प्रवचन—045
सुख या दुख
तुम्हारा ही निर्णय
पहला प्रश्न:
क्या मेरी नियति
में सिर्फ विषाद की,
फ्रस्ट्रेशन की एक लंबी श्रंखला लिखी है?
तुम्हारे
हाथ में है। लिखते जाओगे,
तो लिखी रहेगी। विषाद कोई और तुम्हें नहीं दे रहा है, तुम्हारा चुनाव है। तुमने चुना है। आनंद भी कोई और नहीं देगा। तुम चुनोगे,
तो मिलेगा। तुम जो खोज लेते हो, वही तुम्हारा
भाग्य है।
भाग्य
की पुरानी धारणा कहती है,
लिखा हुआ है; और किसी और ने लिखा है, तुमने नहीं। मैं तुमसे कहना चाहता हूं? भाग्य लिखा
हुआ नहीं है, रोज—रोज लिखना पड़ता है। और किसी और के द्वारा
नहीं, तुम्हारे ही हाथों से लिखा जाता है। यह हो सकता है कि
तुम इतनी बेहोशी में लिखते हो कि अपने ही हाथ पराए मालूम होते हैं। यह हो सकता है,
तुम इतनी अचेतन अवस्था में लिखते हो कि लिख जाते हो तभी पता चलता है
कि कुछ लिख गया। तुम अपने को रंगे हाथ नहीं पकड़ पाते। तुम्हारे होश की कमी है।
लेकिन कोई और तुम्हारा भाग्य नहीं लिखता है।
अगर
कोई और तुम्हारा भाग्य लिखता है, तो सब धर्म व्यर्थ। फिर तुम क्या करोगे?
तुम तो फिर असहाय मछली की तरह हो। फेंक दिया मरुस्थल में तो मरुस्थल
में तड़पोगे, किसी ने डाल दिया जल के सरोवर में तो ठीक। फिर
तो तुम दूसरों के हाथ का खिलौना हो, कठपुतली हो। फिर तो तुम
मुक्त होना भी चाहो तो कैसे हो सकोगे? अगर भाग्य में मुक्ति
होगी तो होगी, न होगी तो न होगी।
भाग्य
की मुक्ति भी क्या मुक्ति जैसी होगी? किसी को मुका होना पड़े मजबूरी में,
तो मुक्ति भी परतंत्रता हो गयी। और कोई अपने चुनाव से नर्क भी चला
जाए, कारागृह का वरण कर ले, तो अपना
वरण किया हुआ कारागृह भी स्वतंत्रता की सूचना देता है।
मुक्ति
कोई स्थान नहीं। कारागृह भी कोई स्थान नहीं 1 चुनाव की क्षमता में मुक्ति है।
चुनाव की क्षमता न हो और आदमी केवल भाग्य के हाथ में खिलौना हो, तो फिर
कोई मुक्ति नहीं। और अगर मुक्ति नहीं, तो धर्म का क्या अर्थ
है! फिर तुमसे यह कहने का क्या अर्थ है कि ऐसा करो, कि पुण्य
करो, कि जागो। जागना होगा भाग्य में तो जागोगे। न जागना होगा,
सोए रहोगे। कोई और जगाएगा, कोई और सुलाका। तुम
परवश हो।
लेकिन
आदमी ने इस भाग्य की धारणा को माना था, क्योंकि उससे बड़ी सुविधा मिलती है।
सुविधा यह मिलती है कि सारा उत्तरदायित्व हट जाता है। सारी जिम्मेवारी तुमने किसी
और के कंधों पर रख दी। तुम्हारा परमात्मा भी तुम्हारी बड़ी गहरी तरकीब है। तुम अपने
परमात्मा के माध्यम से भी अपने को बचा लेते हो। तुम कहते हो, परमात्मा जो करवा रहा है, हो रहा है। करते तुम्हीं
हो, होता वही है जो तुम कर रहे हो, चुनते
तुम्हीं हो, बीज तुम्हीं बोते हो, फसल
भी तुम्हीं काटते हो, लेकिन बीच में परमात्मा को ले आते हो,
हल्के हो जाते हो। अपने हाथ में कुछ न रहा। जिम्मेवारी न रही,
अपराध न रहा; पाप न रहा, पुण्य न रहा।
ऐसे
असहाय बनकर तुम अपने को ही धोखा देते हो। मन की बड़ी से बड़ी तरकीब है, जिम्मेवारी
को कहीं और टाल देना। और यह तरकीब इतनी गहरी है—आस्तिक भगवान पर टाल देता है,
नास्तिक प्रकृति पर टाल देता है, कम्युनिस्ट
इतिहास पर टाल देता है, फ्रायड अचेतन मन पर टाल देता है। कोई
अर्थशास्त्र पर टाल देता है, कोई राजनीति पर टाल देता है,
ये सब तुम्हारे एक ही तरकीब के जाल हैं। कोई कर्म के सिद्धात पर टाल
देता है। लेकिन टालने के संबंध में सभी राजी हैं। जिम्मेवारी हमारी नहीं है।
लेकिन
तुम थोड़ा सोचो,
जैसे ही तुमने जिम्मेवारी छोड़ी, तुमने आत्मा
भी खो दी। तुम्हारे उत्तरदायित्व में ही तुम्हारी आत्मा की संभावना है। अगर तुम
चुनाव कर सकते हो और मालिक हो, तो ही तुम्हारे जीवन में कोई
गरिमा का आविर्भाव होगा, कोई प्रकाश जलेगा, कोई दीप जगेगा; अन्यथा तुम अंधकार ही रहोगे।
भाग्य
से सावधान! भाग्य धार्मिक आदमी के मन की धारणा नहीं है।
तुम
चौंकोगे, क्योंकि तुम धार्मिक आदमी को भाग्यवादी पाते हो। मैं तुम्हें फिर याद
दिलाऊं, धार्मिक—अधार्मिक सभी भाग्यवादी हैं। भाग्य की उनकी
व्याख्या अलग—अलग होगी। मार्क्स कहता है कि समाज निर्धारक है, व्यक्ति नहीं; धन की व्यवस्था निर्धारक है, व्यक्ति नहीं। व्यक्ति की आत्मा खो गयी। और मार्क्स नास्तिक है, आस्तिक नहीं; धार्मिक नहीं, अधार्मिक
है।
अधार्मिक
मन का मेरे लिए एक ही लक्षण है, वह अपनी आत्मा को स्वीकार नहीं करता। वह अपने
से बचना चाहता है, अपने से छिपना चाहता है, जिम्मेवारी उठाने का साहस नहीं करता, कमजोर है,
निर्वीर्य है।
भाग्य
पर मत टालो। भाग्य तुम्हीं लिखते हो। भाग्य तुम्हारा ही हस्ताक्षर है। माना कि कल
का लिखा तुम भूल गए,
तुम्हारा होश कमजोर है। परसों का लिखा स्मरण में नहीं रहा। आज अपने
ही अक्षर नहीं पहचान पाते हो। लेकिन मैं तुमसे कहता हूं गौर से खोजो, तुम अपने हस्ताक्षर पहचान लोगे। थोड़ी—बहुत बदल भी हो गयी होगी, तो भी बहुत बदल नहीं हुई है। और जिस दिन तुम्हें यह समझ में आ जाएगा कि यह
दुख भी मैं ही बना रहा हूं? उस दिन तुम मालिक हुए, उस दिन तुम्हारे जीवन का वास्तविक प्रारंभ हुआ।
अब
तुम्हारा चुनाव है। अगर दुखी होना चाहो, तो तुम चुनो। फिर मैं तुमसे कहता
हूं? ठीक से ही चुनो। क्या थोड़ा— थोड़ा दुख! क्या बूंद—बूंद
दुख! फिर सागर चुनो दुख के। फिर हिमालय रखो छाती पर दुख के। फिर डूबो नर्क में।
लेकिन एक बार यह बात तय हो जाए कि तुम्हीं.? तो फिर तुम दुख
की ही फसल काटो। अगर वही तुमने निर्णय किया, अगर उसमें ही
तुमने सुख पाया है, तो सही। लेकिन एक बात समझ लेना, भूलकर भी यह मत कहना कि किसी और ने नियति तय की है। लेकिन जानकर तो कोई भी
दुख चुनेगा नहीं। यही तो मजा है, जब तक तुम दूसरे पर टालते
हो, तभी तक दुख को चुनोगे। जिस दिन तुम सोचोगे मेरा ही चुनाव
है, कौन दुख को चुनता है? दुख को जानकर
कब किसने चुना है? अनजाने भला चुन लो, हीरे—जवाहरात
समझकर भला तुम सांप—बिच्छू तिजोड़ी में इकट्ठा कर लो, लेकिन
सांप—बिच्छू समझकर कौन इकट्ठा करता है?
एक
बार तुम्हें समझ में आ गया कि मैं ही निर्णायक हूं र मैं ही हूं मेरा भाग्य, मेरी
नियति मेरा चुनाव है, उसी क्षण से दुख विदा होने लगेगा,
उसी क्षण से तुम्हारे जीवन में सुख का प्रभात होगा, सुख का सूरज निकलेगा। और जब अपने ही हाथ में है, तो
फिर थोड़ा— थोड़ा सुख क्या चुनना! फिर बरसाओ सुख के मेघ।
और
मैं तुमसे कहता हूं यह तुम्हारे निर्णय पर निर्भर है। और यह बहुत बुनियादी निर्णय
है।
पूछा
है, 'क्या मेरी नियति में सिर्फ विषाद की एक लंबी श्रृंखला लिखी है?' कौन लिखेगा विषाद की लंबी श्रृंखला तुम्हारे जीवन में? किसको पड़ी है? कौन तुम्हें दुख देने को उत्सुक है?
