उरूग्वे—(अध्याय—14)
ओशो मोर्ट
विडियो के एक
होटल में रुके
हुए थे। जब
में वहां
पहुंची और उसी
दिन मैं उनका
कमरा सुव्यवस्थित
करने गई। वे
खिड़की के पास
पड़ी एक
कुर्सी पर
बैठे थे और
थके हुए लग
रहे थे।
देवराज ने मुझे
बताया कि ओशो
आयरलैंड में
बहुत दुर्बल
हो गए थे तथा
अपने कमरे के
बाहर के
बरामदे तक का
फासला भी तय
नहीं कर सकते
थे।
मैंने
उनके पैर छुए
तथा मुस्कराती
हुई वहां बैठ
गई। मैंने
उनसे पूछा कि
वे कैसे है।
उन्होंने
हां में सिर
हिला दिया। वे
जानना चाहते
थे कि मैं
दुर्घटना से
पूरी तरह ठीक
हुई या नहीं।
मैंने उन्हें
बताया कि
यद्यपि मोटर साईकिल
पर जाना एक
मूर्खता थी परंतु
यह अनुभव बहुत
मूल्यवान
था। उन्होंने
कुछ नहीं कहा, मेंने
उन्हें पानी
का गिलास दिया
और उनका कमरा
सुव्यवस्थित
करने लगी। वे
चुप चाप बैठे
रहे।
उस साल
हमने उनका सम्बोधि-दिवस
नहीं मनाया।
मुझे याद आया
उन्होंने
काठमांडू में
पहले ही यह
कहा था कि वे विशेष
उत्सव के दिन
नहीं चाहते थे
बल्कि हमें
साल का प्रत्येक
दिन उत्सव के
रूप में मनाना
चाहिए।
होटल में
आनंदों विवेक
देवराज जॉन, मुक्ति
व राफिया थे
तथा थोड़ी ही
देर में वे
मुझे आयरलैंड
में बिताए
दिनों के बारे
में बताने लगे
वे होटल में
ही फंसे हुए
थे। बाहर जाने
की अनुमति
नहीं थी।
दूसरी मंजिल
को छोड़कर
जाने की भी
नहीं। जहां वे
रुके हुए थे।
स्थिति कुछ
स्वेच्छा
पूर्ण
नज़रबंदी
जैसी थी। वे
केवल पूरा दिन
अपने कमरे की
चारदीवारी को
ही देख सकते
थे। या दूसरे
की, जो
वैसे भी एक
जैसी ही थी।
स्थानीय
पुलिस का कहना
था कि उन्हें
ओशो के बारे
में आय.आर.ए. की
धमकियां मिल
रही थी। इसलिए
सुरक्षाकर्मी
चौबीस घंटे
उनके साथ रहते
थे। होटल
मोटरोला
वार्तालाप की
फुसफुसाहट से
तथा
मोर्चाबंदी
से भरा रहता
था।
तीन सप्ताह
के पश्चात जब
ओशो ने होटल छोड़ा
तो होटल के
कर्मचारी उन्हें
अलविदा कहने
आए और ओशो ने
मैनेजर से कहा
कि वे उनके होटल
में बड़ी
सुविधा से रहे
तथा यह उनके
लिए घर जैसा
था। अब उरूग्वे
में ओशो ने
हमसे अनुरोध
किया कि हम
आयरलैंड के
होटल में टेलीफ़ोन
करें और उनसे
वहां परोसी गई
चटनी बनाने की
विधि पूँछें ओर
उन्हें यह भी
बताएं कि यह
चटनी सबसे अच्छी
चटनी थी जो आज
तक उन्होंने
खाई थी।
हास्य व
जयेश मोर्ट
वीडियो पहुंच
चुके थे और
ओशो के लिए
पुंटा डेल एस्टेट
में घर ढूंढ
रहे थे। इसे
दक्षिण
अमरीका का रिविएरा
कहा जाता था।
और यह इतना
सुंदर सिद्ध
हुआ कि हम
विस्मित थे
कि शेष विश्व
को इसके बारे
में कुछ पता
ही नहीं था।
अगले दिन
जयेश आनंदों
और में तीन
घंटे तक कार
ड्राइव करते
हुए मैदानी
हरियाली भरे
वन प्रदेश से
पुंटा डेल एस्टेट
पहुंचे। जो चोडी
बीच तथा
समुद्र की और
जाता था। यहां
के इलाके की
समुद्री हवा अपनी
रोगहर-शक्तियां
के लिए
प्रसिद्ध थी
तथा इसकी
सुगंध साफ, स्वच्छ
तथा मधुर थी।
घर बहुत
शानदार था और
वास्तव में
वे दो घर थे
जिन्हें बाद
में दोनों को
मिलाकर एक कर
दिया गया था।
यह बहुत बड़ा
था। बाहर से
रंग बिरंगे
छिले हुए तनों
वाले सफेदे के
लम्बे
पेड़ों से
घिरा एक
बग़ीचा था
जिसमे एक सुंदर
लॉन स्विमिंग
पूल तथा एक
टेनिस कोर्ट
था। हास्या व
जॉन जो
रजनीशपुरम
आने के पहले
हॉलीवुड में
रहते थे। का
कहना था कि
इसका पड़ोस बेवरली
हील्स को मात
करता था। ओशो
के कमरे
घुमावदार सीढ़ियों
से ऊपर जाते
थे। ढलान पर
हमने तीस फुट
ऊंची संकरी
खिड़की के
सामने एक छोटे
से प्लेटफॉर्म
पर ओशो का
भोजन का मेज़
लगा दिया जहां
से पेड़ दिखाई
देते थे। एक
छोटा सा
गलियारा था
जिसके एक सिरे
पर बड़ा सा
आधुनिक बाथरुम
था,
लगभग उतना ही
बड़ा जितना
रजनीशपुरम
में था। इसके
दूसरे सिरे पर
बेडरूम था। बेडरूम
सर्वोतम तो
नहीं कहां जा
सकता। परंतु
पूरे घर में
यही एक कमरा
था जिसमे एयरकंडीशनर
तथा पूर्ण
एकांत था।
इसमें अँधेरा
था और इसके एक
तिहाई को सेमल
की लकड़ी से
पट्टीदार दरवाजा
बाक़ी कमरे से
विभाजित करता
था। उस कमरे
में विचित्र
सी अनुभूति
होती थी। और
इसमे से अजीब सी
गंध आती थी।
हम अक्सर
मज़ाक किया
करते थे वहां
कोई भूत था।
परंतु घर
पूर्णत: स्वच्छ
था और ओशो
प्रसन्न थे।
जब वे वहां
पहुंचे अपनी
कमर पर हाथ
रखे वे हंसकर
चारों और गए
तथा घर-बग़ीचे
की सराहना की।
दो दिन के बाद
वे प्रतिदिन
बग़ीचे में
