आपुई गई हिराय-(प्रश्नत्तोर)-ओशो
दिनांक 05-फरवरी, सन्
1981,
ओशो आश्रम, पूना।
प्रवचन-पांचवां-(अहंकार और समर्पण)
प्रश्न-सार:
* अपने अहंकार को पूरी तरह और
सदा के लिए मिटाने का सबसे तेज और सबसे खतरनाक
ढंग क्या है?
* तुम्हारे कदमों में सर झुकाया
था हमने,
अब कहां सर झुकाऊं तुम्हें
अपना खुदा बनाने के बाद?
पहला प्रश्न: भगवान,
अपने अहंकार को पूरी तरह और सदा के लिए मिटाने का सबसे तेज और
सबसे खतरनाक ढंग क्या है?
रिचर्ड ऐरिख,
अहंकार
को मिटाने का कोई ढंग ही नहीं है--न धीमा, न तेज; न सरल,
न कठिन; न आसान, न खतरनाक।
अहंकार हो तो मिटाया जा सकता है। अहंकार है ही नहीं; इसलिए
जो मिटाने चलेगा वह और भी बना लेगा। मिटाने की कोशिश में ही अहंकार निर्मित होता
है।
इसीलिए
तथाकथित संतों-महात्माओं में जैसा अहंकार पाया जाता है वैसा साधारणजनों में नहीं
पाया जाता। साधारणजन का अहंकार भी साधारण होता है। जो अपने को पवित्र मानते हैं, उनका
अहंकार भी उतना ही पवित्र हो गया। और पवित्र अहंकार ऐसा ही है जैसा पवित्र जहर,
शुद्ध जहर, बिना मिलावट का, खालिस जहर। मिटाने की चेष्टा अज्ञानपूर्ण है।
तुम्हारा
प्रश्न भी विचारणीय है। शायद तुमने सोचा भी न हो कि तुमने क्या पूछा है।
तुम
कहते हो: "अपने अहंकार को...।'
जैसे
कि अहंकार के अतिरिक्त भी तुम्हारा कोई अपनापन है! अहंकार ही तो इस बात की भ्रांति
है कि मैं हूं,
मेरा है। हम भ्रांतियों पर भ्रांतियां खड़ी कर देते हैं। अहंकार भी
मेरा। इसका अर्थ हुआ: एक अहंकार की जगह अब दो अहंकार खड़े हो गए; अहंकार के पीछे एक अहंकार और आ गया। यूं चलोगे तो कतार लग जाएगी अंतहीन।
पूछा
है तुमने: "अपने अहंकार को...।'
फिर
पूछने में भी बहुत अहंकार है।
"पूरी तरह...।'
कम
से राजी न होओगे। थोड़े-बहुत से राजी न होओगे। पूर्णरूपेण! अहंकार पूर्णतावादी होता
है। अहंकार के भीतर पूर्णता का रोग होता है। हर काम पूर्ण होना चाहिए। जितना पूर्ण
हो उतना अहंकार को प्राण मिलता है। शून्य हो तो अहंकार की मृत्यु हो जाती है।
पूर्ण हो तो अहंकार को बल आ जाता है, पोषण मिलता है, भोजन मिलता है, प्राण-प्रतिष्ठा होती है।
तुम
कहते: "अपने अहंकार को पूरी तरह और सदा के लिए...।'
इन
एक-एक शब्दों के पीछे अहंकार स्पष्ट खड़ा है। सदा के लिए! अनंत काल के लिए! इससे कम
में न चलेगा। अहंकार हमेशा असंभव की मांग में जीता है। क्योंकि न होगी मांग पूरी
और न अहंकार के अंत का क्षण निकट आएगा। अहंकार मांगता है असंभव को, ताकि तुम
चलते ही रहो, चलते ही रहो; कभी मंजिल
आएगी नहीं, न अहंकार की मृत्यु होगी।
"सदा के लिए'--कहते हो--"अहंकार को मिटाने का
सबसे तेज...।'
वहां
भी तुम पीछे नहीं रहना चाहते कि कोई और तुमसे आगे निकल जाए, कि कोई
तुमसे भी तेजी से अहंकार को समाप्त कर दे। तुम सबसे तेज विधि चाहते हो, ढंग चाहते हो।
इतने
से भी अहंकार मानता नहीं। सबसे खतरनाक ढंग भी होना चाहिए। अहंकार हमेशा उस चुनौती
को स्वीकार करता है,
जो अति दुर्गम हो। गौरीशंकर पर चढ़ना यूं व्यर्थ है। सिवाय इसके कि
चढ़ने वाले के अहंकार की तृप्ति हो, अन्यथा वहां पाने को कुछ
भी नहीं। चांद पर जाकर कुछ भी नहीं मिलता। लेकिन चांद पर चलने वाला मैं पहला आदमी
हूं और मैंने सबसे खतरनाक यात्रा की है अब तक, जो किसी ने
कभी नहीं की थी--इतनी ही तृप्ति है।
तुम्हारा
पूरा प्रश्न शुरू से लेकर अंत तक अहंकार की छाया से दबा है। और फिर तुम इसे मिटाना
चाहते हो। लेकिन क्यों?
क्योंकि अहंकार को मिटाना अहंकार को भरने का अति सूक्ष्म उपाय है।
तुम यह अहंकार भी संवार लेना चाहते हो कि देखो, जिसे बड़े-बड़े
न कर पाए, संत और महात्मा हारे, मैं भी
उस अहंकार को मिटाने में समर्थ हुआ! उस अहंकार को, जिसे
मुश्किल से कोई मिटा पाया है, मैंने मिटा कर दिखा दिया है!
मगर
यही मैं, यही दिखाने का प्रदर्शन का आग्रह तो अहंकार है, और
अहंकार क्या है?
इसलिए
रिचर्ड ऐरिख,
थोड़े और तरह से सोचें। मिटाने की भाषा ही गलत है। यह ऐसे ही है जैसे
कोई अंधकार को मिटाना चाहे--लड़े, घूंसेबाजी करे, तलवार चलाए, चीख-पुकार मचाए, धक्के
दे। लेकिन अंधकार यूं नहीं मिटता। और जब बहुत लड़ेगा-झगड़ेगा तो थकेगा; थकेगा, गिरेगा। और जब गिरेगा, थकेगा,
हारेगा, तो स्वभावतः यही तर्क की निष्पत्ति
होगी कि अंधकार बहुत सबल है, जीता नहीं जाता; लाख उपाय करो, फिर भी जीत संभव नहीं होती।
तर्कयुक्त
होगा तुम्हारा निष्कर्ष,
लेकिन फिर भी भ्रांत, फिर भी गलत। अंधकार सबल
नहीं है। अंधकार का कोई अस्तित्व ही नहीं है, बल तो कैसे
होगा? तुम जो हारे, अपनी नासमझी से
हारे। तुम जो हारे, वह इसलिए हारे कि तुम उससे लड़े जो था ही
नहीं। "नहीं' से जो लड़ेगा उसकी हार सुनिश्चित है।
"नहीं' को तो हराया नहीं जा सकता। जो है ही नहीं उसे
कैसे हराओगे?
अगर
अंधकार होता तो हम कोई रास्ता निकाल लेते। बांध लेते पोटलियों में, फेंक देते
गांव के बाहर। तलवारों से काट कर टुकड़े-टुकड़े कर देते। संघर्ष लेते, युद्ध छेड़ते। मगर ये कोई तरकीबें कारगर नहीं होंगी। तलवार लेकर लड़ोगे तो
संभावना यही है कि अपने को ही घाव कर लोगे। दीवालों से टकरा जाओगे अंधकार से लड़ने
जाओगे तो। सिर फोड़ लोगे अपना।
अंधकार
से लड़ा नहीं जाता,
अंधकार को मिटाया भी नहीं जाता। यह भाषा वहां काम नहीं आती। दीया
जलाना होता है। और दीया जलते ही, ऐसा मत सोचना कि दीये के
जलने से अंधकार मिट जाता है; अंधकार तो था ही नहीं, सिर्फ प्रतीत होता था; दीये के जलने से प्रतीति मिट
जाती है, आभास मिट जाता है। जैसे रस्सी में सांप देखा हो और
फिर दीया जलाया, तो सांप मिट जाता है ऐसा तो न कहोगे;
इतना ही कहोगे कि रस्सी अंधेरे में सांप मालूम पड़ती थी, थी नहीं; अब दीया जल गया तो देख लिया कि रस्सी रस्सी
है, सांप नहीं है। न तो सांप मरा, न
मारा गया, न मिटा, न मिटाया गया--था ही
नहीं, अब भी नहीं है। सिर्फ तुमने एक स्वप्न देखा था,
तुम्हें एक आभास हुआ था, एक भ्रांति हुई थी।
अंधकार
प्रकाश का अभाव है। इसे बहुत गहराई से समझ लेना। अभाव है प्रकाश का, इसलिए
प्रकाश की मौजूदगी होते ही अंधकार नहीं पाया जाता है।
अहंकार
आत्मबोध का अभाव है,
आत्मस्मरण का अभाव है। अहंकार अपने को न जानने का दूसरा नाम है।
इसलिए अहंकार से मत लड़ो। अहंकार और अंधकार पर्यायवाची हैं। हां, अपनी ज्योति को जला लो। ध्यान का दीया बन जाओ। भीतर एक जागरण को उठा लो।
भीतर सोए-सोए न रहो। भीतर होश को उठा लो। और जैसे ही होश आया, चकित होओगे, हंसोगे--अपने पर हंसोगे। हैरान होओगे।
एक क्षण को तो भरोसा भी न आएगा कि जैसे ही भीतर होश आया वैसे ही अहंकार नहीं पाया
जाता है। न तो मिटाया, न मिटा, पाया ही
नहीं जाता है।
इसलिए
मैं तुम्हें न तो सरल ढंग बता सकता हूं, न कठिन; न तो
आसान रास्ता बता सकता हूं, न खतरनाक; न
तो धीमा, न तेज। मैं तो सिर्फ इतना ही कह सकता हूं: जागो! और
जागने को ही मैं ध्यान कहता हूं।
आदमी
दो ढंग से जी सकता है। एक मूर्च्छित ढंग है, जैसा हम सब जीते हैं। चले जाते हैं
यंत्रवत, किए जाते हैं काम यंत्रवत, मशीन
की भांति। थोड़ी सी परत हमारे भीतर जागी है, अधिकांश हमारा
अस्तित्व सोया पड़ा है। और वह जो थोड़ी सी परत जागी है, वह भी
न मालूम कितनी धूल-धवांस, कितने विचारों, कितनी कल्पनाओं, कितने सपनों में दबी है।
सबसे
पहला काम है: वह जो थोड़ी सी हमारे भीतर जागरण की रेखा है, उसे सपनों
से मुक्त करो, उसे विचारों से शून्य करो। उसे साफ करो,
निखारो, धोओ, पखारो। और
जैसे ही वह शुद्ध होगी वैसे ही तुम्हारे हाथ में कीमिया लग जाएगी, राज लग जाएगा, कुंजी मिल जाएगी। फिर जो तुमने उस
थोड़ी सी पर्त के साथ किया है वही तुम्हें उसके नीचे की पर्त के साथ करना है। फिर
और नीचे की पर्त, फिर और नीचे की पर्त...। धीरे-धीरे
तुम्हारा अंतर्जगत पूरा का पूरा आलोक से, आभा से मंडित हो
जाएगा। एक ऐसी घड़ी आती है जब भीतर आलोक होता है। और जहां आलोक हुआ भीतर, अंधकार नहीं पाया जाता है। अंधकार नहीं अर्थात अहंकार नहीं।
पुरानी
कहानी है कि अंधकार ने परमात्मा से प्रार्थना की थी कि तुम्हारा सूरज क्यों मेरे
पीछे हाथ धोकर पड़ा है?
