आनहद में विसराम-(प्रश्नोउत्तर)
दिनांक 11, नवम्बर, सन् 1980
पहला प्रवचन-(संसार पाठशाला है)
पहला प्रश्न: भगवान, विश्राम के लिए अनंत आकाश में उड़ने वाला पक्षी घास का छोटा सा घोंसला
बनाता है। और विश्राम के लिए आदमी ने पहले गुफा खोजी, और फिर
झोपड़ा और मकान बनाया। और आप आज अनहद में बिसराम की चर्चा शुरू कर रहे हैं।
भगवान, यह अनहद में बिसराम क्या है, यह
हमें समझाने की कृपा करें।
आनंद मैत्रेय!
विश्राम के लिए पक्षी घोंसला बनाए, इसमें तो कुछ भी अड़चन
नहीं। क्योंकि घोंसले में किया गया विश्राम, आकाश में उड़ने
की तैयारी का अंग है। आकाश से विरोध नहीं है घोंसले का। घोंसला सहयोगी है, परिपूरक है। सतत तो कोई आकाश में उड़ता नहीं रह सकता। देह तो थकेगी। देह को
विश्राम की जरूरत भी पड़ेगी।
इसलिए घोंसला शुभ है, सुंदर है, सुखद
है। इतना ही स्मरण रहे कि घोंसला आकाश नहीं है। सुबह उड़ जाना है; रैन बसेरा है। लक्ष्य तो आकाश ही है; घोंसला पड़ाव
है। गंतव्य, मंजिल, वह तो अनंत आकाश है;
वह तो सीमाओं के पार जाना है। क्योंकि जहां तक सीमा है, वहां तक दुख है; सीमा ही दुख है। सीमा में होना
अर्थात कारागृह में होना। जितनी सीमाएं होंगी, उतना ही आदमी
जंजीरों में होगा। सब सीमाएं टूट जाएं, तो सब जंजीरें गिर
जाएं।
कारागृह से इस मुक्ति के उपाय का नाम ही धर्म है।
संसार का अर्थ है, कारागृह से चिपट जाना; कारागृह को पकड़ लेना; जंजीरों को आभूषण समझ लेना।
तोड़ने की तो बात दूर, कोई तोड़े तो उसे तोड़ने न देना। सपनों
को सत्य समझ लेना और रास्ते के पड़ावों को मंजिल मान कर रुक जाना। बस, संसार का इतना ही अर्थ है। संसार न तो दुकान में है, न बाजार में है; न परिवार में है, न संबंधों में है। संसार है इस भ्रांति में, जो पड़ाव
को मंजिल मान लेती है। संसार है इस अज्ञान में, जो क्षण भर
के विश्राम को शाश्वत आवास बना लेता है।
घोंसला बनाओ; जरूर बनाओ, सुंदर बनाओ, प्रीतिकर बनाओ। तुम्हारे सृजन की छाप हो उस पर। तुम्हारे व्यक्तित्व के
हस्ताक्षर हों उस पर। फिर घोंसला हो, कि झोपड़ा हो, कि मकान हो, कि महल हो, अपनी
सृजनात्मक ऊर्जा उसमें उंडेलो। मगर एक स्मरण कभी न चूके, सतत
एक ज्योति बोध की भीतर जलती रहे: यह सराय है। आज नहीं कल, कल
नहीं परसों, इसे छोड़ कर जाना है; जाना
ही पड़ेगा। तो जिसे छोड़ कर जाना है, उसे पकड़ना ही क्यों?
रह लो; जी लो; उपयोग कर
लो। आग्रह न हो, आसक्ति न हो।
दो तरह के लोग हैं। एक हैं, जो संसार में रहते
हैं और संसार में गहन आसक्ति निर्मित कर लेते हैं। दूसरे हैं, जो संसार से भाग खड़े होते हैं।
जिनको हमने सदियों तक संन्यासी कहा है, थे वे केवल भगोड़े।
उन्हें हमने पूजा है; उनकी हमने अर्चना की है। उनके लिए हमने
दीए जलाए, धूप बारी; उनके ऊपर हमने फूल
चढ़ाए, केसर छिड़की। क्योंकि हमें लगा कि अपूर्व, अद्वितीय, असंभव कार्य उन्होंने कर दिखाया है। हमसे
तो छूटता नहीं, और वे छोड़ कर चले गए!
लेकिन उनसे भी छूटा नहीं है। असल में कहीं पकड़ न जाएं, इस डर से भाग खड़े हुए हैं। छूटने में और छोड़ने में फर्क है। छूटना तो बोध
की प्रक्रिया है; वह तो सम्यक जागरण है; उसकी सहज निष्पत्ति है।
दो फकीर एक जंगल में यात्रा करते थे, गुरु और शिष्य। बूढ़ा
गुरु, युवा शिष्य। युवा शिष्य बहुत हैरान था! हैरान था इसलिए
कि ऐसी बात उसने अपने गुरु में कभी देखी ही न थी। कुछ नई ही बात हो रही थी आज।
गुरु बार-बार अपनी झोली में हाथ डाल कर कुछ टटोल लेता था। थोड़ी देर में फिर! थोड़ी
देर में फिर! झोली में उसका जी अटका था। शिष्य सोचता था कि क्या झोली में है आज!
उसे कभी चिंतित नहीं देखा। उसे कभी झोली में बार-बार झांकते नहीं देखा। आज क्या
माजरा है!
फिर सांझ होने लगी, सूरज ढलने लगा। वे एक कुएं पर
हाथ-मुंह धोने, थोड़ा विश्राम करने, थोड़ा
कलेवा कर लेने को रुके। गुरु पानी भरने लगा। झोला उसने अपने शिष्य को दिया और कहा,
जरा सम्हाल कर रखना!
ऐसा भी उसने कभी कहा न था। झोला यूं ही रख देता था। न मालूम कितने
घाटों पर और न मालूम कितने कुओं पर रुकना हुआ था। आज क्या बात है! उत्सुकता जगी।
जब गुरु पानी भरने लगा, तो शिष्य ने झांक कर झोले में देखा। सोने की एक ईंट
झोले में थी! सब राज खुल गया। उसने ईंट को तो निकाल कर झोले के बाहर कुएं के पास
फेंक दिया एक गङ्ढे में और उसी वजन का एक पत्थर झोले में रख दिया।
गुरु ने जल्दी से हाथ-मुंह धोया, नाश्ता किया। बीच-बीच
में झोले पर नजर भी रखी। एक-दो बार चेताया भी शिष्य को कि झोले का खयाल रखना।
शिष्य हंसा, उसने कहा, पूरा खयाल है;
आप बिलकुल निष्फिक्र रहें। चिंता की अब कोई बात ही नहीं!
जैसे ही निपटे, चलने को आगे बढ़े, गुरु ने जल्दी
से झोला वापस ले लिया। अक्सर तो यूं होता था कि झोला शिष्य को ही ढोना पड़ता था। आज
गुरु शिष्य पर झोले का बोझ डालने को राजी न था! जल्दी से झोला अपने कंधे पर ले
लिया। बाहर से ही टटोल कर देखा: वजन पूरा है; ईंट भीतर है।
निश्चिंत हो चलने लगा।
फिर बार-बार कहने लगा, रात हुई जाती है। दूर
किसी गांव का टिमटिमाता दीया भी दिखाई पड़ता नहीं! जंगल है। अंधेरा है। अमावस है।
चोर, लफंगे, लुटेरे--कोई भी दुर्घटना
घट सकती है। जब भी गुरु यह कहे, शिष्य हंसे।
आखिर गुरु ने दो मील चलने के बाद पूछा कि तू हंसता क्यों है?
शिष्य ने कहा, मैं इसलिए हंसता हूं कि अब आप बिलकुल निश्चिंत हो
जाएं। आपकी चिंता का कारण तो मैं कुएं के पास ही फेंक आया हूं।
तब घबड़ा कर गुरु ने झोले में हाथ डाला। देखा तो पत्थर था! सोने की ईंट
तो जा चुकी थी! क्षण भर को तो सदमा लगा। छाती की धक-धक रुक गई होगी। श्वास ठहरी की
ठहरी रह गई होगी। लेकिन फिर बोध भी हुआ। बोध यह हुआ कि दो मील तक झोले में तो
पत्थर था, लेकिन मैं यूं मान कर चलता रहा कि सोने की ईंट है,
तो मोह बना रहा। जिंदगी भर भी अगर मैं यह मान कर चलता रहता कि सोने
की ईंट है, तो मोह बना रहता। मोह ईंट में नहीं था, मेरी भ्रांति में था। मोह ईंट में होता, तो इन दो
मीलों तक मोह के होने का कोई कारण न था; चिंता की कोई वजह न
थी। मेरी आसक्ति मेरे भीतर थी, बाहर की ईंट में नहीं। जिंदगी
भर भी आसक्त रह सकता था, अगर यह भ्रांति बनी रहती कि ईंट
सोने की है। और तत्क्षण भ्रांति टूट गई, जैसे ही जाना कि ईंट
पत्थर की है।
झोला वहीं गिरा दिया। खिलखिला कर हंसा। वहीं बैठ रहा। कहा, अब कहां जाना है? अब गांव वगैरह खोजने की कोई जरूरत
नहीं। वैसे ही बहुत थके हैं। अब आज रात इसी वृक्ष के नीचे सो रहेंगे।
शिष्य ने कहा, अंधेरा है! अमावस है! चोर हैं, लुच्चे
हैं, लफंगे हैं, लुटेरे हैं!
गुरु ने कहा, रहने दे। अब कुछ भेद नहीं पड़ता। अब अपने पास ईंट ही
नहीं, अपने पास सोना ही नहीं, तो लूटने
वाला भी क्या लूटेगा!
इसे मैं छूटना कहता हूं। छोड़ा नहीं, छूटा। एक बोध जगा। एक
समझ गहरी हुई। एक बात साफ हो गई कि सब उपद्रव भीतर है, बाहर
नहीं। बाहर तो सिर्फ बहाने हैं, निमित्त, खूंटियां, जिन पर हम अपने भीतर के उपद्रव टांग देते
हैं। फिर धन हो, पद हो, प्रतिष्ठा हो,
परिवार हो, प्रियजन हों, मित्र हों, देह हो, मन हो--कोई
भी बहाना काम दे देगा। लेकिन अगर भीतर टांगने को ही कुछ न बचा हो, तो फिर सब बहाने रहे आएं, क्या फर्क पड़ता है! फिर
बाजार में बैठो कि मरघट में, बराबर है।
वे जो भगोड़े हैं, उनसे संसार छूटा नहीं है;
उन्होंने छोड़ा है। और दोनों शब्दों में उतना ही भेद है, जितना जमीन और आसमान में। छूटना तो बोध से होता है; छोड़ना
भय से होता है। भय और बोध का क्या नाता? क्या संबंध? वे तो विपरीत हैं; उनका तो कभी मिलन होता ही नहीं।
बोध और भय? भय तो पलता है अंधेरे में। और बोध जगता है उजेले
में। बोध है सुबह; और भय है अमावस की रात। दोनों का कैसा
मिलन?
