गुरुवार, 16 मार्च 2017

पिव पिव लागी प्‍यास-(दादू दयाल)-प्रवचन-09

पिव पिव  लागी  प्‍यास-(दादू दयाल)


मन चित चातक ज्यूं रटै
 प्रवचन नौवां :
दिनांक १९.७.१९७५, प्रातःकाल,
श्री रजनीश आश्रम, पूना।
सारसूत्र-
 भगवान श्री, सदगुरु दादू के वचन हैं--

मन चित चातक ज्यूं रटै, पिव पिव लागी प्यास।
दादू दरसन कारने पुरवहु मेरी आस।।
विरहित दुख कासनि कहै, कासनि देह संदेस।
पंथ निहारत पीव का, विरहिन पलटे केस।।
ना वहु मिलै न मैं सुखी कहु क्यूं जीवन होइ।
जिन मुझको घायल किया मेरी दारू सोइ।।
कर बिन सर बिन कमान बिना सा मरै खेंचि कसीस।
बागी चोट सरीर में रख सिख सालै सीस।।
विरह जगावे दरद को दरद जगावै जी।
जीव जगावै सुरति को पंच पुकारै पीव।


भगवान, कृपापूर्वक हमें इसका अभिप्राय समझाएं।

अंधेरा है घना, चारों दिशाओं में--बाहर भीतर; पर तुम्हें दिखाई नहीं पड़ता। अंधेरे को देखने के लिए भी आंख चाहिए। प्रकाश को देखने के लिए तो आंख चाहिए ही, अंधेरे को भी देखने के लिए आंख चाहिए।
अंधा अंधेरे को नहीं देखता। ऐसा मत सोचना कि अंधा अंधेरे में ही रहता होगा। अंधे को अंधेरे का भी पता नहीं है। आंख चाहिए। आंख हो, तो अंधेरा दिखाई पड़ता है। और आंख हो, तो रोशनी की खोज शुरू हो जाती है। जिसे अंधेरा दिखा वह बिना प्रकाश को खोजे कैसे रहेगा? अगर तुम बिना खोजे बैठे हो, तो एक ही अर्थ हो सकता है, कि तुम्हें अंधेरा दिखाई नहीं पड़ता है।
सत्य की खोज अंधकार की प्रतीति से शुरू होती है। प्रभु की खोज अंधकार के एहसास से शुरू होती है। प्रकाश की यात्रा अंधकार की गहन पीड़ा से शुरू होती है। तुमने अंधकार को ही जीवन मान रखा है। अंधकार के साथ तुमने तादात्म्य जोड़ लिया है। तुम शायद सोचते हो बस, यही जीवन है। यह तो जीवन की शुरुआत भी नहीं है।
जन्म के साथ जीवन की संभावनाभर शुरू होती है। लेकिन लोग मान लेते हैं कि जैसे वे पूरे के पूरे पैदा हुए हैं। सिर्फ संभावना थी; खो भी सकते हो संभावना को, वास्तविक भी बना सकते हो। एक-एक पल जाता है, उतनी ही संभावना क्षीण होती चली जाती है।
जिसे जीवन का यह बोध होगा वह बैठा न रह सकेगा। रोएगा, चीखेगा, चिल्लाएगा। एक अज्ञात की आकांक्षा उसके भीतर जन्म लेगी। उसकी जीवनधारा एक यात्रा बन जाएगी। वह डबरे की तरह पड़ा न रहेगा, सड़ेगा नहीं। वह सरिता की तरह बहेगा, वह खोजेगा सागर को।
और अगर बिना प्यास के तुम खोजने निकल गए और बिना अंधकार को अनुभव किए तुमने प्रकाश की चर्चा शुरू कर दी, जिज्ञासा शुरू कर दी, तो कुछ हाथ न आएगा। क्योंकि जिसे अंधेरा साल नहीं रहा है, कांटे की तरह चुभ नहीं रहा है, उसकी प्रकाश की बातचीत सिर्फ बातचीत होगी, मन बहलाव होगा, मनोरंजन होगा। एक बहाना होगा समय को काटने का; लेकिन यात्रा नहीं हो सकती। उसके पैर उठेंगे न।
जिसने अनुभव नहीं किया प्यास को, सरोवर उसके सामने भी आ जाएगा तो वह पहचानेगा कैसे! प्यास ही पहचानती है। अंधेरे के प्रति जाग गई आंख ही प्रकाश को पहचानती हैं। जीवन की पीड़ा को जब तुम अनुभव करोगे तभी तुम परमात्मा के उस महासुख की आशा से, आकांक्षा से, अभीप्सा से भरोगे।
और हमने उलटा ही किया है। हमने ऐसी व्यवस्था की है, कि हमें जीवन की पीड़ा कम से कम अनुभव हो। सारी संस्कृति, सभ्यता, समाज इसी प्रकार का आयोजन है, कि जिससे तुम्हें चोट न लगे ज्यादा चोट न लगे। इतनी चोट लगे जितनी तुम सह सको, असह्य न हो जाए। इतनी बेचैनी न हो जाए, कि तुम अनंत की खोज पर निकलने लगो। तुम बंधे रहो खूंटे से यहीं।
थोड़ी स्वतंत्रता भी तुम्हें चाहिए, तो खूंटे की रस्सी तुम्हें थोड़ी स्वतंत्रता देती है। रस्सी से बंधे हो, थोड़ा घूम-फिर लेते हो आसपास। घूमने-फिरने से तुम्हें लगता है, स्वतंत्रता है। लेकिन तुम्हें खयाल नहीं है, वह स्वतंत्रता केवल रस्सी की लंबाई है। ऐसे तुम खूंटे से ही बंधे हो।
संस्कृति की पूरी चेष्टा यही है, सारे संस्कारों का आयोजन यही है, जिसको जार्ज गुरजिएफ ने बफर पैदा करना कहा है। जैसे रेलगाड़ी के दो डब्बों के बीच में बफर लगे होते हैं; अगर धक्का लगे, एक्सीडेंट हो जाए, अचानक इंजन रुक जाए और बीच में बफर न हों, तो सारे डब्बे एक-दूसरे के ऊपर चढ़ जाएंगे। सारे डब्बे एक-दूसरे को इतनी भयंकर चोट देंगे, कि कई यात्री मर जाएंगे। सब अस्तव्यस्त हो जाएगा। तो दो डब्बों के बीच में बफर लगे हैं। बफर चोट को पी जाते हैं। चोट तो लगती है, थोड़ा-सा धक्का आता है, लेकिन सहने योग्य होता है।
कार में स्प्रिंग लगे होते हैं वे रास्ते के गङ्ढों का पता नहीं चलने देते। गङ्ढे तो आते हैं, पता भी चलता है, लेकिन इतना चलता है, भीतर का यात्री यात्रा ही बंद नहीं कर देता; जारी रखता हैं, आदी हो जाता है।
जीवन के रास्ते पर भी गङ्ढे बड़े हैं, अंधकार भयंकर है, पीड़ा बड़ी है, नारकीय है, लेकिन बफर समाज पैदा कर देता है। वह तुम्हें दिखाई नहीं पड़ता। बफर झेल लेता है सारी तकलीफ को। तुम्हारे तक तकलीफ ही नहीं आ पाती पूरी तरह से, तो तुम पीड़ा से ही न भरोगे, तो आनंद की खोज कैसे शुरू होगी?
जिस व्यक्ति को भी उस यात्रा पर जाना हो, उसे बफर तोड़ देने पड़ेंगे। उसे रास्ते के गङ्ढों का सीधा-सीधा साक्षात्कार करना पड़ेगा। उसे जीवन की पीड़ा जैसी वह है, उसकी सचाई में ही एहसास करनी पड़ेगी।
एहसास करते ही तुम पाओगे, कि एक क्रांति शुरू हो गई। अब तुम इस जीवन से राजी नहीं हो सकते, महाजीवन चाहिए। क्योंकि यह भी कोई जीवन है! धोखा है जीवन का। सुबह उठ आते हो, सांझ सो जाते हो, फिर रोज सुबह वही दोहराते हो, फिर रोज सांझ वही दोहराते हो--कोल्हू के बैल हो। घूमते रहते हो एक परिधि में। लगता है, कहीं पहुंच रहे हो। ऐसा खयाल होता रहता है, भीतर भनक होती रहती है, कि अब--अब आई मंजिल; पर कोल्हू के बैल की कोई मंजिल होती है! वह गोल घेरे में घूमता रहता है। वह वहीं के वहीं सदा है।
तुमने कभी इस पर खयाल किया, कि तुम सदा वहीं के वहीं हो, रत्तीभर भी आगे नहीं गए, ऊंचे नहीं उठे? जहां बचपन में थे, तुम मरते वक्त अपने को वहीं पाओगे। शायद कुछ खो भला दो, उपलब्धि कुछ भी न होगी। बचपन का भोलापन खो जाएगा, निर्दोषता खो जाएगी, कुंआरापन खो जाएगा, ताजगी खो जाएगी, लेकिन पाओगे क्या खोकर? सौदा बड़ा महंगा है। खो तो सब जाता है, मिलता है कुछ भी नहीं। बफर निश्चित ही बड़े होंगे जो पता नहीं चलने देते।
कोई मर जाता है--मेरे पड़ोस में, एक गांव में मैं रहता था। कोई मर गया, तो मैं गया। वहां देखा मैंने, कि लोग आत्मज्ञान की बातें कर रहे हैं। समझा रहे हैं, कि आत्मा तो अमर है, क्यों रोते हो? जो समझा रहे थे मैंने समझा, कि बड़ी ज्ञानी होंगे। क्योंकि इनको आत्मा की अमर होने का पता है। और दूसरों में दुख में सहारा देने आए हैं।
फिर संयोग की बात! जो समझा रहे थे--वे बड़े प्रखर थे समझाने में--कोई चार-छह महीने बाद उनकी पत्नी चल बसी। तो मैं वहां भी गया। मैंने सोचा, कि ये तो रोते न होंगे, परेशान न होते होंगे। ये तो जानते ही हैं। देखा, तो बड़ा हैरान हुआ। जिनके घर वे समझा रहे थे, वे अब उनको समझा रहे हैं, कि आत्मा तो अमर है, क्यों रोते हो? शरीर तो वस्त्रों की भांति है, छूट गया। आत्मा दूसरी जगह चली गई, दूसरे घर में प्रवेश कर लिया। कोई मरता थोड़े ही है।
यह बफर है। जब तुम्हारी जरूरत थी, पड़ोसी ने आकर बफर संभाल लिए। अब पड़ोसी की जरूरत है, तुम गए; तुमने उसके बफर संभाल लिए। अन्यथा मौत तुम्हारी सारी व्यवस्थाओं को तोड़ देगी।
मौत भी नहीं तोड़ पाती है। मौत से भी बचाने के लिए तुमने स्प्रिंग लगा रखे हैं चारों तरफ--आत्मा अमर है। पर इस बात का तुम स्मरण तभी करते हो, जब कोई मर जाता है। मरघट पर जाओ, जहां लोग मुर्दों को भेजने आते हैं, वहां बड़ी ब्रह्म चर्चा होती है, वहां बड़ी ज्ञान की बातें होती हैं। और तुम सोच भी नहीं सकते, कि ये लोग गांव में कभी ज्ञानी न मालूम पड़े, ये उपनिषद और वेदों का उल्लेख कर रहे हैं। वे बफर संभाल रहे हैं। किसी का टूट गया है मौत से, उखड़ गए हैं स्क्रू, यहां-यहां, वे कस रहे वापिस; ताकि वह फिर जीने के योग्य हो जाए। यह कोल्हू का बैल घबड़ाकर मौत को देखकर बैठ गया, उठता नहीं। वे उसे उठाने की कोशिश कर रहे हैं, वेद-उपनिषद का सहारा ले रहे हैं। जूते रहो कोल्हू में।
यदि मौत तुम्हें ठीक से दिखाई पड़े, अगर तुम मौत का साक्षात्कार करो, तो क्या तुम्हें यह स्मरण न आएगा, कि तुम भी मर रहे हो? दूसरे की मौत क्या दूसरे की ही मौत रहेगी, तुम्हारी अपनी मौत न बन जाएगी?
