प्रवचन-पहला (समाधिस्थ स्वर: हरिकथा)
श्री रजनीश आश्रम, पूना, प्रातः, दिनांक २१ जुलाई,
१९८०
पहला प्रश्न: भगवान! जो बोलैं तो हरिकथा--हरिकथा
की यह घटना क्या है? क्या यह घटना मौन व ध्यान की प्रक्रिया से गुजरने के
बाद घटती है अथवा प्रार्थना से? हरिकथा का पात्र और अधिकारी
कौन है? क्या हम आपके प्रवचनों को भी हरिकथा कह सकते हैं?
योग मुक्ता! सहजो का प्रसिद्ध वचन है:
जो सोवैं तो सुन्न में, जो जागैं हरिनाम।
जो बोलैं तो हरिकथा, भथकत करैं निहकाम।।
जीवन जब विचार-मुक्त होता है, तो व्यक्ति एक पोली
बांस की पोंगरी जैसा हो जाता। जैसे बांसुरी। फिर उससे परमात्मा के स्वर प्रवाहित
होने लगते हैं।
बांसुरी से गीत आता है, बांसुरी का नहीं
होता। होता तो गायक का है। जिन ओठों पर बांसुरी रखी होती है, उन ओठों का होता है। बांसुरी तो सिर्फ बाधा नहीं देती।
ऐसे ही कृष्ण बोले; ऐसे ही क्राइस्ट बोले। ऐसे ही
बुद्ध बोले; ऐसे ही मोहम्मद बोले। ऐसे ही वेद के ऋषि बोले;
उपनिषद के द्रष्टा बोले। और इस सत्य को अलग-अलग तरह से प्रकट किया
गया। जैसे कृष्ण के वचनों को हमने कहा--श्रीमदभगवदगीता। अर्थ है--भगवान के वचन।
कृष्ण से कुछ संबंध नहीं है। कृष्ण तो मिट गए--शून्य हो गए। फिर उस शून्य में से
जो बहा, वह तो परम सत्ता का है। उस शून्य में से जो प्रकट
हुआ, वह तो पूर्ण का है। और कृष्ण ऐसे शून्य हुए कि पूर्ण के
बहने में जरा भी बाधा नहीं पड़ी। रंचमात्र भी नहीं। इसलिए कृष्ण को इस देश में हमने
पूर्णावतार कहा। राम को नहीं कहा पूर्णावतार। परशुराम को नहीं कहा पूर्णावतार।
राम अपनी मर्यादा रख कर चलते हैं। उनकी एक जीवन-दृष्टि है। उनका
आग्रहपूर्ण आचरण है। वे पूरे शून्य नहीं हैं। पूर्ण की कुछ झलकें उनसे आई हैं, लेकिन पूर्ण पर भी उनकी शर्तें हैं! पूर्ण उनसे उतना ही बह सकता है,
जितना उनकी शर्तों के अनुकूल हो। उनकी शर्तें तोड़कर पूर्ण को भी
बहने नहीं दिया जाएगा! इसलिए राम को इस देश के रहस्यवादियों ने अंशावतार कहा। यह
प्यारा ढंग है एक बात को कहने का। समझो, तो लाख की बात है। न
समझो, तो दो कौड़ी की है।
अंशावतार का अर्थ यह होता है कि राम ने पूरी-पूरी स्वतंत्रता नहीं
दी--परमात्मा को प्रकट होने की। कोई नैतिक व्यक्ति नहीं दे सकता। नैतिक व्यक्ति का
अर्थ ही यह होता है कि उसका जीवन सशर्त है। वह कहेगा--ऐसा ही हो, तो ठीक है। उसके आग्रह हैं। उसने एक परिपाटी बना ली है; एक शैली है उसकी। जैसे रेल की पटरियां और उन पर दौड़ती हुई रेलगाड़ियां।
चलती तो वे भी हैं; गतिमान तो वे भी होती हैं; मगर पटरियों पर दौड़ती हैं--पटरियों से अन्यथा नहीं।
नदियां भी चलती हैं, नदियां भी बहती हैं, वे भी गतिमान होती हैं, लेकिन उनकी कोई पटरियां नहीं
हैं। उनके हाथ में कोई नक्शे भी नहीं हैं। कोई अज्ञात, प्राणों
के अंतसचेतन में छिपा हुआ कोई राज बहाए ले जाता है उन्हें सागर की ओर। और कैसी
अदभुत बात है कि छोटी सी छोटी नदी भी सागर को खोज लेती है! बिना मार्ग-दर्शक के,
बिना किसी का हाथ पकड़े; बिना किसी शास्त्र के;
बिना किसी समय-सारणी के; बिना किसी नक्शे के!
चल पड़ती है--और पहुंच जाती है। और कैसी उसकी चाल है! कोई नियम में आबद्ध नहीं।
जहां मिला मार्ग। कभी बाएं, कभी दाएं। कई बार लगता है कि अभी
नदी बहती इस तरफ थी, अब बहने लगी उस तरफ। ऐसे कहीं पहुंचना
होगा! लेकिन फिर भी हर नदी पहुंच जाती है। पहुंच ही जाती है। जो चल पड़ा, वह पहुंच ही गया।
महावीर का प्रसिद्ध वचन है: जो चल पड़ा, वह पहुंच ही गया। मगर
चलने चलने में भी भेद होंगे।
एक मर्यादा में बंधी हुई गति है। और एक कृष्ण का अमर्यादा व्यक्तित्व
है। इसलिए कृष्ण को समझना मुश्किल। क्योंकि न नीति है कुछ, न अनीति है कुछ। न शुभ है, कुछ, न अशुभ है कुछ। जैसा ले चले परमात्मा; बाएं तो बाएं;
दाएं तो दाएं। किसी पंथ का कोई आग्रह नहीं है। अपंथी हैं। पंथ-मुक्त
हैं। वामपंथी नहीं हैं--कि बाएं ही चलेंगे। दक्षिण-पंथी नहीं हैं--कि दाएं ही
चलेंगे। मध्य-मार्गी नहीं हैं--कि मध्य में ही चलेंगे।
बुद्ध को भी इस देश में पूर्णावतार नहीं कहा। क्योंकि बुद्ध का भी
आग्रह है--मध्य-मार्ग का। प्रत्येक पैर सम्यक होना चाहिए। देखो तो सम्यक, उठो तो सम्यक, बैठो तो सम्यक। जीवन की एक सुनिश्चित
व्यवस्था होनी चाहिए; अनुशासन होना चाहिए। बुद्ध ने अनुशासन
दिया इसलिए बौद्धों में उनका जो नाम है, वह है अनुशास्ता।
महावीर को भी पूर्ण अवतार नहीं कहा जा सकता। उनकी जीवन-शैली तो और भी
बंधी हुई है। राम से भी ज्यादा; बुद्ध से भी ज्यादा। वे तो पैर
भी फूंक-फूंक कर रखते हैं! वे तो रात करवट भी नहीं बदलते, कि
कहीं करवट बदलें अंधेरे में, कोई चींटी-चींटा दब जाए! तो एक
ही करवट सोए रहते हैं! वे तो भोजन भी आग्रह से लेते हैं। आग्रह से लेने का अर्थ:
वे सुबह-सुबह निर्णय करके निकलते हैं कि यह मेरी शर्त पूरी होगी, तो भोजन लूंगा। नहीं तो भोजन नहीं लूंगा।
भोजन भूख से नहीं लेते; भोजन के ऊपर एक
शर्तबंदी है। जैसे सुबह ही ध्यान में उतरेंगे, उठते समय
निर्णय करेंगे कि आज ऐसी घटना घटे: इस द्वार से भोजन लूंगा, जिस
द्वार पर कोई स्त्री अपने बच्चे को स्तन से दूध पिलाती खड़ी हो। अब अगर यह संयोग
मिल जाए, तो भोजन लेंगे। मिले--न मिले। क्योंकि जिस द्वार पर
स्त्री बच्चे को दूध पिलाती खड़ी हो; एक तो ऐसा द्वार खोजना
कठिन। कोई द्वार पर खड़े होकर किसलिए बच्चे को दूध पिलाएगा! पूरा घर पड़ा है;
द्वार पर खड़े होकर बच्चे को स्तन से दूध पिलाना, जहां राह गुजर रही है; लोग आ रहे, जा रहे! भारत में तो मुश्किल होगा। फिर अगर कोई स्त्री दूध पिला भी रही हो,
तो जरूरी तो नहीं कि उसने महावीर को भोजन देने के लिए तैयारी रखी
हो! भोजन घर में बना भी न हो अभी! यह भी हो सकता है: भोजन भी बना हो, तो जरूरी तो नहीं कि महावीर उसके द्वार पर अपना भिक्षापात्र फैलाएं और वह
न कह दे कि आगे बढ़ो। हर घर से तो भिक्षा मिल नहीं जाती।
और महावीर उसी घर से भोजन लेंगे, जिस घर का निर्णय
करके निकले हैं। एक बार तो यों हुआ कि छह महीने तक भोजन नहीं लिया! अस्थि-पंजर
मात्र रह गए। क्योंकि शर्त ही पूरी न हो। शर्त ऐसी थी कि पता नहीं--पूरी होती कि न
होती। शर्त किसी को बताते भी नहीं थे; बता दें, फिर तो शर्त ही न रही। फिर तो कोई न कोई पूरा करवा देगा। शिष्य खबर कर
देंगे। छह महीने! और जो शर्त पूरी न हो आज, कल भी वही रहेगी।
कल पूरी न हो--परसों भी वही रहेगी। जब तक पूरी न हो, तब तक
वही रहेगी। तब तक शर्त भी बदलेंगे नहीं! नहीं तो उसमें भी चालबाजी कर सकता है आदमी
कि अब बदल लो, यह शर्त तो पूरी होती नहीं। चालबाजी का सवाल
ही नहीं है। महावीर कोई किसी और के आदेश से अपने ऊपर ऐसा आरोपण नहीं कर रहे हैं।
अपना ही उनका आरोपण है। अपना ही आग्रह है। निज से निकला है।
शर्त ले ली थी कि उस द्वार से भिक्षा लूंगा, जिस द्वार के सामने एक बैलगाड़ी खड़ी हो। बैलगाड़ी में गुड़ भरा हो। और
बैलगाड़ी के पीछे एक गाय खड़ी हो। और गाय ने गुड़ में सींग मार कर अपने सींगों में
गुड़ लगा लिया हो। उसके दोनों सींगों पर गुड़ लगा हो। बैलगाड़ी अभी भी खड़ी हो;
गई न हो। गाय के दोनों सींगों पर गुड़ लगा हो उस द्वार से अगर भिक्षा
मिलेगी, तो लूंगा। छह महीने में यह शर्त पूरी हुई! जब पूरी
हुई तो ही...।
एक बार शर्त ले ली--तीन महीने लग गए। शर्त ले ली थी कि कोई राजकुमारी
जिसके पैरों में जंजीरें पड़ी हों, प्रार्थना करे भोजन का, तो भोजन लूंगा। अब एक तो राजकुमारी होगी तो पैरों में जंजीरें क्यों पड़ी
होंगी! और पैरों में जिसके जंजीरें पड़ी होंगी, वह क्या
प्रार्थना करेगी बेचारी, कि मेरे घर से भोजन ले लो! उसका
क्या घर! यह तो कारागृह होगा। जब तीन महीने में यह शर्त पूरी हुई, तो महावीर ने भोजन लिया।
महावीर का जीवन सशर्त है। अतिनैतिक है। अतिमर्यादाबद्ध है। इसलिए
जैनों ने भी महावीर की चिंतना को, देशना को शासन कहा है--जिस-शासन।
एक-एक सूत्र है उस शासन का।
भारत के मनीषी सिर्फ कृष्ण को छोड़कर किसी को पूर्णावतार नहीं कह सके।
क्योंकि कृष्ण की कोई शर्त नहीं है, कोई आग्रह नहीं है,
कोई आचरण नहीं है, कोई मर्यादा नहीं है। कृष्ण
की शून्यता समग्र है, पूर्ण है। वे हैं ही नहीं। उनसे
परमात्मा को जो करवाना हो, करवा ले। न करवाना हो--न करवाए।
इसलिए हम उनके वचनों को श्रीमदभगवदगीत कह सके। उनके वचन उनके नहीं हैं। उनसे आए
हैं--मगर उनके नहीं हैं। जैसे वृक्षों पर फूल खिलते हैं, मगर
वृक्षों के ही थोड़े होते हैं। उन फूलों में जमीन का दान होता है। सूरज की किरणों
का मिलन होता है। हवाओं की भेंट होती है। वे फूल इस समस्त सृष्टि के अनुदान से
