मृत्यु तो एक झूठ है—प्रवचन—69
सूत्र:
सुसुखं वत! जीवाम
वेरिनेसु अवेरिनो ।
वेरिनेसु मनुस्सेसु विहराम अवेरिनो
।।173।।
सुसुखं वत! जीवाम
आतुरेसु अनातुरा ।
आतुरेसु मनुस्सेसु विहराम अनातुरा
।।174।।
सुसुखं वत! जीवाम उस्सेकेसु
अनुस्सुका ।
उस्सेकेसु मनुस्सेसु विहराम अनुस्ससुका
।।175।।
सुसखं वत! जीवामयेसं
नौ नत्थि किज्चिना ।
पीति भक्खा भविस्साम देवा आभस्सरा
यथा ।।176।।
जयं वेरं पसवति दुक्खं सेति पराजितो
।
उपसंतो सुखं सेति हित्वा जयपराजयं
।।177।।
जीवन अपने में न तो
सुख है, न दुख। देखने—देखने की बात है। दृष्टि की बात है। कैसे देखते हैं, इस पर सब निर्भर है। सुख और दुख हमारी व्याख्याएं हैं। सुख और दुख तथ्य
नहीं हैं, सुख और दुख हमसे बाहर नहीं हैं, सुख और दुख हमारे देखने के ढंग के परिणाम हैं, निष्पत्तियां
हैं। वही बात एक व्यक्ति को सुख हो सकती है, वही बात दूसरे
को दुख हो सकती है। और उसी बात में कोई निरपेक्ष भी रह सकता—न सुख हो न दुख हो। और
कभी ऐसा भी होगा कि जो बात तुम्हें आज सुख थी, कल दुख हो गयी;
और जो आज दुख थी, कल सुख हो गयी। और कभी ऐसा
भी होगा, ऐसे क्षण भी आएंगे, जब तुम भी
सुख और दुख के बाहर हो जाते हो, तटस्थ हो जाते हो।
अगर
कोई अपने जीवन का ठीक—ठीक निरीक्षण करे, सम्यक निरीक्षण करे तो इस सत्य को
खोजने के लिए शास्त्रों में जाने की जरूरत नहीं है।
सुकरात
का बड़ा प्रसिद्ध वचन है अपरीक्षित जीवन जीने योग्य नहीं।
ठीक—ठीक
सम्यक निरीक्षण करके ही कोई जीवन योग्य जीने को पाता है। सुकरात से किसी ने पूछा
कि तुम एक संतुष्ट सूअर होना पसंद करोगे, या एक असंतुष्ट सुकरात?
तो
सुकरात ने कहा,
मैं असंतुष्ट सुकरात होना पसंद करूंगा, संतुष्ट
सूअर होना नहीं। क्यों, पूछा पूछने वाले ने, क्योंकि आदमी संतोष के लिए ही तो सब करता है। सुकरात ने कहा कि असंतुष्ट
सुकरात एक दिन संतोष पा लेगा, और ऐसा संतोष, फिर जिसे छीना नहीं जा सकता। संतुष्ट सूअर तो नाममात्र को ही संतुष्ट है।
अभी उसने असंतोष ही नहीं जाना, असंतोष के पार होना अभी कैसे
जानेगा?
जीवन
का ठीक—ठीक निरीक्षण हो,
तो हम सुख और दुख दोनों के पार हो जाते हैं। क्योंकि एक सत्य
रोज—रोज साफ होने लगता है—हमारी व्याख्या है। अगर हमारी ही व्याख्या है तो हम
मुक्त हो गए।
सारे
धर्मों का अगर सारसूत्र पकड़ना हो तो इस बात में पकड़ लेना—कि जीवन में जो भी हम
अनुभव करते हैं,
वह हमारी व्याख्या है। इसलिए हम जब चाहें तब स्वतंत्र हो सकते हैं।
क्योंकि अपनी व्याख्या बदलना अपने हाथ में है। अगर जीवन में सुख—दुख हमसे बाहर
होते तो बंधन हमसे बाहर होता।
समझो।
ऐसा नहीं है कि किसी ने तुम्हें कारागृह में डाल दिया है। अगर किसी ने कारागृह में
डाला हो और जंजीरें पहनायी हों, तो फिर तो तुम उसके हाथ में हो। मुक्त करेगा तो
मुक्त होओगे, मुक्त न करेगा तो न हो सकोगे। और किसी तरह
मुक्त हो भी गए तो फिर भी पकड़े जा सकते हो, फिर दुबारा पकड़े
जा सकते हो। तो तुम्हारी मुक्ति कोई बहुत गहरी मुक्ति नहीं हो सकती। जब अमुक्ति
दूसरे पर निर्भर है तो मुक्ति भी दूसरे पर निर्भर रहेगी। और यह तो भारी परतंत्रता
हो गयी। मुक्ति में भी बंधे हैं, तो यह तो भारी परतंत्रता हो
गयी।
स्थिति
ऐसी है कि तुमने मान रखा है कि तुम कारागृह में हो। यह तुम्हारी मान्यता है।
जंजीरें असली नहीं हैं,
सिर्फ मान्यता की हैं, सिर्फ धारणा की हैं।
इसलिए जिस दिन तुम आख खोलकर देखोगे, जंजीरें पिघल जाएंगी,
जंजीरें विसर्जित हो जाएंगी। ऐसा ही समझो कि जैसे रात सपने में
तुमने पाया कि तुम कारागृह में पड़े हो, और सुबह जागकर देखा
कि अपने घर में हो, कारागृह तुम्हारी कल्पना का जाल था।
बुद्ध के आज के सूत्र महत्वपूर्ण हैं।
पहले
सूत्र, पहले तीन सूत्र—
सुसुखं वत! जीवाम
वेरिनेसु अवेरिनो ।
वेरिनेसु मनुस्सेसु विहराम अवेरिनो
।।
'वैरियों के बीच अवैरी होकर, अहो, हम सुखपूर्वक जीवन बिता रहे हैं! वैरी मनुष्यों के बीच अवैरी होकर हम
विहार करते हैं।'
सुसुखं वत! जीवाम
आतुरेसु अनातुरा ।
आतुरेसु मनुस्सेसु विहराम अनातुरा ।।
'आतुरों के बीच अनातुर होकर, अहो, हम सुखपूर्वक जीवन बिता रहे हैं। आतुर मनुष्यों के बीच अनातुर होकर हम
विहार करते हैं। '
तीसरा
सूत्र—
सुसुखं वत! जीवाम
उस्सेकेसु अनुस्तुका।
उस्सेकेसु मनुस्सेसु विहराम अनुस्तुका
।।
'आसक्तों के बीच अनासक्त होकर, अहो, हम सुखपूर्वक जीवन बिता रहे हैं। आसक्त मनुष्यों के बीच अनासक्त होकर हम
विहार करते हैं।'
इन
सूत्रों के जन्म की कथा समझें—
शाक्य और कोलीय
राज्यों के बीच रोहिणी नामक नदी के पानी को रोककर दोनों जनपदवासी खेतों की सिंचाई
करते थे। एक बार ज्येष्ठ मास में फसल के सूखने को देखकर दोनों जनपदवासी शाक्य और
कोलियों के नौकर अपने—अपने खेतों की सिंचाई करने के लिए रोहिणी नदी पर आए। दोनों
ही पहले अपने खेतों को सींचना चाहते हैं अत: दोनों में झगड़ा हो चला। यह समाचार
उनके मालिक शाक्य और कोलियों को मिला। क्षत्रिय तो क्षत्रिय! तलवारें
निकल गयीं। वे सेना को साथ लेकर तैयार होकर युद्ध करने के लिए निकल पड़े भगवान
बुद्ध रोहिणी तट पर ही ध्यान करते थे। उन्हें यह खबर मिली। वे आकर युद्ध को तत्पर
दोनों सेनाओं के मध्य मे खड़े हो गए। शाक्य और कोलियों ने भगवान को देखकर हथियार
फेंक वंदना की।
भगवान
ने कहा महाराज यह कैसा झगड़ा है? किस बात के लिए झगड़ा है? दोनों राज्यों के राजाओं ने कहा भंते कारण हम नहीं जानते। भगवान ने पूछा
फिर कारण कौन जानता है? अकारण तलवारें निकाल ली हैं! कारण भी
न पूछा! कारण तो खोज लेते! उन्होंने कहा शायद सेनापतियों को पता हो सेनापतियों ने
उप— सेनापतियों की ओर इशारा किया उप— सेनापतियों ने सैनिकों की ओर और अंतत: बात
नौकरों पर पहुंची तब कहीं कारण का पता चला। नौकरों ने कहा भंते पानी के कारण।
बुद्ध ने कहा पानी के कारण! पानी तो सदा से बहता है यहां लड़े
तुम आज झगडा पानी के कारण नहीं हो सकता। नौकरों ने कहा समझें भंते पहले कौन उपयोग
करे। तो बुद्ध ने. कहा पहले के कारण! पानी के कारण नहीं। प्रथम कौन हो! पानी को
दोष मत दो।
बुद्ध
हैंसे और उन्होंने शाक्यों और कोलियों के प्रधानों से पूछा महाराज पानी का क्या
मूल्य है? राजा बहुत लज्जित हुए शरमाते बोले अल्पमात्र भंते न कुछ। पानी का क्या
मूल्य है! और मनुष्यों का बुद्ध ने पूछा राजा और भी सकुचाए और बोले अमूल्य भंते
मनुष्य से ज्यादा मूल्यवान और क्या है! बुद्ध ने कहा तो फिर सोचो अल्पमात्र मूल्य
के लिए अमूल्य को मिटाने चले हो? पानी के लिए खून बहाने चले
हो? और नदी ऐसी ही बहती रहेगी। तुम गिरोगे कटोगे मरोने;
और नदी ऐसी बहती रही ऐसी ही बहती रहेगी और नदी को पता भी न चलेगा।
असार के लिए सार को गंवाते हो? कंकड़— पत्थरों के लिए हीरे—
जवाहरात फेकने चले हो? इसीलिए तुम्हारे जीवन में दुख है
चिंता है अंधकार है। मुझे देखो मेरे महासुख को देखो क्या है इसका राज? यही कि मैं वैररहित विहरता हूं यही कि सार को मैं सार और असार को असार
देखता हूं।
और
तब उन्होंने ये तीन गाथाएं कहीं।
तो
पहले तो इस कहानी के एक—एक शब्द को समझें। शास्त्रों में जो बोधकथाएं हैं, वे ऐसे ही
पढ़ लेने के लिए नहीं हैं। उनके शब्द—शब्द में अर्थ है और पर्त—पर्त अर्थ है। एक
पर्त उघाड़ोगे तो दूसरा पर्त अर्थ मिलेगा। और जितने गहरे जाओगे कथा में, उतने ही चौकोगे कि तुम सीढ़ी दर सीढ़ी उतरते जा सकते हो।
पहली
बात, झगड़ा हुआ नदी के तट पर नौकरों में। झगड़ा हुआ नौकरों में और मालिक खिंचे
चले आए। तो नौकर मालिक मालूम होते हैं और मालिक नौकर मालूम होते हैं। यह पहली बात
खयाल में लेने जैसी है। और यह मनुष्य के संबंध में बड़ी गहरी बात है। कहानी में
तुम्हें शायद सीधी साफ हो भी न सके, क्योंकि ये कहानियां
ध्यान के विषय हैं। इन कहानियों पर खूब ध्यान कोई करे तो इनकी पर्तें उघड़ती हैं।
पहली
पर्त, आंखें, हाथ, नाक, कान नौकर हैं और मालिक इनके पीछे खिंचा हुआ चला आता है। आख ने कह दिया
सौंदर्य है और तुम चले, दीवाने हुए! और तुम्हें पता भी नहीं
है कि सौंदर्य है या नहीं। आख ने कह दिया, आख पर भरोसा कर
लिया। कान ने कह दिया और कान पर भरोसा कर लिया, स्वाद ने कह
दिया और स्वाद पर भरोसा कर लिया। ऐसे नौकर—चाकरों के वश में मालिक घिसटता है। और
जिस दिन तुमसे कोई पूछेगा गहरे में कि ऐसा तुमने क्यों किया, तुम कहोगे, कारण पता नहीं।
तुमने
देखा नहीं, कोई आदमी किसी के प्रेम में पड़ जाए, पूछो उससे—क्यो?
वह कंधे बिचकाता है। वह कहता है, क्यों का तो
कुछ पता नहीं! एक आदमी धन के पीछे पागल होकर दौड़ रहा है, पूछो—क्यों?
