बुधवार, 5 अप्रैल 2017

जीवन ही है प्रभु-(साधना-शिविर) प्रवचन-05



जीवन ही है प्रभु-(साधना-शिविर)
ओशो
साधना-शिविर, जूनागढ़; दिनांक 12 दिसंबर, 1969; रात्रि.
प्रवचन-पांचवां  
मेरे प्रिय आत्मन् ,

जीवन ही है प्रभु, इस संबंध में और बहुत से प्रश्न मित्रों ने पूछे हैं।


एक मित्र ने पूछा है--बुराई को मिटाने के लिए, अशुभ को मिटाने के लिए, पाप को मिटाने के लिए विधायक मार्ग क्या है? पाजिटिव रास्ता क्या है? क्या ध्यान और आत्मलीनता में जाने से बुराई मिट सकेगी?
ध्यान और आत्मलीनता तो एक तरह का पलायन, एस्केप है, जिंदगी से भागना है। ऐसा कोई मार्ग, विधायक, सृजनात्मक, जो भागना न सिखाता हो, जीना सिखाता हो, उस संबंध में कुछ कहें?

पहली तो बात यह है कि ध्यान पलायन नहीं है और आत्मलीनता पलायन नहीं है। बल्कि, जो आत्मा से बचकर और सब तरफ भाग रहे हैं वे पलायन में हैं। जो मेरे निकटतम है उसे जानने से बचने की कोशिश एस्केप है। हम अपने से ही बचने के लिए भाग रहे हैं। और मजा यह है कि भागने वालों की यह भीड़, अगर कोई अपने को जानने जाता है तो उससे कहते हैं, तुम जिंदगी से भागते हो। जिंदगी अपने अतिरिक्त और कहां से प्रारंभ हो सकती है?
जिंदगी का पहला कदम तो आत्मज्ञान ही होगा। मेरी जिंदगी दूसरे से शुरू नहीं हो सकती। मेरी जिंदगी मुझसे शुरू होगी। गंगा निकलेगी तो गंगोत्री से। वह किसी और नदी के उदगम से नहीं निकल सकती है। उसे गंगोत्री से ही निकलना होगा।
मेरी जिंदगी मेरे भीतर से बाहर की तरफ जायेगी। मेरी जिंदगी मुझसे बहेगी और फैलेगी। और अगर मैं अपने को ही जानने से वंचित रह जाता हूं तो मैं जिंदगी को जानने से भी वंचित रह जाऊंगा।
इसलिए जो लोग यह कहते हैं कि आत्मज्ञान की दिशा में जाने वाले लोग एस्केपिस्ट हैं, पलायनवादी हैं, वे बिलकुल ही गलत बात कहते हैं। असल में पलायनवादी हम सब हैं जो आत्मा से बचने के लिए और न मालूम कहां-कहां जा रहे हैं। कोई शराब खोज रहा है कि अपने को भूल जाये। कोई संगीत खोज रहा है कि अपनी याद न आये। कोई सेक्स खोज रहा है; कोई सिनेमा खोज रहा है; कोई क्रिकेट का मैच देख रहा है; कोई हाकी-फुटबाल का मैच देख रहा है; कोई मित्रों को खोज रहा है; कोई जुए को खोज रहा है; कोई धंधे को खोज रहा है; कोई राजनीति को खोज रहा है--ताकि अपना पता न लगे। किसी भांति हम अपने को भूले हुए जी लें।
इसलिए अकेला होना बहुत कठिन हो जाता है। अगर आदमी अकेला हो जाये तो उसी अखबार को फिर से पढ़ने लगता है जिसे दो बार पहले भी पढ़ चुका होता है। अकेला हो तो रेडियो खोल लेता है। अकेला हो तो उन्हीं बातों को करने लगता है, जिन्हें जिंदगी भर से न मालूम कितनी बार कर चुका है जिन्हें करने से कुछ मतलब नहीं। आदमी अकेले होने से डरता है कि अपना आमना-सामना न हो जाये। जितने हम अपने से डरते हैं, उतना हम किसी से भी नहीं डरते हैं। और जितने हम अपने से नाराज हैं और अपने को घृणा करते हैं, उतनी घृणा हम किसी को भी नहीं करते। अगर मैं एक घंटे अकेला छूट जाऊं तो मैं लोगों से कहता हूं, घंटा भर अकेला था, बहुत ऊब गया। इसका क्या मतलब है? इसका मतलब है, अपने साथ घंटे भर रहना भी उबाने वाला है--अपने साथ! और अपने साथ ही जब घंटे भर रहकर मैं ऊब जाता हूं तो किसके साथ कितनी देर रह पाऊंगा और ऊब न जाऊं।
और बहुत मजे की बात है कि आप भी अकेले में ऊब जाते हैं अपने साथ, मैं भी अकेले में ऊब जाता हूं अपने साथ। हम दोनों मिलकर एक-दूसरे की ऊब दूर करने की कोशिश करते हैं। दोनों ऊबे हुए हैं। अपने से ही ऊबे हुए हैं, एक दूसरे की ऊब दूर करने की कोशिश में लगे हुए हैं, जैसे दो भिखारी रास्ते पर मिल गये हों और दोनों ने अपने-अपने भिक्षा पात्र एक-दूसरे के सामने कर दिये हों कि कुछ मिल जाये। वे दोनों ही भीख मांगने निकले हैं। पत्नी पति के साथ रहकर सोचती है कि साथ में आनंद मिल जायेगा, पति पत्नी के साथ सोचता है, आनंद मिल जायेगा, और दोनों अकेले रहकर दुखी हो जाते हैं। जब दोनों अकेले होकर दुखी हैं तो दोनों मिलकर दुगुने दुखी हो सकते हैं, और कुछ भी नहीं हो सकता है। क्योंकि मैं वही दे सकता हूं जो मेरे पास है। मैं वही बांट सकता हूं जो मैं हूं। लेकिन हम अपने से भागे हुए लोग हैं। लेकिन हमारी भीड़ है और भीड़ को एक सुविधा है कि वह जो कहे वह मानने, प्रतीत होने लगे। सारी भीड़ भागी हुई है। इसलिए जो अपनी तरफ लौट रहा हो, लगता है, एस्केप कर रहा है, पलायन कर रहा है, जिंदगी से भाग रहा है।
सच तो यह है कि जिंदगी अगर खोजनी हो तो पहले तो अपने घर जाना होगा। वहीं से यात्रा शुरू हो सकती है जीवन के आनंद की। और जब मैं कहता हूं, जीवन ही प्रभु है, तो इसका मतलब यह नहीं है कि मैं अपने को छोड़कर जो है वह जीवन है। मेरा जीवन मुझसे ही शुरू होता है। और जब मेरा जीवन बढ़ेगा तो धीरे-धीरे मेरा मैं ही बढ़ेगा, फैलेगा। ये वृक्ष मुझमें समा जायेंगे; और लोग भी मुझमें समा जायेंगे; ये चांदत्तारे भी मुझमें समा जायेंगे। जितनी बड़ी यह मेरी चेतना फैलती चली जायेगी। उतना ही बड़ा आनंद; उतने ही बड़े जीवन को मैं उपलब्ध होता चला जाऊंगा। लेकिन जिसे फैलना है, उसका पता तो होना चाहिए, वह कौन हूं मैं? लेकिन हम कहते हैं, नहीं, यह तो जिंदगी से भागना हो जायेगा।
मैंने सुना है, एक आदमी की शादी हुई। वह जिंदगी में रोज ही शराब पीता रहा था। शादी के बाद भी दो वर्ष तक शराब पीता रहा। रोज ही पीता था, पत्नी को खयाल ही न आया। जब कभी-कभी कोई शराब पीता है तो पता चलता है। रोज ही पीता था। पत्नी ने पहले दिन से ही उसके मुंह में वही बास देखी थी, वह समझी इसी की बास होगी। रोज वही चलता था। एक दिन उसने शराब न पी और वह घर आया। तो पत्नी को बड़ा गड़बड़ मालूम पड़ा। रोज के हिसाब से गड़बड़ था। उसने कहा, क्या बात है, क्या आज शराब पीकर आ गये हो? हाथ-पैर लड़खड़ाते हैं। उस आदमी ने कहा देवी, मैं रोज पीकर आता रहा हूं। आज ही नहीं पी, यह गलती हो गयी। मुझे खुद ही अपने हाथ-पैर गड़बड़ मालूम पड़ रहे हैं। वह रोज पीकर आता था तो एक व्यवस्था थी, एक ढंग था, एक आदत थी, एक जिंदगी का अपना रूप था। एक दिन छोड़ दी है तो गड़बड़ हो गयी है।
