दिनांक 6 अक्तूबर 1980;
श्री ओशो आश्रम, पूना
पहला प्रश्न:
भगवान
मुंडकोपनिषद का यह सूत्र कुछ अजीब लगता है। यह कहता है: जो उस परम ब्रह्म को जानता
है, वह ब्रह्म ही हो जाता है। उसके कुल में ब्रह्म को न
जानने वाला पैदा नहीं होता। वह शोक से तर जाता है, पाप से तर
जाता है, और हृदय की ग्रंथियों से मुक्त होकर अमृत बन जाता
है।
श्लोक इस प्रकार
है:
स यो ह वै तत
परमं ब्रह्म वेद, ब्रह्मैस भवति।
नास्याब्रह्मवित
कुले भवति।
तरति शोकं, तरति पाप्मानम
गुहाग्रंथिभ्यो
विमुक्तोमृतो भवति।।
भगवान, हमें इस सूत्र का गूढ़ार्थ समझाने की अनुकंपा करें।
सहजानंद!
यह सूत्र अजीब लग सकता है, अजीब है नहीं। लग सकता है इसलिए कि इसमें कुछ
अस्तित्व के संबंध में बुनियादी बातें कही गयी हैं, जो
सामान्य तर्क के अतीत हैं।
पहली बात, हम जो भी जानते हैं, जानने के कारण उससे एक नहीं हो
जाते। ज्ञाता और ज्ञेय अलग-अलग बने रहते हैं। यही मन के ज्ञान की प्रक्रिया है।
जानना ज्ञाता और ज्ञेय के बीच एक संबंध है। ज्ञाता पृथक है, ज्ञेय
पृथक है। जानने के संबंध के कारण वे एक नहीं हो जाते हैं। नहीं तो फूल को जानने
वाला फूल हो जाए और पत्थर को जानने वाला पत्थर हो जाए। फिर तो जानने वाला शेष ही न
रहे। जिसने पत्थर को जाना, वह पत्थर हो गया। इसलिए सूत्र
अजीब लगता है।
लेकिन मन के पार जानने का एक और जगत
भी है। मनातीत। उस जगत का द्वार ही ध्यान है। वहां ज्ञाता और ज्ञेय दो नहीं, एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। क्योंकि वहां जानने को कोई अन्य नहीं होता,
कोई भिन्न नहीं होता, वहां जानने वाला स्वयं
को ही जानता है।
ध्यान की प्रक्रिया को ख्याल में लो
तो सूत्र सरल हो जाएगा। ध्यान को बीच में न लिया तो सूत्र बेबूझ रह जाएगा। ये सारे
सूत्र ध्यान के सूत्र हैं। ये उपनिषद ध्यान की गंगोत्री से पैदा हुए हैं। ये उन
द्रष्टाओं की अनुभूतियां हैं, जिन्होंने विचार की जो सतत
प्रक्रिया चलती है, उससे छुटकारा पा लिया है। ध्यान का अर्थ
होता है: विचार की धारा का ठहर जाना। साधारणतः तुम्हारे भीतर विचारों की सतत
शृंखला लगी रहती है। जैसे रास्ता चल रहा हो। लोग निकलते ही रहते हैं, गुजरते ही रहते हैं। और रास्ता तो कभी-कभी रात बंद भी हो जाए, लेकिन यह मन के रास्ते पर विचार दौड़ा ही करते हैं। दिन में विचार, रात में स्वप्न; कभी स्मृतियां, कभी वासनाएं, कभी आकांक्षाएं, कभी
कल्पनाएं--अंत ही नहीं है; न ओर है न छोर है; यह चलता ही रहता है मन। इस मन की सतत प्रक्रिया के कारण तुम यह भूल ही
जाते हो कि तुम इससे पृथक हो।
यूं समझो कि किसी दर्पण के सामने से
चौबीस घंटे, अहर्निश, चेहरे गुजरते रहें,
तो दर्पण को मौका ही न मिले जानने का कि मैं इन गुजरते हुए चेहरों
से अलग हूं। कभी न कभी कोई न कोई चेहरा बन रहा है; एक मिटता
नहीं, दूसरा बन जाता है--मिट नहीं पाता कि दूसरा बन जाता है;
मिटने के पहले दूसरा बन जाता है--हमेशा दर्पण आच्छादित है, तो दर्पण को पता कैसे चले कि मैं
पृथक हूं! इसलिए ध्यान का आविष्कार हुआ। ध्यान का अर्थ है: दर्पण को मौका
देना थोड़ी देर को कि उसमें कोई प्रतिबिंब न बने, ताकि दर्पण
यह समझ ले कि मैं अलग हूं और प्रतिबिंबों की जो धारा मेरे सामने से गुजरती है,
वह अलग है। जिस घड़ी दर्पण के सामने से कुछ भी नहीं गुजरता, उस घड़ी दर्पण अपने को जान पाता है।
तुम्हारी चेतना दर्पण है और विचार
दर्पण के सामने से गुजरते हुए दृश्य। तुम्हारी चेतना द्रष्टा है, ज्ञाता है और चेतना के सामने से जो गुजर रहा है, वह
ज्ञेय है। जिस क्षण ध्यान की गहन, मौन अवस्था भीतर पैदा होती
है जैसा रज्जब ने कहा:" जन रज्जब ऐसी विधि जाने ज्यूं था त्यूं ठहराया'--जब सब ठहर जाता है, चित्त में कोई तरंग भी नहीं होती,
कोई भाव नहीं होता, चित्त जब यूं होता है जैसे
झील निस्तरंग हो--थिर--तब तुम्हें पहली बार अनुभव होता है कि मैं पृथक हूं विचारों
से। और तुम्हारे जानने की जो क्षमता अब तक विचारों में उलझी थी, वह जानने की क्षमता अपने पर ही लौट आती है। अब जानने वाला अपने को जानता
है। अब ज्ञाता और ज्ञेय दो नहीं होते, एक ही होता है। वही
जान रहा है, वही जाना जा रहा है। इस अनुभूति का नाम ही
ब्रह्म-अनुभूति है।
यह सूत्र प्यारा है; गहन है, गूढ़ है।
स यो ह वै तत परमं वेद, ब्रह्मैव भवति।
जिसने ब्रह्म को जाना, वह ब्रह्म हो गया। या जिसने अपने को पहचाना, वह
ब्रह्म हो गया। यही वेद है। क्योंकि यही असली जानना है! दूसरे को जानना भी कुछ
जानना है! दूसरे को जान कर भी क्या करोगे? भीतर अंधेरा रहा
और बाहर सारी दुनिया रोशन भी हो जाए तो किस काम की है! भीतर खाली रहे और बाहर धन,
पद और प्रतिष्ठा के अंबार भी लग जाएं, तो किस
काम के हैं! थोड़ी ही देर में मौत आएगी और सब छीन लेगी, सब
पड़ा रह जाएगा। जीवन भर की आपाधापी व्यर्थ हो जाएगी। जो कमाया, सिद्ध होगा मौत के क्षण में कि वह कमायी न थी, गंवायी
थी। जो इकट्ठा किया, मौत के क्षण में पता चलेगा कि
कंकड़-पत्थर इकट्ठे किये और हीरे अपरिचित ही रह गये। कूड़ा-करकट इकट्ठा करते रहे और
संपदा का एक बड़ा साम्राज्य भीतर था, उस तरफ पीठ ही बनी रही।
जब कोई व्यक्ति स्वयं की तरफ मुड़ता है
तो जिसे वह जानता है, वह कोई और नहीं, वह स्वयं की ही
सत्ता है। वहां जानने वाला और जाना जाने वाला दो नहीं होते। इसलिए यह सूत्र ठीक
कहता है: जो उस परम ब्रह्म को जानता है, वह ब्रह्म ही हो
जाता है। यह सूत्र धर्म की पराकाष्ठा है। बहुत थोड़े-से धर्म इस ऊंचाई तक उठे।
क्योंकि बहुत थोड़े-से धर्म इतना साहस कर सके हैं।
जैसे, ईसाई समझ नहीं पाए
जीसस को। जीसस तो कहते हैं कि मैं और मेरा पिता अर्थात ब्रह्म, परमात्मा, हम दोनों एक हैं। लेकिन ईसाइयों ने इस बात
को बिलकुल गलत ढंग से पकड़ा। वे कहने लगे कि यह बात सिर्फ जीसस के संबंध में सच है
कि जीसस परमात्मा से एक हैं, किसी और के संबंध में यह सच
नहीं है। जब कि जीसस अपने संबंध में कुछ भी नहीं कह रहे हैं। जब जीसस कहते हैं मैं
और परमात्मा एक हैं, तो जोसफ और मरियम के बेटे जीसस के संबंध
में कुछ भी नहीं कह रहे हैं, वे तो उसे भीतर छिपे परम चैतन्य
के संबंध में कह रहे हैं। परम चैतन्य हमारा असली मैं है। वही हमारा असली अस्तित्व
है। वही हमारी अस्मिता है। वही हमारी आत्मा है। "मैं' उसकी
तरफ ही इशारा कर रहा है। लेकिन ईसाइयों ने यूं पकड़ ली बात!
अंधे आदमी से प्रकाश के संबंध में कुछ
कहो, वह कुछ का कुछ पकड़ लेगा। बहरे को संगीत के संबंध में
कुछ समझाओ, वह कुछ का कुछ पकड़ लेगा। ईसाइयों ने यह समझा कि
जीसस अपने संबंध में कह रहे हैं। जीसस उन सबके संबंध में कह रहे हैं जिन्होंने भी
जाना है। मगर ईसाइयत उस तल तक ऊंचा न उठ पायी; ईसाइयत उस
ऊंचाई को न छू सकी; ईसाइयत में वह फूल न खिल सका।
वही परिणाम इस्लाम में हुआ। इसलिए
अलहिल्लाज मंसूर को मुसलमानों ने सूली पर लटका दिया। क्यों? क्योंकि उसने अनलहक की घोषणा की। उसने कहा कि मैं परमात्मा हूं। और
मुसलमानों में इस तरह की घोषणा कुफ्र है, पाप है, महापाप है। कोई कहे कि मैं परमात्मा हूं, परमात्मा
के साथ कोई बराबरी करे! अलहिल्लाज मंसूर परमात्मा के साथ बराबरी नहीं कर रहा था,
क्योंकि अलहिल्लाज यह कह रहा था, मैं तो हूं
ही नहीं, परमात्मा है; बराबरी का सवाल
कहां था! बराबरी तो तब हो जब दो हों! दो तो हैं ही नहीं! अनलहक का मतलब है: मैं
सत्य हूं। मैं और सत्य, ऐसी दो चीजें नहीं हैं। अलहिल्लाज
अपने संबंध में कोई घोषणा नहीं कर रहा है। अलहिल्लाज तो मिट गया। ध्यान में जो गया,
उसका अहंकार तो मिट ही जाता है। फिर जो शेष रह जाता है, वह परमात्मा है।
अलहिल्लाज मंसूर का गुरु था जुन्नैद।
उसने अलहिल्लाज को बहुत बार समझाया कि देख, इस बात को भीतर ही पी
जा! मैं भी जानता हूं, लेकिन मत कह! जुन्नैद बूढ़ा था। जीवन
के कड़वे-मीठे अनुभव उसने लिए थे; अलहिल्लाज जवान था! जुन्नैद
अलहिल्लाज को समझाता रहा कि तू यह बात कहेगा तो आज नहीं कल तू मुश्किल में पड़ेगा
और मुझे भी मुश्किल में डालेगा। क्योंकि अंततः यह दोष मुझ पर भी आएगा, कि मेरा शिष्य घोषणा कर रहा है। अलहिल्लाज हमेशा स्वीकार कर लेता था कि अब
नहीं करूंगा। लेकिन जब भी ध्यान में बैठता था, बस, भूल ही जाता था! जब मैं ही न रहा, तो मैं के द्वारा
दिये गये वचन कौन याद रखे? जिसने वचन दिये थे वह तो गया और
जो प्रगट होता, वह फिर वही धुन उठा देता; वही अनलहक का नाद। और जुन्नैद कहता, कितनी बार मुझे
समझाया कि यह बात अगर फैल गयी तो मुश्किल खड़ी होगी। तू तो मारा ही जाएगा, तेरे साथ मेरा भी जो काम चल रहा है, जो सैकड़ों लोग
ध्यान को, समाधि को उपलब्ध हो रहे हैं, इनको प्रक्रिया भी अवरुद्ध हो जाएगी। फिर वह वायदा करता। और वायदा टूट
जाता।
अंततः अलहिल्लाज ने एक दिन कहा कि अब
और वायदा न करूंगा, क्योंकि बहुत वायदा किया, वह
टूट-टूट जाता है; असलियत यह है कि जो वायदा करता है, वह तो मौजूद नहीं होता, और जो मौजूद होता है,
उसने कभी वायदा नहीं किया। मैं वहां होता नहीं और जो वहां होता है,
वह घोषणा करता है। मैं रोकूं तो कैसे रोकूं!
