संन्यास
है : मैं से
मुक्ति—(प्रवचन—दसवां)
दिनांक 10
दिसम्बर 1979;
श्री
रजनीश आश्रमश्
पूना।
प्रश्नसार:
प्रश्न–01
भगवान:
एक
गीत और मुझे
गाना है
गीत
तो वही है जो हुलस—हुलस
अपने
ही कण्ठों
ने गाये हों
भाव
तो वही है जो
उमग—उमग
अपने
ही प्राणों से
आये हों
क्या
होगा पर के सुरतालों
मुझको
निज सरगम पर
आना है
प्यारे
हैं—'गीत
बहुत प्यारे
हैं
रसभीगे
गीत ये
तुम्हारे हैं
इन
पर मैं
न्यौछावर
होता हूं
पर
मेरे गीत अभी
क्वारे हैं
इनका
भी ब्याह अब
रचाना है
प्राणों
का साज ही
बजाना है .......
प्रश्न—02
भगवान, मैं
अपनी जिंदगी
राजनीति में
ही गंवाया हूं
और अब जब कि
मंत्री बनने
का अवसर आया
है तब आपका संन्यास
आकर्षित कर रहा
है। मैं क्या
करूं? बडी दुनिधा
में हूं।
पहला
प्रश्न :
भगवान,
एक गीत और
मुझे गाना है
एक छन्द और
गुनगुनाना है
गीत तो वही
है जो हुलस—हुलस
अपने ही कण्ठों ने
गाये हों
भाव तो वही
है जो उमग—उमग
अपने ही
प्राणों से
आये हों
क्या होगा
पर के सुरतालों
से
मुझको निज
सरगम पर आना
है
प्यारे
हैं—गीत बहुत
प्यारे हैं
रसभीगे
गीत ये
तुम्हारे हैं
इन पर मैं
न्यौछावर
होता हूं
पर मेरे
गीत अभी
क्वारे हैं
इनका भी
ब्याह अब
रचाना है
प्राणों
का साज ही
बजाना है
जब तक वह
पाहुना न
आयेगा
आंसू की
आरती
उतारूंगा
जब तक सागर
न मिले अपना
ही
सरिता की
पीर बन पुकारूंगा
अपनी ही आग
में सुलगना है
अन्तस में
प्रीति को
जगाना है
कुछ ऐसा वर
दो भगवान
मेरे!
मैं भूला
अपने घर आ
जाऊं
कुछ ऐसा कर
दो गुरुदेव
मेरे!
मैं अपने
मितवा को पा
जाऊं
उस परम
उत्सव की घड़ियों
को
अनगाये
लौट नहीं जाना
है
एक गीत और
मुझे गाना है
एक छन्द और
गुनगुनाना हे
योग
प्रीतम! वह
गीत न तो अपना
है,.
न पराया है।
उस गीत के जगत
में न तो कोई
मैं है और न
कोई तू है। तू
को तो छोड़ना
ही है, मैं
को भी छोड़ना
है। उठता है
वह गीत शून्य
से, न वहां
मै होता है, न तू। वह गीत
न कृष्ण का है
न क्राइस्ट का,
न महावीर का
न मुहम्मद का;
वह गीत न
मेरा है, न
तुम्हारा; उस
गीत की अनुभुति,
उस गीत का
आविर्भाव
वहीं है जहां
मैं और तू
समाप्त हो गये।
जब तक यह मोह
रहेगा मन में
कि अपना गीत गाऊंगा, गीत मेरा हो,
तब तक न गा
सकोगे। तब तक
चूकते रहोगे।
वह अहंकार ही
भटकाएगा।
अहंकार
के अतिरिक्त
और कोई भटकाव
नहीं है।
परमात्मा और
तुम्हारे बीच
तुम्हारे
अतिरिक्त और
कोई बाधा नहीं
है। जाने दो
तू भी और जाने
दो मैं भी। एक
तुम्हारे
भीतर ऐसा भी
विराजमान है, जो
न मैं में
समाता है न तू
में। उसे
पहचानो, उस
द्वंद्वातीत
को, फिर
गीत ही गीत झर
उठते हैं, फिर
कमल ही कमल
खिल जाते हैं।
फिर सुगंध ही
सुगंध है—शाश्वत
की, अमृत
की। न उसका
कोई प्रारंभ
है, न कोई
अंत। वह गीत
ही भगवत् गीत
है। जा भी
परमात्मा
गाया है तो
उनसे ही गाया
है जो मिट गये।
खुदा उतरा है,
बहुत बार
उतरा है, मगर
उनसे ही
जिन्होंने
खुदी को पोंछ
डाला। वही
छोटा सा मोह
तुम्हें अभी पकड़े है।
झीनी—सी ही
दीवार है, कोई
लोहे की भी
दीवार नहीं
हैं, कांच
की दीवार है, पारदर्शी दीवार
है, आरपार
दिखाई पड़ता है,
दीवार तो
दिखाई ही नहीं
पड़ती, इसीलिए
तो मैं का
इतना उलझाव है।
दिखाई नहीं
पड़ता और हम
उसमें बंद हैं।
दिखता तो तोड़
देते, पकड़
में आता तो
छोड़ देते। हाथ
लगता नहीं, फिर भी उससे
हम घिरे हैं।
अब
तुमने बात
प्रीतिकर कही।
आकांक्षा
सुंदर है, अभीप्सा
उदात्त है.....और
इससे ज्यादा
उदात्त क्या
होगी अभीप्सा?
यही तो
प्रार्थना है।
यही पूजा, यही
अर्चना।
तुमने ठीक—ठीक
मांग की है।
पर जरा—से चूक
गये। और उस
परमात्मा के
लोक मे इंच भर चूक—जाना
अनंत—अनंत
फासला हो जाता
है। वहा कण भर
चूके कि बुरी
तरह चूके। वहां
की तोल और, वहा
का माप और, वहा
के तराजू और।
एक
प्रसिद्ध
कहानी है। एक
व्यक्ति ने
स्वर्ग के
द्वार पर
दस्तक दी।
उसने बहुत
जीवन में दान
किया था; मंदिर
बनाए थे, धर्मशालाएं बनाई थीं, प्यासों को
पानी दिया, भूखों को
रोटी दी, तीर्थों
में धन लुटाया,
यज्ञ किये,
हवन किये; उसका सारा
जीवन धर्म की
ही एक यात्रा
थी। निश्चित
ही अकड़ से भरा
था, अस्मिता
से भरा था।
द्वार पर
दस्तक दी थी
तो उसमें
अहंकार था।
द्वार खुला, द्वारपाल ने
उसे नीचे से
ऊपर तक देखा
और कहा : स्वर्ग
पर दस्तक देते
हो, क्या
कमाई है? क्या
अर्जन किया है?
कौन—सी पात्रता
लाए हो १ उसने
कहा : करोड़ों—करोड़ों
का दान किया।
इतने मंदिर, इतनी धर्मशालाएं,
इतने
अस्पताल, इतने
स्कूल, इतने
विधवाश्रम, इतने
वृद्धाश्रम, सारी फेहरिश्त
गिना दी।
देवदूत
मुस्कुराया, और उसने कहा :
शायद तुम्हें
पता नहीं, तुम्हारे
जगत में जो
बहुत बड़ा दिखाएँ
पड़ता है, यहां
नाकुछ है; अणुमात्र।
यहां का माप
और, यहां
की तौल और।
तुम्हारे जगत
में करोडों
वर्ष बीत जाते
हैं, यहां
पल बीतता है।
धार्मिक आदमी
तो कहने को था
वह, था तो
व्यवसायी, यह
सब भी किया था
व्यवसाय की
तरह ही, यह
भी एक सौदा था,
पारलोकिक सौदा था।
इतनी आसानी से
मानने को राजी
हो नहीं सकता
था। उसने कहा
अगर ऐसा है कि
मेरे जगत में
करोड़ों रुपये
यहां कौड़ियों
की तरह हैं, तो इतना करो,
चार कौड़िया
मुझे उधार दे
दो। देवदूत ने
कहा : एक मिनिट
रुके।
समझे
आप 1 एक मिनिट!! जहां
एक कौड़ी करोड़ के
बराबर होगी, फिर वहां एक
मिनिट? अनत—अनंत
काल बीत गया, वह आदमी
रुका है, वे
चार कौड़िया
मिलीं नहीं।
शायद कभी न
मिलेगी।
इस
जगत में, मन के
जगत में, गणित
और तर्क के
जगत में जो
सही लगता है, वही गलत हो
जाता है ध्यान
के जगत में, प्रेम के
जगत में। यहां
जो सहयोगी
मालूम होता है,
वही विरोधी
हो जाता है; यहां जो
सीढ़ी है, वही
वहा बाधा है। यहां
जो सेतु है, वही वहा
भटकाव है।
तुमने
बात तो प्यारी
कही,
प्रीतम! तुम
आदमी प्यारे
हो! इसीलिए
मैंने तुम्हें
योग प्रीतम
नाम दिया है।
और तुम्हारे
भीतर सुंदर
भावों का जन्म
होता है। तुम
कवि हो और
तुम्हारे
भीतर काव्य
झरता है।
तुम्हारे
भीतर ऋषि होने
की क्षमता है।
कवि का अर्थ
ही य०ही होता
है कि जिसके
भीतर ऋषि होने
की क्षमता है।
कवि बीज है, ऋषि उसी बीज
का वृक्ष बन
जाना, बहार
पर आ जाना, इन
खिल जाना।
तुम्हारे
भीतर बड़ी
सम्भावना है।
लेकिन ध्यान
रखना, बीज श्ल नहीं
है। बीज फूल
हो सकता है।
हो भी, चूक—
भी जाए। और कभी
छोटी—सी चीज
चुका दे सकती
है। एक कंकड़
आ जाए बीज की आड़
में, बस, चूकना हो
जाएगा।
जीसस
ने कहा है : कोई
बीज बोता है
तो जो बीज
पत्थर पर पड़
जाते हैं, वे
भी उतने ही बीज
थे जितने
दूसरे बीज, लेकिन पत्थर
पर पड़ गये। बस
पत्थर ही रह
जाते हैं, उनमें
कभी अंकुराग
नहीं होता।
सम्भावना तो
थी, लेकिन
सम्भावना की
भ्रूण—हत्या
हो गई। कुछ
बीज रास्ते पर
पड़ जाते हैं।
उनमें अंकुरण
तो होता है, लेकिन
रास्ता तो
चौबीस घंटे
चलता रहता है,
अंकुरण भी
हो जाता है तो
भी पैरों के
नीचे दब—दब कर
मर जाते हैं।
वे भी फूलों
तक नहीं पहुंच
पाते। कुछ बीज
खेत की मेड़ों
पर पड़ जाते
हैं, उनमें
अंकुरण भी
होता है, पौधे
भी आते हैं—मेड़ों
पर लोग इतने
नहीं चलते; लेकिन कभी—कभी
चलते हैं; थोड़े
लोग चलते हैं;
कोई किसान
गुजरेगा, किसी
किसान की
पत्नी भोजन
लेकर आएगी—लेकिन
उतना ही काफी
है पौधों को
मार डालने को।
मेड़ पर भी
बीज टिक नहीं
पाएंगे, पौधे
बनते—बनते मर
जाएंगे।
पहुंचते—पहुंचते
चूक जाएंगे।
मंजिल दो कदम
रह जाएगी और
मौत घेर लेगी।
और
फिर जीसस ने
कहा है कि कुछ
बीज खेत में
पड़ते हैं। खेत
की उर्वरा भूमि
में। न वहा
पत्थर हैं, न
वहा राह है, न वहां मेड़
है; वे बीज
सौभाग्यशाली
हैं। क्योंकि
वे खिलेंगे, उनसे सुगंध झरेगी, वे
वृक्ष बनेंगे,
वे हवाओं
में नाचेंगे,
जैसे कोई
मीरा नाची हो,
कि कोई
चैतन्य नाचा
हो, वे
हवाओं में गुनगुनाएंगे,
जैसे कोई
नानक गाया हो,
कबीर गाया
हो, मलूक
गाया हो; वे
चांद—तारों से
बातचीत
करेंगे। उनका
अस्तित्व के
साथ एक संगीतबद्ध
संबंध होगा, लयबद्धता
होगी। वे
क्वारे न
रहेंगे, वे
विवाहित हो
जाएंगे, वे
परमात्मा के
साथ जुड़
जाएंगे, उनकी
भांवरें
पड़ जाएंगी।
लेकिन बीज सभी
थे; पत्थर
पर पड़े, वे
भी, राह पर पडे, वे
भी; मेड़
पर पड़े, वे
भी; खेत
में पड़े, वे
भी। सब एक से
बीज थे।
कवि
ऋषि होने से
बच जाता है
अहंकार के
कारण। और
जितना अहंकार
कवियों में
होता है, कम ही
लोगों में
होता है।
साहित्यिक
जिस बुरी तरह
एक—दूसरे से
लड़ते हैं और
कवि एक—दूसरे
की जिस तरह
आलोचना करते
हैं, शायद
ही कोई और
करता हो।
कवियों के अखाड़े
होते हैं, बड़ी
राजनीति होती
है, बड़ा
संघर्ष, कलह
होती है। कोई
एक—दूसरे को
मानने को
तैयार नहीं
होता है। हर
कवि अपने
अहंकार की
पूजा में
संलग्न होता हे।
ऋषि हो सकता
था, मगर
चूका जा रहा
है। बीज खेत
में नहीं
पहुंच पा रहा;
कहीं
चट्टान पर पड़ा
जा रहा है।
योग
प्रीतम!
