असंभव क्रांति-(साधना-शिविर)
साधना-शिविर
माथेरान, दिनांक 21-10-67 सुबह
(अति-प्राचिन प्रवचन)
प्रवचन-आठवां-(सृजन का सूत्र)
मेरे प्रिय आत्मन्,
मनुष्य एक तिमंजिला मकान है। उसकी एक मंजिल तो भूमि के ऊपर है, बाकी दो मंजिल जमीन के नीचे। उसकी पहली मंजिल में, जो
भूमि के ऊपर है, थोड़ा प्रकाश है। उसकी दूसरी मंजिल में,
जो जमीन के नीचे दबी है और भी कम प्रकाश है। और उसकी तीसरी मंजिल
में जो बिलकुल भूगर्भ में छिपी है, पूर्ण अंधकार है, वहां कोई प्रकाश नहीं है।
इस तीन मंजिल के मकान में--जो कि मनुष्य है, अधिक लोग ऊपर की मंजिल में ही जीवन को व्यतीत कर देते हैं। उन्हें नीचे की
दो मंजिलों का न तो कोई पता होता है, न खयाल होता है। ऊपर की
मंजिल बहुत छोटी है। नीचे की दो मंजिलें बहुत बड़ी हैं। और जो अंतिम अंधेरा भवन है
नीचे, वही सबसे बड़ा है--वही आधार है सारे जीवन का।
जिस व्यक्ति को सत्य की और स्वयं की यात्रा करनी हो, उसे नीचे की दो मंजिलों में उतरना पड़ता है। सत्य की यात्रा आकाश की तरफ की
यात्रा नहीं है, बल्कि पाताल के तरफ की यात्रा है। ऊपर की
तरफ नहीं--नीचे और भीतर और गहरे उतरने का सवाल है।
जंगल में चारों तरफ हमारे वृक्ष खड़े हुए हैं। वृक्षों का एक हिस्सा तो
वे पत्ते हैं, जो सूरज के बिलकुल सामने हैं और सूरज की रोशनी से
प्रकाशित हैं। वृक्ष का दूसरा हिस्सा वे शाखाएं और पीड़ हैं, जो
पत्तों के नीचे छिपी हैं, जिन पर कहीं-कहीं सूरज की रोशनी
पड़ती भी है, कहीं-कहीं नहीं भी पड़ती है। वृक्ष का तीसरा
हिस्सा, वे जड़ें हैं, जो जमीन के भीतर
छिपी हैं, जिन पर सूरज की रोशनी कभी भी नहीं पड़ती। लेकिन
वृक्ष के प्राण वृक्ष की जड़ों में हैं। और जो वृक्ष को पूरा जानना चाहता हो,
उसे जड़ों को जानना ही पड़ेगा, जो कि दिखाई नहीं
पड़ती हैं, अदृश्य हैं, छिपी हैं। जो
वृक्ष के पत्तों पर ही रह जाएगा, वह वृक्ष को नहीं समझ
पाएगा।
हमारे मन के भी ऐसे ही तीन हिस्से हैं। पहला हिस्सा: जिस पर थोड़ी
रोशनी पड़ती है, वह है कांशस माइंड, चेतन मन।
दूसरा हिस्सा: जो उसके नीचे दबा है, वह है सब-कांशस माइंड,
अर्द्ध-चेतन मन। और तीसरा हिस्स: जो सबसे नीचे छिपा है, वह है अनकांशस माइंड, अचेतन मन। पहले हिस्से में
थोड़ी चेतना है। दूसरे हिस्से में और भी कम, तीसरे हिस्से में
बिलकुल नहीं है। यह मनुष्य है।
मनुष्य का जो चेतन मन है, जो कांशस माइंड है,
उसमें ही हममें से अधिक लोग जी कर समाप्त हो जाते हैं, इसलिए जीवन को नहीं जान पाते हैं। जीवन की जड़ें अनकांशस माइंड में,
अचेतन मन में छिपी हैं। वह अदृश्य है, वह भूमि
के नीचे है। वहीं से हमारा संबंध परमात्मा से, सत्य से,
जीवन से है। वहीं से जड़ें पृथ्वी से जुड़ी हैं। जड़ों का संबंध ही
जीवन से है। हमारे अचेतन मन में हमारी जड़ें हैं।
सत्य की जो खोज है या स्वयं की या प्रभु की, वह खोज खुद की जड़ों की खोज है। वह जो रूट्स हैं हमारे भीतर, उनकी खोज है। वे अंधेरे में छिपी हैं। और हम? हम वह
जो छोटा सा कमरा है ऊपर जमीन के, वहां जहां रोशनी पड़ती है,
वहीं जी लेते हैं और वहीं समाप्त हो जाते हैं।
यह जिस कमरे में थोड़ी रोशनी पड़ती है, यह जो चेतन मन है,
यह जो कांशस माइंड है, यह समाज के द्वारा
निर्मित होता है। शिक्षा के द्वारा, संस्कार के द्वारा। बचपन
से हम इसे तैयार करते और बनाते हैं। और आज तक मनुष्य का यह जो कांशस माइंड है,
यह जो चेतन मन है, यह बिना इस बात के खयाल के
निर्मित किया गया है कि इसके नीचे दो मन और हैं। इसलिए अक्सर इस मन को जो बातें
सिखाई जाती हैं, वे नीचे के मन के विरोध में पड़ जाती हैं,
भिन्न हो जाती हैं। और तब इस ऊपर की मंजिल में और नीचे की मंजिलों
में एक विरोध, एक खिंचाव, एक तनाव शुरू
हो जाता है। आदमी खुद के भीतर डिवाइडेड हो जाता है, खुद के
भीतर विभाजित हो जाता है।
चेतन मन में जो बातें सिखाई जाती हैं, वे अचेतन मन और
अर्द्ध-चेतन मन के अगर समानांतर न हों, पैरेलल न हों,
हारमनी में न हों, उनके साथ लयबद्ध न हों तो
व्यक्तित्व खंडित हो जाता है। हम सबका व्यक्तित्व खंडित व्यक्तित्व है, डिसइंटीग्रेटेड। और है इसलिए कि हमारे चेतन मन को जो बातें सिखाई गई हैं,
सिखाई जाती रही हैं, उनमें हमारे पूरे
व्यक्तित्व का कोई ध्यान नहीं रखा गया है।
चेतन मन को कहा जाता है, क्रोध मत करो। बच्चा
पैदा हुआ--हम उसे सिखाना शुरू करते हैं, क्रोध मत करो। उसके
अचेतन मन में क्रोध मौजूद है। हम उसे सिखाते हैं, क्रोध मत
करो। उसका ऊपर का मन सीख लेता है, क्रोध नहीं करना है,
लेकिन भीतर क्रोध मौजूद है। ऊपर का मन कहता है, क्रोध मत करो--भीतर का मन क्रोध के लिए धक्के देता है। हर क्षण जब भी मौका
आता है, क्रोध प्रगट होना चाहता है। भीतर का मन क्रोध को
प्रगट करना चाहता है। ऊपर का मन क्रोध को रोकना और दबाना चाहता है। एक सप्रेशन,
एक दमन शुरू हो जाता है। और तब हम दो हिस्सों में टूट जाते हैं।
जिसे हम दबाते हैं, वह हिस्सा अलग हो जाता है। जो
दबाता है, वह हिस्सा अलग हो जाता है। और इन दोनों में निरंतर
एक द्वंद्व, एक कानफ्लिक्ट, एक संघर्ष
चलने लगता है। इसी संघर्ष में मनुष्य टूटता और नष्ट होता है।
मनुष्य के इन तीन मनों के बीच एकता के सध जाने का नाम ही योग है। मन
के इन तीन हिस्सों के बीच हारमनी, संगीत का पैदा हो जाना ही साधना
है।
लेकिन जैसी स्थिति है, वह यह है कि इन तीनों
के बीच कोई संबंध नहीं है। बल्कि यह एक-दूसरे के विरोध में खड़े हैं।
जो हम दिन में सोचते हैं, विचार करते हैं,
रात सपने में उससे बिलकुल उलटा देखते हैं। सपने में हमारे पीछे छिपा
हुआ मन प्र्रगट होना शुरू होता है। दिनभर में चेतन मन थक जाता है, सो जाता है। फिर रात, वह जो सबकांशस माइंड है,
वह जो पीछे छिपा मन है, वह प्रगट होना शुरू
होता है। तो हम दिन में कुछ और होते हैं, सपने में कुछ और
होते हैं--बल्कि उलटे होते हैं। दिन में हम चोरी नहीं करते, सपने
में चोरी कर लेते हैं। दिन में हम हत्या नहीं करते किसी की, सपने
में हत्या कर देते हैं। फिर हमें हैरानी होती है सुबह जागकर--ये सपने मैंने कैसे
देखे! मैंने तो कभी हत्या के लिए सोचा भी नहीं। मैंने तो कभी चोरी की ही नहीं। फिर
मैंने सपने में कैसे चोरी की! सपने में कैसे हत्या की!
