प्रवचन-चौथा-(रसरूप भगवत्ता)
श्री रजनीश आश्रम, पूना, प्रातः, दिनांक २४ जुलाई,
१९८०
पहला प्रश्न: भगवान, आपने उस दिन कहा कि रसो वै सः--कि वह रस-रूप है। परमात्मा की यह परिभाषा
मुझे सबसे बढ़कर भाती है। तैत्तिरीय उपनिषद का वह पूरा श्लोक इस प्रकार है:
रसो वै सः। रसं ह्येवायं लब्ध्वानंदी भवति। को
ह्येवान्यात कः प्राण्यात।
यदेष आकाश आनंदो न स्यात। एष ह्येवानंदयाति।
(भगवान रस-रूप है। उसी रस को पाकर प्राणी-मात्र आनंद का
अनुभव करता है। यदि वह आकाश की भांति सर्व-व्यापक आनंदमय तत्व न होता, तो कौन जीवित रहता और कौन प्राणों की चेष्टा करता? वास्तव
में वही तत्व सबके आनंद का मूलस्रोत है।)
भगवान, हमें इसका पूरा आशय
समझाने की अनुकंपा करें!
सहजानंद!
यह परिभाषा अपूर्व है। मनुष्य जाति के समग्र इतिहास में इसके जोड़ की
कोई परिभाषा नहीं है। ऐसे तो परमात्मा की परिभाषा हो नहीं सकती, लेकिन करनी ही हो, करनी ही पड़े, तो इस परिभाषा से श्रेष्ठतर परिभाषा की कोई संभावना नहीं है। लेकिन इसे
समझना आसान नहीं है। एक-एक शब्द को बहुत गौर से समझना पड़े।
पहले तो रस। दुनिया की किसी भाषा में इसका ठीक-ठीक रूपांतरण नहीं किया
जा सकता। रूपांतरण करते ही बात विकृत हो जाती है। क्योंकि जिन्होंने इस शब्द को
जन्म दिया होगा, उन्होंने अनुभव का निचोड़ इसमें भरा है। यह सामान्य
शब्द नहीं है; अनुभूतिजन्य है। इस छोटे से शब्द में अनुभव का
सागर समाया हुआ है। इस बूंद में सिंधु है। इस बूंद को कोई समझ ले, तो सारे सागरों का रहस्य समझ में आ जाए।
इस शब्द के बहुत पहलू हैं। पहला पहलू तो है कि रस का अर्थ होता है--जो
सदा प्रवाहमान है, जो बह रहा है। बह गति, गत्यात्मकता
रस शब्द से सूचित होती है।
जो चीज ठहरी, वह मरी। जो बहती रही, वह जीवित
रही। जल तो वही है, जो हौज में भरा होता है--और कुएं में भी।
शायद उसी कुएं का जल हो। लेकिन हौज का जल मृत है, उसमें
प्रवाह नहीं है। वह रस नहीं है।
कुएं का जल प्रवाहमान है। उसमें झरने हैं। उसमें स्रोत हैं। उसमें गति
है। वह अनंत-अनंत सागर से जुड़ा है। परोक्ष में दूर-दूर झर-झर कर पानी उस तक पहुंच
रहा है। वह तो सिर्फ झरोखा है, जिसमें से सागर झांका है। और
सागर भी ऐसा हो कर झांका है कि अब पिया जा सकता है। सागर से पानी न पी सकोगे।
पीओगे, तो मृत्यु हो जाएगी। सागर को पृथ्वी की बहुत-सी तलों
में से गुजरना पड़ता है, तब कीं पीने-योग्य हो पाता है। तब
कहीं हम उसे अपना जीवन बना सकते हैं। और पानी के बिना कोई जीवन नहीं है। आदमी के
शरीर में अस्सी प्रतिशत तो पानी ही है।
कुएं का पानी तुम पी सकोगे; वह तुम्हारे पचाने के
योग्य हो गया। पृथ्वी ने उसे शुद्ध किया, निर्मल किया। झर-झर
कर निर्मल हुआ। बह-बह कर निर्मल हुआ। हौज में तो सड़ जाएगा; कुएं
में नहीं सड़ता है। देखने में दोनों में एक जैसा लगता है।
जब कोई बुद्धपुरुष जीवित होता है, तो उसके भीतर धर्म
रस-पूरा होता है। जैसे कुएं में जल। जैसे सरिता का जल। और जब कोई बुद्धपुरुष विदा
हो जाता है, तो पंडितों के पास उसके शब्द छूट जाते हैं--जैसे
हौज में भरा जल, जैसे डबरों में भरा जल। जिनके कोई झरने नहीं
होते। जल तो वही। देखने में बिलकुल वही, फिर भी वही नहीं।
बुद्धपुरुष को तुम आत्मसात कर सकते हो, उसे पी सकते हो,
उसे पचा सकते हो। इसलिए जीसस ने अनूठे वचन कहे हैं।
अंतिम विदाई में जीसस ने अपने शिष्यों के लिए भोज दिया। वह बड़ा
प्रतीकात्मक है: अंतिम-भोज। उस भोज में जीसस ने अपने शिष्यों को कहा, इस भोजन को तुम साधारण भोजन मत समझना। यह मेरा मांस है, मेरी मज्जा है। इस शराब को तुम साधारण शराब मत समझना; यह मेरा खून है। मुझे खाओ, मुझे पीओ, मुझे पचाओ।
बड़े अजीब से शब्द हैं, लेकिन बड़े गहरे। जीसस
यह कह रहे हैं कि तुम सिर्फ मेरे अनुयायी बनकर मत रह जाना, नहीं
तो चूक जाओगे। तुम मेरे शब्दों के धनी बन कर मत रह जाना, नहीं
तो भटक जाओगे। तुम्हारे भीतर भी वही चैतन्य आविर्भूत होना चाहिए, जो मेरे भीतर हुआ। वही ज्योति जलनी चाहिए, जो मेरे
भीतर जली। और ऐसा तो तब होगा, जब शिष्य अपने गुरु को पचाने
को राजी हो जाता है।
विद्यार्थी पचाता नहीं; विद्यार्थी तो याद
करता है। विद्यार्थी अंततः पंडित बन जाएगा। शिष्य पचाता है। पचाता है, पीता है। लीन करता है अपने में। और जब भोजन पच जाता है, तो तुम्हारा हो जाता है। अब तुम कैसे पता लगाओगे कि तुम्हारा खून कहां से
आया--दूध से आया, सब्जी से आया, फल से
आया--कहां से आया! अब तो पता लगाना भी मुश्किल है। खून--तुम्हारा खून है।
हड्डी--तुम्हारी हड्डी है। मज्जा--तुम्हारी मज्जा है। लेकिन जो अनपचा रह जाए,
तो रुग्ण कर देगा।
पंडित रुग्ण होता है। उसके भीतर अनपचा भोजन पड़ा है। बहुमूल्य भोजन--मगर
अनपचा। लेकिन ठंडा हो गया भोजन!
शास्त्रों में धर्म ठंडा हो जाता है; पचाने योग्य नहीं रह
जाता। उसकी ऊर्जा भी खो जाती है, ऊष्मा भी खो जाती है। उसकी
श्वासें ही कब की टूट चुकीं। मृत लाश है! वैसी ही लगती है, जैसे
जीवित बुद्धपुरुष लगते थे। बस देखने में वैसी लगती है, लेकिन
कुछ कमी है। और कुछ क्या--सभी कुछ कम है। आत्मा ही नहीं है। पिंजड़ा पड़ा है;
आत्मा तो उड़ गई।
धर्म रस है। लेकिन कोई झरोखा चाहिए, जिससे तुम झांक सको।
कोई झरना चाहिए, जिससे तुम पी सको। शब्द काम नहीं देंगे।
शास्त्र काम नहीं देंगे। जानकारी और ज्ञान काम नहीं देगा। ध्यान ही काम दे सकता
है। क्योंकि ध्यान से स्वाद मिलता है।
रस का दूसरा पहलू: रस का अर्थ है, जिसका स्वाद लिया जा
सके। तुम शब्द तो सुनते हो, मगर उनका स्वाद कहां? जैसे ईश्वर शब्द तुमने सुना। कोई स्वाद आता है तुम्हें! तुम्हें बिलकुल
स्वाद नहीं आता। ईश्वर शब्द कान में भनभनाता है; एक कान में
गूंजता है, दूसरे से निकल जाता है। तुम्हारे भीतर कोई
हलन-चलन नहीं होती। कोई गति नहीं होती। कोई रस नहीं बहता। तुम मस्त नहीं हो जाते।
तुम डोलने नहीं लगते।
यूं ही जैसे कोई शराब शब्द को सुने, तो क्या मस्त हो
जाएगा? पीए तो मस्त होगा। पीए तो झूमेगा। पीए तो गाएगा। पीए
तो नाचेगा। शराब उसके रग-रेशे में दौड़े, तो उसका रोआं-रोआं
जाहिर करेगा कि कुछ भीतर घट रहा है; कोई क्रांति हो रही है।
धर्म रस है अर्थात उसका स्वाद लेना होता है। खोपड़ी में भर लेने से
स्वाद नहीं आता। स्वाद तो अनुभव से आता है। तुम लाख चर्चा सुनो मिठाई की, लेकिन कभी तुमने मीठा न चखा हो, तो चर्चा से क्या
होगा! मीठा शब्द याद हो जाएगा, लेकिन शब्द में कुछ अर्थ नहीं
होगा। तुम्हारे लिए नहीं होगा अर्थ। अर्थ उनके लिए ही होगा, जिन्होंने
चखा है।
शब्दों का एक खतरा है। शब्दों से यह भ्रांति पैदा हो सकती है कि मैं
समझ गया। जब शब्द समझ में आ गया, तो हम सोचते हैं: बात समझ में आ
गई। मगर शब्द समझ में आने से कुछ समझ में नहीं आता।
प्रेम शब्द तुम जानते हो; खूब जानते हो। सुबह
से सांझ तक प्रेम की चर्चा करते हो। सारी पृथ्वी पर प्रेम ही प्रेम चल रहा है! पति
पत्नी को प्रेम कर रहा है। पत्नी पति को प्रेम कर रही है। मां-बाप बच्चों को प्रेम
कर रहे हैं। बच्चे मां-बाप को प्रेम कर रहे हैं। सब सबको प्रेम कर रहे हैं--और फिर
भी पृथ्वी पर इतना अप्रेम है, इतनी घृणा है; इतना वैमनस्य है, इतनी शत्रुता है कि सब एक-दूसरे के
जान के ग्राहक बने बैठे हैं! सब एक-दूसरे की गर्दन पर तलवारें टिकाए हुए हैं।
जिसको मौका मिल जाए, वही गर्दन काट देगा!
यह मामला क्या है! यह तमाशा क्या है? इतना प्रेम दिया जा
रहा है, लिया जा रहा है और परिणाम में सिवाय युद्धों के कुछ
नहीं लगता! तीन हजार साल में पांच हजार युद्ध लड़े गए हैं! यह तुम्हारा अतीत है! ये
तुम्हारे सतयुग, स्वर्णयुग, रामराज्य
की कथाएं हैं! इस अतीत के तुम गुणगान गाते थकते नहीं! ये तुम्हारे स्वर्ण-शिखर
हैं! ये तुमने आकाश छुए हैं!
तीन हजार साल में पांच हजार युद्ध! जैसे आदमी लड़ता ही रहा--लड़ता ही
रहा! और सारे प्रेम का क्या हुआ? क्योंकि एक व्यक्ति पति भी होता
है, बेटा भी होता है, पिता भी होता है,
भाई भी होता है, काका भी होता है, मौसा भी होता है, मामा भी होता है--कितना नहीं होता!
रिश्ते ही रिश्ते हैं! उसको कितना प्रेम मिलता है? इतना सारा
प्रेम जानने के बाद फल तो बड़े कड़वे लगते हैं!
और प्रेम की कविताएं, और प्रेम के गीत, और प्रेम के शास्त्र! हां, तुम प्रेम पर बोलना चाहो,
तो खूब बोल सकते हो। मगर प्रेम का तुम्हें कुछ अनुभव नहीं। अनुभव
नहीं--तो अर्थ भी नहीं।
ऐसा समझो कि अनुभव से अर्थ आता है; शब्दों की जानकारी से
अर्थ नहीं आता। जिस दिन अंधे की आंख खुलती है, उस दिन वह
जानता है: प्रकाश क्या है। इसके पहले लाख तुमने समझाया हो, और
लाख उसने समझा हो...। अंधों की अलग किताबें होती हैं, ब्रेल-लिपि
में लिखी हुई। उन पर उंगलियां फेर-फेर कर उसने पढ़ लिया हो; प्रकाश
के संबंध में सारी जानकारी, सारे सिद्धांत, सारा भौतिक शास्त्र--जो-जो कहता है, अब तक विज्ञान
ने जो खोजा है प्रकाश के संबंध में--कि प्रकाश की गति इतनी होती है: एक सेकेंड में
एक लाख छियासी हजार मील! कि प्रकाश शुभ्र रंग का होता है! लेकिन अगर उसे
स्पैक्ट्रम से गुजारा जाए, तो वह सात रंगों में टूट जाता है;
उससे इंद्रधनुष बन जाते हैं। यह सब पढ़ सकता है अंधा ब्रेल-लिपि में।
और न पढ़ सकता हो, तो तुम समझा सकते हो; पढ़-पढ़ कर तुम बता सकते हो।
और ध्यान रखना: अंधा सुनने में बहुत कुशल होता है! स्वभावतः। उसके पास
आंखें तो होती नहीं, तो आंखों से जो ऊर्जा व्यय होती थी, वह सब की सब कानों को मिल जाती है। इसलिए अंधे अच्छे संगीतज्ञ होते हैं,
अच्छे गायक होते हैं। उनकी ध्वनि पर पकड़ गहरी होती है।
आंख से आदमी की अस्सी प्रतिशत ऊर्जा व्यय होती है। अस्सी प्रतिशत!
बाकी तुम्हारी चार इंद्रियों को केवल बीस प्रतिशत ऊर्जा मिलती है। इसलिए तो बहरे
को देखकर दया नहीं आती; वैसी दया नहीं आती, जैसी दया
अंधे को देखकर आती है। तुम्हारे पास बहरे के लिए कोई समादर-सूचक शब्द नहीं है।
लेकिन अंधे को तुम कहते हो--सूरदासजी! लंगड़े को लंगड़ा ही कहते हो; लंगड़ाजी भी नहीं कहते! बहरे को बहरा ही कहते हो; बहराजी
भी नहीं कहते! लेकिन अंधे को सूरदासजी कहते हो। क्यों?
अंधे पर बड़ी दया आती है। दया आने जैसी बात है। क्योंकि उसका अस्सी
प्रतिशत जीवन कट गया। वह केवल बीस प्रतिशत से जी रहा है। वह केवल अपने जीवन का
पंचमांश जी रहा है। यूं समझो कि न जीने के बराबर जी रहा है। आंख ही नहीं, तो क्या जीवन! न रंग है, न रूप है, न सौंदर्य है। तुम कल्पना नहीं कर सकते कि रंग, रूप
और सौंदर्य के न हो जाने पर तुम्हारे जीवन पर परदा गिर जाता है। बचता ही क्या है!
लेकिन इसका एक परिणाम होता है कि यह अस्सी प्रतिशत ऊर्जा जो बचती है, आंख की, यह कान को मिल जाती है। कान आंख के सबसे
करीब है; नंबर दो।
तो अंधा सुनता बहुत गहराई से है। उसकी स्मृति बहुत मजबूत होती है
गहराई की; भूलता ही नहीं। एक दफा सुन लेता है, तो भूलता नहीं। उसकी सुनने के संबंध में संवेदनशीलता बड़ी गहन होती है।
जैसे तुम आदमी को उसके चेहरे से पहचानते हो, अंधा तो चेहरे
से नहीं पहचान सकता। वह उसकी पग-ध्वनि तक को पहचानने लगता है। अंधा जानता है--कौन
आ रहा है। वह अपने मित्र के पैरों की आवाज पहचानता है। तुमने कभी खयाल ही नहीं
किया होगा कि आदमी आदमी के पैरों की आवाज में भी फर्क होता है। मगर अंधे को होता
है फर्क। स्वभावतः क्योंकि उसको तो और कोई पहचान बची नहीं।
इसलिए अंधे को तुम समझाओ, तो वह समझने में कुशल
होता है। शब्दों को तो वह कान से सुन लेता है, और स्मृति में
समा जाते हैं। मगर प्रकाश का अनुभव कैसे होगा?
