हो। और कल तक पापी रहा हो, आज पुण्यात्मा बन गया हो।
इसका पुण्य कितना गहरा है, इसका कैसे पता चले? और फिर जो तुम देख रहे हो वह तो एक छोटा सा हिस्सा है; इसके जीवन की समग्रता तो नहीं। वह तो ऐसे ही है जैसे किसी ने एक छेद से
दीवाल के आकाश देखा हो। या किसी को रामायण का फटा हुआ एक पन्ना मिल गया हो,
उसमें रामायण पढ़ ली हो। तो पूरी रामायण का तो कोई पता नहीं होगा। जो
दिखाई पड़ता है वह तो बहुत थोड़ा है, जो छिपा है वह बहुत
ज्यादा है। इसलिए तुम्हारी धारणा कल टूट न जाएगी, और ज्यादा
जानने से बिखर न जाएगी, इसका कहां पक्का भरोसा है? तो तुम्हारा समर्पण सशर्त होगा। तुम कहोगे, अगर तुम
ऐसे ही रहे सदा, तो मेरा समर्पण है। जिस दिन देखूंगा कि
बदलाहट हुई, उसी दिन हट जाऊंगा।
तुम
मुर्दा की पूजा करोगे,
जीवित की नहीं। जीवित तो सतत प्रवाहमान है। इसीलिए तो मंदिर में
मूर्ति की पूजा चलती है। वह जीवित गुरु से बचने का उपाय है। मूर्ति बिलकुल
तुम्हारी है। जैसा करवाओ वैसा करती है। जब तुम कहो कि अब सो जाओ, तो सो जाती है। जब तुम कहते हो, अब पट खुल गए,
उठो; तो उठ आती है। दतौन रख देते हो तो मुंह
साफ कर लेती है।
मैं
एक घर में पंजाब में मेहमान था। कमरे से गुजर रहा था, गुरुग्रंथ
साहब के सामने दतौन और लोटा भर पानी रखा था। मैंने पूछा कि यह कहीं लुढ़क जाए तो
गुरुग्रंथ खराब हो जाएं, किसने रखा है यहां? तो उन्होंने कहा कि नहीं, ऐसा आप मत कहना। आपको पता
नहीं है। गुरुग्रंथ साहब की दतौन है।
अब
वे गुरुग्रंथ साहब हो गए,
तो आदमी हो गए! किताब आदमी हो गई है। दतौन के लिए! फिर भोजन लगा
देंगे।
तुम
कठपुतलियां चाहते हो,
भगवान नहीं। जीवित भगवान मिल जाए तो तुम्हारी सब धारणाएं तोड़ देगा।
क्योंकि वह तुम्हारी धारणाएं पूरी करने को थोड़े ही बैठा है! और जहां तुम्हारी
धारणा टूटी, वहीं तुमने अपना समर्पण समेटा और भागे। तुमने
अपनी पोटली बांधी समर्पण की। तुमने कहा, रहने दो, कहीं और दे देंगे। यहां हमारी धारणा पूरी नहीं होती।
तुम्हारी
धारणा से समर्पण नहीं होता। जहां तुम्हारी सारी धारणाएं छूट जाती हैं वहां समर्पण
है। जिस व्यक्ति के पास आकर तुम अपनी सब धारणाएं नीचे रख देते हो। तुम कहते हो कि
बहुत धारणाओं से देख लिया;
सिवाय अंधेपन के कुछ भी न पाया। अपनी धारणाओं के चश्मों से लगा-लगा
कर बहुत देखा, कहीं परमात्मा न दिखा। अब हम सब धारणाएं चरणों
में रख देते हैं। अब हम निर्धारणा होते हैं। अब हम शून्य होकर तुम्हें देखते हैं।
समर्पण
का यही अर्थ है। किसी व्यक्ति के पास शून्य होकर बैठ जाना समर्पण है। तुम शून्य हो
जाओ, समर्पित हो गए। समर्पण कोई घोषणा थोड़े ही है कि तुम बैंड-बाजा बजाओ।
समर्पण तो शून्य का स्वर है। वह चुप्पी में घट जाता है। कुछ शोरगुल थोड़े ही करना
है। कोई दावेदारी थोड़े ही करनी है। कोई गवाह थोड़े ही जुटाने हैं। तुम जिस व्यक्ति
के भी पास जाकर शून्य बैठ गए, वहीं समर्पण हो गया। और तब
व्यक्ति की भी क्या बात है! तुम अगर वृक्ष के पास भी शून्य होकर बैठ गए, समर्पण वहीं हो गया। तुम अगर आकाश के पास शून्य होकर बैठ गए, समर्पण वहीं हो गया। समर्पण तुम्हारे न होने का नाम है। समर्पण कोई कृत्य
नहीं है कि तुमने किया। तुम करने वाले रहे तो समर्पण तो होना ही नहीं है। वह तो
