शनिवार, 22 अप्रैल 2017

अंतर की खोज-(विविध)-प्रवचन-07



अंतर की खोज-(विविध)
ओशो
सातवां-प्रवचन
मेरे प्रिय आत्मन्!
एक अत्यंत वीरानी पहाड़ी सराय में मुझे ठहरने का मौका मिला था। संध्या सूरज के ढलते समय जब मैं उस सराय के पास पहुंच रहा था, तो उस वीरान घाटी में एक मार्मिक आवाज सुनाई पड़ रही थी। आवाज ऐसी मालूम पड़ती थी जैसे किसी बहुत पीड़ा भरे हृदय से निकलती हो। कोई बहुत ही हार्दिक स्वर में, बहुत दुख भरे स्वर में चिल्ला रहा था: स्वतंत्रता, स्वतंत्रता, स्वतंत्रता। और जब मैं सराय के निकट पहुंचा, तो मुझे ज्ञात हुआ, वह कोई मनुष्य न था, वह सराय के मालिक का तोता था, जो यह आवाज कर रहा था।
मुझे हैरानी हुई। क्योंकि मैंने तो ऐसा मनुष्य भी नहीं देखा जो स्वतंत्रता के लिए इतने प्यास से भरा हो। इस तोते को स्वतंत्र होने की ऐसी कैसी प्यास भर गई? निश्चित ही वह तोता कैद में था, पिंजड़े में बंद था। और उसके प्राणों में शायद मुक्त हो जाने की आकांक्षा अंकुरित हो गई थी।

उसके पिंजड़े का द्वार बंद था। मेरे मन में हुआ उसका द्वार खोल दूं और उसे उड़ा दूं, लेकिन उस समय सराय का मालिक मौजूद था, और उसके कैदी को मुक्त होना शायद वह पसंद न करता। इसलिए मैं रात की प्रतीक्षा करता रहा। रात आने तक उस तोते ने कई बार वही आवाज स्वतंत्रता की, वही पुकार लगाई। जैसे ही रात हो गई और सराय का मालिक सो गया, मैं उठा, और मैंने जाकर उस तोते के पिंजड़े के द्वार खोल दिए। सोचा था मैंने, द्वार खोलते ही वह उड़ जाएगा खुले आकाश में, लेकिन नहीं, द्वार खुला रहा और वह तोता अपने पिंजड़े के सींकचों को पकड़े हुए चिल्लाता रहा: स्वतंत्रता, स्वतंत्रता। तब मेरी कुछ समझ में बात नहीं आई, क्या उसे खुला हुआ द्वार दिखाई नहीं पड़ रहा है? सोचा, शायद बहुत दिन की आदत के कारण खुले आकाश से वह भयभीत होता हो। तो मैंने हाथ डाला और उस तोते को बाहर खींचने की कोशिश की। लेकिन नहीं, उसने मेरे हाथ पर हमले किए, चिल्लाता वह यही रहा: स्वतंत्रता, स्वतंत्रता। लेकिन अपने पिंजड़ों के सींकचों को पकड़े रहा और छोड़ने को राजी न हुआ। बहुत कठिनाई से उसे बाहर मैंने निकाल कर उड़ा दिया और यह सोच कर कि एक आत्मा मुक्त हुई, एक पिंजड़ा टूटा, एक कारागृह मिटा। मैं निश्चिंत होकर सो गया।
सुबह जब मैं उठा तो मैंने देखा, वही आवाज फिर गूंज रही है। बाहर आया, देखता हूं, तोता अपने पिंजड़े में भीतर बैठा है, सींकचे पकड़े हुए है, द्वार खुला है और वह चिल्ला रहा है: स्वतंत्रता, स्वतंत्रता। तब बात बहुत बेबूझ हो गई, समझ के बाहर हो गई, क्या यह तोता स्वतंत्रता चाहता था या कि स्वतंत्रता की बात ऐसे ही पुकारे चले जा रहा था? शायद यह स्वतंत्रता की बात भी उसने अपने मालिक से सीख ली थी। उसी मालिक से जिसने उसे पिंजड़े में बंद किया हुआ था। शायद यह उसके अपने हृदय की आवाज न थी। शायद उसके अपने प्राणों की प्यास न थी। उधार थी यह आवाज, अन्यथा उसका जीवन विपरीत नहीं हो सकता।
उस तोते को कभी नहीं भूल पाया हूं। और जब भी कोई मनुष्य मुझे मिलता है तो उस तोते का स्मरण फिर दिला देता है।
हर आदमी मुक्त होने की कामना से प्रेरित दिखाई पड़ता है। हर आदमी स्वतंत्र होने की आकांक्षा से उद्वेलित मालूम होता है। हरेक के प्राण में कारागृह के बाहर निकल जाने की तीव्र अभीप्सा मालूम होती है। और हरेक का हृदय चिल्लाता रहता है जीवन भर: स्वतंत्रता, स्वतंत्रता, स्वतंत्रता। लेकिन मैं बहुत हैरान हूं। जो व्यक्ति यह स्वतंत्रता की पुकार लगाए जाता है वही पिंजड़ों के सींकचों को पकड़े हुए है। उसके द्वार भी कोई खोल दे तो बाहर उड़ने को राजी नहीं है। ऐसी मनुष्य की दशा है।
इस तोते की घटना से इसलिए ही शुरू करना चाहता हूं, सारी पृथ्वी पर मनुष्य की दशा यही है। वे जो मुक्ति का आकाश खोजना चाहते हैं, मनुष्य द्वारा निर्मित ही कारागृहों में बंद हैं। वे जो स्वतंत्रता की उड़ान भरना चाहते हैं, अपने ही हाथों से बनाई हुई दीवालों में कैद हैं। वे जिनके प्राण गीत गाते हैं मुक्ति के, उनके हाथ उनकी ही जंजीरों को निर्मित करते रहते हैं। और इसका हमें कभी स्मरण भी नहीं हो पाता, इसका हमें कभी बोध भी नहीं हो पाता, अगर हमारी परतंत्रता किसी और के द्वारा निर्मित होती तो भी यह एक बात थी, हम खुद ही उसके निर्माता और स्रष्टा हैं।
इसलिए हम किससे पुकार रहे हैं हाथ जोड़ कर? हम किन मंदिरों में, किन परमात्माओं से प्रार्थनाएं कर रहे हैं कि मुक्त कर दो? हम किनके सामने हाथ जोड़ कर खड़े हैं कि हमें स्वतंत्रता दे दो? जब कि परतंत्रता हमारे ही द्वारा निर्मित हो, जब कि हम ही उसके बनाने वाले हों, जब कि जिन बेड?ियों और जंजीरों में हम बंधे हों, वे हमने ही ढाली हों, हमने ही अपने प्राणों के रक्त से उन्हें सींचा हो, मजबूत किया हो, तो हम किसके सामने हाथ जोड़े खड़े हैं? कौन हमें स्वतंत्रता दे सकेगा जब परतंत्रता हम खुद ही निर्मित करते हैं? इसलिए स्वतंत्रता मांगनी उचित नहीं है।
उचित है इस सत्य को देखना कि हम परतंत्रता को कैसे निर्मित करते हैं। जिस दिन हमें यह दिखाई पड़ जाए, जिस दिन हमें यह सत्य का साक्षात हो जाए कि मैं ही हूं बनाने वाला अपनी कैद का, यह इनप्रिजनमेंट, यह कारागृह मेरी ही ईजाद, मेरा ही आविष्कार है, उस दिन ही, उस क्षण ही मुक्त होना आसान हो सकेगा। लेकिन शायद हमें दिखाई नहीं पड़ता, कोई बहुत अनूठे रास्तों से, अनजान रास्तों से हम अपने ही हाथों से अपने जीवन को कसते चले जाते हैं।
एक छोटी घटना मुझे स्मरण आती है।
रोम में एक बहुत कुशल कारीगर था, एक बहुत बड़ा लोहार था। उसकी कुशलता की प्रसिद्धि दूर-दूर के देशों तक थी। दूर-दूर के बाजारों में उसकी चीजें बिकतीं। दूर-दूर उसकी प्रशंसा होती। धीरे-धीरे बहुत धन उसके द्वार पर आकर इकट्ठा होने लगा। फिर रोम पर हमला हुआ। और दुश्मन ने आकर रोम को रौंद डाला। और रोम के सौ बड़े नागरिकों को बंदी बना लिया। उन सौ बड़े नागरिकों में वह लोहार भी एक था। उन सबके हाथों में जंजीरें पहना दी गईं और पैरों में बेड़ियां डाल दी गईं, और उन्हें एक दूर पहाड़ी घाटियों में फिंकवा दिया गया मरने को, मृत्यु की प्रतीक्षा करने को। सौ नागरिकों में निन्यानबे नागरिक रो रहे थे, उनकी आंखें आंसुओं से भरी थीं, और प्राण चिंता और व्याकुलता से, लेकिन वह लोहार निश्चिंत मालूम होता था। न उसकी आंखों में आंसू थे, न उसके चेहरे पर उदासी थी, उसे खयाल था इस बात का, मैं जीवन भर खुद लोहे की कड़ियां बनाता रहा हूं, तो कड़ियां कितनी ही मजबूत हों, मैं उन्हें खोलने का कोई न कोई उपाय जरूर खोज लूंगा। बहुत कुशल था वह कारीगर, निश्चिंत था इसलिए, आश्वस्त था कि घबड़ाने की कोई बात नहीं है। जैसे ही मुझे फेंक कर कैदी की तरह घाटी में सैनिक लौट जाएंगे, मैं कड़ियां खोल लूंगा।
और उसे फेंक कर सैनिक वापस लौटे, तो उसने पहला काम अपनी कड़ियों को देखने का किया। लेकिन जंजीर को देखते ही, बेड़ी को देखते ही उसकी आंखें आंसुओं से भर गईं और उसने अपने बंधे हुए हाथों से अपनी छाती पीट ली और रोने लगा। क्या दिखाई पड़ गया उसे जंजीर पर? एक बड़ी अजीब बात जिसकी उसने जीवन में कभी कल्पना भी न की थी। उसकी आदत थी, वह जो भी बनाता था, जो भी चीज तैयार करता था उसके कोने तरफ में हस्ताक्षर कर देता था। कड़ी जब उसने देखी, पैर की जंजीर जब देखी, तो पाया, उसके हस्ताक्षर हैं। वह उसकी ही बनाई हुई जंजीर थी। जो दूर बाजारों में बिक कर वापस लौट आई थी दुश्मन के हाथों। और अब, अब वह घबड़ा गया था। अब जंजीर को तोड़ना बहुत कठिन था, क्योंकि उसे पता था कमजोर चीज बनाने की उसकी आदत ही नहीं थी। परिचित था इस कड़ी से, इस जंजीर से। कमजोर चीज बनाने की उसकी आदत नहीं रही, उसने तो मजबूत से मजबूत चीजें बनाई थीं। उसे कब खयाल था कि अपनी ही बनाई हुई जंजीरें किसी दिन अपने ही पैरों पर पड़ सकती हैं। यह तो कभी सपना भी न देखा था। कोई भी आदमी कभी यह सपना नहीं देखता कि जो कारागृह मैं बना रहा हूं उनका अंतिम बंदी मैं ही होने को हूं। कोई कभी यह नहीं देखता कि जो जंजीरें मैं निर्मित करता हूं, वे मेरे ही हाथों पर पड़ जाएंगी। कोई इस बात की कल्पना भी नहीं करता, दूर खयाल भी इस बात का नहीं आता कि पूरे जीवन में मैं जो जाल रच रहा हूं, मैं ही उसमें फंस जाऊंगा।
