अनंत की पुकार—(अहमदाबाद)
ओशो
प्रवचन-पांचवा-(अवधिगत संन्यास)
मेरे
मन में इधर बहुत दिनों से एक बात निरंतर खयाल में आती है और वह यह कि सारी दुनिया
से, आने वाले दिनों में, संन्यासी के समाप्त हो जाने की
संभावना है। संन्यासी, आने वाले पचास वर्षों बाद, पृथ्वी पर नहीं बच सकेगा। वह संस्था विलीन हो जाएगी। उस संस्था के नीचे की
ईंटें तो खिसका दी गई हैं, उसका मकान भी गिर जाएगा।
लेकिन
संन्यास इतनी बहुमूल्य चीज है कि जिस दिन दुनिया से विलीन हो जाएगी उस दिन दुनिया
का बहुत अहित हो जाएगा।
मेरे
देखे, संन्यासी तो चला जाना चाहिए, संन्यास बच जाना चाहिए।
और उसके लिए पीरियाडिकल संन्यास का, पीरियाडिकल रिनन्सिएशन
का मेरे मन में खयाल है। वर्ष में, ऐसा कोई आदमी नहीं होना
चाहिए, जो एकाध महीने के लिए संन्यास न ले ले। जीवन में तो
कोई भी ऐसा आदमी नहीं होना चाहिए जो दो-चार बार संन्यासी न हो गया हो।
स्थायी
संन्यास खतरनाक सिद्ध हुआ है, कि कोई आदमी पूरे जीवन के लिए संन्यासी हो जाए।
उसके खतरे दो हैं। एक खतरा तो यह है कि वह आदमी जीवन से दूर हट जाता है। और
परमात्मा की, प्रेम की या आनंद की जो भी उपलब्धियां हैं,
वे जीवन के घनीभूत अनुभव में हैं, जीवन के
बाहर नहीं। दूसरी बात यह होती है कि जो आदमी जीवन से हट जाता है, उसकी जो शांति, उसका जो आनंद है, वह जीवन में बिखरने से बच जाता है, जीवन उसका
साझीदार नहीं हो पाता। तीसरी बात यह है, लोगों को यह खयाल
पैदा हो जाता है कि गृहस्थ अलग है और संन्यासी अलग है। तो गलत काम करते वक्त भी
हमें यह खयाल रहता है कि हम तो गृहस्थ हैं, यह तो करना हमारी
मजबूरी है, संन्यासी हो जाएंगे तो हम नहीं करेंगे। तो धर्म
और जीवन के बीच एक फासला पैदा हो जाता है।
मेरी
दृष्टि में, संन्यास जीवन का अंग होना चाहिए। संन्यास जीवन को समझने और पहचानने की
विधि होनी चाहिए। ऐसे आदमी का जीवन अधूरा और अधूरी शिक्षा माननी चाहिए उसकी,
जो आदमी वर्ष में थोड़े दिनों के लिए संन्यासी न हो जाता हो! अगर
बारह महीने में एक महीने या दो महीने कोई व्यक्ति परिपूर्ण संन्यासी का जीवन जीता
हो तो उसके जीवन में आनंद के इतने द्वार खुल जाएंगे जिसकी उसे कल्पना भी नहीं हो
सकती। इन दो महीनों में वह संन्यासी रहेगा। फिर पूरी तरह ही संन्यासी रहेगा दो
महीने। इन दो महीनों में दुनिया से उसका कोई भी संबंध नहीं है। संन्यासी का भी
जितना संबंध होता है दुनिया से उतना भी उसका दो महीने में संबंध नहीं है।
और
यह जान कर आपको हैरानी होगी, जो आदमी पूरे जीवन के लिए संन्यासी हो जाता है
वह गृहस्थियों के ऊपर निर्भर हो जाता है। इसलिए वह दिखता तो है कि संसार से दूर
गया, लेकिन संसार के पास उसे रहना पड़ता है। लेकिन जो आदमी
बारह महीने में दो महीने संन्यासी होता है वह किसी के ऊपर निर्भर नहीं होता,
वह अपने ही दस महीने का जो गृहस्थ जीवन था उस पर निर्भर होता है। वह
संसार के ऊपर आश्रित नहीं होता। इसलिए किसी से भयभीत भी नहीं होता, किसी से संबंधित भी नहीं होता।
अगर
एक आदमी पूरे जीवन के लिए संन्यासी होगा तो वह किसी का आश्रित होगा ही; वह बच
नहीं सकता। और अंतिम परिणाम यह होता है कि संन्यासी दिखाई तो पड़ते हैं कि हमारे
नेता हैं, लेकिन वे अनुयायियों के भी अनुयायी हो जाते हैं।
वे उनके भी पीछे चलते हैं। संन्यासियों को आज्ञा देते हैं गृहस्थ कि तुम ऐसा करो
और वैसा मत करो। गृहस्थ उनका मालिक हो जाता है, क्योंकि उनको
रोटी देता है। संन्यासी गुलाम हो गया है।
संन्यासी
की गुलामी टूट सकती है एक ही रास्ते से कि आदमी कभी-कभी संन्यासी हो। वर्ष में
ग्यारह महीने वह गृहस्थ हो और एक महीने संन्यासी हो। तब वह किसी पर निर्भर नहीं
है। वह अपनी ग्यारह महीने की कमाई पर निर्भर है। किसी से उसको लेना-देना नहीं है।
और यह एक महीने वह पूरी फ्रीडम, पूरी स्वतंत्रता का उपभोग कर सकता है, बिना किसी आश्रय के। तो यह एक महीने में वह परिपूर्ण संन्यास का अनुभव
करेगा जो कि कोई संन्यासी कभी नहीं कर पाता है। तब वह पूर्ण मुक्ति से जी सकता है।
और
यह एक महीने में जिस विधि से वह जीएगा और जिस आनंद को, जिस शांति
को अनुभव करेगा और जिस स्वतंत्रता में प्रवेश करेगा--वापस लौट जाएगा एक महीने के
बाद जिंदगी में। वापस लौट जाएगा और जिंदगी के घनेपन में प्रयोग करेगा कि जो उसने
एकांत में सीखा था, क्या भीड़ में उसका उपयोग कर सकता है?
