सोमवार, 17 अप्रैल 2017

अमृत द्वार-(विविध) -प्रवचन-04



अमृत द्वार-(विविध)
ओशो
प्रवचन-चौथा-(नाचो प्रेम है नाच)
 बड़ौदा, दिनांक ८ सितंबर, १९६८

दान मैत्री और प्रेम से निकलता है तो आपको पता भी नहीं चलता है कि आपने दान किया। यह आपको स्मरण नहीं आती कि आपने दान किया। बल्कि जिस आदमी दान स्वीकार किया, आप उसके प्रति अनुगृहीत होते हैं कि उसने स्वीकार कर लिया। लेकिन अब दान का मैं विरोध करता हूं, जब वह दान दिया जाता है तो अनुगृहीत वह होता है जिसने लिया। और देने वाला ऊपर होता है। और देने को पूरा बोध है कि मैंने दिया, और देने का पूरा रस है और आनंद। लेकिन प्रेम से जो दान प्रकट होता है वह इतना सहज है कि पता नहीं चलता कि दान मैंने किया। और जिसने लिया है, वह नीचा नहीं होता, वह ऊंचा हो जाता है। बल्कि अनुगृहीत देने वाला होता है, लेने वाला नहीं। इन दोनों में बुनियादी फर्क है। दान हम दोनों के लिए शब्द का उपयोग कर सकते हैं, लेकिन दान उपयोग होता रहा है उसी तरह के दान के लिए, जिसका मैंने विरोध किया। प्रेम से जो दान प्रकट होगा, वह तो दान है ही।

प्रश्न अगर कोई आदमी भूखा मरता हो और उसको खाना खिला दिया तो यह कैसा रहा?

उत्तर--अगर आपको ऐसा खयाल आए कि मैंने खाना खिला दिया तो कोई बड़ा काम कर लिया, तो यह दान पाप होगा। खयाल तो यह आना चाहिए कि कितनी मजबूरी है, कितनी कठिनाई है! अकाल पड़ जाता है, हम कुछ भी नहीं कर पाते। हम दो रोटी दे पाते। हम दो रोटी दे पाते हैं। तो दुखी होना चाहिए कि दो रोटी देने से कुछ से कुछ हो गया है? अगर प्रेम से आप जाएंगे अकाल में काम करने तो आप पीड़ित अनुभव करेंगे कि कितना काम हम पर पा रहे हैं, जो कुछ भी नहीं है। होना तो यह चाहिए कि अकाल संभव न हो, एक आदमी भूखा न मरे। हम कुछ भी नहीं कर पा रहे हैं। आपकी पीड़ा यह होगी कि सब कुछ करते हुए हम कुछ भी नहीं कर पा रहे हैं। लेकिन वह जो दान देने वाला है वह वहां से अकड़ कर लौटेगा कि मैंने इतने लोगों को खाना खिलाया था।
तो दान का बोध ही गलत है। प्रेम से दान निकलता है, वह बात ही अलग है। वह इतना ही सहज है कि उसका कभी भी नहीं चलता। उसकी कोई रेखा ही नहीं छूट जाती कुछ। बल्कि प्रेम से दान निकलता है, हमेशा प्रेमी को लगता है कि कुछ कर पाया।
एक मां से पूछें कि उसने अपने बेटे के लिए क्या किया। वह कहेगी मैं कुछ भी नहीं कर पायी। जहां पढ़ाना था, पढ़ा नहीं पायी, जो खाना खिलाना था वह खिला नहीं पायी, जो कपड़ा पहनाना था वह मैं नहीं पहना पायी। मैं लड़के के लिए कुछ भी हनीं कर पायी। और एक संस्था के सेक्रेटरी से पूछें कि उसने संस्था के लिए क्या-क्या किया? तो वह हजार फेहरिस्त बनाए हुए खड़ा है कि हमने यह किया, हमने यह किया, हमने यह किया। जो उसने नहीं किया उसका भी दावा है कि हमने किया। और मां ने जो किया भी, उसकी भी वह दावेदार नहीं है। वह कहेगी कि मैं कुछ भी नहीं कर पायी।
तो प्रेम के पीछे कभी भी यह भाव नहीं छूट जाएगा कि मैंने कुछ किया। और जिस दान में यह भाव रहता है कि मैंने कुछ किया, उसको मैं पाप कहता हूं। वह अहंकार का ही पोषण है।
तो प्रेम से जो दान निकलेगा, उसकी तो बात ही और है। उसको तो दान कहने की जरूरत ही नहीं है। तो वह निकलता ही रहेगा। प्रेम तो स्वयं ही दान है। लेकिन बिलकुल ही अन्यथा बात है। और यह दान-धर्म की हम इतनी प्रशंसा करते हैं कि दान दो तो पुण्य होगा, दान दो तो स्वर्ग मिलेगा, दान दो तो भगवान तक पहुंच जाओगे, यह शरारत की बात है। इससे कोई मतलब नहीं है। यह उस आदमी के अहंकार का पोषण है। और इस भांति जो दान दे रहा है वह दान-वान कुछ नहीं दे रहा है। वह फिर शोषण कर रहा है, वह अपने स्वार्थ का फिर इंतजाम कर रहा है। आपकी दीनता-दरिद्रता उसे कहीं भी नहीं छू रही है। बल्कि आप दीन और दरिद्र हैं, इससे वह खुश है। क्योंकि उसे दानी बनने का एक अवसर आप जुटा रहे हैं। सड़क पर एक भिखारी आपसे दो पैसे मांगे, अगर आप अकेले हैं तो आप इंकार कर देंगे, अगर चार आदमी हैं तो आप दे देंगे। क्योंकि चार आदमी देखते हैं कि दो पैसा दिया। चार आदमी के सामने भिखारी को इंकार करना कि नहीं देंगे आपके अहंकार को चोट लगती है। अकेले में आप दुत्कार देंगे। इसलिए भिखारी प्रतीक्षा करता है, अकेले आदमी से नहीं मांगता है, चार आदमी हों तो पकड़ लेता है। क्योंकि इन तीन के सामने आपके अहंकार का उपयोग करता है। अब जरा मुश्किल है, इंकार करना।

प्रश्न--अस्पष्ट

उत्तर--मुश्किल यह है कि जब आप दे रहे हैं तब आप इसलिए दे रहे हैं कि चार लोग देख लें, चार लोगों को पता चल जाए और अगर यह आपकी कंडीशन नहीं है तो उसको मैं दान नहीं कह रहा हूं, उसको मैं प्रेम कह रहा हूं। फिर तो आप यह चाहेंगे कि कोई देख न ले। कोई क्या कहेगा कि दो पैसे भी नहीं हैं एक आदमी के पास? कोई कहेगा क्या? कि एक आदमी ने भीख मांगी और इस आदमी ने दो पैसे दिए। तब आप डरेंगे कि कोई देख न ले, अकेले में चुप-चाप दे देंगे। किसी को कहना मत। पता न चल जाए किसी को। मैं तो कुछ कर ही हनीं पाया, तुम मांग रहे हो। दो पैसे मैं देता हूं यह देना हुआ। और जनरल कंडीशन यह है कि आप प्रतीक्षा कर रहे हैं कि चार लोग जान लें, या अखबार में खबर छप जाए कि इस आदमी ने इतना दिया है। यह मंदिर का पत्थर लग जाए कि इस आदमी ने इतना दिया है, यह नाम खुद जाए। नहीं, यह बिलकुल जनरल कंडीशन है। दान देने वाले के माइंड की यह स्थिति है। तब तो दान चल रहा है हजारों साल से और दुनिया जरा भी कुछ अच्छी नहीं बन पाती।
तो मेरा कहना यह है कि प्रेम बढ़ाना चाहिए, दान इसलिए की बकवास बंद होनी चाहिए। उस प्रेम से जो दान फलित होगा, वह बात ही और है। उसमें फर्क इतना ही है कि जैसे एक नकली फूल आप ले आए बाजार से और असली फल पैदा हुए। उतना ही फर्क है उन दोनों दान में। तो एक की मैं प्रशंसा करता हूं और एक की निंदा करता हूं। तो उनके बीच का फासला बहुत है, फासला बहुत है।

प्रश्न--कुछ स्वर्ग मिल जाए मृत्यु के बाद या अगले जन्म को ऊंचा कर लिया इस प्रकार...?