तुम्हारी
क्षमता है, बड़ी
क्षमता है।
तुम्हारे
भीतर कवि का
हृदय है। इससे
ज्यादा और
सौभाग्य की
क्या बात हो
सकती है? लेकिन
सदा ध्यान
रखना, जितना
बड़ा सौभाग्य
होता है, उतना
ही साथ में
जुड़ा हुआ
दुर्भाग्य
होता है।
जितनी
ऊंचाइयों पर
चलोगे, उतना
ही सम्हलकर
चलना होगा
क्योंकि
गिरने का उतना
ही ड़र
होता है। समतल
भूमि पर चलने
वाले को गिरने
का ड़र
नहीं होता।
राजपथों पर
लोग गिरते
नहीं, गिरते
हैं पहाड़ों की
चोटियों से।
इसलिए हमारे
पास शब्द है 'योग—भ्रष्ट';
लेकिन
तुमने 'भोग—भ्रष्ट'
जैसा शब्द
सुना? भोग—भ्रष्ट
क्या होगा? अब और क्या
भ्रष्ट होगा?
अब भ्रष्ट
होकर कहां
गिरेगा? नर्क
से तुमने किसी
को गिरते देखा?
नर्क से
गिरेगा तो कहा
जाएगा? स्वर्ग
से लोग गिरते
हैं।
ऊंचाइयों से
गिरते हैं।
पशु— पक्षी
नहीं गिरते, सिर्फ
मनुष्य का पतन
होता है।
मनुष्य की
गरिमा है, चोटियों
पर चल सकता है,
आकाश में उड़
सकता है। और
जितनी ऊंची उड़ान भरोगे,
उतने ही
पंखों के जल
जाने का ड़र
है। उतना ही
सम्हाल कर, उतना ही
ध्यानपूर्वक
चलना होगा।
काव्य
ऊची से
ऊंची उड़ान
है। क्योंकि
काव्य है क्या? हृदय
का बहाव है।
मेरी दृष्टि
में काव्य
धर्म की
अनिवार्य सीढ़ी
है। और जो व्यक्ति
कवि नहीं है, वह धार्मिक
न हो सकेगा।
पर खयाल रखना,
कवि से मेरा
अर्थ नहीं है
कि तुम कविता
लिखो तो ही
कवि हो। ऐसे
तो बहुत तुकबन्द
हैं, जो
कविताएं
लिखते हैं और
कवि नहीं हैं।
सौ में निन्न्यानबे
कवि तो सिर्फ तुकबन्द
होते हैं।
शब्दों को जमा
लेना कविता
नहीं है।
बुद्ध ने एक
भी कविता नहीं
लिखी, फिर
भी मैं उनको
महाकवि
कहूंगा।
इसलिए कहूंगा
कि काव्य एक
अंतर्दृष्टि
है, देखने
का एक ढंग है।
जीवन को
सौन्दर्य की
आख से देखने
की कला का नाम
कविता है।
जीवन को तर्क
से नहीं, प्रेम
से पहचानने की
क्षमता का नाम
कविता है।
हृदय से सत्य
की तलाश कविता
है।
सत्य
दो तरह से
खोजा जा सकता
है : एक तो तर्क
से,
मस्तिष्क
से, सोच—विचार
से; एक भाव
से, अनुभूति
से। एक तो
गणित बिठाकर
और एक मस्ती
में गुनगुनाकर।
और जिन्होंने
गणित बिठाया
है, वे कभी
सत्य तक नहीं
पहुंचे हैं।
ज्यादा से
ज्यादा तथ्य
तक पहुंचते
हैं, सत्य
तक नहीं। सत्य
और तथ्य का
यही भेद है।
तथ्य आज सत्य
लगता है, कल
और खोजबीन
होगी तो शायद
सत्य न लगे।
इसलिए
विज्ञान रोज
बदल जाता है।
न्यूटन के लिए
जो सत्य था, वह एडिंग्टन
के लिए सत्य न
रहा। जो एडिंग्टन
के लिए सत्य
था, वह आइन्स्टीन
के लिए सत्य न
रहा। जो आइन्स्टीन
के लिए सत्य
था, आगे
सत्य नहीं रह
जाएगा।
विज्ञान में
सिर्फ तथ्य
होते हैं, जो
बदल जाएंगे।
जैसे—जैसे खोज
होगी, नये
अन्वेषण
होंगे, हमें
पुराने
तथ्यों को फिर—फिर
जमाना होगा।
लेकिन जो
बुद्ध ने जाना,
वह सत्य है।
वह अब भी वैसा
का वैसा है।
उतना ही तरोताजा;
जरा भी बासा
नहीं। उस पर
धूल जमती ही
नहीं। और
कितनी ही खोज
होती रहे, कुछ
भेद न पड़ेगा।
तथ्य
होते हैं बाहर
के,
सत्य होते
हैं भीतर के।
तथ्य होते हैं
बहिर्मुखी, सत्य होते
हैं
अन्तर्मुखी।
तथ्य होते हैं
पदार्थ के
संबंध में, सत्य होते
हैं चैतन्य के
संबंध में।
तथ्य होते हैं
सांसारिक, सत्य
होते हैं
आध्यात्मिक।
आध्यात्मिक
सत्य सदा वही
हैं, सनातन
हैं; शाश्वत
हैं; पुराने
से पुराने हैं
और नये से नये,
ऐसा उनका
विरोधाभास है।
इन सत्यों को
जानने की कला
का नाम कविता
है। लेकिन अगर
अहंकार बीच
में आ गया,
तो बीज बीज
रह जाएगा। फूल
तक तुम न
पहुंच पाओगे।
छोड़ो यह
बात! गीत गाना
है;
परमात्मा
का गीत गाना
है, क्या
मेरा, क्या
तेरा? यह
मैं—तू में
पड़े रहे तो
अपने ही हाथ
से अपने आसपास
लक्ष्मणरेखा
खींच ली। इससे
बाहर निकलना
मुश्किल हो
जाएगा। और इस
मैं—तू में जो
पड़ा रहता है, वह कभी प्रौढ़
नहीं होता।
बचकाना ही रह
जाता है। मैं
से ज्यादा
बचकानी और कोई
बात नहीं।
इसलिए बचकानी,
क्योंकि
मैं को पकड़कर
हम कितनी बड़ी
संपदा से चूक
रहे हैं! मैं
को पकड़ रहे
हैं और
परमात्मा से
चूक रहे हैं।
इससे ज्यादा मूढ़ता और
क्या होगी? और मैं
बिलकुल थोथा
है, बिलकुल
झूठा है, इससे
बड़ी कोई झूठ
नहीं है। मैं
है ही नहीं।
जिन्होंने
खोजा है, नहीं
पाया। हां, जिन्होंने
खोजा ही नहीं,
मान रखा, उनकी बात और।
जरा
अपने भीतर तलाशो, मैं
को कहीं भी न
पाओगे। जितना खोजोगे, उतना ही कम
पाओगे। जिस
दिन खोज पूरी
होगी, उस
दिन पाओगे मैं
है ही नहीं।
और मैं के उस
अभाव में
जिसका अनुभव
होता है, वही
परमात्मा है।
फिर गीत पैदा
होगा; वह
परमात्मा का
गीत होगा; तुम
तो बांस की
पोंगरी रह
जाओगे। योग
प्रीतम, बात
की पोगरी
बनो। खाली।
गीत उसके, तुमसे
बहे। तुम बाधा
न दो, इतना
ही काफी। तुम
बीच में न आओ, इतना ही
बहुत। वह गाना
चाहे, जो
गाना चाहे, उसे
गुनगुनाने दो।
तुम उसमें
रुकावट ही मत
डालना।
तुम्हारी
रुकावट अड़चन
हो जाएगी।
रवीन्द्रनाथ जब
भी कभी गीत
लिखते थे, तो
द्वार—दरवाजे
बंद कर लेते
थे। कभी दिन, कभी दो दिन, कभी तीन दिन
बीत जाते। न
भोजन की फिक्र,
न स्नान की
फिक्र; पत्नी
परेशान, परिवार
परेशान, शिष्य
परेशान! मगर
उनकी आज्ञा थी
कि जब मैं द्वार
बंद कर लूं, तो कोई
द्वार पर
दस्तक भी न दे।
जब गीत पूरा आ
जाएगा तो मैं
स्वयँ द्वार
खोलकर निकल आऊंगा।
तुम फिक्र मत
करना मेरी भूख—प्यास
की। पूछा उनसे
किसी ने कि
आखिर द्वार—दरवाजा
बंद करने की
क्या जरूरत है?
तो रवीन्द्रनाथ
ने कहा कि
दूसरे अगर
मौजूद होते
हैं, अगर
तू मौजूद होता
है, तो मैं
मिटता नहीं।
मैं और तू साथ—साथ
खड़े हो जाते
हैं। दूसरे की
मौजूदगी में
मैं भी मौजूद
हो जाता हूं।
इसलिए दूसरे
की मौजूदगी को
बिलकुल
विस्मरण कर
देने के लिए
द्वार—दरवाजे
बंद कर लेता
हूं, ताकि
मैं भी मिट
जाऊं। कोई
बाधा न रह जाए;
वह बह सके, जैसा उसे
बहना हो। मैं
गीत लिखता
नहीं, वह
जो गुनगुनाता
है, बस, उसी
को उतारता
जाता हूं। मैं
बाधा नहीं
डालता। अपनी
तरफ से न
जोड़ता हूं, न अपनी तरफ
से तोड़ता
हू। इसीलिए रवीन्द्रनाथ
के गीतों में
उपनिषदों का
रस है। रवीन्द्रनाथ
के गीतों में कुरानकी
गरिमा है। वही
ऊंचाइयां
हैं जो बुद्ध
के वचनों की
हैं। रवीन्द्रनाथ
को ठीक से
समझा नहीं जा
सका, अन्यथा
हम उन्हें ऋषि
कहते। सिर्फ
कवि कह कर हम
चुप रह गये, महाकवि कह
कर चुप रह गये;
वह हमारी
भ्रांति है, हमारी भूल
है।
रवीन्द्रनाथ ने गीतांजलि
का अनुवाद
किया
अंग्रेजी में।
थोड़े संदिग्ध
थे। क्योंकि परायी
भाषा। फिर
काव्य का
अनुवाद! गद्य
का तो अनुवाद
हो जाता है, पद्य
का कठिन है।
क्योंकि हर
भाषा की अपनी
लय होती है, अपना रंग
होता है; हरै
भाषा की अपनी काव्यशैली
होती है, जो
दूसरी भाषा
में नहीं
उतरती। भावभंगिमा
होती है, अपना
छंद होता है, जो दूसरी
भाषा में नहीं
जा सकता। तो
सोचा किसी से
सलाह ले लूं।
सी. एफ. एन्डूज
से कहा कि एक
दफा देख जाएं,
मेरे
अनुवाद में
कहीं कोई भाषा
की भूलचूक तो
नहीं। सी एफ. एन्डूज ने
चार जगह भूलचूक
दिखाई, कि
व्याकरण की
दृष्टि से
अंग्रेजी गलत
है। रवीन्द्रनाथ
ने तत्क्षण
सुधार कर लिया।
जैसा कहा एन्डूजू
ने वैसा कर
लिया।
फिर
जब उन्होंने
पहली बार लंदन
में कवियों की
एक छोटी—सी
गोष्ठी में गीतांजलि
का अंग्रेजी
अनुवाद पढ़कर
सुनाया, तो वे
बड़े हैरान हुए,
चकित हुए, समझ में ही न
आया उनके, अवाक
रह गये, क्योंकि
अंग्रेजी के
बहुत बड़े कवि ईट्स ने
खड़े होकर कहा
कि और सब तो
ठीक है, लेकिन
चार जगह ऐसा
लगता है कि
जैसे धारा
अवरुद्ध हो गई;
जैसे धारा
में पत्थर आ
गया। चार जगह
ऐसा लगता है
जैसे शब्द
किसी कवि का
नहीं है। हां,
भाषाविद का
होगा। और वे
चार जगहें वे
ही थीं जो सी.