क्योंकि एकांत में शिक्षा होती है, भीड़ में
परीक्षा होती है। जो भीड़ से बच जाता है वह परीक्षा से बच जाता है। उसकी शिक्षा
अधूरी है। जो मैंने अकेले में जाना है, अगर भीड़ में मैं उसका
उपयोग नहीं कर सकता हूं तो वह जानना गलत है। वह बहुत मूल्य का नहीं है। वहां कसौटी
है, क्योंकि वहां विरोध है, वहां
परिस्थितियां अनुकूल नहीं हैं, वहां प्रतिकूल हैं। वहां भी
मैं शांत रह सकता हूं या नहीं? वहां भी मैं, अपने भीतर जिस संन्यास को मैंने एक महीने साधा है और जो आनंद पाया है,
क्या मैं घर के भीतर, दुकान पर बैठ कर भी उस
संन्यास को साध सकता हूं या नहीं? यह ग्यारह महीना उसे
निरीक्षण करना है, ऑब्जर्व करना है। वर्ष भर बाद उसे फिर
महीने भर के लिए लौट आना है, ताकि वह फिर, जो वर्ष भर में उसने अनुभव किया है परीक्षा से गुजर कर, उसे और गहरा कर सके। पिछले वर्ष जहां गया था, और नयी
सीढ़ियां पार कर सके।
अगर
एक आदमी बीस साल की उम्र के बाद सत्तर साल तक जीए और पचास वर्षों में पचास महीने
के लिए संन्यासी हो जाए--इस जगत में ऐसा कोई सत्य नहीं है जिससे वह अपरिचित रह जाए, ऐसी कोई
अनुभूति नहीं है जिससे वह अनजाना रह जाए।
और
यह जो रिनन्सिएशन होगा पीरियाडिकल, यह जो एक अवधि के लिए लिया गया
संन्यास होगा, यह उसे जीवन से नहीं तोड़ेगा।
अन्यथा
हमारा संन्यासी जो है वह जीवन-विरोधी हो गया। पत्नी और बच्चे उससे भयभीत हैं, मां-बाप
उससे भयभीत हैं, क्योंकि वह तो जीवन को उजाड़ कर चला जाएगा।
यह
जो कभी-कभी संन्यासी होता है, इससे जीवन को भयभीत होने की कोई जरूरत नहीं।
बल्कि जब यह लौटेगा तो इसकी पत्नी पाएगी कि और भी ज्यादा प्यारा पति होकर लौटा है।
उसके बच्चे पाएंगे, वह ज्यादा बेहतर बाप होकर लौटा है। उसकी
मां पाएगी कि वह ज्यादा श्रद्धा, ज्यादा प्रेम से, आदर से भरा हुआ बेटा होकर लौटा है।
और
तब इस एक महीने के बाद जो वह ग्यारह महीने घर में जीएगा और जो सुगंध उसने पाई है
वह बिखरेगी उसके संबंधों में, तो वह दुनिया को बनाएगा। अब तक संन्यासी ने
दुनिया को उजाड़ा है और बिगाड़ा है, उसको बनाया नहीं है। वह
जीवन को निर्मित करने में, सृजन करने में सहयोगी और मित्र हो
जाएगा।
तो
मेरे मन में,
एक अवधि के लिए संन्यास अनिवार्य है, वह मेरे
खयाल में है। इस भांति, संन्यासी तो दुनिया से समाप्त हो जाए
तो फिर कोई डर नहीं है, संन्यास बचा रहेगा। और इस भांति
संन्यास व्यापक रूप से डिफ्यूज हो जाएगा बड़े पैमाने पर, क्योंकि
हर आदमी को हक हो जाएगा फिर संन्यासी होने का। अभी हर आदमी को हक नहीं हो सकता।
क्योंकि अभी हर आदमी संन्यासी हो जाए तो जीवन एक मरघट बन जाए, मृत्यु बन जाए।
और
जो काम हर आदमी न कर सकता हो, उस काम में कोई भूल है। जो काम हर आदमी का
अधिकार न बन सकता हो, उसमें कोई भूल है।
अगर
सारे लोग संन्यासी हो जाएं तो जीवन आज उजड़ जाए, इसी क्षण। तो जो संन्यासी भी हैं
उनको भी वापस लौट आना पड़े। तो यह जो आजीवन संन्यास है, यह
भ्रांत है, यह गलत है।
तो
इस तरह संन्यास बच सके दुनिया में, उसके लिए एक बड़ा गहरा प्रयोग करना
जरूरी है। तो वह जो सी.एस. ने जो सुझाव दिया है, मेरे मन के
बहुत अनुकूल है। उस तरह की संभावना उस सुझाव से पूरी हो सकती है।
और
फिर, जैसा कि पी.के. ने कहा कि आपकी बात समझ में आती है, बुद्धि
तक पहुंचती है; लेकिन उससे व्यक्तित्व परिवर्तित नहीं होता।
ठीक
कहते हैं वे। क्योंकि व्यक्तित्व की बनावट वर्षों की बनावट है, पूरे जीवन
की। और जो जानते हैं वे कहते हैं, अनेक जीवन की बनावट है
वहां। आप मेरी बात सुनते हैं, वह व्यक्तित्व का एक छोटा सा
कोना जो बुद्धि का है, वहां सुनाई पड़ती है, बुद्धि को ठीक भी मालूम पड़ती है। लेकिन व्यक्तित्व बुद्धि से बहुत बड़ी बात
है। बुद्धि व्यक्तित्व का एक छोटा सा अंश मात्र है। पूरी पर्सनैलिटी इंटलेक्ट से
बहुत बड़ी बात है। बुद्धि तो द्वार की भांति है। जैसे एक महल है, उस पर एक दरवाजा है। महल बहुत बड़ा है, महल दरवाजा नहीं
है। दरवाजा महल भी नहीं है। दरवाजे का काम कुल इतना है कि महल में किसी को प्रवेश
दे देता है, इससे ज्यादा उसका कोई मूल्य नहीं है।
तो
बुद्धि तो केवल प्रवेश-द्वार है व्यक्तित्व का। व्यक्तित्व बहुत बड़ी चीज है। और
बहुत सी चीजों से निर्मित होता है। जिनकी आपको कल्पना भी नहीं होती कि इन चीजों से
व्यक्तित्व निर्मित होता है।
तो
आपकी बुद्धि में तो एक बात पहुंच जाती है, लेकिन आपका पूरा व्यक्तित्व उन्हीं
चीजों से निर्मित है जिसके विरोध में बुद्धि में आपके बात पहुंच जाती है। और उस
व्यक्तित्व में कोई फर्क नहीं होता कहीं भी। वह व्यक्तित्व वैसा ही बना रहता है।
तब आप बेचैनी में पड़ जाते हैं कि मैं क्या करूं और क्या न करूं?