रात विश्राम भी नहीं कर पाता हूं कि सुबह से आकर झकझोर देता है। फिर
दिन भर भगाता है, थका मारता है। मैंने इसका कुछ कभी बिगाड़ा
नहीं। याद भी नहीं आता कि इससे मेरा कभी मिलना भी हुआ हो। कभी आमना-सामना नहीं
हुआ। मुझे कुछ लेना-देना नहीं है। लेकिन यह कैसा अन्याय हो रहा है? यह अन्याय अब रोका जाना चाहिए। हर चीज की एक सीमा होती है। बरदाश्त की भी
मेरी सीमा है।
बात
परमात्मा को भी जंची। सूरज को बुलवाया। सूरज से कहा कि क्यों तू अंधेरे के पीछे
पड़ा है? क्या उसने तेरा बिगाड़ा है?
सूरज
ने कहा, अंधेरा! मेरी तो कोई मुलाकात नहीं। यह तो शब्द भी मैं पहली दफे सुन रहा
हूं। अंधेरा कहां है? मैंने कभी देखा नहीं। और अगर उसको कोई
शिकायत है मुझसे, अगर जाने-अनजाने मुझसे कोई भूल हुई हो,
तो उसे मेरे सामने मौजूद करो। यह कैसा न्याय है कि जिसने शिकायत की
है वह सामने मौजूद नहीं? वह मेरे सामने शिकायत करे! मैं जरा
उसका चेहरा तो देखूं, मैं जरा उसे पहचान तो लूं। कौन है
शिकायत करने वाला?
और
कहते हैं इस बात को बीते भी अरबों-खरबों वर्ष हो गए। परमात्मा बहुत कोशिश करने में
लगा है कि अंधकार को सूरज के सामने मौजूद करे। अंधकार जब आता है तब सूरज नहीं। आता
ही तब है जब सूरज नहीं होता। और जब सूरज होता है तो अंधकार आता नहीं। और जब तक
दोनों सामने मौजूद न हों,
परमात्मा फैसला भी कैसे दे?
ऐसे
तो हम सुनते हैं कि परमात्मा के लिए कुछ भी असंभव नहीं, लेकिन यह
कहानी बताती है कि यह बात असंभव है। परमात्मा भी चाहे तो अंधकार को और सूरज को
साथ-साथ खड़ा नहीं कर सकता, आमने-सामने खड़ा नहीं कर सकता।
सूरज होगा तो अंधकार नहीं हो सकता। और अगर अंधकार को सामने खड़ा करना है तो सूरज को
निमंत्रण नहीं देना होगा; सूरज को दरवाजे के बाहर ही रोक
रखना होगा; द्वार-दरवाजे-खिड़कियां सब बंद कर देनी होंगी,
रंध्र बंद कर देने होंगे; कहीं से किरण भी आ
गई तो अंधेरा भाग खड़ा होगा।
मेरे
जीवन-दृष्टिकोण में अहंकार को न तो मिटाना है, न गिराना है, न जीतना है--सिर्फ समझना है; सिर्फ जाग कर
साक्षी-भाव से अहंकार को देखना है। और तब चमत्कारों का चमत्कार घटित होता है। इधर
तुमने देखा, उधर अहंकार नहीं। इधर तुम्हारी आंख खुली,
उधर अहंकार समाप्त। समाप्त भी मैं कह रहा हूं मजबूरी में, क्योंकि भाषा उपयोग करनी पड़ती है। अन्यथा समाप्त कहना भी उचित नहीं;
क्योंकि था ही नहीं, कभी नहीं था।
अहंकार
से लेकिन लोग लड़ने की बात सिखाते रहे हैं। रिचर्ड ऐरिख ने जो पूछा है, वह इसीलिए
पूछा है, क्योंकि सारे धर्मशास्त्र और तथाकथित धार्मिक गुरु
और संत और महात्मा यही समझाते रहे हैं लोगों से कि लड़ो अहंकार से! मारो अहंकार को!
दबा दो, इसकी छाती पर बैठ जाओ! इसको जीतना होगा, विजेता बनो!
और
यही कार्य जारी रहा है सदियों से, और परिणाम हमारे सामने है। किसी को धन का
अहंकार है, किसी को पद का अहंकार है, किसी
को प्रतिष्ठा का, किसी को ज्ञान का, किसी
को तप का और किसी को यहां तक भी निर-अहंकारी होने का--कि मैं तो निर-अहंकारी हूं,
मैं तो कुछ भी नहीं हूं! मगर अगर जरा कुरेदोगे तो पाओगे कि वहां भी
अहंकार उसी तरह मौजूद है, जिस तरह राख के भीतर अंगारा दमकता
हो। राख के कारण धोखे में मत आ जाना।
और
फिर लोग अहंकार को बचाने की क्या-क्या तरकीबें निकालते हैं!
तुमने
ईसप की कहानी तो सुनी ही है। लोमड़ी बहुत उछली-कूदी। अंगूर के झुक्के बड़े प्यारे थे, सुबह के
सूरज में बहुत चमकते थे, बहुत रस भरे थे। लोमड़ी भूखी भी थी,
अभी सुबह का नाश्ता भी नहीं किया था। इधर भूख, इधर सूरज की रोशनी में चमकते हुए अंगूर, रस भरे
अंगूर, अंगूरों की गंध हवा में! आकर्षण बहुत था। मगर मजबूरी भी
बहुत थी, झुक्के बहुत दूर थे। लोमड़ी उछली-कूदी, मगर झुक्कों तक न पहुंच सकी, न पहुंच सकी। बहुत
चेष्टा की, बार-बार गिरी, हर बार और भी
प्रगाढ़ प्रयत्न किया, और उतनी ही वापस जोर से जमीन पर गिरी,
चोट खाई। धूल-धवांस झाड़ कर खड़ी हो गई, गौर से
देखा; लगा कि नहीं, इतनी अपनी छलांग
नहीं। चारों तरफ देखा--कोई देख तो नहीं रहा है?
एक
खरगोश छिपा हुआ झाड़ी में देख रहा था। उसने कहा, चाची, क्या
बात है?
लोमड़ी
ने अकड़ कर कहा,
कोई भी बात नहीं, अंगूर खट्टे हैं! पक जाएं,
फिर देखूंगी।
पहुंची
ही नहीं अंगूरों तक और अंगूर खट्टे हो गए! आदमी ऐसे तर्क अपने चारों तरफ खोज लेता
है। जो धन तक नहीं पहुंच पाते वे धन को गाली देने लगते हैं। ये धन को गाली देने
वाले लोग कौन हैं?
ये वे ही लोग हैं जो धन तक नहीं पहुंच सके। ये पद को गाली देने वाले
लोग कौन हैं? ये वे ही लोग हैं जो पद तक नहीं पहुंच सके। इनकी
गालियों में भी कहीं न कहीं धन और पद की आकांक्षा छिपी हुई है। कहीं गहरे में
अंगूर खट्टे हैं।
अभी
कुछ दिनों पहले भारत के राष्ट्रपति संजीव रेड्डी ने एक वक्तव्य दिया था। वक्तव्य
था कि मैं राष्ट्रपति हुआ,
इसमें मैंने कोई प्रयास नहीं किया; यह सौभाग्य
तो परमात्मा के प्रसाद से मुझे मिला है।
जिंदगी
भर इसी की कोशिश करते रहे,
यह तो जानी-मानी बात है। संजीव रेड्डी के राष्ट्रपति बनने के मामले
को लेकर ही उन्नीस सौ उनहत्तर में कांग्रेस विभाजित हुई, दो
हिस्सों में टूटी। उसका ही बदला फिर उन्हें राष्ट्रपति बना कर लिया गया। और अभी यह
कुछ ही दिन पहले उन्होंने यह बात कही कि यह सौभाग्य मुझे परमात्मा की तरफ से मिला
है।
लेकिन
अब एक बात साफ है कि दुबारा तो राष्ट्रपति नहीं हो सकेंगे। क्योंकि जिन लोगों ने
राष्ट्रपति बनाया था वे तो मिट्टी में मिल गए। वह तो सिर्फ एक आंधी थी जो गई। अब
उस आंधी के कहीं कोई निशान भी नहीं बचे। अब दुबारा तो राष्ट्रपति नहीं हो सकते
हैं। इसलिए दोत्तीन दिन पहले उन्होंने वक्तव्य दिया कि मैं राजनीति की गंदगी से
बहुत ऊब गया हूं,
मैं दोबारा राष्ट्रपति नहीं होना चाहता हूं। किसी तरह मेरे
राष्ट्रपति का यह सत्र पूरा हो जाए कि फिर मैं यह पद का त्याग करके गांव में जाकर
किसान का सीधा-सादा जीवन व्यतीत करूंगा।
अब
इसमें कई बातें सोचने जैसी हैं।
गांव
में किसान का सीधा-सादा जीवन व्यतीत करने से कौन तुम्हें रोक रहा था? किसने
तुम्हें कहा था गांव का किसान का सीधा-सादा जीवन छोड़ो? जिंदगी
भर राष्ट्रपति पद की दौड़ के पीछे लगे रहे और अब गांव का सीधा-सादा जीवन व्यतीत
करना है! अभी कुछ ही दिन पहले यह परमात्मा ने सौभाग्य दिया था राष्ट्रपति होने का
और अब राजनीति गंदी हो गई! जिंदगी भर राजनीति में रह कर यह पहचान न आई कि राजनीति
गंदी है? अब अचानक पहचान आई कि राजनीति गंदी है; मुझे इस गंदगी में नहीं रहना। जिंदगी भर राजनीति में रह कर यह पता न चला?