एक. एन्ड्रूज
ने बदलवा
दी थीं। रवीन्द्रनाथ
ने कहा कि
मेरे शब्द
व्याकरण की
दृष्टि से गलत
थे। ईट्स
ने कहा किं
व्याकरण को
जाने दो भाड़
में; काव्य
का और व्याकरण
से क्या नाता?
काव्य सारी मर्यादाओं
को तोड़ता
है। काव्य कोई
रामचंद्रजी
थोड़े ही हैं, मर्यादा—पुरुषोत्तम
थोड़े ही हैं, काव्य तो
कृष्ण है, मर्यादामुक्त है। रवीन्द्रनाथ
ने अपने शब्द
बताए, जो
उन्होंने
पहले रखे थे, ईट्स एकदम राजी
हो गया! कहा कि
ये ठीक हैं।
मैं भी समझता
हू कि भाषा की
दृष्टि से ये
गलत हैं, लेकिन
जो भाषा की
दृष्टि से गलत
है, वह
जरूरी नहीं कि
काव्य की
दृष्टि से गलत
हो। ये ठीक
हैं। इनमें
धारा है, प्रवाह
है। इनमें
पांडित्य
नहीं है, मगर
प्रीति है। और
जहां प्रेम है
वहां काव्य है।
और जहां सहजता
है वहा काव्य
है।
योग
प्रीतम! तुम
कवि हो, और
बड़ी संभावना
है तुम्हारी,
लेकिन एक
बात छोड़ दो, मैं का भाव
जाने दो। मैं
को गिर जाने
दो। और तब तुम
पाओगे, उपनिषद
भी तुम्हारे
हैं; और तब
तुम पाओगे, कुरान भी
तुम्हारी है;
और तब तुम
पाओगे, मैं
जो कह रहा हूं,
वह भी
तुम्हारा है।
मेरा क्या! 'मेरा मुझमें
कुछ नहीं।'
तुम
कहते हो :
एक गीत ओर मुझे
गाना है
एक छंद और
गुनगुनाना है
एक
क्या अनेक
छन्द
गुनगुनाए
जाएंगे; एक
क्या हजार गीत
गाये जाएंगे;
मगर तुम
अपने को बाद
दो।
तुम
कहते हो :
गीत तो वही
है जो हुलस—हुलस
अपने ही कण्ठों ने
गाये हौं
पागल
हुए हो? सब
कण्ठ उसके है।
यहां कौन कण्ठ
अपना है? और
जब नील— कण्ठ
खुद गाने को
राजी हो, तो
तुम क्यों
अपना कण्ठ बीच
में डाल रहे
हो? 'गीत तो
वही है', तुम
कहते, 'जो हुलस—हुलस,
अपने ही कण्ठों
ने गाये हों।'
हुलस—हुलस तो
ठीक, खूब हुलसो, पर
इस हुलसने
में एक ही
बाधा रहेगी, वह अपना
कण्ठ। वह सब
बेसुरा कर
देगा। छन्द
टूट जाएगा।
कहते
हों:
भाव तो वही
है जो उमग—उमग
अपने ही
प्राणों से
आये हों
सच
ही,
भाव वही हैं
जो उमग—उमग
आते हैं, सहज
उमग आते हैं।
जैसे वृक्षों
में पत्ते और झू_ल
लगते हैं, ऐसे
ही जब तुममें
भाव लगते हैं।
लेकिन प्राााा
क्या है? प्राण
तो परमात्मा
का ही दूसरा
नाम है। इसमें
मैं की शर्त न
लगाओ। यह शर्त
छोड़ दो। यह
शर्त छोड़ दो, तो कवि ऋषि
हो जाए। और
कवि ऋषि हो
जाए, तो ही हुलसने का
मजा है। तो ही
उमग—उमग नाचने
का मजा है।
कहते
हो तुम :
क्या होगा
पर के सुरतालों
से
मुझको निज
सरगम पर आना
है
जहां
भी सुरताल
है,
वहा न कोई
पर है और न कोई
निज है।
अंग्रेजी का
महाकवि
कूलरिज मरा, तो उसके घर
में चालीस
हजार कविताएं
अधूरी मिली।
चालीस हजार!
और जिन्दगीभर
उसके मित्र
उससे कहते रहे
कि ये क्यों
अधूरी कर रखी
हैं? कहीं
सिर्फ एक
पंक्ति की
जरूरत और है
और कविता पूरी
हो जाएगी।
लेकिन कूलरिज
कहता कि मैं
नहीं जोडूंगा।
जिसने इतनी
पंक्तियां गायी हैं, जब उसकी ही मजी होगीर
वही एक पंक्ति
और जोड़ेगा
तो मैं जोड़
दूंगा। इतने
पर वह रुक गया,
मैं भी रुक
गया। मैं
सिर्फ वाहन
हूं; मैं
सिर्फ वह
पुकारता है, उसकी पुकार
को दोहरा देता
हूं। मैं
प्रतिध्वनि
हू। मैं दर्पण
हूं; वह सामने
आएगा, उसकी
छवि दिखाएँ
पड़ जाएगी, वह
हट जाएगा, छवि
खो जाएगी। मैं
पूरी नहीं
करूंगा। उसने
केवल सात
कविताएं पूरी
कीं। लेकिन
सात ही काफी
हैं। उसे
महाकवि बनाने
को सात ही
काफी हैं। और
उसका यह भाव
उसे ऋषियों की
गणना में ले
जाता है। नहीं
उसने अपनी तरफ
से कोई पंक्ति
जोड़ी। अपना सुरताल
नहीं लाया बीच
में।
इसीलिए
तो हमें पता
नहीं कि
उपनिषद किसने
गाए। क्योंकि
जिन्होंने
गाए,
उन्होंने
अपने दस्तखत
भी नहीं किये!
कुरान को मुहम्मद
ने गाया, लेकिन
मुहम्मद ने यह
नहीं कहा कि
मैंने रचा है।
रचने वाला तो
वही है। गाने
वाला भी वही
है। धन्यभागी
हूं मैं कि
उसने मेरा
उपयोग कर लिया
उपकरण की तरह 1
कि मुझ पर
सवार हो गया।
कि मैं आविष्ट
हो सका उससे।
जब पहली दफा
मुहम्मद
परमात्मा से
आविष्ट हुए तो
बहुत घबड़ा गये।
स्वाभाविक।
क्योंकि जैसे द्य में
कोई सागर उतर
आए; तो
बूंद घबड़ा न
जाए तो और
क्या हो? जैसे
तुम्हारे आंगन
में पूरा आकाश
आ जाए, सारे
चांद—तारे
नाचने लगे, तो तुम घबड़ा
न जाओगे?
जब
मुहम्मद पर
पहली दफा पहली
आयत उतरी तो
तुम्हें पता
है?
वह कथा
प्रीतिकर है।
वह सभी ऋषियों
की कथा है। जो
पहला उद्घोष
मुहम्मद में
आया, वह था :
गा; गुनगुना!
कुरान शब्द का
अर्थ होता है :
गा, गुनगुना!
लेकिन
मुहम्मद ने
कहा, मैं न
गाना जानता
हूं, न
गुनगुनाना
जानता हूं; .कभी गाया
नहीं, कभी
गुन— गुनाया
नहीं; मैं
पढ़ा—लिखा भी
नहीं हूं, बेपढा—लिखा
हू। काला
अक्षर उन्हें
भैंस बराबर था।
ड़र गये
बहुत, भयभीत
हो गये बहुत
कि यह कौन कह
रहा है : गा, गुनगुना?
लेकिन आवाज
फिर भीतर से
आयी कि तू
फिक्र मत कर, तू गा, तू
गुनगुना! राह
दे, मार्ग
दे! और
उन्होंने
देखा चमत्कार
घटते, कि
उनके ओठों
से, उनके कण्ठों से
कोई गा रहा है,
कोई
गुनगुना रहा
है। और कुछ
ऐसे शब्द उतर
रहे हैं जो न
उन्होंने कभी
सोचे थे, न
कभी विचारे थे।
वे
भागे घर आए।
किसी और से
उन्होंने कहा
भी नहीं, क्योंकि
सोचा कि लोग
समझेंगे कि
दिमाग खराब हो
गया। ऐसे कहीं
कोई कहता है
भीतर कि गा, गुनगुना? और
जबर्दस्ती १
और मुहम्मद
कहते हैं : मैं
गाना नहीं
जानता, मैं
गुनगुनाना
नहीं जानता, मैं पढ़ा—लिखा
नहीं, मैं
बिलकुल अपढ़
हूं, गंवार
हूं; किसी
पंडित को चुनो,
किसी
महापंडित को
चुनो लेकिन
परमात्मा भी
खूब है, वह महापंडितों
को चुनता ही
नहीं! अब तक
उसने ऐसी भूल
नहीं की। और
आगे भी करेगा,
इसकी कोई
सम्भावना
नहीं है।
महापंडित को
नहीं चुन सकता,
क्योंकि
महापंडित
उससे ही कहेगा
कि तू चुप रह!
मैं गाता हूं।
महापंडित
कहेगा कि यह
जो तू बोल रहा
है, इसमें
व्याकरण की भुल है। कि
यह जो तूने
कहा, यह
वेद से भिन्न
है। कि यह
मेरी
व्याख्या
नहीं, मैं
इससे राजी
नहीं होता!
महापंडित
हजार झंझटें
खड़ी करेगा।
इसलिए
परमात्मा ने
कबीर को चुन
लिया, नानक
को चुन लिया, मलूकदास को चुन लिया,
मुहम्मद को
चुन लिया, जीसस
को चुन लिया, जिनका
पांडित्य से
दूर का भी संम्बध
नहीं है। कबीर
ने तो कहा है : 'मसि कागद छूयो
नहीं', मैंने
तो कभी कागज
ही नहीं छुआ, स्याही भी
नहीं लूई।
यह क्या हुआ? यह कैसे हुआ?
फिर कबीर ने
ही उत्तर भी
दिया है : कि अब
मैं समझता हूं
कि यह कैसे
हुआ, क्यों
हुआ। यह इसलिए
हुआ कि वह बात
ही कुछ ऐसी है! 'लिखालिखी की है नहीं, देखादेखी
बात।' वह लिखालिखी
की होती तो
मेरे पल्ले
आने वाली नहीं
थी, वह
देखादेखी की
बात थी। और
जिसकी आंखों
में शब्दों का
भार नहीं होता
और शास्त्रों
की धूल नझईं
होती, उसके
पास दृष्टि
होती हेर
क्षमता होती
है देखने की।
मुहम्मद
ने अपनी पत्नी
से जाकर कहा
कि जल्दी ला
और मेरे ऊपर
कंबल डाल। वह
थरथर कांप रहे
थे। पत्नी ने
कहा,
तुम्हें
क्या हुआ? उन्होंने
कहा कि या तो
मैं कवि हो
गया या मैं पागल
हो गया।
मुहम्मद ने दो
शब्द कहे कि या
तो मैं पागल
हो गया या कवि
हो गया। सच
बात यह है कि
दोनों का मतलब
एक ही होता है।
कोई बिना पागल
हुए कवि नहीं
होता। और कोई
कवि हो जाए
बिना पागल हुए,
यह संभव
नहीं है।
योग
प्रीतम! कहते
हो तुम :
प्यारे
हैं—गीत बहुत
प्यारे हैं
रसभीगे
गीत ये
तुम्हारे हैं
इन पर मैं
न्यौछावर
होता हूं
पर मेरे
गीत अभी
क्वारे हैं
इनका भी
ब्याह अब
रचाना है
प्राणों
का साज ही
बजाना है
मत
मेरी बातों को
ऐसा लो जैसे
वे किसी और की
हैं। वे
तुम्हारी है, वे
सबकी हैं। मैं
तुम्हारे ही
गीतों को कण्ठ
दे रहा हूं।
जो तुम्हारे
भीतर अभी सोया
पड़ा है, उसे
मैं जागकर
आवाज दे रहा
हू। पुकार दे
रहा हूं। जो
तुमने नहीं
कहा है, वह
कह रहा हूं; जो तुम कल
कहोगे, वह
मैं आज कह रहा
हूं; मैं
तुम्हारा
भविष्य हूं।
लेकिन मैं तुम
से भिन्न नहीं।
और मेरा
मुझमें है
क्या?