वे जो भाग गए हैं छोड़ कर, छिप गए हैं जाकर
पहाड़ियों में, गुफाओं में, वे सिर्फ
भयभीत हैं, डरे हुए हैं। डर है कि संसार में अगर रहे,
तो आसक्ति पकड़ लेगी।
मगर संसार ने कभी किसी को पकड़ा है? तुम कल न मरो,
आज मर जाओ, तो संसार तुम्हें क्षण भर न
रोकेगा--कि न जाओ; कि ठहरो; कि कुछ देर
तो ठहरो! तुम्हारे बिना कैसे चलूंगा! कि तुम्हारे अभाव में, तुम्हारे
बिना सब अस्तव्यस्त हो जाएगा, अराजकता हो जाएगी। तुम नहीं,
तो फिर जिंदगी कहां! रुक जाओ, ठहर जाओ! थोड़ी
देर और। जरा सम्हल लेने दो; परिपूरक खोज लेने दो; फिर चले जाना। ऐसी जल्दी क्या है?
कल के मरते आज मर जाओ, संसार को क्या पड़ी
है! कुछ अंतर ही नहीं पड़ता। कितने लोग आए, कितने लोग गए!
कितने लोग आते रहे, जाते रहे! कितने लोग आते रहेंगे, जाते रहेंगे! संसार अपनी जगह है। संसार तुम्हें पकड़ता नहीं। तुम संसार को
पकड़े हुए हो।
इसलिए छोड़ कर कहां भाग रहे हो? अगर पकड़ने की आदत
तुम्हारी है, तो तुम्हारे साथ चली जाएगी। उसे कैसे छोड़ोगे?
वह तो भीतर है। तो हो सकता है, महल छोड़ दो;
झोपड़ा पकड़ लोगे। सिंहासन छोड़ दो; लंगोटी पकड़
लोगे। तिजोरियां छोड़ दो, भिक्षापात्र पकड़ लोगे। राज्य छोड़ दो,
कुछ अंतर न पड़ेगा, एक वृक्ष के नीचे बैठ रहोगे,
उस पर कब्जा कर लोगे कि यह मेरा वृक्ष! इसके नीचे कोई और अड्डा न
जमाए! किसी और की धूनी न लगे! पकड़ोगे तुम जरूर। क्योंकि पकड़ कहीं यूं जाती है! पकड़
तो केवल समझ से जाती है।
इसलिए मैं अपने संन्यासी को कहता हूं, भागना मत। भागना है
भय। और भय तो कायरता है। और कायर तो संसार भी नहीं पा सकता, सत्य
को क्या खाक पाएगा! इसलिए मेरे मन में भगोड़ों के प्रति कोई आदर नहीं, कोई सम्मान नहीं। वे चाहे कितने ही बड़े भगोड़े रहे हों, और चाहे उन्होंने कितने ही लोगों को प्रभावित कर दिया हो।
लोग तो अपने से विपरीत व्यक्ति से प्रभावित हो जाते हैं। एक आदमी सिर
के बल खड़ा हो जाए और भीड़ लग जाएगी। अब यूं सिर के बल खड़ा होना कोई बड़ी बात नहीं।
कोई भी मूढ़ कर सकता है। सच तो यह है, सिवाय मूढ़ के और कौन
करेगा!
अगर परमात्मा को तुम्हें सिर के बल ही खड़ा करना था, तो उसने सिर में टांगें उगा दी होतीं। परमात्मा शीर्षासन में बहुत उत्सुक
नहीं है। अगर परमात्मा को ही तुम्हें कांटों की सेज पर लिटाना होता, तो तुम्हारे साथ ही कांटों की सेज भेज दी होती; इंतजाम
कर दिया होता। उसने तुम्हारे प्रवास के लिए पूरा इंतजाम करके भेजा है। अगर
परमात्मा उत्सुक होता तुम्हारे उपवासों में, तो उसने तुम्हें
भूखा रखने की कला ही सिखा दी होती। अरे, जो भूख दे सका,
वह भूखापन नहीं दे सकता था? अगर परमात्मा
उत्सुक होता कि तुम छोड़ दो प्रियजन, तुम छोड़ दो मित्रजन,
तुम छोड़ दो परिवार, तुम छोड़ दो लोग, तो तुम्हें परिवार में और प्रियजनों में, मित्रों
में पैदा ही क्यों करता? यूं ही जैसे आकाश से वर्षा होती है,
तुम भी बरस गए होते!
जार्ज गुरजिएफ कहा करता था कि तुम्हारे महात्मा, तुम्हारे सभी महात्मा परमात्मा के दुश्मन मालूम होते हैं। परमात्मा एक काम
करता है, तुम्हारे महात्मा उससे उलटा काम करने को बताते हैं!
लेकिन राज है। राज यह है कि परमात्मा तो तुम्हें सहज, स्वाभाविक बनाता है; महात्मा तुम्हें असहज, अस्वाभाविक बनाते हैं। क्योंकि असहज, अस्वाभाविक
होकर ही तुम आकर्षण के बिंदु बनते हो। लोगों के लिए तुम्हारे प्रति सम्मान तभी
पैदा होगा, जब तुम कुछ उलटा करो।
अमरीका में एक विचारक हुआ, राबर्ट रिप्ले। वह
प्रसिद्ध होना चाहता था। कौन प्रसिद्ध नहीं होना चाहता? चाहता
था सारी दुनिया उसे जान ले। गांव में एक बहुत बड़ा सरकस आया हुआ था। सोचा उसने कि
सरकस इतना प्रसिद्ध है, जग-जाहिर है; इसके
मैनेजर को जरूर कुछ सूत्र पता होंगे प्रसिद्धि के। तो मैनेजर से उसने अलग से
मुलाकात ली और कहा कि मुझे भी कुछ राज बताओ! मैं भी प्रसिद्ध होना चाहता हूं!
मैनेजर ने यूं ही मजाक में कहा...। सरकस का ही मैनेजर था; धंधा ही मजाक का था, तमाशबीनी का था। उसने कहा,
इसमें क्या खास बात है! तुम अपने सिर के आधे बाल कटा लो, और चुपचाप, बिना कुछ बोले, जमीन
पर टकटकी बांधे पूरे न्यूयार्क की सड़कों पर चक्कर काटते रहो। तीन दिन बाद आना।
तीन दिन बाद वह आया, तो साथ में अखबारों की बहुत सी
कटिंग भी लाया। क्योंकि अखबारों में तस्वीरें ही छप गईं। चर्चा हो गई गांव में
घर-घर में कि यह कौन है आदमी! आधे सिर के बाल कटाए हुए! कौन प्रसिद्ध न हो जाएगा?
रिप्ले ने मैनेजर को बहुत धन्यवाद दिया और कहा, अब आगे के लिए कुछ और बताएं! न्यूयार्क में तो जलवा हो गया; डुंडी पिट गई। एक बच्चा ऐसा नहीं है, जो न जानता हो।
गांव-गांव, आस-पास भी खबर फैलने लगी।
मैनेजर ने कहा, अब तुम ऐसा करो, एक बड़ा आईना
खरीदो। उस आईने को अपनी कमर पर बांध लो। आईने में देखो, तो
पीछे का रास्ता दिखाई पड़ेगा। और बस पीछे की तरफ चलो, आगे की
तरफ नहीं। और सारे अमरीका का चक्कर लगा डालो।
और रिप्ले ने वही किया। और चक्कर पूरा होते-होते अमरीका में ही नहीं, सारी दुनिया में प्रसिद्ध हो गया--यह कौन आदमी है!
और उससे कहा, तू बिलकुल चुप रहना। बोलना है ही नहीं! जितना चुप
रहेगा, उतना ही अच्छा। बोले, तो कहीं
बात न खुल जाए! बुद्धिमान आदमी का बोलना अच्छा, बुद्धू का
चुप रहना अच्छा। क्योंकि बुद्धू चुप रहे तो बुद्धिमान मालूम होता है!
सो रिप्ले बिलकुल चुप रहा। लाख लोगों ने पूछा। मुस्कुराए! कुछ कहे ही
न। अरे, राज की बातें कहीं कही जा सकती हैं! शब्दातीत! कहो भी
तो कैसे कहो? अनिर्वचनीय! प्रवचन से तो मिलती नहीं। बोलने से
तो मिलती नहीं। कहने से तो कही नहीं जाती। हस्तांतरणीय नहीं। कोई जानने वाला ही
जान ले, तो जान ले।
और मजा तो तब हुआ, जब रिप्ले ने पाया कि कुछ उसके
शागिर्द भी पैदा हो गए; उसके पीछे-पीछे चलने लगे। उन्होंने
भी छोटी-छोटी व्यवस्थाएं कर लीं। जिससे जैसा दर्पण बन सका, ले
आया। अकेला नहीं, अब रिप्ले की एक कतार चलने लगी! और वे भी
सब चुप। अरे जब गुरु ही चुप है, तो शिष्य भी चुप!
कुछ भी, जो सामान्य नहीं है, असामान्य
है; जो स्वाभाविक नहीं है, अस्वाभाविक
है; उससे लोग प्रभावित होते हैं। लोगों को प्रभावित करना
अहंकार की बड़ी गहरी अभीप्सा है।
ये जो भगोड़े हैं, इनसे लोग प्रभावित हुए। इनसे
प्रभावित होने का कुल कारण इतना था कि ये कुछ कर रहे थे, जो
अस्वाभाविक था। स्वाभाविक आदमी से कौन प्रभावित होगा?
जापान का एक सम्राट सदगुरु की तलाश कर रहा था। बहुत तलाश की; सदगुरु न मिला सो न मिला। जो-जो नाम ज्ञात थे, परिचित
थे, पहचाने थे, वहां-वहां गया, लेकिन तृप्ति न हुई। अपने बूढ़े वजीर से पूछा कि मैं तो युवा हूं, तुम तो बूढ़े हुए। तुम्हें तो कुछ पता होगा। कोई तो ऐसा आदमी होगा...।
वह बूढ़ा हंसने लगा। उसने कहा, आदमी तो हैं, लेकिन तुम न पहचान सकोगे। क्योंकि सच्चा सदगुरु बिलकुल सहज, स्वाभाविक होगा। उसमें कोई सींग थोड़े ही निकले होते हैं, जो तुम पहचान लोगे! तुम तलाश कर रहे हो किसी उलटे-सीधे आदमी की। लोग तो
मिलेंगे बहुत उलटे-सीधे। मगर जो अभी खुद ही उलटे-सीधे हैं, वे
तुम्हें क्या लाख उपाय भी करें तो मार्गदर्शन दे सकेंगे? तुम्हें
भी और अस्तव्यस्त कर देंगे। तुम वैसे ही अराजक अवस्था में हो, वे तुम्हें और अराजक कर देंगे। मैं एक आदमी को जानता हूं...।
सम्राट तो उत्सुक था। वजीर को कहा, मैं चलने को राजी
हूं।
वे दोनों गए मिलने उस फकीर को। वजीर तो चरणों पर गिर पड़ा फकीर के, लेकिन सम्राट उस आदमी को देख कर इस योग्य न पाया कि इसके चरणों में गिरे।
आदमी बिलकुल साधारण था। और काम भी क्या कर रहा था! लकड़ियां काट रहा था।
अब कहीं सदगुरु लकड़ी काटते हैं? कि कहीं महावीर लकड़ी
काटते मिले जाएं! कि बुद्ध लकड़ी काटते मिल जाएं! सदगुरु कहीं लकड़ियां काटते हैं?