हम सारे लोग भी जिंदगी से भागे हुए लोग हैं और हमारे बीच में जब कभी कोई एक जिंदगी से लौटता है तो हम कहते हैं, कहां जा रहे हो जिंदगी को छोड़कर! और हम सब जिंदगी से भागे हुए लोग हैं। जिसे हम जिंदगी कह रहे हैं, वह जिंदगी नहीं है। अगर वही जिंदगी होती तो हमारी आंखें आनंद से भर गयी होतीं। अगर वही जिंदगी होती तो किसी मंदिर में हम परमात्मा को खोजने न गये होते। हमें जिंदगी में वह मिल गया होता। अगर वही जिंदगी होती तो हम पूछते न कि शांति का रास्ता क्या है? आनंद का रास्ता क्या है? वह हमने पा ही लिया होता। अगर वही जिंदगी होती तो ईश्वर के संबंध में हम बात न करते क्योंकि ईश्वर हमें मिल ही गया होता। लेकिन नहीं कुछ हमें मिला--न कोई सौंदर्य, न कोई सत्य, न कोई संगीत, न जीवन में कोई रस, न कोई आनंद--लेकिन फिर भी इसको हम कहते हैं जिंदगी।
अगर यही जिंदगी है तो फिर मौत क्या हो सकती है? सिर्फ सांस लेने का नाम जिंदगी है? सिर्फ रोज सुबह उठ आने का नाम जिंदगी है? सांझ सो जाने का नाम जिंदगी है? रोज खाना पचा लेने का और खाने को शरीर के बाहर फेंक देने का नाम जिंदगी है? अगर यही जिंदगी है, तब तो ठीक है। लेकिन इतनी-सी जिंदगी से कोई राजी नहीं है। जिंदगी में और फूलों की अपेक्षा है। जो कभी खिलते हुए मालूम नहीं पड़ते। लेकिन फिर भी हमें शक नहीं आता। शक न आने का कारण यह है कि आसपास हमारे जैसे ही लोग हैं। शक का कोई सवाल नहीं है। जैसे चारों तरफ लोग जी रहे हैं, वैसे ही हम जी रहे हैं। जैसे सारे लोग जी रहे हैं, वही जिंदगी का ढंग मालूम पड़ता है। इसलिए अक्सर ऐसा हुआ है कि हमारे बीच जो आदमी जिंदगी की तरफ गया है वह हमें उल्टा मालूम पड़ता है कि हमसे उल्टा जा रहा है। कोई सुकरात या कोई कृष्ण या कोई बुद्ध हमें उल्टा मालूम पड़ता है। हमारी जिंदगी छोड़कर कहां जा रहे हो? हम जिंदा रह रहे हैं, तुम भाग कहां रहे हो? अगर हम जिंदा हैं, और यही जिंदगी है तो मैं कहूंगा, कि वे भागने वाले ही ठीक हैं। वे हमसे वृहत्तर जिंदगी को उपलब्ध हो जाते हैं। कहां है बुद्ध की शांति हमारी जिंदगी में, और कहां है कृष्ण का आनंद, कहां है लाओत्से का रस? हमारी जिंदगी में नहीं है।
लाओत्से की जिंदगी में एक बहुत अदभुत घटना है। लाओत्से एक नदी के किनारे बैठकर मछली पकड़ रहा है। जाल डाल दिया है, बैठा हुआ है। उस देश के राजा ने, चीन के सम्राट ने लाओत्से की खोज के लिए कुछ लोग भेजे हैं और उनसे कहा है कि लाओत्से कहीं भी मिले तो उसे पकड़ लाओ। हमने सुना है कि वह बहुत बड़ा बुद्धिमान आदमी है और हमने सुना है कि उसने जिंदगी का राज पा लिया है। तो हम उसे देश का प्रधानमंत्री बनाना चाहते हैं ताकि वह सारे मुल्क को जिंदगी का राज बता दे। आखिर उन लोगों ने नदी के किनारे बामुश्किल लाओत्से को पकड़ लिया है। पहले तो पता लगाना मुश्किल हुआ क्योंकि लाओत्से कभी एक जगह टिकता ही न था। सिर्फ मरे हुए टिकते हैं, जिंदा तो बहते चले जाते हैं, बहते चले जाते हैं। मरे हुओं की जांच हो तो वे वहीं टिके रहते हैं। तो लाओत्से को कोई ठिकाना न था।
जिस गांव में गया, लोगों ने कहा, हां, लाओत्से था, लेकिन लाओत्से तो हवा की तरह है आया और गया। वह किसी और गांव में होगा। बामुश्किल उस नदी के किनारे कुछ लोगों ने उसे जाकर पकड़ लिया। वह मछलियों को पकड़ने के लिए जाल डालकर चुपचाप बैठा था। उन्होंने जाकर कहा, लाओत्से, क्या पागलपन कर रहे हो, फेंको इस जाल को। देश का सम्राट तुम्हें प्रधानमंत्री बनाने को उत्सुक है। लाओत्से ने गौर से उन्हें देखा और उनसे कहा, सुनो एक बात। मैंने सुना है कि तुम्हारे सम्राट के महल में एक सोने का कछुवा है। एक कछुवे के ऊपर सोने की पर्त चढ़ा दी गयी है। उन्होंने कहा है। वह बहुत प्राचीन है, हजारों साल से, बाप-दादों से चला आ रहा है। उसकी पूजा होती है। उसे सिंहासन पर बिठाया है। उसके आसपास लाखों के हीरे-जवाहरात जड़े हैं। लाओत्से ने कहा, वही मैं पूछता हूं। है न ऐसा कछुवा? उन्होंने कहा, हां, ऐसा कछुवा है। लाओत्से ने कहा, और पास में एक कछुवा पड़ा हुआ था, रेत में लोट रहा था, कीचड़ में खेल रहा था--लाओत्से ने कहा, सुनो मुझसे। अगर तुम इस कछुवे से कहो कि हम तुम्हें सोने की वर्क चढ़ाकर और सिंहासन पर बिठा देंगे, तो यह वहां जाना पसंद करेगा या मिट्टी में ही लोटता रहेगा। लोगों ने कहा, कि पागल होगा अगर यह वहां जाना पसंद करे। क्योंकि वहां सिंहासन पर बिना मरे कोई बैठ ही नहीं सकता। वहां मर जाना पड़ेगा, तभी सोना चढ़ेगा ऊपर। तो लाओत्से ने कहा, कि हम भी यहीं ठीक हैं, हम भी सिंहासन पर नहीं बैठते। क्षमा करो, वापस लौट जाओ। उन्होंने कहा, तुम पागल हो गये हो? जिंदगी को छोड़ते हो? प्रधानमंत्री का मौका मिल रहा है। उसने कहा, हम पूरी तरह जिंदा हैं, हम जरा भी कम जिंदा नहीं हैं। हम पूरी जिंदगी का मजा ले रहे हैं। और अपने प्रधानमंत्रियों से, अपने सम्राट से कह देना कि अगर जिंदगी को पाना हो तो लाओत्से के पास आ जायें, और लाओत्से को जिस दिन मरना होगा, उनके पास आ जायेगा। उनमें से एक ने कहा, एस्केपिस्ट मालूम होते हो, पलायनवादी मालूम होते हो। कहां इतना बड़ा मौका मिल रहा है, उसे छोड़कर भाग रहे हो? लाओत्से ने कहा, कि तुम यह कहते हो। अगर मैं जाऊंगा तो यह कछुवा मुझ पर हंसेगा, ये मछलियां मुझ पर हंसेंगी, ये हवाएं मुझ पर हंसेंगी, ये वृक्ष मुझ पर हंसेंगे, कि फंस गया पागल! जिंदगी को छोड़कर कहां जा रहा है?