शायद वह कहे, चूंकि सब लोग दौड़ रहे हैं,
सारी दुनिया दौड़ रही है, इसलिए। और भी दौड़ रहे
हैं, इसलिए। एक आदमी पद के लिए पागल है, पूछो—क्यों? शायद साफ उसे हो ही न। इंद्रियों ने कुछ
खबरें दी हैं, इंद्रियों की खबरों को मानकर भीतर का मालिक चल
पड़ा है।
तो
शाक्य और कोलियों के राज्य के बीच रोहिणी नामक नदी के पानी को रोककर दोनों
जनपदवासी खेतों की सिंचाई करते थे। दूसरी बात, यहां हम सब एक ही जीवन को भोग रहे
हैं। इसलिए झगड़ा तो प्रतिपल हो सकता है। क्योंकि हर एक के बीच वही नदी बह रही
है—उसी से जल मुझे लेना, उसी से जल तुम्हें लेना। जीवन एक
है। तो हम सब पड़ोसी हैं।
जीसस
का बहुत प्रसिद्ध वचन है. अपने पड़ोसी को ऐसा ही प्रेम करो जैसा अपने को। और एक दूसरा
वचन है कि अपने दुश्मन को ऐसा ही प्रेम करो जैसा अपने को। संत अगस्तीन से किसी ने
पूछा कि दोनों वचन एक से लगते हैं और फिर भी बड़े भिन्न हैं। एक तरफ जीसस कहते हैं, अपने
पड़ोसी को ऐसा प्रेम करो जैसा अपने को, और एक दफे कहते हैं,
दुश्मन को ऐसा प्रेम करो जैसा अपने को। तो अगस्तीन ने कहा, जहा तक मैं समझता हूं दुश्मन और पडोसी दोनों एक ही के नाम हैं। जो पडोसी
है, वही तो दुश्मन है।
तुमने
खयाल किया, तुम्हारा दुश्मन है कौन? तुम्हारा पड़ोसी। जो दूर है,
उससे तो दुश्मनी नहीं होती। जो पड़ोस में है, उससे
दुश्मनी होती है। क्योंकि एक ही जीवन की नदी, उस पर दोनों
दावेदार। छोटी—छोटी बात पर झगड़ा हो जाता है। बातें ही क्या हैं! झगड़े के लिए कारण
भी कहां हैं! झगड़े योग्य कारण कहा हैं! तुम लड़े किन छोटी—छोटी बातों पर हो! कभी
किसी ने आधा फुट जमीन दबा ली, झगड़ा हो गया! तुमने कभी सोचा
भी नहीं है कि झगड़कर तुम क्या गंवा रहे हो! और एक बात तो स्वीकार करने की ही है
कि यह जीवन हमारा साझी का जीवन है, हम सब एक ही जीवन जी रहे
हैं।
तो
नदी तो एक है,
जल सबको पीना है, प्यासे सब हैं, और स्वभावत: छीना—झपटी हो सकती है। लेकिन छीना—झपटी करने में मूढ़ता है,
मूर्च्छा है। दोनों जनपदवासी एक ही नदी के जल से अपने खेतों को
सींचते हैं।
एक
बार ज्येष्ठ मास में फसल के सूखने को देखकर दोनों जनपदवासी शाक्यों और कोलियों के
नौकर अपने— अपने खेतों की सिंचाई के लिए नदी पर गए। दोनों ही पहले अपने खेतों को
सींचना चाहते थे। अब पहले से कुछ लेना—देना नहीं है खेत सींचना असली बात होगी।
असली बात है कि खेत सूख रहा है, धूप घनी है, जेठ की
दुपहरी है, पानी देना जरूरी है। असली बात पानी देना है,
पहले और पीछे का कोई भी मूल्य नहीं है।
लेकिन
जीवन के सारे झगड़े पहले और पीछे के झगड़े हैं। इतना हम भूल जाते हैं पहले—पीछे में
कि खेत—मेत तो एक तरफ पडे रह गए—जब झगड़ा ही शुरू हो गया तो नदी से किसी ने भी पानी
नहीं लिया! खेत प्यासे के प्यासे खड़े हैं, खेत रोते के रोते खड़े हैं, यहां दूसरी ही बात चल पड़ी। कई बार ऐसा होता है कि मूल कारण तो एक तरफ पडा
रह जाता है, व्यर्थ की बातें बीच में आ जाती हैं। फिर हम मूल
को तो भूल ही जाते हैं। फिर हम उन व्यर्थ पर ही जूझते रहते हैं। पहले और पीछे का
सारा झगड़ा है। सारी प्रतियोगिता इस बात की है कि कौन पहले।
जीसस
का दूसरा प्रसिद्ध वचन है कि जो अंतिम हैं, जो अंतिम होने में समर्थ हैं,
वे ही मेरे प्रभु के राज्य के मालिक होंगे। जो अंतिम होने में समर्थ
हैं।
इस
जगत में सबसे बड़ी सामर्थ्य है, अंतिम होने की सामर्थ्य। प्रथम तो कोई भी पागल
होना चाहता है। प्रथम होने में कुछ विशिष्टता नहीं है, सभी
प्रथम होना चाहते हैं। प्रथम होना तो बड़ी सार्वजनिक बीमारी है। प्रथम होने का
पागलपन तो सभी पर चढ़ा है। और यह प्रथम होने के पागलपन को ही मैं राजनीति कहता हूं।
इसलिए
राजनीति सारे झगड़ों का मूल आधार है। जब तक दुनिया से प्रथम होने का रोग नहीं जाता, तब तक
दुनिया से राजनीति नहीं जाएगी। और जब तक राजनीति नहीं जाती, तब
तक युद्ध नहीं जाएंगे। तब तक हिंसा नहीं जाएगी। लाख समझाओ अहिंसा, इससे कुछ भी न होगा। तुम हिंसा का सूत्र पकड़ो, हिंसा
का सूत्र है. मैं पहले। अहिंसा का —सूत्र है. मैं अंतिम होने को राजी हूं। क्योंकि
असली सवाल होने का है। आखिर में खड़ा हो जाऊंगा, सबसे पीछे खड़ा
हो जाऊंगा, वहां खड़ा हो जाऊंगा जिस जगह से कोई धक्का देने को
आए ही नहीं।
पहले
का झगड़ा था। और जब पहले का झगड़ा हो तो पानी भी गौण हो गया खेत भी गौण हो गए—खेत और
पानी तो छोड़ो,
जिनके लिए खेत की सिंचाई की जा रही थी, वे
मनुष्य भी गौण हो गए। जिनके लिए भोजन जुटाने के लिए खेत खड़े थे, वे मनुष्य भी गौण हो गए। झगड़ा हो चला।
क्या
है झगड़ा सारी दुनिया में?
रूस का अमरीका का झगडा क्या होगा? भारत—पाकिस्तान
का झगड़ा क्या होगा? चीन—तिब्बत का झगड़ा क्या होगा? इजराइल—इजिप्त का झगडा क्या है? वही झगड़ा है। उसी
झगड़े की यह कहानी है। और जब इक्का—दुक्का आदमी पागल होता है तब तो हम पहचान लेते
हैं, जब भीड़ पागल होती है तो पहचानना बहुत मुश्किल हो जाता
है। जब समूह के समूह पागल हो जाते हैंतो पहचानना बहुत मुश्किल हो जाता है।
मनोवैज्ञानिक
कहते हैं, जब तब ही देखते व्यक्तियों में हम पागल, पर समूह का तो
पागलपन नित्यधर्म है। कभी—कभी कोई आदमी पागल होता है, लेकिन
समूह तो सदा से पागल रहे हैं। हिंदू धर्म पर खतरा है और हिंदू पागल हैं! इस्लाम पर
खतरा है और इस्लाम को मानने वाले पागल! देर नहीं लगती पागल होने में। आदमी निजी
रूप से तो पागल कभी—कभी होता है, लेकिन सशिहक रूप से तो पागल
है ही।
जब
खबर पहुंची होगी मालिकों तक, राजाओं तक कि नौकरों में झगड़ा हो गया, कि उनके नौकरों ने हमारे नौकरों को मार दिया, कि
हमारे नौकरों को पछाड़ दिया—ऐसी अफवाहें पहुंची होंगी। सत्य तो पहुंच नहीं सकता,
पागलों के हाथ में सत्य के पहुंचने का तो कोई उपाय नहीं है। कुछ का
कुछ हो जाता है। एक मुंह से दूसरे मुंह गया कि बदल जाता है।
एक
स्त्री एक झगड़े का वर्णन अपनी पड़ोसिन को कर रही है। पड़ोसिन ने बड़ी उत्सुकता से
सुना। झगडों में हमें रस है। बड़ा रस लेकर सुना। बेटा उसका रो रहा है, परेशान हो
रहा है, मगर उसने फिक्र छोड़ दी, झगड़े
की बात पहले सुनी। जब पूरी बात हो गयी तो उसने कहा, अरे और
भी कहो, थोड़ा और विस्तार से कहो। सुनाने वाली स्त्री ने कहा
कि जितना मैंने देखा, उससे दुगुना तो मैं बता ही चुकी,
अब और क्या विस्तार!
बात
बढ़—चढ़कर पहुंची होगी,
खूब बढ़—चढ़कर पहुंची होगी, कि मार—काट हो गयी,
कि खून बह गया, कि बड़ा अपमान हो गया। तलवारें
खिंच गयीं— क्षत्रिय तो क्षत्रिय!
यह
समाचार जब मालिकों ने सुना तो वे पागल हो उठे। सेनाएं तैयार हो गयीं, युद्ध के
बैंड बज गए, नदी के दोनों तट पर सेनाएं खड़ी हो गयीं। भगवान
ने यह खबर सुनी। वे पास ही एक वृक्ष के नीचे बैठे यह सब देख रहे हैं, यह जो हो रहा है। यहां जिसे देखना हो, इस जगत का खेल,
उसे बैठकर ही देखना पड़ता है। अगर तुम इसमें सम्मिलित हुए तो देख
नहीं सकते। सम्मिलित होने वाला तो अंधा हो जाता है। सम्मिलित होने वाले की आंखें
तो धुंधली हो जाती हैं। क्योंकि सम्मिलित होने वाला पक्षपात से भर जाता है।
निष्पक्ष बैठे थे। दोनों तरफ उनके प्रेमी थे। दोनों तरफ उनको मानने वाले थे,
दोनों राज्यों में उनके प्रति लगाव था। वे सबके थे। तो कोई पक्षपात
तो न था।
पक्षपात
हो सकता था, क्योंकि ऐसे तो वे शाक्य—कुल से आते थे। इसलिए उनका एक नाम है, शाक्य मुनि। शाक्य सम्मिलित थे इस झगड़े में, एक पक्ष
शाक्यों का था,— दूसरा कोलियों का था। अगर बुद्ध ने ऐसा देखा
होता कि मैं शाक्य, तो फिर न देख पाते, तो जो देखते वह गड़बड़ हो जाता।
अगर
तुमने देखा मैं हिंदू तो तुम जो देखोगे वह चूक हो जाएगी। तुमने देखा मैं मुसलमान, तुम जो
देखोगे चूक जाओगे। तुमने देखा मैं भारतवासी, तो तुम्हारी आख
फिर सच्ची आख नहीं रह जाएगी। आख तो उसी के पास होती है जिसके पास कोई पक्षपात नहीं
है।
बैठे
होंगे वृक्ष के नीचे शांत,
ना—कुछ, शून्यवत, जैसे
दर्पण होता है। यह सब देखा, यह सब मूढ़ता दिखायी पड़ी। जब भी
तुम शांत होकर देखोगे, तुम्हें मूढ़ता दिखायी पड़ेगी, चारों तरफ कूता दिखायी पड़ेगी। तुम चकित हो—हो उठोगे कि यह क्या हो रहा है!
लेकिन जब तक नौकर लड़ते थे तब तक ठीक था, जब देखा कि अब तो
मालिक भी आ गए, तलवारें खिंच गयीं, मार—काट
होने की तैयारी हो गयी तो बुद्ध उठे, बीच में आकर खड़े हो गए।
शाक्य
और कोलियों ने भगवान को देखकर हथियार फेंक वंदना की। ऐसी इस देश की परंपरा है कि
जब बुद्ध जैसा व्यक्ति खड़ा हो जाए, तो क्षणभर को ही सही, हम अपना पागलपन छोड़ते हैं। क्षणभर को ही छोड़ते हैं, ज्यादा
देर हम छोड़ नहीं सकते, क्योंकि पागलपन हमारे खून में मिला
है। लेकिन इस देश की परंपरा है। अगर ऐसा बुद्ध ने किसी और देश में किया होता,
तो खुद भी कट जाते। वे तलवारें गिरने वाली नहीं थीं। इस देश के
संस्कार! बुद्धों के साथ इस देश का लगाव, बुद्धों के साथ इस
देश का सत्संग पुराना है। वह भी हमारे खून में सम्मिलित हो गया है। भला हम कितने
ही पागल हों, लेकिन कभी—कभी एक क्षण को किरण उतरती है। बुद्ध
को बीच में खड़ा देखकर वे भी भूल गए कि क्या कर रहे हैं। और जब बुद्ध को प्रणाम
करने हों तो शस्त्र तो फेंक देने होते हैं। शस्त्रों से भरे हाथ तो प्रणाम करने
वाले हाथ नहीं हो सकते। क्योंकि जहां हिंसा है वहां तो प्रणाम नहीं हो सकता। जहां
हिंसा है वहा तो बुद्धपुरुषों के चरणों में झुकने का कोई अर्थ ही नहीं होता,
क्योंकि हिंसा तो झुकना जानती ही नहीं। सिर्फ अहिंसा झुकना जानती
है। इसलिए जो समर्पित है, अहिंसक हो जाएगा, जो अहिंसक है, समर्पित हो जाएगा। एक क्षण को बिजली
की तरह कौंध गयी, बुद्ध को बीच में देखकर दोनों ने तलवारें
फेंक दीं।
बुद्ध
ने पूछा, महाराज, यह कैसा झगड़ा है! किस बात के लिए झगड़ा है?
बुद्ध देख रहे हैं कि बात न कुछ है। बात तो सदा ही न कुछ है। तुम
अपने जीवन में ही देखना कि झगड़ा क्या है?