आकर बैठने
लगे। उन्हें
विवेक का हाथ
थामें
सीढ़ियों से
उतरते देखना, सरोवर की
और जाने और
उनके लिए
तैयार रखी
कुर्सी तक उन्हें
जाते देखना
बहुत आनन्द पूर्ण
होता। एक बार
वे लम्बे
सफ़ेद रोब
जिसे में नाइटी
ही कहूंगी—और
बिना हैट के
परंतु अपना कै
जाल चश्मा
पहने जिसे हम
माफिया चश्मा
कहते थे। बाहर
आए। यह दृश्य
बहुत आत्मीय
लग रहा था। और
विचित्र भी लग
रहा था। कभी-कभी
जयेश व हास्या
के साथ कार्य
करते तथा कभी आनंदों
के साथ, या
फिर दो या तीन
घंटे पूर्ण स्थिरता
में बैठे रहते
जब तक विवेक
उन्हें लेने न
आती या यह
कहने न आती कि
भोजन तैयार
है। वे कभी
कुछ नहीं
पढ़ते थे। वे
बिना हीले-डूले
कुर्सी पर
बैठे रहते और
शरीर को जरा
भी इधर-उधर
हिलाते नहीं
थे।
जब
वे सरोवर के
किनारे होत तो
हम सभी
जानबूझकर
उनकी दृष्टि
से परे रहते।
बिना कहे ओशो
सबके भीतर यह
भाव निर्मित
करते है कि
उनके एकांत का
आदर हो। जब वे
हमारे साथ
प्रवचन में
होते है वे
इतना
देते है कि
जब वे बग़ीचे
में घूम रहे
हों या अपना
भोजन ले रहे
हो तो उन्हें
हम पूर्ण रूप
से अपने ही साथ
होने देते है।
अचानक ही वे
किसी से मिल
जाएं तो यह
दृश्य देखने
जैसा होता है।
कि वे कितनी
समग्रता से वे
उस व्यक्ति
का अभिवादन
करते है। उनकी
दृष्टि आपके
भीतर उतर जाती
है। उनके साथ
अकस्मात मुलाक़ातों
में मैं
हतप्रभ हो
जाती हूं—परंतु
फिर भी उन्हें
उनकी एकांतता
प्रदान करना
ही अच्छा
लगता है। अत:
यद्यपि हम ओशो
के साथ एक ही
घर में रह रहे
थे। तो भी
प्रवचनों के
अतिरिक्त वे
अकेले शांत
बैठे रहते थे।
एक दिन
आनंदों ने
मुझे बताया कि
एक दिन वह बग़ीचे
मे बैठकर ओशो
को समाचारों
की कतरने तथा
शिष्यों
कीओर से आए
पत्र सुना रही
थी। समुद्र से
एक तेज हवा
उठी और लम्बे
देवदारू के
पेड़ जो घर को
घेर हुए थे, फूलने
लगे तथा उन पर
लगे चीड़ के
शंकु फल कोन
छोटी-छोटी
चट्टानों के
समान बरसने
लगे। ये शंकु
फल ओशो और
उनके आस-पास
गिर रहे थे।
थम-थम उसने
ओशो से अनुरोध
किया कि वे छत
के नीचे चलें।
वे बोले,
नहीं-नहीं वे
मुझे चोट नहीं
पहुँचाएगा।
और वे वहां
शांत बैठे रहे
जबकि अपने
आस-पास इन
कोनों की होती
झड़ी को देखकर
उछलती कूदती
रहीं। उसे याद
था ओशो कितने
आश्वस्त थे
तथा उनकी निश्चिंतता
कितनी
असाधारण थी कि
उन्हें चोट
नहीं पहुँचेगी।
लगभग दो सप्ताह
के बाद पुलिस
हम पर निगरानी
रखने लगी और वे
अपनी कार में
से चौबीस घंटे
हमे देखते
रहते। और
धीरे-धीर घर
का चक्कर
लगाते रहते।
इससे ओशो के
बग़ीचे की सैर
बंद हो गई। वे
अपने कमरे तक
ही सीमित रहने
लगे। और उनकी
ब्लांइडज़
भी उनकी
सुरक्षा के
लिए खिंची
रहती। हमें
हमेशा यह भय
रहता कि कहीं
ओशो को कोई
हानि न पहुंचे
और इसके लिए
उन्हें अपने
कमरे तक ही
सीमित कर दिया
गया। वे हमेशा
कहते वैसे भी
वे आंखें बंद
किए चुपचाप
बैठे रहते है
अत: इस बात से
कोई अंतर नहीं
पड़ता। उन्होंने
कहां कि यदि
कोई स्वयं
में ही आनंदित
है,
केंद्रित है
तो कहीं जाने
की कोई आवश्यकता
नहीं है। क्योंकि
तुम्हारे
अपने भीतर से
बेहतर अन्य
कोई भी स्थान
नहीं मिलेगा।
मैं जहां भी
हूं स्वयं
में स्थिर
हूं....ओर क्योंकि
मैं आनंदित
हूं इसलिए मैं
जहां भी होता हूं
वह स्थान
मेरे लिए
आनंदपूर्ण
होता है। ....ओशो
शीत ऋतु आ
रही थी और टूरिस्ट
सीज़न समाप्त
हो रहा था अत:
पड़ोस शांत
था। यह सन्नाटे-भरा
शांत एकांत स्थान
मेरे लिए हीरे
की खान होने
वाला था, जहां अपने
भीतर की सम्पदा
की खोज व
उपलब्धि की
खान, क्योंकि
ओशो ने रहस्य
के आगे से आगे
खुलनेवाले
दरवाज़ों की
चाबी दी।
अगले कुछ
सप्ताह मैं
संसार को बिल्कुल
भूल गई। सब
मौन व शांत लग
रहा था। निजी
अंगरक्षक
अपने घर चले
गये थे। हमारी
पुलिस के साथ
भी मित्रता हो
गई थी। ओशो के
प्रति दुर्व्यवहार
के कारण विश्व
के प्रति
हमारे भय व मो
भंग के बारे
में ओशो ने
उत्तर दिया:
‘आस्था
का केवल इतना
ही अर्थ है कि
जो भी घटना है
हम उसके साथ
है, सहर्ष, अनमने भाव
से नहीं,
अनिच्छा से
नहीं—तब बात
समझने में हम
चूक जाते है—परंतु
नृत्य करते
हुए गीत गाते हुए, हंसते हुए
प्रेमपूर्वक
फिर जो भी हो
वह शुभ है।’
‘अस्तित्व
कभी गलत नहीं
हो सकता।’
‘अगर
वह हमारी इच्छा
की पूर्ति
नहीं करता है
तो स्पष्ट
है हमारी इच्छा
गलत थी।’
(द पाथ ऑफ द
मिस्टिक)