जिंदगी कहां है, यह ठीक से हम समझ लें तो पलायन क्या है, यह भी समझ में आ जाये। जिंदगी कहां है? जहां हम जी रहे हैं, वहां जिंदगी है? नहीं, हमने बहुत गहरी भूल कर ली है। हमने जीवित रहने के रास्तों को जिंदगी समझ लिया है। हमने आजीविका की व्यवस्था को जिंदगी समझ लिया है। हम रोटी कमा लेते हैं; मकान बना लेते हैं; पत्नी ले आते हैं; घर बसा लेते हैं; बच्चे पैदा कर लेते हैं और हम सोचते हैं--जिंदगी पूरी हो गयी। यह तो सिर्फ जिंदगी की व्यवस्था हुई। अभी जिंदगी पूरी नहीं होगी, अब जिंदगी शुरू होनी चाहिए। यह तो सिर्फ व्यवस्था हुई।
एक आदमी पलंग ले आया और बिस्तर लगा दिया और मसहरी बांध दी और तकिये लगा दिये और खड़ा हो गया और उसने कहा, सोना पूरा हो गया। वह सोया नहीं उस मसहरी में, वह उस बिस्तर पर लेटा नहीं। उसने इंतजाम तो पूरा कर लिया, अब सोना पूरा हो गया। लेकिन बिस्तर का पूरा इंतजाम सोना नहीं है, सिर्फ सोने का प्रारंभिक कदम है।
जिसे हम जिंदगी कह रहे हैं वह सिर्फ आजीविका की व्यवस्था है। और हम उसी में खो गये हैं और करीब-करीब ऐसा है कि हम उसी में खोये-खोये मर जाते हैं। जिंदगी जीने का हमें मौका ही नहीं मिलता। मिलेगा भी नहीं। जिंदगी की व्यवस्था बाहर हो सकती है, जिंदगी भीतर है। इस राज को ठीक से समझ लेना जरूरी है। जिंदगी की व्यवस्था बाहर हो सकती है, जिंदगी भीतर है। पलंग बाहर हो सकता है, जिसे सोना है वह भीतर है। रोटी बाहर हो सकती है, जिसे खाना है वह भीतर है। पत्नी बाहर हो सकती है, जिसे प्रेम करना है और देना है और लेना है वह भीतर है। जिंदगी का सारा इंतजाम बाहर है और जिंदगी भीतर है। लेकिन हम बाहर के ही इंतजाम में खो जाते हैं और भूल जाते हैं। कोई आदमी भीतर की तरफ जाये तो हम कहेंगे, क्या पागलपन कर रहे हो? जिंदगी छोड़कर कहां भागे चले जा रहे हो? लेकिन ऐसा हो जाता है। अगर बहुत लोग यही कहें तो बेचारा जो जा रहा है अपनी तरफ वह भी सोचने लगता है कि पता नहीं क्योंकि जब सारे लोग कह रहे हैं, हजारों लोग यही कह रहे हैं तो यही ठीक कहते होंगे। सुनी होगी एक कहानी--छोटी-सी एक कहानी है--
एक ब्राह्मण एक गांव से एक बकरी खरीदकर वापस लौट रहा है। बड़ी प्रसिद्ध है कहानी, लेकिन आधी सुनी होगी। मैं पूरी ही सुनाना चाहता हूं। वह बकरी को रखकर कंधे पर वापस लौट रहा है। सांझ हो गयी है, दो चार गुंडों ने उसे देखा है। उन्होंने कहा, अरे, यह बकरी तो बड़ी स्वादिष्ट मालूम पड़ती है। इस नासमझ ब्राह्मण के साथ जा रही है, इसको मजा भी क्या आयेगा, ब्राह्मण को भी क्या, बकरी को भी क्या। इस बकरी को छीन लेना चाहिए। एक गुंडे ने आकर उसके सामने उस ब्राह्मण से कहा, नमस्कार पंडित जी। बड़ा अच्छा कुत्ता खरीद लाये। उसने कहा, कुत्ता! बकरी है महाशय! आंखें कमजोर हैं आपकी? उसने कहा, बकरी कहते हैं इसे आप? आश्चर्य है। हम भी बकरी को जानते हैं। लेकिन आपकी मर्जी, अपनी-अपनी मर्जी, कोई कुत्ते को बकरी कहना चाहे तो कहे। वह आदमी चल पड़ा। उस ब्राह्मण ने सोचा, अजीब पागल हैं इस गांव के। बकरी को कुत्ता कहते हैं? लेकिन फिर भी एक दफे टटोलकर देखा शक तो थोड़ा आया ही। लेकिन उसने पाया कि बकरी है, बिलकुल फिजूल की बात है। अभी दस कदम आगे बढ़ा था। शक मिटाकर किसी तरह आश्वस्त हुआ था कि दूसरा उनका साथी मिला। उसने कहा, नमस्कार पंडित जी! लेकिन आश्चर्य, ब्राह्मण होकर कुत्ता सिर पर रखें! जाति से बाहर होना है? उसने कहा, कुत्ता! लेकिन अब वह उतनी हिम्मत से न कह सका कि यह बकरी है। हिम्मत कमजोर पड़ गयी। उसने कहा, आपको कुत्ता दिखायी पड़ता है? उसने कहा, दिखायी पड़ता है? है। नीचे उतारिए, गांव का कोई आदमी देख लेगा पड़ोस का तो मुश्किल में पड़ जायेंगे।
वह आदमी गया तो उस ब्राह्मण ने उस बकरी को नीचे उतारकर गौर से देखा। वह बिलकुल बकरी थी। यह तो बिलकुल बकरी है, लेकिन दो-दो आदमी भूल कर जायें, यह जरा मुश्किल है। फिर भी सोचा, मजाक भी कर सकते हैं। चला फिर कंधे पर रखकर, लेकिन अब वह डरकर चल रहा है, अब वह जरा अंधेरे में से बचकर निकल रहा है। अब वह गलियों में से चलने लगा है, अब वह रास्ते पर नहीं चल रहा है। तीसरा आदमी उसे एक गली के किनारे पर मिला। उसने कहा, पंडित जी हद्द कर दी। कुत्ता कहां मिल गया? कुत्ते की तलाश मुझे भी है। कहां से ले आये हैं यह कुत्ता, ऐसा मैं भी चाहता हूं। तब तो वह यह भी न कह सका कि क्या कह रहे हैं। उसने कहा कि जी हां, खरीदकर ला रहा हूं। वह आदमी गया कि फिर उसने उतारकर भी नहीं देखा, उसे छोड़ा एक कोने में और भागा। उसने कहा कि अब इससे भाग ही जाना उचित है। झंझट हो जायेगी, गांव के लोग देख लेंगे। पैसे तो मुफ्त गये ही गये, जाति और चली जायेगी।
यह जो तीन आदमी कह गये हैं एक बात को तो बड़ी सच मालूम पड़ने लगती है। यह तो आधी कहानी है। दूसरे जन्म में ब्राह्मण फिर बकरी लेकर चलता था। बकरी लेकर लौट रहा है लेकिन पिछले जन्म की याद है। वह जिसको याद रह जाये उसी को तो ब्राह्मण कहना चाहिए, किसी और को ब्राह्मण कहना नहीं चाहिए। बकरी लेकर लौट रहा है, वही गुंडे। असल में हम भूल जाते हैं इसलिए खयाल नहीं रहता है, कि वही वही बार-बार हमको कई बार मिलते हैं, कई जन्मों में वही लोग बार-बार मिल जाते हैं। वही तीन गुंडे, उन्होंने देखा अरे! ब्राह्मण बकरी को लिए चला जा रहा है। छीन लो, उन्हें कुछ पता नहीं है कि पहले भी छीन चुके हैं। किसको पता है? अगर हमें पता हो कि हम पहले भी यही कर चुके हैं तो शायद फिर दुबारा करना मुश्किल हो जाये। फिर उन्होंने षडयंत्र रच लिया है, फिर एक गुंडा उसे रास्ते पर मिला है। उसने कहा, नमस्कार पंडित जी। बड़ा अच्छा कुत्ता कहां ले जा रहे हैं? पंडित जी ने कहा, कुत्ता सच में बड़ा अच्छा है। उसने गौर से देखा, गुंडे ने सोचा, हमको तो बकरी दिखायी पड़ती थी, हम तो धोखा देने के लिए कुत्ता कहते थे। और उस पंडित ने कहा, कुत्ता सच में बड़ा अच्छा है, बड़ी मुश्किल से मिला, बहुत मांगकर लाया, बड़ी मेहनत की, खुशामद की किसी आदमी की, तब मिला। उस गुंडे ने बहुत गौर से फिर से देखा कि मामला क्या है, भूल हो गयी है? लेकिन उसने कहा, नहीं पंडित जी, कुत्ता ही है न! उसने कहा, कैसी बात कर रहे हैं आप, कुत्ता ही है। अब वह गुंडा मुश्किल में पड़ गया है, वह यह भी नहीं कह सकता कि बकरी है, क्योंकि खुद उसने कुत्ता कहा था। दूसरे कोने पर दूसरा गुंडा मिला। उसने कहा कि धन्य हैं। धन्य महाराज, आप कुत्ता सिर पर लिए हुए हैं?