कभी—कभी
मेरे पास आ जाते हैं,
पति—पत्नी आ जाते हैं कि बहुत झगड़ा हो गया, अला।
होना चाहते हैं। मैं उनसे पूछता हूं जरा कारण भी बताओ। तो वे दोनों ही सकुचाते हैं,
कारण कोई बताना नहीं चाहता। वे कहते हैं, अब
कारण क्या है, कारण तो कुछ खास नहीं है। जब मैं जिद्द करता
हूं, कारण बताओ, तो वे बड़े हैरान होते
हैं, कि आप जिद्द क्यों कर रहे हैं —कारण, क्योंकि कारण तो कुछ भी नहीं है। कारण बहुत छोटा हो सकता है।
अगर
तुम अपने जीवन के उपद्रवों के कारण की खोज में जाओगे, तो आखिर
में तुम सदा ऐसी ही' कोई क्षुद्र बात पाओगे। लेकिन क्षुद्र
को तूल मिल जाता है।
मैंने
सुना है, अमरीका की एक अभिनेत्री ने विवाह किया—वह उसका दसवा विवाह था। और जब चर्च
में उन दोनों ने रजिस्टर में दस्तखत किए, तो दस्तखत करते ही
उसने चर्च के पादरी से कहा कि नहीं, मुझे तलाक चाहिए। अभी
शादी के ही दस्तखत हुए थे, अभी हस्ताक्षर हुए ही थे! पादरी
भी चौंका, उसने कहा कि तलाक मैंने भी बहुत देखे हैं, मगर यह तो बहुत जल्दी हो गयी। अभी दस्तखत की स्याही भी नहीं सूखी है। इतनी
जल्दी तलाक का कारण क्या है? और मैं मौजूद हूं अभी कोई
तुममें झगड़ा भी नहीं हुआ है। उसने कहा कि झगड़ा हो गया। इस आदमी ने दस्तखत मुझसे
बड़े किए हैं। यह झंझट की बात है। इतने बड़े —बड़े अक्षर में दस्तखत किए हैं,
यह कुछ दिखाना चाहता है अपना रोब। यह बात ही गलत शुरू हो गयी,
इसमें मैं जाना नहीं चाहती, इस झंझट में मैं
पड़ना नहीं चाहती।
ऐसी
छोटी बात पर झगडा हो सकता है कि किसी ने दस्तखत जरा बड़े कर दिए हैं। तुम जरा जीवन
का निरीक्षण करना।
बुद्ध
बैठे देख रहे थे कि बात कुछ बात जैसी नहीं है। बतंगड़ है, —बात नहीं
है। पूछा, महाराज, यह कैसा झगडा है?
और किस बात के लिए झगड़ा है? दोनों राज्यों के
राजाओं ने कहा, भंते, कारण हम नहीं
जानते हैं।
कारण
तो यहां किसी को भी पता नहीं है कि झगड़े क्यों हो रहे हैं। आदमी झगड़ना चाहता है तो
कारण खोज लेता है। कारणों से थोड़े ही झगड़ रहा है। झगड़े के लिए कारण ईजाद करता है।
फिर कहता है,
कारण है, इसलिए झगड़ा कर रहा हूं। लेकिन तुम
कभी खोजना, अपने ही भीतर, तुम जब झगड़ा
करने की वृत्ति में होते हो, तब तुम कोई भी कारण खोज लेते
हो। कोई भी कारण! घर आए और सब्जी में नमक कम है, बस पर्याप्त
कारण है। कि तुमने थाली फेंक दी। हालांकि इतनी सी बात से थाली फेंकने का कोई अर्थ
न था। कि चाय ठंडी हो गयी है। कि सुबह तुम्हें तुम्हारे जूते बिस्तर के पास नहीं
मिले। कोई भी छोटी बात! लेकिन अगर तुम झगड़ा करने को आतुर हो, तो पर्याप्त है।
सच
तो यह है कि अगर तुम्हारी झगड़े की आतुरता न होती, तो शायद बात तुम्हें दिखायी
भी न पड़ती। तुम्हारी झगड़े की आतुरता के कारण ही कोई भी कारण खूंटी बन जाता है,
फिर उस पर तुम टल देते हो। और कारण को तुम बहुत बड़ा करके बताने लगते
हो। ताकि जिम्मेवारी भी अपने ऊपर न रह जाए। जिम्मेवारी भी दूसरे पर थोप देते हो कि
हम क्या करें, मजबूरी थी। दूसरे ने मजबूर कर दिया था।
कारण
हम नहीं जानते,
उन्होंने कहा। तो भगवान ने पूछा, फिर कारण कौन
जानता है! तो सेनापतियों को शायद पता हो, उन्होंने कहा। अब
तो उन्हें खुद भी शक हो गया था, इसलिए कहा, शायद! और सेनापतियों ने उप—सेनापतियों को और उप—सेनापतियों ने सैनिकों को,
और आखिर में बात नौकरों पर पहुंची।
अब
नौकर राजाओं को लड़वाते हैं। पर यही हो रहा है, पूरे जीवन में यही हो रहा है। नौकर
ही तुम्हें लड़वा रहे हैं, उलझा रहे हैं। कोई ज्यादा खाए चला
जाता है। डाक्टर कहते हैं, मत खाओ, ज्यादा
खाओगे मरोगे, बीमारी होगी, यह होगा,
वह होगा। लेकिन जीभ की मानता है, डाक्टर की
नहीं मानता।
मुल्ला
नसरुद्दीन की आंखें खराब हुई जा रही थीं। तो डाक्टर ने उससे कहा कि अब तुम शराब
पीना बंद कर दो। अगर तुमने अब शराब पी, तो फिर देखने की क्षमता खो दोगे।
मुल्ला उठ बैठा, चलने को हुआ, तो
डाक्टर ने पूछा, तुमने कुछ जवाब नहीं दिया। मुल्ला ने कहा,
देखो डाक्टर साहब, देखने योग्य जो था मैं पहले
ही देख चुका हूं अब देखने को बचा भी क्या है! शराब छोड़ने की मत कहो, देखने को बचा ही क्या है! मगर शराब की लत!
आंखें
जाएं, प्राण जाएं, कुछ भी जाए, हम
छोटी—छोटी लतों को—और छोटी—छोटी लते नौकरों की डाली हुई लते हैं। कोई स्वाद के
पीछे दीवाना है, कोई रूप के पीछे दीवाना है, कोई किसी और चीज के पीछे दीवाना है—दीवानगिया अलग— अलग होंगी, लेकिन दीवानगी है।
नौकरों
ने कहा, भंते, पानी के कारण। वह भी बात सच नहीं है, क्योंकि पानी तो सदा से बहता रहा है, झगड़ा आज उठा
है। और पानी तो कल भी बहता रहेगा। तो झगडा पानी के कारण नहीं हो सकता।
इस
पर खयाल देना। जब तुम किसी बात को कारण बताओ तो खयाल देना वह असली कारण है? या कि
कारण कहीं और छिपा है? यह भी नकली कारण है। असली कारण नौकरों
को भी पता नहीं है। जिनसे झगड़े की शुरुआत हुई है, उनको भी
असली कारण पता नहीं है। इस जीवन में हम मूर्च्छित जी रहे हैं, बेहोश, नींद में चल रहे हैं। हमें कुछ भी पता नहीं
है, हम क्यों कुछ कर रहे हैं।
बुद्ध
हंसे और उन्होंने कहा,
पानी के कारण! या कि पहले कौन? तब मूल कारण
पकड में आ गया। और खयाल रखी, जब मूल कारण पकड़ में आ जाए तब
बदलाहट संभव हो जाती है। पहले कौन? पहले कौन का अर्थ है,
अहंकार मूल कारण है। क्योंकि पहले जो वही बड़ा, पहले जो वही शक्तिशाली है। पीछे जो वह छोटा। फिर भी बुद्ध ने कहा प्रधानों
से कि महाराज, एक बात पूछनी है, पानी
का कितना मूल्य है? राजा लज्जित हुए, शर्माए—अल्पमात्र,
भंते!
अब
बुद्ध के सामने झूठ एकदम बोला भी नहीं जा सकता। यही गुरु के सान्निध्य का अर्थ है।
जिसे तुम अकेले में शायद न देख पाओ, वह गुरु के सान्निध्य में सुगमता
से दिख जाएगा। जिसे तुम शायद अकेले में झुठला देते, शायद
अपने को समझा लेते, इधर—उधर की बातों में उलझा लेते, वह गुरु के सामने स्पष्ट हो जाएगा। बुद्ध की मौजूदगी में बात तो सीधी—साफ
थी। बात तो अकेले में भी सीधी—साफ थी, लेकिन अकेले में तुम
ही बचते, तब तुम उसे झुठला लेते, रंग
लेते। लेकिन बुद्ध के सामने तो उन्हें स्वीकार करना पड़ा।
लज्जित
भाव से उन्होंने कहा,
अल्पमात्र, भंते! न कुछ। कुछ मूल्य पानी का तो
है नहीं। और मनुष्यों का, बुद्ध ने कहा। बहुत मूल्य है,
अमूल्य हैं मनुष्य, मूल्य कूता नहीं जा सकता,
इतना मूल्य है मनुष्य का। तो उन्होंने कहा, फिर
सोचो, अल्पमात्र मूल्य के लिए अमूल्य को मिटाने चले हो?
यह कैसा सौदा! असार के लिए सार को गंवाते हो?
पर
हम यही कर रहे हैं। तुम्हारी चेतना तुम कहां—कहां उलझाए हो! कूड़े—करकट में! तुम
अपनी आत्मा को कहां—कहां गंवाए हो! जहा से कुछ मिलने को नहीं है, जहा से
कुछ कभी किसी को मिला नहीं। और तुम भी जानते हो। तुम्हारे भीतर भी कभी—कभी
बुद्धिमानी के क्षण झांकते हैं और तुम जानते हो कि वहा से तुम्हें भी कुछ न
मिलेगा। सिकंदर को न मिला, नेपोलियन को न मिला, अकबर को न मिला, तुम्हें कैसे मिलेगा? किसी को नहीं मिलता, मिलता ही नहीं, वहा है ही नहीं।
लेकिन
धन आदमी इकट्ठा करता है और आत्मा को गवाता है, जीवन को गंवाता है। पद पर चढ़ता चला
जाता है नसैनी लगाकर। पदों पर चढ़ता चला जाता है। इधर हाथ से जीवन खिसकने लगता है,
वहां तिजोड़ी भरती चली जाती है। एक दिन अचानक तुम पाते हो, मौत आ गयी। जीवन भी गया और जो जोड़ा था जीवन को देकर, वह भी गया।
इस
जगत से बहुत हारे हुए लोग लौटते हैं। बुरी तरह हारे हुए लोग लौटते हैं। जिन्होंने
किसी तरह का संबंध राम से नहीं जोड़ लिया, वे बुरी तरह हारे हुए लौटते हैं।
जिन्होंने किसी तरह अपने भीतर की ज्योति से संबंध नहीं जोड़ लिया, जो जागे नहीं, वे बुरी तरह हारे हुए लौटते हैं। असार
को पकड़ते और सार को छोड़ते! कंकड़—पत्थरों के लिए हीरे —जवाहरात फेंकने चले हो?
इसलिए तुम्हारे जीवन में दुख है, चिंता है,
अंधकार है।
बुद्ध
ने इस छोटी सी घटना को खूब उपयोग का बना लिया। यही बुद्धों की कला है। यह छोटी सी
बात थी, उसको एक उपदेश का आधार बना लिया। एक छोटी सी बात को बड़ा दूरगामी इशारा बना
लिया, तीर बना लिया।
कहा, यही
तुम्हारे जीवन में दुख, चिंता और अंधकार का कारण है। मुझे
देखो, मेरे महासुख को देखो यही तो सारे सदगुरु कहते रहे हैं,
मुझे देखो, मेरे महासुख को देखो।
क्या है इसका राज?
यही कि मैं वैररहित विहरता हूं।
यही कि मेरी
किसी से शत्रुता न रही।
यही कि मैं सार को सार
और असार को असार देखता हूं।
इसलिए
कोई चिंता न रही,
कोई पीड़ा न रही, कोई झगड़ा न रहा, कोई वैमनस्य न रहा।
इस
बात को एक और गहरे तल पर देखना। जब बुद्ध कहते हैं कि मैं वैररहित विहरता हूं? तो
तुम्हारे मन में इतना ही खयाल आएगा कि वह किसी से शत्रुता नहीं रखते। इसके एक भीतर
और छिपा हुआ खयाल है—वह शत्रुता ही नहीं रखते। दूसरे की तो बात ही छोड़ दो, अपने भीतर भी अपने से भी किसी तरह की शत्रुता नहीं रखते। अक्सर ऐसा होता
है कि तुम अपने से तो शत्रुता रखते रहते हो, दूसरों से छोड़
देते हो। जैसे एक आदमी सब छोड़ देता है, वह कहता है, मेरी किसी से कोई शत्रुता नहीं है, अब किसी से
मुकदमा न लडूंगा, लेकिन अपने से लड़ाई जारी रखता है। अभी
क्रोध है, इससे लड़ना है, अभी मोह है,
इससे लड़ना है; अभी लोभ है, इससे लड़ना है, अभी अहंकार है, इससे
लड़ना है, तो शत्रुता तो जारी है, दुश्मन
बदल गए।
बुद्ध
यह नहीं कहते हैं कि मेरे बाहर दुश्मन नहीं हैं। बुद्ध कहते हैं, मैं
वैररहित विहरता हूं —इस बात को समझना—मैं निवैंर हो गया हूं। दूसरों से तो वैर गिर
ही गया, अपने से भी गिर गया, वैर ही गिर
गया। ऐसी जो निवैंर दशा है, वही महासुख की दशा है।
पहले
तो दूसरों से वैर छोड़ना है,
ठीक है। मगर यह मत सोचना कि दूसरों से वैर छोड्कर वैर अपने से कर
लेना है। एक आदमी दूसरे को भूखा मारने में मजा लेता है और एक आदमी उपवास करने में
मजा लेने लगता है, इन दोनों में बहुत भेद नहीं है। जो दूसरे
को भूखा मारकर सता रहा है उसका मजा, और जो अपने को भूखा
मारकर सता रहा है उसके मजे में कुछ बहुत फर्क नहीं है। थोड़ा सा फर्क है, वह फर्क बहुत खतरनाक भी है। वह फर्क इतना ही है कि दूसरा तो भाग भी सकता
था, दूसरा तो लड़ भी सकता था', दूसरा तो
कोई उपाय भी खोज लेता बचने का, लेकिन तुम तो बिलकुल निरीह हो
गए। तुम्हीं अपने को भूखा मार रहे हो तो कैसे बचोगे, किससे
बचोगे, कहां जाओगे बचकर? तो तुमने तो
बड़ा असहाय शत्रु चुन लिया।
एक
आदमी दूसरों को पीड़ा देने में रस लेता है. मनोवैज्ञानिक पागलों की दो कोटियां करते
हैं। एक को वे कहते हैं सैडिस्ट और एक को कहते हैं मैसोचिस्ट। एक को वे कहते हैं
स्वदुखवादी, वह खुद ही को सताता है, मैसोचिस्ट। और एक को वे कहते
हैं परदुखवादी, वह दूसरे को सताता है, सैडिस्ट।
तुम
जिनको साधु —संत कहते हो,
उनमें से अधिक, निन्यानबे प्रतिशत तो
मैसोचिस्ट हैं। वे वस्तुत: साधु—संन्यासी नहीं हैं। साधु —संन्यासी तो कहेगा,
देखो, मेरे महासुख को देखो। साधु—संन्यासी का
तो सारा वैर गिर गया। दूसरे से तो गिरा ही गिरा, अपने से भी
गिर गया। वैर बचा ही नहीं। निवैंर— भाव की दशा संन्यास है। तब उन्होंने ये तीन
गाथाएं कहीं—
'वैरियों के बीच अवैरी होकर, अहो, हम सुखपूर्वक जीवन बिता रहे हैं। '
देखना, इन
सूत्रों की वाका रचना भी स्पष्ट करती है जो मैं कह रहा हूं। पहले बुद्ध कहते हैं,
'वैरियों के बीच अवैरी होकर, अहो, हम सुखपूर्वक जीवन बिता रहे हैं। ' फिर कहते हैं,
'वैरी मनुष्यों के बीच अवैरी होकर हम विहार करते हैं। '
इसलिए
बुद्ध यह कह रहे हैं कि जब तक तुम अपने भीतर अवैर को उपलब्ध नहीं हुए, तब तक तुम
बाहर भी अवैर को उपलब्ध नहीं हो सकते। अगर भीतर वैर. बचा है, किसी के भी प्रति, अपने ही प्रति सही, तो भी तुम वैर— भाव से जी रहे हो। इसलिए दुबारा बात कही है—
सुसुखं वत!
