प्रवचन—51 (आत्म—स्वीकार से
तत्क्षण कांति)
पहला प्रश्न:
अकारण जीने की कला
का सूत्र क्या है?
कृपा करके करें।
कारण
से जीयो या अकारण जीयो,
हर हालत में तुम अकारण ही जीते हो। कारण भला तुम खोज लो, कारण है नहीं। कारण तुम्हारा ही आरोपण है। इसे समझने की कोशिश करो।
जीवन
कहीं जा नहीं रहा है,
जीवन है। जीवन का कोई भविष्य नही है, बस
वर्तमान है। वर्तमान ही एकमात्र अस्तित्व का ढंग है।
तुम
जन्मे, क्या कारण है? पूछोगे, उलझोगे।
पूछोगे तो कोई न कोई प्रश्न का उत्तर देने वाला भी मिल जाएगा; कोई न मिलेगा तो तुम खुद ही अपने मन को कोई उत्तर देकर समझा लोगे। ऐसे ही
तो सारे दर्शनशास्त्र निर्मित हुए हैं। आदमी ने पूछा—उत्तर देने वाला कोई भी नहीं
है—आदमी ने ही पूछा, आदमी ने ही उत्तर दे लिए। फिर प्रश्नों
की पीड़ा से बचने के लिए उत्तरों को सम्हालकर रख लिया, संजोकर
रख लिया, मंजूषाएं बना लीं—वेद बने, कुरान—बाइबिल
बनी। आदमी की बेचैनी समझ में आती है। उसे लगता है, क्यों?
कारण होना चाहिए!
पर
तुम जो भी कारण खोजते हो,
तुम्हारा प्रश्न उस कारण पर भी उतना ही लागू
होता है। तुम कहते
हो, परमात्मा ने जन्म दिया। पर क्यों? परमात्मा को भी
क्या सूझी; क्या अर्थ है? न देता तो
हर्ज क्या था 'प्रश्न मिटा नहीं, प्रश्न
वहीं का वहीं है, एक कदम पीछे हट गया। परमात्मा क्यों है 'क्या उत्तर दोगे; तुम्हारे सब उत्तर वर्तुलाकार
होंगे। तुम कहोगे, परमात्मा इसलिए है कि सृष्टि का पालन करे।
और सृष्टि इसलिए है कि परमात्मा बनाए!
इन
उत्तरों से तुम किसे धोखा दे रहे हो? जैसे अंधेरी रात में, अंधेरी गली में आदमी गुनगुनाने लगता है गीत। गीत गुनगुनाने से कुछ भय
मिटता नहीं, लेकिन अपनी ही आवाज सुनकर ऐसा लगता है, कोई साथ है। लोग सीटी बजाने लगते हैं। सीटी बजाने से किसी का साथ नहीं हो
जाता। लेकिन अकेलेपन का भय दब जाता है।
मरघट
से कभी गुजरे हो अंधेरी रात में. नास्तिक भी मंत्र गुनगुनाने लगता है। कोई मंत्र
भूत—प्रेतों से रक्षा नहीं करते। पहली तो बात भूत—प्रेत हैं नहीं, जिनसे
रक्षा करनी हो। भूत—प्रेत तुम गढ़ते हो, फिर मंत्रों से रक्षा
करते, हो। पहले बीमारी खड़ी करते हो, फिर
औषधि खोजते हो। फिर एक औषधि काम न करे तो दूसरी औषधि खोजते हो। यही तो
दर्शनशास्त्र की सारी भ्रमणा है, विडंबना है।
तुम
सोचते हो, प्रश्न बन गया तो उत्तर होना ही चाहिए। आदमी प्रश्न बना लेता है, तो सोचता है, कहीं न कहीं उत्तर भी होगा, जब प्रश्न है तो उत्तर भी होगा। प्रश्न तो तुम कोई भी बना सकते हो। तुम
पूछ सकते हो, हरे रंग की गंध क्या है। प्रश्न में कोई भूल—चूक
नहीं है। भाषा ठीक है। कोई तर्कशास्त्री नहीं कह सकता कि प्रश्न में कुछ गलती है।
हरे रंग की गंध क्या है?
हरे
रंग से गंध का क्या लेना—देना! मगर तुमने एक प्रश्न बना लिया, अब तुम
उत्तर की तलाश पर चल पड़े। छोटे बच्चों को देखो। छोटे बच्चे जो प्रश्न पूछते हैं,
वही बड़े—बूढ़े भी पूछते हैं। सिर्फ प्रश्नों का संयोजन बदल जाता है।
छोटे बच्चे पूछते हैं, वृक्ष हरे क्यों हैं? क्या करोगे!
डी
एच लारेन्स घूमता था बगीचे में—एक बहुत महत्वपूर्ण व्यक्ति। छोटा बच्चा साथ था, उसने पूछा
कि मुझे यह बताओ, वृक्ष हरे क्यों हैं? डी एच लारेन्स ने उस बच्चे की तरफ देखा, वृक्षों की
तरफ देखा, अपनी तरफ देखा, और बोला,
हरे हैं, क्योंकि हरे हैं। वह बच्चा राजी हो
गया। उत्तर मिल गया। पर यह कोई उत्तर हुआ?
पहले
तुम प्रश्न बनाकर सोचते हो,
बन गया प्रश्न तो उत्तर होना चाहिए। फिर प्रश्न काटता है, बेचैन करता है। प्रश्न खुजली पैदा करता है। जब तक खुजला न लो, चैन नहीं मिलता। फिर कोई उत्तर चाहिए। तो कहीं न कहीं तुम किसी न किसी
उत्तर पर राजी हो जाओगे।
सभी
लोग किन्हीं उत्तरों पर राजी हो गए हैं—कोई हिंदू कोई मुसलमान, कोई ईसाई,
कोई बौद्ध। इससे तुम यह मत समझना कि इन्हें उत्तर मिल गए हैं;
इससे सिर्फ इतना पता चलता है कि थक गए हैं अपनी बेचैनी से, अन्यथा प्रश्न वहीं के वहीं खड़े हैं। प्रश्न तो दर्शनशास्त्र एक भी हल
नहीं कर पाया।
तुम
अकारण हो। तुम्हारा जन्म क्यों हुआ? कोई उत्तर नहीं है। अकारण होने को
स्वीकार करने में अड़चन क्या है; कहीं तो स्वीकार करना ही
पड़ेगा, तो यहीं स्वीकार कर लेने में क्या अड़चन है न ईश्वर को
तो सभी धर्म कहते हैं, अकारण। उसका कोई कारण नहीं है। तो जो
बात ईश्वर के लिए तुम स्वीकार कर लेते हो और तुम्हारे तर्क को कोई अड़चन नहीं आती,
वही बात अपने को स्वीकार कर लेने में कहां कठिनाई हो रही है?
सभी
धर्म कहते हैं,
ईश्वर ने जगत को बनाया; और पूछो कि ईश्वर को
किसने बनाया, तो नाराज हो जाते हैं। तो वे कहते हैं, अतिप्रश्न हो गया। सीमा के बाहर जा रहे हो। सीमा के बाहर कोई भी नहीं जा
रहा है, सिर्फ तुम उनकी जमीन खींचे ले रहे हो। क्योंकि अगर
इस प्रश्न को वे स्वीकार करें तो फिर उत्तर कहीं भी नहीं है। अगर वे कहें ईश्वर को
महाईश्वर ने बनाया, तो फिर महाईश्वर को किसने बनाया ‘यह तो बात चलती ही रहेगी, इसका कोई अंत न होगा। तो
कहीं तो रोकना ही पड़ेगा। मैं तुमसे कहता हूं शुरू ही क्यों करते हो ' जब रुकना ही पड़ेगा, और बडे भद्दे ढंग से रुकना पड़ेगा।
तुम्हारे बड़े से बड़े दार्शनिक भी जबर्दस्ती तुम्हें चुप करवाए हुए हैं।
कहते
हैं, जनक ने एक बहुत बड़ा पंडितों का सम्मेलन बुलाया था और उसमें हजार गाएँ सोने
से उनके सींग मढ़कर द्वार पर खड़ी कर दी थीं, कि जो जीत जाएगा,
जो सभी प्रश्नों के उत्तर दे देगा, जो सभी को
निष्प्रश्न कर देगा, ये हजार गाएं उसके लिए हैं। श्रेष्ठतम
गाएं थीं। उनके सींगों पर सोना चढ़ा था, हीरे जड़ दिए थे।
स्वभावत:
पंडित आए। बड़ा विवाद मचा। फिर भरी दुपहरी में याशवल्ल आया। उसे अपने पर बड़ा भरोसा
रहा होगा। वह तार्किक था,
महापंडित था। उसने अपने शिष्यों को कहा कि ये गाएं तुम जोतकर आश्रम
ले जाओ, थक गयी हैं धूप में खड़े—खड़े, विवाद
का निपटारा मैं पीछे कर लूंगा।
इतना
भरोसा रहा होगा अपने पर कि पुरस्कार पहले ले लो! विवाद का निर्णय तो अपने पक्ष में
होने ही वाला है। निश्चित ही उसने सारे पंडितों को हरा दिया। उसके शिष्य तो गायों
को जोतकर आश्रम ले गए। जनक भी भौचक्का रह गया, इतना भरोसा! लेकिन एक स्त्री ने
उसे मुश्किल में डाल दिया। जब सारे पंडित हार चुके तब एक स्त्री खड़ी हुई, गार्गी उसका नाम था। और उसने कहा कि तुम कहते हो, ब्रह्म
ने सबको सम्हाला है, तो ब्रह्म को किसने सम्हाला है? उसने याज्ञवल्ल की कमजोर नस छू दी। वह क्रोध से भर गया। उसने कहा, गार्गी! जबान बंद रख! यह अतिप्रश्न है। तेरा सिर गिर जाएगा—या तेरा सिर
गिरा दिया जाएगा।
उपनिषद
इस कथा को यहीं छोड़ देते हैं। इसके आगे क्या हुआ, पता नहीं। हो सकता है उस
आदमी की जबर्दस्ती ने उस स्त्री का मुंह बंद कर दिया हो, लेकिन
यह बात कुछ जीत की न हुई। अगर अतिप्रश्न है तो पहले ही कह देते कि एक प्रश्न है जो
न पूछ सकोगे। तो निष्प्रश्न तो न कर पाए तुम। उत्तर सभी तो न दे पाए। संसार को
किसने सम्हाला है? तो कहा, ब्रह्म ने।
और गार्गी ने कुछ गलत पूछा? अगर सम्हालने का प्रश्न सही है
तो फिर परमात्मा को, ब्रह्म को किसने सम्हाला है—यह प्रश्न
भी उतना ही संगत और सही है। गौएं ले जानी थीं, एक बात! सोने
पर नजर थी, एक बात! लेकिन यह तो अभद्रता हो गयी।
और
सारे पंडित भी याशवल्ल से राजी हुए। शायद पुरुष का अहंकार दांव पर लग गया होगा।
गार्गी अकेली थी—स्त्री थी।
कहते
हैं, उसके बाद ही स्त्रियों को वेद का अध्ययन करने की मनाही कर दी गयी। ये
बेतुके प्रश्न उठा देती हैं बीच में। फिर हिंदुओं ने स्त्रियों को वेद पढ्ने का
मौका न दिया। न पढ़ेगी, न इस तरह के प्रश्न उठा सकेंगी।.