तुम ही रहोगे पीछे। समर्पण तो ऐसी दशा है, तुम्हें पता चला
कि मैं हूं ही नहीं।
जिस
व्यक्ति के पास तुम्हें अपने न होने का पता चले, वही गुरु है। जिसके पास
तुम्हें अपने होने का पता चले, वहां से भागना। वह महामारी
है। क्योंकि वही तो तुम्हारी बीमारी है जन्मों-जन्मों की कि मैं हूं। जिस व्यक्ति
के पास तुम्हारे मैं की सब दीवालें गिरने लगें, वहां टिक
जाना। कहना कि अब यहीं रुकेंगे। यहां मिटने की जगह है।
लेकिन
यही मुश्किल है। जहां तुम देखते हो कि मिटने का डर है वहां से तुम भागते हो। यह
आदमी तो सब उजाड़ देगा। यह तो सब धारणाएं मिटा देगा। हमारा शास्त्र छीन लेगा, ज्ञान छीन
लेगा, आचरण नष्ट कर देगा। यह आदमी तो खतरनाक है। भागो,
अपने को बचाओ।
जिससे
तुम भागते हो,
वही था आदमी जहां तुम्हें रुकना था। क्योंकि वहीं तुम्हारा निखार
होता, वहीं तुम्हारा कूड़ा-करकट जलता, तुम्हारा
सोना निखरता। वहीं तुम्हारा व्यर्थ कटता और सार्थक का उदय होता। वहीं शून्य फलित
होता।
समर्पण
यानी शून्य भाव। जिसके पास भी तुम शून्य होकर बैठ गए, वहीं
समर्पण है। और जहां समर्पण हो, वहीं परमात्मा है। समर्पण की
आंख से जहां तुमने देख लिया वहीं परमात्मा है। शून्य आंख से अगर तुमने वृक्ष को
देख लिया, वृक्ष मिट जाएगा, तुम
परमात्मा को ही उन पत्तों में लहलहाते पाओगे। शून्य आंख से तुमने झील को देख लिया,
लहरें खो जाएंगी, तुम परमात्मा को ही वहां
चंचल पाओगे। अगर किसी मनुष्य के पास तुमने शून्य-भाव से बैठ कर देख लिया तो वहां
व्यक्ति मिट जाएगा, तुम्हें वहां भगवत्ता के दर्शन शुरू हो
जाएंगे।
भगवान
सूनी आंख से देखा गया जगत है। भरी आंख से देखा गया भगवान संसार मालूम पड़ता है।
खाली आंख से देखा गया संसार भगवान हो जाता है। असली बात खाली आंख है। निर्धारणा से
आंख खाली होगी।
तो
धारणा से संकल्प पैदा हो सकता है, धारणा से समर्पण पैदा नहीं हो सकता। समर्पण तो
मिटना है, खोना है, विसर्जित होना है।
तुम अपनी धारणा पकड़े रहोगे तो मिटोगे कैसे? तुम अगर मेरे पास
आकर हिंदू बने रहे, मुसलमान बने रहे, जैन
बने रहे, तो मुझसे चूक जाओगे। तुम मेरे पास आकर कुछ भी न रहे,
तुम्हें खुद ही पता-ठिकाना न रहा कि मैं कौन हूं, तुम्हारे सब तादात्म्य टूट गए, तुम्हारे सब विशेषण
गिर गए, तुम्हारे नाम-रूप का कुछ तुम्हें पता न रहा, तुम कोरे होने लगे, तुम्हारी स्लेट पर जो भी लिखा था
वह पुंछने लगा, तो--तो ही तुम लाभान्वित हो पाओगे।
तुम्हारा
एक ही लाभ है;
और वह लाभ यह है कि तुम न रहो। तुम्हारी एक ही हानि है; वह तुम ही हो। एक ही शत्रु है तुम्हारा--तुम्हारा होना। और एक ही तुम्हारे
जीवन में कल्याण की घटना होगी कि तुम मिट जाओ। समर्पण यानी मिट जाना।
बाकी
तो सब बहाने हैं। तुम गुरु के बहाने मिट जाओ, गुरु तो बहाना है। तुम मूर्ति के
बहाने मिट जाओ, मूर्ति भी बहाना है। बहाना तुम कोई भी ले लो।
अगर तुम बिना बहाने के मिटने में समर्थ हो, बिना बहाने मिट
जाओ; सिर्फ मिट जाओ; बिना किसी के
चरणों में गिरे सिर्फ गिर जाओ; तो भी परिणाम वही हो जाएगा।
चौथा प्रश्न: भक्त कितना ही भाव में गहरा जाए, लेकिन अंत
तक भी शायद उसका संबंध द्वैत का ही बना रहता है। और द्वैत बना रहे तो मुक्ति क्या
संभव है?