और प्रकाश का अर्थ अंधे के लिए क्या हो सकता है! कुछ भी नहीं हो सकता।
प्रकाश तो दूर, अंधे ने अंधेरा भी नहीं देखा है। आमतौर से तुम सोचते
हो कि अंधा बेचारा अंधेरे में रहता होगा। तुम इस गलती में मत पड़ना। अंधेरा देखने
के लिए भी आंख चाहिए। आंख के बिना अंधेरा भी नहीं देखा जा सकता। जब प्रकाश नहीं
देखा जा सकता, तो अंधेरा कैसे देखोगे?
तुम आंख बंद करते हो, तो अंधेरा दिखाई पड़ता है। लेकिन
यह मत सोच लेना इससे, यह अनुमान मत लगा लेना कि बेचारा अंधा
अंधेरे में रहता होगा। अंधे को अंधेरा भी कभी नहीं दिखाई पड़ा। आंख ही नहीं है,
दिखाई पड़ने का कोई सवाल ही नहीं उठता।
तो इसको तुम अंधेरा भी नहीं समझा सकते, प्रकाश तो क्या खाक
समझाओगे! मगर शब्द इसे याद हो सकता है। और यह अंधा पंडित हो सकता है शब्द के आधार
पर। अंधों के सिवाय और कोई पंडित होता ही नहीं। सभी पंडित सूरदास होते हैं। पंडित
यानी अंधा।
गए थे समझने, गए थे हीरे लेने--बीन लाए कंकड़-पत्थर! गए थे अनुभव
लेने--ले आए शब्द। और सोचा कि संपदा ले आए!
रस शब्द को खयाल में रखो। उसका अर्थ अनुभव, स्वाद!
सत्य तुम्हारे कंठ से उतरना चाहिए; तुम्हारी जीभ पर चखा
जाना चाहिए। सत्य की प्रतीति एंद्रिक होनी चाहिए। यह रस का अर्थ है।
लेकिन तुम्हारे तथाकथित महात्मा तो इंद्रियों के विपरीत हैं। उनकी तो
चेष्टा यह है कि सारी इंद्रियों को मार डालो। आंखें हों, तो फोड़ लो। यही तो उन्होंने सूरदास की कहानी में जोड़ दिया है। अगर यह
कहानी सच है, तो मेरे लिए सूरदास दो कौड़ी के हो गए। लेकिन
मैं सोचता हूं कि यह कहानी सच नहीं हो सकती, क्योंकि सूरदास
के पद इतने प्यारे हैं कि यह कहानी सच नहीं हो सकती कि उन्होंने एक सुंदर स्त्री
को देख कर आंखें फोड़ ली थीं, कि न रहेंगी आंखें और न बजेगी
बांसुरी!
मगर आंखें बंद कर लेने से बांसुरी का बजना बंद नहीं होता; और जोर से बजती है! भनभना कर बजती है! सुंदर स्त्री जा रही हो, आंख बंद कर लो; और भी सुंदर मालूम पड़ने लगेगी। इतनी
सुंदर कोई स्त्री होती ही नहीं, जितनी आंख बंद कर लेने पर
सुंदर हो जाती है। वास्तविक स्त्री में तो क्या खाक सौंदर्य होता है! दो दिन में उड़
जाएगा! थोड़े से परिचय में तिरोहित हो जाएगा।
अब कितने ही लहराते बाल हों, नागिन से लहराते बाल
हों, तो भी क्या करोगे! कब तक सिर मारोगे! और नाक बिलकुल
तोते जैसी हो, तो भी क्या करोगे! और रंग भी बहुत गोरा और
चिट्टा हो, तो क्या करोगे! दो-चार दिन में सब फीका हो जाएगा।
दो-चार दिन में स्त्री के शरीर का पूरा भूगोल तुम पहचान लोगे, सब नाप-जोख कर लोगे, फिर बैठे हैं हाथ पर हाथ धरे!
लेकिन अगर आंख बंद कर ली, तो न होगी कभी
नाप-जोख, न कभी होगी पहचान--और गैर-पहचान में मन कल्पना से
भर जाता है। खूब कल्पना से भर जाता है। स्त्रियां इस सत्य को जानती हैं; सदियों से जानती हैं। इसलिए स्त्रियां उन-उन अंगों को छिपा कर रखती हैं,
जिन अंगों के प्रति चाहती हैं कि तुम्हारे भीतर कल्पना जगे! जितनी
छुपी स्त्री हो, उतनी ही तुम्हारी कल्पना को प्रज्वलित करती
है।
स्त्री की तो बात छोड़ दो, किसी खूसट बुङ्ढे को
भी तुम बुरके में उढ़ा कर जरा रास्ते में निकाल दो! समझो--मोरारजी देसाई ही चले जा
रहे हैं! बुरका ओढ़े हुए! तो लोगों की छातियां थम जाएंगी; हृदय
की धड़कन बंद हो जाएंगी। दुकानें ठहर जाएंगी। लोग कहेंगे--जरा रुको! जरा देख तो
लूं! लुच्चे-लफंगे पीछे लग जाएंगे! सीटियां बजने लगेंगी; फिल्मी
गाने होने लगेंगे! देखो, कैसी बांसुरियां बजती हैं! वह तो जब
तक बुरका नहीं उघड़ेगा, तब तक उपद्रव बहुत फैल जाएगा।
दंगा-फसाद हो सकता है! वह तो बुरका जब उघड़ेगा, तब...!
मैं गंगा के किनारे बैठा था अपने एक मित्र के साथ। एक व्यक्ति स्नान
कर रहा था। सुंदर देह। लंबे बाल। पीछे से यूं लगता था, जैसे कोई सुंदर स्त्री हो! वे मित्र बोले कि मुझसे न रहा जाएगा। मैं देख
कर आता हूं। जब देह में ऐसा सौष्ठव है, कौन जाने चेहरा भी
सुंदर हो।
मैंने कहा, जाओ, जरूर देख आओ।
वे गए। वहां से बिलकुल सिर पीटते लौटे। कहा, हद्द हो गई। एक साधु महाराज नहा रहे हैं।
उनके बड़े घुंघराले बाल थे। बाल पीछे उनके लटक रहे थे। और देह भी उनकी
सुंदर थी। जब ये उनको देख कर लौटे चेहरा, तब पता चला। अगर बैठे
ही रहते, मुझसे उन्होंने ईमानदारी से न कहा होता, तो उस रात करवटें बदलते। विचार करते रहते। सपने में उतरते। और वह स्त्री
कौन थी! और वहां कोई स्त्री थी ही नहीं।
आंख बंद कर लोगे, तो रूप नष्ट नहीं होता--और
प्रगाढ़ हो जाता है। क्योंकि कल्पना को अवसर मिल जाता है। इसलिए स्त्रियां अपने को
छिपाने की कला में निष्णात हो जाती हैं।
पश्चिम की स्त्रियां इतनी सुंदर नहीं मालूम होतीं, यद्यपि ज्यादा सुंदर हैं। इतनी सुंदर नहीं मालूम होतीं, जितनी पूरब की स्त्रियां मालूम होती हैं। उसका कुल राज इतना है कि पश्चिम
की स्त्री ने एक पुराना हिसाब बंद कर दिया। उसने पुरानी चाल-बाजी बंद कर दी,
जो संस्कृति और धर्म के नाम पर बड़ी होशियारी से थोपी गई थी। उसने
अपने शरीर को उघाड़ दिया है। वह सहज-स्वाभाविक हो गई है। लाखों स्त्रियां नग्न
स्नान कर रही हैं समुद्र तटों पर। कोई देखने के लिए भीड़ इकट्ठी नहीं होती। भीड़
इकट्ठी होती ही तब है, जब देखना मुश्किल हो।
भारत में जितने धक्के लगते हैं स्त्रियों को, दुनिया में कहीं नहीं लगते। धार्मिक देश है! पुण्यभूमि है! यहां देवता
पैदा होने को तरसते हैं! वे भी इसीलिए तरसते होंगे! कि थक गए उर्वशी और मेनका से।
हेमा मालिनी को धक्का देना चाहते हैं। खबरें तो पहुंचती होंगी! कोई देवता भी ऐसा
थोड़े ही कि अखबार न पढ़ते होंगे! थोड़ी देर से पहुंचते होंगे अखबार, पहुंचते तो होंगे ही। पढ़-पढ़ कर उनके भी जी पर सांप लोट जाता होगा।
आंख बंद करने से नहीं कुछ होने वाला है।
सूरदास ऐसी मूढ़ता नहीं कर सकते। लेकिन कहानी यही कहती है, और इसीलिए कि सूरदास का सम्मान करती है। कि अदभुत व्यक्ति थे, कि आंख फोड़ ली उन्होंने! इतने मूढ़ नहीं हो सकते। ऐसी मूढ़ता से ऐसे सुंदर
पदों का जन्म नहीं हो सकता। ऐसे रसपूर्ण पद हैं कि रस का अनुभव हुआ ही होगा। नहीं
तो यह रस कैसे बहेगा! यह रस कहीं न कहीं से आ रहा है। यह अंधे से नहीं आ सकता। यह
तो बहुत संवेदनशील व्यक्ति से आ सकता है। और उन्होंने जैसा वर्णन किया है कृष्ण के
सौंदर्य का, उससे प्रतीत होता है कि उनके सौंदर्य का बोध बड़ा
प्रगाढ़ रहा होगा।
तुम्हारे धर्मों ने तुम्हारी इंद्रियों को मारने की कला सिखाई है।
जिह्वा को मार डालो!
महात्मा गांधी अपने भोजन में साथ में नीम की चटनी भी खाते थे। अब नीम
की कोई चटनी होती है! तुमने कभी सुनी? मगर महात्मा जो न
करें, सो थोड़ा! ऐसी ही चीजों से तो वे महात्मा होते हैं।
पश्चिम का एक विचारक लुई फिश महात्मा गांधी पर एक किताब लिख रहा था, तो वह उनका निकट अध्ययन करने के लिए उनके आश्रम आया। महात्मा गांधी ने उसे
अपने साथ भोजन के लिए बिठाया। और सब चीजें तो उसने देखीं, साथ
में जब नीम की चटनी आई, उसने पूछा, यह
क्या है? तो महात्मा गांधी ने कहा, जरा
चख कर देखो! उसने चखी, तो जहर थी! उसने कहा, हद्द हो गई। यह कोई भोजन है!
महात्मा गांधी ने कहा कि इसे करने से धीरे-धीरे स्वाद पर नियंत्रण आ
जाता है। रोज-रोज इसको खाने से आदमी का स्वाद पर बल थिर हो जाता है। तुम स्वाद के
गुलाम हो। आदमी को होना चाहिए स्वाद का मालिक। सात दिन तुम यहां रहोगे, अभ्यास करो।
लुई फिशर तो बहुत घबड़ाया कि सात दिन यहां मैं टिक पाऊंगा इस नीम की
चटनी के कारण! उसने यह सोच कर कि पूरा भोजन खराब करने के बजाय यह बेहतर है कि इसको
एक ही दहा पूरा का पूरा गोला गटक कर पानी पी लूं, फिर भोजन कर लूं,
ताकि झंझट एक ही दफे में खतम हो जाए; नहीं तो
पूरा भोजन खराब होगा!
उसने पूरा गोला गटक लिया। और महात्मा गांधी ने कहा कि और लाओ। देखो, कितनी पसंद पड़ी! अरे समझदार आदमी हो, तो उसको पसंद
पड़ेगी ही!
अब लुई फिशर यह भी न बोल सका कि पसंद नहीं पड़ी है। अब कैसे अपनी
समझदारी को गंवाए! सो बैठा रहा मन मारे--और दूसरा गोला आ गया। उसने कहा, अब अखीर में निपटाऊंगा इसको। पहले पूरा भोजन निपटा लूं।
एक गोले की जगह दो गोले मिलने लगे रोज उसको! वह अगर न खाए पहला गोला, तो गांधीजी कहें, अरे, भूले जा
रहे हो! चटनी पहले। फिर दूसरा गोला आ जाए!
हर आश्रमवासी को नीम की चटनी अनिवार्य थी। ऐसे कहीं होगा, तो फिर कोई जाकर अस्पताल में...जीभ कोई बहुत बड़ी भारी बात नहीं है। उसमें
बहुत छोटे-छोटे संवेदनशील तंतु हैं, वे जल्दी से मर जाते
हैं। नीम-वीम से कहां मार पाओगे! जिंदगी भर मारने में लग जाएगी। जाकर अपनी जीभ पर
एसिड डलवा आओ। नहीं तो जाकर किसी प्लास्टिक सर्जन से कहना कि जरा ये छोटे-छोटे
तंतु हैं, इनको साफ ही कर दो; काट ही
डालो! फिर तुम्हें स्वाद ही न आएगा--न मीठा, न कड़वा! तुम हो
गए जितेंद्रिय! फिर हुए तुम जैन! असली जैन! जिह्वा पर विजय हो गई!
कहां के पुराने ढांचे-ढर्रे में पड़े हुए हो; बैलगाड़ियों से सफर कर रहे हो! अस्पताल में चले जाओ, एक
पांच मिनट का काम है; तुम्हारी जबान साफ कर दी जाएगी। तंतु
ही बहुत थोड़े से हैं। और पूरी जीभ भी सारा अनुभव नहीं करती। जीभी पर भी तंतु बटे
हुए हैं। किसी हिस्से पर कड़वे का अनुभव होता है, किसी हिस्से
पर मीठे का। किसी हिस्से पर नमकीन का--अलग-अलग हिस्सों पर।
जरा-सी तो जीभ है, लेकिन उनके बड़े संवेदनशील तंतु
हैं। इनको मारने से तुम सोचते हो कि तुम्हारी भोजन पर विजय हो जाएगी! तो तो जीभ ही
काट डालो! काटने वाले लोग हुए हैं, जिन्होंने जीभ काट ली और
जो योगी समझे गए!
कान फोड़ लो, क्योंकि संगीत है, कोयल की
पुकार है। और ये सब खतरनाक चीजें हैं। कोयल की पुकार--तुम क्या सोचते हो, कोयल कोई भजन कर रही है! और हिंदी में भ्रांति होती है। क्योंकि हिंदी में
कोयल से ऐसा लगता है कि जैसे मादा पुकार रही है। मादा नहीं पुकारती। मादाएं तो
सारी दुनिया की, चाहे किसी पशु-पक्षी की हों, आदमी की हों, जानवरों की हों, बहुत
होशियार हैं। पुकार वगैरह नहीं देतीं! कोयला--कोयल नहीं! यह कोयला पुकार रहा है।
ये सज्जन पुकार रहे हैं! कोयल तो चुपचाप बैठी रहती है। ये ही पुकार मचाए रखते हैं;
ये ही गुहार मचाए रखते हैं। वह जो पपीहा पुकार रहा है, वह भी पुरुष है। वह जो पी कहां कह रहा है...कहना चाहिए--प्यारी कहां! मूरख
है; भाषा का ज्ञान नहीं। अंट-शंट बोल रहा है।
मगर तुम सुन लेते हो। तुम्हें पता नहीं कि यह सब पुकार तो मची हुई है
वही--महात्माओं के खिलाफ! यह प्रकृति का रस बह रहा है। तुम कान फोड़ लो अपने।
पक्षियों के गीत हैं, संगीत है--यह सब खतरनाक है।
तुम्हारे महात्माओं की मान कर चलो, तो तुम अपनी इंद्रियों को
धीरे-धीरे फोड़ते चले जाओ, तोड़ते चले जाओ।
अलग-अलग धर्मों ने अलग-अलग इंद्रियों को तोड़ने के उपाय खोजे हुए हैं।
इसलाम संगीत के खिलाफ है। क्योंकि संगीत कहीं न कहीं कामवासना से जुड़ा हुआ है। यह
आकस्मिक नहीं है संगीत कामवासना से जुड़ा हुआ है, क्योंकि सारे
पशु-पक्षियों की पुकारें और गीत कामवासना के ही अंग हैं। मनुष्य ने भी उनसे ही
संगीत सीखा है।
वेश्यालयों में संगीत कोई अप्रसांगिक रूप से नहीं चलता है। दरबारों
में राजाओं के जहां वैभव और विलास था, वहां संगीत की
महफिलें जमी रहती थीं। जब से दरबार उखड़ गए, राजा न रहे,
संगीत के भी प्राण निकल गए। संगीत में वे ऊंचाइयां न रहीं, क्योंकि खरीददार न रहे। अब फिल्मी संगीत बचा है, क्योंकि
खरीददार भी तीसरी कोटि के हैं, इसलिए तीसरी कोटि का संगीत भी
होगा। फिल्मी संगीत को तुम गाली मत दो। वह जनता का संगीत है! जनता पार्टी का! जनता
की जितनी बुद्धि, सार्वजनिक जितनी अकल! वह जो शास्त्रीय
संगीत था, वह दरबारी था। उसके लिए सुसंस्कार चाहिए थे। उसके
लिए वर्षों की साधना चाहिए थी। वर्षों की साधना के बाद भी मुश्किल से मिलता था।
भारत का अंतिम मुगल सम्राट बहादुर शाह कवि भी था। उसका कवि नाम था
जफर। बहादुर शाह जफर। मिर्जा गालिब से वह अपनी कविताओं में संशोधन करवाता था।
गालिब उसके गुरु थे। और भी उसके गुरु थे। उर्दू शायरी में यह परंपरा है कि तुम
क्या लिखोगे अपने आप! इतना लिखा जा चुका है! ऐसे-ऐसे बारीक और नाजुक खयाल बांधे जा
चुके हैं कि किसी गुरु के पास बैठ कर पहले समझो। और जरा से शब्दों के तालमेल से
बहुत फर्क पड़ जाता है। तो वह सीख लिया करता था। उसने एक दिन मिर्जा गालिब को पूछा
कि आप कितने गीत रोज लिख लेते हैं?