सम्राट ने अपने वजीर से कहा कि यह आदमी लकड़ियां काट रहा है! इसकी क्या
खूबी है? वजीर ने कहा, इसकी यही खूबी है।
इसी से पूछो कि इसकी साधना क्या है! तो पूछा फकीर से कि तेरी साधना क्या है?
फकीर कोई और न था, झेन सदगुरु था, बोकोजू। उसने कहा, मेरी कोई साधना नहीं। जब भूख लगती
है, तो भोजन कर लेता हूं। और जब नींद आती है, तो सो जाता हूं। मेरी कोई और साधना नहीं है।
सम्राट ने कहा, लेकिन यह कोई साधना हुई? यह भी
कोई साधना हुई? यह तो हम सभी करते हैं। जब भूख लगती है,
भोजन करते हैं। जब नींद आती है, सो जाते हैं।
बोकोजू ने कहा कि नहीं। इतने जल्दी निष्कर्ष न लो। कई बार तुम्हें भूख
नहीं लगती, और तुम भोजन करते हो। और कई बार तुम्हें भूख लगती है,
और तुम भोजन नहीं करते। और कई बार तुम्हें नींद आती है, और तुम सोते नहीं। और कई बार तुम्हें नींद नहीं आती, और तुम सोने की चेष्टा करते हो। इतना ही नहीं, तुम
जब भोजन करते हो, तब और भी हजार काम करते हो। यंत्रवत भोजन
करते रहते हो, और मन न मालूम किन-किन लोकों में भागा रहता
है! और जब तुम सोते हो, तब तुम सिर्फ सोते ही नहीं।
कितने-कितने सपने देखते हो! कहां-कहां नहीं जाते! क्या-क्या नहीं करते! मन का
व्यापार जारी रहता है। मैं जब भोजन करता हूं, तो सिर्फ भोजन
ही करता हूं। बस, भोजन ही करता हूं। उस वक्त भोजन करने के
सिवाय बोकोजू में और कुछ भी नहीं होता। और जब सोता हूं, तो
सिर्फ सोता हूं; उस समय सोने के सिवाय बोकोजू में और कुछ भी
नहीं होता। और जब मुझे नींद आती है, तो मैं एक क्षण भी टालता
नहीं; तत्क्षण सो जाता हूं।
बोकोजू के संबंध में कहानियां हैं कि कभी-कभी बीच प्रवचन में
देते-देते सो जाता था! नींद आ गई, तो बोकोजू क्या करे? इतना नैसर्गिक आदमी! और ब्रह्ममुहूर्त में नहीं उठता था। और जब किसी ने
पूछा उससे कि फकीर को तो ब्रह्ममुहूर्त में उठना चाहिए। तुम ब्रह्ममुहूर्त में
नहीं उठते? बोकोजू ने कहा, मैंने
परिभाषा बदल ली अनुभव से। फकीर जब उठे, तब ब्रह्ममुहूर्त। जब
नींद खुले, तो भीतर का ब्रह्म जागना चाहता है, यह ब्रह्ममुहूर्त।
और जब भीतर का ब्रह्म सोना चाहता है, तो तुम अलार्म भर कर
और जबरदस्ती उठने की कोशिश कर रहे हो। ठंडा पानी छिड़क रहे हो आंखों पर। राम-राम जप
रहे हो। भाग-दौड़ कर रहे हो, दंड-बैठक लगा रहे हो कि किसी तरह
नींद टूट जाए। क्योंकि स्वर्ग जो जाना है! ब्रह्ममुहूर्त में जगे बिना स्वर्ग तो
जा न सकोगे!
बोकोजू कहता, जब नींद खुल गई, तब
ब्रह्ममुहूर्त।
तो कभी-कभी दोपहर तक सोया रहता। और कभी-कभी आधी रात तक जागा रहता। जब
नींद आएगी, तब सोएगा। जब भूख लगी, तो भोजन
करेगा। कभी-कभी दिन, दो दिन बीत जाते और भोजन न करता। वह
उपवास न था। और कभी-कभी दिन में दो बार भोजन करता। इतना नैसर्गिक!
मगर ऐसे आदमी से कौन प्रभावित हो? हम तो उलटे-सीधे
लोगों से प्रभावित होते हैं। इसलिए भगोड़ों ने मनुष्य को बहुत ज्यादा प्रभावित
किया। वे हमसे उलटे थे। और हमसे उलटे थे इसलिए, मैं तुमसे
कहता हूं, हम से जरा भी भिन्न न थे। हम जैसे ही थे। बस,
हम पैर के बल खड़े हैं; वे सिर के बल खड़े थे।
हम सोने के पीछे दीवाने हैं; वे डरते थे कि कहीं सोना छू न
जाए। हम स्त्रियों के पीछे भागे जा रहे हैं, वे स्त्रियों के
प्रति पीठ करके भागे जा रहे थे। मगर भाग जारी थी। और दोनों का केंद्र स्त्री थी।
एक स्त्री की तरफ भाग रहा है; एक स्त्री से भाग रहा है। मगर
दोनों की नजर स्त्री पर अटकी है। एक कहता है कि स्त्री में ही स्वर्ग है। और एक
कहता है, स्त्री नर्क का द्वार है। मगर दोनों के लिए स्त्री
महत्वपूर्ण है। किसी के लिए स्वर्ग का द्वार; किसी के लिए
नर्क का द्वार। मगर द्वार स्त्री ही है।
मगर स्त्री से छुटकारा नहीं है ऐसे। न पुरुष से छुटकारा है। न धन से
छुटकारा है।
विश्राम बनाने के लिए, विराम में जाने के
लिए पक्षी घोंसले बनाते हैं, मनुष्य झोपड़े बनाते हैं या महल
बनाते हैं। कुछ बुरा नहीं। बस, इतनी ही याद रहे कि उन सीमाओं
में आबद्ध न हो जाना। वे सीमाएं तुम्हारी सीमाएं नहीं हैं। कोई सीमा तुम्हारी सीमा
नहीं है। रहो जरूर, मगर अतिथि की तरह रहना; आतिथेय मत हो जाना। मेहमान की तरह रहना; मेजबान न हो
जाना। तो फिर तुम जहां हो, वहीं संन्यासी हो।
आनंद मैत्रेय! तुमने पूछा कि "विश्राम के लिए अनंत आकाश में उड़ने
वाला पक्षी घास का छोटा सा घोंसला बनाता है...।'
वह उड़ने के लिए जरूरी है। उड़ने के लिए शक्ति संयोजित करनी होगी। जागने
के लिए सोना होगा। भागने के लिए बैठना होगा। नहीं तो ऊर्जा विनष्ट हो जाएगी। वह
घोंसला आकाश का दुश्मन नहीं है, संगी-साथी है; आकाश का हिस्सा है; आकाश ही है।
मगर कोई पक्षी घोंसले को पकड़ कर नहीं बैठ जाता। तुमने देखा! अंडे
फूटते हैं; नए पक्षी पैदा होते हैं। रुकते हैं तब तक घोंसले में,
जब तक उड़ने के योग्य नहीं हो जाते। और जिस दिन उड़े कि उड़े। फिर लौट
कर आते ही नहीं। फिर घोंसले बनाएंगे, जब उनको खुद अंडे रखने
होंगे।
जरूरत है, तो उपयोग करो। संसार का उपयोग करो।
संसार नहीं बांधता है। संसार से भागो मत, जागो।
तुम कहते हो, "और विश्राम के लिए आदमी ने पहले गुफा खोजी,
फिर झोपड़ा और मकान बनाया। और आज आप अनहद में बिसराम की चर्चा शुरू
कर रहे हैं...।'
यह अनहद में विश्राम अंतिम विश्राम है। यह आखिरी घोंसला है। फिर उसके
पार और मकान नहीं बनाने पड़ते। शाश्वत घर मिल गया, फिर क्या मिट्टी के
घरघूले बनाने! क्या फिर रेत के मकान बनाने! जो अभी बनाए और अभी गिरे! फिर क्या
क्षणभंगुर में समय को व्यतीत करना है और व्यर्थ करना है! अनहद में बिसराम, दरिया की इस अदभुत सूचना का अंग है:
जात हमारी ब्रह्म
है, माता-पिता
है राम।
गिरह हमारा सुन्न में, अनहद में बिसराम।।
इस सूत्र को समझ लो। यह सूत्र संन्यास का सार है।
"जात हमारी ब्रह्म है।'
जात का अर्थ होता है, जहां से हम जन्मे; जो हमारा वास्तविक जीवन-स्रोत है। इसलिए तुम्हारी जात हिंदू नहीं है,
और मुसलमान नहीं है, और ईसाई नहीं है। क्योंकि
बच्चा जब पैदा होता है, उसे पता ही नहीं होता कि हिंदू है,
कि ईसाई है, कि मुसलमान है। बच्चा जब पैदा
होता है, तो न तो संस्कृत बोलता है, न
अरबी बोलता है, न लैटिन, न ग्रीक।
मैंने सुना है, एक फ्रेंच दंपति, जिनके बच्चे
पैदा नहीं होते थे, एक अनाथ आश्रम से एक स्वीडिश बच्चे को
गोद ले लिए। जिस दिन उन्होंने स्वीडिश बच्चे को गोद लिया, फ्रेंच
दंपति ने, दोनों ने ही एक स्वीडिश शिक्षिका रख ली और स्वीडिश
भाषा सीखने लगे। अचानक! पास-पड़ोस के लोगों ने पूछा कि क्या हुआ? स्वीडिश भाषा किसलिए सीख रहे हो? क्या स्वीडन में बस
जाने का इरादा है? या कि स्वीडन की लंबी यात्रा पर जा रहे हो?
उन्होंने कहा, नहीं-नहीं। एक स्वीडिश बच्चे को गोद लिया है। इसके
पहले कि वह बड़ा हो और स्वीडिश भाषा में बोलना शुरू करे, हमें
कम से कम स्वीडिश तो सीख लेनी चाहिए। नहीं तो हम समझेंगे क्या खाक कि वह क्या बोल
रहा है!
बच्चे न तो स्वीडिश बोलते हैं, न फ्रेंच, न हिंदी, न अंग्रेजी। बच्चों की कोई भाषा नहीं होती;
शून्य उनकी भाषा होती है; मौन उनकी भाषा होती
है। और उनकी कोई जात नहीं होती। हिंदू नहीं, मुसलमान नहीं,
ईसाई नहीं। सब जातें हम थोप देते हैं। और क्या गजब हुआ है! जातों पर
जातें थोपे चले जाते हैं। हिंदू होने से ही काम नहीं चलता। फिर उसमें ब्राह्मण;
फिर उसमें क्षत्रिय; फिर वैश्य; फिर शूद्र। इतने से भी काम नहीं चलता। फिर अब ब्राह्मणों में भी कोंकणस्थ
और देशस्थ!