जुन्नैद ने कहा कि ऐसा कर, तू काबा की यात्रा कर आ!...उन दिनों पैदल ही यात्रा करनी होती थी। वर्ष लग
जाते थे। जुन्नैद से सोचा कि काबा की यात्रा कर आएगा, तब तक
तो बात टलेगी। इस बीच कुछ भी हो सकता है। समझ आ जाए!...लेकिन पता है अलहिल्लाज
मंसूर ने क्या किया? वह उठा और उसने कहां, ठीक, आप आज्ञा देते हैं तो जाकर तीर्थयात्रा कर आता
हूं। उठा और उसने जुन्नैद के तीन चक्कर लगाए और फिर बैठ गये सामने। जुन्नेद ने कहा,
यह क्या किया? उसने कहा, मेरे लिए तुम ही काबा हो। तुम्हारे अलावा और कहां काबा है! जब जीवित गुरु
को पा लिया, तो अब किस पत्थर की पूजा करने जाऊं! और किसलिए?
तुम्हारे तीन चक्कर लगा लिए, यात्रा पूरी हो
गयी। अब कहां जाना है! और वही अनलहक का नाद।
वह नाद मंसूर के संबंध में नहीं है।
मुसलमान गलत समझे। उन्होंने व्यर्थ ही मंसूर को सूली दे दी।
लेकिन इस देश में धर्म के ऊंचे से
ऊंचे शिखर छुए गये। वे दिन भी जा चुके हैं। आज भारत की मनोदशा वैसी नहीं है, जो उपनिषद के काल में थी। आज तो भारत बहुत दयनीय है। अब तो यहां भी आदमी
जमीन पर घिसट रहा है; आकाश में उड़ने की क्षमता उसने खो दी।
आज तो यह घोषणा करना कि मैं ब्रह्म हूं, खतरे से खाली नहीं
है। लेकिन जो जानेगा, वह रुक भी नहीं सकता है।
पहले अपनी आवाज की लरजिश पर तो काबू
पा लो...
पहले अपनी आवाज की लरजिश पर तो काबू
पा लो
फिर प्रेम के बोल तो ओठों से निकल
जाते हैं
एक बार कंपती हुई आवाज ठहर जाए, फिर प्यार के बोल तो अपने से निकल जाते हैं; कुछ
कहना नहीं पड़ता।
फिर प्यार के बोल तो ओठों से निकल
जाते हैं
बस, एक ही काम करना जरूरी
है कि वह भीतर चलता हुआ कंपन है--
पहले अपनी आवाज की लरजिश पर तो काबू पा
लो
फिर कुछ कहना नहीं पड़ता, जो कहने योग्य है, अपने से निकल जाता है, फिर उसे रोका नहीं जा सकता। ये उपनिषद के वचन कहे नहीं गये हैं, निकले हैं। ये स्व-स्फूर्त घोषणाएं हैं, स्फुर्णाएं
हैं।
जो उस परम ब्रह्म को जानता है, वह ब्रह्म ही हो जाता है।
स यो ह वै तत परमं ब्रह्म वेद,...
और यही वेद है।
वेद शब्द बड़ा प्यारा है। वेद का अर्थ
है: जानना। वेद बनता है विद से। विद का अर्थ होता है: ज्ञान। उसी से विद्वान शब्द
बना। वेद कोई चार संहिताओं में समाप्त नहीं हो गया है; कोई ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद,
अथर्ववेद, उन पर समाप्त नहीं हो गया है;
जब भी दुनिया में किसी व्यक्ति ने अपने भीतर परमात्मा का
साक्षात्कार किया है, वेद कहां फिर से जन्मा है। हर बुद्ध के
साथ का जन्म होता है। फिर वह बुद्ध चाहे मोहम्मद हों, चाहे
जीसस, चाहे जरथुस्त्र, चाहे लाओत्सू,
चाहे महावीर, चाहे कृष्ण, चाहे कबीर, चाहे नानक, कुछ भेद
नहीं पड़ता। जिसने अपने को जाना, जानते ही उसके ओठों से वेद
फूट पड़ते हैं। क्योंकि वह स्वयं ही ब्रह्म हो गया।
असल में यह कहना कि स्वयं ही ब्रह्म
हो गया, भाषा की भूल है। ब्रह्म तो तुम हो ही। सिर्फ जानते
नहीं हो, सिर्फ बोध नहीं है--सोए हुए ब्रह्म हो। बुद्ध जागे
हुए ब्रह्म हैं। भेद ज्यादा नहीं है। जरा-सी तुम भी करवट लो और उठ आओ, बस, भेद समाप्त हो जाता है। कोई गुणात्मक भेद नहीं
है। तुम सोए हुए बुद्ध हो, बुद्ध जागे हुए बुद्ध हैं। यह
उपनिषद का ऋषि जो कह रहा है, यह तुम्हारे संबंध में उतना ही
सच है जितना उसके स्वयं के संबंध में। मगर तुम्हें इसका पता नहीं है। और जब तक
तुम्हें पता नहीं है, तब तक स्वभावतः यह सूत्र अजीब-सा लगेगा,
कि हम जानते हैं, उसके साथ हम एक कैसे हो जाते
हैं? तुम एक हो ही।
अब यूं समझो, जो तुम्हारे भीतर जान रहा है, वही ब्रह्म है। वह जो
जानने की क्षमता है, वही ब्रह्म है। वह जो तुम्हारे भीतर बोध
है, वही बुद्धत्व है। तुम्हारा चैतन्य ही परमात्मा का
एकमात्र प्रमाण है।
और सूत्र का दूसरा हिस्सा भी तुम्हें, सहजानंद, दिक्कत में डाला होगा। क्योंकि उसका
सामान्य अर्थ जो एकदम से ख्याल में आता है, अड़चन में डालने
वाला है। "उसके कुल में ब्रह्म को न जानने वाला पैदा नहीं होता।' इसको अगर तुमने शाब्दिक अर्थों में लिया, तो
स्वभावतः बहुत अजीब-सा लगेगा। क्योंकि बुद्ध का बेटा राहुल कोई पैदा होने से ही
बुद्धत्व को उपलब्ध नहीं हो जाता। महावीर की बेटी तो कभी बुद्धत्व को उपलब्ध हुई,
इसका कोई उल्लेख नहीं है। कृष्ण की सोलह हजार पत्नियां थीं, तो न-मालूम कितने हजार बेटे-बेटियां हुए होंगे! इतने हजारों ब्रह्मज्ञानी
अगर एक साथ एक आदमी पैदा कर देता तो इस देश की ऐसी दुर्गति न होती! कहां खो गये वे
हजारों कृष्ण के बेटे-बेटियां? उनका तो कुछ पता नहीं है।
इस सूत्र का शाब्दिक अर्थ मत लेना, इस सूत्र का बड़ा संकेतात्मक अर्थ है। यूं समझो।
बुद्ध ने कहा: मनुष्य की चेतना एक
प्रवाह है। जैसे नदी का प्रवाह। बुद्ध का शब्द है उस प्रवाह के लिए: संतति। आखिर
तुम्हारा बेटा तुम्हारा क्यों कहलाता है? क्योंकि तुम्हारे
प्रवाह से आया है। तुम्हारे ही प्रवाह का हिस्सा है। फिर उसका बेटा, फिर उसका बेटा, यह प्रवाह है। संतति।
बुद्ध ने कहा, जैसे दीया जलता हैं हम सांझ को, फिर सुबह दीये को
बुझाते हैं, अगर कोई तुमसे यह कहे कि जो दीया तुमने सांझ
जलाया था, जो ज्योति तुमने सांझ जलायी थी, क्या वही तुम सुबह बुझा रहे हो? तो तुम मुश्किल में
पड़ोगे। क्योंकि वही ज्योति तो तुम नहीं बुझा रहे हो। वह ज्योति तो न-मालूम कितनी
बार बुझ चुकी। नहीं तो धुआं कहां से उठता है? प्रतिपल पुरानी
ज्योति बुझ कर धुआं हो जाती है। और उसकी जगह नयी ज्योति आ जाती है। लेकिन पुरानी
ज्योति का बुझना और नयी ज्योति का आना इतनी त्वरा से होता है, इतनी तीव्रता से होता है कि तुम्हारी आंख देख नहीं पाती। दोनों के बीच
अंतराल इतना कम है और शीघ्रता इतनी है। नहीं तो यह सत्य तो यही है कि ज्योति हर
क्षण पुरानी विदा हो रही है, उड़ी जा रही है धुआं होकर,
नयी ज्योति उसकी जगह ले रही है। अगर वही ज्योति उड़ी जा रही है धुआं
होकर, नयी ज्योति उसकी जगह ले रही है। अगर वही ज्योति रही,
तो फिर तेल जलेगा ही नहीं, फिर बाती जलेगी ही
नहीं; बाती उतनी ही रहेगी, तेल भी उतना
ही रहेगा--खर्च का सवाल ही नहीं उठता, ज्योति वही है। लेकिन
ज्योति प्रतिपल भागी जा रही है।
तो तुम क्या कहोगे? क्या तुम कहोगे, हम वही ज्योति बुझाते हैं सुबह जो
हमने सांझ जलायी थी? यह तो नहीं कहा जा सकता। तो क्या तुम यह
कहोगे कि हम दूसरा दीया बुझा रहे हैं; जो हमने सांझ जलाया था,
वही नहीं; यह भी नहीं कहा जा सकता। बुद्ध ने
कहा: यह उसी दीये की संतति है। वह दीया तो बुझता रहा, लेकिन
उसकी संतति चलती रही, उसका प्रवाह चलता रहा। यह उसी शृंखला
में बंधी हुई आयी ज्योति है। जो ज्योति तुमने जलायी थी, उसी
सिलसिले का यह हिस्सा है। उसी सातत्य का।
आज विज्ञान भी इस सत्य को स्वीकार
करता है। इसलिए विज्ञान के पास भी संतति जैसा एक शब्द है: "कंटीनम'।
"कंटीनम' का अर्थ होता है: "कन्टीन्यूटी', सातत्य। तुम जब यहां आए थे और तुम जब घंटे भर बाद यहां से जाओगे, तो क्या तुम सोचते हो तुम वही व्यक्ति हो जो आए थे? नहीं।
जो आया था, उसमें तो बहुत बदल गया। थोड़ा-सा तुम्हारे भीतर
बुढ़ापा भी आ गया। एक घंटा जिंदगी बीत गयी। कुछ तुम्हारे भीतर मर भी गया। तुम्हारे
नाखून थोड़े बढ़ गये, तुम्हारे बाल थोड़े बढ़ गये। कुछ
जीर्ण-शीर्ण भी हो गया। कुछ भोजन भी पच गया--सुबह ने नाश्ता करके आए थे--कुछ
मांस-मज्जा भी बन गयी। तुम वही तो नहीं हो। और फिर तुम मुझे सुन कर जाओगे तो कुछ
नये विचार भी तुम्हारे भीतर प्रविष्ट हो गये। कुछ पुराने विचारों को धक्का देकर
उन्होंने निकाल दिया होगा। तुम वही नहीं हो। लेकिन एक अर्थ में तुम वही हो। इस
अर्थ में तुम वही हो कि अब तुम जो जा रहे हो, उसी की संतति
है, उसी की संतान है।
जिस वृक्ष के पास से तुम गुजर कर आए
थे, जब लौट कर, जाओगे, क्या वृक्ष
वही है? कुछ पत्ते गिर गये, कुछ नये
