रविवार, 23 अप्रैल 2017

चल हंसा उस देश-(ध्यान-साधना)-प्रवचन-03



ध्यान मंदिर है: मनुष्‍य का मंगल—तीसरा प्रवचन

तीसरा प्रवचन
साधना शिविर, तुलसीश्याम,
सौराष्ट्र; दिनांक 6 फरवरी, 1966


प्रश्न :

मैं यह पूछना चाहता हूं कि हम लोग जो फंड्स इकट्ठा करने का सोच रहे हैं कि पंद्रह लाख रुपये के करीब इकट्ठा करें, तो इसके लिए आपका मकसद क्या है? ऐसा करने से जीवन जागृति केंद्र का सब जगह से क्या फायदा है, इस बारे में आप समझायें।

बहुत—सी बातें हैं। एक तो जैसी स्थिति में हम आज हैं, ऐसी स्थिति में शायद दुबारा इस मुल्क का समाज कभी भी नहीं होगा। इतने संक्रमण की, ट्रांजीशन की हालत में हजारों, सैकडों वर्षों में एकाध बार समाज आता है—जब सारी चीजें बदल जाती हैं, जब सब पुराना नया हो जाता है। ये क्षण सौभाग्य भी हो सकते हैं और दुर्भाग्य भी। जरूरी नहीं है कि नया हर हालत में ठीक ही होता है। पुराना तो हर हालत में गलत होता है, लेकिन नया हर हालत में ठीक नहीं होता। और जब पुराना टूटता है, तो हजार विकल्प, आल्टरनेटिब्स होते हैं। दुर्भाग्य बन सकता है, अगर गलत विकल्प चुन लिया। इस बात को ठीक से समझ लेना चाहिए।

मैं पुराने के हर हालत में विरोध में हूं। लेकिन नये, हर नये के हर हालत में पक्ष में नहीं हूं। पुराना तो जाना चाहिए, उसे क्षण भर रुकने की कोई जरूरत नहीं है। असल में हम पुराना ही उसे कहते हैं, जो अपने समय से ज्यादा रुक गया है, जिसे अब नहीं होना चाहिए था। लेकिन जब पुराने का टूटने का क्षण आता है, तो हमारी जैसी कौमें बहुत मुश्किल में पड जाती हैं, जिन्होंने पुराने को कभी तोड़। ही नहीं। तो हम पुराने की तोड़—फोड भी बहुत स्वस्थ चित्त से न कर सकेंगे। नहीं; पुराने को जब तोडेंगे तो फीवरिश हालत और बुखार की हालत में ही तोड़ पायेंगे। लेकिन ध्यान रहे, बुखार की हालत में पुराना तो टूट सकता है, लेकिन नया निर्मित नहीं हो सकता। नये के निर्माण के लिए बडा शांत और स्वस्थ चित्त चाहिए।
तो इस समय सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण यह नहीं है कि हम सब क्या करें और क्या न करें। सबसे महत्वपूर्ण यह है कि कुछ भी करने का निर्णय लेने के पहले मुल्क के पास एक शांत, स्वस्थ चित्त हो। यह तो दूसरी बात है। हम फिर क्या करेंगे और किस रास्ते पर जायेंगे।
सवाल ऐसा नहीं है कि हम एक चौराहे पर खड़े हैं अपनी जिंदगी की गाडी को लेकर। सवाल यह नहीं है कि हम किस रास्ते पर मुड़े। सवाल यह है कि ड्राइवर होश में है या नहीं। यह ज्यादा महत्वपूर्ण है, क्योंकि यदि ड्राइवर बेहोश हो, तो कोई भी रास्ता खतरे में ले जानेवाला होगा। और चुनाव कौन करेगा कि रास्ता कौन—सा ठीक है?
सब तरफ—चाहे राजनीति हो, चाहे नीति हो, चाहे साहित्य हो, चाहे कला हो, जीवन की सब दिशाओं में पुराना टूटने के करीब है, टूट रहा है। हम कुछ न भी करेंगे, तो भी टूट जायेगा।
नये का चुनाव करना ही होगा। यानी अभी कुछ ऐसा नहीं है कि नये का चुनाव करने में हमें कोई चुनाव करना है, यह बिलकुल मजबूरी की हालत खड़ी हो गयी है कि वह चुनना ही पड़ेगा। पुराने ने अपने होने के सारे कारण खो दिये हैं। अब इसका कोई आधार नहीं रह गया है।
लेकिन, दो तरह के लोग हैं मुल्क में—एक वे हैं जो डर के कारण पुराने को बनाये रखना चाहते हैं; कम से कम परिचित है, पहचाना हुआ है। एक वे हैं, जो किसी भी कीमत पर कुछ भी नया आये, पुराने को तोड़ देने को आतुर हैं कि कुछ भी नया आ जायेगा, तो ठीक होगा। मैं उन दोनों में से नहीं हूं। और इसलिए मेरी तकलीफ बहुत ज्यादा है।
मुझे लगता है, नया तो चुनना है—चुनना ही पड़ेगा। हमें चुनना चाहिए लेकिन कौन चुनेगा? और इधर सैकडों वर्षों से यह भूल होती रही है। जैसे कि हम उदाहरण के लिए लें।
सन उन्नीस सौ सैंतालीस से पहले कोई पचास साल पूरा मुल्क इस आशा में जी रहा था कि आजादी आयेगी और सब ठीक हो जायेगा। और जिनको हम बहुत बुद्धिमान लोग कहें, उन्होंने भी मुल्क को यही समझाया कि सारी परेशानी का कारण अंग्रेज हैं। अंग्रेज गये कि सब परेशानी गयी। सरासर झूठी यह बात थी। लेकिन उन्होंने शायद झूठ समझा, लेकिन वह उनकी बुद्धि को दिखायी न पड रहा था। तो उन्नीस सौ सैंतालीस से हमने सारी आशा टिकाकर रखी कि आजादी आयी कि सब आ जायेगा। अंग्रेज गया कि सब परेशानी गयी! क्योंकि परेशानी का कारण वह है। गुलामी सब परेशानी का कारण है, वह हट गयी तो सब ठीक हो जायेगा। इसलिए पंद्रह अगस्त की सुबह जब हम उठे, तो हमने देखा कि सब ठीक हो गया है कि नहीं हो गया है! लेकिन वह कुछ भी ठीक नहीं हुआ था। 
