अंतस——केंद्र पर अमृत है—प्रवचन—67
सूत्र:
दुल्लभो पुरिसाजन्नो न सो सबत्थ:
जायति ।
यत्थ सो धीरो तं कुलं सुखमेधति
।।169।।
सुखो बुद्धाने उप्पादो सुखा
सद्धम्मदेसना ।
सुखा संघस्स सामग्री समग्गानं तपो
सुखो ।।170।।
पूजारहे पूजयतो बुद्धे यदि व सावको ।
पपज्वसमूतिक्कंते तिण्णसोकपरिद्दवे
।।171।।
ते तादिसे पूजयतो निब्बुते अकुतोभये
।
न सक्का पुज्जं संखातुं इमेतंपि केतचि
।।172।।
एक प्राचीन
रूसी कथा है। एक बड़े टोकरे में बहुत से मुर्गे आपस में लड़ रहे थे। नीचे वाला खुली
हवा में सांस लेने के लिए अपने ऊपर वाले को गिराकर ऊपर आने के लिए फड़फड़ाता है। सब
भूख—प्यास से व्याकुल हैं। इतने में कसाई छुरी लेकर आ जाता है, एक—एक
मुर्गे की गर्दन पकड़कर टोकरे से बाहर खींचकर वापस काटकर फेंकता जाता है। कटे हुए
मुर्गों के शरीर से गर्म लहू की धार फूटती है। भीतर के अन्य जिंदा मुर्गे अपने—
अपने पेट की आग बुझाने के लिए उस पर टूट पड़ते हैं। इनकी जिंदा चोंचों की छीना—झपटी
में मरा कटा मुर्गे का सिर गेंद की तरह उछलता—लुढ़कता है। कसाई लगातार टोकरे के
मुर्गे काटता जाता है। टोकरे के भीतर हिस्सा बांटने वालों की संख्या भी घटती जाती
है। इस खुशी में बाकी बचे मुर्गों के बीच से एकाध की बांग भी सुनायी पड़ती है। अंत
में टोकरा सारे कटे मुर्गों से भर जाता है। चारों ओर खामोशी है, कोई झगड़ा या शोर नहीं है।
इस
रूसी कथा का नाम है—जीवन।
ऐसा
जीवन है। सब यहां मृत्यु की प्रतीक्षा में हैं। प्रतिपल किसी की गर्दन कट जाती है।
लेकिन जिनकी गर्दन अभी तक नहीं कटी है, वे संघर्ष में रत हैं, वे प्रतिस्पर्धा में जुटे हैं। जितने दिन, जितने
क्षण उनके हाथ में हैं, इनका उन्हें उपयोग कर लेना है। इस
उपयोग का एक ही अर्थ है कि किसी तरह अपने जीवन को सुरक्षित कर लेना है, जो कि सुरक्षित हो ही नहीं सकता।
मौत
तो निश्चित है। मृत्यु तो आकर ही रहेगी। मृत्यु तो एक अर्थ में आ ही गयी है। क्यू
में खड़े हैं हम। और प्रतिपल क्यू छोटा होता जाता है, हम करीब आते जाते हैं। मौत
ने अपनी तलवार उठाकर ही रखी है, वह हमारी गर्दन पर ही लटक
रही है, किसी भी क्षण गिर सकती है। लेकिन जब तक नहीं गिरी है,
तब तक हम जीवन की आपाधापी में बड़े व्यस्त हैं—और बटोर लूं, और इकट्ठा कर लूं? और थोड़े बड़े पद पर पहुंच जाऊं,
और थोड़ी प्रतिष्ठा हो जाए, और थोड़ा
मान—मर्यादा मिल जाए। और अंत में सब मौत छीन लेगी।
जिन्हें
मृत्यु का दर्शन हो गया,
जिन्होंने ऐसा देख लिया कि मृत्यु सब छीन लेगी, उनके जीवन में संन्यास का पदार्पण होता है। उनके जीवन में एक क्रांति घटती
है। इस क्रांति को बुद्ध ने एक विशिष्ट नाम दिया है, उसे वे
कहते हैं—परावृत्ति।
इस
शब्द को समझ लेना चाहिए,
यह शब्द बड़ा बहुमूल्य है।
हिंदुओं
के पास एक शब्द है,
निवृत्ति। जैसा हिंदुओं का निवृत्ति शब्द महत्वपूर्ण है, वैसा बौद्धों का परावृत्ति शब्द महत्वपूर्ण है। और निवृत्ति से परावृत्ति
ज्यादा महत्वपूर्ण शब्द है। निवृत्ति का अर्थ होता है, संसार
से विराग, संसार की वृत्तियों में रस का त्याग। मगर त्याग
में दमन भी हो सकता है। निवृत्ति अक्सर दमन पर खड़ी होती है। परावृत्ति का अर्थ
संसार का त्याग नहीं है, अपनी तरफ लौटना। जोर है— भीतर की
तरफ लौटना।
साधारणत:
हमारी जीवन—ऊर्जा बाहर की तरफ जा रही है, यह वृत्ति है। इसे बाहर की तरफ न
जाने देना निवृत्ति है। इसे भीतर की तरफ मोड़ लेना परावृत्ति है। और यह भीतर की तरफ
मुड़ जाए तो बाहर अपने आप ही नहीं जाएगी। जब अपने आप बाहर न जाए, तो परावृत्ति। जब रोकना पड़े बाहर जाने से, तो
निवृत्ति।
तो
निवृत्ति में तो दमन होगा। निवृत्ति में तो जबरदस्ती होगी। मन तो जाना चाहता था, तुमने
बांध—बूंधकर रोक लिया। मन तो भागता था, तुमने किसी तरह कील
ठोंक दी। मन तो दौड़ा—दौड़ा था, तुम किसी तरह सम्हालकर उसकी
छाती पर बैठ गए। यह बैठना बहुत सुख नहीं देगा। और जिसे तुमने जबरदस्ती बांध लिया
है, वह छूटेगा। और जिस पर तुम जबरदस्ती सवार हो गए हो,
आज नहीं कल कमजोरी के किसी क्षण में तुम्हें गिरा देगा। फिर घोड़े भागने
लगेंगे, फिर इंद्रियां सजग हो जाएंगी, फिर
वृत्तियां वापस लौट आएंगी। जब तक परावृत्ति न हो जाए, तब तक
निवृत्ति हो नहीं सकती। जो मन अभी बाहर की तरफ भागने में रसातुर है, ऐसा ही रसातुर भीतर की तरफ जाने को हो जाए तो परावृत्ति।
और
परावृत्ति ही मृत्यु के पार ले जाती है, क्योंकि बाहर है मृत्यु और भीतर है
जीवन। तुम्हारे अंतस्तल के केंद्र पर परम जीवन है, अमृत है।
वहा कभी मृत्यु घटी नहीं है, कभी घटेगी भी नहीं। घट सकती
नहीं। वहा तुम परमात्मा हो। वहा भगवत्ता तुम्हारी है। वहा तुम शाश्वत हो, सनातन हो और सदा रहोगे। वहा तुम समय के पार हो।
बाहर
तो समय है। जितने अपने से दूर गए, उतने ही परिवर्तन की दुनिया में गए। जितने अपने
से दूर गए, उतना ही भटके क्षणभंगुर में, लहरों में खोए। जितना अपने पास आए, लहरों से मुक्त
हुए। और जब ठीक अपने केंद्र पर आ गए, तो सब लहरें शांत हो
जाती हैं। उस गहराई में कोई लहर नहीं है, कोई तरंग नहीं है।
उस आंतरिक गहराई में पहुंच जाने की प्रक्रिया का नाम परावृत्ति है।
निवृत्ति
शब्द से ज्यादा मूल्यवान है परावृत्ति शब्द, क्योंकि निवृत्ति में दमन है,
परावृत्ति में मुक्ति है। निवृत्ति छाया की तरह आनी चाहिए—परावृत्ति
की छाया। अक्सर लोग उलटा करते हैं, लोग सोचते हैं, निवृत्ति की छाया की तरह परावृत्ति आएगी। लोग सोचते हैं, हम बाहर से अपने मन को रोक लेंगे तो मन भीतर जाने लगेगा।
नहीं, तुम जितना
बाहर से अपने मन को रोकोगे, मन और भी, और
भी बाहर जाएगा, और भी हठपूर्वक बाहर जाएगा। तुम करके देखो।
जिस चीज को तुम चेष्टापूर्वक छोडोगे, मन वहीं —वहीं
लौट—लौटकर जाएगा। तुम जिस बात को जबरदस्ती निषेध कर दोगे, उससे
मुक्ति न हो सकेगी, वह बात तुम्हारा पीछा करेगी। सोए,
जागे, दिन में, रात में
द्वार खटखटाएगी।
निवृत्ति
से कोई परावृत्ति की तरफ नहीं जाता। ही, परावृत्ति आ जाए तो निवृत्ति घटती
है।
ऐसे
ही हमारे पास और भी एक शब्दावली है—राग, विराग, वीतराग।
राग का अर्थ होता है, बाहर जाना, दूसरे
से जुड़ जाना। विराग का अर्थ होता है, दूसरे से टूट जाना। और
वीतराग का अर्थ होता है, अपने से जुड़ जाना। राग अर्थात
वृत्ति। विराग अर्थात निवृत्ति। वीतराग अर्थात परावृत्ति।
बुद्ध
की सारी देशना परावृत्ति के लिए या वीतरागता के लिए है—तुम कैसे अपने से जुड़ जाओ।
इसलिए बुद्ध का सारा जोर ध्यान पर है। ध्यान है परावृत्ति की प्रक्रिया। ध्यान का
अर्थ है, तुम्हारी आंखों में तुम्हीं भर रह जाओ, और कुछ न
रहे। तुम ही शेष रहो, और कुछ शेष न रहे। उस शून्यदशा में
जहां तुम ही विराजमान हो और कोई भी नहीं—न कोई विचार उठता, न
कोई भाव उठता, न कोई विषय, न कोई वस्तु
की स्मृति आती, वहा आत्म—स्मृति आती है। वहां सम्यक—स्मृति
पैदा होती है। सुरति पैदा होती है। वहा तुम अपने रस में डोलने लगते हो।
उस
रस को ही खोजो तो धार्मिक हो। उस रस की खोज में निकल पड़ो तो संन्यासी हो। उससे
विपरीत कुछ खोजते रहे तो समय गंवा रहे हो।
आज
के सूत्र बड़े महत्वपूर्ण हैं।
पहला
सूत्र—
दुल्लभो पुरिसाजज्जो न सो सचत्य
जायति ।
यत्थ सो जायति धीरो तं कुलं सुखमेधति
।।
'पुरुष श्रेष्ठ दुर्लभ है, वह सर्वत्र उत्पन्न नहीं
होता। वह धीर जहा उत्पन्न होता है, उस कुल में सुख बढ़ता है।'
सुखो बुद्धानं उयादो सुखा
सद्धम्मदेसना ।
सुखा संघस्स सामग्री समग्गानं तपो
सुखो ।।
'बुद्धों का उत्पन्न होना सुखदायी है। सद्धर्म का उपदेश सुखदायी है। संघ
में एकता सुखदायी है। एकतायुक्त तप सुखदायी है।'
पूजारहे पूजयतो बुद्धे यदि व सावके
।
पपज्वसमतिक्कंते तिण्णसोकपरिद्दवे ।।
ने तादिसे पूजयतो निब्बुते अकुतोभये
।
न सक्का पुज्जं संखातुं इमेतंपि
केतचि ।।
'जो संसार—प्रपंच को अतिक्रमण कर गए, जो शोक और भय को
पार कर गए, ऐसे पूजनीय बुद्धों अथवा श्रावकों की, या उन जैसे मुक्त और निर्भय पुरुष की पूजा के पुण्य का परिणाम इतना है,
यह किसी से कहा नहीं जा सकता।'
इन
सूत्रों का जन्म जिन परिस्थितियों में हुआ, उन्हें समझें पहले।
पहली
परिस्थिति—
एक
दिन बुद्ध ने श्रेष्ठ और अश्रेष्ट घोड़ों की बात कही।
मैं
बहुत बार तुम्हें कहा भी हूं कि बुद्ध कहते हैं, अश्व वही है जो कोड़े की
छाया से चल पड़े। उससे कम श्रेष्ठ वह है जिसे कोड़े की फटकार चलाने के लिए जरूरी हो।
उससे कम श्रेष्ठ वह है जिस घोड़े को कोड़े की चोट मारनी जरूरी हो। उससे कम श्रेष्ठ
वह है जो मारे—मारे न चले। चले भी तो जबरदस्ती चले।
बुद्ध कह रहे थे
श्रेष्ठतम अश्व कौन है। आनंद ने पूछा भगवान आपने बताया कि श्रेष्ठ अश्व कौन है और
कहां उत्पन्न होता है कैसे उत्पन्न होता है लेकिन आपने कभी नहीं बताया कि उत्तम
पुरुष कौन है और उत्तम पुरुष कहां उत्पन्न होता है। तो शास्ता ने कहा आनंद, उत्तम
पुरुष सर्वत्र उत्पन्न नहीं होते। वे मध्यदेश में ही उत्पन्न होते हैं और जन्म से
ही महाधनवान होते हैं वे क्षत्रिय या ब्राह्मण कुल में उत्पन्न होते है।
और
तब उन्होंने यह गाथा कही—
दुल्लभो पुरिसाजज्जो न सो सब्बस्थ
जायति ।
यत्थ सो जायति धीरो तं कुल सुखमेधति
।।
पुरूषश्रेष्ठ
दुर्लभ है,
सर्वत्र उत्पन्न नहीं होता, वह धीर जहा
उत्पन्न होता, उस कुल में सुख बढ़ता है।
इस
गाथा का अर्थ बौद्धों ने अब तक जैसा किया है, वैसा नहीं है। सीधा—सीधा अर्थ तो
साफ मालूम पड़ता है कि बुद्ध महाधनवान घर में पैदा होते हैं। फिर कबीर का क्या
होगा। फिर क्राइस्ट का क्या होगा! फिर फरीद का क्या होगा! फिर मोहम्मद का क्या
होगा! ये तो महाधनवान घरों में पैदा नहीं हुए। तो फिर बुद्धपुरुष नहीं हैं ये?