लेकिन
उस स्त्री ने बड़ी सीधी सी बात पूछी थी, छोटे बच्चों की तरह सीधी बात पूछी
थी। बात में कहीं कोई गलती न थी, लेकिन मै जानता हूं याशवल्ल
की मुसीबत थी! अगर गार्गी सही है, तो फिर सारे प्रश्न और
सारे उत्तर व्यर्थ हो जाते हैं। फिर तो सारा दर्शनशास्त्र का व्यवसाय व्यर्थ हो
जाता है।
मैं
तुम्हें यही कह रहा हूं कि किसी भांति तुम दर्शन से मुक्त हो जाओ, तो तुम
ज्ञान को उपलब्ध होओगे। ये फलसफा की ऊंची बातें, बस मालूम
होती हैं ऊंची हैं। इनकी बुनियाद कहीं नहीं। ये भवन ताश के पत्तों के भवन हैं। हवा
का जरा सा झोंका—गार्गी का छोटा सा प्रश्न—भवन गिर गया! क्रोध उठ आया।
मैं
तुमसे कहना चाहता हूं न तो तुम्हारे जन्म का कोई कारण है, न
तुम्हारे जीवन का कोई कारण है। वृक्ष हरे हैं, क्योंकि हरे
हैं। तुम जी रहे हो, क्योंकि तुम जी रहे हो। तुम्हें मेरी
बात जरा कठिन लगेगी। क्योंकि तुम मेरे पास भी उत्तर खोजने आए हो। मैं तुम्हें
उत्तर देने को उत्सुक नहीं हूं। मैं तुम्हारे प्रश्न को गिरा देने में उत्सुक हूं
उत्तर देने में उत्सुक नहीं हूं। क्योंकि उत्तर तो मैं कोई भी दूंगा, प्रश्न थोडे दिन में फिर रास्ता बनाकर खड़ा हो जाएगा। और मैं तुमसे यह नहीं
कहना चाहता कि तुम्हारा प्रश्न अतिप्रश्न है। ऐसी बेहूदगी मैं न करूंगा! ऐसी
अभद्रता, जो याज्ञवल्ल ने की, मुझसे न
हो सकेगी!
मैं
तुमसे कहता हूं?
तुम्हारा प्रश्न अतिप्रश्न नहीं है, निरर्थक
है। इतना निरर्थक है कि उसके उत्तर की खोज में जाना जरूरी नहीं है। गए, तो खाली हाथ ही लौटोगे। जीवन है। जीवन को परमात्मा कहो, कोई फर्क नहीं पड़ता—नाम की बात है। नाम तुम्हारी मौज। तुम्हारी पसंदगी की
बात है। ईश्वर कहो; पर ईश्वर है। और इस है से गहरे जाने का
कोई उपाय नहीं है। यह है आत्यंतिक रूप से गहरा है। इस है की कोई थाह नहीं। तुम यह
नहीं कह सकते कि यह है कहां सम्हला है! माना गहरा
है, लेकिन
कहीं तो थाह होगी।
नहीं, कोई थाह
नहीं। जीवन अथाह है। न इसके पीछे कोई कारण खोजा जा सकता है, न
इसके आगे कोई भविष्य खोजा जा सकता है। बस जीवन अभी और यहीं है।
ही, तुम्हें
बेचैनी लगती हो तो कारण खोज लो, लेकिन कारण खिलौने हैं।
प्रौढ़ होना चाहिए। प्रौढ व्यक्ति मैं उसे कहता हूं जिसने प्रश्नों की व्यर्थता
समझकर प्रश्नों का त्याग कर दिया। उसे मैं प्रौढ़ कहता हूं। जो अभी प्रश्न पूछे चला
जाता है और सोचता है कि उत्तर होंगे कहीं, वह अभी बच्चा है।
अभी उसने जीवन का बुनियादी पाठ भी नहीं सीखा, कि जीवन है—अकारण।
तुम्हें
अडचन क्या है अकारण को स्वीकार करने में? पक्षी गीत गा रहे हैं, किसी कारण से? वृक्षों में फूल लगे हैं, किसी कारण से? चांद—तारे घूम रहे हैं, किसी कारण से? यह तुम्हें खुजलाहट क्या है कि कारण
होना चाहिए? फिर अगर मैं कोई कारण बता दूं तो तुम चुप हो
जाओगे? अगर मैं कह दूं, यह परमात्मा की
लीला है, यह कोई उत्तर हुआ!
यही
तुम्हारे जानी तुम्हें उत्तर दे रहे हैं, परमात्मा की लीला है! और तुम पूछते
नहीं कि लीला। किसलिए? यह परमात्मा बिना लीला के नहीं रह
सकता, इसको कुछ अड़चन है? इसको कुछ
बेचैनी है? यह बिना लीला के शांत नहीं बैठ सकता? महात्मा तो
सब शांत बैठना सिखाते हैं। परमात्मा ही शांत
नहीं बैठ पा रहा है, तो हम गरीब आदमियों का क्या! यह लीला क्यों? हमसे तो
कहा जाता है, संसार छोड़ो; खुद संसार की
लीला कर रहा है? यह बात बड़ी अजीब सी लगती है। हमसे तो कहा
जाता है, त्यागों, यह सब अड़चन है,
आवागमन से छुटकारा करो, और यह आवागमन बनाए चला
जाता है? अगर कहीं कोई जुर्मी है और किसी ने कोई महाघात,
महापाप किया है, तो यह परमात्मा है। यह जाल
क्यों रचता है?
और
ज्ञानी कहते हैं,
लीला है। तुम जरा लीला शब्द को तो समझो! लीला का मतलब ही यह हुआ कि
अकारण है। लीला कहने का मतलब ही यह हुआ कि ज्ञानियों के पास कोई उत्तर नहीं है। वे
कह रहे हैं, क्षमा करो, अब मत पूछो,
सब लीला है! मगर लीला कहने से ऐसा लगता है, उन्होंने
उत्तर दिया, जैसे उन्होंने बता दिया। मगर तुम पूछो प्रश्न को
फिर, लीला क्यों? किस कारण?
आदमी
दुख भोगता है तो पूछता है,
किस कारण? जानी—तथाकथित जानी, क्योंकि मैं नहीं मानता कि कोई शानी ऐसे कारण बताएगा जो नहीं हैं—तों
ज्ञानी कहते हैं, पिछले जन्म में पाप किया होगा।
अब
बड़ा मजा है, तुम राजी हो जाते हो। यहां दुख समझाए में नहीं आता था, समझने में नहीं आता था, क्यों दुख भोग रहा हूं। किसी
को सताया नहीं, किसी को मारा नहीं, पीटा
नहीं, दुख क्यों भोग रहा हूं! ज्ञानी कहते हैं, पिछले जन्म में बुरे कर्म किए होंगे। तुम राजी हो गए। तुम यह नहीं पूछते
कि पिछले जन्म में बुरे कर्म क्यों किए होंगे न तो ज्ञानी और पिछले जन्म में ले
जाएंगे, लेकिन कहां तक ले जाएंगे! तुम चलते ही चलो पूछते।
तुम कहो, कभी तो शुरुआत हुई होगी, हम
यह पूछते हैं कि शुरुआत क्यों हुई?
जब
तुम पूछते हो कि मैं आज दुखी हूं, तब तुम्हारे इस प्रश्न में यह छिपा है कि दुख
प्रारंभ क्यों हुआ? यह भी कोई बात हुई कि तुमने कह दिया,
अगले जन्म में पाप किए थे, इसलिए दुख भोग रहे
हो! पिछले जन्म में पाप क्यों किए थे? और पिछले जन्म में किए
होंगे! और पिछले जन्म में किए होंगे! चलते चलो। तुम ज्ञानियों को थकाओ। तुम उनको
उस जगह ले आओ जहां वे नाराज होकर खड़े हो जाएं और कहें कि अतिप्रश्न हो गया!
गार्गी! सिर गिर जाएगा!! और मैं तुमसे कहता हूं, हर ज्ञानी
को तुम इस जगह पर ले आओगे, जहा याज्ञवल्ल आ गया, वहां दूसरे ज्ञानी न टिकेंगे—तुम जरा पूछते चलो।
मैं
छोटा था तो कहीं भी साधु—महात्माओं की सभा हो, पहुंच जाता था। तो एक उपद्रव होने
लगा। मुझे देखकर ही सभा के आयोजक बेचैन होने लगते कि यह कुछ न कुछ पूछेगा। फिर तो
महात्मा भी मुझे पहचानने लगे। वे कहते, वह छोकरा आ गया,
उसको बाहर करो!
एक
छोटे बच्चे के उत्तर नहीं दे पाते हो, कैसा महात्मापन है! एक छोटे बच्चे
को राजी नहीं कर पाते हो, समझा नहीं पाते हो, किसको समझाने चले हो! तो ऐसा लगता है, जो समझने को
बैठे हैं, वे समझने को वस्तुत: गहरे उत्सुक नहीं हैं;
वे किसी तरह की लीपापोती करने को उत्सुक हैं, समझा
लेना चाहते हैं, जल्दी में हैं; कुछ भी
मानने को राजी हो जाते हैं, कुछ भी कहो वे स्वीकार कर लेते
हैं, सिर हिला देते हैं कि ठीक होगा।
तुम
जरा अपनी इस वृत्ति को ठीक से समझो। जरा फिर से आंख. खोलकर देखो। यह कारण को पूछो
मत। कारण कहीं है नहीं। अस्तित्व अकारण है। और इसीलिए इतना सुंदर है। अकारण का
अर्थ यह होता है कि इसके होने के लिए कोई वजह न थी, बेवजह है। जब कोई चीज बेवजह
होती है, तो असीम होती है। जब कोई चीज बेवजह होती है,
तो उस पर कहीं भी कोई सीमा नहीं होती, हो नहीं
सकती। कारण सीमा बनाता है।
जरा
देखो, कहीं सीमा दिखायी पड़ती है इस अस्तित्व में? रूपांतरण
होता रहता है, सीमा कोई नहीं। रूप बदलते रहते हैं, खेल जारी रहता है। कारण होता तो कभी का चुक न गया होता! थोड़ा सोचो,
कितने अनंत काल से जगत है! यह कैसा कारण है जो अब तक चुक नहीं गया!
