मंगलवार, 25 अप्रैल 2017

चेत सके तो चेत-(विविध)-प्रवचन-03



चेत सके तो चेत-(विविध)
ओशो
दिनांक 09 जून सन् 1969
बडौदा-अहमदाबार, गुजरात।
प्रवचन-तीसरा-(धर्म की क्रांति)

पिछले साल साईंबाबा आए थे और हमारे राज्यपाल जी, मुख्यमंत्री जी, वे भी वहां गए थे। और सुना है कि प्रधानमंत्री की पत्नी को एक ताबीज भी दिया था। मैं आपसे यह जानना चाहता हूं कि आध्यात्मिकता और चमत्कारों के बीच कोई नाता है?

आध्यात्मिकता और चमत्कार के बीच एक नाता है, वह नाता विरोध का है। आध्यात्मिक व्यक्ति चमत्कार के लिए राजी नहीं होगा, यह नाता है। और जो व्यक्ति चमत्कार के लिए राजी होता हो, उसे मदारी कहना चाहिए, आध्यात्मिक नहीं।
लेकिन मदारीपन से बहुत लोग प्रभावित होते हैं। अध्यात्म से प्रभावित होना भी बहुत मुश्किल है। मदारीपन बहुत तेजी से प्रभावित करता है। और इस भ्रम में हमें नहीं रहना चाहिए कि हमारे राज्यपाल या हमारे न्यायाधीश या हमारे मंत्री और मुख्यमंत्री, मदारियों के प्रभाव से मुक्त हैं। बल्कि सच तो यह है कि वे ज्यादा प्रभाव में हैं।
जिन लोगों की भी बहुत महत्वाकांक्षा है, वे मदारियों के प्रभाव में बहुत जल्दी पड़ जाएंगे। क्योंकि मदारियों का दावा यह है कि उनके द्वारा किसी की भी महत्वाकांक्षा पूरी हो सकती है। कोई बीमार हो तो बीमारी ठीक हो सकती है, कोई पद पर न हो तो पद पर पहुंच सकता है, कोई किसी पद पर हो तो उसी पर जमे रहने का उपाय हो सकता है। किसी भी तरह की महत्वाकांक्षा से भरा हुआ व्यक्ति मदारी से प्रभावित होगा।
और भी एक बात है कि जब भी कोई समाज बहुत दरिद्र होगा, दीन होगा, दुखी होगा, तो मदारी बहुत प्रभावी हो जाएंगे। एक और कठिनाई है कि हमें यह भ्रम पैदा होता है कि हमारा राज्यपाल है या हमारा मुख्यमंत्री है या हमारे बहुत बड़े नेता हैं, चूंकि ये किसी दिशा में कोई ऊंचाई पा लिए हैं, इसलिए बाकी दिशाओं में ये साधारण ग्रामीणजन से बहुत आगे बढ़ गए हैं, यह हमें नहीं सोचना चाहिए। एक आदमी राज्यपाल हो सकता है और राज्यपाल की योग्यता का भी हो सकता है। लेकिन उसके पास मस्तिष्क बिलकुल एक साधारण ग्रामीण का हो सकता है, बाकी सब क्षेत्रों में बिलकुल ग्रामीण हो सकता है, जिंदगी के आम मामलों में वह एक साधारण आदमी हो सकता है। लेकिन इससे नुकसान होता है। और इन पदों पर जो लोग हैं उनका कुछ दायित्व है कि वे बहुत सोच-समझ कर कहीं जाएं। क्योंकि उनके जाने से बहुत सा प्रवाह उनके पीछे जाना शुरू हो जाता है। और ये जो मदारी हैं वे पूरी कोशिश करते हैं कि इस तरह के लोग आ जाएं। एक बार इस तरह के लोग आने शुरू हों, तो जनता पीछे से आनी शुरू होती है।
मैं तो अपने दो-एक मित्रों को तैयार कर रहा हूं कि जो-जो साईंबाबा करके दिखाते हैं, उसको मंच पर मैं किसी से भी करवा कर दिखलाना चाहता हूं और सारे मुल्क में घूमना चाहता हूं। मित्र तैयार हो गए हैं। और जल्दी ही आपसे अपेक्षा करूंगा कि आप मुझे सहारा दें कि वे जो-जो करते हैं वह खुली स्टेज पर किसी से भी करवा कर दिखा सकूं और उसका सारा सीक्रेट भी बता सकूं कि यह इस तरह किया जाता है। इसमें कुछ अध्यात्म नहीं है, यह निपट धोखा और शरारत है, इससे ज्यादा कुछ भी नहीं है। लेकिन जब तक यह न किया जाए तब तक हम उसको उखाड़ भी नहीं सकते इस तरह के मामले को।
तो मैं तो सख्त खिलाफ हूं। और आपसे कहना चाहता हूं कि अध्यात्म का मदारीपन से कोई संबंध नहीं है और चमत्कारों से कोई नाता नहीं है। आध्यात्मिक व्यक्ति के जीवन में और तरह के चमत्कार घटित होते हैं, ताबीज के और धूप के और मिठाई निकालने के और अंगूठी निकालने के नहीं। आध्यात्मिक व्यक्ति के जीवन में चमत्कार और ही तरह के घटित होते हैं। अब जैसे जीसस को सूली पर लटकाया जा रहा है और वह आदमी हंस रहा है, यह मिरेकल है और यह एक आध्यात्मिक जीवन का अर्थ रख सकता है। मंसूर को काटा जा रहा है और वह जो काट रहे हैं उनके लिए प्रार्थना कर रहा है--कि भगवान, इनको क्षमा कर देना, क्योंकि ये नहीं जानते ये क्या कर रहे हैं। इसको मैं चमत्कार कहता हूं कि यह चमत्कार है। लेकिन यह कोई ताबीज निकालेगा और कोई मिठाई देगा और यह सब करेगा, यह सब चमत्कार नहीं है।
मेरे साथ एक महिला प्रोफेसर थी कालेज में। छह-सात वर्ष पहले उसने मुझे कहा कि मैं छोड़ कर जाना चाहती हूं और आपसे पूछने आई हूं कि मैं साईंबाबा के साथ ही जाकर जीवन लगा देने की मेरी इच्छा है। तो मेरे इस अध्यात्म में मुझे सफलता मिले, आप मुझे आशीर्वाद दे दें। तो मैंने उनसे कहा कि अगर मेरा वश चले तो मैं तुम्हें आशीर्वाद दूंगा कि तुम्हें इस तरह के अध्यात्म में सफलता न मिल जाए। क्योंकि यह अध्यात्म नहीं है, मदारीपन है। और किसी दिन अगर तुम्हें समझ में आ जाए कि मदारीपन है, तो लौट कर कम से कम मुझे कह देना।
अभी मैं बंबई आया, मीटिंग से बोल कर उतरा, तो उस महिला ने आकर मेरे पैर छुए। तो मैंने पूछा कि कहां हो? क्या है? और तुमने पैर कैसे छुए?
उसने कहा, मैं सिर्फ आपके पैर उस दिन की स्मृति में छूने आई हूं कि जो आपने कहा था वह मैंने अनुभव कर लिया, अब मैं मुसीबत में पड़ गई हूं कि अब मैं क्या करूं? ये ताबीज जो निकलते हैं, सब बाजार से खरीदे जाते हैं। ये अंगूठियां जो आती हैं, सब बाजार से बनती हैं। ये सब बिस्तरों के नीचे छुपी रहती हैं, कपड़ों में छुपी रहती हैं। ये सब जब आंख से देख लिया है, तो अब मैं क्या करूं? अब मैं कहां जाऊं?
ये...अध्यात्म से इसका कोई भी संबंध नहीं है सिवाय इसके कि ये बिलकुल गैर-आध्यात्मिक कृत्य हैं।

आपको मालूम ही होगा कि कन्हैयालाल मुंशी जी भी ये मदारी सत्य साईंबाबा से प्रभावित हो चुके हैं अब तक।

बिलकुल हो जाएंगे। बिलकुल हो जाएंगे। कोई भी बीमार आदमी, बुढ़ापे के करीब, मरने के करीब, कमजोर हो जाता है। चाहे वे मुंशी हों, चाहे कोई और हों।

अब तक मुंशी जी कमजोर तो नहीं  थे...