'देखो, अहो, हम कैसे सुख में जी
रहे हैं।'
जीवाम वेरिनेसु अवेरिनो।
'वैरियों के बीच अवैरी होकर.......। '
कौन
वैरी? जिनको तुम काम कहते, लोभ कहते, मोह कहते, मद—मत्सर कहते, जिनको
शास्त्र तुम्हारे वैरी कहते हैं— भीतर के शत्रु।
'वैरियों के बीच अवैरी होकर..। '
इन
सारे शत्रुओं के बीच हम अवैरी होकर जी रहे हैं, इनसे भी वैर न रहा। ये भी रहें,
इनकी मर्जी! इनके प्रति भी तटस्थ— भाव हो गया, इनके प्रति भी उपेक्षा हो गयी। रहो तो रहो, जाओ तो
जाओ। जैसी तुम्हारी मर्जी!
और
तुम हैरान होओगे,
जिस क्षण ऐसी दशा आती है उपेक्षा की, उसी क्षण
ये वैरी चले जाते हैं। फिर ये क्षणभर भी नहीं रुकते। क्योंकि तुम्हारी उपेक्षा में
तो ये बच ही नहीं सकते, तुम्हारी उपेक्षा की अग्नि इन्हें
जलाकर भस्म कर देती है।
हा, अगर तुमने
रस लिया—पहले रस लिया था कामवासना को फैलाने में, फिर रस
लिया कामवासना को दबाने में—तो ये वैरी बने रहेंगे। ये जाएंगे नहीं, तुम्हारा रस कायम है। दुश्मनी बन गयी अब—पहले मैत्री थी—लेकिन संबंध कायम
है। मित्रता का संबंध होता है, शत्रुता का संबंध होता है।
तुमने
कभी खयाल किया,
तुम्हारा शत्रु मर जाता है तो भी कुछ—कुछ खाली हो जाता है भीतर।
जैसे अपना कोई मर गया, अब इसके बिना क्या करेंगे?
मैं
एक आदमी को जानता हूं उनका मुकदमा एक पड़ोसी से कोई चालीस साल से—बस मुकदमेबाजी
मुकदमेबाजी चलती थी। उनका सारा काम ही अदालत, रस ही अदालत। पुराने मालगुजार थे,
पैसे की कोई तकलीफ न थी। अगर एक बात में हारे तो दूसरा मुकदमा। कोई
दस—पंद्रह मुकदमे वे पडोसी पर चलाते थे। और पड़ोसी भी वैसा ही जिद्दी था, वह भी मुकदमे पर मुकदमा चलाए जाता था।
फिर
पड़ोसी मर गया। हार्ट अटैक से मर गया। तो मैं उस पड़ोसी के घर भी बैठने गया और उसके
बाद मैं उनके जन्मजात शत्रु के घर भी मिलने गया। तो वह कहने लगे, आप,
वह मर गए तो मेरे घर क्यों आए? मैंने कहा,
मैं यह देखने आया कि आपकी क्या दशा है? क्योंकि
अब आप क्या करोगे? वह बहुत चौंके। वह कहने लगे कि यह तो बात
बड़ी पते की कही, चिंतित तो मैं भी हूं। इसकी वजह से तो चालीस
साल मजे में बीते, अब वह सब मजा खतम हुआ। यही तो हमारा रस था,
यह दांव पर दाव लगाना। और वह भी एक कारीगर था, कहने लगे। उसने भी हमें काफी पछाड़ा। ऐसा नहीं कि हमीं—हमीं जीतते थे,
वह भी काफी जीतता था। उसके बिना जरूर हम उदास तो हुए। उसके बिना कुछ
खाली तो हो गया।
और
छह महीने बाद वह सज्जन भी मर गए। तो मुझे कुछ ऐसा लगा कि अगर उनका पड़ोसी जिंदा
रहता तो वह कुछ देर और जिंदा रहते। पड़ोसी मर गया तो अब रहने में कोई उनका अर्थ ही
न रहा। एक ही तो प्रयोजन था, एक ही लक्ष्य था, चालीस
साल उसी पर उन्होंने दाव पर लगाए थे, वह आदमी ही चला गया तो
अब रहने का क्या मतलब है!
तुम
खयाल रखना, तुम मित्रों में ही तो नियोजन नहीं करते अपनी ऊर्जा का, अपने शत्रुओं में भी करते हो। तुम्हारे मित्र मरेंगे तो तुम निश्चित कुछ
खोओगे, तुम्हारे शत्रु मरेंगे तो भी तुम कुछ खोओगे। दोनों से
संबंध बन जाता है।
'वैरियों के बीच अवैरी होकर..। '
संबंध
ही न बनाने का नाम अवैर है। अब यहां थोड़ा फर्क खयाल लेना। यहां जीसस की और बुद्ध
की शिक्षाओं में थोड़ा फर्क है। जीसस और महावीर की शिक्षाओं में भी वही फर्क है।
जीसस
कहते हैं, शत्रु को प्रेम करो। बुद्ध और महावीर कहते हैं, शत्रु
से शत्रुता न रखो, बस। प्रेम की बात नहीं उठाते। क्योंकि
प्रेम तो फिर संबंध हो गया। एक संबंध था घृणा का, उसे बदलकर
तुमने प्रेम का बना लिया, लेकिन संबंध तो जारी रहा। बुद्ध और
महावीर, दोनों की आकांक्षा है, तुम
असंग हो जाओ, असंबंधित हो जाओ।
यह
शिक्षा प्रेम की शिक्षा से भी ऊपर जाती है, क्योंकि जिससे प्रेम है, उससे कभी भी घृणा बन सकती है। और जिससे घृणा है, उससे
कभी भी प्रेम बन सकता है। वे एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। तुम असंबंधित हो जाओ।
असंग हो जाओ, निसंग हो जाओ। कोई संबंध न रह जाए। इस दशा का
नाम अवैर है। इसको बुद्ध मैत्री कह सकते थे, लेकिन मैत्री
उन्होंने कहा नहीं।
उन्होंने
कहा, 'वैरियों के बीच में अवैरी होकर, अहो, हम सुखपूर्वक जीवन बिता रहे हैं। '
बुद्ध
वहा खड़े हैं उनके बीच,
और वह कहते हैं, जरा देखो मेरी तरफ, इस महासुख की वर्षा को देखो! हम सुखी हैं, महासुख
उतरा है, और एक छोटी सी बात से उतरा कि हमने अवैर साध लिया
है। इतने से सूत्र से स्वर्ग उतर आया है।
क्या आकाश उतर आया है
दूबों के दरबार में!
नीली भूमि हरी हो आयी
इस किरणों के ज्वार में
ऊंचाई यों फिसल पड़ी है
नीचाई के प्यार में
क्या आकाश उतर आया है
दूबों के दरबार में!
जैसे
आकाश से वर्षा होती और दूब हरी हो आती। वर्षा हमें दिखायी पड़ती, दूब का
हरा होना भी दिखायी पड़ता है। बुद्धपुरुषों का हरा होना तो दिखायी पड़ता है, लेकिन जो अमृत की वर्षा उन पर हुई हैं, वह हमें
दिखायी नहीं पड़ती। मगर उनकी हरियाली से ही तुम जान लेना कि वर्षा हुई है, कोई अदृश्य वर्षा है। उसी अदृश्य को वे कहते हैं—सुसुखं वत!
यह
शब्द बड़ा अच्छा है। इसका अर्थ होता है, सिर्फ सुखपूर्वक नहीं, सुसुखं वत! सुख जैसे होकर हम विचर रहे हैं, महासुख
होकर हम विचर रहे हैं। सुखी होकर नहीं, सुख होकर विचर रहे
हैं। जरा हमारी तरफ देखो—
'वैरी मनुष्यों के बीच हम अवैरी होकर विहार करते हैं। '
तो
पहले तो भीतर के शत्रुओं की बात कही कि उनके बीच हमने निवैंर साध लिया, फिर बाहर
की बात कही कि भीतर जो निवैंर सध गया, अब वह बाहर भी फैल गया
है।
'आतुरों के बीच अनातुर होकर, अहो, हम सुखपूर्वक जीवन बिता रहे हैं। आतुर मनुष्यों के बीच अनातुर होकर हम
विहार करते हैं। '
वही
बात खयाल रखना— भीतर और बाहर। पहला सूत्र भीतर के लिए है। भीतर पहले, फिर बाहर।
क्योंकि जो भीतर घटता है, वही बाहर घटता है। तो ही सच्चा है।
पहले बाहर घटे, फिर भीतर घटे तो खतरा है। पाखंड भी हो सकता
है, जबरदस्ती भी हो सकती है।
'आतुरों के बीच अनातुर होकर..। '
कितनी
प्यासे हैं तुम्हारे भीतर,
कितनी भूखे हैं, कितनी क्षुधाएं हैं। कामवासना
कुछ मांगती, स्वाद कुछ मांगता। आख कुछ मांगती, कान कुछ मांगते, नाक कुछ मांगती, कितनी मांगें हैं तुम्हारे भीतर! कितने भिखमंगे हैं तुम्हारे भीतर!
'हम आतुरों के बीच अनातुर होकर.। '
इन
किसी भी मांग और क्षुधा में हम संयुक्त नहीं, अलग खड़े हो गए हैं। यही संन्यास
है। संसार से भाग जाना नहीं, इन प्यासों के बीच प्यास से
मुक्त होकर खड़े हो जाना।
सुसुखं वत! जीवाम
आतुरेसु अनातुरा ।
आतुरेसु मनुस्सेसु विहराम अनातुरा !'
'और आतुर मनुष्यों के बीच अनातुर होकर हम विहार करते हैं। '
चारों
तरफ आतुर मनुष्य हैं,
सावधान! भीतर आतुर वासनाएं हैं, बाहर आतुर
मनुष्य हैं। अगर खूब जागे नहीं तो फंस जाओगे किसी न किसी प्यास में, किसी न किसी उलझन में। और हम सब नकल से जीते हैं। तुम्हारा पड़ोसी बड़ा मकान
बना लिया तो तुम बड़ा मकान बनाने में लग जाते हो। फिर चाहे सब दाव पर क्यों न लग
जाए! फिर चाहे कौड़ी—कौड़ी हालत खराब क्यों न हो जाए! लेकिन पड़ोसी ने अगर कुछ कर
दिया है तो तुम्हें भी करके दिखाना है। हम सब नकल से जीते हैं। पड़ोसी ने एक तरह के
कपड़े पहन लिए हैं तो तुम्हें एक तरह के कपड़े पहनने हैं। उसी तरह के कपड़े चाहिए,
उससे बेहतर कपड़े चाहिए।
हम
जीते हैं नकल से और नकल बहुत भटकाती है। जिसकी हमें जरूरत नहीं है, उसको भी
इकट्ठा कर लेते हैं। तुम जरा कभी अपने भीतर, अपने घर में गौर
करके देखना, तुमने क्या—क्या इकट्ठा कर लिया है! इसमें ऐसी
कौन—कौन सी चीजें थीं जिनके बिना चल सकता था?
तुम
चौंकोगे। इसमें बहुत सी चीजें न होतीं तो चल जाता और शायद ज्यादा सुविधा से चलता।
क्योंकि ज्यादा जगह होती,
चलने—फिरने, हिलने—डुलने के लिए थोड़ा अवकाश
होता। चिंता कम होती, अशांति कम होती। और जहां चिंता नहीं है,
वहां सुख का पदार्पण होता है।
'आसक्तों के बीच अनासक्त होकर, अहो, सुखपूर्वक हम जीवन बिता रहे हैं। आसक्त मनुष्यों के बीच अनासक्त होकर हम
विहार करते हैं। '
सुसुखं वक्त! जीवाम उस्सेकेसु
अनुस्तुका 1
उस्सेकेसु मनुस्सेसु विहराम अनुस्तुका
।।
ये
पहले तीन सूत्र।
मृत्यु
तो एक झूठ है फिर चौथा सूत्र; उसकी
परिस्थिति—
एक दिन भगवान
पंचशाला नामक ब्राह्मणों के गांव में भिक्षाटन के लिए गए। मार ने— शैतान ने— पहले
ही ग्रामवासियों में आवेश कर ऐसा किया कि भगवान को किसी ने कलछी मात्र भी भिक्षा न
दी। फिर जब भगवान खाली पात्र गांव के बाहर आने लगे तब मार आया और बोला क्या श्रमण!