फिर कभी तो चुक जाएगा कारण। जब कारण चुक जाएगा तो जगत भी चुक जाएगा। तुम सोच भी
सकते हो, जगत चुक जाएगा? कुछ तो होगा।
ना—कुछ होगा, तो भी तो कुछ होगा। शून्य भी तो कुछ है!
इसलिए
मैं तुमसे एक गहरी बात कहता हूं? यहां कोई कारण नहीं है! ही, तुम्हें बिना कारण के जीना कठिन मालूम पड़ता हो—यह तुम्हारी मजबूरी है—तो
तुम कोई कारण पकड़ लो कि ईश्वर को खोजने के लिए जीवन है। पर बड़ा मजा यह है कि खोया
किसलिए है!
कुछ
लोग हैं, जो कहते हैं, ईश्वर को खोजने के लिए जीवन है। यह भी
बडा मजा है। तो यह ईश्वर प्रगट ही क्यों नहीं हो जाता, मामला
खतम करो! क्यों व्यर्थ लोगों को परेशान कर रहे हो! इनकी आंखों के आंसू उसे दिखायी
नहीं पड़ते? इनके जीवन का भयंकर दुख उसे दिखायी नहीं पड़ता?
इनका संताप दिखायी नहीं पड़ता? वे छिपे जा रहे
हैं! इन जनाब को भी खूब सूझी! हजरत अब तो बाहर आ जाओ! खूब रुला लिया इन लोगों को।
नहीं, जीवन इसलिए है कि ईश्वर को खोजो! मगर खोया कैसे?
कुछ कहते हैं, जीवन इसलिए है, सच्चरित्रवान बनो। कि दुश्चरित्रवान कैसे बने? ये सब
बातें हैं।
मैं
तुमसे कहता हूं जीवन बस जीवन के लिए है। होना होने के लिए है।
किसी
ने ई. ई. कमिंग से,
एक बहुत महत्वपूर्ण कवि से पूछा, तुम्हारी
कविताओं का अर्थ क्या है? उसने सिर ठोंक लिया अपना। उसने कहा,
फूलों से कोई नहीं पूछता कि तुम्हारा अर्थ क्या है! मैरी जान के
पीछे क्यों पड़े हो? चांद—तारों से कोई नहीं पूछता कि
तुम्हारा अर्थ क्या है! जब चांद—तारे बिना अर्थ के हो सकते हैं और फूल बिना अर्थ
के हो सकते हैं, तो मेरी कविता को अर्थ बताने की जरूरत क्या?
परमात्मा से क्यों नहीं पूछते कि तुम्हारा अर्थ क्या है? जब सारा अस्तित्व बिना अर्थ के है और बड़े मजे से है और कहीं कोई अड़चन नहीं
आ रही, तो मुझ गरीब के क्यों पीछे पड़ते हो? मुझे पता नहीं है।
कूलरिज
से, एक दूसरे महाकवि से, किसी ने पूछा कि तुम्हारी
कविताओं का अर्थ...! एक कविता उलझ गयी है और मैं सुलझा नहीं पाता हूं। उसने कहा कि
जब लिखी थी, दो आदमियों को पता था, अब
एक को ही पता है। पूछा कि वे कौन दो आदमी थे। उसने कहा, मुझे
और परमात्मा को पता था, जब लिखी थी; अब
उसको ही पता है। अब मुझे भी पता नहीं है। मैं खुद ही उससे पूछता हूं कि कुछ तो बोल,
इसका अर्थ क्या है!
तुम
मतलब समझ रहे हो?
मतलब साफ है। अर्थ पूछने की बात ही थोड़ी नासमझी से भरी हुई है। कोई
अर्थ नहीं है। इसको तुम यह मत समझ लेना कि जीवन अर्थहीन है। क्योंकि अर्थहीनता भी
अर्थ की ही तुलना में हो सकती है। यहां अर्थ है ही नहीं, तो
अर्थहीनता कैसे होगी? गरीबी, धन हो तो
हो सकती है; धन हो ही न तो गरीबी कैसे होगी! गरीबी के लिए
अमीरी होनी जरूरी है। अर्थहीनता के लिए अर्थ होना जरूरी है। यहां अर्थ है ही नहीं
तो अर्थहीनता कैसी! बस, है। अकारण। बेबूझ। यही इसका रहस्य
होना है।
इसलिए
तुम लाख सिर पटको,
उत्तर न पा सकोगे। सिर तोड़ लोगे अपना। हा, घबड़ा
जाओ सिर पटकते—पटकते और किसी भी उत्तर को बहाना बनाकर अपने को समझा लो—बात दूसरी
है।
जिनके पास उत्तर हैं, वे ऐसे
लोग हैं जिनकी खोज पूरी नहीं है। जिनके पास उत्तर हैं, वे
कमजोर लोग हैं, कायर हैं। जिनके पास उत्तर हैं, वे ऐसे लोग हैं जो खोज पर आगे न जा सके और जिन्होंने कहीं पड़ाव बना लिया
और कहा कि मंजिल आ गयी। थक गए!
मैं
थका नहीं हूं। मेरे पास कोई उत्तर नहीं है। मेरी कोई मंजिल बनाने की तैयारी नहीं
है। क्योंकि मैं मानता हूं,
यात्रा ही मंजिल है। मजे से चलो। कहीं पहुंचना थोड़े ही है; चलने में ही मजा है। पहुंचने की बात ही कमजोरी की सूचक है।
लोग
पहुंचने की बडी जल्दी में हैं। क्यों? तुम्हें इस रास्ते पर मजा नहीं आ
रहा है? तुम्हें चारों तरफ खिले फूल दिखायी नहीं पड़ते?
ये वृक्षों की छाया, ये हरियाली, ये पक्षियों के गीत, यह कलरव—इसमें तुम्हें मजा नहीं
आता? तुम कहते हो, हमें तो मंजिल पर
पहुंचना है।
तुमने कभी फर्क
देखा? तुम बाजार जाते हो, दुकान पहुंचना है; तब भी तुम उसी रास्ते से गुजरते हो, लेकिन तब न तो
वृक्ष दिखायी पड़ते, न सूरज दिखायी पड़ता, न पक्षियों के गीत सुनायी पड़ते—तुम जल्दी में हो, तुम्हें
कहीं पहुंचना है। फिर एक सुबह तुम घूमने निकलते हो, या साझ
घूमने निकलते हो; कहीं पहुंचना नहीं, घूमने
निकले हो, तफरीह के लिए; तब अचानक
तुम्हारे होने का गुणधर्म अलग होता है, तुम्हारे होने की कला
ही और होती है! तुम ज्यादा खुले होते हो। पक्षियों की आवाज भी सुनते हो, किसी वृक्ष के नीचे दो क्षण रुक भी जाते हो। कहीं पहुंचना नहीं है। किसी
पुलिया पर बैठ भी जाते हो, सुस्ता भी लेते हो। कहीं से भी
लौट पड़ते हो। कोई रेखा थोड़े ही है। कोई बंधन नहीं है। तब तुम्हें सूरज भी दिखायी
पड़ता है, पक्षियों से भी थोड़ा संबंध बनता है, घास की हरियाली भी दिखायी पड़ती है, खिले फूलों का
रंग भी मालूम होता है।
यही
रास्ता है, जिस पर तुम दुकान जाने के लिए भी जाते थे। यही रास्ता है, इस पर तुम मंदिर भी जा सकते हो। लेकिन मंदिर जाओ कि दुकान जाओ, बाजार जाओ कि प्रार्थनागृह में जाओ—अगर तुम कहीं जा रहे हो, तो यात्रा से चूक जाते हो; नजर तुम्हारी कहीं और लगी
है। यहां नहीं हो सकते। कहीं और हो, अनुपस्थित हो। और इस
अनुपस्थिति को ही मैं अधर्म कहता हूं यही मूर्च्छा है। होश का अर्थ है : अभी और यहां।
एक गीत तुमसे कहूं
:
यह
समय दुबारा लौट नहीं आएगा
भरना
है तो तुम मांग मिलन की अभी भरो
जब
तक श्यामा के मौन—महल का स्वभ—द्वार
खटकाए
आ राजा दिन के कोलाहल का
तब
तक उठ गागर में उंडेल लो गंगाजल
आंगन—छाए
इस बिना बुलाए बादल का
है
बड़ा निठुर निर्दयी समय का सौदागर
रखता
है नहीं उधार फूल मुट्ठीभर भी
पुरवाई
ऐसे फिर न झूमकर गाएगी
हरना
है तो तुम दाह जलन की अभी हरो
यह
समय दुबारा लौट नहीं आएगा
भरना
है तो तुम मांग मिलन की अभी भरो
अगर
विवाह रचाना हो तो अभी। प्रेम करना हो, अभी। गीत गाना हो, अभी। नाचना हो, अभी। प्रार्थना, पूजा, अभी। अगर जीना हो तो अभी। मरना हो तो कल भी हो
सकता है। मरने को कल पर टाला जा सकता है। कोई अभी मरता है? लोग
सभी कल मरते हैं। अभी तो जीना है। अभी तो जीवन है।
जब
मैं तुमसे कहता हूं,
अकारण जीयो, तो मैं कहता हूं, लक्ष्य मत बनाओ। क्योंकि लक्ष्य बनाया कि तुमने तैरना शुरू किया। तैरे कि
तुम धार से लड़े। जब मैं कहता हूं अकारण जीयो, तो मैं कहता
हूं बहो। धार से लड़ो मत। धार को दुश्मन मत बनाओ, दोस्ती साधो।
धार पर सवार हो जाओ। धार के साथ बहो। धार जहा ले जाए, चलो।
अपना कोई अलग से व्यक्तिगत लक्ष्य निर्धारित मत करो। नियति बूंद की क्या! होगी
सागर की कुछ, बूंद को प्रयोजन क्या! और मैं तुमसे कहता हूं
सागर की भी नहीं, क्योंकि सागर भी बूंदों का जोड़ है। जब बूंद
की ही नहीं, तो सागर की भी क्या होगी! सागर का गर्जन—तर्जन
सुनो—अभी है। तुम इस गहरी अभी को पहचानो। यह क्षण जो अभी मौजूद है, इसमें तुम डुबकी लो।
तब
तक उठ गागर में उंडेल लो गंगाजल
आगन—छाए
इस बिना बुलाए बादल का
यह
तुमने बुलाया भी न था,
बिना बुलाए आया है। यह जीवन तुमने मागा भी न था, बिना मागा मिला है। यह प्रसाद है। इसकी तुमने कोई कमाई भी न की थी;
यह तुम्हें यूं ही मिला है। धन्यवाद दो! कारण पूछते हो? सौभाग्य अनुभव करो! और तुम पर कोई कारण का बंधन नहीं है।
लेकिन
अहंकार कारण चाहता है। अहंकार कहता है, अगर कारण नहीं है, तो फिर मैं कैसे होऊंगा? मैं हो ही सकता है कारण के
आधार पर। अहंकार कहता है, यह न चलेगा, तैरूंगा।
अगर बहूंगा तो मैं तो गया।
तुम
जरा सोचो! नदी की धार में बह चले, जहां धार ले चली वहीं चले, धार डुबाए तो ठीक, धार बचाए तो ठीक—तो फिर तुम्हारा
अहंकार कहा रहेगा? अहंकार कहेगा, क्या
नामर्दगी करते हो, लड़ों! धार से उलटे बहो! मजा लो लड़ने का!