यह तो बड़ी संकीर्णता हो जाएगी। जैनों के चौबीस तीर्थंकर राजपुत्र
हैं, सही। हिंदुओं के सब अवतार राजाओं के बेटे हैं, सही। और बुद्ध भी राजपुत्र हैं, सही। इसलिए स्वभावत:
इस वचन का यही अर्थ लिया गया है अब तक कि बुद्धपुरुष राजघरों में ही पैदा होते
हैं—महाधनवान।
लेकिन
अब तो दुनिया से राजा मिट गए, मिटते चले जा रहे हैं! दुनिया में आने वाले
भविष्य में केवल पांच राजा बचेंगे—चार ताश के पत्तों के और एक इंग्लैंड का। बाकी
तो और कोई बच सकता नहीं। बाकी तो सब गए! तो बुद्धपुरुषों को पैदा होने की जगह—या
तो पत्तों के घरों में पैदा हों, या इंग्लैंड के राजघराने
में पैदा हों।
और
जैसे पत्तों के राजा झूठे,
ऐसा इंग्लैंड का राजा झूठा, इसीलिए बचेगा।
बचने का और कोई खास कारण नहीं है। है ही नहीं, इसलिए बच
जाएगा। न कुछ है, प्रतीकात्मक है।
तो
दुनिया में अब बुद्धपुरुष पैदा नहीं होंगे? भूल है। कहीं अनर्थ हो गया शब्द
का। मैं महाधनवान का अर्थ करता हूं —जन्म से ही महाधनवान होते हैं, इसका अर्थ हुआ कि बुद्धपुरुष आकस्मिक पैदा नहीं होते, जन्मों—जन्मों की संपदा लेकर पैदा होते हैं। संपदा भीतर है। संपदा आतरिक
है। महाधनवान ही पैदा होते हैं। शायद बस आखिरी तिनका रखा जाना है और ऊंट बैठ
जाएगा। सब हो चुका है, शायद थोड़ी सी कमी रह गयी है, निन्यानबे डिग्री पर उबल रहा है पानी, एक डिग्री और,
और फिर दुबारा जन्म नहीं होगा।
यही
अर्थ है महाधनवान का। ऐसा कम से कम मैं अर्थ करता हूं। महाधनवान का यही अर्थ है कि
बुद्धपुरुष दरिद्र पैदा नहीं होते। यह दरिद्रता धन की दरिद्रता नहीं है, यह
अंतर्धन की। यह महाऐश्वर्य धन का ऐश्वर्य नहीं है, यह
महाऐश्वर्य ध्यान का ऐश्वर्य है, समाधि का ऐश्वर्य है,
भीतर की शांति और आनंद का ऐश्वर्य है।
इसलिए
कबीर भी महाधनवान ही पैदा होते हैं। क्राइस्ट भी महाधनवान ही पैदा होते हैं।
महाधनवान होने का अर्थ है,
अपनी संपदा अपने भीतर लेकर पैदा होते हैं। खाली हाथ पैदा नहीं होते,
भरे हाथ पैदा होते हैं। हाथ करीब—करीब पूरे भरे हैं, जरा सी कमी रह गयी है, वह इस जीवन में पूरी हो जाएगी,
फिर दुबारा पैदा नहीं होंगे। क्योंकि जो पूरा—पूरा हो गया, उसके आने की फिर कोई जरूरत नहीं रह जाती।
तो
मैं तुमसे कहता हूं, भविष्य में भी बुद्धपुरुष होते रहेंगे, राजा रहें,
न रहें। धनवान रहें, न रहें, बुद्धपुरुष होते रहेंगे। क्योंकि बुद्धपुरुष के होने का धन से क्या संबंध
हो सकता है! भीतरी धन से निश्चित संबंध है, बाहरी धन से कोई
संबंध नहीं हो सकता।
दूसरी
बात बुद्ध कहते हैं : आनंद,
उत्तमपुरुष सर्वत्र उत्पन्न नहीं होते।
यह
तो सच है। बुद्धत्व हर कहीं थोड़े ही घट जाता है। जन्मों —जन्मों की साधना, जन्मों—जन्मों
की पात्रता, जन्मों—जन्मों तक जो ग्राहकता अर्जित की है,
ध्यान किया है, तपश्चर्या की है, उस पात्रता में ही घटना घटती है, हर कहीं नहीं घट
जाती। जिसने बीज बोए हैं, वहीं तो फसल काटेगा न! और जिसने
श्रम किया है, वही तो फल पाएगा न! तो सर्वत्र यह घटना नहीं
घटती।' हर एक व्यक्ति
बुद्ध हो सकता है, मगर हो नहीं पाता। कोई—कोई कभी—कभी हो
पोता है, विरला हो पाता है। होना तो सभी की संभावना है,
लेकिन संभावनाओं को सत्य बनाना आसान तो नहीं। संभावनाओं को सत्य
बनाने के लिए तो पूरे जीवन को दाव पर लगाना पड़ता है। तो जन्मों—जन्मों की छोटी—छोटी
बातों का मूल्य है। छोटी—छोटी बातें इकट्ठी होती चली जाती हैं। छोटी—छोटी बातों के
परिणाम तुम्हारे जीवन को रूपांतरित करते जाते हैं।
तुमने
किसी को गाली दे दी,
किसी का अपमान कर दिया, यह बात ऐसे ही न चली
जाएगी। गाली देने में, अपमान करने में तुम्हारी चेतना को भी
कुछ हो गया। तुमने किसी को दान दे दिया, किसी को प्रेम किया,
किसी के ऊपर करुणा की, यह बात इतने में ही
समाप्त नहीं हो गयी, ऐसा करने में तुम भी बदले।
तो
तुम्हारे छोटे—छोटे कृत्य तुम्हारी जीवनधारा को बदलते जाते हैं। एक ऐसी घड़ी आती है, जब
तुम्हारी जीवनधारा उस जगह पहुंच जाती है, शुभ की ऐसी
प्रकीर्ण घड़ी आती है, जहा सत्य तुम्हारे घर में मेहमान हो
सकता है, जहां भगवान तुम्हारे द्वार पर दस्तक देता है कि
मुझे भीतर आ जाने दो। सिंहासन तैयार हो गया तो मेहमान आ जाता है। इसलिए बुद्ध कहते
हैं, सर्वत्र उत्पन्न नहीं होते।
लेकिन
बौद्धों ने इसका क्या अर्थ लिया, जानते हैं? हिंदुओं ने
इसका क्या अर्थ लिया? उन्होंने कहा कि बुद्धपुरुष भारत में
ही पैदा होते हैं—सर्वत्र पैदा नहीं होते। जातीय अहंकार, राष्ट्रीय
अहंकार! भारत में ही पैदा होते हैं! यही है पवित्रतम देश। यही है धर्मभूमि। सदियों
से भारत का अहंकार अपने आपकी पूजा करता रहा है। भारत का अहंकार कहता रहा है कि
देवता भी यहां पैदा होने को तरसते हैं, क्योंकि यहां
बुद्धपुरुष पैदा होते हैं।
फिर
क्राइस्ट को क्या कहोगे?
फिर जरथुस्त्र को क्या कहोगे? फिर मोहम्मद का
क्या करोगे? और फिर बुद्ध के चले जाने के बाद जो बुद्धों की
असली परंपरा चली, वह तो चीन में चली और जापान में चली और
बर्मा में चली और लंका में चली! और सैकड़ों व्यक्ति बुद्धत्व को उपलब्ध हुए। वे सब
भारत के बाहर उपलब्ध हुए। उनको क्या कहोगे?
नहीं, ऐसी
संकीर्ण बात इसका अर्थ नहीं हो सकती। भारतीय मन को यह बात सुख देती है, क्योंकि तुम्हारे अहंकार को तृप्त करती है। मैं इसके लिए राजी नहीं हूं।
बुद्धपुरुष सर्वत्र पैदा नहीं होते, यह सच है। सभी के भीतर
यह घटना नहीं घटती, इसमें सच्चाई ज्यादा खोजने की जरूरत ही
नहीं है, साफ ही है बात, करोड़ों में
कभी कोई एक होता है। लेकिन वह एक भारत में होता है, ऐसी
भ्रांति मत पालना। वह एक कहीं भी हो सकता है, जहा कोई तैयार
होगा वहां हो जाएगा।
दूसरी
बात—वे मध्यदेश में ही उत्पन्न होते हैं। यह मध्यदेश ने बड़ी झंझट खड़ी की है
बौद्धशास्त्रों में। उन्होंने तो हिसाब—किताब भी आंककर बता दिया है कि कितना योजन
लंबा और कितना योजन चौड़ा मध्यदेश है। तो मध्यदेश में बिहार आ जाता है, उत्तरप्रदेश
आ जाता है, थोड़ा सा मध्यप्रदेश का हिस्सा आ जाता है, बस यह मध्यदेश है। तो पंजाब में पैदा नहीं हो सकते, सिंध
में पैदा नहीं हो सकते, बंगाल में पैदा नहीं हो सकते। ये तो
सीमांत देश हो गए। ये मध्यदेश न रहे। यह बात बड़ी ओछी है। ऐसा अर्थ करना उचित नहीं
है।
लेकिन
मैं झंझट भी समझता हूं कि बौद्ध टीकाकारों की झंझट भी रही कि फिर मध्यदेश का अर्थ
क्या करें? कहा है बुद्ध ने, यह सच है।
मैं
कुछ अर्थ करता हूं, वह समझने की कोशिश करो।
पश्चिम
का एक बहुत बड़ा भौतिकशास्त्री है—ली कांते दूनाय उसने एक अनूठी बात कही—ली कांते
दूनाय को पढ़ते वक्त अचानक मुझे लगा कि यह तो मध्यदेश की बात कर रहा है। मगर बुद्ध
और ली कांते दूनाय में तो पच्चीस सौ साल का फासला है। और बिना ली कांते दूनाय के
बुद्ध के मध्यदेश की परिभाषा नहीं हो सकती। इसलिए मैं क्षमा करता हूं जिन्होंने दो
हजार पाच सौ साल में मध्यदेश की इस तरह की व्याख्या की है। उन पर मैं नाराज नहीं
हूं क्योंकि वे कुछ कर नहीं सकते थे।
एक
अनूठी बात तय ने खोजी है और वह यह कि मनुष्य अस्तित्व में ठीक मध्य में है।
मध्यदेश है। छोटे से छोटा है परमाणु, एटम और बड़े से बड़ा है विश्व। और ली
कांते दूनाय ने सिद्ध किया है कि मनुष्य इनके, दोनों के ठीक
बीच में मध्यदेश है। ठीक बीच में है। इसका अर्थ होता है, परमाणु
में और मनुष्य के बीच में जो अनुपात है, मनुष्य जितने गुना
बड़ा है परमाणु से, उतने ही गुना बड़ा विश्व है मनुष्य से।
मनुष्य ठीक मध्य में खड़ा है—एक छोर पर परमाणु है, परमाणु और
मनुष्य के बीच. जितना फासला है, उतना ही फासला मनुष्य और
विश्व की परिधि के बीच है। वे फासले बराबर हैं। और मनुष्य ठीक मध्य में खड़ा है।
ली
कांते दूनाय को पढ़ते वक्त अचानक मुझे धम्मपद का यह वचन याद आया। शायद ली कांते
दूनाय को तो बुद्ध के इस वचन का कोई पता भी न होगा। हो भी नहीं सकता। लेकिन यह
मध्यदेश का अर्थ हो सकता है—होना चाहिए—कि बुद्धपुरुष मनुष्य में ही पैदा होते हैं, मनुष्य—योनि
में ही पैदा होते हैं।
अब
तक सुना भी नहीं गया कि कोई हाथी, कोई घोड़ा बुद्धपुरुष हुआ हो। देवता भी
बुद्धपुरुष नहीं होते। मनुष्य से पीछे भी कोई बुद्धपुरुष नहीं होता, मनुष्य के आगे भी कोई बुद्धपुरुष नहीं होता, मनुष्य
चौराहा है, चौरस्ता है। मनुष्य की कुछ खूबी है, वह समझ लेनी चाहिए, वह क्यों मध्यदेश है?