अगर परमात्मा कहीं है, तो एक बात निश्चित है
कि तुम्हें दुख देने को उत्सुक नहीं है। परमात्मा और दुख देने को उत्सुक हो! तो
फिर शैतान और परमात्मा का भेद क्या करोगे? और ध्यान रखना,
परमात्मा अगर तुम्हें दुख देने में उत्सुक हो, तो खुद भी दुखवादी होगा और दुख ही पाएगा। जो दुख लिखेगा दूसरों के जीवन
में, वह अपने जीवन में भी दुख लिख लेगा। जो चारों तरफ दुख
बरसाका, उस पर भी दुख के छींटे पड़े बिना न रहेंगे। और जो
सबके जीवन में अंधेरा कर देगा, दीए फूंक देगा, उसे खुद भी अमावस में रहना पड़ेगा। यह भूल, अगर
परमात्मा कहीं है, तो न करेगा।
यदि
परमात्मा है,
तो वह तुम्हारे जीवन में सुख चाहेगा, दुख नहीं
चाह सकता। क्योंकि तो ही उसके जीवन में भी सुख की संभावना है। परमात्मा शब्द को
हटा लो, पूरा अस्तित्व कहो। अस्तित्व भी तुम्हारे जीवन में
सुख चाहेगा, क्योंकि तुम अस्तित्व के हिस्से हो। तुम्हारा
दुख अंतत: अस्तित्व के कंधों पर ही पड़ेगा। अगर व्यक्ति दुखी हैं, अगर अंश दुखी हैं, खंड दुखी हैं, तो पूर्ण भी दुखी हो जाएगा।
तुम्हारे पैर में
दर्द है, तो पैर में ही थोड़े ही दर्द होता है, तुममें दर्द हो
जाता है। तुम्हारे सिर में दर्द है, तो सिर में ही थोड़े ही
सीमित रहता है, तुम्हारे पूरे तन—प्राण पर फैल जाता है। तुम
पूरे के पूरे ही उसके दुख को अनुभव करते हो। हम जुड़े हैं। यहां कोई भी दुखी होगा
तो सारा अस्तित्व दुख से भरता है, कंपता है।
अस्तित्व
की कोई आकांक्षा तुम्हें दुखी करने की नहीं है। अगर अस्तित्व की कोई आकांक्षा हो, तो
तुम्हें महासुखी करने की होगी। फिर भी तुम दुखी हो। इसका एक ही अर्थ हो सकता है,
तुम अस्तित्व से लड़ रहे हो, तुम अस्तित्व के
विपरीत जा रहे हो, तुम नदी की धार से संघर्ष कर रहे हो। दुख
का मेरे लिए एक ही अर्थ है कि तुम समझ नहीं पाए, तुम जीवन के
विपरीत चल रहे हो, तुम दीवाल से सिर मार रहे हो, तुम्हें दरवाजा अभी भी सूझा नहीं। तुमने दीवाल को दरवाजा समझा है। तुम
कंकड़—पत्थरों को रोटी समझ रहे हो।
नदी
में या तो तुम तैर सकते हो नदी के विपरीत, तब तुम्हें नदी लड़ती हुई मालूम
पड़ेगी कि तुमसे संघर्ष कर रही है। तब तुम्हें लगेगा कि नदी तुम्हारे विपरीत है,
तुम्हारी शत्रु है। तुम नदी के साथ बह सकते हो।
रामकृष्ण
कहते थे, भक्त नदी में नाव छोड़ता है, तो पतवार नहीं रखता अपने
पास, पाल खोल देता है। हवाएं जहां ले जाती हैं, उन्हीं के साथ चल पड़ता है। भक्त पाल खोलता है, पतवार
नहीं।
तुमने
पतवारें उठा रखी हैं। और तुम कुछ नदी से जद्दो—जहद कर रहे हो। हारोगे। क्योंकि
पूर्ण से कौन कब जीता है! हारोगे तो विषाद आएगा। फिर विषाद आएगा, तो और भी
जोर से लड़ोगे। जितने हारोगे, उतने जीत की पागल आकांक्षा पैदा
होगी। जितनी पागल आकांक्षा होगी, उतने ज्यादा हारोगे। तुम एक
दुष्ट—चक्र में पड़ गए।
फिर
तुम्हें लगेगा कि विषाद ही विषाद मिल रहा है। और मजा यह है कि तुम्हारा अहंकार
इसमें भी रस लेने लगेगा। तुम कहोगे, मैं कोई साधारण आदमी नहीं हूं?
मेरे जीवन में तो विषाद ही विषाद लिखा है। एक विषाद की लंबी कथा हूं।
तुम इसके गीत गुनगुनाने लगोगे। तुम अपने दुख का भी श्रृंगार करोगे। तुम दुख का भी
प्रदर्शन करने लगोगे। तुम दुख के कारण भी लोगों का ध्यान आकर्षित करोगे। तुम रोओगे,
तुम चीखोगे—चिल्लाओगे, ताकि लोग तुम्हारे
प्रति आकर्षित हों और कहें कि हा, तुम जैसा दुख किसी के पास
नहीं देखा। तुम्हारा दुख बड़ा विशिष्ट है। तुम संताप, संत्रास
से भरे हुए रहोगे।
मैंने
सुना है, एक कवि—सम्मेलन में आधुनिक कवि इकट्ठे हुए थे। सब संताप से भरे, संत्रास से भरे, दुखी, विषाद
से भरे. जैसे सभी बोझ ढो रहे हैं भारी, जैसे सारा संसार उनके
ऊपर टूट पड़ा है—रिरियाते, रोते। कवि—सम्मेलन के संयोजकों ने
उनके चित्र उतारने की व्यवस्था की थी। फोटोग्राफर आया, उसने
सबको बिठाया। और उसने कहा कि सुनिए, एक क्षण के लिए कृपा
करके यह दुख, संताप, संत्रास चेहरे से
जरा हटा लीजिए, फिर एक क्षण के बाद आप अपनी स्वाभाविक स्थिति
में पुन: आ सकते हैं।
कुछ
लोगों ने इसको स्वाभाविक स्थिति बना रखी है। दुख लिखे फिरते हैं। चेहरे पर दुख के
साइनबोर्ड लगा रखे हैं। इसमें जरूर उन्हें कुछ लाभ होता है। सहानुभूति मिलती है।
लेकिन यह बड़ी सस्ती सहानुभूति हुई।
कुछ
और तरह से ध्यान आकर्षित करो। मुस्कुराकर आकर्षित करो। रोकर क्या आकर्षित किया!
अगर लोगों की सहानुभूति चाहिए,.. प्रेम चाहो, सहानुभूति
भी कोई भागने की बात है?
इसे
थोड़ा समझें।
सहानुभूति
रुग्ण है। प्रेम स्वस्थ है। जब तुम्हारे जीवन में प्रेम नहीं मिलता, तब तुम
सहानुभूति मांगने लगते हो। तब तुम सहानुभूति को ही प्रेम समझ लेते हो। तुमने खोटे
सिक्के को असली बना लिया। जब तुम अपने सौंदर्य के कारण लोगों को आकर्षित नहीं कर
पाते, तो तुम अपनी कुरूपता के कारण ही लोगों का ध्यान
आकर्षित करने लगते हो। ध्यान तो आकर्षित करना ही है। अगर तुम्हारे स्वास्थ्य में
लोग सम्मिलित नहीं हो पाते, तो तुम बीमार पडकर बीच रास्ते पर
गिर जाते हो कि भीड़ तो इकट्ठी हो जाए। भीड़ इकट्ठी करने का मजा ऐसा है! किसी कारण
से हो जाए, लेकिन तुम चाहते हो लोगों की आंखें तुम्हें देखें,
तुम्हें विशिष्ट मानें। कुछ भी करने को आदमी तैयार हो जाता है।
यहां
मैं देखता हूं र हजार तरह के लोग आते हैं। उनमें मैंने देखा, जो
साधारणत: स्वस्थ हैं, सुंदर हैं, स्वाभाविक
हैं, वे भी ध्यान को आकर्षित करते हैं, लेकिन उनकी
व्यवस्था में
रुग्णता नहीं होती। जो किसी तरह दुखी हो गए हैं, दुखी बना लिया है, कुरूप हो गए हैं, जिन्होंने प्रेम के सारे स्रोत खो
दिए हैं, वे भी ध्यान आकर्षित करते न्है, लेकिन उनके ध्यान आकर्षित करने में बड़ा उपद्रव और कुरूपता होती है। हर
उत्सव के दिन, दो—चार ऐसी कुरूप स्त्रियां हैं, जो शोरगुल मचाकर गिर ही पड़ेगी! एक भी सुंदर स्त्री वैसा नहीं करती।
यह
थोड़ा मैं सोचकर हैरान हुआ कि कुरूप स्त्रिया यह क्यों करती हैं? उन्हें
कहीं और किसी तरह का आकर्षण उपलब्ध नहीं रहा। न वे नाच सकतो हैं, न वे गा सकती हैं, न उन्हें प्रेम को पुकारने की और
कोई समझ रही, पर कहीं शोरगुल मचाकर, छाती
पीटकर रो तो सकती हैं, हाथ—पैर फैलाकर गिर तो सकती हैं। ऐसा
भी नहीं कि वे जानकर कर रही होंगी। लेकिन यह हो रहा है। जाने—अनजाने कहीं इसमें
भीतर रस है। इस भांति, एक बेहूदे ढंग से लोगों का ध्यान
आकर्षित करने की आकांक्षा है।
जिनके
जीवन में कुछ कला होगी,
वे कला से लोगों का ध्यान आकर्षित कर लेंगे। जिनके जीवन में कुछ भी
न होगा, वे अपराध करके ध्यान आकर्षित करेंगे।
मनस्विद
कहते हैं कि बड़े कलाकार और अपराधियों में, सृजनात्मक पुरुषों में
राजनीतिज्ञों में, बहुत फर्क नहीं होता। फर्क यही होता है कि
कोई बड़ा गीत लिखता है, उससे लोग आकर्षित हो जाते हैं। जो गीत
नहीं लिख पाता, वह किसी की हत्या कर देता है, उससे भी अखबारों में नाम आता है, उससे भी प्रथम
पृष्ठ पर नाम छपते हैं।
अमरीका
के एक हत्यारे ने सात लोगों की हत्याएं कीं एक दिन में। अकारण। ऐसे लोगों को मारा
जिनसे कोई परिचय भी न था। ऐसे भी लोगों को मारा जिनको उसने देखा भी नहीं था—न
मारने के पहले,
न मारने के बाद—पीठ के पीछे से आकर गोली मार दी। अजनबी आदमी,
सागर के तट पर बैठा सागर को देख रहा था, पीछे
से आकर उसने गोली मार दी। अदालत में पूछा गया, यह तूने क्यों
किया? उसने कहा कि मैं अखबार में प्रथम पृष्ठ पर अपना नाम
देखना चाहता था।
इसकी
आकांक्षा तो सोचो! राजनेता है—न गीत लिख सकता है, न मूर्ति बना सकता है,
न गीत गा सकता है, न सितार बजा सकता है,
न नाच सकता है—तो हड़ताल करवा देता है, जुलूस
निकलवा देता है, अनशन करवा देता है। कुछ तो कर ही सकता है।
उपद्रव तो कर ही सकता है। उपद्रव तो सुगम है। उपद्रव की लहर पर चढ़कर प्रमुख हो
जाता है, महत्वपूर्ण हो जाता है।
ध्यान
रखना, सृजनात्मक ढंग से अगर तुम प्रेम को आकर्षित कर पाओ, तो
पुण्य है। अगर विध्वंसात्मक ढंग से तुमने लोगों का ध्यान आकर्षित किया, तो पाप है। किसी को नुकसान पहुंचाकर, किसी कुरूप और
भोंडे ढंग से अगर तुमने लोगों की नजरें अपनी तरफ फेर लीं, तो
तुमने कुछ अपना हित नहीं किया। तुम इससे और भी दुखी हो जाओगे और रोज—रोज तुम्हें
अपने चेहरे पर और भी दुख की कालिमा पोत लेनी पड़ेगी। तुम्हारे दुख में तुम्हारा
न्यस्त स्वार्थ हो जाएगा।
धर्म
की यात्रा पर निकले व्यक्ति को इसे एक बुनियादी सूत्र समझ लेना रचाहिए:ए स्वस्थ को
मांगना, अस्वस्थ को नहीं। क्योंकि अस्वस्थ को मांगोगे तो और अस्वस्थ हो जाओगे।
सुंदर को चाहना, असुंदर को नहीं। असुंदर को एक बार मांगा,
तो लिप्त होने लगोगे। उसी में तुम्हारा धंधा जुड़ जाएगा। प्रेम को
मांगना, सहानुभूति को नहीं। प्रेम को मलना हो, तो तुम्हें प्रेम के योग्य बनना पड़ता है।
इस फर्क को समझ लो।
प्रेम
मुक्त नहीं मिलता। प्रेम की योग्यता चाहिए। लेकिन सहानुश्रइत मुफा मिलती है, योग्यता
की कोई जरूरत नही। तुम्हें अगर एक सुंदर पति चाहिए, तो योग्य
होना पड़ेगा। लेकिन विधवा हो जाने के लिए कोई योग्यता की जरूरत है? तलाक पाने के लिए कोई योग्यता की जरूरत है? लेकिन
अगर पति तुम्हें तलाक दे दे, तो सभी सहानुभूति देने आ जाएंगे।
उनमें से कोई भी यह न पूछेगा कि सहानुभूइत देने की जरूरत है? तलाकी गयी पत्नी को तो कोई भी सहानुभूति देता है। अगर तुम बीमार हो',
तो कोई भी सहानुभूति दिखा देगा। बीमारी को कोई थोड़े पूछता है कि
सहानुभूति दें या न दें? लेकिन अगर तुम स्वस्थ हो, तो ही कोई तुम्हारे स्वास्थ्य की प्रशंसा में दो शब्द कहेगा, कोई गीत गाएगा, तुम्हें देखकर कोई गुनगुनाका। परम
स्वास्थ्य होगा तुम्हारे भीतर, तो ही किसी के भीतर धुन पैदा
होगी।
प्रेम
को पाना हो तो योग्यता चाहिए, सृजन चाहिए। सहानुभूति मुफा मिल जाती है,
सहानुभूति के लिए कुछ भी नहीं करना होता।
तुमने
कहानी सुनी होगी,
बड़ी पुरानी कहानी है कि एक स्त्री ने कंगन बनवाए सोने के। वह हरेक
से बात करती, जोर—जोर से हाथ भी हिलाती, कंगन लुनी बजाती, लेकिन किसी ने पूछा नहीं कि कहां
बनवाए? कितने में खरीदे?