धार से हारे जा रहे हो! विजय करनी है! संघर्ष करना है! जूझना है!
डायलान
थामस का एक गीत है—अपने पिता की मृत्यु पर लिखा है—उसमें लिखा है, बिना जूझे
मत मरो। जूझो! लड़ो! यह जो अंधेरी रात आ रही है, बिना जूझे मत
समर्पण करो। लड़ो!
पिता
मर रहा है। यह आधुनिक आदमी का दृष्टिकोण है, या कहो पाश्चात्य दृष्टिकोण है,
वही आधुनिक आदमी का दृष्टिकोण हो गया है लड़ो—मौत से भी! ऐसे ही मत
समर्पण करो! अंधेरी रात आती है तो जूझो, ऐसे ही मत छोड़ दो।
आखिरी टक्कर दो! और यही कर रहा है आदमी। जीवनभर लड़ता है, मरने
लगता है तो भी लड़ता है। जीवन भी कुरूप हो जाता है, मृत्यु भी
कुरूप हो जाती है।
मैं
तुमसे कहता हूं,
लड़ो मत, बहो। लड़कर तुम हारोगे। बहो—तुम्हारी
जीत सुनिश्चित है। बहने वाले को कभी कोई हराया है? यही तो
लाओब्रे और बुद्धपुरुषों के वचन हैं—बहो!
तुम
लड़ना चाहते हो,
तुम धर्म के नाम पर भी लड़ना चाहते हो। तुमने धर्म के नाम पर जिनकी
पूजा की अब तक, अगर गौर से देखोगे तो लड़ने वालों की पूजा की
है, बहने वालों की नहीं। क्योंकि वहां भी अहंकार को ही तुम
सिंहासन पर रखते हो। कोई उपवास कर रहा है, तुम कहते हो,
अहा! महासंत का दर्शन हुआ। कोई धूप में तप रहा है, तुम झुके, फिर तुमसे नहीं रुका जाता। फिर चरण छुए,
तुमसे नहीं रुका जाता। धूप में तप रहा है! यही तुम भी चाहते हो कि
तुम भी कर सकते। तुम जरा कमजोर हो, लेकिन सोचते हो, कभी न कभी समय आएगा जब तुम भी टक्कर दोगे अस्तित्व को।
बहते
आदमी के तुम चरण छूकर प्रणाम करोगे? धूप से हटकर वृक्ष की छाया में शांति
से बैठा हो, उसे तुम नमस्कार करोगे? काटो
पर सोया आदमी नमस्कार का पात्र हो जाता मालूम पड़ता है। यही तुम्हारी भी आकांक्षा
है। तुम कहते हो, तुम जरा आगे हो, तुम
हमसे जरा आगे पहुंच गए, तुमने वह कर लिया जो हम करना चाहते
थे—कम से कम हमारा नमस्कार स्वीकार करो। हम भी यही आकांक्षा लिए जीते हैं। टक्कर
देनी है!
टक्कर
से अहंकार बढ़ता है। मैं हूं अगर लड़ता हूं। अगर नहीं लड़ता हूं मैं गया। और मैं
तुमसे कहता हूं धर्म का आधार सूत्र है : समर्पण।
इसलिए
तुमसे मैं कहता हूं,
कोई कारण नहीं है। तुम्हें मैं बड़ी अड़चन में डाल रहा हूं। बड़ा सुगम
होता, तुम्हें मैं कह देता, यह रहा
कारण, यह रहा नक्यत, यह है पहुंचने का
रास्ता—लड़ो। व्रत, उपवास, नियम! तुम
कहते, बिलकुल ठीक! चाहे तुम लड़ते, न
लड़ते, नक्यग़ सम्हालकर छाती से रख लेते—कभी जब आएगा अवसर,
लड़ लेंगे।
मैं
तुमसे कहता हूं,
कहीं कुछ लड़ने को नहीं हैं। जीवन को मित्र जानो। जीवन मित्र है। तुम
उसी से आए, किससे लड़ रहे हो? तुम उसी
में जन्मे, किससे लड़ रहे हो? तुम मछली
हो इस सागर की। यह सागर तुम्हारा है। तुम इस सागर के हो। तुम ये फासले छोड़ो,
दुई छोड़ो, लड़ने वाली बात छोड़ो। तुम इस सागर
में जीओ आनंद से, अहोभाव से। कहीं पहुंचना नहीं है। तुम जहां
हो, वहीं जागना है।
दूसरा प्रश्न:
अपने तीन स्वर्णपात्रों
वाली बोध कथा कहीं,
जिसमे उस शिष्य को स्वीकार किया जिसने स्वर्णपात्र के साथ सम्यक
व्यवहार किया था। लेकिन मैं तो उन दो शिष्यों जैसा हूं जिन्होंने स्वर्णपात्र को
या तो गंदा छोड़ दिया, या तोड़ दिया। फिर भी चंगँप्ल स्थ्य
ऑद्दि आधार पर स्वीकार किया मुझको? कृपया समझाएं।
मैं
यदि उस फकीर की जगह होता,
तो जिसे उसने स्वीकार किया था, उसे छोड़कर बाकी
दो को स्वीकार कर लेता। क्योंकि जिसे उसने स्वीकार किया था, वह
तो उसके बिना भी पहुंच जाएगा। और जिन्हें उसने अस्वीकार कर दिया, वे उसके बिना न पहुंच सकेंगे।
उसने
तो कुछ ऐसा किया कि जैसे चिकित्सक स्वस्थ आदमी को स्वीकार कर ले और अस्वस्थ को कह
दे कि तुम तो हो बीमार,
हम तुम्हें स्वीकार न करेंगे। लेकिन चिकित्सक का प्रयोजन क्या है?
वह बीमार के लिए है। स्वस्थ को अंगीकार कर लिया, बीमार को विदा कर दिया—यह कोई चिकित्साशास्त्र हुंआ! सुगम को स्वीकार कर
लिया। उस आदमी के साथ कोई अड़चन न थी। वह साफ—सुथरा था ही। कुछ करना न था। गुरु ने
अपनी झंझट बचायी। गुरु ने अपना दृष्टिकोण जाहिर किया कि मैं झंझट में नहीं पड़ना
चाहता।
मैं
कोई झंझट बचाने को उत्सुक नहीं हूं। झंझट आती हो तो मैं बहता हूं स्वीकार करता हूं।
जब झंझट खुद ही आ रही हो तो मैं इनकार करने वाला कौन! बड़े झझटी लोग आ जाते हैं
संन्यास लेने;
मैं कहता हूं लो! तुम्हें कोई और देगा भी नहीं। मेरे अतिरिक्त
तुम्हारा संन्यास संभव नहीं है। लेकिन मैं खुश हूं क्योंकि यही तो मजा है। उस गुरु
ने तो ऐसा किया जैसे कोई मोम की मूर्ति बनाता हो। यह कोई ज्यादा देर टिकने वाली
मूर्ति नहीं है—मोम की है, बड़ी सुगम है। मेरा रस पत्थरों में
मूर्ति खोदने में है। जो अपने से ही पहुंच जाएंगे उनको साथ देने का क्या प्रयोजन
है! जो
एम धम्मो सनंतनो
अपने से न पहुंच पाएंगे उनके हाथ में हाथ देने का कुछ अर्थ है, कुछ सार
है।
मैं तुमसे कहता
हूं वह व्यक्ति तो पहुंच ही जाता; उसके पास तो सूझ साफ थी, दृष्टि
स्पष्ट थी। उसके पास करने जैसा अब कुछ था नहीं बहुत, सब हुआ
ही था। जिन दो को इनकार कर दिया वे भी तलाश में थे, अन्यथा
आते नहीं। उन्हें इनकार करने में शोभा नहीं रही। गुरु गणितज्ञ था; होशियार तो था, लेकिन गुरु की शोभा खो गयी।
तो
तुम पूछते हो कि तुम्हें मैंने किस आधार पर स्वीकार किया है। तुम्हारा पूछना मेरी
समझ में आता है। तुम खुद ही अपने को स्वीकार नहीं करते हो और मैंने तुम्हें
स्वीकार किया है—इसलिए सवाल उठता है कि किस आधार पर!
मैं
तुमसे कहता हूं जब मैंने तुम्हें स्वीकार किया, तुम भी अपने को स्वीकार करो।
क्योंकि तुम्हारी स्वीकृति से ही तुम्हारा सूर्योदय होगा। जब तक तुम अपने से लड़ते
रहोगे, अपने को अस्वीकार करते रहोगे, निंदा
करते रहोगे ,.लब तक तुम कैसे रूपातरित होओगे? निंदा का अर्थ होता है, तुमने बांट दिया अपने को दो
खंडों में। एक हिस्से को कहा निंदित है और एक हिस्से को सिरताज बनाया। यह तुम ही
हो दोनों। जिसकी निंदा करते हो वह भी तुम्हीं हो, जो निंदा
कर रहा है वह भी तुम्हीं हो। अब यह जो तुमने द्वैत अपने भीतर खड़ा कर लिया, यह जो तुमने दो टुकड़े कर दिए अपने, यह तुम खंड—खंड
हो गए—अब तुम्हारे जीवन का सारा संगीत न खो जाए तो और क्या हो!
तो
मेरी पहली शिक्षा यह है कि तुम ये खंड समाप्त करो, निंदा छोड़ो! स्वीकार करो।
यह अस्वीकार लड़ना है। स्वीकार समर्पण है। मैं कहता हूं, राजी
हो जाओ, तुम जैसे हो। क्या करोगे? प्रभु
ने तुम्हें ऐसा बनाया।
तुम
जब अपनी निंदा कर रहे हो तब तुम समस्त की भी निंदा कर रहे हो। तुम कह रहे हो कि यह
मुझे ऐसा क्यों बनाया?