विनोबा भावे से किसी ने पूछा कि आप कोंकणस्थ ब्राह्मण हैं या देशस्थ? विनोबा ने अपनी सूझ-बूझ के हिसाब से ठीक ही उत्तर दिया, हालांकि मुझे कुछ बहुत ठीक नहीं लगता। उन्होंने कहा, न तो मैं कोंकणस्थ ब्राह्मण हूं, न देशस्थ। मैं तो
स्वस्थ ब्राह्मण हूं।
बात तो ठीक है। लेकिन मेरा इतना ही निवेदन है कि इसमें पुनरुक्ति है।
स्वस्थ, ब्राह्मण, दोनों का एक ही अर्थ
होता है। स्वस्थ का अर्थ होता है, स्वयं में स्थित हो जाना।
और ब्राह्मण का अर्थ होता है, स्वयं के ब्रह्म को जान लेना।
इसलिए स्वस्थ ब्राह्मण, एक ही बात को कहने के लिए दो शब्द
उपयोग कर रहे हो। उचित नहीं है। ब्राह्मण होना काफी है। स्वस्थ होना काफी है।
स्वस्थ ब्राह्मण होने की कोई जरूरत नहीं है। एक ही बात को कहने के लिए दो शब्द
क्यों उपयुक्त करने? क्यों उपयोग करना?
लेकिन यूं उनकी बात ठीक है कि कोंकणस्थ नहीं, देशस्थ नहीं। लेकिन खतरा यह है कि कुछ स्वस्थ ब्राह्मण पैदा हो सकते हैं।
ऐसे ही तो जातियां पैदा होती हैं। विनोबा के पीछे चलने वाले ब्राह्मण कहने लग सकते
हैं कि हम स्वस्थ ब्राह्मण हैं। फिर एक जाति पैदा हो गई।
क्या ब्राह्मण होना पर्याप्त नहीं है? क्या ब्रह्म होना
काफी नहीं है? क्या ब्रह्म से और कोई परिष्कार हो सकता है?
क्या ब्रह्म को सुंदर बनाया जा सकता है, कुछ
और शब्द उस पर आरोपित कर दिए जाएं तो?
दरिया ठीक कहते हैं: "जात हमारी ब्रह्म है।'
तो न तो हम हिंदू हैं, न मुसलमान, न ईसाई; न ब्राह्मण, न शूद्र,
न क्षत्रिय, न वैश्य। हम ब्रह्म से आए हैं।
ब्रह्म का अर्थ है, जीवन का स्रोत; इस
विराट अस्तित्व का मूल स्रोत। उस ब्रह्म से हमारा आना हुआ है, और उसी में हमें लौट जाना है। और जिसने इन दोनों के बीच--आने और जाने के
बीच, आवागमन के बीच--उसको पहचान लिया, फिर
उसका आवागमन मिट जाता है। जिसने जन्म और मृत्यु के बीच अपने भीतर के ब्रह्म को
पहचान लिया, फिर उसे दुबारा आने की कोई जरूरत नहीं रह जाती।
यह जीवन है ही इसलिए, पाठशाला है, कि हम अपने भीतर के ब्रह्म के प्रति सजग हो सकें, जाग
सकें, पहचान सकें।
पहचान के लिए एक गणित खयाल में रखना। मछली सागर में पैदा होती है, लेकिन जब तक सागर में रहेगी, उसे पता ही नहीं चलेगा कि
सागर क्या है। खींच लो सागर से! कहो किसी मछुए से, निकाल ले
मछली को सागर के बाहर। छोड़ दो तट पर, धूप में, तपी हुई रेत पर। तड़पने दो थोड़ा। और फिर उसे वापस सागर में छोड़ दो। मछली
वही है, सागर वही है, लेकिन सब बात बदल
गई। अब मछली जानती है कि सागर क्या है। पहले नहीं जानती थी। अब बोध हुआ। अब पता
चला कि सागर ही मेरा जीवन है, मेरा आनंद है, मेरा उत्सव है। अब पता चला, सागर ही मेरा संगीत है;
सागर ही मेरा नृत्य है। सागर से क्षण भर को छूटना, और नर्क और पीड़ा और दुर्दिन और दुर्भाग्य की शुरुआत! हम ब्रह्म के सागर से
आते हैं; मछलियां हैं, जो संसार के तट
पर फेंक दी गईं। जान-बूझ कर फेंकी गई हैं, ताकि पाठ सीख लें।
पाठ सीखने का एक ही उपाय है कि थोड़ी देर के लिए बिछुड़न हो जाए। अगर मिलन कभी टूटे
ही न, तो बोध नहीं होता।
एक बहुत बड़े अमीर ने जीवन के अंतिम दिनों में तय किया कि सब मैंने पा
लिया--धन, पद, प्रतिष्ठा; हीरों के ढेर लग गए--लेकिन सुख तो मैंने जाना नहीं, क्षण
भर को न जाना। धन को पाने में दुख उठाया। धन पाकर कुछ सुख मिलता नहीं। धन तो है,
लेकिन सुख कहां! और जीवन की अंतिम घड़ी पास आने लगी। सूरज ढलने लगा
है। अब ढला, तब ढला। यह उतरने लगा पश्चिम में सूरज। कभी भी
रात आ जाएगी। इसके पहले कि मौत आए, सुख को तो जानना ही है।
तो उसने एक बहुत बड़ी झोली में बहुमूल्य हीरे-जवाहरात भरे; अपने घोड़े पर सवार हुआ। बहुत फकीरों के पास गया। और फकीरों से कहा,
यह सारा धन देने को तैयार हूं। सुख की एक झलक दिखा दो!
मगर कौन सुख की झलक दिखाए? कैसे सुख की झलक
दिखाए? उत्सुक तो फकीर भी थे उसके धन को लेने में। और जो
उसके धन को लेने में उत्सुक थे, वे क्या खाक सुख की झलक
दिखाएंगे! अभी तो उनको खुद भी झलक नहीं मिली! अभी तो वे भी सोच रहे हैं कि धन मिल
जाए, तो शायद झलक मिले! और आंख के होते हुए अंधे हैं। इस
आदमी को धन मिल गया और धन का झोला लिए घूम रहा है कि मैं देने को तैयार हूं किसी
को भी। एक झलक, बस एक झलक! एक नजर भर कर देख लूं सुख क्या है,
कि सब निछावर कर दूंगा।
फिर एक सूफी फकीर की उसको खबर मिली। लोगों ने कहा, हम तो न दे सकेंगे झलक। सच तो यह है कि तुम्हारा धन देख कर हमारे भीतर
तुमने लालच जगा दिया। हमारी न मालूम कितने दिनों की तपश्चर्या और साधना डगमगा दी।
तुम भागो यहां से! ले जाओ अपना धन! हम पहुंचे ही जा रहे थे, पहुंचे
ही जा रहे थे, कि तुमने चुका दिया। तुम खुद भी चूके और हमको
भी चुका दिया। हां, एक फकीर है, वह जरा
उलटा-सीधा फकीर है। शायद वही तुम्हारे काम आए।
तो गया धनपति। अपने घोड़े को रोका उस फकीर के वृक्ष के नीचे। फकीर को
अपनी पूरी कथा सुनाई। फकीर ने गौर से सुनी। धनपति ने अपना झोला भी खोल कर दिखाया।
हीरे-जवाहरातों का ढेर था उसमें। अरबों-खरबों के होंगे। फकीर ने कहा, झोला बंद कर!
झोला धनपति ने बंद किया। लगा कि फकीर है तो कुछ पहुंचा हुआ। और दूसरे
फकीरों को तो झोले में एकदम रस आ गया था। एकदम उनकी आंखों से लार टपकने लगी थी। वे
तो भूल ही गए थे इसको सुख देने की बात। वे तो खुद ही के सुख पाने की आकांक्षा में
तल्लीन हो गए थे।
इस फकीर ने कहा, बंद कर ये कचरे को! झोला बंद कर!
फिर कुछ सुख दिखाने की बात बने। धनपति ने झोला बंद किया। यह फकीर जंचा। जिसने जीवन
भर धन इकट्ठा किया हो, उसको ऐसा ही आदमी जंचता है। और जैसे
ही उसने झोला बंद करके एक तरफ रखा, फकीर उठा और झोला लेकर
भाग खड़ा हुआ!
एक क्षण को तो धनपति को कुछ समझ में ही नहीं आया कि क्या हो रहा है!
किंकर्तव्यविमूढ़ खड़ा रह गया। जब होश आया, तब तक तो फकीर यह गया
वह गया! नौ दो ग्यारह हो गया! उसको तो जगह परिचित थी। वह जंगल परिचित था; वह पास में ही बसा गांव परिचित था। इस धनपति को तो सब अपरिचित था। भागा
एकदम उसके पीछे; बेतहाशा भागा। घोड़े को भी छोड़ गया। भूल ही
गया घोड़े की बात। चिल्लाता हुआ, कि लुट गया! बर्बाद हो गया!
मेरी जिंदगी भर की मेहनत पर पानी फेर दिया। अरे, यह कोई फकीर
नहीं है; यह बदमाश है; लुच्चा है;
चोर है! चिल्लाता जाए, भागता जाए: पकड़ो-पकड़ो!
सारा गांव खड़े होकर देख रहा था। गांव तो फकीर को जानता था। वह कई करतब
इस तरह के पहले कर चुका था! उसके कामों से तो लोग परिचित थे कि वह कुछ उलटा-सीधा
करता है! कुछ किया होगा। कोई पकड़ने में उत्सुक नहीं दिखाई पड़ रहा था। और धनपति और
भी हैरान था। फिर तो वह गालियां पूरे गांव को देने लगा कि पूरा गांव बदमाशों का, लुच्चों का है। यह फकीर तुम्हारा नेता है या क्या बात है! पकड़ते क्यों
नहीं?
लोग हंस रहे थे, खिलखिला रहे थे। मगर उसके
प्राणों पर बनी थी। हांफता, भागता, फकीर
का पीछा करता रहा। फकीर वापस पहुंच गया उसी झाड़ के नीचे जहां घोड़ा खड़ा था अब भी।
झोले को वहीं रख दिया जहां से उठाया था, झाड़ के पीछे जाकर
खड़ा हो गया छिप कर।
थोड़ी ही देर बाद धनपति भी हांफता, पसीने से लथपथ,
जिंदगी में कभी ऐसा दौड़ा नहीं था। मौका ही न आया था। झोला देखा,
एकदम उठा कर छाती से लगा लिया और कहा कि हे परमात्मा! धन्य है तू।
किन शब्दों में तेरा आभार करूं! आत्मा को ऐसी शांति मिल रही है, ऐसा सुख मिल रहा है, कभी नहीं मिला!
फकीर बोला, मिला? चलो थोड़ा दर्शन तो हुआ।
झलक मिली?
यह धनपति को पता नहीं था कि वह झाड़ के पीछे छिपा है। फकीर बाहर आ गया; अपनी जगह बैठ गया। उसने कहा, देख, तू कहता था झलक दिखा दो, दिखा दी। अब अपने घर जा। अब
आगे काम तू कर। तब धनपति को बोध आया। चरणों पर गिरा। कहा कि मैं पहचाना नहीं।
लुच्चा-लफंगा चिल्लाया, गालियां दीं, पूरे
गांव को गालियां दीं। अब मैं समझा कि वे गांव के लोग क्यों तुम्हें नहीं पकड़ रहे
थे। वे तुम्हें जानते होंगे। मगर तुमने क्या गजब किया!