कुछ भी भिक्षा नहीं मिली? बुद्ध ने कहा नहीं तू सफल रहा और मैं भी सफल
हूं मार समझा नहीं। बोला यह कैसे? या तो मैं सफल या आप सफल।
दोनों साथ— साथ कैसे सफल हो सकते हैं! यह तो आप बड़ी तर्कहीन बात कर रहे हैं। बुद्ध
ने हंसकर कहा नहीं तर्कहीन नहीं है। तू सफल हुआ लोगों को भ्रष्ट करने में भ्रमित
करने में मैं सफल हुआ अप्रभावित रहने में। और यह भोजन से भी ज्यादा पुष्टिदायी है।
मार
ने एक जाल और फेंका। मार ने कहा तो भंते फिर प्रवेश करें शायद भिक्षा मिल ही जाए।
दिनभर भूखे रहने में क्या सार! परेशानी होगी पीड़ा होगी दिनभर के थके— मांदे आप दूर
यात्रा करके आए हैं शायद कोई दया खा ही जाए। मार ने सोचा कि इस तरह शायद बुद्ध
दुबारा अपमानित हो क्योंकि गांव के लोगों पर तो उसे भरोसा था। शायद बुद्ध दुबारा
अपमानित हों तो क्रोधित हो जाएं।
लेकिन
बुद्ध ने कहा जो बात गयी सो गयी। जो नहीं मिला वह मिलने को नहीं था। जो मिला वह
बहुत है। कुछ लौटकर जाने की बात नहीं है। बुद्ध कहीं लौटकर जाते भी नहीं। बुद्ध ने
कहा बुद्ध लौटकर देखते भी नहीं पीछे। फिर आज का सुअवसर खो देने जैसा नहीं है भोजन
तो मिलता है मिलता रहता है। आज तो हम जैसे आभास्वर लोक के ब्राह्मण आभास्वर लोक के
देवता प्रीतिसुख से जीते हैं वैसे ही जीएंगे
यह
बौद्धों की एक धारणा है कि एक ऐसा लोक है, स्वर्ग, जहा
ब्रह्मज्ञान को उपलब्ध व्यक्ति—ब्राह्मण या ब्रह्मा जो भी नाम देना चाहो, उस लोक का नाम है, आभास्वर। वहा कोई स्थूल भोजन नहीं
करता। वहां लोग प्रेम का ही भोजन करते हैं। तुम कहते हो न कभी—कभी, प्रीतिभोज दिया; वहां प्रीतिभोज ही चलता है। तुम तो
कहते ही भर हो प्रीतिभोज, खिलाते तो फिर यही स्थूल चीजें हो!
लेकिन उस लोक में प्रीतिभोज ही चलता है। प्रेम ही वहां एकमात्र भोजन है। वही
एकमात्र पोषण है।
तो
बुद्ध ने कहा आज हमें भी ऐसा सुअवसर मिला है न चूकेंगे मार! आज हम उस लोक के
ब्रह्माओं की भांति प्रीतिसुख में जीएंगे। आज प्रीतिभोज लेगे और तब उन्होंने यह
गाथा कही—
सुसुख वत! जीवामयेसं
नो नत्थि किन्चिना ।
पीतिभक्सा भविस्साम देवा आभस्सरा यथा
।।
'जिनके पास कुछ भी नहीं है, अहो, वे कैसा सुख में जीवन बिता रहे हैं। आभास्वर के देवताओं की भांति हम भी आज
प्रीतिभोजी होंगे।'
प्रीतिभक्खा—आज
प्रीति को ही खाएंगे।
इसके
पहले कि इस छोटी सी कथा की गहराई में हम उतरें, एक बात समझ लेनी जरूरी है। आधुनिक
मनोविज्ञान इस सत्य को पुन: खोजा है कि जब मां बच्चे को भोजन देती है, तो सिर्फ भोजन ही नहीं देती, प्रीतिभोज भी देती है।
एक तो स्थूल भोजन है, जो उसके स्तन से बहता है—दूध—और एक
उसका प्रेम है, जो अदृश्य बहता है।
मनोवैज्ञानिक
कहते हैं, अगर बच्चे को सिर्फ दूध ही दिया जाए और मां प्रेम न दे, तो भी बच्चा सूखने लगता है। पूरा भोजन दिया जाए शारीरिक, लेकिन प्रेम न दिया जाए—जैसे कोई नर्स बच्चे को दूध पिला दे, कोई दाई तुम घर में रख लो, दूध पिला दे—तो बच्चे में
वैसी प्रफुल्लता नहीं होती, वैसा उल्लास नहीं होता, वैसा जीवन नहीं होता, वैसे फूल नहीं खिलते। और कुछ बच्चे
के जीवन में हमेशा खाली रहेगा। क्योंकि मां दूध तो देती थी, वह
तो केवल स्थूल था, उस स्थूल के साथ—साथ लगा—जुड़ा छाया की
भाति सूक्ष्म भी बहता था, वह प्रेम है।
प्रेम
और भोजन बड़े गहरे जुड़े हैं। इसीलिए तो जब तुम्हारा किसी से प्रेम होता है तो तुम
उसे भोजन के लिए घर बुलाते हो। क्योंकि बिना भोजन खिलाए प्रेम का पता कैसे चलेगा।
जो तुम्हें बहुत प्रेम करता है, वह तुम्हारे लिए भोजन बनाता है। जब कोई स्त्री
अपने प्रेमी के लिए भोजन बनाती है, तो सिर्फ भोजन ही नहीं
होता, उसमें प्रीति भी होती है। होटल के भोजन में प्रीति तो
नहीं हो सकती। तो शरीर तो तृप्त हो जाएगा, लेकिन कहीं प्राण
खाली—खाली रह जाएंगे।
मां
जब अपने बेटे के लिए भोजन बनाती है तो चाहे भोजन रूखा—सूखा ही हो, फिर भी
उसमें एक स्वाद है। वह प्रीतिभोज है। कहीं किसी ने कितना ही अच्छा भोजन खिलाया हो,
लेकिन खिलाने का मन न रहा हो, बेमन से खिलाया
हो, तो पचेगा नहीं। पचा भी तो शरीर से गहरा न जाएगा।
इस
देश में तो हमने हजारों साल पहले इस बात का बोध कर लिया था कि प्रेम कहीं
अनिवार्यरूप से भोजन का हिस्सा है। और इसलिए जहां प्रेम न हो वहां भोजन स्वीकार न
करना। अगर तुम्हारी पत्नी क्रोध में भोजन बना रही हो तो उस भोजन को स्वीकार मत
करना। अगर तुम भोजन बना रहे हो क्रोध में तो मत बनाना, क्योंकि
क्रोध में जब भोजन बनाया जाता है तो विषाक्त हो जाता है। आज परिणाम नहीं होगा,
कल परिणाम होगा। कल नहीं होगा, परसों होगा,
जहर इकट्ठा होगा।
जब
तुम भोजन करने बैठो,
अगर क्रोध में हो तो मत करना भोजन। क्योंकि जब तुम प्रेम से भरे
होते हो, तभी बाहर से बहते प्रेम को भी तुम भीतर ले जाने में
समर्थ होते हो। प्रेम से प्रेम का तालमेल होता है, संयोग
होता है। प्रेम की तरंग प्रेम की तरंग को भीतर ले जाती है। अगर तुम क्रोधित बैठे
भोजन कर रहे हो तो तुम भोजन तो कर लोगे, लेकिन प्रेम की तरंग
भीतर नहीं जा सकेगी। और फिर क्रोध में जो तुम भोजन करोगे वह भी विषाक्त हो जाएगा।
इसलिए
इस देश में तो हमने बड़े नियम बनाए थे कि क्रोध में कोई भोजन न करे, क्रोध में
बनाया भोजन न करे। किसके हाथ का बनाया भोजन करे, किसके हाथ
का बनाया भोजन न करे। किस घड़ी में कोई भोजन बनाए।
इस
देश में तो चार दिन के लिए स्त्रियां—जब उनका मासिक— धर्म हो—तो भोजन के लिए मना
कर दिया था। अब संभव है कि भविष्य फिर वितान के आधार से मना करे। क्योंकि जब चार
दिन स्त्रियों का मासिक— धर्म होता है तो उनके शरीर में इतने रूपांतरण होते हैं, इतना
हार्मोनल अंतर होता है कि उनके भीतर सब प्रीतिसुख सूख जाता है—इतनी पीड़ा होती है।
उस पीड़ा और दर्द में आशा नहीं है कि उनका प्रेम बह सके, इसलिए
उस घडी में भोजन बनाना ठीक नहीं है। उस घड़ी में बनाया गया भोजन विषाक्त हो जाएगा।
इस
पर तो प्रयोग भी चले हैं। इंग्लैंड की एक प्रयोगशाला डिलाबार में उन्होंने प्रयोग
किए हैं। अगर जिस स्त्री को मासिक— धर्म के समय बहुत पीड़ा होती है, पेट में
बहुत दर्द होता है, उस समय अगर वह गुलाब का फूल अपने हाथ में
ले ले, तो दुगुनी गति से गुलाब का फूल सूख जाता है—दुगुनी
गति से। वही स्त्री जब मासिक— धर्म में न हो, तब गुलाब के
फूल को हाथ में लेती है, तो अगर उसको सूखने में घंटाभर लगे,
मुर्झाने में घटाभर लगे, तो मासिक— धर्म के
समय आधा घंटे में मुर्झा जाता है। तो गुलाब के फूल तक पर तरंगें पहुंच जाती हैं।
तो भोजन में भी तरंगें उतर जाएंगी।
यह
जो हम हैं, केवल शरीर ही नहीं हैं, आत्मा भी हैं। तो आत्मा का
भी कुछ भोजन होगा, जैसे शरीर का कुछ भोजन है। इसीलिए तो
प्रेम के लिए इतनी लालसा होती है। आदमी भूखा रह ले, लेकिन
प्रेम के बिना नहीं रहा जाता। आदमी गरीब रह ले, लेकिन प्रेम
के बिना नहीं रहा जाता। बिना धन के रह ले, निर्धन रह ले,
लेकिन बिना प्रेम के नहीं रहा जाता। प्रेम की एक गहन प्यास है। वह
प्यास इतना ही बता रही है कि आत्मा कहीं अतृप्त है। आत्मा को जो मिलना था, नहीं मिला, आत्मा का भोजन नहीं मिला।
तो
यह बौद्धों की जो धारणा है,
बड़ी महत्वपूर्ण है। एक ऐसा देवलोक— देवलोक का मतलब ही होता है,
वहां जहा शरीर नहीं रहा। सिर्फ आत्माएं हैं। यह कल्पना भी हो तो भी
महत्वपूर्ण है, समझने जैसी है। तुम्हारे जीवन में दृष्टि
बनेगी। इस बात को कोई ऐसा मत मान लेना कि ऐसा कहीं कोई स्वर्गलोक है या होना चाहिए,
यह कोई ऐतिहासिक तथ्य नहीं है। यह तो सिर्फ प्रतीक है। अगर कहीं कोई
ऐसा लोक हो जहां शरीर तो गिर गए हैं और सिर्फ आत्माओं का वास हो, तो वहां भोजन की तो कोई जरूरत न होगी, वहां प्रेम की
जरूरत होगी। प्रीतिभक्सा, वहां तो लोग प्रीतिभोज करेंगे।
वहां प्रेम ही प्रेम बांटेंगे, परोसेंगे। बुलाएंगे और प्रेम
देंगे और प्रेम लेंगे। वहां प्रेम का लेन—देन चलेगा। वहां खूब प्रेम का
आदान—प्रदान होगा। प्रीतिभक्सा।
तो
बुद्ध ने कहा कि आज ऐसा सुअवसर मिला, मार, हम भी
प्रीतिभक्सा होंगे। आज तो प्रेम में ही जीएंगे।
अब
हम इस कहानी को समझें—
एक दिन भगवान
पंचशाला नामक ब्राह्मणों के गांव में भिक्षाटन के लिए गए। ब्राह्मणों का गांव, यह खयाल
में रखना। खतरनाक गांव है। सब पंडित—ज्ञानी हैं। जब भी बुद्धपुरुष हुए हैं तो
पंडितों ने उन्हें इनकार किया है। जिन्होंने जीसस को सूली दी, वे पंडित थे, ब्राह्मण थे, पुरोहित
थे। जेरूसलम के बड़े मंदिर का प्रधान पुरोहित उसमें सम्मिलित था। पुरोहितों की
कौंसिल ने निर्णय किया था। जितने बड़े पंडित थे यहूदियों के, सबने
यह निर्णय दिया था कि यह आदमी मार डालने योग्य है, यह आदमी
खतरनाक है।
पंडित
ज्ञान के पक्ष में नहीं होता। यह थोड़ा समझना कि क्या बात है! होना तो चाहिए पंडित
को ज्ञान के पक्ष में,
लेकिन पंडित ज्ञान के पक्ष में नहीं होता। क्यों? क्योंकि अगर बुद्ध सही हैं तो फिर पंडित का सारा ज्ञान थोथा सिद्ध हो जाता
है। वह तो शास्त्र से पाया, वह तो किताब से पाया। और बुद्ध
उसे अपने भीतर जगाए हैं, अपने भीतर उठाए हैं। बुद्ध का
शास्त्र उनकी चेतना में है और पंडित का शास्त्र तो बाहर है, किताबी
है। इस किताबी ज्ञान को ही वह अब तक ज्ञान मानता रहा है।
तो
जब असली ज्ञान सामने खड़ा होगा तो उसका ज्ञान एकदम फीका पड़ जाता है। असली सिक्के को
देखकर नकली सिक्का अगर नाराज होता हो तो आश्चर्य तो नहीं। और फिर नकली सिक्के बहुत
हैं। इसलिए नकली सिक्के अगर इकट्ठे हो जाते हों असली सिक्के के खिलाफ, तो भी कुछ
आश्चर्य नहीं। और सभी नकली सिक्के अगर मिलकर असली सिक्के की हत्या कर देते हों,
तो भी कुछ आश्चर्य नहीं।
तो
पहली बात—पंचशाला नामक ब्राह्मणों का गांव। जिसमें ब्राह्मण ही ब्राह्मण बसते थे।
अगर कोई एकाध भी ऐसा आदमी होता जो पंडित न होता तो शायद दया खा जाता। पंडित से
क्या दया की आशा! और दूसरे मजे की बात है—जीसस ने कहा है किं शैतान भी शास्त्रों
के उद्धरण देता है। तो मार ने, जो कि बौद्धों की शैतान की धारणा है, अगर पंडितों को राजी कर लिया हो बुद्ध के खिलाफ, तो
कुछ आश्चर्य नहीं, क्योंकि शैतान खुद भी महापंडित है।
तुम्हें
शायद पता न हो,
ईसाइयत की यही धारणा है—शैतान देवता है, लेकिन
उसे स्वर्ग से निकाल दिया गया है, क्योंकि वह ईश्वर से भी
वाद—विवाद करने को उत्सुक था। पंडित रहा होगा, ब्राह्मण रहा
होगा। तो शैतान बातें तो बड़ी शास्त्रीय बोलता है। इसलिए शास्त्र जानने वालों से
उसका तालमेल हो जाता है। इसलिए सारे पुरोहित और पंडित शैतान की सेवा में लग जाते
हैं। मंदिर बनते तो भगवान के नाम पर हैं, लेकिन करते शैतान
की सेवा हैं। पुरोहित पूजा का थाल तो सजाते हैं भगवान के लिए, लेकिन उतरती है आरती शैतान की।
तो
कथा कहती कि भिक्षाटन के लिए ब्राह्मणों के इस गांव में गए। मार ने पहले ही
ग्रामवासियों में आवेश कर ऐसा किया कि भगवान को किसी ने कलछी मात्र भी भिक्षा न
दी। ऐसी दुर्घटनाएं रोज घटती रही हैं। फिर हजारों साल तक हम बुद्धों के लिए रोते
हैं, आसू बहाते हैं; और कभी हम ऐसा भी करते हैं कि एक
कलछी भेंट भी, भिक्षा भी उनको नहीं देते। कभी हमसे सिर्फ
अपमान ही मिलता है उनको, और फिर हम सदियों तक रोते और सम्मान
करते। उस सम्मान से भी वह अपमान पोंछा नहीं जा सकता। क्योंकि वह अपमान बुद्धों का
अपमान नहीं, अंततः अपना ही अपमान है। क्योंकि वह अपने भीतर
ही बुद्धत्व को अस्वीकार करना है। वह अपने भीतर जागने की संभावना को इनकार करना
है।
फिर
जब भगवान खाली पात्र गांव से बाहर आने लगे तब मार आया होगा पूछने कि कहो, कैसी रही!