तुम्हारी शिकायत यह है कि तुम यह कह रहे हो कि मुझे किसी और ढंग का
बनाना था। मुझे बुद्ध क्यों न बनाया! महावीर क्यों न बनाया! यह मुझे तुमने क्या
बना दिया?
किससे शिकायत कर
रहे हो? वहां कोई भी नहीं, जो तुम्हारी शिकायत सुने। और किसी
ने बनाया थोड़े ही है। तुम हुए हो। कोई जिम्मेवार नहीं है। और परमात्मा ने तुम्हें
अपने से अलग थोड़े ही बनाया है, परमात्मा की तुम एक लहर हो।
तुम हुए हो। स्वीकार करो। अस्वीकार करने में कुछ सार नहीं है। अस्वीकार करके तुम
लड़ोगे, परेशान होओगे; व्यथित, बेचैन होओगे। जो क्षण सौभाग्य के हो सकते थे, दुर्भाग्य
के हो जाएंगे। और जहां महासंगीत पैदा हो सकता था, वहा तुम
वीणा की निंदा में ही पड़े—पड़े वीणा को तोड़ डालोगे। तोड़ो मत वीणा को। अगर तार थोड़े
ढीले हों, थोड़े कसो। तार बहुत कसे हों, थोड़े ढीले करो।
और
जो भी तुम हो,
यही तुम हो; इससे अन्यथा तुम हो नहीं सकते।
इसलिए किस बात की चाहना कर रहे हो? किस बात से तुलना कर रहे
हो? और मैं तुमसे कहता हूं? तुम जैसे
हो भले हो। यह अस्तित्व दोहराता नहीं। यह अस्तित्व बड़ा सृजनात्मक है. बड़ा मौलिक है।
इसीलिए तो राम फिर पैदा नहीं होते, कृष्ण फिर पैदा नहीं होते।
एक दफा इस अस्तित्व में जो पैदा हुआ—हुआ।
इसलिए
तो हमारे पास एक बड़ा महत्वपूर्ण दृष्टिकोण है और वह यह है कि जो पूरा हो गया, वह लौटता
नहीं। पूर्णपुरुष सदा के लिए खो जाता है। इसका क्या अर्थ हुआ? इसका अर्थ हुआ कि अब उसको लौटने की कोई जरूरत भी न रही। दोहरने का तो सवाल
ही नहीं है। यह अस्तित्व हर लहर को नया—नया ही बनाता है। ये कोई फोर्ड के कारखाने
से निकली कारें नहीं हैं कि लगा दो लाख कारें एक सिलसिले में एक जैसी। ये आदमी
हैं!
यहां
प्रकृति में कुछ भी दोहरता नहीं। तुम जरा जाओ, एक पत्ता तोड़ लो और ठीक उस जैसा
पत्ता तुम सारे पृथ्वी के जंगल छान डालो, न खोज पाओगे। ठीक
उस जैसा पत्ता न पा सकोगे। जाओ रास्ते पर, एक कंकड़ उठा लो।
ठीक इस जैसा कंकड़, तुम पृथ्वी और चांद—तारे सब खोज डालो,
तुम दुबारा न पाओगे। यह अस्तित्व दोहराता ही नहीं। यह अस्तित्व
मौलिक है। पुनरुक्ति नहीं करता। इसलिए तो इतना सुंदर है।
तुम
पुनरुक्ति नहीं हो किसी की। लेकिन तुम तुलना कर रहे हो; तुम कहते
हो, बुद्ध क्यों न बनाया! अब तुम मुश्किल में पड़े। अब जो
हिस्से तुम्हें बुद्ध जैसे नहीं मालूम पड़ते, उनकी तुम निंदा
करते हो; और जो हिस्से बुद्ध जैसे मालूम पड़ते हैं, उनके द्वारा निंदा करते हो। अब तुमने अपने को बांटा। तुम एक न रहे। और तुम
एक ही हो। तुम अपने को बांट न सकोगे। जो खून तुम्हारे पैर में बहता है वही
तुम्हारे मस्तिष्क में बहता है; तुम कहीं बीच में धारा को
काट न सकोगे। अखंड हो तुम। जुड़े हो, एक हो। इकाई हो।
निंदा
छोड़ो! निंदा द्वैत में ले जाती है; स्वीकार अद्वैत में। और जब तुम
अपने भीतर ही अद्वैत को न पा सकोगे तो और कहां पाओगे? इस
छोटी सी तुम्हारी जीवन की धारा में तो अद्वैत को साध लो! फिर वही दृष्टिकोण फैला
लेना सारे अस्तित्व पर। जो अपने में पा लेता है अद्वैत को, वह
अचानक सब में अद्वैत को देखना शुरू कर देता है।
मैं
समझता हूं, तुम्हारा प्रश्न उठता है तुम्हारी गहरी आत्मनिदा से। और तुम्हें तथाकथित
धर्मगुरुओं ने यही सिखाया है—पापी हो, निंदित हो, नरक जाने योग्य हो! सुन—सुनकर उनकी बातें तुम्हें भी जंच गयी हैं। बार—बार
सुनने से तुम्हारे मन में भी बैठ गयी हैं। बार—बार पुनरुक्ति से झूठ भी सच हो गए
हैं।
मैं
तुमसे कहता हूं न तुम पापी हो, न तुम नर्क में जाने योग्य हो। नर्क में जाने
योग्य होते तो नर्क में होते। पापी होते तो यहां कैसे होते! पापी तुम नहीं हो।
तुम-तुम हो। किसी भी तुलना से अड़चन में पड़ोगे।
सभी
तुलनाएं झंझट का कारण बन जाती हैं। अगर तुमने मान लिया कि तुम्हारी नाक को तुलना
करनी है किसी की लंबी नाक,
तुम्हारी छोटी —अब क्या करना! किसी की छोटी, तुम्हारी
बड़ी—अब क्या करना! कोई नाक का मापदंड थोड़े ही है। सब नाके योग्य हैं, सुंदर हैं; उनसे श्वास लेने का काम हो जाता है,
बस काफी है। लेकिन तुमने अगर आधार बना लिया कि लंबी नाक, तो तुम्हारी छोटी अड़चन में पड़े! छोटी है तो लंबी दिखायी पड़ने लगी किसी की,
अब अड़चन में पड़े। तुम पांच फीट छह इंच हो, कोई
छह फीट है—अड़चन में पड़े।
तुम
ऐसी तुलना रोज कर रहे हों—कोई गोरा है, तुम काले हो; कोई बड़ा प्रतिभाशाली है, तुम साधारण हो; कोई बड़ा पुण्यात्मा है, तुम बड़े पापी हो—तुम तुलना
में पड़े हो। तुलना दुख का कारण है। मैं तुमसे कहता हूं तुलना छोड़ो। तुम तुम हो।
तुम किसी जैसे नहीं हो। तुम अंगीकार करो अपने को, आलिंगन करो
अपने को। उसी से तुम्हारा विकास होगा।
और
मैं तुमसे कहता हूं,
जिसने अपने को पूरा स्वीकार किया, तन्धण
क्रांति शुरू हो जाती है। क्योंकि पूरी स्वीकृति में तुम्हारी सारी की सारी ऊर्जा
मुक्त हो जाती है खंडों से। तुम्हारे भीतर संगीत बजने लगता है।
इस
जगत में जो लोग भी परमबोध को उपलब्ध हुए हैं, वे वे ही लोग हैं जिन्होंने अपने
को परिपूर्ण रूप से अंगीकार कर लिया। बुद्ध कोई चेष्टा न कर रहे थे कि राम जैसे हो
जाएं, और न कृष्ण चेष्टा कर रहे थे कि राम जैसे हो जाएं। ऐसी
चेष्टा करते होते तो वैसे ही भटकते जैसे तुम भटक रहे हो। बुद्ध ने अपने होने को
खोजा। कृष्ण ने अपने होने को खोजा। तुम भी अपना होना खोजो।
और यह मैं तुमसे
इसलिए कहता हूं कि जिस दिन मैंने अपने जीवन में तुलना छोड़ी, उसी दिन
मैंने पाया। जब तक तुलना थी, अडचन रही। जिस दिन मैंने अपने
को स्वीकार किया, उसी दिन मैंने एक गहरा सूत्र पाया—सभी को
स्वीकार करने का। तब से मैंने किसी की निंदा नहीं की। कोई भी मेरे पास आया है,
वह वैसा है, निंदा की बात क्या है!