निर्मित होते हैं। कहीं से रंग आता है, कहीं से रूप आता है,
कहीं से गंध आती है। कुछ मिट्टी होती है, कुछ
आकाश देता है। कुछ हवाएं देती हैं, कुछ प्रकाश देता है।
ऐसे ही जब कोई बिलकुल शून्य होता है, तो फिर जो बोले,
वह हरिकथा हो जाएगी। इसलिए नहीं कि वह हरि के संबंध में बोल रहा है।
हरि के संबंध में बोलने वाले तो बहुत लोग मिलेंगे। हरि के संबंध में तो घर-घर
कथाएं होती रहती हैं। जहांत्तहां कथाएं होती रहती हैं। मगर सहजो के इस सूत्र को
समझना।
पहला सूत्र, उसकी भूमिका--जो सोवैं तो सुन्न में। जो यूं सो गए कि
शून्य ही जिनका विश्राम हो गया है। जिन्होंने शून्य में अपने अहंकार को विसर्जित
कर दिया है। शून्य ही जिनकी सुषुप्ति है। पतंजलि ने कहा है: समाधि में और सुषुप्ति
में थोड़ा-सा ही भेद है। थोड़ा-सा भी, और बहुत भी। यूं तो
रत्ती भर, लेकिन रत्ती इतनी बड़ी कि जमीन आसमान को अलग-अलग कर
दे।
समाधि और सुषुप्ति में समानता बड़ी है, कि दोनों ही हालत में
तुम खो जाते हो। गहरी सुषुप्ति में जब स्वप्न भी नहीं होते, तो
तुम कहां बचोगे! तुम लीन हो गए होते हो विराट में। इसलिए तो सुषुप्ति के बाद--आधी
घड़ी की सुषुप्ति भी हो जाए, तो सुबह कितने ताजे होकर लौट आते
हो! तुम्हें पता भी नहीं चलता--कौन दे गया यह ताजगी! कौन दे गया यह रस! कौन भर गया
फिर से तुम्हें जीवन से! कल सांझ तो कितने थके थे, कितने
टूटे थे! कितने उखड़े थे! फिर पुनरुज्जीवित हो उठे हो। सब थकान मिटी। सब हार मिटी।
सब पराजय खो गई। सब चिंताएं विदा हो गईं। तुम किसी अमृत का घूंट पीकर लौट आए हो।
मगर तुम्हें कुछ पता नहीं--कहां घटा यह, कैसे घटा यह--कहां
तुम गए! तुम थे ही नहीं, तब जाना हुआ था। तुम मिटे थे,
तब विराम आया था। तुम खो गए थे, लीन हो गए थे।
कोई बचा ही न था मैं-भाव, तब सुषुप्ति...। स्वप्न भी न बचा
था, विचार भी न बचा था, तो मैं कहां
बचता! मैं भी तो एक स्वप्न है, एक विचार है। एक धारणा मात्र
है।
मन तो बिलकुल ही मिट गया था, तिरोहित हो गया था,
वाष्पीभूत हो गया था। तब सुषुप्ति में तुम परमात्मा में लीन हो गए,
जैसे लहर सागर में लीन हो जाए। फिर उठे, तो
ताजी होकर उठे। सागर का सारा रस लेकर उठे। सागर धो गया--सब चिंताएं, सब धूल--पोंछ गया सब। मन की जो-जो गंदगी थी, सब बहा
ले गया। आई बाढ़--ताजा कर गई। आई बाढ़ सब कचरा-कूड़ा बहा ले गई। वसंत से गुजर गए;
मधुमास से गुजर गए। अमृत में एक डुबकी लगा आए। इसलिए सुबह ताजे हो।
पतंजलि कहते हैं: सुषुप्ति में व्यक्ति परमात्मा में लीन होता है। मगर
एक भेद है समाधि और सुषुप्ति का। सुषुप्ति में उसे होश नहीं होता और समाधि में उसे
होश होता है। इतना-सा भेद है--होश का। घटना एक ही घटती है। सुषुप्ति में भी शून्य
हो जाते हो, मगर तुम्हें होश नहीं होता। इसलिए पाते हो, और फिर खो देते हो। जब होश ही नहीं है...।
जैसे बेहोश आदमी के हाथ में किसी ने कोहिनूर हीरा रख दिया। अब इसका
क्या भरोसा, कहां पटक आएगा! कहां खो आएगा! कुत्ते को भगाने के लिए
फेंक कर मार दे! इसका क्या भरोसा! सोए हुए आदमी का क्या भरोसा! इसके हाथ में तुम
कुछ भी दे दो। इसे पता ही नहीं है--यह है; हाथ है; हाथ में कुछ है; क्या है! यह बेहोश है।
समाधि में बस इतना ही फर्क है: सुषुप्ति+होश; सुषुप्ति+ध्यान। समाधि में दीया जलता रहता है होश का। मैं तो मिट जाता है;
विचार मिट जाते हैं, मगर एक परिपूर्ण जागरूकता
छाई रहती है। इसलिए सुबह जब तुम उठते हो, तो इतना ही नहीं कि
तुम अमृत का घूंट पीकर आ गए अनजाने में। तुम जानते हो, तुम
कहां गए थे, कैसा घूंट पिया; कैसे
लौटे। तुम्हें राह का पता है; आने-जाने का पता है, इसलिए तुम जब जाना चाहो, तब जा सकते हो। जब आंख बंद
करो, तब चले जाओ।
जो सोवैं तो सुन्न में--इस समाधि की अवस्था को कहेंगे: शून्य में सो
जाना। मगर होशपूर्वक, बोधपूर्वक। ऐसे शून्य से जो फिर जागता है--जो जागैं
हरिनाम। फिर उस जागरण में उठो तो हरिनाम है, बैठो तो हरिनाम
है। बोलो तो, न बोलो तो; चुप रहो तो,
गुनगुनाओ तो; कुछ भी करो...। ऐसा मत सोचना कि
समाधि से लौटा हुआ व्यक्ति राम-राम, राम-राम, हरि-हरि--ऐसा जपता रहता है। यह मतलब नहीं है।
जो सोवैं तो सुन्न में, जो जागैं हरिनाम। ऐसे
व्यक्ति की निद्रा समाधि होती है, और ऐसे व्यक्ति का जागरण
प्रभु-स्मरण होता है। जो बोलैं तो हरिकथा--अगर ऐसा व्यक्ति बोले--तो हरिकथा। न
बोले, तो भी हरिकथा। उसके पास भी बैठ जाओ, तो हरिकथा।
जरूरी नहीं है कि शब्द ही हों; निःशब्द भी हो। सुनने
वाला चाहिए। तरंगित होने वाला हृदय चाहिए। तो ऐसे समाधिस्थ व्यक्ति के पास
उठने-बैठने में भी हरिकथा हो जाएगी।
भक्ति करैं निहकाम। और ऐसे व्यक्ति के जीवन में जो भी है, सब भक्ति है। कोई कामना नहीं है। तुम्हारी तो भक्ति झूठी भक्ति है।
तुम्हारी भक्ति में तो हमेशा कामना होती ही है। तुम भक्ति भी करते हो, तो पीछे वासना होती है कि यह मिल जाए, वह मिल जाए। न,
चलो संसार का मांगोगे, तो परलोक का मांगोगे,
मगर मांगोगे जरूर।
तुम्हारी परमात्मा की धारणा यह है कि मिल जाए तो उससे यह मांग लूं, वह मांग लूं। सोचो कभी, अगर परमात्मा मिल जाए,
तो क्या करोगे? एकदम मांगों ही मांगों की कतार
बन जाएगी। फेहरिश्त पर लिखो एक दिन बैठकर, कि क्या-क्या
मांगोगे, अगर परमात्मा मिल जाए। तो तुम चकित हो जाओगे कि
क्या-क्या छोटी-छोटी बातें मांगने का मन में विचार आ रहा है! कि धन मांग लूं;
पद मांग लूं; कि शाश्वत जीवन मांग लूं;
कि कभी मरूं न। यह मांग लूंगा, वह मांग लूंगा।
ऐसा धन मांग लूंगा कि चुके ही नहीं। ऐसा पद मांग लूंगा, जो
छिने ही नहीं। ऐसा यौवन मांग लूंगा, जो मिटे ही नहीं।
और छोटे बच्चों का ही नहीं, बड़े से बड़े बूढ़ों का
भी भक्ति के नाम पर वासना का ही खेल चलता रहता है! छोटा बच्चा भी जब अपने पिता के
पास आकर डैडी डैडी करने लगता है, तो पिता जानता है कि अब यह
पैसे मांगेगा--कि आज सिनेमा जाना है, कि गांव में प्रदर्शनी
आई है; कि मदारी तमाशा दिखा रहा है; कि
मिठाई खरीदनी है; कि वह आईसक्रीम बिक रही है! यह कुछ
मांगेगा।
पति जानते हैं कि अगर घर आएं और पत्नी पैर से जूता निकाल कर रख दे और
पानी से पैर धोने लगे, तो समझ लो कि फंसे! कि साड़ी खरीदवाएगी। कुछ इरादे
खतरनाक दिखते हैं! पति घर आए, और फूल ले आए, और आइसक्रीम ले आए, और मिठाई की टोकरी ले आए,
तो पत्नी भी जानती है कि इरादे क्या हैं। वह भी समझती है कि कुछ
मांग भीतर है। कि आज मेरी देह मांगेगा। वह पहले ही से देख कर यह रंग-ढंग, बातें करने लगेगी कि मेरे सिर में दिन भर से दर्द है; कि मेरी कमर टूटी जा रही है। कि आज नौकरानी नहीं आई। बच्चे के दांत निकल
रहे हैं। चूल्हा नहीं जल रहा है। लकड़ी गीली है। मुझे बुखार चढ़ रहा है। वह भी
रास्ते खोजने लगेगी!
इस जगत में तो हम सारे संबंध ही वासना के बनाते हैं।
मुल्ला नसरुद्दीन की पत्नी बोल रही थी कि पता नहीं कहां मेरी अंगूठी
खो गई। सौ रुपए की थी। नसरुद्दीन ने कहा, बिलकुल फिक्र न कर।
मेरे भी सौ रुपए खो गए हैं। मैं बिलकुल फिक्र नहीं कर रहा।
पत्नी बोली, तुम्हारे कहां खो गए हैं?
उसने कहा, कहां! कहां खोते हैं? मगर मैं
फिक्र नहीं कर रहा हूं, क्योंकि मुझे अंगूठी मिल गई है एक सौ
रुपए की!
पत्नी ने कहा, तुम्हें अंगूठी कहां मिली जी?
कहां, वहीं, जहां खोए मेरे रुपए। खीसे
में मेरे रुपए थे। सौ रुपए तो नदारद हो गए हैं, लेकिन अंगूठी
खीसे में मिल गई है!
ये पत्नियां पहले पतियों के खीसे टटोलती हैं। पहला काम!
नसरुद्दीन एक दिन अपने बेटे फजलू को मार रहा था कि तूने पांच रुपए
क्यों निकाले? रख रुपए।
उसकी पत्नी ने कहा कि क्यों मार रहे हो जी उसको! तुम्हारे पास कोई
सबूत है कि इसने पांच रुपए निकाले?
उसने कहा, है सबूत। घर में तीन ही आदमी हैं। एक मैं हूं। मैंने
निकाले नहीं। मेरे ही रुपए--मैं क्यों निकालूंगा? और
निकालूंगा ही, तो फिर परेशानी क्या है, चिंता क्या है! दूसरी तू है। तूने निकाले नहीं, यह
पक्का है।
पत्नी ने कहा, यह तुम कैसे कह सकते हो कि मैंने नहीं निकाले?
उसने कहा, नहीं निकाले तूने; क्योंकि डेढ़
सौ रुपए में से पांच निकालेगी तू! डेढ़ सौ ही जाते। यह इसी हरामजादे की शरारत है।
पांच रुपए गए--ये फजलू ने निकाले हैं। तू निकालती, डेढ़ सौ
निकालती। मैं निकालता--झगड़े का कोई सवाल उठता नहीं। मुझे पता ही होता कि मैंने
निकाले हैं। घर में तीन आदमी हैं। रख दे फजलू पांच रुपए।
इस जगत मैं नाते-रिश्ते सब ऐसे हैं। मगर जगत के ही होते तो भी ठीक था; तुम परमात्मा के मंदिर में भी जाते हो, तो कुछ मांगने
ही। मस्जिदों में दुआओं के लिए हाथ फैलाते हो; मगर मांग!