"अंत तक' तो संबंध द्वैत का बना रहता है, लेकिन "अंत में' संबंध द्वैत का नहीं रह जाता।
आखिरी-आखिरी
तक दो बने रहते हैं। पास आ जाते हैं, एक-दूसरे को छूने लगते हैं,
भक्त को भगवान का स्पर्श होने लगता है। लेकिन फिर भी स्पर्श भी होता
है तो भी दो तो होते ही हैं--अंत तक। पर अंत में--वह अंत तक के भी आगे की बात
है--अंत में वहां दोनों खो जाते हैं। न भक्त होता है, न
भगवान होता है। वहां एक ही बचता है। भक्ति ही बचती है। न भक्त बचता है, न भगवान बचता है। भाव ही बचता है। उस भाव में दोनों लीन हो जाते हैं।
तभी
मुक्ति है। एक बच रहे तो मुक्ति है। इसलिए हमने मोक्ष का नाम दिया है: कैवल्य; एक। केवल
एक बच रहे तो मुक्ति है। जब तक दो हैं तब तक बंधन है। क्योंकि वह दूसरा तुम्हें
घेरेगा। वह दूसरा तुम्हारी परिभाषा बनाएगा। वह दूसरा तुम्हारी सीमा बनाएगा,
तुम असीम न हो सकोगे। दूसरे की मौजूदगी सीमा होगी। तुम भी मिट जाओ,
दूसरा भी मिट जाए, होना मात्र रह जाए। उस घड़ी
में मोक्ष है।
अंत
तक तो ठीक है लेकिन अंत में दो नहीं रह जाते, एक ही रह जाता है। इसलिए अंत में,
तुम ध्यान से चलो कि प्रेम से, कोई फर्क नहीं
पड़ता। भेद यात्रा के प्रारंभ में है। जैसे-जैसे यात्रा आगे बढ़ती है, यात्री करीब आने लगते हैं।
ऐसे
ही जैसे किसी पहाड़ के शिखर पर कोई जा रहा है; कोई पूरब से चढ़ा है, कोई पश्चिम से चढ़ा है, वे अलग-अलग चढ़े हैं। शायद
प्रथम चरण में यात्रा के उनको दूसरा दिखाई भी नहीं पड़ता था, इतना
फासला था। लेकिन जैसे-जैसे पहाड़ का शिखर करीब आने लगेगा, कभी-कभी
दूसरा भी उन्हें दिखाई पड़ेगा--पास आने लगे। एक ऐसी घड़ी आएगी जब वे पहाड़ के आखिरी
शिखर पर पहुंच जाएंगे। तब अचानक वे पाएंगे कि दूसरा भी वहीं आ गया। पूरब, पश्चिम, दक्षिण, उत्तर,
सब खो जाते हैं। एक ही शेष रह जाता है।
कहां
से तुम चले, यह सवाल नहीं है। किस ढंग से तुम चले, यह सवाल नहीं
है। किस वाहन पर तुमने यात्रा की, या पैदल चले, यह भी सवाल नहीं है। अंतिम मंजिल तो एक है। मनुष्य की नियति तो एक है। एक
को पा लेना ही वह नियति है।
चलने
के प्रथम तुम अपने हिसाब को समझ कर चलना। तुम अपना ढंग, अपनी रुचि,
रुझान को देख कर चलना। तुम्हें जो रास्ता मौजू पड़े, उससे चलना। पैदल चल सको, पैदल चलना। घोड़े पर चल सको,
घोड़े पर चलना। बैलगाड़ी पर सवार होना हो, बैलगाड़ी
पर सवार होना। अपने को देख कर चलना। अपने को जिसमें सुख मिले, शांति मिले, एक-एक कदम पर तुम्हारी शांति गहरी होने
लगे, इस बात को जांचते हुए चलना।
लेकिन
अक्सर तुम्हें उलटी बातें सिखाई गई हैं। तुम्हें सिखाया गया है कि यह तो बड़ा
कष्टपूर्ण है मार्ग। तो अक्सर ऐसा हो जाता है, तुम किसी और के मार्ग पर चलते हो,