मिर्जा गालिब ने कहा, कितने गीत रोज! यह कोई मात्रा की
बात है! अरे कभी तो महीनों बीत जाते हैं और एक गीत नहीं उतरता। और कभी बरसा भी हो
जाती है। यह अपने हाथ में नहीं। यह तो किन्हीं क्षणों में झरोखा खुलता है। किसी
अलौकिक जगत से कोई किरण उतर आती है, तो उतर आती है। बंध जाती
है, तो बंध जाती है। छूट जाती है--छूट जाती है। चूक जाती
है--चूक जाती है! कभी तो आधा ही गीत बन पाता है, फिर आधा कभी
पूरा नहीं होता। अपने हाथ में नहीं। प्रतीक्षा करनी होती है।
जफर ने कहा, अरे, मैं तो दिन में जितने
चाहूं, उतने गीत लिख लूं। पाखाने में बैठे-बैठे मुझे गीत उतर
आते हैं!
गालिब तो हिम्मत के आदमी थे। गालिब ने कहा कि महाराज, इसीलिए आपके गीतों में पाखाने की बदबू आती है!
हिम्मतवर लोग थे। कोई अब बहादुर शाह जफर सम्राट थे, इसलिए कोई गालिब छोड़ देंगे उनको, ऐसा नहीं था। कहा
कि अब मैं समझा। अब मैं समझा राज! कभी-कभी मुझे भी बदबू आती थी आपके गीतों
में...कि मामला क्या लिखते हो आप! कूड़ा-कर्कट! अब जब पाखाने में बैठ कर लिखोगे,
तो फिर ठीक ही है! कृपा कर के ऐसा न करो।
जफर को चोट भी लगी, और समझ में भी बात आई। और इसके
बाद ही जफर ने जो गीत लिखे--थोड़े से लिखे, मगर गजब के लिखे।
वे फिर जफर ने नहीं लिखे, जैसे रस ही बहा।
रस का यह पहलू समझो। तुम्हारी इंद्रियां ज्यादा संवेदनशील होनी चाहिए।
उनकी संवेदनशीलता पराकाष्ठा पर पहुंचनी चाहिए। आंख उतना देखे, जितना देख सकती है। रूप की तहों में उतर जाए; रूप की
गहराइयों को छू ले। कान उतना सुने जितना सुन सकता है। संगीत की परतों और परतों में
उतरता चला जाए; संगीत की तलहटी को खोज ले, ऐसी डुबकी मारे, क्योंकि मोती ऊपर नहीं फिरते--तिरते;
गहरे में पड़े होते हैं। जिन खोजा तिन पाइयां, गहरे
पानी पैठ। मैं बोरी खोजन गई, रही किनारे बैठ।
और तुम्हारे महात्माओं को मैं देखता हूं, सब किनारे बैठे हैं! डर के मारे बैठे हैं कि कहीं डूब न जाएं! धार गहरी न
हो; कहीं बह न जाएं। भयभीत, सिकुड़े
हुए! किनारे पर, पकड़े बैठे हुए हैं अपने को। अपनी सारी
इंद्रियों को तोड़ रहे हैं। क्योंकि भयभीत हैं कि कहीं इस इंद्रिय के जाल में न फंस
जाएं, उस इंद्रिय के जाल में न फंस जाएं! इंद्रियों का जाल
नहीं है। इंद्रियां तो तुम्हारी रस को ग्रहण करने की संभावनाएं हैं।
परमात्मा तो सब रूपों में छाया हुआ है। आंख अगर गहराई से देखेगी, तो हर रंग में उसका रंग है। कान अगर गहराई से सुनेंगे, तो हर ध्वनि में उसकी ध्वनि है, उसका नाद है,
ओंकार है--इक ओंकार सतनाम! वह जगह-जगह सुनाई पड़ेगा। मगर बहुत गहरे
सुनने की कला आनी चाहिए।
और तब स्वाद में भी वही मिलेगा। धन्य थे वे लोग, अदभुत थे वे लोग, जिन उपनिषद के ऋषियों ने
कहा--अन्नं ब्रह्म! कि अन्न ब्रह्म है। ये लोग स्वाद के विपरीत नहीं हो सकते। जिन्होंने
भोजन में भगवान को पा लिया हो, ये लोग स्वाद के कैसे विपरीत
हो सकते हैं! जो अन्न को भी ब्रह्म कह सके, ये तुम्हारे
तथाकथित महात्माओं से बड़े अलग लोग थे।
छूट गए सूत्र हमारे हाथ से कहीं। रास्ता कहीं भटक गया। कहीं बीच में
हम और ही दिशाओं में निकल गए। हमने स्वास्थ्य का मार्ग छोड़ दिया; हमने रुग्ण होने की दिशा पकड़ ली। हम जीवन-विरोधी हो गए। और जीवन परमात्मा
है।
अगर तुम स्पर्श की क्षमता में पूरे के पूरे प्रवीण हो जाओ, तो तुम जो छुओगे, उसी में परमात्मा का स्पर्श
मिलेगा।
सारी इंद्रियां संवेदनशील होनी चाहिए। संवेदना पराकाष्ठा पर होनी
चाहिए, तब तुम जानोगे कि वह रसरूप है।
तुम देखते हो, सहजानंद, तुमने जहां से भी इस
सूत्र का हिंदी अनुवाद लिया होगा, वह अनुवाद किसी पंडित ने
किया है। वह अनुवाद किसी द्रष्टा का नहीं है। तुम फर्क देखो!
सूत्र है--रसो वै सः। सीधा-साधा अर्थ है: वह रस रूप है। लेकिन अनुवाद
में तुम देखते हो, फर्क हो गया: भगवान रसरूप है। वह तत्काल भगवान हो
गया! वह का मजा और। भगवान में बात बिगड़ गई; वह न रही।
क्योंकि भगवान का अर्थ हो गया--व्यक्ति। वह तो निर्वैयक्तिक संबोधन था। भगवान का
अर्थ हो गया--राम, कृष्ण, बुद्ध,
महावीर--व्यक्ति। व्यक्ति ही भगवान हो सकता है। जब भी हम भगवान शब्द
का उपयोग करते हैं, तो वह व्यक्तिवाची हो जाता है।
कृष्ण को भगवान कहो--ठीक। बुद्ध को भगवान कहो--ठीक। ये व्यक्ति हैं।
और इन व्यक्तियों ने रस पिया है। इन व्यक्तियों ने वह पिया है, इसलिए इनको भगवान कह सकते हैं। उसको जिसने पिया, वह
भगवान। लेकिन उसको भगवान मत कहो। उसको भगवान कहने से आकार दे दिया, रूप दे दिया। और वह तो सभी आकारों में समाया हुआ है; निराकार है। वह तो निर्गुण है--सगुण नहीं। वह तो सभी आकृतियों में है,
इसलिए उसकी कोई आकृति नहीं हो सकती।
भगवान कहा कि मुश्किल हो गई शुरू। भगवान कहते ही तत्क्षण तुम्हारी
धारणाएं जो भगवान की हैं--किसी के चतुर्भुजी भगवान हैं; किसी के त्रिमुखी भगवान हैं; किसी के भगवान के हजार
हाथ हैं! किसी के भगवान का कोई रूप है; किसी के भगवान का कोई
रूप है! किसी के भगवान गणेशजी हैं; हाथी की सूंड़ लगी हुई है!
किसी के भगवान जी हनुमानजी हैं!
बंदर भी हंसते होंगे, कि हम ही भले, कि किसी आदमी की पूजा तो नहीं करते! ये आदमियों को क्या हो गया है! कि
बंदरों की पूजा कर रहे हैं! हाथी भी चुपचाप मुस्कुराते होंगे कि वाह! हम ही भले!
कि आदमी मिल जाए अकेले में, तो वो पटकना दें उसको कि रास्ते
पर लगा दें! हम किसी आदमी की पूजा नहीं करते! मगर यह हाथी रूपधारी गणेशजी की पूजा
हो रही है! जय गणेश, जय गणेश का गुजार चल रहा है! गणेशोत्सव
मनाए जा रहे हैं! आदमी अदभुत हैं! वह कोई न कोई रूप देना चाहता है। कोई न कोई रंग
भरना चाहता है।
तुम्हारा मन निराकार में जाने से डरता है।
जिसने भी यह अनुवाद किया होगा, वह निराकार से घबड़ाया
हुआ है। और शायद उसे पता भी न हो कि उसने फर्क कर दिया।
रसो वै सः तो सीधा-सादा शब्द है। मैं तो संस्कृत जानता नहीं, मगर यह तो सीधी-सीधी बात है। इसके लिए कुछ संस्कृत जानने की जरूरत नहीं
है। इसमें भगवान कहीं आता नहीं शब्द। वह रसरूप है। यह सूत्र गजब का है। लेकिन जैसे
ही तुमने कहा--भगवान रस-रूप है, बात बिगाड़ दी। भगवान कैसे
रस-रूप हो सकता है! भगवत्ता रस-रूप हो सकती है। मगर भगवत्ता फिर व्यक्ति से मुक्त
हो गई।
इसलिए मैं तुमसे कहना चाहता हूं: भगवान तो हमने उन लोगों को कहा है, जिन्होंने भगवत्ता को चखा और अनुभव किया है। इसलिए बुद्ध को भगवान
कहो--ठीक। महावीर को भगवान कहो--ठीक। जीसस को भगवान कहो--ठीक। कबीर को, नानक को भगवान कहो--ठीक। मगर उस विराट को मत सीमा में बांधो। उसमें तो सब
बुद्ध खो जाते हैं, सब महावीर खो जाते हैं; सब कृष्ण और सब क्राइस्ट उसमें लीन हो जाते हैं। वह तो अनंत है। ये तो सब
उसकी किरणें हैं; एक-एक किरणें। तुम उसे किरणों में मत
बांधो। उसकी कोई सीमा नहीं है।
इस समय पश्चिम में बहुत झगड़ा है कि परमात्मा को हम क्या मानें--स्त्री
या पुरुष! क्योंकि स्त्रियों की बगावत चल रही है पश्चिम में। और ठीक बगावत चल रही
है। अंग्रेजी में तो स्त्री और पुरुष के लिए अलग-अलग सर्वनाम हो जाता है। हिंदी
में तो नहीं होता। इसलिए हिंदी में तो हमें सुविधा है। वह रस-रूप है--कोई अड़चन नहीं।
लेकिन अंग्रेजी में वह को क्या करोगे! अगर कहो--ही, तो वह पुरुष हो गया।
अगर कहो--शी, तो वह स्त्री हो गया! अगर कहो--इट, तो वह वस्तु हो गया!
अब तक तो उसको ही कहा जाता रहा है--पुरुषवाची।
मैंने सुना है कि पिछला पोप जब मरा, तो उसके मरने के बाद
एक अफवाह सारी दुनिया में उड़ गई थी। पता नहीं तुम तक पहुंची या नहीं पहुंची! कि जब
वह स्वर्ग के द्वार पर पहुंचा, और उसने सेंट पीटर से कहा कि
जल्दी द्वार खोलो। जीवन भर की आकांक्षा तृप्त करनी है। परम पिता परमात्मा से मुझे
मिला दो!
पीटर ने सिर झुका लिया और कहा कि सुनो, एक बात पहले खयाल में
रखो। एक तो वह परम पिता नहीं है--परम माता है! और दूसरा--गोरी नहीं है; काली है; नीग्रो है! इन दो की तैयारी रखो, फिर मिलवा देता हूं! नहीं तो एकदम तुम्हारी छाती टूट जाएगी देख कर!
वहीं बैठ गए पोप महाराज दरवाजे पर। आंखें बंद कर लीं कि यह क्या हुआ!
स्त्री, पहले तो ईश्वर को मानना--और फिर वह भी नीग्रो! नीग्रो
को तो घुसने न दें चर्च में।
प्रसिद्ध कहानी है कि एक नीग्रो चर्च में जाना चाहता था, तो उसने पादरी से प्रार्थना की। पादरी ने कहा कि भई, कुछ बुराई तो नहीं! क्योंकि पादरी को बोलना तो पड़ता है मीठी-मीठी बातें।
अरे, उसके सामने तो सब बराबर हैं। क्या काला--क्या गोरा! मगर
पहले पात्रता अर्जित करो--चर्च में आने से क्या होगा! पहले अपने को शुद्ध करो!
पादरी ने सोचा, कौन कब अपने को शुद्ध कर पाया है! और ऐसी शर्तें बता
दूंगा कि यह क्या, इसकी सात पीढ़ियां भी शुद्ध न हो पाएं! तो
कहा, पहले कामवासना छोड़ो, लोभ छोड़ो,
तृष्णा छोड़ो--सब छोड़-छाड़ कर--अहंकार विसर्जित करो--फिर आओ।
ये शर्तें किसी सफेद चमड़ी वाले के लिए नहीं लगाई थीं उसने कभी। यह
पात्रता सफेद चमड़ी वाले से नहीं मांगी जाती थी। यह सफेद चमड़ी वालों का ही चर्च था।
मगर पादरी सीधा नहीं कह सकता था। आखिर पादरी को तो अच्छी बातें कहनी चाहिए; मीठी-मीठी; सबसे! उसको सब के प्रति दया भाव दिखलाना
चाहिए। मगर पीछे तो राजनीति चलती है--वही की वही। काले और गोरे का भेद बना ही रहता
है।
तो बेचारा नीग्रो सीधा-सादा आदमी था, वह जाकर प्रार्थना में
लग गया, अपने को शुद्ध करने में लग गया। पंद्रहवें दिन वह
आया। उसको आते देखकर...दूर से देखा पादरी ने कि वह फिर आ रहा है! उसने कहा,
क्या इतने जल्दी ये सारी शर्तें पूरी कर लीं! लेकिन जैसे-जैसे करीब
आया, पादरी बहुत हैरान हुआ। उसे डर लगा कि अब बड़ी मुश्किल हो
गई! उसके चारों तरफ एक आभा-मंडल था, जो कि परम पुरुषों के
पास ही होता है। लगता है: इस नीग्रो ने तो हाथ मार लिया! इसको किस बल पर रोकूंगा!
घुसने तो नहीं देना है। यह लगता तो बिलकुल परम पवित्र होकर चला आ रहा है। इसकी
सुगंध मालूम होती है, दूर से! इसकी रोशनी साफ है। इसके शरीर
के चारों तरफ वर्तुलाकार प्रकाश का पुंज है। मारे गए! उसने दरवाजे पर ताला लगा कर
बाहर ही खड़ा हो गया सड़क पर, कि कहीं यह घुसने ही लगे,
तो मैं रोक भी न सकूंगा, इतना प्रभावशाली
मालूम हो रहा है। इसके प्रभाव में न आ जाऊं!