आखिर
उसने अपने झोपड़े में आग लगा ली। जब वह छाती पीट—पीटकर रोने लगी तब एक महिला ने
पूछा, अरे, हमने कंगन तो तेरे देखे ही नहीं! उसने कहा कि
नासमझ, अगर पहले ही पूछ लेती तो घर में आग लगाने की जरूरत तो
न पडती। आज झोपड़ा जलता क्यों?
तुम
हंसना मत। तुमने भी बहुत झोपड़े इसी तरह जलाए हैं, क्योंकि कंगन को कोई पूछ ही
न रहा था। तुमने न—मालूम कितनी बार सिरदर्द पैदा किया है, बीमार
हुए हो, रुग्ण हुए हो, उदास—दुखी हुए
हों—घर जलाए—क्योंकि तुम्हारे सौंदर्य की कोई चर्चा ही न कर रहा था। तुम्हारी
बुद्धिमानी की कोई बात ही न कर रहा था। तुम्हारी योग्यता का कोई गीत ही न गा रहा
था। कोई प्रशंसा तुम्हारी तरफ आ ही न रही थी। कोई ध्यान दे ही न रहा थॉ।
ये
कहानियां साधारण कहानियां नहीं हैं। ये हजारों साल के मनुष्य के अनुभव का निचोड़
हैं। यह कहानी किसी ने गढ़ी नहीं है। इसका कोई लेखक नहीं है। यह निचुड़। है। यह
हजारों —हजारों साल के मनुष्य के अनुभव का निचोड़ है। इसे खयाल रखना।
तुम पूछते हो, 'क्या
विषाद की लंबी श्रृंखला ही मेरे भाग्य में लिखी है?
ऐसा
लगता है, विषाद में भी थोड़ा मजा ले रहे हो। लंबी श्रृंखला, विषाद,
बड़े बहुमूल्य शब्द मालूम होते हैं। जैसे तुम कोई विशेष काम कर रहे
हो। इस गंदगी में रस मत लो। अन्यथा यह गंदगी तुमसे चिपट जाएगी। रस से चीजें जुड़
जाती हैं। फिर तोड़ना मुश्किल हो जाता है।
फिर
अगर तुमने विषाद को ही अपना चेहरा बना लिया और इसी के आधार पर लोगों से सहानुश्रइत
मांगी, लोगों का हृदय मला, प्रेम मांगा, तो फिर तुम इसे छोड़ कैसे पाओगे? क्योंकि तब डर लगेगा
कि रकार विषाद छूटा, तो यह सब प्रेम भी चला जाएगा। यह सब
सहानुभूति, यह लोगों का ध्यान, यह सब
खो जाएगा। फिर तो तुम इसे पकड़ोगे। फिर तो तुम इसकी अतिशयोक्ति करोगे। फिर तो तुम
इसे बढ़ाओगे। फिर तो तुम इसे बढ़ा—चढ़ाकर दिखाओगे। फिर तो तुम इसे गुब्बारे की तरह
फैलाओगे और तुम शोरगुल भी खूब मचाओगे कि मै बड़ा दुखी हूं मैं बड़ा दुखी हूं।
लेकिन
तुम कभी खयाल करो। जब लोग दुख की चर्चा करते हैं, तुम जरा उनका खयाल करना। वे
क्या कहते हैं, उस पर उतना ध्यान मत देना, कैसे कहते हैं, उस पर ध्यान देना; तुम पाओगे, वे रस ले रहे हैं। उनकी आंखों में तुम
चमक पाओगे। तुम पाओगे, उन्हें भीतर एक गर्हित सुख मिल रहा है।
जब
लोग अपने दुखों का लोगों से वर्णन करने लगते हैं, तब तुम देखो, उनके जीवन में कैसी चमक आ जाती है। वे बड़े कुशल हो जाते हैं वर्णन करने
में। लुक ले—लेकर कहने लगते हैं। और अगर तुम उनकी बातों में रस न लो, तो वे दुखी होते हैं। अगर तुम उनकी बातों में रस न लो, तो तुम पर नाराज होते हैं। वे तुम्हें कभी क्षमा न कर पाएंगे।
दूसरों
की फिकर छोड़ दो,
अपने पर तो खयाल रखना कि जब तुम अपने दुख की चर्चा करो तो भूलकर भी
किसी तरह का स्वाद मत लेना, अन्यथा तुम उसी दुख में बंधे रह
जाओगे। फिर तुम चिल्लाओगे बहुत, लेकिन छूटना न चाहोगे। फिर
तुम कारागृह में रहोगे, शोरगुल बहुत मचाओगे, लेकिन कारागृह के अगर दरवाजे भी खोल दिए जाएं तो तुम निकलकर भागोगे नहीं।
अगर तुम्हें बाहर भी निकाल दिया जाए, तुम लौटकर पीछे के
दरवाजे से वापस आ जाओगे। तुम्हारा कारागृह बहुत बहुमूल्य हो गया, अब उसे छोड़ा नहीं जा सकता। दुख में किसी तरह की संपत्ति को नियोजित मत
करना। और जीवन में दोनों हैं। यहां कांटे भी हैं, फूल भी हैं।
अब तुम्हारे ऊपर है कि तुम क्या चुन लेते हो।
देखूं
हिमहीरक हंसते
हिलते
नीले कमलों पर
या
मुरझायी पलकों से
झरते
आसूकण देखूं?
सौरभ
पी—पीकर बहता
देखूं
यह मंद समीरण
दुख
की द्वे पीती या
ठंडी
सांसों को देखूं?
कल
रात एक जर्मन कवि हेनरिक हेन के संबंध में मैं पढ़ रहा था। हेनरिक हेन थोड़े से उन
अदभुत सृजनात्मक कवियों में से एक डुआ, जिन्होंने जीवन के सौंदर्य के बड़े
अनूठे गीत गाए हैं। वह जर्मनी के बहुत बड़े दार्शनिक—बड़े से बड़े दार्शनिक—हीगल से
मिलने गया था। अमावस की अंधेरी रात थी और आकाश में तारे सुंदर फूलों की तरह फैले
थे। वे दोनों खिड़की पर खड़े थे। और हेनरिक हेन ने तारों की प्रशंसा में एक गीत गाया
भावविभोर होकर। उसके स्वर गूंजने लगे उस सन्नाटे में। और उसने उन तारों की प्रशंसा
में बहुत सी बातें कहीं।
हीगल
चुपचाप खड़ा सुनता रहा। और जब गीत बंद हो गया तो उसने कहा, बंद करो
यह बकवास। मुझे तो तारों को देखकर हमेशा श्वेत कोढ़ की याद आती है। आकाश का सफेद
कोढ़। तुमने कभी सोचा? सफेद कोढ़!
हेनरिक
हेन ने लिखा है कि मैं तो एक सकते में आ गया। यह प्रतीक मेरे खयाल में भी कभी न
आया था।
लेकिन
सफेद कोढ़ की तरह भी देखे जा सकते हैं तारे। देखने वाले पर निर्भर स्टै। अगर
तुम्हें यह समझ में आ जाए,
तो सफेद कोढ़ को भी कोई चांदनी के फूलों की तरह देख सकता है। वह भी
देखने वाले पर निर्भर है।
जगत
में कोई व्याख्या नहीं है। जगत निर्व्याख्य है। व्याख्या तुम डालते हो। आकाश में
तारे फैले हैं। कहो सफेद कोढ़, तो जगत इनकार न करेगा। कोई परमात्मा का हाथ न
उठेगा कि गलती हुई तुमसे। कोई तुम्हें सुधारने, ठीक करने न
आएगा। लेकिन ध्यान रखना, तारे तुम्हारे उस वक्तव्य के कारण
कोढ़ न हो जाएंगे, लेकिन तुम कोढ़ से घिर जाओगे। जिसको आकाश के
तारों में कोढ़ दिखायी पड़ेगा, वह चारों तरफ कोढ़ से घिर न
जाएगा! उसके देखने का ढंग उसके जीवन को कुरूप न कर जाएगा! जिसको चांद—तारों में भी
कोढ़ दिखायी पड़ता हो, फिर उसे सौंदर्य कहां दिखायी पड़ेगा?
असंभव। उसके जीवन में कुरूपता ही कुरूपता होगी और वह चिल्ला—चिल्लाकर
कहेगा कि जैसे मेरे भाग्य में विषाद लिखा है। यह तुमने ही लिख लिया। यह व्याख्या
तुम्हारी है। चांद—तारों ने कहा न था कि हमारी ऐसी व्याख्या करो। चांद—तारों पर
कोई भी व्याख्या नहीं लिखी है। निर्व्याख्य, अनिर्वचनीय
तुम्हारे द्वार पर खड़े हैं, तुम व्याख्या देते हो।
वहीं
हेनरिक हेन भी खड़ा उनकी स्तुति में गीत गा रहा था। उसके गीत ऐसे सुंदर हैं जैसे
वेद की ऋचाएँ। उसके गीतों में ऐसी महिमा है जैसे कभी—कभी थोड़े से ऋषियों के
वक्तव्यों में होती है। मगर उस हेनरिक हेन की मौजूदगी भी हीगल को न डिगा सकी। वह
खड़ा सुनता रहा। बड़ी बेचैनी से सुना होगा उसने यह गीत। बड़ी नाखुशी से सुना होगा यह
गीत। बड़े विरोध से सुना होगा। बर्दाश्त किया होगा। शिष्टाचार के कारण सुना होगा।
क्योंकि जिसको कोढ़ दिखायी पड़ता हो, उसको यह सेब गीत झूठे मालूम पडे
होंगे।
इसलिए
मैं तुमसे कहता हूं?
अगर तुम्हें विषाद मालूम पड़े तो थोड़ा सोचना, कहीं
तुमने व्याख्या में भूल कर ली।
देखूं
हिमहीरक हंसते
हिलते
नीले कमलों पर
या
मुरझायी पलकों से
झरते
आसूकण देखूं ?
सौरभ
पी—पीकर बहता
देखूं
यह मंद समीरण
दुख
की छे पीती या
ठंडी
सांसों को देखूं?