तो
अगर यह संभव हो सके कि मेरे पास आप महीने, दो महीने या तीन महीने हैं--तो
आपके समग्र व्यक्तित्व में कहां-कहां, क्या-क्या परिवर्तन
किए जाने चाहिए, उनके लिए मैं सुझाव दे सकता हूं। मेरे साथ
रह कर उन पर आप प्रयोग कर सकते हैं कि वह व्यक्तित्व कहां-कहां से बदल लिया जाए।
एक बार आपको खयाल में आ जाए! आपको पता ही नहीं होता, कि
कितनी अजीब सी चीजों से व्यक्तित्व जुड़ा रहता है, जिसका हमें
पता ही नहीं होता।
हरि
सिंह गौर का नाम आपने सुना होगा, उन्होंने सागर विश्वविद्यालय का निर्माण किया।
वे हिंदुस्तान के संभवतः अपने जमाने के बड़े से बड़े वकीलों में से थे। प्रिवी
कौंसिल में वकालत करते थे लंदन में। उनसे मैं कुछ बात कर रहा था। और पूरे
व्यक्तित्व की बात उनसे मैंने कही। तो उन्होंने कहा कि मुझे अपना एक अनुभव खयाल
आता है। मुझे हमेशा से आदत थी--जिसका मुझे कोई पता नहीं रह गया था--कि जब भी मैं
पैरवी करता था, आर्ग्यु करता था अदालत में, तो जब भी कोई गांठ आ जाती थी, कोई उलझन आ जाती थी,
और मेरी बुद्धि काम नहीं करती थी, तो मुझे पता
नहीं होता था, मैं अपने कोट के बटन को घुमाने लगता था। इसका
मुझे पता ही नहीं था, यह अनकांशस हैबिट का हिस्सा हो गई थी।
और जैसे ही मैं कोट का बटन घुमाता था, मुझे रास्ता मिल जाता
था।
जैसे
कोई आदमी सिर खुजाता है,
कोई आदमी कुछ और करता है, वैसे ही वे बटन
घुमाते थे। वे एक बड़े मामले में, किसी स्टेट का एक बड़ा मामला
था, उसमें वे वकील थे। और उनका विरोधी वकील इस बात को निरंतर
देखता रहा था कि वे बटन घुमाते हैं, जब भी कुछ आर्ग्युमेंट
करने में उन्हें कठिनाई होती है। उसने उनके ड्राइवर को मिला कर उनके कोट का बटन
तुड़वा लिया। जब वे अदालत में आए तो कोट हाथ में लेकर आए, और
ड्राइवर को उसने कुछ पैसे दिए, उसने उसका ऊपर का बटन तोड़
लिया। वे अदालत में पहुंच गए, उन्होंने कोट डाल लिया। और जब
वे आर्ग्यु कर रहे थे, और ठीक वक्त पर जब उनको उलझन आई,
बटन पर हाथ गया, वहां बटन नहीं था। वे
एकदम...सारी उनकी बुद्धि काम करनी बंद कर दी। वे एकदम घबड़ा गए। वह पहला मुकदमा था
जो वे हार गए। और वे मुझसे बोले, उस बटन के पीछे मैं हार
गया। लेकिन उस वक्त मुझे कुछ समझ में नहीं पड़ा फिर। बटन नहीं है, मेरे लिए सब कुछ खतम हो गया। एक एसोसिएशन था, एक
संबंध हो गया था, एक कंडीशंड रिफ्लेक्स हो गया था दिमाग का,
कि बटन घूमती तो मस्तिष्क काम करता। बटन नहीं घूमती तो मस्तिष्क काम
नहीं करता।
अब
बटन जैसी छोटी सी चीज से मस्तिष्क के चलने का इतना अनिवार्य संबंध हो सकता है, इसकी हम
कल्पना नहीं कर सकते। बटन जैसी छोटी-छोटी चीजों से हमारा सारा व्यक्तित्व संचालित
होता है, जिसका हमें पता ही नहीं होता। तो पूरे व्यक्तित्व
की बदलाहट के लिए बहुत सी बातें जाननी जरूरी हैं, जिसकी आपको
कल्पना ही नहीं हो सकती कि ये बातें भी जाननी जरूरी हैं, या
इन बातों में भी फर्क होने से फर्क पड़ जाएगा।
एक
आदमी शांत होना चाहता है,
और चुस्त कपड़े पहने हुए है। उसे कल्पना भी नहीं हो सकती कि चुस्त
कपड़े और मन के शांत होने में विरोध है। यह दिखाई नहीं पड़ता। नहीं तो हम मिलिटरी
में लोगों को चुस्त कपड़े कभी के पहनाना बंद कर देते। मिलिटरी में चुस्त कपड़े
पहनाना अत्यंत जरूरी है। चुस्त कपड़ा लड़ने की वृत्ति का सहयोगी है। ढीला कपड़ा लड़ने
की वृत्ति का सहयोगी नहीं है। जो कौमें ढीले कपड़े पहनती हैं वे लड़ाकू नहीं रह
जातीं।
तो
अब कपड़े जैसी फिजूल की चीज से भी कोई व्यक्तित्व के भीतर लड़ने, अशांत
होने और शांत होने का संबंध हो सकता है, यह एकदम से खयाल में
नहीं आता। आपको पता नहीं है कि अगर आप चुस्त कपड़े पहने हों और सीढ़ियां चढ़ रहे हैं,
तो आप दो-दो सीढ़ियां एक साथ चढ़ जाएंगे। और ढीले कपड़े पहने हैं,
तो आप एक-एक सीढ़ी चढ़ेंगे, दो-दो सीढ़ियां नहीं
चढ़ेंगे। नौकरों को चुस्त कपड़े जान कर पहनाए जाते रहे हैं ताकि वे तेजी से काम कर
सकें। मालिक ढीले कपड़े पहनते रहे हैं, क्योंकि उन्हें कोई
काम करने का कोई सवाल ही नहीं है। सारी दुनिया में संन्यासियों ने ढीले कपड़े चुन
लिए, उसका कोई कारण था। उन्हें कोई काम नहीं करना है।
जिन्हें काम करना है उनके लिए चुस्त कपड़े चाहिए। चुस्त कपड़ा जो है मन तक चुस्ती ले
जाता है, तीव्रता ले जाता है, एक गति
लाता है। ढीला कपड़ा जो है वह एक शिथिलता लाता है, एक
रिलैक्स्ड माइंड पैदा करता है, भीतर सब रिलैक्स्ड हो जाता