गिरजाघरों में, मजारों पर--तुम जहां जाओगे, तुम्हारी वासना तुम्हारा पीछा करती है। सत्य-नारायण की कथा करवाओगे;
हरिकथा करवाओगे; रामायण करवाओगे। किसी पंडित
को पकड़ लाओगे। ये रामचरितमानस मर्मज्ञ--पंडित रामकिंकर शास्त्री! इनसे करवाओ! मगर
पीछे प्रयोजन है।
न तुम्हारी हरिकथा हरिकथा है; न तुम्हारा हरिभजन
हरिभजन। क्योंकि तुम सदा कामना से भरे हो। सहजो का यह सूत्र समझो। इस सूत्र में
सारी बात आ गई। जैसे पूरा धर्म आ गया। कुछ बचा नहीं। सारा निचोड़ आ गया--योग का,
भक्ति का, ज्ञान का।
भक्ति करैं निहकाम। एक ऐसी भी भक्ति है, जो बिना वासना के
होती है।
अकबर ने एक दिन तानसेन को कहा कि तानसेन! बहुत बार तेरे संगीत को
सुनकर मैं ऐसा आंदोलित हो जाता हूं! मैं जानता हूं कि इस पृथ्वी पर कोई व्यक्ति
तेरे जैसा नहीं है। तू बेजोड़ है; तू अद्वितीय है। लेकिन कभी-कभी
एक सवाल मेरे मन में उठ आता है। कल रात ही उदाहरण के लिए उठ आया। जब तू गया था
वीणा बजाकर और मैं गदगद हो रहा था और घंटों तल्लीन रहा। तू तो चला गया। वीणा भी
बंद हो गई। मगर मेरे भीतर कुछ बजता रहा, बजता रहा, बजता रहा। और जब मेरे भीतर भी बजना बंद हुआ, तो मुझे
यह सवाल उठा। यह सवाल कई बार पहले भी उठा। आज तुझसे पूछे ही लेता हूं।
सवाल मुझे हमेशा उठता है कि तूने किसी से सीखा होगा; तेरा कोई गुरु होगा! कौन जाने, तेरा गुरु तुझसे भी
अदभुत हो! तूने कभी कहा नहीं; मैंने कभी पूछा नहीं। आज पूछता
हूं; छिपाना मत। तेरे गुरु जीवित हैं? अगर
जीवित हों, तो मुझे उनके दर्शन करने हैं। तेरे गुरु जीवित
हैं? अगर जीवित हैं, तो एक बार उन्हें
दरबार ले आ। उनका संगीत सुनूं, ताकि यह जिज्ञासा मेरी मिट
जाए।
तानसेन ने कहा, मेरे गुरु जीवित हैं। हरिदास उनका नाम है। वे एक फकीर
हैं। वे यमुना के तट पर एक झोपड़े में रहते हैं। लेकिन जो आप मांग कर रहे हैं,
वह पूरी करवानी मेरे वश के बाहर है। उन्हें दरबार नहीं लाया जा
सकता। हां, दरबार को ही वहां चलना हो, तो
बात और। वे यहां नहीं आएंगे। उनकी कुछ मांग न रही। मैं तो यहां आता हूं, क्योंकि मेरी मांग है। मैं तो यहां आता हूं, क्योंकि
अभी धन में मेरा रस है। रही तुलना की बात, तो मेरी आप उनसे
तुलना न करें। कहां मैं--कहां वे! मैं तो कहीं पासंग में भी नहीं आता। मुझे तो भूल
ही जाएं; उनके सामने मेरा नाम ही न रखें!
और भी अकबर कुतूहल से भर गया। उसने कहा, तो कोई फिक्र नहीं!
मैं चलूंगा। तू इंतजाम कर। आज ही चलेंगे।
उसने कहा, और भी अड़चन है कि वे फरमाइश से नहीं गाएंगे। इसलिए
नहीं कि आप आए, तो वे गाएं।
अकबर ने कहा, तो वे कैसे गाएंगे?
तानसेन ने कहा, मुश्किलें हैं--बहुत मुश्किलें हैं। सुनने का एक ही
उपाय है--चोरी से सुनना। जब वे बजाएं, तब सुनना। इसलिए कुछ
पक्का नहीं है। लेकिन मैं पता लगवाता हूं। आमतौर से सुबह तीन बजे उठ कर वे बजाते
हैं। वर्षों उनके पास रहा हूं। उस घड़ी वे नहीं छोड़ते। जब तारे विदा होने के करीब
होने लगते हैं; अभी जब सुबह हुई नहीं होती; उस मिलन-स्थल पर--रात्रि के और दिन के--वे अपूर्व गीतों में फूट पड़ते हैं।
अलौकिक संगीत उनसे जन्मता है। हमें छुपना पड़ेगा। हम दो बजे रात चल कर बैठ जाएं।
कभी तीन बजे गाते हैं; कभी चार बजे गाते हैं; कभी पांच बजे। कौन जाने, कब गाएं! हमें छुप कर बैठना
होगा। चोरी-चोरी सुनना होगा। क्योंकि उन्हें पता चल गया कि कोई है, तो शायद न भी गाएं!
अकबर की तो जिज्ञासा ऐसी बढ़ गई थी कि उसने कहा कि चलेंगे। कोई फिक्र
नहीं।
रात जाकर दोनों छुप रहे। तीन बजे--और हरिदास ने अपना इकतारा बजाया।
अकबर के आंसू थामे न थमें! यूं आह्लादित हुआ, जैसा जीवन में कभी न
हुआ था। फिर जब दोनों लौटने लगे रथ पर वापस, तो रास्ते भर
चुप रहा। ऐसी मस्ती में था कि बोल सूझे ही नहीं। जब महल की सीढ़ियां चढ़ने लगा,
तब उसने तानसेन से कहा, तानसेन! मैं सोचता था,
तेरा कोई मुकाबला नहीं है। अब सोचता हूं कि तू कहां! तेरी कहां
गिनती! तेरे गुरु का कोई मुकाबला नहीं है। तेरे गुरु गुदड़ी के लाल हैं। किसी को
पता भी नहीं; आधी रात बजा लेते हैं; कौन
सुनेगा! किसी को पता भी नहीं चलेगा और यह अदभुत गीत यूं ही बजता रहेगा और लीन हो
जाएगा! तेरे गुरु के इस अलौकिक सौंदर्य, इस अलौकिक संगीत का
क्या रहस्य है, क्या राज है? तू वर्षों
उनके पास रहा, मुझे बोल।
उसने कहा, राज सीधा-सादा है। दो और दो चार जैसा साफ-सुथरा है।
मैं बजाता हूं इसलिए, ताकि मुझे कुछ मिले। और वे बजाते हैं
इसलिए, क्योंकि उन्हें कुछ मिल गया है। वह जो मिल गया है,
वहां से उनका संगीत बहता है। मांग नहीं है वहां--अनुभव, आनंद। आनंद पहले है, फिर उस आनंद से बहता हुआ संगीत
है। मेरा संगीत तो भिखारी का संगीत है। यूं तो वीणा बजाता हूं, लेकिन आंखें तो उलझी रहती हैं--क्या मिलेगा! हृदय तो पूछता रहता है: आज
क्या पुरस्कार मिलेगा! आज सम्राट क्या देंगे! प्रसन्न हो रहे हैं या नहीं हो रहे
हैं? आपके चेहरे को देखता रहता हूं। पूरा-पूरा नहीं होता
वीणा में। इसलिए आप ठीक ही कहते हैं: मेरी उनसे क्या तुलना! वे होते हैं, तो पूरे होते हैं।
इस बात को खयाल में रखना। जिस दिन तुम आनंद का अनुभव कर लोगे, उस आनंद से अगर भक्ति उठी, अर्चना उठी, वंदना उठी, तो उसका सौंदर्य और। वह इस पृथ्वी पर है,
पर इस पृथ्वी की नहीं। वह आकाश से उतरा हुआ फूल है। और जिस दिन तुम
आनंद को अनुभव कर लोगे, उस दिन जो बोलोगे, हरिकथा ही होगी।
योग मुक्ता! तू पूछती है कि क्या हम आपके प्रवचनों को हरिकथा कह सकते
हैं? यह भी अगर मुझसे पूछना पड़े, तो
तूने फिर मुझे सुना ही नहीं। और मैं जानता हूं कि अड़चन है मुक्ता को। सुनने में
अड़चन है। मांग बाधा डालती रहती है। जब से यहां आई है, हृदय
बस मांग से ही भरा हुआ है। मुझे आए दिन पत्र लिखती रहती है कि मैं चेतना के बिलकुल
बगल में बैठती हूं। जब आप आते हैं, तो आप नमस्कार करते हैं।
चेतना को तो देखते हैं, मुझे क्यों नहीं देखते? इसीलिए नहीं देखता। देखूंगा ही नहीं। भूल-चूक से तू दिखाई भी पड़ जाती है,
तो जल्दी से मैं और कहीं देखने लगता हूं। कि अरे! यह तो मुक्ता है!
जब तक तेरी मांग रहेगी, तब तक देखूंगा भी नहीं।
रोज प्रश्न लिखती है। दो-चार प्रश्न रोज उसके होते हैं। और दो-चार-छह
दिन के बाद एक प्रश्न जरूर होता है कि आप मेरे प्रश्नों का उत्तर क्यों नहीं दे
रहे हैं? आज संभवतः पहली बार उसके प्रश्न का उत्तर दे रहा हूं।
और वह भी इसीलिए दे रहा हूं, ताकि उसको झकझोर सकूं।
क्योंकि तेरे मन में ध्यान आकर्षित करने की आकांक्षा बसी हुई है। तू
प्रश्न भी पूछती है, तो प्रश्न के लिए नहीं; तेरे
प्रश्न का उत्तर मिलना चाहिए! तेरा नाम दोहराऊं!
तू चेतना के बगल में बैठती ही इसलिए है कि जब मैं सीढ़ियां चढ़ता
हूं--तू वहां बैठती ही इसलिए है, क्योंकि सीढ़ियां चढ़ता हूं,
तो मेरे सामने ठीक चेतना पड़ती है। तो तुझे आशा होगी कि उसके बगल में
बैठेगी, तो वहां मैं तुझे देखूंगा। उसी आशा में तू बैठी है!
वही आशा तेरे और मेरे बीच बाधा बनी है। वही कामना...।
मैं तो हरिकथा ही कह रहा हूं, मगर तेरे लिए हरिकथा
नहीं हो पा रही है। मेरे कहने से ही क्या होगा? सुनने वाला
भी तो चाहिए!
तू जब तक निष्काम भाव से नहीं यहां उठेगी-बैठेगी, तब तक अड़चन बनी रहेगी। तब तक मेरे तेरे बीच एक दीवाल बनी रहेगी। नहीं तो
यह प्रश्न ही नहीं उठता कि क्या हम आपके प्रवचनों को भी हरिकथा कह सकते हैं?
वर्षों यहां मेरे पास रहने के बाद भी अगर मुझको ही कहना पड़े कि मेरे
प्रवचन हरिकथा हैं, तो हद्द हो गई! तो तूने क्या खाक सुना!
तू क्या यहां कौड़ियां बटोरती रही?