फिर बीस—बाइस साल गुजर गये। अब हम जानते हैं कि अंग्रेज हमारी सारी मुसीबत का कारण न था। एकाध कारण रहा होगा, और वह एकाध कारण भी इसीलिए मौजूद था कि हमारे बाकी मुसीबत के कारण उसको मौजूद रखने में सहारा दे रहे हैं। वे सब के सब कारण मौजूद हैं। लेकिन मुल्क के दिमाग में फिर कोई फर्क नहीं पडा।
अब जैसे मुल्क कह रहा है कि समाजवाद आ जायेगा, तो सब ठीक हो जायेगा। अब हम फिर वही पागलपन की बात कर रहे हैं। समाजवाद आकर भी फिर हम ऐसे ही चौंककर खड़े रह जायेंगे कि कुछ भी न हुआ! जैसे हमने पीछे यह समझा था कि अंग्रेज की गुलामी सारे उपद्रव का कारण है, जबकि यह बात बिलकुल सच न थी।
बहुत मुश्किल है यह बात कहना कि अगर अंग्रेज की गुलामी न होती, तो हम इतनी भी अच्छी हालत में न होते, जितनी अच्छी हालत में अंग्रेज हमें छोड्कर गए हैं। क्योंकि अंग्रेजों ने जब इस मुल्क को अपने हाथ में लिया था तो हमारी हालतें इतनी बदतर थीं कि जिसकी हमें कोई कल्पना नहीं है। वे जब छोड़ गये हैं, तो उससे बहुत बेहतर हालत में छोड़ गये हैं।
अब हमें एक खयाल लग रहा है कि पूंजीवाद किसी तरह नष्ट हो जाये; सारी बीमारी की जड़ वह है। उसे नष्ट करके हम फिर एक मुसीबत में पडेंगे। हमको लगेगा कि पूंजीवाद तो नष्ट हो गया, लेकिन जो सपने संवारे थे, वे फिर भी नहीं आये। वे नहीं आ सकते। ऐसे नहीं आते।
मुल्क के पास एक विचार करनेवाला मस्तिष्क नहीं है कि चीजों को उनकी गहराई में देखे और सोचे

और समझे। और चीजें इतनी अन्यथा हैं, जिसका हमें एक तरफ से पता नहीं चलता। अगर एक बडा मकान है और उस मकान के चारों तरफ छोटे—छोटे झोपड़े हैं, तो कोई भी आदमी चौरस्ते पर खड़े होकर यह कह सकता है कि झोपड़े को छोटा कर—करके यह मकान बडा हो गया है। और यह बात सबको ठीक मालूम पड़ेगी कि बात ठीक है। लेकिन यह बात बिलकुल ही गलत है और उलटी बात सच है।
ये दस छोटे झोपड़े जिंदा हैं सिर्फ इसलिए कि एक बडा मकान बीच में उठा है, नहीं तो ये जिंदा भी नहीं रहते, ये होते ही नहीं। क्योंकि एक बडा मकान जब उठता है, तो एक राज बनता है, एक इंजीनियर काम करता है, मजदूर मिट्टी ढोता है, कोई गड्डा खोदता है, कोई लकडी काटता है। एक बडा मकान जब बनता है, तो उसके आसपास पचास छोटे मकान बडा मकान बनाने की वजह से बनते हैं। लेकिन चौरस्ते पर समझाने वाला नेता कहेगा कि ये छोटे मकान, इसलिए रह गये हैं कि यह मकान बडा बन गया है। अगर यह बडा मकान न होता, तो तुम्हारे पास भी बड़े  मकान होते। लेकिन आप ध्यान रखिये, जिंदगी का तर्क बिलकुल उलटा है। अगर यह बडा मकान न होता तो ये झोपड़े  भी न होते। बडा मकान तो होता नहीं, ये झोपड़े  भी नहीं हो सकते थे।  
बुद्ध के जमाने में दुनिया की आबादी दो करोड थी केवल, और अगर गांधी जी जैसे लोगों की बात मान ली जाये, तो अब भी मुल्क की आबादी दो ही करोड हो सकती है, उससे ज्यादा नहीं हो सकती है। आज हिंदुस्तान पाकिस्तान मिलकर सत्तर करोड हैं। ये सत्तर करोड लोग कैसे जिंदा हैं? पूंजीवाद ने संपत्ति पैदा की है। लेकिन इसे देखने के लिए कोई बुखार से भरा हुआ चित्त नहीं चाहिए। इसे देखने के लिए एक बहुत स्वस्थ, शांत चित्त चाहिए। और तब—तब मैं मानता हूं कि पूंजीवाद का हम उपयोग कर सकते हैं, समाजवाद लाने के लिए।
और अभी हम पूंजीवाद से लडेंगे, समाजवाद को लाने के लिए। और पूंजीवाद को तोडेंगे, समाजवाद को लाने के लिए। जबकि मेरी समझ ऐसी है कि पूंजीवाद जब पूरी तरह सफल होता है, तो अनिवार्यरूपेण समाजवाद में परिणत होता है। समाजवाद जो है, पूंजीवाद का अगला कदम है। लेकिन उसके लिए तो एक बडी समझ और बडा शांत चित्त चाहिए। यह एक उदाहरण के लिए मैंने बात कही। ऐसे मुल्क की पूरी जिंदगी सब तरफ से उलझ गयी है—चाहे राजनीति हो, चाहे धर्म हो, चाहे नीति हो, चाहे कुछ भी हो।