हास्या और
जयेश निरंतर
विभिन्न
देशों में ओशो
के लिए घर
ढूंढ रहे थे।
इस आशंका से
कि शायद उरूग्वे
में बात न
बने। मॉरीशस
के
प्रधानमंत्री
के निमन्त्रण
पर अड़तालीस
घंटों की
उड़ान के पश्चात
मॉरीशस
पहुंचे जहां
पहुंचकर उन्हें
पता चला कि
उनके देश में
ओशो के प्रवेश
की अनुमति के
बदले में वह
छह लाख डॉलर
की मांग कर
रहा था।
फ्रांस ने दस
लाख डीलरों की
मांग की। अब
तक ओशो के
प्रवेश के लिए
इक्कीस देश
इंकार कर चूके
थे। यहां तक
कि वे देश भी
जिनके बारे
में कभी सोचा
भी न था। इतना
भय कि एयरपोर्ट
पर उतरने मात्र
सेवे उनके देश
की नैतिकता
नष्ट कर
देंगे। ओशो ने
दिन में दो
बार प्रवचन
देना शुरू कर
दिया। वे
घुमावदार
सीढ़ी से नीचे
आते लाल ईंटों
के चमकते फर्श
से गुजरते
प्रणाम की
मुद्रा में
हाथ जोड़े एक
सुंदर सी खुली
बैठक में
प्रवेश करते
जहां लगभग
चालीस लोगों
के बैठने का
स्थान था। यह
बहुत अंतरंग
स्थिति थी
अत: उसके
प्रवचन यहां
अलग ढंग के थे
और वे बहुत
धीमे तथा
धीरे-धीरे
बोलते थे। अब
उनके प्रवचन
रजनीशपुरम या
पूना जैसे आग्नेय
नहीं होते थे।
उन्हें
पूछने के लिए
प्रश्न
ढूंढना जैसा
कि ओशो कहते
थे.....अचेतन के
परिमार्जन
जैसा था, कभी-कभी वे
एक बैठक में
पाँच या छह
प्रश्नों के
उत्तर देते
और हमेशा
हमारे द्वारा
पूछे प्रश्नों
को नहीं लेते
थे।
मनीषा के
पास हमारे
प्रश्न इकट्ठे
करने का काम
था। क्योंकि
प्रश्न
ढूंढना कोई
आसान काम नहीं
होता जबकि
पिछली बार जो
प्रश्न आपने
पूछा हो, हो सकता है तुम्हारे
लिए उसका उत्तर
झेन छड़ी बनकर
आया हो।
एक बात का
स्मरण रखना, जब तुम
प्रश्न
पूछते हो तो
किसी भी तरह
के उत्तर के
लिए तैयार
रहना। किसी
ऐसे उत्तर की
उपेक्षा मत
रखना जो तुम्हें
अच्छा लगता
हो। नहीं तो
तुम सीख न
पाओगे। तुम्हारा
विकास न हो
पाएगा। यदि
मैं कहता हूं
कि किसी विशेष
बात में तुम ठीक
नहीं हो तो
उसे देखने की
कोशिश करो।
मैं तुम्हें
चोट पहुंचाने
के लिए वह बात
नहीं कहा रहा हूं
यदि मैं कुछ
कह रहा हूं तो
वह सत्य है।
और यदि तुम
छोटी-छोटी
बातों से
पीड़ित अनुभव
करोगे तो मेरे
लिए कार्य
करना असम्भव
हो जाएगा। तब
मुझे देखना
होगा कि तुम
क्या पसंद
करते हो, तब मेरा कोई
उपयोग न
रहेगा। तब मैं
तुम्हारे
लिए सद्गुरू
नहीं रह जाऊँगा.....ओशो।
ओशो उस
सुंदर अवस्था
कि बात भी
करते जहां
पहुंच कर शिष्य
के लिए कोई
प्रश्न नहीं
रहता।
एक सदगुरू
एक बुद्ध
पुरूष का वास्तविक
कार्य यही है
कि देर-अबेर
जो लोग भी
उसके साथ है
वे प्रश्न
हीन हो जाएं।
प्रश्न
हीन होना ही
उत्तर है।
प्यारे
सदगुरू।
आज प्रात:
जब आपने
प्रश्न हिन
उत्तर की बात
की तो मैंने
अपने प्रश्नों
को मौन में
विसर्जित
होते देखा
जिन्हें एक
घड़ी के लिए
मैंने आपके
साथ भी बांटा।
परंतु एक
प्रश्न फिर
भी शेष रहा और
वह है: यदि हम
प्रश्न नहीं
पूछते तो हम
आपके साथ अठखेलियाँ
कैसे कर
सकेंगे।
ओशो—वह
वास्तव में
एक प्रश्न
है।
यह कठिन
होगा अत:
यद्यपि तुम्हारे
पास प्रश्न
है या नहीं
फिर भी तुम
वहीं-वहीं
प्रश्न पूछ
सकते हो। तुम्हारा
प्रश्न तुम्हारा
होना आवश्यक
नही है, परंतु यह
कहीं किसी
दूसरे का हो
तो सकता है। और
मेरा उत्तर
कहीं किसी
दूसरे के लिए
तो सहायक हो
सकता है। अत:
आओ, हम इस
खेल को जारी
रखें। में
अपनी और से
कुछ नहीं कह
सकता। जब तक
प्रश्न नहीं
है मैं मौन
हूं। प्रश्नों
के कारण ही
मेरे लिए उत्तर
कहना संभव है।
अत: इस बात से
कोई अंतर नहीं
पड़ता कि
प्रश्न आपका
है। या नहीं
वास्तविक
बात यह है कि
प्रश्न कहीं
न कहीं किसी न
किसी का आवश्यक
है। और किसी न
किसी को अवश्यक
सहायक होगा।
केवल तुम्हें
ही उत्तर
नहीं
दे रहा हूं।
मैं तुम्हारे
माध्यम से
सम्पूर्ण
मानवता
समकालीन
मानवता नहीं
परंतु भावी—उस
भावी मानवता
को भी उत्तर
दे रहा हूं।
जब मैं यहां
उत्तर देने
के लिए नहीं
रहूंगा।
अत: सभी सम्भव
कोण तथा प्रश्न
खोज डालों
ताकि भविष्य
में जब मैं
यहां नहीं हूं
तो भी जिसके
पास प्रश्न
हो वह अपने
प्रश्न का
उत्तर मेरे
शब्दों में
ढूंढ सके।
हमारे लिए यह
एक खेल है।
किसी अन्य के
लिए यह वास्तव
में जीवन व
मृत्यु का
प्रश्न हो
सकता है।
एक तीव्र
व्यथा मेरे
भीतर फैल गई
जब मुझे यह
एहसास हुआ कि ओशो
जानते है कि
उनके जीवन काल
में लोग उन्हें
नहीं पहचानेगें
तथा न ही
