धर्म और आनंद-(प्रश्नोंत्तर-विविध)-ओशो
पहला प्रवचन
प्रश्न: पिछली दफे प्रवचन करते समय कहा कि तलवार
से तलवार नहीं काटा जा सकता, तो वैर नहीं मिटाया
जा सकता, बल्कि द्वेष को प्रेम से जीता जाता है।...की तरफ से
जीता जाता है, अगर ये सब परिस्थितियों में सत्य है तो
मर्यादा पुरुषोत्तम व मूर्तिमंत...ने क्यों भूल किया, वे
अपने...(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)
इंद्रियजनित ज्ञान और अतींद्रियज्ञान में क्या
अंतर है?
मैं आपके प्रश्नों को सुन कर आनंदित हुआ हूं।
प्रश्न हमारे सूचनाएं हैं। हमारे भीतर कोई जानने को उत्सुक है, कोई प्यासा है, कोई व्याकुलता है, वही हमारे प्रश्नों में प्रकट होती है।
अभी बहुत से प्रश्न पूछे, उनमें पहला प्रश्न था: आनंद बाहर से उपलब्ध होता है या कि चित्त की
एकाग्रता का परिणाम है?
यह प्रश्न बहुत मूल्यवान है। इस प्रश्न का उत्तर ठीक से समझेंगे तो और
भी बहुत से जो प्रश्न पूछे उनका भी उत्तर उससे मिल सकेगा।
अभी आपको कहा: यह पहला प्रश्न पूछा है कि आनंद बाहर से उपलब्ध होता है
या कि भीतर चित्त की एकाग्रता का परिणाम है?
मनुष्य को तीन प्रकार की अनुभूतियां होती हैं। एक अनुभूति दुख की है; एक अनुभूति सुख की है; एक अनुभूति आनंद की है। सुख
की और दुख की अनुभूतियां बाहर से होती हैं। बाहर हम कुछ चाहते हैं, मिल जाए, सुख होता है। बाहर हम कुछ चाहते हैं,
न मिले, दुख होता है। बाहर प्रिय को निकट रखना
चाहते हैं, सुख होता है; प्रिय से
विछोह हो, दुख होता है। अप्रिय से मिलना हो जाए, दुख होता है; प्रिय से बिछुड़ना हो जाए, तो दुख होता है। बाहर जो जगत है उसके संबंध में हमें दो तरह की अनुभूतियां
होती हैं--या तो दुख की, या सुख की।
आनंद की अनुभूति बाहर से नहीं होती। भूल करके आनंद को सुख न समझना।
आनंद और सुख में अंतर है। सुख दुख का अभाव है; जहां दुख नहीं है
वहां सुख है। दुख सुख का अभाव है; जहां सुख नहीं है वहां दुख
है। आनंद दुख और सुख दोनों का अभाव है; जहां दुख और सुख
दोनों नहीं हैं, वैसी चित्त की परिपूर्ण शांत स्थिति आनंद की
स्थिति है। आनंद का अर्थ है: जहां बाहर से कोई भी आंदोलन हमें प्रभावित नहीं कर
रहा--न दुख का और न सुख का। सुख भी एक संवेदना है, दुख भी एक
संवेदना है। सुख भी एक पीड़ा है, दुख भी एक पीड़ा है। सुख भी
हमें बेचैन करता है, दुख भी हमें बेचैन करता है। दोनों
अशांतियां हैं। इसे थोड़ा अनुभव करें, सुख भी अशांति है,
दुख भी अशांति है। दुख की अशांति अप्रीतिकर है, सुख की अशांति प्रीतिकर है। लेकिन दोनों उद्विग्नताएं हैं, दोनों चित्त की उद्विग्न, उत्तेजित अवस्थाएं हैं।
सुख में भी आप उत्तेजित हो जाते हैं। अगर बहुत सुख हो जाए तो मृत्यु तक हो सकती
है। अगर आकस्मिक सुख हो जाए तो मृत्यु हो सकती है, इतनी
उत्तेजना सुख दे सकता है।
दुख भी उत्तेजना है, सुख भी उत्तेजना है। अनुत्तेजना
आनंद है। जहां कोई उत्तेजना नहीं, जहां चेतन पर बाहर का कोई
कंपन, प्रभाव नहीं कर रहा, जहां चेतन
बाहर से बिलकुल पृथक और अपने में विराजमान है। उत्तेजना का अर्थ है: अपने से बाहर
संबंधित होना, अपने से बाहर विराजमान होना। उत्तेजना का अर्थ
है: अपने से बाहर विराजमान होना। जैसे कि झील पर लहरें उठती हैं, लहरें झील में नहीं उठती हैं, लहरें हवाओं में उठती
हैं और झील में कंपित होती हैं। हवाओं के प्रभाव में, हवाओं
के फर्क में झील पर लहरें उठती हैं। लहरों के उठने का अर्थ है: झील अपने से बाहर
किसी चीज से प्रभावित हो रही है। अगर झील अपने से बाहर की किसी चीज से प्रभावित न
हो तो क्या हो? तो झील परिपूर्ण शांत होगी, उसमें कोई लहरें नहीं होंगी। हमारा चित्त बाहर से प्रभावित होता है तो
लहरें उठती हैं सुख की, और दुख की और जब हमारा चित्त बाहर से
अप्रभावित होता है...नहीं होता। तब जो स्थिति है उस स्थिति का नाम आनंद है। सुख और
दुख अनुभूतियां हैं बाहर से आई हुईं, आनंद वह अनुभूति है जब
बाहर से कुछ भी नहीं आता। आनंद बाहर का अनुभव न होकर अपना अनुभव है।
इसलिए सुख और दुख छीने जा सकते हैं, क्योंकि वे बाहर से
प्रभावित हैं, अगर बाहर से हटा लिए जाएंगे तो सुख और दुख बदल
जाएंगे। जो आदमी सुखी था, किसी कारण से था; कारण हट जाएगा, दुखी हो जाएगा। जो आदमी दुखी था,
किसी कारण से था; कारण हट जाएगा, सुखी हो जाएगा। आनंद निःकारण है, इसलिए आनंद को छीना
नहीं जा सकता। आपका सुख छीना जा सकता है, आपके दुख छीने जा
सकते हैं, आपका आनंद नहीं छीना जा सकता। जो भी बाहर पर
निर्भर है वह छीना जा सकता है। इसलिए सुख भी क्षण स्थायी है, दुख भी क्षण स्थायी है, आनंद नित्य है। सुख भी
परतंत्रता है, दुख भी परतंत्रता है, क्योंकि
दूसरे का उसमें हाथ है। आनंद स्वतंत्रता है। दुख भी बंधन है, सुख भी बंधन है, आनंद मुक्ति है।
तो आनंद मनुष्य का अपने चैतन्य में स्थित होने का नाम है। सुख मिलता
है, दुख मिलता है, आनंद मिलता नहीं है। आनंद मौजूद है,
केवल जानना होता है। सुख को पाना होता है, दुख
को पाना होता है, आनंद को पाना नहीं होता, केवल आविष्कार करना होता है, डिस्कवरी करनी होती है।
वह मौजूद है। क्योंकि जो चीज पाई जाएगी वह खो सकती है। इसे स्मरण रखें, जो चीज पाई जा सकती है वह खो भी सकती है। आनंद, मैंने
कहा: खो नहीं सकता, इसलिए वह पाया ही नहीं जा सकता। वह मौजूद
है, केवल जाना जाता है।
तो आनंद के संबंध में दो स्थितियां हैं: आनंद के प्रति अज्ञान और आनंद
के प्रति ज्ञान। आनंद की और निरानंद की स्थितियां नहीं हैं, यानी मनुष्य ऐसी स्थिति में नहीं होता कि एक आनंद की स्थिति है और एक
निरानंद की। वह दो स्थितियों में होता है: आनंद के प्रति ज्ञान की स्थिति, आनंद के प्रति अज्ञान की स्थिति। आनंद तो मौजूद है। महावीर को, बुद्ध को, क्राइस्ट को जो आनंद मिला वह आपमें भी
मौजूद है। आपमें और उनमें आनंद की दृष्टि से भेद नहीं है, भेद
ज्ञान की दृष्टि से है। आनंद की दृष्टि से कोई भेद नहीं है। महावीर को जो आनंद
मिला वह आपमें भी उतना ही मौजूद है, जरा कण भर भी कम नहीं
है। फिर भेद कहां है? वे आनंद को देख रहे हैं, आप आनंद को नहीं देख रहे। वे आनंद को जान रहे, आप
आनंद को नहीं जान रहे हैं। भेद ज्ञान का है, भेद अवस्था का,
स्थिति का, स्टेट ऑफ बीइंग नहीं है, स्टेट ऑफ नोइंग का है। ज्ञान भेद है, स्थिति भेद
नहीं है। फिर हमें क्यों उसका बोध नहीं हो रहा है जिसका महावीर को हो रहा है?