पत्ते ऊग आए। वही तो नहीं है। वृक्ष थोड़ा बड़ा भी हो गया, जड़ें
थोड़ी गहरी भी हो गयीं। हो सकता है तुम जब आए थे तो जो कली थी, जब तुम लौट कर जाओ फूल बन गयी हो; पंखुड़ियां खिल गयी
हों, गंध उड़ गयी हो। वृक्ष वही तो नहीं है। जीवन सतत प्रवाह
है। गतिमान है, गत्यात्मक है। थिर नहीं है। ठहरा हुआ नहीं
है। जड़ नहीं है। इसको बुद्ध ने कहा है: प्रवाह, संतति। विज्ञान
कहता है: "कंटीनम'।
इस बात को ख्याल में रखो तो उपनिषद का
यह सूत्र साफ हो जाएगा--
"उसके कुल में
ब्रह्म को न जानने वाला पैदा नहीं होता।' जिसने एक बार
ब्रह्म को जान लिया, फिर उसकी शृंखला में जो भी चेतना आएगी,
उसकी चेतना में जो नये-नये पत्ते लगेंगे और नये-नये फूल खिलेंगे,
वे सब ब्रह्म को जानने वाले होंगे। इसका मतलब तुम यह मत समझ लेना कि
उसके बेटे ब्रह्म को जानने वाले होंगे। बेटे तो उसके शरीर से आते हैं। शरीर तो
ब्रह्म को जानता नहीं। चेतना ब्रह्म को जानती है। तो चेतना की जो संतति होगी,
वह ब्रह्म को जानने वाली होगी। जिसने जवानी में ब्रह्म को जाना,
वह बुढ़ापे में भी ब्रह्म को जानेगा। हालांकि बुढ़ापे में कितनी धारा
बदल गयी, गंगा का कितना पानी बह गया! जिसने जीते-जी ब्रह्म
को जाना, वह मरते क्षण में भी ब्रह्म को जानेगा। वह उसी आनंद
से जीया, वह उसी आनंद से मरेगा भी। उसकी मृत्यु भी एक अपूर्व,
अद्धितीय अनुभव होगी। उसकी मृत्यु भी एक उत्सव होगी। वह जीवन भी
उत्सव से जीया, उसका जीवन गीतों से भरा था, उसका जीवन एक मादक संगीत था, उसकी मृत्यु भी उसी
मादकता का अंतिम शिखर होगी, गौरीशंकर होगी।
साधारण आदमी मरता है तो हम उसे जलाते
हैं। और करें भी क्या? लेकिन हम भी रोते हैं, वह भी
रोता हुआ विदा होता है। लेकिन जब कोई बुद्ध विदा होता तो रोना मत, क्योंकि वह रोता विदा नहीं हुआ। उसके साथ अन्याय मत करना! वह हंसता गया,
प्रफुल्लित गया, तुम भी नाचते हुए उसे विदा
देना। तुम भी आनंदमग्न हो कर विदा होना। इसलिए मैंने कहा है कि मेरा कोई भी
संन्यासी मरे तो रोना मत, आंसू मत गिराना--उसके साथ अन्याय
होगा। नाचना, आह्लादित होना। दुख की कोई बात नहीं है। जो
नहीं मिटने वाला है, नहीं मिटेगा, और
जो मिटने वाला है, वह मिटने ही वाला था।
तू जिस्म के खुशरंग लिबासों पै है
नाजां
तू जिस्म के खुशरंग लिबासों पै है
नाजां
पागल, मैं रूह को मोहताजे
कफने देख रहा हूं
मैं रूह को मोहताजे कफने देख रहा
हूं...
तू जिस्म के खुशरंग लिबासों पै है
नाजां
मैं रूह को मोहताजे कफने देख रहा हूं
हम हाल उनकी बज्म को दुनिया से पूछते
लेकिन, दुनिया गयी तो वहीं
जाकर रह गई...
हम हाल उनकी बज्म को दुनिया से पूछते
दुनिया गयी तो वहीं जाकर रह गई
कोई आये, कोई जाये...
कोई आये, कोई जाये, ये तमाशा क्या है
कोई आये, कोई जाये, ये तमाशा क्या है
देखो, कोई आये, कोई जाये, ये तमाशा क्या है
कुछ समझ में नहीं आता...
कुछ समझ में नहीं आता कि ये दुनिया
क्या है
नींद से आंख खुली है अभी...
नींद से आंख खुली है अभी देखा क्या है
देख लेना अभी कुछ देर में...
देख लेना अभी कुछ देर में दुनिया क्या
है
कोई आये, कोई जाये, ये तमाशा क्या है
देखो, कोई आये, कोई जाये, ये तमाशा क्या है
कुछ समझ में नहीं आता कि ये दुनिया
क्या है
नींद से आंख खुली है अभी देखा क्या है
देख लेना अभी कुछ देर में दुनिया क्या
है
दम निकलते ही हुआ...
दम निकलते ही हुआ बोझ सभी पर भारी
अरे, जल्दी ले जाओ...
जल्द ले जाओ अब इस ढेर में रखा क्या
है
दम निकलते ही हुआ बोझ सभी पर भारी
जल्द ले जाओ...
जल्द ले जाओ जब इस ढेर में रखा क्या
है
कोई आये, कोई जाये, ये तमाशा क्या है
कुछ समझ में नहीं आता कि ये दुनिया
क्या है
रेत की, इट की, पत्थर की हो या मिट्टी की
इस दीवार के साये का भरोसा क्या है
रेत की ईंट की, पत्थर की हो या मिट्ठी की
इस दीवार के साये का भरोसा क्या है
कोई आये, कोई जाये, ये तमाशा क्या है
कुछ समझ में नहीं आता कि ये दुनिया
क्या है
शौक गिनने का अगर है तो अमल को गिन ले
मेरे दिलगीर इस दौलत को गिनता क्या है
शौक गिनने का अगर है तो अमल को गिन ले
मेरे दिलगीर इस दौलत को गिनता क्या है
देखो, कोई आये, कोई जाये, ये तमाशा क्या है
कुछ समझ में नहीं आता कि ये दुनिया
क्या है
जख्म करके वे तसल्ली भी दिये जाते
हैं...
जख्म करके वे तसल्ली भी दिये जाते हैं
अरे, रफ्ता-रफ्ता...
अरे, रफ्ता-रफ्ता सभी
आजाएंगे डरता क्या है
रफ्ता-रफ्ता सभी आजाएंगे डरता क्या है
जख्म करके वो तसल्ली भी दिये जाते हैं
रफ्ता-रफ्ता सभी आ जाएंगे डरता क्या
है
अपनी दानिश्त में समझे कोई दुनिया
साहिद
वरना हाथों में...
वरना हाथों में लकीरों के इलावा क्या
है
अपनी दानिश्त में समझे को दुनिया
साहिद
वरना हाथों में लकीरों के इलावा क्या
है
देखो, कोई आये, कोई जाये, तमाशा क्या है
तू जिस्म के खुशरंग लिबासों पै है
नाजां
मैं रूह को मोहताजे कफन देख रहा हूं
कोई आये, कोई जाये, ये तमाशा क्या है
कुछ समझ में नहीं आता कि ये दुनिया
क्या है
यह जिंदगी समझ में नहीं आएगी, जब तक कि तुम भीतर न झांको। बाहर देखते रहो, देखते
रहो, कुछ समझ में नहीं आएगा। लेकिन भीतर झांका कि सब समझ में
आ जाता है। क्योंकि समझने वाला समझ में आ जाता है। देखने वाला दिखायी पड़ जाए,
जानने वाला जानने में आ जाए, सब समझ में आ
जाता है। और उस समझ के बाद कोई छीन नहीं सकता तुम्हारे ज्ञान को, तुम्हारे बोध को। बुद्धत्व पर पहुंच कर कोई गिरता नहीं है। गिरना असंभव
है। क्योंकि बुद्धत्व कोई ऐसी चीज नहीं है जो तुमसे भिन्न है। वह तुम्हारा ही परम
आविष्कार है। उससे गिरना भी चाहोगे तो कैसे गिरोगे? बुद्धत्व
को पाकर न कभी कोई गिरा है, न कभी कोई गिर सकता है।
नास्याब्रह्मवित कुले भवति। उसके कुल
में, उसकी संतति में, उसके प्रवाह
में, उसकी चैतन्य-धारा में, उसकी आत्मा
की गंगा में फिर कभी भी अज्ञान पैदा नहीं होता। फिर हर आने वाला दिन और भी निखार
लाता है। हर आने वाला क्षण और नये फूल खिला जाता है। उसके जीवन में फिर बसंत ही
बसंत है। उसके जीवन में फिर ऋचाएं उठने लगती हैं, गीत फूटने
लगते हैं, नृत्य जगने लगता है।
तरति शोकं,...
वह पार हो जाता है दुख के।
दुख क्या है? दुख का आधार क्या है, बुनियाद क्या है? यही कि हम अपने से अपरिचित हैं। अपने से अपरिचित होना दुख है। अपने से
परिचित हो जाना आनंद है।
तरति शोकं, तरति पाप्मानम
और पाप क्या है? जो अपने को नहीं जानता, वह जो भी करेगा, पाप है।
इसे जरा समझना।
वह पुण्य भी समझ कर जो करेगा, वह भी पाप है। वह पुण्य कर ही नहीं सकता। जिसने स्वयं को नहीं जाना है,
उससे पुण्य असंभव है। क्यों! इसलिए कि जो भीतर अंधेरे से भरा है,
उस अंधेरे से कैसे प्रकाश की किरणें पैदा होंगी? जो भीतर बेहोश है, उससे तुम होश की अपेक्षा न रखो।
वह चाहे दिखावा कितना ही करे!
मैं रायपुर कुछ समय के लिए प्रोफेसर
था। मेरे साथ अंग्रेजी विभाग में एक प्रोफेसर थे, उन्हें शराब पीने की
आदत थी। मगर वे दिखावा यूं करते थे कि नहीं पीए हुए हैं। मगर उनके दिखावे के कारण
ही वे फंसते थे। सभी शराबी कोशिश यही करते हैं दिखलाने की। वे कोशिश न करें तो
शायद पकड़ में भी न आएं। उनकी कोशिश ही झंझट कर देती।
एक दिन वे पीकर मुझसे मिलने आ गये।
आते ही से मुझसे बोले कि आप यह मत समझना कि मैं पीए हुए हूं। मैंने कहा कि हद कर
दी तुमने भी! मैं क्यों समझूंगा कि तुम पीए हो! मगर तुमने यह बात कही क्यों? नहीं, उन्होंने कहा, कुछ लोग
यह समझ लेते हैं कि मैं हमेशा पीए हुए हूं। अरे, कभी
होली-दीवाली पी ली, बात रख दी, मगर रोज
नहीं पीता। मगर मैंने कहा, तुमने यह टोपी कैसे उलटी लगा रखी
है? टोपी सीधी थी, उन्होंने जल्दी से
उसको उल्टी कर ली। मैंने कहा, बिलकुल साफ है कि तुम पीए हुए
नहीं हो, मगर यह कोट तुमने उल्टा पहन रखा है! उन्होंने गौर
से देखा, अरे, उन्होंने कहा, हां! और जब वे कोट उल्टा करने लगे, मैंने कहा,
अब रुको, नाहक कष्ट न करो, किसको धोखा दे रहे हो?