कष्ट पाते हो, लेकिन अपने को समझाते हो कि मार्ग
तो कष्टपूर्ण है। आनंद तो अंत में मिलेगा, अभी तो कष्ट भोगना
ही पड़ेगा। तुम्हें समझाया गया है कि जन्मों-जन्मों में तुमने जो कर्म किए हैं,
उनके पाप-फल भोगने पड़ेंगे। तो तुम सोचते हो, शायद
पाप-फल भोग रहे हैं। फिर तुम्हें यह भी समझाया गया है, यह
कोई छोटी घटना तो नहीं कि आज घट जाए। यह तो जन्म-जन्म लगेंगे। तो भोगो कष्ट को।
लेकिन
मैं तुमसे दूसरी बात कहता हूं। मैं तुमसे कहता हूं, अगर मार्ग तुमसे मेल खा जाए,
तुम्हें पहले ही कदम से शांति मिलनी शुरू हो जाएगी। पूरी शांति नहीं
मिल जाएगी, लेकिन शांति के आसार! पूरी शांति आज नहीं मिल
जाएगी, लेकिन शांति की संभावना की प्रतीति तो होने लगेगी।
जैसे
कोई नदी के करीब आता है तो हवा शीतल होने लगती है। अभी नदी नहीं आ गई, दिखाई भी
नहीं पड़ती, पर हवा में शीतलता आ गई। कोई बगीचे के करीब आता
है, अभी बगीचा दिखाई भी नहीं पड़ता, लेकिन
फूलों की बास हवा में तैरती हुई आने लगती है।
मंजिल
पर पहुंचने के पहले भी मंजिल की थोड़ी सुगंध तो आने ही लगेगी। और मैं तुमसे कहता
हूं, पहले कदम से ही आने लगेगी। अन्यथा हो ही नहीं सकता। जब तुम ठीक मार्ग पर
खड़े हो गए तो तुम मंजिल से जुड़ गए। हजार मील दूर हो मंजिल, तो
भी कोई बात नहीं। लेकिन जब तुम ठीक मार्ग पर खड़े हो गए, तो
हजार मील का फासला भला हो, लेकिन मंजिल से तुम जुड़ गए। थोड़े
तो तुम मंजिल के पास आ ही गए। मंजिल से संबंध तो हो ही गया।
तालमेल
अगर बैठ गया तो तुम्हें पहले ही दिन से शांति मिलनी शुरू हो जाएगी। आनंद का एक भाव
तुम्हें घेरने लगेगा। कभी-कभी तुम चौंक कर देखोगे कि क्या कारण है, तुम क्यों
इतने प्रसन्न हो! क्योंकि कोई कारण दिखाई न पड़ेगा। मंजिल बहुत दूर है। मोक्ष अभी
बहुत दूर है। लेकिन अचानक तुम पाओगे, थोड़ी-थोड़ी मुक्ति फलित
होने लगी। कुछ-कुछ बंधन गिरने लगे। अब तुम्हारे पैर जंजीरों में उतने नहीं बंधे
हैं जितने कल तक बंधे थे। तुम्हारी गर्दन से फांसी का फंदा थोड़ा ढीला हो गया। अब
इतनी फांस नहीं लग रही है गले में। गला थोड़ा मुक्त है। तुम गा सकते हो। तुम थोड़े
दौड़ सकते हो। यह तुम्हें पहले ही क्षण से मालूम पड़ना शुरू हो जाएगा।
अगर
यह मालूम न पड़े,
तो मैं तुमसे न तो कहता हूं कि तुम अतीत जन्मों की फिक्र करना,
कर्मों की फिक्र करना। मैं तुमसे इतना ही कहता हूं, तुम फिक्र करना, तुम गलत रास्ते पर खड़े हो, जो तुम्हें मौजू नहीं पड़ता होगा।
अगर
दवा ठीक बैठ जाए तो पहली खुराक से ही राहत शुरू हो जाती है। दवा ठीक न बैठे तो ही
बात और है।
आखिरी प्रश्न: शरीर बंधन है, ऐसा कहा
गया है। तो क्या शरीर में रहते हुए चरम अद्वैत की उपलब्धि संभव नहीं है?