हद दर्जे के अंधे मालूम होते हैं! हद दर्जे की मूर्च्छा मालूम होती
है! यह अब पता चला कि राजनीति गंदगी से भरी है?
और
अब कह रहे हैं कि यह सत्र पूरा हो जाए।
क्यों? सत्र
क्यों पूरा हो जाए? अगर यह बात दिखाई ही पड़ गई कि राजनीति
गंदी है, जब तुम्हें दिखाई पड़ गया कि यह गङ्ढा है, तो छलांग लगाओ, बाहर हो जाओ! कौन रोकता है? सच तो यह है कि तुम छलांग लगा कर बाहर होओगे तो लोग प्रसन्न ही होंगे,
क्योंकि किसी और को राष्ट्रपति बनने का परमात्मा सौभाग्य देगा।
अभी
सौभाग्य था, वह परमात्मा ने दिया था। और अब दुर्भाग्य हो गया! तो परमात्मा ने
दुर्भाग्य दिया था, राजनीति की गंदगी में सिरमौर बना दिया
था! तो इसको परमात्मा का प्रसाद क्यों कहा था? और तिरुपति के
मंदिर में जाकर पूजा-अर्चना के थाल क्यों चढ़ाए थे? अगर यह
सौभाग्य था तो गंदगी कैसे हो गई? और अगर यह परमात्मा ने
प्रसाद दिया था तो आज अचानक इसको छोड़ कर तुम गांव का सीधा-सादा जीवन व्यतीत करना
चाहते हो? तुम परमात्मा से भी ज्यादा समझदार मालूम होते हो!
परमात्मा ने राष्ट्रपति बनाया और तुम गांव के सीधे-सादे किसान बनना चाहते हो!
परमात्मा के खिलाफ काम करने का इरादा है? और फिर भी यह सत्र
पूरा हो जाए तब।
यह
बात समझ के बाहर है,
कि किसी को कैंसर की बीमारी हो और वह कहे कि यह सत्र पूरा हो जाए
राष्ट्रपति का, तब इलाज करवाऊंगा। अरे जब पता चलेगा कि यह बीमारी
है, तत्क्षण इलाज करवाना होगा। अब यह साल, दो साल प्रतीक्षा क्या करनी? साल, दो साल का भरोसा क्या, कल का भरोसा नहीं है। यह बात
देखते हो--सत्र पूरा होने की बात! साफ है, राष्ट्रपति तो
रहना है, लेकिन सत्र पूरा होने के बाद दोबारा होने का तो
उपाय नहीं, तो यह मजा भी ले लेना उचित है कि मैंने तो पहले
ही कह दिया था कि मुझे राजनीति में अब कोई रस नहीं है, यह तो
गंदगी है! मैं तो खुद ही छोड़ रहा हूं! अंगूर खट्टे हैं!
सत्र
पूरा होने के बाद तुम्हें चुन कौन रहा है? कोई चुनने वाला तो दिखाई पड़ता
नहीं। तब तुम त्याग करोगे जब तुम्हें कोई चुनने वाला नहीं होगा? जब तुम्हें कोई पुनः राष्ट्रपति बनाने वाला नहीं होगा, तब तुम अंगूर खट्टे हैं कह कर विदा हो जाओगे। तब तुम धूल झाड़ लोगे। फिर
तिरुपति के मंदिर चले जाना और कहना, हे प्रभु, तूने भी खूब बोध दिया, बड़ा तेरा प्रसाद है कि गांव
का सीधा-सादा किसान बना दिया!
तो
परमात्मा का प्रसाद तो इस देश के सभी लोगों पर मालूम पड़ता है, सिर्फ
संजीव रेड्डी को छोड़ कर, क्योंकि बाकी सब को तो वह सीधा-सादा
किसान बनाए हुए है, किसी को सीधा-सादा मजदूर बनाए हुए है,
किसी को सीधा-सादा भिखारी बनाए हुए है। अट्ठानबे प्रतिशत लोगों को
तो प्रसाद ही प्रसाद मिल रहा है। ये दो प्रतिशत अभागे हैं--किसी को धन है, किसी को पद है, किसी को प्रतिष्ठा है।
लेकिन
आदमी बड़ा चालबाज है,
बड़ा बेईमान है।
मैं
कहता हूं संजीव रेड्डी को,
अगर लगता है तुम्हें कि राजनीति गंदी है, बाहर
हो जाओ! अब क्या भीतर रहना जब राजनीति गंदी है? सत्र क्या
पूरा करना? कोई सत्र पूरा करने की अनिवार्यता तो नहीं है।
कोई फांसी तो नहीं लगा देगा कि तुमने सत्र पूरा क्यों नहीं किया? लोग प्रसन्न ही होंगे, क्योंकि किसी और को मौका
मिलेगा। किसी और पर प्रसाद परमात्मा का बरसने दो। किसी और को जाने दो तिरुपति के
मंदिर, कोई और चढ़ाए थाली। तुम सीधे-सादे किसान हो जाओ,
कोई रोकने वाला नहीं। सीधे-सादे किसान होने में कौन रोकता है?
किसको रोकता है?
लेकिन
सत्र पूरा हो जाए! यह तो बात वही हुई जो सिकंदर ने डायोजनीज से कही थी। यूं तो कहा
था सिकंदर ने कि मैं बहुत प्रभावित हुआ हूं तुम्हारा जीवन देख कर। मगर यह बात ऊपरी
रही होगी, क्योंकि सच में ही अगर यह प्रभावित हुआ था, तो
डायोजनीज ने तत्क्षण उसको पकड़ लिया। डायोजनीज जैसे लोग छोड़ते नहीं फिर। डायोजनीज
ने कहा कि तुम सच में प्रभावित हुए हो?
सिकंदर
ने कहा, बहुत-बहुत प्रभावित हुआ हूं। अगर दोबारा मुझे फिर जीवन का अवसर मिला तो
परमात्मा से कहूंगा, इस बार मुझे सिकंदर न बना, डायोजनीज बना।
डायोजनीज
हंसने लगा। उसने कहा,
यह भी खूब रही! अगले जन्म में! तो अभी तुम्हें डायोजनीज होने से कौन
रोक रहा है? मैं तो नहीं रोक रहा। डायोजनीज होना तो बड़ी सरल
बात है। यह नदी बह रही है...।
नदी
के किनारे पर ही डायोजनीज सुबह का धूप-स्नान ले रहा था। नंग-धड़ंग तो वह रहता ही
था। म्युनिसिपल कमेटी का कचरा फेंकने का जो बड़ा टीन का पोंगरा होता है, वह एक
पोंगरा उसको कहीं पड़ा हुआ मिल गया था, उसी को रख लिया था
लाकर उसने नदी के किनारे। जब कभी वर्षा वगैरह होती तो पोंगरे के अंदर बैठ जाता था,
ज्यादा धूप होती तो पोंगरे के भीतर चला जाता, नहीं
तो खुली रेत थी, खुला आकाश था, चांदत्तारे
थे।
डायोजनीज
ने कहा, यह नदी का किनारा बड़ा है। तुम कपड़े फेंको और डायोजनीज हो जाओ! और यह
किनारा इतना बड़ा है कि हम दोनों के लिए क्या, और भी हजारों
लोग डायोजनीज हो जाएं तो कोई अड़चन नहीं आने वाली। रही पोंगरे की, तो मेरा पोंगरा भी काफी है, हम दो के लिए पर्याप्त
रहेगा।
पकड़
लिया डायोजनीज ने वहीं! सिकंदर ने कहा कि अभी तो नहीं कर सकता हूं, अभी तो
बहुत मुश्किल है। अभी तो मैं विश्वविजय की यात्रा पर निकला हूं।
डायोजनीज
ने कहा, अगर विश्वविजय की यात्रा तुम्हें व्यर्थ मालूम पड़ती है और मेरा जीवन
सार्थक मालूम पड़ता है, तो छोड़ो! कोई जबरदस्ती तो कर नहीं रहा
कि विश्वविजय की यात्रा करो।
लेकिन
वह कहने लगा,
मैं तो सत्र पूरा करूंगा! जब निकल पड़ा यात्रा पर तो यात्रा पूरी किए
बिना नहीं रुकूंगा। सत्र तो पूरा करना ही होगा। एक दफा दुनिया को विजय कर लूं,
फिर जरूर आऊंगा।
डायोजनीज
ने कहा कि दुनिया बड़ी है,
जिंदगी बहुत छोटी है। कल का भरोसा नहीं है। कब किसी की यात्रा पूरी
हो पाई है? कौन विजय की यात्रा पूरी कर पाया है? जिंदगी खत्म हो जाती है, दुनिया चलती रहती है। हम कल
नहीं थे, कल नहीं हो जाएंगे। क्षण भर का बसेरा है, रैन-बसेरा है। तो मत टालो कल पर। अगर बात तुम्हें रुची है, अगर बात तुम्हें लगी है, अगर तीर तुम्हें चुभा है,
तो यही क्षण है, करना हो कुछ कर लो, यही क्षण है! मत कहो कल की बात। कल का क्या भरोसा? लौट
पाए न लौट पाए।
डायोजनीज
ने कहा, इतना मैं कह सकता हूं कि अब तक कोई आदमी इस दुनिया में अपनी किसी
महत्वाकांक्षा को पूरी नहीं कर पाया है। सब यात्राएं अधूरी रह जाती हैं, याद रखना मेरी बात!