मध्यदेश
की कुछ खूबी है,
कुछ अड़चन भी है मध्यदेश की। मध्यदेश का मतलब होता है, बीच में खड़े हैं। न इस तरफ हैं, न उस तरफ, चौराहे पर खड़े हैं। मनुष्य का अर्थ है, अभी कहीं गए
नहीं, खड़े हैं, सीढ़ी के बीच में हैं,
दोनों तरफ जाने की सुविधा है—निम्नतम होना चाहें तो मनुष्य से
ज्यादा नीच और कोई भी नहीं हो सकता। मनुष्य पशुओं से भी नीचा गिर जाता है। जब तुम
कभी—कभी कहते हो, मनुष्य ने पशुओं जैसा व्यवहार किया,
तो तुम कभी सोचना कि पशुओं ने ऐसा व्यवहार कभी किया है?
टालस्टाय
ने लिखा है कि जब भी कोई कहता है कि इस मनुष्य ने पशुओं जैसा व्यवहार किया तो मुझे
क्रोध आता है कि यह आदमी पशुओं के साथ ज्यादती कर रहा है। क्योंकि जैसे व्यवहार
मनुष्य ने किए हैं,
वैसे तो पशुओं ने कभी नहीं किए।
कौन
से पशु ने एडोल्फ हिटलर जैसा काम किया है—या चंगेज खां, या तैमूर
लंग, या जोसेफ स्टैलिन—किस पशु ने ऐसा काम किया है? किसी पशु ने ऐसा काम नहीं किया। पशु मारता है जरूर, हिंसा
भी करता है, लेकिन भोजन के अतिरिक्त और किसी कारण से नहीं।
अगर सिंह का पेट भरा हो, तो तुम उस,के
पास से निकल सकते हो, वह हमला भी नहीं करेगा।
सिर्फ
आदमी अजीब है,
यह खिलवाड़ में भी मारता है, यह कहता है,
शिकार करने जा रहे हैं! इसको कोई प्रयोजन नहीं है, यह मारकर खाएगा भी नहीं, भूखा भी नहीं है, भरा पेट है, लेकिन खेल के लिए जा रहा है! और जब यह
आदमी जाकर जंगल में किसी जानवर को मार लेता है, तो कहता है,
खूब मजा आया! शिकार हुई! और अगर जंगली जानवर इसको मार ले, तब यह नहीं कहता कि खूब मजा आया, शिकार हुई। जंगली
जानवर ने शिकार की, तब शिकार नहीं कहता। और जंगली जानवर कभी
शिकार के लिए शिकार नहीं करता, जब भूखा होता है तभी।
मैंने
सुना है, एक दिन एक सिंह और एक खरगोश एक होटल में गए। दोनों बैठ गए, तो खरगोश ने बेयरे को बुलाया और कहा कि नाश्ता ले आओ। तो बेयरे ने पूछा,
और आपके मित्र क्या लेंगे? खरगोश ने कहा,
बात ही मत करो, अगर मित्र भूखे होते तो तुम
सोचते हो मैं यहां इनके पास बैठा होता! वह नाश्ता कर चुके होते! मित्र भूखे नहीं
हैं, तभी तो मैं इनके पास बैठा हूं।
जानवर
तो केवल तभी मारता है जब भूखा होता है। आदमी खेल में, खिलवाड़
में मारता है। हिंसा खिलवाड़ है। दूसरे का जीवन जाता है, तुम्हारे
लिए खेल है! फिर कोई जानवर अपनी ही जाति के जानवरों को नहीं मारता—कोई सिंह सिंह
को नहीं मारता है, और कोई सांप किसी सांप को नहीं काटता,
और कोई बंदर कभी किसी बंदर की गर्दन काटते नहीं देखा गया है। आदमी
अकेला जानवर है जो आदमियों को काटता है। और एक—दों में नहीं, करोड़ों में काट डालता है। इसके पागलपन की कोई सीमा नहीं है।
तो
अगर आदमी गिरे तो पशु से बदतर हो जाता है, और अगर आदमी उठे तो परमात्मा के
ऊपर हो जाता है। बुद्धत्व का अर्थ है, उठना; पशुत्व का अर्थ है, गिरना; और
मनुष्य मध्य में है। इसलिए दोनों तरफ की यात्रा बराबर दूरी पर है। जितनी मेहनत
करने से आदमी परमात्मा होता है, उतनी ही मेहनत करने से पशु
भी हो जाता है। तुम यह मत सोचना कि एडोल्फ हिटलर कोई मेहनत नहीं करता है, मेहनत तो बड़ी करता है तब हो पाता है। यह मेहनत उतनी ही है जितनी मेहनत
बुद्ध ने की भगवान होने के लिए, उतनी ही मेहनत से यह पशु हो
जाता है।
उतने
ही श्रम से तुम ध्यान की संपदा पा लोगे, जितने श्रम से तुम अपने को गंवा
दोगे। तुम पर निर्भर है, तुम ठीक मध्य में खड़े हो, उतने ही कदम उठाकर तुम पशु के पास पहुंच जाओगे, पशु
से भी नीचे। और उतने ही कदम उठाकर तुम परमात्मा हो जा सकते हो। यह अर्थ है मध्यदेश
का। और स्वभावत: मध्य में से ही चौराहा जाता है।
पुरूष
श्रेष्ठ दुर्लभ है,
वह सर्वत्र उत्पन्न नहीं होता, वह मध्यदेश में
ही उत्पन्न होता है और जन्म से ही महाधनवान होता है।
तो
मनुष्य की महिमा भी अपार है, क्योंकि यहीं से द्वार खुलता है। और मनुष्य का
खतरा भी बहुत बड़ा है, क्योंकि यहीं से कोई गिरता है। तो
सम्हलकर कदम रखना, एक—एक कदम फूंक—फूंककर रखना। क्योंकि सीढ़ी
यहीं से नीचे भी जाती है, जरा चूके कि चले जाओगे।
और
सदा खयाल रखना,
गिरना सुगम मालूम पड़ता है, क्योंकि गिरने में
लगता है कुछ करना नहीं पड़ता, उठना कठिन मालूम पड़ता है।
यद्यपि गिरना भी सुगम नहीं है, उसमें भी बड़ी कठिनाई है,
बड़ी चिंता, बड़ा दुख, बड़ी
पीड़ा। लेकिन साधारणत: ऐसा लगता है कि गिरने में आसानी है—उतार है। चढ़ाव पर कठिनाई
मालूम पड़ती है। लेकिन चढ़ाव का मजा भी है। क्योंकि शिखर करीब आने लगता है आनंद का,
आनंद की हवाएं बहने लगती हैं, सुगंध भरने लगती
है, रोशनी की दुनिया खुलने लगती।
तो
चढ़ाव की कठिनाई है,
चढ़ाव का मजा है। उतार की सरलता है, उतार की
अड़चन है। मगर हिसाब अगर पूरा करोगे तो मैं तुमसे यह कहना चाहता हूं कि बराबर आता
है हिसाब। बुरे होने में जितना श्रम पड़ता है, उतना ही श्रम
भले होने में पड़ता है। इसलिए वे नासमझ हैं, जो बुरे होने में
श्रम लगा रहे हैं। उतने में ही तो फूल खिल जाते। जितने श्रम से तुम दूसरों को मार
रहे हो, उतने में तो अपना पुनर्जन्म हो जाता।
और
भी आगे बुद्ध ने कहा कि वे क्षत्रिय या ब्राह्मण कुल में ही उत्पन्न होते हैं।
इसकी भी झंझट रही है सदियों तक। क्षत्रिय या ब्राह्मण. कुल में ही उत्पन्न होते
हैं। तो फिर वैश्य और शूद्रों का क्या? फिर रैदास तो शूद्र हैं। रैदास का
क्या! तो क्या फिर वैश्यों और शूद्रों में कभी कोई बुद्धत्व को उपलब्ध नहीं हुआ?
ब्राह्मण
और क्षत्रिय तो ऐसा मानना चाहेंगे कि नहीं, कोई कभी उत्पन्न नहीं हुआ। लेकिन
यह बात गलत है। जीसस तो बढ़ई हैं। मोहम्मद व्यवसायी हैं। मोहम्मद व्यवसाय ही करते
थे, जब उन्हें पहली दफा इलहाम हुआ। तो यह अर्थ तो नहीं हो
सकता। और यह अर्थ इसलिए भी नहीं हो सकता कि बुद्ध ने तो बार—बार इनकार किया है कि
मैं वर्णों को मानता नहीं, मैं मानता नहीं कि कोई ब्राह्मण
है, कि कोई शूद्र है, कि कोई क्षत्रिय
है। जन्म से तो कोई वर्ण हैं नहीं, इसलिए बुद्ध के वचन का यह
अर्थ तो हो नहीं सकता। बुद्ध ने तो वर्णों की पूरी धारणा को ही इनकार किया है—वही
तो उनकी क्रांति थी। फिर बुद्ध का क्या अर्थ होगा?
मैं
कुछ अर्थ करता हूं वह अर्थ ऐसा कि वही व्यक्ति बुद्धत्व को उपलब्ध होता है, जिसमे
ब्राह्मण के जैसी ब्रह्म को खोजने की आकांक्षा हो, और
क्षत्रिय जितना साहस हो जीवन को दाव पर लगा देने का। मैं इसकी भी फिकर नही करता कि
बौद्ध पंडित मुझसे राजी होंगे कि नहीं—पंडितों की मैं फिकर ही नहीं करता हूं।
लेकिन मेरा यह अर्थ है। क्षत्रिय से मेरा अर्थ है, साहस। वह
प्रतीक है साहस का। दाव पर लगाने की बात है।
यही
मैं भी मानता हूं कि व्यवसायी बुद्धि का आदमी बुद्धत्व को उपलब्ध नहीं हो सकता।
मैं यह नहीं कहता—कि वैश्य उपलब्ध नहीं हो सकता, लेकिन व्यवसायी बुद्धि का
आदमी नहीं उपलब्ध हो सकता। क्योंकि व्यवसायी कभी हिम्मत ही नहीं करता, वह कौड़ी—कौड़ी का हिसाब लगाता रहता है, हिम्मत क्या
करे! जुआरी उपलब्ध हो सकता है, वह सब दाव पर लगाने की हिम्मत
करता है—वह कहता है, या इस तरफ, या उस
तरफ। या तो पार हो जाएंगे, या डूब जाएंगे, ठीक।
व्यवसायी
सोचता है कि लाभ कितना होगा, हानि कितनी होगी, पैसा घर
में ही रखें तो इतना तो ब्याज ही आ जाएगा, धंधा करने से क्या
सार है! धंधे में कुछ ज्यादा मिलता हो तो ही। लेकिन वह यह भी देखता रहता है कि
कहीं ज्यादा मिलने के लोभ में ऐसा न हो कि खो जाए। तो इतनी दूर भी नहीं जाता। वह
चालाकी से चलता है। क्षत्रिय और वैश्य का यही फर्क है।
तो
व्यवसायी तो नहीं कभी सत्य को उपलब्ध हो पाता, यह मैं भी कहता हूं। लेकिन इसका यह
मतलब नहीं है कि वैश्य उपलब्ध नहीं हो पाता। क्योंकि बहुत वैश्य हो सकते हैं जो
क्षत्रिय जैसा साहस रखते हों और बहुत से क्षत्रिय हो सकते हैं जो कि वणिक की
बुद्धि के हों। कोई क्षत्रिय होने से थोड़े ही क्षत्रिय हो जाता है, साहस चाहिए। क्षत्रिय भी तो कायर होते हैं। इसलिए असली सवाल साहस का है।
और
निश्चित ही ब्राह्मण जैसी ब्रह्म की खोज चाहिए। सभी ब्राह्मण में होती भी नहीं।
इसलिए जिनमें ब्रह्म की खोज होती है, अभीप्सा होती है, उन्हीं को ब्राह्मण कहना उचित है। उन्हीं को बुद्ध ने भी ब्राह्मण कहा है।
ब्रह्म के तलाशी, ब्रह्म को पा लेने वाले ब्राह्मण। शब्द भी
साफ है। किसी खास घर में पैदा होने से तो कोई ब्राह्मण नहीं होता। लेकिन किसी खास
भावदशा में पैदा हो जाने से ब्राह्मण होता है।
तो
यह मैं भी कहता हूं कि ब्राह्मण ही उपलब्ध होंगे, लेकिन ब्राह्मण से जन्मवाची
अर्थ मत लेना; ब्रह्म के तलाशी, सत्य
के खोजी। स्वभावत: जिसने खोज ही नहीं की, वह पहुंचेगा कैसे?
जो चला ही नहीं, वह पहुंचेगा क्यों?