जब तक वह
पाहुना न
आयेगा
आंसू की
आरती
उतारूंगा
जब तक सागर
न मिले अपना
ही
सरिता की
पीर बन पुकारूगा
अपनी ही आग
में सुलगना है
अन्तस में
प्रीति को
जगाना है
ऊपर—ऊपर
से सोचोगे तो
बिलकुल ठीक
लगेगा। मगर
जरा भीतर
उतरोगे तो
पाओगे कि इसी
कारण बाधा पड़ती
रहेगी। वही है।
उसके
अतिरिक्त और
कोई भी नहीं
है।
मैं
निरन्तर
तुमसे कहता
हूं : जान।!
लेकिन मै यह
नहीं कह रहा
हूं कि जब तुम
जागोगे तो तुम
पाओगे कि तुम
हो। जागोगे तो
तुम पाओगे कि
तुम हो ही
नहीं। यह तो
सोये होने की
बातें हैं। ये
नींद में देखी
गई बातें है, ये
तो सपने हैं।
यह 'मैं' सपना है। और
सपने में तो
तुम जो भी
समझोगे सब गलत
होगा।
एक
स्कूल में
नाटक हो रहा
था। छोटे—छोटे
बच्चे नाटक कर
रहे थे।
वार्षिक
उत्सव था। जिस
शिक्षक ने
बच्चों को
तैयार किया था; एक
कक्षा का
दृश्य है, उसमें
शिक्षक है, आगे के
विद्यार्थी
हैं, और
उनसे वह कुछ
पूछ रहा है।
और कक्षा का, जैसी आधुनिक
कक्षा की
स्थिति है, उसको पूरा
का पूरा
उपस्थित करने
के लिए उसने पीछे
विद्यार्थियों
से कहा कि
देखो, तुम
चुपचाप मत
बैठे रहना; खुसुर—पुसुर
करते रहना।
ताकि दृश्य
बिलकुल
वास्तविक, यथार्थ
हो जाए। परदा
उठा, कक्षा
का दृश्य आया,
शिक्षक पढ़ा
रहा है, और
शिक्षक बडा
हैरान हुआ कि
सारे बच्चे
पीछे जोर—जोर
से दोहरा रहे
हैं : 'खुसुर—पुसुर',
'खुसुर—पुसुर',
'खुसुर—पुसुर'…..! सारा नाटक
खराब हो गया!
जनता हंसने
लगी कि यह क्या
हो रहा है? छोटे
बच्चे बिचारे,
खुसुर—पुसुर,
उन्होंने
कहा कि जब खुसुर—पुसुर
उन्होंने कहा
है तो खुसुर—पुसुर
ही करनी है।
मैं
भी तुमसे कहता
हूं : जागो।
लेकिन खुसुर—पुसुर
मत करने लगना!
तुमने खुसुर—
पुसुर शुरू कर
दी। तुमने
समझा कि मैं
कह रहा हूं कि 'तुम'
जागो। मैंने
तुमसे कहा है
बार—बार : उधार
ज्ञान को छोड़ो।
और तुमने खुसुर—पुसुर
शुरू कर दी!
तुम
कहते हो : पराये
गीतों से क्या
होगा? बात
बिलकुल एक
जैसी लगती है
ऊपर से, मगर
भीतर बदल गई।
तुम्हारी बात
में अहंकार की
पुट आ गई। बस, वहीं चूना, हो गई। उतनी—सी
चूक सुधार लो
और सब सुधर
जाएगा।
कहते
हो :
कुछ ऐसा वर
दो भगवान मेंरे!
मैं भूला
अपने घर आ
जाऊं
मैं
तो वरदान
प्रतिपल दे
रहा हूं। मैं
वरदान हूं।
देने की कुछ
बात नहीं।
वरदान तो वे
दें,
जो तुम्हें
कभी अभिशाप भी
देते हों। मैं
तो तुम्हें
आशीष ही दे
रहा हूं। मेरा
होना आशीष है।
और इसमें मेरा
कुछ नहीं है—फिर
तुम्हें
दोहरा दूं
अन्यथा तुम खुसुर—पुसुर
करने लग जाओगे।
मजबूरी है, भाषा का
उपयोग करना
पड़ता है, उसमें
'मैं' शब्द
का उपयोग किये
बिना काम चलता
नहीं; तुम्हारी
भाषा मैं के
आसपास निर्मित
है, मैं
उसका आधार है,
उसे बोले
बिना नहीं
चलता। उसे
बोलना ही
पड़ेगा। उसे न
बोलो तो अड़चनें
खड़ी होंगी।
स्वामी
रामतीर्थ मैं
शब्द का उपयोग
नहीं करते थे।
मगर इससे क्या
फर्क पड़ता हे? और
झंझट खड़ी होती
थी! प्यास
लगती तो थे
कहते : राम को
प्यास लगी है।
नई जगह होती
तो लोग इधर—उधर
देखते, वे
कहते, राम
यानी कौन? अरे,
वे कहते, राम यानी
मैं! यह और
उल्टा कान पकड़ना
हुआ! सीधे ही
कह देते कि
मुझे प्यास
लगी है! पहले
कहा कि राम को
प्यास लगी है,
अब वह आदमी
पूछेगा, राम
यानी कौन? तो
उसको बताना पडेगा न
किं राम यानी
कौन? फिर
उस 'मैं' को लाना ही
पड़ेगा। लोक—व्यवहार
है। सारी भाषा
व्यावहारिक
है।
मैं तो
वरदान
तुम्हें दे ही
रहा हूं। मगर
तुम लेते नहीं।
वरदान लेने के
लिए हिम्मत
चाहिए, बड़ी
हिम्मत चाहिए!
मिटने की
हिम्मत चाहिए
तो वरदान ले
सकोगे।
कहते
हो :
कुछ ऐसा वर
दो भगवान
मेरे!
मैं भूला
अपने घर आ
जाऊं
तुम
गये कब घर से? मेरी
भी मुसीबत
समझो! मैं
तुम्हें
देखता हूं अपने
घर में बैठे
और तुम पूछते
हो, कुछ
ऐसा वरदान दो
कि मैं अपने
घर आ जाऊ!
मैं भी
तुम्हारे साथ कुसुर—पुसुर
करूं? घर
से तुम कभी
गये नहीं—कोई
कहीं गया नहीं—तुम
वहीं हो जहां
होने चाहिए, सिर्फ सो
गये हो।
एक
आदमी ने शराब
पी ली; और शराब
पीकर अपने घर
की तलाश में
निकला। और
आदतवश, नशे
में था तो भी
अपने घर पहुंच
गया। आदतवश।
रोज की आदत थी।
मुड़ गया जहां मुड़ना था, पहुंच गया
अपने घर।
दरवाजे पर
दस्तक भी दे
दी। मगर नशा
ऐसा था कि कुछ
सूझ नहीं रहा
था। उसकी मां
ने दरवाजा
खोला। वह उस बुढ़िया को
भी नहीं
पहचाना। उसके
पैर पकड़ लिया
और कहा कि हे माताराम, मेरा घर
कहां है। मुझे
मेरे घर
पहुंचा दो।
तुम्हें तो पता
होगा। यहीं
कहीं रहता हूं
मैं, इसी
मोहल्ले में
रहता हूं।
उसकी मां ने
कहा, बेटा,
तुझे हो
क्या गया? यह
तेरा घर है, मैं तेरी मां
हूं, तू
मुझसे माताराम
कह रहा है।
उसने कहा कि
नहीं—नहीं, मुझे बहलाओ
मत, मुझे फुसलाओ मत,
मुझे समझाओ
मत, मेरा
घर बताओ! वह रो
रहा है, उसकी
आंखों से आसूझरझर
टपक रहे हैं।
मोहल्ले के
लोग इकट्ठे हो
गये, समझाने
लगे, बड़ा
तर्क करने लगे
कि यह तेरा घर
है, अरे
पागल, जरा
गौर से तो देख!
अब वह गौर से
ही देख सकता
तो खुद ही देख
न लेता! उसे
कुछ सुनाई भी
नहीं पड़ रहा
है, समझ
में भी नहीं आ
रहा है। तभी
उसका दूसरा
साथी .भी शराब
पीकर चला आ
रहा है। और
उसने कहा, तू
रुक, मैं
अपनी बैलगाड़ी
जोतकर
लाता हूं।
उसमें बैठ जा,
पहुंचा
दूंगा जहां भी
तेरा घर हो।
शराबी ने कहा,
यह वात कुछ
जंची।
तुम
अपने घर में
हो। तुम्हें
जो पहुंचाने
की कोशिश कर
रहे हैं, उनसे
जरा सावधान
रहना। वे
तुम्हें भटका
देंगे।
उन्होंने
तुम्हें खूब
भटका दिया है।
किसी ने
तुम्हें
हिन्दू बना
दिया, वह
एक तरह की बैलगाड़ी;
किसी ने
मुसलमान बना
दिया, किसी
ने ईसाई बना
दिया, किसी
ने जैन बना
दिया, किसी
ने बौद्ध बना
दिया; तरह—तरह
की बैलगाड़ियां।
रंग—बिरंगे
उनके ढंग!
किसी में घोडे
जुते, किसी
में बैल जुते,
और सब दावा
कर रहे है कि
हम पहुंचाएंगे।
और सब दावा का
हैं कि हम ही
पहुंचा सकते
हैं, और
दूसरा पहुंचा
नहीं सकता। और
सब भटका देंगे।
आओ, बैठो
हमारी बैलगाड़ी
में। और बाजार
में तुम्हारी
फजीहत हुई जा
रही है। कोई
हाथ खींच रहा
है, कोई
पैर खींच रहा
है, कोई कह
रहा है इधर
जाओ, कोई
कह रहा है उधर
जाओ; किसी ने
टांग पकड़कर
ईसाई कर दी, किसी ने हाथ पकड़कर
हिन्दू कर
दिया, किसी
ने सिर पकड़कर
जैन बना दिया;
तुम्हें
कुछ पक्का
नहीं है, तुम
भले सोचते होओ
कि तुम हिन्दू
हो, मुसलमान
हो, आज
हालत ऐसी नहीं
है। आज
तुम्हारे
टुकड़े—टुकड़े
हो गये हैं।
आज अगर तुम
गौर से देखोगे,
तो
तुम्हारा कोई
हिस्सा
हिन्दू हो गया
है, कोई
हिस्सा
मुसलमान हो
गया है, कोई
हिस्सा ईसाई
हो गया है, कोई
हिस्सा बौद्ध
हो गया है; तुममें
सब मिश्रित हो
गया है। ऐसी
दुर्दशा आदमी
की कभी न हुइ
थी। कम—से—कम
एक—एक बैलगाड़ी
में आदमी बैठे
थे। अब कई—कई बैलगाड़ियों
में एक साथ
बैठे हैं। 'अल्लाह
ईश्वर तेरे
नाम, सबको
सन्मति दे
भगवान'! अब
तो भगवान का
ही भरोसा है, वही सन्मति
दे तो ठीक है!
तुमने तो सब
नावों पर सवारी
कर ली है। तुम
न—मालूम कितने
घोड़ों पर
सवार हो गये हूं।
और
किन्हीं बैलगाड़ियों
की जरूरत नहीं
है,
किन्हीं
नावों की
जरूरत नहीं है,
किन्हीं घोड़ों की
जरूरत नहीं है,
तुम जहां हो
वहीं
परमात्मा है।
परमात्मा के
बिना तुम हो
नहीं सकते।
वही तुम्हारा
प्राण, वही
तुम्हारा
आधार। इसलिए
कहीं जाना
नहीं है, योग
प्रीतम, जागना
है। जहां हो, वहीं जागना
है। थोड़ा अपने
को झकझोरना है।
कहते
हो :
कुछ ऐसा कर
दो गुरुदेव
मेरे!