उत्तर--एक आदमी किसी को दान करता है तो यह सचेतन इच्छा नहीं है उसकी। न उसके इस बात की कोई साजिश का वह हिस्सेदार है कि यह समाज की व्यवस्था बनी रहे। नहीं, यह नहीं कह रहा हूं। समाज का आम जनसमूह जो करता है उसे तो कुछ भी स्पष्ट नहीं है कि वह क्या कर रहा है। समाज का जो आप जनसमूह है वह तो किसी चीज के प्रति अवेयर नहीं है कि वह क्या कर रहा है। लेकिन समाज के ढांचे के जो निर्माता हैं, उसके जो नीति-नियता हैं, वे पूरी तरह से होश में सब कुछ व्यवस्था कर रहे हैं। जिन लोगों ने यह व्यवस्था की कि अगर पति मर जाए तो पत्नी को सती हो जाना चाहिए। उन्होंने यह व्यवस्था नहीं कि कि अगर पत्नी मर जाए तो पुरुष को भी उसके पीछे मर जाना चाहिए। जिन्होंने व्यवस्था की वे पूरी तरह पुरुष वर्ग की तरफ से व्यवस्था दे रहे हैं। उनका बोध बिलकुल स्पष्ट है कि वह पुरुष की सुरक्षा कर रहे हैं और स्त्री की हत्या कर रहे हैं। लेकिन जो स्त्रियां सती हुई, उनको कुछ भी पता नहीं है। और जिन पुरुषों ने उन स्त्रियों को सती होने की आज्ञा दी उनको भी कुछ पता नहीं है कि यह एक पुरुष की साजिश है, जो स्त्री के खिलाफ चल रही है हजारों साल से।
यह जिन लोगों ने मनु--महाराज जैसे लोगों ने, जिन्होंने व्यवस्था दी कि दान दो, उन्हें बहुत स्पष्ट है समाज की व्यवस्था का हिसाब, कि अगर नीचे का दरिद्र होता चला जाता है और ऊपर के समृद्ध समाज से उसे कोई भी सहारा, काई भी संतोष, कोई भी सांत्वना नहीं मिलती तो यह समाज चार दिन नहीं चल सकता। यह समाज उखड़ जाएगा। इसी वक्त टूट जाएगा यह समाज को अगर चलाना है तो दरिद्र को थोड़ी बहुत तृप्ति देते रहना अत्यंत आवश्यकता है। समाज की जिन्होंने व्यवस्था दी है उनके सामने बहुत स्पष्ट है कि नीचे का जो वर्ग है वहां से विद्रोह की संभावना एकदम स्पष्ट है। अगर संतोष न सिखाया जाए उस वर्ग को क्रांति अनिवार्य रूप से फलित हो जाएगी। इसलिए जिन मुल्कों में इस तरह की व्यवस्था देने का लंबा इतिहास है, वहां कोई क्रांति नहीं हो सकी।
अगर रूस या चीन जैसे मुल्कों में क्रांति हो सकी तो उसके पीछे बहुत से कारणों में एक कारण यह भी है कि धार्मिकता का ऐसा लंबा इतिहास नहीं है जो दरिद्र को दान देने की, दरिद्र की सेवा की और दरिद्र को टुकड़े फेंकने की उसने कोई बहुत व्यवस्था की। उस वजह से...और कारण हैं, उस वजह ने भी हाथ बंटाया। हिंदुस्तान में पांच हजार साल में कोई क्रांति नहीं हुई, किसी तरह की क्रांति नहीं जानी हिंदुस्तान ने। उसका कारण है, यहां जिन्होंने नीति दी है, समाज को, उन्होंने बहुत दूरगामी विचार किया है। साफ बात देख ली है कि नीचे का जो वर्ग है वह आज नहीं कल उपद्रव का कारण होने वाला है। उसके उपद्रव को तोड़ देने के हर तरह के उपाय किए गए। एक उपाय कि उसे संतोष देने की निरंतर व्यवस्था होनी चाहिए। उसका असंतोष कभी इतना न हो जाए तीव्र कि उबल पड़े सौ डिग्री तक वह कभी न पहुंच पाए। वह अठानवे, संतानवे से नीचे उतरता रहे, बार-बार उतरता रहे, वहां न पहुंच जाएं जहां कि उबाल आ जाए--एक। उनको यह समझाने की जरूरत है कि वह दरिद्र है तो इस कारण दरिद्र है कि पिछले जन्मों के उसके पास हैं। अमीर अगर कोई अमीर है तो इसलिए अमीर है कि पिछले जन्म के पुण्य हैं।
ये सारी बातें अगर साफ-साफ हम पूरी की पूरी हम मनुष्य जाति के समाज के विकास को समझें तो हमें दिखायी पड़ जाएंगे कि ये बातें, जिन्होंने नीति की व्यवस्था दी है समाज को, उनकी आंखों में बहुत साफ हैं। इतनी साफ नहीं, जितनी आज हमें हो सकती है। इतनी साफ उनके सामने नहीं होगी लेकिन इसकी झलक उन्हें साफ है। एक सामान्य आदमी को मैं नहीं कह रहा हूं वह दान देते वक्त यह सोचता है कि यह समाज की व्यवस्था बनी रहेगी। लेकिन दान की व्यवस्था समाज की इस व्यवस्था को बनाने में सहयोगी है। अगर उसकी नीति का पूरा का पूरा आधार समाज की व्यवस्था को बचाने के लिए सहयोगी है।
मैं आपको कहूं--न विनोबा सोचते हैं, न गांधी सोचते हैं यह कि वह जो बातें कह रहे हैं वे बातें हिंदुस्तान में किसी भी सामाजिक क्रांति के लिए बाधा हैं। न विनोबा सोचते हैं, न गांधी सोचते हैं। उनकी नीयत पर शक करना आसान नहीं है। वह कतई नहीं सोचते कि वे जो बातें कर रहे हैं वह आने वाले हिंदुस्तान में किसी भी सामाजिक बड़ी क्रांति के लिए बाधा की बातें कर रहे हैं वे नहीं सोचते। स्पष्ट उन्हें नहीं है यह लेकिन जो भी समाज की जीवन अवस्था वे समझते हैं, वे जानते हैं कि उनकी बातें आने वाली सामाजिक कांति के लिए बाधा बन रही है। और हिंदुस्तान का पूंजीशाही वर्ग अगर उनको सहायता देता तो वह जानवर सहायता दे रहा है कि ये बातें  रुकावट बनेंगी। अगर अमरीका उनकी सहायता करे तो वह जानवर सहायता कर रहा है कि ये बातें रुकावट बनेंगी। आज अमरीका करोड़पति सारी दुनिया में जिन लोगों को भी सहायता दे रहा है वह यह बात बहुत साफ जानकर सहायता दे रहा है कि बातें आने वाले समाजवाद या साम्यवाद को रोकने के लिए किस तरह से दीवारें बन सकती है। चाहे उन बातों को करने वालों को पूरा साफ न हो...मेरा मतलब यह है कि डायनमिक्स जो हैं समाज के, समाज के सामान्य जीवन के चलने के जो उसूल हैं वह, उसमें की बात मैं कह रहा हूं। मैं यह कह रहा हूं कि दान रोकना है, समाज को बचाना है।
संतोष की बातें समाज में क्रांति के लिए बाधा बनता हैं। और जब तक हम दरिद्र को संतुष्ट रख सकते हैं तब तक हम पूंजीशाही को कायम रख सकते हैं। जिस दिन दरिद्र का असंतोष उस सीमा तक पहुंच जाएगा कि वह हमारी दान-दक्षिणा की शरारतों को समझ जाए और उसे दिखायी पड़ जाए कि ये सब बदमाशियां हैं और इनसे कुछ मेरी दरिद्रता मिटती नहीं, न मेरी दीनता मिटती है। बल्कि मेरी दीनता बनी रहती हैं इन्हीं बातों के कारण, एक तो क्रांति किसी समाज में पैदा होती है। वह जो मैंने कहा, एक-एक आदमी के लिए मैं नहीं कह रहा हूं कि वह कांससेसली है कि एक तरफ से वह भिखारी है तो उसे मैं दो पैसा देता हूं तो यह सोचकर देता हूं कि इससे पूंजीवाद बना रहेगा, समाज की व्यवस्था बनी रहेगी--यह कुछ सोचकर नहीं दे रहा हूं। लेकिन मनुष्य का मन चेतन और अचेतन तलों पर उस तरह काम कर रहा है। और उसमें हम सहयोगी बनते हैं।
मैं जो समझ रहा था वह यह कि करुणा अगर गहरी होगी तो उतना आरपार देखेगी। वह इतने पर ही नहीं रुक जाएगी कि इस आदमी को दो रोटी मिल जाएं। इसको दो रोटी दे दें, वह बात दूसरी है इस पर रुक नहीं जाएगी कि यह रोटी दे देने से कुछ कम हो गया है। वह इसकी फिकर करेगी कि यह आदमी दो रोटी मांगने की स्थिति में क्यों आ गया है? इसका चिंतन, इसका विचार, इसको बदलने की चेष्टा उस करुणा से पैदा होती है।