चेतन जो मन है, उसने नहीं सोचा हत्या के लिए, लेकिन
अचेतन मन ने सोचा है। और चेतन मन उसे दबाए हुए बैठा है। जब सपना, नींद में चेतन मन सो जाता है तो अचेतन अपनी बातें प्रगट करना शुरू कर देता
है। हमारे भीतर इस भांति खाइयां पैदा हो गई हैं। और इन सारी खाइयों को पैदा करने
का सूत्र है--सप्रेशन, दमन।
आज तक यही समझाया गया है: मन का दमन करो। मन में जो भी बुरा है, उसे दबाओ। लेकिन दबाने से वह कहां जाएगा? क्या दमन
करने से कोई चीज नष्ट हो जाती है? दमन करने से नष्ट नहीं
होती और गहरे प्रविष्ट हो जाती है। और भीतर गहराई में जाकर मौजूद हो जाती है। हम
उसे दबा लेते हैं, वह हमारे प्राणों का हिस्सा हो जाती है।
तो हम चेतन मन को तो पवित्र कर लेते हैं, साफ कर लेते हैं, वहां तो हम अच्छे-अच्छे सुभाषित
वचन टांग देते हैं--सफाई कर लेते हैं पूरी, और सारी गंदगी
भीतर हटा देते हैं। तो भीतर हमारे प्राण तो गंदे होते चले जाते हैं। ऊपर सब सफाई
हो जाती है, भीतर सब गंदगी इकट्ठी हो जाती है। भीतर, जहां कि हमारा असली होना है, जहां कि हमारा आथेंटिक
बीइंग है, वहां तो हम सब कचरा ढकेल देते हैं और ऊपर की मंजिल
पर, बैठक-खाने में, वहां हम सब सफाई कर
लेते हैं। ऐसी हमारी स्थिति है। ऐसा मन न तो स्वस्थ हो सकता है, न शांत हो सकता है। ऐसा मन निरंतर अपने भीतर ही द्वंद्व में, युद्ध में संलग्न रहता है।
हम चौबीस घंटे लड़ रहे हैं अपने से। और जो अपने से लड़ रहा है, उसका जीवन नष्ट हो जाएगा। क्योंकि अपने से लड़ने का एक ही अर्थ है। अगर मैं
अपने दोनों हाथों को लड़ाऊं तो क्या परिणाम होगा। क्या कोई जीतेगा? मेरे ही दोनों हाथ, मैं ही दोनों के पीछे मौजूद
हूं--मेरी ही ताकत दोनों हाथों से लड़ेगी। कोई हाथ जीत नहीं सकता। लेकिन एक बात तय
है, हाथ तो कोई नहीं जीतेगा, लड़ाने में
मेरी शक्ति व्यय होगी। हाथ तो कोई नहीं जीतेगा लेकिन मैं हार जाऊंगा। आखिरी में,
मैं पाऊंगा एक गहरी पराजय हो गई, हार गया।
हर आदमी जीवन के अंत में अपने को हारा हुआ, थका हुआ अनुभव करता है। जीवन के अंत में विजय हाथ नहीं आती, हार हाथ आती है। और हार आनी सुनिश्चित है। क्योंकि अपने ही हाथ कोई लड़ाएगा
तो जीत कैसे हो सकती है? किसकी हो सकती है?
हम अपने ही मन को दो हिस्सों में तोड़कर लड़ा रहे हैं। और जिनसे हम लड़
रहे हैं--मन के वे हमारे ही हिस्से हैं, हम ही हैं, इसका हमें बोध भी नहीं! और दूसरी बात, जिन मन से हम
लड़ रहे हैं, वे अंधेरे में बंद हैं, उनसे
हमारा कोई परिचय भी नहीं, उनसे हमारी कोई पहचान भी नहीं!
अब तक की सारी शिक्षा, सारी संस्कृति,
सारा समाज मनुष्य की इस अंतर्द्वंद्व की व्यवस्था पर खड़ा हुआ है।
फिर इस अंतर्द्वंद्व के कारण अनेक विस्फोट होते हैं। जैसे हम केतली में चाय गरम
करते हैं और केतली का मुंह बंद कर दें, ढक्कन बंद कर दें और
गरम भी किए चले जाएं तो क्या होगा? एक्सप्लोजन होगा। केतली
की भाप नहीं निकल पाएगी तो फोड़ देगी केतली के बर्तन को।
तो रोज-रोज आदमी में विस्फोट होता है। यह विस्फोट बहुत रूपों में होता
है। एक आदमी पागल हो जाता है। यह भीतर दबाए गए विष का विस्फोट है। हमारे रोज-रोज
की, दिन-दिन की कलह, संघर्ष--पति का पत्नी से, बच्चों का मां-बाप से, शिक्षक का विद्यार्थियों से,
एक वर्ग का दूसरे वर्ग से, एक गांव का दूसरे
गांव से, एक प्रांत का दूसरे प्रांत से, एक देश का दूसरे देश से, एक भाषा बोलने वालों का,
दूसरी भाषा बोलने वालों से, रोज-रोज
कलह--उसमें हमारा भीतर दबा हुआ रोग रोज-रोज निकलता है। फिर और बड़े पैमाने पर युद्ध
खड़े हो जाते हैं।
पांच हजार वर्षों में आदमी ने पंद्रह हजार युद्ध लड़े हैं। पंद्रह हजार
युद्ध! क्या हम युद्ध ही लड़ते रहे दुनिया में? हमारी आज तक की पांच
हजार वर्ष की सारी सभ्यता और संस्कृति युद्ध की सभ्यता और संस्कृति है। लड़ने में
ही हमने जीवन व्यतीत किया है। कुछ बीच-बीच में जो कालखंड आते हैं, जब हम नहीं लड़ते, उस समय हम लड़ने की तैयारियां करते
रहते हैं। जब हम नहीं लड़ते, तब लड़ने की तैयारियां करते हैं।
और या लड़ते हैं, या लड़ने की तैयारियां करते हैं! बस दो ही
काम मनुष्य जाति करती रही है।
यह क्या है? ये इतने एक्सप्लोजन, इतने
विस्फोट क्यों होते हैं? छोटी सी चिनगारी से आदमी एकदम
विक्षिप्त क्यों हो जाता है? हिंदू--मुसलमान के नाम से,
जैन--ईसाई के नाम से, सिक्ख--पारसी के नाम से,
जरा सी बात और आग लग जाती है और आदमी पागल हो जाता है! आदमी जैसे
पागल होने को तैयार बैठा हुआ है। उसके भीतर इतना दबाव है कि जरा मौका मिल जाए कि
वह निकल जाए। जरा सी गुंजाइश खड़ी हो जाए और वह पागल हो जाए।
यह आकस्मिक नहीं है। ये इतने युद्ध, इतनी कलह, इतना द्वंद्व--यह जैसा मनुष्य है, उसके स्वाभाविक
परिणाम हैं। तो चाहे राजनैतिक चिल्लाते रहें कि युद्ध नहीं होना चाहिए, चाहे साधु-संन्यासी समझाते रहें कि युद्ध बहुत बुरा है। लेकिन जब तक
मनुष्य का मन सप्रेस्ड है, जब तक मनुष्य के मन में दमन है,
तब तक युद्ध बंद नहीं हो सकते हैं। तब तक कोई ताकत युद्ध बंद नहीं
कर सकेगी। तब तक कलह बंद नहीं हो सकती है। तब तक जीवन का रोज-रोज का जो संघर्ष है,
वह बंद नहीं हो सकता है। एक तरफ से हम संघर्ष को बंद करेंगे,
दूसरी तरफ से वह निकलने का रास्ता खोज लेगा। क्योंकि भीतर हम उबलते
हुए ज्वालामुखी पर बैठे हैं। और उस ज्वालामुखी से हमारा कोई परिचय नहीं है। हम
ज्वालामुखी पर अच्छा बढ़िया सोफा लगाकर आराम से बैठे हुए हैं। और नीचे ज्वालामुखी
धधक रहा है। और हम अपने सोफे को सजा रहे हैं। डेकोरेट कर रहे हैं अपने मकान को। और
नीचे ज्वालामुखी धधक रहा है। हम ऊपर से सजाते रहते हैं, भीतर
आग भभक रही है।
इस स्थिति में, उस आग को हम दबाते चले जाएं, तो
हम टूटेंगे और अपने को नष्ट करेंगे। आज तक मनुष्य ने यही किया है। क्या आगे भी
मनुष्य को यही करना है? या कि हम एक नए मनुष्य को जन्म दे
सकते हैं, जिसका मन दमन पर आधारित न हो। लेकिन हम डर जाएंगे।
हम कहेंगे, अगर हम दमन न करें अपने मन का तो दमन करने में तो
हम कभी पागल होंगे, ठीक है, लेकिन दमन
न करें तो इसी वक्त, इसी वक्त विस्फोट हो जाएगा। अगर हम
दबाएं न अपने को तो हमारे भीतर तो इतना जहर, इतने
सांप-बिच्छू मालूम पड़ते हैं; इतना क्रोध, इतना सेक्स, इतनी वासना, इतना
लोभ, इतनीर् ईष्या मालूम पड़ती है--अगर न दबाएं तो हम तो अभी
सब निकल पड़ेगा।
फिर क्या होगा?