जो आदमी सुख-दुख का बोध कर रहा है वह आनंद का बोध नहीं कर सकेगा।
क्योंकि सुख और दुख बाहर हैं, जो उनमें उलझा है वह बाहर उलझा
है, उसके भीतर जाने की उसे फुर्सत नहीं है। सुख-दुख का उलझाव
मनुष्य को अपने से बाहर किए है। तो जिसको भीतर जाना हो, उसे
सुख-दुख के उलझाव से पीछे सरकना होगा। स्मरणीय है, दुख से तो
कोई भी हटना चाहता है, दुख से कोई भी हटना चाहता है, समस्त प्राणी-जगत हटना चाहता है, लेकिन जो सुख से
हटने में लग जाएगा वह आनंद पर पहुंच जाएगा। दुख से तो कोई भी हटना चाहता है। वह
साधना नहीं है, वह सामान्य चित्त का भाव है। जो सुख से हटना
चाहेगा, वह आनंद में पहुंच जाएगा। दुख से जो हटना चाहता है
उसकी आकांक्षा सुख की है, जो सुख से हट रहा है उसकी आकांक्षा
आनंद की है।
साधना का अर्थ है: सुख से हटना। साधना का अर्थ है: सुख-त्याग। त्याग
का मतलब: सुख की जो हमारी चिंतना है, सुख को पाने की हमारी
जो तीव्र आकांक्षा है, सुख के प्रति जो हम अतिशय उत्सुक हैं,
इस उत्सुकता में थोड़ा सा नॉन-कोऑपरेशन, जो
मैंने कल कहा।
अभी किसी ने पूछा: वह क्या है नॉन-कोऑपरेशन? असहयोग?
जब सुख आपको पीड़ित करने लगे, खींचने लगे, तब असहयोग करें इस वृत्ति से। और जाने कि ठीक है, सुख
की आकांक्षा पैदा हो रही, मैं केवल जानूंगा, इस आकांक्षा से आंदोलित नहीं होऊंगा। सुख की आकांक्षा को जानना और सुख की
आकांक्षा से आंदोलित हो जाना, दो अलग-अलग बातें हैं। जाने कि
मेरे भीतर सुख की कामना पैदा होती है, लेकिन मैं इससे
आंदोलित नहीं होऊंगा। मैं कोशिश करूंगा, कांशस एफर्ट करूंगा,
सचेतन, सजग प्रयास करूंगा कि मैं इससे
प्रभावित न होऊं, अप्रभावित होने का प्रयत्न करूंगा। इस
माध्यम से अगर धीरे-धीरे सुख की आकांक्षा से कोई अप्रभावित होने का विचार करे,
सुख से तो मुक्त हो ही जाएगा। जो सुख से मुक्त हुआ, वह दुख से मुक्त हो गया। सुख की आकांक्षा ही दुख देने का कारण है। जो दुख
से मुक्त होना चाहता है वह दुख से कभी मुक्त नहीं होगा, क्योंकि
वह सुख की आकांक्षा करता है। जो सुख की आकांक्षा करता है उसके पीछे दुख मौजूद हो
जाता है। क्योंकि जिनसे सुख मिलता है वही कारण दुख देने के बन जाते हैं। जो सुख से
पीछे हटेगा, सुख से असहयोग करेगा, सुख
के प्रति अनासक्ति के भाव की उदभावना करेगा, वह सुख से तो
मुक्त होगा, तत्क्षण दुख से भी मुक्त हो जाएगा।
दुनिया में दो ही तरह के लोग हैं। दुख से बचने की चेष्टा करने वाले
लोग, वे कभी दुख से मुक्त नहीं होते हैं। सुख से बचने की
चेष्टा करने वाले लोग, वे दुख से भी मुक्त हो जाते हैं,
सुख से भी मुक्त हो जाते हैं। तब जो शेष रह जाता है, वह जो दुख और सुख दोनों के छूटने से शेष रह जाता है, वह आनंद है। वह कौन शेष रह जाता होगा? जब दुख भी
नहीं है, सुख भी नहीं है, तो फिर कौन
शेष रहेगा? जब दुख नहीं, सुख नहीं,
तो वह शेष रह जाएगा जो दुख को जानता था और सुख को जानता था। जब दुख
भी नहीं है, सुख भी नहीं है, फिर कौन
शेष रह जाएगा पीछे? वह शेष रह जाएगा, जो
दुख को जानता था, सुख को जानता था। वह ज्ञात, वह ज्ञान, वह ज्ञाता। वह ज्ञान की शक्ति मात्र शेष
रह जाएगी। वही ज्ञान की शक्ति आनंद है। भेद आनंद का नहीं, ज्ञान
का है। अगर हम सतत आंतरिक की तरफ चलें, बाहर के प्रभावों से
निष्प्रभाव होने की तरफ चलें। हमारा बंधन क्या है? बाहर का
प्रभाव हमारा बंधन है। हम चौबीस घंटे बाहर से प्रभावित हो रहे हैं। बाहर के प्रभाव
इतने इकट्ठे हो जाएंगे भीतर, उनकी इतनी पर्तें जम जाएंगी।
किसी ने पूछा कि कल मैंने कहा कि जैसे पानी नीचे
है कुएं के और ऊपर मिट्टी की पर्तें हैं, पानी तो मौजूद है,
अगर मिट्टी की पर्तें अलग हो जाएंगी तो पानी निकल आएगा। पानी को
लाना नहीं है, केवल उदघाटन करना है। तो किसी ने अभी पूछा कि
वे पर्तें कौन सी हैं?