, मेरा मतलब यह है कि जैसे ही मौत करीब आनी शुरू होती है, बहुत कमजोरियां और बहुत भय पकड़ते हैं।
और मजा यह है कि उनका हाथ कंपता था शायद, वह हाथ कंपना ठीक भी हो सकता है। और इससे चमत्कार का कोई संबंध नहीं है। अगर मैं पहले एक ताबीज निकाल कर बताऊं और आकाश से एक अंगूठी चली आए, तो सामने वाला जो आदमी इन चीजों से इतना प्रभावित हो सकता है कि फिर मैं उसे धूल उठा कर दे दूं और कहूं कि इससे तेरा हाथ ठीक हो जाएगा, तो उसका हाथ का कंपन ठीक हो सकता है। और यह बिलकुल साइकोलॉजिकल मामला है। यह तो सारी दुनिया में, लार्डीज में होता है, वहां के पानी पीने से हो जाता है। पश्चिम में ढेर हीलर्स हैं, जो यह कर देंगे।
लेकिन मैं मानता हूं कि पश्चिम के हीलर फिर भी ईमानदार हैं। वे यह कहते हैं, यह बिलकुल मनोवैज्ञानिक प्रभाव है। और मनोवैज्ञानिक प्रभाव का परिणाम हो सकता है शरीर पर और शरीर ठीक हो सकता है। लेकिन इसमें न कोई अध्यात्म है और न कोई चमत्कार है। इसमें कोई चमत्कार नहीं है। हाथ ठीक भी हो सकता है।
बीमारी मानसिक रूप से पैदा भी की जा सकती है। और चूंकि अब यह सिद्ध होता चला जा रहा है कि सौ में से अस्सी परसेंट बीमारियां किसी न किसी रूप में मानसिक रूप से संबंधित होती हैं। और सौ में से पचास परसेंट बीमारियां तो मानसिक होती हैं। तो जो बीमारी मानसिक है...जैसे मैं आपको उदाहरण के लिए कहूं, दुनिया में जितने सांप होते हैं उनमें सत्तानबे परसेंट सांप में कोई जहर नहीं होता, लेकिन उनका काटा हुआ आदमी मर सकता है। जहर नहीं होता, लेकिन उनका काटा हुआ आदमी मर सकता है। और मर जाता है सिर्फ इसलिए कि उसको सांप ने काट लिया! लेकिन अगर इस आदमी की पूजा-पत्री की जाए, झाड़-फूंक की जाए और इसे किसी तरह विश्वास दिलाया जा सके कि यह ठीक हो जाएगा, तो यह ठीक हो जाएगा।
अब मजे की बात यह है कि पहली उसकी भ्रांति थी मरने की ही, वह जो बीमारी थी वही झूठी थी। सांप में तो जहर था ही नहीं। सिर्फ, सांप ने काटा, इसलिए वह घबड़ा कर मर रहा था। अगर यह घबड़ाहट किसी भी तरह से हटाई जा सके, तो वह आदमी बच जाएगा। बीमारी झूठी थी, झूठा इलाज काम कर जाएगा।
या यह भी हो सकता है कि बीमारी बिलकुल वास्तविक रही हो, लेकिन अगर मन बहुत दृढ़ निश्चय कर ले, और दृढ़ निश्चय करने में यह मदारीगिरी सहायक होती है। क्योंकि अगर मैं पहले दस-पांच ऐसे चमत्कार दिखाऊं जो आपके लिए विश्वास योग्य न हों, और उन पर आपका विश्वास आ जाए। और फिर मैं आपको धूल दे दूं, तो आप उस धूल को जिस विश्वास से ले जा रहे हैं--कि जिस आदमी ने ऐसे चमत्कार किए, उसकी धूल तो सार्थक होने ही वाली है, इस पर अविश्वास का कोई कारण नहीं है--तो यह धूल आटोहिप्नोटिक असर करेगी, इसका सम्मोहक असर होगा, यह फायदा कर सकती है।
लेकिन जरा मुंशी जी से यह पूछना कि हाथ फिर तो नहीं हिलने लगा? जहां तक मुझे किसी ने कहा है कि हाथ फिर हिल रहा है। लेकिन अब ये अखबार वाले खबर नहीं छाप रहे हैं और न मुंशी जी कह रहे हैं। मुझे अभी किसी ने कहा है आकर कि हाथ फिर हिलने लगा है। तो आप जरा मुंशी जी को पता लगाइए कि हाथ अगर फिर हिलने लगा हो, तो अब इसकी अखबार में खबर देनी चाहिए। और अब दुबारा फिर कहना चाहिए कि इसको ठीक करो! और मैं मानता हूं कि दुबारा ठीक करना मुश्किल पड़ जाएगा।
हमारी कठिनाई क्या है, मैं आपको बताऊं। मैं एक गांव में ठहरा हुआ था। घर के बाहर शाम को टहल रहा हूं, एक बगल की खिड़की से एक औरत मुझे झांक रही है बड़ी देर से। फिर वह नीचे आई और एक छोटे बच्चे को लाकर उसने मेरे पैर में लिटा दिया और कहा, आप इसको छू दें। और मुझे पक्का विश्वास है कि यह ठीक हो जाएगा।
उसको डिप्थीरिया हुआ है, वह गला बिलकुल रुंध गया है।
मैंने उससे कहा कि मुझे छूने में कोई हर्जा नहीं। खतरा यही है कि कहीं यह ठीक न हो जाए! क्योंकि अभी यह मर नहीं गया है, यह ठीक हो भी सकता है। मेरे छूने से नहीं; यह मैं न भी छुऊं तो भी ठीक हो सकता है। अभी यह मर तो नहीं गया है। अभी इसके पचास मौके जिंदा रहने के, पचास मौके मरने के हैं। मैं, छूने में मुझे हर्ज नहीं, लेकिन छूने से कहीं अगर यह बच गया, तो खतरा है। क्योंकि तब तुम्हें यह खयाल होगा कि मेरे छूने से बच गया।
वहां भीड़ लग गई। और जिस घर में मैं ठहरा हूं उस घर के लोग भी कहने लगे, आप ऐसी कठोरता की बातें कर रहे हैं! आपको छूने में क्या बिगड़ता है? वह स्त्री रो रही है। वह कह रही है, अगर मेरा बच्चा मरा तो आप ही जिम्मेवार होंगे। आप छू दें।
मैंने घर के लोगों को बहुत समझाया। वे कोई मानने को राजी नहीं। उस बच्चे को छूना पड़ा।
दुबारा जब मैं गया, तो वह मुश्किल हो गई वहां। वहां न कोई आध्यात्मिक जिज्ञासु आया सुनने फिर मुझे। फिर तो वहां लंगड़े-लूले, अंधे, वे सब चले आ रहे हैं कि आप हमको छू दें। वह बच्चा बच गया है।
अगर सौ मरीजों को मैं छुऊं, तो पचास तो बचेंगे ही। मेरे छूने से नहीं! जो नहीं बचेंगे उनकी फिकर करने की जरूरत नहीं, वे कोई प्रचार नहीं करेंगे। जो के.एम.मुंशी ठीक नहीं हुए होंगे, उन्होंने कोई प्रचार नहीं किया है। और जो के.एम.मुंशी ठीक हो गए, वे प्रचार कर रहे हैं। जो बच जाएंगे वे मेरे प्रचारक हो जाएंगे, जो नहीं बचेंगे उनसे कुछ लेना-देना नहीं। धीरे-धीरे मेरे पास भीड़ इकट्ठी हो जाएगी उन लोगों की जिनको फायदा हो गया है। और वे हवा पैदा करेंगे। और वह हवा जारी रहती है।
इसमें कोई न मूल्य है, न कोई अध्यात्म है, न कोई अर्थ है। और जब के.एम.मुंशी जैसे लोग भी इस तरह के मदारीपन के शिकार होते हैं, तो सोचना चाहिए कि इस मुल्क में जिनको हम बुद्धिमान कहें, समझदार कहें, साहित्यकार कहें, उनकी मानसिक स्थिति भी अत्यंत बचकानी है, उनकी मानसिक स्थिति भी कोई बहुत श्रेष्ठ और कुछ ऊंची और वैज्ञानिक नहीं है। उनकी भी सोचने की कोई सामर्थ्य बहुत ज्यादा नहीं है। और इस तरह के लोग शोषण करवाने का अड्डा बनते हैं। और के.एम.मुंशी कह देते हैं, तो फिर न मालूम कितने लोग जो के.एम.मुंशी को समझते हैं कि वे कुछ सोच-विचारशील हैं, वे सोचते हैं कि अब तो सब ठीक ही होगा और सब ठीक हो जाएगा। जब के.एम.मुंशी को हुआ है तो सब ठीक होना ही चाहिए।
लेकिन मैं आपसे पूछता हूं कि आप ले जाएं न दस-पांच मरीजों को, पत्रकार ले जाएं दस-पांच मरीजों को, और ठीक करवा कर देखें कि कितने ठीक होते हैं। और जो ठीक होते हैं वे क्यों ठीक होते हैं, जो ठीक नहीं होते वे क्यों ठीक नहीं होते। और यह भी देखें कि यह मामला कहीं ऐसा तो नहीं है कि आप मेरे पास भी ले आएं तो उतने ठीक हो जाएं; और आप पंखे के पास ले जाएं तो भी उतने ठीक हो जाएं; और आप झाड़ के पास ले जाएं तो भी उतने ठीक हो जाएं। तब फिर कोई मतलब नहीं रहा। यह ठीक होना बिलकुल ही स्वाभाविक हो गया, कुछ तो ठीक होंगे ही। इसीलिए तो होम्योपैथी भी काम करती है, बायोकेमी भी काम करती है, आयुर्वेद भी काम करता है, झाड़-फूंक भी काम करती है, खाली पानी भी काम करता है, मूत्र-चिकित्सा भी काम करती है, दुनिया की सब बेवकूफियां काम करती हैं बीमारी ठीक करने में।
और मजे की बात यह है कि कोई पैथी आप इनकार नहीं कर सकते कि यह काम नहीं करती, सब पैथियां किसी न किसी को ठीक करती हैं। और उसका कुल कारण इतना है कि लोग ठीक होने ही हैं। सौ आदमी बीमार पड़ेंगे तो सौ ही नहीं मर जाने वाले हैं। लोग ठीक होने ही हैं। इसलिए पानी भी दो, तो भी ठीक होंगे। कुछ भी मत दो, राख दो, तो भी ठीक होंगे। फिर जो ठीक हो जाएगा वह प्रचार करेगा। और जो ठीक नहीं हो जाएगा वह आपको भूल जाएगा, वह दूसरे किसी गुरु को खोजेगा जहां ठीक हो सकता है।

आपने भी वह शॉक थैरेपी का प्रयोग चालू कर लिया दिखता है।

बिलकुल, कर ही रहा हूं दिन-रात।

आपने मुंशी जी के बारे में जो कहा, उसमें मुंशी जी ने कहीं पर भी नहीं कहा है। वह सिर्फ उन्होंने जो लिखा है उसमें कहा है कि मैं वहां अविश्वास से गया था और जब उन्होंने वह राख मेरे हाथ पर लगाई, उसके बाद यह हुआ, तो मुझे आश्चर्य हुआ है, वह उन्होंने कहा है। तो वह साइकोलॉजिकल इफेक्ट ऑफ प्योरिंग नहीं है।

हां-हां, बिलकुल ठीक। आप ठीक कहते हैं। मैं आपसे बात करता हूं। आप हैरान होंगे कि माइंड के काम करने के नियम बहुत अजीब हैं। और माइंड के काम करने का एक खास नियम है: लॉ ऑफ रिवर्स इफेक्ट। अगर आप कुए को, पश्चिम में जिस आदमी ने मन की बीमारियों से हजारों लोगों को ठीक किया, अगर उसकी किताबें पढ़ेंगे तो लॉ ऑफ रिवर्स इफेक्ट जैसा एक नियम आपको पता चलेगा--विपरीत परिणाम का नियम।
अगर कोई आदमी यह कह कर जाता है कि मैं बिलकुल अविश्वासी हूं, मुझे कुछ विश्वास नहीं है। तो यह सिर्फ ऊपर के मन का एक हिस्सा कह रहा है और इसके खिलाफ मन का पूरा हिस्सा तैयार हो रहा है--कि नहीं, कुछ होना चाहिए! नहीं, कुछ होना चाहिए! माइंड दो हिस्सों में बंटा हुआ है।
मुंशी जी ऊपर से अपनी बुद्धिमानी से सोच रहे हैं कि मैं खिलाफ हूं। मैं नहीं मानता इन बातों में। लेकिन मुंशी जी का जो अनकांशस है, वह इसके खिलाफ इकट्ठा होता चला जाएगा। और इस बात की ज्यादा संभावना है कि जो आदमी सहज विश्वास से भरा हुआ गया था वह भी शायद ठीक न हो और मुंशी जी ठीक हो जाएं।
आप देखेंगे यह जान कर, एक आदमी साइकिल सीख रहा है, नया-नया साइकिल सीख रहा है। सड़क पर एक पत्थर पड़ा हुआ है। वह आदमी कहता है कि मुझे पत्थर से नहीं टकराना। अब सड़क बहुत बड़ी है, अगर वह निशाना लगा कर भी टकराना चाहे तो पत्थर से टकराना आसान नहीं है सिक्खड़ आदमी के लिए। लेकिन वह कहता है, मुझे पत्थर से नहीं टकराना! और उसके हाथ पत्थर की तरफ मुड़ना शुरू हो गए। और वह कहता है, मुझे पत्थर से बचना है! और पत्थर पर अटेंशन टिक गई उसकी। अब सारी सड़क उसको दिखाई नहीं पड़ती, सिर्फ पत्थर दिखाई पड़ रहा है। और पत्थर से बचने की कोशिश में वह पत्थर से टकराने वाला है।

आचार्य श्री, आपने जो सुबह में बात की, प्रभु के द्वार के बारे में आपने जो कुछ कहा, उस सारे प्रवचन में प्रभु और केंद्र में प्रभु जैसा कोई साइकोलॉजिकल कांसेप्ट, ऐसा कोई भी खयाल जो आपके खयालात में थे, तो आप क्या सहमत हैं? क्योंकि यह बात तो फेथ की है कि प्रभु है और मैं उसको खोजने जाने वाला हूं। और खोजने की प्रोसेस अच्छी है। तो क्या वह हाइपोथेटिकल प्रोसेस है?

नहीं; मैं यह नहीं कह रहा हूं कि प्रभु है; मैं यह कह रहा हूं, जो है उसको मैं प्रभु कहता हूं। मैं यह नहीं कह रहा हूं कि प्रभु है; मैं यह कहता हूं कि जो है, दैट व्हिच इज़, उसको मैं प्रभु कह रहा हूं।
उसको कोई भी नाम दे दें--सत्य कहें, प्रभु कहें, एक्स वाय ज़ेड कुछ भी कहें, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। लेकिन कुछ है जो हमें अज्ञात है और उसको जानना है और जानने के द्वार खोजने हैं। कोई उसे प्रभु कहे, कोई उसे सत्य कहे, इससे मुझे कोई किसी तरह का अस्वीकार नहीं है। मैं यह नहीं कहता कि प्रभु है; मैं यह कहता हूं कि जो है उसे मैं प्रभु का नाम देता हूं। आपको कोई दूसरा नाम देना हो तो नाम देना बिलकुल ही अपने हाथ की बात है, उसमें कोई कठिनाई नहीं है। यह मैं कहता हूं कि जो है वह हमें ज्ञात नहीं है। और उसको खोजने के लिए मार्ग खोजना पड़ेगा, द्वार खोजना पड़ेगा।
तो उसका द्वार क्या हो सकता है?
तो मैं कहता हूं, विश्वास उसका द्वार नहीं हो सकता; विचार उसका द्वार हो सकता है। इसलिए मैं कोई हाइपोथीसिस नहीं बना रहा प्रभु की। मेरे लिए प्रभु का मतलब है: दि टोटेलिटी। कोई एक आदमी कहीं बैठा हुआ, ऐसा कोई प्रभु-परमात्मा नहीं है। लेकिन यह सारा अस्तित्व, यह पूरा एक्झिस्टेंस, यह जो कुछ भी है सब तरफ फैला हुआ, यह सब है और इसका केंद्र होगा, इसके जीवन के मूल-स्रोत होंगे। वे मूल-स्रोत क्या हैं, कहां हैं, कैसे हम उन्हें खोजें, कैसे हम उन्हें जानें--उसकी खोज धर्म है।

यहां पर जो भाषावी अखबार है, उसमें प्रचार किया जाता है कि आपका जो प्रवचन है, आपका जो प्रचार है, उनका उद्देश्य कम्युनिज्म फैलाने का है। और आप लगभग माओ के बराबर हैं। और दूसरा एक आज प्रश्न उठाया गया है, आपको कंपेयर करने का जे.कृष्णमूर्ति से। तो इस बारे में आपका क्या खयाल है?