दबाना नहीं है। लेकिन कुछ और करना है। करना यह है कि मन के ऊपर का जो
हिस्सा चेतन है, जो कांशस है, जहां प्रकाश है,
उस प्रकाश को मन के उन हिस्सों में भी ले जाना है, जहां अंधकार है। पूरे मन को प्रकाशित कर देना है। पूरे मन में दीया जला
देना है--होश का, ज्ञान का। अभी थोड़ी सी जगह में प्रकाश हो
रहा है--दीए की ज्योति को और बड़ा करना है, ताकि पूरे मन की
तीनों मंजिलें, वह जो थ्री स्टोरीज आदमी है--वह उन तीनों
मंजिलों में प्रकाश पहुंच जाए।
सबसे पहला काम प्रकाश पहुंचाना है। जैसे ही प्रकाश पहुंचना शुरू होता
है, मन में एक ट्रांसफार्मेशन शुरू हो जाता है। आपको शायद खयाल भी न हो। सूरज
निकलता है, सूरज के निकलते ही पृथ्वी पर एक परिवर्तन शुरू हो
जाता है। जो कलियां बंद थीं, वे खिलने लगती हैं। जो सुगंध
छिपी थी, वह प्रगट होने लगती है। जैसे ही प्रकाश सूरज का
पृथ्वी पर उतरता है, सारा प्राण जो सोया हुआ था, वह जागने लगता है। वृक्ष, पौधे, पशु, पक्षी, जो सोए थे,
वे उठकर गीत गाने लगते हैं। वे जीवंत हो उठते हैं। सूरज की रोशनी के
आते ही पृथ्वी दूसरी हो जाती है। सूरज की रोशनी के हटते ही, अंधकार
छाते ही पृथ्वी मूर्च्छित हो जाती है। सब सो जाता है। पौधे, पशु,
पक्षी, आदमी सब मूर्च्छित हो जाते हैं। सूरज
के उगते ही मूर्च्छा टूटनी शुरू हो जाती है--जागरण आना शुरू हो जाता है, प्रभात हो जाती है।
मन की दो मंजिलों में कभी प्रकाश नहीं पहुंचा है। वहां एकदम गहरी
मूर्च्छा है। वहां सब सोया हुआ है। वहां एकदम घना अंधकार है। उस घने अंधकार में
सांप-बिच्छुओं ने डेरे डाल लिए हैं। पतंगों ने घर बना लिए हैं। मकड़ियों ने जाले
बुन लिए हैं। वहां सब गंदा हो गया है। वहां के द्वार कभी नहीं खुले, वहां बहुत दुर्गंध इकट्ठी हो गई है। और हम ऊपर से दमन करते चले जाते हैं
सारे कचरे का वहां। वहां सारा कचरा इकट्ठा हो गया है। मनुष्य का प्राण इससे भारी
और बोझिल और मूर्च्छित है। वहां रोशनी ले जानी है। वहां प्रकाश ले जाना है।
प्रकाश ले जाया जा सकता है। उस प्रकाश के ले जाने की विधि का नाम ही
धर्म है।
कैसे हम चित्त की गहराइयों में रोशनी ले जा सकें? कैसे वहां प्रकाश पहुंचा सकें कि वहां अंधकार का राज्य समाप्त हो जाए और
हमारे सारे प्राण आलोकित हो उठें।
उस प्रकाश के पहुंचते ही चित्त में परिवर्तन होने शुरू हो जाते हैं।
उस प्रकाश के पहुंचते ही जो कली थी, वह खिलकर फूल बन जाती
है। उस प्रकाश के पहुंचते ही भीतर जो प्राण सोए थे, वे जाग
उठते हैं। और जागरण के साथ अंतर शुरू हो जाता है। जागरण ट्रांसफार्मेशन है।
कैसे हम चित्त में ले जाएं जागरण को, होश को, अवेयरनेस को? कैसे हमारे पूरे प्राण जागे हुए हो जाएं?
और जिस दिन पूरे प्राण जग जाते हैं, उस दिन
प्राणों में एक संबंध स्थापित हो जाता है। फिर मनुष्य तीन हिस्सों में खंडित नहीं
रह जाता। फिर वह एक भवन बन जाता है पूरा। और जो मनुष्य एक भवन बन जाता है, उसके भीतर फिर कोई द्वंद्व नहीं, कोई कलह नहीं। उसके
भीतर एक शांति स्थापित हो जाती है।
इसलिए सर्वाधिक मूल्यवान जीवन का सूत्र: चित्त के अंधेरे कक्षों में
रोशनी के ले जाने का है। उस संबंध में ही आज की सुबह हमें बात करनी है। कैसे हम
चित्त में प्रकाश को ले जा सकते हैं।
थोड़ा सा प्रकाश मौजूद है। अगर उतना प्रकाश मौजूद न हो तो फिर हम कुछ
भी नहीं कर सकते हैं। लेकिन थोड़ा प्रकाश मौजूद है। हमारे मन का एक कोना, थोड़ा सा दीया जला हुआ है, वहां रोशनी हो रही है। उसी
रोशनी में आप मेरी बातें सुन रहे हैं। उसी रोशनी में आप चल रहे हैं। उसी रोशनी में
आप उठ रहे हैं, विचार कर रहे हैं, जी
रहे हैं। छोटी सी रोशनी में।
इस रोशनी को कैसे बड़ा करें?
इस रोशनी को बड़ा करने के दो उपाय हैं। एक तो--इस रोशनी का अभी हम एक
ही प्रयोग कर रहे हैं बाहर के जगत को देखने में। घर के बाहर दीया लिए बाहर की
दुनिया को देख रहे हैं। बाहर दुनिया को हमने खूब देखा। इस रोशनी के थोड़े से प्रयोग
ने बाहर की दुनिया में बहुत कुछ स्पष्ट कर दिया। इस रोशनी के बाहर के प्रयोग ने
साइंस को जन्म दे दिया। हमने पदार्थ के नियम खोज लिए। हमने पदार्थ के भीतर छिपे
हुए रहस्य खोज लिए। हमने जीवन के, बाहर के जीवन पर विजय पाने में
बड़ी दूर तक सफलता पा ली।
विज्ञान की सारी कथा, इस छोटे से कांशस माइंड का,
बाहर के जगत में इम्प्लीमेंटेशन है। बाहर के जगत में प्रयोग है।
विज्ञान की सारी कथा इस छोटे से कांशस माइंड की, यह जो छोटा
सा चेतन मन है, इसका हमने पदार्थ में प्रयोग किया है। इतनी
बड़ी दुनिया खड़ी हो गई विज्ञान की। हम पदार्थ में प्रवेश करते गए, और हमने अणु को और अणु के भी गहरे न्यूट्रान, इलेक्ट्रान
को जाकर खोज लिया, बड़ी शक्ति हाथ में आ गई। बड़ी शक्ति हाथ
में आ गई।
इसी चेतना का प्रयोग बाहर न करके भीतर भी किया जा सकता है। जिन लोगों
ने बाहर प्रयोग किया है, वे अणु तक पहुंच गए। जो आदमी भीतर प्रयोग करता है,
वह आत्मा तक पहुंच जाता है। रोशनी यही है, दीया
यही है। घर के बाहर रोशनी करते हैं तो रास्ता दिखाई पड़ता है। घर के भीतर करते हैं
तो घर के कष्ट दिखाई पड़ते हैं।
ध्यान इस रोशनी को भीतर ले चलने का ही प्रयोग है। आंख बंद करके हम
भीतर जागने की कोशिश करते हैं।
एक वैज्ञानिक क्या करता है? वैज्ञानिक बाहर के
फेनामिना को, बाहर की घटना को आब्जर्व करता है, निरीक्षण करता है। अपनी प्रयोगशाला में बैठकर, आंखें
गड़ाकर, सब तरह से जागकर निरीक्षण करता है, क्या हो रहा है? पानी को उबाल रहा है, गरम कर रहा है तो देख रहा है, कितनी डिग्री पर जाकर
पानी गरम होकर भाप बनता है। उसका निरीक्षण कर रहा है, आब्जर्वेशन
कर रहा है।
ठीक इसी भांति मन की प्रयोगशाला में द्वार बंद करके, भीतर बैठकर निरीक्षण करना है कि वहां क्या हो रहा है? क्रोध कितनी डिग्री पर जाकर भाप बन जाता है? क्रोध
कितनी डिग्री पर जाकर विस्फोट कर लेता है? क्रोध क्या है?
क्रोध की गति क्या है? विचार क्या है? विचार कैसे चलता है? कैसे उठता है, कैसे गिरता है? स्मृति क्या है, मेमोरी क्या है? कैसे स्मृति बनती है? प्रेम क्या है? कैसे जन्मता है? घृणा क्या है? कैसे भीतर उठती है, फैलती है? उसका विष कैसे पूरे प्राणों को भर लेता है?