तुम्हारी चेष्टा कि तुम नहीं पीए हुए
हो, तुम्हें कहीं भी फंसा देगी। शराब पीने के बाद या भांग पी लेने के बाद आदमी
यह कोशिश करता है दिखाने कि मैं नहीं पीए हुए हूं। सम्हल कर चलता है। मगर उसका
सम्हल कर चलना ही बताता है। क्योंकि रोज तो सम्हल कर नहीं चलता था, सम्हलने की कोई जरूरत ही नहीं थी। आदमी जब होश में होता है तो चलता है,
सम्हलने की क्या जरूरत है? जोर-जोर से बोलता
है कि कहीं कोई भूल-चूक न हो जाए। सम्हल-सम्हल कर बोलता है। उसी मैं गड़बड़ हो जाती
है।
जिसको आत्मज्ञान नहीं है, वह मंदिर बनवाएं तो भी पाप होगा। क्योंकि वह मंदिर परमात्मा के लिए तो
बनवा नहीं सकता। परमात्मा का उसे कोई बोध नहीं है। अब तुम देखते हो न कितने
बिड़ला-मंदिर बने हुए हैं! जुगल किशोर बिड़ला मुझे मिले थे, तो
वह मुझसे कहने लगे कि आप जानकर खुश होंगे कि मैंने कितने मंदिर बनवाए! मैंने कहा,
उनमें से एक भी मंदिर भगवान का नहीं है, सब
बिड़ला-मंदिर हैं। और पहली दफे ही यह अनूठी घटना आपने की है! यहां कृष्ण के मंदिर
बनते थे, राम के मंदिर बनते थे, लेकिन
बिड़ला-मंदिर बिलकुल नयी चीज है! उन्होंने कहा, लेकिन किसी ने
मुझे यह ख्याल नहीं दिलाया। यह बात तो ठीक है कि मंदिर बिड़ला-मंदिर क्यों कहलाए?
सदियों से मंदिर बनते रहे, लेकिन कोई मंदिर
बनाने वाले के नाम से नहीं कहलाया था। जिसकी मूर्ति स्थापित हो, उसका मंदिर होता है। लेकिन बिड़ला-मंदिर।
लेकिन सचाई यह है कि आदमी मंदिर मंदिर
के लिए नहीं बनाता, उस पत्थर के लिए बनाता है जो उसके नाम का मंदिर पर
लगाया जाएगा। यह जो मंदिर पर लगाया हुआ अहंकार का पत्थर है, उसकी
ही सजावट है मंदिर और कुछ भी नहीं। उससे भिन्न कुछ भी नहीं। वह दान भी करेगा तो भी
दान के पीछे लोभ ही छिपा होता है। क्योंकि शास्त्र कहते हैं, पंडित-पुरोहित समझाते हैं कि यहां एक पैसा भी अगर दान किया। तो स्वर्ग में
एक करोड़ गुना पाओगे। यह सौदा करने जैसा है! यह इतना--लाटरी समझो, सौदा नहीं! एक पैसा यहां लगाओगे, करोड़ गुना मिलेगा;
कर ही लेने जैसा है! अरे, थोड़ा-बहुत लगा दिया
तो हर्ज क्या है! इतना अगर मिलने वाला है, तो जो नहीं कर रहे
हैं धंधा, वे गलती में हैं! मगर यह धंधा ही है, इसके पीछे लोभ है। इसके पीछे स्वर्ग को पाने की कामना है।
और स्वर्ग के पीछे क्या इच्छा छिपी
हुई है? कल्पवृक्ष के नीचे बैठेंगे। बहुत-सी वासनाएं यहां
अधूरी रह गयी हैं--किसकी पूरी होती हैं! बुद्ध ने कहा है: वासना दुष्पूर है;
किसी की भी पूरी नहीं होती--तो स्वर्ग में पूरी कर लेंगे। यहां तो
बहुत दौड़धूप करो, भाग-दौड़ करो, बामुश्किल
से मारामार करो, तब भी थोड़-बहुत कुछ मिलता है; उससे कुछ तृप्ति तो होती नहीं, और प्यास बढ़ जाती है।
लेकिन कल्पवृक्षों के नीचे बैठेंगे, आनंद करेंगे--एक दफा
स्वर्ग पहुंच जाएं।
तो कल्पवृक्षों की कल्पना ही कामियों
की कल्पना है। कल्पवृक्ष भोगियों की कल्पना है। जो यहां नहीं भोग पाए--यहां धूनी
रमाए बैठे हैं; आग बरस रही सूरज से और ये चारों तरफ और आग जला कर
बैठे हैं; इसको कहते हैं तपश्चर्या! आत्महिंसा कर रहे हैं,
अपने को सता रहे हैं, दुष्टता कर रहे हैं हर
तरह की, मगर इसको कहते हैं तपश्चर्या! मगर इनके भीतर कामना
क्या सुलग रही है? यहां बाहर आग सुलग रही और भीतर कामना की
आग सुलग रही है कि अरे, चार दिन की बात है, दो दिन तो गुजर ही गये, दो दिन भी गुजर जाएंगे और
फिर स्वर्ग में आनंद ही आनंद है, थोड़ा कष्ट झेल ही लो इस
थोड़े-से कष्ट के पीछे उतना आनंद नहीं छोड़ा जा सकता! वहां कल्पवृक्षों के नीचे
बैठेंगे और मजा करेंगे! वहां तो कामना की और तत्क्षण पूरी हो जाती है। इधर चाहा
नहीं--तुम्हारी चाह भी पूरी नहीं हो पाती कि कामना पूरी हो जाती है। बस, मन में भाव उठा कि कामना पूरी हो जाती है। तो यहां लोग पुण्य करेंगे,
तप करेंगे, योग करेंगे, दान
करेंगे, व्रत-उपवास करेंगे, लेकिन
आकांक्षा क्या है? आकांक्षा यही है कि स्वर्ग में भोगेंगे।
और जो नहीं कर रहे हैं तप-व्रत-उपवास, उनकी तरफ इन उपवासियों की नजर देखो! उनको इस तरह देखते हैं कि जैसे कोई
कीड़े-मकोड़े हों। नर्क में सड़ेंगे ये। ये भी मजा है तपश्चर्या का, कि दूसरों को नर्क में सड़ता हुआ देखने का भी रस नर्क की जिसने ईजाद की है,
नर्क की कल्पना को जिन्होंने ईजाद किया है, ये
बहुत हिंसक और दुष्ट-प्रवृत्ति के लोग होंगे। आने लिए स्वर्ग का आयोजन कर लिया है,
दूसरों के लिए नर्क का आयोजन कर दिया है। जो हमारी मान कर चले,
वह स्वर्ग; जो हम जैसा रहे, वह स्वर्ग; और जो हमसे विपरीत जाए, वह नर्क में पड़ेगा। ये कोई अच्छे आदमियों के लक्षण तो नहीं। ये तो
सुसंस्कृत आदमी के लक्षण भी नहीं, धार्मिक की तो बात ही छोड़
दो!
तो ध्यान रखना, आत्मज्ञान के बिना कोई पाप से मुक्त नहीं हो सकता। हां पाप को छिपा ले
सकता है, ढांक ले सकता है। मगर पाप घूम-घूम कर लौट आएगा।
पाप है क्या? अंधकार से भरे हुए आदमी के कृत्य का नाम पाप है। अज्ञान से पैदा हुआ कृत्य
का नाम पाप है। ज्ञान से पैदा हुए कृत्य का नाम पुण्य है। इसीलिए मैं तुम से नहीं
कहता कि पाप मत करो, पुण्य करो; मैं
कहता हूं: अज्ञान को तोड़ो और ज्ञान को जगाओ। नींद हटाओ, होश
को जगाओ। और होश के बाद तुम जो करोगे, वह पुण्य है। और
बेहोशी में तुम करोगे, वह पाप है। मेरी व्याख्या सीधी-साफ
है।
और अगर तुम इस निर्णय में पड़ गये कि
क्या पाप है और क्या पुण्य है, तो तुम मुश्किल में पड़ जाओगे,
बहुत मुश्किल में पड़ जाओगे। फिर मच्छरों को मारना पाप है या पुण्य?
डी. डी. टी. का उपयोग पाप है या पुण्य? मच्छरदानी
बांधना पाप है या पुण्य है, सवाल उठेगा। क्योंकि मच्छरदानी
बांधने का मतलब मच्छरों को भूखा मार रहे हो। महापाप कर रहे हो। जरा सोच-समझ कर
मच्छरदानी बांधना। जैनी भी मच्छरदानी बांधते हैं! इनको तो कम से कम नहीं बांधना
चाहिए। क्या महापाप कर रहे हो!इतने बेचारे मच्छरों को, दीन-हीन
मच्छरों को भूखा मार रहे हो! महापाप कर रहे हो। जरा सोच-समझ कर मच्छरदानी बांधना।
जैनी भी मच्छरदानी बांधते हैं! इनको तो कम से कम नहीं बांधना चाहिए। क्या महापाप
कर रहे हो! इतने बेचारे मच्छरों को, दीन-हीन मच्छरों को भूखा
मार रहे हो!
कल मैंने देखा एक वक्तव्य, मेरे खिलाफ। जीव-दया मंडल, बंबई ने वक्तव्य दिया है
कि जीवों पर दया करनी चाहिए, इसलिए गऊ-हत्या बंद होनी चाहिए।
यह जीव-दया मंडल को अपना नाम बदल लेना चाहिए। इसको नाम रखना चाहिए: जीव:शोषक मंडल।
क्योंकि अगर दया करनी है तो मच्छर पर करके दिखाओ, खटमल पर
करके दिखाओ। गाय पर क्या दया कर रहे हो! गाय को तो तुम चूसते हो! और किस शास्त्र
में लिखा है कि गाय के थन में जो दूध आता है, वह तुम्हारे
लिए आता है--जीव-दया मंडल वालों के लिए आता है? वह
बछियों-बछड़ों के लिए आता है। और तुम उसको पी रहे हो और दया कर रहे हो तुम! गाय के
बच्चों को भूखा मार रहे हो! और गाय के इन बछड़ों को तुम फिर बधिया करके बैल बना रहे
हो!
लेकिन जीव-दया मंडल!
उन्होंने सब गाय का गुणगान किया है कि
गाय से कितने फायदे हैं। इसी से तो बैल मिलते, हल-बक्खर जोते-जाते,
बैलगाड़ी चलती; इसी से दूध मिलता; इसी से गोबर मिलता, गोबर गैस बनती, खाद बनती। तुम जीव-दया कर रहे हो कि गाय तुम पर दया कर रही है? मगर गाय से भी पूछ लो कि उसे दया करनी है कि नहीं? कि
तुम जबरदस्ती दया करवा रहे हो? जीव-दया मंडल का क्या अर्थ है?
जीवों से जबरदस्ती अपने ऊपर दया करवानी! अगर सच में ही जीव-दया मंडल
हो, तो मच्छरदानी की खिलाफत करो, डी.
डी. टी. का विरोध करो, खटमलों को मत मारो; खाट में खटमल हो जाएं तो धन्यभागी हो तुम, बिलकुल
महावीर स्वामी होकर लेट जाओ--नंग-धड़ंग, दिगंबर--कि आओ,
भाइयो एवं बहनो, जी भर कर पीओ! पुण्य करो!