मैं आपसे निवेदन करता हूं, हर आदमी उसी जाल में फंस जाता है जिसका वह निर्माता है। और तब, तब वह चिल्लाता है और हाथ जोड़ता है और परमात्मा से प्रार्थनाएं करता है, व्रत-उपवास करता है, पूजा-अर्चना करता है, गिड़गिड़ाता है, घुटने टेक कर जमीन पर खड़ा होता आकाश की तरफ आंखें उठाता है--मुझे मुक्त कर दो, मुझे स्वतंत्र कर दो। लेकिन कौन करेगा स्वतंत्र? कोई आकाश से उतरेंगे देवता? कोई ईश्वर आएगा स्वतंत्र करने? जब परतंत्र होना चाहा था तब किससे पूछने हम गए थे? और किस परमात्मा से हमने प्रार्थना की थी? और किस मंदिर के द्वार पर हमने घुटने टेके थे? और किससे हमने पूछा था कि मैं परतंत्र होना चाहता हूं मुझे जंजीरें बनाने का रास्ता बता दो? किसी से भी नहीं, तब हम अपने से ही पूछ कर ये सब कुछ कर लिए थे। और स्वतंत्रता के लिए दूसरे के द्वार पूछने जाते हैं? और इसमें न हमें शर्म आती है और न यह खयाल आता है कि कैसी विक्षिप्त है यह बात। परतंत्रता अपनी निर्मित है तो स्वतंत्रता भी अपनी ही निर्मित करनी होगी। कोई प्रार्थना नहीं काम करेगी, कोई साथ नहीं देगा, कोई हाथ आकाश से नीचे नहीं उतरेगा कड़ियां खोलने को, अपने ही हाथों से जो बांधा है उसे खोलने पड़ेगा।
वह लोहार रोता रहा, छाती पीटता रहा, छोड़ दी उसने आशा जीवन की, अब बचने की कोई उम्मीद न थी। एक लकड़हारा बूढ़ा उस रास्ते से निकलता था, उसने पूछा, क्यों रोते हो? उस लोहार ने अपने दुख की कथा कही। उसने कहा, मैं सोचता था कि मुक्त हो सकूंगा इन जंजीरों से, लेकिन ये जंजीरें मेरी बनाई हुई हैं और बहुत मजबूत हैं। और अब, अब कोई रास्ता दिखाई नहीं पड़ता है।
वह बूढ़ा हंसने लगा और उसने कहा, इतने निराश हो जाने का कोई कारण नहीं। अगर ये जंजीरें किसी और की बनाई हुई होतीं, तो निराश होने का कारण भी था, ये तुम्हारी ही बनाई हुई हैं। और स्मरण रखो, बनाने वाला जिन चीजों को बनाता है उनसे हमेशा बड़ा होता है। स्रष्टा सृष्टि से बड़ा होता है; निर्माता निर्मित से बड़ा होता है। तुमने जो बनाया है तुम उससे बड़े हो। और इसलिए घबड़ाओ मत, जो तुमने बनाया है उसे तोड़ने की सामर्थ्य हमेशा तुम्हारे भीतर है, घबड़ा गए तो चूक जाओगे, फिर मुश्किल हो जाएगी। और स्मरण रखो, कड़ियां कितनी ही मजबूत हों, जंजीरें कितनी ही मजबूत हों, जहां जंजीर जोड़ी जाती है वह एक कड़ी हमेशा कमजोर रह जाती है, उस पर जोड़ होता है जो खुल सकता है। इसलिए घबड़ाओ मत, धैर्य से काम लो। इतने कुशल कारीगर हो, बेड़ियां बनाने में इतने कुशल थे, तो यह क्यों भूल जाते हो कि खोलने में भी वह कुशलता काम आ सकती है। जो आदमी गांठ बांधना जानता है, वह बांधते ही उसको खोलना भी जान जाता है, सीख जाता है। हर व्यक्ति अपनी परतंत्रता निर्मित करता है, अगर उसे ठीक से देखे तो उसे खोलने का मार्ग भी उसके पास है।
एक दिन सुबह बुद्ध ने अपने भिक्षुओं के पास बोलने की बजाय एक प्रश्न उपस्थित कर दिया था। जब वे आए थे बोलने को भिक्षुओं के बीच, तभी लोगों को हैरानी हुई थी, वे अपने हाथ में एक रेशमी रूमाल लिए चले आते थे। अब तक कभी वे कुछ लेकर न आए थे। सभी भिक्षु देखने लगे थे कि रेशमी रूमाल क्यों वे अपने हाथ में ले आए हैं? और आकर बैठ कर उन्होंने बिना कुछ बोले उस रेशमी रूमाल में एक गांठ बांध दी थी। भिक्षु देखते रहे थे। और तब पूछा था उन भिक्षुओं से कि मैं इस गांठ को खोलना चाहता हूं, और उस रूमाल के दोनों छोर पकड़ कर खींचा था और पूछा था, क्या खींचने से यह गांठ खुल जाएगी?
एक भिक्षु खड़ा हुआ, उसने कहा, कैसी नासमझी की बात करते हैं आप, खींचने से तो गांठ और बंध जाएगी।
तो बुद्ध ने पूछा, कैसे खोलूं इस गांठ को?
एक भिक्षु खड़ा हुआ और उसने कहा, रूमाल मुझे दें, मैं ठीक से देख लूं, कैसे बांधा है इस गांठ को? क्योंकि बांधने की जो विधि है वही खोलने की विधि है। बांधना और खोलना एक ही चीज को दो तरफ से देखने के ढंग हैं। परतंत्रता की जो विधि है, स्वतंत्रता की भी विधि वही है। उलटी तरफ से, दूसरे छोर से। इस दूसरे छोर से परतंत्रता की, स्वतंत्रता की तरफ जाने की मार्ग पर आज सुबह मैं थोड़ी बात आपसे करना चाहता हूं।
पहली बात, पहली कड़ी, पहली जंजीर, पहली गांठ जो हर मनुष्य ने अपने ऊपर बांध ली है, वह है अंधश्रद्धा की, अंधेपन की, आंख बंद कर लेने की, अनुकरण की, फॉलोईंग की, किसी के पीछे जाने की, किसी का अनुयायी होने की। अनुयायी होना परतंत्रता की पहली जंजीर है। और हम सब किसी न किसी के अनुयायी हैं, किसी न किसी के फॉलोअर हैं। कोई हिंदू है, कोई मुसलमान है, कोई कम्युनिस्ट है, कोई कुछ और है। लेकिन ऐसा आदमी खोजना कठिन है जो यह कहे कि मैं हूं और किसी का अनुयायी नहीं, अकेला हूं। जैसा हूं वही हूं, किसी के अनुकरण के पीछे पागल नहीं हूं। ऐसा अगर कहीं कोई मनुष्य खोजने मिल जाए, तो समझ लेना स्वतंत्रता की तरफ उसने पहला कदम उठा लिया है। मनुष्य का चित्त परतंत्र है अंधानुकरण से। हम किसी न किसी का अनुकरण कर रहे हैं, इमिटेशन कर रहे हैं, इमिटेट कर रहे हैं। कोई महावीर को, कोई बुद्ध को, कोई राम को, कोई कृष्ण को, कोई क्राइस्ट को, कोई मोहम्मद को, लेकिन कोई भी आदमी खुद होने को राजी नहीं है कोई और होना चाहता है। यह उसकी परतंत्रता की शुरुआत है। वह अपने व्यक्तित्व की जगह किसी और का व्यक्तित्व ओढ़ लेना चाहता है। और किसी और का व्यक्तित्व उसके व्यक्तित्व पर परतंत्रता की गांठ बन जाएगा।
स्मरण रहे, कोई मनुष्य अपने अतिरिक्त और कोई भी कभी नहीं हो सकता है। आज तक जमीन पर दो मनुष्य एक जैसे हुए हैं? राम को हुए कितने दिन हो गए, कोई दूसरा राम फिर हो सका है? महावीर को हुए कितना समय बीता, कोई दूसरा महावीर फिर दिखाई पड़ा? नहीं, लेकिन ढाई हजार वर्षों में महावीर के बाद क्या आप सोचते हैं, लाखों लोगों ने महावीर बनने की कोशिश नहीं की है? कोशिश जरूर की है। लेकिन एक भी सफल नहीं हुआ। और नहीं सफल हो सकता है।
प्रत्येक व्यक्ति अद्वितीय है, यूनीक है। कोई व्यक्ति किसी दूसरे की कार्बनकापी न है और न हो सकता है। इस होने की कोशिश में बंध जाएगा। यह होने की कोशिश उसका बंधन बनेगी। और तब फिर, तब फिर राम तो नहीं बन सकता, रामलीला का राम जरूर बन सकता है। और जमीन रामलीला के रामों से बहुत परेशान है। राम तो ठीक हैं, बहुत अदभुत हैं, लेकिन रामलीला के राम के साथ क्या करें? यह आदमी झूठा है। और यह रामलीला का आदमी पाखंड है। यह असत्य है। यह ऊपर से ओढ़े है किसी बात को जो यह भीतर नहीं है और नहीं हो सकता है। यह जो विरोध ही इसने अपने ऊपर से ओढ़ लिया है यही इसकी कारागृह है, यही इसका कैद है, यही इसका बंधन है। यह हमेशा पीड़ित और परेशान होगा। और जितना यह रामलीला का राम बनता जाएगा उतना ही इसकी जकड़ गहरी होती जाएगी, इसकी कड़ियां मजबूत होती चली जाएंगी। और भीतर इसके प्राण छटपटाएंगे वही होने को जो यह होने को पैदा हुआ था, जो इसकी आत्मा थी वही होने को इसके प्राण आकांक्षा से भर उठेंगे। प्राण भीतर कहेंगे, स्वतंत्रता चाहिए और यह रामलीला का राम, राम के वस्त्रों को ओढ़ कर कसता चला जाएगा। और भूल जाएगा इस बात को कि राम होने की मेरी कोशिश ही मेरा बंधन है। जब भी कोई आदमी किसी और जैसा होना चाहता है तो वह अपना कारागृह निर्मित कर रहा है, वह अपनी जंजीरें तैयार कर रहा है। यह कभी नहीं हो सकता कि कोई मनुष्य किसी दूसरे जैसा हो जाए।