फिर मेरा यह आग्रह नहीं है बहुत कि हम इसकी फिक्र करें कि जो ठीक हमें लगता है वह मान लिया जाये। तो ज्यादा फिक्र इस बात की करने की है कि ठीक कुछ समझा जा सके, इस योग्य चित्त पैदा किया जा सके। अगर वह चित्त यही ठीक समझे कि ऐसा करने से ठीक हो जायेगा, तो वैसा किया जायेगा। लेकिन ठीक और गलत का निर्णय करने वाला शांत मन मुल्क के पास नहीं है।
और जरूरी नहीं है कि पूरे मुल्क के पास शांत मन हो, तब कुछ हो। जिंदगी बहुत थोडे से लोग चलाते हैं—बहुत थोडे—से लोग जिंदगी को चलाते हैं। अगर हम मनुष्य—जाति में एक दो सौ नाम काट दें, तो मनुष्य—जाति वहां होगी, जहां कि दो लाख साल पहले आदमी था। झाडू से उतरना भी नहीं सीखा होगा आदमी ने! एक दो सौ आदमियों की प्रतिभा सारे जगत को गति दे जाती है।
इधर मेरे मन में यह निरंतर चलता है कि देश के सारे प्रमुख नगरों में ध्यान केंद्र हों, जहां हम इसकी चिंता नहीं कर रहे हों कि क्या ठीक है, जहां हम इसकी चिंता कर रहे हों कि कुछ लोग क्लैरिटी को उपलब्ध हो रहे हैं, उनका मन शांत हो रहा है और चीजों को देखना शुरू कर रहा है कि चीजें कैसी हैं। न उनका पक्षपात काम कर रहा है, न उनके अपने कोई पूर्वाग्रह काम कर रहे हैं। उनके पास सिर्फ ठीक देखनेवाली बुद्धि है, उससे वे देखना शुरू कर रहे हैं। अगर मुल्क के सारे बड़े  नगरों में हम थोड़ी—सी जमात भी चीजों को ठीक देखनेवाली पैदा कर सकें, तो इस संक्रमण के काल में उसके बहुमूल्य उपयोग होंगे। और मैं मानता हूं शायद वह सर्वाधिक मूल्यवान बात सिद्ध हो।
तो इसलिए कि ठीक शांत चित्त के लिए हम हवा, भूमि और व्यवस्था दे सकें और उस व्यवस्था जुटाने में बहुत—सी बातें होंगी। जैसा ध्यान केंद्र के लिए कहा, मेडिटेशन हाल के लिए कहा। एकदम जरूरी है कि सारे बड़े  नगरों में ऐसे भवन हों, जो न हिंदू के हों, न मुसलमान के हों, न ईसाई के हों। जो सभी मनुष्यों के लिए हों और जो भी वहां शांत होना चाहता है, उसके लिए हों। उन भवनों में शांति के लिए सब तरह की व्यवस्था की जा सकती है। छोटे बच्चों के लिए वहां अलग व्यवस्था की जा सकती है। उस तरह की स्थिति वहां पैदा की जा सकती है, जो छोटे बच्चों को ध्यान में ले जाने में सहयोगी हो सके। और हजार उपाय किये जा सकते हैं। उपाय का मामला ऐसा है कि अगर आज कोई पश्चिम की पेंटिंग उठाकर देखे, तो उसे ऐसा लगो। कि जरूर रुग्ण चित्त से पैदा हुई है।
अभी मैं पूना में जिस घर में मेहमान था, वहां दो पेंटिंग वे ले आये थे। वे काफी पैसे खर्च करके लाये थे कि पेंटिंग अच्छी हैं। उन्होंने मुझसे पूछा, ' आप क्या कहते हैं?' तो मैंने कहा कि 'मैं कुछ नहीं कहूंगा। तुम इस पेंटिंग के पास आधा घंटा बैठकर देखते रहो और आधा घंटा बाद तुम्हारा मन कैसा होता है, वह मुझे बता दो। ' 
आधा घंटा तो बहुत दूर है, वह जो पेंटिंग थी, उसे पांच मिनट भी गौर से देखने में आपका सिर घूमने लगो।। और ऐसा लगेगा कि आप पागलखाने में हैं। उसका टोटल इफेक्ट पेंटिंग का जो है, वह सूदिंग नहीं है। अगर पिकासो की पेंटिंग देखकर थोड़ी देर उस पर कोई ध्यान करे, तो वह पागल हो सकता है, शांत नहीं। लेकिन अगर बुद्ध की मूर्ति पर बैठकर कोई पांच मिनट ध्यान करे, तो वह पागल भी हुआ तो ठीक और शांत होकर लौटेगा।
मूर्ति के माध्यम से या पेंटिंग के माध्यम से हमने शांति का इंतजाम किया है। दरवेश फकीरों के नृत्य... और मैं चाहता हूं कि ऐसे हाल होने चाहिए सारे मुल्क में। नाच तो हम रहे हैं, सारी दुनिया नाच रही है और दुनिया को नाचने से नहीं रोका जा सकता। और जिसको हम नाचने से रोकेंगे, उसको भारी नुकसान शुरू हो जायेंगे। लेकिन नाच ऐसा हो सकता है कि नाचने वाला नाचने में शांत हो और ऐसा भी हो सकता है कि नाचनेवाला अशांत हो। मूवमेंट, रिदम की बात है। ऐसा नाच हो सकता है, जो कामुकता से भर दे, और ऐसा नाच हो सकता है, जो कामुकता के बाहर कर दे। देखनेवाला भी देखते—देखते कामुक हो जा सकता है।