जब भी कोई मरता है, तुम भी मरते हो। जब भी कोई मरता है, तुम्हारा एक हिस्सा मरता है। जब भी कोई मरता है, तुम्हारी मौत का संदेश घर आता है। हर मौत तुम्हारी मौत की खबर है। लेकिन तब तुम आत्मज्ञान की बातें करते हो, ताकि खबर तुम तक न पहुंच जाए। तुम्हारी छाती में छिद न जाए तीर मौत का, नहीं तो फिर तुम जीओगे कैसे! फिर कल सुबह तुम कैसे गुनगुनाते उठोगे? फिर कैसे तुम दफ्तर जाओगे, बाजार जाओगे, फिर तुम कैसे अपने कोल्हू में जुतोगे?
अगर मौत दिख गई, तो तुम बैठ ही जाओगे। तुम कहोगे, जब मौत होनी ही है, तो यह जीवन जीवन नहीं है। जिस जीवन का अंतिम परिणाम मौत हो, जिस जीवन का आखिरी हिसाब-हिसाब बस, सिर्फ नष्ट हो जाना हो, उसको कौन जीवन कहेगा?
कोई महा-जीवन चाहिए। कोई ऐसा जीवन चाहिए, जिसका आधार अमृत हो; जहां मिटना न होता हो, जहां खोना न होता हो। जब तक मिटना है, खोना है, तब तक होना ही नहीं है। जब मिटना-खोना सब समाप्त हो जाता है, अभी तो शुद्ध होने का पहली दफा आविर्भाव होता है।
लेकिन बफर जागने नहीं देते। हजार बार मौके आते हैं तुम्हारे जीवन में, जब तुम जाग सकते थे। वे मौके तुम्हें दादू बना देते, कबीर बना देते, लेकिन तुम नहीं जागते। तुम जल्दी से इंतजाम जुटाने लगते हो, कि कैसे फिर से सो जाओ। यह सो जाने की प्रक्रिया कैसे तुम्हें समझने देगी, कि कबीर क्या कह रहे हैं, दादू क्या कह रहे हैं, नानक क्या कह रहे हैं। वे कुछ ऐसी भाषा बोल रहे हैं, वह उसी आदमी को समझ में आ सकती है जिसने थोड़ा-सा अपनी व्यवस्थाओं को तोड़ना शुरू किया। जिसने थोड़ा वातायन बनाया, अपने चारों तरफ जुड़े हुए जाल को जिसने थोड़ा काटा, संध बनाई, ताकि जीवन को देख सके।
यहां तो जीवन मृत्यु पर खड़ा है। यहां तो हर चीज मिटने को है। यहां तो सब कंपता हुआ है। यहां तो प्रत्येक व्यक्ति मृत्यु की तरफ जा रहा है। पूरब से जाओ, पश्चिम से जाओ, दक्षिण से जाओ, कही से जाओ, आखिर में मौत मिल जाती है। और जब मौत होनी ही है दस साल बाद, बीस साल बाद, पचास साल बाद, सत्तर साल बद, तो जिसको थोड़ा होश है वह समझेगा, मौत हो ही गई।
बुद्ध को ऐसे ही होश के क्षण में सारी संस्कृति की मूढ़ता स्मरण आ गई। देखा एक मुर्दे को, पूछा अपने सारथि से, क्या हुआ इसे? उस क्षण में बुद्ध की आंखों पर कोई भी संस्कार न होगा। असल में बुद्ध को बचाया गया था, संस्कार आंख पर पड़ने न दिए गए थे। बुद्ध जब पैदा हुए, ज्योतिषियों से पिता ने पूछा था, कि इस लड़के का भविष्य क्या है? ज्योतिषियों ने कहा, या तो यह होगा चक्रवर्ती सम्राट, और या हो जाएगा संन्यासी। दुनिया में दो ही तरह के सम्राट हैं; एक तो चक्रवर्ती सम्राट है और एक संन्यासी सम्राट है। बाप न समझ पाए। बाप को बड़ी चोट लगी, कि संन्यासी हो जाएगा बेटा।
अब यह बड़े मजे की बात है, दूसरे का बेटा संन्यासी हो जाए, तो लोग उसके पैर छूने जाते हैं और कहते हैं, धन्यभाग तुम्हारे! खुद का बेटा संन्यासी होने लगे, तो प्राण पर आ बनती है। क्या मामला होगा? तुम दूसरे का बेटा संन्यासी होता है तो कहते हो, धन्यभाग! कैसी धार्मिक भावना पैदा हुई, कैसी उदभावना, कैसे सच्चे संस्कार! धन्य वह कुल जिसमें तुम पैदा हुए! और जब तुम्हारे कुल में पैदा हुआ कोई संन्यासी होने लगे तो प्राण कंपते हैं; क्यों?
क्योंकि हर संन्यासी संस्कार को तोड़ता है। हर संन्यासी संस्कृति के पार जाता है। समाज के पार जाता है। हर संन्यासी यह कहता है, कि तुम्हारे जीवन का ढंग गलत है। और जब बेटा संन्यासी होता है तो वह यह कह रहा है, कि बाप तुम्हारे जीवन का ढंग गलत है और यह बाप को बर्दाश्त नहीं होता। अपने ही बेटे से यह सुनना! कोई कहता नहीं है बेटा, लेकिन उसके संन्यासी होने से यह घटना फलित होती है, कि तुम्हारे होने का ढंग गलत है। यह बाप के अहंकार को बड़ी चोट हो जाती है। और फिर भय लगता है, कि मेरा सारा जीवन अस्तव्यस्त हुआ जा रहा है। खुद भी दिखाई पड़ने लगती है संध, खुद भी भूल एहसास होने लगती है, लेकिन अपने ही बेटे से हारने को कहीं कोई तैयार होता है!
बाप थोड़े दुखी हुए और उन्होंने कहा, कि कुछ करना होगा। इसके पहले कि यह संन्यासी हो जाए, रोकना होगा। ज्योतिषियों ने कहा, फिर ऐसा करें, कि इस व्यक्ति को समाज से बिलकुल दूर ही रखें। इसको समाज में जाने ही मत दें। न जाएगा समाज में, न कभी संन्यासियों को देखेगा, न कभी बात सुनेगा संन्यासियों की, हवा ही न लगेगी तो रंग ही न चढ़ेगा। इसको जाने ही मत दें उस तरफ।
और दूसरा यह खयाल रखें कि इस मौत के निकट मत आने दें। अगर पत्ता भी सूख जाए इसके बगीचे का, तो इसके जाने बिना अलग कर दिया जाए। अगर यह पत्ते को सूखता देखेगा तो शायद मन में प्रश्न उठे, कि अगर पत्ता सूख जाता है, तो कहीं ऐसा तो न होगा, कि मैं भी सूख जाऊंगा? कुम्हलाए हुए फूल को मत देखने देना इसे। बूढ़े आदमियों को पास मत आने देना इसके, अन्यथा यह पूछेगा, कि यह आदमी बूढ़ा हो गया, कहीं मैं तो बूढ़ा न हो जाऊंगा?
इसे एक सपने में रहने दो। इसे घेर दो सुंदर युवतियों से, शराब से, नाच-गान से, संगीत से। इसे याद ही मत आने दो, कि मौत भी है; क्योंकि जिसमें मौत की याद आ गई वह संन्यस्त हो ही जाएगा। जिसे मौत की याद आ गई उसे जीवन व्यर्थ हो गया। उसे नए जीवन की खोज शुरू हो गई। इसे मौत के करीब मत आने देना। इसे एक झूठे सपने में लुभाए रखना।
ऐसा ही बुद्ध को बड़ा किया गया--एक झूठे सपने में। मगर वहीं भूल हो गई। कभी तो आदमी सपने के बाहर आएगा!
बुद्ध जवान हो गए। वे एक युवकों के महोत्सव का उदघाटन करने जाते थे। अब राज्य का भार उनके ऊपर आने को है, तो जीवन में आना पड़ेगा। जाना पड़ेगा दरबार में, समाज से जुड़ना पड़ेगा। और अब तक संस्कार से बिलकुल दूर रखा, जैसे यह आदमी सोया ही रहा, एक मीठे सपने में खोया रहा। चारों तरफ काव्य था। कहीं कांटे न थे, बस फूल ही फूल थे। कहीं कोई पीड़ा न थी, जाना ही नहीं बुढ़ापे को, देखा ही नहीं बूढ़े आदमी को, जीवन में दुर्दिन पहचाना ही नहीं; बस, सौभाग्य ही सौभाग्य की वर्षा थी।
यह आदमी बड़ा कमजोर था; इसके पास बफर न थे। बफर पैदा करने हों, तो जीवन के संघर्ष में पैदा होते हैं, टकराहट में पैदा होते हैं, रोज मौत को देख-देखकर आदमी अपना बफर तैयार करता है, ताकि मौत से बच सके। रोज बूढ़े आदमी को देख-देखकर बफर तैयार करता है। ताकि यह याद न आए कि मैं भी बूढ़ा हो जाऊंगा। रोज आदमी मरता है, धीरे-धीरे तुम्हें पता ही नहीं चलता कि कोई मर गया। तुम देख लेते हो ऐसे, जैसे कुछ भी नहीं हुआ; जैसे साधारण-सी घटना है तुम मान लेते हो। तुम अंधे हो गए।
बुद्ध के पास संस्कार न थे, संस्कृति न थी, समाज न था। वे अकेले बड़े हुए और सोए-सोए बड़े हुए। सपने में खोए-खोए बड़े हुए। बड़ी मुश्किल पड़ गई। पहले ही आघात में नींद टूट गई। बचाने वाली सुविधा संरक्षण की दीवाल न थी। राह पर देखा उन्होंने एक आदमी को मरा हुआ।
कहानी बड़ी मधुर है। मैंने बहुत बार कही। हर बार कहता हूं, तब मुझे लगता है उसमें कुछ नए आयाम हैं।
पहले तो उन्होंने देखा एक बूढ़े आदमी को; तो पूछा सारथी से यह आदमी को क्या हो गया? यह ऐसा लंगड़ाकर लूला-सा झुका-झुका क्यों चलता है? इसके चेहरे पर झुर्रियां क्यों पड़ी हैं? इसकी आंखें धुंधली क्यों मालूम पड़ती हैं? यह किसी का सहारा क्यों लिए हैं? पहली दफा बूढ़ा देखा हो,--स्वभावतः तुम्हें यह प्रश्न नहीं उठता। तुमने इतनी बार देखा है और तुमने सुरक्षा कर ली है। तुमने इतने बचपन से देखा है; जब प्रश्न उठ ही नहीं सकता था, तबसे तुम बूढ़े को देखते रहे हो। अब क्या प्रश्न उठेगा!