ये बहुत सी घटनाएं भीतर घट रही हैं। इनके प्रति आब्जर्वेशन, भीतर बैठकर--एक वैज्ञानिक जैसे प्रयोगशाला में जांच करता है, खोजता है, वैसे ही इनको भी देखना, जानना और खोजना है।
धर्म आत्मा का विज्ञान है।
मनुष्य को, जो साधक है, अपने मन को एक
प्रयोगशाला बनानी है। और वहां निरीक्षण की सारी शक्ति को ले जाकर देखना है कि मन
में क्या हो रहा है, मन क्या है? यह मन
की प्रोसेस क्या है, यह मन की प्रक्रिया क्या है?
आपके मन में क्रोध उठता है। कभी आपने एकांत कोने में बैठकर देखने की
कोशिश की है कि क्या है यह क्रोध? नहीं। आपने दो काम किए होंगे। या
तो क्रोध उठा तो जिस पर उठा, उस पर आप टूट पड़े होंगे। और या
अगर आप धार्मिक और अच्छे आदमी हैं तो आप क्रोध को पी गए होंगे। बस, ये दो काम किए गए हैं। दोनों ही काम फिजूल हैं।
क्रोध में किसी के ऊपर टूट पड़ने से क्रोध नहीं जाना जा सकता है। क्रोध
को पी जाने से भी क्रोध नहीं जाना जा सकता। दोनों ही स्थितियों में निरीक्षण नहीं
होता। निरीक्षण का तो अर्थ है...। क्रोध उठे, एक बड़ा अवसर आ गया
बहुमूल्य, खुद की शक्ति को जानने का एक कीमती क्षण आ गया।
सामान्यतया क्रोध सोया रहता है, अब वह जाग गया। उससे पहचान
हो सकती है इस समय। उस समय द्वार बंद कर लें, किसी कोने में
बैठ जाएं और आंख बंद करके आब्जर्व करें, निरीक्षण करें,
क्या है यह क्रोध? कहां से यह उठता है?
क्यों यह उठता है? कैसे यह चित्त को पकड़ लेता,
बांध लेता, पागल कर देता है? इस पूरी प्रक्रिया को, इस पूरी प्रोसेस को--क्रोध के
जन्म से लेकर क्रोध के युवा होने तक देखें, सिर्फ देखें।
लेकिन देखने में एक कठिनाई है। बचपन से हमें सिखा दिया गया है, क्रोध बुरा है। जिसको हम बुरा मान लेते हैं, उसे
देखने को राजी नहीं होते। भूल हो गई है इस बात से। क्रोध बुरा है--इसलिए जो चीज
बुरी है, उसको देखें कैसे? उसके प्रति
हमारे मन में कंडेमनेशन है, निंदा है। निंदा की वजह से हम
देखते नहीं। शत्रु को कोई देखता है ठीक से? शत्रु दिखाई पड़ता
है तो हमारी आंखें दूसरी तरफ फिर जाती हैं। शत्रु रास्ते पर मिल जाता है तो हम आंख
नीचे करके निकल जाते हैं, या दूसरी गली से निकल जाते हैं।
शत्रु को कोई देखना नहीं चाहता। देखता तो केवल उसे है, जो
मित्र है। देखता तो केवल उसे है, जिससे हमारा कोई विरोध नहीं
है।
तो चित्त के दर्शन में, चित्त के आब्जर्वेशन
में हमारी शिक्षाओं ने, हमारी तथाकथित नैतिक शिक्षाओं ने,
मारल टीचिंग्स ने बड़ा उपद्रव खड़ा कर दिया है। क्रोध बुरा है,
शत्रु है--फिर उसे देखेंगे कैसे?
मैं आपसे निवेदन करता हूं, आपके चित्त में कुछ
भी आपका शत्रु नहीं है। सब आपका मित्र है। और अगर आप पाते हैं कि कोई शत्रु है,
तो वह केवल इस बात का सबूत है कि आप उसका सम्यक उपयोग करने में
असमर्थ रहे हैं। उसका ठीक-ठीक उपयोग आप नहीं कर सके, इसलिए
वह शत्रु मालूम पड़ रहा है। जिस दिन आप उसे पूरा जानेंगे और पहचानेंगे, आप हैरान हो जाएंगे। आप पाएंगे, ये तो मेरी शक्तियां
हैं। शत्रु इनमें कोई भी नहीं। लेकिन हम अपरिचित होते हैं मित्र से भी तो वह शत्रु
मालूम पड़ता है। परिचित होते हैं तो वह मित्र मालूम पड़ता है। परिचित होना है,
पूरी तरह से पहचान करनी है--भीतर क्या है?
तो एक तो निरीक्षण के लिए यह भावना छोड़ देनी एकदम आवश्यक है कि कोई
चीज बुरी है, कोई चीज अच्छी है। अभी तो हम अपने चित्त से परिचित
नहीं। हमें पूरे चित्त से ही परिचित होना है--चाहे जो भी हो। अच्छा हो या बुरा,
हमें पूरे, टोटल माइंड से एक दफे परिचित हो
जाना जरूरी है।
तो क्रोध को, जब उठे तो निरीक्षण करें। और निरीक्षण करेंगे तो
हैरान हो जाएंगे। निरीक्षण करते ही बहुत अदभुत तथ्य दिखाई पड़ने शुरू हो जाएंगे।
लेकिन हमने कभी निरीक्षण किया नहीं है। या तो हम क्रोध से लड़े हैं और या क्रोध से
हार गए और क्रोध के वश हो गए हैं। ये दोनों स्थितियां शुभ नहीं हैं। ये दोनों
स्थितियां साधना में ले जाने वाली नहीं हैं।
तीसरी एक स्थिति है निरीक्षण की। न तो क्रोध का भोग, न दमन बल्कि एक तीसरा मार्ग, निरीक्षण। जो भी चित्त
में उठे, उसका निरीक्षण। उसके प्रति जागना, उसके प्रति पूरी तरह अवेअर होना। क्या होगा इस तरह जागने से? इस तरह जागने से दो बातें होंगी। एक तो क्रोध के प्रति जैसे ही जागेंगे,
वैसे ही आप पाएंगे, क्रोध चेतन मन में पैदा
नहीं होता। क्रोध चेतन मन के नीचे की मंजिल से आता है। चेतन मन ने तो बहुत बार
निर्णय किए हैं कि मैं क्रोध नहीं करूंगा, लेकिन सब निर्णय
रखे रह जाते हैं। जब कोई एक धक्का देता है, क्रोध खड़ा हो
जाता है। पता नहीं चलता कि मैंने निर्णय किया था, कसम खाई थी,
व्रत लिया था--क्रोध नहीं करना है। मेरे निर्णय, मेरी कसमें, कहां गईं? वे जिस
मन ने ली थीं--क्रोध वहां से नहीं आ रहा, क्रोध बहुत नीचे से
आ रहा है। उस मन को आपके व्रत का कोई भी पता नहीं है। उस मन को कोई पता ही नहीं है
आपके व्रत का। क्या आप मंदिर में जाकर और व्रत ले लिए हैं कि अब मैं क्रोध नहीं
करूंगा?
जिसने यह कसम खाई है, वह मन दूसरा है। और जिस मन में
क्रोध पैदा होता है, वह मन का बिलकुल दूसरा हिस्सा है। उस
हिस्से को कोई खबर नहीं है। सांझ आप तय करके सोते हैं, कल
सुबह चार बजे उठूंगा। सुबह चार बजे कोई आपके भीतर कहता है, सोए
रहो, कोई उठने की जल्दी नहीं है। आज बहुत सर्दी है, फिर कल देखना। आप सो जाते हैं। सुबह उठकर आप पछताते हैं कि मैं उठा क्यों
नहीं! मैंने तो तय किया था कि चार बजे उठना है। मैं उठा क्यों नहीं?
आप निरीक्षण करेंगे तो पता चलेगा, जिस मन ने यह तय किया
था, वह मन सोया हुआ था चार बजे और जिस मन ने यह खबर दी कि
सोए रहो, वह दूसरा मन था। उसको आपके निर्णय का कोई भी पता
नहीं था। अन्यथा यह कैसे हो सकता था। जिस मन ने निर्णय किया था, वही मन कैसे निर्णय तोड़ सकता था? और फिर सुबह वही मन
कैसे पछता सकता था?