मगर वह आया ही नहीं। चर्च के सामने थोड़ी दूर खड़ा रहा। वहां से खिलखिला
कर हंसा और लौट गया! इससे और बड़ी मुश्किल हुई पादरी को। भागा; रोका, कि सुन भाई! चर्च में नहीं आना है?
उसने कहा, अब तुमसे क्या छिपाना। कल रात परमात्मा प्रकट हुए और
कहने लगे--भइया, तू नाहक मेहनत कर रहा है। वे मुझको नहीं घुसने
देते! वे तुझको क्या घुसने देंगे! वे हरामजादे ऐसी-ऐसी शर्तें बताते हैं कि मैं
पूरी नहीं कर पाता! तो तू कहां की झंझट में पड़ा है! और मैं खुद ही आ गया। अब तुझे
वहां जाने की जरूरत नहीं है। तो मैं तो सिर्फ यह देखने आया था कि क्या गजब खेल चल
रहा है! तुम परमात्मा तक को नहीं घुसने देते! और जब तुमने मुझे देखा, जल्दी से तुमने ताला मारा और चाबी लगा कर खड़े हो गए! देख कर मैं हंसा,
कि अरे बुद्धुओं, तुम्हारा मंदिर खाली है! किस
पर ताला मार रहे हो! तुम उसको देख कर भी ताला मार लेते हो।
तो अगर पोप बैठ गया हो, उसकी धक-धक बंद हो गई
हो, या झटका खा कर फिर से मर गया हो, दुबारा,
तो कुछ आश्चर्य नहीं है।
ईश्वर को जैसे ही तुमने रूप दिया, आकार दिया--झंझटें
खड़ी होंगी। फिर वह ईश्वर स्त्री है या पुरुष? फिर वह गोरा है
या काला? फिर वह चीनियों जैसा दिखाई पड़ता है, कि भारतीयों जैसा या अंग्रेजों जैसा? बड़ी मुश्किल
खड़ी हो जाएगी! दुबला-पतला है, मोटात्तगड़ा है; जवान है, बूढ़ा है? फिर हजार
सवाल खड़े हो जाते हैं।
नहीं। मैं तुमसे कहना चाहता हूं: परमात्मा कोई व्यक्ति नहीं है।
यद्यपि परमात्मा की परम ऊर्जा कभी-कभी व्यक्तियों में उतरी है।
और तुम्हारे तो अजीब तर्क हैं। तुम्हारा तर्क तो यह है कि तुम कहते हो, कोई व्यक्ति कैसे परमात्मा हो सकता है! और मैं तुमसे कहता हूं--व्यक्ति ही
परमात्मा हो सकता है। इसलिए बुद्ध को तुम भगवान कहो, मुझे
एतराज नहीं। तुम कृष्ण को भगवान कहो, मुझे एतराज नहीं। मगर
भगवान को भगवान मत कहो। उसमें मुझे एतराज है। क्योंकि फिर तुम उसके लिए सीमाएं
बांध रहे हो। भगवान को तो सिर्फ भगवत्ता कहो। वह तो सिर्फ गुण-धर्म है। इसलिए
बुद्ध ने उसे धर्म कहा, और लाओत्सू ने उसे ताओ कहा। लाओत्सू
ने कहा कि उसका कोई नाम नहीं है, इसलिए मैं नाम गढ़ लेता
हूं--ताओ। ताओ का कुछ अर्थ नहीं होता। अ, ब, स--कुछ भी कहो; मगर उसको कुछ ऐसा नाम दो, जिससे उसका रूप न बनता हो। यही तो हमने भी किया इस देश में; हमने उसे ओंकार कहा। अब तुमने कभी सोचा--ओंकार क्यों कहा? लोग ओंकार का पाठ करते रहते हैं; धुन मचाए रखते
हैं--ओम-ओम। कभी सोचते भी नहीं कि हमने उसे ओम क्यों कहा।
ओम वैसा ही है, जैसा ताओ। ओम का क्या रूप, क्या
रंग! ओम कोई व्यक्ति नहीं है। और इसलिए हमने तो एक और बात भी की जो ताओवादियों ने
नहीं की। हम ओम को साधारण भाषा के अ उ म से नहीं लिखते। हमने उसके लिए अलग ही एक
प्रतीक बना लिया ओंकार का, ताकि वह भाषा के शब्दों से अलग ही
पड़ जाए। प्रतीक मात्र है हमारा ओम। हमारी बारह खड़ी में नहीं आता कहीं भी। हमारे
वर्णाक्षरों में नहीं आता कहीं भी। अंग्रेजी में लिखने में बड़ी तकलीफ होती है।
अंग्रेजी में ॐ को कैसे लिखो! ए यू एम करके लिखना पड़ता है। मगर वह गलत है। इसलिए
मैक्समूलर ने, जिसकी कि गहरी पैठ थी भारतीय शास्त्रों में,
ओम को ॐ के प्रतीक में ही लिखा; ए यू एम में
नहीं लिखा, क्योंकि वह गलती हो जाएगी। उसको तो प्रतीक ही
रखना पड़ेगा; उसका कोई अनुवाद नहीं हो सकता। जैसे ताओ का कोई
अनुवाद नहीं हो सकता, वैसे ही ओम का कोई अनुवाद नहीं हो
सकता। ॐ कोई शब्द ही नहीं है। जो शब्द में नहीं बंधता, उसकी
तरफ इशारा है।
इसलिए मत कहो कि भगवान रस-रूप है। कहो--भगवत्ता रस-रूप है। फिर बेहतर
तो यही है कि वह कहो। क्योंकि वह मैं सब समा जाएगा--स्त्री भी, पुरुष भी, वस्तु भी।
हमारा वह अंग्रेजी के वह से बहुत बड़ा है। हमारा वह विराट है। उसमें
कोई सीमा नहीं बंधती।
दूसरा, सूत्र का हिस्सा है:
रसं ह्येवायं लब्ध्वानंदी भवति। अनुवादक ने कहा है--उसी रस को पाकर
प्राणी-मात्र आनंद का अनुभव करता है। इतने ज्यादा शब्दों की जरूरत नहीं है। सूत्र
का तो सिर्फ इतना ही अर्थ होता है: उस रस को उपलब्ध करना ही आनंद है। रसं ह्येवायं
लब्ध्वानंदी भवति। संस्कृत को जानने की जरूरत ही नहीं है। सीधी-सी बात है। रसं
ह्येवायं लब्ध्वा--उस रस को जिसने पा लिया, उपलब्ध कर लिया,
लब्ध कर लिया; जो उस रस-रूप हो गया--उसे आनंद
उपलब्ध हुआ। आनंद की भी कुंजी दे दी।
दुख क्या है? उस रस से च्युत हो जाना दुख है। जैसे वृक्ष को कोई
जड़ों से उखाड़ ले, जमीन से उखाड़ ले, बस,
दुख शुरू हो गया वृक्ष के लिए, क्योंकि जमीन
में ही उसका रस था। जमीन से ही वह रस पाता था। जमीन से उखाड़ लिया, कि सूखने लगा। पत्ते झरने लगे, पीले पड़ने लगे।
दो-चार दिन हरा रह भी जाए, तो रह जो, पुराने
रस के आधार पर। जो रस के संग्रह उसके भीतर होंगे, कितनी देर
चलेंगे! थोड़ी देर में चुक जाएंगे; फिर सूख जाएगा। अब रस की
धारा नहीं बहती; रोज-रोज रस नहीं आता। अब पुराने रस के बल पर
उधार कितना चल सकता है!
आनंद का अर्थ है: अपनी जड़ों को भगवत्ता में जमा लेना। उसमें जमा लेना; उसके साथ जुड़ जाना।
हमारा अहंकार हमें तोड़ता है। मैं अलग हूं--बस, यही हमारी भ्रांति है। एक मात्र भ्रांति, एकमात्र
अज्ञान, कि मैं पृथक हूं, अलग हूं। वही
हमें तोड़े हुए है। जिस दिन इसको छोड़ दोगे, उस दिन तुम उस रस
से जुड़ जाओगे।
रसं ह्येवायं लब्ध्वानंदी भवति। और फिर क्या देर है! आनंद ही आनंद है।
उसके साथ जुड़ गए, कि पुनः रस के स्रोत से जुड़ गए। फिर तुम्हारी जड़ें
जीवित हो उठेंगी, फिर नए पत्ते आ जाएंगे। फिर नए पत्ते,
नए फूल, नए फल। आया वसंत। आया मधुमास! फिर
पक्षी नीड़ बनाएंगे। फिर कोयल कूकेगी। फिर पपीहा बोलेगा। फिर हवाओं में नाचोगे तुम।
फिर सूरज की किरणों में, और चांद की किरणों में नहाओगे।
लेकिन तुम्हारे तथाकथित महात्माओं ने तुम्हें प्रकृति से तोड़ा
है--जोड़ा नहीं। उनकी सारी चेष्टा यह है कि तुम कितने अप्राकृतिक हो जाओ। उनका सारा
उपाय यह है कि तुम्हारा अहंकार कैसे और मजबूत हो जाए। इसलिए तुम्हारे
साधु-संन्यासियों का जैसा अहंकार होता है, वैसा अहंकार किसी और
का नहीं होता! उनकी नाक पर जैसा अहंकार चढ़ा होता है, वैसा
किसी के ऊपर नहीं चढ़ा होता है। स्वाभाविकतः भी चढ़ेगा, क्योंकि
जो उन्होंने किया है, किसने किया है! त्याग किया, तो अकड़ आई। धन छोड़ा, तो अकड़ आई। पत्नी छोड़ी, तो अकड़ आई। तुम तो छोड़ो!
और इसलिए तुम चकित होओगे जानकर यह बात कि जो लोग इन महात्माओं को
पूजते हैं, वे अकसर इनसे विपरीत होते हैं! जैसे जैन मुनि को जैन
पूजते हैं। जैन मुनि की पूजा क्या है? क्योंकि उसने धन को
लात मार दी। और जैनियों को यही सबसे बड़ा चमत्कार दिखाई पड़ता है दुनिया में! धन
को--और लात मारना! धन को तो वे छाती से लगाते हैं।
सिर्फ भारत एकमात्र देश है जहां लक्ष्मी की पूजा होती है--नोटों की
पूजा होती है! पहले कम से कम चांदी के, सोने के सिक्के रखते
थे। अब वे भी न रहे। अब तो कागज के नोट रख लेते हैं लोग! लेकिन ताजे निकलवा लाते
हैं बैंक से--बिलकुल चमचमाते! उनको रखकर पूजा होती है। मेरे घर में भी होती थी!
मगर जैसे ही मुझे होश आया, मैंने अपने घर के लोगों को कहना
शुरू किया, यह क्या पागलपन है! कुछ तो होश की बातें करो!
रुपए--नोट! चांदी के सिक्के बचा रखे थे पुराने--पूजा के ही लिए खास करके। कि नोट
की पूजा करते उनको भी थोड़ी शर्म लगती थी! और मैं हंसता था कि यह क्या कर रहे हो!
तो उन्होंने कुछ सिक्के बचा रखे थे। वे कहते, चलो, नोट हटा दो; सिक्के रख लेते हैं। मगर हमारी पूजा में
बाधा मत डालो! मैं उनसे कहता कि नोट हुए कि सिक्के हुए, सब
बराबर हैं। चांदी का हुआ नोट, कि कागज का हुआ नोट--नोट का
मतलब नोट! किसका बना है, इससे क्या फर्क पड़ता है! धातु से
बना है, कि कागज से बना है--दोनों ही एक से हैं! मगर तुम पूज
रहे हो। लक्ष्मी की पूजा!
दीपावली का अवसर ही लक्ष्मी-पूजा का अवसर है! और इस देश को हम धार्मिक
देश कहते हैं! आध्यात्मिक देश! सारी दुनिया भौतिकवादी है, और हम अध्यात्मवादी हैं! और दुनिया में कहीं लक्ष्मी की पूजा नहीं होती।
लोग लक्ष्मी को भोगते हैं। भोगो मजे से। पूजना क्या है! लक्ष्मी तुम्हारे पैर
दबाए--ठीक! दबवा लो; कोई हर्जा नहीं। खुद विष्णु भगवान दबवा
रहे हैं, तो तुम्हें क्या तकलीफ हो रही है! लेटे हैं,
और लक्ष्मी पैर दबा रही है!
अब लक्ष्मी पैर दबाती हो, तो दबवा लिए, कि दबा बाई! कोई हर्जा नहीं। मगर मूरख की तरह तुम पूजा कर रहे हो, तो हद्द हो गई! मगर तुम्हारी भी तरकीब हम समझ रहे हैं कि मतलब तुम्हारा
क्या है! तुम भी समझ गए कि लक्ष्मी की पूजा करो, तो
लक्ष्मीनारायण तक पहुंच हो जाएगी! जैसे कि किसी नेता तक पहुंचना हो, तो पत्नी की सेवा करो। साड़ी ले जाओ, मिठाई ले जाओ।
आइस्क्रीम पहुंचा दो। फूल-फल पहुंचाओ। डाली लगा दो! पत्नी की सेवा करो। क्योंकि
तुम जानते हो कि पति चाहे कितना ही बहादुर हो, मगर पत्नी के
समाने बस दुम दबा लेते हैं! अगर पत्नी ने कह दिया कि इस आदमी का खयाल रखना,
तो अब उनके बस के बाहर है। खयाल रखना ही पड़ेगा!
समझदार आदमी सीधे-सीधे कलेक्टर या कमिश्नर या गवर्नर या मिनिस्टर के
पास नहीं जाते। पत्नी की सेवा करते हैं। पत्नी जल्दी प्रसन्न भी हो जाती है। साड़ी
ले आए एक, और चित्त प्रसन्न हो गया उनका! एक गहना बनवा लाए,
और चित्त प्रसन्न हो गया। और जब पत्नी प्रसन्न हो गई, तो पति की क्या हैसियत!
तो तुम वही तरकीब लगा रहे हो लक्ष्मी के साथ। लक्ष्मीनारायण को
प्रसन्न करना है! तुम जानते हो कि यह बाई पांव दबाती है लक्ष्मीनारायण के। पांव
दबाते-दबाते कह देगी कि जरा खयाल रखना: यह फलां-फलां आदमी है। यह अपना आदमी है; इसका ध्यान रहे! तो लक्ष्मीनारायण भी जानते हैं कि ठीक है। ध्यान रखना
पड़ेगा, नहीं तो कल ये चोटियां लेगी; पांव-मांव
नहीं दबाएगी! सोने नहीं देगी। खोपड़ी खाएगी! कि हां बाई, करेंगे।
जो कहेगी, वह करेंगे!
लक्ष्मी की पूजा चल रही है! क्या बेहूदी बात है! सिक्के पूज रहे हो।
और फिर भी तुम्हारी अकड़ नहीं जाती आध्यात्मिक होने की! और तुम्हारे भ्रम नहीं
टूटते!
जैन धन का पागल है; परिग्रही है। और इसलिए जो धन को
छोड़ देते हैं, कहता है कि वाह! यह है करामात! क्यों करामात
दिखाई पड़ती है? मुझे इसमें करामात दिखाई नहीं पड़ती। क्योंकि
पहले तो मैं यह मानता हूं कि धन को पकड़ना ही मूर्खता है। वह पहली मूर्खता। फिर
दूसरी मूर्खता--उसको छोड़ना! पकड़े ही नहीं कभी, तो छोड़ना
क्या! अब जैसे मुझसे कोई कहे कि छोड़ो। छोडूं क्या खाक! कुछ कभी पकड़ा नहीं। जेब भी
पास में नहीं है! एक पैसा बैंक में नहीं है! छोड़ना क्या है! जहां अपना कुछ है ही
नहीं, वहां छोड़ना क्या है--पकड़ना क्या है!
लेकिन जो पकड़ने में दीवाने हैं, वे फिर छोड़ने का
आग्रह रखते हैं। वे कहते हैं: जो छोड़े, वही त्यागी। यह
भोगियों की भाषा है। यह भोगियों का तर्क है।
जो स्त्रियों के पीछे दीवाने हैं, वेश्यालय जिनकी वजह
से आबाद हैं, ये उन मुनियों के चरणों में सिर रखेंगे कि वाह!