बुद्ध को उठा, नई घटना थी। सारथी ने कहा कि यह आदमी बूढ़ा हो गया है। बुद्ध ने कहा, यह बूढ़ा होना क्या है? सारथि ने कहा, मैं आपको कैसे समझाऊं? आज्ञा भी नहीं है। लेकिन आपने पूछा है तो झूठ भी नहीं बोल सकता।
कहानी यह है, कि सारथि तो झूठ बोलना चाहता था लेकिन देवताओं ने उसको झूठ न बोलने दिया। देवता उसमें प्रविष्ट हो गया। कहानी तो यह है, कि सारथि को रोका देवताओं ने, कि झूठ मत बोल क्योंकि यह घड़ी मुश्किल से कभी आती है कि कोई बुद्धत्व को उपलब्ध होता है। इस घड़ी के लिए हम सदियों से प्रतीक्षा कर रहे हैं; इस आदमी को भटका मत।
मतलब इतना है कहानी में, कि अशुभ तो चाहेगा कि संसार बचा रहे; शुभ चाहेगा कि संन्यास फलित हो। शैतान तो चाहेगा तुम संसार में आंख बंद करके कोल्हू के बैल बने रहो, लेकिन शुभ वृत्तियां चाहेंगी, कि तुम जागो, प्रकाश का आरोहण करो। अभियान बड़ा है सामने, सूरज तक पहुंचना है तुम उसी की किरण हो।
देवताओं ने सारथि की जबान पर सवारी कर ली। उन्होंने उसके प्राणों को पकड़ लिया। उसने बोलना भी चाहा लेकिन वह बोल न सका झूठ। उसने कहा, यह आदमी बूढ़ा हो गया है, और हर आदमी बूढ़ा हो जाता है और इससे बचने का कोई उपाय नहीं। आप एक सपने में जीए हैं।
बुद्ध ने पूछा, क्या मैं भी बूढ़ा हो जाऊंगा?
बस, इसी प्रश्न पर सारा बुद्ध का जीवन-रूपांतरण टिका। जब कोई मरता है, क्या तुम पूछते हो मैं भी मर जाऊंगा? अगर तुमने पूछ लिया तो तुम कोल्हू के बैल न रह जाओगे। लेकिन तुम पूछते ही नहीं। तुम सदा सोचते हो कोई और मरता है, तुम तो कभी मरते ही नहीं। कभी "अ' मरता, कभी "ब' मरता, कभी "स' मरता। तुम तो हमेशा मौजूद रहते हो पूछने को, कि कौन मर गया भाई! तुम तो सदा सांत्वना देने को रहते हो, कि बहुत बुरा हुआ, अभी उम्र ही क्या थी! तुम तो सदा जिंदा रहते हो। हमेशा कोई और मरता है।
लेकिन बुद्ध ने जो प्रश्न पूछा वह कोई भी व्यक्ति जिसके बफर न हों, पूछेगा ही स्वभावतः। असली सवाल यह नहीं है, कि कौन मर गया। असली सवाल यह है कि क्या मैं भी मरूंगा! क्योंकि उस पर ही तो सारे जीवन की व्यवस्था निर्भर होगी। अगर मुझे भी मरना है तो कैसे जीऊं, यह सवाल उठेगा। कैसे जीऊं, कि मरने के पार जा सकूं? और अगर मरने के पार जाने का कोई उपाय ही नहीं है, तो जीने में कोई सार नहीं है। तो फिर जीऊं ही क्यों? फिर कल तक भी प्रतीक्षा किस बात की? फल तो लगने ही नहीं हैं, जीवन ऐसे ही जाना है।
कोल्हू का बैल भी बैठ जाएगा अगर उसको भी पता चल जाए कि जिंदगीभर ऐसे ही कोल्हू चलाना है। और कोई परिणति नहीं है, कोई परिणाम नहीं है, कोई फल नहीं है, कहीं पहुंचूंगा नहीं। ऐसे जुता-जुता ही कोल्हू में मर जाऊंगा।
बुद्ध ने पूछा, क्या मैं भी बूढ़ा हो जाऊंगा? सारथि कहना चाहता था, आप कैसे बूढ़े हो सकते हैं, लेकिन देवताओं ने जबान पकड़ ली और उससे कहलवाया, कि नहीं; कहना तो मैं नहीं चाहता हूं, लेकिन मजबूरी है, सत्य को झुठला भी नहीं सकता। आप भी बूढ़े हो जाएंगे, कोई भी अपवाद नहीं है।
बुद्ध उदास हो गए। जो भी जीवन को देखेगा वह तत्क्षण उदास हो जाएगा। यह सारा जीवन एकदम झूठा है। यह जीवन सपने से भी पतला है। इसे जरा कुरेदो और मौत मिल जाती है। यह बड़ी पतली धार है। इसके भीतर मौत ही मौत छिपी है।
बुद्ध का मन लौटने का होने लगा लेकिन तभी उन्होंने देखा कि एक अर्थी गुजर रही है, तो पूछा यह कौन है इसको क्या हुआ? इस आदमी को क्यों बांधा हुआ है बांसों के ऊपर? इसने क्या भूल-चूक की है? सारथि ने कहा, भूल-चूक कुछ भी नहीं की, यह मर ही गया। यह अब जिंदा ही नहीं है। बुद्ध ने कहा, क्या मैं भी मर जाऊंगा? सारथि ने कहा, बुढ़ापे के बाद वही कदम है, अनिवार्य कदम है, सभी को मरना होता है।
बुद्ध ने कहा, फिर लौटा लो रथ को वापिस; फिर युवक-महोत्सव में जाने का क्या अर्थ! बूढ़ा तो मैं हो ही गया। और मौत तो आ ही गई। कल आएगी, कि परसों, इससे क्या फर्क पड़ता है। आ ही गई।
लेकिन हटने को ही थे, रथ लौटने को ही था, कि एक संन्यासी को देखा। यह ठीक क्रम है। बुढ़ापे की स्मृति, मृत्यु का बोध, संन्यास का भाव। एक गैरिक वस्त्र संन्यासी को देखा। ऐसा आदमी बुद्ध ने कभी न देखा था। उन्होंने पूछा इस आदमी को क्या हुआ है? इसने गैरिक वस्त्र क्यों पहन रखे हैं? और यह कुछ अलग ही मालूम पड़ता है। इसकी चाल में ढंग और! इसकी आंख में रंग ओर! इसकी जीवन-शैली ही अलग मालूम पड़ती है, ऐसा आदमी मैंने कभी नहीं देखा। इसके चलने में एक गरिमा है, एक प्रखर प्रकाश है। इसके चेहरे पर दीप्ति कहां से आई? इसे क्या हो गया है?
उस सारथि ने कहा, कि जैसे आपने बूढ़े को देखा और मुर्दे को देखा, इसने भी देखा और पहचान लिया। इसने संसार छोड़ दिया है। इसने एक नए जीवन को बनाने की कसम ले ली है, प्रतिज्ञा ले ली है।
संन्यास का अर्थ है, यह जीवन जैसा हम उसे जीते हैं मूढ़तापूर्ण है। यह रेत से तेल निचोड़ने जैसा है। इसकी परिणति कुछ भी नहीं है। यह पानी पर उठे बबूलों जैसा है। आज है, कल फूट जाएगा। फूट जाएगा तो पीछे कोई रूपरेखा भी न बचेगी। इसमें जो गया वह व्यर्थ ही गया है। जितना समय बीता, वह यूं ही बीत गया है।
संन्यास का अर्थ है, एक नए जीवन की उदभावना, एक नए जीवन का सूत्रपात, जीने का एक नया ही ढंग, जागे हुए जीने की तरकीब, बिना बफर के, बिना किसी सुरक्षा के--असुरक्षित, बिना किसी व्यवस्था के, बिना किसी धारणा के, बिना समाज, बिना संस्कृति-संस्कार के, एक निर्दोष जीवन की प्रक्रिया।
सारथि ने कहा, यह व्यक्ति संन्यस्त हो गया। बुद्ध को उसी दिन संन्यस्त होने का भाव पैदा हो गया। उसी रात उन्होंने महल छोड़ दिया।
जिस दिन तुम्हें भी दिखाई पड़ जाएगा कि जीवन एक अंधकार है, उसी दिन तुम प्रकाश की खोज पर निकल जाओगे। अभी तुमने अंधकार को ही प्रकाश समझ रखा है। तुम बड़े मजे से जी रहे हो।
इसलिए तुम डरते भी हो उन लोगों के पास जाने से, जो तुम्हें जगा दें और चौंका दे। क्योंकि वे तुम्हारी नींद तोड़ देंगे। और उनके कारण तुम्हारे जीवन में एक नई यात्रा शुरू होगी, जो कि बड़ी कठिन है। कठिन इसलिए, कि तुम्हारे पैर अंधेरे में इस तरह जम गए हैं, कि प्रकाश की तरफ उठेंगे ही नहीं। तुम्हारी आंखें अंधेरे की इतनी आदी हो गई हैं, कि तुम प्रकाश की तरफ देखोगे तो बंद हो हो जाएगी। कठिन इसलिए नहीं है कि सत्य कठिन है।
सत्य तो बड़ा सहज है--"सुख सुरति सहजे सहजे आव।' वह तो बड़ा सुखपूर्वक आ जाता है। सीधे-सीधे, चुपचाप चला आता है। पगध्वनि भी नहीं होती, कुछ करना भी नहीं होता और आ जाता है। सत्य तो सरल है। तुम कठिन हो, इसलिए यात्रा कठिन होगी।
तो जो डरे हुए हैं, कमजोर हैं, कायर हैं, वे यात्रा पर ही नहीं निकलते, हारने के भय से, टूटने के डर से। पराजित होने के कारण वे युद्ध के स्थल पर ही नहीं जाते। वे पीठ किए खड़े रहते हैं।
और युद्ध पर न जाना हो तो सबसे अच्छी तरकीब यही है, कि तुम कहो, युद्ध है ही नहीं। क्योंकि अगर युद्ध है और तुम नहीं जा रहे, तो मन कचोटेगा, अपराध अनुभव होगा। अगर परमात्मा की तरफ न जाना हो तो सबसे गहरी व्यवस्था नास्तिक की है। वह कहता है, परमात्मा है ही नहीं। वह यह कह रहा है, कि प्रकाश है ही नहीं, कहां की बातों में पड़े हो? अंधेरा ही बस है। नास्तिक डरा हुआ है। अगर प्रकाश है, तो जाना पड़ेगा, खोजना पड़ेगा। अगर सत्य है, तो फिर कैसे असत्य में बैठे रहोगे? इसलिए वह कह रहा है, कि सत्य है ही नहीं।
मैं एक आदमी को जानता हूं, वे डाक्टर के पास जाने से डरते हैं। उनको कैंसर है, लेकिन वे डाक्टर के पास जाने से डरते हैं। वे कभी-कभी मेरे पास आते हैं। वे मुझसे कहलवाना चाहते हैं, कि मैं कह दूं, कैंसर नहीं है। वे कहते हैं, आप तो मुझे जानते हैं। आप तो सभी जानते हैं, मैं कहीं बीमार हूं! मैं तो बिलकुल ठीक हूं।
लेकिन जब वे यह कहते हैं "मैं बिलकुल ठीक हूं,' तब उनके हाथों में कंपन साफ है। उनकी आंखों में भय है। उनसे सच बोलने में मुझे भी कठिनाई होती है, कि उनको कहना क्या! वे अपनी पत्नी से पूछते हैं, अपने बेटों से पूछते हैं, मैं ठीक हूं न? कोई गड़बड़ तो नहीं है। और अगर कोई उनसे कहे कि जरा डाक्टर के पास चलकर जांच-पड़ताल करवा लो, तो वे कहते हैं, किसलिए? जब मैं ठीक ही हूं। तो बहुत दिन तक तो वे गए न। डाक्टरों को शक था। उनकी पत्नी मेरे पास आई और उसने कहा, हम थक गए हैं इनको भेजने से। ये तो जाते नहीं और जाने की बात करो तो ये कहते हैं किसलिए? मैं बिलकुल ठीक हूं। और ये ठीक हैं नहीं। इनकी हालत खराब है, ये रोज दुर्बल होते जाते हैं, रोज इनका वजन गिरता जा रहा है, मगर ये कहते हैं कहां गिर रहा है वजन? सब ठीक है। ये बात ही नहीं उठने देते बीमारी की। बीमारी की चर्चा से ही भयभीत होते हैं। इनको कोई भय समा गया है भीतर। इनको मैं कैसे डाक्टर के पास ले जाऊं?