इसीलिए तो हम कहते हैं कि प्रत्येक मनुष्य के पास आत्मा है। मशीन एक जैसी हो सकती हैं, क्योंकि मशीनों के पास कोई आत्मा नहीं है। फोर्ड की मोटरें एक जैसी निकल सकती हैं लाखों, उनके पास कोई आत्मा नहीं है। आत्मा है व्यक्तित्व, आत्मा है इंडिविजुअलिटी, आत्मा है अद्वितीयता। और प्रत्येक व्यक्ति जिसके पास आत्मा है वह कभी किसी दूसरे जैसा नहीं हो सकता। होने की कोशिश में उसकी आत्मा यांत्रिकता में जकड़ जाएगी। लेकिन हम सबको यही सिखाया जा रहा है बचपन से कि राम जैसे बनो, कृष्ण जैसे बनो। और हम सोचते हैं ये आदर्श हमारे जीवन को मुक्त करते हैं? ये ही आदर्श हमारे जीवन को बांधे हुए हैं। ये ही हैं हमारी गुलामी। और अगर पुराने आदर्श फीके पड़ जाते हैं तो नये महापुरुष हमें रोज मिल जाते हैं, फिर तो हम कहते हैं: गांधी जैसे बनो, विवेकानंद जैसे बनो।
मैं आपसे निवेदन करता हूं, कभी किसी जैसे बनने की कोशिश मत करना। अगर किसी जैसे बनने की कोशिश की, तो फिर आपके जीवन में स्वतंत्रता संभव नहीं है। और जहां स्वतंत्रता न हो, वहां सत्य की भी कोई संभावना नहीं है। स्वतंत्रता है द्वार सत्य का। वे ही जो स्वतंत्र हैं, वे जान पाते हैं कि सत्य क्या है। और वे जो अपनी आत्मा को भी नहीं पहचान पाते और दूसरे की होने की नकल में पड़ जाते हैं, वे कैसे जान पाएंगे परमात्मा को? वे अपने को ही नहीं जान पाते, वे अपने को होने को राजी ही नहीं हो पाते। यह भी हो सकता है इस दौड़ में, दूसरे जैसे हो जाने की दौड़ में यह हो सकता है कि आप सफल भी हो जाएं, सारी दुनिया कहे कि यह आदमी सफल हो गया। देखो, बिलकुल, बिलकुल गांधी की कॉपी है, बिलकुल गांधी जैसा हो गया है। देखो, बिलकुल, बिलकुल महावीर जैसा, बुद्ध जैसा मालूम पड़ता है। वे ही वस्त्र हैं, उन जैसा ही नग्न खड़ा है, उन जैसा ही उपवास करता है, उन जैसा ही चलता है, उन जैसा ही बोलता है, उन जैसा ही उठता-बैठता है। कोई इतनी कुशलता से अनुकरण कर सकता है, इतनी कुशलता से अभिनय कर सकता है कि यह भी हो सकता है कि महावीर का अभिनय करने वाला अगर महावीर के सामने ले जाया जाए तो महावीर उससे हार जाएं। यह भी हो सकता है। यह इसलिए हो सकता है कि असली आदमी से भूल-चूक भी हो सकती है, अभिनेता भूल-चूक भी नहीं करता। जिंदगी में असली आदमी गलत कदम भी रख सकता है, क्योंकि असली आदमी किसी पैटर्न के आधार पर नहीं जीता, किसी ढांचे पर नहीं जीता। असली आदमी अपनी स्वतंत्रता से जीता है। उसके पैर भूल-चूक में भी ले जा सकते हैं। उसके पैर में कांटे भी गड़ सकते हैं। वह आदमी पैर आगे बढ़ा कर खींच भी सकता है। असली आदमी किसी बंधे-बंधाए ढांचे से नहीं जीता। लेकिन नकली आदमी तो बिलकुल प्लैंड, बिलकुल आयोजना से जीता है। उससे भूल-चूक नहीं होती, वह कभी गलती नहीं करता। ऐसा एक बार हो चुका। ऐसी एक बहुत मजेदार घटना हुई।
चार्ली चैपलीन को उसके मित्रों ने एक समारोह आयोजित किया, उसकी किसी वर्षगांठ पर। और उसके मित्रों ने चाहा कि एक कोई अनूठा आयोजन हो। तो उन्होंने सारे यूरोप में एक प्रतियोगिता करवाई। कोई आदमी चार्ली चैपलीन का पार्ट करे, चार्ली चैपलीन का अभिनय करे। और सारे यूरोप से सौ प्रतियोगी चुने जाएंगे और फिर लंदन में बड़ी प्रतियोगिता होगी। उसमें जो तीन प्रतियोगी जीत जाएंगे, उनको बड़े पुरस्कार इंग्लैंड की महारानी देंगी।
बहुत बड़ा आयोजन हुआ। सारे यूरोप में नाटक खेले गए। और हजारों अभिनेताओं ने चार्ली चैपलीन का पार्ट किया। सौ अभिनेता चुने गए। चार्ली चैपलीन ने अपने मन में सोचा, क्यों न एक मजाक किया जाए, मैं भी झूठा फार्म भर कर दूसरे के नाम से भरती हो जाऊं, और इतना तो तय है कि मैं जीत जाऊंगा, इसमें कोई शक की बात नहीं। पहला पुरस्कार भी मिलेगा। बाद में बात खुलेगी तो सारी दुनिया हंसेगी कि खूब मजाक हुआ।
तो वह सम्मिलित हो गया। एक छोटे गांव से, एक छोटे गांव में अभिनय करके वह सम्मिलित हो गया एक दूसरे नाम से। प्रतियोगिता हुई और मजाक जितना सोचा था चार्ली चैपलीन ने उससे ज्यादा हो गया, उसको दूसरा पुरस्कार मिला। पहला पुरस्कार कोई दूसरा अभिनेता ले गया। और जब बात खुली कि चार्ली चैपलीन खुद भी था मौजूद सम्मिलित, तो सारी दुनिया हंसी कि यह तो हद्द हो गई कि चार्ली चैपलीन का अभिनय करने में दूसरा आदमी चार्ली चैपलीन से जीत गया!
तो मैं आपसे निवेदन करता हूं, महावीर का अभिनय करने में भी यह हो सकता है। बुद्ध के अभिनय करने में भी यह हो सकता है। लेकिन फिर भी जानना जरूरी है महावीर का अभिनेता महावीर से जीत जाए तो भी महावीर के आनंद को, आत्मा को, मुक्ति को उपलब्ध नहीं हो सकता। उसकी जीत अनुकरण की जीत होगी, अभिनय की जीत होगी, आत्मा की नहीं। उसकी आत्मा तो तड़फड़ाएगी भीतर, उसकी आत्मा तो बेचैन होगी, वैसी ही बेचैन होगी जैसे हम किसी बगीचे में चले जाएं और फूलों को समझाएं कि गुलाब तुम जुही जैसे हो जाओ; चंपा को कहें, तुम चमेली जैसे हो जाओ; इस फूल को कहें, उस फूल जैसे हो जाओ।
पहली तो बात यह है कि फूल सुनेंगे नहीं, क्योंकि फूल आदमियों जैसे नासमझ नहीं कि हर किसी की बात सुनें। बिलकुल नहीं सुनेंगे। अपनी मौज से झूलते रहेंगे हवा में। उपदेशक चिल्लाता रहेगा, न वे ताली बजाएंगे, न फिकर करेंगे। लेकिन यह भी हो सकता है, आदमी की सोहबत में रहते-रहते कुछ फूल बिगड़ गए हों, आदमी की सोहबत में बिगड़ जाते हैं। जंगल के जानवर बीमार नहीं होते, आदमी की सोहबत में रहते हैं, वही बीमारियां उनको होने लगती हैं जो आदमी को होती है। तो आदमी की सोहबत, आदमी का सत्संग। हो सकता है कुछ फूल बिगड़ गए हों उसकी बगिया में रहते-रहते और राजी हो जाएं और चमेली चंपा होने की कोशिश करने लगे, और गुलाब जुही बनने लगे, उस बगिया में फिर क्या होगा? उस बगिया में फिर फूल पैदा नहीं होंगे। क्योंकि गुलाब लाख कोशिश करे तो चमेली नहीं हो सकता, जुही नहीं हो सकता। वह बीज उसके प्राणों में नहीं, वह आत्मा नहीं उसकी, वह उसका व्यक्तित्व नहीं। लेकिन इस कोशिश में कि गुलाब जुही बन जाए, कि जुही चंपा बन जाए, कि चंपा चमेली बन जाए, इस कोशिश में गुलाब में गुलाब के फूल तो पैदा नहीं हो सकेंगे, और चमेली के फूल भी पैदा नहीं हो सकते। क्योंकि सारी शक्ति चमेली होने में लग जाएगी, जो शक्ति गुलाब बनती है वह चमेली होने की कोशिश में व्यर्थ हो जाएगी। चमेली तो नहीं पैदा होगी, गुलाब भी फिर पैदा नहीं होगा। वह ताकत न बचेगी जिससे गुलाब पैदा हो सकता था। वह बगिया उजाड़ हो जाएगी, अगर किसी धर्मगुरु की बातें कोई बगिया सुन ले, तो फिर उसमें फूल पैदा नहीं हो सकते। आदमी की बगिया ऐसे ही उजाड़ हो गई, उसमें फूल नहीं खिलते हैं। आदमी बेरौनक हो गया, उसकी सुगंध खो गई। कभी एकाध आदमी करोड़-करोड़ में अगर फूल बन जाता है, तो यह कोई बहुत शुभ बात है? अगर एक बगिया में हम हजार पौधे लगाएं और एक फूल एक पौधे में खिल जाए, तो यह कोई माली के लिए सम्मान की बात है? अगर हजार दो हजार वर्षों में एक बुद्ध और एक महावीर और एक कृष्ण पैदा हो जाएं, तो यह कोई आदमी के लिए गौरव की बात है? और यह करोड़-करोड़ लोगों का जीवन व्यर्थ चला जाए, इनके जीवन में कोई फूल न खिले? इनके जीवन में फूल क्यों नहीं खिलते?