समझेंगे। यह
अब भविष्य की
तैयारी के लिए
था। मेरी
आशाओं में कोई
सचाई थी—कि ओशो
का कार्य
संसार में
कहीं फैलेगा तथा
हजारों लोग
उनके पास आएँगे—कि
वह लाखों
लोगों को
सैटेलाइट
टेलीविज़न पर
प्रवचन दिया
करेंगे। कि
उनके सैकड़ों
शिष्य
बुद्धत्व को
उपलब्ध
होंगे यह सब
सम्भव न था।
मनीषा
द्वारा पूछे
प्रश्न के
उत्तर में
उनहोंने कहा:
सम्भव है समय
लगे। परंतु
समय की कमी
नहीं तथा इस
बात की भी
आवश्यकता
नहीं है कि
क्रांति
हमारी आंखों
के सामने घटित
हो, इतना
ही परितोष
पर्याप्त है
कि विश्व को
रूपांतरित
करने वाले
आंदोलन का आप
एक हिस्सा
थे। कि तुमने
सत्य के पक्ष
में अपनी
भूमिका निभाई
है और अंतत: होनेवाली
विजय का तुम
हिस्सा
होओगे।
(बियॉंड सॉयकॉलाजी)
जब वे शरीर
छोड़ने की
विधियों, पुराने जन्मों
के स्मरण के
लिए सम्मोहन
की विधि,
पुरातन तिब्बती
सूफी तथा तान्त्रिक
विधियों की
बात करते तो
मैं उनके
ताने-बाने में
उलझ कर
आह्लादित तथा
उत्तेजित हो
जाती थी।
लेकिन वह फिर
हमें साक्षी पर
लौटा लाते थे।
वे कहते कि
शरीर छोड़ने
की विधियां यह
अनुभव देने के
लिए तो अच्छी
है कि तुम
शरीर नहीं हो।
परंतु बस यही
तक। पिछले जन्मों
को समझने के
लिए यह जानना
है कि तुम
यहां पहले थे, यह देखने के
लिए ठीक है कि
तुम चक्र में
घूम रहे हो।
यह जानने के
लिए की वह
गलतियां
तुमने पहले भी
कि थी। परंतु
उस चक्र से
छलांग लगाने के लिए
ध्यान तथा
साक्षी भाव
आवश्यक है।
प्रयोग की जो
भी विधियां
उन्होंने
हमे दी वे
शरीर पर मन की
शक्ति को,
दर्शाती है
तथा टेलीपैथी
के प्रयोग
हमें यह बताते
है कि हम एक
दूसरे से
कितना जुड़े
हुए है। और इस
प्रकार रहस्य
विद्यालय का
जन्म हुआ।
बग़ीचे में
एक भूसे की छत
से बना खेलों
का कमरा था, यहां पर
हमारे ग्रुप
के कुछ लोगों
को कवीशा सम्मोहित
करती थी। हमने
टेलीपैथी के
प्रयोग किए और
हमारा ग्रुप
बहुत समस्वर
व घनिष्ठ
होता गया कि
घर की सफाई
तथा भाजन
पकाने की प्रतिदिन
चर्या इतनी
सहजता से होने
लगी कि लगता था
कि कोई काम ही
नहीं कर रहा।
पूरादिन ओशो
की बातें तथा
विभिन्न
विधियों के
प्रयोगों के
आसपास घूमता
रहता। हम उन्हें
जाकर बताते कि
कौन सी विधि
हमारे लिए
सार्थक सिद्ध
हो रही थी। और
कौन सी नहीं
और वे फिर आगे
का
दिशा-निर्देश
देते। हर बार
एक कदम और आगे
हमें अज्ञात
लोक में ले
जाते।
रहस्य की
ऊंची उड़ानों
पर ले जाते
हुए ओशो हमें
यह बताते रहते
कि सबसे बड़ा
रहस्य मौन व
ध्यान है।
आध्यात्मिकता
चेतना की अति
निश्चल अवस्था
है,
जहां कुछ घटित
नहीं होता। बस
समय ठहर जाता
है। सभी
वासनाएं
तिरोहित हो
जाती है। वहां
कोई आकांशा
नहीं, कोई
लक्ष्य
नहीं। कोई
लक्ष्य
नहीं। बस यही
पल सब कुछ हो
जाता है......।
तुम अलग हो , बिलकुल
अलग।
तुम केवल
साक्षी हो और
कुछ भी
नहीं.....ओशो
उन्होने
कहां कि
साक्षा बहुत
शांत तनाव रहित
अवस्था में
होना है। यह
वस्तु-विशेष
पर केंद्रित
होना नहीं:
अपितु तुम भी कहते
हो: सांस लेना,खाना,
सैर करना उसके
प्रति होश
पूर्ण होना
है।
उन्होंने
हमें साधारण
चीजों से शुरू
करने को कहा—शरीर
को देखना जैसे
कि हम इसमें
भिन्न है।
विचारों को
देखना जो
हमारे मानस
पटल पर आते
जाते रहते है।
ऐसे जैसे कि
हम चलचित्र
देख रहे हों
और भावों को
आते देखना और
यह जानना कि
वे हम नहीं
है। अंतिम चरण
है जब हम
पूर्णत: मौन
हो जाते है और
वहां देखने को
कुछ नहीं
बचता: तब
साक्षी अपनी
और मुड़ता है।
एक महिला
को उन्होंने
कहा कि साक्षी
के लिए अभी
उसकी तैयारी नहीं
है क्योंकि
वह भीतर के
द्वंद्व से मर
जाएगी,उन्होंने
बताया कि पहले
उसे अपने
निषेधात्मक
भावों को
अभिव्यक्त
करना होगा
(परंतु अकेले
में—दूसरे
लोगों पर
नहीं) क्योंकि
साक्षी होने
के लिए तुम्हारे
भीतर कोई दमन
नहीं होना
चाहिए। यदि एक
व्यक्ति
साक्षी भाव
रखते हुए सुख
का अनुभव करता
है, यदि
शांति व उल्लास
का भाव उसके
भीतर है तो यह
कसौटी है इस
बात की वह
तैयार है। ध्यान
की किसी भी
विधि से यदि
आपको अच्छा
लगता रहा है
तो वह ध्यान
आपके लिए हे।
उन्होंने
चेतना के सात
तलों की चर्चा
की तथा साथ ही
मनोविज्ञान
तथा
मनोचिकित्सा
की सीमाओं पर
भी चर्चा कि—जो
इस क्षेत्र
में पूर्व से
कहीं पीछे है।
मैं इन प्रवचनों
को कम्पित
ह्रदय से
ग्रहण करती।
मैं इतनी तथा