फकीर ने कहा, इसके सिवाय कोई रास्ता नहीं था। यही परमात्मा की विधि
है, और यही समस्त सदगुरुओं की विधि है। तुमसे जब तक हटा न
लिया जाए, तब तक तुम्हें पता ही नहीं चलेगा। अचानक तुम्हें
सुख मिल गया! यह झोला तो तुम्हारे पास सदा से था। पहले छाती से लगा कर परमात्मा को
धन्यवाद नहीं दिया। आज क्यों धन्यवाद दे रहे हो? थोड़ी देर को
मछली सागर से छूट गई।
यह संसार एक शिक्षण की व्यवस्था है। इसलिए जिन्होंने तुमसे कहा है
संसार छोड़ दो, वे वे ही लोग हैं, जो तुम्हारे
बच्चों को समझाएं कि स्कूल छोड? दो; भाग
खड़े होओ!
यह स्कूल है, इसे छोड़ना नहीं है। यहां कुछ सीखना है। यहां परमात्मा
से विरह हो गया हमारा। वह जो हमारा मूल स्रोत है, उदगम है,
ब्रह्म है, उससे हमारा नाता टूट गया है। इस
विरह को भोगना है, ताकि फिर से मिलन की संभावना बन सके। और
विरह के बाद जो मिलन है, उसका मजा ही और है।
"जात हमारी ब्रह्म है, माता-पिता
है राम।'
जात भी हमने खो दी। न मालूम क्या-क्या बन कर बैठ गए हैं। जमीन पर कोई
तीन सौ धर्म हैं। और तीन सौ धर्मों में कम से कम तीन हजार छोटी-छोटी जातियां, उप-जातियां, और न मालूम क्या-क्या...कितना जाल फैला
दिया है! और जिनको हम भले लोग कहें, उनके भीतर भी वही जाल
है।
शंकराचार्य जैसे व्यक्ति को, जिनको भारतीय सोचते
हैं वेदांत की पराकाष्ठा, उनको भी एक शूद्र ने छू दिया,
तो वे नाराज हो गए। शंकराचार्य! पानी फेर दिया सब वेदांत पर;
भूल गए सब बकवास कि जगत माया है और ब्रह्म सत्य है। तत्क्षण पता चला
शूद्र सत्य है; ब्रह्म वगैरह कोई सत्य नहीं। एक शूद्र ने छू
दिया। भूल गए ज्ञान; भूल गए चौकड़ी! एकदम क्रुद्ध हो गए और
कहा कि मूढ़, शूद्र होकर तुझे इतनी समझ नहीं कि ब्राह्मण को
छू दिया? और मैं अभी गंगास्नान करके आ रहा हूं!
स्नान करके वे चढ़ ही रहे थे दशाश्वमेध की सीढ़ियां, तभी उस शूद्र ने छू दिया। सुबह-सुबह का अंधेरा। अब मुझे फिर स्नान करना
पड़ेगा!
उस शूद्र ने कहा, स्नान आप जरूर करिए। मगर इसके पहले
कि स्नान करें, मेरे कुछ सवालों का जवाब दे दें। एक तो यह कि
अगर संसार माया है, तो किसने किसको छुआ? अगर मैं हूं ही नहीं, अगर यह देह भ्रम है, तो दो भ्रम एक-दूसरे को छू सकते हैं? और अगर छू भी
ले भ्रम भ्रम को, तो क्या हर्जा है? और
तुम्हारा भ्रम पवित्र, और मेरा भ्रम अपवित्र? कुछ तो संकोच करो! कुछ तो लाज करो! कुछ तो अपने कहे का खयाल करो! थूके को
इतनी आसानी से तो न चाटो! फिर मैं यह भी पूछता हूं कि गंगा में स्नान करने से शरीर
पवित्र हुआ कि आत्मा पवित्र हुई? पानी शरीर को छुएगा कि
आत्मा को? अगर शरीर पवित्र हुआ है, तो
शरीर क्या पवित्र हो सकता है? क्योंकि शरीर तो मिट्टी है। और
तुम्हीं तो समझाते हो कि शरीर में कुछ भी नहीं है।
ये सारे महात्मागण समझाते हैं। खास कर स्त्रियों के शरीर में। क्योंकि
ये सब लिखने वाले पुरुष हैं। यह तो बड़ी कृपा है कि स्त्रियों ने शास्त्र नहीं लिखे।
लिखना चाहिए उन्हें। सारे पुरुष हैं लिखने वाले! स्त्रियों को तो पढ़ने भी नहीं
देते। उनके लिए तो बना दिया है कुछ अलग ही हिसाब। रामायण पढ़ो; सत्यनारायण की कथा पढ़ो--कूड़ा-करकट! उपनिषद नहीं। जो कीमती है, वह नहीं। क्या स्त्री-बुद्धि समझेगी कीमती को! वह तो पुरुषों की बात है।
पुरुष पढ़ेंगे उपनिषद। और स्त्रियां बाबा तुलसीदास की चौपाइयां रटेंगी।
और उन्हीं बाबा तुलसीदास की, जो कह गए स्त्रियों
को कि ढोल गंवार शूद्र पशु नारी, ये सब ताड़न के अधिकारी!
स्त्रियां इन्हीं को घोट रही हैं। स्त्रियों को वेद पढ़ने की मनाही! और पुरुष
स्त्रियों के संबंध में क्या-क्या कहते रहे! कि स्त्री का शरीर है क्या? मांस-मज्जा, मवाद, खून;
वात, पित्त, कफ। जैसे
पुरुष के शरीर में कोई हीरे-जवाहरात, स्वर्ण-भस्मी! यह पुरुष
का शरीर आता कहां से है? यह आता है स्त्री के गर्भ से। वही
वात, पित्त, कफ! लेकिन स्त्री का शरीर
सिर्फ मल-मूत्तर और पुरुष का शरीर जीवनजल! जी भर कर पीओ!
यह देह तो देह है; यह क्या पवित्र होगी! और आत्मा
तो पवित्र है ही; उसे कैसे पवित्र करोगे! उस शूद्र ने बड़े
बहुमूल्य सवाल उठाए, जो बड़े-बड़े वेदांती नहीं उठा सके थे।
शंकराचार्य अगर किसी व्यक्ति के सामने हतप्रभ हुए, तो वह
शूद्र था।
मगर शंकराचार्य को भी खयाल नहीं है कि जगत को ब्रह्म कह रहे हैं, तो इसका क्या अर्थ होगा! फिर कैसा ब्राह्मण? फिर
कैसा शूद्र? जातियों पर जातियां बन गई हैं। बड़ी सेवा में रत
हैं लोग; बड़े धार्मिक कार्यों में लगे हैं। मगर मौलिक
भ्रांतियां वही की वही।
मदर टेरेसा को नोबल प्राइज मिली, क्योंकि उन्होंने
गरीबों की बड़ी सेवा की। वह सरासर झूठ बात है। वह सिर्फ पाखंड है; ऊपरी बकवास है। भीतर बात कुछ और है। अनाथालय खोल रखे हैं; विधवा आश्रम खोल रखे हैं; वे तरकीबें हैं कि कैसे
स्त्रियां, कैसे अनाथ बच्चे ईसाई हो जाएं। और ईसाई ही नहीं,
कैथलिक ईसाई होने चाहिए।
अभी एक प्रोटेस्टेंट परिवार ने अमरीका से आकर मदर टेरेसा से प्रार्थना
की कि हम एक बच्चे को गोद लेना चाहते हैं, हमारा कोई बच्चा नहीं
है। तो उन्हें फार्म दिया गया भरने को, जिस फार्म में पहली
बात यह थी कि बच्चा तभी गोद मिल सकता है, जब आप कैथलिक ईसाई
हों। वह प्रोटेस्टेंट परिवार तो हैरान हुआ। उसने कहा, ईसाई
हम भी हैं; ईसाई तुम भी हो। थोड़ा सा फर्क है कि हम
प्रोटेस्टेंट हैं, तुम कैथलिक हो। कोई भारी फर्क नहीं। वही
बाइबिल मानते हैं हम, वही जीसस; वही
तुम वही हम। थोड़े कुछ दो कौड़ी के भेद हैं। और तुम तो मनुष्य-जाति की सेवा में
तत्पर हो। तुम्हें क्या फर्क पड़ता है?
लेकिन नहीं। प्रोटेस्टेंट परिवार को ईसाई होते हुए भी बच्चा गोद लेने
का हक नहीं दिया गया।
ये सब जालसाजियां हैं। ऊपर बड़ी ऊंची-ऊंची बातें हैं! ये अनाथालय, ये विधवा आश्रम, यह दीन-दरिद्रों की सेवा और कुछ भी
नहीं है, सिवाए कैथलिक ईसाई धर्म का प्रचार। कैसे कैथलिकों
की संख्या दुनिया में बढ़ जाए!
पुराने समय में लोग एक-दूसरे से तर्क-वितर्क करके तय करते थे कि कौन
सही है। फिर बात और बिगड़ी। तर्क-वितर्क का जमाना गया। क्योंकि तर्क-वितर्क वर्षों
लेते हैं, और फिर भी निर्णायक नहीं होते। कौन निर्णय कर पाया है?
कौन आस्तिक किसी नास्तिक को समझा पाया है कि ईश्वर है? और कौन नास्तिक किसी आस्तिक को समझा पाया है कि ईश्वर नहीं है? कौन जैन हिंदू को समझा पाया है? कौन हिंदू जैन को
समझा पाया है? वह समझाने का मामला बहुत लंबा है।
इसलिए मुसलमानों ने संक्षिप्त मार्ग लिया, तलवार! कहां की बकवास में पड़े हो? निपटारा अभी करो;
नगद करो। जिसकी लाठी उसकी भैंस! जो जीत जाए, वह
सत्य। सत्यमेव जयते! कहते ही हैं कि सत्य की सदा विजय होती है। उन्होंने जरा सा
भेद कर लिया। उन्होंने कहा, जिसकी विजय होती है वही सत्य।
थोड़ा सा ही तो भेद है, कुछ ज्यादा भेद नहीं।
मगर तलवार के दिन भी गए। आदमी थोड़ा सभ्य हुआ। उसे यह बात बेहूदी लगी
कि जीवन-सिद्धांतों का निर्णय तलवार से हो। तो फिर कैसे निर्णय हो? तो फिर कुछ ज्यादा होशियारी की ईजादें की गईं: सेवा करो। अस्पताल खोलो।
अनाथालय खोलो। विधवा आश्रम बनाओ। वृद्धाश्रम बनाओ। कोढ़ियों के पैर दबाओ। भिखमंगों
को भोजन दो। ऐसे रोटी खिला कर, दवा देकर लोगों का
धर्म-परिवर्तन करो।
स्वभावतः, इसका परिणाम एक ही होगा। जैसे हिंदुस्तान में है। कोई
समृद्ध परिवार भारत का ईसाई नहीं होता। क्यों होगा? जिसके
पास अपनी रोटी है, जिसके पास अपना मकान है, जिसके पास अपना धन है, वह क्यों ईसाई होगा? भारत में कौन लोग ईसाई हो गए हैं? आदिवासी, नंगे, भिखमंगे, भूखे, दीन-दरिद्र, अनाथ, अपंग,
वे सारे के सारे ईसाई हो गए हैं।
जातियों पर जातियां! धर्मों पर धर्म! उनके भीतर छोटे-छोटे टुकड़े!