मैं आपसे निवेदन करता हूं, इन्होंने उपदेशक की बातें सुन ली हैं इसलिए इनके जीवन में फूल नहीं खिलेंगे। इन्होंने कुछ और होने की कोशिश शुरू कर दी है। इस कुछ और होने की कोशिश में यह कुछ और तो कभी नहीं हो पाते, लेकिन जो पैदा हुए थे होने को, वह होने की क्षमता और संभावना ही समाप्त हो जाती है।
मनुष्य के ऊपर पहला बंधन है, अंधानुकरण का। अंधे होकर अपने ऊपर किसी को थोप लेने का, अंधे होकर कुछ और बन जाने का। पहली स्वतंत्रता है इसलिए, स्वयं होने की कोशिश; पहली स्वतंत्रता है इसलिए, स्वयं की स्वीकृति; पहली स्वतंत्रता है इसलिए, इस बात की खोज कि क्या मेरे भीतर छिपा है? और किन मार्गों से, किन दिशाओं में वह व्यक्त होना चाहता है? क्या मेरे भीतर गुलाब पैदा होने को है या कि जुही? या कि घास का एक फूल? और स्मरण रखें, घास एक छोटा सा फूल भी जब अपने पूरे सौंदर्य में खिल जाता है, तो उसका आनंद किसी गुलाब से कम नहीं होता। एक घास का छोटा सा फूल भी जब अपने पूरे सौंदर्य में, अपने पूरे प्राणों से प्रकट हो जाता है और हवाओं में झूल उठता है, तब उसका सौंदर्य, उसका आनंद, उसकी आत्मा की लहर, उमंग किसी कमल से कम नहीं होती। यह आदमी के कंपेरिजन से कि वह कहता है, गुलाब अच्छा है और यह तो घास का फूल है। यह वही नासमझ आदमी, जो महावीर और बुद्ध होने की कोशिश में लगा है, यह उसी का वैल्युएशन है, यह उसी का मूल्यांकन है कि गुलाब अच्छा और यह तो घास का फूल है। लेकिन घास के खिले हुए फूल के प्राणों में घुसें, तो आप पाएंगे, वहां उतना ही आनंद है खिल जाने का, हो जाने का, अभिव्यक्त हो जाने का, प्रकट हो जाने का। जितना गुलाब के भीतर है, जितना कमल के भीतर है। वह आनंद गुलाब, कमल और चमेली और घास के फूल के कारण नहीं होता, वह होता है पूरी तरह खिल जाने के कारण, पूरी तरह प्रकट हो जाने के कारण।
जो व्यक्ति पूरी तरह नहीं प्रकट हो पाता, उसके भीतर एक बंधन और एक जकड़ रह जाती है। जीवन भर एक तड़पन, एक पीड़ा। जैसे कोई बीज फूटना चाहता हो, अंकुर बनना चाहता हो, लेकिन खोल इतनी मजबूत हो, लोहे की हो, कि तड़फड़ाते हों उसके प्राण भीतर, लेकिन खोल को न तोड़ पाते हों, तो कैसी दशा हो जाएगी उस अंकुर की? हर आदमी वैसी दशा में है। लोहे की खोल ओढ़े हुए हैं हम और भीतर तड़प रहा है कोई अंकुर प्रकट हो जाने को, जीवन के पल बीते जाते हैं, उम्र बीती जाती है, मौत करीब आई जाती है और खोल है कि टूटती नहीं। और हम हैं ऐसे कारीगर कि और खोल पर और लोहे की और पर्तें चढ़ाते चले जाते हैं, और आदर्श ओढ़ते चले जाते हैं, और अनुकरण करते चले जाते हैं, और सिद्धांत और शास्त्र, और न मालूम उस खोल को कितना मजबूत करे चले जाते हैं। भीतर का अंकुर प्रकट नहीं हो पाता और मौत आ जाती है।
यही है पीड़ा मनुष्य की, यही है दुख, यही है उसका संताप। कौन करेगा इस संताप से मुक्त किसी को? कौन हाथ आएगा मुक्त करने को? कोई और हाथ नहीं, हमारे ही ये हाथ जो अनुकरण की भूल में कड़ियां गुंथ रहे हैं। इन हाथों को समझ से रुक जाना होगा और खोल देनी होंगी अनुकरण की कड़ियां और उठा देने होंगे खुले आकाश की तरफ हाथ और कह देना होगा सारे जगत को, मैं मैं होने को पैदा हुआ हूं, मैं कोई और होना नहीं चाहता।
जिस दिन कोई व्यक्ति इस निष्कर्ष पर पहुंच जाता है कि मैं, चाहे घास का फूल ही सही, मैं मैं ही होने को पैदा हुआ हूं। चाहे सड़क के किनारे पड़ा हुआ एक कंकड़ ही सही, लेकिन मैं मैं ही होने को पैदा हुआ हूं। न सही आकाश का तारा, न सही पारसमणी; सही धूल का एक कंकड़, लेकिन मैं मैं ही होने को पैदा हुआ हूं। इसे मैं स्वीकार कर लूं और जान लूं, तो शायद आकाश का एक तारा भी जिस आनंद को उपलब्ध होता है, राह के किनारे पड़ा हुआ एक कंकड़ भी जब खुद की स्वीकृति से खिल जाता है, उतने ही आनंद को उपलब्ध हो जाता है।
स्वयं की स्वीकृति स्वतंत्रता का पहला सूत्र है। और हम सब स्वयं को किए हुए हैं अस्वीकार। स्वयं के बने हुए हैं दुश्मन। दूसरे के हैं प्रशंसक, खुद के हैं शत्रु। दूसरे के हैं अनुयायी, और खुद के? खुद के खिलाफ तलवार लिए हुए खड़े हैं। खुद की हत्या को तैयार हैं, दूसरे बनने को हम तैयार हैं। कैसे? कैसे? कैसे हो सकती है मुक्ति की कोई संभावना? कोई गुंजाइश? कैसे खुल सकता है वह द्वार?