सम्मोहित हो
उन्हें
सुनती कि मेरे
सिर में
सनसनाहट सी
होती। यह मेरे
लिए नया अनुभव
था क्योंकि
ओशो जब भी
बोलते थे मैं
हमेशा ध्यान
में बैठी रहती
बिना इस बात
की चिंता किए
कि वे क्या
बोल रहे है।
इसके बारे में
मेंने उनसे
पूछा तो उन्होंने
कहां कि मैं
ह्रदय से सून
रही थी। तथा जब
ह्रदय
पूर्णरूपेण
प्रसन्न
होता है तो यह
सभी और बहने
लगता है; मन अलग नही
छूटता। तभी
ऐसा घट रहा है:
तुमने समझने
की कोशिश में
अचानक ध्यान
पूर्वक सुनना
शुरू किया और
तुम्हारा
सिर विचित्र
सी सनसनाहट से
भर गया। इसका अर्थ
है कि हमारे
ह्रदय से कुछ
छलक रहा है।
क्योंकि यह
सनसनाहट
मात्र शब्दों
को समझने से
सम्भव नही है—तुम्हारा
ह्रदय तथा मन
लयवद्ध हो रहा
है। उनका संघर्ष
तिरोहित हो
रहा है। उनका
विरोध मिट रहा
है। शीध्र ही
वे एक हो
जाएंगे। तब यह
श्रवण दोनों
है। यह तुम्हारे
ह्रदय को एक
तरंग, एक
उल्लास की
भांति छूता है
तथा तुम्हारे
मन को ज्ञान
के रूप में; और दोनों
तुम से जुडे
है।
मैंने उन्हें
कहते सूना है:
एक भेद समझ
लेना होगा, मस्तिष्क
व मन का भेद।
मस्तिष्क
तुम्हारे
शरीर का भाग
है। हर बच्चा
एक कोरा मस्तिष्क
लेकिर पैदा
होता है परंतु
कोरे मन के
साथ नहीं। मन
चेतना के
गिर्द संस्कारों
की एक परत है।
यह तुम्हें
याद नहीं
रहेगी,तभी
तो असत्त्य
दूर जाता है।
प्रत्येक
जीवन में जब
व्यक्ति
मरता है तो
उसका मस्तिष्क
मरता है।
परंतु मन मस्तिष्क
से निकलकर
चेतना के ऊपर
एक परत बना
देता है। यह पदार्थीयए
है; यह
बस एक विशेष
तरंग है:
इसलिए हमारी
चेतना पर हजारों
परतें है।
(द पाथ ऑफ द
मिस्टिक)
संसार जैसा
है वैसा तुम
उसे नहीं
देखते, इसे तुम ऐसा
ही देखते हो
जैसा तुम्हारा
मन तुम्हें
दिखाने को
विवश करता है।
और विश्व भर
में तुम यही
देखते हो—विभिन्न
लोग,
विभिन्न ढंगों
से संस्कारित
है। मन और कुछ
भी नहीं,
बस संस्कार
है।
(दि
ट्रांसमिशन
ऑफ़ द लैम्प)
मेरे विचार
में मन समाज व
परिवार की देन
है। जिस धर्म
में तुम जन्म
लेते हो जैसे
कि तुम्हारी
जाति,
राष्ट्रीयता, वर्ग
नैतिकता—ये
सभी संस्कार
तुम्हें एक
प्रामाणिक व्यक्ति
के रूप में
कार्य करने से
रोकते है।
इस सप्ताहों
के दौरान मैं
सत्य को कल्पना
से अलग करने
के प्रयास की
प्रक्रिया से
गुजर रही थी।
मैने ओशो से
सत्य और कल्पना
के बारे में
चार-पाँच
प्रश्न पूछे
तथा मुझे लगने
लगा था कि
मेरे जीवन में
कुछ भी सत्य
न था। इस तथ्य
को समझने के
लिए मैं घंटों
समुद्र तट पर
अकेली चक्कर
लगाती रहती।
अंतत: एक दिन
समझ गई जब ओशो
ने यह कहां कि
वे दोनों को
पृथक करने को
कभी नहीं
कहते। क्योंकि
सत्य वह है
जो कभी नहीं
बदलता तथा कल्पना
देखने मात्र
से विलीन हो
जाती है। ये
दोनों एक ही
समय पर मौजूद
नहीं रहते।
अत: भेद का कोई प्रश्न
ही नहीं है।
पीछे
मुड़कर देखने
पर अब मैं उन
प्रश्नों से
अपना सम्बंध
नहीं बना पाती
जो उस समय
मुझे व्याकुल
कर रहे थे।
शायद ओशो ने
उन्हें
समझने में
मेरी सहायता
की है। मुझे
लगता है कि
बिना सदगुरू
के मैं इस अस्तित्वगत
वेदना से
विक्षिप्त
हो जाती तथा
एक ही प्रश्न
रूक जाती, सम्भवत:
रूक जाती पूरे
जीवन के लिए।
मैं देवदार
तथा सफेदे के
पेड़ों की क़तारों
के बीच के
मार्गों पर
अकेली निकल जाती
मौसम के कारण
खाली हुई
हवेलियां
मुझे समझने का
प्रयत्न
करती कि मैं
कौन थी। मेरे
विचारों का
कोई परिणाम
नहीं था।
मुझसे कुछ भी
न बन पा रहा
था।
क्या मैं
केवल एक ऊर्जा
थी जो मेरे
भीतर प्रवाहित
होती थी जब
मैं आंखें मूँदती
थी।
क्या मैं
उस ऊर्जा का
केवल एक
प्रवाह थी, जो मेरे
भीतर बह रहा
था। मुझे अंदर
ऐसा एहसास
होता जब आंखें
मूंद कर एकांत
में बैठती।
क्या में
उस ऊर्जा की
व्यक्ति
थी।
या फिर मैं
उस ऊर्जा की
साक्षी थी।
ओशो ने
बताया कि
साक्षी के रूप
में ऊर्जा अस्तित्व
के केन्द्र
के बिल्कुल
समीप है। उन्होंने
कहा कि यह
सारी एक ही
ऊर्जा है
परंतु सोच-विचार
में तथा अभिव्यक्ति
में यह ऊर्जा
परिधि की और
जाने लगती है—एक-एक
कदम करके पीछे
मुड़ो, उन्होंने
कहा: यह
यात्रा तुम्हारे
स्त्रोत की
दिशा में है
तथा यह स्त्रोत
ही है जिसे
तुम्हें
अनुभव करना
है....क्योंकि
यह केवल तुम्हारा
ही स्त्रोत
नही, यह
सूर्य चाँद
तारे सभी का
स्त्रोत है।
ओशो के वस्त्रों
की धुलाई तथा
कमरे की सफ़ाई