मैंने कहा, तुम मेरे पास लाओ। वे लाए गए। मैंने उनसे पूछा, क्या आप क्या बीमार हो? उन्होंने कहा, कि नहीं। तो मैंने कहा, डाक्टर के पास जाने से क्यों डरते हो? यह बेचारी पत्नी परेशान हो रही है, इसको भय समा गया है, इसका दिमाग खराब है। आप तो बिलकुल ठीक हैं। मैं भी देखता हूं, कि आप बिलकुल ठीक हैं। पत्नी की तृप्ति के लिए आप चले जाओ। उन्होंने कहा, अब आप ऐसा कहते हैं, तो चला जाऊंगा। लेकिन उनके हाथ पैर कंप रहे हैं। अब बड़ी मुश्किल में खड़े हो गए हैं, कि अब क्या कहें! जब हैं ही नहीं बीमार, तो डरना क्या है?
ईश्वर नहीं है, ऐसा नास्तिक कहकर अपने को सांत्वना दे रहा है। नहीं है, तो फिर खोज पर जाने की कोई जरूरत नहीं है। सो जाओ, विश्राम करो। जहां हो, वहीं ठीक है।
जो नास्तिक नहीं है, उन्होंने भी बचने की तरकीबें निकाल ली हैं, उन्होंने और भी सस्ती तरकीबें निकाल ली हैं। मंदिर हो आते हैं, मस्जिद हो आते हैं, गुरुद्वारा चले जाते हैं, चर्च पर रविवार को जाकर प्रार्थना कर आते हैं। एक सामाजिक औपचारिकता है, पूरी कर लेते हैं कि पता नहीं भगवान हो ही! तो कहने को रहेगा, कि हम हर शनिवार को मंदिर आते थे, कि हर रविवार को चर्च आते थे, कि हर शुक्रवार को मस्जिद आते थे। याद ही होगा, आपके हिसाब-किताब में तो लिखा ही होगा। कहीं हो, तो कुछ कर लेते हैं, ताकि ऐसा न हो कहने को, कि हमने कुछ भी न किया।
वे भी अपने को बचा रहे हैं। क्योंकि मंदिर जाने से कहीं कोई परमात्मा तक पहुंचा है। हां, परमात्मा तक जो पहुंच जाता है, वह मंदिर तक जरूर पहुंच जाता है।
इसे थोड़ा ठीक से समझ लेना। मंदिर जाने से कोई परमात्मा तक अगर पहुंचता होता, तो सभी लोग मंदिर जाते हैं, पहुंच गए होते। मंदिर जाने से तो कोई पहुंचता नहीं दिखाई पड़ता। जरूर मंदिर तरकीब है बचने की। वह धोखा है, वह असली मंदिर तक जाने से बचने का उपाय है; तो तुमने एक नकली मंदिर बना लिया है। उस नकली मंदिर में तुम हो जाते हो, वह बिलकुल सस्ता है। उनमें कुछ भी नहीं लगता। दो पैसे चढ़ा आए, दो फूल रख आए, वे भी किसी दूसरे के बगीचे से तोड़ लिए हैं। सिर झुका दिया--बिना झुके। अहंकार तो अकड़ा ही खड़ा रहा, सिर लगा दिया। पत्थर के सामने सिर लगाने में अड़चन भी नहीं होती। जिंदा आदमी के चरणों में सिर लगाने में अड़चन भी होती है।
महावीर को छूने में डर लगा होगा। महावीर की मूर्ति के चरणों में सिर रखने में किसी को डर नहीं लगता। वहां कोई है ही नहीं, तो झुकने में डर क्या है। बुद्ध के सामने झुकने में पीड़ा हुई है। लेकिन बुद्ध की प्रतिमा के सामने करोड़ों लोग झुक रहे हैं। जिन लोगों ने जीसस को सूली दी, वे ही उनके चर्च खड़े करके उनके चरणों में झुक रहे हैं। क्रास के सामने झुक रहे हैं, जीसस के सामने न झुके। कुछ मजा मालूम होता है।
जीसस में खतरा है। अगर झुके तो यह आदमी तुम्हें जगाएगा। तुम झुके कि इसने तुम्हारी गर्दन पकड़ी। यह तुम्हें हिलाएगा। यह तुम्हारी नींद को तोड़ देगा। इसके पास जाने से तुम डरते हो। हां, मिट्टी के गणेश बिलकुल ठीक हैं। वे कुछ कर नहीं सकते। वे तुम्हारे ऊपर ही निर्भर हैं। जब तुम उनको बनाओ, तब बन जाते हैं। तब तुम उनको डुबाओ नदी में, तो डूब जाते हैं। उनका कुछ है नहीं; उनका कोई बस तुम पर नहीं। तुम्हारे बस में वे हैं।
तो तुमने झूठे भगवान खड़े किए हैं, जो तुम्हारे बस में हैं। झूठे मंदिर खड़े किए हैं। यह मंदिर से बचने की तरकीब है। यह परमात्मा के पास जाने से बचने का उपाय है। तुमने अपने घरघूले बना लिए हैं, खेल बना लिया है। तुम उसी में रमे हुए हो। अगर तुम ये उपाय न करो, तो तुम्हें एक न एक दिन परमात्मा का साक्षात्कार करने के लिए तैयार होना पड़ेगा।
नास्तिक बच रहे हैं इनकार करके; आस्तिक बच रहे हैं स्वीकार करके। कभी-कभी कोई आदमी न तो इनकार करता, न स्वीकार करता, खोज पर निकलता है। मैं उसी को धार्मिक कहता हूं, जो न तो आस्तिक है, न नास्तिक है; खोजी है, यात्री है, जो कहता है जीवन दांव पर लगा देंगे, लेकिन खोज कर रहेंगे। उसके जीवन में अंधेरे के प्रतीति हुई है। अब वह प्रकाश चाहता है। उसने प्यास को जाना है और जीवन के मरुस्थल को जाना है। वह मरूद्यान की खोज में है। वह किसी सरोवर की तलाश में है। और वह तलाश बौद्धिक नहीं है, उसका रोआं-रोआं प्यास से प्यासा है।
दादू उसी की बात कर रहे हैं। वे कहते हैं:
"मन चित चातक ज्यूं रटै, पिव पिव लागी प्यास।'
ऐसी बौद्धिक बातचीत से परमात्मा कुछ मिलेगा नहीं, कि तुम बैठकर गीता पढ़ लो, कि दर्शन शास्त्र का विचार कर लो; नहीं, इससे कुछ न होगा "मन चित चातक ज्यूं रटे'। जैसे चातक चिल्लाता है रात भर--"पिव पिव लागी प्यास'। "पियू पियू' कहे चला जाता है। साधारण जल से राजी नहीं होता, स्वाती की बूंद की प्रतीक्षा करता है। वर्ष बिता देता है। दिन आते हैं, जाते हैं, चातक की रटन बढ़ती चली जाती है।
चातक तो एक काव्य-प्रतीक है। चातक तो कवियों की कल्पना है, कि स्वाती नक्षत्र में यह चातक नाम का पक्षी केवल स्वाती नक्षत्र के पानी को ही पीता है। बाकी सालभर रोता रहता है। साधारण जल उसे तृप्त नहीं करता, स्वाती का परम जल चाहिए।
यह तो कवि की कल्पना है। लेकिन संत के लिए यह कल्पना नहीं है, यह उसका अनुभव है। संत साधारण जल से राजी नहीं, परमात्मा के जल से ही राजी है। साधारण भोजन उसकी भूख को नहीं मिटा पाता, वह तो जब परमात्मा के साथ ही लीन न हो जाए, तब तक भूखा रहेगा। साधारण प्रेम उसे तृप्त नहीं कर पाता। जब तक परमात्मा की ही वर्षा उस पर न हो जाए, जब तक परम प्रेम न आ जाए तब तक वह प्यासा ही रहेगा। तब तक यह साधारण जगत का प्रेम तो उसकी प्यास में और जैसे अग्नि में घी का काम होता है, ऐसा काम करेगा। इस प्रेम से तो वह और भी प्यासा होने लगेगा। इस प्रेम से तो उसे खबर मिलने लगेगी कि और भी बड़ी संभावनाएं हैं जिनके द्वार खुलते हैं। यह प्रेम उसे केवल प्रार्थना की याद दिलाएगा। यह प्रेम उसे परमात्मा की तरफ और भी आतुरता से भरेगा।
"मन चित चातक ज्यूं रटै पिव पिव लागी प्यास।'
बस, उस प्यारे की ही प्यास लगी है। वही बुझा सकेगा।
दादू के शब्द बड़े महत्वपूर्ण हैं, वे कहते हैं, "मन चित'। मन के लिए भारत में बहुत शब्द हैं ऐसा दुनिया की किसी भाषा में नहीं है। अंग्रेजी में एक ही शब्द है--"माइंड', लेकिन भारत में बहुत शब्द हैं। इसमें दो शब्दों का प्रयोग कर रहे हैं दादू: मन, चित-चातक।
साधारण मन तो तुम्हारे पास है, चित तुम्हारे पास नहीं है। जब तक मन अंधेरे से राजी है तब तक वह चित नहीं है। जब मन चैतन्य की प्यास से भरता है और चैतन्य के आरोहण पर निकलता है; और जब कहता है चैतन्य होना है और चेतना है, जागना है, जागरण की अभीप्सा जब मन में पैदा होती है तब मन चित्त हो जाता है। तब मन साधारण मन न रहा। तब एक नई ही घटना घट गई। वह चैतन्य होने लगा।
मन साधारणतः अचित है, वह बेहोश है। तुम्हारा मन तो बिलकुल बेहोश है। तुम्हें पता नहीं तुम्हारा मन तुमसे क्या करवाता है। तुम करते रहते हो। जैसे कि कोई शराब के नशे में कर रहा है। किसी ने गाली दी, तुम्हें क्रोध आ गया। तुम कहते जरूर हो, कि मैंने क्रोध किया, अब मैं क्रोध न करूंगा; लेकिन तुम गलत कहते हो। तुमने क्रोध किया नहीं। मन ने क्रोध करवा लिया। तुम मालिक नहीं हो। इसलिए तुम यह मत कहो, कि मैंने क्रोध किया। अगर तुम करने ही वाले होते तब तो तुम्हारे बस में होता करते, या न करते। तुम मालिक नहीं हो। मन ने क्रोध करवा लिया है। तुम्हारा बस नहीं है। तुम कसम भी खाओ कि अब न करेंगे, कुछ हल नहीं होता। दूसरे दिन फिर जब घड़ी आती है, फिर क्रोध हो जाता है।
क्रोध तुम्हारी बेहोश अवस्था है--मूर्च्छित। मन मूर्च्छित है। मन मूर्च्छा है। इसलिए मन तो परमात्मा की प्यास से नहीं भर सकता। लेकिन मन जब चित हो जाता है--चित का मतलब मन जब जागने लगता है और चैतन्य होने लगता है, जब तुम प्रत्येक कृत्य को जागकर करने लगते हो; भोजन करते हो--अभी तो भोजन करते हो, बैठे भोजन की थाली पर होते हो, मन दुकान पर होता है, बाजार में होता है, न मालूम कहां कहां होता है। एक बात पक्की है, तुम जहां होते हो वहां मन नहीं होता। तुम यहां बैठे हो, तुम्हारा मन कहीं और पहुंच गया होगा। तुम कहीं भी जा सकते हो--मन!