मैं अपने
मितवा को पा
जाऊं
मैं
अपने मीत को
पा जाऊं। मीत
मिला ही है, मीत
तुम्हारे
भीतर बैठा है।
और इसीलिए मैं
तुमसे कह सकता
हूं, योग
प्रीतम, काश,
तुम अपने मन
की धुंध को
विचारों की, ज्ञान की
पते। को हटाकर
मेरी बात को
सुन सको, तो
इस जीवन से
खाली जाने की
कोई सम्भावना
नहीं है। तुम
भरे जाओगे, भरे तुम हो, भरे तुम आए
हो। सिर्फ
प्रत्यभिज्ञा
चाहिए। सिर्फ
पहचान चाहिए।
सुरति, स्मरण।
कहते
हो :
उस परम
उत्सव की घड़ियों
को
अनगाये
लौट नहीं जाना
है
कोई
आवश्यकता
नहीं है अनगाये
लौट जाने की।
लेकिन कई बार
जन्मे हो और
कई बार अनगाये
लौट गये हो।
और पुरानी
आदतों को
दोहराने की
आदत हो जाती है।
बार—बार
दोहराने की
आदत हो जाती
है। हम
यंत्रवत
उन्हीं—उन्हीं
भूलों को
दोहराए जाते
हैं। हम भु_लें
भी नई नहीं
करते। हम भूले
भी पुरानी ही
करते हैं। वही—वही
फिर— फिर करते
हैं।
कोई
कारण नहीं है
कि गीत अनगाया
रह जाए। और
कोई कारण नहीं
है कि तुम जागो
न। तुम जाग
सकते हो।
जागना
तुम्हारी
सम्भावना है, सहज
सम्भावना है;
तुम्हारा
स्वभाव है; तुम्हारी
निजता है। मेरे
आशीष तो
उपलब्ध हैं।
मैं जो कर
सकता हूं, कर
रहा हूं। और
इसकी भी फिक्र
नहीं करता कि
तुम्हें पसंद पड़े
या न पडे!
क्योंकि सोये
हुए आदमी को
कब पसंद पड़ता
है जब तुम
उसको उठाने
लगते हो? सोये
हुए आदमी को
बुरा लगता है।
और अगर वह कोई
मीठा मधुर
सपना देख रहा
हो, तो बहुत
बुरा लगता है।
अगर वह धन की
खदान खोद रहा
हो सपने में, कि सम्राट
हो गया हो—ओर
ऐसे भिखमंगा
हो—और उसको
तुम जगा दो, तो वह
तुम्हारा सदा
के लिए दुश्मन
हो जाए; तुम्हें
कभी क्षमा न
कर सके।
इसीलिए तो
बुद्धों को
पत्थर पड़े, जीसस को
सूली लगी, मैसूर
के हाथ—पैर
काटे गये, सुकरात
को जहर पिलाया
गया। ये किन
लोगों ने किया?
ये हमीं
जैसे लोग थे।
लेकिन सोये
लोग; सोये
हुए लोगों को
जगा— ओगे, उनकी मर्जी
के खिलाफ!
लेकिन
एक बात अच्छी
है कि तुम खुद
ही कह रहे हो कि
मैं तुम्हें जगाऊं, कुछ
करूं। याद
रखना, कि
मैं कुछ करूं
तो भागना मत। क्योंकि
करना शुरू—शुरू
में तुम्हारे
अनुकूल नहीं
पड़ेगा।
इसीलिए तो
मुझे इतनी
गालियां पड़
रही हैं——पड़ेंगी।
जगाओगे
सोये आदमी को
तो गाली खाने
के लिए तैयार
होना ही चाहिए।
अगर सोये आदमी
से गाली न
खानी हो तो
उसे लोरी सुनाओ,
कि उसे और
नींद आ जाए!
वही तुम्हारे
तथाकथित साधु—संत
करते हैं, लोरी
सुनाते हैं।
फिर चाहे थे
आचार्य तुअसी
हों जैनों के,
और चाहे
पुरी के
शंकराचार्य
हों, और
चाहे जामा
मस्जिद के
इमाम बुखारी
हों, कुछ
फर्क नहीं
पड़ता, उन
सबका काम एक
है : लोरी
सुनाओ! लोग सो
रहे हैं, उनकी
नींद को और
सुखद बनाओ।
अगर उघड़ गये
हों तो जरा
कंबल और उढा
दो। अगर नींद
टूटने के करीब
हो, तो और
नींद की दवा
पिला दो।
उन्हें सोया
रहने दो। उनके
सोये रहने में
पंडितों को
लाभ है।
क्योंकि जब तक
तुम सोये हो
तब तक
तुम्हारी जेबें
काटी जा सकती
हैं। जब तक
तुम सोये हो
तब तक
तुम्हारा
शोषण हो सकता
है। जब तक तुम
सोये हो तब तक
तुम असहाय हो,
पर—निर्भर
हो।
मेरी
चेष्टा है कि
तुम जागो।
और जागने में
सब से बड़ा
उपद्रव यह है
कि तुम ही नाराज
हो जाओगे।
मुल्ला
नसरुद्दीन
को उसकी पत्नी
ने सुबह—सुबह
उठाया।
मुल्ला ने ही
कहा था रात
में कि मुझे
जल्दी उठा
देना, छह बजे, ट्रेन पकड़नी
है, बम्बई
जाना है। तो
पत्नी ने उठा
दिया छह बजे।
एकदम उठकर बैठ
गया, एकदम
गुस्सा हो गया,
कहा, दुष्ट,
यह वक्त
तुझे उठाने का
मिला? पत्नी
ने कहा कि
आपने ही कहा
था। फिर बम्बई
नहीं जाना है?
मुल्ला ने
कहा, ऐसी
की तैसी बम्बई
की! सोच—समझकर
तो जगाना
चाहिए आदमी
को! और जल्दी
से आंखें बद
कर के कंबल ओढ़कर
लेट गया। और
कुछ बुदबुद
करने लगा।
पत्नी ने कहा,
बात क्या है?
वह भी पास आ
गई क्योंकि
पति अगर बुदबुदाए
तो पत्नियां
बहुत गौर से
सुनती हैं कि
बात क्या है, मामला क्या
है? और
मुल्ला अपने
कंबल के भीतर
कह रहा है कि
अच्छा निन्न्यानबे
ही सही। पत्नी
ने कहा यह
माजरा क्या
है! यह किस निन्न्यानबे
के फेर में
पड़ा है? कंबल
छीन लिया और
कहा कि क्या
मतलब, कहाँ
का निन्न्यानबे?
मुल्ला
ने कहा कि
तूने सब खराब
ही कर दिया।
एक फरिश्ता
मैं देख रहा
था सपने में, जो
कह रहा था कि
माग ले क्या
मांगना है। तो
मैंने उससे सौ
रुपये मांगे।
वह कहने लगा, सौ तो नहीं
दूंगा, नब्बे
ले ले। तो
उससे बातचीत
चल रही थी, सौदा
चल रहा था।
मैंने कहा कि
अच्छा अगर सौ
न दे तो चल, चार
आने कम दे दे,
छह आने कम
दे दे, आठ
आने कम दे दे,
बारह आने कम
दे दे। वह भी
धीरे—धीरे बढ़
रहा था, महाकंजूस
फरिश्ता था।
वह कहे : इक्यानबे
ले ले, बानबे ले ले, तिरानबे ले ले; और मैं भी
कोई ऐसा आने
वाला? तभी
दुष्ट तूने
आकर जगा दिया!
बस, मैं
कहने ही वाला
था कि अच्छा
चलो, निन्न्यानबे दे दे, और सौदा पटने
ही पटने
के करीब था।
मगर अब आख भी
बंद करता हूं
तो फरिश्ता
दिखाई नहीं
पड़ता। और मैं
कहता हूं कि निन्न्यानबे
न दे, भाई, चल अट्ठानबे
ही सही, चल
पुराना ही ठीक
है! तेरा
नब्बे ही सही!
कुछ तो दे! मगर
फरिश्ता ही
नदारद है!
लोग
सपने देख रहे
हैं। कोई नींद
में ऐसा ही
थोड़े पड़ा है।
शायद
तुम्हें
जानकर यह
हैरानी होगी
कि आधुनिक
मनोविज्ञान
ने नींद पर
बड़ी खोजबीन की
है और उस
खोजबीन में जो
सबसे
सर्वाधिक
महत्वपूर्ण
सत्य हाथ लगा
है,
वह यह है कि
स्वप्न
निद्रा का
विरोधी नहीं
है, सहयोगी
है। आमतौर से
तुम सोचते हो
कि स्वप्न के
कारण नींद
खराब होती है।
तुम गलती में
हो। यह आम धारणा
है; लोग सुबह
उठकर कहते हैं
कि रातभर सपने
आते रहे, ठीक
से सो न पाए! अधुनिक
खोज इससे राजी
नहीं है।
आधुनिक खोज जो
कहती है वह
कुछ और हे, ठीक
इससे उलटा है।
और मैं भी आधुनिक
खोज से राजी
हूं।
आधुनिक
खोज कहती है
कि सपने नींद
के विपरीत नहीं
हैं,
सपने नींद
के सहयोगी हैं।
जैसे रात में
तुम्हें भूख
लगी.. समझ लो कि
पर्युषण के
व्रत चल रहे
हैं, दिन
में उपवास कर
लिया है, अब
दिनभर तो
किसी तरह
मंदिर में
गुजार दिया, मुनिजी का
व्याख्यान
सुनते रहे। वह
भी भूख में
अपनी भूख
भुलाने को
बोलते रहे, तुम भी भूख
में बैठे
सुनते रहे, सिर हिलाते
रहे। तुमने
अपनी इज्जत बचायी, उन्होंने
अपनी इज्जत बचायी; एक—दूसरे
की देखादेखी
किसी तरह अपने
को सम्हाले
रखे। और भी गांव
के लोग मौजूद
थे जो उपवास
किये बैठे थें—उपवास
करने वाले लोग
मंदिर में
जाकर बैठ जाते
हैं। क्योंकि
घर में रहे तो दिनभर भूख
ही भुख की
याद आती है। और
चौका, और
चौके से आती
गंध, और
बेटा चला आ
रहा है सेन्डविच
लिए हुए! हजार झंझटें!
हजार प्रलोभन!
और जब भी
निकलते हैं तो
फ्रिज ही
दिखाई पड़ता
है! वे मंदिर
में बैठ जाते
हैं। न फ्रिज,
न सेन्डविच,
न बच्चे, न चौका, न
गा भोजन की, कुछ भी नहीं!
मुनि महाराज,
वे और भी भूखे,
उन्हें
देखकर और दया
आती है, कि
इनसे तो हमीं
बेहतर! कि
हमारा पर्यूषण
पर्व तो दो—तीन
दिन में खत्म
हो जाएगा, इनका
बेचारों का
कभी खत्म होने
वाला नहीं।
उन्हें देखकर
आदमी अपने पर
हिम्मत कर
लेता है कि
कोई फिक्र
नहीं, अगर
यह आदमी जिंदगीभर
से गुजार लिया,
तो दिन—दो
दिन की बात है,
गुजार
लेंगे!
मगर
रात तो घर आना
पड़ेगा। और
नींद में बड़ी
मुश्किल हो
जाती है। न
शास्त्र काम
आते हैं, न
सिद्धांत काम
आते हैं। नींद
में तो भूख
लगती है, शरीर
मांग करता है।
किसी तरह दिनभर
भुलाए रहे, उलझाये रहे,
नींद में तो
कहता है : भूख
लगी है। पेट कुड़बुडाता
है, आग
जलती है। अब
इस भूख के
कारण तुम सो न
सकोगे। एक
सपना पैदा
करता है मन।
मन कहता है कि
क्या जरूरत है
भूखे रहने की? राजभोज
में
निमंत्रित
हुए हो। छप्पन
प्रकार के
भोजन सजे
हैं।..... उपवास
करो तभी छप्पन
प्रकार के
भोजन करने का मजा
रात में आता
है, नहीं
तो नहीं आता।
मेरा अपना
खयाल यही है
कि जिन लोगों
को छप्पन प्रकार
के भोजन करने
का मजा लेना
होता है, वे
उपवास करते
हैं। नहीं तो
छप्पन प्रकार
का भोजन, किसको
पड़ी है? और
भी काम हैं
दुनिया में!
यह छप्पन
प्रकार का भोजन
नींद में तुम
कर लेते हो, अपने को ऐसे
धोखा दे लेते
हो। सपना एक
धोखा है। यह
धोखा देकर तुम
निश्चित करवट
लेकर तो जाते हो।
भोजन हो गया, अब क्या डर? तुमने शरीर
को धोखा दे
दिया सपने से।
नहीं तो नींद
टूटती। नींद
को टूटना ही पड़ता।
नींद बच गई।
सपना नींद की
सुरक्षा है।
इसलिए
मनोवैज्ञानिक
तुम्हारे सपनों
का विश्लेषण
करते हैं।
क्योंकि
तुम्हारे
सपनों से पता
चलता है कि तुम्हारी
जिंदगी में
कहा कमी है।
तुम्हारी
जिंदगी में
जिन—जिन चीजों
की कमी है उन—उन
चीजों के तुम
सपने देखते हो।
सपने बडे
सूचक हैं।
सपने बड़े
ईमानदार हैं।
सपने वही बता
देते हैं जो
तुम छिपा रहे
हो दुनिया से।
महात्मा
गांधी ने अपनी
आत्मकथा में
लिखा है कि दिनभर
तो मैं
ब्रह्मचर्य
साध लेता हूं, लेकिन
रात सपनों में
नहीं साध पाता।
स्वप्न में तो
मुझे
कामवासना के
विचार आ जाते
हैं। तो वे
कामवासना के
विचार ज्यादा
सही बात की खबर
दे रहे हैं।
वह जो दिन में
किसी तरह
सम्हाल लिया
है, वह रात
में बिखर जाता
है, क्योंकि
सम्हालने
वाला सो जाता
हैं। आखिर
चौबीस घंटे
थोड़े ही पहरा
देते रहोगे! दिनभर
किसी तरह दे
लिया; थकोगे भी? फिर
सोओगे। पहरा
देने वाला सो
गया। फिर जो—जो
दिनभर
में दबाया है,
वह रात
उठेगा।
तुम्हारे
सपने बता देंगे
कि तुम क्या
दबा रहे हो? किस चीज का
दमन कर रहे हो?