वे पर्तें बाहर के प्रभाव कीं, बाहर के इंप्रेशंस।
वे जो बाहर के प्रभाव हैं, वही मेरे ऊपर पर्तें हैं। उन्हीं
पर्तों के नीचे मैं दबता चला गया हूं। उसे पुरानी भाषा में वे कर्म की पर्तें कहते
हैं। नई भाषा में उसे कहेंगे, इंप्रेशंस, संस्कार। वे जो हमारे चित्त पर बाहर से पड़ रहे हैं। जैसे एक आईना हो और उस
पर धूल की पर्तें जमती जाएं, जमती जाएं, जमती जाएं। आईना नष्ट नहीं हो जाएगा, धूल की पर्त
आईने को नष्ट नहीं कर सकती, केवल छिपा सकती है। आईना नष्ट
नहीं हो जाएगा। और कितनी ही पर्त पर पर्त बैठ जाएं, आईना
नष्ट नहीं हो जाएगा, केवल पर्तें हैं। और आईना अपने में पूरा
का पूरा इस क्षण भी मौजूद है। अपने भीतर आईना उतने का उतना मौजूद है जितना तब था
जब पर्तें नहीं थीं, जितना तब होगा कि जब पर्तें नहीं
रहेंगी।
ये जो धूल की पर्तें हैं इनको भर अलग करना है। फर्क इतना ही है कि
आईने की पर्तों को अलग करने के लिए बाहर से आदमी आएगा और पर्त अलग कर देगा। कुआं
खोदने में कोई आदमी बाहर से गैंती चलाएगा और मिट्टी अलग कर देगा। यह जो आंतरिक
जल-स्रोत, ज्ञान-स्रोत है इसमें बाहर का कोई सहयोगी नहीं होगा,
खुद ही पर्तों को खोलना पड़ेगा। इसलिए पर्तें तोड़ी जाएंगी। दो तरह के
कुएं खोदे जाते हैं, एक ढंग होता है ऊपर से कुदाली चलाओ,
एक होता है नीचे से डायनामाइट लगाओ। डायनामाइट भी पर्तें तोड़ देगा,
लेकिन वह नीचे से तोड़ेगा। उसका विस्फोट होगा और पर्तें फिंक जाएंगी।
और एक होता है ऊपर से पर्तों को खोदो।
तो मनुष्य के अंतश्चेतन में कुदाली काम नहीं करती, डायनामाइट काम करता है। वहां भीतर एक कुछ क्रांति पैदा करनी होगी, भीतर अग्नि पैदा करनी होगी। उस अग्नि के विस्फोट में पर्तें फट जाएंगी और
जो भीतर छिपा है वह बाहर प्रकट हो जाएगा। तपश्चर्या का और कोई अर्थ नहीं है। अपने
ही अंतश्चेतन में पड़ी हुई पर्तों के नीचे डायनामाइट, विस्फोट
की साधना है। वहां अपने को ही तोड़ने की साधना है। आश्चर्य है, अपने को ही तोड़ कर अपने को पाया जाता है। अपने को तोड़ कर इसलिए कि जिसको
हम अभी अपना मैं समझ रहे हैं वे केवल पर्तें हैं।
अगर मैं आपसे पूछूं आप कौन हैं? तो आप जो उत्तर देंगे
वे आपकी पर्तें होंगी आप नहीं होंगे। आप कहेंगे कि मैं फलां का पुत्र हूं। समझ
लीजिए, आपको यह न बताया गया होता कि आप फलां के पुत्र हैं,
तो आप क्या करते? आप कैसे जान लेते? यह तो बाहर का एक प्रभाव है कि लोगों ने आपसे कहा कि आप फलां आदमी के
पुत्र हैं, यह बाहर की एक पर्त आप पर बैठ गई। जब भी कोई आपसे
पूछेगा, आप कौन हैं? आप कहेंगे,
मैं फलां का पुत्र हूं। यह तो एक इंप्रेशन है जो बाहर से आप पर बैठ
गया, यह आप नहीं हैं। यह धूल है, आईना
नहीं है। कोई आपसे पूछता, आप कौन? तो
आप कहते हैं, मैं फलां पद पर हूं। आप, यह
जो फलां पद पर होना है यह बाहर की एक पर्त है। मैं इतना पढ़ा हूं, इतना लिखा हूं, यह हूं, वह
हूं। ये सारे पद और प्रतिष्ठाएं, और नाम और धाम, पते-ठिकाने, यह आपका परिचय नहीं केवल आपकी पर्तों का
परिचय है। आप ये नहीं हैं। आप इन सबके पीछे होते हैं। क्योंकि पद आपसे छीन लिया
जाएगा, तब भी आप रहेंगे; नाम आपका छीन
लिया जाएगा, तो भी आप रहेंगे; आपकी
स्मृति खो जाए, आप भूल जाएं कि किसके लड़के हैं, तो भी आप रहेंगे। ये सारी चीजें भी आपसे छीन जाएं, तो
आप नहीं मिटते हैं। इन सबमें आप नहीं, इनके पीछे आप हैं।
साधना एक ही है कि मनुष्य पर्तों से अपने को एक न समझ कर उस पीछे की
तरफ सरके, उस स्थान पर पहुंचे जहां कोई पर्त नहीं रह जाती और
केवल शुद्ध, निश्चल ज्ञानमात्र रह जाता है, आईना मात्र रह जाता है।
वह जो अभी किसी ने पूछा कि इंद्रियज्ञान और
अतींद्रियज्ञान में क्या अंतर है?
वह अंतर यही है, इंद्रियज्ञान पर का होता है,
अतींद्रियज्ञान स्व का होता है। आंख से मैं आपको देख सकता हूं,
आंख से अपने को नहीं देख सकता। हाथ से मैं आपको पकड़ सकता हूं,
हाथ से मैं अपने को नहीं पकड़ सकता। कान से मैं आपको सुनता हूं,
कान से मैं अपने को नहीं सुन सकता। इंद्रियां और उनका ज्ञान बाहर का
है। अगर कहें, इंद्रियों का ज्ञान सुख-दुख का है। इंद्रियों
का ज्ञान बाहर का है, इंद्रियों का ज्ञान सुख-दुख का है। एक
ज्ञान ऐसा भी है जो इंद्रियों का नहीं है, वह सुख-दुख का
नहीं है, वह आनंद का है। इंद्रियां सुख-दुख पर ले जाएंगी,
अतींद्रियता आनंद पर ले जाएंगी। इंद्रियों का ज्ञान पर्तें बढ़ाता है,
अतींद्रिय का ज्ञान पर्तों को काटता है। तो आंख खोलूंगा तो आपको देख
सकता हूं, कान खोलूंगा तो आपको सुन सकता हूं, हाथ फैलाऊंगा तो आपको छू सकता हूं। अगर अपने को छूना हो और अपने को देखना
हो और अपने को सुनना हो, तो क्या करना होगा? उलटा करना होगा। जो द्वार बाहर की तरफ ले जाता है, जो
रास्ता बाहर की तरफ ले जाता है, अगर भीतर चलना हो तो उलटा
चलना होगा। आप जिस रास्ते से इस भवन तक आए हैं, अब वापस
लौटिएगा अपने घर तो कैसे जाइएगा? उलटे जाइएगा। जिस ढंग से
इधर को आए हैं उसकी विपरीत दिशा में जाना होगा। जिस रास्ते से हम बाहर के जगत को
जानते हैं अगर अंतस के जगत को जानना है तो उलटा चलना होगा। अगर आंख न खोलूं तो आप
दिखाई नहीं पड़ेंगे, तो आंख खोलता हूं तो आप दिखाई पड़ते हैं।
मतलब यह हुआ, अगर भीतर चलना है तो आंख बंद करनी पड़ेगी। कान
खोलता हूं तो आप सुनाई पड़ते हैं, मतलब यह हुआ कि अगर भीतर
सुनना है तो कान बंद करने पड़ेंगे। शरीर को गतिमान करता हूं तो आपको छू पाता हूं,
अर्थ यह हुआ, अपने को छूना है तो शरीर को
अगतिमान, अक्रिया में ले जाना होगा, शरीर
को जड़वत छोड़ देना होगा, उसमें कोई क्रिया न हो। आंखों को
सुन्न कर लेना होगा, जो वे देखे नहीं, कान
को सुन्न कर लेना होगा, जो वे सुने नहीं। समस्त इंद्रियों को
इतना शिथिल कर देना होगा कि वे क्रियाशील न रह जाएं। जब कोई भी इंद्रिय क्रियाशील
नहीं होगी, तब क्या होगा? तब भी भीतर
तो मैं रहूंगा। अभी भी आंख थोड़े ही देखती है, आंख के पीछे से
कोई है जो देखता है। आपका चश्मा थोड़े ही देखता है, चश्मे के
पीछे से कोई आंख है जो देखती है। फिर और गौर करिए, तो आंख भी
नहीं देखती है, आंख के पीछे भी कोई और है जो देखता है।
कई दफा ऐसा हुआ होगा, आंख देखती मालूम होती है फिर भी
दिखाई नहीं पड़ता, वह जो भीतर वाला है कहीं और मौजूद है। तो
आंख देखती भी है फिर भी दिखाई नहीं पड़ता। कान सुनते मालूम होते हैं फिर भी सुनाई
नहीं पड़ता, क्योंकि वह सुनने वाला कहीं और उलझा हुआ है,