और
शूद्र कभी उपलब्ध नहीं हो सकते बुद्धत्व को, इसका मतलब भी जन्मवाची मत लेना।
शूद्र का अर्थ ही वही है, जो क्षुद्र में उलझे हैं।
छोटी—मोटी चीजों में उलझे हैं। एक मकान बना लें, भोजन मिल
जाए, अच्छे वस्त्र मिल जाएं, बस खतम
हुआ—जीवन का सार समाप्त हुआ, जीवन की इति आ गयी। क्षुद्र में
जिनका उलझाव है, वे ही शूद्र। विराट में जिनका लगाव है,
वे ही ब्राह्मण।
तो
इस अर्थ में बुद्ध ने ठीक ही किया कि वैश्य और शूद्र को छोड़ दिया। उन्होंने कहा, वे
क्षत्रिय या ब्राह्मण कुल में ही उत्पन्न होते हैं। ठीक ही किया। क्योंकि बहुत से
शूद्र भी ब्राह्मण हो सकते हैं, और बहुत से ब्राह्मण भी
शूद्र हो सकते हैं। बहुत से वैश्य क्षत्रिय हो सकते हैं, बहुत
से क्षत्रिय वैश्य हो सकते हैं। इसे खयाल में लेना, तब एक
अलग अर्थ प्रगट होगा।
तो
दो गुण चाहिए। बिना दो गुणों के न होगा। ब्रह्म की खोज हो और साहस न हो, तो तुम
बैठे रहोगे, तुम्हारी खोज नपुंसक रहेगी। तुम बैठे घर में
माला फेरते रहोगे। तुम किसी अनजान पथ पर प्रवेश न करोगे। तो अकेली खोज की आकांक्षा
काफी नहीं है, खोज के लिए जाना भी पड़ेगा। फिर कोई दूसरा हो
सकता है खोज के लिए तो निकल पड़ा है, लेकिन खोज की कोई प्रगाढ़
आकांक्षा नहीं है। तो वह भटकेगा। वह पहुंचेगा नहीं। सिर्फ घर से निकल पड़ने से थोड़े
ही कोई पहुंच जाता है। दिशा भी साफ चाहिए, दृष्टिकोण सुथरा
चाहिए। आंखें शुद्ध चाहिए, मन पवित्र चाहिए, प्यास ज्वलंत चाहिए। न
तो
जहां खोज और प्यास का मिलन होता है, जहा कोई व्यक्ति ब्राह्मण और
क्षत्रिय दोनों होता है, वहीं घटना घटती है, वहीं बुद्धत्व पैदा होता है—उसी कुल में।
इस
घड़ी में आनंद को जवाब देते हुए बुद्ध ने यह गाथा कही थी—
दुल्लभो पुरिसाजज्जो न सो सब्बत्थ
जायति।
सभी
जगह तो बुद्ध पैदा नहीं होते, पुरुषश्रेष्ठ तो दुर्लभ है, और बुद्धत्व को ही बुद्ध कहते हैं पुरुषश्रेष्ठ। मनुष्य तो सभी हैं,
लेकिन जब तक तुम्हारे जीवन में बुद्धत्व की किरण न हो, तब तक तुम श्रेष्ठ नहीं हो। तब तक तुम नाममात्र के आदमी हो। कामचलाऊ आदमी
हो। तुम्हारे भीतर अभी श्रेष्ठ का अवतरण नहीं हुआ। तुम्हारे भीतर का दीया नहीं
जला। तुम्हारी बुद्धि अभी निखरी नहीं। तुम्हारी बुद्धि पर हजार—हजार कालिख पुती है
और तुम्हारी बुद्धि पर हजार—हजार पर्दे पड़े हैं।
श्रेष्ठ
पुरुष का अर्थ है,
जो बुद्धत्व को उपलब्ध हुआ, जिसके भीतर का बोध
जागा, जिसके जीवन में किरणें फैलीं, जिसके
भीतर का दीया जला और अब जिसका जीवन एक रोशनी है। इस रोशनी के बाद तुम जो भी करोगे
उस सबमें श्रेष्ठता आ जाएगी। तुम जो भी करोगे वह श्रेष्ठ हो जाएगा। तुम मिट्टी
छुओगे, सोना हो जाएगी। तुम्हारा स्पर्श अमृत का स्पर्श हो
जाएगा। और तब तुम्हारे लिए कोई कितना ही दुख दे, कोई कितनी
ही पीड़ा दे, इससे कुछ फर्क न पड़ेगा, तुम्हारी
श्रेष्ठता को कोई डिगा न सकेगा।
जिसने इंसानों की तकसीम के सदमे झेले
।
फिर भी इसी की अखौवत का परस्तार रहा
यह
बुद्धत्व की परिभाषा है—आदमियों ने जिसे सताया परेशान किया..
जिसने इंसानों की तकसीम के सदमे झेले,
फिर भी इंसां की अखौवत का परस्तार रहा
फिर
भी उसकी अनुकंपा अकंप रही। फिर भी आदमी का भला हो, यही उसकी आकांक्षा रही।
जीसस
को सूली पर लटकाया,
तो भी आखिरी समय जीसस ने यही कहा—हे प्रभु, इन्हें
क्षमा कर देना, क्योंकि ये नहीं जानते क्या कर रहे हैं। और
जिनके लिए वह क्षमा मांग रहे थे, वे पत्थर फेंक रहे थे,
सड़े—गले फल फेंक रहे थे, गंदगी फेंक रहे थे,
जूते फेंक रहे थे। जितना अपमान हो सकता था जीसस का, कर रहे थे। मरते हुए आदमी के साथ दुर्व्यवहार कर रहे थे—जीते जी भी
दुर्व्यवहार किया, मरते क्षण में भी उनको दया न आयी।
जीसस
को प्यास लगी है,
सूली पर लटके हैं—वह सूली जो यहूदी देते थे उन दिनों, आदमी जल्दी नहीं मरता था; हाथ ठोंक चेते, पैर ठोंक देते कीलों से, कभी छह घंटे लगते मरने में,
कभी आठ घंटे लगते, कभी आदमी चौबीस घंटे लटका
रहता, खून बहता रहता, जब सारा खून बह
जाता. शरीर से तब आदमी मरता, वह आजकल जैसी सूली नहीं थी जो
क्षण में हो जाती है, बड़ी पीड़ादायी थी—तो खून बहने लगा है
उनकी देह से और बड़ी गहरी प्यास लगी। लगती है प्यास, जब खून
बहेगा तो पानी कम होने लगता है, क्योंकि खून के साथ शरीर का
पानी बहने लगता है। तो उन्हें बड़ी तीव्र प्यास लगी है, उनका
कंठ जल रहा है प्यास से, भरी दुपहरी है और उन्होंने जोर से
चिल्लाकर कहा कि मुझे प्यास लगी है। तो किसी ने गंदी नाली में एक मशाल डालकर मशाल
बुझा दी और मशाल के ऊपर जो गंदगी लग गयी, पानी लग गया नाली
का, वह उठाकर जीसस के चेहरे के पास कर दिया कि इसे चाट लो,
इससे थोड़ी प्यास बुझ जाएगी। इनके लिए वह प्रार्थना कर रहे हैं कि हे
प्रभु, इन्हें क्षमा कर देना, क्योंकि
ये जानते नहीं कि ये क्या कर रहे हैं।
जिसने इंसानों की तकसीम के सदमे झेले
फिर भी इसी की अखौवत का परस्तार रहा,
ऐसा व्यक्ति श्रेष्ठ है। उसे न कोई अपना है, न कोई
पराया है।
द्वार के लिए न भीतर है न बाहर
द्वैत दर्शन में है
तुम
घर के भीतर बैठे हो,
बच्चा बाहर खेल रहा है, तुम कहते हो बाहर खेल रहा
है। बच्चा भीतर आ गया, तुम कहते हो भीतर आ गया। लेकिन द्वार
से पूछो कि क्या बाहर है, क्या भीतर है, तो द्वार के लिए तो दोनों बराबर दूरी पर हैं बाहर और भीतर।
द्वार के लिए न भीतर है न बाहर
द्वैत दर्शन में है
जो
द्वार बनकर खड़ा हो गया है उसे न कोई अपना है, न कोई पराया, न कुछ बाहर है, न भीतर है; न
कुछ सुख है, न दुख; उसका द्वंद्व गया,
द्वैत गया, अब तो उसे एक ही दिखायी पड़ता है।
इस एक की प्रतीति का नाम श्रेष्ठत्व है।
और
बुद्ध ने कहा,
ऐसा श्रेष्ठ व्यक्ति सब जगह उत्पन्न नहीं होता। फिर जब कभी ऐसा
अनूठा व्यक्ति कहीं पैदा होता है—
'वह धीर जहां उत्पन्न होता है, उस कुल में सुख बढ़ता
है। '
कुल
का अर्थ भी समझना,
उसके भी साथ भूल होती रही है।
उसका
अर्थ हुआ कि जिस घर में बुद्ध पैदा होते हैं उसमें सुख बढ़ता है, वह तो ठीक
ही है, बुद्ध की मौजूदगी जहां होगी वहा सुख बढ़ेगा। अकारण भी
कोई बुद्ध के करीब से गुजर जाएगा तो भी सुख की एक झलक, सुख
का एक झोंका उसे लग जाएगा। बुद्ध के पास न जानकर भी आए हुए आदमी को थोड़ी सी सुगंध
तो लग ही जाएगी। तो जिस घर में बुद्ध पैदा होंगे उस घर में तो सुख होगा, यह ठीक है, मगर यह बात असली नहीं है। बुद्ध की भाषा
में कुल का कुछ और अर्थ होता है। बुद्ध
कहते हैं कि तुम्हारे भीतर कोई थिर आत्मा नहीं है, तुम्हारे
भीतर कोई ठोस आत्मा नहीं है, तुम्हारे भीतर एक संतति है।
जैसे हम सांझ को दीया जलाते हैं; शाम को दीया जलाया, फिर सुबह अगर कोई तुमसे पूछे कि क्या यह वही दीया है जो रात तुमने जलाया
था, तो तुम क्या कहोगे? तुम अगर थोड़ा
सोच—विचार करोगे तो तुम कहोगे कि दीया तो वही है एक अर्थ में, लेकिन एक अर्थ में नहीं भी है, क्योंकि जो ज्योति
हमने जलायी थी वह तो कभी की बुझ चुकी। दूसरी ज्योति आ रही है प्रतिक्षण। जो ज्योति
हमने जलायी थी वह तो हवा में लीन होती जा रही है और दूसरी ज्योति आती जा रही है।
तो यह दीया इस अर्थ में वही है कि इस दीए में जो ज्योति अभी जल रही है, वह उसी ज्योति की संतति है, उसी कुल में आयी है,
मगर वह ज्योति तो कभी की जा चुकी। हजारों ज्योतिया आ चुकीं रात में
और जा चुकीं।
जैसे
नदी है। तुम कहते हो,
यह गंगा है। तुम कहो कि हम पिछले वर्ष भी यहां आए थे, यह वही नदी है। तो बुद्ध कहते हैं, यह वही नदी है?
ठीक से सोचकर कह रहे हो? नहीं, उसी नदी के कुल में है। वह नदी तो कब की बह गयी! जो तुम देख गए थे सालभर
पहले, वह तो सागर में गिर चुकी। हो, उसी
की धारा में बहने वाली नदी है, उसी से जुड़ी है—उससे भिन्न भी
नहीं है, उसके साथ एक भी नहीं है।
इसको
बुद्ध ने संतति का नियम कहा है। इसको बुद्ध कहते हैं, कुल।
तुम
जब पैदा हुए थे,
तुम वही हो? कितनी तो धारा बह चुकी, कितनी तो नदी बह चुकी! गंगा का कितना पानी तो बह चुका! तुम जवान हो गए अब,
कितने बह गए! के होओगे तब तुम यही रहोगे? बहुत
कुछ बह चुका होगा। लेकिन एक अर्थ में तुम यही रहोगे, क्योंकि
एक ही धारा है। जो पैदा हुआ था, वही तो नहीं मरेगा; जो बच्चा पैदा हुआ था सत्तर साल पहले, वही थोड़े ही
मरेगा, सत्तर साल में सब बदल गया, लेकिन
फिर भी एक अर्थ में वही मरेगा, वही धारा टूटेगी।
इस
धारा के सिद्धात को बुद्ध ने बड़ा मूल्य दिया है। यह उनकी अनूठी खोज है। इसका अर्थ
हुआ कि इस जगत में कोई भी चीज थिर नहीं है, तुम भी थिर नहीं हो, अथिरता इस जगत का स्वभाव है। परिवर्तन इस जगत का स्वभाव है। इसके पहले भी
लोगों ने कहा है कि जगत का स्वभाव परिवर्तन है, लेकिन तुमको
बचा लिया था—उन्होंने कहा था, तुम नहीं बदलते, सब बदल रहा है, तुम थिर हो। लेकिन बुद्ध कहते हैं,
तुम भी थिर नहीं हो, तुम भी बदल रहे हो। और जो
नहीं बदल रहा है, उसका तो तुम्हें पता ही नहीं है। और जब तक
तुम हो, तब तक उसका पता भी नहीं चलेगा। जब तुम बिलकुल ऐसा
अनुभव कर लोगे कि मैं भी इस बदलते जगत की ही एक छाया हूं और तुम भी इस जगत की
बदलाहट के साथ?
जाओगे
और धीरे— धीरे यह मोह छोड़ दोगे कि मैं थिर हूं तब तुम्हें कुछ दिखायी पड़ेगा। कुछ, जो शाश्वत
है।
लेकिन
उसकी बुद्ध ने चर्चा नहीं की। क्योंकि वह कहते हैं, चर्चा करते से ही गलती हो
जाती है। जिसकी भी हम चर्चा कर सकते हैं, वही अशाश्वत हो
जाता है। इसलिए उसे चर्चा के बाहर छोड़ दिया है। है कुछ, अनिर्वचनीय,
नित्य, मगर उसकी चर्चा नहीं की है। तुम तो
जिसे अभी जानते हो कि मैं हूं यह बदल रहा है। तुम एक धारा हो, एक संतति हो। जैसे दीए की ज्योति, या नदी। इस बात को
खयाल में लोगे तो अर्थ साफ हो जाएगा।
'वह धीर जहां उत्पन्न होता है.......। '
यत्थ सो जायति धीरो त कुलं सुखमेधति ।
'…….