प्रश्न--इसको बदलने के लिए क्या मतलब है।

उत्तर--इस तरह का जो मानसिक इंतजाम है उसे तोड़ने की जरूरत है, तो ही यह टूटेगी। और उस मानसिक इंतजाम का वह हिस्सा है जो मैं कह रहा हूं। कोई भी घटना अगर है तो उस घटना के पीछे कारण है, कारण के पीछे मनुष्य के मन की रचना है। मनुष्य के मन को हमने जिस ढांचे का बनाया है उस ढांचे से वह घटना विकसित हुई है। अगर उस ढांचे को हमने फिर बदलते तो वह घटना भी नहीं बदलने वाली है। गरीबी आकस्मिक नहीं है। हमारी जो सोचने, समझने जीने के ढंग हैं, उनसे पैदा हुई है। उस सोचने समझने के, जीवने के ढंग हमारे गलत हैं और गरीबी को बनाए रखने में सहयोगी हैं, यही मैं कह रहा हूं। और मैं यह कह रहा हूं कि दान जैसी व्यवस्था, हम सोचते हैं यही कि हम गरीबी पर करुणा करके कर रहे हैं। हो सकता है, करने वाला यही सोच रहा हो। एक-एक व्यक्तिगत रूप से यही सोच रहा हो कि हम करुणा करके यह कर रहे हैं। लेकिन वस्तुतः यह दान देने का दिमाग गरीबी को बचाए रखने का कारण बनता है और अगर हमें गरीबी मिटानी है तो हमें यह दान देने और लेने वाला दिमाग तोड़ देना पड़ेगा। हमें गरीब को तैयार करना पड़ेगा कि वह इंकार कर दे दार लेने को। गरीब को हमें तैयार करना पड़ेगा। कि वह कहे कि हम गरीबी मिटाना चाहते हैं, दान नहीं लेना चाहते हैं। हमें अमीर से कहना पड़ेगा कि यह दार देने की जो तुम बातें कर रहे हो, यह दान देने की बातें सामाजिक जीवन में खतरनाक हैं और यह नुकसान पहुंचा रही है।
अभी विनोबा ने इतना भूदान करवाया। जिस आदमी से दार करवा लेते हैं उस आदमी में कोई फर्क नहीं होता है, वह वही कड़वा आदमी रहता है। वह इधर जमीन दान करता है और कल से सोचता है कि जितनी जमीन दान की है, इस साल मैं कैसे उतना वापस कमा लूं! वह इधर दान देता है, उधार शोषण करता है। उसके शोषण का दिमाग कहीं नहीं जा रहा है। बल्कि, चूंकि वह शोषण करता है इसलिए दार कर पाता है। तो जोड़ा दानी है वह बड़ा शोषक है। तब वह दान कर पाता है। यानी दान करने की कंडीशन यह है कि आप कितना शोषण कर लेते हैं।
और मजा यह है कि हम मिटाना चाहते हैं गरीबी को, और दान देकर मिटाना चाहते हैं। तो हम पागल हो गए हैं। क्योंकि दान आता है शोषण करने से। तब आप दान कर सकते हैं और दान आप उतना बड़ा कर सकते हैं जितना बड़ा आप शोषण कर सकते हैं। तो पहले गरीबी को और गरीब बनाकर शोषण करें, फिर उसको दान करें। एक करोड़ रुपया कमाए और एक लाख रुपया दान करें। यह पूरा का पूरा हमारा सोचने का ढंग बुनियादी रूप से धार्मिक है, और इस चिंतना के चोट पहुंचाने की मैं बातें कर रहा हूं। न मुझे इसकी फिकर है कि सामाजिक रचना में वह किस तरह पैदा हुई। उसकी मुझे बहुत फिकर नहीं है। यह सवाल बहुत बड़ा नहीं है कि गरीबी कैसे पैदा हुई है? बहुत बड़ा सवाल यह है कि गरीबी पांच हजार साल तक कैसे बनी रही? क्योंकि वह जो बने रहने का ढांचा है, वह बना रहने का ढांचा अगर हम तोड़ना शुरू करेंगे तो गरीबी मिटेगी। गरीबी पैदा हुई है निश्चित ही शोषण से पैदा हुई है। बिना शोषण के वह पैदा नहीं हो सकती। और जब पैदा हो गयी हो तो गरीब को संतुष्ट करने के लिए हमें चिंता करनी पड़ती है कि इसको संतुष्ट के। घर में भी आपके--घर में भी आदमी अगर बगावती हो जाए तो आप विचार करने लगेंगे कि उसकी बगावत को कैसे शांत किया जाए। और हजार तरह का इंतजाम कम करेंगे।
 अब हिंदुस्तान में गरीबों को शांत करने के लिए हमने कई तरह के उपाय किए हुए हैं। उनमें वर्ग विभाजन, वर्ण व्यवस्था एक थी कि करोड़ों शूद्रों को हमने ऐसा ठहराव दे दिया कि वह अपने कर्मफल का फल भोग रहे हैं। उनको दरिद्रता से, उनकी दीनता से उठने का कोई उपाय नहीं है। अगर वे जी रहा हैं तो हमारी करुणा और कृपा पर जी रहे हैं। वह हमारे टुकड़े जो हम दे रहे हैं, उनके ऊपर उनका जीना है। मजा यह है कि जो टुकड़े दे रहे हैं, उनको हमने समझाया है कि तुम बहुत बड़ा काम कर रहे हो, जो इनको टुकड़े देर रहे हो। और उनको हमने समझाया है कि तुम पर बड़ी कृपा की जा रही है। कि तुम को कुछ दिया जा रहा है। और मजा यह है कि उनका हम पूरे वक्त शोषण कर रहे हैं क्योंकि हमारी व्यवस्था उनको कष्ट में डाल रही है और कष्ट से निकालने के लिए हम दान करने का मजा भी दे रहे हैं। पहले एक आदमी को कुएं में धकेल रहे हैं और फिर उसमें हम रस्सी डाल रहे हैं कि देखो हम तुम पर कृपा करते हैं, तुम बाहर निकल जाओ। न वह उस रस्सी से बाहर निकलता है लेकिन यह उसको पता चलना शुरू हो जाता है कि जो आदमी रस्सी डाल कर हमें बाहर निकाल रहा है। कम से कम इसने हमें धक्का देकर गिराया नहीं होगा। जो ब्राह्मण वर्ग शूद्रों को दान दिलवा रहा है, यह ब्राह्मण तो हम पर कृपा कर रहा है। कम से कम इसने हमारी हालत खराब नहीं कोई होगी, यह तो पता चल जाता है। मजा यह है कि यही वर्ग उसको दान दिलवा रहा है। यही शरारत है, इसी का षडयंत्र है कि वह करोड़ों लोगों को जमीन पर चित्त डाले हुए है और छाती पर आदमी को खड़ा कर दिया है। एक दफा छाती पर आदमी खड़ा हो गा है, उससे उसको दान भी दिलवा रहे हैं। इसके दोहरे परिणाम होते हैं। वह बेचारा छाती पर चढ़ जाता है, उसको धक्का भी नहीं मार पाता है क्योंकि यह दानी है, यह बचाने वाला है। और यह जो सइकोलाजिकल मेकअप इस पर मैं चोट करना चाहता हूं। मुझे उतना प्राब्लम दूसरा नहीं है। हमारा मानसिक बनावट का जो ढांचा है गरीबी को संरक्षण देता है, वह टूटना चाहिए।
जैसे गांधीजी हैं। गांधीजी से मुझे कुछ लेना देना नहीं है लेकिन हमारी तरकीब, जो हमारा पुराना माइंड है उसको बदलते नहीं हैं, उस पुराने माइंड को आगे बढ़ाते हैं। कहेंगे कि दरिद्र नारायण हैं, कहेंगे कि गरीब भगवान का रूप है। इस तरह गरीबों को आप आदर और प्रतिष्ठा देते हैं। गरीबों को आदर और प्रतिष्ठा देने से गरीबी मिटने वाली नहीं है गरीबी को तो घृणा करने से और गरीबी पर क्रोध करने से, यह मानने से कि गरीबी महा पाप है, यह मानने से कि गरीबी महारोग है, तो हम नारायण है, इसकी सेवा करनी चाहिए। फिर तुम वही सेवा और दान और वही बकवास फिर तुम जारी करवा रहे हो जो पांच हजार साल से जारी है। इससे दो फायदे होते हैं--दरिद्र तृप्ति हो जाता है कि हम नारायण हैं और अमीर भी निश्चित हो जाता है कि बड़ी अच्छी बातें कर रहे हैं आप। कुछ दान देना चाहिए, कुछ यह करना चाहिए, कुछ वह करना चाहिए। तो उसकी शोषण की व्यवस्था पर चोट नहीं लगती और दरिद्र को अपनी गरीबी में भी सम्मान मिलने लगता है कि मैं दरिद्र नारायण हूं।