तुम्हारा
रोग कहां है ?—तुम्हारे
सपनों में
प्रगट होगा।
स्वप्न
निद्रा की
रक्षा करते
हैं। और जब भी
तुम किसी को जगाओगे, उसके
सपने टूटेंगे।
उसकी निद्रा टूटेगी।
निद्रा उसे ले
जाती है
चिन्ताओं के
बाहर।
दैनंदिन चिन्ताएं
हैं, बहुत चिन्ताएं
हैं; जीवन
में दुख हैं, बहुत दुख
हैं; नींद
में सब दुख
भूल जाते हैं,
सब
चिन्ताओं से
पार हो जाता
है आदमी।
भिखारी
सम्राट हो
जाते हैं, हारे
हुए जीत जाते
हैं, कमजोर
बलवान हो जाते
हैं। कुरूप
सुंदर हो जाते
हैं, लूले—लंगड़े
भी पर्वत चढ़ने
लगते हैं, मगर
वह सपने में।
और ऐसे सपनों
को अगर तुम तोड़ोगे
तो नाराज तो
होंगे ही वे।
वे चाहते हैं
कि तुम लोरी
गाओ। वे चाहते
हैं कि तुम
नींद को और
गहराओ।
योग
प्रीतम!
तुम्हारी
नींद मैं तोड्ने
को तैयार हू।
मेरे आशीष
तुम्हारी
निद्रा को ही
तोड़ सकते हैं।
लेकिन तुम्हारे
स्वप्न भी टूटेंगे।
तुम्हारे
स्वप्नों का
भी टूटना
जरूरी होगा।
तुम भी मुझ से
नाराज हो
जाओगे बहुत
बार। यह रोज
यहां होता है!
मेरे
संन्यासी भी
मुझ से बहुत
बार नाराज हो
जाते हैं।
जहां उनकी
धारणा को चोट
लगी,
वहीं नाराज
हो जाते हैं।
जब तक उनकी
धारणा के मैं
अनुकूल हूं तब
तक बिलकुल ठीक,
जैसे ही मैं
धारणा के
अनुकूल नहीं
रहा कि उनकी
नाराजगी हुं।
धारणा के
अनुकूल न होने
का अर्थ है :
तुम्हारी नींद
टूटने लगी, मैं
तुम्हारी
आदतों के
खिलाफ जाने
लगा; मैं
तुम्हारी
बंधी हुई रूढि
के विपरीत
होने लगा। तुम
भी मेरे साथ
बस सोच—सोच कर
चलते हो। उतना
ही सुनते हो
जितना
तुम्हारे
अनुकूल पड़ता
है, जितना
तुम्हारी
नींद में बाधा
नहीं डालता, शेष को तुम
टाल जाते हो; शेष से तुम
राजी नहीं
होते।
मेरे
पास लोग आते
हैं,
वे कहते हैं,
हम आपकी
इतनी बातों से
राजी हैं; मगर
इतनी बातों से
राजी नहीं हैं।
और मैं तुम से
कह दूं : या तो
तुम मुझ से
राजी नहीं हो
तो मेरी पूरी
बातों से राजी
हो, या फिर
तुम मुझ से
राजी नहीं हो
तो मेरी पूरी
बातों से राजी
नहीं हो।
समझौता नहीं
हो सकता, सौदा
नहीं हो सकता,
बंटवारा
नहीं हो सकता।
मैं जो भी कह
रहा हूं, वह
एक सुनियोजित
व्यवस्था है।
उसमें सारे
तार जुड़े हैं।
तुम कहो कि हम
इतने से राजी
और इतने से
राजी नहीं, तो काम नझईं
चलेगा। या तो
पूरे राजी या
पूरे नाराजी।
मेरा
आशीष तो
तुम्हें
जगाने को है।
लेकिन जागने
की हिम्मत जुटाओ।
सपने टूटेंगे, नींद
टूटेगी, सुखद सपने
होंगे, सुखद
नींद होगी शायद,
लेकिन तोड़नी
ही पडेगी।
और सत्य शुरू—शुरू
में बहुत
कडुवा होता है।
बुद्ध ने कहा
है : असत्य
शुरू में मीठा
होता है, पीछे
कडुवा, और
सत्य पहले
कडुवा होता है,
पीछे मीठा।
इसलिए असत्य
से लोग जल्दी
से राजी हो
जाते हैं।
सत्य से कौन
राजी होता है?
वह पहले ही
कडुवा होता है।
मगर जो पहली कड़वाहट को
खेलने की
तत्परता
दिखाता हैं—वही
तो साधना है, वही
तपश्चर्या है,
सत्य की कड़वाहट
को पी लेना, वही तो योग
है—उसके जीवन
में बड़ी मिठास
पैदा होती है।
मैं तुम्हें
आश्वासन देता
हूं, योग
प्रीतम, इसी
जीवन में
क्रांति
घटेगी, घट
सकती है, मगर
सिर्फ मेरे आशिषों से
कुछ न होगा।
तुम्हें मेरे
साथ चलने को
राजी होना
होगा।
और
छोटी—छोटी
चीजों से बाधा
पड़ जाती है।
मेरे
पास लोग आते
हैं,
वे कहते हैं,
हम
संन्यासी
होना चाहते
हैं, लेकिन
गैरिक वस्त्र
नहीं पहनेंगे,
माला नहीं
पहनेंगे। यह
तो ऐसे ही हुआ
कि जैसे तुम
चिकित्सक के
पास जाओ और
कहो कि हम
आपसे इलाज
करवाना चाहते
है, लेकिन
आपकी दवा नहीं
पीएंगे। तो
काहे के लिए
परेशान हो रहे
हो? और
क्यों
चिकित्सक को
परेशान कर रहे
हो? अगर
दवा ही नहीं
पीना... और यह तो
सिर्फ शुरूआत
है, ये
गैरिक वस्त्र।
यह तो मैं भी
जानता हूं कि गैरिक
वस्त्र पहन
लेने से तुम
कोई परमात्मा
को उपलब्ध
नहीं हो जाओगे,
मुझे कुछ
तुम्हें
बताने की
जरूरत नहीं है,
मैं भी
जानता हूं कि
माला डाल लेने
से तुम परमात्मा
को उपलब्ध
नहीं हो जाओगे।
लेकिन उनका
कुछ प्रयोजन
है। यह ढंग है
मेरा
तुम्हारी
अंगुली पकड़ने
का। और अंगुली
पकड़ में आयी
तो पहुंचा भी
पकड़ मे आ सकता
है। यह मेरा
ढंग है तुमसे
इस बात की
स्वीकृति लेने
का कि अगर
मेरे साथ
तुम्हें पागल
भी होना पड़े
तो तुम होने
को राजी हो।
यह पागलपन है!
गैरिक वस्त्र
पहना दिये
तुम्हें, माला
डाल दी
तुम्हारे गले
में, अब
जहां जाओगे
वहीं मुसीबत
होगी! अगर तुम
इतनी—सी
मुसीबत झेलने
को राजी नहीं
हो; लोग
हंसेंगे, लांछना
करेंगे, निंदा
करेंगे, विरोध
करेंगे, अगर
इतनी—सी बात
के लिए भी तुम
राजी नहीं हो
तो फिर आगे जो
और कठिन चढ़ाइयां
आएंगी, तब
क्या होगा?
योग
प्रीतम, आशीष
खेलने की
तैयारी दिखाओ,
झोली फैलाओ!
और वह
तुम्हारा 'मैं
झोली नहीं
फैलाने दे रहा
है। आशीष बरस
रहे हैं और
तुम्हारी
मटकी खाली की
खाली, क्योंकि
तुम उल्टी रखे
बैठे हो। मटकी
को सीधी करो।
मैं तुम्हारी
गागर में सागर
भरने को राजी
हूं। और इसी
जीवन में हो
सकता है—इसी
जीवन में
क्यों, आज
हो सकता है, अभी हो सकता
है, यहीं
हो सकता है!
परमात्मा के
लिए भाविष्य
में ठहरने की
कोई जरूरत
नहीं है, स्थगित
होने की कोई
आवश्यकता
नहीं है, आज
हो सकता है।
बस, तुम्हारी
देर है। देर
तुम्हारी तरफ
से है, उसकी
तरफ से नहीं।
मगर
लोग बड़े
होशियार हैं; लोग
क्या कहते हैं?
लोग कहते
हैं कि
परमात्मा की
दुनिया में
देर है मगर अंधेर
नहीं। बड़े
होशियार आदमी
हैं : देर है
मगर अं—नेर
नहीं! ऐसी
उन्होंने दो
तरकीबें
निकाल लीं। एक
तो यह कि देर
है तो उसकी
तरफ से, हम
क्या करें? और अंधेर
नहीं है, इससे
अपने को
विश्वास दिला
दिया कि घबड़ाओ
मत, कभी— न—कभी
होगा! आज तो
नहीं होने
वाला है, क्योंकि
देर है; कल
होगा। कल कभी
आया है? तुमने
दोनों
तरकीबें बना
लीं, अपने
को समझा भी
लिया कि अंधेर
नहीं है, होगा
तो जरूर, इस
जन्म में नहीं
तो अगले जन्म
में, अगले
जन्म में नहीं
तो और अगले
जन्म में, मगर
देर है, अब
उसमें हम क्या
कर सकते हैं, देर उसकी
तरफ से है! मैं
तुमसे कहता
हूं : उसकी तरफ
से न देर है, न अंधेर है।
देर भी
तुम्हारी तरफ
से है, अंधेर
भी तुम्हारी
तरफ से है।
देर
छोड़ दो, स्थगित
करना छोड़ो,
कल पर टालना
छोड़ो, अंधेर
भी मिट जाए।
इस जीवन मेँ
ही क्रांति हो
सकती है, इसका
मैं तुम्हें
आश्वासन देता
हूं।
दूसरा
प्रश्न :
भगवान, मैं
अपनी जिदगी
राजनीतिए
में ही गंवाया
हूं और अब जब
कि मंत्री
बनने का अवसर
आया है तब
आपका संन्यास
आकर्षित कर
रहा है। मैं
क्या करूं, बड़ी दुविधा
में हूं।
सुरेन्द्रनाथ!
ईश्वर की तुम
पर बड़ी
अनुकम्पा है।
इतनी अनुकम्पा
बहुत कम लोगों
पर होती है! कि
ठीक गड्ढे में
गिरने के पहले
तुम्हारा हाथ पकड़े ले
रहा है!
मंत्री बनने
से अंत थोड़े
ही होगा। फिर
मुख्यमंत्री
कौन बनेगा? और
मुख्यमंत्री
बनने से कोई
अंत है! फिर
केन्द्रीय
मंत्री कौन
बनेगा? और
केन्द्रीय
मंत्री बनने
से कोई अंत है!
फिर उप—प्रधानमंत्री
और
प्रधानमंत्री?!
यह तो एक
पागलपन की
लंबी प्रद्वंखला
है! और अच्छा
है कि पहली ही
सीडी पर उतर
जाओ, क्योंकि
पीछे उरतना
बहुत मुश्किल
हो जाता है।
दों—चार सीढ़ियां
चढ़ गये, तो ??
उतरने में
लोकलाज भी
लगती है! फिर
लोग भी कहने लगते
हैं कि अरे, मैदान छोड्कर
भाग रहे हो? अब तो ड़टे
रही! अभी छोड़
दोगे तो कोई
कुछ नहीं
कहेगा, क्योंकि
छोड़ने को अभी
कुछ है ही
नहीं—अभी मत्री
हुए नहीं, होने
का अवसर आ रहा
है! और अवसर तो
आ रहा है, यह
मैं भी समझता
हूं।
तुम्हारा ही
नहीं आ रहा है,
सुgएन्द्रनाथ,
हर गधे का आ
रहा है! जो
जितना बड़ा गधा
है उतना बड़ा
अवसर है। गधे
बड़ी दुलत्ती
झाडू रहे हैं!