पहली तो बात यह, मेरी समझ में दुनिया का कोई भी समझदार आदमी--बुद्ध या महावीर या क्राइस्ट से लेकर आज तक--कोई भी समझदार आदमी अनिवार्यरूपेण किसी न किसी तरह का कम्युनिस्ट होगा। कम्युनिज्म का मतलब लेकिन साफ हो जाना चाहिए।
दुनिया के सारे समझदार लोगों की चेष्टा यह चल रही है कि एक ऐसा समाज आ जाए जहां प्रत्येक मनुष्य समानता की स्थिति को उपलब्ध हो जाए। और प्रत्येक व्यक्ति को समान विकास का अवसर उपलब्ध हो जाए। अगर समान विकास के अवसर और मनुष्य की समानता की कोशिश कम्युनिज्म है, तो मैं कम्युनिस्ट हूं। और जो आदमी कम्युनिस्ट नहीं है वह आदमी आदमीयत का दुश्मन है।
लेकिन अगर कोई समझता हो कि माक्र्स के अंधे भक्त, दुनिया पर जबरदस्ती सारी लोकतांत्रिक भावनाओं को कुचल कर तानाशाही थोपने वाले लोग, अगर कोई सोचता हो कि ईश्वर, सत्य, प्रेम और आत्मा की सारी विचारधारा की हत्या कर देने वाले लोग कम्युनिस्ट हैं, तो मैं जितना कम्युनिज्म का विरोधी हो सकता हूं उतना कोई और नहीं हो सकता है। उस स्थिति में मैं कम्युनिस्ट नहीं हूं।
मेरी स्थिति ठीक से समझ लेनी चाहिए। मेरी समझ यह है कि सारे जगत की चिंतना इस दिशा में चल रही है कि हम कैसे एक ऐसा समाज ले आएं जहां मनुष्य मनुष्य से हीन न हो। कोई मनुष्य किसी से हीन न हो। उस दिशा में मैं भी पूरी तरह संलग्न हूं। और यह बात सच है कि मेरे सारे प्रवचनों का अंतिम लक्ष्य निश्चित रूप से यही है कि एक ऐसा समाज बने जहां सारे लोग समान हों।
फिर मेरी यह भी समझ है कि जिस दिन समान समाज होगा, व्यक्तिगत संपत्ति नहीं होगी, तो न केवल भौतिक विकास होगा बल्कि आध्यात्मिक विकास भी होगा। और यहां उन तथाकथित कम्युनिस्टों से मैं बिलकुल ही उलटा हूं। मेरी मान्यता यह है कि दुनिया में धर्म नहीं आ सका, क्योंकि अधिकतम लोग रोटी-रोजी के लिए ही मर जाते हैं, धर्म की खोज कौन करे? जिस दिन दुनिया में समानता होगी और लोग सुखी होंगे और जीवन संपन्न होगा, उस दिन धर्म पैदा हो सकता है, उसके पहले पैदा नहीं हो सकता।
इसलिए मैं यह निरंतर कहता हूं कि बुद्ध या जैनों के चौबीस तीर्थंकर, सब राजाओं के लड़के हैं। राम और कृष्ण, सब राजाओं के लड़के हैं। ये राजपुत्र ही इतनी ऊंचाइयां पा सके जीवन के सत्य की खोज में, उसका कोई कारण है। उसका बुनियादी कारण यह है कि जिस आदमी को संसार का सब भोग देखने को मिल जाता है, उसका चित्त संसार के ऊपर उठने की कोशिश में संलग्न हो जाता है।
यह भी मेरी मान्यता है कि एक गरीब समाज कभी धार्मिक नहीं हो सकता। गरीब समाज बेईमान और बदमाश ही होगा। बच ही नहीं सकता वह, धार्मिक हो नहीं सकता। वह चरित्रहीन ही होगा। गरीब समाज का चरित्रवान होना अत्यंत अस्वाभाविक है, संपन्न समाज ही...। मेरा यह कहना नहीं है कि संपन्न समाज अनिवार्य रूप से धार्मिक होगा। मेरा कहना है, संपन्न समाज धार्मिक हो सकता है। उसके पास अधार्मिक होने की जो संभावना थी वह कम हो गई।
इसलिए हिंदुस्तान भी जिन दिनों धार्मिक था, वे हिंदुस्तान के इतिहास में संपन्नता के दिन थे। आज अमेरिका की संभावना है कि वह धार्मिक हो जाए। और कल रूस की संभावना है कि वह धार्मिक हो जाए। और जिस दिन वे धार्मिक होंगे, उनकी धार्मिकता गरीबी से एस्केप नहीं होगी, एक संपन्न आदमी की खोज होगी। हमारा अगर आदमी मंदिर भी जाता है तो वहां भी रोटी मांग रहा है, वहां भी तनख्वाह मांग रहा है, नौकरी मांग रहा है, लड़की की शादी मांग रहा है। वह मंदिर में भी जो मांग रहा है वह वह है जो संसार में मिल जाना चाहिए था।
तो मेरी दृष्टि में, जिस दिन सारी दुनिया समता को उपलब्ध होगी उस दिन दुनिया में धर्म का एक विस्फोट, एक्सप्लोजन हो जाएगा। और उस एक्सप्लोजन के लिए साम्यवाद जैसी कोई व्यवस्था आ जानी अत्यंत जरूरी है।
लेकिन तथाकथित कम्युनिस्टों से मेरा कोई लेना-देना नहीं। असल में, किसी तरह के इज्म में और वाद में मेरी कोई आस्था नहीं है। और मेरा मानना है कि सब आइडियालॉजी मनुष्य के चिंतन को नुकसान पहुंचाती हैं, क्योंकि उसे बांधती हैं। मैं चाहता हूं मनुष्य का विचार मुक्त हो। और मुक्त विचार जो ठीक समझे वह करे।
तो यह बात थोड़ी दूर तक ठीक है। लेकिन ये सब बचकानी बातें हैं कि मेरे हस्ताक्षर को माओ के हस्ताक्षर से मिलाने की कोशिश की जाए। ये सब बच्चों जैसी बातें हैं। और ये तभी होती हैं जब हमें और कुछ बुद्धिमानीपूर्ण बातें कहने को नहीं सूझतीं, तब फिर इन बचकानी और चाइल्डिश बातों को खोजा जाता है।

तो आचार्य श्री, आप ज्यादा बल दे रहे हैं भौतिक संपन्नता पर, बजाय इसके कि आध्यात्मिक विकास पहले हो!

आध्यात्मिक विकास भौतिक विकास के बाद का चरण है। पहले हो नहीं सकता। व्यक्तिगत रूप से हो सकता है, एकाध आदमी कर सकता है। लेकिन बड़ी कठिन तपश्चर्या से गुजरना पड़े। तपश्चर्या इसीलिए करनी पड़ती है वह, कि वह एक बिलकुल प्रकृति के नियम के प्रतिकूल काम करने की कोशिश कर रहा है। मेरा मानना है कि शरीर पहले है, आत्मा पीछे है। भौतिक पहले है, अध्यात्म पीछे है। और जिसका शरीर अभी अतृप्त है और परेशान और पीड़ित है, वह आत्मा की बात सोच भी नहीं सकता। और जिसके जीवन में अभी भौतिक सुविधा के लिए हम सामान्य इंतजाम नहीं कर पाए, उसके अध्यात्म की बातें अफीम की बातें हैं। वह माक्र्स ने ठीक कहा है। वह सिर्फ दुख को भुलाने के लिए अध्यात्म की बातें कर रहा है।
तो मेरी मान्यता यह है, मेरा जोर है इस बात पर कि भौतिकता की पूर्णता से व्यवस्था होनी चाहिए। लेकिन आप यह मत सोचना कि मेरा लक्ष्य भौतिकता है। जोर मेरा भौतिकवाद पर है और लक्ष्य मेरा अध्यात्मवाद है।

स्वामी विवेकानंद जी ने भी यही कहा था। बहुत पुराने जमाने में उन्होंने यह बात कही है।

जरूर, जरूर। जरूर कही होगी, जरूर कही होगी।

लेकिन आपके रात के प्रवचन से ऐसा मालूम होता है जैसे कि सबसे पहले आप यह बात करने लगे हैं। जैसे कि स्वामी विवेकानंद ने और किसी ने कुछ कहा ही नहीं है। तो आपके अनुसार तो स्वामी विवेकानंद और गांधी जी की मूर्ति का संपूर्ण भंजन होना चाहिए...

मैं समझा। मैं क्यों ऐसा कर रहा हूं? हो सकता है कोई बात जो मैं कह रहा हूं वह विवेकानंद ने कही हो। लेकिन मेरा दिमाग विवेकानंद से बिलकुल भिन्न दिमाग है, उसका संदर्भ अलग है। और इसलिए जब मैं अगर कोई बात कह रहा हूं वह गांधी ने भी कही हो, यह हो सकता है, लेकिन मेरा दिमाग बिलकुल अलग है, संदर्भ अलग है। कोई एकाध टुकड़े में कोई बात मेल खा सकती है। लेकिन मैं विवेकानंद का नाम इसलिए नहीं ले सकता हूं कि विवेकानंद का नाम लेते ही से ऐसा भ्रम पैदा होगा कि जैसे विवेकानंद से कोई सहमति है मेरी। विवेकानंद से मेरी सहमति नहीं है अनेक मामलों में। इस मामले में भी बहुत दूर तक नहीं है।
जैसे विवेकानंद दरिद्रनारायण कहते हैं, मैं इसको निपट नासमझी समझता हूं। दरिद्र को किसी तरह का सम्मान देना दरिद्रता को सम्मान देना है। दरिद्र को कोई सम्मान की जरूरत नहीं है दुनिया में। दरिद्रता मिटनी चाहिए, जैसे बीमारी मिटनी चाहिए। और जब हम दरिद्रता को घृणा करेंगे तो ही दरिद्रता मिटने वाली है, नहीं तो नहीं मिटने वाली।
लेकिन हिंदुस्तान की एक परंपरा है, वह दरिद्र को सम्मान दे रही है। और दरिद्र को सम्मान देने से दरिद्र को भी अच्छा लगता है। दरिद्रता नहीं मिटती, लेकिन उसको राहत मिलती है। उसको लगता है कि दरिद्र होना भी कोई बड़ी खूबी की बात है।
दरिद्र होना निपट गंवारी की बात है। और हम दरिद्र हैं इसलिए कि विवेकानंद जैसे व्यक्ति...

दे हैव नॉट ग्लोरीफाइड दि पावर्टी। यू आर मिसरिप्रेजेंटिंग आल दीज पर्सन्स। आई एम वेरी मच श्योर दैट विवेकानंद हैज नॉट ग्लोरीफाइड दि पावर्टी।

देखिए मैं आपसे बात करता हूं। विवेकानंद या उस तरह के सारे लोग, जो लोग भी स्वेच्छा से दरिद्रता को वरण करने में कोई गौरव मानते हैं, वे दरिद्रता को ग्लोरीफाई करते ही हैं। आखिर विवेकानंद एक भिखारी की तरह खड़े हुए हैं। और वह जो भारत की पुरानी परंपरा है भिखारी को बहुत आदर देने की, सम्मान देने की; भिक्षु को आदर देने की, सम्मान देने की; वे उसी के हिस्से हैं।
हालांकि विवेकानंद अमेरिका से बहुत कुछ सीख कर लौटे, और उसमें से एक सीख यह भी थी कि दरिद्र होना कोई सम्मान की बात नहीं है। लेकिन हिंदुस्तान से जाते वक्त विवेकानंद के मन में ये सब बातें नहीं थीं। यह अमेरिका से विवेकानंद सीख कर लौटे कि संपन्नता भी धर्म की तरफ जाने का मार्ग हो सकती है। यह तो हमने बहुत चिल्लाया कि विवेकानंद ने अमेरिका को बहुत सिखाया। अमेरिका ने विवेकानंद को कितना सिखाया, उसका कोई हिसाब हमने नहीं रखा। अमेरिका से विवेकानंद के आने के बाद विवेकानंद बिलकुल दूसरे आदमी हैं। और इसलिए बंगाल में विवेकानंद को जो सम्मान मिलना चाहिए था वह दो-चार दिन में खतम हो गया।
अमेरिका से विवेकानंद निवेदिता को साथ लेकर चले आए। हिंदुस्तान का कोई संन्यासी कभी स्त्री को साथ लेकर खड़ा नहीं हुआ था। आते से ही बंगाल में तकलीफ शुरू हो गई। अमेरिका में विवेकानंद को जाकर पता चला कि स्त्री और पुरुष के बीच का इतना फासला अधार्मिक है, गैर-आध्यात्मिक है। यह अमेरिका से सीख कर वे लौटे। और हिंदुस्तान में स्त्री-पुरुष का इतना फासला सेक्सुअलिटी का सबूत है। यह भी अमेरिका से सीख कर लौटे। लेकिन इधर आकर जब हिंदुस्तान में खड़े हुए तो तकलीफ शुरू हुई।
आपको पता होगा कि सिस्टर निवेदिता को आश्रम छोड़ देना पड़ा। विवेकानंद के मरने के बाद उसको आर्डर छोड़ देना पड़ा। उसको अलग कर दिया गया आर्डर से। उसको अलग हट कर रहना पड़ा, दूसरी जगह खड़े होना पड़ा।
ये जो अमेरिका से जो-जो विवेकानंद सीख कर आए थे, उसकी कोई चर्चा भारत में नहीं होती। क्योंकि हमको तो यह भ्रम है कि हम हर चीज में जगतगुरु हैं, हम कहीं किसी से कुछ सीखते हैं? उसमें एक सीख कर वे यह भी बात आए थे कि संपन्न देश ही धार्मिक हो सकता है।
लेकिन मेरा जो कहना है, मेरा कहना विवेकानंद से बुनियादी भिन्न है। इसलिए मैं किसी की बात नहीं कहता। और जो आपको यह खयाल पैदा होता है कि जैसे मैं ही पहली दफे कह रहा हूं। कुछ बातें निरंतर बार-बार कही जाती हैं, लेकिन फिर भी चूंकि संदर्भ बदल जाता है, इसलिए वे हर बार नई दफे कही जाती हैं। उनको दुबारा कहा ही नहीं जा सकता।

आचार्य श्री, आपने सभ्यता के एक गलत और भ्रांतिपूर्ण पहलू को पेश किया है, इस मायने में कि इस देश ने गरीबी, दरिद्रता को नहीं, बल्कि त्याग को हमेशा आदर दिया है। अगर राम ने चौदह साल तक राज्य छोड़ा, तो क्या समझते हैं उनको, यह त्याग की रिस्पेक्ट हुई, न कि गरीबी की।

समझा। ठीक है, इसकी बात करें, इसको समझ लें। बहुत बारीक है। और बारीक है इसलिए दिखाई नहीं पड़ती। कि सिर्फ गरीब कौम ही त्याग का आदर करती है। बारीक है, इसलिए दिखाई नहीं पड़ती।

भारत तो संपन्न देश रहा है!