प्रश्न--क्या गांधीजी इन सब बातों को जानकर ऐसा कह रहे हैं?

उत्तर--गांधी जी की कांसेस, नीयत पर जरा भी शक नहीं है। गांधी जानकर ऐसा कर रहे हैं, ऐसा मैं नहीं मानता, लेकिन गांधी जी उसी लंबी साजिश में भूल हुए हैं जो चले रही है। और गांधी उसके सहयोगी हैं, उससे अलग नहीं हैं जरा भी। और हिंदुस्तान जब तक गांधी जी से मुक्त नहीं होता तब तक दरिद्रता से मुक्त नहीं हो सकता है। गांधी जी को मैं गाली नहीं देता। गांधी जी को मैं बुरा कहता नहीं। गांधी जी एकदम भले आदमी है। और शायद बहुत भले हैं इसलिए उस लंबी बेवकूफी के हिस्सेदार हो गए हैं। क्योंकि वह जो पांच हजार साल की लंबी परंपरा है, वह इतने भले आदमी हैं कि उस परंपरा के वे हिस्सेदार हैं, उसके भागीदार हैं।

प्रश्न--क्या मनु महाराज इसके जिम्मेवार हैं।

उत्तर--मनु को हुए इतना लंबा फासला हो गया कि मनु के बाबत कुछ कहना मुश्किल है। लेकिन मनु के कुछ शब्द ऐसे हैं कि ऐसा लगता है कि मनु हिंदुस्तान में ब्राह्मणों का राज्य कायम करने में पूरी तरह सचेष्ट हैं। उनके शब्द ऐसे हैं। उनकी बात ऐसी है वह निश्चित रूप से शूद्र को खड़ा कर रहे हैं और ब्राह्मण को सिर पर बिठा रहे हैं। और वह सारा का सारा वर्ग विभाजन और वर्ण व्यवस्था खड़ी कर रहे हैं। तो मनु तो निश्चित ही हिंदुस्तान में एक विप्र साम्राज्य खड़ा करने का पूरा...।

प्रश्न--कैटेगरी कर रहे हैं।

उत्तर--कैटेगरी लेकिन आज बहुत मुश्किल हो जाता है क्योंकि चार हजार साल पहले, तीन हजार साल पहले कब मनु हुए, आज बहुत मुश्किल हो जाता है। लेकिन जो भी मनु ने कहा है--इधर अभी नीत्शे ने मनु की बहुत प्रशंसा की, सिर्फ इसलिए कि नीत्शे को अपनी आवाज की ध्वनि मनु में मिली। नीत्शे ने कहा है, मनु है दुनिया का सबसे बड़ा लाग्यर क्योंकि उसने यह बताया है, कि कुछ लोग बड़े हैं और सब लोग छोटे हैं। तो नीत्शे ने तारीफ की की। मनु की तारीफ करने वाला इधर तीन सौ वर्षों में सिर्फ नीत्शे है।
कोई आदमी तारीफ नहीं करेगा, लेकिन नीत्शे ने तारीफ की। और नीत्शे के आधार पर खड़ा हुआ फासिज्म पूरा का पूरा। तो मनु ने एक तरफ का फासिज्म खड़ा किया। ब्राह्मणों का। आज कहना मुश्किल है वह कितना सचेष्टा था कि आज तीन हजार साल के बाद बहुत मुश्किल...उसके व्यक्तित्व के बाबत हम बहुत नहीं जानते। लेकिन मनु स्मृति में जो शब्द है वह ऐसा बताते हैं। जैसा वह कहेगा--एक ब्राह्मण को मार डालना एक हजार गायों को मारने का पाप है। एक गाय को मारना एक हजार साधारण मनुष्यों को मारने का पाप है। लेकिन एक शूद्र को मारने पर सिर्फ एक दिन का भोजन दे देना काफी है। यह जो माइंड है, यह जो फर्क कर रहा है, बड़ी अजीब बात है। एक शूद्र को मारने पर एक गऊ के मारने का भी पाप नहीं है। लेकिन एक ब्राह्मण को मारना...! एक ब्राह्मण अगर शूद्र की औरत को ले आए तो क्षम्य है लेकिन ब्राह्मण की और को अगर शूद्र ले जाए तो जन्म-जन्म तक क्षम्य नहीं है। यह जो माइंड है न, नहीं जानकार होने के बाबत कुछ करना मुश्किल है लेकिन मनु का माइंड बहुत साफ कांसपिरेटर का माइंड है, षडयंत्र का माइंड है वह।