मच्छरों को निमंत्रण दो! मच्छरों को मारो मत! तिलचट्टे इकट्ठे करो! चूहे! ऐसी-ऐसी
चीजें, इकट्ठी करो, गऊ पर क्या
तुम्हारा...सिर्फ दया गऊ माता पर कर रहे हो! और एक गऊ नहीं कहती कि तुम उसके बेटे
हो। और तुम्हीं बुद्धू कहे चले जाते हो कि हम गऊ को माता मानते हैं। और बैल को बाप
नहीं मानते, बड़ा मजा है! गऊ को माता मानते हो, बैल को बाप क्यों नहीं मानते? और यह गाय के जो
बच्चे-कच्चे होते हैं, इनको भाई-बहन! सिर्फ गऊ माता। और
जीव-दया मंडल है। जीव-दया मंडल का नाम बदल लो, इसका नाम रखो:
जीव-शोषक मंडल। क्योंकि अगर दया करनी है, तो अपना शोषण
करवाओ। दया का मतलब होता है तुम कुछ त्याग करो। तो गऊ को तुम चूस रहे हो और दया की
बातें कर रहे हो! किसको धोखा दे रहे हो?
कैसे तय करोगे कि क्या पाप है और क्या
पुण्य है? कौन-सी सब्जी खाना पाप है और कौन-सी सब्जी खाना पुण्य
है? जैनों के हिसाब से जो भी सब्जी जमीन के नीचे पैदा होती
है, उसको खाना पाप। आलू,...आलू जैसा
निरीह प्राणी कि किसी को भी देख कर दया आ जाए, उसको खाना पाप
है! क्योंकि वह जमीन के नीचे पैदा होता है। जब जमीन के नीचे पैदा होने में कोई
कसूर है? अंधेरे में पैदा होता है। तो तुम कोई रोशनी में
पैदा हुए हो? नौ महीने तुम भी मां के पेट में अंधेरे में
रहे। बिचारा आलू भी जमीन के गर्भ में रहता है, उससे ऐसी क्या
नाराजगी है?
पर्यूषण आते हैं तो जैन हरी सब्जियां
नहीं खाते। मगर सुखा कर रख लेते हैं। और जिनको सुखा कर रख लेते हैं वे हरी थीं।
मगर पहले रख लेते हैं, पर्यूषण के पहले सुखा कर रख लेते हैं। सूख गयीं फिर
हरी न रही।
और एक मजा तो मैंने देखा, एक श्वेतांबर घर मैं मेहमान था, पर्यूषण के दिन हरी
सब्जियां तो नहीं, लेकिन केले डट कर खाए जा रहे हैं। मैंने पूछा,
मामला क्या है? उन्होंने कहा, ये थोड़े ही हरे हैं। सब्जी, ये थोड़ी ही हरे हैं! ये
तो पीले हैं। हरी सब्जी का निषेध है।
तो फिर आदमी चालबाजियां निकालता है; होशियारियां निकालता है, बेईमानियां निकालता है,
रास्ते बनाता है। क्या-क्या रास्ते नहीं लोग बना लेते!
बुद्ध ने का कि मरे हुए जानवर का मांस
खाने में कोई पाप नहीं है, क्योंकि तुम हत्या तो कर नहीं रहे। बस, तरकीब मिल गयी, सारे दुनिया के बौद्ध मांसाहारी हैं।
तरकीब मिल गयी। हर बौद्ध देश में होटलों पर लिखा होता है कि यहां सिर्फ अपने-आप मर
गये जानवरों का मांस मिलता है। इतने जानवर एकदम से अपने-आप बौद्ध मुल्कों में ही
मरते हैं! अपने-आप! और किसी मुल्क में अपने-आप नहीं मरते। और मजा यह है कि इन
बौद्ध मुल्कों में अगर इतने जानवर अपने-आप आत्महत्या कर लेते हैं, तो फिर कसाईघर किसलिए खोले हुए हैं। कसाईघर में क्या होता है? आदमी मारे जाते हैं? इतने-इतने बड़े बूचरखाने हैं,
ये किस लिए हैं? मगर होटल पर वैसे ही टंगी
होती है तख्ती जैसे यहां टंगी होता है कि यहां शुद्ध घी की मिठाइयां हैं। अब तो ये
भी तख्तियां टांगने लगीं कि यहां शुद्ध डालडा, की मिठाइयां
मिलती है, क्योंकि अब यहां शुद्ध डालडा भी कहां मिलता है?
शुद्ध घी तो गयी बात, अब तो शुद्ध डालडा भी
नहीं मिलता। अब तो शुद्ध कोई चीज नहीं मिलती। अब तो डालडा घी की बात ही छोड़ दो,
शुद्ध हो दवा भी नहीं मिलती। तुम मजे से इंजेक्शन ले रहे हो,
सोच रहे हो कि ठीक हो जाओगे और पानी के इंजेक्शन दिये जा रहे हैं!
और हो सकता है पानी भी शुद्ध न हो। वह भी म्युनिसिपल के नल से भरा गया हो।
आदमी बेईमान है। और आदमी तब तक बेईमान
रहेगा जब तक भीतर रोशनी नहीं है। तब तक वह हर तरकीब निकाल लेगा। हर उपाय खोज लेगा।
तर्क खोज लेगा। और अपने को तर्क की आड़ में खड़ा कर लेगा।
जो मांसाहारी हैं दुनिया के, वे भी तर्क खोजे बैठे हुए हैं। वे भी कहते हैं कि जानवरों की आत्मा को
मुक्ति दिला रहे हैं। नहीं तो जानवर मुक्त कैसे होंगे? अब
कोई बेचारा सूअर के शरीर में बंद है आत्मा, इसको मुक्ति करवा
दो! सुअर के शरीर से इसका छुटकारा करवा दो। जैसे कि कोई जेलखाने से किसी कैदी को
छुटकारा करवाता है। ऐसे सुअर के शरीर में बंद आत्मा को मुक्त करवा दो। यह मुक्त हो
जाए तो किसी ऊंचे शरीर में पैदा होगी। कौन कहे कि किसके तर्क सही हैं और किसके गलत
हैं?
और किस आधार पर कहे?
हिंदुस्तान में दूध को पवित्र आहार
समझा जाता है--शुद्धतम, सात्विक--और ईसाइयों में क्वेकर संप्रदाय है, वह दूध को छूता नहीं। क्योंकि दूध बनता तो आदमी के शरीर के भीतर है उसी
तरह जैसे खून बनता है; या गाय के शरीर में बनता है, या भैंस के शरीर में बनता है, लेकिन है तो यह
"एनीमल प्रॉडक्ट'। जैसे खून। इसमें और खून में कोई भेद
नहीं है। इसलिए क्वेकर दूध नहीं पीते। और दुग्धारी को महापापी मानते हैं। किसको
सही मानोगे? ये तुम्हारे ऋषि-मुनि सही हैं, जो कह रहे हैं कि दूध का आहार सात्विक है? या,
क्वेकर सही हैं?
तुम अगर निर्णय करने बैठोगे कि क्या
पुण्य और क्या पाप, तो बहुत उलझन में पड़ जाओगे। सब धागे उलझ जाएंगे
तुम्हारे जीवन के। न तो पुण्य तय हो पाएगा, न पाप तय हो
पाएगा।
इसलिए मैं तुमसे यह कहता ही नहीं कि
तुम तय करो कि पुण्य क्या, पाप क्या। मैं कहता हूं: तुम सिर्फ एक काम करो कि
भीतर जागो! उस भीतर के ब्रह्म को जगा लो! फिर वह ब्रह्म जो कहे, वही पुण्य है। और जो कहे कि मत करो, वही पाप है। और
जब तुम्हारे भीतर अंतर्वाणी, अंतर्नाद उठना शुरू होता है,
अंतर्वेद जगता है, तब तुम्हारे जीवन में पुण्य
हो सकता है। उसके पहले पुण्य नहीं हो सकता। उसके पहले तो पाप ही होगा। और तुम जो
भी करोगे, गलत कारण से करोगे।
रामकृष्ण के पास एक आदमी आया और उसने
कहा कि मैं जा रहा हूं काशी, गंगा-स्नान को, आपको आशीर्वाद ले आऊं सोचा; आप क्या कहते हैं,
काशी-स्नान से पाप धुलते हैं या नहीं धुलते? रामकृष्ण
ने कहा कि जरूर धुलते हैं? मगर एक बात ख्याल रखना, तुमने देखा गंगा के तट पर बड़े-बड़े वृक्ष लगे होते हैं? देखा, जरूर देखा! वे किसलिए लगे हैं? उसने कहा कि यह भी कोई बात है, अरे, वृक्ष हैं, लगे हैं, नदी के
किनारे वृक्ष ऊगते ही है! रामकृष्ण ने कहा, उसका भी राज है।
तुम जब डुबकी मारते हो तो तुम्हारे पाप वृक्षों पर बैठ जाते हैं। फिर तुम डुबकी ही
मारे रखना! निकलना मत! अगर निकले और घर की तरफ चले कि वे फिर तुम पर सवार हो
जाएंगे! पाप भी बड़े होशियार हैं। गंगा में जब तक डूबे रहोगे, ठीक है; वे कहेंगे, डूबे रहो;
बेटा, कब तक डूबे रहोगे, निकलोगे कि नहीं? जब निकलोगे, वे
फिर सवार हो जाएंगे। इसलिए सार कुछ हाथ न आएगा।
रामकृष्ण ने बात पते की कही। अब कुछ
को ख्याल है, गंगा में नहीं आए तो पाप धुल गये। और जिस गंगा में
इतने लोग पाप धो चुके हैं, उसमें जरा सोच-समझ कर नहाना! पाप
ही पाप से भर गयी होगी गंगा। सदियों से नहा रहे हैं लोग। और सदियों से पाप धो रहे
हैं वहां। गंगा से ज्यादा पापी कोई नदी हो सकती दुनिया में। जरा सोच-समझ कर नहाना!
इससे तो कोई नाले में कहीं भी नहा लेना तो अच्छा है, किसी
डबरे में कूद जाना तो अच्छा है। शायद थोड़े-बहुत पाप धुल भी जाएं, क्योंकि डबरे में कोई कूदा नहीं। कोई गाय-भैंसें कूदती हैं, मगर उनको कोई पाप होता भी नहीं। भैंसें वगैरह जरूर गंगा नहीं जाती,
वे डबरों में जाती हैं--होशियार हैं! कहते भी हैं कि अक्ल बड़ी कि
भैंस? मैं तो भैंस को ही बड़ा मानता हूं। क्योंकि अक्ल जिनकी
है वे तो गंगा में जाते है और भैंस देखो तो डबरे में नहाती है। है होशियारी! कि
क्या जाना गंगा में, इतने पाप भरे हुए हैं, वहां नहाने से और झंझट खड़ी हो जाएगी।
तुम ऊपर से तय करने बैठोगे तो तुम कुछ
भी तय न कर पाओगे। हर चीज को पाप कहा गया है। ऐसी कोई चीज नहीं जिसको दुनिया में
किसी धर्म ने पाप न कहा हो। और ऐसी भी कोई चीज नहीं जिसको दुनिया में किसी धर्म ने
पुण्य न कहा हो। किसकी मानो? किस आधार पर मानो?
जीसस शराब पीते हैं? शराब पीना पाप है या पुण्य? जीसस को कोई एतराज नहीं
है शराब पीने में। और अगर जीसस शराब पी सकते हैं, तो फिर
शराब पीने में कैसे पाप होगा? रामकृष्ण मछली खाते हैं। मछली
खाना पाप है या पुण्य? अगर रामकृष्ण मछली खा सकते हैं,
तो कैसे पाप होगा? महावीर नग्न रहते हैं। नग्न
रहना पाप है या पुण्य? अगर नग्न रहना पाप है तो फिर महावीर
पाप कर रहे हैं। लेकिन महावीर कहीं पाप कर सकते हैं!
किसको मानोगे?