किसने
तुम्हें कहा है कि शरीर बंधन है? जिसने भी तुम्हें कहा है, गलत कहा है। शरीर बंधन नहीं है, शरीर के साथ आसक्ति
बंधन है। शरीर के साथ मोह बंधन है। मैं शरीर हूं, ऐसी धारणा
बंधन है। शरीर बंधन नहीं है। शरीर क्यों बंधन होगा?
तुम्हारे
कपड़े बंधन हैं?
हो सकते हैं बंधन, अगर तुम इतने मोहग्रस्त हो
जाओ कि तुम कहो, मैं कपड़े उतार ही नहीं सकता। मैं मर ही
जाऊंगा अगर कपड़े उतारूंगा। कपड़े मैं बदल ही नहीं सकता, क्योंकि
इसमें तो मैं मर ही जाऊंगा। मैं कपड़ा हूं।
अगर
तुम्हें कपड़े के साथ ऐसी भ्रांति हो जाए कि मैं कपड़ा हूं। अगर मेरा कपड़ा किसी ने
छीन लिया तो मरे। कपड़ा अगर चोरी चला गया तो मर गए। फिर जरा-जीर्ण भी हो जाए कपड़ा, सड़-गल जाए,
तो भी तुम बदल नहीं सकते, नया कपड़ा नहीं ले
सकते, क्योंकि यह कपड़ा ही तुम हो। तो फिर कपड़ा भी बंधन हो
जाएगा। कपड़ा अभी बंधन नहीं है। क्योंकि तुम जानते हो, कपड़ा
अलग है, तुम अलग हो।
शरीर
भी कपड़ा है। शरीर बंधन नहीं है। जिन्होंने कहा, गलत कहा होगा। या तुमने गलत समझा
होगा। शरीर बंधन है, अगर तुमने समझा कि मैं शरीर हूं। तब मन
भी बंधन है, अगर तुमने समझा कि मैं मन हूं। तो आसक्ति बंधन
है, तादात्म्य बंधन है। न तो शरीर बंधन है, न मन बंधन है। अगर तुमने जान लिया कि मैं शरीर में हूं, लेकिन शरीर नहीं हूं, तुम मुक्त हो गए। तुमने अगर
पहचान लिया कि मैं मन के भीतर हूं, मन नहीं हूं, तुम मुक्त हो गए। कोई न रोकेगा। तुम्हें कोई नहीं रोक सकता, कहीं भी नहीं रोक सकता। तुम्हारी आसक्ति ही रोक सकती है।
इसे
थोड़ा ठीक से समझ लो,
क्योंकि ऐसी बहुत सी भ्रांतियां तुम्हारे मन में भरी हैं।
अब
यह तरकीब बड़ी गहरी है। आसक्ति को तो बंधन नहीं कहते, शरीर को बंधन कहते हो।
क्योंकि आसक्ति को कहोगे तो तुम जिम्मेवार होओगे, शरीर को
कहा तो तुम जिम्मेवार नहीं हो, शरीर जिम्मेवार है। दूसरे पर
जिम्मेवारी टालने का हमारा बड़ा मन होता है। उससे हमारी झंझट मिट जाती है। कह दिया
शरीर बंधन है, बिलकुल निश्चिंत हो गए। अब करें भी क्या?