ब्राह्मण ने कहा, कुत्ते से मुझे बड़ा प्रेम है। आपको पसंद नहीं आया कुत्ता? उस आदमी ने गौर से देखा, उसने कहा, कुत्ता! तीसरे चौरस्ते पर मिला है तीसरा आदमी, लेकिन उन दोनों ने उसको खबर दे दी कि मालूम होता है, हम ही गलती में हैं। हमें बकरी दिखायी पड़ रही है। उस तीसरे आदमी ने गौर से देखा। और उस पंडित ने कहा, क्या देख रहे हैं गौर से? उसने कहा, कुछ नहीं, आपका कुत्ता देख रहा हूं। काफी अच्छा है।
हम भीड़ से जी रहे हैं और चल रहे हैं और पुनरुक्ति हमारा आधार बन गया है। चारों तरफ जो हो वह हमें स्वीकार हो जाता है। और अगर पुनरुक्ति की जाये बार-बार असत्य की भी तो वह सत्य मालूम पड़ने लगता है। यह बात बहुत बार दोहरायी गयी है कि संन्यासी वह है जो भाग रहा है जिंदगी से। जो भाग रहा है वह संन्यासी तो क्या है, गृहस्थ भी नहीं है। संन्यासी होना तो बहुत मुश्किल है। जो जिंदगी को जी रहा है वह संन्यासी है। और जो सिर्फ जिंदगी जीने का इंतजाम कर रहा है, और जी नहीं रहा है, वह गृहस्थ है। जो सिर्फ जिंदगी का इंतजाम कर रहा है और जी नहीं रहा है वह गृहस्थ है। और जो जिंदगी को जी रहा है वह संन्यासी है।
अगर भागने की भाषा में सोचना हो तो गृहस्थ जिंदगी से भागा हुआ हो सकता है, संन्यासी भागा हुआ नहीं हो सकता। लेकिन हम भागे हुए संन्यासियों को जानते हैं। असल में हमने भागे हुओं को ही संन्यासी समझ रखा है। इसलिए बड़ी भूल हो गयी है। संन्यासी और जिंदगी से भागेगा? तो फिर जिंदगी को जीयेगा कौन? फिर जिंदगी को जीयेगा कौन? और संन्यासी अगर जिंदगी से भागेगा तो परमात्मा को फिर जानेगा कौन? क्योंकि कहीं अगर परमात्मा है तो जिंदगी में ही छिपा है। नहीं, संन्यासी जिंदगी को जीता है वह उसकी परिपूर्णता में। लेकिन निश्चित ही परिपूर्णता में जीने के लिए बहुत-सी बातें उससे छूटकर गिर जाती हैं। आप यह मत सोचना कि वह छोड़ देता है। मेरे हाथों में कंकड़-पत्थर भरे हों और मुझे हीरों की खदान मिल जाये और मैं पत्थर छोड़ दूं हाथ से और हीरों की खदान से हीरे बीनने लगूं और आप कहें कि यह आदमी बड़ा पागल मालूम होता है, इसने कंकड़-पत्थरों का त्याग कर दिया। तो पागल मैं हूं या आप? आपको हीरे नहीं दिखायी पड़ रहे हैं, आपको हीरे की खदानें नहीं दिखायी पड़ रही हैं। आपको सिर्फ इतना ही दिखायी पड़ रहा है कि मेरे हाथों में कंकड़-पत्थर थे, वे मैंने छोड़ दिये। मैं बड़ा त्यागी हूं। अब तक किसी संन्यासी ने कोई त्याग नहीं किया। सिर्फ नासमझ त्याग कर लेते हैं, बात दूसरी है।
संन्यासी तो और वृहत्तर आनंद को उपलब्ध हो जाता है, इसलिए क्षुद्र से उसे हाथ खाली करने पड़ते हैं। वह हाथ से छोड़ता नहीं है, चीजें छूट जाती हैं, बेमानी हो जाती हैं। अगर आपको हीरा मिल जाये तो आप पत्थर को हाथ में लेकर चलेंगे? या कि पत्थर आपको छोड़ना पड़ेगा? नहीं, पता ही नहीं चलेगा कि कब पत्थर हाथ से छूट गया और हीरा आ गया। हां, दूसरे, जिनके हाथों में अभी भी पत्थर हैं, वे समझेंगे कि बड़ा त्यागी आदमी है। उन्हें वह हीरा दिखायी नहीं पड़ रहा है। और कुछ ऐसे हीरे हैं जो दिखायी नहीं पड़ते। धर्म का उन्हीं हीरों से संबंध है जो दिखायी नहीं पड़ते। कुछ ऐसे भोग हैं जो दिखायी नहीं पड़ते।
संन्यासी वह नहीं है जिसने भोग छोड़ दिया, संन्यासी वह है जो भोग की पूर्णता को उपलब्ध हुआ, जो अब परमात्मा को भी भोग रहा है। इसे ठीक से ही समझ लेना--जो परमात्मा को भी भोग रहा है। जो भोजन कर रहा है तो सिर्फ भोजन ही नहीं कर रहा है, भोजन में परमात्मा का स्वाद भी समाविष्ट है। और जो अगर आपके सुंदर चेहरे को देख रहा है तो आपके सुंदर चेहरे को ही नहीं देख रहा है, आपके भीतर से जो सौंदर्य की अनंत धारा जुड़ी है प्रभु से, वह भी उसे दिखायी पड़ गयी है। संन्यासी का अर्थ है--वह जिसने भोग का राज जान लिया, जिसने जीवन के रस की उपलब्धि की कला, कीमिया सीख ली। लेकिन हम तो यही सोचते रहे हैं कि भागने वाला संन्यासी है। भागने वाला रुग्ण है, संन्यासी नहीं है। भागने वाला विक्षिप्त है। भागने वाला, जो हाथ में था कंकड़-पत्थर वह भी छोड़ दिया है, और हीरे तो उसे मिले नहीं। वह बड़ी मुश्किल में पड़ गया है। इसलिए जिसे हम इस देश में संन्यासी कह रहे हैं, सारी दुनिया में वह बड़ी मुश्किल में पड़ा हुआ आदमी है। उसने घर भी छोड़ दिया, पत्नी भी छोड़ दी, बच्चे भी छोड़ दिये, और परमात्मा भी उसे मिला नहीं। वह त्रिशंकु की भांति बीच में अटका रह गया।
मुझे कितने संन्यासी मिलते हैं रोज। अगर सबके सामने मुझसे बात करते हैं तो आत्मा परमात्मा की बात करते हैं। एकांत में मुझसे मिलते हैं तो कहते हैं, हम बड़ी मुश्किल में पड़ गये हैं। क्योंकि जो था वह हमने छोड़ दिया और जो मिलने की आशा थी वह मिला नहीं। हम बहुत कठिनाई में हैं। संन्यासी की कठिनाई का आपको पता नहीं कि संन्यासी कितनी कठिनाई में है। वह तो संन्यासी भाग क्यों नहीं आता संन्यास छोड़कर? हमने लौटने के सब रास्ते बंद कर रखे हैं अन्यथा सौ में से निन्यानबे संन्यासी आज जायें और कल वापस लौट आयें। इसीलिए हमने रास्ते भी बंद कर रखे हैं कि लौट मत आना। लौटने का पक्का डर है। तो हम कहते हैं, गृहस्थ से संन्यासी हो तो आदर देते हैं, संन्यासी से गृहस्थ वापस लौटे तो अनादर करते हैं। अनादर रोकने का कारण बन जाता है। अपमान करते हैं, अपमान रोकने का कारण बन जाता है। एक दफा एक आदमी संन्यासी हो जाये, उसे लौटने की हम सुविधा नहीं देते हैं। हम कहते हैं, बस। संन्यास में एंट्रेंस तो है, एक्जिट बिलकुल नहीं है। वहां भीतर जाने का रास्ता है, बाहर आने का रास्ता ही नहीं रखा। बाहर आने का रास्ता इसलिए नहीं रखा हुआ है कि अगर रखें रास्ता तो हाल खाली हो जाये। वहां से सभी वापस आ जायें, इस दरवाजे से जायें, उस दरवाजे से दूसरे दिन बाहर आते मालूम पड़ें। क्योंकि जो आदमी बिना पाये छोड़ देगा वह मुश्किल में पड़ जायेगा।
पाना पहले है, छोड़ना पीछे है। छोड़ना पाने की छाया है। जो पा लेता है वह छोड़ सकता है। जो परमात्मा को पा लेता है वह संसार को छोड़ सकता है। छोड़ने की बात ही फिजूल है। असल में जो परमात्मा को पा लेता है उससे वे सब क्षुद्रताएं छूट जाती हैं, जिन्हें वह कल तक पकड़े हुए था।
लेकिन, यह हमारे खयाल में न होने से हमने एक त्याग की, छोड़ने की, निगेटिव की...उन मित्र ने पूछा है कि आप छोड़ने की बातें मत बतायें। मैं बता ही नहीं रहा हूं छोड़ने की बातें। मैं निगेटिव बात नहीं बता रहा हूं। मैं तो बिलकुल विधायक बात ही कह रहा हूं। मैं तो यही कह रहा हूं कि जिंदगी ही परमात्मा है, और इसे कैसे हम पूरी तरह जी सकें, उसकी कला धर्म है।
दूसरी बात उन्होंने यह पूछी है कि बुराई है तो बुराई को अकेला ध्यान करने से हम कैसे मिटा सकेंगे। यह ऐसे ही है जैसे कोई आदमी कहे कि बीमारी है, और बीमारी अकेली दवा लेने से हम कैसे मिटा सकेंगे? बीमारी मिटाने का कोई सीधा रास्ता बताइए। एक आदमी कहे कि मुझे खांसी आ रही है, मुझे जुकाम है, मुझे बुखार है, मुझे टी.बी. है, कैंसर है अब डाक्टर उसे एक बोतल पकड़ाता है। वह आदमी कहता है, पागल हो गये हो तुम? इधर कैंसर से मरे जा रहे हैं, तुम बोतल पकड़ा रहे हो? बोतल क्या करेगी? वह आदमी कहे, इधर कैंसर से मरा जा रहा हूं, तुम लाल रंग का पानी मुझे पकड़ा रहे हो? यह लाल रंग के पानी से क्या होगा? लेकिन उसे खयाल में नहीं आ रही है यह बात कि कैंसर या बीमारी कोई सीधी निकालकर बाहर थोड़ी रख देगा। कैंसर या बीमारी निकालने के लिए, बदलाहट करने के लिए कुछ उससे विपरीत डालना पड़ेगा।