नहीं, संपन्न कुछ वर्ग था भारत का। भारत पूरा कभी संपन्न नहीं था, भारत का कुछ वर्ग संपन्न था। उस संपन्न वर्ग से धार्मिक लोग पैदा हुए। उस संपन्न वर्ग से धर्म की चर्चा भी चली। भारत कभी संपन्न नहीं था। समाज की तरह कभी संपन्न नहीं था। लेकिन हां, भारत दरिद्रता में तृप्त था। इसलिए कभी दरिद्रता के प्रति विद्रोह पैदा नहीं हुआ। इससे आप यह मत समझ लेना कि भारत संपन्न था। भारत तो अपनी दरिद्रता में अभी भी तृप्त होता अगर पश्चिम का संपर्क नहीं आता। भारत के दरिद्र को अभी भी कोई चिंता नहीं थी। लेकिन पश्चिम के संपर्क ने बेचैनी पैदा कर दी। और दरिद्र को यह खयाल पैदा कर दिया कि दरिद्र होना समाज की व्यवस्था का परिणाम है। कोई दरिद्र होना अनिवार्यता नहीं है। लेकिन भारत के संपन्न लोगों ने दरिद्र को यह समझाया था कि दरिद्र होना तो तेरे अपने पापों का फल है, दरिद्र होना तेरी मजबूरी है, दरिद्र तुझे होना पड़ेगा।
भारत तो दरिद्र था; कुछ लोगों को छोड़ कर, भारत हमेशा दरिद्र रहा।
जहां भी देश दरिद्र होगा, वहां त्याग का सम्मान होगा। क्यों होगा? त्याग का सम्मान इसलिए होगा, त्याग का मतलब है: कोई अमीर आदमी दरिद्र बनता है। और जब कोई राजपुत्र--महावीर या बुद्ध जैसा राजपुत्र--दरिद्र बने, तो सारे दरिद्र ग्लोरीफाई होते हैं। वे कहते हैं कि देखो, दरिद्रता कितनी अदभुत है कि राजपुत्र को भी दरिद्र होना पड़ता है! और वे सारे दरिद्र उस राजपुत्र को आदर देते हैं कि वह भिखारी हो गया, कितना महान कार्य किया है उसने! क्योंकि दरिद्रों को इससे तृप्ति मिलती है।
और राजपुत्र क्यों दरिद्र होता है?
मेरा अपना मानना यह है कि जिसके पास भी संपत्ति के सब सुख उपलब्ध हो जाएंगे वह उनसे ऊब जाएगा और उनसे छुटकारा पाने की कोशिश करेगा। अमीर आदमी की जो लास्ट लग्जरी है, वह दरिद्र होने का मजा लेना है। लेकिन दरिद्र आदमी को यह पता नहीं चल सकता। यह दरिद्र आदमी को पता नहीं चल सकता।
जो आदमी पैदल चल रहा है, वह नहीं समझ सकता कि जो अमीर एक मिनट पैदल नहीं चलता, उसको पैदल चलने में कैसा मजा आता है। जो आदमी भूखा मर रहा है अकाल में, उसको पता भी नहीं कि अमेरिका में सैकड़ों कल्ट चल रही हैं उपवास की। ओवरफेड लोग हैं। जब भी कोई कौम ओवरफेड हो जाएगी, उपवास का सिद्धांत जारी हो जाएगा। क्योंकि उनको बड़ा मजा आएगा एक दो-चार-दस दिन उपवासे रहने में। एक गरीब आदमी को कहो कि तू तो बड़े मजे में है, भूखा मर रहा है। तू तो बड़े मजे में है, उपवास करना पड़ता है खाने वाले को! तू तो पहले से ही उपवास कर रहा है, भगवान की तेरे पर बड़ी कृपा है। तो दरिद्र को समझ नहीं पड़ेगी यह बात। लेकिन दरिद्र भी उपवास का आदर करेगा। जब भी समाज दरिद्र होगा तो त्याग का आदर होगा।
मेरी अपनी समझ यह है कि एक गरीबी वह है जो अमीर आदमी वरण करता है। वह आखिरी अमीरी है। और उस अमीरी को गरीब समझता है कि यह मेरी गरीबी की प्रशंसा हुई। और गरीब बड़ा प्रसन्न होता है, और गरीब बड़ा आदर देता है। गरीब की अमीर के प्रतिर् ईष्या है और त्यागी के प्रति सम्मान है। वह उसीर् ईष्या का दूसरा पहलू है। गरीबर् ईष्यालु है, दूसरे के पास जो है उसके कारण। जब दूसरा उसको छोड़ देता है तो वह आदर देता है उसे। जब एक गरीब आदमी देखता है कि कोई धनपति, आकाश से, हवाई जहाज से चलने वाला पैदल चलता है, तो उसे पता चलता है कि पैदल चलने में हम भी गौरवान्वित हो रहे हैं।
दुनिया जिस दिन संपन्न हो जाएगी, उस दिन त्याग का कोई मूल्य नहीं रह जाएगा। त्याग गरीबी के ही हिस्से का परिणाम है।
तो आप कहते हैं, सूक्ष्म बात है।

आप ही के तर्क  की बुनियाद को लेकर अगर हम चलें, तो आज अमेरिका में समाजशास्त्री विश्लेषण के बाद यह निष्कर्ष निकला है कि वहां इतनी संपन्नता के बावजूद भी इक्कीस-बाईस साल के नौजवानों में जो बेचैनी, विक्षिप्तता, निराशा आ गई है समाज के प्रति वह क्या...

मैं समझा, मैं बताऊं आपको। अमेरिका में जो बेचैनी है युवकों के दिल में, वह एक धार्मिक युग के प्रारंभ की शुरुआत है। ऐसा कभी भी नहीं हुआ था दुनिया में। ऐसी बेचैनी होती थी, लेकिन किसी-किसी घर में होती थी। बुद्ध जो हैं या महावीर जो हैं, ऐसे लोगों को बेचैनी होती थी। सब इनके पास था। सुंदर से सुंदर स्त्रियां इकट्ठी कर रखी थीं। बिहार में जितनी सुंदर स्त्रियां हो सकती थीं, एक-एक घर में कैद थीं। सारी सुंदर लड़कियां थीं, सारा धन था, सब वैभव था। जब यह सब मिल जाता है तो बेचैनी होती है--अब क्या? परेशानी होती है--अब क्या करें? यह कभी-कभी एकाध बड़े परिवार के लोगों को होती रही।
अमेरिका उस जगह पहुंच गया है जहां करोड़ों परिवार उस हालत में आ गए हैं जहां बुद्ध और महावीर का परिवार रहा हो। यह पहली दफे घटना घटी है कि एक पूरा समाज एफल्युएंट हो गया है। अब तक संपन्न परिवार हुए थे, संपन्न समाज नहीं था। अमेरिका में मनुष्य-जाति के इतिहास का बिलकुल नया अध्याय शुरू हो रहा है। एक बहुत बड़ा वर्ग संपन्न हो गया है, जो इस हालत में है कि पूछ सके कि अब क्या?
तो उनके बच्चे बेचैन हो गए हैं। और उनके बच्चे एक संक्रमण से गुजरेंगे। उनके बच्चे सब उपद्रव करेंगे। शराब पीएंगे, मेस्कलीन लेंगे, लिसर्जिक एसिड लेंगे, नाचेंगे, विवाह तोड़ेंगे, सेक्सुअलिटी की आर्गीज में उतर जाएंगे, वे यह सब करेंगे। और तब यह सवाल और गहरा हो जाएगा--अब क्या? अब क्या? और इस 'अब क्या?' से वह स्थिति पैदा होगी जो धर्म को जन्म देती है। अमेरिका वहां खड़ा है जहां पचास सालों में धर्म के एक बहुत बड़े पुनरुत्थान की संभावना है।
आप वहां नहीं खड़े हैं। इसलिए आप बहुत खुश मत होना कि आपके बच्चे उस तरह बेचैन नहीं हैं। वह बच्चों की बेचैनी एक सौभाग्य का लक्षण है। वह आने वाली एक अदभुत क्रांति के पूर्व की रेस्टलेसनेस है। वह बहुत अदभुत है। जिस दिन हमारे बच्चे भी हिप्पी और बीटल और बीटनिक होने की स्थिति में पहुंचेंगे, उस दिन सौभाग्य की बात है! हिप्पी और बीटल की प्रशंसा नहीं कर रहा हूं। वह आने वाले परिवर्तन का प्रारंभिक चरण है। उपद्रव है वह पहला। जो होगा। और बिलकुल जरूरी है।

और इसके पहले आर्थिक तरक्की जरूरी है?

एकदम जरूरी है, एकदम जरूरी है। और इसलिए मैं त्याग-व्याग का पक्षपाती नहीं हूं। क्योंकि त्यागवादी कभी आर्थिक तरक्की में विश्वास नहीं करते।
सो यू आर फॉर एन आर्गनाइज्ड मूवमेंट फॉर दि इकोनॉमिक बेटरमेंट ऑफ मैन? बिकाज यू हैव डिक्लेयर्ड योरसेल्फ अगेंस्ट आल दि आर्गनाइज्ड मूवमेंट्स। सो डू यू प्रपोज ए मूवमेंट फॉर इकोनॉमिक रि-जेनेरेशन ऑर रिबेलियन फॉर इकोनॉमिक रि-जेनेरेशन? आई सपोज यू डू दैट।

मैं आर्गनाइज्ड मूवमेंट के खिलाफ हूं, मूवमेंट के खिलाफ नहीं हूं। और जब भी कोई मूवमेंट आर्गनाइज्ड होता है तब वह मूवमेंट नहीं रह जाता, वेस्टेड इंट्रेस्ट हो जाता है फौरन। मूवमेंट होना चाहिए। सारे मुल्क के चित्त में एक लहर होनी चाहिए, एक आंदोलन होना चाहिए। उस आंदोलन से चीजें निकलनी चाहिए।
लेकिन जैसे ही आर्गनाइज्ड हुआ, वैसे ही एक छोटा सेक्शन का हिस्सा हो जाता है बंधा हुआ। और एक माइनारिटी पूरी मेजारिटी पर अपने को थोपने की कोशिश करती है। जब भी कोई मूवमेंट आर्गनाइज्ड होगा, तो आर्गनाइज्ड होने से माइनारिटी का हो जाएगा और मेजारिटी पर अपने को थोपने की कोशिश करेगा। तब वायलेंस पैदा होगी। क्योंकि माइनारिटी जब भी मेजारिटी को जबरदस्ती बदलने की कोशिश करेगी तो वायलेंस अनिवार्य हो जाएगी।
मेरी मान्यता यह है कि मूवमेंट डिफ्यूज्ड होना चाहिए, फैलना चाहिए। विचार-विचार में गहरा हो जाना चाहिए। और जब पूरा मुल्क एक विचार को राजी हो जाए, तो बिना किसी बहुत आर्गनाइजेशन के चीजें ऐसे बदल जाती हैं...

विकेंद्रित समाज रचना और विकेंद्रित समाज...

नहीं, विकेंद्रित समाज रचना से नहीं, विकेंद्रित समाज आंदोलन। इन दोनों बातों में फर्क है।

यह बात विनोबा जी ने और जयप्रकाश जी ने कही है, तो आप इसका समर्थन करेंगे?

न-न, मैं किसी का नाम लेकर समर्थन नहीं करता। क्योंकि उससे और पच्चीस बातें वे कह रहे हैं, जिनका मैं जानी दुश्मन हूं। मैं किसी का नाम लेकर समर्थन नहीं करता हूं।

आचार्य श्री, यू हैव बीन टाकिंग ऑफ टोटेलिटी। एंड एनी फॉर्म ऑफ टोटेलिटी इज़ एन आर्गनाइज्ड मूवमेंट। तो आप यह जो कहते हैं यह कंट्राडिक्शन इन टर्म्स है। व्हेन यू से यू हैव ए मूवमेंट, एंड नो आर्गनाइजेशन।

हां-हां, जरूर कंट्राडिक्शन है।

यू टाक ऑफ टोटेलिटी। यू कांट हैव डिफ्यूज्ड मूवमेंट एट दि सेम टाइम। यह जो डिफ्यूज्ड मूवमेंट है इसको एक सूत्र  में बांधने की कोशिश कैसे करेंगे आप?

इसे थोड़ा सोचें। असल में, आर्गनाइजेशन का मतलब क्या होता है? आर्गनाइजेशन का मतलब यह होता है कि एक विचार के लोग, एक समाज की रचना लाने की कल्पना करने वाले लोग इकट्ठे हो जाएं। ये इकट्ठे होकर एक आइडियालॉजी के पैटर्न को समाज के ऊपर बिठाने की कोशिश करें।
मेरा मानना यह है कि समाज के ऊपर कोई बहुत फिक्स्ड पैटर्न बिठालना खतरनाक है। क्योंकि समाज रोज आगे बढ़ जाता है; फिक्स्ड पैटर्न हमेशा पीछे पड़ जाता है। वह ऐसे ही जैसे एक बच्चे को हमने पाजामा पहना दिया। अब बच्चा तो रोज आगे बढ़ता चला जाता है, पाजामा रोज छोटा पड़ता चला जाता है। रोज जरूरत होती है कि पाजामा बड़ा हो। लेकिन वे जो पाजामे के आर्गनाइज करने वाले लोग थे, वे कहते हैं कि यही पाजामा हमने तय किया था, इसी पाजामे को पहनाए रखना है। बच्चा बड़ा होता है, पाजामा छोटा पड़ जाता है।
सब आर्गनाइजेशन, जितने ज्यादा आर्गनाइज्ड होंगे, उतने ही ज्यादा फिक्स्ड और डेड हो जाते हैं। एक फ्लूडिटी चाहिए। और फ्लूडिटी का मतलब यह है कि--इसलिए मैं कहता हूं मूवमेंट, आर्गनाइजेशन नहीं। मूवमेंट चाहिए। हालांकि...