अगर तुम्हारा मन कहीं और चला गया और तुम यहां बैठे हो, तो तुम यहां बेहोश बैठे हो। तुम्हारा यहां होना न होना बराबर है। शरीर यहां है, तुम यहां नहीं हो। तुम्हारी मौजूदगी मौजूदगी नहीं है, एक तरह की गैर-मौजूदगी है।
मन मूर्च्छा है। उठते, बैठते, तुम सब काम कर रहे हो, लेकिन यंत्रवत। तुम्हें ठीक-ठीक पता नहीं है, क्यों कर रहे हो? अगर तुम कारण को खोजने जाओ तो तुम बड़े हैरान होओगे कि कारण कुछ और ही होंगे, कारण तुम कुछ और ही समझते रहे। अगर तुम अपने मन का निरीक्षण करो तो धीरे-धीरे तुम्हें समझ में आएगा।
दफ्तर में तो तुम नाराज हुए थे और आकर पत्नी पर टूट पड़े। पत्नी का कोई कसूर ही न था। लेकिन तुमने कोई कसूर खोज लिया, कि आज रोटी जल गई है, कि दाल में नमक नहीं है। ऐसी घटनाएं रोज ही घटती थीं। लेकिन रोज तुमने न पकड़ी थीं, आज तुमने पकड़ लीं। आज क्रोध तैयार था। तुम दफ्तर से भरे आए थे। क्रोध तो आया था दफ्तर में मालिक पर, लेकिन मालिक पर क्रोध बताना बहुत महंगा सौदा हो जाएगा। वहां तुम न बता पाए। वहां तो तुम मुस्कुराते रहे। वहां तो तुम पूंछ हिलाते रहे। अब क्रोध भरा है हृदय में, वह बरसना चाहता है। तुम कोई कमजोर व्यक्ति चाहते हो, जिस पर टूट पड़े।
पत्नी हमेशा उपयोगी है। उसके कई उपयोग हैं। बड़ा उपयोग तो यह है, कि हारे-पिटे बाजार से लौटे, पत्नी पर टूट पड़े। अब पति पत्नी पर टूटे तो पत्नी क्या--उसकी मारपीट तो कर नहीं सकती। पश्चिम में तो उन्होंने शुरू कर दी, पूरब में अभी नहीं कर सकती। तो वह बेटे की राह देखेगी। जब वह स्कूल से लौट आए, तब वह बेटे पर टूट पड़ेगी। क्योंकि पति तो परमात्मा है। ऐसा पतियों ने ही पत्नियों को समझवा दिया है। हजारों साल से शिक्षण दिया है, कि पति परमात्मा है। पत्नियां जानती भी हैं कि हैं नहीं परमात्मा; भलीभांति जानती हैं। उनसे ज्यादा और कौन जानेगा? लेकिन मानना पड़ता है।
जैसे पति डरता है दफ्तर में मालिक को नाराज करने से, ऐसा पत्नी भी डरती है इस मालिक को नाराज करने से, जो पति है। क्योंकि उसकी भी आर्थिक रूप से वैसी ही परतंत्रता है, जैसी तुम्हारी दफ्तर में है। वह कमा नहीं सकती। तुम पर आर्थिक रूप से निर्भर है। वह क्या करे? वह प्रतीक्षा करेगी। ऐसे ऊपर से कुछ नहीं कहेगी, सब ठीक चलेगा, लेकिन बच्चे की राह देखेगी। यह सब अचेतन हो रहा है। यह मूर्च्छा--
बच्चे का कोई कसूर नहीं है। बच्चा अपना खेलता-कूदता चला आ रहा है। उसे कुछ पता ही नहीं हैं, कि घर में कौन सा उपद्रव राह देख रहा है। वह कोई भूल देख लेगी, कि तुम आज कपड़ा खराब करके लौटे, कि धूल लगा ली, कि कीचड़ लगा ली, कि स्लेट फोड़ डाली। वह रोज ही यह करके लौट रहा है। मगर आज उसकी पिटाई हो जाएगी।
बच्चा क्या करे? वह जाकर कमरे में अपनी गुड़िया की टांगें तोड़कर खिड़की के बाहर फेंक देगा। वह जो दफ्तर में शुरू हुआ था, गुड़िया पर पूरा हुआ।
ऐसी अंधी यात्रा है। तुम कहीं क्रोधित हो, कहीं निकालते हो। तुम कहीं प्रेम से भरते हो, कहीं उंडेलते हो। तुम जागकर नहीं जी रहे हो। तुम आज क्रोधित होते हो, सालभर बाद निकालते हो। भरा रहता है। भरते चले जाते हो।
मनस्विद कहते हैं कि जो व्यक्ति रोज क्रोध कर लेते हैं, वे खतरनाक नहीं हैं क्योंकि उनका क्रोध छोटा छोटा है। छोटा सा बादल आया, बरसा, चला गया। लेकिन जो लोग क्रोध को इकट्ठा करते चले जाते हैं और शांत बने रहते हैं, वे बड़े खतरनाक हैं। जिस दिन उनका बादल आएगा उस दिन वे किसी की हत्या करेंगे, इससे कम नहीं। वे किसी दिन किसी का प्राण लेंगे। ऐसे आदमी से जरा बचकर रहना, जो रोज-रोज क्रोध न करता हो। क्योंकि वह किसी दिन--जिस दिन फूटेगा तो विस्फोट होगा।
तुम्हारा मन तो मूर्च्छित है। इस मन से तो परमात्मा की रटन न लगेगी। मन को चित बनाना पड़ेगा। चित का अर्थ है, कॉससनेस; चैतन्य। मन को पहले जगाओ।
बुद्ध से कोई पूछता था, हम परमात्मा को कैसे खोजें? वे कहते, यह बात ही मत करो। परमात्मा का तुमसे क्या लेना-देना! तुम्हारा परमात्मा से क्या लेना-देना! तुम चित को जगाओ। बुद्ध ने परमात्मा की बात ही नहीं की। वे कहते, तुम चित को जगाओ, फिर शेष अपने से होगा। एक बार तुम जागकर देखने लगो जीवन को, थोड़ी सी होश की किरण आ जाए, थोड़ी सी तुम्हारी आंखों में देखने की क्षमता आ जाए, कानों में सुनने की क्षमता आ जाए, हाथ में छूने की क्षमता आ जाए, तो तुम खुद ही पाओगे, कि यह जीवन कुछ भी नहीं है। तुम किसी और जीवन की खोज से भर जाओगे।
"मन चित चातक ज्यूं रटै'--और जैसे चातक रटता ही रहता है, अपने प्यारे को ही पुकारता रहता है, "पिऊ पिऊ' की आवाज लगाए रहता है और प्रतीक्षा करता है, ऐसा यह मन चित-चातक अब एक ही रटन से भर गया है--"पिव पिव लागी प्यास।'
"दादू दरसन कारने पुरवहु मेरी आस।'
कुछ चाहिए नहीं; सिर्फ दर्शन के कारण, सिर्फ दर्शन की इच्छा है। कुछ चाहिए नहीं। परमात्मा की तरफ अगर तुम कुछ मांगते गए तो तुम गए ही नहीं। क्योंकि तुम्हारी सब मांग संसार की मांग होगी। तुम मांगोगे कि बेटा बीमार है, ठीक हो जाए। अदालत में मुकदमा है, जीत जाऊं। बेटा पैदा नहीं होता, पैदा हो जाए। तुम कुछ भी मांगते जाओगे, तुम परमात्मा को नहीं मांग रहे। तुम्हारी हर मांग संसार की मांग होगी।
परमात्मा को मांगने वाला तो कुछ भी नहीं मांगता। वह तो कहता है, दर्शन काफी है। तुम दिख जाओ, बस, इतना पर्याप्त है। तुम दिख गए फिर और बचता भी क्या है? तुम्हें देख लूं भर आंख--पर्याप्त है। इससे ज्यादा की कोई आकांक्षा नहीं है। "दादू दरसन कारने पुरवहु मेरी आस। बस, मेरी एक आस है, एक ही आकांक्षा है, कि तुम्हें देख लूं। सत्य को देख लूं।
क्यों? इतनी सी आस पर क्यों रुक जाता है भक्त? क्योंकि भक्तों ने जाना है सदियों में निरंतर अनुभव से, कि जिसका दर्शन हो गया परमात्मा से, दिखाई पड़ गया, वह उसके साथ एक हो जाता है। जान लिया जिसने सत्य, वह सत्य हो जाता है। परमात्मा को देख लिया जिसने, वह परमात्मा हो जाता है। उस दर्शन के बाद कोई लौटता नहीं है। उस दर्शन के बाद तुम बचते नहीं। वह दर्शन इतनी महाअग्नि है, कि वह तुम्हें समाहित कर लेती है अपने में। तुम अपने घर वापिस लौट जाते हो। इसलिए दर्शन की बात मांगनी काफी है; बाकी शेष अपने आप हो जाता है।
"दादू दरसन कारने पुरवहु मेरी आस।'
दादू विरहिन दुख कासनि कहे कासनि देइ संदेस।
पंथ निहारत पीव का विरहिन पलटे केस।'
कहते हैं, कि मैं किससे कहूं अपना दुख? विरहन दुख कासनि कहे? दुख मैं किससे कहूं? क्योंकि मेरा दुख दूसरे लोग समझ भी न पाएंगे। वे तो समझेंगे कि तुम दीवाने हो गए, पागल हो गए। अगर तुमने किसी से कहा...।
बैठे रो रहे हो; अगर तुम किसी से कहो--किसलिए रो रहे हो? और तुम कहो कि तिजोड़ी खो गई, वह समझ लेगा, कि बात ठीक है। वह भी रोता अगर तिजोड़ी खो जाती है। तुम कहो कि पत्नी मर गई, वह कहेगा बिलकुल ठीक है। हम भी रोते अगर पत्नी मर जाती। लेकिन तुम अगर कहो कि परमात्मा का दर्शन नहीं हो रहा है इसलिए रो रहे हैं, तो वह तुम्हारी देखेगा इस तरह, जैसे तुम पागल हो गए हो। तिजोड़ी की बात समझ में आती है, दीवाला निकल गया, रो रहे हो, समझ में आता है; पत्नी जल गई, रो रहे हो, समझ में आता है; हार गए जीवन में, समझ में आता है। लेकिन परमात्मा के दर्शन के लिए रो रहे हो, किसी की समझ में न आएगा। वह प्यास जिनको समझ में आती है, उनको ही वह भाषा भी समझ में आएगी।
दादू विरहिन दुख कासनि कहे? किससे कहूं यह अपना दुख? किससे कहूं यह विरह? किससे कहूं यह पीड़ा?