हम बीमार हैं, बीमारी से विपरीत प्रयोग करने से बीमारी कट जायेगी। यह थोड़ा समझ लेना जरूरी है कि बुराई है इसलिए कि हम शांत नहीं हैं। हम शांत हो जायें तो बुराई मिट जायेगी। बुराई है बीमारी, ध्यान है दवा। ध्यान है औषधि। और ध्यान रहे कि आज तक पृथ्वी पर ध्यान से बड़ी कोई औषधि नहीं खोजी जा सकी है। बहुत औषधियां खोजी गई हैं लेकिन ध्यान से बड़ी कोई औषधि अब तक नहीं खोजी गई है। उसका कारण है। सबसे बड़ा कारण यह है कि हमारे ध्यान के अभाव के कारण ही, हमारी बीमारियां, हमारी बुराइयां पैदा होती हैं। जैसे उदाहरण के लिए--
आपमें क्रोध है। आप किसी से पूछें कि क्रोध को हम सीधा अलग कैसे करें? क्रोध को सीधा अलग करने का कोई उपाय नहीं होता है। क्रोध है, वह इस बात की खबर दे रहा है कि आप भीतर अशांत हैं। अशांति से क्रोध जन्मता है। आप कहें, मुझे क्रोध को अलग करना है, मुझे अशांति से कोई मतलब नहीं है। तो आप कभी क्रोध को अलग न कर सकेंगे, आप कहें मुझे पाजिटिव, सीधा रास्ता बता दें। कोई रास्ता नहीं है। आप क्रोध में हैं, यह इस बात की खबर है कि क्रोध सिर्फ लक्षण है इस बात का कि भीतर अशांत हैं आप। भीतर शांति लानी पड़ेगी। भीतर शांति आ जायेगी, ऊपर से क्रोध विलीन हो जायेगा।
एक आदमी को बुखार चढ़ा है, शरीर पर गर्मी है। शरीर की गर्मी असली बुखार नहीं है। बुखार तो भीतर होगा, बीमारी भीतर होगी। गर्मी तो केवल बीमारी की खबर है कि भीतर बुखार है, भीतर बीमारी है, शरीर उत्तप्त हो गया है। उत्तप्त शरीर खबर दे रहा है कि भीतर बीमारी है। अब एक आदमी कहे कि मुझे तो शरीर को ठंडा करने का सीधा उपाय बता दो। तो ठीक है कि जाओ ठंडे पानी में नहाओ, बर्फ रख लो अपने शरीर पर। उससे बुखार ही नहीं जायेगा, बीमार भी चला जायेगा। गर्मी सिर्फ लक्षण है, ताप सिर्फ लक्षण है। बीमारी नहीं है। बीमारी और गहरे में है। और शरीर की व्यवस्था है कि गर्म करके वह खबर दे दे कि भीतर बीमारी है ताकि ऊपर तक खबर पहुंच जाये, नहीं तो पता कैसे चलेगा। क्रोध लक्षण है। बीमारी? बीमारी भीतर अशांत चित्त है। और वह अशांत चित्त ध्यान के प्रयोग से शांत होता है। वह मित्र मुझसे पूछते हैं कि आप कहते हैं, ध्यान! हमारी बीमारियां हैं, अशांति है, क्रोध है, घृणा है, र्ा है, हजार तरह की बुराइयां हैं, और आप कहते हैं ध्यान; अकेले ध्यान से क्या होगा? मैं आपसे यह कहना चाहता हूं कि जिनको आप बीमारियां और बुराइयां कह रहे हैं वे बुनियादी रूप से बुराइयां नहीं हैं, बुराइयों के सिर्फ बाहरी लक्षण हैं, बाहरी खबरें हैं। यह ऐसा ही है जैसे कि यहां अंधेरा भरा हो और कोई आकर हमसे कहे अंधेरे को सीधा अलग करने का रास्ता बता दीजिए। हम उससे कहें कि तुम एक दीया जलाओ। वह कहे कि दीये से हमें कुछ लेना-देना नहीं। हमें अंधेरा अलग करना है। हमें तो अंधेरे को अलग करने का डायरेक्ट रास्ता चाहिए, सीधा रास्ता चाहिए। यह दीये-वीये जलाने की झंझट में हम न पड़ेंगे। अंधेरे को दूर करना है।
उसकी बात तो ठीक है। वह कहता है, अंधेरे को दूर करना है तो दीया क्यों जलायें? आप अंधेरे को काटने की कोई तरकीब बता दें। कोई तलवार हो, जिससे अंधेरा कट जाये; कोई डिब्बे हों, जिसमें अंधेरे को पैक करें और फेंक आयें। कोई ऐसी तरकीब बतायें कि अंधेरे से सीधे निपटारा हो जाये। हम इस दीये के जलाने की झंझट में नहीं पड़ना चाहते। इसमें हम पड़ जायेंगे, अंधेरा कौन अलग करेगा? तब मुश्किल हो जायेगी। अंधेरे को सीधा अलग नहीं किया जा सकता। दीया जलाया जा सकता है। और दीये के जलने पर अंधेरा अलग नहीं होता है। असल में अंधेरा तो था ही नहीं। दीये के जलने पर पता चल जाता है कि नहीं था। कहीं चला नहीं जाता अंधेरा कि इधर हमने दीया जलाया तो इधर का अंधेरा कहीं बगल के रास्ते से कहीं और चला गया। कहीं जाता नहीं है। अंधेरा कोई वस्तु नहीं है। अंधेरा केवल दीये का अभाव है, प्रकाश का अभाव है।
जिसको हम ईविल कहते हैं, बुराई कहते हैं वह केवल भलाई का अभाव है। जिसे हम क्रोध कहते हैं, वह केवल शांति का अभाव है। ध्यान दीये का जलाना है। भीतर दीया जल जाये बाहर से ये सब अभाव विदा हो जायेंगे। अब तक किसी ध्यानी आदमी ने अगर कोई बुराई की हो तो विचारणीय हो जाये।
एक बहुत अदभुत फकीर हुआ नागार्जुन। वह एक गांव से गुजर रहा है और उस गांव की रानी उसका बड़ा आदर करती है। उसने उसको भोजन खिलाया है। नंगा फकीर है और उसको एक हाथ में सोने का पात्र दे दिया है और कहा, लकड़ी का पात्र यहां छोड़ दो। सोने का पात्र है और उस पर हीरे जड़े हैं। उसकी लाखों की कीमत होगी। नागार्जुन ने ले लिया और चल पड़ा। रानी थोड़ी चकित हुई क्योंकि उसने भी सोचा था त्यागी है, कहेगा कि मैं छू नहीं सकता सोने को। हम त्यागी को ऐसे ही पहचानते हैं। हम त्यागी को भी सोने से ही पहचानते हैं जब तक वह यह न कहे, हम छू नहीं सकते सोने को। तब तक हम त्यागी को नहीं पहचानते हैं। जब कोई त्यागी कहता है, यह सब मिट्टी है, हम नहीं छूते। लेकिन मिट्टी को तो वह रोज छूता है और सोने को इनकार करता है। अगर मिट्टी ही है तो बेफिक्री से छुओ। नहीं, लेकिन वह कहता है सोना मिट्टी है, हम न छुयेंगे और मिट्टी को मजे से छू लेता है। तब जरा शक होता है कि सोना मिट्टी नहीं है। वह कह रहा है कि सोना मिट्टी है लेकिन उसको सोना सोना दिखाई पड़ रहा है।
उस रानी ने उसको, फकीर को कहा, अरे आपने मना नहीं किया? कहना था कि यह सोने का पात्र! उसने कहा, कैसा सोने का पात्र? कहां का सोने का पात्र? उस रानी ने कहा मैंने लाखों रुपये खर्च किये हैं। उसने कहा, वह तेरी नासमझी होगी। तू जान, तेरा काम जाने। मुझे क्या मतलब? मुझे इसमें रोटी मांगनी है, पात्र किसी का भी हो। रोटी इसमें खानी है। उससे मुझे मतलब है, इससे ज्यादा मुझे मतलब नहीं है। मुझे पात्र होने से मतलब है। वह लकड़ी का था सोने का था, काहे का था, वह तुम्हारा हिसाब होगा। हमारा काम इतना है, इसमें रोटी और दाल रखकर हम खा लें। हमारा इतना काम तो यह दे देगा न पात्र। उस स्त्री ने कहा, उतना तो दे ही देगा। लेकिन मैं सोचती थी, सोने का है, आप शायद इनकार करेंगे। उसने कहा, मैं फकीर आदमी मुझे सोने से क्या मतलब? आप समझ रहे हैं। उसने कहा, मैं फकीर आदमी मुझे सोने से क्या मतलब? होगा सोने का। वह उनके लिए होगा, जिनको सोने का मतलब होगा। रानी चकित हुई। फकीर तो चला गया।
नंगा फकीर है, सोने का पात्र है, हीरे जड़े हैं वे चमकते हैं धूप में। गांव के एक चोर को दिखाई पड़ा। उस चोर ने कहा, हैरानी! मरे जाते हैं, परेशान हुए जाते हैं। न हीरे मिलते हैं, न सोना मिलता है। यह आदमी नंगा आदमी है, इसको कहां से इतना बढ़िया पात्र मिल गया?
मगर जिंदगी ऐसी है। यहां जो दौड़ता है जिन चीजों के पीछे उन्हीं को खो देता है। यहां जिंदगी का नियम यह है कि भागो किसी के पीछे, और वह भाग खड़ा होगा। और तुम उसकी तरफ पीठ करके भागो और वह थोड़ी देर में तुम्हारे पीछे पता लगाता हुआ आता होगा कि यह मामला क्या है, आप जा कहां रहे हैं?