और
मजा यह है कि तुम जो देखोगे, वह तुम्हें ही नहीं बदलता, वह तुम्हारे भविष्य को बदलता है, तुम्हारे अतीत को
बदलता है। वह तुम्हें ही नहीं बदलता, तुम्हारे सारे अस्तित्व
को, तुम्हारे सारे जगत को बदलता है। और एक बार तुम्हें देखने
की कला आ जाए, तो तुम पाते हो, जहां से
तुम्हें दुख मिलता था वहीं से सुख के झरने बहने लगे।
दुख
से देखो जगत को,
सारा जगत उदास मालूम होगा। सब तरफ मृत्यु लिखी मालूम होगी। सब तरफ
मरघट फैला मालूम होगा। फिर चौंकाओ, जगाओ अपने को, फिर से आंखें खोलो, मुस्कुराकर, गीत गाकर, नाचकर जगत को देखो, तुम
पाओगे, मरघट खो गया। इधर तुम नाचे क्या, उधर मरघट न रहा! सारा जगत तुम्हारे साथ नाचने लगा। रोओ, सारा जगत तुम्हारे साथ रोता हुआ मालूम होगा। हंसो, सारा
जगत तुम्हारे साथ हंसता है। क्योंकि तुम्हारा दृष्टिकोण ही तुम्हारा जगत है। और
तुम उसी जगत में रहते हो, जो तुम बनाते हो। तुम्हारे ही बनाए
हुए जगत में तुम रहते हो। कोई तुम्हें जगत दे नहीं जाता, तुम
प्रतिपल निर्मित करते हो।
चूमकर
मृत को जिलाती जिंदगी
फूल
मरघट में खिलाती जिंदगी
देखने
की बात है। अन्यथा जिंदगी मरघट मालूम होती है! फिर देखने की ही
बात, मरघट भी
जिंदगी मालूम होता है।
चूमकर
मृत को जिलाती जिंदगी
फूल
मरघट में खिलाती जिंदगी
और
जब भी तुम्हें लगे कि विषाद आ रहा है, तब समझना कि तुम ला रहे हो,
आ नहीं रहा है। तब झिटककर खड़े हो जाना, भाग
खड़े होना, स्नान कर लेना, नाच लेना,
मगर झडूक देना धूल की तरह विषाद को। तुम ला रहे हो, कोई पुरानी आदत सक्रिय हो रही है। तोड़ लेना अपने को बीच से ही। उस राग को
मत दोहराओ बार—बार जो तुम्हें दुख से भर जाता है। कहीं ऐसा न हो कि राग तुम्हारा
स्वभाव बन जाए। यहां न तो कोई सफलता है, न कोई विफलता। न कोई
सुख, न कोई विषाद। सब तुम्हारे देखने के ढंग हैं। तरकीबें
हैं आंखों की। सब तुम्हारे उगखों में बने हुए प्रतिबिंब हैं।
सफलता
का एक कोई पंथ नहीं
विफलता
की गोद में ही जीत है
हारकर
भी जो नहीं हारा कभी
सफलता
उसके हृदय का गीत है
तो
तुम इसको नियति मत समझो। तुम्हारे प्रश्न से लगता है कि तुम चाहते हो कि सील—मोहर
लग जाए इस पर परमात्मा की—नियति है, भाग्य है। तुम अपने दुख की
जिम्मेवारी परमात्मा पर मत छोड़ो। परमात्मा इनकार न करेगा, लेकिन
तुम दुख में व्यर्थ दबे हुए सडोगे। और उससे मुक्त भी न हो सकोगे, क्योंकि तुम्हारी मान्यता यह है कि यह नियति है, भाग्य
है।
मैं
तुमसे कहता हूं '
इसी क्षण, अभी—कल की भी कोई जरूरत नहीं है—तुम
इसके बाहर हो सकते हो। होना चाहते हो, तो हो सकते हो। होना
ही न चाहो, तो कोई उपाय नहीं। तुम्हारे विरोध में तुम्हारे
जीवन में कुछ भी नहीं किया जा सकता। तुम्हारा सहयोग चाहिए।
मेरे
पास लोग आते हैं,
वे कहते हैं, हम सुखी होना चाहते हैं। आप हमें
रास्ता बताएं। मैं उनसे कहता हूं रास्ता तो सुगम है। तुम होना चाहते हो, यह पक्का कर लो। अगर तुमने होने का तय ही कर लिया है, तो बिना रास्ते के भी हो जाओगे। कौन किसको रोक पाया सुखी होने से? रास्ता भी बाधा नहीं बनेगा, रास्ते की भी जरूरत न
रहेगी।
लेकिन
अगर तुम होना ही न चाहो,
और यह रास्ते की पूछताछ सिर्फ अपने दुख की चर्चा करने का ही एक ढंग
हो, यह रास्ते की पूछताछ अपने दुख का वर्णन करने का ही उपाय
हो, यह रास्ते की पूछताछ मेरी सहानुभूति के लिए हो, तो फिर कोई उपाय नहीं है। तो फिर व्यर्थ रास्ते की चर्चा ही मत करो।
तुम्हें जो वर्णन करना है कर दो, मैं सुन लूं। तुम अपने दुख
की कथा कह दो। अगर सहानुभूति चाहते हो, तो दुख की कथा कहो,
झंझट खतम हो। लेकिन अगर दुख को बदलना है, तो
अड़चन नहीं है। मगर तुम्हारे विपरीत मैं कुछ भी न कर सकूंगा। तुम्हारे विपरीत कोई
भी कुछ नहीं कर सकता है। तुम अपनी गहराई में अपने मालिक हो। इसलिए मैं तुमसे न
कहूंगा कि विषाद तुम्हारे भाग्य में लिखा है। तुम लिख रहे हो। रोक लो हाथ।
और
एक आखिरी बात इस संबंध में,
कि जीवन कुछ ऐसा है, जैसे जल पर तुम कुछ लिखते
हो—लिख भी नहीं पाते कि मिट जाता है। फिर कोई रेत पर कुछ लिखता है—लिखता है,
एकदम नहीं मिट जाता, हवा का झोंका आएगा,
समय लगेगा, मिट जाएगा। फिर कोई पत्थर पर लिखता
है—हवा के झोंके भी आते रहेंगे, सदियां गुजरेंगी और न मिटेगा।
मैं तुमसे कहता हूं? जीवन कुछ पानी जैसा है। तुम लिखते ही
रहो, लिखते ही रहो, लिखते ही रहो,
तो ही अक्षर बने रहते हैं। तुम जरा रुको कि गए। जैसे कोई साइकिल
चलाता है, पैडल मारता ही रहे तो चलती है। जरा पैडल रोक ले,
थोड़ा—बहुत चल जाए पुराने आधार पर! बहुत सालों से चल रहे थे साइकिल
पर बैठे, तो थोड़ी गति साइकिल में होगी, वह चल जाएगी; थोड़ा ढाल—ढलान होगा, चल जाएगी। मगर कितनी चलेगी? जल्दी ही गिर जाएगी।
प्रतिपल
तुम अपने जीवन को बनाते हो,
प्रतिपल बनाते हो। यह धंधा हर घड़ी का है। तुम जिस दिन राजी हो गए रोकने
को, अगर मन भर गया है विषाद से, अगर रस
चुक गया है विषाद से, अगर विषाद के आधार पर सहानुभूति और
ध्यान आकर्षित करने की इच्छा चली गयी है, तो मैं तुमसे कहता
हूं आज ही वह दिन है—घड़ा आ गया—तुम बाहर हो जाओ।
तुम
मत पूछो कि कैसे बाहर हो जाऊं? क्योंकि कैसे का कोई सवाल नहीं है। हंसकर बाहर
हो जाओ। गीत गुनगुनाकर बाहर हो जाओ। झाडू दो इस चेहरे पर पुरानी आदत को, कह दो कि बस हो गया बहुत, अब नहीं। और इस क्षण के
बाद विषाद के आधार पर जो भी तुमने माग्ह हो जीवन में, वह मत
मांगना फिर। है भी नहीं, अपमानजनक है। विषाद के आधार पर सहानुभूति
मांगना अपमानजनक है। रोकर आसुओ के आधार पर किसी का प्रेम मांगना अपमानजनक है।
मनुष्य की गरिमा के योग्य नहीं।
सुंदर
बनो, संगीत बनो, नृत्य बनो, सृजनात्मक
बनो, फिर कोई तुम्हारे पास आकर प्रेम के फूल चढ़ा जाए,
शुभ है। स्वीकार करना। रोकर, चीखकर, लोट—पोट कर, दुखी होकर, दूसरों
को मजबूर मत करो कि सहानुश्रइत दिखाएं।
ध्यान
रखना, जो भी आदमी सहानुभूति मांगता है, लोग उसे देते हैं,
लेकिन उसे कभी क्षमा नहीं कर पाते। क्योंकि वह आदमी शोषक मालूम होता
है। तो जो आदमी दुख की कहानी कहता है और तुम्हें उसके दुख में सहानुभूति दिखानी
पड़ती है, वह रास्ते पर दिख जाता है, तुम
गली से बचकर निकल जाते हो। कि आ रहा है फिर! उससे लोग बचते हैं, क्योंकि वह शोषण करता है। और अगर सहानुभूति न दो, तो
ऐसा लगता है कि तुम कोई पाप कर रहे हो। सहानुभूति दो, तो ऐसा
लगता है जबर्दस्ती तुमसे ली जा रही है, अकाराग। न दो,
तो लगता है कोई अपराध कर रहे हो।
नहीं, सहानुभूति
मांगने वाले को कोई क्षमा नहीं करता। सहानुभूति भागने वाले से लोग बचते हैं। उबाता
है सहानुभूति मागने वाला। इस तरह के गलत ढंग मत सीखो। इनसे सावधान होना जरूरी है।
दूसरा प्रश्न—
भीतरी मसीहा के
संबंध में कल आपने बहुत सूक्ष्म और गहरी बातें बतायीं। उसी संदर्भ की मेरी एक
समस्या है। मैंने जिस लड़की से शादी की, वह शादी के पहले बहुत उदास रहती थी
और मुझसे कहती थी कि वह इसीलिए उदास और दुखी है कि मैं उससे शादी नहीं करता। लेकिन
शादी के बाद भी वह आनंदित नहीं रहती और उदास व्यक्ति के साथ रहना मुझे असह्म मालूम
पड़ता है। पत्नी को सुखी करने के लिए मैं क्या करूं?
बहुत सी बाते
समझनी होगी।
पहली
बात—जो उदास है,
जो दुखी है, उसकी उदासी और दूख के कारण झूककर क्योंकि
उस भाति तुम उसकी उदासी ओरटुतु घटा नहीं रहे हो।
जरा
सोचो, कोई युवती ने तुमसे कहा कि उदास हूं अगर तुम मुझसे शादी न करोगे तो मैं
दुखी रहूंगी। तुम उसके दुख के कारण झुके, तुमने शादी कर ली।
अब जिस दुख के कारण तुम उसे मिले, उसे वह कैसे छोड़ सकती है?
थोड़ा सोचो, वह तो पति के त्याग जैसा त्याग हो
जाएगा। जिस दुख से उसने तुम्हें पाया, उस दुख को तो वह
सम्हालकर रखेगी। और तुमने दुख के लिए झुककर जिस अहंकार का मजा लिया, तुम भी पसंद न करोगे अगर वह सुखी हो जाए। मजा क्या मिला तुम्हें! यह विवाह
कोई प्रेम का विवाह तो नहीं है।
यह
विवाह तो अहंकार का विवाह है। युवती दुखी थी, तुम्हें उसने उद्धारक होने का मौका
दिया, समाज—सेवक होने का मौका दिया, महापुरुष
होने का मौका दिया कि तुम कोई शरीर—चमड़ी के रूप—रंग के कारण विवाह नहीं कर रहे हो,
उद्धार! तुम्हें बड़ा मजा दिया। तुम्हारे अहंकार को पुष्टि दी। प्रेम
के कारण यह विवाह हुआ नहीं। तुमने सेवा की। तुम दुख के कारण झुके। तुमने सहानुभूति
दिखायी। यह प्रेम नहीं है! और तुमने बड़ा मजा लिया कि देखो, कैसा
त्याग कर रहा हूं!