इसलिए पहला सूत्र निवेदन करना चाहता हूं, स्वयं होने की स्वीकृति। अंधानुकरण नहीं, आदर्श का आरोपण नहीं, किसी और जैसे होने का प्रयास नहीं, जो मैं हूं उसकी पूर्ण स्वीकृति। जो मैं हो सकता हूं, तब फिर उसकी खोज हो सकती है। फिर जो मैं हो सकता हूं, उस यात्रा पर गति हो सकती है। जब तक कोई किसी और के पीछे चल रहा है तब तक स्मरण रखें, तब तक वह कभी अपनी आत्मा तक नहीं आ सकता है। आत्मा के लिए जाना जरूरी है खुद के भीतर। और अनुयायी जाता है किसी और के पीछे। ये दोनों दिशाएं भिन्न हैं। अनुयायी जाता है किसी और के पीछे।
अनुयायी कभी धार्मिक नहीं हो सकता। धार्मिक व्यक्ति वह है जो जाता है स्वयं के भीतर। और स्वयं के भीतर जाना और किसी और के पीछे जाना, दो विरोधी दिशाएं हैं। इनका कोई मेल नहीं, ये कहीं मिलती नहीं। ये एकदम एक-दूसरे की तरफ पीठ की हुई दिशाएं हैं।
क्यों हम अनुकरण करना चाहते हैं? क्यों? क्यों हम किसी और जैसे हो जाना चाहते हैं? शायद इसलिए ही कि स्वयं होने का साहस नहीं जुटा पाते। स्वयं होने का सहजता नहीं जुटा पाते। स्वयं होने की स्वीकृति नहीं जुटा पाते।
क्यों नहीं जुटा पाते हैं? क्यों नहीं यह साहस कर पाते हैं कि हम कह सकें इस जगत को, निवेदन कर सकें कि मुझे मुझ जैसा रहने दो? कौनसा कारण है जिससे यह नहीं हो पा रहा? एक ही कारण है, वही हमारी दूसरी कड़ी है बंधन की। और वह यह है कि हमने कभी विचार ही नहीं किया। हम कभी विचार ही नहीं करते हैं। तो कैसे का सवाल ही नहीं उठता। हम कभी विचार ही नहीं करते। जीवन को पकड़ कर कभी हम सोचते नहीं। हम हमेशा किसी को पढ़ लेते हैं, किसी को सुन लेते हैं। लेकिन न तो पढ़ना सोचना है और न सुनना सोचना है। दोनों हालत में हम तो होते हैं निष्क्रिय, हम तो होते हैं पैसिव, कोई और कर रहा होता है सोचने का काम। कोई किताब लिखता है, कोई बोलता है। कोई और कर रहा है सोचने का काम, हम पैसिव, हम निष्क्रिय बैठे हुए सुन रहे हैं। कोई हमारे दिमाग में कुछ डाल रहा है और हम टोकरी की तरह बैठे हुए हैं कि वह डालता जाए, हम इकट्ठा करते चले जाएंगे। पूरी जिंदगी हमारी एक पैसिविटी है। रात को सिनेमा देख लेते हैं, कोई और नाच रहा है हम देख लेते हैं। रेडियो सुन लेते हैं, कोई गीत गा रहा है, हम सुन लेते हैं। अखबार पढ़ लेते हैं, कोई खबर ला रहा है, हम सुन लेते हैं। चौबीस घंटे हमारे भीतर कोई एक्टिव, कोई सक्रिय चेतना नहीं है, निष्क्रिय चेतना है।
निष्क्रिय चेतना के कारण अनुकरण पैदा होता है। निष्क्रिय चेतना सोचती है, कोई और ने कर लिया, मैं उसके पीछे चल जाऊं। किसी और ने पा लिया, मैं उसका पल्ला पकड़ लूं। किसी और को सत्य उपलब्ध हो गया, मैं उसके चरणों में सिर रख कर बैठ जाऊं। मैं हूं निष्क्रिय, मुझे कुछ करना नहीं है। किसी और ने कर लिया, मैं उसमें भागीदार बन जाऊं। निष्क्रिय चेतना हो गई है निरंतर। सक्रिय चेतना नहीं है। और सक्रिय चेतना तब तक नहीं होगी जब तक हम विचार करने को तैयार न हों। निष्क्रिय चेतना पैदा हो गई है विश्वास के कारण, सारी दुनिया में विश्वास के प्रचार के कारण निष्क्रिय चेतना पैदा हो गई है। सारी दुनिया पैसिव से पैसिव होती जा रही है, निष्क्रिय से निष्क्रिय। सक्रिय रूप से जीवन का हमारा कोई संबंध नहीं रहा। सब कुछ कोई और कर दे।
मैंने सुना है, पश्चिम के एक विचारक ने एक किताब लिखी। और उसने लिखा, बहुत जल्द वह समय आ जाएगा कि हम प्रेम करने के लिए भी नौकर रख लिया करेंगे। जरूर। कौन मुसीबत ले प्रेम करने की खुद। एक नौकर रख लिया करेंगे, तनख्वाह दे दिया करेंगे। वह जाकर जिससे हमें प्रेम हो उससे प्रेमपूर्ण बातें कह दिया करेगा, प्रेम कर लिया करेगा। उससे भी हम बच जाएंगे।
हंसी आती है हमें इस बात पर, लेकिन हमने प्रार्थना करने के लिए नौकर रख लिए उस पर हंसी नहीं आती? मंदिर में एक पुजारी रख लिया है, जिसको हम तनख्वाह देते हैं कि तू प्रार्थना करना हमारे लिए। घर पर हम एक पुजारी को बुलाते हैं कि तू प्रार्थना कर प्रभु से हमारे लिए, हम तुझे पैसे देंगे। जब हम प्रार्थना करवा सकते हैं नौकर से, तो क्या कोई आश्चर्य है इस बात का कि यह आदमी कभी प्रेम भी करवा सकता है? प्रेम और प्रार्थना में कोई फर्क है? कोई भेद है? अगर हम परमात्मा और अपने बीच नौकर रख सकते हैं, तो क्या कठिनाई है कि हम प्रेयसी और अपने बीच नौकर न रख लें?
तो मत हंसिए इस बात पर। अगर हंसते हैं, तो फिर पुजारी को विदा कर दीजिए। इस पर हंसने की जरूरत नहीं है, यह हम करते रहे हैं, यह हम रोज कर रहे हैं। विश्वास ने, अंधे विश्वास ने विचार की सारी क्षमता छीन ली है।
इसलिए दूसरी कड़ी है, विचार करना अत्यंत जरूरी है। विचार का क्या मतलब? विचार से क्या संबंध? विचार का क्या अर्थ? क्या विचार का यह अर्थ है कि हम बहुत से विचार इकट्ठे कर लें तो हम विचारक हो जाएंगे? विचारों का संग्रह क्या हमें विचारक बना देगा? यह भ्रम पैदा हुआ है दुनिया में। कि हम बहुत से विचारों को इकट्ठा कर लें, बहुत से शास्त्रों को पी जाएं, सदियों में जो चिंतन हुआ है उसके हम संग्रहालय बन जाएं, वह हमारे दिमाग में सब इकट्ठा हो जाए, तो हम विचारक हो गए। एक आदमी जो वेद के वचन बोल देता है, एक आदमी जो उपनिषद की ऋचाएं उद्धृत कर देता है, एक आदमी जो गीता पूरी की पूरी कंठस्थ कर लेता, हम कहते हैं, विचारक है, ज्ञानी है। क्या विचार के संग्रह से ज्ञान का कोई भी संबंध हो सकता है? सच्चाई तो यह है कि जिस व्यक्ति के भीतर विचार की क्षमता जितनी कम होती है, उस विचार की क्षमता की कमी को भुलाने के लिए विचारों के संग्रह को इकट्ठा कर लेता है। ताकि यह अहसास उसे न हो इस अभाव का कि मेरे भीतर विचार नहीं है। और विचार का संग्रह कोई बुद्धिमत्ता नहीं है, एकदम यांत्रिक प्रक्रिया है, मैकेनिकल बात है। अब तो हमने यांत्रिक मस्तिष्क बना लिए हैं, कंप्यूटर्स बना लिए हैं, जो हमारे सारे प्रश्नों के उत्तर दे सकते हैं। कोई जरूरत नहीं किसी पंडित को कि पूरी बाइबिल को याद करे। एक मशीन पूरी बाइबिल को याद कर लेती। और आप पूछ लीजिए कि ल्यूक के फलां-फलां अध्याय में, फलां-फलां सूत्र में क्या लिखा हुआ है? मशीन फौरन उत्तर छाप कर बाहर भेज देती है कि यह लिखा हुआ है। इस मशीन को विचारक कहिएगा?
शायद आपको पता न हो, कोरिया के युद्ध में अमेरिका ने जो निर्णय लिया चीन से युद्ध में न उतरने का, वह निर्णय किसी मनुष्य के मस्तिष्क ने तय नहीं किया, वह कंप्यूटर्स ने तय किया था। वह उन मशीनों ने तय किया, जिन मशीनों में सारी बातें डाल दी गईं। चीन की कितनी ताकत है, कितने सैनिक हैं, कितने बम हैं उसके पास। अमेरिका की कितनी ताकत है, कितने सैनिक हैं, वह सब जानकारी फीड कर दी गई, खिला दी गई उस मशीन को, और फिर पूछ लिया गया कि चीन से युद्ध में उतरना ठीक है या नहीं? मशीन ने उत्तर दिया, बिलकुल ठीक नहीं है। अमेरिका चीन से युद्ध में नहीं उतरा। वह निर्णय किसी मनुष्य-मस्तिष्क ने नहीं किया। यह पहला निर्णय है इतना बड़ा, जो कि मशीन के द्वारा लिया गया।
मनुष्य-मस्तिष्क से कभी भूल भी हो सकती है, मशीन कभी भूल नहीं करती। इसलिए आने वाले दिनों में विचारकों से कोई पूछने न जाएगा, पक्का खयाल रखिए। मशीनें होंगी गांव-गांव में जिनसे हम पूछ लिया करेंगे कि क्या है ठीक उत्तर इस बात का? और हम भी क्या करते हैं? हमारा मस्तिष्क भी क्या करता है? इस मस्तिष्क को भी तो हमें भोजन देना पड़ता पहले--स्कूल में, कालेज में शिक्षा देनी पड़ती। सिखाना पड़ता इसको। बच्चा होता पैदा, हम उससे कहते, तुम्हारा नाम है, राम। तुम्हारा नाम है राम, तुम्हारा नाम है राम, सुनते-सुनते बच्चे का मस्तिष्क, मस्तिष्क की रिकाघडग पकड़ लेती इस बात को कि मेरा नाम है राम। फिर एक आदमी उससे पूछता है, तुम्हारा नाम? वह फौरन कहता है, मेरा नाम है, राम। आप सोचते हैं, इसमें विचार की कोई जरूरत पड़ी? कोई जरूरत नहीं पड़ी। इसमें विचार का कोई संबंध नहीं आया। यांत्रिक स्मृति ने पकड़ ली यह बात, राम। फिर उत्तर पूछा किसी ने, क्या है तुम्हारा नाम? वह कहता है, राम। उससे पूछो, भगवान है? अगर वह हिंदुस्तान में पैदा हुआ है और उसके दिमाग में यह बात डाली गई है, तो उससे पूछ लो अंधेरे में उठा कर भी, सोते में से कि भगवान है? वह कहेगा, है, बिलकुल है। रूस में अगर वह पैदा हुआ होता, वहां सिखाया जाता, नहीं है। उसको उठा कर पूछते, भगवान है? वह कहता, नहीं है। ये दोनों उत्तर यांत्रिक हैं, इसमें विचार का कोई संबंध नहीं। जो सिखा दिया गया है वह बोला जाता है। जो सीखा हुआ ही बोल रहा है, वह आदमी विचारपूर्ण नहीं है। और हम सब सीखा हुआ ही बोल रहे हैं। अनसीखा हुआ हमारे भीतर एक भी तत्व नहीं है। अनसीखा, अनलर्न अगर हमारे भीतर कोई सूत्र पैदा होता है, उसका नाम विचार है।
तो विचार के संग्रह का नाम विचार नहीं है; विचार एक क्षमता है जीवन के प्रति अत्यंत जागरूक होने की। जीवन प्रतिक्षण समस्याएं खड़ी कर रहा है। प्रतिक्षण जीवन के आघात हमारे चित्त पर पढ़ रहे हैं। हमारे चित्त को उत्तर देने पड़ रहे हैं। क्या वे उत्तर हम सीखे हुए ही दे रहे हैं? अगर सीखे हुए दे रहे हैं तो समझ लेना कि अभी विचार का आपके भीतर जन्म नहीं हुआ। लेकिन क्या कभी हमारे भीतर से अनसीखे हुए उत्तर भी आते हैं? जब जीवन कोई प्रश्न खड़ा करता है, तो क्या हम तत्काल स्मृति में खोज कर उत्तर ले आते हैं या कि स्मृति को कहते हैं तुम चुप रहो, तुम मत बोलो, मुझे देखने दो समस्या को, मुझे समस्या से परिचित होने दो, मेरे पूरे चित्त को समस्या के साथ एक होने दो और फिर आने दो उत्तर को, वह उत्तर स्मृति से नहीं, वह उत्तर विचार से आया हुआ होगा।
सुभाष के एक बड़े भाई थे, शरदचंद। वे एक दिन एक ट्रेन में यात्रा करते थे, सुबह के कोई चार बजे होंगे, अंधेरी रात थी, वे उठे, बाथरूम में गए, नींद से उठे थे, मुंह पर पानी छिड़कते थे, घड़ी खुली थी, शायद नींद से भरा हुआ हाथ होगा, घड़ी छूट गई और संडास के रास्ते नीचे गिर गई।
आपकी घड़ी गिर गई होती, फिर आप क्या करते? शरदचंद ने चेन खींची, लेकिन चेन खींचते-खींचते और गाड़ी के रुकते-रुकते एक मील कम से कम पार हो गया होगा। रात अंधेरी, ड्राइवर, कंडक्टर भागे हुए, गार्ड आया। कहा कि मेरी घड़ी गिर गई, बहुत कीमती है। उन्होंने कहा, बड़ा मुश्किल है अब घड़ी को खोज पाना। एक मील दूर, वह न मालूम कहां गिरी होगी? छोटी सी चीज है, अंधेरी रात है, कहां हम उसे खोजेंगे? और टे्रन कितनी देर रोकी जा सकती है? मुश्किल है यह बात।
लेकिन शरदचंद ने कहा, मुश्किल नहीं है। आदमी भगाएं, मैंने अपनी जलती हुई सिगरेट उसके पीछे डाल दी है। वह एक फीट के फासले पर मेरी जलती हुई सिगरेट अंधेरे में चमक रही होगी। उसके पास ही बहुत शीघ्र घड़ी मिल जाएगी। आदमी दौड़ाएं। आदमी दौड़ाया गया, वह घड़ी सच में ही एक फीट के फासले के बीच में ही मिल गई चमकती हुई जलती सिगरेट के!