कहीं और मौजूद है।
एक आदमी के मकान में आग लग जाए, वह रास्ते से जा रहा
हो, आप उसको किनारे पर मिल जाएं तो दिखाई थोड़े ही पड़ेंगे,
देखेगा जरूर, लेकिन दिखाई नहीं पड़ेंगे,
वह भागा जा रहा है। उसका पूरा का पूरा चित्त वहां मौजूद है जहां आग
लग गई है। अब आप मिले तो आप दिखाई थोड़े ही पड़ेंगे। अगर उससे कल कोई पूछे कि रास्ते
पर कौन-कौन मिले थे? तो कहेगा, मुझे
कुछ याद नहीं। देखे तो जरूर होंगे क्योंकि आंख तो खुली थी; देखे
लेकिन दिखाई नहीं पड़े, क्योंकि देखने वाला अनुपस्थित था। आंख
नहीं देखती, आंख के पीछे कोई और देखने वाला है। तो जब आंख
नहीं देखेगी तब क्या होगा? तब देखने वाला अंदर अकेला रह
जाएगा। कान सुनेंगे नहीं तो क्या होगा? सुनने वाला अंदर
अकेला रह जाएगा। हाथ छुएंगे नहीं तो क्या होगा? छूने वाला
अंदर अकेला रहा जाएगा। वह जो ज्ञान की शक्ति है अंदर अकेली रह जाएगी।
समस्त इंद्रियों को बंद कर लेना योग है। समस्त इंद्रियों के बाहर जाते
द्वारों को अवरुद्ध कर लेना योग है। इसको पतंजलि ने कहा है: वृत्ति का निरोध योग
है। वृत्ति इंद्रियों की है। आंख की वृत्ति देखना है, कान की वृत्ति सुनना है, ये सारी वृत्तियां
इंद्रियों की हैं। पांच इंद्रियां हैं हमारे पास, उनकी पांच
वृत्तियां हैं। और इन पांच इंद्रियों के पीछे हमारा मन है, जिसका
काम पांचों इंद्रियों से जो वृत्तियां फलित हुईं उनको इकट्ठा कर लेना है। वह
संग्राहक है। सारी इंद्रियां इकट्ठा करती हैं, मन उनका
संग्राहक है। यानी आंख देखती है, मन देखने में चित्र को
स्मरण में रख लेता है। कान सुनता है, मन सुने हुए शब्द को
स्मरण में रख लेता है। मन संग्राहक है, मन रिजर्वायर है।
इंद्रियां इकट्ठा करने के द्वार हैं, मन संग्रह करने का
केंद्र है। जो मैंने कहा कि पर्तें इकट्ठी होती चली जाती हैं, इंद्रियां लाती हैं पर्तों को और मन पर वह इकट्ठी होती चली जाती हैं।
इंद्रियां लाती हैं प्रभावों, इंप्रेशन, संस्कारों को और मन पर वे इकट्ठे होते चले जाते हैं। मन पर पर्त पर पर्त
घनी होती चली जाती हैं। मन मोटा और वजनी होता चला जाता है। मन जितना वजनी और सख्त
होता चला जाता है, चेतना उतनी नीचे सरकती चली जाती है।
मिट्टी की पर्तें घनी हो जाती हैं, पानी नीचे उतर जाता है।
अगर अब ठीक से समझें तो पर्त का अर्थ मन है। मिट्टी का अर्थ मन है।
अगर मन से पर्तें मिटानी हैं तो मन को शून्य करना होगा, न करना होगा। उसके सारे प्रभाव बाहर फेंक देने होंगे। इसको महावीर ने
निर्जरा कहा है। वह पूर्ण शब्द है, वह उनका अपना टेक्नीकल
शब्द है, उनका अपना परिभाषित शब्द है। शब्दों का मुझे मोह
नहीं है बहुत, लेकिन इन पर्तों को खिसका देने का नाम निर्जरा
है। यह जो मन पर एक ही जन्म की नहीं अनंत जन्मों की पर्तें हैं। वह जो पर्त पर
पर्त प्रभाव हैं, उन प्रभावों को निष्प्रभाव कर देना है। उन
प्रभावों के बाहर हो जाना, उनको तोड़ देना। उस निर्जरा
के...सारे प्रभाव विलीन हो जाएंगे, केवल वही रह जाएगा जिस पर
प्रभाव इकट्ठे हो गए थे, तो हम अपने को जानेंगे, वह आत्मज्ञान होगा।
किसी ने पूछा: आत्मज्ञान का मार्ग क्या है?
इसे जानना चाहिए। आत्मज्ञान का मार्ग: प्रभाव की निर्जरा। संस्कार, इंप्रेशंस, जो-जो प्रभाव हैं उनको छोड़ देना।
स्मरणपूर्वक यह ध्यान रखना कि क्या प्रभाव हैं, जो-जो प्रभाव
हैं उसको संगृहीत न करना। हम तो चौबीस घंटे प्रभाव के संग्राहक हैं। साधक चौबीस
घंटे प्रभाव का नियोधक होता है। हम संग्रह करते हैं। अतीत मर जाता है लेकिन हमारे
चित्त में उसके संस्कार छूट जाते हैं। कल जिनको देखा था, वे
आज भी याद पड़ते हैं। कल जिसने गाली दी थी, उसका क्रोध आज भी
उत्पन्न होता है। कल जिसने अपमान कर दिया था, उसके प्रति
दुर्भाव अभी भी बना हुआ है।
एक दिन ऐसा हुआ कि बुद्ध के पास एक आदमी आया और उनके ऊपर थूक गया।
उनके मुंह पर थूक दिया। बड़ा अभद्र था यह। उनके शिष्य कुपित हो गए होंगे। बुद्ध ने
कपड़े से अपना मुंह पोंछा और उस आदमी से कहा: मित्र, और कुछ कहना है?
वह बहुत हैरान हुआ। उसने कहा: अभी यह मैंने कुछ कहा क्या?
बुद्ध ने कहा: यह भी तुम्हारा कहने का रूप ही है। शब्दों से भी नहीं
कह सकते थे, थूक कर कह दिया। गुस्से में हो, तो यह तुमने कह दिया, और भी कुछ कहना है क्या?
वह आदमी बड़ा हैरान हुआ होगा। अजीब था। चला गया। बुद्ध कुछ गुस्सा होते, कुछ करते तो हैरानी न होती, वह सहज होता, यह बड़ा अजीब सा था, वह वापस लौट गया। वह दूसरे
दिन--पछताया रात भर--सुबह आकर उसने क्षमा मांगी। उसने कहा कि मैं क्षमा मांगने आया
हूं।
बुद्ध ने कहा: एक भूल तो तुमने वह की कि थूका। दूसरी भूल यह की कि
उसको अब याद भी रखे हुए हो। हमने उस वक्त भी भूल नहीं की, तुमने थूका, हमने तुम पर नहीं थूका, अब हमने दूसरी भूल भी नहीं की, तुमने थूका, तब उसको याद रखने का, उसको खींचने का कौन सा कारण
है। उस प्रभाव को हमने वहीं छोड़ दिया।
हम प्रभावों को छोड़ते नहीं, पकड़ते हैं। तब प्रभाव
इकट्ठे होते चले जाते हैं। हम हर प्रभाव को पकड़ते हैं। हमारी पूरी आदत तत्काल
पकड़ने की है। हम अच्छे-बुरे प्रभाव पकड़ते चले जाते हैं। उनकी ही पर्तें इकट्ठी हो
जाती हैं। साधक प्रभाव पकड़ता नहीं है, वह हर प्रभाव को उसी
क्षण मर जाता है। उस प्रभाव को उसी क्षण मर जाता है, उस
प्रभाव को पकड़ता नहीं है। जो हुआ, जो दिखा, वह ठीक है, दिखा और हुआ। उसको याद नहीं करता,
उसे स्मरण नहीं रखता, उसे स्मृति का अंग नहीं
बनाता। साधक अपने अतीत के बोझ को नहीं ढोता है। हम अपने अतीत के बोझ को ढोते हैं।
अगर हम गौर करें अपने मन पर, तो हम पाएंगे, हमारे मन का बोझ अतीत का बोझ है। वे जो कल बीत गए और मर गए हैं, वे मुर्दा कल हमारे ऊपर सवार हैं। अतीत का बोझ बंधन है, अतीत से मुक्ति मुक्ति है। जिसको कर्म-मुक्ति कहा है वह क्या है? वह अतीत से मुक्ति है। ऐसी चैतन्य की स्थिति कि उसका कोई अतीत, कोई हिस्ट्री, कोई इतिहास न रह जाए, तो वह मुक्त-चैतन्य है। हम जो भी हैं, अगर गौर करें,
तो हमारा अतीत ही हम हैं। हम एक तरह मुर्दा लोग हैं। हमारा जो कुछ
भी है हमारा अतीत है। वही हमने याद किया हुआ, वही स्मरण किए
हुए हैं। अतीत की निर्जरा करनी है, पर्तों को हटाना है।
आत्म-साधना अतीत से मुक्त होने की साधना है, प्रभाव से मुक्त होने की साधना है, संस्कार के
निर्जरा की साधना है।
किसी और ने भी पूछा: क्या करें? उस आत्मतत्व को जानने के लिए क्या करें?