है।
मैं
तो उदाहरण के लिए कह रहा हूं। व्यक्तित्व के बहुत से हिस्से हैं, जो कि सब
के सब आपको बनाते हैं। आपके जूते से लेकर आपकी टोपी तक, आपके
खाने से लेकर आपकी नींद तक, आपके बोलने के शब्दों से लेकर
आपके सपनों तक, सब आपके व्यक्तित्व को निर्मित करता है,
सब! यह सब एक तरफ पड़ा रहता है, आपने मेरी बात
सुन ली और सोचा कि सब बदलाहट हो जानी चाहिए। तो आप पागल हैं! ऐसे कहीं बदलाहट हो
जाएगी? यह तो केवल बदलाहट के लिए इशारा हुआ। और अगर यह इशारा
समझ में आता है तो उसका मतलब यह होगा कि आप अपने पूरे व्यक्तित्व को खोजें अब कि
इस इशारे के विरोध में कहां-कहां क्या-क्या पड़ा है। और अगर दिखाई पड़ जाएगा कि
विरोध में है, तो आप बदल लेंगे। बदलाहट के लिए कुछ बहुत करना
नहीं पड़ता। एक दफे दिखाई पड़ना चाहिए। यह खयाल में आना चाहिए कि कहां बात अटकी
होगी।
और
इतनी क्षुद्र चीजों में बात अटकी होती है कि आप सोचते होंगे कि कोई बहुत बड़ी-बड़ी
बातों में अटकी है,
तो आप गलती में हैं। जिंदगी में बड़ी बातें हैं ही नहीं। जिंदगी में
बहुत छोटी बातें हैं। और हम बड़ी बातों पर विचार करते रहते हैं और समय गवां देते
हैं। जिंदगी में बहुत छोटी-छोटी बातें हैं। जिन पर न कोई विचार करता, न कोई फिकर करता, न कोई हिसाब लगाता। उन छोटी-छोटी
बातों से सारा व्यक्तित्व निर्मित होता है।
तो
वह संभव नहीं हो पाता। वह संभव हो सकता है कि मेरे निकट आप थोड़े ज्यादा दिन हैं, तो आपकी
छोटी-छोटी बातों पर आपको निकटता से मैं देख सकूं, आपको कुछ
सुझाव दे सकूं, आपको कुछ फर्क करने को कह सकूं कि इसमें फर्क
करके देखें क्या होता है। कई बार इतनी छोटी चीजों के फर्क इतने बड़े परिवर्तन ले
आते हैं जिसकी हम कल्पना भी नहीं कर सकते, जिसका कोई संबंध
नहीं जोड़ सकते कि इतनी छोटी बात का इतना बड़ा संबंध क्या हो सकता था। लेकिन
व्यक्तित्व बड़ी जटिल, बड़ी कांप्लेक्स बात है। बुद्धि बहुत
अधूरी है, बुद्धि बहुत द्वार है। बुद्धि से शुरुआत होती है,
अंत नहीं होता। तो मेरी बात सुन कर सिर्फ एक प्रारंभ होता है,
वह अंत नहीं है। उससे केवल आपके लिए निमंत्रण होता है, कि अब कुछ आप कर सकते हैं। तो उचित है कि ज्यादा देर...
फिर, वैसा कोई
भी केंद्र आप बनाते हैं, तो कई महत्वपूर्ण काम और भी वहां
किए जा सकते हैं। जैसे देश भर में मेरे जितने मित्र हैं, वे
सभी यह कहते हैं कि उनके बच्चों के लिए मैं कुछ करूं। उनके बच्चों के लिए कुछ
विचार करना जरूरी है। अगर कभी भी कोई केंद्र बनता है, तो
महीने दो महीने के लिए बच्चों के अलग कैंप रखे जा सकते हैं--कि बच्चे दो महीने के
लिए, छुट्टियां हैं तो मेरे सारे मित्रों के बच्चे आकर दो
महीने मेरे पास रह जाएं। उनके साथ मैं थोड़ी मेहनत करूं। क्योंकि असली मेहनत उनके
साथ है, आपके साथ उतनी असली मेहनत नहीं है। और अगर आपको बात
मेरी समझ में आती है, तो आप अपनी कम फिकर करिए, अपने बच्चों की ज्यादा फिकर कर लीजिए। अगर मेरी बात आपको समझ में आती है,
तो अपने बच्चों की ज्यादा फिकर कर लीजिए। उनके साथ बहुत आसानी से जो
हो सकता है, वह आपके साथ बहुत कठिन हो गया है। आपका सब जाल
करीब-करीब खड़ा हो गया है। और उस जाल के साथ आपके मोह भी बंध गए हैं। बच्चों के पास
कोई जाल नहीं है। अगर आपमें हिम्मत हो तो उन बच्चों को उस क्रांति की दिशा में
संलग्न कर दीजिए।
तो
यह हो सकता है कि वहां बच्चे इकट्ठे हो सकें। आज नहीं कल यह भी हो सकता है कि वहां
एक विद्यापीठ ही हो। यह भी हो सकता है कि वहां एक छात्रावास हो। बच्चे पढ़ें पूरे
नगर में जाकर,
लेकिन रहें वहां, रात वहां रुकें। तो उनके
जीवन पर प्रयोग किया जा सके, पढ़ें-लिखें वे कहीं भी। वहां
बड़े हॉस्टल्स हों और नगर के जो बच्चे वहां रहना चाहते हैं, वे
रहें वहां, पढ़ें वे कहीं भी। पढ़ने का उस संस्था से कोई संबंध
न हो, लेकिन उनके जीवन और चर्या से--वे कैसे रहें, कैसे उठें, क्या करें--उस संबंध में उनके लिए प्रयोग
किए जा सकते हैं। वह उस तरह का कोई केंद्र हो तो वहां यह हो सकता है।
तीसरी
बात, मुझे पूरे मुल्क में जगह-जगह सैकड़ों लोगों ने यह बात कही इधर कि अगर
प्रत्येक रात्रि को ध्यान का पूरा प्रयोग रेडियो से रिले किया जा सके दस मिनट के
लिए, तो मुल्क में लाखों लोग रोज रात में अपना रेडियो खोल कर
उसे घर प्रयोग कर सकते हैं। आज नहीं कल आपके पास कोई बड़ा केंद्र हो तो पूरा