क्या श्रमण! कुछ भी भिक्षा नहीं मिली? इनको तुम भीतर के
प्रतीक समझो। ऐसा कोई बाहर शैतान आकर खड़ा हो गया होगा, ऐसा
नहीं है। मन के ही शैतान ने भीतर कहा होगा कि अरे! तुमने इतना ज्ञान पाया है,
इतनी समाधि लगायी, इतना बुद्धत्व पाया और इन
दुष्टों ने भीख भी न दी। इन पापियों ने भीख भी न दी। यह कोई बाहर खड़ा हो गया शैतान,
ऐसा नहीं है। यह शैतान सबके भीतर सोया पड़ा है। यह तुमसे भी रोज—रोज
इसकी मुलाकात होती है। शैतान ने कहा होगा, अभिशाप दे दो कि
नष्ट हो जाए यह गांव। ये आदमी आदमी कहलाने योग्य नहीं। भड़काया होगा।
यही
शैतान उन आदमियों के भीतर बैठा है, इसी शैतान ने उन्हें भड़काया है।
इसी शैतान ने उनसे कहा है, यह बुद्ध आ रहा है, यह अपने को ढोंगी समझता है कि हम ज्ञान को उपलब्ध हो गए हैं, कि हम भगवान हो गए हैं। यह पाखंडी है। एक तो क्षत्रिय है। पहली तो बात
ब्राह्मण नहीं है। दूसरी बात, वेद को नहीं मानता है। तीसरी
बात, विधि—विधान को नहीं मानता है। चौथी बात, यह घोषणा करता है कि मैंने पा लिया जो कभी किसी ने नहीं पाया, अपूर्व समाधि मुझे उपलब्ध हुई है। यह सब अहंकार है। यह सब व्यर्थ की बातें
हैं। यह लोगों को भरमाता है, भटकाता है, धर्म से भ्रष्ट करता है। ऐसा भीतर के शैतान ने गाव के लोगों को कहा होगा।
इसको भिक्षा भी मत देना, इसको भिक्षा देना पाप है, क्योंकि तुम्हारी भिक्षा से जीएगा और लोगों को भटकाका, भरमाएगा, तो तुम भी साझीदार हुए। इसको देना ही मत।
इसको साफ पता चल जाए कि इसका यहां कोई स्वीकार नहीं है। इसका अपमान पूर्ण हो।
और
यही शैतान बुद्ध के भीतर बोला होगा। मन शैतान है। मन गलत की तरफ ले जाने की
चेष्टाएं करता है। मन संसार की तरफ ले जाने की आकांक्षाओं को जगाता है। तो शैतान
ने कहा, क्या श्रमण! कुछ भी भिक्षा नहीं मिली? अरे तुम,
तुम जो कि बुद्धत्व को उपलब्ध हो गए और तुम्हें भीख भी नहीं मिल
रही! यह बात क्या है!
बुद्ध
ने कहा, नहीं, नहीं मिली भीख। तू भी सफल रहा और मैं भी सफल
हूं। मार समझा नहीं। मन तर्क तो समझता है, तर्क के पार नहीं
समझता। शैतान तर्क तो समझ लेता है, लेकिन तर्कातीत शैतान की
सीमा के बाहर है। इसीलिए तो सभी धर्म कहते हैं, जब तक तुम
तर्कातीत न हो जाओगे तब तक मन के पार न हो सकोगे। श्रद्धा का अर्थ है, तर्कातीत हो जाना।
बुद्ध
ने जब यह कहा कि मैं भी सफल, तू भी सफल, तू भी खुश हो,
हम भी खुश हैं। शैतान की बात में कुछ किसी तरह का व्याघात बुद्ध को
पैदा न हुआ, तो शैतान पूछने लगा, यह
कैसे? या तो मैं सफल या आप सफल। मन तो सदा द्वंद्व में मानता
है। या तो मैं सफल या आप सफल, या तो हम जीते या तुम जीते। मन
ऐसा तो कभी मानता ही नहीं कि हम दोनों जीत जाएं। लेकिन कुछ ऐसी घड़ियां हैं जब
दोनों जीत जाते हैं। समझ हो तो हार होती ही नहीं। हार में भी हार नहीं होती। इसी
समझ का सूत्र है इस कथा में।
बुद्ध
ने कहा, नहीं, यह बात तर्कहीन नहीं, तर्कातीत
भला हो। मगर तर्क स्पष्ट है—तू सफल हुआ लोगों को भ्रष्ट करने में, भ्रमित करने में। वही तेरा काम है। तेरी सफलता पूरी रही। तू खुश हो,
तू जा नाच, गा, आनंद कर।
तू सफल हुआ। लोगों ने तेरी मान ली। और मैं सफल हुआ अप्रभावित रहने में। अपमान भारी
था। द्वार—द्वार भीख मांगने गया और दो दाने भिक्षापात्र में न पड़े।
तुम
जरा सोचो, एक सम्राट का बेटा, जिसके पास सब था, जो हजारों —लाखों भिक्षुओं को भोजन रोज करा सकता था, वह आज भिक्षापात्र लेकर भिखारियों के गांव में गया है—ब्राह्मण यानी
भिखारी—सम्राट भिखारियों के सामने भीख मांगने गया और भिखारियों ने भी न दिया। चोट
तो लगती होगी! पीड़ा तो होती होगी!
लेकिन
बुद्ध ने कहा,
मैं अप्रभावित ही रहा, इसलिए सफल हुआ, खूब सफल हुआ। तूने एक सौभाग्य का अवसर जुटा दिया, अपनी
सफलता को जानने का एक मौका बना दिया। और यह भोजन से भी ज्यादा पुष्टिदायी है। भोजन
से तो ठीक, शरीर भरता है, लेकिन यह
अप्रभावित रहना, इससे मेरी आत्मा बड़ी पुलकित हुई है।
इसको
मैं कहता हूं दृष्टि,
दर्शन; इसको मैं कहता हूं आख। असली आख तो
अंधेरे को भी रोशनी में बदल लेती है और कांटे को फूल बना लेती है, जहर को अमृत कर लेती है। बीमारी. औषधि बन जाती। और आख न हो तो अमृत भी जहर
हो जाता है और फूल भी कांटे हो जाते हैं। सारी बात आख की है, सारी बात देखने की है, देखने के ढंग की है, फिर तुम्हारी व्याख्या!
इसलिए
मैंने आज की चर्चा तुमसे शुरू की कि जीवन न तो सुख है, न दुख, जीवन है व्याख्या। अब इस घड़ी में बुद्ध यह भी व्याख्या कर सकते थे कि
मेरा बड़ा अपमान हुआ! और तब बड़े दुखी हो जाते। और इस घड़ी में उन्होंने कैसी
व्याख्या की, कैसी अनूठी व्याख्या की, कैसी
अपूर्व! न पहले सुनी, न पहले कभी देखी, ऐसी अपूर्व व्याख्या की। काटे को बदल दिया तत्क्षण। मिट्टी सोना हो गयी।
कहा
कि मैं अप्रभावित हुआ,
अप्रभावित रहा। मुझ पर कुछ अंतर ही न पडा। लोगों ने द्वार—दरवाजे
मेरे मुंह पर बंद कर दिए। लोगों ने कहा, आगे जा! लोगों ने
कहा, यहां न मिलेगा कुछ। गाव से मैं खाली पात्र लौट आया हूं
लेकर अपने हाथ में। लेकिन यह खाली पात्र तेरी दृष्टि से खाली है, मेरी दृष्टि से भरा है। क्योंकि मैं अप्रभावित लौट आया हूं। एक अपूर्व रस
इसमें भरा है। और मैं प्रसन्न हूं खूब प्रसन्न हूं। यह भोजन से भी ज्यादा
पुष्टिदायी है।
मार
ने कहा, तो भंते, फिर प्रवेश करें। क्योंकि मार को तो यह बात
समझ में आयी नहीं। मार ने तो यह बात सुनी नहीं सुनी बराबर हो गयी। उसने तो कहा,
तो फिर एक मौका और लेना चाहिए अगर यह अभी तक क्रोधित नहीं हुआ,
नाराज नहीं हुआ। नाराज हो जाता तो मन के प्रभाव में आ जाता, नाराज हो जाता तो मार का प्रभाव शुरू हो जाता। यह नाराज नहीं हुआ! एक दफा
और समझा—बुझाकर इसको गांव में भेज दें। क्योंकि गांव के ब्राह्मणों पर तो भरोसा है,
वे तो फिर इसको इनकार करेंगे, शायद और भी जोर
से दुतकारेंगे कि तू फिर आ गया! और हमने कह दिया कि नहीं कुछ मिलेगा!