दरिया कहते हैं, एक ही बात याद रखो कि परमात्मा
के सिवा न हमारी कोई माता है, न हमारा कोई पिता है। और
ब्रह्म के सिवाय हमारी कोई जात नहीं।
ऐसा बोध अगर हो, तो जीवन में क्रांति हो जाती है।
तो ही तुम्हारे जीवन में पहली बार धर्म के सूर्य का उदय होता है।
"गिरह हमारा सुन्न में।'
तब तुम्हें पता चलेगा कि शून्य में हमारा घर है--हमारा असली घर! जिसको
बुद्ध ने निर्वाण कहा है, उसी को दरिया शून्य कह रहे हैं। परम शून्य में,
परम शांति में, जहां लहर भी नहीं उठती,
ऐसे शांत सागर में या शांत झील में, जहां कोई
विचार की तरंग नहीं, वासना की कोई उमंग नहीं, जहां विचार का कोई उपद्रव नहीं, जहां शून्य संगीत
बजता है, जहां अनाहत नाद गूंज रहा है--वहीं हमारा घर है।
"अनहद में बिसराम।'
और जिसने उस शून्य को पा लिया, उसने ही विश्राम
पाया। और ऐसा विश्राम जिसकी कोई हद नहीं है, जिसकी कोई सीमा
नहीं है।
"अनहद में बिसराम।' यही
संन्यासी की परिभाषा है। "गिरह हमारा सुन्न में, अनहद
में बिसराम।' यह संन्यासी की पूरी परिभाषा आ गई। मगर इसके
लिए जरूरी है कि हम जानें: "जात हमारी ब्रह्म है, माता-पिता
है राम।'
मैं अपने संन्यासी को न तो ईसाई मानता हूं, न हिंदू, न मुसलमान, न जैन,
न बौद्ध। मेरा संन्यासी तो सिर्फ शून्य की खोज कर रहा है। सारी
दीवारें गिरा रहा है। मेरा संन्यासी तो अनहद की तलाश में लगा है, सीमाओं का अतिक्रमण कर रहा है। घर छोड़ना नहीं है। घर में रहते ही जानना है
कि घर मेरी सीमा नहीं है। परिवार छोड़ना नहीं है। परिवार में रहते ही जानना है कि
परिवार मेरी सीमा नहीं है। बस, यह बोध! इस बोध को ध्यान कहो,
जागरण कहो, विवेक कहो, सुरति
कहो; जो भी शब्द तुम्हें प्रीतिकर हो, वह
कहो। लेकिन इसे लक्ष्य समझो कि पहुंचना है शून्य में; तभी
तुम्हें विश्राम मिलेगा।
नहीं तो जीवन एक संताप है, एक पीड़ा है, एक विरह है। विरह की अग्नि! इसमें हम झुलसे जाते हैं; थके जाते हैं; टूटे जाते हैं; बिखरे
जाते हैं; उखड़े जाते हैं। हमारे पत्ते-पत्ते कुम्हला गए हैं;
फूलों के खिलने की तो बात बहुत दूर, हमारी
जड़ें सूखी जा रही हैं। और जैसे ही किसी ने शून्य में अपनी जड़ें जमा लीं, तत्क्षण हरियाली छा जाती है; फूल उमग आते हैं;
वसंत आ जाता है। बहार आ जाती है। फूलों में गंध आ जाती है। भंवरे
गीत गाने लगते हैं। मधुमक्खियां गुंजार करने लगती हैं।
उस उत्सव की घड़ी में ही जानना कि जीवन कृतार्थ हुआ है। उसके पूर्व हम
व्यर्थ ही जी रहे हैं। उसके बाद ही जीना जीना है। उसके बाद ही मरना मरना है। उसके
बाद जीने में भी मजा है और मरने में भी मजा है। उसके बाद जीवन भी एक धन्यवाद है और
मृत्यु उसी धन्यवाद की परम ऊंचाई, परम शिखर।
दूसरा प्रश्न: भगवान, क्या किसी संत के दिए हुए मंत्र को दोहराने से हम मुक्ति नहीं पा सकते?
बेशक वह संत जीवित हो या नहीं! अगर मुक्ति नहीं तो कुछ अधिक
आध्यात्मिक विकास तो होगा या नहीं? और क्या यह सच है कि कभी
कोई मंत्र के शब्दों का मतलब जानने की कोशिश नहीं करनी चाहिए, क्योंकि मतलब जानने से तो सिर्फ यही ही होगा कि मन सोच-विचार और कल्पना
में भाग लेने लगेगा। मैं इसलिए यह सवाल पूछ रहा हूं, क्योंकि
मैंने सुना है कि आप मंत्र के बहुत खिलाफ हैं और कहते हैं कि मंत्र जपना सिर्फ
बेवकूफों और मूर्खों के लिए है।
नवलकिशोर डी. डी.!
इस प्रश्न में बहुत से प्रश्न हैं, एक-एक को क्रमशः लेना
होगा। पहली बात, पूछा है तुमने, "क्या
किसी संत के दिए हुए मंत्र को दोहराने से हम मुक्ति नहीं पा सकते?'
मुक्ति पाई नहीं जाती है। मुक्ति कोई उपलब्धि नहीं है; अनावरण है। मुक्ति कोई गंतव्य नहीं है, कोई दूर की
मंजिल नहीं है, जहां तक चल कर पहुंचना है। मुक्ति हमारा
स्वभाव है।
जात हमारी ब्रह्म
है, माता-पिता
है राम।
गिरह हमारा सुन्न में, अनहद में बिसराम।।
मुक्ति हमारा स्वभाव है। इसलिए मुक्ति को पाने की भाषा में मत सोचना!
पाने की भाषा लोभ की भाषा है। और जहां लोभ है, वहां मुक्ति नहीं।
अलोभ मुक्ति की आधारशिला है। अहंकार पाने की भाषा में सोचता है: धन पा लूं,
पद पा लूं। फिर जब इनसे ऊब जाता है और पाता है कि इन्हें पा लेने पर
भी कुछ नहीं मिलता, तो सोचने लगता है: परमात्मा को पा लूं।
स्वर्ग को पा लूं। मोक्ष को पा लूं। निर्वाण को पा लूं। मुक्ति को पा लूं। सत्य को
पा लूं। विषय तो बदल गए; धन नहीं, पद
नहीं। धन की जगह ध्यान आ गया; पद की जगह परमात्मा आ गया।
लेकिन तुम नहीं बदले; विषय बदल गए। वासना तो वही की वही रही,
पाने की। क्या पाना चाहते हो, इससे फर्क नहीं
पड़ता। जब तक पाना चाहते हो, तब तक उलझे रहोगे।
मुक्ति पाने से नहीं मिलती है। पाने की बात ही व्यर्थ है, ऐसा जानने से तत्क्षण अनुभव में आ जाती है। तत्क्षण शब्द को स्मरण रखना।
कल नहीं, परसों नहीं--अभी, यहीं।
बुद्ध ने छह वर्ष तक पाने की कोशिश की। स्वाभाविक! आदमी लोभ की दुनिया
में जीता है। तो जिस तरह धन और पद को पाते थे, सोचा, इसी तरह मुक्ति को पा लेंगे! छह वर्ष तक सतत चेष्टा की। सब किया जो लोगों
ने कहा कि करो; जिनको तुम कह रहे हो संत। किसी ने मंत्र दिए,
तो मंत्र दोहराए। किसी ने उपवास करवाया, तो
उपवास किया। और किसी ने सिर के बल खड़े होने को कहा, तो सिर
के बल खड़े रहे। तपश्चर्या, तो तपश्चर्या! सुंदर देह थी,
राजकुमार थे, सूख कर कांटा हो गए।
एक मूढ़ ने बता दिया कि धीरे-धीरे भोजन को कम करो। इतना कम करो क्रमशः
कि बस एक चावल का दाना ही भोजन रह जाए। इस तरह कम करते-करते-करते एक चावल का दाना
रह जाए। फिर धीरे-धीरे बढ़ाना, दो चावल के दाने, तीन चावल के दाने...।
जिस दिन एक चावल का दाना रह गया, बुद्ध इतने कमजोर हो
गए कि निरंजना नदी को पार करते थे, पार न कर सके।
मैं निरंजना को देखने गया था, सिर्फ इसीलिए कि कैसी
नदी है जिसको बुद्ध पार न कर सके! भवसागर पार कर गए और निरंजना पार न कर सके?
देखा तो बहुत चौंका। नदी नहीं है, नाला है।
गर्मी के दिन थे, बिलकुल सूखा था! कोई भी पार कर जाए। छोटा
बच्चा पार कर जाए। कोई तैरने वगैरह की भी जरूरत नहीं थी। घुटने-घुटने पानी भी नहीं
था।
ये बुद्ध क्यों पार नहीं कर सके? कमजोर इतने हो गए थे
कि निरंजना के किनारे पर एक वृक्ष की जड़ को पकड़ कर किसी तरह अपने को अटकाए रहे। जब
थोड़ी सी ताकत आई, तो किसी तरह सरक कर घाट पर चढ़े। उस घड़ी
वृक्ष की जड़ को पकड़े हुए उन्हें यह खयाल आया कि यह मैंने क्या किया! देह भी गंवा
बैठा, आत्मा तो मिली नहीं। और मैंने यह कभी सोचा ही नहीं कि
देह को गंवाने से आत्मा के मिलने का तर्क क्या है! निरंजना नदी तो पार नहीं कर
सकता हूं, यह छोटी सी नदी, तो यह जीवन
का इतना बड़ा भवसागर कैसे पार करूंगा?
यह घटना बड़ी क्रांतिकारी सिद्ध हुई। उन्होंने उसी क्षण, वह जो छह साल व्यर्थ की दौड़-धूप की थी, छोड़ दी। धन
और पद की दौड़ तो पहले ही छोड़ चुके थे; उस संध्या मोक्ष की
दौड़ भी छोड़ दी।
नवलकिशोर! यह घटना बहुत विचारणीय है। दौड़ ही न रही। उस सांझ जब वे सोए, पूर्णिमा की रात थी, और चित्त पहली दफा अनहद के
विश्राम को उपलब्ध हुआ था। क्योंकि जहां दौड़ नहीं, वहां
विश्राम है। चाहे शरीर से न भी दौड़ो, अगर मन से भी दौड़ रहे
हो, तो भी तो थकान होती है। मन भी तो थकता है।
अब कोई दौड़ ही न थी; कुछ पाना ही न था। सब व्यर्थ है,
कुछ भी पाना नहीं है। जो है, जैसा है, उससे ही राजी हो रहे। इसको बुद्ध ने तथाता कहा है। जो है, जैसा है, ठीक है।
उस संध्या तथाता के इस भाव में ही सोए। बाद में कहा कि वह पहली रात थी, जब सच में मैं सोया। विश्राम परिपूर्ण था, एक सपना
भी न आया। क्योंकि जब चाह ही न रही, तो सपने कहां से आएं?