कुछ
लोग हैं, वे विधवाओं से विवाह करते हैं। जैसे उनके विवाह होने के लिए किसी का विधवा
होना पहले जरूरी है। एक आदमी है, वह आया मेरे पास, वह कहने लगा कि विधवा से विवाह कर रहा हूं। मैंने कहा, विवाह ही काफी झंझट है, तू विधवा के पीछे क्यों पड़ा
है? बोला कि नहीं, समाज—सुधारक हूं। और
दो—दो पुण्य एक साथ उसने कहे—विवाह भी और विधवा का उद्धार भी! मैंने कहा, तू विवाह तो कर, विधवा वह अपने—आप हो जाएगी, तू फिकर क्यों करता है? एक काम तू कर, दूसरा वह कर लेगी।
विधवा
से विवाह करने का रस?
ही, कोई किसी विधवा के प्रेम में हो, बात अलग। लेकिन विधवा के प्रेम में कोई वैधव्य से थोड़े ही प्रेम में होता
है। एक स्त्री के प्रेम में होता है, वह विधवा है या नहीं है,
यह बात गौण है। इससे क्या लेना—देना है? जैसे
कोई स्त्री डाक्टर है, या कोई स्त्री नर्स है, या शिक्षक है, इससे क्या लेना—देना है? ऐसे कोई विधवा है, या नहीं है विधवा, इससें क्या लेना—देना है? लेकिन जो आदमी विधवा से ही
विवाह कर रहा है, वह स्त्री से विवाह नहीं कर रहा है,
खयाल रखना। अब बड़ी कठिनाई होगी, जैसे ही शादी
हो जाएगी, विधवा विधवा न रह जाएगी। रस समाप्त। जिससे प्रेम
किया था, वह तो बचा ही नहीं। विधवा से प्रेम था, विधवा के उद्धार में रस था, विवाह के बाद तो स्त्री
विधवा नहीं रह जाएगी। रस का कारण ही गया।
भूलकर
भी समाज—सुधारकों की मूढ़ता में मत पड़ना। समाज—सुधारकों ने जितनी मूढ़ता सिखायी है
और जितने अनर्गल—प्रलाप की बातें कही हैं, उसका कोई हिसाब लगाना मुश्किल है।
उन्होंने कितने जीवन व्यर्थ बर्बाद किए हैं, जिसका हिसाब
लगाना मुश्किल है। कोई हरिजन से विवाह कर रहा है। प्रेम के कारण विवाह हो—हो सकता
है प्रेम हरिजन से हो जाए, यह गौण बात है—र्लोकेन हरिजन से
विवाह! कि हम तो शूद्र से ही विवाह करके रहेंगे। तो ऐसा लगता है, जैसे कि उसकी शद्रता तुम्हारे प्रेम से ज्यादा महत्वपूर्ण है। ऐसा लगता है
कि प्रेम से ज्यादा महत्वपूर्ण कोई धारणा है, सामाजिक धारणा—शूद्र
के साथ विवाह!
तुमने
विवाह किया एक दुखी लड़की से, क्योंकि तुम सोचते थे दुख से उसे उबार लोगे।
लेकिन विवाह के साथ ही तुम्हारा भी रस समाप्त हो जाएगा, क्योंकि
उबारने का काम खतम हो गया। अब कोई मजा नहीं आएगा, रोज—रोज तो
उबार नहीं सकते। विवाह हो गया एक दफे, हो गया। अब तुम किसी
दूसरी युवती को उबारना चाहते होओगे दुख से। दुखी तो बहुत हैं।
और स्त्रियों को
यह गणित समझ में आ गया है कि यह पुरुषों में बड़ा उद्धारक—भाव है। मूढ़तापूर्ण है, मगर है।
क्योंकि पुरुष का मूल स्वभाव अहंकारी है। तो स्त्रियां उसके सामने रोती हैं,
दुखी होती हैं, पैर पड़ती हैं कि हम तो मर
जाएंगे
तुम्हारे
बिना—कोई मरता—करता नहीं—तुम्हारे बिना जी ही न सकेगे। पुरुष को बड़ा मजा आ जाता है
कि देखो, एक स्त्री मेरे बिना जी ही नहीं सकती। मेरे बिना मर जाएगी। इतनी दुखी हो
रही है कि जहर खा लेगी। तुम्हारे अहंकार को रस आया। स्त्री ने तुम्हारे अहंकार का
शोषण कर लिया। तुमने उसके दुख का शोषण किया, उसने तुम्हारे
अहंकार का शोषण किया यह कोई प्रेम का नाता नहीं है। यह नाता बिलकुल बाजारू है। इस
नाते में कभी फूल खिलने वाले नहीं हैं।
फिर
अगर स्त्री अब दुखी न रह जाए, तो खतरा खड़ा होगा। दुखी तो उसे रहना ही पड़ेगा
अब। जिस दुख ने ऐसे आड़े वक्त साथ दिया, वह दुख तो जीवनभर की
संपदा हो गयी। और तुम भी प्रसन्न न होओगे, अगर वह प्रसन्न हो
जाए, मैं तुमसे यह कहता हूं। तुम्हारी प्रसन्नता भी इसी में
है कि वह दुखी बनी रहे और तुम उसका उद्धार करते ही रहो। रोज—रोज चले यह काम।
निश्चित
ही, तुम चाहते हो कि वह प्रसन्न हो जाए। तुम्हारी चाह, जरूरी
नहीं है कि तुम्हारी आतरिक चाह हो। तुम उसे प्रसन्न देखना चाहते हो, लेकिन फिर से सोचो, अगर वह प्रसन्न हो जाए, सच में ही प्रसन्न हो जाए, तो शायद तुम उदास हो जाओ।
क्योंकि तुम्हारा उद्धारक, तुम्हारा अहं— भाव तृप्त न होगा
इस बात से कि वह प्रसन्न हो जाए। चाहना एक बात है, वस्तुत:
चाहना बिलकुल दूसरी बात है।
अब तुम कहते हो, 'शादी के
बाद भी दुखी रहती है, शादी के बाद भी आनंदित नहीं रहती।
शादी
से आनंद का क्या संबंध है?
जो आनंदित रहना जानता है, वह शादी में भी
आनंदित रहता है, शादी के बाद भी आनंदित रहता है। जो आनंदित
रहना नहीं जानता, शादी से क्या लेना—देना? शादी से आनंद का संबंध क्या है?
तुम
कभी सोचो भी तो कैसी बचकानी आकांक्षा आदमी करता है। सात चक्कर लगा लिए, बैंड—बाजा
बजा, मत्र उच्चार हुए, वेदी सजी,
पूजा—पाठ हो गया, इससे आनंदित होने का क्या
संबंध है? आनंद से इसका कौन सा कीमिया, कौन सा रासायनिक संबंध जुड़ता है? आनंदित होने का कोई
भी तो तर्कगत संबंध नहीं है इन सब बातों से।
लेकिन
समाज ऐसा मानकर चलता है कि लोग विवाहित हो गए, बस, फिर आनंद
से रहने लगे। ऐसा सिर्फ कहानियों में होता है। इसलिए कहानियां विवाह के आगे नहीं
जातीं। राजकुमारी, राजकुमार, और बड़ा
चलता है.. बड़ा झगड़ा—झांसा, शादी—विवाह। फिल्में भी वही खतम
हो जाती हैं आकर—शहनाई बजने लगी, भावर पड गए, फिर राजकुमार—राजकुमारी आनंद से रहने लगे। कहानी वहा खतम होती है जहां
असली उपद्रव शुरू होता है। उसके आगे कहानी कहना जरा शोभायुका नहीं है। उसके बाद
बात चुप ही रखनी उचित है।
विवाह
से कोई आनंदित नहीं होता। आनंदित लोग विवाह करते हैं, वह बात अलग
है। आनंदित लोग विवाह करें तो आनंदित होते हैं, विवाह न करें
तो आनंदित होते हैं। आनंदित होना गुणधर्म है। आनंदित होना तुम्हारा जीवन—दृष्टिकोण
है। आनंदित आदमी हर घड़ी में आनंद को खोज लेता है। जहां तुम्हें कुछ भी आनंद न
दिखायी पड़ता हो, वहां भी खोज लेता है। अंधेरी से अंधेरी रात
में भी वह अपने आनंद के छोटे—मोटे दीए को जला लेता है। अगर तुम दुखी हो, तो भरी दोपहरी भी तुम आंख बंद करके अंधेरे में हो जाते हो।
आनंद
का कोई संबंध बाहर की परिस्थितियों से नहीं है। विवाह बाहर की परिस्थिति है।
सामाजिक व्यवस्था है। इससे तुम्हारे उनतस—चेतना का कोई लेना—देना नहीं है। इसलिए
तुमने अपेक्षा की,
वह भूल भरी थी।
और
स्त्री ने गाधीवादी ढंग का उपाय किया। स्त्रियां पुरानी गाधीवादी हैं। वे दुखी
होकर तुमको सताने की व्यवस्था खोज लेती हैं। गांधी ने कोई नयी बात नहीं खोजी।
गांधी की अहिंसा पुराना स्त्रैण रास्ता है। स्त्रियां सदा से अनशन करती रही हैं।
जब झगड़ा हो गया पति से,
अनशन कर दिया। बीमार होकर पड़ गयीं। पति को झुकना पड़ा है। क्योंकि
स्त्री यह कहती है, हम तुम्हें कष्ट न देंगे, अपने को कष्ट देते हैं। अब अपने को कष्ट देना दूसरे को सताने की सबसे सुगम
व्यवस्था है। तुम दूसरे को कष्ट दो तो वह बचाव भी कर ले, भाग
खड़ा हो, सुरक्षा कर ले, ढाल—तलवार ले
आए—कुछ तो कर ले। लेकिन तुम दूसरे को कष्ट ही नहीं देते, तुम
कहते हो, हम भूखे मर जाएंगे, हम अनशन
करते हैं, उपवास करते हैं। स्त्रियां पति को मारना चाहें तो
खुद को पीट लेती हैं। पति को मारें तो बचाव भी कर ले। लेकिन खुद को मार लेती हैं,
बचाव का कोई उपाय नहीं। पति को अपराधी अनुभव करवा देती हैं।
अब
पति के मन में एक चोट लगती है कि मैंने काहे को ऐसा किया! ठीक और गलत की तो बात ही
खतम हो गयी। मैंने ठीक किया या गलत किया, यह तो सवाल ही न रहा। अब तो सवाल
यह रह गया कि मैंने जो किया वह न करता तो अच्छा था। क्योंकि यह पत्नी नाहक दुखी
हुई, अब यह मारेगी—भूखी रहेगी, खाएगी
नहीं, बच्चों को पीटेगी, सामान तोड़ेगी—अब
इसमें कुछ सार न रहा। और अब यह एकाध दिन का मामला नहीं है। छोटी सी घटना स्त्रियां
कई दिन तक खींचती हैं। तो पति धीरे—धीरे यह समझ लेता है कि आत्मा की शांति के लिए
यही उचित है कि जो पत्नी कहे, मान लो। क्योंकि इतना लंबा
खिंच जाता है मामला कि उसमें कोई अनुपात ही नहीं मालूम होता।