उस चोर ने कहा, लेकिन यह फकीर कितनी देर तक बचा सकेगा इस पात्र को। चोर उसके पीछे हो लिया। फकीर गांव के बाहर मरघट में ठहरा है एक टूटे खंडहर में, भरी-दोपहरी में पीछे पदचाप सुनायी पड़ते हैं तो उसने सोचा कि मेरे पीछे तो कोई कभी नहीं आता है। मालूम होता है, इस पात्र के पीछे कोई आ रहा है। यहां दुनिया बड़ी अजीब है। यहां आदमियों के पीछे कोई नहीं जाता, हाथ में सोने के पात्र हों तो बहुत लोग चले जाते हैं। यहां आदमी की तो कोई इज्जत नहीं है, हाथ में पात्र क्या है, यह सवाल है। आत्मा की तो कोई कीमत नहीं है यहां। कपड़े कैसे हैं, खीसे गरम हैं या नहीं गरम हैं, वह मूल्यवान है।
वह गया फकीर अंदर। उसने सोचा, नाहक यह बेचारा भरी-दोपहरी में इतनी दूर तक आया। रास्ते में कह देता तो वहीं इसको दे देते। और अब न मालूम कितनी देर तक इसको छिपकर बैठना पड़ेगा। मेरे तो सोने का समय हो गया है। तो उसने खिड़की से वह पात्र बाहर फेंक दिया और सो गया। वह चोर वहीं खिड़की के नीचे छिपा था, पात्र को गिरते देखा तो बड़ा हैरान हो गया। उसने कहा, अजीब आदमी है। इतना कीमती पात्र ऐसे फेंक दिया है। खड़े होकर उसने कहा, कि धन्यवाद! मैं तो चोरी करने आया था और आपने पात्र फेंक ही दिया।
उस फकीर ने कहा, मैंने सोचा, नाहक तुम्हें चोरी करवाने के लिए मैं क्यों जिम्मेवार बनूं? असल में चोरों के लिए वे सब लोग जिम्मेवार हैं जिनकी तिजोरियों पर ताले हैं। उसने कहा, मैं क्यों फिजूल झंझट में पडूं? तो मैंने कहा, फेंक दूं। मैं भी झंझट से बचूं, आराम से सो जाऊं। तुम भी अपना ले जाओ, तुम भी चोर न बन पाओ।
उस चोर ने कहा, अजीब आदमी हैं, क्या मैं थोड़ी देर भीतर आ सकता हूं? उस फकीर ने कहा, इसीलिए मैंने पात्र बाहर फेंका। भीतर तो तुम आते, लेकिन तब, जब मैं सो गया होता। इसीलिए मैंने पात्र फेंका कि जगते में भीतर आ जाओ तो शायद सोने का पात्र ही नहीं, कुछ और भी तुम्हें दे सकूं।
वह चोर भीतर आ गया। वह पैर पकड़कर उस फकीर के बैठ गया। उसने कहा, मैंने ऐसा आदमी नहीं देखा। मन मेंर् ईष्या होती है। कभी-कभी ऐसा होता है, कब वह दिन होगा कि मैं भी ऐसे सोने के पात्र खिड़की के बाहर फेंक दूं।
उस फकीर ने कहा, बस, हो गया काम। यही मैं चाहता था। अब तू जा, बात हो गयी। नहीं, उसने कहा, इतनी जल्दी न जाऊंगा। इतनी शांति कहां पायी कि सोने का पात्र इस तरह फेंक सकते हो। इतना आनंद कहां पाया कि सोने के पात्र का कोई मूल्य नहीं मालूम पड़ता है। इतनी खुशी, इतनी जिंदगी कहां मिल गयी? कुछ मुझे भी रास्ता बताओगे तुम? लेकिन एक बात पहले कह दूं, उस चोर ने कहा कि मैं और भी संतों के पास गया हूं। चोर अक्सर संतों के पास जाते हैं। असल में चोरों के सिवाय शायद ही कोई जाता हो। वे जाते हैं। संतों के पास अक्सर गया हूं, वह मुझसे पहले तो यही कहते हैं कि चोरी छोड़ दो फिर कुछ हो सकता है। वह छूटती नहीं अपने से। वह छूट सकती नहीं। तो एक पहले बात बता दूं कि चोरी छोड़ने की बात मत करना।
वह फकीर हंसने लगा और उसने कहा, फिर मालूम होता है तुम संतों के पास गये ही नहीं। तुम भूतपूर्व चोरों के पास गये होगे। क्योंकि जो पहले से एकदम चोरी छोड़ने की बात करते हैं, जरूर कुछ गड़बड़ है, चोरी से कुछ लगाव है उनका। पहली बात यही करते हैं? उसने कहा, यही करते हैं। सब जानते हैं कि मैं चोर हूं तो वह पहले यह कहते हैं कि चोरी छोड़ो, फिर कुछ हो सकता है। बात वहीं अटक जाती है। वह शर्त ही पूरी नहीं होती। उस फकीर ने कहा, हम ये बातें न करेंगे। हमें चोरी से कुछ लेना-देना नहीं है। उस फकीर की बात सुनकर चोर ने कहा, फिर अपना तुपना मेल हो सकता है। कहिए, मैं करूंगा। उस फकीर ने कहा, एक काम कर। चोरी ध्यानपूर्वक करना।
तो उसने कहा, क्या मतलब? चोरी करूं? उस फकीर ने कहा, बिलकुल बेफिक्री से कर, लेकिन ध्यानपूर्वक। उसने फकीर से पूछा, यह ध्यानपूर्वक चोरी का क्या मतलब हुआ? उस फकीर ने कहा, जब तू चोरी कर तो पूरा जागा हुआ शांत मन से, पूरे होश से भरे हुए चोरी करना। बेहोशी में मत करना। पूरा जाग्रत होकर कि चोरी कर रहा हूं, जानते हुए हाथ उठाना, ताले तोड़ना, धन निकालना जानते हुए कि चोरी कर रहा हूं, बस इतना, और कुछ नहीं। उस चोर ने कहा, यह हो सकेगा। नतीजे की खबर कब दूं। उस फकीर ने कहा, पंद्रह दिन तक मैं यहां टिका हूं, तू आ जा, जब तुझे लगे कि कुछ और पूछना है।
वह चोर दूसरे दिन आया और रोने लगा और उसने कहा, मुश्किल में डाल दिया, आदमी बड़े अजीब मालूम पड़ते हैं। क्योंकि मैं कल चोरी करने गया। ऐसा मौका जिंदगी में कभी भी नहीं मिला था। राजा के महल में पहुंच गया। तिजोरी खुल गयी। अब मैं बड़ी मुश्किल में पड़ा था उस तिजोरी के सामने। हाथ डालता हूं होशपूर्वक, तो हाथ भीतर नहीं जाता है। क्योंकि जैसे ही मुझे खयाल आता है कि चोरी कर रहा हूं, हाथ रुक जाता है। क्योंकि चोर मैं भी नहीं होना चाहता हूं। चोर! अगर कोई कह दे तो मैं उसकी गर्दन काट डालूं। चोर मैं भी नहीं होना चाहता हूं। होश छूटता है तो हाथ भीतर चला जाता है। लेकिन जैसे ही होश आता है, मुट्ठी खुल जाती है, हाथ बाहर लौट आने लगता है। आधी रात बीत गयी और आखिर बिना चोरी किये वापस लौट आया। यह तो तुमने मुश्किल में डाल दिया। सीधा कहो न कि चोरी मत करो। उस फकीर ने कहा, चोरी से हमें कुछ लेना-देना नहीं। बस ध्यानपूर्वक करो। क्योंकि इतना मैं जानता हूं कि ध्यानपूर्वक आज तक कोई चोरी नहीं कर सका है, न कर सकता है।
ध्यानपूर्वक क्रोध कर सकते हैं? कैसे करियेगा, ध्यानपूर्वक क्रोध?