ट्रांसमिशन का सेंटर आपके पास हो सकता है--कि आप सारे मुल्क में, जैसा कि अभी अग्रवाल जी ने कहा कि उचित है कि मैं जाऊं सामने। बिलकुल ठीक
है। मैं जा सकूं तो बहुत अच्छा है। लेकिन एक दफे जहां हो आता हूं, वहां वर्ष भर तक नहीं जा पाता हूं या दो वर्ष नहीं जा पाता हूं, तो वह जो एक बात वहां पैदा होती है वह फिर इस वर्ष में विलीन हो जाती है।
जब मैं फिर वर्ष भर बाद पहुंचता हूं तो करीब-करीब फिर नई बस्ती हो जाती है वह,
क्योंकि साल भर में वह सारा सब खो गया। इस पीछे वर्ष भर फॉलो-अप
करने को कोई व्यवस्था होनी जरूरी है। कितने लोगों ने मुझसे कहा कि कितना उचित हो
जाए कि हम रोज रात्रि को दस बजे पंद्रह मिनट के लिए रेडियो पर ध्यान के पूरे सजेशन
सुन सकें और उसको करते हुए सो सकें। तो बहुत बड़ा काम हो सके, और लाखों नहीं, करोड़ों लोग उसका उपयोग ले सकें। यह
आज नहीं कल आपके पास कोई केंद्र हो और बड़ी योजना हो, तो वहां
से यह सब कुछ हो सकता है।
मुल्क
में, आज आप एक जगह शुरू करते हैं, कोई जरूरी नहीं कि वहां
मुझे बांध कर रखें, आज नहीं कल मुल्क में चार जगह आप बना
सकते हैं, मैं चार-चार महीने वहां रहूं एक-एक जगह। यह भी
जरूरी नहीं है कि मैं वहां, एक केंद्र बनाते हैं तो वहां बंध
जाता हूं, मेरा जाना-आना जारी रह सकता है। वहां जो लोग
रहेंगे, महीने में मैं वहां पंद्रह दिन रहूं, पंद्रह दिन मैं बाहर जाऊं। पंद्रह दिन मेरे साथ रहें वे, पंद्रह दिन मेरे बिना रहें, उसका भी फायदा है।
क्योंकि पंद्रह दिन मेरे साथ जो करते हैं, वह पंद्रह दिन
मेरे बिना करें, उसका भी मूल्य है। मेरे अभाव में करें।
क्योंकि महीने भर बाद तो वे अपने घर जाएंगे, वहां मैं नहीं
रहूंगा। तो यह जारी रह सकता है कि मैं कुछ दिन बाहर रहूं, कुछ
दिन वहां रहूं। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता, इससे कुछ मेरी
यात्राएं रुकने का कोई कारण नहीं है। बल्कि अभी मेरे पास न मालूम कितने पत्र आते
हैं कि हम आपके पास आकर रहना चाहते हैं। मेरे पास तो वहां कोई व्यवस्था नहीं है।
मेरे अपने रहने की कोई व्यवस्था नहीं है, तो दूसरे के रहने
की तो मैं कोई व्यवस्था कर ही नहीं सकता। मैं तो बिलकुल बेघर-बार हूं, मेरा कोई घर तो है ही नहीं। तो मैं खुद ही किसी का मेहमान हूं, वहां मैं किसकी व्यवस्था करूं? इतने पत्र आते हैं!
कुछ
स्थायी रूप से रहना चाहते हैं। अभी मैं आया, उसके तीन दिन पहले ही सागर से एक
वृद्धजन का पत्र आया कि मेरी सत्तर वर्ष की उम्र है और अब मैं थोड़े-बहुत दो-चार जो
वर्ष बचे हैं वह मैं खोना नहीं चाहता। और जब से आपकी बात सुनी है, तब से मैं मुश्किल में पड़ गया हूं--जो मैं करता था वह फिजूल हो गया। और अब
मृत्यु इतने करीब है कि मैं चाहता हूं कि आपके निकट रहूं और जो करने जैसा है उसे
करूं। तो मैं आपके पास आकर रहना चाहता हूं। मैं अपना खर्च उठा लूंगा, सब कर लूंगा।
लेकिन
मेरे पास तो कोई व्यवस्था नहीं है। तो कुछ लोग स्थायी रूप से, एक सीमा
हम उम्र की बांध सकते हैं कि पचपन या साठ वर्ष के बाद अगर कोई स्थायी रूप से रहना
चाहे तो वह रह सकता है। साठ वर्ष तक तो हम किसी आदमी को स्थायी रूप से लेने को
वहां राजी नहीं होंगे, उसके लिए तो पीरियाडिकल संन्यास होगा।
साठ वर्ष के बाद अगर कोई स्थायी रूप से वहां रहना चाहता है तो बिलकुल रह सकता है,
उसके लिए स्थायी संन्यास हो सकता है।
तो
न मालूम कितने लोग हैं जो उत्सुक हैं। और मुझे यह भी लगता है कि मेरे ही मित्र, अनेक
मित्र यह सोचने लगे हैं कि यह बहुत हो गया, हमने पचास या
पचपन वर्ष तक कमा लिया, सब व्यवस्था कर ली, अब हम चाहते हैं...
मेरे
एक मित्र हैं,
उन्होंने मेरी बातें सुनीं, उनकी उम्र पचास
वर्ष थी, उन्होंने कहा कि बस इस वर्ष मेरी वर्षगांठ आती है,
मैं सारा काम समाप्त कर दूंगा, बहुत हो गया!
कमा लिया और खाने लायक हो गया और अब मेरे लिए कोई जरूरत भी नहीं, अब मैं किसलिए कमाए जाऊं? ठीक इक्यावनवीं वर्षगांठ
पर उन्होंने सब, सब बिलकुल बंद कर दिया! सारी दुकानें बंद
करवा दीं, सारा हिसाब बंद करवा दिया। अपनी पत्नी को कहा कि
अब हमारे पास इतना है कि हम दोनों अगर सौ वर्ष भी जीएं तो बहुत है, दो सौ वर्ष भी जीएं तो बहुत है। अब हम करेंगे क्या? तो
उन्होंने सब बंद कर दिया। अब वे मुझे बार-बार लिखते हैं कि मैंने सब बंद कर दिया;
अब मैं चाहता हूं कि मैं आपके पास आ जाऊं। यहां मैं क्या करूं?