और दूसरा भी निर्धारक नहीं हो सकता
है। निर्धारण तुम्हारे भीतर से आना चाहिए। और प्रत्येक व्यक्ति को अपने जीवन के
लिए ज्योति अपने ही भीतर खोजनी पड़ती है।
इसलिए मैं तुम्हें आचरण नहीं देता।
मैं तुम्हें सिर्फ ध्यान देना चाहता हूं। आचरण दो कौड़ी का है बिना ध्यान के। और
ध्यान से जो आचरण पैदा होता है, तुम्हारे अंतस के रूपांतरण से जो
आचरण पैदा होता है, उसकी आभा अलग, उसका
सौंदर्य अलग, उसका रस अलग।
वही यह सूत्र कह रहा है:
तरति शोकं, तरति पाप्मानम
इस सूत्र की अदभुतता देखते हो? साधारणतः तुम्हारे साधु-संत तुमसे कहते हैं, पाप से
मुक्त हो जाओ तो ब्रह्म को जान लोगे। यह सूत्र कह रहा है: ब्रह्म को जान लो तो पाप
से मुक्त हो जाओगे। और सूत्र सत्य है।
गुहाग्रथिभ्यो विमुक्तोमृतो भवति।।
"और हृदय की
ग्रंथियों से मुक्त होकर अमृत बन जाता है।'
जिसने अपने भीतर के ज्ञाता को जान
लिया, द्रष्टा को जान लिया, उसकी सारी
ग्रंथियां कट गयीं। सारी गांठें कट गयीं। उसके जीवन में कोई गांठ न रही। उसका जीवन
सीधा, साफ-सुथरा हो गया। फिर वह जैसा भी जाता है, उसमें एक सरलता है, एक विनम्रता है। उसके जीवन में
फिर एक सादगी है। थोपी हुई सादगी नहीं। जबरदस्ती अपने को सादा बनाने की चेष्टा नहीं।
मगर उसके जीवन में एक सहजस्फूर्त सादगी है। जैसे फूलों में होती है। जैसे
चांदत्तारों में होती है। जैसे बच्चों की आंखों में होती है।
दूसरा प्रश्न:
भगवान, संसार भर में "भारतीय' अस्वीकृत और अनादृत हैं।
यहां तक कि भारतीय राष्ट्रीयता का जिक्र ही लोगों के व्यवहार में परिवर्तन ला देता
है--ऐसे जैसे कि वे किसी भिखारी अथवा असामाजिक व्यक्ति से बात कर रहे हैं। और तो
और इस आश्रम में भी भारतीय लोगों के साथ बिलकुल भिन्न व्यवहार होता है और कभी-कभी
बहुत कठोर भी।
भगवान, इस देश में पैदा होना क्या कोई दुर्भाग्य अथवा अवांछनीय घटना है?
कभी-कभी और भी
विचित्र लगता है, क्योंकि बातों-बातों में आपके संन्यासी भारतीयों तथा
गैर-भारतीयों में विभक्त कर दिये जाते हैं।
इस स्थिति पर
कुछ कहने की अनुकंपा करें।
कमल
भारती!...कमल अभी-अभी सारे विश्व की यात्रा करके लौटा है। स्वभावतः यह प्रश्न उसे
जगह-जगह उठा होगा कि भारतीय अस्वीकृत और अनादृत क्यों हैं?...
कारण खोजने चाहिए। कारण हैं?
पहली तो बात भारतीय अहंकार--कि हम
धर्मभूमि हैं, पुण्यभूमि हैं; कि हम धार्मिक
लोग हैं; कि हम सदाचारी हैं--दुनिया में अनादर पैदा करवाता
है। तुम्हारी ये घोषणाएं थोथी हो गयीं। जमाने हो गये, तब से
थोथी हो गयीं। हां, कभी कुछ लोग इस देश में हुए, जो परमात्मा की अनुभूति को पाकर ज्योतिर्मय हो उठे थे; जिन्होंने अमृत को जाना था। मगर उन कुछ लोगों के कारण कोई भारत-भूमि
पवित्र नहीं हो जाती। भूमियां भी कहीं पवित्र और अपवित्र होती हैं। भूमि तो एक है।
भूमि अलग-अलग भी नहीं है। कोई भारत और चीन कटे थोड़े ही हैं। कोई भारत और पाकिस्तान
बंटे थोड़े ही हैं। सिर्फ नक्शों पर विभाजन है।
और कैसा मजा है! अभी कुछ दिन पहले तक
पाकिस्तान पुण्यभूमि थी; उन्नीस सौ सैंतालीस के पहले पुण्यभूमि थी--लाहौर भी
और ढाका भी। और अब? अब लाहौर ढाका पुण्यभूमि नहीं रहे। अचानक
क्या हो गया? इतनी जल्दी सदियों पुरानी पुण्यभूमि एकदम
अपवित्र हो गयी? और किसको तुम पुण्यभूमि कहते हो? किस आधार पर पुण्यभूमि कहते हो?
तो तुम्हारी यह अकड़ अनादर का कारण
बनती है। यह अकड़ छोड़नी चाहिए भारतीय बहुत दंभी हैं। और दंभ में कोई बल भी नहीं। बल
भी हो तो भी एक बात है। दंभ के लिए कोई कारण हो तो भी एक बात है। कारण हो तब भी
दंभ गलत होता है और यहां तो अकारण दंभ है! बाईस सौ साल तुम गुलाम रहे और अब भी तुम
कहे चले जाते हो कि देवता भारत में जन्म लेने को तरसते हैं! बाईस सौ साल की गुलामी
के बाद भी तुम्हें यह समझ में नहीं आता कि तुम कायर हो, कि तुम नपुंसक हो गये हो, कि तुम्हारे जीवन में
चुनौतियों को स्वीकार करने की क्षमता नहीं रही है। लेकिन तुम तो इसको भी गौरव की
बात मानते हो! तुम सोचते हो, शायद यह भी परमात्मा की ही देन
थी कि हमको गुलाम बनाया। क्योंकि बिना उसकी इच्छा के पत्ता भी नहीं हिलता। अरे,
उसने चाहा होगा, तभी तो हम गुलाम बने। और जब
उसने चाहा तो हम कौन हैं जो उसके विपरीत चाहें! हम तो सदा उसके साथ राजी हैं। हम
तो भक्त लोग हैं। धार्मिक लोग हैं।
तुम्हारा धर्म तुम्हें सिखाता है कि
आत्मा अमर है। और तुमसे ज्यादा मरने से डरने वाली कोई कौम दुनिया में नहीं है। तुम
किस आधार पर आदर मांगते हो? तुम अपने शास्त्रों के खुद ही सबसे बड़े खंडन हो।
शास्त्र कहते हैं; ब्रह्म को जानने वाला ब्रह्म होता
है।...अभी हमने मुंडकोपनिषद का यह वचन समझने की कोशिश की।...और यहां ब्रह्म को
जानने वाले कितने लोग हैं! लेकिन ब्राह्मण बहुत हैं। और ब्राह्मण वही है अपने को
कहलाने का हकदार, जिसने ब्रह्म को जाना हो। जिसने ब्रह्म को
नहीं जाना, वह खाक ब्राह्मण है! ब्रह्म को बिना जाने
ब्राह्मण! कैसे कोई ब्राह्मण हो सकता है बिना ब्रह्म को जाने! और ब्रह्म को जानना
कोई पांडित्य की बात तो नहीं, कि तुमने वेद कंठस्थ कर लिये,
कि उपनिषद याद कर लिये, कि गीता को तोते की
तरह रटने लगे। और इसी तोतारटंत को तुम ज्ञान समझते हो! तुम दुनिया को धोखा नहीं दे
सकते।
इसलिए, कमल, अस्वीकृति है तुम्हारी, अनादर भी है। और यह बिलकुल
स्वाभाविक है। तुम्हारे ही कारण। भारत से ज्यादा पाखंडी व्यक्तित्व इस समय पृथ्वी
पर किसी देश का नहीं है। भारत के नेता पाखंडी, भारत के
धर्मगुरु पाखंडी। ये कहते कुछ हैं, करते कुछ हैं। जो कहते
हैं, ठीक उससे उल्टा करते हैं। और इन दोनों के कारण ही सारे
भारत की प्रतिमा खंडित हो गयी है। तुम अपने साधु-संतों को तो देखो! क्या कहते हैं,
क्या करते हैं!...
चैतन्य कीर्ति
ने पूछा है:
भगवान, बंबई के "जनशक्ति' समाचार-पत्र में
"कच्छ-केसरी अचल गच्छाधिपति' जैनाचार्य आचार्य गुणसागर
सूरी जी का एक वक्तव्य छपा है कि "कच्छ की पावन धरा पर रजनीशधाम की स्थापना
से कच्छ अनीति के मार्ग पर अग्रसर होगा। कच्छ संतान तथा इसके नीति-निर्धारक इस
दृश्य को ठंडे कलेजे से कैसे देख सकते हैं?
जैनाचार्य
आचार्य गुणसागर ने यह भी आरोप लगाया है कि भगवान के नाम के पीछे अश्लीलता का नाटक
चल रहा है, जिसमें मां-बहन समेत नारियों की लाज लूटी जा रही है।
इस नग्न दृश्य को देख कर हमारे तीन करोड़ रोम खड़े नहीं हो जाएंगे? हमें कच्छ में ही नहीं, सारे गुजरात में रजनीशधाम
नहीं चाहिए।' इसलिए इन आचार्य ने समस्त कच्छ और गुजरात के
युवकों का आह्वान किया है कि वे सचेत हो जाएं। भगवान, जैनाचार्य
के इन मनगढ़ंत निराधार आरोपों का क्या उत्तर है? और ये जो
युवकों को दिग्भ्रमित कर रहे हैं, उसके लिए क्या करना चाहिए?
निवेदन है कि कुछ कहें।
पहली
तो बात, इस देश का दुर्भाग्य तो तुम आंको! "कच्छ-केसरी'!
गांव-गांव, मुहल्ले-मुहल्ले, गली-गली, कूचे-कूचे केसरी बसे हैं! भारतीय-केसरी भी
कोई हो तो ठीक, कच्छ-केसरी! पहले इन कच्छ-केसरी का कभी नाम
भी नहीं सुना। यह न-मालूम किस गुफा में छिपे रहे! एकदम से इन्होंने सिंहनाद कर
दिया। और सिंहनाद भी क्या किया! और वही पाखंड और वही दंभ। कच्छ-केसरी! मुनि भी,
साधु भी उसी अहंकार की भाषा में बोलते हैं! कम से कम मुनि को तो
कहना चाहिए कि मैं आदमी हूं, कोई सिंह नहीं। यह तो लायंस
क्लब वालों पर छोड़ दो! जिनको जिंदगी में कुछ भी नहीं है, जो
घर में पूंछ दबा कर घुसते हैं, वे लायंस क्लब के मेंबर हो
जाते हैं। क्योंकि कम से कम थोड़ा तो रहता है कि अरे, हम
लायंस, हम सिंह!--क्लब की सदस्यता! इसीलिए तो इस तरह के
अच्छे-अच्छे नाम चुने जाते हैं। घर में भीगी बिल्ली और लायंस क्लब में देखो,
टाई इत्यादि बांध कर, सुगंध इत्यादि छिड़क कर
खड़े हो जाते हैं, पहुंच जाते हैं, मन
को समझा लेते हैं।
मगर कम से कम साधु को तो कहना चाहिए
कि मैं परमात्मा की तलाश में निकला हूं, यह तो आदमी से भी
नीचे गिर जाना हुआ: "कच्छ-केसरी'! सिंह कोई आदमी से ऊपर
होता है! चलो, कोई सरदार हो, कोई
राजपूत हो, कोई सिपाही हो और सिंह की भाषा में बोले, समझ में आता है। कि चलो ठीक है, यह आदमी से
गया-बीता। मगर मुनि हो कर और 'कच्छ-केसरी'। और "अचल गच्छाधिपति'! अचल! अरे, हिमालय भी अचल नहीं है। हम पहाड़ों को अचल कहते हैं, मगर
पहाड़ भी अचल नहीं हैं। हिमालय भी चलायमान है। वह भी बढ़ रहा है। ऋग्वेद में हिमालय
का कोई उल्लेख नहीं है। इस आधार पर लोकमान्य तिलक ने यह सिद्ध किया कि वेद--कम से
कम ऋग्वेद नब्बे हजार वर्ष पुराना है।
और यह आधार महत्वपूर्ण है। क्योंकि
हिमालय का कोई उल्लेख नहीं। अर्थात वेद की प्रथम ऋचाएं जब रची गयी होंगी, उस समय नहीं था। और हिमालय है भी सबसे नया पर्वत।-- विन्ध्याचल ज्यादा
पुराना, ज्यादा बूढ़ा है। विन्ध्याचल दुनिया का सबसे पुराना
पर्वत है। और इसलिए तो बेचारा, झुक गया है--कमर झुक गयी। यह
मत सोचना कि कोई ऋषि दक्षिण गये थे और कह गये थे कि तू झुका रहना जब तक मैं न
आऊंगा, और फिर आए ही नहीं, सो वह
बेचारा झुका है। सिर्फ बूढ़ा है। बुढ़ापे में कोई भी झुक जाता है। पहाड़ भी झुक जाते
हैं।
हिमालय नया पहाड़ है। अभी बढ़ रहा है।
रोज बढ़ रहा है। प्रतिवर्ष कम से कम एक फीट ऊपर उठ जाता है। वह भी कुछ अचल नहीं है।
हिमालय भी बनते और बिगड़ते रहते हैं। और जो सारे संसार को कहते हैं कि यहां सब
चलायमान है, परिवर्तनशील है, वे भी
"अचल गच्छाधिपति' हो कर बैठ जाते हैं!