एक मेरे मित्र बहुत क्रोधी हैं। वह मुझसे कहते थे कि मुझे कुछ सीधा सरल रास्ता बताइए। मैंने एक कागज की पट्टी पर उनको लिखकर दे दिया कि अब मुझे क्रोध आ रहा है और इसको मैंने कहा--खीसे में रखो सदा। और जब भी क्रोध आये, पहले इसे निकाल कर पढ़ना, वापस रखना, फिर क्रोध करना। उन्होंने कहा, यह तो हो सकेगा, इसमें कोई दिक्कत नहीं है। लेकिन नहीं हो सका। क्योंकि जैसे ही पट्टी का खयाल आता है कि अब क्रोध आ रहा है, अचानक पाते हैं कि भीतर से कोई चीज बिखर गयी और फैल गयी। वह नहीं हो सकता।
ध्यानपूर्वक क्रोध नहीं हो सकता। ध्यानपूर्वक बुराई नहीं हो सकती। ध्यानपूर्वक पाप नहीं किया जा सकता और जो ध्यानपूर्वक किया जा सकता है वह पुण्य है, वह पाप नहीं हो सकता।
इसलिए मैं इतना जो जोर देता हूं कि बुराई की इतनी चिंता न लें जितनी चिंता इस बात की लें कि आपका जीवन ध्यानपूर्वक हो जाये, एक मेडिटेटिव हो जाये, ध्यानपूर्वक जीने लगें। तब आप पायेंगे कि जिंदगी सब तरफ से बदलनी शुरू हो गयी क्योंकि ध्यानपूर्वक बुरा तो किया ही नहीं जा सकता। फिर वही शेष रह जाता है जो किया जा सकता है। पाप और पुण्य की परिभाषा मेरी दृष्टि में यही है। कोई मुझसे पूछता है कि पाप और पुण्य की क्या परिभाषा है तो मैं यही कहता हूं कि जिसे जाग्रत, होशपूर्वक, ध्यानपूर्वक किया जा सके--वह पुण्य है और जिसे ध्यानपूर्वक किया ही न जा सके--वह पाप है। और कोई परिभाषा मेरी समझ में नहीं आती। किसी आदमी की छाती में जानते हुए, ध्यानपूर्वक छुरा नहीं भोंका जा सकता। वह छुरा तभी भोंका जा सकता है जब हम ध्यान को खो दें। ध्यानपूर्वक ही हम जीवन में शुभ को कर सकते हैं। अशुभ कभी भी संभव नहीं है।
(एक आदमी की आपत्तिजनक आवाज) उनकी फिक्र न करें, इतनी छोटी-सी बात की क्या फिक्र करते हैं। एकदम बच्चों जैसी बात न करें। कोई बचकाना काम करता है, उसको करने दें। ध्यानपूर्वक न कर रहा होगा, लेकिन आप तो परेशान न हों। आप तो ध्यानपूर्वक सुन सकते हैं। उसकी फिक्र नहीं करनी चाहिए, उसकी चिंता भी नहीं लेनी चाहिए। उसकी चिंता और फिक्र करने से उसका काम सफल हो जाता है। उसको लगता है ठीक है, हम ही बच्चे नहीं थे और भी लोग बच्चे थे, वह भी बड़े प्रसन्न हैं।
बुराई को इस पृथ्वी से मिटाया जा सकता है। बुराई को आमूल नष्ट किया जा सकता है, लेकिन बुराई को अब तक आमूल नष्ट नहीं किया जा सका, आमूल नष्ट करना तो दूर, बुराई रोज बढ़ती चली गयी। जरूर कहीं भूल हो गयी। भूल यह हो गयी कि हमने बुराई को सीधे मिटाने की कोशिश की है। पिछले पांच हजार वर्ष की नैतिकता, पांच हजार वर्ष के साधु-संत, पांच हजार वर्ष के शास्त्र, पांच हजार वर्ष का धर्म आदमी को बुराई से सीधा मिटाने की कोशिश में लगाये हुए है। वह कहता है कि सीधे बुराई को मिटाओ। वह कहता है कि असत्य मत बोलो। वह कहता है, पाप मत करो। वह कहता है चोरी मत करो। इसका परिणाम नहीं हो सका, जरा भी परिणाम नहीं हो सका। चोरी रोज बढ़ती चली गयी; पाप रोज बढ़ता चला गया; रोज बढ़ रहा है। इसमें पापी जिम्मेवार नहीं है, इसमें हमारे पाप का निदान ही, डायग्नोसिस ही भूल भरा है। हमने बात ही गलत की है।
अगर किसी आदमी से चोरी न करवानी हो तो यह मत कहिए कि चोरी मत करो क्योंकि चोरी मत करो, इसका कोई अर्थ ही नहीं होता। इसका ऐसे ही अर्थ हुआ, जैसे किसी आदमी को बुखार है तो हम उसको कहें कि बुखार को मत लाओ। और वह आदमी कहेगा, क्या बातें आप कर रहे हैं। वह आया है औषधि लेने, आप उसको उपदेश दे रहे हैं। वह कहता है, हमें औषधि चाहिए, बुखार आ गया। आप कहते हैं, तुम बड़े पापी हो। बुखार लाओ ही मत। बुखार बड़ी बुरी चीज है। वह भी राजी होता है कि बुखार बुरी चीज है। वह भी कहता है, बुखार मैं नहीं चाहता। तो हम उससे कहते हैं, फिर तुम लाये क्यों, लाओ ही मत। वह कहता है कि बात तो समझ में आती है, लेकिन बुखार आ जाता है। उपाय? उपाय यही है कि तुम लाओ मत।
यह उपाय नहीं है। बुखार को मिटाने के लिए औषधि खोजनी जरूरी है, सिर्फ उपदेश काफी नहीं है। मैं आपको यह कह रहा हूं, बुराई को मिटाने के लिए अब तक हमने उपदेश का प्रयोग किया है--यह मत करो, यह मत करो, यह मत करो। न करने से कुछ भी फल नहीं होगा। क्योंकि जिसको आप नहीं करते हैं, उसके करने की क्षमता आपके भीतर इकट्ठी होती चली जाती है और कभी बहुत विस्फोट से निकलती है। इसलिए अच्छे आदमी जब बुरे होते हैं तो बहुत बुरे होते हैं। बुरा आदमी बहुत थोड़ा ही बुरा होता है। जो आदमी दिन में दो-चार दफे क्रोध कर लेता है वह आदमी कभी किसी की हत्या नहीं कर सकता। वह इतना क्रोध ही इकट्ठा नहीं कर पाता बेचारा कि कभी हत्या कर दे। वह रोज ही निकल जाता है उसका क्रोध। लेकिन जो आदमी दो-चार साल तक क्रोध न किया हो उससे जरा सम्हलकर रहना। क्योंकि अगर उसका विस्फोट हो जाये तो वह हत्या से कम न करेगा। इससे कम पर उसका काम नहीं होगा। इतना उसने इकट्ठा कर लिया है।
जिंदगी में जो बड़े पाप करते हैं वे, वे लोग हैं जो छोटे-छोटे पाप न करने की जिद्द में बहुत से पाप की वृत्ति को इकट्ठा कर लेते हैं। इसलिए कभी अच्छा आदमी जब गिरता है तो बहुत बुरी तरह गिरता है, बहुत खाइयों में गिरता है। अच्छे समाज जब गिरते हैं तो बहुत खाइयों में गिरते हैं। यह हमारा समाज भी बड़ा अच्छा समाज था। और आज हम इसे देखें तो आज इससे बुरा समाज पृथ्वी पर दूसरा नहीं है। क्या हो गया इस समाज को? इसने छोटी-छोटी बुराइयां न करने की कसम खा ली है। इसने इतनी बुराइयां इकट्ठी कर ली हैं भीतर कि अब सब तरफ से फोड़े-फुंसियों में फूट-फूटकर निकल रही हैं। अब पूरा व्यक्तित्व देश का सड़ रहा है।
नहीं, मैं यह मानता हूं कि हमने बुराई को मिटाने की दृष्टि ही गलत पकड़ ली है। बुराई को अगर मिटाना है, वह जो ईविल है, वह जो अशुभ है, वह जो पाप है वह क्यों पैदा होता है? यह समझना जरूरी है। वह इसलिए पैदा होता है कि मन अशांत है। अशांत मन कितने-कितने पाप कर सकता है, इसका हिसाब लगाना मुश्किल है। अशांत मन पुण्य तो कर ही नहीं सकता क्योंकि पुण्य के लिए शांति की भूमिका चाहिए। पुण्य के लिए, फूल पुण्य का खिल सके तो शांति की भूमि चाहिए। शांति की भूमि में ही पुण्य का फूल खिल सकता है। अशांति की भूमि में ही पाप का फूल खिलता है। भूमि ही गलत हम बनाये हुए हैं। मैं भूमि को बदलने के लिए ही जोर दे रहा हूं। लोग समझ नहीं पाते। लोग समझते हैं, ध्यान से मेरा मतलब वही है जो पहले था कि बैठकर किसी भगवान का ध्यान कर रहे हैं, कि बैठकर किसी मूर्ति का ध्यान कर रहे हैं, कि बैठकर किसी मंत्र का जाप कर रहे हैं, कि बैठकर कोई माला फेर रहे हैं। नहीं, मेरा इन ध्यानों से कोई संबंध नहीं है। ध्यान से मेरा यह मतलब नहीं है कि आप बैठकर किसी भगवान का स्मरण कर रहे हैं। अगर भगवान का पता ही नहीं तो स्मरण कैसे करियेगा। और किस मूर्ति का स्मरण करियेगा? कौन-सी मूर्ति है भगवान की? कौन-सा नाम लीजिएगा, कौन-सा नाम है उसका?