सपने तो चाह की ही छाया है, जो नींद में पड़ती
है। दिन में जो चाह है, रात वही सपना है।
एक सपना नहीं। और सुबह जब आंख खुली, तो कहा बाद में,
कि ऐसा विश्राम कभी पाया ही न था। ऐसी शांति छाई थी! रोआं-रोआं
विराम में था, विश्राम में था। न कुछ करना था; न कहीं जाना था; न कुछ पाना था। सब मोह छूट गए,
संसार के भी और परलोक के भी। और तभी देखा कि रात का आखिरी तारा डूब
रहा है। जैसे-जैसे वह तारा डूबा, वैसे-वैसे ही भीतर, अगर कोई कहीं धूमिल सी रेखा भी रह गई होगी लोभ की, वह
भी विलुप्त हो गई। आखिरी तारे के डूबने के साथ ही बुद्ध को महापरिनिर्वाण उपलब्ध
हुआ। अनहद में विश्राम पाया। गिरह हमारा सुन्न में! शून्य में घर मिल गया।
सवाल उठता है कि बुद्ध ने छह साल की तपश्चर्या के कारण बुद्धत्व पाया
या तपश्चर्या को छोड़ने के कारण बुद्धत्व पाया? ढाई हजार वर्षों में
बौद्ध विचारक इस पर मंत्रणा करते रहे हैं, विचारणा करते रहे
हैं, विवाद करते रहे हैं। मेरे हिसाब में विवाद व्यर्थ है।
दोनों ही बातें उपयोगी हैं। वह छह वर्ष जो तपश्चर्या की थी, उसका
भी हाथ है। पाने में नहीं; पाया तो तपश्चर्या को छोड़ कर।
लेकिन तपश्चर्या का हाथ है तपश्चर्या को छुड़ाने में!
तपश्चर्या करते-करते एक बात दिखाई पड़ गई कि यह पागलपन है; इसमें कुछ सार नहीं। संसार तो पहले ही छूट चुका था, अब
यह मोक्ष भी छूट गया। मोक्ष पाने की आकांक्षा भी छूट गई। लोभ की जो अंतिम रेखा रह
गई थी, वह भी विलुप्त हो गई। तो तपश्चर्या ने इतना काम किया।
जैसे एक कांटा गड़ जाता है, तो हम दूसरे कांटे से उसको निकाल
लेते हैं। फिर दोनों कांटों को फेंक देते हैं। ऐसा नहीं है कि पहला कांटा फेंक
दिया और दूसरे को सम्हाल कर उसके घाव में रख लिया कि इसकी बड़ी कृपा है! किस शब्दों
में इसका आभार करें!
एक कांटे से दूसरा निकल गया, फिर दोनों हम फेंक
देते हैं। ऐसे ही तपश्चर्या से, एक व्यर्थ बात मन में अटकी
थी कि पाने से मिलेगा परमात्मा, वह बात निकल गई। परमात्मा तो
मिला ही हुआ है। दौड़ खतम हुई, चाह मिटी, कि पाया। पाया तो सदा से था ही।
तुमने एक क्षण को भी परमात्मा खोया नहीं है नवलकिशोर! इसलिए पहले तो
यह भाषा छोड़ दो पाने की। यह लोभ की भाषा है। यह धंधे की भाषा है। यह व्यवसाय की
भाषा है।
दूसरी बात, तुम कहते हो, "किसी संत के
दिए हुए मंत्र को दोहराने से...।'
पहली तो बात, तुम कैसे जानोगे कौन संत है? अगर
तुम यही पहचान लो कि कौन संत है, तो तुम खुद ही संत हो गए।
केवल संत ही संत को पहचान सकता है। तुम कैसे पहचानोगे कौन संत है? जिसको भीड़ संत कहती होगी, उसी को तुम संत मान लोगे।
और भीड़ को कुछ पता है? भीड़ तो मूढ़ों की जमात है।
एक बात तो पक्की है कि जिसको भीड़ संत कहे, जरा सावधान रहना। उस पर तो प्रश्नवाचक चिह्न लगा देना। क्योंकि भीड़ उसको
ही संत कहेगी, जो भीड़ की अपेक्षाओं के अनुकूल पड़ता होगा।
जैन, दिगंबर जैन नंगे आदमी को संत कहेंगे। बौद्ध भिक्षु
नहीं कहेंगे उसको संत। जैन तो अगर दिगंबर हैं, तो नग्न को
संत कहेंगे। और अगर श्वेतांबर हैं, तो मुंहपट्टी-धारी को संत
कहेंगे। दिगंबर मुंहपट्टी-धारी पर हंसेंगे। क्योंकि यह तो परिग्रही है। मुंह पर
पट्टी बांधना, यह तो आरोपण है। और श्वेतांबर नग्न जैन मुनि
पर हंसेंगे, कि यह तो अशोभन है, अशिष्ट
है, अभद्र है। सूफी फकीर हिंदू फकीर पर हंसेंगे कि यह भी कोई
संतत्व है! और हिंदू फकीर सूफी पर हंसेंगे कि यह भी कोई संतत्व है!
ईसाई तो उसको संत कहेंगे, जो दरिद्रों की सेवा
कर रहा हो। और भारत में संतों ने कभी किसी की सेवा नहीं की; खयाल
रखना। यहां तो संतों की सेवा करनी पड़ती है। यहां तो जैन अपने संत के जब दर्शन को
जाते हैं, उनसे पूछो, कहां जाते हो?
तो वे कहते हैं, संत की सेवा करने जा रहे हैं।
संत और सेवा करे? कौन करवाएगा संत से सेवा?
क्या पाप करवाना है अपने हाथ से? समझ लो कि
महावीर स्वामी मिल जाएं और तुम्हारे पांव दबाने लगें! तुम दबवाओगे? तुम एकदम उचक कर भाग खड़े होओगे कि हे प्रभु, बचाओ!
यह क्या कर रहे हो? आप और पैर दबा रहे हो? क्या सदा के लिए नर्क में गिरवा दोगे? कि बुद्ध मिल
जाएं और एकदम तुम्हारी चंपी करने लगें! मुफ्त भी करें, तो
तुम कहोगे कि नहीं भैया, नहीं करवाना। अरे, हम आपकी चंपी करेंगे! आप हमारी चंपी करें? भगवान
बुद्ध और चंपी करें? कभी नहीं। होने ही नहीं देंगे।
लेकिन ईसाइयों की परिभाषा संत की वही है, जो तुम्हारे पैर दबाए, जो तुम्हारी सेवा करे।
ईसाइयों के हिसाब से जीसस संत हैं, क्योंकि उन्होंने मनुष्य
के उद्धार के लिए अपना जीवन दे दिया। महावीर क्या खाक संत हैं--ईसाइयों के हिसाब
से! किया क्या मनुष्य-जाति के लिए? हां, ध्यान किया। तो वह तो स्वार्थ है, खुद के आनंद के
लिए! महास्वार्थी हैं। बुद्ध ने क्या किया? अपनी मुक्ति पा
ली। मगर अपनी मुक्ति पानी परार्थ तो नहीं। परार्थ तो किया जीसस ने; सूली पर लटक गए, अपनी जान गंवा दी मनुष्य के उद्धार
के लिए।
यह दूसरी बात है कि उद्धार हुआ कि नहीं। अभी तक हुआ तो नहीं। किसी के
सूली पर लटकने से किसी का क्या उद्धार होना है!
महावीर अपने बाल लोंचते थे, केश-लुंच करते थे। और
बौद्ध भिक्षु हंसते थे कि यह पागलपन है। और बौद्ध भिक्षुओं की बात में भी अर्थ है।
क्योंकि अक्सर स्त्रियां जब पगलाती हैं, तो बाल खींचती हैं!
तुमने देखा ही होगा कि स्त्री रूठ जाती है, तो एकदम बाल
लोंचने लगती है। अगर पागलखाने में जाओ, तो तुमको कई पागल
मिलेंगे, जो बाल लोंचते हैं। बाल लोंचना कुछ पागलपन का
हिस्सा है।
तो बौद्धों को तो लगा कि यह महावीर का दिमाग कुछ खराब है। बाल लोंचना!
लेकिन महावीर को मानने वाला मानता है कि महावीर का त्याग परम है। वे उस्तरे का भी
उपयोग नहीं करते। अब यह क्या उस्तरे को रखे फिरना! उस्तरा वैसे भी घातक! कहीं किसी
पर गुस्सा आ जाए और गर्दन काट दो! या खुद ही पर निराशा आ जाए और गर्दन काट लो!
फिर दूसरी बात यह कि उस्तरे पर निर्भर होना वस्तु पर निर्भर होना है।
महावीर तो वस्तु-मुक्त हैं। वे तो किसी तरह की परनिर्भरता नहीं मानते। अब किसी नाई
से जाकर बाल बनवाना, वह भी जंचता नहीं। उसका मतलब हुआ कि नाई पर निर्भर हो
गए। मोक्ष में पता नहीं नाई मिलते हैं कि नहीं मिलते! अपने बाल खुद ही लोंच लिए,
यह स्वावलंबन है! है तो स्वावलंबन; साफ लगता
है।
तुम किसको संत कहते हो? संत की तुम्हारी
परिभाषा क्या है? परिभाषा तुमने पाई कहां से? तुम्हारे आस-पास जो भीड़ होगी, वही तुम्हें परिभाषा
दे देती है कि इस तरह का आदमी संत होता है। एक बार भोजन करता हो, तो संत। इस तरह बैठता हो, इस तरह उठता हो, तो संत। भीड़ की अपेक्षाएं जो पूरी करता है, वह उस
भीड़ के लिए संत।
नवलकिशोर! तुम कहते हो, "क्या किसी संत
के दिए हुए मंत्र को दोहराने से...।'
और संत और मंत्र देगा? असंभव! क्योंकि मंत्र
शब्द बनता है उसी धातु से जिससे मन बनता है। मन तो मंत्र से ही बनता है। मन का काम
ही क्या है? तुमने कभी खयाल किया! मन का काम है सलाह देना:
ऐसा करो, ऐसा करो; वैसा मत करना। इसलिए
तो हम सलाहकार को मंत्री कहते हैं। सलाह देता है, कि यह करो,
वह करो। मन जो है, वह मंत्री है। वह सलाहकार
है। मन और मंत्र संयुक्त हैं। मंत्र, यूं समझो कि ईंट है;
उसी की ईंटों से बना हुआ मन है।
मन से मुक्त होना है। इसलिए मंत्र के द्वारा तो कोई मन से मुक्त नहीं
हो सकता। मंत्र का तो उपयोग मन से ही करना होगा। अगर तुम बैठ कर राम-राम जपोगे, तो जपोगे किससे? मन से ही जपोगे। और अगर मन का ही
अभ्यास कर रहे हो, मन की ही दंड-बैठक लग रही है। तुम राम-राम,
राम-राम किए जा रहे हो, यह मंत्र की ही
दंड-बैठक है। इससे तो मन और मजबूत होगा। मंत्र से मन मजबूत होता है। और जितना मन
मजबूत होता है, उतना ही तुम्हारे और तुम्हारी आत्मा के बीच
बाधा खड़ी होती है।
इसलिए कोई संत मंत्र नहीं देगा। संत तो तुम्हारे मंत्र को ही छीन लेगा
और तुम्हारे मन को भी छीन लेगा। संत तो तुम्हें रास्ता बताएगा मन के पार जाने का।
हां, अगर तुम्हें मन की शक्तियों को बढ़ाना है--आध्यात्मिक
शक्तियों का नाम मत लेना--अगर मन की शक्तियों को बढ़ाना है, तो
मंत्र उपयोगी है। मंत्र के प्रयोग से मन की शक्तियां बढ़ जाएंगी।
मगर मन की शक्तियों को बढ़ा कर भी क्या करोगे? समझ लो कि पानी पर भी चलने लगे, तो फायदा क्या है?