इसलिए
मैंने तुम्हें स्वीकार किया, क्योंकि मैं अपने को स्वीकार करता हूं। तुम
पूछते हो, क्यों? इसलिए मैंने तुम्हें
स्वीकार किया है, क्योंकि मैं अपने को स्वीकार करता हूं। अगर
तुम्हारी यही मौज है कि तुम पात्र को गंदा रखो, तो मुझे यह
भी स्वीकार है। आखिर तुम अपने मालिक हो। पात्र तुम्हारा है। अगर तुम्हें मक्खियों
में रस है, आशीर्वाद! और मैं क्या कर सकता हूं! अगर तुम ही
रस ले रहे हो अपने पात्र को गंदा रखने में, तो तुम अपने
मालिक हो। कोई और तुम्हारे ऊपर नहीं है। मै कम से कम तुम्हारे ऊपर बैठता नहीं।
यहां
मैं तुम्हें साथ दे सकता हूं मित्र की तरह, तुम्हारा मालिक नहीं हूं। तुम मेरे
गुलाम नहीं हो। तुम्हें मेरी छाया नहीं बननी है। अगर तुम मेरे हाथ का सहारा भी
लेते हो तो वह भी तुम्हारी मौज। तुम लेते हो तो मैं खुश हूं तुम न लो तो भी मैं
खुश हूं क्योंकि तुम्हारी मौज में मैं किसी तरह की बाधा नहीं डालना चाहता।
इसलिए
मैं तुम्हारे ऊपर कोई अनुशासन आरोपित नहीं करता हूं। न मैं तुमसे कहता हूं? ऐसा करो,
न मैं तुमसे कहता हूं वैसा करो। मैं कहता हूं जहां से तुम्हें मौज,
जहां से तुम्हें सुख के स्वर सुनायी पड़ते हों, वैसा करो। तुम्हारे सुख का मैं कैसे निर्णायक हो सकता हूं! मैं हूं कौन,
जो तुम्हारे बीच में आऊं? तुमने अगर मुझे अपने
पास खड़े रहने का मौका दिया, तुम्हारी कृपा है; लेकिन तुम्हारे जीवन के बीच में नहीं आ सकता, तुम्हारी
राह में नहीं आ सकता। तुम अगर मुझसे कुछ सीख लो, तुम्हारी
मौज है; लेकिन मैं तुम्हें मजबूर नहीं कर सकता कुछ सीखने को।
तुम अपनी मौज से मेरे पास आते हो, मुझे स्वीकार है। कोई आ
जाता है तो स्वीकार है, कोई चला जाता है तो स्वीकार है।
चार—पांच दिन पहले
एक युवती आयी। उसने यूरोप से नाम मांगा था, संन्यास मांगा था, उसे पहुंचा दिया था। कभी आयी नहीं थी, कभी मुझे देखा
नहीं था, कोई पहचान न थी। आयी फिर, कहने
लगी कि मैं तो कुछ बेचैनी अनुभव करती हूं संन्यास में, कुछ
बंधा—बंधापन मालूम पड़ता है। तो मैंने कहा, तू माला वापस कर
दे। संन्यास तो तुझे मुक्त करने को है, बाधने को नहीं है।
वह
थोड़ी घबडायी,
क्योंकि उसने यह कभी सोचा न था। उसने सोचा होगा, मैं समझाऊंगा, बुझाऊंगा कि ऐसा कभी नहीं करना। मैंने
कहा, तू देर मत कर अब। वह कहने लगी, मुझे
सोचने का मौका दें। मैंने कहा, तू फिर सोच लेना, माला अभी तू छोड़; क्योंकि बंधी—बंधी सोचेगी भी तो
सोचना भी तो पूरा न हो पाएगा। तू मुक्त होकर सोच और यह माला तेरे लिए प्रतीक्षा
करेगी, जब तू सोच ले, और सोच ले ठीक से
और पाए कि तेरी स्वतंत्रता में बाधा नहीं है, फिर ले लेना।
तू अगर एक हजार एक बार आएगी और लौटाकी और वापस आएगी, तो भी
मुझे कोई अड़चन नहीं है। मगर बेमन से, जरा सी भी अड़चन तेरे मन
में हो रही हो, तो मैं खिलाफ हूं। मैं तुझे अड़चन दूं यह
मुझसे न होगा।
वह
तो बहुत घबड़ाने लगी। वह तो कहने लगी कि यह तो.? आप मुझे इतनी स्वतंत्रता दे रहे
हैं कि मैं यह भी छोड़ दूं!
इतनी
ही स्वतंत्रता है। स्वतंत्रता का अर्थ ही होता है कि अगर मेरे विपरीत जाने की
स्वतंत्रता न हो तो क्या खाक स्वतंत्रता है! और जब मैं तुम्हें मुझसे विपरीत जाने
की भी स्वतंत्रता देता हूं,
फिर भी अगर तुम मेरे पास हो, तो उस होने में
कुछ गौरव है। अगर वह स्वतंत्रता ही न हो, सारा गौरव समाप्त
हो गया।
तो
उस गुरु की वह जाने। मैं ऐसा न कर पाता। इससे तुम यह मत सोचना कि मैं उसकी निंदा
कर रहा हूं। इतना ही कह रहा हूं कि मैं मैं हूं वह वह है। उस गुरु की वह जाने। जो
उसे ठीक लगा,
उसने किया। जो उसके स्वभाव के अनुकूल पडा, उसने
किया। कहीं मैं यह नहीं कह रहा हूं कि उसने गलत किया। अपना—अपना ढंग है।
हैं
और भी दुनिया में सुखनवर बहुत अच्छे
कहते
हैं कि गालिब का है अंदाजे—बया और
सुखनवर
तो और भी बहुत अच्छे—अच्छे हैं। गीत गाने वाले तो बहुत हैं। कहते हैं कि गालिब का
है अंदाजे—बया और
अपने—अपने
अंदाज हैं।
तो
मैं यह नहीं कह रहा हूं कि उस गुरु की कोई निंदा है मेरे मन में। जो उसने किया, उसने किया।
जो उससे हो सकता था, हुआ। यही उसे स्वाभाविक रहा होगा,
यही सहज था। जो मुझे सहज है, मैं कर रहा हूं।
इस
बात को मैं तुम्हें कितने ढंग से कहूं कि मेरे मन में तुलना नहीं है। और तुम्हारे
मन में तुलना है। इसलिए बड़ी चूक होती है। जब भी मैं कुछ कहता हूं तुम तुलनात्मक
ढंग से सोचने लगते हो।
जब
मैं बुद्ध पर बोलता हूं तो मैं कहता हूं, अहा! ऐसे वचन तो कभी किसी ने कहे
ही नहीं! अब तुम मुश्किल में पड़े। क्योंकि यही मैंने महावीर पर बोलते हुए भी कहा
था, कि ऐसे वचन तो किसी ने कभी कहे ही नहीं। और यही मैंने
कृष्ण पर बोलते हुए कहा था। अब तुम मुश्किल में पड़े! अब तुम कहने लगे, यह तो विरोधाभास हो गया। अगर कृष्ण ने ऐसे वचन कहे थे कि जो किसी ने न कहे,
तो फिर यही वचन बुद्ध के संबंध में नहीं कहना चाहिए।
तुम
तुलना कर रहे हो। मैं तुलना नहीं कर रहा हूं। मैं जब बुद्ध के वचनों की बात कर रहा
हूं तो बुद्ध के अतिरिक्त और कोई मेरे खयाल में नहीं है। जब मैं कहता हूं ऐसे वचन
किसी ने नहीं कहे,
तो मैं सिर्फ बुद्ध के वचनों के आनंद से तरोबोर हूं डूबा हूं। अभी
तुम कृष्ण की बात भी मत उठाना, नहीं तो कृष्ण मुश्किल में पड़ेंगे।
अभी तुम महावीर को बीच में ही मत लाना, मैं उनको हटा दूंगा
रास्ते से। जब महावीर की मैं बात कर रहा हूं? तब मैं उनमें
डूबा हूं।
तुम
मेरी बात को समझने की कोशिश करो। जब मैं गौरीशंकर के पास खड़ा हूं तो मैं कहता हूं
अहा! ऐसा कोई पर्वत—शिखर नहीं। इससे तुम यह मत समझना कि मैं यह कह रहा हूं कि
दूसरे पर्वत—शिखर इस पर्वत—शिखर के सामने फीके हैं। यह मैं कह ही नहीं रहा। मैं
इतना ही कह रहा हूं कि यह पर्वत—शिखर इतना सुंदर है कि ऐसे पर्वत—शिखर हो ही कैसे
सकते हैं! यही मैं कंचनजंघा के सामने भी खड़े होकर कहूंगा। क्योंकि होगा गौरीशंकर
ऊंचा बहुत, ऊंचाई से कहीं कुछ सब ऊंचाइयां थोड़े ही होती हैं! सौंदर्य और भी हैं!
तुम
मेरे वक्तव्यों को तुलना मत बनाना। मेरे वक्तव्य आणविक हैं। एक—एक अलग—अलग हैं।
तुम मेरे वक्तव्यों की माला मत बनाना। एक—एक मनका अलग—अलग है। और एक—एक मनका इतना
सुंदर है कि मैं अभिभूत हो जाता हूं। तो कल जब इस फकीर की बात कर रहा था, तब तुमने
सोचा होगा, कि फकीर ने बिलकुल ठीक किया। क्योंकि मैं डूबा था
बिलकुल। मैं फकीर के स्वभाव के साथ लीन हो गया था। आज जब तुमने मेरा सवाल पूछा तो
मुझे मेरी याद आयी। तो अब मैं तुमसे कहता हूं—
हैं
और भी दुनिया में सुखनवर बहुत अच्छे
कहते
हैं कि गालिब का है अंदाजे—बया और
क्यों
मैंने तुम्हें स्वीकार किया ' क्योंकि स्वीकार मेरा आनंद है।
इसे
भी तुम समझ लो। तुम्हारे कारण स्वीकार नहीं किया है, अपने कारण स्वीकार किया है।
साधारणत: लोग स्वीकार करते हैं तुम्हारे कारण। वे कहते हैं, तुम
सुंदर हो, इसलिए स्वीकार करते हैं; तुम
सुशील हो, इसलिए स्वीकार करते हैं; तुम
संतुलित हो, इसलिए स्वीकार करते हैं; तुम
संयमी हो, इसलिए स्वीकार करते हैं। यह बात ही नहीं है।
स्वीकार करना मेरा स्वभाव है, इसलिए स्वीकार करता हूं। तुम कैसे
हो, यह हिसाब लगाता ही नहीं।
कौन
माथापच्ची करे कि तुम कैसे हो! कौन समय खराब करे! मेरा प्रयोजन भी क्या है कि तुम
कैसे हो! यह तुम्हीं सोचो! मैं तुम्हें स्वीकार करता हूं। यह स्वीकार बेशर्त है।
इसमें कोई शर्त नहीं है कि तुम ऐसे हो तो स्वीकार करूंगा, तुम ऐसे
हो तो स्वीकार करूंगा। और जब मैं तुम्हें बेशर्त स्वीकार करता हूं? तो मैं तुम्हें एक शिक्षण दे रहा हूं कि तुम भी अपने को बेशर्त स्वीकार
करो।
जरा देखो, जब मैंने
तुम्हे स्वीकार कर लिया तो तुम क्यों अड़चन डाल रहे हो? तुम
तो अपने मुझसे ज्यादा करीब हो। जब मैंने भी बाधा न डाली तुम्हें स्वीकार करने में,
कोई मापदंड न बनाया, तो तुम क्यों.?
एक
गीत मै पढ़ता था कल—
चुकती
जाती है आयु,
किंतु
भारी
होती जाती गठरी
मन
तो बेदाग, मगर तन की
चादर
में लाख लगीं किसि
धर
दी संतों ने तो जैसी
की
तैसी उमर—चदरिया यह
पर
मैं दुर्बल इंसान,
कहा तक
रक्य
इसे साफ—सुथरी
बचपन
ने इसे भिगो डाला
यौवन
ने मैला कर डाला
अब
जाने कब रंगरेज मिले
चूनर
निष्काम कहौ पर हो!
मैं
तो रंगरेज हूं। मुझे बिलकुल फिकर ही नहीं कि तुम्हारी गंदी है चदरिया कि नहीं है
गंदी, रंग देता हूं। यह गेरुआ रंग! अब अगर रंगरेज भी फिकर करने लगे कि धोयी है
कि नहीं धोयी है कौन फिकर करे! यहां तो रंग तैयार रखा है, तुम
आओ, डुबाया! यह तुम पीछे समझ लेना कि सफाई करनी कि नहीं करनी।
तीसरा प्रश्न
भगवान,
शासकीय
सेवा में हूं।
चार
दिन के विश्राम में यहां आया था,
बोधि—दिवस
को।
सिर
पर हिमालय सा बोझ लिए
बुद्धि
के सहारे यहां पहुंचा था।
प्याला
पिया।
हिमालय
गल गया संताप का,
हो
गया शांत।
भल
गया लौटना। किंतु हिसाब किया बुद्धि ने—
घर
का क्या होगा?