नहीं, इससे कुछ होने का नहीं है। मैं ध्यान से कुछ और ही अर्थ ले रहा हूं, वह अंतिम बात आपसे कह दूं ताकि आपके खयाल में रह जाये। हो सकता है बहुत से मित्र सुबह ध्यान में नहीं भी आये उनको भी खयाल हो जाये। ध्यान से मेरा अर्थ है--परिपूर्ण समर्पण, टोटल सरेंडर। वह जो हमारे चारों तरफ विराट जीवन है, उसके साथ एक हो जाने की स्थिति, उसके साथ तालमेल बिठा लेने की स्थिति, उसमें डूब जाने की स्थिति, उसमें खो जाने की, लीन हो जाने की स्थिति। और जब कोई व्यक्ति इस स्थिति में प्रवेश करता है तो उसके भीतर इतनी शांति उत्पन्न होती है जिसका कोई हिसाब लगाना मुश्किल है। क्यों होती है उत्पन्न? इसलिए उत्पन्न होती है कि जब तक हम सारे जगत से अपने को तोड़े रखते हैं, अलग रखते हैं, तब तक हम सारे जगत के गहरे अर्थों में दुश्मन बने होते हैं, और दुश्मन कभी भी शांत नहीं हो सकता। जब तक मैं सारी दुनिया से अलग हूं तब तक सारी दुनिया मेरी दुश्मन है। जब तक मैं सारी दुनिया से भिन्न हूं तब तक सारी दुनिया से मुझे अपने को बचाना है। सारी दुनिया को जीतना है। अपने को बचाना है, अपने को मिटने नहीं देना है। तब तक मैं लडूंगा, लड़ाई अशांति बनेगी, लड़ाई तनाव बनेगी। लेकिन अगर मैंने सारी दुनिया से अपने को एक माना, एक जाना, एक पहचाना और अगर दस क्षण को भी मेरे मन से सारा विरोध छूट गया और मैं एक हो गया तो अशांति कैसे रह जायेगी। तो चित्त शांत हो जायेगा।
उस चित्त की शांति की दशा में द्वार खुलता है वह, जिसे हम प्रभु कहें, जीवन कहें, उसकी झलक पहली दफे दिखाई पड़ती है। और वह झलक दिखायी पड़ जाये तो आप तत्काल दूसरे आदमी हो जाते हैं। होना नहीं पड़ता। आप दूसरे आदमी हो जाते हैं।
एक छोटी-सी कहानी से स्मरण दिलाऊं, फिर अपनी बात पूरी करूं--
एक सम्राट का लड़का घर से भाग गया। भाग क्या गया था, कोई लड़का कभी भागता नहीं, जब तक बाप भगाये न। बाप उपद्रवी था, अक्सर बाप उपद्रवी होते हैं क्योंकि बच्चे तो बहुत निरीह और निर्दोष आते हैं। जब तक उनको उपद्रव में डाला न जाये, सांचे में बिठाया न जाये तब तक उपद्रवी हो नहीं सकते। बाप की पीढ़ी जब तक नयी पीढ़ी को उपद्रव में ढाले न तब तक उपद्रव में जा कैसे सकती है। बाप की परेशानियों से हैरान, मुश्किल होकर वह लड़का भाग गया था। पांच साल तक बाप ने उसकी फिक्र भी नहीं की। क्रोध में था बाप भी। लेकिन एक ही लड़का था। बाप बूढ़ा होने लगा, तब उसे याद सताने लगी। फिर उसने अपने वजीरों को कहा ढूंढ़ो, उसे ले आओ वापस। वह लड़का बेचारा, राजा का लड़का था। राजा का लड़का होना भी कभी-कभी बड़ा दुर्भाग्य होता है। राजा का लड़का था, न ठीक से पढ़ा, न लिखा। राजा का लड़का था, कभी कोई मेहनत न की थी। तो सिवाय भीख मांगने के और कोई उपाय न रहा। राजा का लड़का अगर राजा न रह जाये तो भिखारी ही हो सकता है, और कोई उपाय नहीं है। भीख मांगने लगा। पांच साल में तो भूल ही चुका था कि राजा का लड़का है। कैसे याद रखे, जब मांगनी पड़ती हो भीख तो कितनी देर तक याद रखो कि राजा के लड़के हैं। थोड़े दिन याद रहा होगा, फिर भूल गया। फिर मिट गया खयाल भी।
वजीर खोजते-खोजते उस गांव में पहुंचे, जहां वह भरी दोपहरी में एक साधारण-सी गंदी होटल के सामने जुआ खेलते लोगों से भीख मांग रहा था। और पैर बता रहा था, पैर में फफोले पड़े थे, कपड़े फट गये थे। कपड़े वही थे, पांच साल पहले जिनको लेकर निकला था। लेकिन अब पहचानना मुश्किल था। न कभी धुले थे। धूल, कीचड़ सब कट-पिट गये, सब पांच साल में बर्बाद हो गये। उन्हीं फटे कपड़ों को पहने हुए हाथ जोड़े भीख मांग रहा था और मांग रहा था भीख, जूते के लिए। जूते समाप्त हो गये थे। और भरी तेज धूप थी और सड़कें जलती थीं। उसके पैर पर फफोले थे, और कपड़े बांधे था और लोगों से कह रहा था मेरे पैर पर फफोले हैं दया करो और कुछ चार पैसे दे दो, कि मैं जूते खरीद लूं।
लोग उसकी तरफ ध्यान ही न दे रहे थे। कोई उसकी फिक्र ही न कर रहा था। तभी रथ रुका उस द्वार के सामने आकर। वजीर ने नीचे उतरकर देखा, वही मालूम पड़ता है। भागा हुआ पास गया, चेहरा देखा, वही है। पैर पर गिर पड़ा और कहा कि महाराज ने याद किया है, वापस चलें। पिता बीमार हैं, राज्य का अधिकार कौन सम्हाले? हाथ में टूटा-सा एल्युमिनियम का बर्तन था, दस-पांच पैसे उसमें पड़े थे। एक क्षण में सब बदल गया--एक क्षण में! पात्र फेंक दिया उसने जोर से सड़क पर। सारे जुआरी चौंककर खड़े हो गये, सामने रथ खड़ा देखा। जुआ बंद हो गया, होटल के सारे लोग बाहर आ गये। उसने वजीर से कहा, जाओ, पहले तो यह करो, अच्छे वस्त्र लाओ, जूते लाओ, स्नान का इंतजाम करो, भोजन का इंतजाम करो। उसकी सब आंखें बदल गयीं, उसका चेहरा बदल गया, कपड़े अभी भी वही थे, सड़क वही थी, होटल वही था, पात्र नीचे पड़ा था, लेकिन अब वह सम्राट हो गया था।
होटल के लोगों ने कहा, आपका चेहरा एकदम बदल गया। उसने कहा, बात मत करो, सोच कर बोलो, किससे बोल रहे हो। सम्राट हूं। वजीर कंप रहा है, लोग भागे हैं, कपड़े आ गये हैं, सब इंतजाम हो रहा है, इत्र छिड़के जा रहे हैं, स्नान करवाया जा रहा है। वह आदमी रथ पर बैठ गया। वे होटल के लोग बड़े उत्सुक हैं कि थोड़ी तो पहचान याद रखना। पर अब बात बिलकुल बदल गई है। पहले वे उसकी तरफ देख भी न रहे थे, अब वह उनकी तरफ बिलकुल नहीं देख रहा है, अब वह कहीं और है। क्या हो गया है इस क्षण में? एक क्षण में एक किरण आयी, एक स्मरण आया, एक रथ आया द्वार पर, जिसने कहा सम्राट हो तुम।
ध्यान की गहराइयों में वह किरण आती है, वह रथ आता है द्वार पर जो कहता है सम्राट हो तुम, परमात्मा हो तुम, प्रभु हो तुम, सब प्रभु है, सारा जीवन प्रभु है। जिस दिन वह किरण आती है, वह रथ आता है, उसी दिन सब बदल जाता है। उस दिन जिंदगी और हो जाती है। उस दिन चोर होना असंभव है। सम्राट कहीं चोर होते हैं! उस दिन क्रोध करना असंभव है। उस दिन दुखी होना असंभव है। उस दिन एक नया जगत शुरू होता है। उस जगत, उस जीवन की खोज ही धर्म है।
इन चार चर्चाओं में इस जीवन, इस प्रभु को खोजने के लिए क्या हम करें उस संबंध में कुछ बातें मैंने कहीं। मेरी बातों से वह किरण न आयेगी, मेरी बातों से वह रथ भी न आयेगा, मेरी बातों से आप उस जगह न पहुंच जायेंगे। लेकिन हां, मेरी बातें आपको प्यासा कर सकती हैं। मेरी बातें आपके मन में घाव छोड़ जा सकती हैं। मेरी बातों से आपके मन की नींद थोड़ी-बहुत चौंक सकती है। हो सकता है, शायद आप चौंक जायें और उस यात्रा पर निकल जायें जो ध्यान की यात्रा है।
तो निश्चित है, आश्वासन है कि जो कभी भी ध्यान की यात्रा पर गया है, वह धर्म के मंदिर पर पहुंच जाता है। ध्यान का पथ है, उपलब्ध धर्म का मंदिर हो जाता है। और उस मंदिर के भीतर जो प्रभु विराजमान है, वह कोई मूर्तिवाला प्रभु नहीं है, समस्त जीवन का ही प्रभु है। जीवन ही है प्रभु, इस संबंध में इन चार दिन मेरी बातों को इतनी शांति और प्रेम से सुना, उससे बहुत अनुगृहीत हूं और अंत में सबके भीतर बैठे परमात्मा को प्रणाम करता हूं, मेरे प्रणाम स्वीकार करें।

साधना-शिविर, जूनागढ़; दिनांक १२ दिसंबर, १९६९; रात्रि.


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