आदमी उलझ जाता है, क्योंकि उसे इसका कोई पता नहीं
कि मन के अलग-अलग हिस्से निर्णय ले रहे हैं। जब आप निरीक्षण करेंगे क्रोध का,
प्रेम का, घृणा का तो आप पाएंगे कि चेतन मन,
कांशस माइंड से वे आते ही नहीं। वे तो बहुत नीचे गहरे अनकांशस से
आते हैं। तो उनके सूत्र को पकड़कर अगर आप खोज करेंगे, ये कहां
से पैदा होते हैं, कहां से पैदा होते हैं...।
अगर हम एक वृक्ष की शाखाओं को पकड़कर खोज करने निकलेंगे, यह वृक्ष कहां से पैदा होता है, तो आज नहीं कल,
आपको जमीन खोदनी पड़ेगी और जड़ों तक पहुंचना पड़ेगा। आपकी खोज जारी
रहेगी तो आपको अन-अर्थ करना पड़ेगा, भूमि अलग हटानी पड़ेगी और
तब आप पाएंगे कि दिखाई नहीं पड़ती थीं जड़ें--वृक्ष वहां से आते हैं।
तो जब आप क्रोध की, प्रेम की,र्
ईष्या की खोज में निकलेंगे, अनुसरण करेंगे तो आप
धीरे-धीरे-धीरे पाएंगे कि आप कांशस माइंड से हटकर अनकांशस में पहुंचने शुरू हो गए।
और इसी पहुंचने में रोशनी पहुंचनी शुरू हो जाएगी, क्योंकि
आपका जो मन निरीक्षण करता है, वही रोशनी है। तो जब आप पीछा
करेंगे--एक आदमी अगर अपने घर में एक चोर का पीछा करे दीया लेकर तो चोर जहां छिपा
होगा अंधेरे कोने में, वहां खुद भी पहुंच जाएगा और साथ में
दीया भी पहुंच जाएगा।
हमारे चेतन मन में जो-जो वृत्तियां उठती हैं, अगर हम एक-एक वृत्ति को पकड़कर उसका पीछा करें तो वह वृत्ति जहां से जन्मती
है, उस अंधेरे कमरे में हमको पहुंच जाना पड़ेगा। अनकांशस
माइंड में पहुंचने का और कोई न रास्ता रहा है, न हो सकता है।
एक-एक वृत्ति को हमें पकड़ लेना है।
एक कमल का फूल एक तालाब पर खिला है। फूल ऊपर दिखाई पड़ता है। उस फूल के
नीचे--कहां से वह फूल आया है, कहां उसकी जड़ें हैं, वह कुछ भी दिखाई नहीं पड़ता। सिर्फ फूल दिखाई पड़ता है। अगर इस फूल का हम
अनुसरण करें, खोज करें, कहां से यह
निकला है तो हम धीरे-धीरे उस फूल की डंडी को पकड़कर वहां पहुंच जाएंगे, नीचे कीचड़ में, जहां उसकी जड़ें छिपी हैं।
क्रोध तो ऊपर आया हुआ फूल है। प्रेम भी ऊपर आया हुआ फूल है।र् ईष्या
भी ऊपर आया हुआ फूल है। इसको हम पकड़ लें और इसके पीछे चलना शुरू करें। इसके पीछे
उतरते चलें, उतरते चलें तो धीरे-धीरे, धीरे-धीरे
हम वहां पहुंच जाएंगे, जहां इसकी जड़ें हैं। जहां से यह पैदा
हुआ है।
तो मनुष्य अगर अपनी वृत्तियों का अनुसरण करे, दमन नहीं। चित्त वृत्ति का दमन नहीं--चित्त वृत्ति का अनुसरण, चित्त वृत्ति का पीछा, चित्त वृत्ति के पीछे-पीछे
जाए तो धीरे-धीरे, धीरे-धीरे वह अपने गहरे अचेतन मन के तलों
तक पहुंच जाएगा। और उसके साथ ही, निरीक्षण के साथ वह रोशनी
पहुंच जाएगी, जो देखती है।
और आपको पता है कि अगर आप जड़ तक पहुंच जाएं किसी चीज के तो कितनी आसान
बात है। अगर आपको लगता हो यह फूल अवांछनीय है--यह नहीं चाहिए, यह दुर्गंध फैलाता है, कांटे वाला है तो एक झटका और
फूल खतम हो गया हमेशा के लिए। लेकिन ऊपर से आप फूल को काटते रहें रोज, हजार बार काटें, आप जितनी बार काटेंगे, उतनी बार एक डंडी की जगह दो डंडियां निकल आएंगी। अब दो फूल खिलेंगे,
पहले एक ही फूल खिला था। अब इन दो को काटेंगे और चार डंडियां निकल
आएंगी। और हम यही कर रहे हैं। ऊपर से फूलों को काट रहे हैं फूल बढ़ते चले जाते हैं।
जितने फूल बढ़ते हैं, हमारी काटने की बेचैनी बढ़ती चली जाती है।
कल एक बार क्रोध किया था, उसको काट दिया ऊपर से। आज दो बार
हो गया है, उसको काट दिया। परसों चार बार हो गया। रोज बढ़ता
जाता है रोग! क्योंकि जिसको हम काटना समझते हैं, वह कलम करना
है। वह सहायता पहुंचानी है वृक्ष को। जो माली है, वह जानता
है कि वृक्ष को सहायता पहुंचानी हो, एक डंडी काट दो। जहां से
डंडी काटी गई, वहां से दो डंडियां पैदा हो जाती हैं। हम कलम
कर रहे हैं अपने मन की।
लेकिन जो आदमी पीछे जाएगा और जड़ों तक पहुंच जाएगा--अगर उसे लगता है कि
जो फूल आया है ऊपर, वह वांछनीय नहीं है। तो एक छोटा सा हल्का धक्का और जड़ें
खतम हो जाती हैं और फिर फूल कभी भी नहीं आते।
चित्त को बदलना हो--ऊपर से जो कलम चलती रहती है नैतिक आदमी की, उससे कभी कोई आदमी नहीं बदलता। नैतिक आदमी ऊपर से कलम करता रहता है। और
इसलिए मुसीबत में पड़ता चला जाता है। धार्मिक आदमी ऊपर से कलम नहीं करता--अपरूट करता
है, जड़ों को उखाड़कर फेंक देता है। यह काम एक ही बार में हो
जाता है और कलम करने का काम जिंदगीभर चलता है। यह काम एक ही बार में हो जाता
है--जड़ उखड़ जाती है, बात खतम हो जाती है।
लेकिन अगर हम ऊपर ही ऊपर सारा उपद्रव करते रहें तो हम परेशान भी बहुत
हो जाते हैं--मामले बदलते भी नहीं, आदमी वही का वही बना
रहता है। आप खोजें अपने भीतर? आप सालभर पहले जो आदमी थे,
वही आदमी आप आज भी हैं? सालभर में आपने कितनी
कलम नहीं की होगी? न मालूम क्या-क्या छोड़ा होगा--यह किया
होगा, वह किया होगा। आप अपने तीस साल लौटकर देखें, आप भीतर पाएंगे, आप वही के वही आदमी हैं। पूरी
जिंदगी आदमी करीब-करीब वही का वही बना रहता है। ऊपर थोड़े बहुत फर्क हो जाते हैं,
लेकिन भीतर कोई फर्क नहीं होता है। क्योंकि भीतर हम कभी पहुंचते
नहीं, फर्क होगा कैसे? जड़ों तक हम कभी
जाते नहीं, तो फर्क होगा कैसे?