उस कुल में सुख बढ़ता है। '
जहां
बुद्धत्व का पदार्पण हो गया, फिर उसके बाद तुम्हारे भीतर जो संतति चलती है,
जो धारा आती है, तुम जो रोज—रोज पैदा होते हो,
उसमें रोज—रोज सुख बढ़ता चला जाता है। आज और, कल
और, परसों और। तुम बदलते जाते हो लेकिन सुख घना होता जाता
है। सुख बढ़ता ही चला जाता है। और एक ऐसी घड़ी आती है जहां सुख महासुख हो जाता है।
उस महासुख की घड़ी को ही निर्वाण की घड़ी कहा है। समाधि की घड़ी कहो, जीवन—मुक्त की दशा कहो, या जो भी नाम देना हो।
दूसरा
सूत्र—
'बुद्धों का उत्पन्न होना सुखदायी है, सद्धर्म का
उपदेश सुखदायी है, संघ में एकता सुखदायी है, एकतायुक्त तप सुखदायी है।'
दूसरे
सूत्र की परिस्थिति—कब बुद्ध ने यह गाथा कही?
एक दिन बहुत से
भिक्षु बैठे बातें कर रहे थे। उनकी चर्चा का विषय था संसार में सुख क्या है? किसी ने
कहा राज्य— सुख के समान दूसरा सुख नहीं। और किसी ने कहा कामसुख के सामने राजसुख
में क्या रखा है! कामसुख की बड़ी प्रशंसा की। और किसी और ने यश की प्रशंसा की और
किसी और ने पद की फिर कोई भोजनभट्ट था उसने भोजन की खूब चर्चा की। फिर कोई
वस्त्रों का दीवाना था तो उसने वस्त्रों की खूब प्रशंसा की। ऐसे विवाद छिड़ गया और
तभी बुद्ध अचानक वहां आ गए। पीछे खड़े होकर भिक्षुओं की यह सब चर्चा और विवाद सुनते
रहे। फिर उन्होंने कहा भिक्षुओ भिक्षु होकर भी यह सब तुम क्या कह रहे हो। यह सारा
संसार दुख में है। सुख है आभास दुख है सत्य सुख नहीं है ऐसा नहीं पर संसार में तो
नहीं है। फिर सुख कहां है? बुद्धोत्पाद सुख है धर्मश्रवण सुख
है समाधि सुख है। और तब उन्होंने यह गाथा कही।
तो
पहले तो इस परिस्थिति को ठीक से अंकित हो जाने दें मन पर—
एक
दिन बहुत से भिक्षु बैठे बात कर रहे थे। पहली तो बात यह है कि भिक्षु बैठकर गपशप
करें, यही भिक्षु के लिए योग्य नहीं। भिक्षु चुप बैठें, यही
योग्य है। भिक्षु मौन हों, यही योग्य है। भिक्षु उतना ही
बोलें जितना अनिवार्य है, अपरिहार्य है, यही योग्य है। भिक्षु होने के बाद बहुत बातें छोड़नी हैं, उनमें व्यर्थ की चर्चा भी छोड़नी है। नहीं तो फिर सांसारिक और संन्यासी में
क्या फर्क रहा! फिर संसार की ही बातें भिक्षु भी कर रहे हों तो अंतर वेश का ही हुआ,
अंतरात्मा का नहीं।
तो
पहली तो बात बहुत से भिक्षु बैठे बातें कर रहे थे। भिक्षु जब बैठें, चुप बैठें,
मौन बैठें, सन्नाटे में डूबे, शून्य में उतरें। भिक्षु का अर्थ ही है, समाधि की
तलाश। गपशप से तो समाधि की तलाश नहीं होगी।
तुम
भी सोचना, तुम भी संन्यस्त हो, तुम बैठकर अगर व्यर्थ की बातें
करते हो, तो विचार करना, इन बातों से
क्या होगा? और अगर ये बातें वैसी ही हैं जैसी होटलों में लोग
कर रहे हैं बैठकर, अगर ये बातें वैसी ही हैं जैसी क्लबघरों
में चल रही हैं, दुकानों पर चल रही हैं, बाजार में चल रही हैं, तो फिर तुममें और उन लोगों
में फर्क क्या होगा? तुम्हारी बात से तुम्हारा पता चलता है।
बात ऐसे ही थोड़े आ जाती है! बात तो फल है। नीम के वृक्ष में कड़वे फल लगते हैं,
वह नीम की बात। आम के वृक्ष में आम के फल लगते हैं, मीठे फल लगते हैं, वह आम की बात। तुम कैसी बात करते
हो, उसका थोड़ा विचार करना, सोचना,
क्या बात करते हो? उस बात से पता चल जाएगा कि
तुम्हारे भीतर जहर बह रहा है कि अमृत।
जिसके
भीतर अमृत बह रहा है,
उसकी बात का सारा ढाचा बदल जाएगा। वह कभी बात भी करेगा तो परमात्मा
की, प्रार्थना की, पूजा की, ध्यान की। वह कभी बात भी करेगा तो बुद्ध की, महावीर
की, कृष्ण की, क्राइस्ट की। और वह भी
बहुत ज्यादा नहीं करेगा। क्योंकि बहुत ज्यादा करने को है भी क्या? कभी अगर रस भी लेगा तो जिसको हम रामकथा कहते हैं, रामचर्चा
कहते हैं—स्वांतसुखाय तुलसी रघुनाथ गाथा—वह बैठकर खुद के और दूसरे के सुख के लिए
कभी—कभी राम की कथा कहेगा। स्त्री—कथा तो नहीं कहेगा। धन—कथा तो नहीं कहेगा।
सत्संग कभी करेगा, रोके दो भिक्षु मिल जाएंगे, बैठकर आनंद की बात करेंगे, अपनी एक—दूसरे को समाधि
की चर्चा कहेंगे, क्या हो रहा है भीतर उसका थोड़ा इशारा
करेंगे, दूसरे से थोड़ा सहारा लेंगे, एक—दूसरे
के सहारे आगे बढ़ेंगे, सत्संग होगा।
तो
बुद्ध जरूर चौंके होंगे। उन्होंने कहा, भिक्षुओ, भिक्षु
होकर भी यह सब तुम क्या कह रहे हो! यह तो चर्चा तुम जो कर रहे हो, भिक्षुओं जैसी नहीं। पहले तो चुप होना उचित था। अगर चर्चा ही करनी थी तो
परमात्मा की चर्चा करनी उचित थी। और उनकी चर्चा का विषय क्या था? विषय था—संसार में सुख क्या है? यह भी बड़ा सूचक है।
जब भिक्षु संसार के सुख की बातें कर रहा हो, तो उसका मतलब है
कि— वह संसार से कच्चा चला आया, अभी मन वहीं अटका है,
अभी मन वहीं जाता है। '
रामकृष्ण
कहते थे कि चील आकाश में भी उड़ती है, लेकिन उसका ध्यान नीचे? कचरे के ढेर पर लगा रहता है कि कोई मरा हुआ चूहा पड़ा हो। उड़ती आकाश में है,
बड़ी ऊंची उड़ती है, ऊंची उड़ने की वजह से धोखे
में मत पड़ जाना कि चील भी कैसी ऊंची जा रही है! ऊंची—बूंची नहीं जा रही है,
मंडरा रही है, वह नीचे जो कचरे के ढेर पर मरा
चूहा पड़ा है—प्रतीक्षा कर रही है कि अगर कोई देखता न हो, कोई
आसपास न हो तो झपट्टा मार ले।
तो
ये भिक्षु मंडराती हुई चील जैसे रहे होंगे। थे ये बात क्या कर रहे हैं! —कि संसार
में सुख, सबसे बड़ा सुख क्या है? अगर संसार में सुख ही था तो
छोड्कर आए क्यों? जब संसार में दुख ही दुख रह जाए, तभी तो कोई संन्यस्त हो। जब यह समझ में आ जाए कि यहां कुछ भी नहीं है,
खाली पानी के बबूले हैं, आकाश में बने
इंद्रधनुष हैं, आकाश—कुसुम हैं, यहां कुछ
है नहीं, तभी तो कोई संन्यस्त होता। संन्यास का अर्थ ही है,
संसार व्यर्थ हो गया है—जानकर, अनुभव से,
अपने ही साक्षात्कार से। ये भिक्षु ऐसे ही भागकर चले आए होंगे। किसी
की पत्नी मर गयी होगी, संन्यासी हो गया होगा। किसी का दिवाला
निकल गया होगा, संन्यासी हो गया होगा। कोई चुनाव में हार गया
होगा, संन्यासी हो गया होगा—अब तुम देखना बहुत से लोग
संन्यासी होंगे! फिर कुछ और बचता भी नहीं।
जो
नहीं मिला, यह भी अहंकार मानने को तैयार नहीं होता कि नहीं मिला। अहंकार कहने लगता है,
मह खट्टे हैं। छलता लगाती है लोमड़ी बहुत, अंह
के गुच्छे ऊपर हैं, नहीं पहुंच पाती। नहीं पहुंच पाती,
यह भी तो स्वीकार करने का मन नहीं होता। चल पड़ती है अकड़कर, कोई पूछता है कि चाची, क्या हुआ? तो लोमड़ी कहती है—अंगूर खट्टे थे।
संजय
गांधी ने—देखा न—संन्यास ले लिया राजनीति से। क्या हुआ? अंगूर
खट्टे थे। अब संजय गांधी कहते हैं कि अब तो हम जनता की सेवा बिना पद के करेंगे।
पहले कौन रोक रहा था? अब यह बोध आया? तो
बहुत से लोग संजय गांधी जैसे संन्यासी हो जाते हैं। यह संन्यास नहीं है। यह केवल
हार को लीपा—पोती करके छिपाने का उपाय है। अब हार को भी सुंदर ढंग देने की
व्यवस्था। मुफ्त पद मिलता होता तो कोई छोड़ने को राजी न था। अब नहीं मिल रहा है,
महंगा पड़ा है, मुश्किल पड़ा है, तो छोड़ने की तैयारी है। मगर जो है ही नहीं, उसको छोड़
रहे हो! जो मिला ही नहीं, उसका त्याग कर रहे हो! थोड़ा
संन्यास का मतलब तो समझो। जो नहीं है, उसका कैसे त्याग करोगे?
जाना हो, जीआ हो, और चखे
हों और खट्टे पाए हों, तो छोड़े जा सकते हैं। यह तो अपने को
समझा लेने की व्यवस्था है, सांत्वना का उपाय है।
तो
ये बैठे होंगे भिक्षु,
ये सब संन्यासी हो गए हैं, इनके कारण गलत रहे
होंगे। यह संन्यास ठीक बुनियाद पर खड़ा हुआ संन्यास नहीं है। ये हारे— थके लोग हैं।
जीवन में, संघर्ष में टिक नहीं पाए, संन्यासी
हो गए हैं—कहकर कि संसार बेकार है, रखा क्या है! लेकिन अब भी
मन तो वहीं—वहीं जाता है। बैठते होंगे जब स्वात में तो चर्चा वहीं की उठती होगी।
सो चर्चा उठी है।
किसी
ने कहा, राज्य—सुख के समान दूसरा सुख नहीं। अब एक बात पक्की है कि इस आदमी ने
राज्य—सुख नहीं जाना है। जिसने जाना है, वह बुद्ध तो छोड्कर
आ गए हैं, जिसने जाना है, वह महावीर तो
त्याग दिए हैं। इस आदमी ने राज्य—सुख नहीं जाना है, इसने दूर
से राजाओं की डोली उठते देखी है, राजाओं के हाथी पर निकलते
जुलूस, शोभायात्राए देखी हैं, राजमहल
दूर से देखे हैं, सड़क से खड़े होकर, चमकते
हुए कंगूरे राजमहलों के, स्वर्णमडित राजमहल इसने देखे हैं।
मगर दूर से, राजमहल के भीतर क्या घटता है, इसका इसे कुछ पता नहीं है। इसकी वासना में राजमहल बसे हैं। यह भी चाहता था
हो जाए, और अगर आज कोई इसको राजमहल देने को राजी हो तो यह
संन्यास छोड्कर खड़ा हो जाएगा कि मैं आया। यह एक बार भी लौटकर फिर संन्यास की तरफ
नहीं देखेगा। अभागे आदमी हैं, बुद्धपुरुषों के पास बैठकर भी
राज्य—सुख की बात कर रहे हैं! सोच रहे हैं कि राज में सुख होगा।
राजसुख
के समान दूसरा सुख नहीं है। और किसी ने कहा, कामसुख; अरे
कामसुख के सामने राजसुख में क्या रखा है! असली सुख स्त्री है। या असली सुख पुरुष
है। यह आदमी कामवचित है। इसने कामवासना को दबा लिया है। इसने कामवासना का दंश नहीं
जाना, पीडा नहीं जानी, इसने कामवासना
का जहर नहीं जाना। यह ऐसे ही भाग आया है। इसको स्त्री मिली नहीं। इसके मन में
वासना अधूरी रह गयी है—जड़ें रह गयी हैं, पत्ते ऊपर—ऊपर काट
डाले हैं, नए अंकुर निकल रहे हैं। और फिर किसी ने कहा,
यश बड़ी चीज है। और फिर किसी ने कहा, भोजन;
और फिर किसी ने कहा, वस्त्र। ये सब साधारण लोग
हैं, जो गलत कारणों से संसार छोड्कर आ गए हैं। इन्होंने
संसार छोड़ा नहीं, ये संसार में अब भी हैं, इनके वस्त्र बदल गए हैं।
इसलिए
मैं तुमसे संसार छोड़ने को कहता ही नहीं। मैं कहता हूं तुम वहीं रहो, वहीं जागे
हुए जीओ। क्योंकि दुनिया में बहुत भगोड़े हैं, अगर उन्हें
मौका मिल जाए भागने का, कोई बहाना मिल जाए भागने का, तो वे भाग खड़े होंगे। मैं तुमसे भागने को नहीं कहता हूं; मैं कहता हूं, वहीं रहो, मह
चख— चखकर व्यर्थ हो जाने दो, खट्टे हो जाने दो, अपने आप गिर जाने दो ' ताकि तुम्हारे जीवन का स्वाद
ही तुम्हें कह दे, अनुभव तुम्हें कह दे, अनुभव तुम्हारी निष्पत्ति बन जाए। फिर भागना कहा है? संसार अपने से गिर जाए।
ऐसे
विवाद छिड़ गया। जहां वासना है, वहा विवाद है। जहां विचार है, वहां विवाद है। अगर संन्यास किसी ने ठीक—ठीक अर्थों में लिया हो तो विवाद
समाप्त हो जाता है। क्या विवाद है! निर्विवाद एक बात दिखायी पड़ गयी कि संसार
व्यर्थ है। फिर ये सब संसार के ही नाम हैं—राजपद कहो, धन कहो,
यश कहो, मान कहो—ये सब संसार के ही अलग—अलग
पहलू हैं, विवाद कहां है?