देअर मे बी मेनी मूवमेंट्स एंड पीपुल विल एक्सेप्ट दि मूवमेंट दैट दे वुड लाइक। आर नॉट यू अफ्रेड ऑफ दिस आउटकम?

, , न। मैं नहीं हूं अफ्रेड, मैं नहीं हूं अफ्रेड। जो मुझे गलत दिखता है वह मैं कह रहा हूं। अगर लोगों को वही ठीक लगता है तो वे करेंगे। यह सवाल नहीं है।

आपकी जो बात है डिफ्यूज्ड मूवमेंट की, इट विल क्रिएट केऑस!

हां, मैं यह चाहता हूं। और मैं यह कहता हूं आपसे कि चूंकि अब तक मनुष्य-समाज ने केऑस पैदा करने की हिम्मत नहीं की इसलिए मनुष्य-समाज पैदा नहीं हो सका। केऑस की हिम्मत चाहिए। क्योंकि आउट ऑफ केऑस क्रिएशन इज़ बॉर्न। मेरी अपनी दृष्टि यह है।
तो मैं तो चाहता हूं कि इस मुल्क का दिमाग एक बार केऑटिक हो जाए। केऑटिक होने का मतलब है: सोचने वाला। केऑटिक होने का मतलब है: संदेह करने वाला। केऑटिक होने का मतलब है: प्रश्न पूछने वाला। और जो सारे फिक्स्ड पैटर्न हैं हजारों साल के वे सब ढीले पड़ जाएं, एक लूजनेस आ जाए। और हम सोचने लगें, और एक गति आ जाए, और एक बहाव आ जाए।

लेकिन उसके बाद क्या होगा?

उसके बाद की चिंता नहीं इसलिए मैं करता हूं, नहीं इसलिए करता हूं कि सोच-विचारशील समाज निरंतर चीजों को फेस करता है और उनके सॉल्युशंस निकालता है। सॉल्युशंस फिक्स्ड देने की कोई जरूरत नहीं है। दो रास्ते हैं। या तो हम आपको बताएं कि बाएं जाएं और दस कदम चल कर ग्यारहवें कदम पर दाएं मुड़ें, वहीं दरवाजा है। एक तो रास्ता यह है। दूसरा रास्ता यह है कि हम आपको आंख से देखने की कला सिखाएं और कहें कि आप देखें! और जहां रास्ता आपको मिले, आप उससे निकलें। रास्ता और दरवाजा आपकी खुली आंख से दिखाई पड़ेगा।
मनःस्थिति अब तक जो रही दुनिया में वह यह थी कि हम लोगों को फिक्स्ड फार्मूला दे दें। आर्गनाइज्ड रिलीजन दे दें। आर्गनाइज्ड पार्टी दे दें। और लोगों को एक आइडियालॉजी दे दें, जिससे वे चलें। लेकिन लोगों को एक मस्तिष्क न दे दें जिससे कि वे सोचें और चलें। इन दोनों में फर्क है। तो मेरी जो चेष्टा है वह यह है कि आपके पास सोचने वाला, हमारे पास सोचने वाला मस्तिष्क हो। समस्याएं आएंगी, हम फेस करेंगे, और जो हल निकलेगा वह हम जीएंगे। लेकिन हम कोई फिक्स्ड सॉल्युशन पहले से लेकर चलते नहीं। और हम तय करके नहीं चलते कि यह रेडीमेड आंसर हमारे पास है और हम हर समस्या में इसको लागू करेंगे।
अब तक वही हुआ। मुसलमान के पास रेडीमेड आंसर है; हिंदू के पास रेडीमेड आंसर है; कम्युनिस्ट के पास रेडीमेड आंसर है; सबके पास रेडीमेड आंसर है। वह आंसर हमेशा पीछे पड़ जाता है, जिंदगी रोज बदल जाती है। इसलिए हमारे पास नये सत्य को, नई समस्या को देखने वाला चित्त चाहिए, माइंड चाहिए। और वह एक मूवमेंट होगा, वह एक गति होगी, वह एक फिक्स्ड चीज नहीं हो सकती। लेकिन अब तक यही हुआ है।
और आप जो कहते हैं वह भी ठीक कहते हैं कि यह बात करनी बहुत कठिन है। असल में, जो भी सही है उसे करना हमेशा कठिन है।

आपके आस-पास ही चालू हो गया है मूवमेंट। यू योरसेल्फ हैज क्रिएटेड ए मूवमेंट--एन आर्गनाइज्ड मूवमेंट--जीवन जागृति केंद्र ऑर समथिंग लाइक दैट!

जरा भी नहीं। वह मूवमेंट भी नहीं है और आर्गनाइज्ड भी नहीं है, दोनों बातें नहीं हैं।

इट इज़ आर्गनाइज्ड!

, आप जरा देखिए न। इसको थोड़ा समझें कि वह कैसे आर्गनाइज्ड नहीं है।

आप चाहते नहीं हैं, लेकिन वे तो आपके चेले ही बन रहे हैं!

वह उनकी गलती होगी। और नासमझी जैसे ही समझ में आएगी, भाग जाएंगे। रोज बहुत से भाग जाते हैं। मैं किसी का गुरु नहीं हूं, इतना तय है। कोई मेरा चेला बना हो, वह उसकी गलती है। और मैं उसको डिसइल्यूजन करने की पूरी चेष्टा करता रहूंगा। अब कोई बिलकुल ही अंधा हो तो बात अलग है।
मेरा कोई आर्गनाइज्ड मूवमेंट नहीं है। न मैं उसका पक्षपाती हूं। वह जो भी है बिलकुल ही एक जिसको कामचलाऊ इंस्टीटयूशन कहें, कि वे किताब छाप लेते हैं, किताब बेच देते हैं, किताब पहुंचा देते हैं, इससे ज्यादा कोई मूल्य नहीं है।

तो पोलिटिकल प्रॉब्लम्स के बारे में भी ऐसा ही कुछ  करना तो पड़ेगा न!

इंस्टीटयूशंस होंगी। मैं मानता हूं कि इंस्टीटयूशंस होंगी। इंस्टीटयूशन अलग बात है, आर्गनाइजेशन अलग बात है। रेलवे है, वह एक इंस्टीटयूशन है। वह कोई आर्गनाइजेशन नहीं है। पोस्ट आफिस है...

जो लोग आपको श्रद्धा से देख कर...

वे बड़ी गलती में हैं, वे बड़ी गलती में हैं। क्योंकि मैं सब तरह की श्रद्धा उखाड़ने का पक्षपाती हूं। अब यह उनकी भूल है। और पुरानी आदत की वजह से भूल है। वे जिन गुरुओं के पास पहले रहे, उन्होंने श्रद्धा सिखाई। उसी तरह वे मेरे पास आ गए हैं। ऊपर की बातें मेरी सुनते हैं, लेकिन भीतर का दिमाग वही का वही है। तो मेरा पैर भी छू लेते हैं, मुझे भी गुरु मान लेते हैं। लेकिन मुझे मान नहीं सकेंगे, क्योंकि मैं गुरु गड़बड़ हूं। मैं चौबीस घंटे...बहुत मुश्किल है उनको मानना। बहुत मुश्किल है।

आचार्य  श्री, आपने और धर्मों से तुलना करके यह कहा कि ऐसा चित्त नहीं रहा इस देश में। एक बहुत बड़े ऐतिहासिक तथ्य को आप नजरअंदाज कर गए। इस मायने में कि एको, द्वितीयो नास्ति का जो रूप चला था, आज भी इतना वैविध्य है इस देश के चेतन में कि तैंतीस करोड़ देवता हैं। जब कि एक किताब, एक पैगंबर; एक बाइबिल, एक क्राइस्ट पर विश्वास करने वाले एक ही रास्ते पर चले। इस देश में आप राम के उपासक भी पाएंगे, कोई विष्णु का उपासक है। राम के भी निराकार और साकार वगैरह। तो इस देश में तो हमेशा आजादी रही सोचने की।

इसे थोड़ा समझिए, इसे थोड़ा समझिए। इस देश में सोचने की आजादी नहीं रही, बल्कि सोचने के बंधने के लिए  कई कारागृह रहे, एक कारागृह नहीं रहा।
एक गांव में एक जेल है और एक गांव में दस जेल हैं। दस जेल वाला कहता है: हमारे यहां बड़ी आजादी है, आप किसी भी जेल में चले जाइए। उस गांव में आजादी नहीं, उसमें एक ही जेल है।

देखिए तर्क और वाकचातुर्य में अंतर है।

यह तो तय कौन करेगा कि वाकचातुर्य कौन कर रहा है और तर्क कौन कर रहा है? यह कौन तय करेगा?

यह वक्त तय करेगा।

हां, यह तो वक्त तय करेगा। यह जो मैं कह रहा हूं, हिंदुस्तान में भी माइंड वही है, कारागृह बहुत हैं। कारागृह बहुत होने से स्वतंत्रता का भ्रम पैदा होता है। और ऐसा लगता है कि कोई राम को पूज रहा है, कोई कृष्ण को पूज रहा है, कोई बुद्ध को, कोई महावीर को, इसलिए बहुत पूजा है, इसलिए बड़ी स्वतंत्रता है।
लेकिन वह जो पूजा करने वाले का चित्त है, वह वही का वही है। वह किसको पूज रहा है, यह बिलकुल मीनिंगलेस है। वह पूज रहा है, यही बंधन है। मेरा जो जोर है वह इस पर नहीं है कि आप किसको पूज रहे हैं। मेरा जोर है कि आप पूज रहे हैं। पूजने की जो हमारी वृत्ति है, वह वृत्ति कारागृह पैदा करती है। कितने कारागृह हैं, यह सवाल नहीं है।

डिफाई करने वाले भी थे। चार्वाक भी थे।

बिलकुल थे। लेकिन इस मुल्क के चित्त में उनको कोई जगह नहीं मिल सकी। आप जो कहते हैं न कि चार्वाक भी थे, वह मैं कहता हूं।

दि फैक्ट दैट दीज पीपुल वर अलाउड टु सरवाइव इन दिस कंट्री, इंस्पाइट ऑफ समव्हाट टरमॉयल एंड अपहीवल, शोज दैट....

इस पर थोड़ा बात करें। पहली तो बात यह है कि मैं यह नहीं कह रहा हूं कि हिंदुस्तान में ऐसे कोई लोग ही पैदा नहीं हुए जिन्होंने बगावत की बात न की हो। हिंदुस्तान में ऐसे लोग पैदा हुए। लेकिन कभी भी हिंदुस्तान की मेन करंट वे नहीं बने, न बन सके। और जब उनके नाम को आदर हिंदुस्तान ने दिया, तो उन आदमियों की पूरी शक्ल बदल कर फिर मेन करंट में उनको सम्मिलित किया। नहीं तो वे सम्मिलित नहीं हुए।
जैसे चार्वाक हुआ। लेकिन चार्वाक की चिंतना की इस मुल्क में कोई जड़ें नहीं जम सकीं, इस मुल्क की प्रतिभा में कहीं जड़ें...। अगर हिंदुस्तान में चार्वाक की जड़ें जम गई होतीं, तो जो पश्चिम में आज हो सका वह हिंदुस्तान में तीन हजार साल पहले हो गया होता। इतना सारा विज्ञान हमने पैदा कर लिया होता कभी भी। क्योंकि पश्चिम जो कुछ कर सका वह वहां मैटीरियलिज्म की एक जड़ जम सकी और इसलिए कर सका, नहीं तो कभी नहीं कर सकता था।
हिंदुस्तान में चार्वाक की बात तो ऐसे हट गई कि आज चार्वाक की एक किताब उपलब्ध होनी संभव नहीं है। चार्वाक का एक शास्त्र उपलब्ध नहीं है। चार्वाक के संबंध में जो हम जानते हैं वह चार्वाक के दुश्मनों ने अपनी किताबों में जो गालियां दी हैं उसी के द्वारा जानते हैं। और वह जानना ऐसा ही है कि जैसे मेरे संबंध में आपके गुजराती के अखबार जो कहते हैं, अगर हजार साल बाद बच जाए, और मेरे संबंध में जानने के लिए कुल जमा उतनी ही चीज बच जाए, तो मेरे बाबत जो जानकारी होगी, वही जानकारी चार्वाक के बाबत बाकी रह गई है।
आप मेरा मतलब समझ रहे हैं न?
हिंदुस्तान में बुद्ध ने भी बगावत की है, महावीर ने भी बगावत की है, और आप कहते हैं कि दोनों बच गए। आप थोड़ा सोचिए! बुद्ध की बगावत इतनी बड़ी थी, लेकिन कितने बौद्ध हिंदुस्तान में बच गए? सच्चाई यह है कि हिंदुस्तान को छोड़ कर सब जगह बौद्ध हैं, अगर अंबेदकर के झूठे बौद्धों को छोड़ दिया जाए। हिंदुस्तान को छोड़ कर सब जगह बौद्ध हैं, हिंदुस्तान भर में बौद्ध नहीं हैं। बुद्ध का देश भर बौद्धों से खाली हो गया। कितने बौद्धों की हत्या आपने की है उसका हिसाब रखा है कुछ?