क्या करामात--स्त्री को छोड़ कर चल दिए! अरे, हम अपनी स्त्री
को क्या छोड़ें, अपने पड़ोसियों की स्त्री तक को नहीं छोड़ पा
रहे हैं, और तुम अपनी तक को छोड़ कर चल दिए! है करामात,
है चमत्कार! त्याग इसको कहते हैं! हम दूसरों की भी नहीं छोड़ सकते,
जो अपनी हैं ही नहीं--पहली बात। मगर उनको भी नहीं छोड़ पा रहे हैं।
उन पर भी नजर लगी रहती है! अपने को तो छोड़नी ही कैसे!
मगर जिसने छोड़ दिया--उसकी पूजा!
तुम अकसर पाओगे कि जिस धर्म के मानने वाले जिस ढंग के होंगे, ठीक उससे विपरीत उनकी पूजा के आधार होंगे। ठीक उसके विपरीत! और इससे समझ
लेना कि दोनों के दोनों एक-सी मूर्खता में पड़े हैं।
वे मुनि, वे महात्मा और उनके अनुयायी--इनमें कुछ फर्क नहीं है।
इनका तर्क एक है, गणित एक है। ये दोनों एक दूसरे का गणित
समझते हैं। वह मुनि भी जानता है कि मुझे क्यों पूजा मिल रही है, क्योंकि मैंने धन छोड़ा, पत्नी छोड़ी। पूजा करने वाला
भी जानता है कि महाराज, ध्यान रखना! कहीं अगर पकड़े गए,
तो मुश्किल हो जाएगी। धन छूना ही मत; देखना ही
मत। स्त्री से सावधान!
तेरापंथ जैनियों में एक शास्त्र है, जिसमें नौ बड़े हैं।
नौ बातों की आड़ रखना। इन नौ बातों का ध्यान रखना। इनमें से कोई बात भीतर घुस गई कि
तुम्हारा खातमा है! तो जैसे झाड़ को बचाने के लिए बागुड़ लगाते हैं, ऐसे ही नौ बागुड़! एक बागुड़ से भी काम नहीं चलेगा; नौ
बागुड़ लगाना है। और उसके भीतर जो पौधे होंगे, ये मुरदा तो
होने ही वाले हैं। नौ बागुड़ जिस पर लगी हों, नौ परकोटों से
जो घेरा गया हो, और जिसकी जिंदगी इस बात पर निर्भर हो कि अगर
जरा-सा कहीं दरवाजा खुला और हवा या रोशनी आ गई या एक हवा की लहर आ गई या पानी की
एक बूंद आ गई कि इनका सब नष्ट हो गया!
जिसकी चीजें इतनी कमजोरी पर खड़ी हों, इसका बल क्या! मगर
इसका बल एक है: इसके अहंकार को प्रशंसा मिल रही है। गौरव मिल रहा है। इसकी अकड़ को
पूजा जा रहा है।
जीवन-विरोधी लोग सिर्फ अहंकार का मजा ले रहे हैं--और कुछ भी नहीं। और
अहंकार अधर्म है।
अहंकार का अर्थ है: उस रस से च्युत हो जाना। इसलिए तुम्हारे तथाकथित
साधु-संन्यासियों में रस बिलकुल नहीं दिखाई पड़ता। वे तो विरस होने की बात सिखाते
हैं तुम्हें! अब यह बड़े मजे की बात है!
तुम्हारा सूत्र तो है--रसो वै सः। तैत्तिरीय उपनिषद क्या कहता है, और तुम्हारे महात्मा तुम्हें क्या समझाते हैं कि विरस हो जाओ, विरागी हो जाओ, उदासीन हो जाओ। रस ही न लो किसी चीज
में। रस का त्याग करो। जितना बन सके, उतना करो!
जैनों में दो व्रत होते हैं--महाव्रत और अणुव्रत। तुमसे अगर पूरा
महाव्रत न हो सके, रस पूरा त्याग करने का, तो
अणुव्रत तो करो। कम से कम थोड़ा छोड़ो। तुमसे अगर नमक समझो कि पूरा नहीं छोड़ा जाता
कि हमेशा बिना नमक का भोजन करो, तो सप्ताह में एक दिन तो छोड़
दो। तो अणुव्रत हुआ! नमक का क्या कसूर है! नमक की क्या खराबी है? एक दिन नमक छोड़ देते हैं लोग, फिर उनकी अकड़ देखो!
चाल देखो! अकड़े हुए चल रहे हैं। नमक छोड़ दिया उन्होंने एक दिन के लिए! एक दिन
शक्कर नहीं खाते, तो गजब कर दिया! एक दिन घी नहीं खाया तो
क्या कहने हैं।
कैसा सस्ता महात्मापन तुमने पैदा किया है! और इन बेईमानों के लिए
तरकीबें सुझा दी हैं कि चलो, तुमसे महान व्रत तो सधेगा नहीं
अभी; अहंकार तुम उतना तृप्त कर न सकोगे। जितना बन सके,
उतना कर लो। न सही पहाड़, तो चलो छोटी-मोटी
टेकरी ही सही; कुछ अहंकार तो बना लो अपना! तो वे व्रत कर रहे
हैं। लेकिन इससे रस से टूट रहे हैं। इसलिए उनके चेहरों पर न तो आनंद का भाव है,
न प्रसन्नता है, न प्रमुदितता है। न नृत्य है
उनके जीवन में, न गीत है उनके जीवन में। न काव्य है, न संगीत है। कुछ भी नहीं!
और इन रूखे-सूखे-ठूंठे लोगों के पीछे बाकी लोग चल रहे हैं। सो वे सारे
के सारे लोग अपने को अपराधी समझ रहे हैं। कि हम कब ठूंठ बन जाएंगे, तब हम भी महात्मा होंगे। जब तक हम ठूंठ नहीं बने, तब
तक हममें पत्ते लग रहे हैं। बड़ा अपराध कर रहे हैं हम। हममें अभी भी पत्ते लगते हैं;
क्या करें! पिछले जन्मों के पापों के कारण पत्ते लग रहे हैं। फूल लग
रहे हैं। लगते ही जाते हैं, रुकते ही नहीं! हमारे महात्मा
देखो, क्या ठूंठ खड़े हुए हैं!
काष्ठत--परिभाषा की गई है, तुम्हारे महात्माओं
की--सूखी लकड़ी की भांति! क्या बातें कर रहे हो! अरे, लकड़ी ही
होनी है, तो कम से कम गीली तो रहो! थोड़ा रस तो बहने दो!
सूखी लकड़ी की भांति हो जाओ बिलकुल! बिलकुल ठूंठ! कि सिवाय अंगीठी में
लगा देने के किसी काम के न रहो! किसी के चूल्हे में गिरना है, जो ठूंठ बनना है? फूल कैसे लगेंगे! और गंध कैसे
उड़ेगी? और परमात्मा ने जो तुम्हारे भीतर छिपाया है, वह प्रकट कैसे होगा?
सूत्र बड़ा साफ है। रसं ह्येवायं लब्ध्वानंदी भवति। उस रस को उपलब्ध कर
लिया, बस यही आनंद है।
मैं तुम्हें रस सिखाता हूं--विरस नहीं। मैं तुम्हें राग की कला सिखाता
हूं--वैराग्य नहीं।
को ह्येवान्यात कः प्राण्यात। रस चला गया--तो फिर कहां जीवन! फिर
प्राण कहां? प्यारा सूत्र है। ऐसा कि उतर जाने दो, रोएं-रोएं में समा जाने दो। उसके बिना न कोई जीवन, न
कोई प्राण। और उसी से लड़ रहे हो तुम!
पश्चिम का इस सदी का सबसे बड़ा बुद्धपुरुष जार्ज गुरजिएफ कहा करता था
अपने अनुयायियों से कि एक बात तुम खयाल रखना कि तुम्हारे सब महात्मा, चाहे हिंदू हों, चाहे ईसाई, चाहे
यहूदी--परमात्मा के खिलाफ हैं।
जब मैंने पहली दफे यह वचन पढ़ा, तो इतना वचन ही मेरे
लिए काफी था कि इस आदमी को कुछ दिखाई पड़ा है। ऐसा वचन मैंने कभी देखा ही नहीं था
किसी और का! कि तुम्हारे सब महात्मा परमात्मा के खिलाफ हैं। यह बात कोई जानने वाला
ही कह सकता है। यह कोई पंडित नहीं कह सकता। पंडित की तो क्या हैसियत होगी! सोच भी
नहीं सकता।
ऊपर से तो बड़ी उलटी मालूम पड़ती है कि तुम्हारे महात्मा परमात्मा के
खिलाफ! यह कैसी बात! मगर मैं भी अपने अनुभव से कहता हूं कि यह बात सच है! गुरजिएफ
अब तो जिंदा नहीं है, लेकिन जहां भी उसकी आत्मा होगी, उसको आनंदित होना चाहिए। जितनी गालियां उसको पड़ीं, उससे
पचास गुनी ज्यादा मुझको पड़ रही हैं!
उसको जिंदगी भर गालियां पड़ीं। मगर वह भीर् ईष्या करता होगा मुझसे।
इतनी उसको भी नहीं पड़ीं। मुझे सारी दुनिया में पड़ रही हैं। व्यापक विस्तार से पड़
रही हैं। उसकी तो बड़ी सीमा थी बेचारे की! थोड़े से लोग ही उसको जान पाए। उसने बात
ही कभी सार्वजनिक नहीं की। उसने थोड़े से लोगों से ही बात की। उसने ऐरे-गैरे
नत्थूखैरों को भीतर नहीं आने दिया। मैं ऐरे-गैरे नत्थू खैरों से भी सिर फोड़ता हूं।
स्वभावतः गाली ज्यादा खानी पड़ेगी।
वह तो सिर्फ अपने शिष्यों से बोलता था। शिष्य उसके इने-गिने थे। सारी
दुनिया में मुश्किल से तीन सौ! उनसे--वह दूसरों से बोलता नहीं था। किताब उसने अपनी
जिंदगी में सिर्फ एक छपने दी। वह भी करीब-करीब जब मर रहा था, तब छपी! वह भी जब पहली दफे छपी, तो उसने सिर्फ एक
हजार कापियां छापीं। और वह भी हर किसी को नहीं बेच देता था। उसने दाम इतने ज्यादा
रखे थे कि हर कोई खरीद नहीं सकता था। बामुश्किल कोई हिम्मत कर सकता था खरीदने की।
और किताब इतनी बड़ी थी, एक हजार पृष्ठों की थी। और उसके लिखने
का ढंग ऐसा है कि तुम दस पन्ने पढ़ लो, तो समझना कि भव-सागर
पार हो गए! एक-एक वाक्य एक-एक पन्ने में जाता है! वाक्य में चलता जाता है! और वह
इस-इस तरह के शब्द बनाता था--खुद गढ़ लेता था--कि जिनके अर्थ तुम्हें किसी शब्दकोश
में मिल सकते नहीं। शब्दों को तोड़-मरोड़ देता था। जैसे कुंडलिनी लिखना हो, तो कुंडलिनी कभी नहीं लिखता था। कुंडा-बफर! अब तुम खोज-खोज कर मर
जाओ--कुंडा-बफर कहां है! यह कुंडा-बफर क्या है! वह उसकी गाली थी।
जैसे दो रेलगाड़ियों के डब्बों में बीच के बफर लगे रहते हैं, कि कभी धक्का लगे या गाड़ी को एकदम से रोकना पड़े, तो
वे जो बफर रहते हैं, वे एकदम डब्बों को टकराने नहीं देते। या
जैसे कार में स्प्रिंग लगे होते हैं; गङ्ढा आ जाए, तो स्प्रिंग गङ्ढे को पी जाते हैं। अंदर बैठे आदमी एकदम उछल कर छप्पर से
नहीं लग जाते! खोपड़ी नहीं खुल जाती। वह बफर।
वह कुंडलिनी नहीं कहता था, वह कहता
था--कुंडा-बफर! वह कहता था--यह आदमी के भीतर कुंडा-बफर नाम की एक शक्ति है,
इसकी वजह से उसको धक्के नहीं लगते; स्प्रिंग
है यह। जिंदगी में ठोकरों पर ठोकरें खाता है, मगर कुंडा-बफर
सब झेल जाता है! यह एक तरह का स्प्रिंग है। कि गिरे, जल्दी
से कपड़े वगैरह झाड़े। देखा चारों तरफ कोई नहीं है। फिर चल पड़े!
रोज गिरते हो। और यूं भी नहीं कि नए-नए गङ्ढों में गिरते हो।
उन्हीं-उन्हीं गङ्ढों में रोज गिरते हो! और कल ही कसम खाई थी कि अब इस गङ्ढे में
नहीं गिरेंगे; कि भाड़ में जाए यह गङ्ढा, कितनी
दफे इसमें गिर चुके! कोई सार नहीं है। और फिर आ गए! फिर खड़े हैं! कतार में! ऐसे भी
नहीं! क्योंकि उस गङ्ढे में और भी गिरने वाले भी हैं; कोई
तुम्हीं थोड़े अकेले हो। क्यू लगा हुआ है। अपने क्यू में खड़े हैं! भईया क्या कर रहे
हो?--अब क्या करें! ऐसे तो कसम खाई थी!
कल ही मैं एक गीत पढ़ रहा था किसी कवि का। उसने लिखा है कि यूं तो हम
रोज शाम को कसम खाते हैं, लेकिन फिर सुबह पी लेते हैं। तोबा रोज रात करते हैं
और रोज सुबह तोड़ लेते हैं। इस तरह हम दुनिया भी सम्हालते हैं और जन्नत भी सम्हालते
हैं! रात जन्नत सम्हाल लेते हैं; सुबह यह दुनिया सम्हाल लेते
हैं!
फिर करें भी क्या! फिर घटाएं ही कुछ ऐसी घिर गईं कि पीने का मन हो
गया! और फिर यह बदतमीज मन--लालच उठ आई। और पियक्कड़ों को देखकर पीने का मन हो गया!
फिर सोचा, अब एक दफा और। अरे बस, एक दफा
और! कोई बार-बार थोड़े ही पीना है!
मुल्ला नसरुद्दीन ने एक दिन तय किया कि अब नहीं पीना शराब, क्योंकि बहुत हो चुका। डाक्टर कहता है, मर जाओगे।
पत्नी जान खाए जाती है। बेटा पीछे पड़ा रहता है लट्ठ लिए! कि तुम शराबघर गए कि टांग
तोड़ दूंगा! यहां तक हालत आ गई कि शराबघर का मालिक तक कभी-कभी मना करता कि अच्छा,
उठो जी! अब दरवाजा बंद करें! कि अब नहीं पिलाएंगे तुम्हें! अब तुम
ज्यादा पी गए! अब तुम गड़बड़ शुरू कर दिए। तुम बहकने लगे।
एक दिन तो यह हालत हो गई कि शराबघर के मालिक ने उसको धक्के दे कर
निकलवा दिया, क्योंकि वह दो-चार बोतलें पी चुका है, और अब ऐसी अंट-शंट बातें बक रहा है, और ऐसे अंट-शंट
काम कर रहा है कि दूसरे ग्राहक देख-देख कर लौटे जा रहे हैं, कि
यहां कोई झगड़ा होगा, मारपीट होगी। उपद्रव होने ही वाला है!
यह आदमी किसी की हत्या कर देगा! उसको निकलवा बाहर कर दिया। वह दूसरे दरवाजे से फिर
आ गया! उसने कहा, भाई, एक बोतल! उसने
फिर उसे निकलवा कर बाहर कर दिया। वह तीसरे दरवाजे से भीतर आ गया! होटल के कई
दरवाजे थे! उधर से भी निकलवा दिया। चौथे दरवाजे से आया। जब उसे फिर निकलवाने लगा,
तो उसने कहा, मामला क्या है! क्या बस्ती के
सभी शराबखाने तेरे बाप के हैं? जहां जाता हूं, वहीं हरामजादा, तू ही खड़ा रहता है! चार शराबघरों में
हो आया! इतना होश मुझे भी है कि तेरी शकल मेरी पहचानी हुई है। यह देख कर चौंकता
हूं कि यह फिर वही का वही आदमी! तो क्या बस्ती भर के शराबघर तूने ही खरीद लिए!