शरदचंद ने, स्मृति से यह उत्तर नहीं आ सकता था, क्योंकि पहले कभी घड़ी नहीं गिरी थी और न सिगरेट डालने की कोई आदत थी। और न किसी किताब में ही यह पढ़ा हुआ हो सकता था, क्योंकि किसी किताब में कहीं यह लिखा ही हुआ नहीं है कि आपकी घड़ी गिर जाए तो जलती हुए सिगरेट पीछे डाल देना। किसी शास्त्र में कहीं किसी में यह नहीं लिखा हुआ। यह मौका बिलकुल नया था। चेतना के समझ अनूठी समस्या थी। स्मृति में कोई उत्तर इसके लिए हो नहीं सकता था। यह कोई पिछले अनुभव की बात न थी।
आप होते शायद घबड़ा गए होते। शायद चेन खींची होती, चिल्लाए होते कि मेरी घड़ी गिर गई। लेकिन वह घड़ी नहीं मिल सकती। क्योंकि आपकी चेतना ने उस समस्या के साथ कोई समन्वय स्थापित नहीं किया था। लेकिन शरदचंद ने, जलती सिगरेट डाली उसके पीछे। यह एक क्षण में ही हो गया, इसके लिए सोचने के लिए समय भी नहीं था। क्योंकि सोचने में बहुत समय जाया हो सकता है। सोचने में तो समय लगेगा, क्योंकि स्मृति में खोजना पड़ेगा, स्मृति का बड़ा संग्रह है। जैसे कि घर के तलघरे में बहुत सी चीजें भरी हों, वहां जाकर खोजने जाइएगा, तो समय लगेगा। अगर स्मृति में उत्तर खोजते, तो समय लगता, और समय में तो दूरी हो जाती है। लेकिन विचार तत्क्षण सजगता है। वह कोई खोज नहीं है जिसमें समय लगता हो। विचारक विचारशील नहीं होता, जिसको हम संग्रह के, संग्रह वाले को विचारक कहते हैं।
विचारक का अर्थ है: जिसकी चेतना समस्याओं से सीधा साक्षात करने में समर्थ है। अक्सर तो उलटा होता है, जो विचारों से बहुत घिरे हैं, अगर उनसे आप उनकी किताब लिखी हुई बात पूछें, तो वे तत्क्षण उत्तर दे देंगे। लेकिन अगर जिंदगी कोई ऐसा मसला खड़ा कर दे--जैसा कि जिंदगी रोज खड़ी करती है--जो उनकी किताब में न लिखा हो, तो वे बिलकुल भौचक्के खड़े रहे जाएंगे। प्रतीत होगा, उनके पास इसका कोई उत्तर नहीं है। या फिर वे कोई ऐसा उत्तर देंगे जिसकी कोई संगति नहीं होगी। क्योंकि वह उनकी स्मृति से आएगा, जीवन के साथ सीधे साक्षात से नहीं।
एक बहुत बड़ा गणितज्ञ था। उसने ही सबसे पहले गणित के बाबत किताबें लिखी हैं। अनूठा उसका ज्ञान था गणित के संबंध में। जो कुछ जानकारी थी मनुष्य-जाति की सभी उसे ज्ञात थी। गणित का कोई ऐसा सवाल न था जो वह हल न कर सके। एक दिन सुबह छुट्टी के दिन अपने पत्नी और बच्चों के लेकर वह पहाड़ी के पास पिकनिक को गया हुआ था। बीच में पड़ता था एक बड़ा नाला। ऐसे बहुत गहरा नहीं था। उसकी पत्नी ने कहा, बच्चों को सम्हाल कर पार कर दो, कोई बच्चा डूब न जाए। उसने कहा, ठहरो, वह अपने साथ हमेशा एक फूटा रखता था नापने के लिए, वह गया उसने नदी को चार-छह जगह नापा, कितनी गहरी है। अपने बच्चों को नापा, कितने ऊंचे हैं। रेत पर हिसाब लगाया और कहा, बेफिकर रहो, बच्चों की औसत ऊंचाई नदी की औसत गहराई से ज्यादा है। जाने दो, कोई डूबने वाला नहीं। बच्चे एवरेज ऊंचे हैं। बच्चे गए, पत्नी क्या कर सकती थी, इतना बड़ा ज्ञानी था उसका पति, इतना बड़ा गणितज्ञ था, इतना शास्त्रीय था। पत्नियां हमेशा शास्त्रीय पति के सामने एकदम हार जाती हैं। कोई उपाय भी नहीं है। और पत्नियों ने शास्त्री होने की आज तक भूल नहीं की है। इसलिए उनसे कोई लड़ाई करने की गुंजाइश बनती नहीं है। उसे डर तो हुआ, लेकिन जब पति कहता है और हिसाब उसने लगा लिया और उसके हिसाब में कभी भूल-चूक होती नहीं, तो ठीक ही कहता होगा। इसलिए पांच-सात बच्चे, कोई बड़ा था, कोई छोटा, कोई बहुत छोटा। बड़ा तो एक निकल गया, बाकी छोटे उसमें डुबकी खाने लगे। उसकी पत्नी चिल्लाई कि छोटा बच्चा डुबा जाता है। लेकिन उस गणितज्ञ न क्या किया? उसने कहा, आं, क्या हिसाब में कोई भूल-चूक हो गई? वह भागा, बच्चा डूबता था, वह डूबता रहा, वह भागा नदी के किनारे जहां रेत पर उसने हिसाब किया था कि कोई भूल तो नहीं हो गई।
यह संग्रह वाले विचारक की मनःस्थिति है। जीवन को सीधा साक्षात नहीं करता, जीवन बच्चे को डुबाए दे रहा है, नदी बच्चे को डुबाए दे रही है, उसका प्राण लिए ले रही है। इस समस्या को भी वह गणित के माध्यम से साक्षात करता है, जो हिसाब उसने किया है नदी के किनारे, उसको देखने जाता है कि कोई भूल तो नहीं हो गई। क्योंकि डूबना नहीं चाहिए, अगर गणित ठीक है तो।
लेकिन किस पागल ने कब कहा कि जिंदगी गणित के हिसाबों से चलती है। जिंदगी कभी गणित के हिसाबों से नहीं चलती। और जिस दिन जिंदगी बिलकुल गणित के हिसाबों से चलेगी उस दिन आदमी में कोई आत्मा नहीं बचेगी। गणित के हिसाब से यंत्र चल सकते हैं। जिंदगी अनूठी है, अनजान रास्ते लेती है, कोई गणित के रास्ते उसके लिए निर्णीत नहीं हो सकते। और न ही तर्क के कोई रास्ते निर्णीत हो सकते हैं। और न ही सिद्धांतों की कोई बंधी हुई रेखाएं निर्णीत हो सकती हैं। लेकिन विचारों का संग्रह करने वाला पंडित इसी ढांचे में कैद होता है। इसलिए विचारों का संग्रह नहीं है विचार की क्षमता।
फिर क्या है विचार की क्षमता?