बुद्धिज्म वहां कनवर्ट हो गया है, वहां बुद्धिज्म नहीं है। वहां अब जापान में बुद्धिज्म...

मैं उसकी बात नहीं कर रहा हूं। मैं यह नहीं कह रहा हूं। मैं यह कह रहा हूं कि आपके मुल्क में आप कह रहे हैं कि बच गए। जैनियों की कितनी संख्या है आप सोचते हैं? कितने जैनी बच गए हैं? महावीर और उनके चौबीस तीर्थंकरों की लंबी परंपरा के बाद हिंदुस्तान में जैनियों की कितनी संख्या है? बीस-पच्चीस लाख से ज्यादा उनकी संख्या न होगी। और बीस-पच्चीस लाख जैनी इसलिए नहीं बच सके कि वे जैनी हैं, बल्कि जैनियों ने हर हालत में अपने को हिंदुओं का पूरी तरह एक हिस्सा बना लिया। और इसलिए बच सके। और उनके बच जाने का दूसरा कारण यह है कि जैनियों ने पैसा इकट्ठा किया और पैसे की वजह से बच सके। हिंदुस्तान में जैनियों का बच जाना कोई जैन की क्रांति का बच जाना नहीं है।

हिंदू धर्म एकोमोडेटिव रहा है...

मैं यह कह ही नहीं रहा, हिंदू धर्म के लिए नहीं कह रहा। मैं सिर्फ यह कह रहा हूं कि आप जो यह कहते हैं कि बड़ी कोई स्वतंत्रता रह गई हो, उस भ्रम में मत रहना आप, वैसी कोई स्वतंत्रता कभी नहीं रही है। अभी वैसी स्वतंत्रता होनी चाहिए, इसकी हम चेष्टा करें। और जो लोग कहते हैं कि रही है, वे होनी चाहिए के दुश्मन सिद्ध होते हैं। क्योंकि वे कहते हैं, वह है ही। इसलिए कुछ होनी चाहिए का सवाल नहीं है। मैं जब यह जोर देता हूं कि नहीं रही है, तो मेरा मतलब यह है कि वह रहनी चाहिए, वह होनी चाहिए।
आप हैरान होंगे, पश्चिम में कितनी फिलॉसफीज हैं, आप कोई हिसाब लगा सकते हैं! आप अपनी बातें करते हैं, लेकिन आपकी नौ फिलॉसफीज के बंधे हुए कठघरे हैं। कोई दसवीं फिलॉसफी हिंदुस्तान में पैदा नहीं हुई। और नौ फिलॉसफीज के कठघरे बिलकुल तैयार हैं, उसमें से आप चुनाव कर लें। पश्चिम में कोई कठघरा नहीं है। पश्चिम में जितने फिलॉसफर हैं उतनी फिलॉसफीज हैं। और इसको मैं कहूंगा स्वतंत्रता। इसका अर्थ होगा कि चिंतन मुक्त रहा है। साक्रेटीज का अपना चिंतन है, प्लेटो का अपना है, हाइडेगर का अपना है, या सार्त्र का अपना है। लेकिन हिंदुस्तान में ऐसा मामला नहीं है। यहां मामला तय है। यहां नौ कैटेगरीज बंटी हुई हैं। और उन बंटे हुए में...
अभी भी मुझसे लोग पूछते हैं आकर, कोई पंडित आता है तो मुझसे पूछता है, पहले आप यह बताइए कि आप किस सिस्टम को मानते हैं? क्योंकि यह सवाल ही नहीं है कि कोई सिस्टम के बाहर हो सकता है, नौ सिस्टम में किसी को होना चाहिए। वह न्याय का हो, वैशेषिक का हो, सांख्य का हो, वह किसी का हो, वह सिस्टम में होना चाहिए।
इस देश को स्वतंत्र चिंतन सीखना पड़ेगा। वह अभी रहा नहीं है। हां, कुछ चिनगारियां हमेशा प्रकट हुई हैं। उनको हमने बुझा दिया। हम बुझाने वाले हैं उन चिनगारियों को। और हम आज भी बुझाने की पूरी कोशिश करते हैं। और आप जो कहते हैं...

अगर उन चिनगारियों में कुछ जोर न हो तो वे बुझ जाएंगी खुद ही!

नहीं, इसे समझें। यह जो कहते हैं कि वे चिनगारियां हमने बुझाई नहीं, वे कमजोर थीं इसलिए बुझ गईं। वे अभी तक बुझी नहीं हैं। तुमने राख डाली है, वे कमजोर होतीं तो खतम हो गई होतीं। वे खतम नहीं हो गई हैं, वे चिनगारियां तो हैं। लेकिन तुमने राख डाली है। भीड़ ने राख डाली है। वे दबी हुई पड़ी हैं। और किसी भी दिन कोई उघाड़े तो हिंदुस्तान का चार्वाक फिर जिंदा हो जाएगा, हिंदुस्तान का बुद्ध फिर जिंदा हो जाएगा। वह हिंदुस्तान की क्रांति फिर जिंदा हो सकती है।
भीड़ ज्यादा से ज्यादा जो कर सकती है, बुझाने का मतलब बुझाना नहीं होता। बुझाने का कुल मतलब इतना होता है कि भीड़ उस पर राख डाल सकती है। और राख बहुत बुरी तरह डाली है। उसको आज खोजना भी मुश्किल है।
तंत्र ने इतना काम किया हिंदुस्तान में, लेकिन हमको सेक्स के बाबत फ्रायड से सीखना पड़ रहा है। इससे ज्यादा दुखद कुछ नहीं हो सकता। फ्रायड बच्चा है हिंदुस्तान के तांत्रिकों के मुकाबले। और तांत्रिकों ने जो सूत्र आज से दो हजार साल पहले खोज लिए, वह हमको फ्रायड से, उसकी पाठशाला में जाकर...हिंदुस्तान में अब किसी को मनोविज्ञान सीखना हो तो जर्मनी जा रहा है, अमेरिका जा रहा है। और ये सारे मनोविज्ञान के सूत्र दो हजार पहले तांत्रिकों ने खोज लिए। लेकिन हिंदुस्तान की भीड़ ने बिलकुल राख डाल दी उस पर। वह उनका पता लगना मुश्किल हो गया है कि क्या है। किस तरह राख डाली है, इसका हिसाब नहीं है। अब तुम कहोगे कि कैसे?
भोज ने एक लाख तांत्रिकों को मरवाया। अकेले भोज ने एक लाख तांत्रिकों की हत्या की।

पश्चिम में भी प्रोसिक्यूशन हुआ था।

हुआ है, पश्चिम में भी आप जैसे लोग रहे हैं, उन्हीं बुद्धुओं की वजह से तो आगे मामला बढ़ नहीं पाता। हम जैसे लोग रहे हैं, उन्हीं की वजह से तो पश्चिम में भी अटकाव है। लेकिन पश्चिम में इधर पिछले...
आप जो यह कहते हैं कि आप जैसे...

, , न! आप नहीं समझे। मैं जो कह रहा हूं, आपसे नहीं कह रहा हूं। और आप जो सवाल उठा रहे हैं, वह आप ही नहीं उठा रहे हैं, यह जो हमारा माइंड है...जब मैं कह रहा हूं आप, तो आप यह मत सोचना कि आपसे व्यक्तिगत रूप से कह रहा हूं। आपसे क्या कहने का सवाल है! जब मैं आपसे कह रहा हूं, आपसे फिर भी नहीं  कह रहा हूं। यह जो हमारा माइंड रहा है...

अगर आपका कोई  खयाल ऐसा है जिसके साथ हम सहमत नहीं  हैं, वह भी हम रेज करेंगे। यू माइट नॉट  बी यूज्ड टु इट। यू माइट बी यूज्ड टु योर कनफॉरमिस्ट डिसाइपल्स ऑर भक्त...

, , , जरा भी नहीं। मेरा कोई भक्त नहीं है, और मैं आप ही जैसे लोगों से यूज्ड हूं। मेरा कोई भक्त नहीं है।

यू बिलीव इन फ्रीडम ऑफ  थॉट एंड  फ्रीडम ऑफ  एक्शन, सो नेचरली अदर्स हैव दि सेम राइट...

मैं यह मान भी नहीं रहा कि आप जो कह रहे हैं वह कोई आपकी दलील है, यह मैं मान ही नहीं रहा। मैं समझ ही रहा हूं कि कोई जो आप पूछ रहे हैं वह कोई आपका मंतव्य है, ऐसा नहीं मान रहा हूं। और इसलिए जो मैं 'आपका' शब्द उपयोग कर रहा हूं वह आपके लिए कर ही नहीं रहा हूं।
हम जो बात कर रहे हैं वह दो विचार के लिए बात कर रहे हैं। और जब मैं कह रहा हूं आप, तो मैं आपसे कह दूं कि उससे मेरा मतलब है कि वह जो हमारा माइंड है। उसमें मैं सम्मिलित हूं। वह जो भारतीय चित्त है, उसकी मैं बात कर रहा हूं। और आप भी जो सवाल उठा रहे हैं तो वे सवाल आपके नहीं हैं। वे आपके हो भी सकते हैं, नहीं भी हो सकते हैं, इससे कोई सवाल नहीं है। यानी वह इररेलेवेंट है बात, आपका उससे कोई संबंध नहीं है। इसलिए उसको व्यक्तिगत बात नहीं ले लेंगे। जब मैं आपसे बात कर रहा हूं तो आपसे बात करनी पड़ रही है, लेकिन मैं बात कर रहा हूं पूरे भारतीय चित्त की।
वह जो भारतीय चित्त है, वैसा चित्त पश्चिम में भी रहा है। उस चित्त ने वहां भी बाधा डाली है, वह बाधा डाल रहा है। वैसा गुरु वहां भी है, वैसा पोप वहां भी है, वैसा धार्मिक आदमी वहां भी है, वैसा संप्रदाय वहां भी है, वह बाधा डाल रहा है। उसने बाधा पूरी तरह डाली है, जितनी वह डाल सकता था। उस बाधा के बावजूद पश्चिम में काम हुआ है। हमारी बाधा के बावजूद इस देश में काम हो सके, उसके लिए हमको और आपको चेष्टा करनी है कि वह इस देश में भी उसके बावजूद काम हो सके।
और जब आप यह कहते हैं कि आप प्रश्न मुझसे उठा रहे हैं, तो मैं तो चाहता ही हूं, मेरी पूरी चेष्टा ही यह है कि मैं इस तरह की बात करूं कि हजार प्रश्न उठ जाएं। प्रश्न मूल्यवान है, उत्तर की मुझे चिंता नहीं है। कोई मेरा उत्तर आप स्वीकार करें, इसकी तो जरा भी फिक्र नहीं है। क्योंकि मेरा कोई उत्तर नहीं है। और जो भी मैं कह रहा हूं, और उतने जोर से जो कहता हूं, उसके जोर के पीछे भी कारण यह नहीं है कि कोई फालोइंग या कोई भक्त को मुझे खोज लेना है। जोर से कहने का कुल कारण इतना है कि उतना ही आपको उत्तेजित कर सकूं और आप और जोर से पूछ सकें। हम लड़ सकें ठीक से। और वह लड़ाई बिलकुल सीधी हो सके और सिनसियर हो सके। हिंदुस्तान में तो लड़ाई भी सीधी नहीं होती। अगर किसी से लड़ना है, तो लड़ने में भी एक मजा नहीं रह गया, आनंद नहीं रह गया। वह फौरन व्यक्तिगत हो जाती है।

आई थिंक साईंबाबा इज़ डूइंग दि सेम थिंग एज यू आर डूइंग हियर। एम आई राइट?