और "कासन देइ संदेस'--और किसके हाथ संदेश भेजूं? परमात्मा के पास कैसे संदेशा जाए? कैसे परमात्मा को खबर करूं, कि मेरी पीड़ा का अब अंत करो? कोई उपाय नहीं दिखाई पड़ता। संदेश भेजने की कोई सुविधा नहीं है। अपने दुख को किसी से कहने का उपाय नहीं है।
"पंथ निहारत पीव का'--इसलिए भक्त क्या करे? वह राह देखता है प्रेमी की, परमात्मा की।
"पंथ निहारत पीव का विरहिन पलटे केस।'
और तैयार करता रहता है अपने को, कि पता नहीं तुम किसी भी क्षण में आ जाओ। ऐसा न हो, कि तुम मुझे गैरत्तैयार पाओ। तो अपने केस को सम्हालती जाती है और राह को देखती रहती है। विरहन केश को सम्हालती जाती है। यह बड़ी प्यारी बात है। सारा संन्यास केश को सम्हालना है परमात्मा के लिए। सारी साधना स्वयं को तैयार करना है उस घड़ी के लिए, कि अगर वह आ ही जाए, तो ऐसा न हो, कि वह मुझे गैरत्तैयार पाए।
रवींद्रनाथ की एक बड़ी महत्वपूर्ण कविता है। एक बड़ा मंदिर है, जिसमें सौ पुजारी हैं। प्रधान पुजारी को स्वप्न आया है, कि परमात्मा ने कहा, कि कल मैं आता हूं। हजारों साल पुराना मंदिर है। हजारों साल से पूजा-अर्चना हुई है। ऐसा कभी हुआ नहीं, कि परमात्मा आया हो। वह पत्थर की मूर्ति की ही पूजा चलती रही है। पुजारी भी थोड़ा चौंका। उसको भी सपने पर भरोसा न आया। फिर भी उसे डर लगा सुबह, कि अगर कहीं ऐसा हो कि यह हो ही जाए, तो फिर मैं ही फंसूंगा।
तो उसने सब पुजारियों को इकट्ठा कर लिया और कहा, कि ऐसा सपना आया है। भरोसा मुझे है नहीं, यह मैं कहे देता हूं। मैं कोई पागल नहीं हूं, कि सपने पर भरोसा करूं। लेकिन तुमसे सपना भी कहे देता हूं। अब तुम जैसा सब सोचो वैसा हम करें। सभी ने कहा कि कहीं आ ही जाए, तो फिर सब क्या करेंगे? इसलिए तैयारी तो कर लेनी चाहिए। हर्ज कुछ भी नहीं है। अगर न आया तो जो भोग के लिए तैयार करेंगे वह हम ही प्रसाद ले लेंगे। और ऐसे भी मंदिर की सफाई नहीं हुई बहुत दिन से, सफाई हो जाएगी।
तो दिनभर मंदिर की सफाई की गई, भोग तैयार किया गया, फूल सजाए गए, धूप बारी गई, मगर भरोसा तो किसी को था नहीं। मंदिर के पुजारियों से ज्यादा कम भरोसे वाले आदमी और कहीं पाना भी मुश्किल है। पुजारी तो भलीभांति जानता है कि यह सब ढौंग है, धंधा है। वह तो जानता है, यह पत्थर की मूर्ति है, इसमें कुछ सार नहीं है। अगर वह उसके सामने आरती भी झुलाता है, तो वह पत्थर की मूर्ति को प्रसन्न करने के लिए नहीं, वे जो पीछे खड़े भक्तगण हैं जिनसे उनकी तनख्वाह मिलती है, उनको प्रसन्न करने के लिए। उसकी आरती समाज की आरती है, सत्य की नहीं। वह तुम्हारी पूजा कर रहा है क्योंकि तुमसे नौकरी पा रहा है। वह तो भलीभांति जानता है कि सब सपने सपने हैं।
लेकिन तैयारी की, सब तरफ आयोजन किया। सांझ होने लगी, परमात्मा सांझ तक न आया। फिर शक-शुब्बा पैदा हो गया। लोगों ने कहा, हम पहले ही जानते थे यह सपना है। फिजूल हमने मेहनत की। पर अब जो हुआ, हुआ। दिनभर के थके-मांदे थे भोग का प्रसाद लगा लिया, फिर सब गहरी नींद में सो गए।
रात आधी रात एक पुजारी ने घबड़ाकर नींद में कहा, मुझे रथ की गड़गड़ाहट सुनाई पड़ती है। दूसरे पुजारी चिल्ला पड़े, नाराज हुए, और उन्होंने कहा, बंद करो बकवास। एक के सपने के पीछे दिनभर परेशान हुए, अब तुम्हें सपने में रथ की गड़गड़ाहट सुनाई पड़ती है। शांति से सो जाओ। अब नींद खराब मत करो, बहुत हो गई प्रतीक्षा। न कोई है, न कोई आने वाला है। लेकिन तब दूसरे पुजारी ने कहा, नहीं, लेकिन गड़गड़ाहट तो मुझे भी सुनाई पड़ती है। रथ आता मालूम होता है। तो तीसरे ने कहा, यह रथ की गड़गड़ाहट नहीं है, आकाश में बादलों का गर्जन है।
फिर वे सो गए। फिर रथ द्वार पर आकर रुका, ऐसा किसी को लगा कोई सीढ़ियां चढ़ने लगा, फिर किसी ने द्वार पर दस्तक दी। तब कोई चौंककर बैठ गया और उसने कहा, कि मुझे लगता है, कि उसने द्वार पर दस्तक दी। अब तो बाकी लोग बहुत नाराज हो गए। उन्होंने कहा, रातभर सोने न देंगे। तुम सभी पागल हो गए? हवा का झोंका है, द्वार को थपथपा रहा है। न कोई है, न कोई आने को है। और अब किसी को कुछ भी सुनाई पड़े, वह अपने मन में भीतर रखे। कहने की जरूरत नहीं। हमारी नींद खराब मत करो।
फिर वे सब गहरी नींद में सो गए। सुबह उठे तब देखा, कि द्वार पर रथ आया था। क्योंकि चाक के चिह्न थे। सीढ़ियों पर कोई चढ़ा था क्योंकि सीढ़ियों की धूल पर पदचिह्न थे। द्वार पर किसी ने दस्तक दी थी लेकिन अब बड़ी देर हो गई थी। अवसर चूक गया था।
और ऐसा तुम्हारे जीवन में भी हो सकता है। यह रवींद्रनाथ की कविता सिर्फ कविता नहीं है। एक बहुत गहरे सत्य का दर्शन है। बहुत बार परमात्मा ने तुम्हारे द्वार पर भी दस्तक दी है। बहुत बार उसकी छाया ने तुम्हारे सपनों को घेरा है। बहुत बार, बहुत-बहुत बार, अनंत-अनंत यात्राओं में तुम उसके बहुत करीब आ गए हो, लेकिन पहचान नहीं पाए। कभी तुमने कहा, बादलों की गड़गड़ाहट है। कभी तुमने कहा, हवा का झोंका है।
जिन्होंने जाना है वे तो बादलों की गड़गड़ाहट में भी उसी का गर्जन सुनते हैं। जिन्होंने नहीं जाना है, वे उसकी वाणी में भी बादलों की गड़गड़ाहट पहचानते हैं। जिन्होंने जाना है, उन्होंने तो हवा की थपकी में भी उसी की थपथपाहट सुनी है, और जिन्होंने नहीं जाना उन्होंने उसके द्वार पर आकर थपथपाने भी पर कहा है, कि हवा का झोंका है।
व्याख्या तुम्हारी है। जो जानता है, वह परमात्मा को सब जगह पाता है। सभी जगह उसका रथ है। और सभी जगह उसके रथ के चिह्न हैं। सभी तरफ से वह आता है। सभी तरफ उसके पदचिह्न हैं। सब तरफ से तुम्हें ठकठकाता है, पर तुम सोए हो। और अगर तुम्हारे मन का कोई कोना कहता भी है कि जागो; तो तुम कहते हो, सोओ। नींद खराब मत करो। हवा का झोंका है। आया है, चला जाएगा। कहीं कोई परमात्मा है आने को!