करते हुए मैं
इन प्रश्नों
के बारे में
सोचती रहती
तथा साथ-साथ
उस प्रवचन को
आत्मसात
करने की कोशिश
करती रहती जो
अभी कुछ घंटे
पहले ही हुआ
था।
मेरे भीतर
वह बाह्म जगत
में क्या
अंतर है। जब
मेरी आंखें
मरी दृष्टि
बाहर की प्रत्येक
घटना को देखती
है तो मेरा
अपना संसार
बनता दिखाई
देता है। अत:
यह भीतर ही तो
हुआ। और दूसरी
और यदि साक्षी
मेरा भीतरी
सत्य है तथा
साथ ही जागरिक
भी तो मुझे
लगता है कि एक
बार फिर मैं
बाहर से भीतर
हो गई हूं;मैंने
पूछा।
चेतना तुम
पागल हो रही
हो। ओशो ने
कहा।
मैं सचमुच
पागल हो रही
थी। मैं जब
रेत के टीलों
व तटों पर
टहलती तो भीतर
के सदगुरू के
साथ मेरा
संवाद चलता
रहता।
शायद मेरा
अस्तित्व
इसीलिए है क्योंकि
मैं ऐसा सोचती
हूं।
शायद
विचारों के
बिना मेरा अस्तित्व
होता ही नहीं।
ओशो का
कहना है कि मन
सत्य की कभी
भी नहीं
समझेगा क्योंकि
यह मन से कहीं
उपर व पार है, परंतु
मुझे
जैसे-तैसे
प्रयास करना
पड़ रहा था, और अंत में
मैं थक गया
तथा यह पाया
कि मेरा मन
रहस्य के जगत
में कितना व्यर्थ
था। मैंने उन्हें
कहते सुना था
कि मन कभी भी
भीतर जगत की
थाह नहीं पा
सकता। परंतु
यह मेरी समझ
नहीं थी। यह मैंने
स्वयं अनुभव
नहीं किया था।
अत:
दिन-प्रतिदिन
मैं इसे
सुलझाने में
पागल हो रही
थी।
ओशो नक एक
अति सुंदर
कहानी सुनाई।
एक सम्बुद्ध
सम्राट ने एक
बड़ा सा नगर
बनवाया तथा उस
नगर के बीच
लाल पत्थरों
वाला एक मंदिर
बनवाया तथा
इसके भीतर छोटे-छोटे
शीशे लगे हुए
थे। लाखों
शीशे ताकि जब
तुम भीतर
झांको तो तुम
स्वयं को
लाखों शीशों
में प्रतिबिम्बित
होते देखो।
तुम एक तुम्हारे
लाखों
प्रतिबिम्ब।
कहा जाता
है कि एक बार
भीतर एक कुत्ता
घुस गया और
रात ही में
उसने अपने को
मार डाला।
वहां कोई भी
नहीं था।
पहरेदार ताला
लगाकर जा चुका
था। और कुत्ता
भीतर रह गया
था। वह कुत्तों
पर भौंकने लगा
और बार-बार
दीवारों से
टकराया और वे
सभी कुत्ते भौंक
रहे थे—तुम
समझ सकते हो
कि बेचारे
कुत्ते के
साथ क्या हुआ
होगा। पूरी
रात वह भौंकता
रहा,
लड़ता रहा,
तथा दीवारों
से
टकरा-टकारकर
उसने स्वयं
को खत्म कर
लिया।
सुबह जब
दरवाजा खुला
तो कुत्ता
मरा हुआ पाया
गया। हर जगह
खून ही-खून था दीवारों
पर जहां भी
देखो।
यह कुत्ता
अवश्य ही
बुद्धिजीवी
रहा होगा। स्वभावत:
उसने सोचा
इतने कुत्ते
है भगवान, मैं
अकेला और रात
का समय और
दरवाज़े भी
बंद है और मैं
इतने कुत्तों
से घिरा
हुआ.....वे मुझे
मार डालेंगे।
उसने खुद का
मार डाला और
वहां कोई
दूसरा कुत्ता
नहीं था।
यह रहस्यवाद
का मूलभूत तथा
सारभूत ज्ञान
है: जिन लोगों
को हम अपने
चारों और देख
रहे है वे सभी
हमारे ही
प्रतिबिम्ब
है। हम व्यर्थ
ही एक दूसरे
से लड़ रहे
है। व्यर्थ
ही एक दूसरे
से डरे हुए
है। इतना भय
है कि हम एक
दूसरे के
खिलाफ़
परमाणु अस्त्र
इकट्ठा कर रहे
है—और कुत्ता
बेवल एक है।
अन्य सभी तो
प्रतिबिम्ब
है।
अत: चेतना
बुद्धिजीवी
मत बनों, इन समस्याओं
के बारे में
मत सोचों;
नहीं तो तुम
और भी उलझती
चली जाओगी।
बल्कि सजग
होओ और तुम
पाओगी तुम्हारी
समस्याएं
विलीन हो रही
है।
मैं यहां
समस्याओं को
समाधान के लिए
हूं,अपितु
उन्हें मिटा
देने के लिए
हूं—और भेद
बड़ा गहन है।
(द पाथ ऑफ दि
मिस्टिक)
प्रश्न
पूछे बिना वे
नहीं बोलते थे
और जब वे
बोलते थे तो
वे हमे महान
रहस्यों के
भेदों के बारे
में बताते और
मैंने उन्हें
कहते सूना कि
यद्यपि वे
जानते है कि
वे जो भी कह
रहे है उसमे
से बहुत कुछ
हमारे सिर के
ऊपर से निकल
जायेगा। परन्तु
इसे कहना ही
होगा। मुझे
ऐसा आभास था
कि जो भी वे
कहना चाहते है, उन्हें
वह सब कुछ
कहना ही था।
क्योंकि समय
बहुत कम था।
मैंने इसके
बारे में
राफिया से बात
की तो उसने
कहा कि उसे एक
कहानी याद आई
है,
जिसे ओशो ने
कई बार सुनाया
है:
पतझड़ के
दिन थे। गौतम
बुद्ध तथा
उनके शिष्य
आनंद जंगल में
से गुजर रहे
थे। आनंद ने
बुद्ध से पूछा
कि क्या जो
भी वे जानते
है वह सब कह
चुके या कुछ
अनकहा शेष है।
बुद्ध चालीस
वर्ष से बोल
रहे थे। इस बार
वे झुके और
उन्होंने
मुट्ठी भर पत्ते
हाथ में उठा
लिए। और उन्होंने
आनंद से कहां।
कि वे केवल
इतना ही बाल पाये
है। और फिर वे
हाथ से पूरे
जंगल में बिछे
पत्तों की और
इशारा करते
हुए बोले कि
बोलना इतना बाकी
है।
राफिया ने