अगर तुझे यह भी अभी पक्का नहीं है कि यह जो कहा जा रहा है, हरिकथा है, तो यहां तू क्या कर रही है? समय खराब क्यों कर रही है? जा कहीं--जहां हरिकथा हो
रही हो! तलाश किसी और को। शायद यह जगह तेरे लिए नहीं। या तो मिट--या कहीं और खोज।
यह तो उनके लिए है जगह, जो मिटने को तत्पर हैं, तैयार हैं। वे गदगद हो रहे हैं; वे आनंदित हैं। उनके
भीतर रस की धार बह रही है।
मैं राम का नाम लूं या न लूं, इससे क्या फर्क पड़ता
है! मैं जो कहूंगा, वह हरिकथा है। नहीं कहूंगा, तो भी हरिकथा होगी। हरिकथा ही हो सकती है, क्योंकि
मैं नहीं हूं--वही है।
शून्य में सोता हूं; हरिनाम में जागता हूं। चौबीस
घंटे वही गूंज रहा है। श्वास-श्वास में वही रमा है। हृदय की धड़कन-धड़कन में उसको ही
पाता हूं। तुममें भी उसे ही देखता हूं। हां, किसी के भीतर
बहुत परदों में छिपा हुआ है--बहुत घूंघटों में; किसी ने जरा
हिम्मत की है, घूंघट उठाया है।
तू कम से कम इतना तो कर! कम से कम किसी मारवाड़ी सन्नारी की तरह
थोड़ा-सा तो घूंघट उठा! जरा दो उंगलियों से ही घूंघट को उठाकर मेरी तरफ देख! मगर तू
बैठी है इस आशा में कि मैं तेरा घूंघट उठाऊं! कि मैं तुझे मनाऊं! फिर यह काम नहीं
होने वाला! फिर यह बात नहीं बनेगी।
मुझसे जो अपेक्षा लेकर बैठा है किसी तरह की, वह चूक ही जाएगा। और मेरे साथ जिसका अपेक्षा का कोई संबंध नहीं है,
वह मुझसे हजारों मील दूर हो, तो भी नहीं
चूकेगा।
मुक्ता दूर थी; अफ्रीका थी। सब छोड़-छोड़ कर आ गई। मगर अब भी मेरे लिए
अफ्रीका में ही है। फासला यूं कम नहीं होता। ये फासले इस तरह कम नहीं होते। ये
फासले कम करने के ढंग और हैं। अफ्रीका से यहां आओ या न आओ, लेकिन
मेरे तुम्हारे बीच कोई कामना, कोई मांग शेष नहीं रह जानी
चाहिए। मिट गए फासले। फिर चाहे चांदत्तारों पर रहो, तो भी
मेरे और तुम्हारे बीच कोई दूरी नहीं है। और नहीं तो मेरे बगल में बैठ जाओ, मेरे पैर पकड़ कर बैठे रहो, कुछ भी न होगा। मेरे पैरों
में कुछ भी न पाओगे। मेरा हाथ हाथ में लिए बैठे रहो जन्मों तक, तो भी कुछ न मिलेगा।
यह बात थोड़ी समझने की है। शून्य हो जाओ मेरे पास, तो सत्संग शुरू हो। जो शून्य होकर बैठे हैं, उनके
लिए सत्संग शुरू हो गया है।
अनेक भारतीय मित्र पत्र लिखकर मुझे पूछते हैं कि न मालूम कितने विदेशी
मित्र हिंदी प्रवचन भी सुनने आते हैं! इनकी क्या समझ में आता होगा? समझ की बात नहीं है। वे जो विदेशी मित्र यहां बैठे हैं चुपचाप, उन्हें भी मालूम है, मुझे भी मालूम है कि हिंदी उनकी
समझ में नहीं आएगी। मगर सत्संग का समझने, न-समझने से कुछ लेना-देना
नहीं है। मेरी उपस्थिति तो समझ में आएगी। मेरी मौजूदगी तो समझ में आएगी।
सच तो यह है, मुझे बहुत से विदेशी मित्र लिखते हैं कि जब आप
अंग्रेजी में बोलते हैं, तो हमारी बुद्धि बीच में आ जाती है।
हम सोच-विचार में लग जाते हैं। वह मजा आ नहीं पाता, जो मजा
जब आप हिंदी में बोलते हैं! क्योंकि बुद्धि को तो कुछ करने को बचता ही नहीं। हमारी
कुछ समझ में तो आता नहीं कि आप क्या कह रहे हैं। सिर्फ आपकी उपस्थिति रह जाती है।
हम रह जाते हैं, आप रह जाते हैं; बीच
में कोई व्यवधान नहीं रह जाता। अंग्रेजी में बोलते हैं, हमारी
समझ में आता है, तो सोच भी उठता है, विचार
भी उठता है; ठीक है या गलत है! सहमति असहमति होती है;
पक्ष विपक्ष होता है। क्या बात कही पते की--तो अच्छा लगता है। अगर
हमारी धारणा के कोई विपरीत बात चली जाती है, तो दिल तिलमिला
जाता है कि यह तो ईसाइयत के खिलाफ बात हो गई और मैं तो ईसाई घर में पैदा हुआ! यह
कैसे हो सकता है? यह बात ठीक नहीं है। सत्संग में बाधा पड़ती
है।
मगर इस देश के अभाग्य की कोई सीमा नहीं है। जब मैं अंग्रेजी में बोलता
हूं, तो जो हिंदुस्तानी मित्र अंग्रेजी नहीं समझते,
वे आना बंद कर देते हैं। उन्हें क्या पड़ी है! अंग्रेजी समझ में आती
नहीं है। सत्संग का राज भूल गए। वे मुझे लिखते हैं कि आप अंग्रेजी में बोलते हैं,
तो हम क्या करें आ कर! इस बीच कुछ और काम-धाम देख लेंगे। कोई और
उपयोग कर लेंगे समय का। क्यों समय गंवाना! अरे, जब समझ में
ही नहीं आना है, तो समय क्यों गंवाना! जैसे समझ ही सब कुछ
है। समझ के पार भी कुछ है। और जो समझ के पार है, वही सब कुछ
है।
मुक्ता! शून्य होना सीख, तो तुझे मेरे
उठने-बैठने में भी हरिकथा सुनाई पड़ेगी। बोलने में, न बोलने
में हरिकथा सुनाई पड़ेगी। मैं तेरी तरफ देखूं या न देखूं, इससे
कुछ भेद न पड़ेगा। और तब जरूर देखूंगा। देखना ही होगा। आंख अपने आप मेरी तरफ मुड़
जाएगी। इस भीड़ में भी मेरी आंखें उनको खोज लेती है। कुछ मुझे चेष्टा नहीं करनी
पड़ती। चेष्टा करूं, तो मुश्किल हो जाए। लेकिन इस भीड़ में भी
मेरी आंख अपने आप उन पर टिक जाती है, जो शून्य होकर बैठे
हैं। वे अलग ही मालूम होते हैं। उनकी भाव-भंगिमा अलग है। उनकी मौजूदगी का रस अलग
है। उनकी मौजूदगी की प्रगाढ़ता अलग है। जैसे कि हजारों बुझे दीए रखे हों और उनमें
दो-चार दीए जल रहे हों। तो वे दीए जो जल रहे हैं, अलग ही
दिखाई पड़ जाएंगे। कुछ खोजना थोड़े ही पड़ेगा कि कौन-कौन से दीए जल रहे हैं! हजारों
दीए रखे हों बुझे, उस भीड़ में चार दीए जल रहे हों, तुम्हारी आंखें फौरन जलते हुए दीयों पर पहुंच जाएंगी।
यूं मैं इधर आता हूं; क्षण भर को हाथ जोड़कर तुम्हें
देखता हूं। जाते वक्त क्षण भर को हाथ जोड़ कर तुम्हें देखता हूं। मगर उस क्षण भर
में उन पर मेरी आंखें पहुंच जाती हैं--मैं पहुंचाता नहीं; पहुंच
जाती हैं--जो जल गए दीए हैं। जो बुझे दीए हैं उन पर आंखें ले जाकर भी क्या करूं!
और आंखें वहां जाएंगी भी, तो बुझे दीयों को क्या होगा?
और अकड़ आ जाएगी। और बुझने का रास्ता मिल जाएगा। यूं ही बुझे हैं,
और बुझे में बुझ जाएंगे। यूं ही मरे हैं--और मर जाएंगे। उन पर तो
मेरी भूल से भी नजर पड़ जाए, तो मैं हटा लेता हूं। क्योंकि
उनको कहीं भी यह भ्रांति न हो जाए कि मैं उन पर ध्यान दे रहा हूं।
तूने पूछा: हरिकथा की यह घटना क्या है?
यहां घट रही है रोज और तुझे दिखाई नहीं पड़ती? और यहां क्या घट रहा है यहां हम किसलिए इकट्ठे हैं? यहां
क्यों बैठे हैं? वही तो वीणा छिड़ी है। वही तो गीत गुनगुनाया
जा रहा है। उसी बरखा में तो हम नहा रहे हैं। वही अमृत तो बरस रहा है। वे ही घटाएं
घिरी हैं। यूं कि जैसे सूरज निकला हो और कोई पूछता हो कि सूरज कहां है! तो इतना ही
सबूत देगा कि अंधा है। सिर्फ अंधा ही पूछ सकता है कि सूरज कहां है।
मुक्ता! आंख खोल। यूं अंधा होने से नहीं चलेगा। मगर तेरा स्त्रैण-रोग
जा नहीं रहा है। स्त्री के बुनियादी रोगों में एक रोग है कि वह चाहती है--आकर्षित
करे। वह अचेतन रोग है। पुरुषों में भी होता है, लेकिन उसकी मात्रा
पुरुषों में कम होती है, स्त्रियों में ज्यादा होती है। और
दूसरी बीमारियां हैं, जो पुरुषों में ज्यादा होती हैं,
स्त्रियों में कम होती है। सब बीमारियों का अंतिम हिसाब किया जाए,
तो बराबर-बराबर पड़ती हैं। मगर फिर भी बीमारियों के भेद होते हैं।
कुछ बीमारियां स्त्रियों में ज्यादा होती हैं। उसमें एक बीमारी है--आकर्षित करने
की। सारे भीतर में एक ही भाव होता है कि मैं ध्यान का केंद्र कैसे बन जाऊं! सब की
नजरें मुझ पर अटकें।
स्त्रियां सजावट करेंगी, शृंगार
करेंगी--घंटों! बस एक ही खयाल है कि सब की नजरें मुझ पर कैसे टिक जाएं। कुछ भी
करने को राजी हो सकती हैं, लेकिन सब की नजरें टिकाने के लिए
बड़ा आकर्षण है, बड़ी लालसा है, बड़ी
वासना है।
फिर यहां भी आ जाएं, मेरे जैसे व्यक्ति के पास आ जाएं,
तो भी वह वासना की छाया पीछा करती है। वह खुमारी मिटती नहीं। वह
पुरानी आदत टूटती नहीं। वह यहां भी भाव बना रहता है। यहां भी वही कलह और संघर्ष
खड़ा होता है।
अब उसे केवल इतना ही खयाल नहीं है मुक्ता को कि मेरी दृष्टि उस पर
क्यों नहीं पड़ती; साथ में उसको चेतना से भीर् ईष्या जग रही है। वह भी
स्त्री के गुणों का एक हिस्सा है। वह इससेर् ईष्या से भी भर रही है कि चेतना पर
मेरी नजर क्यों जाती है! उस पर मेरी नजर क्यों नहीं जा रही है? तो कहीं भीतर प्रतिस्पर्धा भी चल पड़ी है!
चेतना को कोई स्पर्धा नहीं है। किसी से कोई स्पर्धा नहीं है। न उसकी
कोई मांग है। और बिन मांगे मोती मिलैं, मांगे मिलै न चून।
चेतना इधर आई, तो उसकी कल्पना के बाहर। क्योंकि उसने कभी
मांगा नहीं था और अचानक मैंने उसे एक दिन खबर कर दी कि वह आ जाए। लाओत्सू में ही
बस जाए। उसको भरोसा ही नहीं आया! उसे तो यह भी पता नहीं था कि मुझे उसका नाम भी
मालूम होगा। उसकी कल्पना में भी कभी नहीं आया था; उसने कभी
सपना भी नहीं देखा था कि लाओत्सू में उसे रहने को जगह मिल जाएगी! और कारण केवल
इतना था कि मैंने उसके भीतर एक शून्य देखा। और जहां भी शून्य है, वहां ज्योति है।
फिर विवेक जब कभी बीमार होती है या कहीं चली जाती है, कभी दिन दो दिन के लिए, तो मेरा भोजन लाना, मेरे कमरे की व्यवस्था करनी--वह मैंने चेतना को सौंपा। उसको तो बिलकुल ही
भरोसा नहीं था। वह तो इतने आनंद में रोई और नाची! उसे भरोसा ही नहीं आया कि कोई
कारण नहीं है कि उसे मैं क्यों चुन लिया हूं। यही कारण है कि उसके भीतर कोई
आकांक्षा नहीं है।
मुक्ता! तू पूछती है: हरिकथा की यह घटना क्या है? क्या यह घटना मौन व ध्यान की प्रक्रिया से गुजरने के बाद घटती है अथवा
प्रार्थना से?