सिकंदर
शर्माया तो बहुत,
सिर झुका लिया। कहने को कुछ था भी नहीं, जवाब
देने को मौका भी न था। क्या कहे, खुद ही तो कह फंसा था कि
तुम्हारे जीवन से बहुत प्रभावित हूं, ऐसा ही जीवन चाहता हूं;
थक गया हूं इस युद्ध से, थक गया हूं इस
भाग-दौड़ से। लेकिन यह नहीं सोचा था कि डायोजनीज गर्दन पकड़ लेगा। जैसे मैंने संजीव
रेड्डी की पकड़ी, कि जब साफ हो गई बात कि राजनीति गंदगी है,
सत्र क्यों पूरा करना? इसी क्षण बाहर हो जाओ!
सिकंदर
सिर झुका कर धन्यवाद देकर विदा हुआ। इतना कहा कि तुम्हारे उपदेश को ध्यान में
रखूंगा और जब कभी अवसर मिला, जरूर आऊंगा।
डायोजनीज
ने कहा कि मैं नहीं सोचता कि अवसर मिलेगा।
सिकंदर
ने कहा, लेकिन जाने के पहले इतना चाहता हूं कि तुमने इतनी अनुकंपा की, मैं तुम्हारे लिए कुछ करूं? मेरे पास बहुत धन है,
बहुत सुविधाएं हैं, तुम जो कहो वह मैं करूं।
कहो तो महल बना दूं। कहो तो इस नदी को तुम्हारे लिए सोने से पाट दूं। मगर कुछ कहो।
जो कहोगे वह कर दूंगा।
डायोजनीज
ने कहा, यह तो बड़ी देर हो गई। तुम्हें पहले आना था, जब मेरे
भीतर इच्छाएं थीं। अब तो मेरी कोई इच्छा नहीं, तुम क्या कर
सकोगे? मेरी कोई मांग नहीं, तुम क्या
भर सकोगे? मेरे हाथ में भिक्षा का पात्र नहीं, तुम दोगे भी तो मैं उसे रखूंगा कहां? मगर तुम कहते
हो तो तुम्हारा निरादर भी नहीं करना चाहता हूं। इतना ही करो कि जरा हट कर खड़े हो
जाओ, क्योंकि तुम्हारे कारण सूरज की धूप मेरे पास तक नहीं आ
पा रही है।
बस
इतनी ही बात डायोजनीज ने मांगी कि जरा हट कर खड़े हो जाओ। और चलते वक्त सिकंदर से
कहा कि याद रखना,
कभी भी किसी की धूप के बीच में आड़े मत आना, बस
इतना ही बहुत है। सूरज और आदमी के बीच में मत आना। रोशनी और आदमी के बीच में मत
आना। किसी के लिए अंधेरा मत बनना। किसी पर छाया मत पड़ने देना।
सिकंदर
चला तो आया, लेकिन डायोजनीज की बात उसके प्राणों में गूंजती रही। और आश्चर्य की बात कि
वह कभी घर वापस नहीं लौट पाया। भारत से वापस लौटते वक्त बीच में ही मर गया। मरते
वक्त डायोजनीज ही उसे याद आया। कहा था कि लौट कर आऊंगा, लेकिन
अपनी राजधानी भी वापस नहीं पहुंच सका। चिकित्सकों ने कहा कि अब यहां से आगे यात्रा
करनी संभव नहीं है, यह रात आखिरी है। अब तुम्हारे लिए सुबह
नहीं होगी।
उसने
कहा कि तुम जितना धन कहो मैं देने को राजी हूं, लेकिन मुझे राजधानी तक वापस पहुंच
जाने दो। एक तो मैंने डायोजनीज को वायदा किया था कि मैं लौट कर आऊंगा और दूसरा
मैंने अपनी मां को वायदा किया था कि जब मैं विजय कर लूंगा सारी दुनिया को तो लाकर
तेरे चरणों में दुनिया का सारा साम्राज्य चढ़ा दूंगा। ये दो काम अधूरे रह गए हैं।
चिकित्सकों
ने कहा, हम मजबूर हैं। तुम अगर सारा साम्राज्य भी हमें दो, तो
भी हम तुम्हें बचा नहीं सकते। और कितनी भी तेजी से तुम जाओ तो भी कम से कम चौबीस
घंटे तो लगेंगे ही राजधानी तक पहुंचने में। और इतनी तेजी से घोड़े की सवारी भी नहीं
की जा सकती, तुम्हारी हालत इतनी बुरी है। तुम घंटे, दो घंटे के मेहमान हो। डायोजनीज से मिलना अब न हो पाएगा। अपनी मां को तुम
यह भेंट न चढ़ा पाओगे।
सिकंदर
बहुत दुख में मरा। दुख में जीया, दुख में मरा। मरते वक्त यह कह कर मरा कि मेरे
हाथों को लटके रहने देना मेरे ताबूत के बाहर।
वजीरों
ने पूछा, क्यों? किसलिए? यह तो रिवाज
नहीं।
सिकंदर
ने कहा, इसलिए ताकि लोग देख लें कि मैं भी खाली हाथ जा रहा हूं। डायोजनीज ठीक कहता
था। मैं खाली हाथ जा रहा हूं। यह सब दौड़ व्यर्थ थी, मगर
मैंने नाहक कल के लिए स्थगन किया। काश मैंने उसकी बात मान ली होती और उस तट पर रुक
गया होता, ठहर गया होता, विश्राम में
डूब गया होता, तो आज मैं भी आनंद से विदा हो सकता! मैं दुख
और विषाद में विदा हो रहा हूं।
सिकंदर
का ताबूत इतिहास में अपने ढंग का ताबूत था। उसके हाथ बाहर लटके थे। लाखों की भीड़
इकट्ठी थी और हरेक ने पूछा कि हाथ बाहर क्यों लटके हैं? और हरेक
ने जाना कि हाथ इसलिए बाहर लटके हैं कि सिकंदर चाहता था हरेक देख ले, नाहक न दौड़ो। हाथ खाली ही रहेंगे।
सच
तो यह है, जब बच्चा पैदा होता है तो मुट्ठी बंधी होती है और जब आदमी मरता है तो हाथ
खुले होते हैं, मुट्ठी खुली होती है। कहावत है: बंधी मुट्ठी
लाख की, खुली तो खाक की। कम से कम बच्चे की मुट्ठी तो बंद
होती है। भीतर कुछ नहीं होता, मगर बंधी मुट्ठी लाख की। कम से
कम भरोसे तो होते हैं, आशाएं तो होती हैं, आकांक्षाएं तो होती हैं। मरते वक्त तो मुट्ठी भी खुल जाती है। खाक ही खाक
रह जाती है।
मगर
फिर भी मरने के बाद की यह कहानी है कि वैतरणी पर दोनों का फिर मिलना हुआ। क्योंकि उसी
दिन डायोजनीज भी मरा। संयोग की बात दोनों एक ही दिन मरे। सिकंदर थोड़ा पहले, डायोजनीज
थोड़ा बाद। कोई थोड़े ही क्षणों का फासला। वैतरणी पर दोनों का मिलना हो गया। सिकंदर
वैतरणी पार कर रहा है, पीछे उसने खड़बड़ की आवाज सुनी, लौट कर देखा--डायोजनीज! एक क्षण को तो किंकर्तव्यविमूढ़ हो गया। एक क्षण को
तो ठिठक गया कि अब डायोजनीज ठीक करेगा, यह फिर गर्दन पकड़ेगा
और कहेगा कि देख मूरख, कहा था! नहीं सुना, नहीं माना!
फिर
पुरानी अकड़ लौट आई। आदमी बड़ा अजीब है! समझ-समझ कर भी चूकता है। देख कर आया है कि
जिंदगी बेकार गई,
व्यर्थ की दौड़ में गई, आपाधापी में गई;
मगर डायोजनीज को देख कर फिर अपने को बचाने का भाव आ गया। हंसा! हंसी
झूठी थी और थोथी थी। सिकंदरों के चेहरों पर हंसियां सच नहीं होतीं, सच हो नहीं सकतीं। उनकी हर बात झूठी होती है।
अब ये संजीव रेड्डी जो कह रहे हैं, बिलकुल
झूठ। न तो राजनीति की गंदगी का इन्हें पता है, न राष्ट्रपति
के पद को छोड़ने की आकांक्षा है। इनकी हंसी झूठ, इनका ज्ञान
झूठ, इनकी बकवास सब झूठ! न सीधा-सादा किसान होने का कोई
इरादा है। होना पड़े मजबूरी में, तो ओढ़ लेंगे वह भी, लेकिन मजबूरी में, आकांक्षा नहीं है।
और
सिकंदर ने फिर वही पुराना रुख अख्तियार किया। पीछे देख कर हंसा और डायोजनीज से
बोला, अरे सौभाग्य! शायद वैतरणी पर ऐसा सम्मिलन पहले कभी न हुआ हो--एक सम्राट का
एक भिखारी से! फिर लौट आई अकड़। फिर अपने को सम्राट कहने का मन! फिर डायोजनीज को
भिखारी बताने का मन। मगर डायोजनीज जैसे लोगों को धोखा नहीं दिया जा सकता। वे जब
किसी की गर्दन पकड़ते हैं तो ठीक से ही पकड़ते हैं। उससे छुटकारा नहीं है। वे जब
दांव लगाते हैं तो पूरा ही लगाते हैं। डायोजनीज इतने खिलखिला कर हंसा कि कहते हैं
कि वैतरणी पर उसकी हंसी अभी भी गूंजती है। सिकंदर तो हकबका गया। डायोजनीज की हंसी!
सिकंदर तो एकदम उदास हो गया। पूछा, आप क्यों हंसते हैं?