अंबेडकर
के खिलाफ गांधी ने उपवास किया। अंबेडकर ने माना नहीं कि गांधी जो उपवास कर रहे हैं, वह ठीक है।
लेकिन सारे मुल्क का दबाव पड़ा कि गांधी अगर मर जाएं.,. वह तो
बात ही खतम हो गयी कि ठीक और गलत कौन है, वह तो मसला ही बदल
गया; यह तो सवाल ही न रहा कि अंबेडकर ठीक हैं ईक गांधी ठीक
हैं, अब तो सवाल यह हो गया कि गांधी की जिंदगी बचानी है।
अंबेडकर बहुत चिल्ला—चिल्लाकर कहता रहा कि यह तो बात ही नहीं है। बात तो यह है कि
जो मैं कह रहा हूं वह ठीक है, या गांधी जो कह रहे हैं वह ठीक
है। पर लोगों ने कहा, यह पीछे सोच लेंगे, अभी तो जान का सवाल है। अभी तो गांधी की जान बचानी है। आखिर में अंबेडकर
को भी नींद हराम होने लगी, उसे भी लगा कि यह का मर जाएगा तो
सदा के लिए कत्नंक मेरे सिर लग जाएगा कि मैं नाहक जिद्द किया, अपराधी— भाव अनुभव होने लगा।
यह
बहुत पुरानी तरकीब है स्त्रैण। इसमें कुछ भी गौरवपूर्ण नहीं है। यह हिंसा से भी
बदतर है। क्योंकि हिंसा में कम से कम दूसरे को तुम सुरक्षा का, लडने का
मौका तो देते हो, इसमें तो तुम मौका ही नहीं देते। इसमें तो
तुम दूसरे को बिलकुल असहाय कर देते हो। दूसरे से सब छीन लेते हो उसकी सामर्थ्य। और
तुम अपने को इतना दीन—दुखी करने लगते हो कि दूसरे के मन में अपराध की भावना गहन
होने लगती है। अपराध की भावना के कारण वह झुक जाता है।
तो
जिस स्त्री ने तुम्हें दुख के कारण झुका लिया—कि मैं दुखी रहूंगी अगर तुमने शादी न
की—तुम हिंसा के सामने झुक गए। यह हिंसा अहिंसात्मक मालूम होती है, है नहीं।
यह हिंसा से भी बदतर हिंसा है। क्योंकि इसमें दूसरे को बडे सूक्ष्म और चालाक
उपायों से दबाने की व्यवस्था है।
अब
तुम शादी के बाद सोच रहे हो वह प्रसन्न हो जाए। अब तो वह प्रसन्न नहीं हो सकती।
उसने तुम्हें झुकाया,
उसका तकनीक काम कर गया, उसका सत्याग्रह काम कर
गया। अब तो यह सत्याग्रह छोड़ा नहीं जा सकता। अब तुम लाख कहो, अब तो उसने एक तरकीब सीख ली तुम पर सत्ता चलाने की। विवाह तुम नहीं करना
चाहते थे, वह भी करवा लिया। अब तो तुमसे कुछ भी करवाया जा
सकता है। जो भी तुम नहीं करना चाहते, वह भी करवाया जा सकता
है, क्योंकि नहीं तो वह दुखी रहेगी। दुख में बड़ा नियोजन हो
गया, स्वार्थ हो गया, निहित स्वार्थ हो
गया। इससे कुछ उसके जीवन में लाभ नहीं होगा। उसका सारा जीवन दुख में बीत जाएगा। और
तुमने दुख के लिए झुककर कोई उसका उद्धार नहीं किया, उसके
सारे जीवन को नर्क में पड़े रहने के लिए मजबूर कर दिया।
इसलिए
मैं कहता हूं उद्धारक मत बनना। और भूलकर भी किसी भी तरह की हिंसा के सामने मत
झुकना, अन्यथा तुम दूसरे आदमी को गलत जीवन की दिशा पकड़ने का सहारा दे रहे हो।
अब
तुम पूछते हो,
'उदास व्यक्ति के साथ रहना मुझे असह्य मालूम पड़ता है। पत्नी को सुखी
करने के लिए मैं क्या करूं?'
तुम्हारा
आखिरी सवाल बताता है कि अब भी तुम्हारी बुद्धि में कोई समझ नहीं आयी। अभी भी तुम
पूछते हो, पत्नी को सुखी करने के लिए मैं क्या करूं? इसी के लिए
तो विवाह किया था। अभी तुम वहीं के वहीं खड़े हो, तुम्हारी
बुद्धि मे कोई विकास नहीं हुआ। विवाह भी इसीलिए किया था कि इसको कैसे सुखी करूं,
अब भी तुम पूछ रहे हो, इसको सुखी करने के लिए
क्या करूं? तब तो तुम इसको दुखी ही करते जाओगे।
तुम
खुद सुखी होने की कोशिश करो। इस जगत में कोई किसी को कभी सुखी नहीं कर पाया है। ही, अगर तुम
सुखी हो जाओ, तो तुम्हारे पास ऐसी हवा बनती है कि कुछ लोग उस
हवा में सुखी होना चाहें तो हो सकते हैं। तुम कर नहीं सकते किसी को सुखी। वहीं
तुम्हारे गणित की भूल है। तुमने पहले यह पत्नी दुखी थी—पत्नी न थी—सुखी करने के
लिए विवाह किया। अब तुम पूछते हो, अब क्या करूं?
तुम
जो भी करोगे इसे सुखी करने के लिए, यह और दुखी होती जाएगी, क्योंकि तुम और इसके गुलाम होते चले जाओगे। तुम कृपा करके सुखी हो जाओ।
तुम इससे कह दो कि तू मजा कर तेरे दुख में, अगर तुझे दुख में
ही मजा लेना है। हम सुख में मजा लेंगे। जब पत्नी रोए, तब तुम
गाओ और नाचो। उसको अकल आने दो खुद ही कि अब कोई सार नहीं है दुखी होने का। यह आदमी
तो अब अपने से ही नाचने लगा! यह अपने से खुश होने लगा!
अगर
तुम उसके दुख को सच में ही मिटाना चाहते हो, सुखी हो जाओ। तुम्हारे सुखी होने
से ही उसे संभावना पैदा होगी कि वह भी सोचे कि अब बहुत हो गया यह दुख का खेल,
इससे कुछ पाया नहीं। और जिस पति को मैं समझती थी कब्जे में है दुख
के कारण, वह भी अब दुख के कारण कब्जे में नहीं है, वह प्रसन्न होने लगा। अब अगर इस पति के साथ बने रहना है, तो प्रसन्न होने के सिवाय कोई उपाय नहीं।
ध्यान
रखो, तुम भी दुखी आदमी होओगे, अन्यथा कौन दुखी स्त्रियों
में उत्सुक होता है! दुख दुख की तरफ आकर्षित होता है। अंधेरा अंधेरे के पास आता है।
रोशनी रोशनी के पास आती है। गलत आदमी गलत आदमियों के पास इकट्ठे हो जाते हैं। मगर
दूसरे की गलती दिखायी पड़ती है, अपनी दिखायी नहीं पड़ती। तुम
भी दुखी आदमी हो, अन्यथा कौन दुखी स्त्री में उत्सुक होता
है! समान समान को खींचते हैं, बुलाते हैं, तालमेल बन जाता है। तुम सुखी होना शुरू हो जाओ, इतना
ही तुम कर सकते हो। कम से कम दो में से एक सुखी हो गया, पचास
प्रतिशत क्रांति हुई। पचास का मैं तुमसे कहता हूं होगी, वह
भी अपने आप हो जाएगी।
एक
बात तुम तय कर लो कि अब तुम अपने कारण सुखी रहोगे, किसी के कारण दुखी नहीं। और
समझ लो कि कोई किसी को कभी सुखी कर नहीं पाया है। जितनी तुम चेष्टा करोगे सुखी
करने की, उतने ही तुम गुलाम मालूम पड़ोगे। जितने तुम गुलाम
मालूम पड़ोगे, दूसरा मजा त्सेg। उसके
हाथ में तुम्हारी बागडोर है।
तुम
पत्नी को कह दो कि अगर तुझे दुख में मजा है, तो मजे से तू दुख की तरफ
जा, अब हमने
तो तय किया है कि हम सुखी होंगे। अब दुख से हमने नाता तोड़ा, तू
साथ आए तो शुभ, तू साथ न आए तो हम अकेले चलेंगे, लेकिन सुखी रहेंगे। तू गीत में कड़ी बन जाए तो ठीक। हम गाएं और तू ढपली
बजाए तो ठीक, तू न बजाए तो हम बिना ढपली के ही गाएंगे,
मगर अब गाने का तय कर लिया।
इस
क्रांति से तुम पाओगे कि तुम्हारी पत्नी आज नहीं कल, फिर से पुन: विचार करेगी।
दुख का धंधा व्यर्थ गया। तुमने जड़ें काट दीं। अब दुखी होने का कोई अर्थ नहीं। या
तो वह बदलेगी अपने को, या किसी और दुखी पुरुष में उत्सुक हो
जाएगी। वह भी सौभाग्य है। कोई और उद्धारक मिल जाएगा। तुम इतने क्यों घबड़ाते हो,
उद्धारकों की कोई कमी नहीं है। या तो वह बदल लेगी, अगर उससे तुम्हारा सच में कोई लगाव है, अगर उसके मन
में तुम्हारे लिए कोई भी प्रेम है, तो वह अपने को बदलेगी।
प्रेमी सदा बदलने को तत्पर होते हैं।
अगर
कोई भी प्रेम नहीं,
तो यह दुख का घृणित और रुग्ण नाता तो छूटेगा। तो शायद वह किसी और को
खोज लेगी, किसी और के साथ दुखी होने का रास्ता बना लेगी। कोई
तुमने ही थोड़े ही दुख का ठेका लिया है? और भी बहुत हैं,
जो तुमसे भी ज्यादा दुखी हैं। खोज ही लेगी किसी को।
पर
मेरी दृष्टि में—बहुत लोगों पर प्रयोग करके मेरा ऐसा अनुभव है—अगर दो में से एक भी
सुखी होने लगे,
तो दूसरे को सुखी होने का खयाल आना शुरू हो जाता है। क्योंकि उसे
लगता है, यह क्या पागलपन है?
तुम
जड़ें काटो दुख की। दुख की जड़ काटने का पहला उपाय है कि तुम सुखी हो जाओ। अब अगर
तुम कहो कि पहले पत्नी सुखी होगी तब हम सुखी होंगे, तो फिर तुम सुख की बात ही
मत पूछो। तो पत्नी भी यही सोचती होगी, जब पति सुखी होगा तब
हम सुखी होंगे। फिर तो यह कभी भी न होगा।
दूसरा
बड़ा रहस्यपूर्ण है। और दूसरे के अंतरतम में प्रवेश का कोई उपाय नहीं है। आखिरी
गहराई पर तो दूसरा अलग ही रह जाता है। तुम बाहर ही बाहर घूम सकते हो। दूसरे के सुख
का भी पता लगाना कठिन है कि वह कैसे सुखी होगा। दूसरे का ही पता लगाना कठिन है कि
वह कौन है?