अभी एक लड़की इंग्लैड से लौटी और उसने मुझे कहा कि वह हिप्पीज के एक नाटक को देखने गयी। तो वे नाच रहे हैं और फिर नाचते—नाचते उन्होंने कपड़े फेंक दिये हैं और नग्न हो गये हैं। और उनसे मोहाविष्ट होकर हाल में कम से कम बीस परसैंट लड़के और लडकियों ने, युवक और युवतियों ने कपड़े फेंक दिये और वे नंगे हो गये; हाल में अंदर, देखनेवाले। तो वह कह रही थी कि लेकिन मैं बहुत हैरान हो रही थी कि यह क्या हो रहा है! क्योंकि यहां तक भी ठीक है कि कोई नाच रहा है, नंगा हो गया है, ठीक है। लेकिन हाल में देखने वाले को क्या हो गया है! नहीं, नाच आपके भीतर कुछ करेगा! जो भी आप देख रहे हैं, वह आपके भीतर कुछ करेगा।
दरवेश फकीरों के नृत्य हैं। अगर कोई उनको आधा घंटे तक देखते रहे, तो वह पायेगा कि सारे मन की चिंता विलीन हो गयी है, क्योंकि वह जो मूवमेंट है, वह जो गति है, इतने वैज्ञानिक हिसाब से निर्मित की गयी है कि आपके मन को थपकी देती हो, शांत करती हो।
तो मेरे लिए मेडिटेशन हाल बहुत और अर्थ रखता है। वहां हम उस तरह के चित्रों की व्यवस्था करें कि जिन्हें देखकर मन शांत होता हो और स्वच्छ होता हो। उस तरह के नृत्यों की व्यवस्था करें, जिन्हें देखकर मन शांत होता हो, स्वस्थ होता हो। उस तरह के गीतों की व्यवस्था करें, उस तरह के संगीत की व्यवस्था करें, उस तरह की वीणा वहां बजती हो, उस तरह की शिक्षक तरंगें वहां पैदा हों। बच्चा भी वहां हो, का भी हो, पति भी हो, पत्नी भी हो। जीवन के सारे पहलुओं को हम वहां छूना शुरू करें।
पुरानी दुनिया ने भी बहुत से ध्यान— भवन पैदा किये थे, लेकिन वे सब पलायनवादी थे, एस्केपिस्ट थे। अगर कोई आदमी मंदिर में जाता हो, तो वह जिंदगी से भागना शुरू हो जायेगा। मैं ऐसे मंदिर चाहता हूं जो जिंदगी में और गहराई में ले जाते हों, जिंदगी से भगाते न हों।
तो बड़े  से बडी बात यह है कि ऐसा केंद्र, जहां जीवन की सब दिशाओं को छूने के लिए, और सब दिशाओं से काम करने के लिए, और मनुष्य को सब तरफ से शांति में डुबकी लगाने के लिए हम पूरी व्यवस्था दें। वह व्यवस्था दी जा सकती है। उसमें कोई बहुत कठिनाई नहीं है। जिस तरकीब से हमने आदमियों को अशांत किया है, वह भी व्यवस्था है। वह भी हमारा इंतजाम है, जिसने यह पागलपन पैदा कर दिया है।
तो ध्यान केंद्र चाहिए। पैसे की बात मैं नहीं जानता। वह ईश्वर बाबू खुद समझें और आप समझें। उससे मुझे मतलब नहीं है। इतना मैं जानता हूं कि अगर इस तरह की कुछ व्यवस्था जुटा पाते हैं आप, तो आप आने वाले इस मुल्क की समस्त पीढियों के लिए कुछ काम कर सकेंगे, अपने लिए भी। कुछ ऐसा काम जिसका स्थायी परिणाम देश की चेतना पर हो सकता है।
ऐसा साहित्य चाहिए। धर्म के नाम पर हमारे पास जो साहित्य है, बिलकुल कचरा है। उस साहित्य की वजह से जिनमें थोड़ी बुद्धि है, वे धार्मिक नहीं हो पायेंगे। यानी हमारा जो धार्मिक साहित्य है, उस साहित्य को पढ़ने के लिए बुद्धिहीनता बहुत अनिवार्य आवश्यकता है। तो ऐसा साहित्य चाहिए, जो मुल्क की प्रतिभा को छुये, स्पर्श करे। मुल्क की प्रतिभा जिसमें पाये कि कुछ रस हो सकता है। उस साहित्य के लिए ऐसे केंद्र, प्रचार और विस्तार के लिए आधार बन सकें।
अब हमारे पास बहुत नये साधन हैं, जो कभी भी न थे। दुनिया में कभी भी न थे, आज हमारे पास हैं। लेकिन उन साधनों का प्रयोग अभी हम मनुष्य के मंगल के लिए नहीं कर पा रहे हैं। बुद्ध के पास कोई उपाय नहीं था, सिवाय इसके कि वे पैदल घूमें, चालीस साल तक। लेकिन चालीस साल पैदल बुद्ध घूमे, तो भी बिहार के बाहर न जा सके, सिर्फ एक दफा बनारस तक गये। इतनी बडी दुनिया है। बुद्ध के पास उपाय नहीं था। अगर हमारे जैसे आदमी को भी बुद्ध जैसा ही गुजरना पड़े, तो ढाई हजार साल बेकार गये। और जहां तक मामला ऐसा है कि बुद्ध जितना काम कर सके, उससे ज्यादा काम मैं भी नहीं कर सकंगू।।
लेकिन ढाई हजार साल में जो सारी टेक्यालाजी विकसित हुई है, उसका क्या मतलब है! उसका मतलब यह है कि फिल्म ऐसी हो सकती है कि जिस गांव में मैं नहीं गया हूं वहां भी मेरी बात पहुंच जाये। फिल्म ऐसी हो सकती है कि जिस गांव में नृत्य की वह व्यवस्था न कर सकेंगे, जो हमने बंबई में की है, तो फिर वह नृत्य भी वहां पहुंच जाये। जरूरी नहीं है कि हम हर गांव में पेंटिंग्स पहुंचा सकें, लेकिन बंबई में जो पेंटिंग्स लगाये हैं हमने अपने ध्यान कक्ष में, उनको पूरा मुल्क फिल्म के जरिये देख ले। कोई वजह नहीं है, पूरा मुल्क ही नहीं, पूरी दुनिया भी सम्मिलित हो जाये।