और जो बन गये
हैं, उनकी
तो दशा पूछो!
उनकी हालत तो
पूछो!
बोया
तो बासमती,
काटी
तो बाजरी,
रींधी तो जोंधरी,
खाई
तो कांकरी!
पहेली
बूझो, चौधरी!
जरा
चौधरी से तो
पूछो!
तुम
निश्चित
सौभाग्यशाली
हो।! इतने
सौभाग्यशाली
लोग कम होते
हैं! जरूर पिछले
जन्मों का कोई
पुण्य है।
वक्त पर काम आ
रहा है! नहीं
तो राजनीति तो
बड़ा उपद्रव का
खेल है।
गुड़िया के
भीतर,
गुड़िया है,
गुड़िया
भीतर गुड़िया
फिर गुड़िया
के भीतर
गुड़िया,
फिर गुड़िया
में गुड़िया;
सबसे छोटी गुडिया से
यह पूछा
मैंने,
'गुड़िया,
तू कितनी गुड़ियों
के अंदर,
क्या तेरा
यह जाना ?'
इतना
सुनकर मुझसे
बोली
सबसे छोटी गुड़िया
'दुनिया के
अंदर
दुनिया है,
दुनिया
अंदर दुनिया
फिर
दुनिया के
अंदर
दुनिया,
फिर
दुनिया में
दुनिया
तू कितनी दुनियों
के भीतर,
भान तुझे इन्साना ?'
राजनीति
तो चक्कर में
चक्कर है। फिर
चक्कर में
चक्कर। इसका
कोई अंत है? सुरेन्द्रनाथ! जब जाग जाओ
तभी सवेरा है।
और सुबह का
भटका शाम भी
घर आ जाए तो
भटका नहीं कहा
जाता। और अभी
तो शाम भी
नहीं हुई। अभी
तो मंत्री बने
ही नहीं.
मंत्री बनने
के बाद शाम
होती है; फिर
रात है! फिर
अमावस की रात
है! फिर मुझसे
मत कहना। अभी
दुविधा हो रही
है, बन
जाते तब तो
बडी मुश्किल
हो जाती। कुछ
बन गये हैं, वे भी मुझसे
कहते हैं कि
बात आपकी जंचती
है, मगर अब
क्या करें? अब बहुत देर
हो गई। अब इस
चक्कर में पड़
गये हैं, इसको
पूरा ही कर
लें! और चक्कर
को कौन पूरा
कर पाया है? चक्कर कहीं
पूरे होते हैं?
चक्कर का
मतलब ही होता
है कि चलते
रहो, चलते
रहो, चलते
रहो! जब चक्कर
ही है तो पूरा
कैसे होगा? कोल्हू का
बैल जैसे चलता
है वैसे इस
जिंदगी के
चक्कर हैं।
इसमें अगर तुम
थोड़े ठिठक गये
हो, और यहां
तक आ गये.
मंत्री होते तो
यहां नहीं आ
पाते। देखो, एक मंत्री न
होने का
फायदा! मंत्री
भी यहां आना
चाहते हैं तो
पहले वे खबर
करते हैं।
क्या खबर करते?
वे कहते हैं
कि हमें
निमंत्रण दिलवाएं।
क्योंकि बिना
निमंत्रण हम
कैसे आएं? और
मैं उनसे कहता
हू कि
निमंत्रण और
सबके लिए दिलवा
सकता हूं, मंत्रियों
के लिए नहीं।
तुम आओ, जैसे
और सब आते हैं!
अभी
कुछ ही दिन
पहले
मध्यप्रदेश —के
उप—मुख्यमंत्री
पूना में थे।
उनके सेक्रेटरी
ने फोन किया
कि उप
मुख्यमंत्री
आना चाहते है।
तो कहा गया कि
ठीक है, जरूर आएं।
उन्होंने कहा,
लेकिन बिना
निमंत्रण के
वे कैसे आएं? तो उनको कहा
गया, जब
आना चाहते हैं
तो निमंत्रण
का सवाल क्या
है? आना
उन्हें है, हमारी कोई
उत्सुकता
नहीं, कि
हम निमंत्रण
दें। प्यासे
को आना हो तो
आए कुएं पर; कुआं कोई
निमंत्रण
नहीं देता
फिरता कि आना,
आइए, जरूर
आइए, पधारिए ! ! सेक्रेटरी
बोला कि शायद
समझने में भूल
हो रही है, आपको
बात साफ हो
रही है कि
नहीं, वे
मध्यप्रदेश
के उपमुख्यमंत्री
हैं! जब सेक्रेटरी
की कुछ दाल
गली नहीं तो
उप—मुख्यमत्री
ने स्वयं फोन
लिया.....बैठे
होंगे पास ही!
क्योंकि सीधे
तो कैसे फोन करें
कि मैं आना
चाहता हूं तो
मुझे
निमंत्रण, लेकिन
जब देखा कि इस
तरह रास्ता
नहीं चलेगा, यह सचिव की
नहीं चलेगी, तो उन्होंने
कहा कि मैं उप—मुख्यमंत्री
स्वयं बोल रहा
हूं, मैं
आना चाहता हूं;
आश्रम से
किसी को भिजवा
दें। मैंने
उनसे कहा, आप
आ जाएं, आश्रम
का पता दुनिया
के दूर—दूर
कोने तक फैला
हुआ है.....!
बदनामी बहुत
है! इसीलिए तो
मैं बद— नामी
से हैरान नहीं
होता; चलो,
कुछ नाम न
हुआ तो बदनामी
ही सही! कम—से—कम
खबर तो दूर—दूर
तक पहुंच
जाएगी। फिर
जिसको आना है
वह आ जाएगा।
चलो, यही
सही कि पानी
खारा है, इसकी
खबर पहुंच जाए।
फिर लोग आकर
पीते हैं तो
जान लेते हैं
कि खारा है या
मीठा है। मगर
एक बार खबर तो
पहुंच जाए।
तो
मैंने कहा कि
पूना में ही
बैठे हैं, आ
सकते हैं! कोई
भी ले आएगा, कोई भी रिक्शेवाला
ले आएगा! और
अगर आपको कहने
में संकोच
लगता हो तो
सिर्फ गैरिक
वस्त्र पहनकर
रस्ते पर खड़े
हो जाएं, कोई
भी रिक्शेवाला
एकदम बिठाकर
आश्रम पहुंच
देगा।।। कहना
भी नहीं पड़ेगा।
रिक्शेवाले
पूछते ही नहीं
कहां जाना है,
आश्रम ले
आते हैं।. ....और
तो कहीं कोई
जा भी नहीं
रहा है पूना
लें!
मगर
नहीं हिम्मत
जुटा सके।
अच्छा
है कि मंत्री
अभी हुए नहीं।
तो आ तो गये!
बनकर भी मंत्री
क्या होगा? क्या
पा लोगे? कितने
तो भूतपूर्व
मंत्री हैं इस
देश में......पहले
मुझे भक्तों
में विश्वास
नहीं था; मगर
अब है! इतने
भूतपूर्व
मंत्री हैं तो
भूत भी होते
ही होंगे! जो
देखो वही
भूतपूर्व मंत्री
है! तीस सालों
में भारत में
और हुआ ही
क्या?
मंत्री
बनने को तु..
.तु... आ .ऊं
क्या
कुत्ते ने
काटा है!
राज्यसभा
में जब से
पहुंचा
मित्र
निकट के आते
हैं
मुझे
अकेले में ले
जाकर
खुस—फुस
प्रश्न उठाते
हैं
बधु, तुम्हारे
मंत्री बनने
का कब नंबर
आता है?
मंत्री
बनने क।ए तु... तु..
आ.. .ऊं,
क्या
कुत्ते ने
काटा है!
साठ
बरस तक जो
वाणी पर
अक्षर—अर्थ
चढ़ाएगा,
राजनीति
के हुड़दंगों
में
वह हड़बोंग
मचाएगा!
ढोंगी
जन्म लिया
करता है, नहीं
बनाया जाता है।
मंत्री
बनने को तु..
.तु.. आ.. .ऊं,
क्या
कुत्ते ने
काटा है!
पंछी—सा
जो ऐसा चहके
जड़ गण मन को बहकाए,
अजगर—सा जो
ऐसा बैठे
देश न तिल—भर
हिल पाए
दास मलूका
की धरती पर
ऐसों का क्या
घाटा है।
मंत्री
बनने को तु—..
तु... आ.. .ऊं
क्या
कुत्ते ने
काटा है!
तुम्हें
कुत्ते ने
काटा? और अगर
कुत्ते ने
काटा हो तो
तुम वही करो
जो मुल्ला नसरुद्दीन
ने किया!
मुल्ला
नसरुद्दीन
को एक दिन एक
पागल कुत्ते
ने काट लिया।
ले गये उसके
घर के लोग उसे
अस्पताल। डाक्टर
ने कहा, बहुत
देर हो गई, अब
इन्जेक्शन
भी काम करेगा
कि नहीं करेगा,
कुछ पता
नहीं। ड़र
है कि यह आदमी
पागल हो जाएगा।
मुल्ला
नसरुद्दीन
ने यह सुना, कहा
कि जल्दी से
मुझे कागज और
कलम दें।
डाक्टर ने
जल्दी सै कागज—कलम
दी। मुल्ला नसरुद्दीन
एकदम बैठकर
लिखने लग गया कागज
पर कुछ जोर से,
एकदम तेजी
से। इतनी तेजी
से कि डाक्टर
ने पूछा कि
क्या वसीयत
लिख रहे हैं? मुल्ला नसरुद्दीन
ने कहा, वसीयत—मसीयत
क्या...? मे
उन आदमियों के
नाम लिख रहा
हूं, जिनको
पागल होने के
बाद काटूंगा।
फिर पागल हो
गया, भूल न
जाऊं! फेहरिस्त
बना रहा हूं।
तुम
कहते हो, सुरेन्द्रनाथ,
कि मैं अपनी
जिंदगी
राजनीति में
ही गंवाया हूं।
अगर यह बात
समझ में आ गई
हो कि गंवाये,
तो अब और
क्या दुविधा
है? हां, कुछ कमाए
होओ तो दुविधा
हो सकती थी। गंवाए हो।
अभी भी चौंक
जाओ। अभी भी
सावधान हो जाओ।
अभी भी देर
नहीं हो गई, कुछ कमाया
भी जा सकता है।
मरने के एक
क्षण पहले भी
अगर आदमी होश
से भर जाए तो जीवनभर
का गंवाना एक
तरफ और उस एक
क्षण का कमाना
एक तरफ। और उस
कमाई का पलडा
भारी! मगर मैं
समझता हूं कि
अब तुम्हें
अड़चन होती
होगी कि जिंदगीभर
तो इसी दौड़—धूप
में रहा कि
कैसे मंत्री
हो जाऊं, अब
मत्री
होने का अवसर
करीब आ रहा है!
अब सभी का
करीब आ रहा है।
अब सचाई तो यह
है कि अगर हम
में समझदारी
हो, तो
हमें सारे देश
को मंत्री
घोषित कर देना
चाहिए। यह
झंझट ही क्या?
यह क्या
पंचायत लगा
रखी है!
तहसीलदार के
दफ्तर में एक
रुपया जमा
किया, सर्टिफिकेट
लिया, अपना
घर आ गये, मंत्री!
सभी
को मंत्री
घोषित कर देना
चाहिए।
दौड़
ऐसी मची है कि
सभी होकर
रहेंगे! और
सभी के होने
में देश
मटियामेट हो
जाएगा।
क्योंकि जो हो
जाए,
वह जब तक हो
नहीं पाता तब
तक सारी ताकत
होने में
लगाता है, और
जब हो जाता है
तब सारी ताकत
बचे रहने में
लगाता है! इस
देश का काम
कौन करे? इस
देश के काम की
फुर्सत किसके
पास है? समय
कहा है? पहले
सत्ता को पाओ,
उसमें
जिंदगी लगाओ;
फिर सत्ता
मिल जाए तो
कुर्सी से जकड़ने
में सारी
शक्ति लग जाती
है। फिर
कुर्सी अगर
छिन जाए, तो
फिर उसे पाने
की चेष्टा में
लगो; क्योंकि.