किसी ने पूछा: वह अल्टीमेट रियलिटी का स्वरूप
क्या है? वह आत्यंतिक सत्ता का स्वरूप क्या है?
किसी ने पूछा कि वह आत्मज्ञान कैसे हो सकता है? सारे लोग, सारे साधु, सारे संत,
सारे द्रष्टा, सारे जाग्रतपुरुष उसकी ही बात
करते हैं। वह कैसे हो सकता है?
तो मैं आपको कहूंगा, प्रभावित होने का मार्ग बंद करिए;
अप्रभावित होना शुरू करिए, मुझसे भी प्रभावित
मत होइए। क्योंकि वह भी संस्कार बनेगा। साधु से भी प्रभावित मत होइए, वह भी संस्कार बनेगा। तीर्थंकर से भी प्रभावित मत होइए, वह भी संस्कार बनेगा। वह शुभ संस्कार होगा; लेकिन
शुभ भी बांधता है, अशुभ भी बांधता है। महावीर कहे, सोने की कड़ियां बांध भी लेती हैं, लोहे की कड़ियां भी
बांध लेती हैं। और खतरा सोने की कड़ियों में ज्यादा है, क्योंकि
सोने की होने की वजह से उनको छोड़ने का मन भी नहीं होता। अशुभ संस्कार भी बांधता है,
शुभ संस्कार भी बांधता है। कोई संस्कार मत बांधिए। अगर शुद्ध होना
है तो शुभ और अशुभ संस्कारों को तिलांजलि दीजिए। शुभ-अशुभ के छूटने पर जो शेष रह
जाता है वह शुद्ध है। शुभ-अशुभ दोनों अशुद्ध हैं।
जैसे मैंने कहा कि सुख और दुख बाहर हैं, वैसे ही शुभ और अशुभ
भी बाहर हैं। जैसे मैंने कहा: आनंद भीतर है और सुख-दुख बाहर हैं, वैसे ही शुभ-अशुभ बाहर हैं शुद्ध भीतर है। पाप-पुण्य बाहर हैं, धर्म भीतर है। हमें आनंद की तरफ, शुद्ध की तरफ,
धर्म की तरफ चलना है। तो जैसे मैंने कहा कि दुख छोड़ना तो सब चाहते
हैं, सुख कोई नहीं छोड़ना चाहता। वैसे ही पाप को सब छोड़ना
चाहते हैं, पुण्य कोई नहीं छोड़ना चाहता। वैसे ही अशुभ को सब
छोड़ना चाहते हैं, शुभ कोई नहीं छोड़ना चाहता। जैसे मैंने कहा
कि सुख नहीं छोड़ना चाहता, वह दुख नहीं छोड़ पाएगा; जो पुण्य नहीं छोड़ना चाहता, वह पाप नहीं छोड़ पाएगा;
जो शुभ नहीं छोड़ना चाहता, वह अशुभ नहीं छोड़
पाएगा।
अशुभ और पाप और दुख सब छोड़ना चाहते हैं, वह कोई साधना नहीं
है। साधना की शुरुआत तो वहां है जहां आप दुख को, पुण्य को,
शुभ को भी छोड़ना चाहते हैं। तब आप शुद्ध की ओर उन्मुख होते हैं,
तब आप धर्म की ओर उन्मुख होते हैं, तब आप आनंद
की ओर उन्मुख होते हैं। जरा गौर से देखिए, सुख-दुख बाहर हैं,
तो पाप-पुण्य भी तो बाहर हैं। जब आप किसी कर्म को कहते हैं, यह पाप है, तो किस वजह से कहते हैं? बाहर उसका परिणाम गलत है। जब आप किसी कर्म को पुण्य कहते हैं, तो किस वजह से कहते हैं? बाहर उसका परिणाम गलत नहीं
है। बाहर उसका परिणाम प्रीतिकर है तो वह पुण्य हो जाता है; बाहर
उसका परिणाम अप्रीतिकर है तो वह पाप हो जाता है। किसी ने पूछा अभी कि वहां जर्मनी
में वह जो कैदियों की हत्या की उन्होंने, कनसनट्रेशन कैंप
में, तो वह क्या किया?
लोग कहेंगे, वह पाप किया। वह पाप किया इसलिए कि बाहर उसका परिणाम
बुरा है। और अगर वैसा न किया जाता कि इन कैदियों को आप मुक्त कर दें, तो वह पुण्य होगा, क्योंकि बाहर उसका परिणाम
प्रीतिकर है। बाहर परिणाम प्रीतिकर हो तो पुण्य मालूम होता है; बाहर परिणाम अप्रीतिकर हो तो पाप मालूम होता है। अपने पर परिणाम प्रीतिकर
मालूम हो तो सुख मालूम होता है; अपने पर परिणाम अप्रीतिकर
मालूम हो तो दुख मालूम होता है।
अगर गौर से देखें, तो जो करने वाले के लिए पाप है
वह झेलने वाले के लिए दुख हो जाता है। जो करने वाले के लिए पाप है वह झेलने वाले
के लिए दुख हो जाता है। जो करने वाले के लिए पुण्य है वह झेलने वाले के लिए सुख हो
जाता है। जो करने वाले के लिए शुभ है या पुण्य है या सुख है वह वैसा परिणाम लाता
है। यह जो हमारी शृंखला है बाहर की, इस बाहर की व्यर्थ की
शृंखला के पीछे एक अद्वैत भी है जहां कोई द्वैत नहीं है। बाहर जहां भी है सब द्वैत
है। इसको स्मरण रखें, चाहे सुख-दुख हो, चाहे पाप-पुण्य हो, चाहे शुभ-अशुभ हो, बाहर सब द्वैत है, बाहर सब डुआलिटी है। भीतर डुआलिटी
नहीं है। अगर यूं समझें, तो मनुष्य के जीवन में एक त्रिकोण
है, एक ट्राएंगल है। दो कोण बाहर हैं, एक
कोण भीतर है। वे दो कोण विरोधी कोण हैं--सुख के, दुख के;
पाप के, पुण्य के; शुभ
के, अशुभ के। उन दोनों के पीछे एक कोण है, वह ट्राएंगल का जो शीर्ष है, वह अंदर है। वह न शुभ
है, न अशुभ है; न पाप है, न पुण्य है; न सुख है, न दुख
है। वह आनंद है, वह शुभ है, वह धर्म
है। उसकी तरफ चलना है। सुख को असहयोग करना है, पुण्य को
असहयोग करना है।
एक भारतीय साधु चीन गया। उसका नाम था, बोधिधर्म। वह जब चीन
गया तो वहां के बादशाह ने उसका स्वागत किया। उस बादशाह ने बुद्ध धर्म के प्रचार के
लिए, जिसका कि बोधिधर्म भिक्षु था, करोड़ों
रुपये खर्च किए थे। बड़ी-बड़ी मोनेस्ट्री, बड़े-बड़े आश्रम,
बड़े मठ, बड़े मंदिर, हजारों
मूर्तियां, बड़े ग्रंथ उसने प्रकाशित किए थे। उसने स्वागत
किया। स्वागत करने के बाद उसने बोधिधर्म से पूछा कि मैंने इतना-इतना किया है--इतने
मंदिर, इतनी मूर्तियां, इतने विहार,
इतने ग्रंथ मैंने प्रकाशित किए, इतने-इतने
करोड़ रुपये मैंने खर्च किए, महाराज, इससे
मुझे क्या होगा?