मुझसे कहा कि
उसे ऐसा
प्रतीत हुआ कि
ओशो ने उरूग्वे
में बांहें
भरकर पूरे पत्ते
उठाए और हम पर
बरसा दिए।
इन
प्रवचनों में
ओशो ने कोई
चुटकुले नहीं
सुनाए, परंतु इसका
अर्थ यह नहीं
कि यह प्रवचन
हंसी विहीन
थे। एक रात हम
इतना हंसे कि
स्वयं पर
नियंत्रण न
रहा। मुझे याद
है मैं कैसे सबको
देख रही थी—उस
रात हास्य भी
वहीं थी,
मुझे याद है
मैं उसकी और
देख रही थी।
और हमने एक
दूसरे को और
भी हंसाया।
हमारी अनियंत्रित
हंसी तब भी
बंद नहीं हुई
जब ओशो चुटकुला
सुना चुके थे
और कुछ ‘गम्भीर’ बात पर
चर्चा कर रहे
थे। जापानी
गीता की हंसी बहुत
तीखी और चौंका
देनेवाली
होती थी तथा
ओशो जब भी उसे
सुनते तो उन्हें
हंसी आ जाती
थी। वे बोलना
बंद कर देते
और वे दोनो
केवल हंसते ही
रहे। किसी बात
पर नहीं—अकारण—और
हम बाक़ी लोग
भी इस
संक्रामक
हंसी में शामिल
हो जाते। और
धीरे-धीरे हर
कोई हंस रहा
होता। वे कहते
कि हंसी एक
महान आध्यात्मिक
घटना है:
सदगुरू की
हंसी और शिष्य
की हंसी की
गुणवता एक ही है।
उसका मूल्य
एक ही है—उसमे
कोई भेद नहीं
। शेष सब
बातों में भेद
है: शिष्य एक
शिष्य है और
वह सिख रहा
है। अंधेर में
टटोल कर चल रहा
है। गुरु
प्रकाश से भरा
है। सारा
टटोलना समाप्त
हो गया है; अत: प्रत्येक
कृत्य अलग
होगा ही परंतु
चाहे तुम
अंधेरे में हो
या पूर्ण
प्रकाश में,हंसी तुम्हें
जोड़ देती है।
मेरे देखे
हंसी सर्वोच्च
आध्यात्मिक
गुण है। जहां
अज्ञानी और
सम्बुद्ध
मिलते है।
(दि
ट्रांसमिशन
ऑफ़ द लैम्प)
गीता का
सदगुरू के साथ
अपना ही अनूठा
सम्बंध था।
हंसी का सम्बंध।
मिलारेपा का
भी ओशो के साथ
खेलने का सपना
अनोखा ढंग था।
वह ऐसे प्रश्न
पूछा करता कि
जो ओशो को
हमेशा हंसा
देते तथा उसे
छेड़ने के लिए
ओशो को
उकसाते। यह एक
महान खेल था।
ओशो के
वीज़ा को लेकर
राजनैतिक
परिस्थिति
की सच्चाई
गम्भीर थी।
यद्यपि ओशो को
स्थायी
निवास का
वीज़ा देने का
निर्णय हो गया
थ और उसका
प्रेस वक्तव्य
भी तैयार हो
चुका था लेकिन
अगले ही दिन
उसे रद्द कर
दिया गया।
उरूग्वे के प्रिसीडेंट
सैंगुइनेटी
को वाशिंगटन
से संदेश आया।
उनसे कहा गया
कि यदि ओशो
उरूग्वे के
स्थायी
निवासी हो गया
तो जो ऋण
अमरीका से
उरूग्वे को
मिलने वाले थे
वे रद्द कर
दिए जाएंगे।
यह सीधी-सरल
बात है।
हास्या व
जयेश अधिकतर
समय यात्रा ही
कर रहे थे। समुद्री
जहाज में रहने
की बात हवा
में थी। हास्या
और जयेश इंग्लैंड
गए कि वह काई
अतिरिक्त
वायुयान वाहक
खरीद सके।
उसके पश्चात
वे एक समुद्री
जहाज देखने
हांगकांग भी
गये। यह असम्भव
था कि ओशो
जहां पर रह
पाएंगे।
लेकिन इसके बावजूद
वे जहाज़ पर
रहने की विषम
योजनाएं बनाने
में पूरी तरह
जुटे हुए थे।
मैंने ओशो को
कभी ‘न’ कहते कभी
नहीं सूना।
जब हास्या
ने उन्हें
कहा कि हमने
सोचा है कि
जहाज़ पर रहना
उनके स्वास्थ्य
के लिए हानिकारक
होगा तो उन्होंने
कहा: ‘देखो
यदि मैं इस
ग्रह पर रहने
का आदी हो गया
हूं तो मेरा
शरीर जहाज़ पर
भी रहने का
आदि हो
जायेगा। इस
प्रकार तुम
लोगों के पास
स्वतन्त्रता
होगी।’
जब हास्य
व जयेश दुनिया
में कहीं हवाई
यात्रा न कर
रहे होते तो
वे मांटेवीडियों
में मार्कोस
के साथ होते।
मार्कोस
उरूग्वे का
एक व्यापारी
था,
जिसके उरूग्वे
सरकार के साथ
सम्पर्क थे।
वह एक उदार
निष्कपट
ह्रदय व्यक्ति
था, जो ओशो
को अपने देश
में ठहराने की
भरसक चेष्टा
कर रहा था। एक
रात ओशो ने
देवराज और
विवेक को अपने
पास बुलाया। और
उन्हें कहा
कि अब उरूग्वे
में स्वयं को
सुरक्षित
महसूस नहीं
करते। वे भारत
वापस जाना
चाहते है।
इस बात से
उरूग्वे का
आकर्षण समाप्त
हो गया। और
मुझे लगा कि
हम फिर एक बार
विपत्ति से
घिर गए है।
पुलिस बड़ी
मुस्तैदी से
पिछले दस
हफ्तों से घर
पर पहना दे
रही थी। लेकिन
दो दिन बाद सब
बंद हो गया।
हमें यह बड़ा
विचित्र सा
लगा: शायद कोई
ओशो को हानि
पहुंचाना चाहता
था और पुलिस
बीच में आना
नहीं चाहती
थी। हमने
पुलिस से सम्पर्क
स्थापित
करने की कोशिश
की और इस बार
तो उन्हें घर
के बाहर रूकने
के लिए रिश्वत
भी दी।
वातावरण
तनाव तनावपूर्ण
होता जा रहा
था। हास्या व
जयेश वहां
नहीं थे, अत: जॉन तथा
चिली की एक
संन्यासिन
इजाबेल, जो
हाल ही में आई
थी। सरकार के
साथ अलग सम्पर्क
सूत्रों से
सम्बंध बनाए
हुए थे।
उनका मार्कोस