डायोजनीज
ने कहा, इसलिए हंसता हूं कि जिंदगी भर धोखा खाकर अब भी तू धोखा दे रहा है! तेरी
बात सच है एक अर्थ में कि यह मिलन बहुत अदभुत है--एक सम्राट का और एक फकीर से! एक
सम्राट का एक भिखारी से! लेकिन थोड़ी गलत भी है। तू समझता है कि सम्राट आगे है और
भिखारी पीछे। वहां तेरी गलती है। सम्राट पीछे है, मेरी तरफ
देख! और भिखारी आगे है, अपनी तरफ देख! मैं सम्राट की तरह
जीया और सम्राट की तरह मरा और सम्राट की तरह आया हूं। तू भिखारी की तरह जीया,
भिखारी की तरह मरा और भिखारी की तरह आया है। लेकिन अकड़ जाती नहीं।
रस्सी जल जाती है, मगर अकड़ रह जाती है।
अहंकार
से लड़ना मत, रिचर्ड ऐरिख। लड़ोगे, जला भी डालोगे, तो भी अकड़ शेष रह जाएगी। अहंकार को जानो, पहचानो,
साक्षी बनो। तीन स्तर पर साक्षी होना है। शरीर के साक्षी बनना है।
चलो तो जानते हुए चलो कि मैं चल रहा हूं। उठो तो जानते हुए उठो कि मैं उठ रहा हूं।
मूर्च्छा में न हो यह कृत्य। शरीर के सारे कृत्य ध्यानपूर्वक हों। फिर इसी ध्यान
को मन की प्रक्रियाओं पर लगाओ। विचार यूं ही न चलते रहें। होशपूर्वक! देखो
उन्हें--विचारों का जो भीतर तांता लगा रहता है। एक विचार आया, दूसरा आया, तीसरा आया--तुम द्रष्टा बनो, देखो उन्हें, पहचानो उन्हें।
और
मजा यह है कि जब साक्षी बनोगे शरीर के, तो शरीर में एक प्रसाद आ जाएगा,
एक सौंदर्य आ जाएगा, एक गरिमा आ जाएगी,
एक सुगंध आ जाएगी, एक दिव्यता, एक भगवत्ता! और जब मन का निरीक्षण करोगे, साक्षी
बनोगे, तो मन शांत होने लगेगा, शून्य
होने लगेगा, निर्विचार होने लगेगा। विचार को देखते ही विचार
विदा होने लगते हैं। और जहां निर्विचार आया, भीतर सन्नाटा
हुआ, कि फिर पहली बार अनुभव होता है संगीत का, पहली बार अनुभव होता है रस का, पहली बार आनंद की झलक
मिलती है।
लेकिन
झलक! जैसे दूर आकाश के चांद को झील में देखा हो, ऐसी झलक, प्रतिबिंब। जैसे कहीं दूर से कोयल अमराई में कूकी हो, कुहू-कुहू की आवाज!
फिर
तीसरे तल पर और साक्षी को साधना है--भावना के तल पर, भाव के तल पर। और जब तुम
भावना के तल पर भी साक्षी हो जाते हो--क्योंकि वह सूक्ष्मतम है, सबसे बारीक है--तो फिर झील में चांद देखने की जरूरत नहीं रहती, फिर सीधा ही चांद दिखाई पड़ता है आकाश में। फिर कोयल दूर किसी अमराई से
नहीं कूकती, फिर उसकी कुहू-कुहू की आवाज तुम्हारे ही अंतरतम
से उठती है। इस भीतर के नाद को ही हमने ओंकार कहा है। यह अनाहत नाद! झेन फकीर कहते
हैं, जैसे कोई एक हाथ से ताली बजाए। और जब तुम्हारे भीतर एक
हाथ की ताली बजने लगती है, जब तुम्हारे भीतर अनाहत नाद झंकृत
होता है, जब तुम्हारे प्राणों की वीणा बजती है; तुम्हारे बजाए नहीं, अपने से बजती है--बज ही रही है;
तुम्हारे शोरगुल और मूर्च्छा के कारण सुनाई नहीं पड़ रही है--तब जाना
जाता है उसे जो हमारा वास्तविक स्वरूप है; जो हमारी आत्मा है,
चेतना है। वहां अहंकार की कहीं छाया भी नहीं पड़ती।
अहंकार
का अर्थ है: मैं अस्तित्व से अलग हूं, पृथक हूं। और आत्मा का अर्थ है:
मैं अस्तित्व से एक हूं, जुड़ा हूं, संयुक्त
हूं, कहीं भी अलग नहीं, कहीं भी भिन्न
नहीं, अभिन्न हूं। अस्तित्व से अभिन्नता का अनुभव आत्मा और
अस्तित्व से भिन्नता का अनुभव या आभास अहंकार। मिटाना कुछ भी नहीं है, सिर्फ जागना है। तीन तल पर तुम जागो और चौथे तल पर जागरण अपने आप उतर आता
है। शरीर को देखो, मन को देखो, भाव को
देखो--और तब तुम उसे देख पाओगे जो तुम हो। हमने इस देश में उसे तुरीय कहा है,
चौथी अवस्था कहा है। वही है समाधि। सूरज ऊग आया, अंधकार फिर नहीं है। दीया जल उठा, अंधेरा फिर नहीं
है। बिना मिटाए मिट जाता है अहंकार। बिना लड़े जीत हो जाती है।
अहंकार
से लड़ने की बात यूं ही व्यर्थ है, जैसे--
पंचशील
पुल पर खड़े पांच अनोखे व्यक्ति
परिचय
अपना दे रहे किसमें कितनी शक्ति
किसमें
कितनी शक्ति,
एक था उनमें अंधा
शेष
चार थे--बहरा,
लंगड़ा, लूला, नंगा
कंह
काका कविराय शून्य में झांक रहे थे
धुत्त
नशे में लंबी-चौड़ी हांक रहे थे
बहरा
बोला यकायक ध्यान देयो उस ओर
साफ
सुनाई पड़ रहा डाकू दल का शोर
डाकू
दल का शोर, कसम अंधे ने खाई
वह
देखो बारह डाकू दे रहे दिखाई
लंगड़ा
बोला भाग चलो वर्ना मर जाएं
लूला
कहने लगा कि दो-दो हाथ दिखाएं
तब
नंगा चिल्लाया कुछ भी नहीं करोगे
लगता
है सब मिल कर मुझको लुटवा दोगे
वच वच वच
दूसरा प्रश्न: भगवान,
तुम्हारे कदमों में सर झुकाया था हमने,
अब कहां सर झुकाऊं तुम्हें अपना खुदा बनाने के बाद?
दीपिका,
सर
सच में ही झुकाया हो तो उठाने को कुछ बचता ही नहीं। और कहीं झुकाने को तो फिर उपाय
नहीं है। एक बार झुका तो झुका, झुका तो मिटा। अगर मिटा नहीं तो झुका ही नहीं।
तू
पूछती है: "तुम्हारे कदमों में सर झुकाया था हमने,
अब कहां सर झुकाऊं तुम्हें अपना खुदा बनाने के
बाद?'
अब
तो सर बचा ही कहां?
और अगर बचा है तो फिर सोचना पड़ेगा--झुका ही नहीं था। झुकना और मिटना
पर्यायवाची हैं; भाषा में नहीं, लेकिन
सत्संग के जगत में तो उनमें कोई भेद नहीं है। झुका कि कटा। फिर कहां झुकाओ?
किसे झुकाओ? और झुकाने की जरूरत क्या रही,
प्रयोजन क्या रहा, आवश्यकता कहां है?
एक
ही तो प्रेम चल रहा है। बहुत-बहुत तरह से हम एक ही प्रेमी की तो तलाश कर रहे
हैं--कभी गलत,
कभी सही; कभी होश में, कभी
बेहोशी में--मगर एक ही प्रेमी की तलाश चल रही है। किसी स्त्री को प्रेम किया होगा,
किसी पुरुष को प्रेम किया होगा, किसी मित्र को
प्रेम किया होगा, बेटे को प्रेम किया होगा, बेटी को प्रेम किया होगा, पति को, पत्नी को, पिता को, मां को,
लेकिन इन सारे प्रेमों के भीतर परमात्मा की ही खोज चल रही है। और जब
एक बार कहीं परमात्मा की प्रतीति हो गई, तो आ गया क्षण सिर
को चढ़ा देने का। बचा कर करना भी क्या है?
अभी
कुछ दिन पहले मेरे एक पुराने संन्यासी--भूतपूर्व संन्यासी--विजयानंद, कृष्ण
प्रेम को मिल गए महाबलेश्वर में। कृष्ण प्रेम से बोले कि मैंने भगवान को संपूर्ण
समर्पण कर दिया था। पांच साल तक संपूर्ण समर्पण रखा। लेकिन जब मुझे बुद्धत्व
उपलब्ध नहीं हुआ तो मैंने फिर संन्यास का त्याग कर दिया।
कैसी
मजे की बात कही। कैसी रसभरी बात कही। संपूर्ण समर्पण! और वह भी वापस लिया जा सकता
है। संपूर्ण समर्पण का अर्थ ही क्या होता है फिर? जब पूरा-पूरा ही दे दिया था
तो लेने वाला कौन पीछे बचा था जो वापस ले ले? निश्चित ही
समर्पण संपूर्ण नहीं रहा होगा।
पहली
बात, संपूर्ण समर्पण में लौटने का कोई उपाय ही नहीं होता, पुराने सेतु ही टूट जाते हैं, सीढ़ी ही फेंक दी जाती
है। लौटना भी चाहो तो नहीं लौट सकते। लौटने को ही नहीं बचता कोई। पहली तो बात,
संपूर्ण समर्पण नहीं था। नहीं तो संन्यास कैसे वापस छोड़ा जा सकता है?
कौन छोड़ेगा? और अगर छोड़ने वाला मौजूद था तो
फिर कुछ बचा हुआ था। और जो बचा हुआ था वह ज्यादा था। क्योंकि संन्यास लेते वक्त तो
मुझसे पूछा था कि लूं या नहीं, छोड़ते वक्त मुझसे पूछा भी
नहीं। लेते वक्त तो हजार तरह से मेरे पास बैठ कर विचार किया था कि लूं या न लूं,
ऐसा होगा, वैसा होगा; क्या
परिणाम होंगे, क्या नहीं होंगे। लेकिन छोड़ते वक्त तो मुझसे
पूछा भी नहीं। तो जरूर निन्यानबे प्रतिशत तो भीतर ही बचा होगा, एक प्रतिशत दिया होगा। ज्यादा तो भीतर था, उसने वापस
खींच लिया हाथ।
और
क्या समर्पण अधूरा हो सकता है--यह दूसरा सवाल। समर्पण या तो होता है तो पूरा होता
है या नहीं होता। एक प्रतिशत की बात भी मैंने सिर्फ बात करने के लिए कही तुमसे, ताकि
विचार कर सको। सच में तो एक प्रतिशत समर्पण होता ही नहीं। या तो सौ प्रतिशत या
नहीं। निन्यानबे प्रतिशत समर्पण भी समर्पण नहीं है, क्योंकि
वह जो एक प्रतिशत भीतर बाकी रह गया है वह सारे के सारे समर्पण को वापस खींच सकता
है।
और
मजे की बात तीसरी उन्होंने कही कि पांच साल तक संपूर्ण समर्पण रखा।
जैसे
कि संपूर्ण समर्पण का भी समय से कोई संबंध है--एक मिनट रखा, कि दो
मिनट रखा, कि पांच मिनट रखा! पूरे पांच साल। महान कार्य
किया! पांच साल तक समर्पण! और संपूर्ण! कितनी कठोर साधना नहीं की! कांटों की शय्या
पर लेटे रहे। आग बरसते में चारों तरफ धूनी लगा कर बैठे रहे। पांच साल! छोटी कुछ
बात है। और फिर छोड़ा क्यों संन्यास? क्योंकि पांच साल
संपूर्ण समर्पण रखने के बाद भी बुद्धत्व प्राप्त नहीं हुआ! मतलब भीतर कहीं
बुद्धत्व प्राप्ति की आकांक्षा थी। मतलब समर्पण समर्पण नहीं था, सौदा था, शर्त थी कोई, भीतर
कोई व्यवसाय था। समर्पण का कोई प्रयोजन था, कोई आकांक्षा थी,
कोई वासना थी। संन्यास नहीं था वह, वासना थी,
संसार था। बुद्धत्व चाहिए था। छोटी-मोटी कोई चीज चाहिए भी नहीं थी,
ठेठ बुद्धत्व चाहिए था! और पांच साल के भीतर!