दूसरे साधु जो आए थे उन सबने कहा था कि तुझे बड़ा लाभ होगा, बड़ा तुझे सुख मिलेगा, बड़ा तुझे...होगा। वह बोधिधर्म
बोला, कुछ भी नहीं होगा।
वह तो बहुत हैरान हो गया। उसने कहा: कुछ भी नहीं होगा! यह मैंने सब
किया व्यर्थ है?
तो उसने कहा: सार्थक तो वह है जो करने से नहीं मिलता, न करने से मिलता है। तूने जो किया वह बाहर किया, बाहर
किया कुछ भी सार्थक नहीं है; सब रेत पर बनाए हुए चिह्नों की
तरह हैं। हवाएं पोंछ देंगी। मंदिर तेरे गिर जाएंगे, ग्रंथ
तेरे विलीन हो जाएंगे, विहार तूने बनाए धूल में मिल जाएंगे,
जिन भिक्षुओं को तूने भोजन दिया उनकी देहें जिन्होंने भोजन ग्रहण
किया जल जाएंगी, राख हो जाएंगी। बाहर तो कुछ भी किया हुआ
अर्थपूर्ण नहीं, क्योंकि बाहर कुछ भी किया थिर नहीं। बाहर तो
पानी पर खींची गई रेखाएं हैं।
आप बैठे हैं नदी के किनारे, पानी पर अपना नाम लिख
दिया, आप लिख भी नहीं पाए कि नाम विलीन हो गया। बाहर के जगत
पर सब पानी की रेखाओं जैसा है, वहां खींच भी नहीं पाते कि
मिट जाता है, वहां बना भी नहीं पाते कि समाप्त हो जाता है,
वहां जाग भी नहीं पाते कि नींद आ जाती है, वहां
जीवन मिल भी नहीं पाता कि मौत चली आती है। इससे पहले कि वहां बनता है वह मिटना
शुरू हो जाता है, इससे पहले कि वहां कुछ खड़ा हो वहां गिरना
शुरू हो जाता है। बाहर के जगत में खींची गई कोई रेखा का कोई परिणाम नहीं है। वह
रेखा चाहे सुख की हो, चाहे पुण्य की हो, चाहे शुभ की हो, परिणाम तो उसका है जो भीतर है और
भीतर कुछ खींचा नहीं जाता।
जब सब खींचना बंद करके जो भीतर जागता है, जब बाहर की सब क्रियाओं को छोड़ कर, निवृत्त होकर कोई
भीतर होश से भरता है, जब बाहर सारे क्रिया-कलाप, सारी चिंतनता से शून्य होकर कोई अचिंतन में जागता है तो उसे जानता है जो
वहां मौजूद है। जो वहां मौजूद है वह नित्य और शाश्वत है, वही
आत्यंतिक सत्ता है, वही अल्टीमेट रियलिटी है। उसमें, उसमें जागना है, उसमें होश से भरना है। और उसमें होश
का एक ही मार्ग है, एक ही मार्ग है कि किसी भी भांति बाहर से
जो प्रभाव आते हैं...अवेयर रहें, होश में रहें कि उन
प्रभावों को हमें संग्रह नहीं करना है। जब कोई गाली दे जाए तो गाली को संग्रह नहीं
करना है।
एक भिक्षु, एक संन्यासी एक गांव के करीब से निकलता था। कुछ लोगों
ने आकर उसे गालियां दीं, उसका अपमान किया। उसने जब सारी बात
सुन ली, उसने कहा: मित्र, मुझे दूसरे
गांव जल्दी पहुंचना है, अगर तुम्हारी बातचीत पूरी हो गई,
तुम्हारा संवाद पूरा हो गया, तो मैं जाऊं,
मुझे आज्ञा दें।
वे लोग बोले, हमने तुमसे संवाद नहीं किया, बातचीत
नहीं की; हमने तो तुम्हें गालियां दी हैं।
उस संन्यासी ने कहा: तुमने गाली दी वह तुम्हारा काम, मैंने उसे नहीं लिया यह मेरा काम है। देने में तुम स्वतंत्र हो, लेने में मैं भी स्वतंत्र हूं। तुम देते हो तुम जानो, मैं लेता नहीं इतना मैं जानता हूं। अभी पिछले गांव से मैं निकला था,
वहां लोग मिष्ठान्न और फल-फूल लेकर आए थे और मुझसे बोले, इन्हें ले लें, मैंने कहा: पेट भरा है, मैंने नहीं लिया। तो उसने पूछा कि फिर उन्होंने उन फूलों का, उन मिष्ठानों का क्या किया होगा? वे लोग बोले,
अपने घर ले गए होंगे। तो उसने कहा: तुम भी सोचो, तुम गालियां लेकर आए, मैं कहता हूं कि हम तो लेते
नहीं, तो तुम क्या करोगे? गालियां घर
ले जाओगे?
जो गाली न ली जाए वह वापस उसी पर लौट जाती है, जो क्रोध स्वीकार न किया जाए वापस लौट जाता है, जो
प्रभाव गृहीत न किए जाएं वे अपने आप पीछे कदम वापस हो जाते हैं।
साधना जो आता है उससे लड़ने की नहीं, उसे न लेने की है।
लड़ा तब तो लेना शुरू कर दिया। प्रेम करो या लड़ो, लेना शुरू
हो जाता है। दुश्मन को भी हम ले लेते हैं और मित्र को भी ले लेते हैं। तो राग भी
नहीं उससे, विराग भी नहीं उससे; उससे
वीतराग, तटस्थता। न तो राग कि आ जाओ और न विराग कि मत आओ।
क्योंकि मत आओ वाला भी घबड़ाया हुआ है, और उसने कुछ न कुछ ले
लिया। वह जो घबड़ाहट है वह लेने की सूचना है। आपने मुझे गाली दी, मैंने कहा कि मुझे गाली मत दीजिए। जब मैंने यह कहा कि मुझे गाली मत दीजिए,
मैं ले लिया। यह जो उत्तेजना मुझ में आई कि मुझे गाली मत दीजिए,
यह तो मैंने ले लिया।
तो न तो मैं कहता हूं कि गाली दीजिए, न मैं कहता हूं कि न
दीजिए। यह आपकी मौज है कि आपका गाली देने का मन है आप गाली दे रहे हैं, यह हमारी मौज है कि हम नहीं लेते हैं। अगर थोड़ी सी इस तरफ दृष्टि हो और
साधना हो कि हम न लेने की साधना करें, तो आप हैरान होंगे,
आप अदभुत हैरान हो जाएंगे। न लेने से तटस्थ चैतन्य के बोध से,
साक्षी के बोध से, द्रष्टा के बोध से कि मैं
केवल द्रष्टा मात्र हूं। तुमने गाली दी, यह देखा, बस देखा भर, तुमने गाली दी देखा और मैं अपनी राह चल
दिया। अगर यह बोध बना रहे, प्रभाव आने बंद हो जाएंगे। नया
प्रभाव नहीं पड़ेगा, नया आश्रय नहीं होगा। जब नया आश्रय नहीं
होगा, जब नये प्रभाव नहीं पड़ेंगे, तो
पुराने प्रभाव मेरे भीतर उठेंगे जिनको मैंने कभी ले लिया था। जब नये प्रभाव नहीं
पड़ेंगे, जब नये-नये प्रभाव पड़ते जाते हैं तो पुराने प्रभाव
नीचे दबते चले जाते हैं, उनको निकलने का मौका ही नहीं आता।
हम रोज नई-नई चीजें इकट्ठी कर लेते हैं, वे और नीचे दब जाती
हैं। जब नये प्रभाव मैं नहीं लूंगा, तो पुराने प्रभाव मेरे
भीतर जाग्रत होंगे, वे खड़े होंगे। आज क्रोध नहीं लिया लेकिन
पुराने जो क्रोध लिए थे उनके संस्कार, उनके कर्म-बंध मेरे
भीतर उठेंगे, उनका ही द्रष्टा होना है। उनको भी देखना है कि
तुम भी उठे। बाहर से किसी ने गाली दी थी, क्रोध प्रकट किया
था, उसको देखा और कहा कि हम नहीं लेते। जब भीतर से तुम्हें