प्रश्न--यह तो माना कि वह गुलामी समाज रचना थी।
उत्तर--कैटेग्रीकली। जैसे चारों की हमेशा निंदा करते रहा है धर्म, लेकिन शोषण की कभी निंदा नहीं की हैं किसी धर्मग्रंथ ने आज तक। चोरी की निंदा करते रहे हैं धर्मग्रंथ की चोरी मत करो क्योंकि चोरी है गरीब का कृत्य अमीर के खिलाफ। क्योंकि चोरी तो वह करेगा जिसके पास नहीं हैं और उससे करेगा जिसके पास है। तो चोरी के लिए तो सारी दुनिया के धर्मग्रंथ कहते हैं कि यह पाप है बुरा है। लेकिन कोई  धर्मग्रंथ यह नहीं कहता कि संपत्ति का इतना इकट्ठा करना पाप है बुरा है बल्कि वे कहते यह है कि संपत्ति मिलती पुण्य से है। जिसको मिली है संपत्ति उसको पुण्य से मिली है। तो संपत्ति वाले के लिए उनकी दृष्टि है कि वह पुण्यात्मा है इसलिए उसे संपत्ति मिली है और चोरी करने का विरोध है।
यह जो माइंड है चोरी का विरोध करने वाला और शोषण के संबंध में एक शब्द भी विरोध में नहीं कहेगा--यह जो माइंड है...मैं जानता हूं, यह बात सच है कि दो हजार साल पहले यह माइंड पैदा भी नहीं हो सकता था। आप ठीक कहते हैं कि जब उत्पादन के साधन इतने विकसित होंगे, तो आज हम कह सकते हैं वह दो हजार साल पहले कहा भी नहीं जा सकता था। लेकिन वह जो दो हजार साल पहले कह गया था, अगर आज भी हम उसे कहे चले जाते हैं तो क्रांति में बांधा पड़ने वाली है। यह जिम्मा इतना नहीं है कि बुद्ध और महावीर और क्राइस्ट और कृष्ण को हम जिम्मेवार ठहराए कि तुम शोषण करवा रहे हो। लेकिन जो कुछ उन्होंने कहा है, उससे जो माइंड बना है, वह माइंड शोषण को जारी रखेगा। आज उस माइंड को बिना बदले हुए आप कोई क्रांति नहीं ला सकते।
फिर जो उत्पादन की व्यवस्था है, वह भीतर भी अगर आप गौर से समझेंगे तो उत्पादन की व्यवस्था भी आसमान से पैदा नहीं होती है। वह भी मानसिक व्यवस्था से पैदा होती है। आपने क्यों इंडस्ट्रियल क्रांति नहीं कर ली हिंदुस्तान में? वह योरूप में क्या गयी? आपका जो माइंड है वह माइंड कभी इंडस्ट्री पैदा करने वाला नहीं रहा। आपको जो मेकअप है माइंड का...पश्चिम में क्यों संपत्ति इतनी जोर की इकट्ठा हो गयी अमरीका के पास? आपके पास क्यों नहीं हो सकी? आपका जो माइंड है वह दरिद्रता को आदर देने वाला है, वह संपत्ति को कभी उसने आदर दिया नहीं। उसके मन का भाव है कि संपत्ति तो कोई जरूरी बात नहीं है। आदमी तो जितना कम से कम में गुजार दे उतना अच्छा है। जिस कौम का दिमाग यह होगा कि जरूरत कम करो, और वह कभी संपत्ति पैदा नहीं कर सकती। और जब संपत्ति पैदा करने की धारणा ही पैदा न हो तो हम बड़ा उत्पादन की व्यवस्था और मेकेनाइजेशन और सेंट्रलाइजेशन वह कैसे करेंगे? और वही प्रपीच्चल, वही बात गांधी फिर दोहराए चले जा रहे हैं। जब वे चर्खे पर जोर देते हैं तो वह भारत की पुरानी जड़ता है, वह जो दरिद्रता को बनाए रखने की, उस पर फिर जोर दे रहे हैं क्योंकि चर्खा कभी भी किसी मुल्क को संपत्तिशाली नहीं बना सकता है। चर्खे से कोई मुल्क संपत्तिशाली नहीं बन सकता है।
सवाल यह है, हम जिस माइंड की, जिस मेकअप की जो साइका लाजिकल फ्रेम है हमारे दिमाग का, हिंदुस्तान का ऐसे जैसे फ्रेम ऐसा है कि उसे फ्रेम से संपत्ति नहीं पैदा की जा सकती। तो हम दरिद्र रहेंगे उस फ्रेम को हमें तोड़ना पड़ेगा। हमें कहना पड़ेगा कि कम जरूरतें कोई आदर की बात नहीं है। क्योंकि जरूरतें बढ़े तो आदमी श्रम करता है। और सोचता है कि हम जरूरतों को कैसे पूरा करें? अमरीका आसमान से अमीर नहीं हो गया। तीन सौ वर्षों से उन्होंने फिलासफी पकड़ी है जरूरत को बढ़ाने की, उससे संपदा पैदा हुई है। हम पांच हजार वर्ष से जो फिलासफी पकड़े है जरूरत को कम करने की, उससे दरिद्र हुए हैं। मेरा कहना है, उत्पादन की व्यवस्था में जो क्रांति होती है, वह भी बहुत बुनियाद में आपके मन से आती है।
आपके मन का ढांचा अगर ऐसा है...जैसे कि यहां रह रहे हैं, बंबई में भी एक आदमी रह रहा है, वहीं पास के एक पहाड़ी में एक आदिवासी रह रहा है। मैं दोनों एक ही सेंचुरी में रह रहे हैं। अमरीका में एक आदमी रह रहा है, अफ्रीका में एक आदमी रह रहा है, हम सभी बीसवीं सदी में रह रहे हैं। बस्तर में कोल भील रह रहे हैं, ये सभी इसी सदी में रह रहे हैं जिसमें हम और आप रह रहे हैं। लेकिन यह कोल भील बस्तर का समृद्ध क्यों नहीं हो सका। यह धनी क्यों नहीं हो सका? इसके माइंड का जो फ्रेम है, वह इसको कभी समृद्ध नहीं होने दे सकता है। यह और दस हजार साल ऐसे ही रहेगा, इसमें कोई फर्क नहीं आने वाला है जब तक कि हम इसका मन का फ्रेम नहीं बदल देते। हिंदुस्तान में भी जो आज आपको थोड़ी बहुत प्रगति दिख रही है वह सिर्फ गुलामी का फल है आपको, इससे ज्यादा नहीं। नहीं तो आप दो सौ साल पहले जिस हालत में थे आप उसी हालत में होते। आपका फ्रेम ऐसा दिमाग का। बड़े मजे की बात यह है कि अभी हमको जो थोड़ा बहुत गति दिखायी पड़ रही है सोचने में वह सारी की सारी गति पश्चिम में हम पर आयी है। सारी गति हम पर पश्चिम से आयी है। और हनीं तो हम चर्खे ही कात रहे होते और बैलगाड़ी में ही चल रहे होते। अगर पश्चिम का इम्पैक्ट न हो हिंदुस्तान पर, तो हिंदुस्तान की जो फिलासफी थी, इतनी जड़ भी और उसकी इतनी पुरानी परंपरा थी कि उसको हिलाना मुश्किल था। यह जो थोड़ी बहुत हिलावट पैदा हुई वह सिर्फ इसलिए की पश्चिम के संपर्क ने एक नयी फिलासफी से हमारा संपर्क जोड़ा और हमें पहली दफा दिखायी पड़ा कि अगर यही फ्रेम वर्क में जीते चले आते हैं तो कभी समृद्ध नहीं हो सकते। कोई उपाय नहीं है हमारा।

प्रश्न--अगर आप आने वाले भी, यहां नहीं थे, और मुझे बुलाने वाले भी नहीं थे तो यह तो...?