तो
दुबारा अपमान की चोट शायद और भी ज्यादा होगी। तो बुद्ध को फुसलाने लगा कि आप ऐसा
करें, फिर प्रवेश करें गांव में, शायद भिक्षा मिल ही जाए,
दिनभर भूखे रहने में सार भी क्या है—इन बातों में क्या रखा है! ये
तो उसे बातें ही मालूम होती हैं कि अप्रभावित रहा, या आनंद
का रस भरा हुआ है पात्र में! उसने पात्र देखा होगा, पात्र
बिलकुल खाली है, उसको कुछ समझ में न आया होगा। मन को तो आनंद
की बात समझ में आती ही नहीं। मन तो एक ही भाषा जानता है, वह
दुख की भाषा है।
बुद्ध
ने कहा, नहीं, जो बात गयी सो गयी। बुद्ध लौटकर नहीं देखते
हैं, बुद्ध लौटकर नहीं जाते। जो होना था हो गया। जो नहीं
होना था नहीं हुआ। यह बात आयी गयी हो गयी। पुनरुक्ति में बुद्धों को कोई रस नहीं
है। बुद्ध सदा नए में प्रवेश करते हैं। फिर आज का सुअवसर हम आभास्वर लोक के
ब्रह्माओं की भांति प्रीतिसुख से ही बिताएंगे। और तब यह गाथा कही—
'जिनके पास कुछ भी नहीं है, अहो, वे कैसा सुख में जीवन बिता रहे हैं। ' वह
भिक्षापात्र खाली शैतान के सामने करके बुद्ध ने कहा होगा, देख,
जिनके पास कुछ भी नहीं है, अहो, वे कैसा सुख में जीवन बिता रहे हैं।
सुसुखं वत! जीवामयेसं
नो नत्थि किज्चिना ।
नहीं
जिनके पास कुछ भी है,
उनके सुख का कोई पारावार नहीं। क्योंकि जिनके पास कुछ है, उनके सुख की सीमा है। तुम्हारे पास हजार रुपये हैं तो उस हजार रुपये के
योग्य सुख। तुम्हारे पास दस हजार रुपये हैं तो दस हजार रुपये के योग्य सुख। लेकिन
खयाल रखना, जिसके पास हजार रुपये हैं, हजार
रुपये उसके सुख की सीमा है, और अरबों—खरबों जो हो सकते थे,
नहीं हैं, वे उसका दुख होंगे। दुख ज्यादा होगा,
दुख सदा ज्यादा होगा। एक स्त्री है तुम्हारे पास, उसका सुख, और करोड़ों जो सुंदर स्त्रियां हैं,
वे तुम्हारे पास नहीं हैं, उनका दुख होगा,
उनकी पीड़ा होगी।
ज्यां
पाल सार्त्र का एक पात्र कहता है कि जब भी मैं किसी सुंदर स्त्री को देखता हूं तो
भोगना चाहता हूं। मैं दुनिया की सारी स्त्रियों को भोगना चाहता हूं। मगर यह कैसे
संभव हो! इसलिए मैं दुखी हूं। एक स्त्री ही भोगोगे, दो स्त्री भोगोगे, दस स्त्रियां भोगोगे, लेकिन अनंत स्त्रियां हैं,
अनंत रूप हैं, वह जो तुम नहीं भोग पाओगे,
उनकी पीड़ा तो पीछा करेगी।
कितना
धन इकट्ठा करोगे! बहुत रह जाएगा जो नहीं इकट्ठा कर पाए। पूरी पृथ्वी के मालिक हो
जाओ तो चांद—तारे रह जाएंगे, अनंत—अनंत चांद—तारे, उनकी
मालकियत हमारे हाथ में नहीं है। फिर दुख होगा। अभाव पकड़े रहेगा।
इसलिए
बुद्ध के सूत्र को समझना—
सुसुखं वत! जीवामयेसं नो नत्मि
किन्चिना ।
उसके
सुख का क्या कहना,
उसके सुख की कोई सीमा ही नहीं, जिसके पास कुछ
भी नहीं है! जिसके पास कुछ भी नहीं है, उसके सुख की क्षुद्र
सीमा टूट गयी, उसका सुख विराट हुआ। और जो कुछ भी नहीं में
राजी हो गया, फिर उसको दुख कैसे हो सकता है! यही भिक्षु का
अर्थ है, संन्यासी का अर्थ है—न कुछ में राजी हो जाना,
न कुछ में परिपूर्ण रसमग्न हो जाना। खाली भिक्षापात्र को रस भरा देख
लेना।
स्वामी
राम अमरीका गए वह अपने को. बादशाह कहते थे। था उनके पास तो कुछ भी नही—दो लंगोटिया
थीं, एक भिक्षापात्र था। अमरीका में किसी ने पूछा कि और सब तो ठीक है आप जो
कहते हैं, मगर यह अपने आपको बादशाह कहना, यह जरा जंचता नहीं! आपके पास कुछ है तो है ही नहीं। ये दो लंगोटी और एक
भिक्षापात्र। राम ने कहा, इन्हीं दो लगोटियो और भिक्षापात्र
के कारण मेरी बादशाहत थोड़ी सी कम है। जरा सी कम है—ये दो लंगोटी और यह पात्र! जरा
सी अटकी है।
मैंने
तुमसे पीछे कहा न—डायोजनीज नग्न रहने लगा। सिर्फ एक भिक्षापात्र रखता था। एक नदी
पर भागा गया पानी पीने को,
नदी से पानी भरा, और तभी एक कुत्ता आया और
भागा हुआ पानी में छलांग लगाकर—डायोजनीज से पहले छलांग लगा ली, डायोजनीज तो अपना बर्तन साफ करके पानी पीने की तैयारी कर रहा था—उसने पानी
झटपट पीया और जाने लगा। डायोजनीज ने तो पात्र फेंक दिया नदी में, पकड़ लिए कुत्ते के पैर कि गुरुदेव! कहां जाते हो? कुत्ता
भी चौंका होगा कि यह मामला क्या है! और डायोजनीज ने कहा, खूब,
खूब याद दिलायी, खूब वक्त पर आए, मैं नाहक ही यह बर्तन घिस रहा। तुम जब बिना बर्तन के जी सकते हो मजे से,
तो मैं क्यों नहीं जी सकता! उसने बर्तन फेंक दिया नदी में। उस दिन
डायोजनीज ने कहा कि मेरी बादशाहत पूरी हो गयी। एक छोटे से पात्र से थोड़ी सी अटकी
थी।
राम
ने कहा, ये दो लंगोटी और यह भिक्षापात्र, थोड़ी सी बादशाहत
में कमी है। लेकिन अर्थ समझना
बादशाह
वही है जो न कुछ में भी आनंदित है। क्योंकि न कुछ की कोई सीमा नहीं है, न कुछ
असीम है। न कुछ का कहीं अंत नहीं है। न कुछ में सब आ गया। राम ने और एक जगह कहा है
कि जिस दिन मैंने एक घर छोड़ दिया, सारे घर मेरे हुए। एक छोटा
आंगन छोड़ दिया और सारा आकाश मेरा हुआ।
तुम
खयाल रखना, एक तरफ से संन्यासी भिक्षु हो जाता है, एक तरफ से
स्वामी हो जाता है। इसलिए हिंदुओं ने उसे स्वामी कहा है, बौद्धों
ने भिक्षु कहा है, दोनों बातें सच हैं। भिक्षु होकर स्वामी
हो जाता है। बौद्धों ने भिक्षु शब्द चुना, वह भी ठीक है।
क्योंकि सब कह देता है मेरा कुछ भी नहीं है, अब मैं न कुछ
में जीयूंगा। और हिंदुओं ने स्वामी शब्द चुना, क्योंकि जो न
कुछ में जीता है, उसकी मालकियत पूरी हो गयी, वह सम्राट हो गया, वह स्वामी हो गया।
सुसुखं वत! जीवामयेसं
नो नत्थि किन्चिना।
'जिनके पास कुछ भी नहीं, अहो, वे
कैसा सुख में जीवन बिता रहे हैं!'
बुद्ध
ने कहा, तू देख पागल, तू नाहक दुखी हुआ जा रहा है, खुद भी दुखी होता है, दूसरों को भी दुखी करता,
इधर हम हैं कि बड़े सुख में जी रहे हैं। सुख रूप होकर विहर रहे हैं।
हमारे पास कुछ भी नहीं है। यह भिक्षापात्र देख बिलकुल खाली है। यही खालीपन हमारा
सुख है।
इसलिए
बुद्ध कहते हैं शून्य समाधि है। जब तुम भीतर भी खाली हो जाओगे, कोई विचार
न बचा, कोई वासना न बची, कोई आसक्ति,
कोई आतुरता न बची, जब भीतर भी भिक्षापात्र
खाली हो गया, तो वहां भी समाधि का सुख झरने लगेगा। जो शून्य
हो जाता है, उसमें पूर्ण उतर जाता है।
'आभास्वर के देवताओं की भांति हम भी प्रीतिभोजी होंगे। '
पीतिभक्खा भविस्साम देवा आभस्सरा
यथा ।
अब
तो आज का दिन ब्रह्मा की तरह बिताएंगे। ऐसा स्वर्गीय दिन तूने जुटा दिया मार, तेरा
धन्यवाद! तू भी सफल हुआ, हम भी सफल हुए।
इस
देखने की कला को समझना। इस सूत्र को सम्हालकर रख लेना हृदय में। यह रोज—रोज काम पड़
सकता है। यह चीज ऐसी है कि रोज—रोज काम में लाने की है। आखिरी सूत्र—
जय बेरं पसवति दुक्ख सेति पराजितो
।
उपसंतो सुखं सेति हित्वा जयपराजयं ।।
'विजय वैर को उत्पन्न करती है। पराजित पुरुष दुख की नींद सोता है। लेकिन जो
उपशांत है, वह जय और पराजय को छोड्कर सुख की नींद सोता है।'
इस
सूत्र को बुद्ध ने इस परिस्थिति में कहा—
कौशलनरेश प्रसेनजित
काशी के लिए अजातशत्रु से युद्ध करने में तीन बार हार गया। वह बहुत चिंतित रहने
लगा। उसके पास कुछ कमी न थी बड़ा राज्य था उसके पास कौशल का पूरा राज्य उसके पास था
लेकिन काशी खटकती थी। काशी पर किसी और का कब्जा यह खटकता था। उसके अपने कब्जे में
बहुत था लेकिन जो दूसरे के कब्जे में था वह खटकता था। तीन बार उसने हमला किया काशी
पर और तीनों बार हार गया। बहुत चिंतित रहने लगा। जब तीसरी बार भी हार हुई तो बात
जरा सीमा के बाहर हो गयी उसके दर्प को बड़ा आघात पहुंचा। वह सोचने लगा मैं दुग्धमुख
लड़के को भी न हरा सका ऐसे मेरे जीने से क्या! और अजातशत्रु अभी लड़का ही था अभी
उसकी कोई खास उम्र भी न थी। और उस लड़के से बार— बार हार जाना पीड़ादायी हो गया
तो
उसने सोचा कि मैं दुग्धमुख लड़के को भी न हरा सका तो फिर मेरे ऐसे जीने से क्या!
इससे तो मौत ही भली। ऐसा सोच वह खाना— पीना छोड्कर बिछावन पर लेट गया। लेकिन तब भी
निद्रा कहां! शांति कहां! ऐसे कहीं शांति आती है ऐसे कहीं निद्रा आती है। आत्मघात
करने को उत्सुक आदमी कहीं शांत हो सकता है! उसकी नीदं भी खो गयी। वह करीब— करीब
विक्षिप्त हो गया। वह असह्य दुख में डूब गया। भिक्षुओं ने इस बात को भगवान से कहा।
बहुत
दिन से प्रसेनजित आया नहीं तो भिक्षु चिंतित हुए कभी— कभी भगवान को सुनने आता था।
सुनकर भी कहां लोग सुनते हैं! प्रसेनजित उन्हें सुनने आता था और फिर भी यह दौड़
जारी ही रही। तो भिक्षुओं ने कहा कि ऐसी— ऐसी हालत हो गयी है प्रसेनजित की तीन बार
हार गया तो बिछावन पर लेट गया है न खाता है न पीता है न सोता है न जगता है पागल
जैसा है।
भगवान
बोले भिक्षुओं न जीत में सुख है न हार में क्योंकि दोनों में उत्तेजना है उत्तेजना
में कहां शांति कहां सुख! व्यक्ति जीतते हुए वैर को उत्पन्न करता है और हारा हुआ
भी सुख से सो नहीं सकता।
तब
यह गाथा कही।
'विजय वैर को उत्पन्न करती है। '
क्योंकि
जिससे तुम जीते हो,
वह बदला लेना चाहेगा। जिससे तुम जीते हो, वह
तैयारी करेगा। वह तुम्हें हराएगा। और फिर जिससे तुम जीत गए हो, उसके साथ तुमने जो गहरी शत्रुता मोल ले ली है, उसके
प्रतिकार का क्या करोगे? चिंता पकड़ेगी—हमला करेगा, प्रतिशोध लेगा, क्या करेगा? तो
जीत वैर को उत्पन्न करती, चिंता को पैदा करती, सुरक्षा का आयोजन करना पड़ता।
फिर
पराजित पुरुष—अगर जीत न हो,
हार गए, तो भी सुख नहीं है। क्योंकि पराजित
पुरुष सुख की नींद कहा सो सकता है? जागने में बेचैन कि हार
गया, दर्प टूट गया, अहंकार खंडित हो
गया, और नींद में भी बेचैन, करवटें
बदलता है। सुख की नींद कहां, दुख की नींद सोता है। नींद में
तक दुख। नींद तक में सुख छिन जाता है। नींद में तो प्राकृतिक सुख है, पशुओं को भी है, साधारण आदमियों को भी है, वह भी उसके पास नहीं रह जाता। नींद में भी दुखस्वप्न देखता है। वही छायाएं
जिनसे हार गया और विकराल हो—होकर प्रगट होती हैं।
'लेकिन जो उपशांत है, वह जय और पराजय को छोड्कर सुख
की नींद सोता है। ' उपशांत शब्द महत्वपूर्ण है। उपशांत का
अर्थ होता है, जिसके जीवन में 'कोई उत्तेजना
न रही। न जीत की इच्छा, न हार हो जाए तो कुछ परेशानी। जीत की
इच्छा छोड़ दी जिसने, और अगर हार भी हो जाए तो उसे परमभाव से
स्वीकार कर लिया जिसने, ऐसा व्यक्ति उपशांत। और उपशांत ही
आनंदित है।
अब
हम इस कथा को थोड़ा समझें।
कौशलनरेश
प्रसेनजित काशी के लिए अजातशत्रु से युद्ध करने में तीन बार हार गया। वह बहुत
चिंतित रहने लगा। आदमी एक बार में नहीं जागता, दो बार में नहीं जागता, तीन बार में नहीं जागता। तीन प्रतीक है। तीन बार हार गया। तीन प्रतीक है
कि अब बहुत हो गया, आदमी बिलकुल मूढ़ होना चाहिए।
बुद्ध
अपने शब्दों को तीन बार दोहराते थे। वह किसी को कुछ कहते तो कहते, सुना?
वह कहता, ही, भंते! वह
फिर कहते, सुना? हो, भंते! वह फिर कहते, सुना? हो,
भंते! वह तीन बार दोहराते। वह कहते कि लोग इतने मूढ़ हैं कि तीन बार
में भी नहीं सुनते।
तीन
बार हार गया,
फिर भी उसे समझ न आयी कि जीत में कुछ रखा नहीं है।
जीत
से केवल हार हाथ में आ रही है, यह समझ में न आया। जिसने सफलता चाही उसको
असफलता हाथ आती है, लेकिन समझ में नहीं आता। जिसने धन चाहा,
वह और भी भीतर निर्धन होता जाता है, यह समझ
में नहीं आता है। जिसने सम्मान चाहा, सब तरफ अपमान होने लगता
है, यह समझ में नहीं आता। बार—बार होता है, फिर भी समझ में नहीं आता। आंखें हमारी बिलकुल बंद हैं। बिजली कौंध—कौंध
जाती है, फिर भी हम देखते नहीं।
तीन
बार हार गया प्रसेनजित। चिंतित रहने लगा। जीत की आकांक्षा के कारण हार पैदा हो रही
है, यह तो न देखा, उलटी चिंता रहने लगी। चिंता क्या?