दादू कहते हैं, "पंथ निहारत पीव का विरहिन पलटे केस।' अपने बाल भी संभालती जाती है, लौट-लौटकर राह पर भी देखती जाती है। आते हो, तो कम से कम बाल तो संवारे मिल जाएं। कहीं ऐसा न हो, कि वह आ जाए और विरह की उदासी से ही स्वागत हो।
इसलिए संत की अवस्था को तुम ठीक से समझने की कोशिश करो। वह तुम्हें बाहर से बिलकुल प्रसन्न और आनंदित दिखाई पड़ता है--केश संवारे। लेकिन भीतर एक गहन पीड़ा और गहन रुदन भी है। वह प्रभु के लिए पुकार रहा है। भक्त तुम्हें बाहर से तो बड़ा प्रसन्न दिखाई पड़ता है। नाचता हुआ दिखाई पड़ता है। भीतर उसके एक कांटा भी चुभा है। वह नाच रहा है किसी के लिए कि वह आए, तो उदास न पाए, नाचता हुआ पाए। लेकिन भीतर वह पुकारे जा रहा है--
"मन चित्त चातक ज्यूं रटै पिव पिव लागी प्यास।
दादू दरसन कारने पुरवहु मेरी आस।
(दादू) विरहिन दुख कासनि कहै कासन देइ संदेस।
पंथ निहारत पीव का विरहिन पलटे केस।
ना बहु मिले न मैं सुखी, कहु क्यूं जीवन होई।
जिन मुझको घायल किया मेरी दारु सोई।'
"ना वह मिलै न मैं सुखी'--जीवन में सिर्फ एक ही सुख है। वह है परमात्मा से मिल जाना। शेष सब कितना ही सुख दिखाई पड़े, दुख ही है। आज नहीं कल--
हर सुख को तुम पलटोगे और दुख छिपा हुआ पाओगे। हर सुख को उघाड़ोगे और दुख को छिपा हुआ पाओगे। सुख तो केवल घूंघट है दुख का। बस, जब तक घूंघट पड़ा है तब तक ठीक। घूंघट उठाया, कि दुख से मिलन होगा। दुख असलियत है, सुख सिर्फ घूंघट है। और ऐसा तुम्हें भी रोज-रोज अनुभव होता है, मगर तुम अपने अनुभव से सीख नहीं पाते।
मनुष्य के जीवन का सबसे बड़ा दुर्भाग्य यही है कि वह अपने अनुभव से भी सीख नहीं पाता। अनुभव तो होते हैं, लेकिन सीख नहीं निचोड़ पाता। अनुभव ऐसे पड़े रह जाते हैं, जैसे माला न हो, तो मनके पड़े रह जाएं अलग-अलग। सीख का अर्थ है जिसने मनके पिरोकर माला बना ली; एक धागा पिरो लिया।
तुमने भी अनुभव किए हैं। तुम्हारे अनुभव में और दादू के अनुभव में, कोई फर्क नहीं है। फर्क इतना ही है, तुम्हारे पास पास मनकों का ढेर लगा है लेकिन हर मनका स्वतंत्र मालूम पड़ता है। तुम मनकों के बीच एक धारा को जोड़ने में समर्थ नहीं हो पाए। अनुभव तो तुम्हारे पास है, लेकिन सिखावन नहीं है। तुम सीख नहीं पाए। अनुभव तो तुम्हारे पास है, लेकिन सिखावन नहीं है। तुम सीख नहीं पाए अनुभव से। एक अनुभव हुआ, गया; दूसरा हुआ गया; लेकिन दोनों के बीच से तुम निचोड़ न पाए सार। ऐसे करोड़-करोड़ अनुभव तुम्हें हुए हैं, लेकिन तुम उनसे सीख नहीं ले पाए। सीख का मतलब है, सभी अनुभवों का सार। सीख इत्र है--हजार फूलों को निचोड़कर जो बनता है, हजार अनुभव को निचोड़कर जो बनता है। तुमने फूलों के तो ढेर लगा लिए हैं--लेकिन इत्र नहीं निकाल पाए। और इत्र ही असली बात है।
"ना वहु मिले न मैं सुखी कहु क्यों जीवन होई।'
और अगर उससे मिलन न हो, तो मुझे जीवन की कोई आकांक्षा नहीं। फिर जीवन न हो, यही अच्छा।
दादू यह कह रहे हैं, कि अगर परमात्मा नहीं है और परमात्मा से मिलन नहीं है, तो जीवन से मौत भली। कम से कम विश्राम तो होगा। व्यर्थ की आपाधापी तो बचेगी। नाहक की दौड़-धूप से तो छूटेंगे। फिर जीवन का कोई अर्थ नहीं। जीवन का एक ही अर्थ हो सकता है और वह है, परमात्मा से मिलन। समग्र से एक हो जाऊं, तो ही जीवन में अर्थ हो सकता है। अलग-अलग तुम खड़े रहो, तुम्हारा जीवन व्यर्थ होगा। अर्थ का अर्थ ही होता है, समग्र के साथ तुम्हारी संगति बैठ जाए।
तुम ऐसा समझो, कि एक कविता की एक पंक्ति को फाड़कर मैं तुम्हें दे दूं; उस पंक्ति में कुछ ज्यादा अर्थ न होगा। लेकिन वही पंक्ति पूरी कविता में बड़ी सार्थक थी। फिर ऐसा समझो, कि पंक्ति को भी फाड़कर एक शब्द ही तुम्हारे हाथ में दे दूं; उसमें और भी कम अर्थ रह जाएगा। पंक्ति में थोड़ा-बहुत अर्थ भी था।
फिर तुम ऐसा समझो, कि शब्द को भी तोड़कर बचे हुए वर्णों को तुम्हें दे दूं, तब तो और भी अर्थ हो जाएगा। "अ ब स ड' इनमें क्या अर्थ हैं? लेकिन इसी बारहखड़ी से कालीदास के सारे ग्रंथ निर्मित होते हैं, शेक्सपियर का सारा काव्य निर्मित है। इन्हीं शब्दों से बुद्ध के वचन निर्मित हैं कृष्ण की गीता, मोहम्मद का कुरान। तब बड़े अर्थपूर्ण हैं वे।
अब यह बड़े आश्चर्य की बात है। वर्णों में तो कोई अर्थ नहीं होता, अल्फाबेट तो अर्थशून्य होती है। फिर दो वर्ण मिलते हैं, शब्द बनता है। शब्द में थोड़ा अर्थ होता है। फिर शब्द मिलते हैं, पंक्ति बनती है; पंक्ति में और भी थोड़ा अर्थ होता है। फिर पंक्तियां मिलती हैं और गीत निर्मित होता है; फिर गीत में और भी अर्थ होता है।
तुम अभी वर्णाक्षरों की भांति हो। अकेले अकेले खड़े अ ब स ड--कुछ अर्थ नहीं। शब्द बनो, पंक्ति में जुड़ो, फिर उसके महाकाव्य के हिस्से हो जाओ। तब तुम्हारे जीवन में अर्थ आएगा। अर्थ सदा परमात्मा का है। परमात्मा का अर्थ है, पूरे का। व्यक्ति का कोई अर्थ नहीं है, अर्थ समष्टि का है।
"ना बहु मिले न मैं सुखी'--और बिना अर्थ के कभी कोई सुखी हुआ? व्यर्थ जीकर कभी कोई सुखी हुआ? सुख तो अर्थपूर्ण जीवन की सुगंध है। जहां अर्थ होता है जीवन में, वहां सुख की सुगंध पैदा होती है। वह सुवास है।
"ना वहु मिले न मैं सुखी कहु क्यूं जीवन होई।'
उसके बिना तो जीवन का कुछ होने का अर्थ नहीं है।
"जिन मुझको घायल किया मेरी दारू सोई।'
कहते हैं दादू--और जिसने मुझे घायल किया है, वही मेरी दवा है। परमात्मा से कम दवा पर वे राजी नहीं हैं। शास्त्र से उन्हें तृप्ति नहीं होती। सिद्धांत से उन्हें प्यास नहीं बुझती। कितना ही प्रत्यय और धारणाओं का जाल खड़ा कर दिया जाए, उससे कुछ राहत नहीं आती। वे तो कहते हैं, जिन मुझको घायल किया--जिसने मुझे घायल किया है, मेरी दारू सोई; वही मुझे दवा दे। वही मेरी दवा बने।
परमात्मा से कम पर जो राजी होने को राजी है, वह कभी परमात्मा तक नहीं पहुंच पाएगा।
रास्ते में बड़े प्रलोभन हैं। बहुत चीजें रास्ते में आती हैं। पहले तो संसार है खड़ा हुआ। उसमें बड़े प्रलोभन हैं कामवासना के, पद-वासना के, धन-वासना के बड़े प्रलोभन हैं।
किसी तरह उनसे छूटो, सत्य की यात्रा पर चलो, तो भीतर की जगत की शक्तियां हाथ में आनी शुरू हो जाती है। तुम कुछ ऐसा कर सकते हो जिससे लोग चमत्कृत हो जाएं। डर है, कि कहीं तुम मदारी बनकर समाप्त न हो जाओ।
अगर तुम्हारी आकांक्षा परमात्मा के लिए ही नहीं है, तो तुम कहीं न कहीं रुक जाओगे; कहीं न कहीं पड़ाव को मंजिल समझ लोगे। रात रुकने के लिए ठीक था, लेकिन सदा वहीं रह जाने के लिए ठीक न था। और आगे जाना है। वहां पहुंचना है जिसके आगे "और आगे' समाप्त हो जाता है। उसके पहले नहीं रुकना है।
"जिन मुझको घायल किया मेरी दारू सोई।
दादू कर बिन सर बिन कमान बिन मारे खेंचि कसीस।
लागी चोट सरीर में नख सिख सालै सीस।'
न तो उसके हाथ हैं, न उनके हाथों में कमान है, न कमान पर कोई तीर है,--दादू कर बिन सर बिन कमान बिन मारे खींच कसीस; लेकिन फिर भी उसने ऐसा खींचकर निशाना मारा है। हाथ नहीं, हाथ में कमान नहीं, कमान पर तीर नहीं, फिर भी उसने ऐसा खींचकर निशाना मारा है--"लगी चोट शरीर में नख सिख सालै सीस।' और ऐसी चोट लगी है कि नाखून से लेकर पैर के और सिर तक पीड़ा ही पीड़ा हो गई है। पूरा हृदय तन, मन, देह सब एक ही ज्वाला से जल रहे हैं।
"मन चित चातक ज्यूं रटै पिव पिव लागी प्यास।
दादू दरसन कारने पुरवहु मेरी आस।
विरह जगावै दरद का दरद जगावै जीव।
जीव जगावै सुरति को पंच पुकारै पीव।'
चोट लग जाए उसकी, तो विरह पैदा होता है। विरह पैदा हो जाए तो दर्द पैदा होता है। दर्द पैदा हो जाए तो जीवन में जागरण आने लगता है। जागरण आ जाए तो सुरति सधती है। और सुरति सध जाए तो फिर न केवल आत्मा उसको पुकारती है, पंच तत्व भी, शरीर के पांच तत्व भी उसी की पुकार से भर जाते हैं। तब समग्र तन प्राण उसी को पुकारने लगता है।
"विरह जगावे दरद को'--तो पहली बात है, विरह। वहां से सूत्रपात है, वहां से यात्रा का प्रस्थानबिंदु। जिनको विरह ही नहीं है, उनके लिए तुम लाख समझाओ, कि जागो; वे जगेंगे न। उनको तुम लाख समझाओ कि परमात्मा की प्यास से भरो; वे सुनेंगे, लेकिन उनकी समझ में कुछ भी न आएगा, कि कैसी प्यास! किसकी प्यास! उनको लगेगा सब बातें हवाई हैं, हवा में हो रही हैं।
दर्द की बात है। और दर्द तो पैदा होता है विरह से।
मिश्र में एक पुरानी कहावत है कि इसके पहले कि तुम परमात्मा को चाहो, परमात्मा तुम्हें चाहता है। अन्यथा विरह कैसे पैदा होगा? विरह तो कोई पैदा नहीं कर सकता। वही पैदा कर सकता है। इसके पहले कि तुम उसकी तरफ जाओ, वह तुम्हें बुलाता है।
और यह ठीक भी है, कि पहले वही बुलाए, पहले उसी का निमंत्रण आए; क्योंकि उसी का सब कुछ है। तुम भी उसी के हो। तुम अपने तईं उसको खोज भी कैसे पाओगे, अगर वह मिलने को राजी ही न हो? उसका मिलने के लिए राजी होना पहली घटना है। जब वह मिलने को राजी होता है तभी तुम्हारे जीवन में विरह उठता है।
और विरह उठ जाए--विरह का अर्थ है, एक गहरा आकर्षण। सब फीका फीका लगने लगता है। यह दुनिया सपना और माया जैसी लगने लगती है। करते हो, उठते हो, काम-धाम है। सब निपटाना है, कर्तव्य है; पर नाटक हो जाता है। रस खो जाता है। एक तटस्थता बनने लगती है। बाहर की तरफ से एक गहन उदासीनता आ जाती है। ठीक है! हो तो ठीक, न हो तो ठीक। चलते हो, क्योंकि चलना है। लेकिन अब पैरों में कोई पागलपन नहीं रह जाता चलने का। किसी भी क्षण राजी हो इस राह से उतर जाने को। जब मौका मिलेगा तभी उतर जाओगे। संसार एक बड़ा नाटक, जीवन एक अभिनय हो जाता है। विरह के जगते ही, होते यहां हो, यहां होते नहीं। खड़े होते हो बाजार में, बाजार में नहीं खड़े होते। याद उसकी ही सताए चली जाती है। पुकारता वही रहता है। जहां कहीं हो, सोओ, जागो तो भी उसकी पुकार लगी रहती है।
ऐसा हुआ कि, स्वामी राम अमरीका से वापिस लौटे। उनके एक मित्र सरदार पूर्णसिंह उनके पास ठहरे। पुराने बचपन के साथी थे। टिहरी गढ़वाल में दूर पहाड़ी में बने एक छोटे से मकान में थे। आसपास कोई भी न था, मीलों तक सन्नाटा था पहाड़ों का। रात दोनों सोए। पूर्णसिंह को नींद न लगी क्योंकि कुछ आवाज सुनाई पड़ने लगी। थोड़े हैरान हुए। गौर से सुना तो आवाज समझ आने लगी, "राम-राम-राम' की कोई धुन लगा रहा है। कौन यहां राम की धुन लगा रहा होगा? उठकर बाहर आए, बरामदे में चक्कर लगाया, दूर-दूर तक सन्नाटा है। कहीं कोई नहीं दिखाई पड़ता।
और हैरानी हुई, कि जितने कमरे से दूर गए उतनी ही आवाज धीमी सुनाई पड़ने लगी। कमरे में वापिस आए, आवाज तेजी से सुनाई पड़ने लगी। और राम तो सो रहे हैं। राम के पास गए तो आवाज और और जोर से सुनाई पड़ने लगी। बहुत हैरान हुए। पैर की तरफ कान रखा, हाथ की तरफ कान रखा, सिर की तरफ कान रखा, पूरे तन-प्राण से राम की एक ही आवाज उठ रही है--राम-राम-राम। घबड़ा गए, कि यह हो क्या रहा है? यह तो संभव नहीं मालूम होता। जगाया, राम से पूछा, क्या मामला है?