फिर अपमान लगता
है। कि इतनी
ऊंचाई पर
पहुंच कर अब साधाराण
आदमी की तरह जीओ। यह भी
बर्दाश्त के
बाहर हो जाता
है। यह उपद्रव
इतने जोर से
फैल रहा है कि
मेरे हिसाब से
तो सभी को घोषागा
कर देनी चाहिए
कि सभी लोग
मंत्री! जैसे
प्रत्येक
व्यक्ति
भारतीय, ऐसे
प्रत्येक
व्यक्ति
मंत्री।
इसमें क्या
अड़चन है? भारतीय
होना और
मंत्री होना
पर्यायवाची।
इससे अड़चन कम
हो; इससे
झंझट मिटे; कुछ काम तो
हो सके!
तीस
सालों में कुछ
काम नहीं हो
सका। काम हो
ही नहीं सकता!
और आगे और
मुश्किल होता
चला जाएगा।
क्योंकि सभी
की महत्वाकांक्षाएं
जग रही हैं।
और सभी को लग
रहा है कि
मंत्री बन
सकते हैं, जरा
सांठ—गांठ
बिठाने की बात
है! अब तुम कह
रहे हो कि मंत्री
बनने का समय
बिलकुल करीब आ
गया है, अवसर
हाथ में है और
आपका संन्यास
आकर्षित कर रहा
है। शुभ घड़ी
है। समय पर:
तुम्हें
परमात्मा ने
जैसे पुकार
लिया है। इस
अवसर को चूको
मत! हो जाओ
संन्यस्त।
देख ली
राजनीति, खुब
देख ली, अब
संन्यास का
रंग भी देखो!
इस आनंद को भी
देखो! राजनीति
का अर्थ होता
है : दूसरे पर
कब्जा, दूसरों
पर मालकियत।
संन्यास का
अर्थ होता है :
अपने पर
मालकियत। और
अपने मालिक
होने का जो
मजा है, वह
इस दुनिया में
किसी और चीज
में नहीं।
सिकंदर
भी दरिद्र है
बुद्धों के
सामने।
यद्यपि बुद्ध
के पास कुछ हो
या न हो, कौडी भी न हो, तो
भी सिकंदर
दरिद्र हैं।
बुद्ध
एक गांव में
आए। उस गांव
के वजीर ने
अपने राजा से
कहा कि हमें स्वागत
करने को चलना
चाहिए, गांव
के बाहर, बुद्ध
का आगमन हो
रहा है। राजा
ने कहा कि हम
क्यों जाए? वह भिखारी
है, मैं
सम्राट हूं।
मेरे उसके
स्वागत के लिए
जाने की जरूरत
क्या है? वजीर
ने राजा की
तरफ देखा और
कहा, तो
फिर मेरा
इस्तीफा
स्वीकार कर
लें, मैं
आपके नीचे काम
नहीं कर
सकूंगा।
लेकिन उस वजीर
के बिना काम
चल नहीं सकता
था, क्योंकि
वही वस्तुत:
सारे राज्य को
सम्हाल रहा था।
राजा तो अपने
भोगविलास में
लीन रहता था।
उसने कहा, आप
छोड़ रहे हैं, इतनी—सी बात
पा! वजीर ने
कहा, इतनी—सी
बात नहीं है।
ऐसे आदमी के
नीचे क्या काम
करना जिसे
इतना भी बोध
नहीं है कि जो
सोचता है कि
धन कुछ है, कि
राज्य कुछ है
और ध्यान कुछ
नहीं और समाधि
कुछ नहीं।
समाधि असली
संपदा है। या
तो आओ मेरे
साथ बुद्ध के
स्वागत के लिए,
उनके चरणों
में झुको, या
मेरा नमस्कार!
मैं तुम्हारे
नीचे फिर काम
नहीं कर सकता।
ऐसे क्षुद्र
आदमी के नीचे
क्या काम
करना!
बुद्ध
के पास कुछ हो
या न हो, बुद्धत्व
है। स्वयं का
होना है।
स्वयं की
शांति है, आनंद
है। शाश्वत
वीणा बज रही
है वहां।
सच्चिदानंद
का नाद हो रहा
है। तुम
मंत्री की
फिक्र में पड़े
हो ?! मैं
तुम्हारी
हृदय—तंत्री
को बजाने को
राजी, मौका
दो, कि मैं
तुम्हारे तार छेडू; कि
मैं तुम में
गीत उठाऊं
जो तुम गाने
को पैदा हुए
हो। क्या हाथ जोड़ते
फिरते हो!
क्या भीख
मांगते हो!
अब्बर देबी, जब्बर
बकरा
तागड़
भिन्न। नागर
बेल।
छोटा नाम
बड़ा पर दर्शन
महिमा और
बडी मशहूर,
उससे और
बड़े हैं पंडे
सत्ता—भत्ता
मद में चूर
भेंट चढ़ाए, धक्के
खाएं भगत,
मचाएं वे रंगरेल।
अब्बर देबी, जब्बर
बकरा
तागड़ धिन्ना नागर
बेल।
आसन भी है, शासन
भी है,
अफ्सर, दफ्तर,
फाइल, नोट,
पुलिस, कचहरी,
पलटन—सलटन,
सबसे ताक़तवर
है बोट
बोट नहीं
क्यों पाया
तुमने? तिकड़मबाजी में तुम फेल
अब्बर देबी, जब्बर
बकरा
तागड़ धिन्ना
नागर बेल।
गुल
समाजवादी
समाज का,
पूंजीवाद
खिला; अंधेर!
कलकत्ते की
ओर चले थे,
पहुंचे
जाकर जैसलमेर!
बहुत
दिनों पर भेद
खुला है, ऊट रहा
है खींच नकेल! अब्बर देबी,
जब्बर बकरा,
तागडू धिन्ना
नागर बेल।
आय इकाई, बजट
दहाई,
प्लान सैकड़ा, कर्ज
हजार,
खर्च लाख
में, साख
बंधी है,
देता है हर
देश उधार
पन्द्रह पीढ़ी
गिरवी रख दी लीड़र जी
ने जूआ खेल।
अब्बर देबी, जब्बर
बकरा
तागड़ धिन्ना
नागर बेल।
सुरेन्द्रनाथ, कहां
के चक्कर में
पड़े हो, किस
चक्कर में पड़े
हो! छिटक कर
अलग हो जाओ! और
देर न करो।
क्योंकि मन
बहुत चालबाज
है। अगर तुमने
देर की, तो
मन समझाएगा
कि. अरे थोड़ा
तो देख लो!
इतने दिन रहे
हो, अब
थोड़ा कुर्सी
का भी मजा देख
लो! मगर
कुर्सी पर हैं
उनकी दशा नहीं
देखते? तुम
मजा देख पाओगे?
कुर्सी पर
बैठते ही कोई
टांग खींचेगा,
कोई हाथ
खींचेगा; कोई
कुर्सी की टांग
ले भागेगा, कोई कुछ
करेगा, कोई
कुछ करेगा! और जहां
तक सुरेन्द्रनाथ
होने चाहिए, होंगे बिहार
से, जहां
कि फजीहत बहुत
होगी। इस देश
में अगर पूरी
फजीहत करवानी
हो तो बिहार
में राजनीति
खेलनी चाहिए।
अभी—अभी वहा
समग्र
क्रांति शुरू
हुई थी, और
पूरे देश को
एक उच्छंखलता
में, अराजकता
में, एक मूढ़ता
में डालकर वह
समय क्रांति
समाप्त हो गई।
राजनीति है ही
उपद्रव।
हुड़दंग!
राजनीति गुंडागीरी
का अच्छा नाम
है। खादी पहन
लेने से कुछ
गुंडे साधू
नहीं हो जाते!
मुल्ला
नसरुद्दीन
खादी पहने हुए
एक प्रदशर्नी
में गया था।
सफेद। गांधीवादी
टोपी, और खादी,
और चूडीदार
पाजामा—बिलकुल
शुद्ध नेता!
और एक सुंदर
स्त्री को भीड़—भाड़
मे देखकर
धक्का देने
लगा। उस
स्त्री ने
थोड़ी देर तो
बर्दाश्त
किया, फिर
उसने कहा कि
शर्म नहीं आती
इं सफेद
वस्त्र पहनकर,
खादी पहनकर
और इस तरह की
लुच्चाई करते
हो? मुल्ला
नसरुद्दीन
ने कहा किए अब
अपने वालों से
क्या छिपाना।
अरे, कपड़े
ही सफेद हैं, दिल तो अभी
भी काला है!
और
दिल जितना
काला हो, उतना
ही छिपाने की
जरूरत पड़ती है।
दिल जितना काला
हो, उतने
ही आवरणों में
ढांकना पड़ता
है। राजनीति
का मजा क्या
है? यही न
कि अहंकार को
तृप्ति
मिलेगी? कि
मैं कुछ हूं!
और मैं ही तो
खा जाता है।
और मैं ही तो
रोग है! और
संन्यास है :
मैं का त्याग।
मैं से मुक्ति।
संन्यास है :
मैं से
संन्यास। मैं
संसार छोड़ने
को संन्यास
नहीं कहता, 'मैं' छोड़ने
को संन्यास
कहता हूं। मैं—भाव
छोड़ने को
संन्यास कहता
हूं।
अगर
घड़ी आ गई है सोभाग्य
की और
तुम्हारे मन
में दुविधा
उठी है, तो
गलत मत चुन
लेना। मन की
तो पुरानी
सारी आदतें
गलत चुनने को
कहेंगी।
लेकिन इस बार
हिम्मत कर के
बाहर निकल आओ
अपने मन से।
एक बार तो
जीवन में कुछ
ऐसा करो जो
तुम्हें बुद्धों
से जोड़ दे। जो
तुम्हें जीवन
की उस ज्योर्तिमय
परम्परा से
जोड़ दे। उनसे
जोड़ दे
जिन्होंने
जाना है, जीआ है;
जिन्होंने
जीवन के परम
सत्य को
पहचाना है और
परम गरिमा को
अनुभव किया है।
आ
गये हो तो
खाली हाथ मत
जाना! एक तो
आना दुर्लभ है, आ
गये हो, फिर
आकर संन्यास
का भाव उठा है,
वह और भी
दुर्लभ है। और
वह भी
राजनीतिज्ञ
के मन में उठा
है, जोकि
करीब—करीब
असंभव जैसी
बात है; जब
इतनी बड़ी
असंभव बात
तुम्हारे
भीतर उठी है
तो परमात्मा
की विशेष
अनुकम्पा
मालुम होती
है! कुछ
तुम्हारी खास
ही फिक्र कर
रहा है, सुरेन्द्रनाथ! ऐसा अवसर
चूकना मत! छोड़ो
दुविधा, छोड़)
द्वंद्व, लो
छलांग! जीवन
को एक और शलौई
से जीकर भी
देखो! मस्ती
से, गीत
गुनगुनाते
हुए, नाचते
हुए! भजन से जीओ?
और तुम चकित
हो जाओगे, एक—एक
क्षण बहुमुल्य
है। एक—एक
क्षण अहर्निश
उसकी वर्षा हो
रही है। एक—एक
क्षण अमृत तुम
में बरसने को
आतुर है। और
तुम हो कि जहर
की दुकान के
सामने 'क्यू' लगाए
खडे हो! और
तुम कहते हो
किं अब मेरा
नंबर बिलकुल
आया ही जा रहा
है और अब आप आए
हैं अमृत की
खबर देने, अब
मैं बड़ी
दुविधा में
पडा हू! अब 'क्यू'
में बिलकुल
मैं आया ही जा
रहा हूं आगे, बस, एक—दो
और आदमी हटे
कि मेरा नबर
लगने ही वाला
है, मेरी
प्याली में
जहर भरने ही
वाला है!
राजनीति
जहर है। यह
दुनिया
राजनीति से
मुक्त होनी
चाहिए। और मैं
यह नहीं कह
रहा हूं कि
दुनिया बिना
राज्य के चल
सकेगी; लेकिन
दुनिया बिना
राजनीति के चल
सकती है।
राज्य एक बात
है, राजनीति
बिलकुल दूसरी
बात है। राज्य
तो ठीक है!
जरूरत है उसकी,
व्यवस्था
है। लेकिन
राजनीति की
कोई जरूरत
नहीं है। राज—
नीति रोग है, जहर है। और
जितने लोग
उसके बाहर
निकल आएं, उतना
शुभ। जितने
लोग इस देश
में राजनीति
को छोड्कर
जीने लगें, उतना शुभ।
उससे हवा
बनेगी, बगिया
मैं नये हल
खिलेंगे। तुम
भी भागीदार
बनो इन
गुलाबों को
खिलाने के लिए——संन्यास
के गुलाब—तुम्हारा
भी हाथ इसमें
जुड़े; मैं निमंत्राग
देता हूं!
आज
इतना ही।
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