जब यह मुसीबत आ गई, तो उसने एक दिन कसम ही खा ली कि
क्या बेइज्जती जगह-जगह करनी। नाली में गिरना, और सुबह रोज घर
जाना; और घर पिटाई अलग होती है। और जो देखो वही लानत-मलामत
करता है। जहां जाओ वहीं लोग उपदेश देते हैं। हर कोई उपदेश देने लगता है! उपदेश
आदमी को जहर जैसा लगता है!
कहा कि अच्छा, आज नहीं पीऊंगा। मगर वह शराबघर रास्ते में पड़ता है!
कहा, कुछ भी हो जाए, आज छाती कड़ी कर
लूंगा। अरे मैं भी मर्द बच्चा हूं! शराबघर पास आया, तो पैर
उसके थरथराने लगे। कई दफा मन होने लगा, कि अरे एक दिन और!
अरे आखिरी दिन है रे! आज तो पी ले। फिर कल से कर लेना। अब जब ही कर लिया है,
तो फिर कल से कर लेना!
रोज मन ऐसा ही हमारा होता है! कुछ नई बात नहीं है, उसका हुआ तो। मगर उसने कहा कि नहीं। बहुत हो चुका जी। यह कई दफा हो चुका।
आज जो कसम खाई, तो पूरी करनी है। नहीं जाएंगे।
मगर एकदम पांव ठहरने ही लगे, आगे ही न बढ़ें,
जैसे हजारों मन बोझ लदा हो पैरों पर--कि मामला क्या है! मगर उसने
कहा, आज कुछ हो जाए; आज सिद्ध करना
है--मर्द बच्चा हूं।
चला ही गया। शराबघर की तरफ आंख भी नहीं उठाई। नीची आंख रखी, जैसे बौद्ध भिक्षु रखता है नीचे आंख। चार कदम से आगे नहीं देखता, क्योंकि चार कदम से आगे देखो कि संसार में गिरे!
क्या मजा है! तो एक-एक चश्मा लगा लो, जिसमें चार कदम से
आगे दिखाई न पड़ता हो। सब मुक्त हो जाओगे, निर्वाण को उपलब्ध
हो जाओगे! चार कदम से आगे नहीं देखता, कि जरा ही आंख उठ गई
चार कदम से ज्यादा--पता नहीं क्या दिख जाए!
घबड़ाहट के मारे नीचे देखे, नजर गड़ाए चला
गया--चला गया--चला गया! मगर तिरछी नजरों से तो देख ही रहा था कि शराबघर निकला जा
रहा है, निकला जा रहा है! जब सौ कदम आगे निकल गया, अपनी पीठ ठोंकी और कहा, बेटा, नसरुद्दीन!
गजब कर दिया तूने! अरे है तू भी कोई महात्मा! अब आ, इस खुशी
में तुझे आज दुगनी पिलाता हूं!
और पहुंच गए वापस! उस खुशी में दुगनी पी रहा हूं। उस दिन से फिर दुगनी
ही पी रहे हैं! क्योंकि उस दिन उनको पता चला कि अरे, दुगनी भी चल सकती है!
और जब मरना है, तो फिर क्या! और उपदेश तो झेलना ही है,
तो अब क्या थोड़ी पीना!
एक दिन पत्नी उसकी पहुंच गई, जब बरर्दाश्त के बाहर
हो गया। जाकर उसने बुरका उतार कर फेंक दिया। नसरुद्दीन ने कहा, अरे, यह क्या करती है! बुरका उतारती है! और शराबघर
तू आई क्यों?
उसने कहा कि तुम्हींत्तुम्हीं मजा लूट रहे हो!
पत्नी गई थी इसको शिक्षा देने, कि जब मैं पहुंच
जाऊंगी, तो यह शरम खाएगा, संकोच खाएगा
कि यह बदनामी! हद्द हो गई!
और बैठ गई वह भी जम कर। उसने कहा कि ला तेरी बोतल!
अब कुछ कह भी न सका। कहे क्या! अगर कहे कि यह खराब चीज है, तो वह कहेगी कि फिर पीता क्यों है! सो बोतल देनी पड़ी।
उसने भी जल्दी से बोतल कुड़ेली। उसे क्या पता; कभी पीया हो उसने शराब! गटागट पी गई बिना सोडा मिलाए, पानी मिलाए। एक ही घूंट मुंह में गया था कि कड़वा जहर! वहीं बुलक दिया,
कि सत्यानाश हो तेरा! इसको पीता है तू!
नसरुद्दीन मुस्कुराया और कहा, तू क्या समझती थी री,
कि मैं कोई यहां आनंद मनाने आता हूं! अरे यह बड़ी तपश्चर्या है। बड़ी
मुश्किल से सधती है। देख, यूं पी जाती है। गटागट पूरा बोतल
पी गया जल्दी से, कि कहीं फिर न मांगने लगे!
तू यही समझती है जिंदगी भर से। अब मत कहना कि चले गुलछर्रे उड़ाने। यह
कोई गुलछर्रे नहीं हैं। यह बड़ा कठिन मार्ग है!
लोग गङ्ढों में गिरते हैं: कठिन मार्ग बताते हैं। उन्हीं गङ्ढों में
गिरते हैं; रोज-रोज गिरते हैं। कारण क्या होगा?
एक ही कारण है कि तुम्हारे जीवन में अमृत का कोई स्वाद नहीं है। इसलिए
तुम जहर पी रहे हो। एक ही कारण है कि तुमने जीवन से नाते तोड़ लिए हैं, इसलिए तुम मृत्यु के शिकंजे में पड़ गए हो। तुमने विराट से अपनी जड़ें अलग
कर ली हैं, तो तुम क्षुद्र अहंकार में ग्रसित हो गए हो। वही
नर्क है। अहंकार नर्क है। और अहंकार मृत्यु है। अहंकार के जो पार गया, वह नर्क के भी पार गया और मृत्यु के भी पार गया। वह तत्क्षण अमृत का अनुभव
करता है।
को ह्येवान्यात कः प्राण्यात। अरे कौन उसको खो कर जीवित हो सका है!
कौन इस उसको खोकर वस्तुतः जान सका है कि जीवन क्या है! इसका अर्थ तुम समझो।
इसका अर्थ हुआ कि वह रस और जीवन पर्यायवाची हैं। यही मैं तुमसे कह रहा
हूं; रोज-रोज कहे जा रहा हूं कि जीवन और परमात्मा
पर्यायवाची हैं। इसलिए जो लोग भी जीवन का विरोध करते हैं, वे
ईश्वर के दुश्मन हैं। और तुम्हारा सारा धर्म जीवन का विरोध है।
सब तरह से जीवन को काटो! त्यागो! भागो! जैसे पाप हो गया है कोई जीवित
होने से! जैसे परमात्मा ने कोई कसूर किया है तुम्हें जन्म दे कर! तुम शिकायत कर
रहे हो जीवन का त्याग करके। तुम क्या अनुग्रह का भाव प्रकट करोगे! तुम कैसे
धन्यवाद दोगे उसे! तुम्हारे मन में सिर्फ शिकायतों ही शिकायतों का ढेर है। तुम्हें
परमात्मा मिल जाए, तो तुम उसकी गरदन पकड़ लोगे कि तू बता कि तूने मुझे
क्यों पैदा किया? क्या जरूरत थी मुझे पैदा करने की! क्यों
मुझे संसार के जंजाल में डाला?
यहां लोग आ जाते हैं! उनको पता नहीं मेरी जीवन-दृष्टि का। वे मुझसे
पूछ लेते हैं प्रश्न। आज ही एक सज्जन ने पूछा हुआ है कि हमें बताइए कि भव-सागर से
कैसे मुक्त हो जाए?
तुम्हें सिखाया ही यह जा रहा है कि भव-सागर से मुक्त होना है! अरे, भव-सागर में तैरना सीखो। मुक्त कहां होना है! जाओगे कहां? भव-सागर तो सभी जगह है! भव का अर्थ समझते हो?--जो
है। जो है, इसको बाहर कैसे जाओगे?
भव का अर्थ है अस्तित्व। इससे बाहर कहां जाओगे!
तुम जब पूछते हो--भव-सागर से मुक्त होना है--तो तुम यह कह रहे हो कि
हमें मरना बता दो; आत्महत्या करनी है।
तुम जीवन से इतने उदास क्यों हो? कौन ने तुम्हारे जीवन
को विषाक्त किया? और तुम उन्हीं के शिकंजे में हो अब भी। जो
तुम्हारी गरदन दबा रहे हैं, तुम सोचते हो; तुम्हारे प्राण-रक्षक हैं!
तुम जीवन को जान ही नहीं पाए। नहीं तो यह कभी भाषा न बोलते--भव-सागर
से मुक्त होने की। तुम पूछते--भव-सागर में कैसे लीन हो जाऊं? तुम पूछते: कैसे तल्लीन हो जाऊं? जैसे बूंद सागर में
उतर जाती है और एक हो जाती है, ऐसे मैं भी कैसे एक हो जाऊं।
तब तुम्हारा प्रश्न सच में धार्मिक होता।
उसके बिना कोई जीवन नहीं, कोई प्राण नहीं।
यदेष आकाश आनंदो न स्यात। वह है आकाश जैसा विराट।
यदेष आकाश आनंदो न स्यात। और उसमें आनंद ही आनंद का विस्तार है। आनंद
का कोई अंत नहीं। अनंत आंद है।
और तुम दुख के पूजक हो! जो आदमी अपने को दुख देता है सब तरह से, तुम उसको कहते हो--त्यागीत्तपस्वी! मैं तुम्हें सुख का सम्मान सिखाना
चाहता हूं; सुख का सत्कार सिखाना चाहता हूं। कहता हूं: खोलो
अपने द्वार। बांधो बंदनवार। करो स्वागत सुख का। क्योंकि परमात्मा महासुखरूप है।
आनंद ही आनंद है।
एष ह्येवानंदयाति। और वह इसीलिए तो आनंद है, क्योंकि अनंत आकाश जैसा है; कभी चुकता नहीं। तुम
छोटे-मोटे सुखों में सोचते हो--सुख पा लिया। तुम गलती में हो। इस बात को थोड़ा गौर
से समझना।
तुम्हारे छोटे-छोटे सुख एक उपद्रव कर रहे हैं। ये तुम्हें पंडितों, पुरोहितों, और साधु-महात्माओं के जाल में गिरा देते
हैं। क्योंकि वे कहते हैं, तुम्हारे छोटे-छोटे सुख--कहां
मिला सुख? बताओ--कहां मिला सुख? और तुम
बता भी नहीं सकते। उनका तर्क ठीक लगता है। वे कहते हैं, ये
क्षण-भंगुर सुख हैं। छोड़ो इनको! चलो हमारे साथ। भजन-कीर्तन करो। त्यागत्तपश्चर्या
करो। सिर के बल खड़े होओ। उपवास करो। भूखे रहो। शरीर को गलाओ। तब कहीं
जन्मों-जन्मों में असली सुख मिलेगा!
तुम उनसे तर्क नहीं कर सकते। क्योंकि तुम भी जानते हो कि तुम्हारे
सुखों में तुम्हें सुख नहीं मिला। लेकिन मैं तुमसे कहता हूं: वे तुमसे जो कह रहे
हैं, गलत कह रहे हैं। तुम्हारे सुखों में सुख उतना ही मिला,
जितना मिल सकता था। उससे ज्यादा तुम चाहते थे, वह नहीं मिला। और उसी का वे फायदा उठा रहे हैं।
अब तुम चाहते थे कि भोजन से शाश्वत सुख मिल जाए! तो तुम मूरख हो। भोजन
से कैसे शाश्वत सुख मिल सकता है? कल फिर भूख लगेगी। फिर तो एक दफे
भोजन कर लिया सो कर लिया! फिर दुबारा भोजन न करना पड़े! यह तुम चाहते थे! तो
तुम्हारे चाह की गलती थी। भोजन का कोई कसूर नहीं है। तुमने चाह ही असंभव बना ली
थी।
अब तुम सोचते हो कि इस शरीर में रहने से शाश्वत जीवन मिल जाए! कैसे
मिलेगा। यह शरीर ही बना है--तो मिटेगा। इसमें तो उतना ही मिल सकता है, जितना मिल सकता है। इससे ज्यादा मांगते हो, वह मिलता
नहीं। नहीं मिलता--विषाद पैदा होता है! विषाद होता है--महात्मा का जाल पड़ा। उसने
तुम्हारी गरदन दबाई। उसने कहा कि मैं पहले ही कह रहा था कि यहां दुख ही दुख है।
फिर भी मैं तुमसे कहता हूं: उसका तर्क गलत है। यहां उतना ही सुख है, जितना किसी वस्तु में हो सकता है। अब कोई रेत में से तेल निचोड़ना चाहे और
न निचुड़े; तो इसमें रेत का सूर है? इसमें
तुम्हारे मूढ़ता है--और कुछ भी नहीं।
अब लोग चाहते हों कि धन से ध्यान मिल जाए, तो गलती में हैं। धन से अच्छा मकान मिल सकता है। धन से सुंदर बगीचा बन
सकता है। जरूर बनाओ। मगर धन से ध्यान नहीं मिल सकता। तुम धन से चाहते हो ध्यान मिल
जाए! महात्मा तुम्हारी गरदन पकड़ लेता है। वह कहता है--मिला ध्यान?--नहीं मिला। छोड़ो धन।
मैं तुमसे कहता हूं: धन से जो मिल सकता है, वह धन से लो। बुद्धिमानी इसमें है। और जो ध्यान है, वह
न तो धन से मिलता है, न धन छोड़ने से मिलता है। जरा मेरी बात
पर खयाल कर लेना। क्योंकि वह जड़ की बात है। मूल की बात है।
न धन से ध्यान मिलता है, न धन को छोड़ने से
मिलता है।
तुम जरा अपने महात्माओं से तो पूछो कि धन छोड़ने से ध्यान मिला? मैंने पूछा है। और तुम्हारा एक महात्मा जवाब नहीं दे सका। मैंने महात्माओं
पर वे सब तरकीबें अपनाईं, जो तरकीबें वे तुम पर अपनाते हैं।
और मैं बड़ा हैरान हुआ। पता नहीं तुमने क्योंकि नहीं ये तरकीबें उन पर अपनायीं अब
तक!
वे तुमसे कहते हैं, भोजन से शाश्वत सुख मिला?
तुम उनसे पूछो, तुमको उपवास से शाश्वत सुख
मिला? तुम कम से कम भोजन पाकर स्वस्थ तो हो! कम से कम शरीर
में बल तो है! उठ-बैठ तो सकते हो!
पश्चिम में भोजन की सुविधा है, तो लोग ज्यादा जी रहे
हैं। आज रूस में डेढ़ सौ साल की उम्र के हजारों लोग हैं। थोड़े-बहुत नहीं, हजारों की संख्या में। कोई आदमी डेढ़ सौ साल का हो जाए, तो रूस में अखबार में खबर नहीं छपती। अभी एक खबर छपी, जब एक आदमी दो सौ वर्ष का हो गया। डेढ़ सौ वर्ष के तो बहुत लोग हैं।
और यहां तुम्हारे? अगर कोई सौ वर्ष का हो जाए,
तो हम कहते हैं--है सतयुगी! क्या गजब का आदमी है! सौ वर्ष का हो
गया!
महात्मा गांधी सोचते थे कि एक सौ पच्चीस वर्ष जीना है। यह तो पूना के
लोगों की कृपा हो गई उन पर, कि उनको नहीं जीने दिया! नाथूराम गोडसे ने उनको जल्दी
खतम कर दिया, कि कहो को इतनी देर परेशान होते हो! छुटकारा
दिला दिया जीवन से जल्दी! भव-सागर से मुक्ति करवा दी उनकी!