राम ने कहा, होता है; कुछ दिनों से होता है। पहले तो मैं राम की याद करता था, वह सिर में ही गूंजती थी। मेरी वाणी पर ही उतरती थी। कंठ तक रह जाती थी। फिर गहरी उतरी। हृदय तक पहुंची। फिर धीरे-धीरे मुझे कहने की जरूरत ही न रही, वह अपने आप गूंजने लगी। मैं सुनने वाला हो गया। फिर दिन में होती थी, रात नहीं होती थी। फिर धीरे-धीरे रात भी समा गई। अब चौबीस घंटे मेरे बिना किए चल रही है--अहर्निश!
ऐसी स्थिति को संतों ने अजपा जाप कहा है--जब तुम करते नहीं और होता है। ऐसी घड़ी के बाद ही उस परम से मिलन की संभावना बनती है। यह तुम्हारी तैयारी हो रही है। यह तुम्हारा संगीत सध रहा है। तुम लयबद्ध हो रहे हो।
लेकिन ध्यान रखना, वही जगाता है। पहले वही उठाता है। धन्यभागी हैं वे, जिनके जीवन की विरह की बूंद आ गई। उसका मतलब है, सागर का निमंत्रण आ गया। धन्यभागी हैं वे, जिनके मन में पीड़ा उठने लगी--अज्ञात की पुकार। धन्यभागी हैं क्योंकि परमात्मा ने उन्हें चुन लिया। तुम तो बाद में ही चुनोगे। पहले वह तुम्हें चुन लेता है।
और फिर जब दर्द से भर जाती है जीवन-धारा, तो, तो तुम जाओगे ही। सुख में तो आदमी सो जाए, दर्द में कैसे सोएगा? सुख सुलाता है। इसलिए भक्तों ने कहा है, सुख मत देना, दुख देना।
जुन्नैद एक सूफी फकीर हुआ। वह रोज परमात्मा से प्रार्थना करता था, कि दुख देना जारी रखना; सुख मत देना। एक दिन उसके भक्त ने सुन लिया, वह बहुत हैरान हुआ। उसने कहा, इसका राज बताओ। या तो तुम पागल हो, या मैंने गलत सुना। क्या तुमने यही कहा, कि सुख मत देना, दुख देना? यह कैसी प्रार्थना!
जुन्नैद ने कहा, धीरे-धीरे समझे हम, तब से यही प्रार्थना करते हैं क्योंकि दुख जगाता है, सुख सुला देता है। सुख तो एक तरह की तंद्रा है। इसीलिए तो लोग सुख में परमात्मा की याद भूल जाते हैं। बस, दुख में ही याद आती है।
"विरह जगावे दरद को दरद जगावे जीव'--तब जागरण सधने लगता है।
"जीव जगावे सुरति को'--और जब जागरण बहुत गहन हो जाता है तो उसी जागरण की गहनता से स्मरण आता है परमात्मा का; सुरति जगती है।
"पंच पुकारे पीव'--और फिर आत्मा ही नहीं पुकारती, फिर तो शरीर का रोआं-रोआं भी, यह पंच तत्वों से बनी देह भी उसी को पुकारने लगती है। है तो यह भी उसी की। छिपा तो इसमें भी वही है। यह देह भी तो कभी न कभी उस तक पहुंच ही जाएगी। सभी उसकी यात्रा पर हैं। कोई थोड़ा आगे है, कोई थोड़ा पीछे है। तुम थोड़े आगे, तुम्हारी देह थोड़ी पीछे; लेकिन है तो उसी की यात्रा; पहुंचना तो वहीं है। सारा अस्तित्व अंततः तो उसी में लीन होना है, जहां से स्रोत है। वही नियति है अंतिम।
लेकिन दर्द चाहिए, विरह चाहिए। तुम्हारे जीवन में कई बार विरह उठती है, तुम उसे सम्हाल लेते हो। तुम कहते हो, पागल थोड़े ही होना है! रोक लेते हो, थाम लेते हो अपने हृदय को। मौका चूक जाते हो। वह बुलाता है, तुम बहरे हो जाते हो। वह पुकारता है, तुम अपने को सम्हाल लेते हो। तुम कहते हो, पागल थोड़े ही होना है!
अब जब दुबारा वह पुकारे, अब जब दुबारा, "दादू कर बिन सर बिन कमान बिन मारै खींच कसीस'--अब जब वह बिना हाथों के, बिना धनुष के, बिना बाण के खींचे और मारे तीर को और निशाने को, तो लग जाने देना चोट को। पागल होना हो, तो पागल हो जाना। क्योंकि अभी तुम्हारा जो जीवन है, वह पागलपन है। अभी तुमने जिसे प्रकाश समझा है वह अंधकार है और जिसे जीवन समझा है, वह सिर्फ मृत्यु का आवरण है।
ऐसी घटना मैंने सुनी है। अमीर खुसरो एक बहुत अदभुत कवि हुआ। वह साधारण कवि न था, ऋषि था। उसने जाना था, वही गाया है। और खूब गहराई से जाना था। उसके गुरु थे निजामुद्दीन औलिया, एक सूफी फकीर। निजामुद्दीन औलिया की मृत्यु हुई, तो हजारों भक्त आए। अमीर खुसरो भी गया अपने गुरु को देखने। लाश रखी थी, फूलों से सजी थी। अमीर खुसरो ने देखी लाश, और कहा,
"गौरी सोवत सेज पर मुख पर डारे केश। चले खुसरो घर आपने रैन भई यह देश।'
खुसरो ने कहा, "गौरी सोवत सेज पर मुख पर डारे केश।" यह गोरी सो रही है सेज पर। मुख पर केश डाल दिए गए। "चल खुसरो घर आपने--अब यह वक्त हो गया, अब रोशनी चली गई इस संसार से, अब यहां सिर्फ अंधकार है। "चल खुसरो घर आपने रैन भई यह देश। यह देश अब अंधेरा हो गया, रात हो गई।
और कहते हैं, यह पद कहते ही खुसरो गिर पड़ा और उसने प्राण छोड़ दिए। बस, यह आखिरी पद है, जो उसके मुंह से निकला। तुमने जिसे रोशनी जानी है, वह रोशनी नहीं है। खुसरो ने रोशनी देख ली थी निजामुद्दीन औलिया की। उस रोशनी के जाते ही सारा देश अंधकार हो गया--रैन भई इस देश। चल खुसरो घर आपने। अब हम भी अपने घर चलें, अब वक्त--अब यहां कुछ रहने को बचा न।
खुसरो ने निजामुद्दीन औलिया में जीवन का दीया पहली-दफा देखा। जाना कि जीवन क्या है! पहचाना, प्रकाश क्या है! होश में आया, कि होना क्या है! उस दीए के बुझते ही उसने कहा, अब हमारे भी घर जाने का वक्त आ गया।
तुम जिसे अभी प्रकाश समझ रहे हो, वह प्रकाश नहीं है। और तुम जिसे अभी जल समझ रहे हो, वह जल नहीं है। और जिससे तुम अभी प्यास बुझाने की कोशिश कर रहे हो, उससे प्यास बुझेगी नहीं, बढ़े भला!
एक ही बात का खयाल रखो और प्रतीक्षा करो, कि उसका तीर तुम्हारे हृदय में बिंध जाए। और तुम्हारे नख से लेकर सिर तक विरह की पीड़ा में तुम जल उठो। एक ही प्रार्थना हो तुम्हारी अभी, कि तेरा विरह चाहिए। तेरा निमंत्रण चाहिए। तू बुला। तेरी पुकार चाहिए। एक ही प्रार्थना और एक ही भाव रह जाए, कि उससे मिले बिना कोई सुख, कोई आनंद संभव नहीं है।
तो फिर देर न लगेगी बिना हाथों के, बिना प्रत्यंचा और तीर के--उसका तीर सदा ही तैयार है। सदा सधा है, तुम इधर हृदय खोलो, उधर से तीर चल पड़ता है। तुम इधर राजी होओ, उसकी पुकार आ जाती है। कहना मुश्किल है कि उसकी पुकार पहले आती है, कि तुम पहले राजी होते हो।
यह वैसा ही है, जैसे मुर्गी-अंडे का संबंध है। कौन पहले? मुर्गी या अंडा? बहुत मुश्किल है भक्त पहले, कि भगवान पहले? बहुत मुश्किल है। पर तुम इतना तो करो ही, कि अपने हृदय को खोल दो। तुम राजी रहो। वह जब तुम्हें पुकारे तो तुम चल पड़ने को राजी रहो, पागल होने को राजी रहो। उस राजीपन में ही तुम्हारे जीवन में रूपांतरण होगा, महाक्रांति होगी।
ध्यान पर मेरा सारा जोर सिर्फ इसलिए है, कि तुम्हारा हृदय अवरुद्ध न रहे, खुल लाए। दीवाल हट जाए, तो जब वह तुम्हें पुकारे, तुम सुन लो। जब उसका हाथ बढ़े, तो तुम अपने हाथ को बढ़ाकर उसके हाथ को पकड़ लो। जब वह तुम्हें अनंत की यात्रा पर ले चले, तो तुम चल पड़ने को राजी हो जाओ।
"मन चित चातक ज्यूं रटै पिव पिव लागी प्यास।
दादू दरसन कारने पुरवहु मेरी आस।'
ऐसी चातक जैसी पुकार तुम्हारे हृदय में भी भरे। तुम भी जलो उस विरह की अग्नि से। इसे ही तुम सौभाग्य समझना। अभी तुम्हारी जो सुख-सुविधा की जिंदगी है, वह झूठ है। वह सिर्फ एक मीठा सपना है, जो कभी भी टूट जाएगा।
जितने जल्दी तुम जाग जाओ, उतना अच्छा। ऐसे ही बहुत समय जा चुका है। और अब जब उसकी रथ की गड़गड़ाहट सुनाई पड़े तो मत कहना, कि आकाश में बादल का गर्जन है। अब जब आकाश में बादलों का गर्जन सुनाई पड़े तो सुनना कि उसका रथ आ रहा है। और जब तुम्हारे द्वार पर थपथपाहट हो उसकी, तो मत कहना, कि हवा ने धक्का दिया है। अब तो जब हवा धक्का दे द्वार पर, तो उसके हाथों को पहचानने की कोशिश करना। हवा में उसी के हाथ हैं। आकाश में उसी की गड़गड़ाहट है, फूलों में उसी की गंध है। चारों तरफ उसी की चर्चा है। तुम नाहक ही बहरे बने बैठे हो।
जगाओ प्यास को। प्यास ही प्रार्थना बनती है। और प्यास की पूर्णता ही फिर परमात्मा बन जाती है।
"पिव पिव लागी प्यास।'

आज इतना ही।



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