आप मुझे बताइए क्या कर रहे हैं वे। मुझे पता नहीं क्या कहते हैं आप।

जो उपदेश वे दे रहे हैं, वह आप भी दे रहे हैं। चमत्कार की बात अलग है। आप जो चाहते हैं, वह भी साईंबाबा चाहते हैं। वैचारिक-क्रांति वे भी समझते हैं कि वैचारिक-क्रांति फैलाना चाहता हूं।

नहीं, अगर वैचारिक-क्रांति लाना चाहते हैं तो चमत्कार नहीं दिखा सकते।

आचार्य श्री, एक स्पष्टीकरण। आपने कहा कि बौद्ध और जो कुछ और धर्म हुए हैं, दे वर नेवर अलाउड टु बिकम दि मेन स्ट्रीम, लैटर दे वर मर्ज्ड इन बिगर स्ट्रीम। बाद में ऐसा हुआ। आप शायद एक तथ्य से अवगत जरूर होंगे कि जब राज्य-शक्ति के प्रयोग के द्वारा बौद्ध धर्म का प्रचार हुआ इस देश में, तो उसका जो निराकरण और उन्मूलन किया है, वह आदिशंकर ने शास्त्रार्थ में किया था, न कि शक्ति द्वारा।

तो इस सबको कौन मना कर रहा है? मैं यह नहीं कह रहा हूं कि आप शास्त्रार्थ करने में कमजोर रहे हैं। लेकिन आप शास्त्रार्थ करते रहे हैं, इस मुल्क में डायलाग कभी नहीं हुआ। शास्त्रार्थ का मतलब आप समझते हैं? शास्त्रार्थ का मतलब होता है: शास्त्र का क्या अर्थ है? आप इसको थोड़ा समझ लेना। इस मुल्क में विवाद जो होते रहे हैं, वे यह होते रहे हैं कि गीता की इस पंक्ति का क्या अर्थ है? तुम क्या अर्थ करते हो, हम क्या करते हैं अर्थ, यह झगड़ा है। लेकिन यह झगड़ा नहीं है कि गीता की पंक्ति में सत्य है या नहीं है। यह झगड़ा नहीं है। गीता की पंक्ति का अर्थ क्या है, वेद की पंक्ति का अर्थ क्या है, उपनिषद का अर्थ क्या है।
शंकराचार्य ने शास्त्रार्थ किया हुआ है, लेकिन हिंदुस्तान में वह साक्रेटिक डायलाग पैदा नहीं हो सका। शास्त्रार्थ तो हुआ है। और इन दोनों में बुनियादी फर्क है।

डायलाग इज़ आलवेज इन ए कनवरसेशन इन दिस कंट्री।

न-न, यह सवाल नहीं है। मैं जो कह रहा हूं वह यह कह रहा हूं कि इस मुल्क ने एक बात मान रखी है कि शास्त्रों में सत्य है। अब सवाल जो ज्यादा से ज्यादा रह गया वह यह है कि इंटरप्रिटेशन क्या हो शास्त्र का। तो झगड़ा जो हमारा चला है तीन हजार साल तक वह यह चला है कि शास्त्र का अर्थ क्या है? शास्त्र सत्य है, यह तो ठीक है।

तो उसको डिफाई करने वाले भी हैं।

मैं मना नहीं कर रहा। वह तो मैंने कहा कि डिफाई करने वाले हैं। लेकिन वे हमारी मेन करंट नहीं हैं।

गैलीलियो के जैसे उसको जलाया नहीं गया इधर।

आप गलती में हैं। तो आपको फिर इतिहास का पूरा पता नहीं है। दक्षिण में इतने बौद्ध भिक्षुओं को आग में जलाया है और कड़ाहों में जलाया है, जिसका हिसाब नहीं है। लेकिन कौन झगड़ा उठाए!

इतिहास नहीं मिलता इसका लेकिन।

इसको थोड़ा खोज-बीन करिए। इसको थोड़ा खोज-बीन करिए। इतिहास तो इस मुल्क में ऐसा झूठ है, क्योंकि इतिहास कौन बना रहा है इस मुल्क में? इतिहास कौन बना रहा है? चार्वाक का इतिहास कौन बना रहा है? वह बना रहा है जो चार्वाक का दुश्मन है। यहां इतिहास कौन बना रहा है? यहां इतिहास जो बना रहा है, जो ब्राह्मण और जो...

आप जो कहते हैं यह तो कम्पेरेटिव पिक्चर है।

मैं सिर्फ इतना कह रहा हूं कि हमारे मुल्क का जो इतिहास हम कहते हैं, वह इतिहास इतने असत्यों का भंडार हो गया है...अभी आपने ओक की किताब के बाबत सुना होगा, जिसमें कहा कि ताजमहल राजपूत महल है। यह हमारी कल्पना के ही बाहर है। क्योंकि मुसलमान इतिहास लिख गए। और इतिहास लिख गए और ताजमहल को बना गए कि वह कब्र है मुमताज की।
अब एक आदमी ने इतने तथ्य इकट्ठे किए हैं कि हम सोच ही नहीं सकते थे कि इतने दिन से हमारे स्कूल, कालेज, विश्वविद्यालय और सारे हिस्ट्री के प्रोफेसर्स पढ़ाए चले जा रहे हैं कि ताजमहल कब्र है। और एक आदमी खोज कर सारे तथ्य लाया और वह कहता है, यह कब्र है ही नहीं और ताजमहल बनाया ही नहीं मुमताज के पति ने। और यह तो चार सौ, पांच सौ वर्ष पहले से राजपूत महल था। और उस महल को जबरदस्ती कब्जा करके कब्र बना दिया। और उसको सिर्फ ऊपर थोड़ा-बहुत टीम-टाम कर दी, बदलाहट कर दी और वह हो गया।
अब मजा यह है, ये आज तथ्य पूरे सामने हैं, हिंदुस्तान का कोई ऐतिहासिक उनका विरोध नहीं कर रहा है, लेकिन यूनिवर्सिटीज यही पढ़ाए चली जा रही हैं कि ताजमहल जो है वह मुसलमान महल है।
मजे की बात यह है कि हिंदुस्तान का एक महल मुश्किल से मुसलमान है। हिंदुस्तान के सब महल पुराने हैं और सब पर कब्जा करके उनको कनवर्ट कर दिया गया ऊपर से। हिंदुस्तान की एक मस्जिद मुसलमानों की बनाई हुई नहीं है। सब पुराने मंदिर हैं और मस्जिदें हो गईं। और इतिहास मुसलमानों ने लिखा, इसलिए इतिहास और ही है। अब उस इतिहास को बदलने का प्रॉब्लम हो गया है।
बौद्धों को जिन्होंने नष्ट किया जिन हिंदुओं ने, उन्होंने इतिहास लिखा। नष्ट होने वाला बचा नहीं इतिहास लिखने को। बड़े मजे की बात है कि हिंदुस्तान के इतने बौद्ध अचानक नदारद हो गए! एकदम विलीन हो गए! लेकिन कहीं-कहीं उल्लेख उपलब्ध हैं। लेकिन उन उल्लेखों को कौन इकट्ठा करे? वह हिंदू पंडित बैठा हुआ है, ब्राह्मण बैठा हुआ है सब जगह अड्डा जमाए हुए। उन उल्लेखों को कौन इकट्ठा करे? कौन खोजे?
हिंदुस्तान के तो पूरे इतिहास की, जैसे नेहरू ने किताब लिखी है, वह रि-डिस्कवरी नहीं है इंडिया की। होनी चाहिए अभी। वह बिलकुल ही पुराना ही कथन फिर दोहरा दिया है नेहरू ने, उस किताब का नाम बिलकुल गलत है। हिंदुस्तान का पुनर्आविष्कार होना चाहिए।
तो आप इसका जिक्र क्यों नहीं  करते कि जब प्रियदर्शी, सम्राट अशोक जब प्रियदर्शी बन गया, उसने भी तो ब्राह्मणों पर अत्याचार किया।

बिलकुल किया, वह भारतीय मन का हिस्सा है, कोई अशोक को मैं गैर-भारतीय थोड़े ही मानता हूं, उसको मैं गैर-भारतीय नहीं मानता। बौद्धों ने भी हिंदू जलाए होंगे।

लेकिन, आचार्य  श्री, इस बारे में पर्याप्त तथ्य नहीं मिलते, जो आप कह रहे हैं। यह संभव है कि कभी किसी राजा ने इस देश में संघ शक्ति का प्रयोग कर दमन किया हो। पश्चिम में जरूर हुआ है। क्रिश्चिएंस ने किया, रोमन्स ने किया...

पश्चिम में बहुत हुआ है, बहुत हुआ है। लेकिन ये जो जितने तथ्य आप पश्चिम के दे पाते हैं, इसमें एक बात मैं आपसे कहूं। हमारा एक फायदा है इस मुल्क को कि न हमारे पास साफ इतिहास है और न तथ्य है। जैसे अगर पश्चिम की लड़कियों से अमेरिका में जाकर आज पूछा जाए कि कितनी लड़कियां शादी के पहले सेक्सुअल इंटरकोर्स से गुजरती हैं, तो आंकड़ा उपलब्ध हो जाता है। हिंदुस्तान की लड़कियों से आप पूछ लें, आंकड़ा उपलब्ध नहीं होगा। इसका यह मतलब नहीं है कि लड़कियां नहीं गुजरतीं। लेकिन अमेरिका का आंकड़ा लेकर हिंदुस्तान का संन्यासी चिल्लाएगा कि देखो, अमेरिका में लड़कियों की यह हालत है! हिंदुस्तान की तो लड़कियां बड़ी पवित्र हैं। क्योंकि आंकड़े नहीं हैं सिर्फ इसीलिए?
पश्चिम का इतिहास बहुत साफ-सुथरा है। पश्चिम ने इतिहास लिखा है। हमने इतिहास लिखा ही नहीं सिवाय पुराण के।

पश्चिम गुलाम नहीं रहा न!

गुलाम रहने का सवाल नहीं है, हिस्टारिक माइंड नहीं है हमारे पास। और उसका कारण है। और उसके कारण बहुत गहरे हैं। हिंदुस्तान का मानना यह है कि जो हो रहा है यह तो नाटक है, लीला है, माया है। इसको लिखने की क्या जरूरत है? यह तो कई बार हुआ है और कई बार होगा। राम कई बार पैदा हुए हैं और कई बार पैदा होंगे। तीर्थंकर कई बार पैदा हुए हैं और कई बार पैदा होंगे। यह अनंतकालीन रिपिटीशन है। इसको लिखने की जरूरत क्या है?
पश्चिम के सामने हिस्टारिक सेंस है। और उसकी वजह से इतिहास है।
माई पॉइंट  इज़ दैट वेरिअस फिलॉसफीज एंड वेरिअस रिलीजंस वर एलाउड टु एक्झिस्ट हियर। दिस कुड नॉट बी दि केस इन वेस्ट। मेनली फॉर दि रीजन दैट ओनली क्रिश्चिएनिटी हैज सरवाइव्ड।

समझा मैं, आपकी बात समझा। आपकी बात समझा। यह बात बिलकुल ठीक है कि क्रिश्चिएनिटी ने जो कुछ किया है, वह हमसे कोई पीछे नहीं, हमसे ज्यादा है और आगे है। और जो अनाचार, जो अत्याचार और जो जबरदस्ती उन्होंने की है, वह हमसे ज्यादा है, कम नहीं है। लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि हमने यह सब नहीं किया है। हमारे पास आंकड़े नहीं हैं, इतिहास नहीं है, साफ स्थिति नहीं है।

वुड यू एग्री इफ आई  से दैट योर थिंकिंग इज़ लार्जली इनफ्लुएंस्ड बाइ एम.एन.राय?

इनफ्लुएंस तो जरा भी नहीं, लेकिन एम.एन.राय को मैं पसंद करता हूं और प्रेम करता हूं। बहुत पसंद करता हूं।

दे बेअर विद योर टाइप ऑफ कनविक्शन, व्हाइ डू यू नॉट  ओपनली एडमिट  इट?

नहीं-नहीं, ओपनली एडमिट करने का सवाल नहीं है। एम.एन.राय को मैं पसंद करता हूं। ढेर जगह मेरे विरोध हैं उनसे, ढेर जगह भिन्नता है। यानी वह तो वही की वही बात है। मैं जो कह रहा हूं, मैं यह नहीं कह रहा हूं कि मेरे ऊपर किसी का कोई प्रभाव नहीं है। यह तो असंभव है।

कृष्णमूर्ति के बारे में क्या है?

कृष्णमूर्ति को बहुत प्रेम करता हूं। उनसे बहुत सी बातों में बहुत राजी हूं। बहुत सी बातों में राजी नहीं हूं।

डू यू थिंक दैट दि फिलॉसाफिकल-आइडियालॉजिकल रेवोल्यूशन व्हिच यू वांट  टु इस्टैब्लिश इन अवर कंट्री, कैन बी इस्टैब्लिश्ड बाइ प्लेट फार्म स्पीकिंग?

नहीं।

देन डोंट यू थिंक दैट योर प्लेटफार्म स्पीकिंग ऑर योर जीवन जागृति केंद्र इज़ इन दि वेरी प्रोसेस व्हिच यू आर अपोजिंग एंड डिनाइंग? दि वेरी प्रोसेस ऑफ मेकिंग ए रिलीजन? दि वेरी प्रोसेस ऑफ आर्गनाइजेशन?

नहीं, कोई आर्गनाइजेशन...

बिकाज यू सेड जस्ट नाउ दैट थ्रू प्लेटफार्म स्पीकिंग नो रेवोल्यूशन इज़ पासिबल इन अवर कंट्री। दैट आल्सो अगेन इज़ एन ओपियम, व्हिच यू आर ट्राइंग टु अपोज इन अदर रिलीजंस। यू आर पुटिंग दि साइकल--एनादर ओपियम ऑफ प्लेटफार्म स्पीकिंग, व्हिच विल नॉट गिव एन आइडियालॉजिकल-फिलॉसाफिकल रेवोल्यूशन टु अवर कंट्री। इट विल ओनली गिव ए फाल्स सेंस ऑफ रेवोल्यूशन इन अवर कंट्री। नो रेवोल्यूशंस आर मेड लाइक दिस--बाइ स्पीकिंग ऑफ एन इंडिविजुअल।

फिर क्या खयाल है आपका, कैसे होती हैं?

दैट इज़ माइ क्वेश्चन!

हां, मैं यह आपसे कहना चाहता हूं, यह बात बिलकुल सच है कि सिर्फ कोई बोलने से, किसी मंच से खड़े होकर बात समझा देने से क्रांतियां नहीं हो जाती हैं। लेकिन कोई ऐसी क्रांति नहीं हुई है कभी जो बोलने के बिना और बिना मंच के हो गई हो। यह भी ध्यान रख लेना आप। क्रांतियां सिर्फ मंच से बोलने से नहीं हो जाती हैं, यह बात बिलकुल सच है। लेकिन कोई क्रांति बिना मंच के बोलने से हो गई हो, इस भ्रम में मत पड़ जाना।

बोलने के बाद उसको आर्गनाइज करना पड़ेगा न!