पर
मेरे पास कोई व्यवस्था नहीं, मैं तो यहां-वहां घूमता-फिरता हूं। मैं किसको
वहां, किसके लिए कहूं? तो उचित है कि
वैसी कोई जगह हो, वहां कुछ लोग स्थायी रूप से आकर रहना चाहें,
वे स्थायी रूप से रहें। जो लोग बार-बार आकर चले जाना चाहें, वे लोग वैसा करें।
थाईलैंड
में, बर्मा में, जापान में, तीनों
मुल्कों में पीरियाडिकल रिनन्सिएशन की व्यवस्था है। प्रधानमंत्री से लेकर नीचे तक
का आदमी यह सौभाग्य पा जाता है कि जीवन में कभी न कभी संन्यासी हो जाए। हम भी ऐसे
भागते हैं--कभी कोई महीने भर के लिए मसूरी जाता है, कोई
लोनावला आता है, कोई कहीं जाता है। लेकिन क्या फर्क पड़ता है
उस भागने से? कुछ भी फर्क नहीं पड़ता। सिर्फ जगह बदलती है,
और कोई फर्क नहीं पड़ता। थोड़ी सी आबो-हवा का फायदा होता है। लेकिन
मानसिक रूप से कहीं कोई परिवर्तन नहीं हो पाता। तो महीने भर के लिए मानसिक
परिवर्तन भी हो जाए, स्थान का परिवर्तन तो हो ही, वह हो सकता है। और विशेषकर बच्चों के लिए कुछ मैं कर सकूं, इसके लिए फिकर करनी चाहिए।
दूसरा, अभी जो
शिविर होते हैं, चूंकि वे तीन ही दिन के लिए होते हैं,
इसलिए बहुत विस्तार में पूरे जीवन के सब पहलुओं को छूना संभव नहीं
हो पाता। एक स्थायी केंद्र होता है, तो हम विशिष्ट विषयों पर
अलग-अलग शिविर वहां आयोजन कर सकते हैं।
जैसे
मेरी दृष्टि सभी विषयों के प्रति है। मुझे ऐसा नहीं मालूम पड़ता कि भगवान के संबंध
में बात करना ही जरूरी है,
मुझे मालूम पड़ता है कि सेक्स के संबंध में भी बात करना उतना ही
जरूरी है। मुझे ऐसा नहीं मालूम पड़ता कि ध्यान के संबंध में ही बात करना जरूरी है,
मुझे ऐसा भी मालूम पड़ता है कि प्रेम के संबंध में भी बात करना उतना
ही जरूरी है। मुझे यह नहीं मालूम पड़ता कि योग के संबंध में बात करना जरूरी है,
भोग के संबंध में उतनी ही बात करनी जरूरी है। यह पूरा जीवन छुआ जा
सके।
अब
कितने ही मित्रों ने मुझे पत्र लिखे और कहा कि एक दंपतियों का शिविर हो, जिसमें
पति-पत्नी सब सम्मिलित हों इकट्ठे। या एक पारिवारिक शिविर हो, जिसमें कोई भी व्यक्ति पूरा परिवार लेकर सम्मिलित हो। और मैं पूरे परिवार
के जीवन के संबंध में, पूरे परिवार के अंतर्संबंध के संबंध
में, पूरे परिवार के सोचने-विचारने के, घर के संबंध में पूरा विचार रख सकूं कि घर कैसे जीए! एक घर कैसा यूनिट हो!
परिवार में क्या हो!
इतना
गलत हो रहा है सब,
परिवार इतना गलत है, इतना झूठा, इतना कुरूप कि जिसका कोई हिसाब नहीं है। घर अच्छे हैं, मकान अच्छे बनते जा रहे हैं, और परिवार बिलकुल कुरूप,
अग्ली से अग्ली होता चला जा रहा है। एकदम सड़ गया है परिवार, उसमें कोई प्रेम नहीं, कोई आदर नहीं, कोई अंतर्संबंध नहीं। उस ढकोसले पर वह सारा जीवन चल रहा है। और हम इधर
बाहर आकर शांति की तलाश करेंगे और परिवार हमारा बदलता नहीं है तो शांति नहीं मिल
सकती।
तो
पूरे परिवार के अंतर-जीवन में क्या क्रांति हो सकती है, उसके
संबंध में अलग शिविर हों। विवाह, प्रेम, सेक्स, इसके संबंध में अलग शिविर हों। और लड़कों के
लिए सबसे बड़ा प्रश्न आज वही खड़ा हो गया है। उसका कोई हल नहीं होता है तो पूरा समाज
डूब जाएगा। भोग की निंदा करने से कोई अर्थ नहीं है। भोग जीवन का अनिवार्य हिस्सा
है। और जो सम्यक रूप से भोगने में समर्थ हो जाता है, वही योग
को उपलब्ध होता है। योग और भोग में विरोध नहीं है। विरोध आज तक रखा गया है। उससे
नुकसान हुआ, उससे फायदा नहीं हुआ।
तो
एक सामान्य भोग का जीवन कैसे क्रमशः योग में प्रविष्ट हो सकता है, उन दोनों
के बीच क्या सेतु हो सकता है। विरोध नहीं, क्या मार्ग हो
सकता है दोनों को जोड़ने वाला। उस पर काम करना, सोचना जरूरी
है।
तो
जीवन के सारे प्रश्नों पर--समाज की व्यवस्था पर, अर्थ की व्यवस्था
पर...क्योंकि आपको खयाल नहीं है, सब तरफ, आज नहीं कल, जिन बातों का आप बिलकुल विचार नहीं कर
रहे हैं वे सब मसले की तरह खड़ी हो जाने वाली हैं। आज नहीं कल मुल्क के सामने
कम्युनिज्म का सवाल होगा। उससे आप बच नहीं सकेंगे, उससे आप
भाग नहीं सकेंगे। और अगर आपने कुछ नहीं सोचा है, तो
कम्युनिज्म एक हत्यारे की तरह पूरे मुल्क पर छा जाएगा, एक
खूनी क्रांति की तरह छा जाएगा। अगर हमने सोचा है, विचारा है
और मुल्क की बुद्धि को तैयार किया है, तो कम्युनिज्म एक
अत्यंत शांतिपूर्ण ढंग से मुल्क में आ सकता है। वह एक बात और होगी। लेकिन हमारा
धार्मिक आदमी इन पर विचार नहीं करता। मेरी दृष्टि में तो पूरा जीवन विचारणीय है।
आज नहीं कल सवाल अर्थ के खड़े होंगे। सारे मुल्क की राजनीति बिलकुल सड़ गई है। उसमें
हम सब पिसे जा रहे हैं, सब गाली दे रहे हैं, लेकिन कोई हल नहीं है, कोई रास्ता नहीं है। अंधों की
तरह खड़े हैं और बर्दाश्त कर रहे हैं। जो हो रहा है, देख रहे
हैं। यानी करीब-करीब ऐसा है कि मकान जल रहा है और हम बाहर खड़े निंदा कर रहे हैं कि
किसने आग लगा दी! और यह क्या हो गया! और यह कैसे बुझेगा! और मकान तो जलता चला जा
रहा है, और हम सब खड़े विचार कर रहे हैं और मकान जल रहा है।
दस-पचास साल बाद हमारे बच्चे हमें लानत देंगे कि ये कैसे लोग थे कि मुल्क पूरा
जलता रहा और बेवकूफियां बढ़ती रहीं और सब बैठे देखते रहे और चर्चा करते रहे,
और कुछ भी नहीं किया जा सका।
तो
राजनीति पर विचार करना जरूरी है कि मुल्क की राजनीति कैसी हो? मुल्क का
धर्म कैसा हो? मुल्क का समाज-शास्त्र कैसा हो? मुल्क का परिवार कैसा हो? मुल्क की आर्थिक व्यवस्था
कैसी हो? इन सब पर भी...
मुल्क
में जगह-जगह लोग मुझसे कहते हैं कि क्या मैं इनको...अभी माथेरान में ही--उसका
उत्तर मैं नहीं दिया,
क्योंकि उसका उत्तर देने के लिए पूरा कैंप ही चाहिए--किसी मित्र ने
एक प्रश्न पूछा था कि क्या मैं अपनी सारी शक्ति थोड़े से लोगों के शांत होने की
दिशा में ही लगा दूंगा? वृहत्तर समाज के लिए मेरी शक्तियां
काम में नहीं लाऊंगा? क्या मैं थोड़े से लोगों के शांत होने
की दिशा में ही अपनी सारी शक्ति लगा दूंगा? या कि यह बड़ा
मुल्क, इस मुल्क का पूरा जीवन भी प्रभावित हो सके, इस दिशा में कुछ नहीं करूंगा?