मैं
जीया भी दुनिया में और जान भी दे दी
यह
न खुल सका लेकिन आपकी खुशी क्या थी
प्रेमी
सोचते ही रहते हैं कि दूसरे की खुशी क्या थी? वह कुछ पता ही नहीं चल पाता। कई
बार तो ऐसा होता है कि जो तुम सोचते हो कि अब पकड़ लिया तुमने सूत्र, यही दूसरे की खुशी है; जब तुम करते हो, तुम पाते हो, दूसरा फिर का फिर दुखी है। उसे कोई
अंतर नहीं पड़ता। दूसरे को भी शायद ठीक—ठीक पता नहीं है कि कौन सी चीज उसे खुश कर
पाएगी।
तुम
अपने से ही पूछो,
तुम्हें ठीक—ठीक पता है, किस आधार पर तुम
प्रसन्न हो सकोगे? अगर तुम ईमानदारी से सोचोगे, तो तुम खुद भी बिबूचन में पाओगे कि मुझे भी ठीक—ठीक पता नहीं है कि क्या
होगा जिससे मैं खुश हो सकता हूं! न तुम्हें पता है, न दूसरे
को पता है। लोग तो कोई भी बहाने खोजे चले जाते है। कहते हैं, अच्छा मकान होगा तो खुश हो जाएंगे। यह सिर्फ टालना है। यह सिर्फ अपने को
समझाना है। फिर अच्छा मकान भी हो जाता है, लेकिन दुख में कोई
अंतर नहीं पड़ता। छोटे मकान में दुखी थे, अब बड़े मकान में
दुखी हो जाते हैं। धन नहीं था तो दुखी थे, धन होता है तो
दुखी हो जाते हैं। ऐसे ही जिंदगी सरकती रहती है।
मेरे
देखे, सुख के लिए कोई भी कारण नहीं है। तुम्हें बहुत कठिन होगा यह समझना। कोई भी
किसी कारण से सुखी नहीं होता, जो सुखी होना चाहता है अकारण
सुखी होता है। वह कहता है, बस, हमने तय
कर लिया अब सुखी होंगे; फिर झोपड़ी में भी सुखी होता है,
महल में हो जाए तो महल में भी सुखी होता है। उसने तय कर लिया। सुख
एक निर्णय है—कि हमने तय कr लिया कि सुखी होंगे। तुम पूछोगे,
लेकिन कारण? कारण कोई भी नहीं है।
सुख
हमारा स्वभाव है। निर्णय से ही हल हो जाता है। दुख तुम्हारा निर्णय है। सुख भी
तुम्हारा निर्णय है। तुम जरा मेरी बात मानकर भी चलकर देखो।
तुम
तय कर लो कि तीन महीने सुखी रहेंगे, फिर देखेंगे, बाद में सोचेंगे। तीन महीने एक प्रयोग कर लें कि निर्णय से सुखी रहेंगे।
कुछ भी हो जाए, हम अपने सुख को न खोके, पकड़—पकड़ लेंगे, बार—बार पकड़ लेंगे। छूट—छूट जाएगा
हाथ से, फिर—फिर खोज लेंगे, फिर—फिर
पकड़कर सम्हाल लेंगे। तीन महीने बिना कारण सुखी होंगे। तुम फिर कभी जिंदगी में दुखी
न हो सकोगे। क्योंकि एक बार भी तुम्हें क्षणभर को भी यह पता चल जाए कि अकारण सुखी
हुआ जा सकता है...!
सुख
स्वभाव है, उसके लिए किसी कारण की कोई भी जरूरत नहीं है। वह तुम्हारे भीतर बजता हुआ
सितार है—बज ही रहा है—तुमने तरकीबों से अपनी आंखें और कान बंद कर लिए हैं। तुमने
व्यर्थ की शर्तें बिठा रखी हैं कि ये—ये शर्तें पूरी होंगी, तब
मैं सुखी होऊंगा। शर्तें पूरी हो जाएंगी, तुम पाओगे, फिर भी सुखी नहीं हुए। मन नयी शर्तें बना लेगा।
तो
एक, वही केवल सुखी होता है इस जगत में, जो अकारण सुखी
होता है। दो, दूसरे को सुखी करने की कोई सुविधा नहीं है।
कैसे तुम दूसरे को सुखी करोगे? मुल्ला नसरुद्दीन और उसकी
पत्नी में कुछ विवाद हो रहा था। मैं मौजूद था, सुनता रहा।
बात लंबी होती चली गयी। पत्नी भीतर गयी तो मैंने मुल्ला से कहा, व्यर्थ समय खराब कर रहे हो, राजी हो जाओ कि ठीक है।
उसकी भी अक्ल में आया कि व्यर्थ इतना समय गया। पत्नी बाहर आयी, उसने कहा कि मैं बिलकुल राजी, तू जो कहती है ठीक।
उसने कहा, लेकिन मैंने अपना विचार बदल दिया।
क्या
करोगे? जब तक तुम राजी होते हो, तब तक दूसरा विचार बदल देता
है।
क्या हाथ में, तुम्हारे
बस में कहां है! फिर विवाद वहीं का वहीं खड़ा है। दूसरा जब तुमसे विवाद कर रहा है,
तो यह मत सोचो कि विवाद में कोई सिद्धातों की बात है। अहंकारों का
संघर्ष है। दूसरा यह बर्दाश्त नहीं करता कि तुम इतने मालिक हो जाओ उसके कि तुम उसे
सुखी कर दो। यह कोई बर्दाश्त नहीं करता। अपनी मौज से दुखी रहना भी लोग पसंद करते
हैं, दूसरे के हाथ से सुखी होना भी पसंद नहीं करते। अहंकार
को चोट लगती है।
तो
जब तुम किसी को सुखी करने की कोशिश करोगे, वह तुम्हें हराकर रहेगा। वह
तुम्हें हजार तरह से समझाकर रहेगा कि देखो, कुछ भी नहीं हुआ।
तुम्हारे सुखी करने की कोशिश में मैं और दुखी हो गया। तुम यह बात ही छोड़ दो। तुम
उस दूसरे को कह दो कि तुम्हारी मौज। अगर तुमने यही तय किया है कि सुखी रहना है,
तो सुखी; दुखी रहना है, दुखी।
हम तुम्हें स्वीकार करते हैं, तुम जैसे हो, ठीक हो। हमने अपना तय कर लिया है।
और
एक व्यक्ति भी अगर तय कर ले कि सुखी रहने का निर्णय मेरा पूरा है तो उसके आसपास एक
हवा पैदा होती है,
जिसमें दूसरे लोगों को भी सुख का संक्रामक रोग लगना शुरू हो जाता है।
तुम
कहते हो कि 'दुखी व्यक्ति के साथ रहना असह्य मालूम पड़ता है। '
तो
सुखी हो जाओ। क्योंकि अंततः तो हम अपने ही साथ हैं, दूसरे के साथ नहीं हैं।
अंततः कौन किसके साथ है? सब अकेले—अकेले हैं। तुम अगर दुखी
हो, तो ही तुम दुखी व्यक्ति के साथ हो। तुम अगर सुखी हो,
तो तुम सुखी व्यक्ति के साथ हो।
अब मेरे पास इतने
दुखी लोग आते हैं। इससे मैं दुखी लोगों के साथ हूं ऐसा मत समझना। इतने दुखी लोग
मैं आकर्षित करता हूं?
बुलाता हूं? पर इससे मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता।
दुखी होंगे, वह उनकी मौज है। मेरे और उनके बीच में मेरा सुख
है। उसके पार उनका दुख प्रवेश नहीं कर सकता।
मैं
तुम्हारे दुख को समझता हूं। लेकिन तुम्हारे दुख के कारण दुखी नहीं हूं। मैं
तुम्हारे आसुओ को समझता हूं, चाहता हूं तुम्हारे आंख से आंसू सूख जाएं,
लेकिन तुम्हारेआसुओ के कारण मैं नहीं रोता हूं। मेरे रोने से क्या
हल होगा! आंसू दुगुने हो जाएंगे। तुम्हारे आंख में आंसू न रह जाएं, इसके लिए जो कुछ भी मैं कर सकता हूं, वह करता हूं।
लेकिन वह करना मेरे सुख से निकलता है, मेरे दुख से नहीं। मैं
तुम्हारे कारण दुखी नहीं हूं इसे तुम खयाल रखना। मेरा सुख मेरे कारण है। वह अखंड
है। उसमें तुम्हारे होने से कोई फर्क नहीं पड़ता।
मेरे
सुख के कारण ही मैं तुम्हारे दुख को दूर करने की चेष्टा में लगा रहता हूं। लेकिन
तुम अगर दुखी बने ही रहो,
तुम सुखी न हो सको, तो भी मैं दुखी नहीं होता।
क्योंकि यह तुम्हारी स्वतंत्रता है। यह मेरी मौज है, मुझे
मजा आता है कि तुम्हारी
आंखों से आंसू उड़
जाएं और गीत खिल जाएं। यह मेरी मौज है। यह तुम्हारी मौज है कि तुम आसुओ में रस
लेना चाहते हो। मैं कौन हूं बाधा देने वाला! मैं अपना काम किए चला जाता हूं र तुम
अपना काम किए 'चले जाओ। तुम मुझे हरा न सकोगे, क्योंकि मेरी जीत
तुम पर निर्भर नहीं है।
और
यही दृष्टिकोण तुम्हारा हो सारे संबंधों में, तो ही तुम पाओगे कि जीवन एक नए
आयाम में प्रवेश करता है—सुख —के, महासुख के।
तीसरा प्रश्न—
कहते है, जीवन के कुछ
मूल्य हैं, जो देश—काल पर आधारित हैं और कुछ मूल्य शाश्वत है।
क्या उन पार कुछ प्रकाश डालने की कृपा करेंगे?