परिवार
का क्या होगा?
झट
से बोल उठा हृदय :
खो
जा, गोता लगा जा प्रिय के सागर में!
इस
तरह जी रहा हूं,
मन
में बड़ा द्वंद्व है,
कृपया
मार्गदर्शन करें!
ठीक
किया। रुक गए तो अच्छा किया। ऐसे क्षण कभी—कभी जीवन में आते हैं, जब सागर
करीब होता है और डुबकी लग सकती है। ऐसे क्षण मुश्किल से कभी आते हैं, जब तुम्हें सागर दिखायी पड़ता है और डुबकी लगाने की प्रगाढ़ आकांक्षा उठती
है। ऐसे क्षणों में सब हिसाब—किताब छोड़ देना जरूरी है।
लेकिन, अब डुबकी
लग गयी, अब घर जा सकते हो। क्योंकि अगर सागर का मोह बन जाए,
तो यह डुबकी न हुई, यह फिर नया संसार हुआ।
मुझमे डूबो, लेकिन अगर डुबकी ठीक से लग गयी, तो फिर तुम कहीं भी जाओ, मुझमें डूबे रहोगे। अगर कभी—कभी
धूल—धवांस जम जाए, फिर आ जाना, फिर
डुबकी लगा लेना। लेकिन अब सागर के किनारे ही बैठ जाने की कोई जरूरत नहीं है। घर—द्वार
है, परिवार है बच्चे हैं, वहां भी
परमात्मा है—इतना ही जितना यहां है।
तो
मैं तुम्हें कहीं से भी तोड़ना नहीं चाहता। परमात्मा से तो जोड़ना चाहता हूं लेकिन
कहीं से तोड़ना नहीं चाहता। इस बात को मैं जितने जोर देकर कह सकूं कहना चाहता हूं।
मैं तुम्हें संसार से तोड़ना नहीं चाहता और मैं तुम्हें संन्यास से जोड़ना चाहता हूं।
जो संन्यास संसार से तोड़ने पर निर्भर हो, वह संसार के विपरीत होगा, अधूरा होगा; अपंग होगा, अपाहिज
होगा।
इसलिए
तुम्हारे तथाकथित संन्यासी अपाहिज हैं, लंगडे—लूले हैं; तुम पर निर्भर हैं; तुम्हारे इशारों पर चलते हैं। अब
यह बड़े मजे की बात है, गृहस्थी चलाते हैं संन्यासियों को,
उनको इशारा देते हैं।
मेरे
पास अगर कभी कोई संन्यासी मिलने आता है, तो पूछना पड़ता है अपने श्रावकों से
कि मिल लूं? अगर वे ही कहते हैं, ठीक?
न कहते हैं तो नहीं आ पाते।
जैन—मुनि
मुझे मिलने आना चाहते हैं;
कभी आ भी जाते हैं चोरी—छिपे, तो वे कहते हैं,
श्रावक आने नहीं देते। श्रावक! संसारी आने नहीं देते। यह खूब
संन्यास हुआ! और ये सोचते हैं कि उन्होंने संसार का त्याग कर दिया है। जिन पर तुम
निर्भर हो, उनका तुम त्याग कर कैसे सकोगे? कहीं से रोटी तो मांगोगे! रोटी में ही छिपी जंजीरें आ जाएंगी। कहीं से
कपड़ा तो मांगोगे! कपड़े में ही कारागृह आ जाएगा। कहीं रात ठहरने की जगह तो मांगोगे!
सुबह पाओगे, पैरों में जंजीरें पड़ी हैं।
इसलिए
मैं तुमसे कहता हूं अपाहिज संन्यासी मुझे बनाने नहीं। जब संन्यासी को भी संसार पर
निर्भर रहना पड़ता है,
तो यही बेहतर होगा कि संन्यासी संसारी रहे। कम से कम मुक्त तो रहोगे।
मेरा संन्यासी कम से कम मुक्त तो है, किसी पर निर्भर तो नहीं;
अपनी नौकरी करता है, अपनी दुकान करता है,
बच जाते हैं जो क्षण परमात्मा की भक्ति में, सत्य
के गुणगान में, ध्यान में लगा देता है। कम से कम किसी पर
निर्भर तो नहीं है। किसी के ऊपर बोझ तो नहीं है। किसी दूसरे से आशा तो नहीं मांगनी
है। मुक्त तो है।
मैं
तुम्हें तोड़ना नहीं चाहता। तुम जहां हो, वहीं तुम्हें संन्यासी होना है।
तुमने
सागर में डुबकी लगा ली,
अब तुम जाओ! लौट जाओ घर! जो रस तुम्हें मिला है, उसे साथ ले जाओ। यह रस कुछ बाहर का नहीं है, जो यहां
से चले जाने से छूट जाएगा। अगर यहां से चले जाने से छूट जाए तो यहां रहकर भी क्या
फायदा! यह तो धोखा होगा।
इसलिए
मैं कहता हूं मेरे संन्यासियों को : आओ, जाओ! ही, कभी—कभी
ऐसा लगे कि फिर एक झलक लेनी है, फिर एक गहराई में उतरना है—फिर
आ जाना।
लेकिन
सदा खयाल रखना कि जो गहराई भी तुम्हें मिले, उसे संसार में जाकर सम्हालना है।
जो ध्यान तुम्हें लगे, उसे बाजार में सम्हालना है। किसी न
किसी दिन तुम्हारी दुकान ही तुम्हारा मंदिर हो जाए, यह मेरी आकांक्षा
है।
अच्छा
किया, रुक गए। उस क्षण भाग जाते तो बुरा होता।
जीना
है तो पीकर जी
पीना
है तो जीकर पी
पी
की नजरें घोल के पी ले
जय
साकी की बोल के पी ले
मगर
फिर जाओ। फिर जब वहा समय मिल जाए, वहा भी आंख बंद कर लेना और डुबकी लगा लेना। जब
ऐसा लगे कि अनुभव थोड़ा हाथ से छूटने लगा, फिर आ जाना। फिर
मुझमें स्नान कर लेना। लेकिन आखिरी खयाल में यही बात रहै कि एक दिन ऐसी घड़ी लानी
है कि तुम जहा हो वहीं डुबकी लगा त्रको, यहां आने की जरूरत न
रह जाए। ठीक है थोड़े समय आना—जाना। मुझसे भी मुक्त हो जाना जरूरी है। बीमारी से
मुक्त हुए, फिर औषधि से बंध गए—वह भी बुरा है। बीमारी से
मुक्त हुए, फिर आहिस्ता—आहिस्ता औषधि की मात्रा कम करते जाना
है, फिर उससे भी मुक्त हो जाना है।
तुम
जिस दिन परम मुक्त हो,
तुम जिस दिन तुम हो, बस उसी दिन काम पूरा हुआ।
फिर उस दिन दूसरे तुम्हारे पास आकर तुममें डुबकी लगाने लगेंगे।
तो मैं तो एक
श्रृंखला पैदा करना चाहता हूं। मेरी ज्योति से तुमने अपनी ज्योति जला ली, फिर ठीक
है; कभी—कभी धीमी पड़ जाए, लौट आना। फिर
उकसा लेना। फिर ताजा कर लेना। कभी जोश गिर जाए, उत्साह खो
जाए, धुन दूर सुनायी पड़ने लगे, हाथ से
धागे छूटते मालूम पड़े, लौट आना। लेकिन धीरे—धीरे जब तुम्हारी
ज्योति जलने लगे, तुम्हारे घर में उजेला हो, तो यहां आने की कोई जरूरत नहीं; दूसरे तुम्हारे पास
आने लगेंगे, फिर उनकी ज्योति जलाना।
ज्योति
से ज्योति जलाता चल!
इसलिए
किसी तरह का द्वंद्व खड़ा मत करो। मैं द्वंद्व खड़ा नहीं करना चाहता, विसर्जित
करना चाहता हूं। यहां मोह मत बनाओ। मोह से तो द्वंद्व खड़ा होगा। फिर बच्चे वहां
तड़फेंगे तो उनकी पीड़ा; फिर पत्नी दुखी होगी, उसकी पीड़ा; फिर परिवार है, मां
है, पिता हैं, वृद्ध हैं, उनकी पीड़ा! नहीं, मुझे बुद्ध और महावीर का ढंग कभी
जंचा नहीं। हजारों घर उदास हो गए थे। हजारों पलिया जीते जी, पति
के जीते जी विधवा हो गयीं! हजारों बच्चे बाप के जीते जी अनाथ हो गए। मुझे वह ढंग
कभी जंचा नहीं। उसमें मुझे कहीं भूल मालूम पड़ती रही है।
इसीलिए
अगर बुद्ध और महावीर उखड़ गए और इस जीवन की गहराई में उनकी छाया न पड़ी—स्वाभाविक है।
बात ही ऐसी थी कि पड़ नहीं सकती थी। जीवन के विपरीत जाकर तुम उखड़ ही जाओगे, ज्यादा
देर चल नहीं सकता।
ठीक
है, बुद्ध के प्रभाव में हजारों लोग संन्यस्त हो गए, घर—द्वार
छोड़ दिए। संन्यास का मामला था। अगर किसी और कारण घर—द्वार छोड़ते तो लोग भी निंदा
करते; अब धर्म का मामला था, लोग भी
निंदा न कर सके। पलिया आंसू पीकर रह गयीं; रो भी न सकीं,
रोने की भी स्वतंत्रता न थी। यह पति मर जाता तो रो लेतीं। यह पति
चोर हो जाता, बेईमान हो जाता, भाग जाता,
भगोड़ा हो जाता, तो रो लेतीं। यह भी उपाय न बचा।
यह संन्यस्त हो गया। घूंट पीकर रह गयीं। बच्चों की आंखों में आंसू सूखकर रह गए।
हजारों घर—परिवार बर्बाद हुए। जहां रौनक थी, बेरौनकी आ गयी। जहा
घर सजे थे, वहा खंडहर हो गए। यह ज्यादा दिन चल नहीं सकता था।
मैं
पक्ष में नहीं हूं। मैं कहता हूं, मेरे कारण अगर तुम्हारे घर में थोड़ी रौनक आ जाए,
तो ही बात ठीक है; घट जाए रौनक तो मैं
तुम्हारा दुश्मन साबित हुआ।
जाओ!