शरीर है, इसके रहते तो मोक्ष हो नहीं सकता। मन
जब तक मिटेगा नहीं, कैसे मोक्ष होगा? मन
बंधन है। तुम निश्चिंत हुए, तुम्हारा दायित्व समाप्त हुआ।
तुम्हें ऐसा लगने लगा कि किसी और के कारण तुम बंधे हो, अपने
कारण थोड़े ही! और यही बड़ी से बड़ी भूल है।
धार्मिक
व्यक्ति सदा जिम्मेवारी अपनी खोजता है। क्यों? क्योंकि जिस बात के लिए तुम
जिम्मेवार हो, उसी से मुक्त हुआ जा सकता है। जिसके लिए तुम
जिम्मेवार ही नहीं हो, उससे तुम मुक्त कैसे होओगे? आसक्ति बंधन है।
लेकिन
आसक्ति कहो तो तुम्हें लगता है, यह तो झंझट हुई। यह तो अपराधी हम सिद्ध हुए।
क्योंकि शरीर तुमसे आसक्त नहीं है, ध्यान रखना। अगर हाथ
तुम्हारा काटा जाए तो हाथ नहीं चिल्लाता कि मैं मर जाऊंगा! मुझे मत काटो! मुझे दूर
मत करो! मेरा बड़ा मोह है! तुम चिल्लाते हो।
सूफी
फकीर हुआ बायजीद। वह अपने शिष्यों के साथ एक सड़क से गुजरता था और एक आदमी एक गाय
को बांध कर ले जा रहा था। वह गाय जा नहीं रही थी और वह जबरदस्ती घसीट रहा था। तो
बायजीद ने अपने शिष्यों को कहा, खड़े हो जाओ, घेर लो इस
आदमी को। एक स्थिति मौजूद हो गई है, इससे कुछ शिक्षा लेनी
है।
वे
घेर कर खड़े हो गए। वह आदमी थोड़ा चौंका भी। पर बायजीद बड़ा जाहिर फकीर था। उस आदमी
ने भी कहा, होगा कुछ; शिष्यों को समझाता होगा। बायजीद ने
शिष्यों से पूछा कि तुम मुझे यह बताओ, यह आदमी गाय से बंधा
है कि गाय इस आदमी से बंधी है?
जाहिर
था। लोगों ने कहा कि गाय आदमी से बंधी है। आदमी क्यों बंधेगा गाय से? हाथ में
रस्सी आदमी के है; गाय के गले में है। जाहिर है, गाय बंधी है, आदमी मुक्त है।
बायजीद
ने कहा, अब दूसरा सवाल--अगर हम रस्सी तोड़ दें तो गाय आदमी के पीछे जाएगी कि आदमी
गाय के पीछे जाएगा?
उन्होंने
कहा, आदमी गाय के पीछे जाएगा।
तो
उसने कहा, फिर पहले सवाल का उत्तर गलत है। गाय नहीं बंधी है। गाय तो छूटने की कोशिश
कर रही है, नासमझो! वह तो पीछे खिंच रही है। आदमी उसको खींच
रहा है। रस्सी टूटते ही गाय भाग खड़ी होगी। आदमी खोजेगा गाय को। तो बंधा कौन है?
शरीर
ने तुम्हें नहीं खोजा है,
ध्यान रखना। तुमने अपनी वासनाओं के कारण शरीर खोजा है। तुमने गर्भ
खोजा है, गर्भ ने तुम्हें नहीं खोजा। अगर शरीर तुम्हें छोड़ने
लगे तो तुम डाक्टर को बुलाओगे, शरीर डाक्टर को नहीं बुलाएगा।
शरीर तो झंझट से छूटना चाहता है। तुमने काफी सता रखा है। उसको तो विश्राम मिलेगा।
मिट्टी मिट्टी में गिर जाएगी, प्रसन्न होगी। पानी पानी में
मिल जाएगा, झंझट मिटी। आकाश आकाश में लीन हो जाएगा, हवा हवा में लीन हो जाएगी। काफी तुम्हारे फेफड़ों में कष्ट भोग लिया।
न, शरीर क्षण
भर को भी न कहेगा कि मुझे कुछ नुकसान हो रहा है। शरीर तो मुक्त हो जाएगा। तुम
रोओगे, चिल्लाओगे। जब तुम मरते हो तो शरीर रोता है कि तुम
रोते हो? शरीर तो शांति से मरने को तैयार है, विश्राम में जाने को तैयार हो गया है। तुम पकड़ रहे हो। तुम कह रहे हो
डाक्टर से कि आक्सीजन का सिलिंडर लगा दो। कि कुछ भी हो जाए, मगर
रहेंगे शरीर में। चाहे बेहोश रहें, मगर रहेंगे।
पश्चिम