उनका
पूछना ठीक है। मेरे मन में भी बहुत दुख है कि उसके लिए कुछ किया जाना चाहिए।
क्योंकि नहीं करने का मतलब होता है, फिर जो हो रहा है, हम उससे सहमत हैं। नहीं करने का मतलब नहीं करना नहीं होता। नहीं करना भी
किसी तरह के करने में सहमति है। अगर एक आदमी किसी की हत्या कर रहा है, और मैं कहता हूं कि मुझे कुछ भी नहीं करना है, तो भी
मैं हत्यारे के साथ साथी हूं। क्योंकि मैं हत्या देख रहा हूं खड़े होकर। मैं रोक
सकता था। मैं नहीं रोक रहा हूं, तो मैं सहयोगी हो रहा हूं।
तो
यह मत सोचिए कि कोई आदमी राजनीति में भाग नहीं ले रहा है। आपके साधु-संन्यासी
राजनीति में उत्सुक नहीं हैं, तो आप यह मत सोचिए कि वे राजनीति के भागीदार
नहीं हैं। वे भागीदार हैं। क्योंकि जो चल रही है, फिर उनकी
सहमति है उसमें। फिर जो चल रहा है, उसमें उनका विरोध नहीं
है। जिंदगी में जो भी जी रहा है, वह जिंदगी की हर चीज पर
भागीदार है। वह कहीं भाग नहीं सकता। भागता है तो भी भागीदार है। क्योंकि वह यह
कहता है कि मैं कुछ भी नहीं करना चाहता इस संबंध में। उसका मतलब है, स्टेटस-को, जो मौजूद है, उसकी
वह सहमति दे रहा है--कि जैसा चल रहा है, ठीक है। तो हम बच
नहीं सकते जीवन से।
तो
जीवन के सर्वांगीण,
सब पहलुओं को छुआ जा सके। और सबके छूने की अत्यंत जरूरत हो गई है,
क्योंकि सारा जीवन इंटररिलेटेड है, सब एक-दूसरे
से जुड़ा हुआ है। अगर मुल्क की राजनीति गलत है तो मुल्क की शिक्षा ठीक नहीं हो
सकती। मुल्क की शिक्षा ठीक नहीं हो सकती तो मुल्क का धर्म ठीक नहीं हो सकता। मुल्क
का धर्म ठीक नहीं होता तो शिक्षा ठीक नहीं होती। शिक्षा ठीक नहीं होती तो राजनीति
ठीक नहीं होती। सब जुड़ा हुआ है। इस सारे जुड़े हुए के लिए पूरा इंटिग्रेटेड,
एक दृष्टि, और एक जीवन-व्यवहार, और जीवनचर्या हम विकसित कर सकें। तो उसके लिए जरूरी होगा कि एकांत में
अधिक दिनों तक, अधिक मसलों पर हम कांफ्रेंसेज बुला सकें,
सेमिनार बुला सकें, शिविर बुला सकें। वहां
शांति से हम रह सकें।
आज
किसी होटल में हम ठहर जाते हैं। होटल होटल है। होटल का कोई साइकिक एटमास्फियर नहीं
होता। होटल का कोई मानसिक वातावरण नहीं होता। हम जाकर ठहर जाते हैं, खाने-पीने
और रहने का काम हो जाता है। लेकिन अगर कल कोई हम स्थल बनाते हैं, तो मेरी दृष्टि में है कि हम उसका पूरा मनोवैज्ञानिक वातावरण निर्मित
करेंगे। वहां के दरख्त भी आपसे कुछ कहने चाहिए, वहां के मकान
भी आपसे कुछ कहने चाहिए, वहां का रास्ता भी आपको कुछ सुझाव
देना चाहिए, वहां की हवा भी आपसे कुछ कहना चाहिए, वहां जो लोग रहते हैं उनकी मौजूदगी आपसे कुछ कहना चाहिए। वहां एक पूरा
साइकिक एटमास्फियर, एक पूरा मानसिक वातावरण होना चाहिए कि उस
वातावरण में प्रविष्ट होते ही एक आदमी को लगे: स्थान ही नहीं बदला, मेरे मन की धाराएं और तरंगें भी बदली हैं। वह सब वहां किया जा सकता है। और
छोटी-छोटी चीजों से सारा फर्क पड़ता है।
हिटलर
हुकूमत में आया तो उसने इनकार करवा दिया कि कोई बच्चों को अब गुड्डियां खेलने को न
दी जाएं। गुड्डा-गुड्डी और शादी-विवाह रचाना बंद। बच्चों के लिए सारे खिलौने बदल
दिए। बस तोप,
बंदूक, तलवार, ये खिलौने
होंगे। छोटा बच्चा पहले दिन झूले पर आएगा, तो उसके ऊपर
घुनघुना नहीं लटका हुआ है, एक तोप लटकी हुई है। वह पहले दिन
ही देखता है तो तोप देखता है। यह पहला इंप्रेशन उसके माइंड पर है तोप का। हिटलर ने
कहा कि गुड्डा-गुड्डी नहीं चलेंगे। ये बच्चों को कमजोर बनाते हैं, ये इंपोटेंट बनाते हैं। ये बच्चों को बलशाली नहीं बनाते और युद्ध के लिए
तैयार नहीं करते हैं। युद्ध के लिए उसे तैयार करना है तो बच्चे को पहले दिन तोप ही
मिल जानी चाहिए।
अब
बच्चों के सारे खिलौने लाल रंग से रंगे होते हैं। बिलकुल गलत बात है। लाल रंग से
रंगे हुए बच्चे जो खिलौना खेलेंगे, वे अशांत होंगे। लाल रंग मन में
अशांति पैदा करने का बड़ा मूलभूत कारण है। आप हरे दरख्तों को देख कर खुश होते हैं।
आपको पता नहीं है, हरे दरख्तों में क्या है सिवाय हरे रंग
के! जंगल में जाकर आप खुश होते हैं, शांति मालूम पड़ती है।
हरे रंग की वजह से पड़ रही है, और कुछ भी नहीं। और कोई कारण
नहीं है, सिर्फ हरे रंग का विस्तार आंख के स्नायुओं को शिथिल
कर देता है, शांत कर देता है। लाल रंग तेज कर देता है,
स्नायुओं को खींच देता है। अगर लाल रंग को बहुत देर तक देखते रहें
तो आप क्रोध से भर जाएंगे। यहां सब लोग लाल कपड़े में बैठे हों तो आप थोड़ी देर में
घबड़ा जाएंगे, सफोकेशन मालूम होगा कि यह बड़ी गड़बड़ है, यहां से हट जाना चाहिए। सूदिंग नहीं है वह। लेकिन बच्चों के खिलौने लाल