उठे क्रोध तब भी उसे देखो, वह भी बाहर है, वह भी देखा जा सकता है। जो भी चीज देखी जा सकती है वह बाहर है।
जब भीतर क्रोध उठे, जब भीतर अपमान उठे, जब भीतर जलन,र् ईष्या उठे, तब
कोई पिछले प्रभाव उठ रहें, उनको भी चुपचाप देखो। उनको भी कहो
कि तुम भी आओ, तुमको भी हम देखते हैं। बाकी तुमसे भी हम कुछ
लेते नहीं, तुम्हारे द्वारा हम सक्रिय नहीं होते। यानी उनका
बाहर से लेना भी सक्रिय होना है। और किसी ने गाली दी, मैंने
अगर ले लिया, तो मैं सक्रिय हो जाऊंगा। गाली दूंगा या फिर और
उपाय करूंगा। भीतर कोई संस्कार उठता है कि वासना उठी है, वासना
उठी कि कितना बड़ा महल मेरे पास हो। अगर मैंने उसे गृहीत किया तो मैं महल बनाने की
चिंता और योजना में लग जाऊंगा। तो उसे गृहीत नहीं करना। उससे कहा कि तुम उठी,
ठीक है, हम देखते हैं और देखेंगे, हमने लेना बंद किया, हम केवल देखने वाले रह गए,
हम केवल दर्शक रह गए, हमने कर्ता होने की बात
को छोड़ दिया। वह वासना भी तुम्हारे देखने मात्र से उठेगी, फैलेगी,
जब वह रास्ता नहीं देखेगी कि आप उसको पकड़ें, जब
आपका कोई राग और कोई विराग उससे संबंधित नहीं होगा, तो वह
विसर्जित हो जाएगी। जैसे धुआं उठे और विसर्जित हो जाए। निर्जरा होगी उसकी अगर उसके
प्रति भी तटस्थ बोध रहा, द्रष्टा का बोध रहा। नये आएंगे नहीं,
पुराने धीरे-धीरे विसर्जित हो जाएंगे। नये नहीं आएंगे, पुराने विसर्जित हो जाएंगे, तो धीरे-धीरे निष्प्रभाव
चैतन्य का अनुभव होगा, उसका अनुभव होगा जो नहीं है।
अब तक जिसको जाना वह पर्सनैलिटी थी, वे पर्तें थीं। अब
जिसको जानेंगे वह इसेंस होगा, वह बीइंग होगा। अभी जिसको हम
जानते हैं वह व्यक्तित्व है हमारा। हमारा नाम-धाम, पता-ठिकाना।
तब हम उसको जानेंगे जिसका कोई नाम-धाम नहीं, कोई पता-ठिकाना
नहीं, वह हमारा इसेंस, वह हमारा बीइंग,
वह हमारा आत्मा है। जब हमारा यह तथाकथित मैं, ईगो
और अहंकार गिर जाएगा, विलीन हो जाएगा, तब
उसका जन्म होगा जो हमारा वास्तविक मैं है। वही आत्यंतिक सत्ता है। तो उसी की तरफ
निष्प्रभाव साधना के द्वारा, अनुत्तेजना के द्वारा अपने भीतर
निरंतर शांत होने की सतत चेष्टा के द्वारा; बाहर से जब-जब
लहरें उठ आने को कोई उत्सुक हों, तब चुपचाप तटस्थ हो जाने के
द्वारा व्यक्ति क्रमशः-क्रमशः, शनैः-शनैः आंतरिक में उतरता
और अपने में विराजमान होता है। इसी माध्यम से उस सत्य को हम जान सकते हैं जिसे
समस्त जाग्रत पुरुषों ने कहा है।
किसी ने पूछा: अगर ऐसी बातों के प्रति घृणा होती
हो, ऐसी बातों के प्रति मन सुनने का न होता हो किसी का,
तो उसके साथ क्या करें?
मेरा मानना है, ऐसी बातों से किसी को भी घृणा हो नहीं सकती। क्योंकि
आनंद से किसी को घृणा नहीं हो सकती। अगर घृणा होती हो, तो
कहने वाले को जानना चाहिए वह जो कह रहा है उसी में भूल होगी, सुनने वाले में भूल नहीं होगी। जो कह रहा है, धर्म
को बतला रहा है उस धर्म के बतलाने में कहीं भूल होगी। तो आज दुनिया में जो लोग
अधार्मिक मालूम होते हैं, मैं अभी तक एक भी अधार्मिक आदमी
खोज कर नहीं पा सका हूं। मैं बहुत तलाश में हूं कि मुझे कोई अधार्मिक आदमी मिल
जाए। वह मुझे मिलता नहीं। लोग अधार्मिक नहीं हैं, जिसको आप
तथाकथित धर्म को उनके ऊपर थोपना चाहते हैं वही धर्म नहीं है। घृणा धर्म से पैदा
नहीं होती, मिथ्या धर्म से पैदा होती है।
धर्म तो सबकी आंतरिक प्यास है। ऐसा आदमी खोजना कठिन है जो प्यासा न
हो। बल्कि उलटी हालत है आज, आज हालत यह है कि जिनको घृणा मालूम हो रही है धर्म से,
हो सकता है वे ही धार्मिक लोग हों। क्योंकि जो तथाकथित धर्म को
प्रेम कर रहे हैं, वे मुझे धार्मिक नहीं मालूम होते। जिनके
भीतर वस्तुतः प्यास है उनको प्राथमिक चरण नास्तिकता का उपलब्ध होता है। जिनको
वस्तुतः प्यास है वे पहले इंकार करते हैं, वे कहते हैं,
हम इसको नहीं मान सकते, क्योंकि वे जानने के
लिए उत्सुक हैं, मानना नहीं चाहते हैं। वे खुद अनुभव करने को
उत्सुक हैं, वे थोपी हुई श्रद्धा नहीं लेना चाहते हैं।
नास्तिकता आस्तिकता की प्रारंभिक सीढ़ी है आस्तिकता का विरोध नहीं है। नास्तिकता
आस्तिकता का विरोध नहीं है, नास्तिकता आस्तिकता की प्यास है।
जो नास्तिक की तरह शुरू होगा, अगर वह सचमुच प्यास से बढ़ता
चला जाए, एक दिन आस्तिक की तरह परिणित हो जाएगा। और वह
तथाकथित आस्तिक, जो कभी ठीक से पूछते ही नहीं, वे कभी आस्तिक नहीं हो पाते, आस्तिक के दंभ में ही
जीते हैं और मर जाते हैं।
तो मुझे उन लोगों से बड़ी आकांक्षा और अपेक्षा है जिनको धर्म से घृणा
हो गई हो। क्योंकि धर्म से घृणा तभी हो सकती है जब जो प्रतिपादित किया जा रहा है
वह धर्म जैसा न हो। आज ऐसा ही हुआ है। सब धर्म चर्चा के बाहर हैं, विचार के बाहर हैं। धर्म के नाम पर क्रियाकांड, सड़ी-सड़ाई
परंपराएं सिर पर थोपी जा रही हैं, जिनमें कोई अर्थ नहीं है,
जिनमें कोई जीवित विज्ञान नहीं है। उनके प्रति घृणा पैदा होती है,
अच्छा ही लक्षण है। वैसे आदमी को छोड़ो मत, वैसे
आदमी को पकड़ो; वह आदमी आज नहीं कल बड़ी गहरी धार्मिकता को
उपलब्ध होगा। किसी से निराश होने का कोई कारण नहीं है, क्योंकि
कोई भी मनुष्य अंतिम रूप से अपने प्रति निराश नहीं हो सकता, अपनी
आत्मा को जानने की आकांक्षा से मुक्त नहीं हो सकता। जब तक कोई आत्मा को जान ही न
ले तब तक उससे जानने की आकांक्षा से मुक्त नहीं हो सकता। कितना ही कोई इंकार करता
हो कि मैं आत्मा नहीं मानता।
मैं एक गांव में था। एक वृद्ध वकील ने मुझसे, नब्बे वर्ष की उम्र के आदमी ने, तो उन्होंने मुझसे
कहा कि आपकी बातचीत मैंने सुनी, मैं यह कोई नहीं मानता,
आत्मा-वगैरह मैं कोई नहीं मानता, ईश्वर-वगैरह
में मेरा कोई विश्वास नहीं है, तो मेरे लिए क्या रास्ता है?