यह, यह जो जड़ तक पहुंचने का सूत्र है, वह है वृत्तियों का निरीक्षण, उनका पीछा, उनका अनुगमन। चाहें तो इसे ही मेडीटेशन कहें, चाहें
तो इसे ही ध्यान कहें। चाहें इसे ही कुछ और नाम दें। लेकिन एक चीज को पकड़कर भीतर
प्रवेश करना है। किसी चीज के सहारे ही यह प्रवेश हो सकेगा।
तो हर आदमी का अपना कोई चीफ कैरेक्टर होता है। हर आदमी की कोई खास बात
होती है--क्रोध है, घृणा है, द्वेष है,र् ईष्या है, अहंकार है--कोई भी एक। हर आदमी की एक
केंद्रीय वृत्ति होती है, जिसके इर्द-गिर्द सारी वृत्तियां
घूमती रहती हैं। तो अपने चीफ कैरेक्टर को, अपनी प्रधान वृत्ति
को खोज लें और फिर उसका अनुसरण करें, फिर उसके पीछे उतरना
शुरू करें। फिर उसके जितने गहराई तक जा सकें, उसके साथ जाने
की कोशिश करें। और चलने दें यह कोशिश उस दिन तक, जिस दिन तक
आप वहां न पहुंच जाएं, जिसके आगे फिर कोई और गति नहीं है।
जहां पहुंचकर अंतिम बिंदु आ गया विराम का, जड़ें आर् गईं। फिर
किसी से आपको पूछना नहीं पड़ेगा कि मैं क्या करूं इस फूल को अलग करने के लिए। इसर्
ईष्या को अलग करने के लिए मैं क्या करूं। इस क्रोध को अलग करने के लिए मैं क्या
करूं। यह पूछना नहीं पड़ेगा। आप हंसेंगे और बात खतम हो जाएगी। वह एक हल्का सा धक्का,
सारी बात बदल जाती है। लेकिन उस हल्के से धक्के पर पहुंचने के पहले
चित्त का पीछा करना पड़ता है। और यह पीछा एक अर्थ में बहुत आरडुअस, बहुत कठिन भी है। क्योंकि बहुत डर लगता है इस पीछा करने में। क्योंकि हमने
अपनी-अपनी एक शकल बना रखी है। इस पीछा करने में वह शकल टूटती है। जितना हम पीछा
करते हैं, उतनी ही शकल टूटती है।
एक आदमी कहता है कि मैं ब्रह्मचारी हूं। अब अगर वह अपने सेक्स का पीछा
करेगा, तो यह कल्पना उसको छोड़ देनी पड़ेगी कि मैं ब्रह्मचारी
हूं। जैसे वह अपनी वासना के पीछे, काम के पीछे, सेक्स के पीछे यात्रा करेगा, वैसे-वैसे उसे पता
चलेगा कि मैं कितना सेक्सुअल हूं, मैं कितना कामवासना से भरा
हुआ हूं। कहां है ब्रह्मचर्य! बल्कि जैसे-जैसे भीतर उतरेगा, उसको
पता चलेगा, जिसको मैं ब्रह्मचर्य कहता था, वह सब सेक्सुअलिटि थी। एक स्त्री को देखकर मैं आंख बंद कर लेता था,
वह आंख बंद कर लेना ब्रह्मचर्य नहीं था, आंख
बंद करना सेक्स था। नहीं तो आंख बंद करने की कोई जरूरत न थी।
एक साध्वी से मैं मिलता था। समुद्र की हवाएं चलती थीं। अब समुद्र की
हवाओं को कुछ भी पता नहीं कि एक स्त्री बैठी है, एक पुरुष बैठा है।
समुद्र की हवाओं ने मेरे चादर को उड़ाकर उन साध्वी को स्पर्श करा दिया। वे एकदम
बेचैन होकर घबड़ाईं। पुरुष का वस्त्र नहीं छूना चाहिए! वह ब्रह्मचारिणी थीं। अब
समुद्र की निर्दोष हवाएं, उन्हें कोई पता नहीं कि कोई साध्वी
बैठी है, चादर उड़ाकर इसको स्पर्श नहीं कराना चाहिए। वे बहुत
घबड़ाईं। मैंने उनसे पूछा, आप घबड़ा गई हैं? उन्होंने कहा, हां, पुरुष का
वस्त्र हमें नहीं छूना चाहिए। मैंने उनसे कहा, वस्त्र भी
पुरुष और स्त्री हो सकते हैं? वस्त्र भी! यह कैसा ब्रह्मचर्य
है, जो वस्त्रों में भी सेक्स को देखता है! क्योंकि वस्त्र
अगर स्त्री-पुरुष हैं तो वस्त्रों में सेक्स का दर्शन शुरू हो गया। वस्त्रों ने भी
लैंगिक रूप ले लिया। वस्त्रों में भी सेक्स का फर्क हो गया। यह कैसा ब्रह्मचर्य है
जो वस्त्रों में भी स्त्री और पुरुष को देखता है!
मैंने उनसे निवेदन किया--बुरा लगेगा, उनसे मैंने कहा,
लेकिन आपको पता नहीं ब्रह्मचर्य के नाम पर आप और भी कामुक हो गई
हैं। यह तो कामोत्तेजना की हद हो गई कि वस्त्र के स्पर्श से--और भय हो! यह भय इस
बात की सूचना है कि भीतर पुरुष के स्पर्श को नहीं करना है, इस
बात को इतना दबाया है--पुरुष के स्पर्श का स्वाभाविक भाव हो सकता है--उसे इतना दबाया
है, इतना दबाया है कि आज पुरुष का वस्त्र भी छू जाए तो वह
टेंपटेशन बन गया, वह प्रेरणा बन गई, वह
घबड़ाहट बन गई।
तो अगर अब ऐसा ब्रह्मचर्य का व्रत लिया हुआ आदमी या सोचता हुआ कि मैं
ब्रह्मचर्य को उपलब्ध हुआ हूं--अगर अपने ब्रह्मचर्य के थोड़े पीछे उतरेगा तो ठीक
ब्रह्मचर्य के पीछे पाएगा कि सेक्स खड़ा हुआ है। तो बड़ी घबड़ाहट होगी, वह वापस लौट आएगा कि ऐसा पीछे जाने में कोई फायदा नहीं। यहां पीछे जाने से
तो उलटी बातें पैदा होती हैं।
एक बहुत बड़े साधु हैं, बड? ख्यातिनाम। किसी ने मुझे आकर कहा कि कोई पैसा-रुपया उनके सामने ले जाए तो
वे सिर फेर लेते हैं, आंख बंद कर लेते हैं। तो उन्होंने बड़ी
तारीफ के लिए मुझसे कहा था कि वे बड़े परम-त्यागी हैं, रुपए
को देखकर एकदम आंख फेर लेते हैं। मैंने उनसे कहा, रुपया इतना
निर्दोष है, उसे देखकर आंख फेरना, बड़ी
बीमारी का लक्षण है। रुपए में ऐसा क्या है कि आंख फेरी जाए? रुपया,
रुपए की जगह है, आंख फेरने की जरूरत? और आंख फेरनी पड़ती है तो रुपए में रस है। नहीं तो आंख फेरने की जरूरत नहीं
पड़ेगी। और रुपए में बहुत रस है।
एक आदमी को रुपया देखकर लार टपक जाती है। उसको हम कहते हैं, इसको रस है। और एक आदमी आंख फेर लेता है, इसको भी
लार टपक जाने का भय है, इसलिए आंख फेरता है। नहीं तो आंख
फेरने की क्या जरूरत थी? रुपए की ताकत कहां कि तुम्हारी आंख
को फेरने के लिए मजबूर करे? बड़े कमजोर हैं कि रुपया देखते
हैं तो आंख फेरनी पड़ती है।
तो अब यह जो त्याग है रुपये का, अपरिग्रह है, अगर इसका यह आदमी पीछा करेगा तो इसे पता चलेगा, इसमें
रुपए की आसक्ति छिपी हुई है, रुपए के प्रति अटेचमेंट है। यह
डिटेचमेंट, यह अनासक्ति, उसी आसक्ति का
छिपावा है, भुलावा है और कुछ भी नहीं। यह सेल्फ-डिसेप्शन है
और कुछ भी नहीं।
अगर हम अपनी वृत्तियों का पीछा करेंगे तो वह जो सेल्फ-इमेज हमने खड़ी
कर रखी है कि मैं यह हूं--त्यागी हूं--यह हूं, वह हूं, हमको पता चलेगा, वह झूठी है वह बात। इस झूठ को देखने
की हिम्मत होनी चाहिए। तो ही कोई आदमी वृत्तियों का अनुसरण कर सकता है। और अगर इस
झूठ को देखने का साहस और करेज नहीं है तो फिर आप अपने ऊपर के भवन में ही टहलते
रहिए--नीचे आप नहीं जा सकते हैं। और नीचे बिना जाए, आपकी
जिंदगी में कोई परिवर्तन संभव नहीं है। रत्तीभर परिवर्तन संभव नहीं है। फिर आप ऊपर
ही डेकोरेट करते रहें, सजावट करते रहें--नीचे का ज्वालामुखी
जलता रहेगा। और रोज, वक्त-बेवक्त खबर देता रहेगा अपनी कि अब
मैं आता हूं, अब मैं आता हूं। और आपके प्राण कंपते रहेंगे कि
वह कहीं आ न जाए, कहीं आ न जाए।
इसी कंपन में, इसी ट्रेंबलिंग में पूरी जिंदगी बीत जाती है कि कहीं
भीतर से वह आ न जाए। और हमें सब पता है कि भीतर मौजूद है, और
प्राण कंप रहे हैं। पूरे वक्त प्राण कंप रहे हैं, पूरे वक्त
हम डरे हुए हैं, पूरे वक्त हम घबड़ाए हुए हैं। यह जो सारी