प्रश्न हम बना लेते हैं और हमें सूझ-बूझ कुछ भी नहीं! न प्रार्थना का
पता है--न मौन और ध्यान का; इसलिए प्रश्न बन जाता है। नहीं तो दोनों बातों में
कुछ भेद है! मौन कहो, कि ध्यान कहो, कि
प्रार्थना कहो--एक ही बात को कहने के अलग-अलग नाम हैं। जरा भी भेद नहीं है। ये
भिन्न-भिन्न लोगों ने भिन्न-भिन्न नाम दिए हैं। कारण है भिन्न-भिन्न नाम देने का।
इसमें भिन्न-भिन्न लोगों की अभिव्यक्ति है।
महावीर ने मौन कहा। इसलिए महावीर के संन्यासी को मुनि कहा जाता है।
मगर उन मुनियों में से कितने लोग मौन हैं? मौन का किसको पता है
उनमें से? मुझे न मालूम कितने मुनियों ने पूछा है कि हम
ध्यान कैसे करें! मैंने उनसे कहा, जब ध्यान ही नहीं कर सकते,
तो तुम मुनि कैसे हो गए! तो वे कहते हैं, मुनि
होना तो दीक्षा से हो गया! मैंने कहा, मुनि शब्द का भी अर्थ
समझे हो? जब तक मौन ही नहीं सधा, तो
क्या खाक मुनि हो जाओगे! तो वे चौंकते हैं। वे कहते हैं, आपने
याद दिलाया, तो याद आया कि बात तो सच है कि मुनि होने का तो
अर्थ ही यही होता है कि मौन का अनुभव होना चाहिए।
मुनि हो गए। एक दो दिन नहीं, वर्षों से मुनि हैं!
एक सत्तर साल के बूढ़े मुनि ने मुझसे पूछा, जो चालीस साल से
मुनि हैं, कि ध्यान कैसे करें? ध्यान
क्या है?
महावीर ने उसे मौन कहा। मौन बड़ा प्यारा शब्द है। मौन का अर्थ है: भीतर
विचार का शून्य हो जाना। वही जो सहजो कह रही है--जो सोवैं तो सुन्न में। शून्य हो
जाए जो भीतर--निर्विचार हो जाए; बीज विचार के दग्ध हो जाएं;
चित्त का जाल कट जाए; भीतर सन्नाटा छा जाए--तो
मुनि। फिर अर्थ मिलेगा जीवन का, गरिमा मिलेगी। फिर खिलेंगे
फूल। आएगा वसंत। झरी लग जाएगी अमृत की।
लेकिन और सब कर लेते हैं! कितने कपड़े पहनने, कितने नहीं पहनने, कितने रखने, कितने नहीं रखने; कितनी बार भोजन लेना, कि नहीं लेना; किस-किस दिन उपवास करना, कब व्रत करना; कब क्या करना--सब कर लेते हैं। और
किसी चीज का मौन से कोई संबंध नहीं है। भूखा आदमी भी विचार से भरा हो सकता है--और
पेट भरा आदमी भी विचार से खाली हो सकता है। इसलिए असली बात तो चूक जाती है;
नकली बात पकड़ में रह जाती है।
पतंजलि ने उसे ध्यान कहा। ध्यान का भी वही अर्थ होता है। साधारणतः तुम
सोए-सोए हो। तुम्हारी जिंदगी नींद-नींद में भरी है। चल रहे हो, उठ रहे हो, बैठ रहे हो, लेकिन
तुम्हें ठीक-ठीक साफ नहीं है--क्यों! क्या हो रहा है! जैसे कोई शराब के नशे में
चलता है।
मुल्ला नसरुद्दीन एक दिन ज्यादा पी कर आ गया। चाबी ताले में लगा कर
खोलना चाहे, लेकिन हाथ कंप रहा, सो चाबी
ताले में न जाए। पुलिस वाला रास्ते पर खड़ा बड़ी देर तक देखता रहा। फिर उसे दया आ
गई। उसने कहा कि बड़े मियां! चाबी मुझे दो। तुमसे न खुलेगी।
नसरुद्दीन ने कहा, खोल कर रहूंगा। तुम्हें अगर इतना
ही प्रेम-भाव उठा है, तो एक काम करो। जरा मेरे मकान को पकड़
कर खड़े हो जाओ। मकान ऐसा हिल रहा है कि मैं करूं तो क्या करूं!
इधर दोनों की बात चल रही थी कि पत्नी की नींद खुल गई। उसने खिड़की से, ऊपर से, दो मंजले से झांककर कहा कि क्या बात है फजलू
के पापा! क्या चाबी खो गई? दूसरी चाबी फेंक दूं?
नसरुद्दीन ने कहा, चाबी तो बिलकुल मेरे पास है,
अगर तेरे पास दूसरा ताला हो, तो फेंक। क्योंकि
इस ताले में चाबी नहीं जा रही है। ताला मकान के साथ हिल रहा है! दूसरा ताला हो,
तो फेंक दे, तो मैं खोल लूं और आ जाऊं!
यह जो आदमी शराब के नशे में इस तरह की बात कर रहा है, इसमें और तुममें कुछ भेद है? तुम्हें भी नशे चढ़े हैं
अलग-अलग तरह के। किसी को धन का नशा चढ़ा होता है, तो उसे कुछ
नहीं सूझता सिवाय धन के।
चंदूलाल मारवाड़ी पर मुकदमा चला अदालत में। किसी को धोखा दे दिया था।
मजिस्ट्रेट ने पूछा, छह महीने की सजा दूं या सौ रुपए...। वह इतना बोल ही
पाया था--आगे कुछ बोले नहीं--कि चंदूलाल बोले कि अब जब आपका दिल ही देने का हो गया
है, तो सौ रुपए ही दे दें। अरे जब देने का ही दिल हो गया,
तो सौ ही रुपए दे दें। अब छह महीने वगैरह क्या देना!
जिसको धन का ही नशा चढ़ा हुआ है, जिसकी पकड़ ही धन पर
है, जो सोचता धन की भाषा में है; उठता-बैठता
है--धन को ही गुनगुनाता रहता है! जो हर चीज को धन के हिसाब से देखता है। जो
आदमियों को भी देखता है, तो उसको नोट दिखाई पड़ते हैं;
आदमी दिखाई नहीं पड़ते--कि कौन आदमी कितना कीमती! कौन आदमी कम कीमती;
कौन आदमी ज्यादा कीमती!
तुर्गनेव की प्रसिद्ध कथा है कि दो सिपाही रास्ते से गुजर रहे हैं और
एक शराबघर के सामने एक शराबी ने एक कुत्ते को दोनों टांगों से पकड़ लिया है पीछे के
और बड़ी चीख-पुकार मचा रहा है। और भीड़ इकट्ठी हो गई है और वह कह रहा है कि मैं इसको
मार डालूंगा। यहीं पछाड़ कर मार डालूंगा। यह मुझे दो दफे काट चुका। दोनों सिपाही भी
भीड़ में खड़े हो गए। एक सिपाही ने दूसरे से कहा कि यह तो अपने इंस्पेक्टर साहब का
कुत्ता मालूम होता है! जैसे ही उसने यह कहा कि दूसरा सिपाही झपटा और उसने एक झापड़
रसीद की शराबी को और कुत्ता छीन लिया उससे और कहा, कितना प्यारा कुत्ता
है! और उस कुत्ते को दोनों हाथों से उठाकर छाती से लगा लिया और कहा कि तू चल थाने।
तू इस तरह की हरकतें हमेशा करता है। सड़क पर भीड़-भाड़ इकट्ठी करनी; दंगा-फसाद करवाने की कोशिश करना! सड़ाएंगे दो-चार दिन हवालात में, फिर तुझ पर मुकदमा चलेगा।
तभी दूसरे सिपाही ने उससे कान में कहा कि भई, यह कुत्ता इंस्पेक्टर साहब का मालूम नहीं होता! यह तो इसको खुजली हो रही
है और यह कहां का मरियल कुत्ता है!
जैसे ही उसने कहा--खुजली, और मरियल कुत्ता,
और इंस्पेक्टर साहब का नहीं--उसने फौरन कुत्ते को नीचे पटक दिया और
उस शराबी से कहा, पकड़ इस कुत्ते को। मार डाल इस कुत्ते को।
यहीं पछाड़। कहां नहाने की हालत कर दी! अब घर जाकर मुझे नहाना पड़ेगा! जल्दी से कपड़े
झड़ाने लगा। ये आवारा कुत्ते और इन कुत्तों के मारे सब की नाक में दम हुई जा रही
है!
भीड़ भी चौंकी। वह शराबी भी चौंका। लेकिन शराबी को जब कहा गया और
पुलिसवाला कहे! उसने जल्दी से फिर कुत्ते की टांग पकड़ ली। फिर गालियां बकने लगा कि
अभी पकड़ता हूं। तभी उस दूसरे सिपाही ने कहा कि भई! मुझे तो लगता है: हो न हो है तो
इंस्पेक्टर साहब का ही कुत्ता! अरे हो गई होगी खुजली, मगर है उन्हीं का। बिलकुल ढंग तो वैसा ही दिखाई पड़ता है! ऐसा ही कान पर
काला चिट्ठा और...!
फिर बात बदल गई। फिर उसने कुत्ते को उठा कर गले से लगा लिया और एक
झापड़ फिर रसीद की उस शराबी को कि तुझे हजार दफे कहा कि ये हरकतें बंद कर!
अब तो भीड़ को भी बड़ा रस आने लगा कि यह हो क्या रहा है! और वह उस
कुत्ते पर हाथ फेर कर कह रहा है--कैसा प्यारा कुत्ता है! कुत्ते बहुत देखे, मगर इसका कोई मुकाबला नहीं है। तभी वह दूसरा पुलिस वाला फिर बोला कि भई,
तू मुझे माफ कर। यह कुत्ता नहीं है। अरे, इसके
तो दोनों कानों पर काले चिट्ठे हैं, उसके तो एक ही कान पर
काला चिट्ठा है! फौरन कुत्ते को उसने पटका। उसने कहा, ये
हरामजादे कुत्ते, न मरते हैं, न खतम
होते हैं। और एक-एक कुत्ता कितनी औलाद छोड़ जाता है! और शराबी को एक धक्का दिया कि
पकड़ इसको। इसको खतम कर इसी वक्त। फिर कपड़े झड़ाए। उसने कहा कि चलो जी घर। पहले
स्नान करना पड़ेगा। खुजली-वुजली हो जाए; कुछ से कुछ हो जाए!
मगर वह दूसरा सिपाही बोला कि भई, मैं क्या करूं,
क्या न करूं। मेरी खुद समझ-वमझ में नहीं आ रहा है। हो न हो यह
कुत्ता है तो इंस्पेक्टर साहब का ही। क्योंकि मैंने दूसरा कान कभी गौर से
इंस्पेक्टर साहब के कुत्ते का देखा ही नहीं था। हो सकता है: दूसरे कान पर भी काला
धब्बा हो! फिर बात बदल गई।
यूं कहानी चलती है। और बार-बार कुत्ते का पटका जाना और उठाया जाना! अब
यह आदमी होश में है? मगर एक नशा पढ़ा हुआ है। साहब का कुत्ता--एकदम बदल
जाता है। कुछ का कुछ दिखाई पड़ने लगता है। और जैसे ही साहब का नहीं है--फिर यह
खुजली वाला कुत्ता--मारो; पटको!
शराबी भी चौंका हुआ खड़ा है कि अब करना क्या! वह पूछता है, साहब, मुझे साफ कह दो, करना
क्या है। एक दफा कह दो, वह कर के दिखा दूं। हवालात ले चलना
है, हवालात ले चलो। रात हुई जा रही है; देर हुई जा रही है। और मारना हो इसको तो मैं मार दूं। मगर तुम एक दफे तय
कर लो साफ। नहीं तो मुझे भी गुस्सा आ रहा है अब। तीन-चार झापड़ मुझे रसीद कर चुके।
कभी कहते हो, मार डालो। कभी कहते हो कि तुमको हवालात में बंद
कर देंगे। अरे, होश की बातें कर रहे हो! मैं ही नशे में हूं,
कि तुम भी नशे में हो?
शराबी तक कहने लगा कि मैं ही नशे में हूं कि तुम भी नशे में हो? कुछ होश की बातें करो। ऐसी की तैसी तुम्हारे इंस्पेक्टर की और तुम्हारे
कुत्ते की! कुत्ते को भी मारूंगा, तुम्हारे इंस्पेक्टर को भी
मारूंगा। कहां-कहां के कुत्ते पाल रखे हैं और कहां-कहां की झंझटें खड़ी कर रहे हैं।
और मैं पिट रहा हूं नाहक! न लेना, न देना। पहले इस कुत्ते ने
मुझे काटा, अब तू मेरे पीछे पड़ा हुआ है!