और क्या हैं इनके गच्छ? भेड़ों के झुंड। उनको गच्छ कहते हैं। और कितने गच्छ हैं जैनियों के?
संख्या कुछ ज्यादा नहीं, कोई तीस-पैंतीस लाख।
उसमें दो बड़े संप्रदाय हैं: दिगंबर, श्वेतांबर। फिर उनमें
छोटे-छोटे संप्रदाय। फिर छोटे-छोटे संप्रदायों में और छोटे-छोटे में और छोटे-छोटे
गच्छा।...राजनीति का जाल फैला हुआ है!
और इनका वक्तव्य क्या है कि
"कच्छ की पावन धरा'। ये जो बात करते हैं आत्मा की, वह
भी मिट्टी में भरोसा करते हैं। बातें आत्मा की, भरोसा मिट्टी
में। अरे, मिट्टी मिट्टी है, कच्छ की
हो कि कटक की हो, कलकत्ता की हो कि कोयम्बटूर की हो, मिट्टी मिट्टी है! कुस्तुन्तुनिया की हो कि कैलिफोर्निया की हो, क्या फर्क पड़ता है, मिट्टी मिट्टी है! कच्छ की
मिट्टी किस आधार पर सिद्ध करोगे कि पावन है? कोई रासायनिक,
कोई वैज्ञानिक आधार दे सकते हो कि क्या पावनता है? लेकिन बस, मूढ़तापूर्ण बातें! और इन मूढ़तापूर्ण बातों
के कारण सारी दुनिया में हंसी होती है, व्यंग्य होता है।
भारतीय हास्यास्पद हो गया है।
और वे कहते हैं कि मेरे वहां पहुंचने
से कच्छ अनीति के मार्ग पर अग्रसर होगा। तो है कच्छ-केसरी, तुम क्या कर रहे हो वहां? हजारों साल से तुम तरह के
केसरी वहां जमे हुए हैं और अब तक नीति के मार्ग पर अग्रसर न कर पाए...चौदह
संतों-महंतों का वक्तव्य निकला है इकट्ठा कि कच्छ अनीति में डूब जाएगा, अगर मैं वहां गया। अरे, तुम चौदह, मैं अकेला! तुम नीति पर चलाना, मैं अनीति पर चलाऊंगा,
फिर अब कच्छ की मर्जी! तुम हो कौन जबरदस्ती नीति थोपने वाले?
तुमने कोई ठेका लिया है नीति का? तुम्हें इतनी
घबड़ाहट क्या है? तुम्हारे पैर के नीचे से जमीन क्यों खिसकी
जा रही है?
घबड़ाहट यह है कि मैं जो कह रहा हूं, उस सत्य के सामने तुम एकदम फीके पड़ जाओगे। तुम अंधेरी रात के जुगनू हो,
कच्छ-केसरी वगैरह कुछ भी नहीं! दिन के उजाले में लोग देख लेंगे की
जुगनू की हैसियत क्या है! इससे घबड़ाहट है। नहीं तो क्या चिंता है तुम्हें? सूरज कहीं डरता है अंधेरे से? डरता है तो अंधेरा
डरता है। मैं तो नहीं डर रहा। मैं तो तैयार हूं कहीं भी आने को! काशी निमंत्रण दे,
काशी में जम जाऊं। काशी की पावन धरा को अपवित्र करके रहूं! ऋषिकेश
बुलाए, ऋषिकेश में जम जाऊं। सब ऋषियों को भ्रष्ट कर दूं! मैं
तो तैयार हूं!
डरना मुझे चाहिए, क्योंकि मैं अनीति सिखा रहा हूं, तुम नीति सिखा रहे
हो; मैं अधर्म सिखा रहा, तुम धर्म सिखा
रहे; मैं लोगों को अंधकार की तरफ ले जा रहा, तुम प्रकाश की तरफ ले जा रहे, डरना मुझे चाहिए,
तुम डरते हो! और मैं अकेला और तुम्हारे साथ भारत के सब
साधु-संत-महंत! तुम्हें क्या भय होना चाहिए! और तुम्हारा सनातन धर्म, सदियों पुराने वेद तुम्हारे, उपनिषद तुम्हारे,
गीता तुम्हारी, एक मुझ अकेले आदमी से क्या
इतने भयभीत हो रहे हो? जरूर भीतर पोचे हो। कुछ भीतर है नहीं।
भुस भरी है भीतर।
ये जो लोग हैं, इनके कारण भारत अनादृत है। इनमें चुनौती लेने की भी क्षमता नहीं रही।
इन्हें खुश होना था कि मैं आ रहा हूं, तो चलो एक चुनौती
रहेगी! चलो एक संवाद उठेगा, कच्छ में चहल-पहल मचेंगी,
एक हवा खड़ी होगी! और डरते क्या हो अगर सत्य तुम्हारे साथ
है--सत्यमेव जयते। और अगर सत्य मेरे साथ है, तो भी सत्य को
ही जीतना चाहिए। सत्य ही जीते, यही हमारी सबकी मनोकामना होनी
चाहिए। लेकिन इनको भय है अपने सत्य पर। इनको भरोसा नहीं है अपने सत्य पर। इन्हें
अपने पाखंड का पता है।
अब वे कह रहे हैं कि अनीति के मार्ग
पर कच्छ अग्रसर हो जाएगा। तुम इतनी सदियों में नीति के मार्ग पर अग्रसर न कर पाए, और मैं दस-पांच वर्ष में अनीति के मार्ग पर अग्रसर कर दूंगा, तो जाहिर है कि कच्छ के लोग अनीति के मार्ग पर जाने को बिलकुल तत्पर बैठे
हैं। सिर्फ उन्हें इशारा चाहिए, कोई झंडी भर बता दे! तो तुम
कौन हो उनको रोकने वाले? तुम उनके कोई मालिक हो? तुम्हारी कोई बपौती है? कच्छ किसी के बाप का है?
अब वे कह रहे हैं कि "कच्छ की
संतान'। और ये मुनि हो गये, मगर अभी तक
कच्छ की संतान है! क्या-क्या छोटे-छोटे दायरे हैं!! अभी कच्छ से भी छुटकारा नहीं
हुआ, देह से क्या छुटकारा होगा! मिट्टी से तो देह बनती है।
आत्मा तो परमात्मा का हिस्सा है। आत्मा कोई मिट्ठी की संतान नहीं है, मृण्मय नहीं है। तुम्हारे भीतर जो चिन्मय तत्व है, उसकी
उदघोषणा करो, क्या मिट्ठी की बातें कर रहे हो! मगर ये मिट्ठी
के ही शेर हैं! ये घबड़ा रहे हैं कि जरा वर्षा हो गयी, तो
रंग-रौनक उखड़ जाएगी! ये झूठे शेर हैं।
मैंने सुना, एक राजनेता चुनाव हार गये। चुनाव हार गये, खाने-पीने
के लिए मुश्किल पड़ गयी। और तो कोई अकल थी नहीं। पढ़े-लिखे भी न थे। सिर्फ एक ही
धंधा है--नेता का--जिसमें किसी योग्यता की कोई जरूरत नहीं होती। चपरासी भी होना हो
तो कहते हैं कि कम से कम चौथी हिंदी, कम से कम मिडिल तो पास
होना ही चाहिए। वह भी नहीं थे। हस्ताक्षर भी नहीं करते, अगूंठा-छाप
थे। तो बड़ी मुश्किल में पड़ गये, अब कहां से रोटी-रोजी कमाएं,
क्या करें, क्या न करें!
किसी ने कहा कि सर्कस में एक जगह खाली
है, सो भागे पहुंचे, मैनेजर से कहा। मैनेजर ने कहा,
जगह तो खाली है मगर आप कर पाएंगे काम? अरे,
नेता ने कहा, मैं क्या नहीं कर सकता! तरहत्तरह
के काम किये। इस विभाग में मिनिस्टर रहा, उस विभाग में
मिनिस्टर रहा, सबका अनुभव है, तुम काम
तो बताओ! उसने कहा, काम कठिन नहीं है, काम
बिलकुल सरल है। हमारा एक सिंह मर गया है, सो उसकी खाल हमने
निकाल ली है, उसके भीतर तुम्हें घुसना होगा; और बस, तुम घूमते रहना कटघरे, में
सो लोगों को ख्याल रहेगा कि सिंह घूम रहा है। और कोई काम नहीं है, बस दोत्तीन घंटे सर्कस जब चलता है, तुम अपने चक्कर
मारते रहे, ताकि लोगों को यह ख्याल न रहे कि सिंह पर चुका
है। और हमने सिंह की दहाड़ भी टेपरिकार्ड कर रखी है, सो
बीच-बीच में दहाड़ भी उठेगी, सो लोग प्रसन्न रहेंगे। यह तो
कोई कठिन, बात नहीं, नेता ने कहा।
नेता उसी रात घुस गये सिंह की खाल में
और टेपरिकार्डर से सिंह की घनघोर गर्जना हो--और नेता को मजा भी बहुत आया! अरे, जनता को डराने में तो नेता को मजा आता है! दूसरे की छाती पर मूंग दलने में
तो मजा आता है! भीतर ही टेपरिकार्डर छिपाए हुए थे, बार-बार
उसकी बटन दबा दें! और जब हुंकार मचे और बच्चे रोने लगे और स्त्रियां बेहोश हो जाएं,
तो उनका दिल खुश हो जाए! अरे उन्होंने कहा, नेता
से भी अच्छा काम यह है!
तभी उन्होंने देखा कि दरवाजा खुला और
एक दूसरा सिंह भीतर लाया गया। दूसरे सिंह को देखा कि वे एकदम दोनों पैर पर खड़े हो
गये और चिल्लाए--बचाओ, बचाओ! भूल ही गये कि मैं सिंह हूं। बचाओ, बचाओ! घबड़ा गये कि यह दूसरा सिंह चला आ रहा है, अब मारे
गये! आदमियों को धोखा देना आसान है, सिंह को थोड़े ही धोखा दे
सकोगे? यह अभी दो लताड़ लगाएगा और अभी ठिकाने लगा देगा,
रास्ते पर! यह टेपरिकार्डर वगैरह का थोड़े ही भरोसा करेगा! यह तो
पहचान ही लेगा! और जब उनको दो पैर पर खड़े देखा तो जनता भी खड़ी हो गयी, जनता ने कहा, चमत्कार! सिंह दो पैर पर खड़ा है और
आदमी की भाषा बोल रहा है कि बचाओ, बचाओ; अरे, मारे गये, बचाओ! दूसरा
सिंह बोला कि अरे, मत घबड़ा, तू क्या
समझता है तू ही एक नेता है जो चुनाव हारा है! अरे, हम भी
हारे!