रेडियो का माध्यम है, टेलीविजन का माध्यम है। अब हमारे पास ऐसे माध्यम हैं, जिनका कि पुराना जगत उपयोग ही नहीं कर सकता था, उसके पास नहीं थे। हमारे पास हैं। हम उपयोग कर रहे हैं। लेकिन मंगल के लिए उपयोग नहीं हो रहा है, अमंगल के लिए उपयोग हो रहा है। अभी मुझे मिलते हैं लोग, वे कहते हैं, सिनेमा बंद करो, यह बंद करो। बंद करने का सवाल नहीं है। जो माध्यम जगत में आ गया है, वह बंद नहीं होगा। इसमें सवाल बंद करने का नहीं है, सवाल उसके उपयोग का है, उसका कैसा उपयोग हो।
सिनेमा जैसे शक्तिशाली माध्यम का एकदम ही गलत उपयोग हुआ जा रहा है। हमने एक कहावत सुनी है—फ्रेंच में एक कहावत है कि जब भी कोई आविष्कार होता है, तो शैतान सबसे पहले उस पर कब्जा कर लेता है। और जिन्हें हम अच्छे लोग कहते हैं, वे खड़े होकर देखते रहते हैं और चिल्लाते रहते हैं कि बडा बुरा हुआ जा रहा है, बडा बुरा हुआ जा रहा है। लेकिन तुम्हें कौन रोक रहा है कि तुम उसको कब्जे में मत कर लो। लेकिन वे यही काम करते रहेंगे।
वे साधु सम्मेलन करके तय करते रहेंगे कि रही पोस्टर नहीं लगने चाहिए। लेकिन अच्छा पोस्टर लगाने से तुमको कौन रोक रहा है? और तुम इतने अच्छे पोस्टर क्यों नहीं लगा पाते हो कि रही पोस्टर अपने आप उखड जायें और डूब जायें; लेकिन यही उनकी फिक्र है कि रही पोस्टर नहीं होने चाहिए। रही फिल्म नहीं होनी चाहिए। तुम्हें अच्छी फिल्म बनाने से कौन रोक रहा है? लेकिन हमारी कल्पना में नहीं आता।
हम सोच ही नहीं सकते कि बुद्ध जैसा आदमी अगर फिल्म में खड़ा किया जा सके, तो क्या परिणाम है। हम कहेंगे, पहले तो बुद्ध खड़े नहीं होंगे उस फिल्म में, बहुत मुश्किल है। अगर बुद्ध बोल सकते हैं, चल सकते हैं, तो बुद्ध का चलना और बोलना फिल्म के द्वारा पूरा मुल्क क्यों नहीं देख सकता? सारा मुल्क देख सकता है। लेकिन बुरा आदमी सबसे पहले कब्जा कर लेता है और अच्छा आदमी सिर्फ चिल्लाता रहता है।
अच्छा आदमी सदा से इंपोटेंट है। वह बिलकुल नपुंसक है, वह कुछ नहीं करता है; वह सिर्फ चिल्लाता रहता है। वह कहता रहता है कि यह बुरा हो रहा है, वह बुरा हो रहा है। वह करता कुछ भी नहीं। बुरा आदमी आगे जाता है, अच्छा आदमी बैठकर इतना ही कहता रहता है कि बुरा हो रहा है। यह नहीं होना चाहिए।
तो मेरी समझ में अच्छे आदमी को वीर्यशाली बनने की जरूरत है। बुराई से जो लडाई है, वह इस बातचीत से नहीं हो सकती है। जिन—जिन माध्यम का बुराई उपयोग करती है, उन—उन माध्यम का भलाई को भी उपयोग करना चाहिए।
अब जैसे मैं हैरान हूं; अब मैं जाऊंगा, एक—एक गांव घूमूंगा और भटकूंगा। अगर मैं किसी गांव में जाऊं और दस हजार लोग भी मुझे सुन लें, तो यह समुद्र में रंग डालने जैसा है, समुद्र कभी रंगमय होने वाला नहीं है। इतना बडा समुद्र है। अब मैं जिंदगी भर मेहनत करूं, तो भी इस मुल्क में पचास करोड लोगों के सामने नहीं हो सकता हूं।
लेकिन अब कोई वजह नहीं है कि आमने—सामने क्यों नहीं हो सकता हूं। अब हो सकता हूं। जो पहले कभी संभव नहीं था। अब संभव हो सकता है।
तो नवीनतम टेक्यालाजी का और साइंस का धर्म कैसे उपयोग करे, इस संबंध में न केवल चिंतन, बल्कि व्यवस्था जुटाने की बात है। वह तो दो लाख तो बहुत छोटी बात है, उसको शुरू मानकर चलना चाहिए। लेकिन अगर इसका उपयोग हो सके, तो बडा क्रांतिकारी काम हो सकता है।
अब बच्चे हैं। बच्चे फिल्म देख रहे हैं। उनको आप मना कर रहे हैं। मैं नहीं मानता कि उनको मना करने की जरूरत है। उनको जरूर फिल्म दिखानी चाहिए। बच्चे फिल्म देखेंगे। लेकिन कोई कारण नहीं है कि ऐसी फिल्म बच्चे क्यों न देखें कि जो उनकी जिंदगी में रोशनी बनकर आये, आ सकती है। ऐसा गीत क्यों न गायें, वे भी वे गा सकते हैं। उनको गीत चाहिए।