शराबी तक को होश आ जाता है। मगर कुछ को पद का नशा है। उनको देखो, जब वे कुर्सियों पर होते हैं। उनकी छाती एकदम फूल जाती है!
अभी राष्ट्रपति वी.वी. गिरी चल बसे। जब से वे राष्ट्रपति बने, हो तो गए थे बुङ्ढे सत्तर साल के पार, मगर किसी ने
कह दिया कि अब आपकी उम्र राष्ट्रपति होने की नहीं। फौरन उन्होंने अपनी दोनों
भुजाएं निकाल कर अपनी मसल दिखा दीं और कहा कि अभी दस मील दौड़ कर बता सकता हूं!
क्या तुमने समझा है मुझे! वह उनकी तस्वीर देखने लायक है जिसमें वे...तस्वीर भी छपी
है, जिसमें वे अपनी भुजाएं दिखला रहे हैं। जैसे कोई मुरदा
आदमी--और भुजाएं फड़का रहा हो! कुछ भुजाओं में दिखाई पड़ता नहीं। कोट के भीतर सब
खाली दिखाई पड़ता है। मगर जब पद पर आदमी हो जाता है, तो एकदम
भुजाएं फड़कने लगती हैं। मुरदों में जान आ जाती है।
नेता अगर मर भी गया हो, इसके पहले कि उसको
दफनाओ, उसके कान में कहना कि भइया, इलेक्शन
जीत गए! सौ में निन्यानबे मौके तो हैं--वह जिंदा हो जाए। वह कहे: पहले ही क्यों न
कहा, हम मरते ही नहीं! उठकर बैठ जाएगा एकदम! नेता नेता ही
है!
मैंने सुना है कि मुल्ला नसरुद्दीन बाजार में खड़ा था अपने गधे को लिए
और लोगों से कह रहा था: इस गधे में यह खूबी है--यह पक्का जी-हुजूर गधा है। यह नहीं
कहना तो जानता ही नहीं। तुम जो भी कहो, एकदम सिर हिला कर
कहता है कि जी हां!
लोगों ने कई बातें कहीं और वह गधा--नसरुद्दीन ने उसको पाठ पढ़ा कर रखा
था, सो कुछ भी कहो उससे, वह सिर हिला कर कहे जी हां!
चंदूलाल मारवाड़ी खड़े थे वहां। हर बात में जी हां कह रहा है! नसरुद्दीन
से कहा कि अगर इसको न कहलवा दूं तो! तो नसरुद्दीन ने कहा, अगर तू न कहलवा दे, तो सौ रुपए--निकाल कर बताए
कि--ये सौ रुपए दूंगा।
चंदूलाल उसके पास गया और गधे को कान में बोला, बेटा शादी करोगे? उसने कहा कि नहीं! एकदम ना कर
दिया! नसरुद्दीन भी हैरान हुआ। उसने कहा कि तेरी तरकीब क्या है भाई?
अरे, उसने कहा, मैं भी अनुभवी आदमी
हूं। दो दो शादी कर चुका हूं। यह मेरी हालत जानता है। यह तेरा गधा मेरे घर के
सामने तो रहता है। मुझ पर जो बीत रही है, वह यह रोज देखता
है। एक पत्नी ऊपर रहती है, एक पत्नी नीचे रहती है। और अकसर
मेरी हालत रहती है कि एक टांग मेरी ऊपर मकान से खींच रही है; एक टांग नीचे खींच रही है। गधा हंसता है। इसको मैंने कई दफा सामने खड़े
देखा है। यह वहां खड़ा देखता रहता है कि अच्छे फंसे चंदूलाल! तो मैं जानता था कि
इसमें बिलकुल ना कर देगा कि बेटा, शादी करोगे? कहेगा, नहीं करते! और कहो तो इसको अभी और ना कहलवा
सकता हूं। मुझे कई तरकीबें मालूम हैं।
अच्छा, कहा, दुबारा ना कहलवा। सौ रुपए
और ले।
उसने उसके कान में कहा कि बेटा, चुनाव लड़ोगे?
उसने कहा कि नहीं!
अब तूने क्या कहा?
उसने कहा कि चुनाव! मैं तीन चुनाव लड़ चुका और हार चुका। जो फजीहत होती
है, वह भी यह देखता है। और नेताओं की जो हालत हो रही है, वह भी यह देखता है। इधर पिटे, उधर पिटे!
मगर कुछ लोगों को जिद्द ही रहती है; कितने ही पिटें,
कोई फर्क नहीं पड़ता। वे फिर धूल झाड़ कर खड़े हो जाते हैं। फिर हंसने
लगते हैं। फिर खींसे निपोरने लगते हैं! कि फिर चुनाव आ गया, फिर
वोट दो। अरे, वे गिरे थोड़े ही थे। वे तो यूं ही धूल में लेट
रहे थे--मस्ती में। गिरे थोड़े ही थे। कपड़ा झाड़ कर फिर खड़े हो जाते हैं। चारों खाने
चित्त कर दो उनको--कोई फिक्र नहीं। फिर उठकर खड़े हैं! नेता गिरते ही नहीं! मगर
गधों को भी इतनी अकल है।
उस गधे ने फौरन मना कर दिया कि मुझे चुनाव लड़ना ही नहीं है। अरे, जो फजीहत देख रहा हूं!
नसरुद्दीन ने कहा कि भइया, तू ये दो सौ रुपए ले।
अब मुझे कहलवाना नहीं। पता नहीं तू और भी क्या तरकीबें जानता हो! और गधे में और
तुझमें सांठ-गांठ मालूम पड़ती है! हरामजादे को मैंने इतना सिखाया कि हर चीज में हां
भरना, और वह अभी दगा दे गया मुझे! यहीं के यहीं दगा दे गया।
मेरा गधा--और मुझे दगा दे गया! मैं इसको बेंच कर रहूंगा। इस गधे को मुझे रखना नहीं
है।
तू पूछती है योग मुक्ता, कि मौन, कि ध्यान, कि प्रार्थना...? जैसे
कि ये कुछ अलग-अलग बातें हों! होश में आ।
महावीर ने मौन कहा। पतंजलि ने ध्यान कहा। मीरा ने, चैतन्य ने, सहजो ने प्रार्थना कहा। बात वही है।
जिन्होंने प्रेम की नजर से देखा, उन्होंने प्रार्थना कहा।
जिन्होंने सिर्फ बौद्धिक दृष्टि से देखा, उन्होंने या तो मौन
कहा या ध्यान कहा। ध्यान और मौन पुरुषों के शब्द हैं--विशुद्ध, वैज्ञानिक। और प्रार्थना--स्त्रियों का शब्द है, प्रेमियों
का शब्द है, कवियों का शब्द है--भावुक। मगर प्रत्येक चीज को
दो ढंग से देखा जा सकता है। या तो विचार के जगत से और या फिर भाव के जगत से। हमारे
भीतर दोनों हैं--भाव भी है, विचार भी है। मगर सत्य एक ही है।
उसी फूल को वैज्ञानिक देखेगा, तो कुछ और कहेगा। उसी
फूल को कवि देखेगा, तो कुछ और कहेगा। लेकिन उनके अलग-अलग
कहने से यह मत समझ लेना कि फूल दो हो गए फूल तो एक ही है।
तुझे जो प्रीतिकर लगे वह चुन ले शब्द। मगर सार की बात इतनी है कि
निर्विचार होना है--चाहे ध्यान कहो, चाहे प्रार्थना कहो।
क्योंकि जो निर्विचार होता है, वह प्रेम से तो भर ही जाता
है। अगर निर्विचार की धारणा के खयाल में रखो, तो ध्यान कहोगे
या मौन कहोगे। और अगर प्रेम की घटना को ध्यान में रखो, तो
प्रार्थना कहोगे।
यह यूं ही बात है जैसे कि गिलास आधा खाली, कि आधा भरा? जो चाहो कहो। आधा खाली कहो, तो भी ठीक। खालीपन पर ध्यान रखो--तो खाली। और भरा देखो आधा, तो भी ठीक। भरेपन पर ध्यान रखो--तो आधा भरा।
ध्यान और मौन शून्य पर दृष्टि गड़ाए हुए हैं। व्यक्ति जब विचार से
शून्य हो जाता है, तो उसे ध्यान या मौन कह सकते हो। लेकिन जैसे ही शून्य
हुआ कि सारा आकाश टूट पड़ता है प्रेम का उसके भीतर। प्रेम की गंगा उतर आती है।
भगीरथ हो जाता है वह। उसके ऊपर प्रेम की गंगा उतरती है--स्वर्गीय गंगा उतरती है।
अगर उसको ध्यान में रखो--उसके भराव को--तो प्रार्थना। दोनों एक ही सत्य के दो पहलू
है। और फिर ऐसे ध्यान या प्रार्थना में डूबे हुए व्यक्ति का जीवन हरिकथा है।
तू पूछती है कि हरिकथा का पात्र और अधिकारी कौन है?
यूं तो सभी पात्र और अधिकारी हैं, लेकिन पात्र को भी तो
साफ करना होता है। पात्र तो सभी हैं। अपात्र तो कोई भी नहीं है। परमात्मा अन्यायी
नहीं है कि किसी को अपात्र ही बनाया हो। पात्र तो सभी हैं, लेकिन
कुछ ने पात्र इतने गंदे कर लिए हैं कि उसमें अगर अमृत भी डालो, तो जहर हो जाए।
पात्र की सफाई करनी होती है। पात्र को स्वच्छ करना होता है। स्वच्छ
करने की कीमिया, कला संन्यास है।
पात्र तो सभी हैं, लेकिन गंदे पात्र हैं। संसार ने
उन्हें गंदा कर दिया है। कचरा भरे हुए बैठे हैं। जगह भी नहीं है उनके भीतर कि
हीरे-जवाहरात अगर बरसें तो वे रख पाएं। कंकड़-पत्थर इतने भरे हैं! कंकड़-पत्थर
उलीचो।
दो शैलियां हैं जीवन की। या तो संसारी की शैली है। वह कूड़ा-कर्कट
इकट्ठा करने की शैली है। और एक शैली संन्यासी की है। वह कूड़ा-कर्कट
नहीं--हीरे-जवाहरात इकट्ठे करने की शैली है। मगर तुम कूड़ा-कर्कट से इतना मोह करते
हो, इतना प्रेम करते हो कि तुम संन्यासी को त्यागी कहते हो!
मैं तुम्हें जता दूं कि संन्यासी भोगी है। त्यागी तुम हो। किसको
त्यागी कहोगे--हीरे-जवाहरात रखे हों और कंकड़-पत्थर रखे हों? कंकड़-पत्थर भर ले अपनी आत्मा में--उसको तुम भोगी कहोगे? या उसको भोगी कहोगे, जो हीरे-जवाहरात चुन ले?
त्यागी किसको कहोगे? जो हीरे-जवाहरात छोड़ दे,
उसको त्यागी कहोगे, कि जो कंकड़-पत्थर छोड़ दे,
उसको त्यागी कहोगे?
लेकिन चूंकि भाषा तुम बनाते हो; तुम्हारी भीड़
है--इसलिए तुम अपने ढंग से देखते हो। तुम महावीर को त्यागी कहते हो। मैं महावीर को
परम भोगी कहता हूं। तुम बुद्ध को त्यागी कहते हो। मैं कहता हूं, बुद्ध ने जैसा भोगा, किसी ने कभी नहीं भोगा। और तुम
अपने को भोगी कहते हो। हद्द कर दी तुमने भी! शब्दों का कुछ तो हिसाब रखो! क्या कह
रहे हो--सोचो तो!
क्या तुम भोग रहे हो? सिवाय दुख के और क्या भोग रहे हो?
दुख भोगने को भोग कहते हो? तो फिर नर्क में जो
हैं, वे हैं असली भोगी। फिर स्वर्ग में कौन हैं?
लेकिन मैं तुमसे कहना चाहता हूं कि जो स्वर्ग में हैं, वे हैं असली भोगी। नर्क में त्यागी पड़े हैं!