मैंने कहा: आपके लिए तो बहुत रास्ता है। आपके लिए बहुत रास्ता है।
जो मानते हैं उनके लिए शायद रास्ता न हो, क्योंकि वे मान ही
लेते हैं इसलिए कभी प्रयास नहीं करते जानने का। जिस आदमी ने मान लिया कि आत्मा है,
वह...हो जाता है, ठीक है, होगा। जिसने नहीं माना, वह बेचैन है। वह कहता है,
हम जानना चाहते हैं। हम किसी की मानना नहीं चाहते। मैं कहता हूं कि
जानने की प्यास जिसमें है वह अदभुत है। मैंने उनसे कहा: बहुत अच्छा है। इस उम्र
में भी आपमें इतना साहस है, नब्बे वर्ष की उम्र में कि आप
नास्तिक हो सकते हैं, यह बड़ी आत्म-शक्ति है। इस उम्र में
नास्तिक होना कठिन है, क्योंकि मौत घबड़ाने लगती है। मौत की
घबड़ाहट से लोग आस्तिक हो जाते हैं। जान कर नहीं।
जवानी में नास्तिक होना आसान है, बुढ़ापे में नास्तिक
होना बहुत कठिन है, बड़ा साहस चाहिए। जवानी में जैसे यह सहज
है कि आदमी नास्तिक हो, वैसे बुढ़ापे में भी सहज है कि आस्तिक
हो। मैंने उनसे कहा: मैं तो बड़ा खुश हूं कि इस उम्र में आपमें यह भाव है, आप हिम्मत के आदमी हैं। इतनी हिम्मत जिसमें हो वह आत्मा को जरूर जान सकता
है। मैंने उनको कहा कि आप प्रयोग करिए। लेकिन आप कहते हैं मैं आत्मा को नहीं मानता,
यह आप गलत कहते हैं। आपने अभी आत्मा को जानने के लिए क्या किया?
वे बोले, मैंने कुछ नहीं किया, वह है ही नहीं। मैंने कहा कि नहीं है यह बिना उसे जानने के प्रयास के कैसे
कह सकते हैं? वह आदमी भी गलत है जो बिना जाने कहता हो आत्मा
है। वह आदमी ही गलत है जो बिना जाने कहता हो आत्मा नहीं है। ये दोनों अंधी
श्रद्धाएं हैं। मेरा कहना है, अंधा विश्वास भी होता है,
अंधा अविश्वास भी होता है। अंधी बिलीफ भी होती है, अंधी डिसबिलीफ भी होती है। दोनों अंधी हैं। तो मैंने कहा: अभी तो आप अंधे
विश्वासी हैं या अंधे अविश्वासी हैं। आंख खोलें, देखें,
और फिर कहें कि है या नहीं।
उनको बात समझ में पड़ी, वे बोले, मैं कैसे आंख खोलूं? तो मैंने जो आपसे बात कही
आत्म-साधना की कि ऐसे आंख खुलेगी भीतर, वह उनसे कही। वे
तीन-चार महीने प्रयोग करते थे। मुझे लिखे कि मैं हैरान हो गया, मुझे आस्तिकता तो अभी नहीं मिली लेकिन नास्तिकता पिघलती जा रही है।
तो मैंने कहा: आस्तिकता की फिक्र छोड़िए, जिस दिन नास्तिकता पिघल
जाएगी, जो शेष रह जाएगा, वही आस्तिकता
है। वहां कोई लेबल थोड़े ही लगा हुआ कि यह आस्तिकता है।
तो उसकी चिंता न करें। कोई अगर घृणा प्रकट करता हो, क्रोध जाहिर करता हो, समझें कि इसमें प्यास है,
नहीं तो क्यों घृणा करता? खतरा दूसरी तरह का
है।
मैं एक किताब पढ़ता था: गॉड इज़ नो मोर। उस किताब के लेखक ने एक बात
भूमिका में लिखी, मुझे बड़ी प्रीतिकर लगी। उसने लिखा कि पुराने दिन के
लोग ईश्वर में उत्सुक थे। कोई कहता था ईश्वर है, वह भी
उत्सुकता थी। कोई कहता था ईश्वर नहीं है, वह भी उत्सुकता थी।
कुछ ऐसे भी लोग अब पैदा हुए हैं, जो कहते हैं, हो तो ठीक, न हो तो ठीक। यह बड़ा खतरनाक है। नास्तिक
खतरनाक नहीं है। जो आदमी कहता है, हो तो ठीक, न हो तो ठीक। यह इनडिफरेंट, यह उपेक्षा। नास्तिक
उपेक्षा नहीं कर रहा ईश्वर की। जो आदमी धर्म के बाबत गुस्सा जाहिर कर रहा, क्रोध जाहिर कर रहा, वह उपेक्षा नहीं कर रहा,
वह भी उत्सुक है। जो श्रद्धा जाहिर कर रहा, वह
भी उत्सुक है। खतरा उस आदमी का है जो न कहता कि है, न कहता
कि न है; वह कहता, हो तो भी ठीक,
न हो तो भी ठीक, हमें कोई मतलब नहीं। हो तो
ठीक, न हो तो ठीक, ऐसा आदमी खतरनाक है।
पर ऐसा आदमी खोजना कठिन है।
उस किताब के लेखक ने बात तो अच्छी लिखी, लेकिन ऐसा आदमी जमीन
पर कहीं है नहीं। ऐसा आदमी होना कठिन है। यह इसलिए मैं कह रहा हूं कठिन है कि कोई
भी अपने आनंद के प्रति उपेक्षा से भरा हुआ नहीं हो सकता। ईश्वर के लिए हो सकता है,
आत्मा के लिए हो सकता है, वे शब्द हैं उनसे
कुछ लेना-देना नहीं, लेकिन खुद के आनंद की तलाश के लिए नहीं
हो सकता। और जो आनंद की तलाश में लगेगा तो एक दिन पाएगा कि आनंद की तलाश आत्मा की
अनुभूति में परिणित हो गई है। क्योंकि आनंद और आत्मा एक ही साथ घटित होते हैं,
एक ही चीज के दो नाम हैं।
तो मैंने पहले प्रश्न से चर्चा शुरू की थी कि आनंद क्या है और उसी
चर्चा पर प्रश्न को पूरा कर लेता हूं। कुछ प्रश्न छूट गए होंगे, वे मैंने यह मान कर छोड़ दिए हैं कि उनका बहुत उपयोग आपके लिए नहीं है। जो
मुझे उपयोगी मालूम पड़े उनकी मैंने चर्चा कर ली है। और मैं समझता हूं कि मेरी बात
आपके समझ में पड़ी होगी।
इतनी शांति से मेरी बातों को सुना, उसके लिए बहुत अनुगृहीत हूं।
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