तब राज खुला कि वह ऊपर ही खाल थी!
ये कच्छ-केसरी, अचल गच्छाधिपति, ये सब हारे हुए नेता हैं! इनकी भाषा
अभी भी राजनीति की है।--उससे साबित होता है, इनकी भाषा से
साबित होता है कि हम कच्छ की संतान! अभी मिट्टी से भी मोह छूटा नहीं और मुनि हो
गये।
और इसके नीति-निर्धारक! किसने तुमको
तय किया कि तुम इसके नीति-निर्धारक हो? किसने तुम्हें हक
दिया कि तुम इसके नीति-निर्धारक हो? अपने ही मुंह मियां
मिट्ठू! और अगर तुम नीति-निर्धारक हो, तो मुझसे टक्कर लो,
मैं आता हूं! तुम नीति-निर्धारक करो, और मैं
नीति का तुम्हारी खंडन करूंगा, और फिर जो जीत जाए! फिर जनता
को मौका दो चुनने का, जिसको चुनना हो वह चुन लेगी। अगर
तुम्हारी नीति इतनी मधुर है, इतनी अमृतदायी है, जो जरूर जनता उसे चुनेगी। और मैं खुश होऊंगा कि जनता हमेशा जो शुभ है,
उसे चुने। मगर घबड़ाते क्या हो? इतना डर क्या?
ये दोनों पैर पर खड़े होकर क्या चिल्ला रहे हो कि बचाओ, बचाओ, अरे मारे गये!
तो वे कह रहे हैं, हम इस दृश्य को ठंडे कलेजे से कैसे देख सकते हैं? मुनि
होकर भी अभी गरम कलेजा! अरे, मुनि होकर तो कम से कम ठंडा
कलेजा करो! यह कलेजे की गरमी मुनि को शोभा नहीं देता! कलेजा और गरम! नहाओ-धोओ! जैन
मुनि नहाते नहीं, कलेजा गरम हो ही जाएगा। रात को ठंडा पानी
पीओ! रात भर बिना पीए रहोगे, कलेजा गरम हो ही जाएगा। पसीना
ही पसीना से भरे होते हैं, रोएं, रंध्र
सब बंद हो गये होते हैं। और इसीलिए वे कह रहे हैं कि उनके तीन करोड़ रोम खड़े नहीं
हो जाएंगे? अरे, नहीं खड़े होगे!
क्योंकि तुम्हारे रंध्र तो जमाने हो गये तब के बंद हो गये होंगे। पसीना और कच्छ की
मिट्टी और धूल और कच्छ के बवंडर--है ही क्या कच्छ में रेगिस्तान के सिवाय? सो ये तो जैन मुनि की देह है, पसीना से भरी, और फिर कच्छ की धूल, तुम्हारे रोएं और खड़े होंगे!
भूल ही गये होंगे खड़ा होना। रोएं तो तुम्हारे सब बंद ही हो चुके होंगे, कब के मर चुके होंगे और इसीलिए तो कलेजा गरम हो रहा है। क्योंकि रोओं से
ठंडी हवा भीतर जाती रहती है।
ख्याल रखना कि आदमी नाक से ही श्वास
नहीं लेता, रोओं से भी श्वास लेता है। वैज्ञानिक तो कहते हैं कि
अगर किसी आदमी के सारे रोएं बिलकुल बंद कर दिये जाएं और नाक खुली रखी जाए और सारी
शरीर पर पेंट कर दिया जाए, कोलतार, पर्त
पर पर्त, तो वह तीन घंटे में मर जायेगा। सांस नाक से लेता
रहे, मगर तीन घंटे में उसकी मौत हो जाएगी। क्योंकि प्रत्येक
रोआं श्वास लेता है। प्रत्येक रोआं एक छोटा-सा छिद्र है, जहां
से हवा भीतर जाती है और खून को तुम्हारे ताजा रखती है और ठंडा रखती है। अब
तुम्हारा कलेजा गरम हो रहा है, इसमें मैं क्या मरूं!
तुम्हारा कलेजा गरम हो रहा है, नहाओ, धोओ,
कच्छा बदलो! न-मालूम किस जमाने से वही कच्छा पहने हुए हो! कच्छियों
की यही खराब आदत है कि कच्छा पहन लिया तो पहने ही हुए हैं, बदलते
ही नहीं।
अब वे कह रहे हैं कि भगवान के नाम के
पीछे अश्लीलता का नाटक चल रहा है, जिसमें मां-बहन समेत नारियों की
लाज लूटी जा रही है! बड़े मजे की बात है। वात्सस्यान के कामसूत्र मैंने नहीं लिखे।
महर्षि वात्स्यायन ने लिखे! और पंडित कोक का कोकशास्त्र भी मैंने नहीं लिखा। पंडित
कोक ने लिखा! महापंडित था, ब्राह्मण था, कश्मीरी ब्राह्मण। और खजुराहो और कोणार्क और पुरी के मंदिर भारत में बने।
दुनिया में कहीं ऐसे मंदिर नहीं हैं। और दुनिया में कहीं ऐसी किताबें प्राचीन समय
में नहीं लिखी गयीं। और दोष तुम मुझे दे रहे हो! मेरा इसमें कुछ भी हाथ नहीं है।
और ये जैन मुनि होकर महावीर जब नग्न
घूम रहे थे, तो मां-बहनों को लाज आती थी कि नहीं? मां-बहनें घूंघट निकाल लेती थीं कि नहीं? नंग-धड़ंग
महावीर खड़े हुए हैं, मां-बहनों की तो कुछ सोचो! और जैन मुनि
होकर! तुम्हारे चौबीस तीर्थंकर नग्न रहे। और सुंदर देह वाले लोग थे--तुम्हारी
प्रतिमाओं को देखकर यही सबूत मिलता है; बलिष्ठ देह वाले लोग
थे, सुंदर देह वाले लोग थे--ये नग्न जब घूमते होंगे, तो स्त्रियों पर क्या गुजरती होगी, यह तो सोचो! और
तुम मुझ पर अश्लीलता थोप रहे हो! कुछ तो सत्य के प्रति निष्ठा और ईमानदारी चाहिए!
कह रहे हो कि इस नग्न दृश्य को देख कर
हमारे तीस करोड़ रोएं नहीं खड़े हो जाएंगे? अरे, होते हों तो हो जाएं! यहां तो कोई नग्न दृश्य नहीं है। मगर अगर तुम्हारा
दिल हो तो नग्न दृश्य भी खड़ा कर सकते हैं। इसीलिए कि तुम्हारे रोएं खड़े हो जाएं।
एक दफे जिंदगी तो आए! कुछ तो हो! कच्छ में सदियों से कुछ नहीं हुआ, कुछ तो हो! इसीलिए तो कच्छ चुना, कि बिलकुल मरा हुआ
पड़ा है! अभी मैं गया ही नहीं और चहलकदमी शुरू हो गयी। बड़ी धूमधाम मची हुई है,
बड़े वक्तव्य निकाले जा रहे हैं, एकदम तहलका
मचा हुआ है--मैं अभी गया ही नहीं कहीं। जाऊंगा या नहीं, यह
तो कुछ पक्का नहीं। मेरा कोई भरोसा! कि यूं ही तुम सबको बुद्धू बना रहा होऊं कि है
कच्छ के बुद्धुओं, तुम शोरगुल कर लो! फिर मेरा दिल हुआ तो
काशी के पंडितों को भड़काऊंगा। मेरा कुछ भरोसा है! काबा भी जा सकता हूं। इसमें कुछ
अड़चन मुझे नहीं है। मैं यही बैठ कर कितना मजा ले लेता हूं, यह
तो सोचो! एक-से एक गोबर-गणेशों में प्राण आ रहे, हैं। इसको
मैं जीवन-दान कहता हूं। कि जो कब के मर गये थे, उनमें फिर
सांसें चलने लगीं।
कहा है, समस्त कच्छ और गुजरात
के युवकों को कि वे सचेत हो जाएं। युवकों के पीछे क्यों पड़े हो? अरे, बूढ़ों को अखर रहा है तो बूढ़े सचेत हों! युवक तो
मेरे साथ हैं। और जो मेरे साथ नहीं है, वह क्या खाक युवक है!
अगर उसमें थोड़ा भी यौवन है और थोड़ी भी ऊर्जा है युवा होने की, मेरे साथ ही होगा। ये सड़ी-गली लाशें और बूढ़े ही तुम्हारे साथ हो सकते हैं।
मेरे साथ तो बूढ़े भी हो जाते हैं तो युवा हो जाते हैं। और तुम्हारे साथ जवान भी
अगर होंगे तो बूढ़े हो जाएंगे। वे जवान होंगे ही नहीं, तभी
तुम्हारे साथ हो सकते हैं।
मगर बड़ा मजा है। कल मैंने एक और दूसरा
वक्तव्य देखा महा कच्छ सम्मेलन के अध्यक्ष ने युवकों को आह्वान किया है कि रक्तदान
देने के लिए तैयार हो जाओ। अरे, वक्तव्य तुम करो! बेचारे युवकों
को क्यों फंसा रहे हो! रक्तदान ही करना है तो बूढ़े करें। अब इनको वैसे भी जाना है,
चलो इसी बहाने चले जाओ; रक्तदान कर दो ओर विदा
हो जाओ; ऐसे भी भीड़-भाड़ बहुत है, थोड़ी
जगह खाली होगी, मगर युवकों को क्यों? युवकों
को रक्तदान के लिए तैयार होना चाहिए। और ये सज्जन क्या करेंगे? ये तमाशा देखेंगे। युवकों को भड़काएंगे।
ये सारे जो पाखंडी इकट्ठे हो गये हैं
इस देश में धर्म के नाम पर, राजनीति के नाम पर, और हर तरह
की मूढ़ताओं का प्रचार कर रहे हैं, इनके कारण, कमल, भारत की अप्रतिष्ठा है। मैं छुटकारा दिलाना
चाहता हूं तुम्हें इनसे। और तुम इनसे छूट जाओ तो भारत पुनः प्रतिष्ठित हो सकता है,
पुनः: गौरव के शिखर पर पहुंच सकता है, मगर
पाखंड से छूटे बिना यह नहीं होगा।
तुम्हारे राजनेता पाखंडी हैं, उनसे छूटना जरूरी है।
चंदामल से कह रहे, ठाकुर आलमगीर,
पहुंच गये वे चांद पर, मार लिया क्या तीर?
मार लिया क्या तीर, लौट पृथ्वी पर आए,
हुए करोड़ों खर्च, कंकड़ी-मिट्टी लाए।
इनसे लाख गुना अच्छा नेता का धंधा,
बिना चांद पर चढ़े, हजार कर जाता "चंदा'।
नेता अखरोट से बोले किशमिश लाल,
"हजूर! हल कीजिए
मेरा एक सवाल।
मेरा एक सवाल, समझ में बात न भरती,
मुर्गी अंडों के ऊपर क्यों बैठा करती?
नेता ने कहा--"प्रबंध शीघ्र ही
करवा देंगे,
मुर्गी के कमरे में कुर्सी डलवा
देंगे।'
यह जो पाखंडियों की जमात इकट्ठी हो
गयी है, मूढ़ों की जमात तुम्हारी छाती पर बैठी है, इसके कारण अपमान है, अनादर है। अन्यथा कोई और कारण
नहीं है।
आज इतना ही।
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