मूर्खता है त्याग। त्याग का अर्थ होता है: कौड़ियों को बीन लेना--और
हीरों को छोड़ देना। और भोग का अर्थ होता है: हीरों को बीन लेना--और कौड़ियों को छोड़
देना।
स्वर्ग को चुनो। और फिर स्वर्ग के पार और भी है एक जगत--मोक्ष का। वह
तो परम भोग है। निर्वाण--उससे बड़ा महासुख नहीं। बुद्ध ने उसे महासुख ही कहा है, परम आनंद कहा है। उपनिषद के ऋषियों ने उसे सच्चिदानंद कहा है।
सत--चित--आनंद। आनंद अंतिम शिखर। और जो आनंद को पा ले, वही
भोगी है। वही जानता है जीवन के रस को। वही पीता है जीवन के रस को। वही परमात्मा को
पीता है। रसो वै सः। वही परमात्मा की परिभाषा जान पाता है--कि वह रस-रूप है।
मैं तुम्हें विरागी नहीं बनाना चाहता; मैं तुम्हें अनुरागी
बनाना चाहता हूं। मैं तुम्हें त्यागी नहीं बनाना चाहता। तुम्हें परम भोग की
जीवन-दृष्टि देना चाहता हूं। क्योंकि मेरे लिए धर्म भोग की कला है।
सभी पात्र हैं, लेकिन सभी अधिकारी नहीं हैं। जब पात्र स्वच्छ हो जाता
है, तो अधिकार पैदा होता है। और जब तक कामना लिपटी रहेगी,
तब तक पात्र स्वच्छ नहीं होता। इसलिए निष्काम हो जाओ। मांगो मत--और
मिलेगा। बहुत मिलेगा। अहर्निश मिलता ही रहेगा। अनंत तक मिलता रहेगा। चुकेगा ही
नहीं। मगर मांगो मत। मांगे कि भिखारी हो गए। भिखारी हो गए, कि
अधिकार खो दिया।
जो सोवैं तो सुन्न में, जो जागैं हरिनाम।
जो बोलैं तो हरिकथा, भक्ति करैं निहकाम।।
दूसरा प्रश्न: भगवान! आपके धर्म का मूल उद्देश्य
क्या है? संन्यासियों से भरे इस देश में आप क्यों और संन्यासी
बढ़ाए जा रहे हैं? पहले क्या कमी है संन्यासियों की! आखिर
आपका प्रयोजन क्या है?
स्वामी हरिहरानंद महादेव!
उनके नाम से ही जाहिर है कि वे परंपरागत संन्यासी हैं। और इसलिए
उन्हें सोच-विचार पैदा हो गया है कि यह देश तो संन्यासियों से भरा हुआ है, आप और क्यों संन्यासी बढ़ाए जा रहे हैं?
मेरे देखे, हरिहरानंद, जिनको तुम संन्यासी
कहते हो--मैं नहीं कहता। मैं संन्यास को पुनरुज्जीवित करना चाहता हूं। मैं चाहता
हूं संन्यास--जो बांसुरी बजाना जानता हो। मैं चाहता हूं संन्यास--जो पैरों में
घूंघर बांधना जानता हो। मैं चाहता हूं संन्यास--जो उत्सव हो--उदासी नहीं। और तुम
जिन संन्यासियों की बात कर रहे हो, वे उदास, हारे-थके लोग, भगोड़े, पलायनवादी।
युद्ध से कोई भाग जाए, तो उसको हम कायर कहते
हैं। और जीवन-युद्ध से भाग जाए--तो संन्यासी! अच्छे नाम रखने से कुछ भी नहीं होगा।
नामों की ओट में छिपा लेने से कुछ भी नहीं होगा। जीवन-युद्ध से भागे हुए भी कायर
हैं।
मेरे लेखे तो भगोड़ापन भली बात नहीं। जीवन को जीओ। जीवन एक अवसर है, उसे चूको मत। उसके उतार-चढ़ाव देखो। उसकी अंधेरी घाटियों में भी उतरो और
प्रकाशोज्वल शिखरों पर भी चढ़ो। कांटे भी चुभेंगे--फूल भी हाथ लगेंगे। इन दोनों को
भोगो, क्योंकि इन दोनों के भोगने से ही तुम्हारे भीतर आत्मा
पैदा होगी। इसी चुनौती में से गुजर कर, इसी आग में से गुजर
कर तो आत्मा का जन्म होता है।
मेरा संन्यासी बहुत भिन्न है। तुम अगर पुराने संन्यासियों को संन्यासी
कहते हो, तो मेरा संन्यासी वैसा संन्यासी नहीं है। और ऐसा नहीं
है कि हरिहरानंद महादेव को यह बात समझ में नहीं आ रही है। यह समझ में आ रही है।
क्योंकि उन्होंने दूसरा प्रश्न भी पूछा है, उससे पता चल
जाएगा कि बात समझ में आ भी रही है।
दूसरा प्रश्न पूछा है: भगवान, कृपया बताएं कि
संन्यासी की जीवन-चर्या क्या होनी चाहिए? मैं भी आप से
संन्यास लेकर आपके आश्रम में रह कर साधना करना चाहता हूं, लेकिन
मुझे आपकी शिष्याओं से डर लगता है! आप ही कहें, मैं क्या
करूं?
हरिहरानंद! अब तुम्हें भेद समझ में आया? भेद साफ है। तुमको भी
दिखाई पड़ रहा है--धुंधला-धुंधला सही, मगर दिखाई पड़ रहा है कि
भेद है।
तुमने अब तक जो संन्यास लिया है, वह भगोड़ापन था। और
देखो तुम, उसका परिणाम क्या हुआ! क्या तुम खाक परमात्मा को
पाओगे! तुम स्त्रियों से भयभीत हो गए हो। इतना भीरु व्यक्ति परमात्मा के अज्ञेय,
अज्ञात लोक में प्रवेश कर सकेगा! इतनी कायरता--स्त्रियां जिसे डरा
देती हैं!
पुराना संन्यास दमन है; अपने साथ जबर्दस्ती
है। वासनाओं के ऊपर, किसी तरह जबर्दस्ती बैठ जाना है। मगर
वासनाएं भीतर कुलबुलाती रहती हैं। और इससे तुम्हें डर लगा रहा होगा। डर तुम्हें
मेरी शिष्याओं से नहीं लग रहा है। क्योंकि मेरी शिष्याओं को तुमसे कोई डर नहीं लग
रहा है। एक भी शिष्या ने नहीं लिखा है मुझे कि ये एक सज्जन आ गए हैं--हरिहरानंद
महादेव--हमें इन्हें देखकर बड़ा डर लगता है! मेरी शिष्याएं डरती ही नहीं। क्यों
डरें? क्या तुममें डराने जैसा है? मगर
तुम डर रहे हो। तुम कंप रहे हो। तुम भयभीत हो रहे हो। क्योंकि तुमने दबाया है।
यह डर शिष्याओं का नहीं है; यह डर तुम्हारे दमन
का है। तुम्हारे भीतर रोग छिपे पड़े हैं। तुम जानते हो कि किसी तरह दबा-दबू कर बैठे
हैं। किसी तरह हुक्का-चिलम लगा-लगू कर दबा कर बैठे हैं। दम मारो दम! कि चारों तरफ
उठाते रहो चिलम का धुआं कि दिखाई ही नहीं पड़ेगा कि कौन है स्त्री, कौन है पुरुष। कुछ समझ में ही नहीं आएगा कि क्या हो रहा है, क्या नहीं हो रहा है! पड़े रहो पीकर गांजा-भांग। सौ में निन्यानबे संन्यासी
तो यह करते रहे। बाकी जो एक प्रतिशत बचते हैं--जैनियों के मुनि होंगे कि बौद्ध
भिक्षु होंगे--वे ऐसे डरे रहते हैं कि स्त्री दिखाई न पड़ जाए! आंखें नीची झुकाकर
चलते हैं कि स्त्री दिखाई पड़ गई कि उनको घबड़ाहट हुई; भय लगा।
यह स्त्री से भय आ रहा है? यह तुम्हारे ही भीतर
जो दमित वेग है वासना का, वह धक्के मारने लगता है। वह कहता
है: मत चूको। मत चूक चौहान! अरे, स्त्री निकली जा रही है!
महादेवजी क्या कर रहे हो--पार्वती निकली जा रही है! उठो। नंदी बाबा को भी जगाओ! या
नंदी बाबा उठने लगते होंगे कि महादेवजी, क्या कर रहे
हो--पार्वती मैया जा रही है!
वही घबड़ाहट तुम्हें होगी।
मैंने सुना है कि पार्वती मायके गई थीं; चार-छह महीने नहीं
लौटीं। आश्चर्य तो यही है कि वे कैसे महादेव जी के साथ गुजार देती थीं!
गंजेड़ियों-भगेड़ियों की भीड़-भाड़ वहां। एक से एक पहुंचे हुए सिद्धपुरुष उनके आसपास!
उनकी बारात तो तुमने देखी ही है! ऐसी बारात कभी पृथ्वी पर निकली ही नहीं।
क्या-क्या छंटे हुए लोग उसमें थे! क्या किसी सर्कस में होंगे। सारे सर्कसों के लोग
इकट्ठे कर लो, तो भी मात हो जाएंगे! शंकर जी की बारात! सब
उलटे-सीधे--हिप्पी, महा हिप्पी--सब उनकी बारात में थे!
यह पार्वती उनके साथ रह लीं इतने दिन, यही बहुत था। चली गई
होंगी मायके; तो नहीं पड़ती होगी हिम्मत लौटने की। इधर कब तक
अपने को दबाए रखें महादेव जी! बहुत परेशान हो गए। एक दिन नंदी बाबा से बोले कि
नंदी बाबा, अब नहीं रहा जाता। जरा तुझको ही गले लग कर प्रेम
कर लूं!
नंदी बाबा ने कहा, क्या बातें कर रहे हो! अरे
महादेव जी, होश की बातें करो। शरम नहीं आती! मैं रहा बैल;
आप महादेव, देवताओं के देवता! और क्या बातें
करते हो! कैसी बातें करते हो! उलटी-सीधी बातें करते हो! ज्यादा पी गए? पीनक में आ गए? ऐसे तो मैं भी पीए हूं, मगर इतना थोड़े ही होश खो देता हूं। अरे आप, देवताओं
के देवता। आप मेरे मालिक। हे गुरुदेव कैसी बातें कर रहे हो?
मगर शंकर जी ने कहा, अरे, कोई
नहीं देख रहा है रे! बाकी भी सब पीए पड़े हैं। कोई नहीं देख रहा है। थोड़ा
प्यार-दुलार कर ही लें, तो क्या हर्जा है? एकदम मन मानता ही नहीं। पार्वती जी को गए बहुत दिन हो गए!
नंदी ने कहा कि अब आप...! ऐसे तो सेवक हूं। अब आप नहीं मानते तो ठीक
है। मगर एक शर्त है। फिर मैं भी प्यार-दुलार करूंगा। क्योंकि तुम्हारे पीछे मैं
अपनी नंदिनी को बिलकुल छोड़ ही बैठा हूं। यह तुम्हारी नंदिनी तो चार-छह महीने से गई
है। मेरी नंदिनी का पता ही नहीं है। मैंने तुम्हारी सेवा में सब त्याग दिया।
मजबूरी थी। बेमन से महादेव जी ने कहा, अच्छा भैया, तू भी कर लेना प्यार-दुलार। पहले मुझे करने दे।
जब वे प्यार-दुलार कर चुके, तो नंदी बाबा बोले,
अब मेरी बारी है! अरे, उन्होंने कहा, हट। बैल होकर और बेवकूफी की, इस तरह की बेहूदी बातें
करता है! अपनी औकात की बात कर। बैल का बच्चा और तू मुझे प्रेम करेगा! मैं महादेव!
अरे, उसने कहा, होओगे महादेव। अभी
तुम थोड़ी देर पहले क्या कर रहे थे? अभी मेरे गले लग रहे थे
और प्रेम-व्रेम कर रहे थे। और मैं सब बर्दाश्त कर लिया! और अब अपनी बारी आई तो
बदलने लगे!
शंकर जी ने देखा कि यह नंदी तो गुस्से में आ गया है। नंदी ने कहा कि
मैं छोडूंगा नहीं। वे अपना कमंडल लेकर भागे। नंदी बाबा भी उनके पीछे भागे। पास में
ही एक मंदिर--वे अंदर घुस गए। नंदी बाबा भी वहीं बैठ गए मंदिर के बाहर। उन्होंने
कहा, कभी तो निकलोगे! इसलिए हर शंकर जी के मंदिर के बाहर
नंदी बाबा बैठे रहते हैं। तुमने खयाल नहीं किया!