यह दूसरी कड़ी है, हमने विचारों के संग्रह को समझ रखा है कि हम विचारशील हैं। यह हमारी गुलामी है। इसको तोड़ देना होगा।
स्वतंत्रता के लिए जानना होगा कि विचारों का संग्रह नहीं, बल्कि कोई और चीज है जिसका नाम विचार है, जिसका नाम विवेक है। वह कौनसी चीज है? वह मैं तीसरी कड़ी के भीतर आपसे बात करना चाहता हूं।
किस चीज को मैं विचार कहूं? मैं जागरूकता को विचार कहता हूं, अवेयरनेस को, होश को। मैं मर्ूच्छा को अविचार कहता हूं, सोए हुए पन को। जागे हुए पन को मैं विचार कहता हूं। क्योंकि जो सोया हुआ है वह अपनी नींद के कारण किसी भी जीवन की समस्या से सीधा साक्षात नहीं कर पाता।
एक आदमी एक घर में सोया हुआ हो और घर में आग लग जाए, वह सोया रहेगा, क्योंकि उसके बीच और मकान में लगी आग के बीच नींद की एक दीवाल है। उस नींद की दीवाल के कारण मकान में लगी आग की कोई खबर उसकी चेतना तक नहीं पहुंचती। लेकिन एक आदमी जागा हुआ है अपने घर में और मकान में आग लग जाए, तो क्या वह मकान में बैठा रहेगा? नहीं, आग लगी हुई स्थिति से उसकी चेतना साक्षात करेगी और बाहर निकलने का द्वार खोजेगी।
हम सारे लोग लेकिन अपनी-अपनी समस्याओं में घिरे हैं और कोई मार्ग नहीं खोज पाते, इससे यह सिद्ध होता है कि हम सोए हुए होंगे। नहीं तो हम मार्ग खोज लेते। हमने द्वार खोज लिया होता। जिंदगी में हमने कोई राह खोज ली होती, हम बाहर हो गए होते समस्याओं के। कोई आदमी समस्याओं के बाहर नहीं है, लेकिन हर आदमी घिरा है। बल्कि जैसे-जैसे उम्र बढ़ती है समस्याएं बढ़ती चली जाती हैं। मौत के वक्त तक आदमी छोटा सा रह जाता है, समस्याओं का हिमालय उसके चारों तरफ खड़ा हो जाता है। होना उलटा चाहिए था, होना यह चाहिए था कि जिंदगी आगे बढ़ती, समस्याएं कम होतीं। क्योंकि आखिर जिंदा होने का मतलब क्या है फिर? होना यह था कि मरने के क्षण कोई समस्या न रह जाती। वह समाधान होता, वह समाधि होती। और तब मृत्यु मोक्ष बन जाती है। लेकिन हम तो समस्याएं बढ़ाते चले जाते हैं, मरते वक्त हम समस्याओं के सागर में होते हैं। तब मौत एक पीड़ा है। क्योंकि सारा जीवन गया व्यर्थ और एक समस्या हल न हुई। एक सूत्र खोला न जा सका। एक गांठ खुल न सकी। गांठ पर गांठ बनती चली गईं। तो जरूर हम सोए हुए होंगे।
सोए हुए होने का क्या अर्थ? वह हम समझ लें, क्योंकि सोया हुआ होना हमारी तीसरी गांठ है, हमारी परतंत्रता की, हमारी गुलामी की। मुक्ति के लिए जरूरी है कि हम जागरूक हो जाएं।
एक छोटी सी कहानी कहूंगा, ताकि मेरी बात समझ में आ सके।
जापान के एक बादशाह ने अपने बेटे को एक गुरु के आश्रम में भेजा। वह गुरु उसके गांव से निकला था और राजा ने उससे पूछा था कि मैं अपने लड़के को क्या सिखाऊं? तो उस गुरु ने कहा था, एक ही बात अगर तुम सिखा सको तो तुमने सब सिखा दिया। लड़के को जागना सिखा दो। राजा हैरान हुआ कि यह क्या बात है, लड़का रोज जागता है। उसने पूछा कि मैं समझा नहीं? तो उसने कहा, लड़के को भेज दो मेरे आश्रम में। मैं कोशिश करूंगा, शायद लड़का जाग जाए।
लड़के को भी हैरानी हुई कि जागना भी सिखाना पड़ेगा क्या? रोज तो हम जागते हैं सुबह। लेकिन गया, उस गुरु ने कहा, तुम आ गए हो, कल सुबह से तुम्हारी शिक्षा शुरू हो जाएगी। लेकिन स्मरण रहे, शिक्षा बड़ी अनूठी है। घबड़ाना मत। डरना भी मत। कोई खतरा होने को नहीं है। लेकिन थोड़ी कठिनाई से गुजरना पड़ेगा। क्योंकि सोए हुए आदमी को जागना सच में एक कठिनाई है। सोया हुआ होना एक सुख है। क्योंकि सोए हुए होने में जीवन की कोई समस्या परेशान नहीं करती। जागना एक पीड़ा है। क्योंकि सब समस्याएं परेशान करेंगी। बोध में आएंगी, दिखाई पड़ेंगी। इसलिए तो कोई आदमी बहुत दुख में होता है, तो हम मॉरफिया का इंजेक्शन दे देते हैं ताकि वह सो जाए, ताकि फिर उसको तकलीफों का पता न रहे। तो उसने कहा, थोड़ी पीड़ा होगी जागने में, लेकिन स्मरण रखो, जो आदमी पूरी तरह जाग जाता है वह अपनी हर समस्या को हल कर लेता है। और फिर आती है एक शांति। फिर आता है एक आनंद।
जो सोए हुए में अनुभव होता है, वह है सुख। क्योंकि समस्याएं दिखाई नहीं पड़तीं। और जो जागने पर उपलब्ध होता है, वह है आनंद। क्योंकि तब कोई समस्याएं नहीं रह जाती हैं। थोड़ी पीड़ा होगी। उसने पूछा, क्या होगी मेरी शिक्षा? उसके गुरु ने कहा, कल से मैं किसी भी समय तुम्हारे ऊपर लकड़ी की तलवार से हमला कर दिया करूंगा। तुम खाना खा रहे हो, मैं पीछे से आकर हमला कर दूंगा, तो तुम सावधान रहना, कभी भी हमला हो सकता है। तुम बुहारी लगा रहे होओगे आश्रम में, और मैं पीछे से हमला कर दूंगा। तुम किताब पड़ रहे होओगे और हमला हो जाएगा। इसलिए हर वक्त खयाल रखना, दिन में दस-पच्चीस दफे तुम्हारे ऊपर हमला होने वाला। लकड़ी की तलवार से मैं चोट करूंगा। और जब तुम थोड़े जागरूक हो जाओगे, तो असली तलवार से भी किया जा सकेगा।
लड़का तो बहुत घबड़ाया कि यह कौनसी शिक्षा शुरू हो रही? लेकिन मजबूरी थी, बाप ने उसे वहां भेज दिया था और शिक्षा लेनी थी और लेनी पड़ेगी। सभी बच्चे ऐसी मजबूरी में शिक्षा लेते हैं। बाप भेज देते हैं और उनको लेनी पड़ती है। उस लड़के को भी लेनी पड़ी। लेकिन उसे पता न था कि एक बहुत अदभुत प्रक्रिया से वह गुजरने को है।
दूसरे दिन से हमला शुरू हो गया। पाठ शुरू हो गए। लड़का किताब पढ़ रहा है, पीछे से उसका गुरु हमला कर देता है। चोट खा जाता है, सिर में चोट आ जाती है, हड्डी पर चोट आ जाती है। पहले दिन ही उसको समझ आ गया कि यह तो बड़ा मुश्किल काम है। लेकिन सात दिन बीतते-बीतते उसे एक बात खयाल में आनी शुरू हुई, उसके भीतर कोई सावधानी, कोई सजगता पैदा हो रही है। वह कोई भी काम करता रहता है, तो भी एक खयाल निश्चितरूपेण उसकी चेतना के पीछे खड़ा रहता है कि हमला! हमला! तलवार आती है! गुरु आता है! जरा पैर की खटपट किसी की और लगता है कि वह आया! जरा आवाज, पक्षी बोल जाते हैं, हवा द्वार खड़खड़ा देती है, लगता है वह आया! सब काम करता रहता है लेकिन यह लगन, यह खयाल, यह स्मृति, यह माइंडफुलनेस बनी रहती कि वह आता है।
महीना बीतते-बीतते तो वह हैरान हो गया, जैसे कोई सावधानी का एक स्तंभ खड़ा हो गया भीतर। गुरु हमला करता है, हमले के साथ ही उसका हाथ उठ कर रक्षा कर लेता है। एक सावधानी है निरंतर। अब हमले में चोट नहीं लग पाती। अक्सर वह चोट से बच जाता है। अनजान, पीछे के हमले में भी चेतना रक्षा करती है।
हम जानते हैं, एक मां रात सोती है, उसका बच्चा बीमार है, वह रोता है, कमरे में कोई नहीं सुन पाता, मां नींद में ही उसको थपथपा देती है और सुला देती है। तो उसकी चेतना में कहीं कोई बात जागरूक है, बच्चा बीमार है, कहीं रोए न, नींद में भी। हम इतने लोग हैं यहां, हम सारे लोग रात सो जाएं, फिर कोई आदमी आकर बुलाए--रहीम, रहीम, तो जो आदमी रहीम होगा उसको ही सुनाई पड़ जाएगा और बाकी लोग सोए रहेंगे। आवाज सबके कानों पर पड़ेगी, लेकिन रहीम रहीम नाम के प्रति थोड़ा जागरूक है, निरंतर का उसे स्मरण है। नींद में भी वह पहचान जाएगा मुझे कोई बुलाता है। वह उठेगा और कहेगा, कौन बुलाता? और बाकी लोग सोए रहेंगे। बाकी लोग को पता भी नहीं चलेगा, कोई आवाज आई और गई।
वह युवक महीने भर में सचेत हो आया। तीन महीने बीतते-बीतते तो हमला करना गुरु को मुश्किल हो गया। कैसी भी हालत में हमला हो, रक्षा हो जाती। उसके गुरु ने कहा, बेटे, तू एक परीक्षा से पार हो गया। लेकिन स्मरण रख, कल से अब रात में भी हमले शुरू हो जाएंगे। सोए हुए होते भी हमले होंगे। रात में समझ से रहना। दो-चार-दस दफा, जानते हो कि मैं बूढ़ा आदमी हूं, नींद मुझे ज्यादा आती भी नहीं, दो-चार-दस दफा मैं रात में चोट करूंगा। तैयार रहना।
लड़का घबड़ाया, कि यह तो ठीक भी था कि जागने में कोई हमला करे तो सुरक्षा हो जाए, नींद में क्या होगा? लेकिन उसे पता नहीं था, चेतना को जितने खतरे में डाला जाए वह उतनी ही जागती है, चेतना जितने खतरे से गुजरती है उतनी सजग हो जाती है। यह उसे आने वाले तीन महीनों में पता चला। नींद में भी उसे धीरे-धीरे खयाल रहने लगा हमले का। नींद भी थी, भीतर एक सरकता हुआ स्वर भी था कि हमला हो सकता है। तीन महीने पूरे होते-होते नींद में भी हाथ उठने लगा और रक्षा होने लगी। सोया रहता, हमला होता, हाथ उठ जाता, तलवार रुक जाती। तीन महीने बाद उसके गुरु ने कहा, दूसरी परीक्षा भी तू पार कर गया। अब, अब असली तलवार की बारी है। अभी तक लकड़ी की तलवार थी।
लड़के ने कहा, अब मैं राजी हूं, अब कैसी भी तलवार हो। क्योंकि सवाल लकड़ी और असली तलवार का नहीं है। अब मैं समझ गया, सवाल तो मेरे जागे हुए होने का है। लेकिन उसी दिन उसने सोचा कि यह गुरु कल से असली तलवार का प्रयोग शुरू करेगा, बड़े खतरे का खेल है, ढाल हमेशा साथ रखनी है, असली तलवार को झेलना है, रोकना है, खयाल उसे आया कि कल से यह खेल शुरू होगा, छह महीने से मुझे यह परेशान किए हुए है, निश्चित ही कोई चीज जाग गई है भीतर जिसका मुझे कोई पता नहीं था कभी, लेकिन यह बूढ़ा इतना मुझे जगाने की कोशिश करता है, यह खुद भी जागा हुआ है या नहीं? आज मैं भी तो इस पर हमला करके देखूं? यह भी जागा हुआ है या नहीं?