स्थिति है, यह बाधा बनती है। इसलिए आरडुअस तो है।
तो मैं तो वृत्तियों के अनुसरण को ही तप कहता हूं, तपश्चर्या कहता हूं। धूप में खड़े होने को नहीं, उपवास
करने को नहीं; बच्चों जैसी बातें हैं, कोई
भी कर सकता है। थोड़े अभ्यास की भर जरूरत है। और रोज-रोज करता रहे तो अभ्यास
धीरे-धीरे पूरा हो ही जाता है।
एक अदालत में एक मुकदमा चला। एक आदमी ने अपनी पत्नी को तलाक देने की
दरख्वास्त की थी। मजिस्ट्रेट ने उससे पूछा, क्या कारण आ गया है
पत्नी को छोड़ देने का? उसने कहा, पत्नी
में एक खराब आदत हमेशा से रही है। यह मेरे ऊपर चीजें फेंक-फेंककर निशाना लगाती है।
उस मजिस्ट्रेट ने पूछा, कितने दिन हुए शादी हुए? उसने कहा, बीस वर्ष। उसने कहा, पागल! लेकिन बीस वर्ष तुम कहां रहे? उस आदमी ने कहा,
पहले इसका निशाना ठीक नहीं लगता था, अब अभ्यास
से ठीक लगने लगा। बीस साल के अभ्यास से अब इसका निशाना चूकता ही नहीं। अब मैं घबड़ा
गया हूं। पहले निशाना अक्सर चूकता था, बात चलती थी। अभ्यास
से निशाना अब बिलकुल ठीक लगने लगा है।
तो निरंतर--निरंतर हम एक झूठ का अभ्यास करते रहे हैं--मैं यह हूं, मैं वह हूं; मैं यह हूं, मैं
वह हूं और भीतर-भीतर धक्के मारती रहे कोई चीज, तो अभ्यास से
हम इस थोथे पाखंड को थोड़ा बहुत सम्हाल भी ले सकते हैं। एक आदमी जिसके भीतर आंसू
फूट पड़ने को हों, वह भी अभ्यास से मुस्कुराता हुआ बैठा रह
सकता है।
अक्सर हम ऐसा करते हैं। आंसू होते हैं भीतर, ऊपर हम मुस्कुराते हैं। सिर्फ इसलिए कि भीतर के आंसू किसी को दिखाई न
पड़ें--मुस्कुराते रहते हैं। भीतर होता है दुख, ऊपर बड़े
प्रसन्न मालूम पड़ते हैं। भीतर होती है पीड़ा, ऊपर ऐसे मालूम
पड़ते हैं कि बड़े खुश हैं, बड़े सुखी हैं। तो हम भीतर के विरोध
में ऊपर कुछ क्वालिटीज चिपका लेते हैं, कुछ गुण चिपका लेते
हैं।
लेकिन ध्यान रहे कि अक्सर जो गुण हम ऊपर से चिपकाते हैं, ठीक विरोधी गुण के सूचक होते हैं वे। भीतर कोई विरोधी चीज मौजूद होती है,
अन्यथा इसको चिपकाने की कोई जरूरत नहीं थी।
जो आदमी ब्रह्मचर्य चिपका लेता है ऊपर, इसके भीतर गहरी
सेक्सुअलिटि होती है। नहीं तो इसे ब्रह्मचर्य चिपकाने की कोई जरूरत न थी। जो आदमी
अपरिग्रह, नान-अटेचमेंट चिपका लेता है अपने ऊपर, इसके भीतर बहुत गहरा परिग्रह, बहुत गहरा अटेचमेंट
है। ऐसे हमारे भीतर जो नहीं है, उसको ही हम ऊपर चिपका लेते
हैं। और इस ऊपर चिपकाए हुए झूठे कागजी फूलों से हमारा व्यक्तित्व बनता है। इस
व्यक्तित्व को टूटने का डर है। जैसे ही आप भीतर प्रवेश करेंगे, यह इमेज, यह प्रतिमा तोड़नी पड़ेगी। खुद की प्रतिमा
तोड़ने के लिए जो तैयार है, वही साधक है और कोई साधक नहीं है।
वही यात्रा कर सकता है सत्य की, जो इस बात को हिम्मत
से जानने को तैयार है कि कुछ भी हो, जो सच्चाई है उसे मैं
जानना चाहता हूं। चाहे मेरे सारे फूल गिर जाएं, मेरी सारी
सजावट गिर जाए, मेरा सारा सौंदर्य उखड़ जाए; लेकिन जो मन है, चाहे वह कितना ही अग्ली हो, मैं उसको देखने के लिए तैयार हूं।
एक बार एक बहुत अदभुत घटना घटी थी। इंद्र ने तीन ऋषियों को स्वर्ग में
आमंत्रित किया था। उन तीन ऋषियों की तपश्चर्या की खबर सारी पृथ्वी पर फैल गई थी।
इंद्र ने स्वर्ग की सबसे सुंदरी अप्सरा उर्वशी को कहा, इन तीन ऋषियों के मन को किसी भी भांति विचलित करना है। उर्वशी ने कहा,
कठिन नहीं है यह काम। ऋषि-मुनि बहुत जल्दी विचलित हो जाते हैं। यह
हो सकेगा। क्योंकि जो लोग स्त्रियों से दूर-दूर भागते हैं, उनके
मन में स्त्रियों का गहरा आकर्षण है। जल्दी हो सकेगी यह बात। अगर वेश्यालय में पड़े
किसी आदमी को विचलित करना होता तो बहुत कठिन था। क्योंकि वह स्त्रियों से इतना
परिचित है कि उसे विचलित करना थोड़ा मुश्किल है। लेकिन ऋषि-मुनि हैं, ये तो बेचारे जल्दी ही मुश्किल में पड़ सकते हैं।
निमंत्रण दे दिया गया। स्वर्ग का निमंत्रण था। ऋषि-मुनि भी इनकार न कर
सके। क्योंकि ऋषि-मुनि सारी कोशिश ही स्वर्ग पहुंचने की करते हैं और कोशिश ही क्या
है? निमंत्रण पाकर बहुत प्रसन्न हुए। बड़ा सम्मान था यह। इंद्र का जन्मदिन था
और उन तीन को ही बुलाया गया था। और उनके जितने कांपटीटर ऋषि-मुनि थे, वे नहीं बुलाए गए थे, इससे बड़ी प्रसन्नता थी। वे
काफी खुश हुए।
वे गए। सब तरह से सज-धजकर गए। ऋषि-मुनियों की भी अपनी सज-धज होती है।
आप पहचान नहीं पाते, यह दूसरी बात है, क्योंकि आपकी
सज-धज दूसरे तरह की होती है। तरह का फर्क होता है, सज-धज में
कोई भेद नहीं होता। वे परिपूर्ण तैयारी से, पूरे ऋषि-मुनि
बनकर वहां उपस्थित हो गए। उर्वशी भी उस दिन तैयार हुई थी। और जितनी उन दिनों
प्रसाधन की, जितनी भी सुंदर होने की--जितने भी एक्सपर्ट
होंगे स्वर्ग में, जितने विशेषज्ञ थे, सबने
मेहनत की थी। उर्वशी इतनी सुंदर दिखाई पड़ी कि खुद इंद्र मुश्किल में पड़ गया। उसे
कल्पना न थी कि उर्वशी इतनी सुंदर हो सकती है!
उर्वशी का नृत्य शुरू हुआ। घंटेभर में ही, मंत्रमुग्ध वे सारे लोग देखते रह गए। कभी परिचित न थे इतने सुंदर नृत्य से,
इतने मनो-मुग्धकारी। फिर उर्वशी ने, जब रात
गहरी हो गई, तो अपने आभूषण निकालकर फेंक दिए। आभूषण शरीर को
सुंदर करते हैं। लेकिन आभूषण-रहित शरीर का भी अपना एक और ही सौंदर्य है। आभूषण
सुंदर भी करते हैं, लेकिन शरीर को बहुत जगह छिपा भी लेते
हैं। आभूषण फेंककर उसने वस्त्र भी फेंकने शुरू कर दिए।
एक ऋषि घबड़ाया और जोर से चिल्लाया रुको, ठहरो! उर्वशी यह
मर्यादा का उल्लंघन है। वस्त्र नहीं निकाल सकती हो। लेकिन दूसरे दो ऋषियों ने कहा,
मित्र, अगर आप घबड़ा गए हों तो आंखें बंद कर
लें, नृत्य बंद नहीं होगा। नृत्य को आप कैसे रोक सकते हैं?
और किसी को वस्त्र निकालना हो तो भी आप कैसे रोक सकते हैं? आपका हक और अधिकार क्या है? एक हक आपका जरूर है कि
आप आंख बंद कर लें। नृत्य चलेगा। और उन्होंने कहा, उर्वशी
नृत्य चलने दो।
नृत्य चला। पहले ऋषि ने आंखें बंद कर लीं। लेकिन उस बेचारे को पता
नहीं था कि खुली आंख--फिर भी गनीमत थी, बंद आंख--और भी
मुश्किल में डाल दी। आंख बंद करने से कहीं उर्वशियां दिखना बंद होती हैं? आंख बंद करने से कुछ भी चीज दिखनी बंद होती है क्या?
आंख बंद होने से उर्वशी और सुंदर दिखाई पड़ने लगी। सपने सुंदर होते हैं
जागरण से ज्यादा। और सुंदर होकर मन को दिखाई पड़ने लगी। और मन भीतर से धक्के देने
लगा ऋषि को कि आंख खोलो। आंख खुली थी तो कम से कम यह उपद्रव नहीं था। मन कहने लगा, आंख खोलो। वह पीछे के अनकांशस हिस्से कहने लगे, आंख
खोलो। पता नहीं उर्वशी ने और भी वस्त्र फेंक दिए हों, आंख
खोलो। और यह चेतन मन कहने लगा, आंख कैसे खोली जा सकती है?