वर्षों की मेहनत के बाद अगर पानी पर भी चलने लगे और कांच भी चबाने
लगे, तो कोई कांच का नाश्ता करना है? और
पानी पर चलने के लिए नावें हैं। और सरलता से तैरना सीख सकते हो। लकड़ी की जरा सी
डोंगी काम दे देती है। उसके लिए वर्षों की मेहनत करना और पानी पर चलना सीखना! और
कांच चबाना! चबाना किसलिए? क्या फालतू बोतलें वगैरह फेंकने
में बहुत दिल दुखता है? कि कैसी बहुमूल्य चीजें फेंकी जा रही
हैं! अरे, आज अगर मंत्र-सिद्ध होते, चबा
लेते। क्या करोगे?
अगर दूसरों के विचार भी पढ़ने लगे! अपने ही विचार पढ़ कर कुछ नहीं मिला; दूसरे का विचार पढ़ कर क्या मिलेगा और? कचरा अपना ही
काफी है, और दूसरे का कचरा और लेकर क्या करोगे? दूसरा अपने विचारों से मुक्त होना चाह रहा है, और
तुम उसके विचार पढ़ने को उत्सुक हो!
मंत्र से मन की शक्तियां जरूर बढ़ सकती हैं। क्यों? क्योंकि मंत्र एक खास लक्ष्य के लिए वैज्ञानिक प्रक्रिया है। वह लक्ष्य है
तंद्रा। अंग्रेजी में जिसको हिप्नोसिस कहते हैं, उसके लिए
हमारा पुराना यौगिक शब्द है तंद्रा।
एक तो जागृति है, वह तो मंत्र से आती नहीं। एक
निद्रा है, वह बिना ही मंत्र के आ जाती है। दोनों के मध्य की
एक स्थिति है तंद्रा; वह मंत्र के द्वारा लाई गई निद्रा है।
हिप्नोसिस का अर्थ तंद्रा होता है।
अगर तुम एक ही शब्द को बहुत बार दोहराओगे, तो उससे तंद्रा पैदा होती है। तंद्रा पैदा होने की सीधी प्रक्रिया है। अब
तुम बैठे हो। राम-राम, राम-राम, जपे जा
रहे हो, जपे जा रहे हो, जपे जा रहे हो!
इसके दो परिणाम होते हैं, एक तो मन एक ही चीज से ऊब जाता है।
ऊब नींद लाती है।
इसलिए धार्मिक सभाओं में लोग सोते हैं। अब वही राम, वही सीता, वही रावण, वही
कहानी। कितनी बार तो देख चुके! फिर वही हनुमान जी, फिर वही
लिए चले आ रहे हैं पहाड़! सब वही का वही। तो अब रामलीला देखोगे कि सोओगे! इससे
बेहतर है सो ही जाओ! इस बकवास को देखने में सार क्या है! रामलीला में तो कभी-कभी
लोग जागते हैं, जब कुछ गड़बड़ हो जाती है।
जैसे ऐसा हुआ एक बार कि जब रामलीला शुरू हुई और सीता का स्वयंवर रचा
गया, तो कहानी यूं है कि खबर आती है लंका से कि हे रावण,
तेरी लंका में आग लगी है। तो रावण भागता है। लंका में आग लगी हो,
तो यह कोई विवाह रचाने का अवसर है! बेचारा भागता है अपनी लंका
बचाने।
यह तरकीब है। यह ऋषि-मुनियों की जालसाजी है। यह झूठ है। लंका वगैरह
में कोई आग नहीं लगी थी। मगर जब तक वह बेचारा लौटे, तब तक यहां मामला खतम
हो गया। उसको हटाना जरूरी था, क्योंकि वह शिव का भक्त था। और
वह शिव का धनुष था। और उसने प्रार्थना की थी; शिव से उसे
वरदान था कि शिव उसका साथ देंगे, सहायता करेंगे। अरे,
अपने चमचों की कौन सहायता नहीं करता? छोटे-मोटे
भी करते हैं; वे तो शिव जी बेचारे बड़े पहुंचे हुए पुरुष हैं!
और यह रावण कितनी सेवा किया उनकी। अपनी गर्दन काट-काट कर रख देता था! अब और क्या
चाहिए? चमचे से और क्या चाहिए?
तो वह तोड़ देता धनुष-बाण। डर था। रामचंद्र जी उसके सामने छोकरे ही थे।
एक-दो धौल जमाता और तोड़त्ताड़ कर अपना लेकर सीता को रवाना हो जाता। तो सब रामायण
वहीं खतम कर देता! तो उसको भगाना पड़ा। जब तक वह गया, तब तक राम ने
धनुष-बाण तोड़ लिया। विवाह हो गया।
अब इसको तो, बार-बार होता है, तो लोग जाते
ही से अपना इंतजाम करके लेकर जाते हैं। रामलीला लोग देखने जाते हैं, तो दरी ले जाते हैं, चटाई ले जाते हैं। कंबल तक ले
जाते हैं! अपनी दरी-चटाई बिछा कर, कंबल ओढ़ कर मस्त, बच्चों को सुला कर, फिर खुद भी झपकी लेते हैं।
मगर उस दिन कुछ गड़बड़ हो गई। बच्चे तक जग गए। क्योंकि जब रावण को खबर
आई कि तेरी लंका में आग लगी है। उसने कहा कि लगी रहने दो। लोग थोड़े चौंके कि यह
बात क्या है! जनक महाराज भी थोड़े हैरान हुए कि अब करना क्या है? रामचंद्र जी की तो सटपटी गुम हो गई होगी। लक्ष्मण बोले होंगे, भैया, अब क्या करना!
और उसने तो, रावण ने, आव देखा न ताव;
वह गुस्से में था। असल में मैनेजर ने उसको जितनी मिठाई मिलनी चाहिए
थी, उतनी नहीं दी थी; कम दी थी। उसने
कहा, देख लेंगे! सो उसने पहला ही अवसर हाथ आया, दिखा दिया। उठा और उसने तोड़ दिया धनुष! और धनुष भी क्या था! कोई शिव जी का
धनुष है! यही बास की पोंगरी रखी हुई थी बांध कर। उसने तोड़त्ताड़ कर, कई टुकड़े करके फेंक दिए, एक-दो नहीं। और उसने कहा,
निकाल तेरी सीता कहां है? खतम करो इस बात को
एक बार। क्या हर साल लगा रखा है कि वही का वही खेल फिर से हो, फिर!
सारी जनता जग गई। बच्चे रोने लगे। स्त्रियां चौंक गईं। लोग खड़े हो गए, बैठे ही नहीं, कि यह हो क्या रहा है! न देखा कभी
आंखों से, न सुना कभी कानों से! यह नई ही रामलीला हो रही है!
वह तो भला हो जनक का। बूढ़े थे, सयाने थे, पुराने अनुभवी थे, घाघ जिसको कहते हैं। कई रामलीलाएं
करवा चुके थे। उन्होंने तत्क्षण मामले को सम्हाल लिया। उन्होंने कहा, भृत्यो! तुम भूल से मेरे बच्चों के खेलने का धनुष ले आए हो। अरे, यह शिव जी का धनुष नहीं है। शिव जी का असली धनुष लाओ!
पर्दा गिराया। धक्का देकर किसी तरह रावण को हटाया। दूसरा धनुष-बाण
लाया गया और दूसरे आदमी को रावण बना कर लाया गया। जनता बड़ी चौंकी कि यह रावण तो
दूसरे मालूम होते हैं! वह पुराना पहलवान कहां है?
उसको तो चार आदमी पकड़े अंदर बैठे हैं। वह भीतर से चिल्ला रहा है कि
छोड़ो जी, मैं धनुष-बाण तोडूंगा। आज मामला खतम ही कर देना है,
रफा-दफा! किसी तरह उसको मिठाई दी, समझाया-बुझाया
कि भैया, धनुष-बाण न तोड़। तू जितनी मिठाई लेना हो, ले ले। और आगे से हम खयाल रखेंगे। जो भूल हुई सो हुई।
कभी-कभी ऐसे मौके आते हैं, अन्यथा तो रामलीला
में लोग सोएंगे। वही का वही पुनरुक्त हो रहा है।
छोटे-छोटे बच्चों को सुलाने के लिए हम यही उपयोग करते हैं नवलकिशोर।
मां बैठ जाती है बगल में, दबा देती है बच्चे को बिस्तर में। चारों तरफ से कंबल
दबा देती है। भाग भी नहीं सकता कहीं। और बैठी है कि राजा बेटा सो जा! मुन्ना बेटा
सो जा! राजा बेटा सो जा! मुन्ना बेटा सो जा!
अब क्या खाक करे राजा बेटा और मुन्ना बेटा? सोए नहीं, तो क्या करे? हालांकि
मां यही सोचती है कि मेरे सुरीले राग के कारण सो रहा है।
यह सुरीले राग का सवाल नहीं है। यह ऊब पैदा हो रही है; घबड़ा रहा है वह। यह तो मां अगर बच्चे के बाप के पास भी बैठ कर कहे कि राजा
बेटा सो जा, मुन्ना बेटा सो जा, तो वे
भी सो जाएंगे। अगर नींद न आएगी, तो भी कम से कम बहाना करेंगे,
घुर्राने लगेंगे कि आ गई बाई, नींद आ गई! तू
जा! अब हम कभी न उठेंगे। बिलकुल सो गए।
तुम जब जपते हो मंत्र, तो तुम केवल तंद्रा
पैदा कर रहे हो। निरंतर की पुनरुक्ति से तंद्रा पैदा होती है। इससे कुछ आध्यात्मिक
जीवन का संबंध नहीं है।
और तुम पूछते हो कि "क्या इससे कुछ अधिक आध्यात्मिक विकास नहीं
होगा?'
अध्यात्म का कोई विकास होता है? अध्यात्म तो तुम्हारे
भीतर पूरा का पूरा मौजूद है। सिर्फ भीतर आंख ले जानी है और प्रकट हो जाता है। उसकी
अभिव्यक्ति होती है, विकास नहीं। और इसलिए मैंने कहा है कि
जो नासमझ हैं, वे ही केवल मंत्रों में उलझते हैं। समझदार को
तो मन से मुक्त होना है। तब शून्य में विश्राम होगा, अनहद
में विश्राम होगा।
आज इतना ही।
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