शाश्वत
तो सिर्फ जीवन का ही मूल्य है—स्वयं जीवन का——बाकी सब अमूल्य सामायिक है। जीवन परम
मूल्य है। उससे ऊपर कोई मूल्यनहीं। बाकी सब मूल्य जीवन के श्रंगार है। सत्य या
अहिंसा या करूणा या अस्तेय, अचौर्य, ब्रह्मचर्य,
वे सब जीवन का सौंदर्य हैं, जीवन का श्रृंगार
हैं।
लेकिन
जीवन से ऊपर कोई मूल्य नहीं है। जीवन है परमात्मा। जीवन है प्रभु। तो जिससे भी तुम
ज्यादा जीवंत हो सको और जिससे भी तुम्हारा जीवन ज्यादा प्रखरता को उपलब्ध हो, प्रकाश को
उपलब्ध हो, वही शाश्वत मूल्य है। इसलिए शाश्वत मूल्य को कोई
शब्द नहीं दिए जा सकते। उसको नाम नहीं दिया जा सकता। समय बदलता है, स्थिति बदलती है, मूल्य बदलते जाते हैं। पर एक बात
ध्यान में रहेजीवन जिससे बढ़े, विकसित हो, फैले, ऊंचा उठे।
जीवन
की आकांक्षा गहनतम आकांक्षा है। उसी आकांक्षा से मोक्ष पैदा होता है, निर्वाण
पैदा होता है। उसी आकांक्षा से परमात्मा की खोज, सत्य की खोज
पैदा होती है। इसलिए कभी—कभी ऐसा भी हो जाता है कि जीवन के विपरीत, जीवन के विरोध में बात करने वाले लोग भी—विपरीत भी बात करते हैं तो भी
जीवन के लिए ही करते हैं।
यूनान में एक बहुत
बड़ा विचारक हुआ पिरहो। वह कहता था, जीवन में तब तक शांति न होगी जब तक
जीवन का अंत न हो। आत्मघात का उपदेश देता था। खुद चौरासी साल तक जीया। कहते हैं,
कुछ लोगों ने उसकी मानकर आत्महत्या भी कर ली। मरते वक्त किसी ने
उससे पूछा कि पिरहो, तुमने दूसरों को तो सिखाया कि जीवन की
परम शांति तभी है जब जीवन का भी त्याग हो जाए, और कई ने आत्महत्या
भी कर ली तुम्हारी बातें मानकर, लेकिन तुम तो खूब लंबे जीए।
उसने कहा, जीना पड़ा, लोगों को समझाने
के लिए।
जर्मनी
का बड़ा विचारक हुआ शापेनहार। वह भी आत्महत्या का पक्षपाती था। खुद उसने की नहीं।
करने की तो बात दूर रही,
प्लेग फैली, तो जब गांव से सब लोग भाग रहे थे,
वह भी भाग खड़ा हुआ। राह में लोगों ने पूछा कि अरे, हम तो सोचते थे तुम न भागोगे, क्योंकि तुम तो
आत्महत्या मे मानते हो। उसने कहा, बातचीत एक है! मुझे याद ही
न रहा अपना दर्शनशास्त्र, जब मौत सामने खड़ी हो गयी। बुद्ध ने
निर्वाण की बात की है, जहां सब बुझ जाता है। लेकिन वह भी
जीवन की ही आकांक्षा है। वह परम शुद्ध जीवन की आकांक्षा है, जहां
जीवन के कारण भी बाधा नहीं पड़ती, जहा जीवन की भी सीमा न रह
जाए जीवन पर, ऐसे शुद्धतम अस्तित्व की।
जीवन
का मूल्य परम मूल्य है,
शाश्वत मूल्य हे। पर कोई नीतिशास्त्र जीवन के उस परम मूल्य के लिए शब्द
नहीं दे सकता, सिद्धात नहीं बना सकता। क्योंकि वह सहज—स्फूर्त
है। सब नैतिक मूल्य सामयिक मूल्य हैं। कभी एक मूल्य महत्वपूर्ण हो जाता है
परिस्थितिवश, कभी दूसरा मूल्य महत्वपूर्ण हो जाता है। यह
मूल्यों का परिवर्तन तो चलता रहेगा। अगर तुम्हें जीवन का मूल्य खयाल में आ जाए,
तो तुम्हारे जीवन में सामयिक मूल्य अपने आप अनुचरित होने लगेंगे।
अगर तुम अपने जीवन का मूल्य समझ लो तो दूसरे के जीवन का मूल्य भी तुम्हारे मन में
अपने आप प्रतिस्थापित हो जाएगा।
समझो।
अहिंसा नैतिक मूल्य है। लेकिन उसके प्राण हैं शाश्वत मूल्य में, जीवन के
मूल्य में—न तुम चाहते हो तुम्हारा जीवन कोई नष्ट करे, न तुम
चाहो कि तुम किसी का जीवन नष्ट करो, अतएव अहिंसा। अहिंसा उसी
दूरगामी बात को कहने का एक उपाय है—जब तुम चाहते हो तुम्हारा जीवन कोई नष्ट न करे,
तो तुम भी किसी का जीवन नष्ट न करो। जिसने जीवन का मूल्य समझ लिया,
अहिंसा शब्द को छोड़ दे, कोई हर्जा नहीं।
व्यर्थ है फिर शब्द। फिर तो उसके भीतर से सहज—स्फूर्त जीवन ही काम करेगा।
जीवन है सत्य। तो
जो नहीं है, उसे मत कहो, क्योंकि वह जीवन के प्रतिकूल होगा।
इसलिए सत्य का मूल्य है। लेकिन जिसने जीवन के मूल्य को शिरोधार्य कर लिया, सत्य की बात छोड़ दे, कोई जरूरत नहीं, जीवन पर्याप्त है। प्रेम, दया, करुणा, वे मूल्य हैं, लेकिन
जिसने जीवन को पहचान लिया, उसके भीतर प्रेम की छाया अपने आप
चलने लगती है। जीवन के जिसने रस को जान लिया, उससे प्रेम बहेगा।
लेकिन वह सहज—स्फूर्त होगा।
जो
मैं कहना चाहता हूं वह यह : शाश्वत मूल्य सहज—स्फूर्त होता है, सामाजिक
मूल्य आरोपित होते हैं, समाज उन्हें सिखाता है। ऐसा समझो—
यह
नमाजे—सहने—हरम नहीं यह सलाते—कूचा—ए—इश्क है
न
दुआ का होश सजूद में न अदब की शर्त नमाज में
जो
खड़े हैं आलमे—गौर में वो खड़े हैं आलमे—गौर में
जो
झुके हैं नमाज में वो झुके हैं नमाज में
यह
नमाजे—सहने—हरम नहीं
यह
जो परम जीवन के मूल्य की मैं बात कर रहा हूं, यह मस्जिद में पढ़ी जाने वाली नमाज
नहीं, यह मंदिर में की जाने वाली पूजा नहीं।
यह
सलाते—कूचा—ए—इश्क है
यह
तो प्रेम की गली की नमाज है।
एक
तो नमाज है जो मस्जिद में पढ़ी जाती है। उसका सलीका है, उसका ढंग
है, व्यवस्था है, रीति—नियम हैं। फिर
एक नमाज है जो प्रेम की गली में पढ़ी जाती है। उसका कोई शास्त्र नहीं है। वह
स्वतंत्र है। वह सहज—स्फूर्त है।
न
दुआ का होश सजूद में न अदब की शर्त नमाज में
वह
जो प्रेम की गली में पढ़ा जाता है प्रार्थना का सूत्र, वह जो
प्रेम की गली में की जाती है पूजा और अर्चना, वहा न तो याद
रहता कौन सी प्रार्थना कहें, कौन सी न कहें; प्रार्थना कहें भी कि न कहें, यह भी याद नहीं रहता।
न कोई शिष्टाचार को शर्त रह जाती है।
न
दुआ का होश सक में न अदब की शर्त नमाज में
जो
खड़े हैं आलमे—गौर में वो खड़े हैं आलमे—गौर में
कोई
खड़ा ही रह जाता है उस परमात्मा के रस में डूबा!
जो
खड़े हैं आलमे—गौर में वो खड़े हैं आलमे—गौर में
जो
झुके हैं नमाज में वो झुके हैं नमाज में
कोई
झुकता है तो झुका ही रह जाता है। न कोई अदब है, न कोई शिष्टाचार है, न कोई रीति—नियम है।
लेकिन
वह आखिरी बात है। जब तक वह न हो, तब तक सामयिक रीति—नियम को मानकर आदमी को चलना
पड़ता है। जब तक तुम्हारे जीवन में वैसी नमाज न आ जाए कि खड़े हैं तो पता नहीं खड़े
हैं, झुके हैं तो पता नहीं झुके हैं; जब
तक तुम्हारे जीवन में वैसी प्रार्थना न आ जाए कि जहां गज गयी प्रार्थना वहीं मंदिर
हो गया प्रभु का, तब तक तो कहीं न कहीं मंदिर तलाशना होगा,
कहीं मस्जिद खोजनी होगी। जब तक तुम्हारे जीवन में जीवन का परम
शाश्वत मूल्य बरसे न, तब तक अहिंसा, दया,
करुणा, प्रेम, इन नियमों
को मानकर चलते रहना होगा। ये ऊपरी आवरण हैं। ये तुम्हें तैयार करेंगे उस परम घटना
के लिए। जब वह घट जाएगी, तब इस कूड़े—कर्कट को फेंक देना। जब
वह घट जाए, तब फिर किसी रीति—नियम की कोई जरूरत नहीं रह जाती।
न
अपने दिल की लगी बुझा यूं
न
कर जहत्रुम का तजकिरा यूं
संभाल
अपने बया को वाइज!
कि
आच आने लगी खुदा पर
अगर
तुम धर्मगुरु की भाषा सुनो,
तो वह कोई धर्म की भाषा नहीं है। वह तो नर्क का ऐसा वर्णन करने लगता
है कि उसकी बात सुनकर तुमको लगेगा कि वह रस ले रहा है। ऐसा लगेगा कि भेजने के लिए
बड़ा उत्सुक है। चाहता है कि भेज ही दे। उसकी आंखों में चमक, उसके
चेहरे पर उत्तेजना मालूम होगी।
न
अपने दिल की लगी बुझा यूं
न
कर जहघुम का तजकिरा यूं
ऐसा
लगता है कि दिल की लगी बुझा रहा है। जो खुद करना चाहता था, नहीं कर
पाया, जिन्होंने किया है, उनको नर्क
में डालने का मजा ले रहा है। आग में सड़ा रहा है।
न
कर जहजुम का तजकिरा यूं
इस
तरह जहजुम का वर्णन कर रहा है रस ले—लेकर, चटकारे ले—लेकर कि लगता है दिल की
लगी बुझा रहा है।
सम्हाल
अपने बया को वाइज!
हे
धर्मगुरु! अपने वक्तव्य को थोड़ा सम्हाल।
कि
आच आने लगी खुदा पर
कि
तेरे इस नर्क की आच तो अब खुदा तक पहुंचने लगी, आदमियों की तो बात और। यह तेरी
नर्क की लपटें तो अब जीवन के परम सत्य को भी कुम्हलाने लगीं। एक बात खयाल में रखना,
नर्क और स्वर्ग, जो नहीं समझते, उनके लिए पुरस्कार और दंड की कल्पनाएं हैं। पाप और पुण्य, जो नहीं समझते, उनके लिए की गयी व्याख्याएं हैं। जो
जागता है, समझता है। न फिर कोई पाप है, न फिर कोई राज्य है। न कोई स्वर्ग है, न कोई नर्क है।
जीवन ही सब है।
और
जो समझता है,
उसकी समझ काफी है। समझ के ऊपर कोई और शास्त्र नहीं। समझ आखिरी
सिद्धात है। ही, जब तक न समझा हो, तब
तक दूसरे जो बताएं उनके आधार पर चलना ही होगा। आंख न खुली हो तो टटोलना ही होगा। आंख
बंद हो तो हाथ में छड़ी लेकर रास्ता खोजना होगा।
सारे
रीति—नियम अंधे के टटोलने जैसे हैं। आंख खुल जाए, फिर कोई रीति—नियम की जरूरत
नहीं है। फिर सब मर्यादाओं से व्यक्ति मुक्त हो जाता है। अमर्याद है चैतन्य। और
उसी अमर्याद चैतन्य में से सारी मर्यादाएं अपने आप निकलती हैं। स्वतंत्रता है परम,
लेकिन स्वच्छंदता नहीं है।
खयाल
रहे, रीति—नियम तब तक जरूरी हैं जब तक तुम्हारा ध्यान नहीं जगा।
ध्यान जगेगा तो ही
तुम्हें शाश्वत मूल्य का पता चलेगा। जीवन कहो, अस्तित्व कहो, परमात्मा कहो, प्रशा कहो, समाधि
कहो, नाम हैं। नाम ही अलग हैं। सार की बात इतनी है कि
तुम्हारा ध्यान का दीया जल जाए। बस फिर किसी नीति का तुम पर बंधन नहीं, क्योंकि तुम कुछ करके भी अनैतिक न हो पाओगे। तुम चाहोगे भी, तो भी अनैतिक न हो पाओगे। तुम्हारे होने में ही नीति समाविष्ट हो जाएगी।
लेकिन
जब तक यह न हो,
तब तक बुद्धपुरुषों ने जो कहा है, जाग्रत
पुरुष जैसे जीए हैं और जैसे चले हैं, तब तक टटोल—टटोलकर उनके
रास्ते को मानकर चलना। नीति—जागे हुए पुरुषों का अनुसरण है। धर्म—तुम्हारे भीतर
जागरण का आगमन है।
आज इतना ही।
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