हाथ-पैर कंपने लगे। आंख को और जोर से बंद करना जरूरी हो गया। बड़ी
ताकत, बड़ी मेहनत उस ऋषि पर पड़ने लगी। वह बड़ी बेचैनी में पड़
गया। बड़ी मुश्किल में पड़ गया।
नृत्य थोड़ा आगे गया। उर्वशी ने और भी वस्त्र फेंक दिए, वह करीब-करीब नग्न हो गई। एक ही वस्त्र उसके शरीर पर रह गया। दूसरा ऋषि
चिल्लाया, अब हद हो गई, यह तो अश्लीलता
है। बंद करो, यह नृत्य अब नहीं देखा जा सकता।
पहले ऋषि ने कहा, मित्र, भूल
गए, हमने पहले ऋषि से क्या कहा था? तीसरे
ऋषि ने कहा, अब अपनी आंख आप भी बंद कर लो। नृत्य तो चलेगा।
नृत्य को रोकने का हक किसे है? आप अपनी आंख बंद कर ले सकते
हैं।
दूसरे ऋषि को भी आंख बंद कर लेनी पड़ी। नृत्य आगे चलता रहा। आंख बंद
करते ही दूसरे ऋषि को पता चला कि कम से कम आंख खुली थी तो उर्वशी एक वस्त्र पहने
थी। आंख बंद करते ही ऋषि के मन ने उस वस्त्र को भी निकालकर अलग कर दिया। बहुत
घबड़ाया। उर्वशी--आंख बंद थी, लेकिन नग्न खड़ी थी। जिससे बचने
को आंख बंद की थी, वही सामने आ गया था।
हमेशा यही होता है। जिससे बचने को हम आंख बंद करते हैं, वही सामने आ जाता है। आएगा ही। क्योंकि आंख बंद करने में हमने इतना रस
जाहिर किया है कि रस निमंत्रण हो गया। आना जरूरी है उसका। दूसरा ऋषि भी कंप रहा है,
घबड़ा रहा है।
उर्वशी ने अंतिम वस्त्र भी फेंक दिया। सोचा था अंतिम वस्त्र फेंकते ही
तीसरा ऋषि भी घबड़ा जाएगा। लेकिन उर्वशी भूल में थी। वस्त्र फेंक दिया गया। तीसरा
ऋषि देखता रहा, देखता रहा। उर्वशी अब घबड़ाई। अब उसके पास फेंकने को
कुछ भी न बचा था। अब और नग्न होना असंभव था। अब कुछ था ही नहीं। अब वह नग्न,
और सीधी, और साफ खड़ी थी। अब और उघाड़ने को कुछ
बाकी न बचा था। और यह ऋषि देखे ही चला जा रहा था।
उस ऋषि ने उर्वशी को थका और घबड़ाया हुआ देखकर कहा, और कुछ फेंकना हो तो फेंक दो। अगर यह चमड़ी फेंकनी हो तो चमड़ी फेंक दो। इस
केंचुल को भी उतार डालो। आज मैं देखने को ही खड़ा हूं कि आखिर में है क्या? मैं पूरा ही देखने को आज आ गया हूं।
उर्वशी उसके पैरों पर गिर पड़ी। उसने कहा, फिर मैं आपसे हार गई। क्योंकि जो पूरा ही देखने को राजी है, वह आखिरी में पा ही लेगा कि कुछ भी नहीं है। जो पूरा ही देखने को राजी है,
वह जान ही लेगा कि कुछ भी नहीं है। जो पूरा देखने के पहले रुक जाता
है, उसका रस भी भीतर रुक जाता है कि शायद कुछ शेष रह गया,
उसे और जान लेता। और वह जो शेष रह गया है, वही
उसके प्राणों की जकड़ हो जाती है। अब आपको हराने का मेरे पास कोई उपाय नहीं। मैं
हार गई।
उर्वशी पैर पर गिर पड़ी। वह ऋषि नहीं हराया जा सका। क्यों? क्योंकि वह अंत तक देखने को तैयारी और साहस किया।
चित्त की वृत्तियां भी उर्वशियों की भांति हैं। जो उनको पूरा, उनकी पूरी नग्नता में, उनकी पूरी नेकेडनेस में देखने
को तैयार हो जाता है, उनके सब वस्त्र उतारकर--वे चित्त की
वृत्तियां भी पैरों पर गिर जाती हैं और क्षमा मांग लेती हैं कि अब हम हार गए।
लेकिन जो चित्त की वृत्तियों को छिपा लेता है, वस्त्रों में ढांक देता है, आंख बंद कर लेता है,
वह हार जाता है वृत्तियों से। वृत्तियों से वही जीतता है, जो वृत्तियों को पूरा देखने के लिए तैयार और तत्पर है।
यह तैयारी निरीक्षण की, जागरण की--वृत्तियों
को उनकी समग्रता में, उनकी पूर्णता में ही--जीवन को बदलने,
नया करने, सत्य की ओर आंखें खोलने, जीवन की जो जड़ें हैं, उनको पहचानने का मार्ग है।
इसका साहस चाहिए।
और साहस का एक ही अर्थ है: अपनी हमने जो प्रतिमा बना रखी है, स्वयं को हम जो समझे हुए बैठे हैं, और समझा रहे हैं
कि हम हैं--उसे गिर जाने का, उसकी ईंटें खिसक जाने का,
उसके भवन के मिट जाने का हम में बल चाहिए कि हम उसे गिरता हुआ देख
सकें। और पुराना चर्च गिरे तो ही फिर नया चर्च बन सकता है।
मैं फिर से वह कहानी, जिससे मैंने तीन दिनों की सुबह
की चर्चाएं शुरू की थीं, दोहरा देता हूं।
एक पुराना चर्च था। गिरने को हो आया था। हवा के झोंके चलते थे तो उसकी
दीवालें कंपती थीं और पलस्तर गिरता था। उसके भीतर खड़े होकर प्रार्थना करना असंभव
था। प्रार्थना दूर, उसके निकट से निकलना असंभव था। खतरा था, वह कभी भी गिर जाए और प्राण ले ले। पुरानी चीजों का होना, हमेशा खतरा है, वे कभी भी गिर सकती हैं और प्राण ले
सकती हैं।
फिर चर्च की कमेटी बैठी और उसने निर्णय किया। उसने चार प्रस्ताव पास
किए--एक, कि पुराना चर्च गिरा देना है। दो, कि नया चर्च बनाना है। तीन, कि नए चर्च को पुराने
चर्च की ईंटों, पत्थरों और सामान से ही बनाना है। और चार,
कि जब तक नया चर्च न बन जाए, तब तक पुराना
चर्च नहीं गिराना है।
पहले दो प्रस्ताव तो ठीक। लेकिन पिछले दो प्रस्ताव बड़े पागलपन के हैं।
पुराने चर्च की ईंटों से नया चर्च कभी बन ही नहीं सकता। वह पुराना ही होगा। उसका
ही मॉडीफाइड रूप होगा। फिर पुराना जब तक न गिरे, तब तक नया बनाना नहीं
है! तो नया बनेगा ही नहीं। क्योंकि पुराने की भूमि ही नए के बनने की भूमि भी है।
पुराना गिरे तो ही नया बन सकता है।
यह जो हमारा मन है, यह जो मन का मंदिर है, यह जो पुराना मंदिर है--जिसमें हम बैठे हैं, और
जिसमें हम कंप रहे हैं कि यह कभी भी गिर सकता है। जिसके गिरने के भय से एंग्जायटि,
एंग्विश, चिंता और संताप पैदा होता है। और हर
आदमी जीवनभर चिंता में रहता है कि कब गिर जाएगा यह मंदिर, जिसके
नीचे मैं बैठा हूं। रात न सो पाता है चैन से, न दिन जाग पाता
है। चौबीस घंटे इसके गिरने का डर है। इस डर को जब तक हम जीतेंगे नहीं और इसके लिए
राजी न हो जाएंगे कि इसे खुद ही गिरा दें, तब तक हम नए मंदिर
को बना नहीं सकते हैं।
चित्त का यह जो झूठा मंदिर हमने बना रखा है अपने चारों तरफ, यह सही नहीं है। अगर यह सही होता तो हम शांत हो गए होते। अगर यह सही होता
तो हमारा चित्त एक फूल की तरह खिल गया होता। अगर यह सही होता तो हमारे जीवन में
सुगंध फैल गई होती। अगर यह सही होता तो हम अपने आपको जान लिए होते, जो अमृत है। अगर यह सही होता, तो तो हम उसे पहचान
लेते, जो जीवनों का जीवन है, जो
परमात्मा है। लेकिन यह सही नहीं है। और इसको हम सम्हालकर बचा रखना चाहते हैं! तो
जो सही है, उसे हम कभी जान भी न पाएंगे और बना भी नहीं
पाएंगे। इसे तोड़ने की हिम्मत होनी ही चाहिए।
जो आदमी विध्वंस करने को राजी हो जाता है, वही आदमी सृजन करने में भी समर्थ होता है। डिस्ट्रक्शन, विध्वंस--क्रिएशन का, सृजन का पहला सूत्र है। एक
इमेज है हमारी, एक प्रतिमा है, उसे
गिराने का साहस ही हमें अंतरात्मा के ज्ञान में ले जा सकता है। और यह ज्ञान,
निरीक्षण, जागरूकता, एक-एक
वृत्ति के अनुसरण से संभव होता है और फलित होता है।
सुबह मुझे इतनी ही बात कहनी थी। अब हम सुबह के ध्यान के लिए बैठेंगे।
थोड़े-थोड़े फासले पर हम हो जाएं।
आज इतना ही।
साधना-शिविर माथेरान,
दिनांक २१-१०-६७, सुबह
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