अब बच्चे ट्विस्ट कर रहे हैं, नाच रहे हैं या कुछ और कर रहे हैं—यह सब चलता है। मैं मानता हूं कि बच्चों को नृत्य होना ही चाहिए, क्योंकि जो बच्चा नाच नहीं सकता, वह का हो गया। उसको नाचना चाहिए। लेकिन वे चिल्लायेंगे, 'नहीं नहीं, यह नाच ठीक नहीं है। ' लेकिन ठीक नाच कहां है? या तो नाच है ही नहीं, या गलत नाच है। मैं आपसे कहता हूं इन दोनों में गलत नाच ही चुना जायेगा। कोई उपाय नहीं है। ठीक नाच कहां है? वह ठीक नाच सामने ले आइए और गलत नाच अपने आप विदा होने लगेगा। उसे फीका कर डालने की जरूरत है। यानी मेरा मानना है, भलाई जो है, अब तक भी आकर्षक नहीं हो पायी है। बुराई अभी भी आकर्षक है। यह आश्चर्यजनक बात है कि बुराई इतनी आकर्षक हो और भलाई में कोई आकर्षण नहीं है।
आदमी जब मरने लगता है, तब वह मंदिर की तरफ जाता है, बाकी वह नहीं जाता। है।, किसी टाकीज का नाम 'मराठामदिर' हो, वह बात अलग है। वहां जाता हो, वह बात अलग है। तो मंदिर जब उस ढल जाती है, और मरने के करीब होता है, तब आता है। आकस्मिक नहीं है। उसे पुकारेगा वह—उसके प्राणों को। जब वह थकने लगता है और हारने लगता है, जब सब आकर्षण विदा होने लगते हैं, तब कहीं धर्म उसको आकर्षक मालूम पडता है।
तो अब तक का सारा धर्म मरे हुए आदमियों को आकर्षित करता है, जिंदा आदमी को नहीं आकर्षित करता है। ताकत जिंदा आदमी के हाथ में है। तो इन केंद्रों को तो मैं बिलकुल न्यूक्लिअस बनाना चाहता हूं। ऐसे न्यूक्लिअस, ऐसे केंद्र जहां से हम जीवन की सब विधाओं, सब डायमेंशन को स्पर्श करने लगें, तो ही हम दस—पचास वर्षों में एक नये समाज के जन्म के लिए कुछ आधार रख सकते हैं, और यह काम, सब तरह के लोग, इधर दस वर्षों से निरंतर बोलता हूं र सब तरह के लोग, मेरी नजर में हैं, कौन लोग क्या—क्या कर सकते हैं—लेकिन छोडिये इन्हें।
इधर मैं जंगल में ठहरा हुआ था और एक मूर्तिकार, जो कभी बहुत प्रसिद्ध हुआ, लेकिन दुनिया से परेशान होकर वह जंगल में जाकर रहने लगा— अब इस समय दुनिया में वह दस—पांच अच्छे मूर्तिकारों में है एक, लेकिन उसके पास मूर्ति बनाने के लिए पैसा नहीं है। फिर भी जो कुछ उसको कहीं से कोई दे देता है, कुछ कर देता है, वह बनाकर खड़ी  करता जाता है। अब उसके पास इतनी सामर्थ्य है, पर सीमेंट नहीं है, कांक्रीट नहीं है, जिससे वह मूर्ति बना ले। उसने मुझे कहा, 'मैं जिस तालाब के पास हूं उसके चारों तरफ ऐसी मूर्तियां बना देना चाहता हूं...।
उसने मुझे अपने नक्शे बताये, यह इतना अदभुत है, लेकिन उसके पास पैसे नहीं हैं। मैंने उससे कहा कि 'मैं कोई केंद्र खड़ा करूं और तुम वहां आ जाओ, और केंद्र के चारों तरफ ऐसी मूर्तियां फैला दो। ' उसने कहा कि 'सारी जिंदगी वहां बिता दूंगा, क्योंकि मुझे और कोई काम ही नहीं है। मुझे रोटी मिल गयी, मैं सारी जिंदगी वहां बिता दूंगा। '
मूर्तिकार हैं, संगीतज्ञ हैं, लेकिन वही संगीत बाजार में बिकेगा, जो रही होगा, क्योंकि रही आदमी ही सिर्फ खरीदने वाला है। वे संगीतज्ञ रही से रही बेचने लायेंगे, क्योंकि बाजार में वेल्यजू उसका ही है। वही उसका मूल्य है। एक हमारे पास ऐसी व्यवस्था चाहिए मुल्क के प्रत्येक बड़े  नगर में, जहां हम श्रेष्ठतम को खिलने के लिए मौका खोज सकें और वहां हम श्रेष्ठतम को चाहे छोटी मात्रा में ही सही जन्म दे सकें।
और ध्यान जो है, बहुत—सी चीजों का इकट्ठा जोड है। वह ऐसी चीज नहीं है कि आदमी चौबीस घंटे कुछ भी रहे और बस एक दफा ध्यान में चला जाये।
अब मेरी समझ है कि अगर किसी आदमी को ध्यान में जाना है, उसके घर की दीवालों के रंग की बदलाहट होनी चाहिए। क्योंकि दीवालों का रंग ऐसा हो सकता है, जो कभी ध्यान में जाने ही न दे। अगर आपने लाल, पीले और काले रंग दीवालों में पोत डाले हैं, तो उनके भीतर बैठकर आप पांच मिनट में आँख बंद किये हुए भी बेचैन हो जायेंगे।
कैसे कपड़े पहने हुए हैं, वह अर्थपूर्ण है, क्योंकि हम जीते बहुत शरीर के तल पर हैं। आत्मा वगैरह की तो बात होती है, जीते हम शरीर के ही तल पर हैं।
ये जो केंद्र होंगे, ये जीवन की सब दिशाओं में खोज करें, अन्वेषण करें। कपड़े कैसे हों, मकान की दीवालों का रंग कैसा हो, मकान के पास दरख्त कैसे हों—सारी चीजों के संबंध में स्पर्श करने की जरूरत है। और जब हम सब पर स्पर्श कर लें, तो मैं मानता हूं कि ध्यान इतनी सरल चीज है, जितनी कोई और चीज सरल नहीं है। शायद उसे अलग से करने की जरूरत न रह जाये।