के अस्पतालों में बहुत से लोग बेहोश पड़े हैं। बस आक्सीजन के सिलेंडर से लटके हैं।
मगर उनके पास पैसा है। वे कहते हैं, मरेंगे नहीं। चाहे बेहोश ही पड़े
रहेंगे, कभी तो ठीक होंगे। यहां तक बात पहुंच गई है कि कुछ
लोगों ने अपनी लाशों को सुरक्षित करवा लिया है अमरीका में। क्योंकि इस बात की आशा
है कि बीस साल के भीतर मुर्दे को जिलाने की संभावना है। तो जो मर गए हैं करोड़पति
लोग...कम से कम इस तरह की हजार लाशें अमरीका में सुरक्षित हैं। एक-एक लाश पर दस
हजार रुपये रोज का खर्च है। क्योंकि जिंदा आदमी का मामला नहीं है, लाश को सुरक्षित रखना बहुत मुश्किल मामला है। जरा गड़बड़ हो जाए, सड़ जाए। जरा यहां-वहां भूल-चूक हो जाए, सड़ जाए।
क्योंकि जीवन तो रहा नहीं। भीतर का बचाने वाला तो अब बचा नहीं। भीतर की सुरक्षा तो
खो गई। अब तो सिर्फ रासायनिक द्रव्यों के आधार पर बचाया जा रहा है। दस हजार रुपये
रोज का खर्च एक लाश पर बीस साल तक! लेकिन जो लोग छोड़ गए हैं, वे करोड़ों डालर छोड़ गए हैं अपने लिए। वे कहते हैं, जब
तक कि खोज न हो जाए कि मुर्दा जिलाया जा सके, तब तक हमारी
लाश को बचाना। जिस दिन खोज हो जाए उस दिन हमारी लाश को जिला लेना।
कौन
किसको पकड़ रहा है?
मर जाने के बाद बीस साल तक भी पीछा कर रहे हो गरीब शरीर का! उसको
जाने दो, उसको विश्राम करने दो। नहीं लेकिन, नहीं करने देंगे। अभी और इरादा उनका फिर से आने का है इसी शरीर में।
नहीं, शरीर बंधन
नहीं है, आसक्ति बंधन है। और अगर आसक्ति बंधन है तो मोक्ष का
उपाय है। अगर शरीर बंधन है तो फिर मोक्ष का उपाय ही नहीं है। तब तो बुद्ध भी शरीर
में थे, महावीर भी शरीर में थे। महावीर और बुद्ध दोनों चालीस
साल के करीब उम्र के थे जब ज्ञान को उपलब्ध हुए, मुक्त हुए।
फिर चालीस साल और जिंदा रहे। तो यह तो कहानी झूठ हो गई। मुक्त हो ही नहीं सकते,
अगर शरीर बंधन है।
लेकिन
हम जानते हैं कि लोग शरीर में रहते मुक्त हो गए। क्योंकि मुक्त होना शरीर से
संबंधित नहीं है,
आसक्ति के टूट जाने से संबंधित है। आसक्ति का सेतु हट गया। शरीर
जारी रहा, शरीर अपना कृत्य करता रहा, लेकिन
भीतर से उस कृत्य को पकड़ रखने की कोई आकांक्षा न रही। जब तक चला, अपने से चला। जब गिर गया, अपने से गिर गया। लेकिन
भीतर से कोई आसक्ति न रही कि यह मैं हूं। अपना भिन्न होना प्रतीत हो गया, अनुभव हो गया। शरीर से अतिक्रमण हो गया। शरीर के भीतर रहते जान लिया कि
मैं शरीर के पार हूं; मुक्ति हो गई।
मोक्ष
स्वयं की पहचान है। शरीर से उसका कुछ लेना-देना नहीं। स्वयं की ठीक-ठीक पहचान, सम्यक
ज्ञान मोक्ष है। शरीर हो या न हो, इससे कुछ लेना-देना नहीं।
शरीर
न हो और आसक्ति बनी रहे,
तो तुम नया शरीर ग्रहण कर लोगे, नया गर्भ खोज
लोगे। शरीर रहते भी आसक्ति छूट जाए, तो गर्भों की खोज बंद हो
गई। अब तुम्हारा फिर कोई जन्म न होगा। शरीर के कारण तुम नहीं जन्मे हो, तुम्हारे कारण शरीर पकड़ा गया है। तुम आधार हो। तुम्हारी आसक्ति बंधन है।
सार में कहें तो आसक्ति बंधन है, अनासक्ति मोक्ष है।
आज इतना ही।
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