चिंता यह कि मैं दुग्धमुख लड़के को भी हरा न सका। ऐसे मेरे जीने से
क्या! जैसे आदमी के जीने का इतना ही अर्थ है कि जीते। कुछ लोग हैं जो इसीलिए जी
रहे हैं कि जीतो। जीत—जीतकर मर जाओगे। जीत से होगा क्या! जीत से जीवन का संबंध
क्या है? और जहां जरा हारे कि आदमी मरने की सोचने लगता है।
मनोवैज्ञानिक
कहते हैं कि ऐसा आदमी खोजना कठिन है जिसने अपने जीवन में कम से कम एक बार
आत्महत्या की बात न सोची हो। न की हो, यह दूसरी बात है। लेकिन न सोची हो,
ऐसा आदमी खोजना मुश्किल है। और अनेक लोग कोशिश भी करते हैं। सफल नहीं
होते, यह दूसरी बात है, लेकिन कोशिश
करते हैं।
तुम्हारा
जीवन बस जीतता चला जाए तो ठीक। हारे कि बस मरने का मन होता है। जरा सी हार कि बस
मौत। तो तुम्हारे जीवन का मतलब क्या है? सिर्फ जीतना और हारना? हम छोटे बच्चों की भांति हैं। हम जरा—जरा सी बात में मरने को तैयार हो
जाते हैं। जरा—जरा सी बात में मारने को तैयार हो जाते हैं।
सोचने
लगा, मर ही जाऊं, अहंकार को चोट लग गयी तो फिर जीवन में
क्या है! हमने और तो कोई जीवन जाना ही नहीं। असली जीवन तो जाना नहीं। अहंकार का
जीवन कोई असली जीवन तो नहीं! तुम्हारे भीतर एक जीवन है जिसकी मृत्यु ही नहीं हो
सकती। काश, तुम उसे जान लो तो फिर तुम मरने की सोचोगे भी
नहीं। आत्महत्या का विचार इसीलिए आता है कि तुम सोचते हो, मरना
हो सकता है। मरना तो हो ही नहीं सकता। कोई कभी मरता तो है ही नहीं, कोई कभी मरा तो है ही नहीं। मृत्यु तो एक झूठी बात है। मृत्यु तो कभी होती
नहीं। तुम्हारे भीतर जो है, वह शाश्वत है। वह सदा है,
सदा था, सदा रहेगा। लेकिन आत्महत्या की बात
उठती है मन में—बाजार में प्रतिष्ठा खराब हो गयी है, दिवाला
निकल गया, पत्नी मर गयी, कि बेटा धोखा
दे गया, कि कुछ हो गया छोटा—मोटा, बस
मरने की बात उठती है। मरने की बात उठने का मतलब ही यही हुआ कि तुमने अभी जीवन को
जाना ही नहीं। जीवन को जान लेते तो मृत्यु की सोचते कैसे?
मुझसे
कोई पूछता है कभी आत्महत्या के लिए, लोग आ जाते हैं। अभी एक चार—छह दिन
पहले एक महिला ने पूछा कि मुझे तो जीवन में कोई सार नहीं दिखायी पड़ता। उम्र भी
उसकी कोई साठ के करीब हुई। चेहरा—मोहरा भी ऐसा नहीं है कि अब साठ वर्ष की उम्र में
किसी से लगाव बने, कोई संबंध बने। तो पश्चिम में तो बड़ी
घबड़ाहट होती है—पश्चिम से आयी हुई स्त्री है, उसे बड़ी घबड़ाहट
हो गयी। पति ने तलाक दे दिया, बच्चे सब बड़े होकर अपनी— अपनी
दुनिया में चले गए, अब कोई उसकी तरफ देखता भी नहीं, तो वह मरने की सोचती है। दो बार उपाय भी कर चुकी, नींद
की दवाएं खा लीं, बमुश्किल बचायी जा सकी।
वह
मुझसे पूछने लगी कि मेरे जीवन में सार भी क्या है, मैं मर ही जाऊं! मैंने उससे
कहा कि तू कोशिश कर, मर तो सकती नहीं, लेकिन
मैं तुझसे एक बात कहूंगा कि पहले जीवन को तो जान ले, फिर मर
जाना। अभी तो जीवन जाना भी नहीं है और मरने की तैयारी करने लगी। अगर जीवन को जान
ले तो फिर मैं मुझे आज्ञा देता हूं मरने की, तू मर जाना।
वह
थोड़ी चौंकी भी। उसने कहा,
मैंने यह सोचा नहीं था कि आप आज्ञा देंगे मरने की, आप जरूर समझाएंगे। मैंने कहा, समझाने में क्या रखा
है? समझाने से तो तेरी जिद और बढ़ेगी, तुझे
और रस आएगा कि मर ही जाएं। और मजा आएगा। निषेध करो तो और निमंत्रण मिलता है। कहो
किसी से, मत करो, तो और करने की इच्छा
होती है।
मुल्ला
नसरुद्दीन की पत्नी अखबार पढ़ रही थी। अखबार पढ़कर उसने कहा कि सुनो, सुनते हो,
वैज्ञानिक अणु को तोड़ने में सफल हो गए। मुल्ला ने कहा, इसमें क्या रखा है? अगर पार्सल में अणु को रखकर,
ऊपर लिखकर पार्सल भेज दी होती पोस्ट—आफिस में कि इसे सम्हालकर
उठाना—कभी का अणु टूट गया होता। बस जिस पार्सल पर लिखा है, सम्हालकर
उठाना, उसी को लोग पटकते हैं। कभी का टूट गया होता, इतनी वैज्ञानिकों को चेष्टा करने की कोई जरूरत ही न पड़ती।
जहां
तुमने देखा कि मनाही लिखी,
है, वहीं मुश्किल हो जाती है।
मैं
एक गांव में बहुत वर्षों तक रहा। मेरे सामने ही एक सज्जन रहते थे, उनकी एक
बड़ी दीवाल—वह बड़े परेशान रहते थे कि कोई इश्तहार न लगा दे, कोई
लिख न दे, कोई आकर पेशाब न कर जाए। मैंने उनसे कहा, तुम एक तरकीब करो ?r इस पर लिख दो तो यह तुम्हें
रोज—रोज की फिकर न रहेगी—कि यहां इश्तहार लगाना मना है, यहां
पेशाब करना मना है। उनको बात जंची, उन्होंने लिख दिया।
पांच—सात
दिन बाद मेरे पास आए कि आपने भी खूब मुसीबत कर दी! जो लोग पहले चुपचाप निकल जाते
थे, वे भी पेशाब करने लगे हैं। वह आपने लिखवाकर तो झंझट कर दी। मैंने कहा,
मैं यही तुम्हें बताना चाहता था—कहीं लिख भर दो कि यहां पेशाब करना
मना है, तो' जो भी जा रहा है, उसको पहले तो पेशाब करने का खयाल तुमने दे दिया, और
यह भी खयाल दे दिया कि यह जगह करने योग्य है, नहीं तो कोई
लिखता क्यों! जगह योग्य स्थान है। डर के कारण ही किसी ने लिख रखा है कि यहां करना
मत, क्योंकि स्थान तो बिलकुल योग्य है।
जहां—जहा
निषेध है, वहा—वहां निमंत्रण हो जाता।
तो
मैंने उस स्त्री को कहा कि तू मर जाना, कोई फिकर नहीं, फिर मरना ही है तो जल्दी क्या है, थोड़ा ध्यान कर ले,
थोड़ा जीवन को जान ले। यही तो जीवन नहीं है कि कोई पति था वह छोड्कर
चला गया, कुछ बेटे थे वे छोड्कर चले गए, अब कोई उत्सुक भी नहीं है तुझमें, यही तो जीवन नहीं
है, जीवन एक और भी है। एक भीतर का जीवन भी है। थोड़ा उसका
स्वाद ले ले, फिर मर जाना। क्योंकि मैं जानता हूं जिसने उसका
स्वाद ले लिया, वह तो जान लेता है कि मरना तो हो ही नहीं
सकता, असंभव है, मृत्यु तो घटती ही
नहीं, जीवन शाश्वत है।
सोचने
लगा कि अब मर जाऊं,
खाना—पीना छोड्कर बिछावन पर लेट रहा। सोना चाहता है, लेकिन नींद कहां। ये कोई ढंग हैं नींद लाने के! ये कोई ढंग हैं शांति के!
उसकी नींद भी खो गयी।
बुद्ध
से जब भिक्षुओं ने कहा कि ऐसी दशा प्रसेनजित की हो रही है, तो
उन्होंने कहा, भिक्षुओ, न जीत में सुख
है न हार में, सुख तो भीतर है। जीत भी बाहर है, हार भी बाहर है। जीत भी संबंध है दूसरे से—उसकी छाती पर बैठ जाने का संबंध
है—और हार भी संबंध है दूसरे से। और सुख तो अपने से संबंधित होने में है। दूसरे का
ध्यान ही न रह जाए, अपना ही ध्यान रह जाए तो सुख की सरिता
बहती है, तो सुख का सागर उमगता है। क्योंकि दोनों में
उत्तेजना है—हार में और जीत में—जहां उत्तेजना है, वहा शांति
कहां! व्यक्ति जीतते हुए वैर को उत्पन्न करता है हारा हुआ भी सुख से सो नहीं सकता
है।
और
तब यह गाथा कही—
जयं बेर पसवति दुक्खं सेति
पराजितो ।
उपसंतो सुखं सेति हित्वा जयपराजयं ।।
सोचना, थोड़े से
अंतर से सब अंतर पड़ जाता है। थोड़ी सी दृष्टि का भेद है।
याचना, दान
मात्र भंगिमाएं हैं हथेली की
यह
हथेली देखते हो?
यह ऐसी सीधी तुम्हारे सामने फैल जाए तो भिक्षा और यह उलटी तुम्हारे
सामने फैल जाए तो दान। इतने से अंतर से भिक्षा दान बन जाती है, दान भिक्षा बन जाता है।
याचना, दान
मात्र भंगिमाएं हैं हथेली की
और
सुख—दुख भी भंगिमाएं हैं,
सिर्फ दृष्टि की, सिर्फ आख की।
अंतर है नीड़ और पिंजड़े में
इतना ही
कि एक को बनाया है तुमने
दूसरे को तुम्हारे लिए किसी और ने
ज्यादा
अंतर नहीं है। कोई दूसरा बना दे तो पिंजड़ा और तुम्हीं बना लो तो नीड़। दूसरे जो भी
बनाएंगे वह पिंजडा ही सिद्ध होगा। इसलिए दूसरों के बनाए पर भरोसा मत रखो, कुछ अपने
भीतर अपना बना लो।
अंतर है नीड़ और पिंजड़े में
इतना ही
कि एक को बनाया है तुमने
दूसरे को तुम्हारे लिए किसी और ने
ज्यादा अंतर नहीं है।
दस के हों कि पचास साल के
सभी खेलते ही तो हैं
हां, वय के अनुसार चाहिए
उन्हें खिलौने अलग—अलग
बस
इतना ही फर्क पड़ता है लोगों में। बचपन में तुम छोटे—छोटे खिलौनों से खेलते हो, बड़े हो गए
बड़े खिलौनों से खेलते हो, के हो गए थोडे और बहुमूल्य खिलौनों
से खेलते हो, मगर सब खेल खिलौनों का है। कोई शतरंज बिछाकर
राजा—रानियों को चलाता है, हाथी—घोड़े चलाता है, कोई असली हाथी—घोड़े चलाता है, मगर है सब शतरंज का
खेल। शतरंज में भी तलवारें खिंच जाती हैं! छोटे—छोटे खेल में पराजय और जीत हो जाती
है।
मैं
जब विश्वविद्यालय में पढ़ता था, तब कोई मेरे हास्टल में, मोनोपाली
का खेल ले आया। मेरे साथ कोई खेलने को तैयार न हो। मैंने पूछा कि यह बात क्या है?
तो उन्होंने कहा, बात यह है कि न आप हार में
प्रसन्न होते हैं, न जीत में प्रसन्न होते, न आप सुखी होते न दुखी होते, जीत गए तो ठीक, हार गए तो ठीक, तो मजा ही नहीं आता आपके साथ खेलने
में। मजा तो तब आता है कि जब कि जान की बाजी लग जाती है। मोनोपाली का खेल ही तो चल
रहा है। कौन एकाधिकार कर ले!
दस के हों कि पचास साल के
सभी खेलते ही तो हैं
हां, वय के अनुसार चाहिए
उन्हें खिलौने अलग—अलग
अनुभवी किसको कहोगे?
उस पुरुष को जो बहुश्रुत वृद्ध है
बहुदृष्टि है,
या उसे
जो अनुभवों का रस काना जानता है
सारे
अनुभवों में से रस को निकाल लो, तो तुम एक ही बात रस की पाओगे, मूल पाओगे, अपनी व्याख्या। चाहे हार मान लो, चाहे जीत मान लो; चाहे सुख मान लो, चाहे दुख मान लो।
और
जिस दिन तुम्हें यह दिख गया, उसी क्षण तुम मुक्त हो। फिर तुम्हें कौन
बांधेगा? तुम्हारी अपनी व्याख्या है। तुम्हारी जंजीरें असली
नहीं हैं, तुम्हारी धारणा की हैं, तुम्हारी
व्याख्या की हैं।
आज
इतना ही।
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