भोजन कैसा हो, कपड़े कैसे हों, बगीचा कैसा हो, उठते लोग कैसे हों, बैठते लोग कैसे हों, बात कैसे करते हों—अगर इन सारी बातों के संबंध में एक बात स्मरण रख ली जाये कि कौन—सी चीजें शांति की तरफ ले जाने वाली होंगी, तो जरूरी नहीं है कि उस आदमी को और अलग से ध्यान करने के लिए जाना पड़े। ये सब ही उसके भीतर ध्यान का सूत्र बन जायेंगे।
तो मेरे लिए ध्यान का अर्थ ही बहुत और है। और अभी तो मैं जिनको ध्यान की बात कर रहा हूं वे बिलकुल ही गलत लोग हैं, क्योंकि वे जिस दुनिया में रहते हैं, उससे ध्यान का कोई संबंध नहीं है। लेकिन उनको सुझाव देने का सवाल है, वह भी तो नहीं है, उनके पास। वे कर भी क्या सकते हैं।
एक पूरा दर्शन तो है मेरे दिमाग में। उसको अगर—जिनको भी ठीक लगता है, वे थोड़ी ताकत लगाये, तो वह पूरा हो जाये। अंत में मुझे कोई परेशानी नहीं होगी। जितना मैं कर सकता हूं मैं करता चला जाता हूं उससे कोई अंतर नहीं है। अब मेरे पास कुछ लोग हैं, जिनको मैं कहीं बिठा सकता हूं जो कि बड़े  काम के हो सकते हैं। मैं तो कहीं बैठ नहीं सकता। मेरा कहीं बैठना तो महंगी बात है। मैं चलता ही रहूंगा, पर कुछ लोगों को कहीं बिठाया जा सकता है, जो कि बड़े  काम के सिद्ध हो जायेंगे। पर उनको बिठाने के लिए कोई उपाय और व्यवस्था चाहिए। तो वह आपको सोचना चाहिए।
इसे बंबई में एक मॉडल की तरह खड़ा कर लें। फिर हम देश के और नगरों में उसकी चिंता लें।
जो भी महत्वपूर्ण है, वह बहुत धीरे— धीरे प्रभावी होता है, वक्त लेता है। मौसमी फूल हम बोते हैं, तो वे महीने भर बाद फूल भी देने लगते हैं, और दो महीने बाद समाप्त भी हो जाते हैं। तो यह प्रक्रिया इतनी आसान नहीं है कि आज हो जायेगी। और इसलिए मुझे लगता है कि अक्सर इसीलिए काम नहीं हो पाता। क्योंकि हमारी आकांक्षाएं बहुत मौसमी होती हैं। हम चाहते हैं कि अभी हो जाये! वे अभी नहीं हो पाती हैं तो फिर हम थककर लौट जाते हैं कि अभी नहीं हो सकती।
पर यह तो लंबी यात्रा है, और ऐसी यात्रा है, जो अंत कहीं भी नहीं होती है। हम फिर उसे धक्का दे जाते हैं, समाप्त हो जाते हैं। फिर कोई और उसे धक्का दे जाता है और समाप्त हो जाता है—और यात्रा चलती रहती है। यात्रा अनंत है।
पर एक ही ध्यान अगर आदमी को जिंदगी में रह जाये कि उसने मनुष्य के आनंद की तरफ और मनुष्य के मंगल की तरफ कुछ भी धक्का दे दिया था, तो भी मैं मानता हूं कि वह बडी शांति अनुभव करेगा। खुद देखना है मनुष्य को। लेकिन अगर हमने यह नहीं किया तो ध्यान रहे, वह नहीं हो सकता कि आप खाली रह जायें। धक्के तो आप दे ही रहे हैं, तो आप अशांति  की तरफ देंगे, अमंगल की तरफ देंगे।
आप जी रहे हैं, तो आपके धक्के जीवन को लगेंगे ही। अब सवाल इतना ही है कि वे धक्के किस तरफ से ले जाते हैं और कहां ले जाते हैं। आदमी को मंगल की तरफ ले जाते हैं, शुभ की तरफ, आनंद की तरफ—इससे बडी कृतार्थता नहीं हो सकती कि एक आदमी अपने जीवन में कुछ भी, सबके मंगल के लिए कुछ कर पाये।
बुद्ध अपने भिक्षुओं को कहते थे कि जब तुम ध्यान करो, तो कभी ऐसा मत सोचना कि ध्यान से जो शांति मिले, वह मुझे मिल जाये। नहीं तो तुम कभी शांत ही न हो सकोगे, क्योंकि वह 'मुझे' का भाव भी अशांति है। बुद्ध कहते थे कि जब तुम्हें ध्यान से शांति मिले, तो तुम यह भी प्रार्थना करना कि सबको बंट जाये। यह मत सोच लेना के मुझे मिल जाये, क्योंकि मुझे मिलने का जो खयाल है, वह भी अशांति का बुनियादी आधार है। वह बंट जाये, वह सबको मिल जाये।
तो बुद्ध कहते, ध्यान करते वक्त, बैठते वक्त कहना, जो शांति आये वह सबमें बंट जाये और वह सबमें दूर—दूर तक फैल जाये। उसमें मेरे 'मैं ' को रखना नहीं बीच में। और जब ध्यान से उठो और शांति अनुभव हो, तो यही प्रार्थना करते उठना कि सबका मंगल हो, सब तक फैल जाये।
और बड़े  मजे की बात है, जो अपने तक रोकना चाहता है, वह सब तक तो फैला नहीं पाता, अपने तक भी पहुंचा नहीं पाता। और जो सब तक फैलाना चाहता है, वह सब तक तो फैला देता है और अचानक पाता है कि सब तक फैलाने में उस तक तो बहुत फैल गयी है। उस तक तो फैल ही गयी है। वह तो सवाल ही नहीं है, वह तो आ ही गयी है।

प्रश्न :

 यह अच्छा है या बुरा है, यह सब क्या है, क्यों है, किसलिए है, इसको जानने का उपाय क्या है?