के साथ कार्य
करने का मन
नहीं था। अत:
वे अपने ही
सम्पर्क-सूत्रों
और मित्र
अलवारेज़ जो
सरकार का व्यक्ति
था—के साथ काम
कर रहे थे। अलवारेज़
कुछ ज्यादा
ही सुंदर था, उसने संन्यास
भी ले लिया था
परंतु मैंने
उसका कभी
भरोसा नहीं
किया।
जब हम
उरूग्वे पहुँचे
ही थी। तभी
वहां की सरकार
को नाटो(NATO) स्रोतों
से जिनका मूल
स्त्रोत
अमरीका था, टेलेक्स
संदेश मिल
चूके थे। उन
संदेशों पर
डिप्लोमैटिक
सीक्रेट इन्फार्मेशन
(राजनीतिक
गुप्त संदेश)
अंकित था। टेलेक्स
में यह सूचना
थी कि हम (ओशो
के सन्यासी)
नशीले
पदार्थों के
अवैध व्यापारी
स्मगलर तथा
वेश्या वृति
में लिप्त
लोग है।
वहां हमारे
आवास के अंतिम
सप्ताहों के
दौरान एक दिन
पुलिस हमारे
घर की तलाशी
लेने के लिए
दरवाजे पर आ
धमकी। हमने
सुना हुआ था
कि यह बहुत ही
ख़तरनाक बात
है क्योंकि
वहां यह
सामान्य बात
थी कि जो भी
लोग किसी भी
प्रकार से अवांछनीय
होते,
भले ही उन्होंने
कोई अपराध न
किया होता,
उनके घरों पर
नशीले पदार्थ
रख दिए गये
होते। उन्हें
दरवाजे पर ही
रोककर क्योंकि
उनके पास कोई
वारंट नहीं था
मैं सीढ़ियां
पर भागती हुई
ओशो के कमरे
में पहुंची।
जहां वे हास्या
व जयेश से बात
चीत कर रहे
थे। मैं अंदर
गई और उन्हें
बताया पुलिस
आई है। ओशो
हास्या से
ऐसे
शांतिपूर्वक
बात करना जारी
रखा जैसे कुछ
हो ही नहीं
रहा था। मैं
वापस आ गई। और
पाँच मिनट के
बाद हास्य भी
आ गई। और उसने
बताया कि उसे
आखिरकार उठना
ही पडा और ओशो
से कहना पडा
कि वे उसे
क्षमा करें क्योंकि
वे जो कुछ भी
कह रहे है वह
उसे सुनने में
असमर्थ है;
क्योंकि
उसका पूरा ध्यान
पुलिस की ओ है
और उसे नीचे
जाकर देखना ही
होगा कि क्या
हो रहा है।
पुलिस चली
गई परंतु
हालात अब भी
जटिल और अवांछनीय
थे। और क्योंकि
अब जब ओशो ने
वहां से चले
जाने का निश्चय
कर ही लिया था
तो बात समाप्त
हो गई थी।
परंतु बात
पूरी तरह समाप्त
नहीं हुई थी।
क्योंकि
हमने परिस्थिति
की वास्तविकता
देखने से
इंकार कर दिया
था। जून के
दूसरे सप्ताह
अलवारेज़ ने
जॉन तथा इजाबेल
को आश्वासन दिया
था कि ओशो
यहां छह सप्ताह
बड़े आराम से
ठहर सकते है।
बाद में उन्हें
स्थायी
वीज़ा मिल जायेगा।
यह हमारे लिए
शुभ समाचार
था। ऐसा जिसे
हम सुनाना
चाहते थे।
16 जून को मैं
द्रत चिकित्सक
के पास मांटेवीडियों
गई और हमेशा
की तरह
मार्कोस और
उसके परिवार से
मिलने गई। वह
यह बातें हुए
घबरा रहा था
कि उसने सुना
है यदि ओशो
18जून तक देश न
छोड़ा तो उन्हें
गिरफ्तार कर
लिया जाएगा। प्रिसीडेंट
सैंगुनिएटी
वाशिंगटन में
उरूग्वे के
लिए नए ऋण
प्राप्त
करने हेतु
रीगन के साथ
भेंट करने जा
रहा है1 वर्षों
बाद वह उसकी
पहली भेंट
होगी।
मैं सीधा
घर पहुंची, विवेक को
बताया। उसने
ओशो को बताया
और तत्काल
निजी विमान का
प्रबंध करने
की तथा किसी
नए देश की
धरती पर उतरने
की योजनाएं
बनाई गई।
हमारी नई
आशा थी जमाइका।
सांझ
होते-होते
मैंने सारा
सामान बाँध
लिया था और
अगली सुबह मैं
राफिया के साथ
जमाइका के लिए
रवाना हुई।
ओशो को बाद
में एक निजी
विमान से
विवेक, देवराज और
आनंदों और
मुक्ति के
साथ आना था।
जिस दिन
ओशो ने उरूग्वे
छोड़ा, वाशिंगटन
से हर घंटे के
बाद उरूग्वे
के
गृह-कार्यालय
में फोन आने
लगे कि ओशो ने उरूग्वे
छोड़ा या
नहीं।
18 जून सायं
पाँच बजे
अलवारेज़ ने
टेलीफ़ोन पर बताया
कि उसे आव्रजन
विभाग से तार
मिला है कि
ओशो को साढ़े
पाँव बजे से
पहले आव्रजन
विभाग में
रिपोट करना है
वरना उन्हें
गिरफ्तार कर
लिया
जायेंगा।
मैंने सूना
कि लगभग साढ़े
छह बजे ओशो ने
उस घर को छोड़
दिया था। जो
एक मिस्ट्रि
स्कूल बन
चूका था। ठीक
उस समय जब
पुलिस की तीन
कारें आ रही
थी। पुलिस ने
एयरपोर्ट तक
ओशो का पीछा
किया सभी संन्यासी
तथ मार्कोस
ओशो के संग
नाच गा रहे
थे। तो वे आश्चर्यचकित
से देखते रहे।
जब ओशो
प्रतीक्षारत जेट
की और बढ़े तो
एयरपोर्ट का
तनाव पूर्ण
वातावरण उत्सव
में बदल गया।
जैसे ही विमान
उँचा उड़ा कुछ
और पुलिस
कारें हवाई
अड्डे में
प्रविष्ट
हुई। अब केवल
जेट की पिछली
टिमटिमाती
बत्तियां
रात के आकाश
में विलीन
होती देखी जा
सकती थी।
18 जून को
अमरीका ने
घोषणा की कि
वह उरूग्वे
को 150मिलियन
डॉलर का ऋण
देगा।
मा प्रेम शुन्यो
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