और
विजयानंद ने,
बेचारों ने कितनी तपश्चर्या की! कैसा त्याग किया! पांच साल तक सूली
पर लटके रहे! और जब देखा कि अभी तक बुद्धत्व प्राप्त नहीं हुआ, तो सूली से उतर गए, कि भाड़ में जाए यह सूली।
कैसी
यह सूली थी जिस पर पांच साल लटके रहे और मरे भी नहीं! और पांच साल टकटकी बांध कर
देखते रहे कि अब आया बुद्धत्व, अब आया। लेकिन बुद्धत्व था कि आया ही नहीं।
सोचा कि अब दस्तक देगा, इधर से आया, उधर
से आया। मगर कभी हवा का झोंका निकला, कभी बादल गरजा, कभी बिजली कड़की, बुद्धत्व का कोई पता ही नहीं! पांच
साल सतत प्रतीक्षा करने के बाद अब और क्या चाहते हो? साधना
पूरी हो गई।
दीपिका, सर तो एक
ही बार झुकता है, दुबारा नहीं झुकता, उठता
भी नहीं। जिसकी तलाश थी वह मिल गया। सर झुकने का अर्थ होता है: अहंकार का न हो
जाना। और जब अहंकार नहीं हो गया तो किसको पड़ी है बुद्धत्व की?
कृष्ण
प्रेम ने ठीक कहा विजयानंद को। क्योंकि विजयानंद ने कृष्ण प्रेम से पूछा कि
तुम्हें बुद्धत्व मिला?
कृष्ण प्रेम ने कहा, हमें प्रयोजन ही नहीं।
लेना-देना क्या है बुद्धत्व से? करेंगे क्या बुद्धत्व का?
हम तो यूं ही मजे में हैं। हम तो मस्त हैं।
विजयानंद
को यह बात समझ में नहीं आई। विजयानंद ने कहा, यह बात ठीक नहीं है। अरे जब
संन्यासी हो तो बुद्धत्व तो होना ही चाहिए!
पर
कृष्ण प्रेम ने कहा,
हम संन्यस्त होकर ही आनंदित हैं, अब हमें और
कुछ चाहिए नहीं। मिल भी जाए बुद्धत्व तो सोचेंगे कि लेना कि नहीं लेना! मतलब और नई
झंझट कौन पाले! संन्यास इतना आनंद दे रहा है, पता नहीं
बुद्धत्व और कौन सी झंझट में ले जाए! तो हम तो सोचेंगे, विचारेंगे।
और हमें लेने की कोई चिंता नहीं।
मगर
भारतीय बुद्धि एक ढंग से चलती है। भारतीय बुद्धि व्यवसायी बुद्धि है। लाख तुम
मोक्ष की बातें करो,
मगर तुम्हारा व्यवसाय भीतर बना ही रहता है, कहीं
हिसाब-किताब तुम लगाए ही रखते हो।
विजयानंद
चलते-चलते कृष्ण प्रेम को कह गए कि नहीं, यह तो सोचना ही पड़ेगा। बुद्धत्व का
विचार तो रखो ही। नहीं तो संन्यास का सार ही क्या है?
संन्यास
भारतीय बुद्धि में हमेशा साधन है, साध्य नहीं। इसीलिए मेरे पास सारी दुनिया से आए
हुए लोगों को एक सहज आनंद की अनुभूति हो रही है जो भारतीयों को नहीं हो पा रही है।
और उसका कारण कुल इतना है कि भारतीय मन हिसाबी-किताबी हो गया है। बातें तो ऊंची
करता है, मगर बातों के पीछे माजरा कुछ और, कुछ छिपा है और--मोक्ष पाना, कैवल्य पाना, बैकुंठ जाना, गोलोक में निवास करना। कहीं कोई लक्ष्य
छिपा है; संन्यास अपने आप में सिद्धि नहीं है, साधना है। और मेरा आग्रह है कि जब भी तुम साधन में और साध्य में भेद करोगे,
तुम विभाजित हो जाओगे, तुम दो टुकड़ों में टूट
जाओगे। साध्य होगा भविष्य में और साधन होगा वर्तमान में। भविष्य आया कि संसार आया।
साधन
ही साध्य हो जाना चाहिए,
तभी तुम वर्तमान में जी सकते हो। तब यही क्षण काफी है। तब न कहीं जाना
है, नहीं कुछ पाना है। और ऐसी अवस्था का नाम ही बुद्धत्व
है--न कहीं जाना है, न कुछ पाना है। आनंदित हैं। यही क्षण
अपनी समग्रता में, अपने पूरे रस से झर रहा है। अगले क्षण की
बात ही नहीं उठती। ऐसा शुद्ध वर्तमान निर-अहंकार होते ही उपलब्ध हो जाता है। और
जिसको शुद्ध वर्तमान उपलब्ध हुआ, किस निमित्त हो जाए...।
तू
कहती है दीपिका कि आपके कदमों में सिर झुकाया...।
यह
सिर्फ बहाना है। यह तो सिर्फ तरकीब है; सर झुक जाए, इसके
लिए निमित्त है। जैसे किसी घर में आग लगी हो और छोटे बच्चे अंदर खेल रहे हों,
और तुम लाख चिल्लाओ कि आग लगी है, छोटे बच्चों
को अभी पता ही नहीं कि आग लगने का क्या मतलब होता है। तो घर का मालिक, बच्चों का पिता बाहर से चिल्लाए कि बेटे, बाहर आ
जाओ! तुमने जो खिलौने बुलाए थे, मैं बाजार से ले आया हूं।
आग
लगी है, यह तो बच्चों की समझ में नहीं आता; लगी रहे, उन्हें तो और मजा आ रहा है; चारों तरफ लपटें उठ रही
हैं, वे बीच में ही कूद रहे हैं, छलांग
ले रहे हैं, उनके मजे का तो कोई हिसाब नहीं। लेकिन यह सुन कर
कि पिता बाजार गए थे और खिलौने ले आए हैं--खिलौने क्या, गुड्डा-गुड्डियां
ले आए हैं, जो-जो उन्होंने मांगा था, किसी
की सीटी आ गई है, किसी की ढोलक आ गई है, किसी की पुंगी आ गई है--वे भागे! यह आग से ज्यादा महत्वपूर्ण है। वे निकल
कर बाहर आ गए। हालांकि पिता कुछ भी नहीं लाया है। अरे घर में आग लगी हो, तो वह बाजार जाए खिलौने खरीदने? बच्चे बाहर निकल कर
कहेंगे, खिलौने कहां हैं? तब वह समझा
देगा कि खिलौने नहीं लाए पागल, घर में आग लगी है, जल जाते। तुम्हें बाहर निकालने के लिए खिलौनों की बात उठा दी। यह सिर्फ
बहाना है।
यूं
मैं भी बहुत से खिलौनों की तुमसे बात करता हूं। यह मोक्ष, यह ईश्वर,
यह गोलोक, यह बैकुंठ--यह मेला गया था, खिलौने ले आया हूं। तुम जो भी सुन कर बाहर आ सको वही आवाज दे देता हूं--कि
चलो गोलोक, बस आ गई! और सब बच्चे बाहर निकल आए कि अरे गोलोक
बस जा रही! लाख काम छोड़ कर बाहर आ गए। बाहर आ जाओ, फिर समझा
लेंगे; समझा लेंगे कि यह बस गोलोक वगैरह नहीं जा रही,
यह स्कूल जा रही है भैया! या स्कूल का नाम--गोलोक पाठशाला!
अब
यहां विनोद मेरे सामने बैठे हैं। विनोद को पत्नी से अलग होना पड़ रहा है। रास्ते
अलग-अलग हो गए। रास्तों का क्या भरोसा, कभी साथ हो लेते हैं, कभी अलग हो जाते हैं। तो विनोद ने अपने बच्चों को बुला कर समझाना चाहा कि
भई, अब हम अलग हो रहे हैं, तुम्हारे
क्या इरादे हैं? लेकिन बच्चों को क्या पड़ी! बच्चे तो कुलाटी
लगाने लगे, कोई शीर्षासन करने लगा। विनोद और उनकी पत्नी बैठे
देख रहे हैं और बच्चे वहीं उछल-कूद मचा रहे हैं, वे बड़े मस्त
हो रहे हैं। उनकी समझ में ही नहीं आया कि रास्ते अलग हो रहे हैं, इसका मतलब क्या! वे तो समझे कि बहुत ही अच्छी बात है, होने दो। पूछने लगे, कब होंगे अलग?
विनोद
ने समझाया कि तुम समझे नहीं, कि तुम्हारी मम्मी में और मुझमें अब बनती नहीं।
उन्होंने कहा, यह तो हमको मालूम ही है। अरे किसकी मम्मी में
और किसके डैडी में बनती है?
और
वे तो अपने खेल में ही लगे हैं, उनको इससे कुछ मतलब ही नहीं कि क्या हो रहा है।
घर में आग लगी है, वे कुलाटी लगा रहे हैं, उछल-कूद कर रहे हैं, सिर के बल खड़े हो रहे हैं। अब
इनको क्या समझाओ?