, , न! मैं जिस क्रांति की बात कर रहा हूं न, मैं उस क्रांति की बात कर रहा हूं जिसको आर्गनाइज नहीं करना है। वही मेरी क्रांति है। आपने आर्गनाइज किया, अब तक तो आर्गनाइज्ड क्रांतियां हुई हैं, इसलिए मैं मानता हूं कि वे पूरी क्रांतियां नहीं हो सकीं। कोई आर्गनाइज्ड क्रांति पूरी क्रांति नहीं हो सकती। आर्गनाइज्ड होते ही वह फिर जैसे ही आर्गनाइज्ड हुई, आर्गनाइज्ड होने की प्रोसेस में फिर जकड़ बन जाती है, फिर पैटर्न बन जाती है।
हो सकता है कि मैं जिस क्रांति की बात कर रहा हूं, वह कभी न हो सके। लेकिन इसकी कोई चिंता नहीं है बहुत कि वह हो ही जानी चाहिए। यह आग्रह फिर आर्गनाइजेशन बनता है। मुझे जो ठीक लगता है वह मैं कहता रहूंगा। किसी को ठीक लगेगा, जो होगा वह होता रहेगा। मेरी कोई अपेक्षाएं भी नहीं हैं कि वह हो ही जानी चाहिए।
लेकिन यह मेरा मानना है, अकेले बोलने से क्रांति नहीं होती, लेकिन बोले बिना भी क्रांति नहीं होती। और मेरी, जिस बात को मैं कह रहा हूं, वह चूंकि वैचारिक-क्रांति की बात है, मैं कोई न सरकार पर कब्जा कर लेने को उत्सुक हूं और न किसी संगठन को बना कर कोई मुल्क में खून-खराबा कर देने को उत्सुक हूं। मेरी उत्सुकता इतनी है कि आपका मस्तिष्क--हमारा मस्तिष्क कहना चाहिए, नहीं तो किसी को बुरा लग जाए--वह जो हमारा मस्तिष्क है, वह हमारा मस्तिष्क इतना जड़ हो गया है कि उसे सब जगह से हिला दिया जाए। अगर वह हिल जाता है तो मेरा काम पूरा हो जाता है। मेरे लिए क्रांति का इतना मतलब है।

नहीं, आपका जो यह धर्मांधता विरोधी जो यह मूवमेंट है, वह आप स्टेट्स में क्यों नहीं ले जाते?

उसे ले जाऊंगा, उसे ले जाऊंगा। आपको सहयोगी बनना पड़ेगा स्टेट में ले जाने के लिए। हां, उसे ले जाऊंगा।

आचार्य श्री, आपने एक वक्तव्य में यह कहा कुछ दिन पहले कि लड़कियों को लड़कों जैसा शिक्षण नहीं देना चाहिए, क्योंकि ऐसा होने से लड़कियां भी लड़कों जैसी ही हो जाती हैं। सवाल यह है कि फिर कौन सा शिक्षण देना चाहिए? क्या प्रबंध किया जाए? और वह कौन निश्चित करेगा?

बढ़िया बात है। मैंने जो कहा कि लड़कों जैसा शिक्षण नहीं दिया जाना चाहिए, उसका मतलब यह नहीं है कि लड़कियों को केमिस्ट्री कोई दूसरे ढंग की केमिस्ट्री पढ़ाई जा सकती है या गणित कोई दूसरे ढंग का गणित पढ़ाया जा सकता है।
मैंने जो कहा वह मैंने यह कहा कि लड़कियों के पूरे शरीर की शिक्षा लड़कों से भिन्न होनी चाहिए। लड़कियों के वस्त्रों का आयोजन लड़कों से बिलकुल भिन्न होना चाहिए। लड़कियों की जिंदगी में जो उन्हें सम्हालना है, जहां उन्हें जिंदगी को फैलाना है, जिस घर को उन्हें सम्हालना है, उस घर की पूरी शिक्षा होनी चाहिए। उस घर के लिए मां बनने की, पत्नी बनने की, सारी शिक्षा होनी चाहिए। क्योंकि हम जीवन के जो भी महत्वपूर्ण हिस्से हैं वे अशिक्षित छोड़ देते हैं। एक लड़की को कभी सिखाया ही नहीं जाता कि वह मां कैसे बने, पत्नी कैसे बने। बस मां-पत्नी बन जाती है वह। और तब एक उपद्रव होता है।
जो मेरा मतलब था वह कुल इतना था कि या तो हम यह समझ लें कि लड़के और लड़कियों का क्षेत्र एक है; तब तो फिर एक जैसी शिक्षा ठीक है। लेकिन लड़की को कुछ और विशेष भी करना है, जो लड़के को नहीं करना है। उसे घर का एक केंद्र बनना है। उसकी सारी शिक्षा उसे मिलनी चाहिए। वह लड़कों से भिन्न होगी।
और जो शिक्षाएं, जैसे कि कवायद है या परेड है या घुड़सवारी है, इस तरह की शिक्षाएं सिर्फ उन लड़कियों को मिलनी चाहिए जिनको युद्ध के मैदान पर जाना हो। लेकिन जिन लड़कियों को घर में जाना है, उन लड़कियों को इन शिक्षाओं का कोई मतलब नहीं है। बल्कि ये सारी शिक्षाएं उनके, उनका जो लड़कीपन है, स्त्रैणता है, उसको थोड़ा क्षीण करने वाली सिद्ध होंगी।
यह सारा मनोवैज्ञानिकों को तय करना चाहिए। कौन तय करेगा, आप पूछते हैं। आज तो मनोविज्ञान की काफी खोज है, फेमिनिन साइकोलॉजी पर काफी काम है। यह तय होना चाहिए कि लड़कियों के लिए क्या उपयोगी होगा, जो उनको ज्यादा स्त्रैण बनाता हो। पुरुषों के लिए क्या उपयोगी होगा, जो उनको ज्यादा पुरुष बनाता हो। लड़कियां लड़कियां ज्यादा हों, पुरुष ज्यादा पुरुष हों, तो उनके जीवन में ज्यादा आकर्षण और ज्यादा आनंद होगा। उसके बाबत मैंने कहा था।

आप जो कहते हैं कि उसको घर का केंद्र, फेमिली का केंद्र बनना है, वह तो बनती ही है। ऐसी शिक्षा तो उसको घर में देते ही हैं।

कुछ नहीं मिल रही है। वह तो देख रहे हैं घर की क्या हालत है!

वह शिक्षा घर में दी जाती है। जब वह कालेज में या स्कूल में जाती है, तो उसके लिए अलग शिक्षा का प्रबंध आपने बताया था कि...

पूरा अलग करना पड़ेगा। घर में कुछ नहीं मिल रहा है, कुछ भी नहीं मिल पा रहा है। घर में कुछ भी नहीं मिल पा रहा है और परिवार बिलकुल विकृत हुआ जा रहा है, विक्षिप्त हुआ जा रहा है।
तो उसका मतलब तो यही हुआ न कि जो परिवार की विकृति है वही हम पर हो रही है।

ठीक है न। उसके बाबत बात करेंगे।

तो फिर तो यह हुआ कि परिवार को सुधरना चाहिए।

बिलकुल ही। मेरी तो सारी दृष्टि है परिवार के बाबत।

और आप जो कहते हैं कि लड़कियों को जो शिक्षण देना चाहिए उसके लिए मनोवैज्ञानिक समझ का उपयोग करना चाहिए, उसका अभ्यास करना चाहिए। लेकिन यह सब कौन करेगा? पढ़ेंगे नहीं तो यह सब कौन करेगा? यह सब कैसे होएगा?

वह हो रहा है। हमें दिखाई नहीं पड़ रहा। हम उसका प्रयोग भी नहीं कर रहे। वह हो रहा है, बहुत जोर से हो रहा है।

कहां हो रहा है? और कैसे प्रयोग किए जाएं?

आप अलग आ जाएं तो बात कर लूंगा। आप अलग आ जाएं, जरा लंबी बात करनी पड़े।
आचार्य श्री, वैचारिक-क्रांति द्वारा तो शायद आप सफल होंगे, क्योंकि हर नया आदमी नई विचारधारा के द्वारा क्रांति पैदा करता है, सफल होता है। शायद जड़-मानस को आप चेतन कर देंगे, लेकिन उसको आप दिशा कैसे देंगे?

मैं दिशा दिखाना नहीं चाहता। मेरा कहना यह है कि जड़-मानस को दिशा दिखाने की जरूरत पड़ती है, चेतन-मानस को दिशा दिखती है। वह मैं दिखाना नहीं चाहता।

चेतन होने के बाद उसके वापस आने की संभावना है?

चेतन कभी वापस नहीं आता। एक दफा अगर विचारशीलता पैदा हो जाए, तो आप जड़ नहीं हो सकते। बहुत असंभव है। विचारशील आदमी पीछे नहीं लौटता। जड़ता को ही अगर टूटने न दिया जाए तो जड़ बना रह जाता है।

(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)

इतना सामान इकट्ठा हो गया है भारत के चित्त में कि अगर कोई तेजी से आग न लगी, अगर तेजी से कोई विध्वंस न हुआ, तो हम मर जाएंगे, वह सामान बच जाएगा। हम मर रहे हैं और वह सामान बच सकता है।
लेकिन सामान को बचा कर क्या करिएगा?
असल में, जीवित कौम हमेशा चीजों को तोड़ कर फेंक देती है, नई बना लेती है। मरी हुई कौम डरती है। हम मरी हुई कौम हैं, इसलिए एकदम घबड़ाहट होती है--विध्वंस की बात मत करो। निर्माण की बात करो। कुछ रचनात्मक कार्यक्रम रखो। रचनात्मक कार्यक्रम से हम बड़े खुश होते हैं। और रचनात्मक कार्यक्रम क्या है कि चार आदमी चर्खा चला रहे हैं तो रचनात्मक कार्यक्रम हो रहा है। दिमाग खराब हो गया है? कि कोई गांव में जाकर बुहारी लगा आएं चार आदमी तो रचनात्मक कार्यक्रम हो रहा है।
मुल्क को धोखा देने की हद होती है, सीमा होती है। ये कंस्ट्रक्टिव वर्क हो रहे हैं सारे मुल्क में। और ऐसे रचनात्मक कार्यक्रमों के आधार पर संत-महात्मा हो जाए आदमी, कठिनाई नहीं है।
और हमारा चित्त इतना कमजोर है कि कोई रचना की बात करे, हमें समझ में आती है। क्योंकि उससे लगता है कि चलो थोड़ा और जोड़ लें। इतनी ग्रीड है हममें, इतने लोभी हैं हम कि रचना की बात ही समझ में आती है सिर्फ, विध्वंस की बात समझ में नहीं आती। लोभ की वजह से, ग्रीड की वजह से, मुल्क पूरा का पूरा लोभी हो गया है। कुछ भी है, ले आओ, रख लो। कुछ न कुछ हो जो भी, रचना होनी चाहिए, इकट्ठे करते चले जाओ।
नहीं, यह लोभ छोड़ना पड़ेगा और तोड़ने की हिम्मत जुटानी पड़ेगी। मैं मानता हूं कि हम जिस दिन तोड़ने की हिम्मत जुटा लेंगे हम--चित्त की धारणाओं को पहले तोड़ना है, फिर समाज के ढांचे को तोड़ना है--उसी दिन हममें जवानी लौट आएगी, ताजगी लौट आएगी। और जो तोड़ने की हिम्मत जुटा लेता है, उसी हिम्मत से सृजन होता है।
यह ध्यान रहे, हिम्मत एक ही चीज है, चाहे उससे तोड़ो और चाहे बनाओ। साहस एक ही चीज है। अगर तोड़ने का साहस आ गया तो बनाने का साहस तो बहुत आसान है। तोड़ने के साहस के लिए इसलिए मैं जोर देता हूं निरंतर। और अगर वह जोर फैल जाए, तो हम कल बना भी सकते हैं। फिर कुछ कंस्ट्रक्शन हो सकता है।
अभी तो कंस्ट्रक्शन की बात ही करनी खतरनाक है। वह तो बात ही नहीं करनी है। वह तो पूरे मुल्क के ढांचे को एकदम अपील करती है कि हां, ठीक है; चलो, बिलकुल राजी हैं। रचनात्मक कार्यक्रम है, बिलकुल ठीक है। इसको करेंगे।
यह समाज का जो पांच हजार वर्ष का लोभी चित्त है, वह और इकट्ठा कर लेता है। नहीं, उसके मैं पक्ष में नहीं हूं। लेकिन यह ध्यान रहे कि मैं कोई डिस्ट्रक्टिव आदमी नहीं हूं, मैं कोई विध्वंसक चित्त नहीं है मेरा। चित्त तो सृजनात्मक ही है। लेकिन विध्वंस अनिवार्यता है। और उसकी बात किए बिना हम सृजन की दिशा में जा नहीं सकते हैं।

आज इतना ही।


2 टिप्‍पणियां:

  1. ओशो के सभी प्रवचन यूट्यूब पर उपलब्ध क्यों नहीं हैं?

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  2. ओशो की शिक्षाओं का उस तरह प्रचार-प्रसार क्यों नहीं किया जा रहा जिस तरह किया जाना चाहिए?

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