और
तब बुद्ध अचानक वहां आ गए। खड़े होकर पीछे उन्होंने भिक्षुओं की बातें सुनीं। चौंके।
फिर कहा, भिक्षुओ, भिक्षु होकर भी यह सब तुम क्या कह रहे हो!
यह सारा संसार दुख में है। इसमें तुम बता रहे हो, कोई कह रहा
है राज्य—सुख, कोई कहता है कामसुख, कोई
कहता है भोजन—सुख, स्वाद—सुख; यह सब
तुम जो कह रहे हो, क्या कह रहे हो! यह सुनकर मुझे आश्चर्य
है। अगर इस सबमें सुख है तो तुम यहां आ क्यों गए हो? सुख तो
आभास है, बुद्ध ने कहा, दुख सत्य है।
और सुख नहीं है, ऐसा नहीं, पर संसार
में तो नहीं है। संसार का अर्थ ही है जहां सुख दिखायी पड़ता है और है नहीं। जहा
आभास होता है, प्रतीति होती है, इशारे
मिलते हैं कि है, लेकिन जैसे—जैसे पास जाओ, पता चलता है, नहीं है।
फिर
सुख कहां है?
बुद्ध ने कहा, बुद्धोत्पाद में सुख है।
तुम्हारे भीतर बुद्ध का जन्म हो जाए, तो सुख है। तुम्हारे
भीतर बुद्ध का अवतरण हो जाए तो सुख है। बुद्धोत्पाद, यह बड़ा
अनूठा शब्द है। तुम्हारे भीतर बुद्ध उत्पन्न हो जाएं, तो सुख
है। तुम जाग जाओ तो सुख है। सोने में दुख है, मूर्च्छा में
दुख है, जागने में सुख है। धर्मश्रवण सुख है। तो सबसे परमसुख
तो है, बुद्धोत्पाद; कि तुम्हारे भीतर
बुद्धत्व पैदा हो जाए। अगर अभी यह नहीं हुआ तो नंबर दो का सुख है—जिनका बुद्ध जाग
गया उनकी बात सुनने में सुख है। धर्मश्रवण में सुख है।
तो
सुनो उनकी जो जाग गए हैं,
जिन्हें कुछ दिखायी पड़ा है। गुनो उनकी। लेकिन उसी सुख पर रुक मत
जाना, सुन—सुनकर अगर रुक गए तो एक तरह का सुख तो मिलेगा,
लेकिन वह भी बहुत दूर जाने वाला नहीं है। इसलिए बुद्ध ने कहा,
समाधि में सुख है। बुद्धोत्पाद में सुख है, यह
तो परम व्याख्या हुई सुख की। फिर यह अभी तो हुआ नहीं है, तो
उनके वचन सुनो, उनके पास उठो—बैठो जिनके भीतर यह क्रांति घटी
है, जिनके भीतर यह सूरज निकला है, जिनका
प्रभात हो गया है, जहां सूर्योदय हुआ है, उनके पास रमो, इसमें सुख है। मगर इसमें ही रुक मत
जाना। ध्यान रखना कि जो उनको हुआ है, वह तुम्हें भी करना है।
उस करने के उपाय का नाम समाधि है। सुनो बुद्धों की और चेष्टा करो बुद्धों जैसे
बनने की, उस चेष्टा का नाम समाधि है। उस चेष्टा का फल है,
बुद्धोत्पाद। सुनो बुद्धों के वचन, फिर
बुद्धों जैसे बनने की चेष्टा में लगना—ध्यान, समाधि, योग। और जिस दिन बन जाओ, उस दिन परम सुख।
तब
उन्होंने यह गाथा कही थी—
सुखो बुद्धानं उपादो सुखा
सद्धम्मदेसना ।
सुखा संघस्स सामग्री समग्गानं तपो
सुखो ।।
'बुद्धों का उत्पन्न होना सुखदायी, सद्धर्म का उपदेश
सुखदायी, संघ में एकता सुखदायी,…..। '
यह
भी समझने जैसी बात है। भिक्षु विवाद करें, एक—दूसरे के विरोध में खड़े हों,
तो राजनीति प्रविष्ट हो जाएगी। तो भिक्षु फिर भिक्षु न रहे, राजनीतिज्ञ हो गए, धार्मिक न रहे। जहां विवाद है,
जहां कलह है, जहां मैं सही तुम गलत, ऐसी भावनाएं हैं, वहा अहंकार है। जहां अहंकार है,
वहा राजनीति है।
'संघ में एकता सुखदायी है।'
भिक्षु
तो ऐसे जीए जैसे रहा ही नहीं। संन्यासी तो ऐसे रहे जैसे अपने को छोड़ दिया। संघ है, संन्यासी
नहीं है, ऐसी एकता। मैं को छोड़ दे। बुद्ध का संघ है, उसमें मैं भी एक लहर हूं अलग नहीं। उनका सागर है, मैं
भी एक लहर हूं अलग नहीं। 'संघ में एकता सुखदायी है। '
तो
भी सुख मिलेगा। क्योंकि जैसे ही तुम अहंकार छोड़ो—किसी निमित्त छोड़ो—सुख मिलता है।
अहंकार में दुख है। अहंकार काटे की तरह चुभता है। जहां अहंकार हटा, वहा फूल
खिलने लगता है।
'एकतायुक्त तप सुखदायी है।'
और
विवाद छोड़ो, व्यर्थ की बातों में मत पड़ो, अपने जीवन की सारी
ऊर्जा को एक दिशा में लगाओ, तप की दिशा में लगाओ। तप शब्द को
समझो। तप शब्द का शाब्दिक अर्थ होता है, उष्णता, गर्मी, ऊर्जा। जैसे विज्ञान कहता है कि सारा जगत
विद्युत से बना है, वैसा ही धर्म भी कहता है कि मनुष्य भी
विद्युत—निर्मित है। और इतनी भीतर ऊर्जा पड़ी है कि अगर हम उसे जगाएं तो हमारा सारा
अंधकार जल जाए; उसे जगाएं, हमारा सारा
कूड़ा—करकट जल जाए। उसे हम जगाएं तो हमारे भीतर जो भी व्यर्थ है, वह सब नष्ट हो जाए, स्वर्ण ही बचे। इसलिए तप शब्द का
उपयोग किया जाता है। तप में सब आ गया, जो भी साधक करता है,
सब तप में समाविष्ट है।
लेकिन
एक बात खयाल में रहे—एकतायुक्त!
समग्गान तपो सुखो।
ऐसा
न हो कि तुम्हारा तप बिखरा—बिखरा हो, खंड—खंड हो, कुछ
यहां किया, कुछ वहां किया, कुछ और कहीं
किया, हजार दिशाओं में बहता रहा, तो
परिणाम न होगा। तुमने देखा, सूरज की किरणों को अगर एक कांच
के टुकड़े में से—जो उन्हें केंद्रित कर देता है—कागज पर गिराओ, तो कागज जल उठता है। कांच के टुकड़े को हटा लो, फिर
भी किले गिर रही हैं, लेकिन अब कागज नहीं जलता। समग्गानं का
अर्थ होता है, सब एक साथ गिर रही हों। तो कागज जल उठता है।
अगर
तुम्हारी सारी जीवन ऊर्जा एक ही बात पर लग जाए कि जगाना है बुद्धत्व को अपने भीतर, तो जागरण
होगा, होकर रहेगा। लेकिन बहुत—बहुत भागों में बंटी हो,
एक मन कहता हो थोड़ा धन भी कमा लें, एक मन कहता
हो थोड़ा ध्यान भी कर लें, एक मन कहता हो थोड़ा संसार भी भोग
लें, एक मन कहता हो थोड़ा संन्यास भी ले लें, ऐसा बंटा—बंटा हो, तो तुम कहीं भी न पहुंच पाओगे,
और सुख उपलब्ध न होगा।
अंतिम
सूत्र—
'जो संसार—प्रपंच को अतिक्रमण कर गए हैं, जो शोक और
भय को पार कर गए हैं, ऐसे पूजनीय बुद्धों अथवा श्रावकों की,
या उन जैसे मुक्त और निर्भय पुरुष की पूजा के पुण्य का परिणाम इतना
है, यह किसी से कहा नहीं जा सकता।'
यह
वचन भी बुद्ध ने एक विशेष परिस्थिति में कहा। उस परिस्थिति को समझें। ये
परिस्थितियां बड़ी अनूठी हैं। और सूत्र को ठीक से समझ में आने के लिए जरूरी है उनकी
पूरी पृष्ठभूमि खयाल में आ जाए—कब ऐसा बुद्ध ने कहा?
एक समय भगवान
श्रावस्ती से वाराणसी को जाते हुए मार्ग में एक वृक्ष के नीचे ठहरे। उस वृक्ष पर
एक छोटा चबूतरा था। पास में ही खेत में काम करता हुआ एक ब्राह्मण किसान भगवान को
देखकर उनके दर्शन को आया। लेकिन भगवान के चरणों में झुकने के पूर्व उसने वृक्ष के
चबूतरे को झुककर पहले प्रणाम किया। शास्ता ने उससे पूछा ब्राह्मण क्या जानकर ऐसा
किया?
मुझे प्रणाम किए लेकिन मुझसे पहले 'चबूतरे को
प्रणाम किए फिर मुझे प्रणाम किए ऐसा क्या जानकर किए? उस
किसान ने कहा भगवान मुझे ज्यादा तो पता नहीं लेकिन परंपरा से चला आया हमारा यह
पूज्य स्थान है सदा से हम इसे पूजते रहे हैं। ऐसा परंपरागत है। भगवान ने कहा
ब्राह्मण तूने यह ठीक ही किया।
भगवान
के शिष्य बात सुनकर बहुत चौंके, क्योंकि बुद्ध सदा कहते थे, चबूतरे पूजने से क्या होगा? अभी पिछले दिनों ही कोई
सूत्र आया था—वृक्ष की पूजा से क्या होगा! चैत्य की पूजा से क्या होगा! मंदिर की
पूजा से क्या होगा! मूर्ति की पूजा से क्या होगा! शास्त्र की पूजा से क्या होगा!
तो बुद्ध तो सदा कहते थे, इस तरह की पूजा व्यर्थ है। आज तो
शिष्य बड़े चौंके।
उस
ब्राह्मण को उन्होंने कहा कि ब्राह्मण! यह तूने ठीक ही किया। भगवान के शिष्य बहुत
चौके—इसमें उन्हें विरोधाभास दिखायी पड़ा। तो भगवान ने उनसे कहा यह पूर्व में हुए
काश्यप बुद्ध की समाधि है। और पूजनीयों की पूजा करनी युक्त है सदा युक्त है। फिर
उन्होंने कहा भिक्षुओ आंखें बंद करो और ध्यान करो तुम्हारी सारी चेतना को इस
चबूतरे पर लगाओ। सारे भिक्षु ध्यान करने बैठ गए शांत होकर बैठे चबूतरे पर उन्होंने
सारी अपनी जीवन— ऊर्जा को बहाया तो बड़े चौके। ऐसा तो उन्होंने कभी न देखा था। ऊपर
से तो वह चबूतरा बस जरा सा खंडहर था ईटं— पत्थर का लेकिन भीतर अनंत ज्योति थी। उस
दीन— दरिद्र चबूतरे के भीतर ऐसी विराट ज्योति थी कि कोसों तक उसका प्रकाश फैला हुआ
था। तब उन्होंने आंखें खोली और उन्होंने भगवान से कहा हमें समझाइए।
तो
बुद्ध ने कहा कि मुझसे पूर्व काश्यप बुद्ध हुए। मैं कोई पहला बुद्ध नहीं हूं अनंत
बुद्ध मुझसे पहले हो गए अनंत बुद्ध मेरे बाद होंगे। यह पृथ्वी कभी बुद्धों से खाली
नहीं रहती। मुझसे पहले काश्यप बुद्ध हुए यह उनका चबूतरा है। और बुद्धों के लिए
क्या पहला और क्या पीछा क्या अतीत और क्या भविष्य असली सवाल तो बुद्धत्व को
नमस्कार करने का है। और इस आदमी को पता भी नहीं है कि यह किसको नमस्कार कर रहा है।
लेकिन क्या तुमको पता है?