विनोद
ने कहा कि तुम समझो ठीक से,
अब मुझे और तुम्हारी मम्मी को अलग-अलग रहना पड़ेगा। तब उनको थोड़ा
खयाल आया कि मतलब कहां रहोगे आप? तो विनोद ने कहा कि मैं
आश्रम में रहूंगा। तो कहा, हम भी आते हैं। और मम्मी, तुम भी चलो। अरे आश्रम में ही रहेंगे। आश्रम में तो बहुत मजा आएगा।
बच्चों
की अपनी दुनिया है। उनके सोचने के अपने ढंग हैं। लेकिन मम्मी नाराज हो गई कि आश्रम
नहीं जाना है! तुम्हें तय करना पड़ेगा, या तो अपने डैडी के पास रहो या
मेरे पास रहो।
तो
उन्होंने कहा,
अभी हम छोटे हैं, आपके पास रहेंगे; जब बड़े हो जाएंगे फिर हम डैडी के पास जा सकते हैं? क्योंकि
बड़े होकर हमको आश्रम में रहना है। ठीक है, अभी छोटे में
गुजार लेंगे, मगर बड़े होकर तो आश्रम में ही रहेंगे।
बच्चों
को तो और ढंग से समझाना होगा। अभी उनको खयाल में भी नहीं आएगा कि यह बात क्या हो
रही है। और करीब-करीब सब बच्चे हैं, यह सारा संसार बच्चों से भरा हुआ
है!
अब
यह विजयानंद को जो मैंने बुद्धत्व की बात कही थी, वह खिलौनों की बात थी। ये
बुद्धिमान यह समझ बैठे कि संन्यासी हो गए तो ये बुद्ध हो जाएंगे। ये और बुद्धू हो
गए। पांच साल बुद्धत्व की जो प्रतीक्षा करेगा, बुद्धू हो
जाएगा। बुद्धत्व और दूर हो गया। बुद्धत्व का कोई अर्थ तो समझो। बुद्धत्व का कुल
इतना अर्थ है कि हम जहां हैं, जैसे हैं, जो हैं--तृप्त हैं, आनंदित हैं; हमारा प्रतिपल उत्सव है।
मगर
यह बात समझ में नहीं आती तो फिर बुद्धत्व की बात करनी पड़ती है, निर्वाण
की बात करनी पड़ती है, संबोधि की बात करनी पड़ती है, क्योंकि यही खिलौने तुम्हारी समझ में आते हैं। मगर इन खिलौनों को जोर से
पकड़ कर मत बैठ जाना।
दीपिका, तू कहती
है: "तुम्हारे कदमों में सर झुकाया था हमने,
अब कहां सर
झुकाऊं तुम्हें अपना खुदा बनाने के बाद?'
एक
बार खुद का होना मिट जाए तो खुदा का मिलना होता है। कुछ खुदा जैसा कोई व्यक्ति
नहीं है, कि एकदम मिल गया और बोले कि नमस्कार, कहिए कैसे हैं?
अच्छे तो हैं? खुदा कोई व्यक्ति नहीं है--खुदी
के मिट जाने का नाम है। और जब खुदी मिट गई तो मिल गया जो मिलना था। जो सदा से मिला
ही हुआ था, उसका आविष्कार हो जाता है।
कहीं
देखी है शायद तेरी सूरत इससे पहले भी
कि
गुजरी है मेरे दिल पे ये हालत इससे पहले भी
न
जाने कितने जल्वे पेश-रौ थे तेरे जल्वों के
तुझी
से बारहा की है मोहब्बत इससे पहले भी
सुनाती
हैं कोई अफसाना तेरी सहमगीं नजरें
हुई
है मुझसे गुस्ताखाना जुरअत इससे पहले भी
मेरी
किस्मत कि मैं इस दौर में बदनाम हूं वर्ना
वफादारी
थी शर्ते-आदमीयत इससे पहले भी
कहीं
देखी है शायद तेरी सूरत इससे पहले भी
कि
गुजरी है मेरे दिल पे ये हालत इससे पहले भी
न
जाने कितने जल्वे पेश-रौ थे तेरे जल्वों के
तुझी से
बारहा की है
मोहब्बत इससे पहले
भी
एक
से ही प्रेम चल रहा है। अलग-अलग दीये हैं, रोशनी एक है। अलग-अलग फूल हैं,
सौंदर्य एक है। उसी एक की तलाश चल रही है। और जब भी उस एक की कहीं
झलक मिल जाए तो सिर झुक जाता है, सत्संग शुरू होता है।
सत्संग का अर्थ है: मिल गई झलक उस एक की जन्मों-जन्मों से जिसको खोजते थे; कहीं उस प्यारे की एक किरण दिखाई पड़ने लगी, कहीं
थोड़ी सी आहट होने लगी उसके पदचिह्नों की, थोड़ी सी झलक।
अभी
कुछ दिन पहले मेरा जर्मन संन्यासी, विमलकीर्ति, संसार
से विदा हुआ। उसने अपनी आखिरी कविता जो मेरे लिए लिखी, उसमें
कुछ प्यारे वचन लिखे थे। विमलकीर्ति यूं तो राज-परिवार से था। करीब-करीब यूरोप के
सारे राज-परिवारों से उसके संबंध थे। उसकी मां है ग्रीस की महारानी की बेटी। उसकी
दादी है ग्रीस की महारानी। उसकी मौसी है स्पेन की महारानी। उसकी मां के भाई हैं
प्रिंस फिलिप, एलिजाबेथ के पति इंग्लैंड के। एलिजाबेथ,
इंग्लैंड की महारानी उसकी मामी। प्रिंस वेल्स उसके ममेरे भाई। उसकी
मां ने यह दूसरी शादी की हनोवर के राजकुमार से, जिनसे
विमलकीर्ति का जन्म हुआ। उसकी पहली शादी, विमलकीर्ति की मां
की, हुई थी डेनमार्क के महाराजा से। तो डेनमार्क के महाराजा
और डेनमार्क के महाराजा के जितने संबंधी हैं, उनसे भी
विमलकीर्ति का संबंध। मुश्किल होगा एक आदमी ऐसा खोजना जिसका यूरोप के सारे
राज-परिवारों से संबंध है। और निकट संबंध है। और जर्मन सम्राट का तो वह वंशज है
ही। अगर जर्मन साम्राज्य बचा रहता तो विमलकीर्ति आज सम्राट होता जर्मनी का। आया था
भारत में यूं ही भ्रमण के लिए। सोचा भी न होगा कि मुझसे मिलना हो जाएगा। इधर मुझसे
मिलना हो गया तो लौटा ही नहीं। और उसका समर्पण समर्पण कहा जा सकता है। वर्षों तक
तो यह पता ही नहीं चला किसी को कि वह इतने साम्राज्यों से संबंधित है। किसी को पता
ही नहीं चला। किसी को उसने कभी कहा ही नहीं। यहां उसने कोई ऐसा काम नहीं जो न किया
हो। बागवानी का काम किया, बुहारी लगाने का काम किया। जो काम
उसको दे दिया, किया। समर्पण यह था! कभी एक बार भी यह पता न
चलने दिया कि मैं राजकुमार हूं और कभी मेरी पीढ़ियों में किसी ने बुहारी नहीं लगाई।
बुहारी लगाने की बात ही दूर, बुहारी देखी भी नहीं होगी।
फिर
वह मेरा पहरेदार हो गया,
मेरे दरवाजे पर पहरा देता था। तब भी उसने नहीं बताया कि खुद उसके
दरवाजे पर पहरेदार हुआ करते थे। मुझसे न तो उसने कभी कोई प्रश्न पूछा, न मुझे कभी कोई पत्र लिखा। पत्र लिखता भी था तो अपनी डायरी में रखता जाता
था। उसके विदा हो जाने के बाद ही उसकी पत्नी तुरीया ने मुझे डायरी दिखाई, जिसमें कि वह पत्र रखता जाता था। और मुझे इसलिए नहीं भेजता था क्योंकि
उसका कहना था कि आज नहीं कल मैं उत्तर दे ही देता हूं, तो
क्यों नाहक भेजना, क्यों परेशान करना! अपना पत्र लिख कर रख
लेता हूं कि यह मेरा प्रश्न है, ताकि मैं न भूल जाऊं। उत्तर
तो आ ही जाता है, देर-अबेर। जब मेरी जरूरत होती है, उत्तर आ जाएगा।
आखिरी
पत्र उसने जो मुझे लिखा है--वह भी मुझे भेजा नहीं था--उसमें उसने लिखा है कि मैंने
कभी सोचा भी न था कि जीवन में इतना आनंद भी हो सकता है। और मेरे सर्वाधिक आनंद के
वे क्षण हैं जब मैं,
आप दरवाजे के बाहर निकलते हैं और आपके परदे के बाहर पहरा देता हूं
और आपके पैरों की आहट सुनता हूं। बस आपके पैरों की आहट मेरा सबसे बड़ा आनंद है।
मुझे सब मिल जाता है।
वह
परदे के बाहर होता था,
तो मैं तो उसे दिखाई पड़ता नहीं था, एक कमरे से
मैं दूसरे कमरे में जाऊं तो मैं उसे दिखाई नहीं पड़ता था, लेकिन
मेरे पैरों की आहट उसे सुनाई पड़ती थी। वह कहता था: चौबीस घंटे भी मैं वहां बैठा रह
सकता हूं, बस दिन में दो बार आपके पैरों की आहट सुनाई पड़
जाती है, और मैंने सब पा लिया!