पूना के लोग गजब के हैं! ये भव-सागर से मुक्ति करवाते हैं! एक सज्जन
मुझे भव-सागर से मुक्ति करवा रहे थे!--अभी कुछ ही दिन पहले, छुरा फेंक कर! क्या-क्या समाज-सेवी पड़े हुए हैं! अब मुझे भव-सागर से छूटना
भी नहीं है, तो भी छुड़वा रहे हैं! गांधीजी को छुड़वाया,
तो ठीक भी; उनको तो छूटना भी था। मैं तो
भव-सागर में बिलकुल मजे से तैर रहा हूं! मगर इनके कष्ट देखो! बेचारे कितना कष्ट
उठाते हैं! अब अगर इन पर झंझट पड़ेगी, अब मुकदमा चलेगा;
सात साल, दस साल; सजा
भुगतेंगे! आए थे सेवा करने!
यह दुनिया बड़ी बुरी है। करो नेकी--बदी हाथ लगती है! क्या गजब की
दुनिया है! यहां भला करने जाओ, बुरा हो जाता है! आए तो थे
बेचारे सेवा करने मेरी, अब दस साल उनको जेलखाने में कहीं
सेवा न करनी पड़े! मुझे यही चिंता होती है कि इस आदमी को बेचारे को दस साल खराब न
हों जाएं और!
एक सौ पच्चीस वर्ष जीने का जो इरादा महात्मा गांधी का था, वे सोचते थे, यह आखिरी कल्पना है। इससे ज्यादा कौन
जी सकता है! और उनकी धारणा यह थी कि एक सौ पच्चीस वर्ष जीएंगे वे--अपने उपवास,
अपने ब्रह्मचर्य के बल पर! वह तो अच्छा हुआ, भला
हो नाथूराम का! रामजी के ही एक रूप समझो--नाथू-राम! तभी तो महात्मा गांधी ने,
जब गोली लगी तो कहा, हे राम! नाथूराम कहने
लायक समय नहीं मिला, नहीं तो पूरा नाम लेते! तो
अंग्रेजी-हिसाब से आखिरी हिस्सा बोल दिया, कि हे राम! नाम
पूरा था--नाथू-राम!
राम का ही रूप समझो इनको, कि आ गए, और छुटकारा करवा दिया!
लेकिन अगर गांधी को खुद मरना पड़ता--और मरना ही पड़ता...। और एक सौ
पच्चीस वर्ष, मैं नहीं सोचता कि वे जी सकते थे। भारत की भोजन
व्यवस्था इतनी स्वस्थ नहीं है कि यहां एक सौ पच्चीस वर्ष जीना आसान हो जाए।
अगर पहले मरना पड़ता, तो वे बड़े दुखी मरते। उस दुख से
नाथूराम ने बचा दिया। वे दुखी मरते कि मेरी तपश्चर्या में कमी रह गई! वे तो हर
छोटी-मोटी बात में समझ लेते थे कि मेरी तपश्चर्या में कभी रह गई! जैसे तपश्चर्या
से कोई उम्र का संबंध है! तपश्चर्या से उम्र का कोई संबंध नहीं है।
शंकराचार्य तैंतीस साल की उम्र में मर गए। अगर तपश्चर्या से संबंध है, तो जाहिर है कि तपश्चर्या इनकी गड़बड़ थी! और विवेकानंद चौंतीस साल में मर
गए। अगर तपश्चर्या के संबंध है, तो जाहिर है कि तपश्चर्या
गड़बड़ थी। तपश्चर्या से कोई संबंध नहीं है।
आज योरोप के देशों में अस्सी वर्ष, पच्यासी वर्ष,
नब्बे वर्ष, औसत उम्र है। स्वीडन की औसत उम्र
नब्बे वर्ष है। अभी भारत की औसत उम्र छत्तीस वर्ष है! तो अगर स्वीडन में डेढ़ सौ
साल का आदमी मिल जाए, तो क्या अड़चन है! भारत में भी नब्बे
साल का आदमी मिल जाता है। छत्तीस वर्ष औसत उम्र है तब।
ये जो हमारी आकांक्षाएं हैं...। शरीर तो मिटेगा ही--सौ साल में मिटे, डेढ़ सौ साल में मिटे। वैज्ञानिक कहते हैं कि तीन सौ साल जिंदा रह सकता
है--कम से कम--अगर पूरी व्यवस्था दी जाए तो। समझो, तीन सौ
साल भी जिंदा रह गया, तो भी मिटेगा तो ही, जाएगा तो ही। जो चीज पैदा हुई है, वह जाएगी। इससे
तुम अगर शाश्वत की आकांक्षा कर रहे हो, तो भूल तुम्हारी है।
इससे उतना ही मांगो, जितना यह दे सकता है। उससे तुम ज्यादा
मांगते हो, फिर वह मिलता नहीं, तो फिर
तुम्हारे साधु-महात्मा कहते हैं कि देखो, नहीं मिला न! कहा
था न! छोड़ो-छोड़ो!
मैं उनके तर्क को गलत मानता हूं। मैं तुमसे कहता हूं कि तुमने ज्यादा
मांगा, वह तुम्हारी गलती थी। ज्यादा मत मांगो। जो मिल सकता
है, वह मांगो। और जो नहीं मिल सकता, उसके
लिए और रास्ते खोजो। इसको छोड़ने से वह नहीं मिल जाएगा।
न तो धन को पकड़ने से, धन को भोगने से ध्यान मिलता है,
न छोड़ने से ध्यान मिलता है। मैं ऐसे मुनियों को जानता हूं, जिनको सत्तर साल घर छोड़े हो गए; नब्बे-नब्बे साल की
उम्र के हो गए हैं; और उनसे मैंने पूछा कि ध्यान मिला कि
नहीं? वे कहते कि अभी नहीं मिला! क्या करें? कैसे ध्यान करें? चित्त तो अभी भी काम करता है! मन
तो अभी भी विचारों से भरा हुआ है!
तो मैंने कहा, एक बात तो साफ हुई तुम्हें कि नहीं--कि घर-द्वार छोड़
देने से मन नहीं छूट जाता! मन का घर-द्वार छोड़ने से क्या संबंध है! मन के छोड़ने की
प्रक्रिया अलग है। विधि अलग है, विज्ञान अलग है। इसलिए मैं
अपने संन्यासी को कहता हूं कि तुम विज्ञान समझो जीवन का।
शरीर को स्वस्थ रखता है--भोजन। लेकिन भोजन से कुछ आत्मवान नहीं हो
जाओगे। हां, आत्मा को स्वस्थ रखना है, तो
तुम्हें दूसरा भोजन तलाशना होगा--ध्यान, प्रेम, मौन, शून्य--तो तुम्हारी आत्मा स्वस्थ होगी। और
दोनों स्वस्थ होने चाहिए। इनमें कुछ विरोध नहीं है--कि स्वस्थ शरीर में स्वस्थ
आत्मा नहीं हो सकती! कि ठीक भोजन करते ध्यान नहीं हो सकता। मैं तो मानता हूं,
बिलकुल उलटी बात है।
ठीक भोजन करो, तो ही ध्यान कर पाओगे; नहीं तो
ध्यान नहीं कर पाओगे। भूखे भजन न होंहि गुपाला! तो जरा भूखे होकर भजन तो करो!
ऊपर-ऊपर भजन निकलेगा--भीतर-भीतर भूख लगी रहेगी! भीतर-भीतर खयाल चलता रहेगा कि कब
भोजन मिले! यह भजन कब खतम हो! भजन कर ही इसलिए रहे हो, कि
भोजन मिले!
लेकिन जब पेट भरा हो, तो स्वभावतः सरलता से, सहजता से भजन का आनंद हो सकता है; ध्यान का आनंद हो
सकता है।
जीवन का एक क्रमिक क्रम है। शरीर की जरूरतें पहले पूरी होनी चाहिए। फिर
मन की जरूरतें पूरी होनी चाहिए। फिर आत्मा की जरूरतें पूरी होनी चाहिए। जब तीनों
की जरूरतों में एक तालमेल बन जाता है, तब--रसो वै सः! तब
चौथी, तुरीय अवस्था पैदा होती है। तब तुम जान पाओगे, वह रस-रूप क्या है; वह आनंद क्या है। वह आकाश क्या
है।
वह आकाश की भ्रांति सर्व-व्यापक आनंदमय तत्व न होता, तो कौन जीवित रहता! और कौन प्राणों की चेष्टा करता? वास्तव
में वही तत्व सबके आनंद का मूलस्रोत है।
जीवन को चाहो; जीवन को जियो--समग्रता से, संपूर्णता
से। भगोड़ापन नहीं, भय नहीं; क्योंकि
जीवन परमात्मा का पर्यायवाची है। जीवन ही वह रस है।
दूसरा प्रश्न: भगवान! आप कहते हैं कि नृत्य में
डूबो, उत्सव मनाओ, गीत गाओ--यही धर्म
है। लेकिन क्या यही सारे समाज के लिए संभव है? इस देश में
अस्सी प्रतिशत लोग तो निर्धनता का अभिशाप झेल रहे हैं, उनके
पास फुर्सत ही नहीं है। क्या आपका यह हंसता, गाता और नाचता
हुआ धर्म केवल मुट्ठी भर लोगों के लिए ही है, जो किसी भांति
धन-संग्रह करके पहले ही सब तरह की सुविधाओं का
मजा लूट रहे हैं--अथवा सामान्यजन के लिए आप धर्म का कोई सर्व-सुलभ उपाय बताते हैं?
चिंतामणि पाठक!
पहली बात: तुम अपनी फिक्र के लिए यहां आए हो, कि सब की फिक्र के लिए? तुमने कोई ठेका लिया
है--सारे लोगों की फिक्र का? तुम कौन हो उनकी चिंता करने
वाले? पहले तुम तो पा लो!
और तुम यह नहीं पूछते कि शास्त्रीय संगीत सबके लिए है या नहीं! और तुम
यह नहीं पूछते कि शेक्सपीयर के नाटक और कालिदास के शास्त्र, और भवभूति की रचनाएं, और रवींद्रनाथ के गीत सबके लिए
हैं या नहीं! तब तुम यह नहीं कहते कि कोई सस्ते कालिदास क्यों पैदा नहीं किए जाते?
जो सर्व-सुलभ हों! धर्म के लिए ही क्यों यह आग्रह है तुम्हारा?
धर्म को लोगों ने समझ रखा है--दो कौड़ी की चीज होनी चाहिए! सस्ती होनी
चाहिए! सर्व-सुलभ होनी चाहिए! और धर्म इस जीवन में सबसे कीमती चीज है; सबसे बहुमूल्य। यह तो जीवन का परम शिखर है। यहां कालिदास, भवभूति, रवींद्रनाथ, शेक्सपीयर
और मिल्टन जैसे लोगों की भी पहुंच मुश्किल से हो पाती है। यहां आइंस्टीन और न्यूटन
और एडिंग्टन जैसे वैज्ञानिकों तक की पहुंच नहीं हो पाती। सर्व साधारण की तो बात ही
तुम छोड़ दो। यहां तो कोई बुद्ध, कोई महावीर, कोई कृष्ण, कोई जीसस--उंगली पर इने-गिने लोग पहुंच
पाए। मैं क्या करूं! नियम यह है। एस धम्मो सनंतनो!
धर्म तो परम शिखर है। इसके लिए तो प्रतिभा चाहिए। इसके लिए तो बड़ी प्रखर
प्रतिभा चाहिए, क्योंकि यह जीवन के आखिरी तत्व को खोज लेना है।
तुम्हारा प्रश्न सोचने जैसा है। और पहले प्रश्न के संदर्भ में इसको
लेना, तो आसान हो जाएगा समझना।
कहते हो: आप कहते हैं कि नृत्य में डूबो, उत्सव मनाओ, गीत गाओ--यही धर्म है। निश्चित ही यही
धर्म है। और अगर तुम नृत्य में नहीं डूब सकते, गीत नहीं गा
सकते, उत्सव नहीं मना सकते--तो और क्या करोगे?
तुम कहते हो, इसकी फुर्सत कहां है! और चिलम पीने की फुर्सत है! और
ताश खेलने की फुर्सत है! और अभी बरसात में चौपड़ बिछा कर बैठने की फुर्सत है! और
आल्हा-ऊदल गाने की फुर्सत है! किन गंवारों की बात कर रहे हो यहां? ये ही गंवार गांवों में बैठकर हनुमान चालीसा पढ़ रहे हैं! और हनुमानजी की
पूजा करने की फुर्सत! और गीत गाने की फुर्सत नहीं! और नाचने की फुर्सत नहीं! और
उपद्रव करने की फुर्सत है! हिंदू-मुस्लिम दंगा करना हो, तो
बिलकुल फुर्सत है! और बलात्कार करना हो, तो फुर्सत है!
हरिजनों के झोपड़े जलाने हों, तो फुर्सत है! और चुनाव लड़ना हो,
तो फुर्सत है!
जो मर गए हैं बिलकुल, वे भी वोट देने पहुंच जाते हैं
लोगों के कंधों पर बैठ कर! अंधे, लंगड़े, लूले--इनको चुनाव में रस है! और अगर इनसे कहो--उत्सव--तो चिंतामणि पाठक को
बड़ी चिंता पैदा हो रही है!
तुम कहते हो--फुर्सत कहां है लोगों को! निर्धनता का अभिशाप झेल रहे
हैं। कौन जिम्मेवार है? अगर झेल रहे हैं, तो खुद
जिम्मेवार हैं। और तुम जैसे लोग जिम्मेवार हैं, जो उनकी
निर्धनता का किसी तरह का सुरक्षा का उपाय खोज रहे हो। क्यों झेल रहे हैं निर्धनता
का अभिशाप?
पांच हजार साल से क्या भाड़ झोंकते रहे! अमरीका तीन सौ साल में समृद्ध
हो गया। कुल तीन सौ साल का इतिहास है। और दुनिया के शिखर पर पहुंच गया! तुम क्या
कर रहे हो? तुम्हें लेकिन फुर्सत है रामचरितमानस पढ़ने की! हर साल
रामलीला खेलने की। वही गांव के गुंडे राम बन जाएंगे--और उनके पैर छूने की! और गांव
का कोई मूरख सीता बन जाएगा, और तुम जानते हो कि कौन है यह!
मूंछें मुड़ाए खड़ा हुआ है! और सीतामैया-सीतामैया कर रहे हो! तुम्हें फुर्सत है इस
सब की!
मैं नहीं देखता कि तुम्हें फुर्सत की कमी है। मैं गांवों से परिचित
हूं। मैं गांव में ही पैदा हुआ हूं। गांव के लोगों के पास इतनी फुर्सत है कि समय
कैसे काटें! हर तरह से समय बरबाद करने की फुर्सत है! मगर आलसी हैं; बेईमान हैं।
और तुम्हारे महात्माओं ने तुम्हें बेईमानी और आलसीपन सिखाया है। वे
तुम्हें सिखा गए, कि क्या करना है! अरे, सबका
देखने वाला भगवान है! जब उसकी मरजी होगी, छप्पर फाड़कर देता
है! अभी तक किसी को छप्पर फाड़ कर दिया, देखा नहीं। और देगा
भी, तो सम्हल कर बैठना; खोपड़ी न खुल
जाए! छप्पर ही न गिर जाए कहीं!
तुम कहते हो--फुर्सत नहीं है! और कर क्या रहे हैं गांव के लोग चौबीस
घंटे? और हर तरह के दंगे-फसाद की फुर्सत है! सत्यनारायण की
कथा में बैठने की फुर्सत है! डंडे चलाना हो, तो एकदम तैयार
हैं! नाग-पंचमी में दंगल करना हो, तो दंगल के लिए तैयार हैं!
सांप की पूजा करनी हो, तो ये तैयार हैं!
एक दूसरे सज्जन ने पूछा हुआ है कि मेरा विश्वास सनातन धर्म में है।
बजरंगबली महावीर में मेरी अटूट श्रद्धा है। आपकी बातें मुझे दिलचस्प तो लगती हैं, लेकिन हमारे सनातन धर्म से उनका मेल नहीं बैठता। क्या आप बताने की कृपा
करेंगे कि मुझमें क्या कमी है?
नाम है--खिलिंदा राम चौधरी। प्रधान, महावीर सेवा दल,
पानीपत!
इस सब की फुर्सत है! इन खिलिंदा राम को तरहत्तरह के खेल करने की
फुर्सत है! महावीर सेवा दल के प्रधान हैं--इसकी इनको फुर्सत है! और बजरंगबली की
सेवा करने की फुर्सत है!