उत्तर--आप यहां आ गए है। माक्र्स के कहने से कोई सत्य नहीं हो जाती कोई बात। आप यहां आ गए हैं तो आने के पहले यह भौतिक परिवर्तन हुआ आपका शरीर का यहां तक आना। लेकिन आने के पहले आपने आना चाहा है क्योंकि पहले आ गयी है, वह मेंटल फर्क है। आप यहां कैसे आ सकते हैं फिजिकली? एक मशीन ईजाद होती है...
फिजिकल घटना हमेशा पीछे है। जो भी जीवन फर्क आता है। उसके पहले माइंड कंसीव करता है। सीड में, बीज में उसको। उसके बाद वे फर्क होने शुरू होते हैं। अगर माक्र्स ने भी कुछ किया है और कहा...अब थोड़ा देखें, फिजिकल कम्युनिज्म तो माक्र्स के मरने के बहुत दिन बाद रूस में आया है। लेकिन मेंटल कम्युनिज्म माक्र्स को उसे पचास साल पहले और किसी को पता भी नहीं था कि एक आदमी ब्रिटिश म्यूजियम में बैठकर कम्यूनिज्म को जन्म दे रहा है। वह सड़क से निकलता था तो कोई नमस्कार करने वाला भी नहीं था उसको। कोई पूछने वाला भी नहीं था कि यह आदमी कौन है। यह आदमी माइंड में कम्यूनिज्म की पूरी तस्वीर खड़ी कर रहा है। इसने चालीस साल में कम्युनिज्म की पूरी तस्वीर खड़ी कर दी। यह आदमी मर गया तब भी किसी को पता नहीं था कि दुनिया का एक ऐसा आदमी मर गया है जिसको कि आज नहीं कल, पूरी दुनिया स्वीकार कर लेगी। उसे पचास चालीस साल बाद रूस में फिजिकली घटना घटी कि कम्युनिज्म आया। वह माक्र्स क्या कहेगा, माक्र्स के कहने से क्या होता है? कम्युनिज्म पहले आ गया मेंटली, और पीछे घटना घटी और अब वह आया। कोई भी घटना फिजिकल पर नहीं घट सकती जब तक माइंड से सीड पैदा नहीं होता है।

प्रश्न--लेकिन वह सब काम करने के बाद उन्होंने सोचा कि इसका अंतिम अंजाम...?

उत्तर--सोचेगा पहले, होगा पीछे। और यह जो मैं कह रहा हूं न, माइंड को बदलने का मतलब यह है कि सोचने को हमें पहले बदलना पड़ेगा, फिर कुछ और बदलाहट हो सकती है। जो मैं चोट करता हूं कोई वह इसलिए कि वह जो सोचने का ढांचा है, उसमें थोड़ी भी दरारें पड़ जाए और सोचने का ढांचा बदल जाए तो शायद हम समाज के ढांचे को बदल दें। विचार की प्रक्रिया के परिवर्तन के बिना कोई सामाजिक परिवर्तन नहीं होता है। कोई सामाजिक परिवर्तन नहीं होता है।
आप हैरान होंगे, जिन दो लड़कों ने--राइट ब्रदर्स ने--जिन्होंने हवाई जहाज उनका बाप एक विशप था, पादरी था, और एक दिन चर्च में वह बोल रहा था। और वह जो लड़का पैदा होकर जहाज बनाएगा, वह पत्नी मौजूद थी, चर्च में वह सुन रही थी, वह उसके गर्भ में था। पहला जो बड़ा लड़का था वह गर्भ में था। वह बैठी हुई चर्च में सुनने आयी। वहां घटना घटी, उस विशप ने यह कहा कि भगवान ने हर चीज बना दी है और अब कोई चीज बनाई नहीं जा सकती। सब चीजें गौण हो चुकी है। और उसने प्रश्न पूछा कि क्या तुम ऐसी एकाध चीज का नाम ले सकते हो जो अभी नहीं है, क्या कल तक हो जाएगी? हर चीज सदा से है। एक आदमी ने खड़े होकर कहा, जैसे हवा में उड़ना। तो वह हंसने लगा और सारी चर्च हंसने लगा। उन्होंने का, क्या पागल हो गए हो हवा में पक्षी उड़ते हैं आदमी कैसे उड़ेगा? यह कभी नहीं हो सकता। उसने कहा यह कभी संभव नहीं है कि आदमी हवा में उड़े। यह कैसे हो सकता है? बीस साल बाद उसके ही लड़के ने हवा में पहली दफा उड़ने का प्रयोग किया। और विशप राइट ने, उसके बाद अपनी डायरी में लिखा है कि मैं निंदित हूं अपनी आंखों के सामने। लेकिन यह घटना घट सकी, क्योंकि मेरा लड़का बाइबिल का मानने वाला लड़का नहीं है। यह घटना घट सकी क्योंकि मेरा लड़का बाइबिल को मानने वाला लड़का नहीं है। नहीं तो हर चीज बन चुकी है।
अगर यह उसके माइंड का फ्रेम वर्क हो तो फिर कुछ इनवेंशन नहीं हो सकता। पश्चिम में जो इनवेंशन हुए तीन सौ वर्षों में, उसका कुल कारण इतना है कि पश्चिम के माइंड का जो फ्रेम वर्क था उसने यह मानना शुरू कर दिया कि अभी क्रिएशन समाप्त नहीं हो गया। आदमी को क्रिएशन करना है। भगवान ने वह काम पूरा नहीं कर दिया है। तीन सौ वर्षों में भगवान पर से, और भगवान की जो पुरानी धारणा थी उस पर से जो आस्था डिग्री तो उस डिगने की आस्था ने सारे माइंड को बदल दिया। उस माइंड में बदलाहट से नया सब कुछ पैदा हुआ।
इस मुल्क में भी, अगर हम माइंड को बदलने की फिकर नहीं करते हैं और पुरानी लकीरों को पीटते चले जाते हैं और चिल्लाए चले जा रहे हैं कि ठीक कह रहे हैं फलां, ठीक कह रहे हैं फलां, ठीक है, सब बिलकुल ठीक है, तो आप पक्का मानिए इस मुल्क के जीवन में कोई क्रांति, कोई परिवर्तन कोई नया आंदोलन नहीं हो सकता है। हमें माइंड पर चोट करनी पड़े। तो मैं जो फिकर करता हूं...मुझे उसकी फिकर नहीं है कि सामाजिक क्रांति हो या न हो। मुझे फिकर यह है कि मन में बीज में पड़ जाए तो आने वाले बच्चे क्रांति कर लेंगे, आपको इसकी फिकर करने की जरूरत नहीं। लेकिन बीच में हमारे दिमाग में खयाल ही नहीं है। अभी हमारे दिमाग में यह खयाल नहीं है इस मुल्क के कि शोषण पाप है। यह खयाल नहीं है हमारे दिमाग में। अभी भी खयाल नहीं है कि शोषण पाप है हम कहें उसे, जैसे हम चोरी को काफी पाप कहते हैं। ऐसे हम संपदा को भी चोरी कहें और पाप कहें वह हमारे मन मग नहीं है।
माक्र्स के भी पहले प्रूधो ने कहा कि संपत्ति चोरी है। उस एक सूत्र पर सारा का सारा समाजवाद विकसित हुआ। संपत्ति मात्र चोरी है। वेल्थ इज थेफ्ट। यह एक छोटा-सा सूत्र प्रूधो ने कहा। इस एक सूत्र पर पूरा कम्यूनिज्म विकसित हुआ। यह छोटा-सा सीड था। उसने यह कहा कि संपत्ति मात्र चोरी है क्योंकि बिना चोरी के संपत्ति इकट्ठा हो ही नहीं सकती। इस एक छोटे से सूत्र पर सारा का सारा कम्युनिज्म खड़ा हो गया। रूस और चीज एक छोटे से सूत्र पर खड़े हुए और आने वाले तीस चालीस वर्षों से सारी दुनिया में फर्क आ जाएगा और सबके पीछे प्रूधो का एक छोटा-सा वचन है। और प्रूधो बिलकुल साधारण सा आदमी था। यह कभी पता नहीं चलता दुनिया में कि प्रूधो नाम का एक आदमी था, वह एक वचन बोल गया कि यह जो संपत्ति है, चोरी है। एक दफा यह खयाल आ जाए कि संपत्ति चोरी है तो फिर समाज हमें ऐसा बनाना पड़ेगा जिसमें चोरी जैसी बुनियादी चीज न चलती रहे। बड़े चोरों और छोटे चोरों का फर्क है। बड़े चोर संपत्तिशाली हैं, छोटे चोर जेलों में हैं, सजा काटते हैं। छोटा चोर फंस जाता है, बड़ा चोर मालिक है। और बड़ा चारे पुण्यात्मा है और छोटा चोर पापी है।
तो जब तक हमारे दिमाग में यह खयाल चलता रहेगा तब तक यह व्यवस्था नहीं बदलती है। तो मेरा आग्रह इतना ही है कि किसी भी भांति यह मन की जड़ता हिल जाए; इसके तंतु यहां-वहां उखड़ जाए और एक बार हम फिर सोचने की विचार करने लगें कि सोचें कि हम फिर से कि सच, असलियत क्या है तो शायद कोई बीज निर्मित हो जाए। और कोई बात नहीं है।