रंग से रंगे हुए हैं। वे हरे रंग से रंगे होने चाहिए, अगर
उनको भविष्य में शांति की दुनिया में ले जाना है। नहीं तो वे तो अशांति में
जाएंगे।
तो
मेरा कहना यह है कि जीवन तो इतनी छोटी-छोटी चीजों से संयुक्त है और बंधा हुआ है कि
उन सब पर विचार,
उन सब पर चिंतन, और हम सारे घर को...। तो वहां
जो केंद्र बने, वह सारी वैज्ञानिक दृष्टि से बने। वहां का
रंग, वहां के मकान, वहां के पौधे,
वहां के फूल, वहां की सड़कें, वहां की हवा, वहां के लोग--कि वहां एक आदमी प्रविष्ट
होता है तो वह सब तरह से उसके भीतर परिवर्तित होने के लिए हम सारी सुविधा वहां
जुटा दें। वह कोई साधारण आश्रम होने वाला नहीं है। वह तो पूरी एक वैज्ञानिक
प्रयोगशाला होने वाली है। वह तो एक पूरी, विज्ञान के आधार पर,
मनुष्य के सारे आज तक के अनुभव के आधार पर एक पूरी विज्ञान की
प्रयोगशाला है, कि वहां एक आदमी को हम पूरा बदल देंगे एक
महीने के भीतर कि वह दूसरा आदमी होकर जाए। और वह जो सीख कर जाता है, जो लेकर जाता है, वह अपने घर में उतने परिवर्तन पैदा
करने की कोशिश करे।
तो
मेरे मन के तो अनुकूल है। वह आप सोचें उसको विस्तार से, उसको
व्यवस्थित करें। मैं जो श्रम कर सकता हूं, वहां वह बहुत
सरलता से हो सकता है अगर सारी व्यवस्था वहां जुटा दी जाती है। और तब, जैसे पी.के. कहते हैं कि मेरा व्यक्तित्व नहीं बदला, इनका व्यक्तित्व इतना बदल दिया जा सकता है कि ये कहने लगें कि अब और मत
बदलो, अब मुझे घर जाने दो। ये इतना कह सकते हैं। इसमें कोई
कठिनाई नहीं है, इसमें जरा भी कठिनाई नहीं है। क्योंकि आदमी
का व्यक्तित्व बनाया हमने है, बदल हम सकते हैं। जो हमने बना
लिया है वैसे हम हैं, जो हम बदल लेंगे तो हम दूसरे हो
जाएंगे। आदमी का व्यक्तित्व बदलना कोई कठिन बात नहीं है, जरा
भी कठिन बात नहीं है, क्योंकि व्यक्तित्व के बदलने की तो
सीधी साइंस है। बनाने की साइंस है, हमने बनाया है एक खास ढंग
से। उसमें जहां-जहां ईंटें हमने रखी हैं वे खिसका देनी हैं, वह
व्यक्तित्व तो दूसरा हो जाएगा, बिलकुल दूसरा हो जाएगा।
तो
इस दिशा में सोचें। और भी जो सुझाव आए मित्रों के, वे भी महत्वपूर्ण हैं।
साहित्य पहुंचाने के लिए, अधिकतम लोगों तक पहुंच सके बात,
उसके लिए, उसको सोचें। और सोचेंगे तो बहुत से
मार्ग निकल आएंगे। सोचेंगे तो बहुत मित्र मिल जाएंगे, जो दे
सकें अपना श्रम, अपनी शक्ति। मित्र हैं, आज हमारे पास काम ही नहीं है। मुझे जगह-जगह लोग पूछते हैं, हम क्या करें? हम कुछ करना चाहते हैं। हमारे पास कोई
काम नहीं है कि उनको हम बताएं कि आप यह करें। आपके पास काम हो तो लोगों की कोई भी
कमी नहीं पड़ेगी। बहुत अच्छे-अच्छे लोग आते जाएंगे, और रोज
अच्छे-अच्छे आते जाएंगे।
कोई
आदमी कुआं खोदता है तो पहले तो कंकड़-पत्थर ही हाथ लगते हैं। फिर धीरे-धीरे अच्छी
जमीन हाथ आती है। फिर पानी के स्रोत आते हैं। हमको अपने को तो अभी कंकड़-पत्थर ही
मानना चाहिए,
अभी हम कुआं खोदना शुरू किए हैं। हमसे बहुत अच्छे लोग आ जाएंगे।
हमसे ज्यादा काम करने वाले, हमसे ज्यादा बुद्धिमान, हमसे ज्यादा लगनशील लोग आ जाएंगे। और हमारी तैयारी होनी चाहिए कि जब भी
हमसे ज्यादा लगनशील हों, हम जगह छोड़ दें, और उसको कहें कि तुम आ जाओ, तुम मुझसे ज्यादा बेहतर
सम्हाल सकोगे। यह तो किसी प्रेम और किन्हीं मित्रों के समूह का लक्षण होता है कि
हम हमेशा जगह छोड़ने को तैयार हों, कि कोई बेहतर आ गया तो मैं
छोड़ दूंगा। मैं तभी तक हूं जब तक मुझसे बेहतर नहीं है, नहीं
तो मैं हट जाऊंगा और उसे कहूंगा। क्योंकि रोज बेहतर लोग आएंगे।
इतना
बड़ा मुल्क है,
इतनी ऊर्जा है मुल्क के पास, इतने बढ़िया लोग
हैं। हम उनको जिस दिन पुकारना शुरू करेंगे, बहुत लोग आएंगे।
अभी हमने पुकारा भी नहीं है। अभी कोई आवाज भी नहीं दी। अभी इस दिशा में तो मैंने
मुल्क में कभी किसी से कुछ नहीं कहा है। आप तैयार होते हैं तो मैं कहना शुरू
करूंगा। आप कुछ दिन में घबड़ा जाएंगे कि इतने लोग मिल सकते हैं काम के लिए! मैंने
तो कोई अपील नहीं की है अभी किसी से कि आकर किसी काम में हाथ बंटाए। लेकिन अपने आप
लोग कहना शुरू किए हैं। जिस दिन मैं अपील करूंगा और लोगों को निमंत्रण दूंगा कि वे
आ जाएं काम करने के लिए, आपको काम खोजना मुश्किल हो जाएगा।
इसलिए काम तय कर लें, सोचें दिशाएं, और
लोग मैं ला दूंगा, लोगों की आप चिंता न करें, उसकी कोई कठिनाई नहीं है, उसकी कोई कठिनाई नहीं है।
बस।
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