इसे
कहते हैं समर्पण। विजयानंद के समर्पण को समर्पण नहीं कहते।
तो
विमलकीर्ति विदा भी बुद्ध की तरह हुआ, बुद्धत्व को पाकर हुआ। और बुद्धत्व
पाने की कोई चाह न थी, सोच भी न था, विचार
भी नहीं था। सोच-विचार से नहीं होता। लेकिन जन्मों-जन्मों यही खोज चलती है। वह
मेरे पास आया और रुक ही गया। बस एक किरण पहचान में आ गई कि उसने पकड़ लिया सहारा।
दिल
में अब यूं तेरे भूले हुए गम आते हैं
जैसे बिछुड़े
हुए काबे में
सनम आते हैं
काबे
में मोहम्मद के पहले मूर्तियां थीं, तीन सौ पैंसठ मूर्तियां थीं। काबा
का मंदिर दुनिया का सबसे बड़ा मंदिर था, अपने ढंग का अदभुत
मंदिर था। ऐसा कोई मंदिर दुनिया में नहीं जहां तीन सौ पैंसठ मूर्तियां हों। और
प्रत्येक दिन की पूजा एक मूर्ति को मिलती थी। प्रत्येक दिन के लिए एक मूर्ति थी।
बड़ा मंदिर था, विशाल मंदिर था। मोहम्मद ने वे मूर्तियां
समाप्त करवा दीं, क्योंकि मोहम्मद निर्गुण और निराकार के
उपासक थे, सगुण और साकार के नहीं। इसलिए मूर्तियां खंडित कर
दी गईं।
हालांकि
मेरे देखे, मूर्तियों को खंडित करना सच्चा निराकार भाव नहीं। क्योंकि मूर्ति को खंडित
करने का मतलब यह हुआ कि अभी तुम्हें साकार में निराकार नहीं दिखाई पड़ता, अभी सगुण में निर्गुण दिखाई नहीं पड़ता। नहीं तो मूर्ति को क्या मिटाना है?
आखिर आदमी भी तो मूर्तियां ही हैं। ये भी तो आकार ही हैं। आखिर
वृक्ष भी तो मूर्तियां ही हैं। ये भी तो आकार ही हैं। चांदत्तारे, ये भी तो मूर्तियां ही हैं। ये भी तो आकार ही हैं। अगर चांदत्तारों में
तुम्हें निराकार दिखाई पड़ता है, अगर आदमियों में तुम्हें
निराकार दिखाई पड़ता है, तो पत्थर की मूर्ति में क्या कसूर है?
और तुमने पहाड़ तो नहीं तोड़े। पहाड़ों में निराकार दिखाई पड़ता है! तो
आदमी ने अगर किसी पत्थर पर नक्काशी कर दी है और उसे आकृति दे दी है तो इसमें
तुम्हें निराकार के दिखाई पड़ने में क्या बाधा पड़ रही है? यह
सच्चा निराकारवाद नहीं है।
कुछ
लोग हैं जो मूर्ति पूजते हैं, कुछ लोग हैं जो मूर्ति तोड़ते हैं; दोनों मूर्तिवादी हैं। सच्चा मूर्तिभंजक मूर्ति नहीं तोड़ता। क्यों तोड़ेगा?
मूर्ति अपने आप है, अपनी जगह है। और मूर्ति
में भी अमूर्त तो विराजमान है। तुम मूर्त में अमूर्त को देखो, यह तो बात समझ में आती है। मूर्त को तोड़ने से क्या होगा?
दिल
में अब यूं तेरे भूले हुए गम आते हैं
जैसे बिछुड़े
हुए काबे में
सनम आते हैं
जैसे
कि काबे में फिर से मूर्तियां वापस लौट आएं। ऐसी घड़ी आती है जब अचानक तुम्हारे
भीतर के मंदिर में कोई मूर्ति विराजमान हो जाती है--कोई मूर्ति जो अमूर्त का
प्रतीक है।
दिल
में अब यूं तेरे भूले हुए गम आते हैं
जैसे
बिछुड़े हुए काबे में सनम आते हैं
एक-एक
करके हुए जाते हैं तारे रोशन
मेरी मंजिल
की तरफ तेरे
कदम आते हैं
खयाल
रखना, जो व्यक्ति झुक गया, मिट गया, उसे
परमात्मा को नहीं खोजना पड़ता, परमात्मा उसे खोजता हुआ आता
है। क्या परमात्मा को हम खोजेंगे! हमारी बिसात क्या? हमारी
औकात क्या? हमारे हाथों की पहुंच कितनी? हम तो मिट सकते हैं। और जो मिट जाता है उसे परमात्मा खोज लेता है।
दिल
में अब यूं तेरे भूले हुए गम आते हैं
जैसे
बिछुड़े हुए काबे में सनम आते हैं
एक-एक
करके हुए जाते हैं तारे रोशन
मेरी
मंजिल की तरफ तेरे कदम आते हैं
रक्से-मय
तेज करो, साज की लय तेज करो
सूए-मैखाना
सफीराने-सफर आते हैं
कुछ
हमीं को नहीं एहसान उठाने का दिमाग
वो
तो जब आते हैं,
माइल-ब-करम आते हैं
और
कुछ देर न गुजरे शबे-फुर्कत से कहो
दिल
भी कम दुखता है वो याद भी कम आते हैं
एक-एक
करके हुए जाते हैं तारे रोशन
मेरी
मंजिल की तरफ तेरे कदम आते हैं
रक्से-मय
तेज करो, साज की लय तेज करो
सूए-मैखाना सफीराने-सफर आते
हैं
दीपिका, अगर झुकी
है, तो रक्से-मय तेज करो! फिर यह शराब का दौर और चलने दो! अब
उठना क्या? अब सिर उठाना क्या? अब यह
नशा और बढ़ने दो।
रक्से-मय
तेज करो...
यह
मधु और ढलने दो।
...साज की लय तेज करो
अब
यह शहनाई और जोर से बजने दो। इस मृदंग पर और जोर से थाप दो।
रक्से-मय
तेज करो, साज की लय तेज करो
सूए-मैखाना सफीराने-सफर आते
हैं
अब
मधुशाला की ओर जब कि मुसाफिर आने लगा, जब कि उसके कदम तेरी तरफ आने लगे,
तब यह बात ही क्या उठानी?
यह
क्या पूछती है तू: "तुम्हारे कदमों में सर झुकाया था हमने,
अब कहां सर
झुकाऊं तुम्हें अपना खुदा बनाने के बाद?'
अब
कोई जरूरत ही नहीं है। अब कोई प्रयोजन ही नहीं है।
आधी
रात को ये दुनिया वाले
जब
ख्वाबों में खो जाते हैं
ऐसे
में मुहब्बत के रोगी
यादों
के चिराग जलाते हैं।
करते
हैं मुहब्बत सब ही मगर
हर
दिल को सिला कब मिलता है
आती
हैं बहारें गुलशन में
हर
फूल मगर कब खिलता है
करते
हैं मुहब्बत सब ही मगर।
मैं
रांझा न था, तू हीर न थी
हम
अपना प्यार निभा न सके
यूं
प्यार के ख्वाब बहुत देखे
ताबीर
मगर हम पा न सके
मैंने
तो बहुत चाहा लेकिन
तू
रख न सकी वादों का भरम
अब
रह-रह कर याद आता है
जो
तूने किया इस दिल पे सितम।
करते
हैं मुहब्बत सब ही मगर
हर
दिल को सिला कब मिलता है
आती
हैं बहारें गुलशन में
हर
फूल मगर कब खिलता है
करते
हैं मुहब्बत सब ही मगर।
परदा
जो हटा दूं चेहरे से
तुझे
लोग कहेंगे हरजाई
मजबूर
हूं मैं दिल के हाथों
मंजूर
नहीं तेरी रुसवाई
सोचा
है कि अपने ओंठों पर
मैं
चुप की मुहर लगा लूंगा
मैं
तेरी सुलगती यादों से
अब
इस दिल को बहला लूंगा।
करते
हैं मुहब्बत सब ही मगर
हर
दिल को सिला कब मिलता है
आती
हैं बहारें गुलशन में
हर
फूल मगर कब खिलता है
करते हैं
मुहब्बत सब ही
मगर।
दीपिका, प्रेम तो
सभी करते हैं, मगर सिला बहुत कम लोगों को मिलता है। क्योंकि
प्रेम लोग मूर्च्छा में करते हैं। और मूर्च्छा में कोई सिला नहीं। मूर्च्छा में
कोई परिणाम नहीं आता।
शिष्य
और गुरु के बीच जो प्रेम घटता है, वह अमूर्च्छित प्रेम है, वह
जाग्रत प्रेम है। वह प्रेम का ज्वलंत रूप है। वह प्रेम की ऐसी ज्योति-शिखा है
जिसमें कोई धुआं नहीं। और तब सिला निश्चित है। और सिला कल नहीं मिलता, अभी मिलता है, यहीं मिलता है। इधर सिर झुका, इधर सिला मिला। साथ-साथ, तत्क्षण। और मैं तो दो ही
पाठ सिखा रहा हूं--ध्यान के और प्रेम के। ध्यान तुम्हें प्रेम के योग्य बनाता है
और प्रेम तुम्हें ध्यान के योग्य बनाता है। वे एक-दूसरे के सहारे हैं। जैसे कबीर
ने कहा कि गुरु यूं है जैसे कि कुम्हार घड़ा बनाता है; एक हाथ
से भीतर सहारा देता है और दूसरे हाथ से बाहर थपकी देता है। तब कहीं घड़े की बनावट
उभर पाती है। एक हाथ का सहारा और एक हाथ से चोट। ध्यान भीतर से सहारा है, प्रेम बाहर से। और जहां दोनों मिल जाते हैं वहां जीवन की गागर निर्मित हो
जाती है--और ऐसी गागर, जिसमें कि सागर समा सकता है। अब कहीं
जाने की कोई जरूरत नहीं, अब कुछ और करने का सवाल नहीं।
हां, अगर तेरा
समर्पण भी विजयानंद जैसा हो--कि समग्र समर्पण कर दिया और पांच साल हो गए और अभी तक
बुद्धत्व नहीं मिला--तो फिर कहीं और खोजना पड़ेगा। मगर यूं कहीं भी खोज, पाना असंभव है। पाने की आकांक्षा ही पाने में बाधा है। जो यहां घट सकता है,
अभी घट सकता है, उसे क्यों कल पर टालना?
साधन और साध्य में भेद न कर।
और
मैं तो सिर्फ बहाना हूं। तेरा सिर झुकाना कैसे भी हो जाए, किसी
बहाने हो जाए, बस सिर झुक जाए, तू
बेसिर हो जाए, ताकि हृदय ही हृदय बचे--और आ गई वह घड़ी,
वह परम सौभाग्य की घड़ी, जब स्वर्ग भीतर उतर
आता है!
एक-एक
करके हुए जाते हैं तारे रोशन
मेरी
मंजिल की तरफ तेरे कदम आते हैं
दिल
में अब यूं तेरे भूले हुए गम आते हैं
जैसे
बिछुड़े हुए काबे में सनम आते हैं
रक्से-मय
तेज करो, साज की लय तेज करो
सूए-मैखाना सफीराने-सफर आते
हैं
आज इतना ही।
वच वच वच
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