तुम मुझे नमस्कार करते हो क्या तुम्हें पता है कि तुम किसको नमस्कार
कर रहे हो? अज्ञान में तो आदमी अज्ञान में ही होता है। लेकिन
अज्ञान में भी यह ठीक दिशा में चल रहा है। अंधेरे में भी यह द्वार के लिए टटोल रहा
है इसे पता नहीं है कि यह चबूतरा किसका है क्यों है— कहता है परंपरा से चला आया
है। लेकिन जो बात चली आयी परंपरा से जरूरी नहीं कि ठीक हो जरूरी नहीं कि गलत हो।
इस
बात को खयाल में लेना। जो बात चली आयी है सदा से, जरूरी नहीं कि ठीक हो,
जरूरी नहीं कि गलत हो। इसलिए प्रत्येक बात का निर्णय उस बात के ही
गुणधर्म से करना। ऐसा कह देना कि जो परंपरा से चला आया है ठीक है, नासमझी है; और ऐसा कह देना भी नासमझी है कि जो
परंपरा से चला आया है, वह इसीलिए गलत है कि परंपरा से चला
आया है। न तो नया सत्य होता है, न पुराना सत्य होता है। सत्य
पुराने में भी होता है, नए में भी होता है। सिर्फ कोई चीज
पुरानी है, इसलिए सच मत मान लेना; और
कोई चीज नयी है, इसलिए भी सच मत मान लेना।
दुनिया
सदा इस तरह की भूलें करती है। जैसे पूरब में—पूरब में जो पुराना है; सो सही।
पश्चिम में—जो नया है, सो सही। दोनों ही बातें गलत हैं। सही
कें नए और पुराने होने से कोई संबंध नहीं है। वेद चाहे पाच हजार साल पुराने हों और
चाहे पचास हजार साल पुराने हों, इससे क्या फर्क पड़ता है! सही
हैं, तो पांच दिन पुराने हों तो भी सही हैं। और गलत हैं,
तो पचास हजार साल पुराने हों तो भी गलत हैं। मैं तुमसे जो कह रहा
हूं अगर सही है तो सही है, चाहे कितना ही नया हो। और अगर गलत
है तो गलत है, चाहे कितना ही नया हो। नए और पुराने से सत्य
का कोई संबंध नहीं है।
प्रत्येक
बात की जांच उस बात को देखकर ही करना बुद्ध ने कहा। इसलिए मैने बहुत बार कहा है कि
चैत्य की पूजा में क्या रखा है मगर इस ब्राह्मण से न कह सकूंगा। क्योंकि इसने जिस
चैत्य को सिर झुकाया है वहां कुछ रखा है हालांकि इसे पता नहीं है लेकिन
झुकते—झुकते पता चल जाएगा। पूजनियों की पूजा करना ठीक है। न पता हो तो भी ठीक है।
क्योंकि झुकते— झुकते शायद किसी दिन किरण उतर जाए। उस समय उन्होंने यह सूत्र कहा—
'जो संसार—प्रपंच को अतिक्रमण कर गए हैं, जो शोक और
भय को पार कर गए हैं, ऐसे पूजनीय बुद्धों अथवा श्रावकों की,
या उन जैसे मुक्त और निर्भय पुरुषों की पूजा के पुण्य का परिणाम
इतना है, यह किसी से कहा नहीं जा सकता। '
बुद्ध
ने कहा, इतना—इतना परिणाम है उस पुण्य का—पूजा के पुण्य का, झुकने
के पुण्य का—कि उसे कहा नहीं जा सकता। क्यों झुकने में इतना पुण्य होगा? सच बात यह है कि झुकने में नहीं है वस्तुत) क्योंकि झुकने का अर्थ होता है,
तुमने अहंकार को थोड़ा झुकाया—उसी में है, वह
जो अहंकार झुका। तुम झुकने को राजी हुए, तुमने अहंकार को
थोड़ी देर को अपने सिर से उतारकर रख दिया, तुमने किसी के
सामने अपने को छोटा माना, उसी में पुण्य है।
इसलिए
पूरब में हमने इस तरह की बहुत सी व्यवस्था की थी कि जिसके कारण आदमी को झुकने का
अभ्यास बना रहे। बाप के पैर छू लो—अब जरूरी नहीं कि बाप ठीक ही हो। सभी बाप ठीक
हों तो दुनिया ठीक ही हो जाए! बाप चोरी भी करता है, बाप हत्यारा भी हो सकता है।
लेकिन फिर भी पूरब में हमने कहा कि बाप हत्यारा हो तो भी झुककर पैर छूना। मां के
पैर छू लो—अब सभी मां ठीक नहीं होतीं। जरूरी भी नहीं है कि ठीक हों। मां होने से
क्या ठीक होने का लेना—देना है! लेकिन झुक जाना। क्यों? ताकि
झुकने का अभ्यास बना रहे। ताकि झुकने की प्रक्रिया भूल न जाए। ऐसे झुकते—झुकते
किसी दिन उस आदमी के करीब भी पहुंच जाओगे जहां कुछ है, तो उस
वक्त अड़चन न आएगी।
अब
मैं देखता हूं यहां,
पश्चिम से कोई आता है, उसे झुकने में बड़ी अड़चन
आती है। वह झुकता भी है तो थोड़ा झिझकता—झिझकता सा झुकता है। क्योंकि पश्चिम में
झुकने की कोई प्रक्रिया नहीं है। किसी के पैर छूना, पश्चिम
में कोई परंपरा नहीं है। बाप के पैर नहीं छूना, मां के पैर
नहीं छूना, गुरु के पैर नहीं छूना, पैर
छूने की परंपरा नहीं है। एक दिन अचानक तुम उससे कहते हो कि परमात्मा के सामने झुको,
उसे झुकने का कोई अभ्यास नहीं है। जो छोटे, उथले
जल में नहीं तैरा, उसे अचानक सागर में उतारते हो! वह डुबकी
खा जाएगा।
पहले
तो तैरना सीखना पड़ता है नदी में—छोटी नदी में, या स्वीमिंग पूल में—उथले—उथले में
तैरना आ जाए, फिर तुम गहरे सागरों में जा सकते हो। पिता माना
कि अभी उथला किनारा है, सब तरह की भूलें हैं जो आदमी में
होनी चाहिए, जो आदमी में होती हैं, ठीक,
इसकी तुमने फिकर न की, फिर भी झुके—ऐसे उथले
पानी में तुमने झुकने का अभ्यास कर लिया। फिर अगर कभी तुम संयोग से किसी
बुद्धपुरुष के करीब आ जाओ, तो झुकने में जरा भी अड़चन न
आएगी—जरा भी अड़चन न आएगी। एक बार भी मन में ऐसा न उठेगा कि झुकूं कि नहीं, झुकना चाहिए कि नहीं, तुम अवश झुक जाओगे। तुम सहज
झुक जाओगे। तुम अचानक पाओगे कि तुम झुके हुए हो। तुम्हारा झुकना इतना स्वाभाविक
होगा। और उसी स्वाभाविक झुकने में पुण्य है, उसी स्वाभाविक
झुकने में कुछ तुममें बह जाएगा।
हमारी
मान्यता यह है कि अगर किसी गलत आदमी के सामने झुके तो तुम्हारा कुछ खोता नहीं।
हर्जा कुछ भी नहीं है। बस कुछ मिला नहीं, इतना ही हुआ न! लेकिन झुकने का
अभ्यास बना रहा। किसी दिन अगर ठीक आदमी के सामने झुक जाओगे तो उसके अंतर से बहती
हुई ऊर्जा तुम्हारे पात्र में भर जाएगी, तुम लबालब हो जाओगे।
और तब तुम पाओगे कि जिन गलत आदमियों के सामने झुके, उनका भी
धन्यवाद है, क्योंकि उन्होंने ही यह घड़ी सामने लायी।
तो
बुद्ध कहते हैं,
बुद्धों अथवा श्रावकों की, या उन जैसे मुक्त
और निर्भय पुरुष की पूजा के पुण्य का परिणाम इतना है, यह
किसी से कहा नहीं जा सकता, इसलिए इस ब्राह्मण को मैं कहता
हूं, तूने ठीक ही किया, ब्राह्मण! तू
मुझे तो जानता नहीं, लेकिन परंपरा से चले आए इस चबूतरे को
जानता है—कोई कभी इस चबूतरे के सामने जानकर झुके होंगे, हजारों
साल पहले काश्यप बुद्ध हुए, उनके चरणों में कोई जानकर झुका
होगा। फिर उसके बेटे यह सोचकर झुके होंगे कि पिता झुकते थे। फिर उसके बेटे को भी
थोड़ा खयाल रहा होगा कि यहां कुछ है। फिर धीरे—धीरे बात भूलती गयी, मगर झुकने की परंपरा जारी रही। इस चैत्य ने ही तुझे इस योग्य बनाया है कि
तू मेरे चरणों में भी झुक सका। इसलिए तूने ठीक ही किया कि तू पहले इस चैत्य के,
चबूतरे के चरणों में झुका। धन्यवाद इसको देना जरूरी है।
काश्यप
बुद्ध से बुद्ध का?
मिलना हुआ है पिछले जन्मों में, और बड़ी अनूठी
कथा है। तब बुद्ध अज्ञानी थे—गौतम बुद्ध अज्ञानी थे—काश्यप बुद्ध की बड़ी महिमा थी।
दूर—दूर से लोग यात्रा करके उनके चरणों में आते थे। तो गौतम बुद्ध भी अपने उस जन्म
में उनके दर्शन को गए, वह उनके चरणों में झुके। जब वह चरण
छूकर खड़े हुए तो बड़े चौंके, क्योंकि काश्यप, बुद्ध उनके चरणों में झुक गए। तो बहुत घबड़ा गए। उन्होंने कहा कि भंते,
यह कैसा पाप! यह आप क्या कर रहे हैं! मैं आपके चरणों में झुकुं यह
तो ठीक—मैं अज्ञानी, मैं पापी, मैं
नासमझ, मैं अबोध—मैं चरणों में झुकूं यह तो ठीक, लेकिन आप यह क्या कर रहे हैं, मेरे चरणों में झुक
रहे! तो काश्यप बुद्ध ने कहा कि सुन, तू एक दिन बुद्ध हो
जाएगा, मैं देख पाता हूं। तुझे तेरा बुद्धत्व दिखायी नहीं
पड़ता, लेकिन मुझे दिखायी पड़ रहा है, तू
एक दिन बुद्ध हो जाएगा। मैं उस भविष्य के बुद्धत्व के चरणों में झुक रहा हूं।
उसी
काश्यप बुद्ध की यह समाधि है जिस पर आज बुद्ध ठहरे हैं। हजारों वर्ष बीत गए हैं, लेकिन जब
भिक्षुओं ने ध्यान किया है तो उन्हें लगा कि उस समाधि के भीतर अपूर्व प्रकाश है।
ध्यान की आख हो तो हजारों साल पहले जो बुद्ध जा चुके हैं, उनका
प्रकाश भी तुम्हें छुएगा, आंदोलित करेगा। और ध्यान की आख न
हो तो जीवित बुद्ध के सामने भी तुम अंधे की तरह बैठे रहोगे, तुम्हें
कोई प्रकाश न छुएगा। सब तुम पर निर्भर है।
बुद्ध
का वचन खयाल रखना,
झुकने का अभ्यास अच्छा है। और बुरे— भले का भी क्या हिसाब रखना! और
हम तय भी करने वाले कौन कि कौन बुरा और कौन भला! जहां झुकने का अवसर मिले, झुक जाना। तुम तो इसकी ही फिकर करना कि हमें झुकने का अवसर मिला, यही बहुत। ऐसे झुकते रहे, झुकते रहे, झुकते रहे, तो अहंकार कटता जाएगा, कटता जाएगा; अहंकार पत्थर की चट्टान है, समय लगता है कटने में। लेकिन अगर झुकते रहे, झुकने
का जल अगर इस पत्थर की चट्टान पर गिरता रहा, गिरता रहा—
रसरी आवत जात है, सिल पर
पड़त निसान।
कठिन
से कठिन पत्थर पर भी कुएं की रस्सी आते—जाते निशान पड़ जाता है। करत करत अभ्यास के
जड़मति होत सुजान
और
धीरे— धीरे, धीरे— धीरे, इंच—इंच चल—चलकर हजारों मील की यात्रा
पूरी हो जाती है और जड़मति भी सुजान हो जाता है।
तो
बुद्ध कहते हैं,
ठीक ही किया इस ब्राह्मण ने। इसे पता तो नहीं है, लेकिन झुकने का तो पता है। किसके चरणों में झुक रहा है, इसे पता नहीं, लेकिन झुकने का तो पता है।
इसलिए
खयाल रखना, बुद्धपुरुषों की वाणी में अगर कभी विरोधाभास मिले, तो
जल्दी से विरोधाभास की वजह से उलझ मत जाना। जब बुद्ध कहते हैं, क्या रखा है मंदिरों में झुकने से, तब भी ठीक कहते
हैं। और जब बुद्ध कहते हैं, झुकने में बहुत कुछ रखा है,
तब भी ठीक कहते हैं। दोनों ही बातें सच हैं। दोनों अलग—अलग पात्रों
के लिए कही गयी हैं।
जब
बुद्ध कहते हैं,
मंदिरों में झुकने में क्या रखा है, तो
उन्होंने मालूम है किसको कही थी? यह बात उन्होंने कही थी एक
पंडित को, अग्निदत्त को। बड़ा पंडित था, शास्त्र का ज्ञानी था, पूजा—पाठ इत्यादि का बड़ा
ज्ञाता था। उसको उन्होंने कहा, क्या रखा है शास्त्र में?