 असल में हमारे ऐसे जो सवाल होते हैं, सवाल ये नहीं हैं। इन सवालों में कुछ बातें हम मानकर चल पड़ते हैं। एक बात तो यह मान लेते हैं कि हर चीज का अर्थ होना चाहिए। यह हम मानकर चल पड़ते है कि जो भी चीज है, उसका अर्थ होना चाहिए। एक फूल खिला है, तो हम पूछते हैं, किसलिए खिले हैं? एक सूरज जल रहा है और रोशनी दे रहा है, हम पूछते हैं—किसलिए? लेकिन न सूरज जवाब देगा, न रोशनी जवाब देगी। फूल खिलने में लगा रहेगा, सूरज बिखरने में लगा रहेगा। और हम सवाल पूछने में खराब होते रहेंगे। यानी आदमी जो सवाल उठाता है, वे सवाल ऐसे नासमझी के हैं! उसमें नासमझी की कुछ बुनियादी पकड है।
हमें पहले से ही मालूम है कि हर चीज में कोई मतलब होना चाहिए। लेकिन आपको खयाल में ही नहीं कि अगर हर चीज में मतलब हो, तो जिंदगी ऐसी बदतर हो कि जिसका कोई हिसाब नहीं। जिंदगी में जो भी थोड़ा—सा सुंदर है, वह गैर—मतलब का है— परपजलैस—जो भी थोड़ा—सा सुंदर है। मैं किसी को प्रेम करता हूं और अगर मैं पूछने लगू कि मतलब क्या है प्रेम करने का! तो बात गयी।
हम जब पूछते हैं, तो हम सब चीजों को मतलब की भाषा में पकडना चाहते हैं और जब मतलब की भाषा में हम सब चीजों को पकडें—गे, तो जिंदगी एकदम उदास और बेकार हो जायेगी। जिंदगी का जितना आनंद है, वह उन्हीं सब चीजों में है, जो गैर—मतलब हैं। अब एक आदमी नाच रहा है। क्या मतलब है? वह कहता है, 'नाचना ही मतलब है। ' एक आदमी गीत गा रहा है। क्या मतलब है? वह कहता है, 'गीत गाना ही मतलब है। ' पक्षी सुबह गीत गा रहे हैं और आकाश में उड रहे हैं। क्या मतलब है? उड़न। आनंद है, मतलब कुछ भी नहीं है।
लेकिन मतलब होना ही क्यों चाहिए! क्या जरूरत है कि हर चीज में मतलब हो! मेरी समझ तो उलटी है। मेरी तो समझ यह है कि जितनी समझ बढ़ ती है, जिन चीजों में हम मतलब समझते हैं, वह भी गैर—मतलब हो जाती है। और आखिर में यह सारा जगत जस्ट ए प्ले, लीला जैसा—मतलब नहीं रह जाता, एक खेल रह जाता है।
लेकिन हमारे दिमाग खेल को स्वीकार नहीं करते, काम को स्वीकार करते हैं। और काम और खेल में फर्क है। काम में मतलब होता है, खेल में मतलब नहीं होता है। और मजा यह है कि काम से हम परेशान हैं, और काम को हम स्वीकार करते हैं। और खेल भी खेल रहा हो, तो उसको भी काम बनाना चाहते हैं। अगर चार बच्चे खेल रहे हैं, तो बड़े—बड़े  उनसे यह पूछना चाहते हैं कि क्या मतलब है? किसलिए खेल रहे हो? क्योंकि बड़े—बड़े  खेलेंगे भी अगर, तो तभी खेलेंगे, जब दाव पर कुछ पैसा लगा लें, तो कुछ मतलब रहेगा उसका। कि पचास जीते कि पचास हारे। क्योंकि बेकार क्यों सिर फोडू रहे हैं हम! कोई फायदा नहीं।
लेकिन बच्चे खेल रहे हैं। उनकी समझ के बाहर है कि मतलब क्यों पूछ रहे हैं! खेलना अपने में काफी है, पर्याप्त है। उसके आगे पूछने की बात कहां उठती है! उसके आगे पूछने की बात इसलिए उठती है कि आपको खेल भूल गया है। आपको खेल का पता ही नहीं है। बस आपको सब काम रह गया है।
दुकान है तो मतलब है। मंदिर है तो मतलब है! हम पूछते हैं कि किसलिए भगवान के मंदिर जायें, और क्या मिल जायेगा हमें वहां? असल में वे मंदिर में भी तभी जायेंगे, जब मंदिर भी दुकान सिद्ध हो जाये। जब कुछ मिले, तब वे जा सकते हैं। और अगर यह आदमी इस तरह पूछता रहे, पूछता रहे, तो क्या अंतिम परिणाम हो सकता है। फिर वह यही पूछेगा कि मेरे होने का क्या मतलब है? तब फिर आत्महत्या के सिवाय उपाय नहीं रह जाता। यह जो सवाल है न आपका इसका अंतिम उत्तर आत्मघात है।
आज इतना ही।

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