प्रश्न--स्पष्ट

उत्तर--मेरे मन में खयाल है कि सारे मुल्क की मानसिक रचना की आमूल बदला जाए। तो उसके लिए जगह-जगह केंद्र खड़े किए जाए, युवक संगठन खड़े किए जाए और मुल्क की जो जड़ता है, चिंतन के मामले में कि रुक गया है, डार्मेन्ट हो गया है कहीं, उसका बहाव नहीं रहा। वह बहाव खोल दिया जाए पूरी तरह से। सारा भय छोड़कर विचार की मुक्त धारा बहा दी जाए--जो भी परिणाम हों। तो उसके लिए तो प्रेस बहुत सहयोगी हो सकता है। क्योंकि आज तो सब तक बात पहुंचाने में प्रेस के अतिरिक्त और क्या सहयोगी हो सकता है? तो यह जो दृष्टि है वह लोगों तक पहुंचा दी जा सके, लोगों को आमंत्रित किया जा सके प्रेस के द्वारा कि वे इस डिस्क्स कर सकें...मेरी बात सही है यह मान लेने की कोई जरूरत नहीं। मेरा काम इतना काफी हो जाता है कि एक प्रालब्ध भी उठा लूं तो बात हो जाएगी। मैं एक प्रश्न उठाऊं तो उस पर आप निमंत्रण भेज सकते हैं कि लोग डिस्क्स करें। आप फौरन खड़ा कर सकते हैं, परिचर्चा चला सकते हैं अखबारों में, पक्ष-विपक्ष में लोग सोचें।
अभी जैसे बंबई में सेक्स पर मैं बोला हूं तो उसका पूरा सारभूत आप दे सकते हैं अखबारों में आप निमंत्रण दे सकते हैं कि लोग उनके पक्ष-विपक्ष में पत्र लिखें, डिस्क्स करें। मैं हमेशा तैयार हूं कि आखिर में जबाब देने को तो उनका जवाब दूं।

प्रश्न--अस्पष्ट

उत्तर--ठीक कहते हैं, एकदम ठीक-ठीक कहते हैं। चौदह साल की उम्र तक कपड़ों में ढांकना बच्चों के साथ बहुत बड़ा अपराध है। तेरह-चौदह साल तक जब तक सेक्स मेच्योरिटी नहीं आती, बच्चों को जितना नंगा रखा जा सके है। उतना हितकर है। उतना ही बाद में उनके जीवन में शरीर के प्रति जो एक पागल आकर्षण पैदा होता है वह नहीं पैदा होगा। नंगी तस्वीरों को देखने का जो मोह पैदा होता है वह नहीं पैदा होगा। सारा अश्लील साहित्य मर जाए जिस दिन हम बच्चों को चौदह साल तक नंगा रख लें उसके बाद अश्लील साहित्य बिक नहीं सकते। कोई खरीदने को नहीं मिलेगा।

प्रश्न--अश्लील साहित्य क्या पहले नहीं था।

उत्तर--अश्लील साहित्य नहीं था, उनके पास वेश्याएं थीं। मेरा मतलब यह है कि उस समाज के पास जिस समाज की आप...आज भी लोग उसे समाज के जिंदा हैं जंगलों में आज भी उस समाज के आदमी के मन में अश्लीलता नहीं है, सेक्सुअलिटी नहीं है, सेक्स है, सेक्सुअलिटी नहीं है। पर्वर्शन नहीं है और एक आदिवासी स्त्री का स्तन आप छूकर पूछ सकते हैं कि यह क्या है तो वह कहेगी, दूध पिलाती हूं इससे बच्चे को। बात खत्म हो गयी। इससे ज्यादा कोई सवाल नहीं है, बात खत्म हो गयी। लेकिन अभी सभ्य स्त्री की स्तन की तरफ आप देखें तो बेचैनी शुरू हो गयी। वह भी बेचैन है कि आप देख न लें और आप भी बेचैन हैं कि आप देख लें और वह छिपा भी रही है आपसे। वह छिपा भी रही है कि इसे छिपा ले। और इस तरह के कपड़े भी पहन रही है कि वह दिखायी पड़े यह पर्वर्शन है। वह एक आदिवासी स्त्री का पर्वर्टेड माइंड नहीं है।

प्रश्न--चौदह साल के बच्चों की नग्नता...।

उत्तर--आपकी जो नग्नता के प्रति धारणा है वह गयी। आपके घर में अपने बाथरूम में सारे लोग घर का सारा परिवार नंगा होकर नहा सकता है और किसी को भी खयाल भी नहीं न आए। नदी के घाट पर आप नंगे स्नान कर सकते हैं, किसी को खयाल भी न आए। और होना नहीं चाहिए। समाज इतना सभ्य इतना सुसंस्कृत तभी माना जाएगा जब वह नग्न खड़े आदमी के प्रति भी साधारण भाव रखता हो। नहीं तो सुसंस्कृत नहीं है वह आदमी, अनकल्चरड है, वह आदमी असंस्कृत हैं। यह तो चौदह साल एक दफा हो जाए तो बड़े बूढ़े के लिए प्रालब्ध नहीं रहा। कपड़े आप पहनेंगे शौक से, जब जरूरत हैं। नहीं तो कोई जरूरत नहीं है। अगर नहीं जरूरत हो, तो आप नंगे बैठने का अपना आनंद है, अपना सुख है, अपना अर्थ है। किसी को नंगा बैठना चाहिए, यह मैं नहीं कहता लेकिन नंगा बैठने में कोई खतरा नहीं है। वह स्थिति तो मन की बननी चाहिए। और वह बच्चों को अगर नंगा रख सके तो वह स्थिति क्योंकि बच्चे कल बड़े होंगे। जो बच्चा चौदह साल तक नंगा घूम सका वह बच्चा चालीस साल का होकर बगीचे में नंगा बैठकर काम कर सकता है। उसको कोई परेशानी नहीं होने वाली है। परेशानी तो इसलिए हो रही है कि चौदह साल का, चार साल का तभी, नंगे मत हो जाना, जल्दी कपड़ा पहनो। मुसीबत तो उसको एक ऐसा फियर काम्पलैक्स पैदा कर दिया कि कपड़े नहीं पहनना, मतलब कोई ऐसा भारी अपराध है कि तुम गड़गड़ न करो।
नग्नता का अपना सुख है, अपना आनंद है, अपना स्वास्थ्य है। और सच तो यह है कि जब तक हम मनुष्यता को फिर से नग्न रहने की थोड़ी व्यवस्था नहीं करते तब तक मनुष्यता का पूरा स्वास्थ्य वापस नहीं लौटेगा। पूरा स्वास्थ्य कभी वापस नहीं लौट सकता। कपड़े पहन लेता है आदमी तो वह भूल ही जाता है शरीर की फिकर। कपड़े उसको काफी ऐसा दिखने लगते हैं कि ठीक था। अभी आज हम सारे लोग को नंगा खड़ा करें तो आपको पहली दफा अपने शरीर का खयाल आएगा कि यह क्या बात है, यह कैसा शरीर है! यह शरीर बर्दाश्त करने जैसा नहीं होगा, अगर आप नंगे खड़े हों।

प्रश्न--चंद्रकांत भाई का जवाब देंगे क्या?