उस पंडित को चौंकाने के लिए, जगाने के लिए
इसके सिवा कोई उपाय न था। उसके शास्त्र उससे छीनने जरूरी थे। उसकी अकड़ मिटाने का
यही उपाय था कि उसको समझाया जाए कि शास्त्र में क्या रखा है! मंदिर में क्या रखा
है! तीर्थ में क्या रखा है! और बुद्ध ने खूब निर्ममता से उसके ऊपर प्रहार किया। उस
पंडित को गिराने के लिए इसके सिवा कोई रास्ता नहीं था, यही
अनुकंपा थी।
आज
यह एक सरल—सीधा ब्राह्मण किसान है। इसे कुछ पता नहीं है। यह कोई पंडित नहीं है। यह
कहता है, मुझे कुछ मालूम ही नहीं कि मैं क्यों झुक रहा हूं यह परंपरा से चली आती
बात। सीधा—सादा आदमी है। इसको बुद्ध ने उस तरह की चोट नहीं की। उस तरह की चोट की
जरूरत नहीं है। इस झुकने वाले आदमी में अहंकार है ही नहीं जिसको चोट मारकर गिराना
हो। इससे बुद्ध ने कहा, तूने ठीक ही किया, ब्राह्मण!
फर्क
समझना!. अहंकारी पर गहरी चोट की कि क्या रखा है मंदिर में? निरहंकारी
से कहा कि तूने ठीक ही किया, ब्राह्मण! ये दो अलग
परिस्थितियां हैं। इन दोनों अलग परिस्थितियों में दो अलग आदमियों से कहे गए वचन
हैं।
ऐसा
रोज होता है मेरे पास। अक्सर ऐसा हो जाता है कि एक आदमी मुझसे बात कर रहा है दर्शन
में, उसको मैं कुछ कहता हूं और उसके बाद जो आदमी आता है, उसके
ठीक उलटी बात मुझे उससे कहनी पड़ती है। वे दोनों बड़े चौंक जाते हैं। लेकिन उन्हें
पता नहीं कि दो अलग आदमियों से बात करनी पड रही है, तो जो
मैं कहूंगा, उस आदमी को देखकर कहूंगा।
कभी—कभी
ऐसा हो जाता है कि मैं एक के प्रश्न का उत्तर दे रहा हूं फिर दूसरा मेरे सामने आता
है, मैं उससे पूछता हूं कुछ पूछना है? वह कहता है कि
नहीं, क्योंकि यही मेरा प्रश्न था, आपने
उत्तर दे दिया। मैं कहता हूं क्षमा करो, यह उत्तर जिसको दिया
है उसके लिए है, तुम अपना प्रश्न पूछो। तुम वही प्रश्न तो
पूछ ही नहीं सकते जो इसने पूछा है। वह आदमी कहता है, लेकिन
मेरा वही प्रश्न है, बिलकुल वही है, शब्दशः
वही है।
शब्द
एक से होंगे,
लेकिन प्रश्न वही नहीं हो सकता। क्योंकि तुम पूछने वाले अलग हो।
तुम्हारी पृष्ठभूमि अलग है। तुम अलग मां के पेट से पैदा हुए, अलग बाप के वीर्य से पैदा हुए। तुम अलग देश में पैदा हुए, अलग हवा में पले, अलग परिस्थितियों से गुजरे,
अलग संस्कार तुमने इकट्ठे किए। तुम्हारी सारी पृष्ठभूमि अलग है। तुम
वही प्रश्न तो पूछ ही नहीं सकते जो इसने पूछा है, क्योंकि यह
प्रश्न तो यही पूछ सकता है। इस दुनिया में कोई दूसरा आदमी नहीं पूछ सकता।
तो
कभी—कभी ऐसा होता है कि शब्द एक जैसे, तो तुम सोचते हो प्रश्न भी एक
जैसा। और कभी—कभी ऐसा होता है कि मैं भी तुम्हें एक से ही शब्दों में उत्तर देता
हूं तब तुम सोचते हो कि मैंने एक ही उत्तर दिया, तुम्हें भी
और दूसरे को भी, इस भ्रांति में मत पड़ना।
सुबह
की चर्चाएं सार्वजनिक हैं,
साझ की चर्चाएं व्यक्तिगत हैं। और सांझ की चर्चाओं का मूल्य गहरा
है। सुबह तुम्हें सार्वजनिक सत्य कह रहा हूं किसी एक से नहीं कह रहा हूं। सत्य
जैसा है वैसा ही कह रहा हूं। तुम्हारे ऊपर ध्यान नहीं रखकर कह रहा हूं सत्य पर
ध्यान रखकर कह रहा हूं। जैसा मैं सत्य को देखता हूं वैसा कह रहा हूं। सांझ को जब
तुमसे मैं बात करता हूं तो सत्य से भी ज्यादा महत्वपूर्ण तुम हो। मुझसे भी ज्यादा
महत्वपूर्ण तुम हो। तब तुम्हें देखकर मैं कहता हूं।
सुबह
तो ऐसा समझो कि जो मैं कह रहा हूं वह केमिस्ट की दुकान है, जिस पर
सभी दवाइयां हैं। सांझ को जब तुमसे कुछ कहता हूं, तो
प्रेस्किप्सन है, वह तुम्हारे ही लिए लिखा गया है। उसको किसी
दूसरे को मत दे देना। यह मत सोचना कि मैंने तुम्हें दिया तो सभी के काम का है। वह
किसी और के काम न आएगा। और कभी—कभी हानिकर भी हो सकता है।
इसलिए
बहुत बार मेरे वक्तव्यों में तुम्हें विरोध दिखायी पड़ेगा। उस विरोध का कारण है।
यही बुद्ध के भिक्षुओं को लगा। उन्हें लगा कि यह क्या बात है! अभी तो कहते थे कुछ
दिन पहले कि कुछ नहीं रखा है, आज इस ब्राह्मण को कहने लगे, तूने ठीक ही किया, ब्राह्मण! लेकिन उन्हें यह समझ
में नहीं आ रहा। वह भी ब्राह्मण था, अग्निदत्त भी ब्राह्मण
था, लेकिन वह पंडित ब्राह्मण था; यह भी
ब्राह्मण है, यह सीधा—सादा, भोला— भाला
ब्राह्मण है; इन दोनों पर एक सी चोट नहीं की जा सकती है। जिस
चोट ने अग्निदत्त को जगाया होगा, वह चोट इसको मार डालेगी।
जिस चोट ने अग्निदत्त के लिए सहारा दिया, वह चोट इसका सहारा
छीन लेगी।
इसलिए
बुद्धपुरुषों के वचनों में बहुत बार विरोधाभास होंगे, पद—पद पर
विरोधाभास होंगे, लेकिन विरोधाभास हो नहीं सकता। असंभव है।
दिखता होगा।
किसी ने बांटे फूल
किसी ने बांटे फल
किसी ने किसलय
पर दिन ढले
सब गले
कुम्हलाए
मुरझाए
तुम आए
बांटा बीजमंत्र
अनुकंपा
कहा, बन
आत्मा का माली
कर कषाय से रखवाली
बच जाएगी बगिया की
हरियाली
बुद्ध
के सारे सूत्रों का सार है,
अनुकंपा। वे जो कह रहे हैं, वे अनुकंपा से उठे
हुए वक्तव्य हैं। जिस व्यक्ति को जो जरूरी था, वही उन्होंने
दिया है।
किसी ने बांटे फूल
किसी ने फल
किसी ने किसलय
पर दिन ढले
सब गले
कुम्हलाए
मुरझाए
तुम आए
बांटा बीजमंत्र
अनुकंपा
बुद्ध
का स्वाद पकड़ना हो तो अनुकंपा शब्द को पकड़ लेना। बुद्ध की उत्सुकता न तो किसी
शास्त्र में है,
न किसी सिद्धात में, न किसी दर्शन में। बुद्ध
की सारी आस्था अनुकंपा में है। तो जो भी कहा, करुणा से कहा।
तर्कजाल नहीं है। इसलिए यह कभी खयाल नहीं रखा है कि जो कल कहा था उससे आज कही गयी
बात तालमेल खाती है या नहीं? तर्कशास्त्री को दिक्कत तो न
होगी? वह विचार ही न किया। जो आज सामने है उसको झलकाया। जो
आज सामने खड़ा है उसको उत्तर दिया। उत्तर बंधा—बंधाया नहीं है, उत्तर तैयार नहीं है। और तैयार उत्तर दो कौड़ी के होते हैं। बुद्धपुरुष तो
दर्पण की भांति हैं, जो आया उसका ही प्रतिबिंब झलकता है। एक
कहानी मैंने सुनी है—एक था चूहा, एक थी गिलहरी। चूहा शरारती
था, दिनभर चीं—चीं करता हुआ मौज उड़ाता। गिलहरी बड़ी भोली—
भाली थी, टीं—टीं करती हुई इधर—उधर घूमा करती। संयोग से एक
बार दोनों का आमना—सामना हो गया। अपनी प्रशंसा करते हुए चूहे ने कहा, मुझे लोग शकराज कहते हैं और गणेश जी की सवारी के रूप में खूब जानते हैं।
मेरे बिना गणेश जी भी चल नहीं सकते हैं। मेरे पैने—पैने हथियार—सरीखे दात लोहे के
पिंजरे तो क्या, किसी भी चीज को काट सकते हैं। मैं
तर्कशास्त्री हूं। जैसे तर्कशास्त्री की कैंची चलती है, ऐसा
मैं चलता हूं।
मासूम
सी गिलहरी को सुनकर बड़ा आश्चर्य हुआ, हैरानी भी लगी। बोली, भई, तुम दूसरों का नुकसान करते हो, फायदा नहीं। यदि अपने दांतों पर तुम्हें इतना गर्व है, तो इनसे कोई नक्काशी क्यों नहीं करते? इनका उपयोग
करो तो जानूं! जहां तक मेरा सवाल है, मुझमें आप—सरीखा कोई भी
गुण नहीं। मेरे बदन पर तीन धारियां देख रहे हो न, बस यही
मेरी खास चीज है। जो दाना—पानी मिल जाता है, उसका कचरा साफ
करके संतोष से खा लेती हूं। चूहा बोला, तुम्हारी तीन धारियों
की विशेषता क्या है, यह भी खूब रही! इन धारियों में क्या रखा
है?
गिलहरी
बोली, वाह, तुम्हें पता नहीं। आसपास दो काली धारियां हैं,
उनके बीच में एक सफेद है। इनका मतलब है कि कठिनाइयों की पर्तों के
बीच से ही असली सुख झांकता है। दो काली रातों के बीच में एक उजाला भरा हुआ दिन है।
मैं इसी सुनहली धारी पर ध्यान रखती हूं। काली को आकती ही नहीं, हिसाब में नहीं लेती। भगवान ने ये धारियां मुझे इसीलिए दी हैं कि बीच की
धारी पर ध्यान रखना। उसको ध्यान रखने के कारण बड़ा संतोष है, बड़ा
आनंद है। मौत दिखायी ही नहीं पड़ती, जीवन ही जीवन! दुख दिखायी
ही नहीं पड़ता, सुख ही सुख!
विचार
चूहे जैसा है। उसे अंधेरा ही अंधेरा दिखायी पड़ता है, उसे विरोधाभास ही विरोधाभास
दिखायी पड़ता है। यह गलत, यह गलत, निंदा
और आलोचना ही दिखायी पड़ती है। श्रद्धा भोली— भाली है, गिलहरी
जैसी है। गिलहरी ने ठीक ही कहा कि दो काली धारियों के बीच में जो सफेद धारी देखते
हैं न, वही मेरी खूबी है। उस पर ही मैं ध्यान रखती हूं।
तर्क
व्यर्थ की बातों में उलझ जाता है, व्यर्थ की बातों में उलझकर व्यर्थ को बढ़ावा
देने लगता है, तूल देने लगता है। श्रद्धा सार्थक को पकड़ती
है। धीरे— धीरे व्यर्थ आख से ओझल हो जाता है, सार्थक ही रह
जाता है।
उस
सार्थक में जिसने जीना सीख लिया, वही संन्यासी है।
आज
इतना ही।
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