और तुम्हें कोई भी चीज सही कही जाए, तो तुम्हारे सनातन
धर्म से मेल नहीं खाती! तो न खाए! तुम्हारा सनातन धर्म गलत होगा। मुझे कुछ पड़ी
नहीं कि तुम्हारे सनातन धर्म से मेल खानी चाहिए।
मैं तो अपनी बात कह रहा हूं। मेल खा जाए, तो तुम्हारे सनातन धर्म का सौभाग्य! न खाए--तुम जानो। कोई मैंने ठेका नहीं
लिया है, तुम्हारे धर्म से मेल बिठालने का। मैं किस-किस के
धर्म से मेल बिठाऊं! यहां तीन सौ धर्मों को मानने वाले लोग पृथ्वी पर हैं। अगर इन
सब का ही मेल बिठाता रहूं, तो मेरा ही तालमेल खो जाए!
किस-किस का मेल बिठालना है! यहां तरहत्तरह के मूढ़ पड़े हुए हैं। और
सबकी अपनी धारणाएं हैं! अब तुम्हारी अटूट श्रद्धा बजरंगबली में है! तुम आदमी हो या
क्या हो! और कमी पूछ रहे हो! बजरंगबली से ही पूछ लेना। वे खुद ही हंसते होंगे, कि यह देखो मूरख! खिलिंदा राम! राम होकर और बजरंगबली की सेवा कर रहे हैं!
आजकल बजरंगबली तक राम की सेवा नहीं कर रहे हैं। क्योंकि उनको दूसरी
रामलीला में ज्यादा पैसे पर नौकरी मिल गई!
इस तरह से लोगों से यह देश भरा हुआ है। जमाने भर की जड़ता को तुम सनातन
धर्म कहते हो! हर तरह के अंधविश्वास को तुम सनातन धर्म कहते हो! और तुम्हें जब कोई
अनुभव नहीं है, तुम्हें अटूट श्रद्धा कैसे हो गई? और अटूट श्रद्धा थी, तो यहां किसलिए आए हो? तुड़वाने आए हो श्रद्धा! बजरंगबली तो वहीं उपलब्ध हैं पानीपत में। खुद पानी
पियो, उनको पिलाओ। यहां किसलिए आए हो! श्रद्धा तुड़वानी है?
और दिलचस्पी मत लो मेरी बातों में। खतरनाक हैं ये बातें। इसमें
बजरंगबली से हाथ छूट जाएगा। यह अटूट श्रद्धा वगैरह कुछ नहीं है। अटूट होती ही तब
है, जब होती नहीं।
तुम कहते हो कि मेरा विश्वास सनातन धर्म में है। कैसे तुम्हारा
विश्वास है? किस आधार पर तुम्हारा विश्वास है? संयोग की बात है कि तुम हिंदू घर में पैदा हो गए। तुमको बचपन में उठाकर
मुसलमान के घर में रख देते, तो तुम्हारी अटूट श्रद्धा इस्लाम
में होती। हिंदुओं के गले काटते। तब तुम यह महावीर सेवा दल वालों की जान ले लेते।
तब तुम कुछ और दल बनाते। रजाकार! तब तुम दूसरा झंडा खड़ा करते, कि इस्लाम खतरे में है! और मेरा विश्वास इस्लाम में है! और तुम ईसाई घर
में पैदा हो जाते, तो तुम यही उपद्रव वहां करते।
तुम्हारा विश्वास है कैसे? किस आधार पर तुम्हारा
विश्वास है? सिर्फ यही न कि तुम्हारे मां-बाप ने तुम्हें यह
सिखा दिया, कि हनुमानजी हैं! ये पत्थर की मूर्ति नहीं हैं।
इनकी सेवा करो। इन्हें नाराज मत करना। हनुमान चालीसा पढ़ो। यह बेटा, बहुत फल देंगे। ये बड़े भोले-भाले हैं। इनको मना लेना बड़ा आसान है। जो
चाहोगे, ये कर देंगे!
इसी सब पागलपन के पीछे तो यह देश गरीब है। यही सारा श्रम अगर देश को
समृद्ध बनाने में लगे, तो इस देश के पास बड़ी समृद्ध पृथ्वी है। और हमारे पास
पांच हजार साल का अनुभव होना चाहिए था। हमें तो दुनिया में शिखर पर होना चाहिए था।
मगर एक तरफ अंध-विश्वास और दूसरी तरफ तुम्हारे महात्मागण, जो
कह रहे हैं--सब त्यागो, सब छोड़ो; भौतिकता
छोड़ो! तो गरीब न रहोगे, तो क्या होगा!
और फिर गरीब रहो, तो यहां इस तरह के प्रश्न खड़े
करते हो, जैसे मेरा कोई जुम्मा है। मेरा कोई जुम्मा नहीं है।
तुम्हारी गरीबी के लिए तुम जिम्मेवार हो। और अभी भी तुम्हारी गरीबी टूट सकती है।
मगर जो आदमी तुम्हारी गरीबी तुड़वाने के लिए कोशिश करेगा, तुम
उसकी जान लोगे। तुम्हें अपनी गरीबी से मोह हो गया है!
आखिर मेरा विरोध क्या है! मेरा विरोध यह है कि मैं कह रहा हूं कि भारत
को भौतिकता के ऊपर अपनी जड़ें जमानी चाहिए, क्योंकि जिस देश की
जड़ें भौतिकता में हों, उसी देश के शिखर पर अध्यात्म के फूल
खिल सकते हैं। यह मेरे विरोध का कारण है।
इसलिए तुम्हारी संस्कृति मेरे कारण खतरे में है! तुम्हारा धर्म खतरे
में है! उसकी रक्षा तुम्हें करनी है!
तुम पूछ रहे हो: क्या यही सारे समाज के लिए संभव है?
धर्म का समाज से कोई संबंध ही नहीं होता, पहली तो बात। व्यक्ति से संबंध होता है। तुमने कृष्ण से नहीं पूछा कि हे
महाराज! अर्जुन को तुम जो गीता समझा रहे हो, यह सारे समाज के
लिए संभव है? तुमने महावीर से नहीं पूछा कि सारे समाज के लिए
नंगा होना संभव है? कि सारा समाज पत्नी वगैरह को छोड़ कर भाग
जाएगा, तो फिर महावीर वगैरह कैसे पैदा होंगे आगे? कि महाराज, कुछ यह तो बता जाओ कि आगे तीर्थंकर वगैरह
के पैदा होने की तरकीब क्या है! कौन से जादू-मंतर से पैदा करेंगे?
तुमने बुद्ध से नहीं पूछा कि यह सारे समाज के लिए संभव है? तुमने किससे पूछा? मुझसे तुम पूछते हो!
धर्म कभी समाज की बात नहीं रहा। धर्म व्यक्ति की बात है। समाज की कोई
आत्मा ही नहीं होती। समाज तो केवल कोरा शब्द है। कहीं समाज मिला तुम्हें? जैसे मैं तुमसे कहूं कि जाओ जरा समाज से मिल आओ! तो किससे मिलोगे? जब भी मिलोगे, किसी व्यक्ति से मिलोगे। मगर शब्द
धोखा दे देते हैं।
धर्म वैयक्तिक बात है। यह वैयक्तिक क्रांति है। यह एक-एक व्यक्ति को
अपना निर्णय लेना पड़ेगा। मैं व्यक्तियों से बात कर रहा हूं--समाजों से नहीं। मैं
समाज को मानता ही नहीं। मैं तो--व्यक्ति में मेरी निष्ठा है। व्यक्ति ही वास्तविक
है; समाज तो केवल संज्ञा मात्र है।
तो सारे समाज से मुझे कुछ लेना-देना नहीं है। अधिकतम, जितने व्यक्तियों तक अपनी खबर पहुंचा सकता हूं, पहुंचाऊंगा।
और जिनको नाचने की हिम्मत है, वे नाचेंगे। और जिनको गीत गाने
की हिम्मत है, वे गीत गाएंगे। निश्चित ही उसके पहले उन्हें
बहुत-सी बातें छोड़नी पड़ेंगी।
कई तो ऐसे लोग हैं, जिनको रोने की आदत पड़ गई है! कि
जब तक रोएं न, उनके चित्त को चैन नहीं मिलता! उनके लिए मेरे
पास जगह नहीं है।
और तुम कहते हो--आपका यह हंसता, गाता, और नाचता हुआ धर्म क्या केवल मुट्ठी भर लोगों के लिए ही है?
जो भी समझेगा उनके लिए है। वे मुट्ठी भर भी हो सकते हैं, आकाश भर भी हो सकते हैं। मगर कम से कम तुम तो समझो महाराज, चिंतामणि पाठक! कम से कम तुम तो कुछ बुद्धि लगाओ! यहां तक आ गए हो,
अब तुम दूसरों की चिंता में न पड़ो। तुम अपनी चिंता कर लो, तो काफी!
तुम्हारा दीया जल जाए, तो शायद तुम किसी और
का दीया जलाने में भी सहयोगी हो सकते हो।
अब तुम पूछ रहे हो कि जिन लोगों ने किसी तरह धन-संग्रह करके पहले से
ही सब तरह की सुख-सुविधाओं का मजा लूट रहे हैं...! तुम्हारे मन मेंर् ईष्या दिखती
है। औरर् ईष्या हमेशा बुद्धुओं का लक्षण है।
तुम क्या चाहते हो--ये भी भिखमंगे होते, तो बड़ा अच्छा होता!
कम से कम कुछ लोग खाते-पीते हैं, इससे भी तुम्हें चैन नहीं
मिल रहा है! सौ में से मुल्क में मुश्किल से दो प्रतिशत आदमी खाते-पीते हैं।
अट्ठानबे प्रतिशत से तुम्हें चैन नहीं मिल रहा है, शांति
नहीं मिलती आत्मा को! इन दो प्रतिशत को भी नंगा कर दो, वही
चेष्टा है--तथाकथित समाजवादियों की! कि इनको भी बांट दो। कि ये दो प्रतिशत भी जो
खाते-पीते लोग दिखाई पड़ते हैं, इनको भी बांट दो! तो गरीबी और
बढ़ जाए।
सौ प्रतिशत गरीब हो जाएं, फिर बड़ी चैन की
बांसुरी बजेगी! सभी एक जैसे हो गए, तो ठीक है! सभी नंगे खड़े
हो जाएं, तो चिंता हमारी मिटे! वह जो एक आदमी कपड़ा पहने
दिखाई पड़ता है, उसके कपड़े को लोंच लेने का मन होता है!
तुम्हारे मन मेंर् ईष्या भरी हुई है, कि किसी भांति
धन-संग्रह कर लिया! तुम्हें कौन रोकता था?
और धन-संग्रह किसी भांति नहीं होता। उसके लिए भी बुद्धि चाहिए! बुद्धू
भर नहीं कर पाते। मगर बुद्धू अपने बुद्धूपन का बचाव करने के लिए तरकीबें सोचते
हैं। वे सोचते हैं, हम सीधे-सादे आदमी, धार्मिक
आदमी, इसलिए धन इकट्ठा नहीं कर पाते। ये बेईमान धन इकट्ठा कर
रहे हैं! बेईमानी के लिए भी थोड़ी बुद्धि चाहिए! और ईमानदारी के लिए तो बहुत बुद्धि
चाहिए।
ईमानदारी से जो धर्म इकट्ठा कर सके उसके लिए तो परम बुद्धि चाहिए। मगर
मैं बुद्धुओं के पक्ष में नहीं हूं। और बुद्धूपन को मैं कोई ईमानदारी नहीं मानता।
डरपोंक और कायरों को मैं कोई ईमानदार नहीं मानता।
र्ाएं छोड़ो। श्रम में लगो। तुम भी धन पैदा कर सकते हो। धन पैदा करना
होता है। सारा देश धनी हो सकता है। सारी पृथ्वी धनी हो सकती है। लेकिन गलत धारणाएं
हमें रुकावट डाल रही हैं!
और मैं तुमसे यह कहे देता हूं कि जो लोग सुविधाएं भोग रहे हैं, वे ही केवल धर्म का अर्थ समझ सकते हैं। राम किसी भिखमंगे के घर में पैदा
नहीं हुए थे। उनके बाप दशरथ ने किसी भांति धन इकट्ठा कर लिया होगा! धन आया कहां से?
और न बुद्ध किसी घर में पैदा हुए थे गरीब के। और न महावीर किसी गरीब
के घर में पैदा हुए थे। जैनों के चौबीस तीर्थंकर ही राजाओं के बेटे थे। यह धन किसी
तरह से इकट्ठा कर लिया होगा बेईमानों ने! और इन बेईमानों के घर में तीर्थंकर पैदा
हुए!
कृष्ण भी कोई गरीब के बेटे नहीं थे। ये सब बेईमानों के घर में तुम्हारे
अवतार पैदा हुए! इन अवतारों को शर्म न आई! डूब मरें चुल्लू भर पानी में! होना था
पैदा कहीं नंगे-भिखमंगे, कोढ़ी, लंगड़े, लूले--इनके घर में पैदा होना था! कोई जगह चुननी थी ढंग की। दरिद्रनारायण
के घर में पैदा होना था! मगर एक भी दरिद्र-नारायण के घर में पैदा नहीं हुआ!
तुम्हारा एक अवतार नहीं; एक बुद्ध नहीं, एक तीर्थंकर नहीं। क्या कारण होगा?
कारण साफ है। गणित साफ है। जिनके पास सारे तरह की संपन्नता होती है, उनके जीवन में ही बड़े सवाल उठते हैं। विराट सवाल उठते हैं। जिनके पास धन
होता है, उनको यह बात दिखाई पड़ती है कि धन से न आनंद मिला,
न शांति मिली, तो अब हम क्या करें!
जिनके पास धन नहीं होता, वे सोचते हैं कि धन
मिल जाएगा, तो सब मिल जाएगा।
मैं तो सब को धनी देखना चाहता हूं, ताकि प्रत्येक
व्यक्ति समझ पाए कि धन की एक सीमा है और उस सीमा के पार भी बहुत कुछ है। मगर वह धन
हो, तो ही समझ पाएगा। नहीं तो नहीं समझ पाएगा।
अब मैं क्या करूं! तुम्हारा अतीत सड़ा-गला है। उसके लिए मैं जिम्मेवार
नहीं हूं। मैं तुम्हारे भविष्य को बदल सकता हूं, लेकिन तुम मेरी सुनो
तो!
मेरी बात सुनने की भी तैयारी नहीं है! मेरी गरदन काट देने की तैयारी
है! तो तुम्हारा भविष्य भी इतना ही सड़ा-गला होगा, जितना तुम्हारा अतीत
था। इससे भी ज्यादा सड़ा-गला होगा। क्योंकि सड़न-गलन पुरानी होती जा रही है। और-और
गहरी होती जा रही है!
मगर मैं तुमसे इतना ही कहूंगा कि धर्म सर्व-सुलभ नहीं हो सकता।
तुम्हें धर्म की ऊंचाई तक उठने के लिए श्रम करना होगा। धर्म तुम्हारी नीचाई पर
नहीं उतर सकता। तुम्हें अगर सूरज की तरफ जाना है, तो तुम्हें पंख खोलने
होंगे। तुम यह चाहो कि सूरज तुम्हारे घर में आए और द्वार खटखटाए कि भैया चिंतामणि
पाठक! उठो। मैं सूरज हूं! आया हूं तुम्हारे घर में रोशनी करने! तो तुम यह आशाएं मत
करो। सूरज की तो बात छोड़ो, बिजली घर के दफ्तर का कोई आदमी भी
आने वाला नहीं है! वहां भी जाकर रिश्वत दोगे, तो शायद बिजली
का बल्ब तुम्हारे घर में लगे, तो लगे। सूरज क्या खाक
तुम्हारे घर में आएगा! और आ जाएगा, तो तुम खाक हो जाओगे।
तुम्हें ही उड़ना पड़ेगा। सत्य की तरफ ऊंचाई तक पहुंचने के लिए, शिखरों पर चढ़ने के लिए तुम्हें श्रम करना होगा।
धर्म सर्व-सुलभ नहीं हो सकता। जिनको धर्म चाहिए, उनको तैयारी करनी चाहिए। उनको श्रम, साधना के लिए
साहस जुटाना आवश्यक है। उसे ही मैं संन्यास कहता हूं।
आज इतना ही।
श्री रजनीश आश्रम, पूना, प्रातः, दिनांक २४ जुलाई,
१९८०
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