सुबह का वक्त था, एक वृक्ष के नीचे उसका बूढ़ा गुरु कोई किताब बैठ कर पढ़ता था, उसकी सत्तर साल की उम्र थी। यह दूर काफी फासले पर दहलान में बैठा हुआ यह खयाल करता था कि आज मैं भी तो हमला करके देखूं? उधर से गुरु चिल्लाया, ठहर! ठहर! ऐसा मत कर देना। मैं बूढ़ा आदमी हूं, ऐसा मत कर देना। यह तो घबड़ाया आया, इसने कहा, मैंने कुछ किया नहीं, सिर्फ सोचा है। उसके गुरु ने कहा, थोड़े दिन ठहर जा, जब थोड़ी जागरूकता और बढ़ेगी तो दूसरे के भीतर सरकते विचार की प्रतिध्वनि भी, प्रतिध्वनि भी दिखाई पड़नी शुरू हो जाती है। उसकी तरंगें भी बोध को जगाती हैं। उसकी तरंगें भी खयाल को ले आती हैं। और जिस दिन तुझे वह भी हो जाएगा उस दिन मैं कहूंगा, तेरा काम पूरा हो गया, अब तू जा।
जागरूकता का ऐसा अर्थ है। चेतना सोई-सोई न हो, निरंतर सजग हो। निरंतर एक अवेयरनेस, एक होश चित्त को जगाए रखे। हम तो सोए-सोए हैं। चलते हैं सोए-सोए, खाते हैं सोए-सोए। रास्ते पर देखें, एक किनारे खड़े होकर, कोई किसी को देखता नहीं, फुर्सत किसको है। रास्ते के किनारे कभी आधा घंटे खड़े हो जाएं। रास्ते पर चलते लोगों को गौर से देखें, आपको दिखाई पड़ जाएगा, वे बिलकुल सोए हुए चले जा रहे हैं। कोई अपनी नींद में बड़बड़ाता चला जा रहा है, कोई अपनी नींद में बात करता चला जा रहा है, कोई हाथ के इशारे कर रहा है, किसी से चर्चा कर रहा है, जो मौजूद नहीं है आदमी, उससे चर्चा कर रहा है। यह आदमी जागा हुआ हो सकता है या सपने में है? लोगों को जरा गौर से देखें, उनके चेहरों को देखें, तो पता चल जाएगा कि वे एक नींद में चले जा रहे हैं। एक बेहोशी में सब कुछ हो रहा है। सारी दुनिया बेहोशी में चल रही है। इसलिए तो इतनी टकराहट होती है, इतनी दुर्घटनाएं होती हैं। इतना एक-दूसरे से मुठभेड़ हो जाती है। कोई जागा हुआ नहीं है। फिर थोड़ा अपने को भी देखें कि मैं जाग कर चलता हूं क्या? तो आप हैरान हो जाएंगे!
अभी यहां से लौटते वक्त जरा खयाल करें, इस दरवाजे से बाहर के दरवाजे तक भी जाग कर जा सकते हैं क्या? क्या पूरी तरह होश से भरे हुए एक-एक कदम को जानते हुए, एक-एक श्वास को अनुभव करते हुए बाहर के दरवाजे तक जा सकते हैं? न जा पाएंगे, बीच में ही यह बात भूल जाएगी, दूसरे सब खयाल पकड़ लेंगे। और तब आप जान जाना कि दो क्षण भी जागना कठिन है, आर्डुअस है। और सबसे बड़ा मनुष्य के ऊपर बंधन यह मर्ूच्छा है, जो उसे पकड़े हुए है सब तरफ से। वह सोया हुआ है। लेकिन अगर मैं आपसे कहूं कि आप सोए हुए हैं, तो आप नाराज हो जाएंगे। क्योंकि कोई आदमी यह सुनना पसंद नहीं करता कि मैं सोया हुआ हूं।
लेकिन स्मरण रखिए, अगर आप भ्रम से अपने को जागा हुआ समझ रहे हैं तो कभी जाग नहीं सकेंगे। इसलिए पहले अपनी नींद को स्वीकार कर लेना, समझ लेना जरूरी है।
एक जागरूकता ही विकसित हो जाए, तो आत्मा के साक्षात में ले जाती है। और जागरूकता ही पूर्ण हो जाए, तो समग्र जीवन परमात्मा में परिवर्तित हो जाता है। सोए हुए आदमी के लिए संसार है, जागे हुए आदमी के लिए कोई संसार नहीं। सोया हुआ होना ही संसार है। जागा हुआ होना ही मोक्ष है, मुक्ति है।
ये थोड़ी से बातें मैंने कहीं। इसलिए नहीं कि मैंने जो कहा है उसे आप मान लेना। क्योंकि अगर आपने मेरी बात मानी, तो आपने परतंत्रता की पहली कड़ी और खींच कर बांध ली। मैं कौन हूं, जिसकी बात मानने की कोई जरूरत है? मैंने जो कहा, अगर आपने उसका अनुकरण किया, तो आप कभी स्वतंत्र नहीं हो सकेंगे। मैं कौन हूं, जिसकी बात का अनुकरण किया जाए? फिर मैंने किसलिए कहीं ये सारी बातें? इसलिए नहीं कि आप उन पर विश्वास कर लेंगे, बल्कि इसलिए कि आप बहुत निष्पक्ष, तटस्थता से उनके प्रति जागेंगे और विचार करेंगे। उन्हें दूर रख लेंगे, सामने रख लेंगे; मानने या न मानने का कोई सवाल नहीं है। दूर सामने रख कर उनको ऑब्जर्व कर सकेंगे, निरीक्षण कर सकेंगे। और बंधी हुई स्मृति के उत्तर को मत मान लेना, वह विचार नहीं है। नहीं तो भीतर से कोई कहेगा, अरे, यह बात तो शास्त्र में लिखी नहीं, यह ठीक नहीं हो सकती। यह स्मृति के उत्तर को मत मान लेना। या स्मृति कहे कि हां, यह बात बिलकुल ठीक है, फलां-फलां संत ने यही बात कही है। गीता में भी यही लिखा है। इसको मत मान लेना। यह स्मृति है, इसके उत्तर यांत्रिक हैं, इसको कहना कि तुम चुप रहो। मुझे सीधी बात को देखने दो, तुम बीच में मत आओ। मैं सीधा इस सत्य के प्रति जागना चाहता हूं, जो कहा गया है, मैं सीधा उसे देख लेना चाहता हूं।
जाग कर अगर उसको देखने की कोशिश की, तो वह चाहे सही सिद्ध हो चाहे गलत, उससे कोई फर्क नहीं पड़ता। लेकिन उसे जाग कर देखने की प्रक्रिया में आपके जीवन में क्रांति होनी शुरू हो जाती है। वह जागने की प्रक्रिया, उसके प्रति मैंने जो कहा है, उसके प्रति जागने की प्रक्रिया आपके भीतर एक क्रांति को ले आती है, एक परिवर्तन ले आती है। जीवन एक नये आयाम में गतिमान हो जाता है।
परमात्मा करे, सोए हुए होने से वह जागरूकता की तरफ ले जाए। परमात्मा करे, भीतर हमें वह जगाए, जहां हम सोए हुए हैं। और हमारी कड़ियां और बंधन हमें दिखाए, जो हमने खुद बांध लिए हैं, ताकि हम उन्हें खोल सकें और मुक्त हो सकें। और चिल्लाते न रहें, स्वतंत्रता, स्वतंत्रता। और कड़ियों को, जंजीरों को, सींकचों को पकड़े भी न रहें। ये दोनों बातें विरोधी हैं। इनको देख लेना, समझ लेना है। इसके अतिरिक्त मेरा और कोई निवेदन नहीं है।

मेरी बातों को इन तीन दिनों में इतने प्रेम और शांति से सुना है, इतने ही शांति और प्रेम से इन्हें सोचना भी। अंत में सबके भीतर बैठे परमात्मा को मैं प्रणाम करता हूं, मेरे प्रणाम स्वीकार करें।


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