उत्तर--हां, तो अभी एक ही मेरे मन में खयाल है कि सारे मुल्क के कोने-कोने से एक वैचारिक क्रांति, फिर एक युवक संगठन खड़ा करने का है, बिलकुल एक सैन्य ढंग पर युवक संगठन पूरे मुल्क में।

प्रश्न--क्या आपको पोलोटिक्स से भाग लेने का है?

उत्तर--न, पोलोटिक्स में भाग लेने का नहीं हूं, लेकिन मुल्क की जिंदगी में भाग लेने का है। उसमें पोलोटिक्स भी है। पोलोटिक्स में भाग लेने का नहीं है। लेकिन मुल्क की पूरी जिंदगी में भाग लेने का मन है। उसमें धर्म भी है, उसमें पोलोटिक्स भी है, उसमें एजुकेशन भी है, उसमें एकोनामिक्स भी है। पालिटिक्स में मेरी रुचि नहीं है, लेकिन मुल्क की पूरी जिंदगी मेरी रुचि है और उसकी जिंदगी में पालिटिक्स भी है। तो मुल्क की जिंदगी को जहां-जहां पालिटिक्स छूती है, वहां कोई उससे भागकर और डरने वाला मेरा मन नहीं है कि उससे कोई भागता है। जो उसमें भी जरूरी लगे, उसके फर्क के लिए हमें फिकर करनी है। उसकी जरूर फिकर करनी है। तो एक यूथ फोर्स खड़े करने का है पूरे मुल्क में--युवक का, युवतियों का। वह एक सामाजिक क्रांति के लिए एक भूमिका बनाने के लिए कि दस साल में अगर कोई सामाजिक क्रांति खड़ी करनी हो तो हमारे पास एक शक्ति भी होनी चाहिए, जो पीछे बल दे सके। जो कह सके कि हां इस क्रांति को हम ताकत देते हैं।
तो एक तो यूथ फोर्स के लिए जोर से विचार है। दूसरा, एक गांव-गांव, बड़े-बड़े नगरों में फिलहाल छोटे-छोटे आश्रम खड़े करने का मेरा खयाल है। जहां जिसको मैं ध्यान कह रहा हूं, उस ध्यान के सतत प्रयोग चल सकें। कुछ संन्यासियों का एक नया आर्डर खड़ा करने का खयाल है, ऐसे संन्यासी का जो किसी धर्म का नहीं होगा। जिसका किसी किताब के प्रति कोई आग्रह नहीं होगा और जो न हिंदू होगा, न मुसलमान होगा, न जैन होगा। वह सिर्फ संन्यासी होगा। और धर्म क्या है, उसकी खबर वह ले जाएगा। और मेरी दृष्टि में, धर्म का अर्थ जो सारे जीवन को छू ले। उसमें शिक्षा भी है, राजनीति भी है। उसमें दांपत्य भी है, उसमें सेक्स भी है। धर्म का मेरा मतलब यह है कि वह फिलासफी पूरे लाइफ की, पूरे जीवन को छू ले। तो एक संन्यासी का आर्डर जल्दी खड़ा करने का है कि पांच सौ संन्यासी पूरे मुल्क में गांव-गांव भेजे जा सके जो जाकर वहां खबर ले जाए और एक हवा पैदा करें और दस साल में एक मूवमेंट खड़ा किया जाए कि हम समाज की जिंदगी में जो भी फर्क लाना चाहते हों उनके लिए ताकत दी जा सके कि वह फर्क पैदा हो सके।

प्रश्न--यह सब चलाने के लिए जो पैसा जाओगे सार्वजनों से...।

उत्तर--बिलकुल भी नहीं होगा। यह तो मेरे विचार जिस पसंद है वह तो उनके लिए सहायता पहुंचा रहा है। न इससे स्वर्ग का आश्वासन है उसको, न पुण्य का आश्वासन है उसको। ज्यादा से ज्यादा इतना है कि उसने जो गलत किया है उसका पश्चात्ताप है। इससे ज्यादा नहीं है इसमें कोई अर्थ।

प्रश्न--अस्पष्ट

उत्तर--इसकी बहुत फिकर नहीं है। मेरी फिकर यह है...एक तो कंट्रोवर्सियल वे हैं नहीं, जो भी मैं कह रहा हूं। वे दिखायी पड़ सकती है क्योंकि जिंदगी कंट्रोवर्सियल है। जिंदगी इतनी पैरोडाक्सियल है, उसके इतने पहलू हैं कि जब एक पहलू से हम कुछ बातें करें और दूसरे पहलू से बात करें, तो अक्सर हम दोनों में मेल नहीं बिठा पाते। लेकिन मैं कोई कंट्रोवर्सियल बात नहीं कर रहा हूं। जब भी मुझ से पूछा जाए तो मैं तैयार हूं। तो वह कंट्रोवर्सियल नहीं है। जैसा अभी आपने पूछा कि दान का मैंने यह कहा और दान का मैंने यह कहा। मेरे लिए कंट्रोवर्सी नहीं है बात। लेकिन मेरी बात सुनकर यह खयाल पैदा हो सकता है। पर मैं सोचता हूं। कि अगर खयाल भी पैदा हो जाए तो अच्छा है क्योंकि फिर आप पूछते हैं, विचार चलते हैं। वह तो निपट जाएगा, वह तो हल हो जाएगा।
और यह भी मैं फिकर नहीं करता कि जो मैं कहूं वह अगर लोगों की मान्यता के विपरीत पड़ता है तो वे मुझसे दूर चले जाएंगे। अगर मैं, जो कह रहा हूं वह ठीक है तो वे आज दूर जाएंगे, पास आ जाएंगे इससे कोई फर्क नहीं पड़ता लेकिन उनको देखकर मैं कुछ नहीं कह सकता हूं कि वे पास आए, क्योंकि वह बेईमानी है। अगर कोई बात करूं सिर्फ इसको खयाल रखकर कि आप मेरे पास आ जाए तो फिर वह बेईमानी है। और फिर...फिर यह असत्य का धंधा होगा पूरा का पूरा क्योंकि आप किसके पास आएंगे वह अगर चिंतन है, तो फिर बड़ी कठिनाई की बात है। तो मैं तो मुझे जो ठीक लगता है वह कहे चला जाऊंगा। कौन पास आता है, कौन दूर जाता है वह भगवान पर छोड़ दूंगा समझ मेरी इतनी है कि अगर किसी बात में कोई भी सचाई है तो लोग उसके पास आज नहीं कल आ जाते हैं। अगर सचाई नहीं है तो आना भी नहीं चाहिए। वह बात अपने आप मर जाएगी। या तो मेरी बात मर जाएगी तो मर जाना चाहिए अगर वह सच नहीं है। और अगर सच है तो मैं मानता हूं कि इतना मुल्क नहीं मर गया है कि लोग सच के करीब नहीं आ पाएंगे। इतना नहीं मर गया है कोई वह तो करीब आ जाएंगे। दोनों हालतों मग कोई फर्क नहीं पड़ता।
ओशो
आई बड़ौदा, दिनांक ८ सितंबर, १९६८





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