कभी—कभी आ गए! और तुम तब पाओगे कि तुम्हारी पत्नी और बच्चे मेरे विपरीत न होंगे।
अगर तुम यहां से प्रेम ले जाते हो, मुझमें डूबकर जाते हो और ज्यादा
प्रेमपूर्ण होकर लौटते हो, तो वे तुम्हारे विपरीत न होंगे।
बुद्ध
और महावीर के प्रभाव के कारण संन्यास के प्रति कितना ही ऊपरी सम्मान हो, भीतर बड़ी
गहरी चोट पड़ गयी भारत में। संन्यास का नाम सुनते ही पत्नी घबड़ा जाती है, मा घबड़ा जाती है, बाप घबड़ा जाता है। मेरे संन्यास के
नाम से भी घबड़ा जाता है, क्योंकि उसको तो खयाल पुराना ही है।
संन्यास! किसी और का लड़का ले, तो पैर छू आता है जाकर। अपना
लड़का! यह तो बर्बादी हो जाएगी। संन्यास शब्द विकृत हो गया। उस शब्द में जहर घुल
गया।
मेरे
पास आ जाती हैं पत्नियां। वे कहती हैं, आप यह क्या कर रहे हैं, हमारे पति को संन्यास दे रहे हैं! उनका कसूर नहीं। ढाई हजार साल हो गए
बुद्ध—महावीर को, फिर हजार साल हो गए शंकराचार्य को, उन्होंने जो चोट पहुंचायी, वह अभी तक भी घाव हरा है,
वह बुझा नहीं। पत्नी घबडाती है कि आप यह क्या कर रहे हैं, मेरे पति को संन्यास दे रहे हैं!
ऐसा
पूना में एक युवक ने संन्यास ले लिया। उसकी मां, उसके बाप आए। बाप तो किसी
तरह बैठे रहे, आंख से आंसू बहते रहे, मां
तो लोटने लगी। मैंने उससे कहा भी कि तू सुन भी तो! यह संन्यास कोई ऐसा संन्यास
नहीं जैसा तू सोचती है। वह कहती है, मुझे सुनना ही नहीं। आप
मुझसे कुछ कहिए ही मत। कहीं ऐसा न हो कि आप मुझे राजी कर लें, मुझे सुनना ही नहीं। बस आप माला वापस ले लो। मेरे लड़के को मुझे वापस दे दो।
मैं
समझता हूं। इसके रोने में,
इसके जमीन पर लोटने में बुद्ध और महावीर का हाथ है, शंकराचार्य का हाथ है। मैंने उसके लड़के का संन्यास वापस ले लिया। मैंने
कहा, तू फिकर मत कर। मगर इसमें कसूर उसका नहीं है, इसमें बडे—बड़े हाथ हैं।
मेरा
संन्यास ऐसा संन्यास नहीं है। मेरा संन्यास विधायक है। तुम जहां हो वहीं तुम्हें
सुंदर और सुंदरतम होते जाना है। जहां हो, वहीं तुम्हें प्रेमपूर्ण और
प्रेमपूर्ण होते जाना है। तुम जहां हो, जो तुम कर रहे हो,
उससे तुम्हें उखाड़ना नहीं। तुम्हारी भूमि से तुम्हारी जड़ें तोड़नी
नहीं। और तुम्हारी छाया में जो जी रहे हैं, उनकी छाया छीननी
नहीं। इसलिए जाओ!
आखिरी प्रश्न
चेतना
और चैतन्य ने पूछा है। आपके स्वास्थ्य को देखकर हमारे हृदय द्रवित हो जाते हैं। इस
परिस्थिति में विधायक दृष्टि साथ नहीं दे पाती। कृपया राह बताएं!
स्वभाविक
है मुझसे लगाव बनता है तो मेरे शरीर से भी लगाव बन जात है। क्योकि अभी तुम्हें
यह कठीन है। क्योंकि अभी तुम अपने भीतर भी अपने में और अपने शरीर में फासला नहीं
कर पाए हो। जो तुम्हारे भीतर नहीं हुआ है, वह तुम मेरे भीतर भी न कर पाओगे।
गणित सीधा—साफ है। एक ही उपाय है कि तुम अपने भीतर शरीर में और अपने में फासला
करना शुरू करो।
मैं
बिलकुल स्वस्थ हूं। शरीर के संबंध में कुछ नहीं कह सकता—मेरे संबंध में कहता हूं, मैं
बिलकुल स्वस्थ हूं। लेकिन शरीर के अपने नियम हैं। शरीर का अपना ढंग—ढांचा है। वह
अपनी राह चलेगा। और शरीर को मरना है, तो रुग्ण रह—रहकर वह
अभ्यास करेगा। उसे जाना है, उसे विदा होना है। तो वह अचानक
तो विदा नहीं हो सकता। धीरे—धीरे क्रमश: विदा होगा।
मुझे
देखो। शरीर को भूलो। शरीर से ज्यादा मोह मत बनाओ। बनता है, स्वाभाविक
है। उसकी निंदा नहीं है। लेकिन अपने को जगाओ। क्योंकि तुम्हारे मोह बनाने से सिर्फ
दुख होगा तुम्हें।
किसके
रोने सै कौन रुका है कभी यहां
जाने
को ही सब आए हैं,
सब जाएंगे
चलने
की ही तो तैयारी बस जीवन है
कुछ
सुबह गए कुछ डेरा शाम उठाएंगे
जाना
तो होगा। तो शरीर खबरें देने लगता है कि जाएगा। सभी को जाना होगा। इस सत्य को
स्वीकार कर लो। इसके साथ बहुत जद्दोजहद करने की जरूरत नहीं है। पीड़ा हो, तो जागने
की चेष्टा करो। दुख हो, तो समझने की कोशिश करो, कहीं मोह बनने लगा। जहां मोह बनता है वहां दुख होता है। दुख से तुम मुक्त
न हो सकोगे जब तक मोह से मुक्त न हो जाओ।
लेकिन
मोह से मुक्त होने का एक ही उपाय है कि मुझे और मेरे शरीर को अलग—अलग देखो। ठीक है, शरीर की
फिकर करनी उचित है, चिंता लेनी उचित है, हिफाजत करनी उचित है। फिर भी वह जाएगा। और एक बार संबोधि की घटना घट जाए,
तो शरीर से संबंध टूट जाता है।
वह
खयाल भी तुम समझ लो।
मेरा
शरीर कुछ भी करके पूरा स्वस्थ नहीं हो सकता; क्योंकि शरीर के स्वास्थ्य के लिए
एक अनिवार्य बात है, वह खतम हो गयी है। मेरा संबंध उससे टूट
गया है। जैसे नाव किनारे से बिलकुल खुल गयी है। कुछ छोटी—मोटी खूंटी बची हैं जिनसे
किनारे से रुकी हुई है—रुकी है कि तुम्हारे थोड़े काम आ जाऊं। लेकिन यह रुकना
ज्यादा देर नहीं हो सकता। और शरीर पूरी तरह स्वस्थ नहीं हो सकता। जिस आधार पर शरीर
स्वस्थ होता है—तादात्म्य......।
इसीलिए
तो तुम एक खयाल समझने की कोशिश करो जो व्यक्ति भी इस बात को ठीक से जान गया कि मैं
शरीर नहीं हूं,
वह फिर दुबारा शरीर में न आ सकेगा। जो भी जाग गया, वह दुबारा शरीर में न आ सकेगा। क्योंकि शरीर में आने का जो मौलिक आधार है
कि मैं शरीर हूं, वह छूट गया—तादात्म्य टूट गया। जैसे तुमने
शराब पी हो और तुम रास्ते पर चलो तो डगमगाते हो; लेकिन शराब
उतर गयी, फिर तो नहीं डगमगाओगे। फिर तुम डगमगाने की कोशिश भी
करो तो भी तुम पाओगे कि कोशिश ही है, डगमगा नहीं पा रहे।
शरीर
से जो संबंध है आत्मा का,
उसका सेतु है तादात्म्य। मैं शरीर हूं इसलिए शरीर से आत्मा जुड़ी
रहती है। शरीर थोड़े ही तुम्हें पकड़े हुए है, तुम्हीं शरीर को
पकड़े हुए हो। जब तुम जाग जाते हो, जब तुम्हें लगता है कि मैं
शरीर नहीं हूं? हाथ ढीला हो जाता है। फिर तुम शरीर में होते
भी हो तो भी शरीर में तुम्हारी जड़ें नहीं रह जातीं; थोड़ी—बहुत
देर चल सकते हो। फिर शरीर घर नहीं है, सराय है; और कभी भी सुबह हो जाएगी और चल पड़ना होगा।
तो
तुम्हारे दुख को मैं अनुभव करता हूं। तुम्हारी पीड़ा समझता हूं। कुछ किया नहीं जा
सकता। तुम मेरे शरीर में और मुझमें फर्क करना शुरू करो। और यह फर्क तभी हो सकता है
जब तुम अपने भीतर फर्क करो,
क्योंकि वहीं से तुम्हें समझ आनी शुरू होगी।
मैं
समझ नहीं पाया हूं अब तक यह रहस्य
मरने
से क्यों सारी दुनिया घबराती है
क्यों
मरघट का सूनापन चीखा करता है
जब
मिट्टी मिट्टी से निज ब्याह रचाती है
फिर
मिट्टी तो मिटती भी नहीं कभी भाई
वह
सिर्फ शक्ल की चोली बदला करती है
संगीत
बदलता नहीं किसी के सरगम का
केवल
गायक की बोली बदला करती है
शरीर
तो आते हैं, जाते हैं। बहुत आए, बहुत गए। अनंत बार शरीर आए और गए।
शरीर में स्वास्थ्य तो धोखा है; क्योंकि शरीर में अमृत हो ही
नहीं सकता। वह दोस्ती ही मरणधर्मा से है। वह तो टूटेगी। लेकिन उसके टूटने से कुछ
भी नहीं टूटता। संगीत बदलता नहीं किसी के सरगम का
केवल गायक की बोली
बदला करती है
तो
बोली पर बहुत ध्यान मत दो,
सरगम को पकड़ो। मेरी बोली पर मत जाओ, मेरे सरगम
को पकड़ो! मेरे घर को मत देखो, मुझे देखो! घर की हिफाजत जितनी
कर सकते हो, करो। जितनी देर रुक जाए, उतना
तुम्हारे काम का है। लेकिन रोओ मत, दुखी मत होओ। क्योंकि उस
दुख में और रोने में, आसुओ में जितना समय गंवाया, वह जागने में लगाना उचित है।
आज इतना ही।
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