अगर पहरा दे रहे हों, तो उनकी पीठ होनी चाहिए मंदिर की
तरफ। पहरा नहीं दे रहे। उनका मुंह रहता है मंदिर की तरफ--कि बच्चू निकलो! पहरेदार
कहीं मुंह रखता है! मैं इस कहानी को मानता नहीं। लेकिन जब मैंने यह बात देखी कि यह
बात तो सच्ची है कि नंदी बाबा हमेशा देखते रहते हैं मंदिर की तरफ कि निकलो! कभी तो
निकलोगे! जब निकलोगे, तभी! वह मजा चखाऊंगा कि याद करोगे!
यह कोई पहरा वगैरह नहीं दे रहे हैं।
अब तुम कह रहे हो हरिहरानंद महादेव! कि संन्यासी की जीवनचर्या क्या
होनी चाहिए?
संन्यासी की कोई जीवनचर्या नहीं होती। जीवनचर्या संन्यासियों की होती
नहीं--संसारियों की होती है। संन्यासी तो मुक्त, अपने चैतन्य-भाव से
जीता है; अपने होश से जीता है। प्रतिपल उसका होश उसका
संगी-साथी है। उसका होश निर्णायक है। वह पल-पल स्व-स्फूर्ति से जीता है। यह मेरे
संन्यास की बात कर रहा हूं। मुझे औरों के संन्यास से कुछ प्रयोजन नहीं है। मैं
मेरे संन्यासियों की बात कर रहा हूं।
मेरा संन्यासी तो एक ही सूत्र मानता है--ध्यान। बस, उसके तो सारे जीवन का केंद्र एक है--ध्यान। फिर ध्यान से जो भी उसे सूझता
है, बूझता है, वैसा जीता है। उस पर न
मैं कोई नीति थोपता हूं, न नीति के नियम थोपता हूं। मैं उसे
मर्यादा नहीं देता। मेरे संन्यासी को मैं उस तरफ ले जाना चाहता हूं, जहां उसके भीतर भी परमात्मा का पूर्ण अवतार हो सके। क्या छोटा-मोटा...!
परमात्मा को भी खोजने चले, तो आंशिक! जब चल ही पड़े, तो पूरा ही लेंगे। क्या आधा-आधा लेना!
मेरा संन्यासी तो सिर्फ ध्यान के द्वारा शून्य को साधता है। फिर शून्य
से जो भी निकलता है, सो हरिकथा। वही उसकी चर्या है।
तुम्हें यहां नहीं जमेगा। अगर तुम्हें मेरी शिष्याओं से डर लग रहा है, यह जगत तुम्हारे लिए उपयोगी नहीं होगा। हां, अगर
यहां रुकना हो, तो हिम्मत करनी होगी। तुम्हारी सारी पुरानी
धारणाएं टूटेंगी, चर्या टूटेगी, पुराने
ढंग टूटेंगे।
और तुम कहते हो कि यहां रहकर साधना करना चाहता हूं। जरूर करो। लेकिन
यहां साधना का अंग श्रम भी है। यह कोई काहिलों और सुस्तों की बस्ती नहीं है। यह
कोई पुराने ढंग की आलसियों की जमात नहीं है।
साधना करो। चौबीस घंटे में दो घंटे साधना करो। बाईस घंटे श्रम भी करना
होगा। जो भी बन सके। क्योंकि यहां श्रम में कोई छोटा-बड़ा नहीं है। बुहारी लगा सको, बुहारी लगाओ। जूते सी सको--जूते सीओ। लकड़ी फाड़ सको--लकड़ी फाड़ो। बागवानी कर
सको--बागवानी करो। और यह तो अभी शुरुआत है। यह तो सिर्फ शुरुआत है। यह तो अभी केवल
प्रयोग-स्थल है। जैसे नर्सरी होती है, जहां हम छोटे-छोटे
पौधे तैयार करते हैं। यह तो मैं बड़े विराट प्रयोग के लिए तैयारी कर रहा हूं। जल्दी
ही विराट प्रयोग तैयार हो जाएगा। जल्दी ही यह छोटा-सा समूह एक विराट कम्यून बनने के
लिए आयोजनबद्ध है। नियति से ही फैसला हो चुका है। वह होना ही है। देर-अबेर हो सकती
है। तब दस हजार संन्यासी होंगे; स्व निर्भर होंगे।
स्वागत है तुम्हारा, मगर ये सब बातें समझ कर। तुम यह
कहो कि हम तो सिर्फ साधना ही करेंगे। हम यह बुहारी वगैरह नहीं लगाते। और हम ये
कपड़े नहीं सिएंगे। हम भोजन नहीं बनाएंगे। हम तो चाहते हैं कि दूसरे हमारी सेवा
करें! तो नहीं चलेगा।
जैन मुनि यहां मुझे खबर भेजते हैं कि हम आ कर सम्मिलित होना चाहते
हैं। मैं कहता हूं--बराबर आ जाओ। लेकिन वह आशा छोड़ देना; यहां कोई जैन वगैरह तुम्हारी सेवा करने नहीं आएंगे। यहां तो तुम्हें श्रम
करना होगा। यहां तो उत्पादक होना होगा। यहां साधना में और श्रम में भेद नहीं है।
दोनों एक ही जीवनत्तरंग के हिस्से हैं।
मेरा संन्यासी स्व-निर्भर होगा। वह भिखमंगा नहीं होगा। वह किसी से भीख
मांगने नहीं जाएगा। क्योंकि भीख मांगने के कारण सारे संन्यासी पर-निर्भर हो गए।
जैन मुनि को मुझसे मिलने आना होता है, तो वह कहता है: कैसे
आऊं! श्रावक आज्ञा नहीं देते! यह संन्यास हुआ? यह स्वतंत्रता
हुई? यह परम मोक्ष के खोजी का लक्षण हुआ? यह तो और बंधन में पड़ गए। इससे तो संसारी भी ठीक है, कम से कम चला तो आता है; किसी का डर तो नहीं है।
बहुत से बहुत डरता है, अपनी पत्नी से डरता है! मगर ये तो
श्रावकों से, श्राविकाओं से--सब से डर रहे हैं; सब पति और सब पत्नियां इनकी छाती पर बैठे हुए हैं। वे कहते हैं कि महाराज,
वहां गए, तो ठीक नहीं होगा। उतार गद्दी से
नीचे कर देंगे। मुंह-पट्टी छीन लेंगे। यह कमंडल वगैरह छीन लेंगे! और ऐसा नहीं कि
उन्होंने नहीं किया। ऐसा किया।
एक जैन मुनि कनक विजय हिम्मतवर आदमी--वे मेरे पास आकर रुक गए। मैं
जबलपुर था। वे कहने लगे, किसी को पता चले कि मैं आपके पास आकर रुक गया हूं!
मगर ऐसी आतुरता थी कि चला आया। पहली तो गलती यह की कि ट्रेन में सवार हुआ हूं। मगर
चला आया। किसी तरह छुप कर आ गया हूं। किसी को पता न चले। मैंने कहा, भई, मैं किसी को पता करने जाता नहीं। मगर अब कोई आ
जाए, तो क्या पता। और संयोग कि बात की वे जिस संप्रदाय को
मानते थे, उसी संप्रदाय के एक अग्रणी लाला सुंदरलाल दिल्ली
से आ गए दूसरे दिन। वे भी मेरे प्रेमी थे। उन्होंने कनक विजय को वहां देखा,
उनकी छाती पर तो सांप लोट गए! यूं मेरे प्रेमी थे; मैंने कहा कि लाला, तुम तो कम से कम समझो! अरे,
उन्होंने कहा, क्या समझें! यह जैन मुनि होकर
यहां क्या कर रहा है? मैं जा कर इसकी भद्द खोलूंगा। मैंने
कहा, इस पर कृपा करो। तुम भी मुझे प्रेम करते हो; यह भी मुझे प्रेम करता है। बेचारा प्रेम की वजह से चला आया।
ऐसा नहीं चलेगा। लाला बोले कि यह मैं नहीं बर्दाश्त कर सकता। मैं
संसारी हूं, मैं आ सकता हूं। मगर यह मुनि होकर...! मैं इसका कमंडल,
मुंह-पट्टी छिनवा कर रहूंगा।
बहुत लाला को समझाया, मगर लाला भी पंजाबी थे; समझ में उनकी आए क्या! वे कहें कि आप कुछ भी कहो, यह
धर्म का विनाश कर रहा है। यह चोरी कर रहा है, बेईमानी कर रहा
है।
और कनक विजय यूं थर-थर कांपें, कि यह बड़ी मुश्किल
में पड़ गए। यह लाला तो बड़ा उपद्रवी है! यह तो दिल्ली में जैन समाज का प्रमुख है।
यह तो मेरी मुश्किल करवा देगा! वे मुझसे कहें, किसी तरह इसको
समझाओ। लाला को समझा-बुझा दो। यह चुप रहे; मैं कल चला जाता
हूं।
मैंने कहा, यह हद्द हो गई! तू खुद ही छोड़ दे; यह मुंह-पट्टी वगैरह दे दे लाला को कि ले जा; तुम
बांध लेना। और रख ले यह कमंडल, और जाओ भाड़ में--जहां जाना
हो।
अरे! कहा कि नहीं, मैं यह कैसे कर सकता हूं।
क्योंकि मेरी सत्तर साल उम्र हो गई। मैं कुछ काम-धाम तो कर नहीं सकता। मैं तो
सिर्फ सेवा ले सकता हूं। मैं कुछ कर नहीं सकता। काम-वाम मेरे वश का नहीं है। और
आपके पास रहूं, तो कुछ करना पड़ेगा। और अभी जिंदगी अच्छी चल
रही है मेरी। खाने-पीने को मिल जाता है। इज्जत-आदर मिल जाता है। और क्या चाहिए
आदमी को!
तो फिर, मैंने कहा, तुम जाओ; फिर लाला से माफी मांग लो और कहना कि अब ऐसी भूल नहीं करेंगे।
लाला से माफी मांगनी पड़ी उनको! संन्यासी श्रावक से माफी मांग रहा है
हाथ जोड़ कर! मैंने कहा, लाला, अब तो माफ कर दो! यूं
किया उन्होंने मेरे समाने, मगर नहीं कर पाए। दिल्ली में जाकर
उन्होंने बात चला ही दी। जब तक कनक विजय की उन्होंने मुंह-पट्टी नहीं छिनवा दी,
तब तक उनको भी चैन नहीं मिला। जब उनकी मुंह-पट्टी छिन गई और
उन्होंने मुझे लिखा। मैंने कहा, तू भी बिलकुल पागल है। दूसरी
मुंह-पट्टी खरीद लो! है क्या मामला! मुंह की पट्टी है। अपने घर में बना लो। किसी
के बाप को कोई ठेका है! कि मुंह-पट्टी पर किसी की कोई सील है! अब मैं मुंह-पट्टी
बांध लूं, मेरा कोई क्या कर सकता है? तुम
भी बांध लो।
उनको बात जंच गई। उन्होंने मुंह-पट्टी बांध ली। मगर फिर भी संस्कार तो
उनके भी वही के वही हैं। उन्होंने अपने को जैन मुनि लिखना बंद कर दिया। लिखने
लगे--साधु कनक विजय।
मैंने पूछा, क्यों, यह फर्क क्यों कर दिया?
कहा कि नहीं, वह जरा ठीक नहीं मालूम पड़ता। अब मुनि कैसे लिखूं अपने
को!
मैंने कहा, तुम भी हो उन्हीं गधों की जमात में। कोई भेद नहीं।
खुद के भी संस्कार!...
तो हरिहरानंद महादेव, मेरे संन्यासी होना है तो हिम्मत
रखनी पड़ेगी। यहां शिष्याएं तो हैं। और शिष्याएं तुमसे डरेंगी नहीं। कोई शिष्या
तुम्हारा हाथ ही पकड़ लेगी कि आओ महादेव जी, जरा घूम आएं! बस,
तुम्हारे प्राण कंप जाएंगे। कोई शिष्या भाव में आकर तुम्हें गले ही
लगा लेगी कि बस, तुम्हारे प्राण निकल गए! कि तुम्हारा सब
मोक्ष छिन गया! यह खतरा यहां है।
और यह भी ध्यान रखना कि तुम्हें जो आदर देते रहे होंगे हिंदू अब तक, वे फिर आदर नहीं देंगे। अनादर करेंगे। जितना आदर दिया है, उससे दुगुना अनादर करेंगे। बहुत दुष्टता करेंगे। उस सब की तैयारी हो,
तो मेरे लिए स्वीकार हो।
और यहां श्रम करना होगा। यहां श्रम और साधना में भेद नहीं है।
आज इतना ही
श्री रजनीश आश्रम, पूना, प्रातः, दिनांक २१ जुलाई,
१९८०
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें