गुरुवार, 6 अप्रैल 2017

जीवन संगीत-(साधना-शिविर)-प्रवचन-07



जीवन संगीत-(साधना-शिविर)
ओशो
सातवां--प्रवचन


तीन दिन की चर्चाओं के संबंध में बहुत से प्रश्न मित्रों ने पूछे हैं।

एक मित्र ने पूछा है कि यदि आत्मा सब सुख-दुख के बाहर है, तो दूसरों की आत्माओं की शांति के लिए जो प्रार्थनाएं की जाती है, उनका क्या उपयोग है?

यह बहुत महत्वपूर्ण प्रश्न है और समझना उपयोगी होगा। पहली तो बात यह है कि आत्मा निश्चय ही सब सुख-दुखों सब शांतियों, अशांतियों, सब राग द्वेषों मूलतः सभी तरह के द्वंद्व और द्वैत के अतीत है।
न तो आत्मा अशांत होती है और न अशांत। क्योंकि शांत वही हो सकता है, जो अशांत हो सकता हो। मन ही शांत होता है, मन ही अशांत होता है।
और ठीक से समझें तो मन का होना ही अशांति है।

मन का न हो जाना शांति है। लेकिन आत्मा अपने में न कभी शांत है, न कभी अशांत है। न सुख में है, न दुख में है। आत्मा एक तीसरी ही अवस्था में है जिसका नाम आनंद है।
आनंद का अर्थ है जहां न दुख है, न सुख है। आनंद का अर्थ सुख नहीं है। दुख भी एक तनाव है और सुख भी एक तनाव है। दुख में भी आदमी मर सकता है। सुख में भी आदमी मर सकता है। दुख में भी चिंता होती है। सुख भी चिंता बन जाता है। दुख भी एक उत्तेजना है, सुख भी एक उत्तेजना है। आत्मा उत्तेजना मुक्त है। वहां न सुख की उत्तेजना है, न दुख की।
यह हम जानते हैं कि दुख भी पीड़ित करता है। जैसे भारत जैसे देशों में जहां गरीबी है, भुखमरी है, भूख है, सब तरह के दुख है। वहां भी आदमी अत्यंत तनाव ग्रस्त है।
अमेरिका जैसे मुल्क में जहां सब सुखी है, सब सुविधाएं है, सब व्यवस्था है, धन है, संपत्ति है, संपन्नता है, एफ्लुएंट है, वहां भी आदमी तनावग्रस्त है।
गरीब देश भी तनाव से भरे हैं। अमीर देश भी तनाव से भरे हैं। इसका मतलब क्या? इसका मतलब है दुख भी एक तरह का तनाव है और सुख भी एक तरह का तनाव है।
गरीब आदमी भी पीड़ित है और धनी आदमी भी। दोनों को पीड़ा अलग है। जैसे कोई आदमी भूख से पीड़ित हो सकता है। कोई आदमी ज्यादा खाना खाकर पीड़ित हो सकता है। आत्मा न तो इस तनाव को मानती है न उस तनाव को। आत्मा तनाव मुक्त, टेंशनलेसनेस है। वहां कोई तनाव नहीं।
मैंने सुना है, एक आदमी को एक लाख रुपये की लाटरी मिल गई थी। उसकी पत्नी को रेडियो पर समाचार मिला। वह घबड़ा गई कि काश उसके पति को खबर मिली कि एक लाख रुपये मिल गए हैं, इकट्ठे। तो इस सुख में प्राण भी निकल सकते हैं। क्योंकि उसके पति को दस रुपये भी इकट्ठे मिले हों, इसका भी उसे पता नहीं था।
वह डरी। और पड़ोस में ही जिस चर्च में वह जाती थी। उस चर्च के पादरी के पास गई। क्योंकि चर्च के पादरी से उसने सदा ही धन में कुछ भी सार नहीं है, ज्ञान की और शांति की बातें सुनी थी।
उस पादरी के पास गई और उसने कहा, मैं मुश्किल में पड़ गई हूं। एक लाख रुपये की लाटरी मेरे पति के नाम खुली है। कहीं ऐसा न हो कि इतने सुख का आघात उनके लिए खतरनाक हो जाए। आप कुछ उपाय करें कि यह आघात न पड़े।
पादरी ने कहा, घबड़ाओ मत। मैं आता हूं और मैं धीरे-धीरे इस खबर को तुम्हारे पति पर प्रकट करूंगा।
वह पादरी आया, उसने आकर कहा, सुना तुमने कुछ। तुम्हारे नाम पच्चीस हजार रुपये लाटरी में मिले हैं।
सोचा उसने पच्चीस हजार का धक्का सह ले। फिर और पच्चीस हजार का बताऊं, फिर और पच्चीस हजार का बताऊं।
उस आदमी ने कहा, पच्चीस हजार? अगर पच्चीस हजार मुझे मिले तो साढ़े बारह हजार मैं तुम्हें देता हूं।
पादरी वहीं गिरा और उसका हार्ट फेल हो गया।
साढ़े बारह हजार! आघात लग गया सुख का। वह तो पादरी ही, साधु-संन्यासी दूसरों को समझाते हैं, इससे बड़ी सुविधा है। अगर मुसीबतें उन पर आ जाएं, तब उन्हें पता चले कि जिनको वे समझा रहे हैं, क्या समझा रहे हैं।
सुख का भी एक आघात है, एक चोट है। दुख का भी एक आघात है, एक चोट है। और इसीलिए तो ऐसा होता है कि अगर दुख का आघात पड़ता ही रहे, तो आदमी दुख के आघात लिए भी राजी हो जाता है, आदी हो जाता है, हैबिच्युअल हो जाता है। फिर दुख का आघात नहीं पड़ता। फिर उतना तनाव सहने की उनकी क्षमता हो जाती है।
इसीलिए एक ही दुख में बहुत दिन रहने पर वह दुख, दुख नहीं रह जाता। इससे उलटा भी सच है सुख का आघात पड़ता है पहली बार तो पता चलता है कि कुछ हुआ। फिर वही आघात रोज पड़ता रहे तो फिर पता चलना बंद हो जाता है।
फिर आदमी सुख का भी आदी हो जाता है। फिर उसमें उसे सुख भी नहीं मिलता। निरंतर दुख में रहने वाले को दुख नहीं मिलता। निरंतर सुख में रहने वाले को सुख नहीं मिलता। क्योंकि तनाव की आदत हो जाए तो तनाव का जो डंक है, जो चोट है, वह विलीन हो जाता है।
मैंने सुना है, एक मछुआ राजधानी में मछलियां बेचने आया। उसने मछलियां बेच दीं। और मछलियां बेच कर वापस लौटता है तो सोचा है राजधानी घूम लूं।
राजधानी घूमने गया तो उस गली में पहुंच गया, जहां परफ्यूम की दुकानें थीं, सुगंधियों की दुकानें थीं। सारी दुनिया की सुगंधियां उस राजधानी में बिकती थीं।
वह मछुआ तो एक ही तरह की सुगंध जानता था, मछली की। और किसी सुगंध को न जानता था, न पहचानता था। मछली ही उसे सुगंधित मालूम पड़ती थी।
सुगंधियों के बाजार में भीतर घुसा तो उसने नाक पर रूमाल रख लिया। उसने कहा, कैसे पागल लोग हैं। कितनी दुर्गंध फैला रखी है।
जैसे-जैसे भीतर घुसा उसके प्राण तड़फने लगे। क्योंकि अपरिचित सुगंधियां उसके प्राणों को छेदने लगी। बहुत आघात करने लगी। आखिर वह घबड़ा गया, भागा। लेकिन जितना भागा, अंदर और बड़ी दुकानें थीं। उसे क्या पता था? उसने सोचा बाजार के बाहर निकल जाऊंगा।
वह और बाजार के मध्य पहुंच गया। वहां तो वे दुकानें थीं जहां दुनिया के सम्राट सुगंधियां खरीदते थे। वहां सुगंधियों की चोट से वह बेहोश होकर गिर पड़ा।
दुकानदार दौड़े। और दुकानदारों को पता था कि कोई आदमी बेहोश हो तो तीव्र सुगंध सुंघाने से होश में आ सकता है।
तो वे बेचारे अपनी तिजोरियां खोल कर, जो सुगंधियां सम्राटों को नहीं मिलती निकाल कर लाए कि गरीब आदमी होश में आ जाए।
वे सुगंधियां उसे सूंघाते हैं। वह बेहोशी में हाथ-पैर पटकता है, सिर पटकता है। उसके तो और प्राण निकलने लगे।
भीड़ इकट्ठी हो गई। एक आदमी जो कभी मछुआ रह चुका था। उसने लोगों से कहा, मित्रों तुम उसकी जान ले लोगे। तुम सेवा कर रहे हो, सोचते हो? तुम उसके हत्यारे हो। अक्सर सेवक हत्यारे सिद्ध होते हैं। मौका भर मिल जाए सेवकों को।
हटो, तुम उसकी जान ले लोगे। मैं जहां तक समझता हूं, यह तुम्हारी सुगंधियों से ही बेहोश है।
उन सुगंधियों के व्यापारियों ने कहा, पागल हो गए हो, सुगंधियों से कभी किसी को बेहोश होते सुना है? आदमी दुर्गंध से बेहोश हो सकता है, सुगंध से?
उस मछुए ने कहा, तुम्हें पता नहीं, ऐसी सुगंधें भी हैं जिनको तुम दुर्गंध कहोगे। और ऐसी दुर्गंधें भी हैं जिनको कोई सुगंध कहने वाला मिल सकता है। यह सिर्फ आदत की बात है।
लोगों को हटाया। वह मछुआ जो गिरा पड़ा है, उसकी टोकरी भी गिरी पड़ी है, कपड़ा गिरा पड़ा है। गंदा कपड़ा, गंदी टोकरी जिसमें वह मछलियां बेचने लाया था। उनमें अब भी मछली की बांस आ रही है। उस दूसरे आदमी ने पानी छिड़का। और गंदे कपड़े और टोकरी को बेहोश मछुए की नाक पर रख दिया।
उसने गहरी श्वास ली जैसे प्राण आ गए। आंख खोली और उसने कहा, दिस इज़ रियल परफ्यूम। यह है असली सुगंध। ये दुष्ट मेरी जान लिए लेते थे।
क्या हो गया उस आदमी को?
दुर्गंध की आदत हो जाए तो वही सुगंध हो जाती है। इसीलिए तो भंगी और चमार थोड़े ही विद्रोह कर रहे थे, अपनी स्थिति से छूटने का। वे कभी न करते।
वे आदी हो गए थे। उसका ही हिंदुस्तान में सूत्र कितने दिनों से है। हजारों वर्षों से करोड़ों लोगों के साथ हिंदुस्तान हद दुष्टता का व्यवहार कर रहा है।
और धार्मिक भी बना हुआ है। पुण्य भूमि भी बनी हुई है। और करोड़ों लोगों के साथ ऐसा दर्ुव्यवहार हो रहा है जैसा पृथ्वी पर कहीं भी, कभी भी नहीं हुआ है।
लेकिन शूद्रों ने कभी बगावत नहीं की, क्यों? क्योंकि क्षुद्र आदी हो गए, वे दुख ही उनके लिए आदत का हिस्सा हो गए। बगावत आई है तो उन घरों से आई है, जो क्षुद्र नहीं है।

क्योंकि  उनको यह दिखाई पड़ा कि एक आदमी पाखाना धो रहा है सुबह से शाम तक। उनको पीड़ा मालूम पड़ी। क्योंकि उनको अगर दिनभर पाखाना धोना पड़े तो कल्पना के बाहर है। वे मर जाना पसंद करेंगे, बजाय पाखाना धोने के।
लेकिन उनको पता नहीं है कि जो धो रहा है उसको कुछ भी पता नहीं है। इसलिए शूद्रों के भीतर से बगावत न आई। बगावत आई--ब्राह्मण, और वैश्यों और क्षत्रियों के बेटों से आई। उनको यह बात दुखी कि यह नहीं होना चाहिए।
यह जानकर आप हैरान होंगे कि दुनिया मैं दीन-दलित कभी भी विद्रोह नहीं करते। विद्रोह का सवाल ही नहीं उठता, वे उसी दुख के आदी हो जाते हैं। हिंदुस्तान में इतनी गरीबी है। हमें कुछ भी नहीं...। अमेरिका से एक आदमी आता है और उसे देख कर समझ में नहीं आता कि ये लोग चुप क्यों बैठे हैं। इतनी गरीबी सही नहीं जा सकती।
उसको दिखता है क्योंकि उसकी यह आदत नहीं है। आदत आदमी को कुछ भी, कुछ भी करने के योग्य बना देती है।
तनाव दो तरह के हैं--सुख के, दुख के। दोनों तनाव हैं। और इन दोनों से जो ऊपर उठ जाए, वह आत्मा को अनुभव कर पाता है।
इसे थोड़ा समझ लें, फिर दूसरी बात हम समझें।
बुद्ध का एक गांव में आगमन हुआ। और बुद्ध ने....जब उस गांव में वे आए तो सारा गांव चकित होकर पूछने लगा कि हमने सुना है कि हमारे गांव का राजकुमार भी दीक्षित होकर भिक्षु हो गया है।
गांव का जो राजकुमार था उसने दीक्षा ले ली। सारा गांव चकित है क्योंकि वह राजकुमार तो कभी महलों से नीचे नहीं उतरा। वह तो कभी मखमलों और कालीनों से नीचे नहीं चला।
वह भिक्षु होकर भिक्षा पात्र लेकर, गांव-गांव भीख मांगेगा, नंगे पैर चलेगा। यह तो कल्पना से बाहर है।
बुद्ध से वे कहने लगे कि हमारे राजकुमार ने दीक्षा ली यह तो बड़ा चमत्कार है।
बुद्ध ने कहा, कोई चमत्कार नहीं है। आदमी का मन जब एक, एक चीज का आदी हो जाता है तो कभी-कभी बदलने के लिए भी आतुर होता है।
उसने सुख के तनाव बहुत देख लिए, अब वह दुख के तनाव देखने के लिए उत्सुक हुआ है। हो गई बात वह। वह अनुभव हो गया। वह दूसरे अनुभव भी लेना चाहता है।
और मैं तुमसे कहता हूं कि जिस तरह वह सुख में अति पर था, एक्सट्रीम पर, उसी तरह वह दुख में भी अति पर चला जाएगा।
और यही हुआ छह महीने के भीतर सभी भिक्षुओं से आगे निकल गया, अपने को दुख देने में। दूसरे भिक्षु राजपथ पर चलते तो वह पगडंडियों पर चलता, जिन पर कांटे होते।
दूसरे भिक्षु दिन में एक बार भोजन करते, तो वह दो दिन में एक बार भोजन करता। दूसरे भिक्षु छाया में बैठते तो वह भरी दोपहरी में धूप में खड़ा रहता। उसके पैर छिद गए कांटों से। उसका शरीर सूख कर काला पड़ गया।
उसे छह महीनों बाद पहचानना मुश्किल था। उसकी बड़ी सुंदर देह थी, बड़ी सुंदर काया थी। दूर-दूर से देखने लोग उसकी देह को ही आते थे।
उस देह को देखकर अब कोई विश्वास ही नहीं करता कि यह वही राजकुमार है।
छह महीने बाद बुद्ध उसके पास गए। वह कांटे बिछाए, पत्थर डाले उस पर लेटा हुआ था। यह उसका विश्राम करने का ढंग था।
बुद्ध ने उससे कहा कि श्रोण! उसका नाम था श्रोण। मैं तुमसे एक बात पूछने आया हूं। मैंने सुना है जब तू राजकुमार था तो तू वीणा बजाने में बहुत कुशल था। क्या मैं कुछ पूछूं तो उत्तर देगा?
उसने कहा कि हां। निश्चित ही लोग कहते थे, मुझसे अच्छी वीणा बजाने वाला कोई भी नहीं।
तो बुद्ध ने कहा कि मैं यह पूछता हूं कि अगर वीणा के तार बहुत ढीले हों, तो उन तारों से संगीत पैदा होता है।
उस श्रोण ने कहा, कैसे होगा प्रभु। तार ढीले होंगे तो उन पर टंकार ही नहीं हो सकती। संगीत कैसे पैदा हो सकता है।
बुद्ध ने कहा, क्या फिर यह हो सकता है कि तार बहुत कसे हों तो संगीत पैदा हो।
श्रोण ने कहा, तार बहुत कसे होंगे तो टूट जाएंगे। तब भी संगीत पैदा नहीं होता है।
तो बुद्ध ने कहा, संगीत कब पैदा होता है?
तो श्रोण कहने लगा, शायद आप समझें या ना समझें, लेकिन जो जानते हैं संगीत के जन्म को। वे कहेंगे--तारों की एक ऐसी अवस्था भी है, जब उन्हें न तो कहा जा सकता कि वे ढीले हैं। और न कहा जा सकता कि वे कसे हैं।
कसे होने और ढीले होने के बीच में भी एक बिंदु है। उस समय तार कसे होने, ढीले होने दोनों के पार होता है। दोनों के अतीत होता है। उसी क्षण संगीत का जन्म होता है।
जब न तार कसा होता, न ढीला होता। बुद्ध ने कहा, यही मैं पूछने आया था और यही कहने भी कि जो वीणा से संगीत के पैदा होने का नियम है। वही जीवन वीणा से संगीत पैदा होने का संगीत भी है।
जीवन वीणा की भी ऐसी अवस्था है, जब उत्तेजना न तो इस तरफ होती, न उस तरफ। न खिंचाव इस तरफ होता, न उस तरफ। और तार मध्य में होते हैं।
तब न दुख होता न सुख होता। क्योंकि सुख एक खिंचाव है और दुख एक खिंचाव है। और तार जीवन के मध्य में होते हैं। सुख और दुख दोनों के पार होते हैं। वही वह जाना जाता है जो आत्मा है, जो जीवन है, जो आनंद है।
आत्मा तो निश्चित ही दोनों के अतीत है। और जब तक हम दोनों के अतीत आंख को नहीं ले जाते, तब तक हमें कोई आत्मा का अनुभव नहीं होगा।
और उन मित्र ने पूछा है "कि दूसरों की आत्मा के लिए प्रार्थना करने का कि उन्हें शांति मिले, क्या प्रयोजन?'
प्रयोजन है, लेकिन जो लोग समझते हैं, वह प्रयोजन नहीं है। कोई दूसरा ही प्रयोजन हैं।
जब हम प्रार्थना करते हैं कि दूसरे की आत्मा को शांति मिले। तो हमारी प्रार्थना से दूसरे की आत्मा को शांति नहीं मिल सकती है। लेकिन जब हम प्रार्थना पूर्ण होते हैं कि दूसरे की आत्मा को शांति मिले तो हमारी आत्मा शांत होती है।
जब मैं किसी दूसरे को कष्ट देने की कामना और विचार करता हूं। तो दूसरे को कष्ट पहुंचेगा, यह जरूरी नहीं है। लेकिन दूसरे की कामना करने वाला व्यक्ति अपने भीतर न मालूम कितने कष्टों के बीज बो लेता है।
दूसरों को दुख देने की कामना करने वाला व्यक्ति अपने भीतर दुख की संभावना निर्मित कर लेता है। हम दूसरे के लिए जो चाहते हैं, जाने-अनजाने वही हमारे लिए हो जाता है।
और जब हम कहते हैं कि दूसरे के लिए प्रार्थना करो कि शांति मिले। एक तो जो व्यक्ति दूसरे की आत्मा की शांति की प्रार्थना करता है, वह दूसरे की अशांति के लिए उपाय नहीं कर सकता। और अगर करता हो तो बेईमान है।
चूंकि दूसरे की शांति के लिए प्रार्थना और अशांति के लिए उपाय। यह आदमी तो बहुत बेईमान है। खयाल यह रहे कि जो आदमी दूसरे की शांति के लिए प्रार्थना करेगा, वह धीरे-धीरे दूसरे की अशांति के उपाय करना बंद करेगा। वह धीरे-धीरे उसके भीतर दूसरे को दुखी देखने की कामना कम हो जाएगी।
और ध्यान रहे हम सबके भीतर दूसरे का दुखी देखने की कामना है। और दूसरे को सुखी देखने की बिलकुल नहीं है।
जब आपके पड़ोस में एक बड़ा मकान बन जाता है। तब आप भले ही उस मकान के मालिक को कहते हैं कि बहुत अच्छा मकान बना, बड़ा सुंदर है। लेकिन भीतर कभी झांक कर देखा है कि क्या हो रहा है।
भीतर यह होता है कि अच्छा कब यह मकान गिर जाए। भगवान कब इसे गिराए, इस दुष्ट ने क्या कर लिया भीतर यह होता है।
दूसरे के दुख में एक तरह की शांति मिलती है। और दूसरे के सुख में एक तरह की अशांति मिलती है। हम जाने-अनजाने दूसरे के दुख के लिए आतुर हैं।
एक आदमी मर रहा है। उसने अपने बेटों को अपने पास बुलाया और उन बेटों से कहा कि मैं मर रहा हूं। मेरी आखिरी इच्छा पूरी करोगे?
बड़े बेटे समझदार थे। वे चुपचाप बैठे रह गए। छोटा बेटा नासमझ था। उसने कहा, कहिए मैं करूंगा।
उसने उसे पास बुलाया और कहा कि मेरे सब बड़े बेटे नालायक हैं। देखो मरते आदमी की इच्छा पूरी नहीं करते। तुम बड़े अच्छे हो। तुमसे मैं कान में कहता हूं कि जब मैं मर जाऊं तो मेरे लाश के टुकड़े करके पड़ोसियों के घर में फेंक देना और पुलिस में रिपोर्ट कर देना।
उस लड़के ने कहा, लेकिन इसका मतलब क्या?
उसने कहा, बेटा तुझे पता नहीं है, पड़ोसियों को दुख में देख कर मुझे सदा शांति मिलती रही है। और जब मेरी आत्मा स्वर्ग की तरफ जा रही होगी और पड़ोसी बंधे हुए हथकड़ियों में अदालत की तरफ जा रहे होंगे। तब मुझे बड़ी आनंद की...अंतिम समय तो आनंद लेने की व्यवस्था कर दे। मरते हुए बाप की तो आनंद की व्यवस्था कर दे।
एक जर्मन कवि हुआ है हेनरिक हेन। उसने लिखा है कि एक रात मैंने सपना देखा कि भगवान मेरे सामने खड़े हैं और कहते हैं कि तेरी कविताओं से मैं बड़ा प्रसन्न हुआ।
तू मांग ले, तुझे क्या वरदान मांगना है। तुझे कौन सी खुशी चाहिए मैं दूंगा। सब खुशी दूंगा, जो तुझे चाहिए।
हेनरिक हेन ने कहा, बड़ा अदभुत हुआ सपने में, क्योंकि जब भगवान ने कहा, मांग ले तुझे जो खुशी चाहिए मैं दूंगा। तो मेरे मन में हुआ, अपनी खुशी लेने में उतना मजा थोड़े ही आएगा।
मैंने भगवान से कहा, मेरी खुशी की फिक्र छोड़िए। पड़ोसियों को क्या दुख दे सकते हैं, उसका वरदान दीजिए।
जाग कर उसने कहा, मैं बहुत घबड़ा गया कि मैंने सपने में यह क्या बात कही। लेकिन सपने में अक्सर सच्ची बातें निकल जाती है। जागते हुए तो आदमी झूठी बातें करता रहता है।
सपने में बेटा बाप की गर्दन दबाता है। जागते में पैर छूता है। सपने में आदमी पड़ोसी की स्त्री को भगा कर ले जाता है। जाग कर कहता है सब मेरी मां-बहने हैं। सपने में ज्यादा असली आदमी प्रकट होता है, वह जो भीतर है।
हम सब दूसरे के दुख के लिए आतुर हैं। इसलिए दूसरे की शांति और आनंद के लिए प्रार्थना कर लेते हैं। दूसरे को शांति और आनंद मिल जाएगी ऐसा नहीं है। लेकिन हम निरंतर ऊंचे उठते चले जाएंगे क्योंकि जिसने दूसरे के सुख की कामना की, उसके जीवन से दूसरे के दुख उपाय बंद हो गए।
जिसने दूसरे के सुख की कामना की उसके जीवन में एक क्रांति हो गई। इससे बड़ी कोई भी क्रांति नहीं है, जो दूसरे के सुख में सुख अनुभव कर सकूं। दूसरे के दुख में भी दुख अनुभव करना बहुत आसान है।
दूसरे के सुख में सुख अनुभव करना बहुत कठिन है। क्योंकि दूसरे के दुख में तो दुखी हो जाने में बहुत कठिनाई नहीं है, बल्कि एक तरह का रस आता है, एक तरह का मजा भी आता है।
देखें, जब किसी के घर कोई मर जाए, तो जो लोग इकट्ठे होते हैं सहानुभूति प्रकट करने, जरा उनका चेहरा देखें, उनकी बातें देखें। वे दुख की बातें करते हैं, आंसू भी गिराते हैं। लेकिन उनका पूरा भाव देखें तो ऐसा लगता है वे बड़ा आनंद अनुभव कर रहे हैं। और अगर आप किसी के घर दुख मनाने जाएं।
कोई का बाप मर गया है और आप उसके घर जाकर आंसू बहाने लगे और वह कहे क्या फिजूल की बातें करते हो, क्या फायदा जो मर गया वह मर गया। तो आप बड़े अचरज से लौटेंगे।
मैं एक घर में रहता था, उनके घर में जो गृहिणी थी। उनका नियत कार्य यह था कि किसी के घर में कोई मरे तो वह दुख प्रगट करने जाएं।
मैंने उनसे पूछा कि तुम मुझे सच बताओ कि जब तुम दुख प्रगट करने जाती हो और अगर उस घर में तुम पाओ कि कोई तुम्हारे दुख का कोई मूल्य नहीं कर रहा तो अच्छा लगता है कि बुरा लगता है?
उन्होंने कहा, बुरा लगता है। बड़ा हैरानी होती है कि हम तो इतना दुख प्रगट करने आए हैं और घर के लोग कोई फिक्र ही नहीं कर रहे।
अगर आप भी कभी किसी के दुख में दुख प्रकट करने गए हों तो अपने भीतर झांक लें कि कहीं उस दुख में भी तो कहीं रस नहीं आ रहा।
दो आदमी रास्ते पर लड़ रहे हैं। और भीड़ इकट्ठी है। अदालत जाने वाले खड़े हो गए हैं। दफ्तर जाने वाले खड़े हो गए हैं, कालेज पढ़ने जाने वाले खड़े हो गए हैं। सब हजार काम छोड़ कर खड़े हो गए हैं। दो आदमी लड़ रहे हैं, उनको देख रहे हैं।
आप क्या देख रहे हैं वहां? और कुछ लोग उन दोनों को कह भी रहे हैं कि भाई मत लड़ो। लेकिन भीतर उनके मन में यह हो रहा है कि कहीं ऐसा न हो कि ये ना ही लड़े। अन्यथा सब मजा किरकिरा हो जाएगा।
और अगर कहीं आप लड़ाई देखने खड़े हो गए हैं और लड़ाई ऐसे ही छूट जाए ऊपर-ऊपर। तो आप दुखी लोटते हैं कि कुछ भी हुआ। बेकार समय खराब हुआ।
हमारे चित्त के भीतर, ऊपर से नहीं दिखाई पड़ती हैं ये सारी बातें, लेकिन हमारा चित्त ऐसा है। पहले महायुद्ध में कोई साढ़े तीन करोड़ आदमी मरे। और जब युद्ध चलता था, तो एक अजीब घटना अनुभव हुई, कि जितने दिन युद्ध चला उतने दिन यूरोप में बीमारियां कम हो गई। मानसिक रोग कम हो गए। हत्याएं कम हो गई। कम लोग पागल हुए, सब औसत गिर गया। डाके कम पड़े, आत्महत्याएं कम हुई। मनोवैज्ञानिक हैरान हो गए कि युद्ध से इन चीजों के कम होने का क्या संबंध है? कुछ संबंध नहीं सूझा।
युद्ध चलता रहे, जिसको आत्महत्या करनी है, करनी चाहिए। जिसको हत्या करनी है, करनी चाहिए। लेकिन सब अपराधों का औसत नीचे गिर गया।
फिर दूसरे महायुद्ध में तो और भी औसत नीचे गया तो, साढ़े सात करोड़ लोगों की हत्या हुई। और इतना औसत नीचे गिर गया कि मनोवैज्ञानिक के एकदम सूझ-बूझ के बाहर हो गई यह बात कि यह क्यों होता है।
फिर धीरे-धीरे समझ में आया कि युद्ध के समय लोग इतने आनंदित हो जाते हैं, युद्ध में इतना रस आता है लोगों को, इतने लोगों की हत्याएं हो रही हों, जब तक कोई अपनी अलग से हत्या करने नहीं जाता। इतनी हत्याओं में ही रस ले लेता है और तृप्त हो जाता है।
जहां इतना विनाश हो रहा हो, वहां कोई छोटा-मोटा विनाश क्यों करे। इसी विनाश में संयुक्त हो जाता है और तृप्त हो जाता है। जहां पूरा समाज ही पागल हो गया हो, होलसेल मैडनेस जहां हो, वहां कोई प्राइवेट मैडनेस की फिक्र क्यों करे।
तो अपनी, अपना पागलपन की कोई जरूरत नहीं है, सभी पागल है तो ठीक है।
आपने भी देखा होगा, हिंदुस्तान-चीन का झगड़ा चलता होगा या पाकिस्तान का, तो आपने देखा लोगों के चेहरे की रौनक बदल गई थी।
आदमी के चेहरे पर चमक मालूम पड़ती थी, जो कभी मालूम नहीं पड़ती है हिंदुस्तान में। आदमी पांच बजे उठ आता था, ब्रह्ममुहूर्त में, अखबार देखने को रेडियो सुनने का कि क्या हो रहा है?
जो आदमी सात बजे तक कभी नहीं उठा। वह आदमी पांच बजे उठकर पूछने लगता था कि और क्या खबर है? और हर आदमी में गति दिखाई पड़ती थी। चमक दिखाई पड़ती थी। कोई खुशी दिखाई पड़ती थी।
हैरानी की बात है! युद्ध हो रहा हो, लोग कट रहे हों, मर रहे हों, आग लग रही हो, बम गिर रहे हो, और इतनी खुशी?
हमारे भीतर जो सैडिस्ट बैठा हुआ है, वह जो दूसरे को दुख देने वाला बैठा हुआ है, वह बड़ा तृप्त होता है। वह कहता है बड़ा आनंद आ रहा है। हालांकि ऊपर से दूसरी बातें कर रहा है। वह कहता है, देश भक्ति, रक्षा, धर्म, फला-ढिकां, सब बकवास है। भीतर असली मतलब दूसरा है। असली मतलब यह है कि हम दूसरे को दुख देना चाहते हैं। और दुख देने में तृप्ति मिलती है।
वह जो प्रार्थना है दूसरे के मंगल के लिए। दूसरे की शांति के लिए, उससे दूसरे को शांति मिलेगी या नहीं, यह महत्वपूर्ण नहीं है।
महत्वपूर्ण है कि वह प्रार्थना करने में, वह भाव करने में हम रूपांतरित होते हैं। और वह जो हमारे भीतर दूसरे को दुख देने वाला बैठा है, वह विसर्जित हो जाता है। वही मूल्यवान है। यह अर्थ मूल्यवान है।
किसी और ने पूछा है कि भारत के चेहरे पर, भारत के युवकों के चेहरे पर न तेज है, न रौनक है, न चमक है, न ओज है, इसका कारण निश्चित यह है कि भारत में ब्रह्मचर्य खंडित हुआ है। तो आप ब्रह्मचर्य के लिए कुछ समझाइए।
मैं दोत्तीन बातें कहना चाहूंगा। पहली तो बात यह--अमेरिका के लड़के की आंख पर ज्यादा रौनक है, ब्रह्मचर्य ज्यादा है आपसे? इंगलैंड के बच्चों की आंखों में तेज ज्यादा है, ओज ज्यादा है। रूस के बच्चों में जो ताजगी दिखाई पड़ती है वह कहीं दुनिया में दिखाई नहीं पड़ती। आपसे ज्यादा ब्रह्मचर्य है वहां।
ब्रह्मचर्य का कोई सवाल नहीं पहली बात। और मजे की बात है कि ब्रह्मचर्य की शिक्षा जितनी दी गई है इस मुल्क में उसका उतना ही उसका दुष्परिणाम हुआ है। उसका फायदा नहीं हुआ नुकसान हुआ है।
सच्चाई यह है कि ब्रह्मचर्य की शिक्षा से जितना ओज नष्ट होता है, उसका हिसाब लगाना मुश्किल है।
लेकिन इस देश में हजारों साल से हम गलत तरह की बातें कर रहे हैं। अवैज्ञानिक बातें कर रहे हैं। अस्वाभाविक बातें कर रहे हैं और उन पर निर्भर होना चाहते हैं। न खाने को है लोगों के पास, न पीने को है। और लोग शिक्षा देना चाहते हैं कि ब्रह्मचर्य नहीं है इसीलिए ओज नहीं है, चमक नहीं है।
आदमी भूखे मर रहे हैं। सारा देश भूखा मर रहा है। कहां से ओज होगी, कहां से चमक होगी। असली मुद्दे नहीं पकड़ेंगे। इस मुल्क में बहुत अजीब हालत है।
इस मुल्क के साधु-संन्यासी जितनी बेईमानी की बातें करते हैं, उतना कोई भी नहीं करता। असली बात  यह है कि देश भूखा मर रहा है। नशों में खून नहीं है। खाने को भोजन नहीं है। दूध नहीं है, पानी नहीं है कुछ भी नहीं है। और बातें, बातें होशियार लोग करेंगे कि ब्रह्मचर्य गड़बड़ हो गया है। इसलिए लोगों का ओज चला गया है। ब्रह्मचर्य की शिक्षा दो।
ब्रह्मचर्य की शिक्षा रोटी नहीं बन सकती और न ब्रह्मचर्य की शिक्षा दूध बन सकती है। और न ब्रह्मचर्य की शिक्षा भोजन बन सकती है। और यह जानकर आप हैरान होंगे, जितना कमजोर शरीर होगा, उतना अब्रह्मचारी होगी।
जितना अस्वस्थ शरीर होगा, उतना कामुक, उतना सेक्सुअल होगा। जितना स्वस्थ शरीर होगा, उतनी कामुकता कम होती है। इसलिए तो गरीब ज्यादा बच्चे पैदा करते हैं और अमीर कम बच्चे पैदा करते हैं।
अक्सर तो यह होता है कि अमीरों को बच्चे उधार लेने पड़ते हैं। और गरीब कतार लगाए चले जाते हैं।
आप जानते हो उसका कारण क्या है? जो मुल्क जितना अमीर हो जाएगा, उस मुल्क में बच्चों की संख्या उतनी ही नीचे गिर जाती है।
जैसे फ्रांस है, सुख में रह रहे हैं लोग। सुखी लोग बहुत कामुक नहीं होते। दुखी लोग बहुत कामुक हो जाते हैं। क्यों? क्योंकि दुखी आदमी को कामुकता एक मात्र सुख रह जाती है। वही एक मात्र रस रह जाता है। अमीर आदमी वीणा भी सुन लेता है। अमीर आदमी संगीत भी सुन लेता है। अमीर आदमी तैर भी लेता है। अमीर आदमी जंगल में घूम भी आता है। हिल स्टेशन भी हो आता है।
गरीब आदमी के लिए न कोई हिल स्टेशन, न कोई वीणा है, न कोई संगीत है, न कोई काव्य है, न कोई साहित्य है, न कोई धर्म है। गरीब आदमी का तो सब कुछ उसका सेक्स है। बस वही उसका हिल स्टेशन है, वही उसकी वीणा है, वही उसका कुशल है। वह दिन भर कुटा पिटा लोटता है, थका मांदा लौटता है, उसके लिए एक ही विश्राम है सेक्स। और कोई विश्राम नहीं है।
वह बच्चे पैदा करते चले जाता है। और जितना शरीर भीतर उत्तेजित होता है, और ध्यान रहे अस्वस्थ शरीर उत्तेजित होता है, तनाव से भरा होता है, उतना उत्तेजना को निकालने के लिए जो विलिंग है, वह सेक्स।
सेक्स असल में उत्तेजित शरीर की चेष्टा है। शरीर उत्तेजित है, उत्तप्त है, तो शरीर कुछ अपनी ऊर्जा को बाहर फेंक देता है ताकि वह शांत हो जाए, शिथिल हो जाए।
जितना शरीर स्वस्थ है, विश्राम में है, आनंद में है, शांत है, उतना ही सेक्स की जरूरत कम पड़ती है। गरीब कौम कभी भी सेक्स से मुक्त नहीं हो सकती। लेकिन साधु-संन्यासी समझाते हैं कि ब्रह्मचर्य की कमी हो गई। इसलिए यह सब गड़बड़ हो रही है। ब्रह्मचर्य की कमी नहीं हो गई है।
और दूसरी बात भी ध्यान रखना, ब्रह्मचर्य की शिक्षा अगर दमन बन जाए तो फायदा कम पहुंचाती है, नुकसान ज्यादा पहुंचाती है। सप्रेशन अगर बन जाए। और हिंदुस्तान में ब्रह्मचर्य की शिक्षा का क्या मतलब?
हिंदुस्तान में ब्रह्मचर्य की शिक्षा का मतलब स्त्री-पुरुष को दूर-दूर रखो। और स्त्री-पुरुष जितने-जितने दूर-दूर होंगे, स्त्री-पुरुष उतने ही एक दूसरे के बाबत ज्यादा चिंतन करते हैं। जितने निकट हों, उतना कम चिंतन होता है।
और जितना ज्यादा चिंतन हो, उतनी कामुकता बढ़ती है और जितनी कामुकता हो उतना ब्रह्मचर्य असंभव हो जाता है।
मेरे एक मित्र दिल्ली के डाक्टर है। इंगलैंड गए हुए थे, एक मेडिकल कांफ्रेंस में भाग लेने। पांच सौ डाक्टर सारी दुनिया से इकट्ठे थे। और थाइस पार्क में उनकी बैठक चल रही थी, कुछ खाना, पीना, भोजन कुछ मिलना-जुलना।
मेरे मित्र सरदार हैं पंजाब के, वे भी वहां है। ठीक जहां ये पांच सौ डाक्टर खाना-पीना गपशप कर रहे हैं, एक दूसरे से मिल रहे हैं, वहीं पास की एक बेंच पर एक युवक और युवती, एक-दूसरे से गले लगे किसी दूसरे लोग में खो गए।
 डाक्टर तो बेचैन हैं दूसरों से बातें करते हैं, लेकिन इनकी नजर वहीं लगी हुई है, और दिल यह हो रहा है कि कोई पुलिस वाला आकर इनको पकड़ कर क्यों नहीं ले जाता। यह क्या अशिष्टता हो रही है।
हमारे देश में ऐसा कभी नहीं हो सकता। यह क्या हो रहा है? यह कैसी संस्कृति है, कैसी असभ्यता है?
बार-बार देख रहे हैं वहीं। दिल अब और कहीं नहीं लगता है उनका। अब दिल पूरा वहीं लगा हुआ है। पड़ोस का एक आस्ट्रेलियन डाक्टर है, उसने कंधे पर हाथ रखा है और उन्होंने कहा, महानुभाव बार-बार वहां मत देखिए नहीं पुलिस वाला आकर आपको ले जाएगा।
उन्होंने कहा, क्या कहते हैं? तो उस आदमी ने कहा, वह उन दोनों की बात है उसमें तीसरे का कोई संबंध नहीं। आप बार-बार देखते हैं, यह आपके भीतर के रुग्ण चित्त का सबूत है। आप बार-बार वहां क्यों देखते हैं।
ये मेरे मित्र डाक्टर कहने लगे, लेकिन यह अशिष्टता है, जहां पांच सौ लोग मौजूद है, वहां दो लोग गले मिले बैठे हुए हैं। यह अशिष्टता है।
 लेकिन उसने कहा, पांच सौ में से किसने देखा है सिवाय आपको छोड़ कर। कौन फिक्र करता है। और वे बहुत जानते हैं कि यहां पांच सौ शिक्षित डाक्टर इकट्ठे होने वाले हैं, उनसे अभद्रता कि उन्हें कोई आशा नहीं है इसलिए वे शांति से बैठे हुए हैं। यहां अकेले बैठे हों या पांच से मौजूद हो, कोई फर्क नहीं पड़ रहा।
लेकिन आप क्यों परेशान?
वे डाक्टर मित्र मेरे बोले कि लौट कर कि मैं बहुत घबड़ा गया। और जब मैंने भीतर खोज की तो पाया, मेरे ही भीतर का कोई रोग मुझे दिखाई पड़ रहा था। अन्यथा मुझे क्या प्रयोजन था।
जिस मुल्क में स्त्रियों को, पुरुषों को दूर-दूर रखा जाएगा, वहां यह उपद्रव होगा। वहां लोग गीता की किताब पढ़ेंगे और अंदर कोक-शास्त्र रख कर पढ़ेंगे। अंदर गंदी किताब रखेंगे और ऊपर गीता होगी, कवर गीता का होगा।
जहां स्त्री-पुरुष बहुत दूर रखा जाएगा, दमन सिखाया जाएगा। वहां इस तरह के उपद्रव होने शुरू होंगे।
अभी मैंने परसों अखबार में पढ़ा कि सिडनी शहर में जहां की आबादी बीस लाख होगी। एक युरोपियन अभिनेत्री को बुलाया नग्न प्रदर्शन के लिए। इस आशा से कि नग्न प्रदर्शन देखने बहुत लोग इकट्ठे होंगे। लेकिन बीस लाख की आबादी में थियेटर में केवल दो आदमी देखने आए।
दो आदमी! नंगी औरत को। और उस नंगी औरत को ठंड लग गई। नंगे होने की वजह से सर्दी ज्यादा थी। और वह बहुत नाराज हुई कि यह कैसी बस्ती है?
हिंदुस्तान में अगर एक नंगी औरत को हम खड़ा कर दें उदयपुर में। तो कितने लोग देखने आएंगे? दो आदमी?
सब देखने आ जाएंगे। हां, फर्क होगा। जो जरा हिम्मतवर है सामने के दरवाजे से आएंगे। साधु-संन्यासी, महंत इत्यादि नेता-गण पीछे के दरवाजे से आएंगे। लेकिन आएंगे सब। कोई चूक नहीं।
यह भी हो सकता है कि कोई यह कहता हुआ आए कि मैं अध्ययन करने जा रहा हूं कि कौन-कौन वहां जा रहा है। यह भी हो सकता है। मैं तो सिर्फ आब्जर्वेशन करने जा रहा हूं कि कौन-कौन वहां जाता है। यह भी हो सकता है।
इस देश में यह दुर्भाग्य कैसे फलित हो गया है। यह, इस देश में दुर्भाग्य इसलिए फलित हो गया है कि हमने ब्रह्मचर्य को जबरदस्ती थोपने की कोशिश की। सहज विकास नहीं।
ब्रह्मचर्य का सहज विकास और बात है। और अगर ब्रह्मचर्य का अगर सहज विकास करना हो तो सेक्स की पूरी शिक्षा दी जानी जरूरी है। ब्रह्मचर्य की नहीं। सेक्स की पूरी शिक्षा। एक-एक बच्चे को, एक-एक बच्ची को दी जानी जरूरी है कि प्रत्येक बच्चा जान सके कि सेक्स क्या है?
और लड़के और लड़कियों को इतने पास रखने की जरूरत है कि लड़के और लड़कियों में ऐसा भाव न पैदा हो जाए कि ये दो जाति के, अलग-अलग तरह के जानवर हैं। ये एक ही जानवर नहीं है, ये एक ही जाती के नहीं है।
यहां हजार आदमी बैठे हैं और एक स्त्री आ जाए तो हजार आदमी फौरन कांशस हो जाते हैं, चेतन हो जाते हैं कि स्त्री आ रही है। यह नहीं होना चाहिए। स्त्रियां अलग बैठती हैं, पुरुष अलग बैठते हैं, बीच में फासला छोड़ते हैं, यह क्या पागलपन है?
यह स्त्री-पुरुष का बोध क्यों है? ये इतने दीवाल क्यों है? हमें निकट होना चाहिए। हमें पास होना चाहिए। बच्चे साथ खेलें, साथ बड़े हों, एक-दूसरे को जाने-पहचाने तो इतना पागलपन नहीं होगा।
आज क्या हालत है? एक लड़की का आज बाजार से निकलना मुश्किल है। एक लड़की का कालेज जाना मुश्किल है। असंभव है कि वह निकले और दो-चार गालियां उसे रास्ते में देने वाले न मिल जाएं। दो-चार धक्के देने वाले न मिले, कोई कंकर न मारे, कोई फिल्मी गाने न फेंके। कुछ न कुछ होगा रास्ते में। क्यों? यह ऋषि-मुनियों की संतान अदभुत व्यवहार कर रही है।
लेकिन कारण है और कारण ऋषि-मुनियों की शिक्षा ही है। वह जो निरंतर स्त्री-पुरुष को दुश्मन बना रहे हैं, उससे यह नुकसान पैदा हो रहा है। जिस चीज का जितना निषेध किया जाएगा, वह उतनी आकर्षण बन जाती है।
जिस चीज का जितना अहंकार किया जाएगा, वह उतना भुलावा बन जाती है। जिस चीज को आप कहेंगे कि इसकी बात नहीं होनी चाहिए। उसकी उतनी ही बात होगी छुप छुपकर होगी। जिस बात को आप रोकना चाहेंगे, लोगों के मन में आकर्षण, जिज्ञासा पैदा होगी क्या बात है?
स्वस्थ नहीं रह जाता चित्त फिर, अस्वस्थ हो जाता है। आप देखें--एक स्त्री अगर सड़क से निकलती हो घूंघट डाल कर तो जितने लोग उसमें आकर्षित होंगे, उतने बिना घूंघट वाली स्त्री में आकर्षित नहीं होंगे।
अगर एक घूंघट वाली स्त्री जा रही है, तो हर आदमी यह चाहेगा कि देख लें घूंघट के भीतर क्या है? बिना घूंघट की स्त्री को देखने का क्या है? दिख जाती है, बात समाप्त हो जाती है। हम जितना छिपाते हैं, उतनी ही कठिनाई शुरू होती है। जितनी कठिनाई शुरू होती है, उतने गलत रास्ते शुरू होते हैं। और सारी चीजें विकृत हो जाती है।
ब्रह्मचर्य अदभुत है। ब्रह्मचर्य की शक्ति की कोई सीमा नहीं है। ब्रह्मचर्य का आनंद अदभुत है लेकिन ब्रह्मचर्य उन्हें उपलब्ध होता है, जो चित्त की सारी स्थितियों को समझते हैं। जानते हैं, पहचानते हैं। और पहचानने के कारण उनसे मुक्त होते हैं। ब्रह्मचर्य उनको उपलब्ध नहीं होता जो कुछ भी नहीं समझते हैं और चित्त को दबाते हैं, और दबाने के कारण भीतर बहुत भाप इकट्ठी हो जाती है।
फिर वह भाप उलटे रास्ते से निकलनी शुरू होती है। वह निकलती है, वह रुक नहीं सकती। ब्रह्मचर्य तो अदभुत है। लेकिन जो प्रयोग इस देश में किया गया है, उसने इस देश को ब्रह्मचारी नहीं बनाया, अति कामुक बनाया है।
इस समय पृथ्वी पर हम से ज्यादा कामुक कौम खोजना मुश्किल है। एकदम असंभव है। लेकिन हम ब्रह्मचर्य की बातें दोहराए चले जाएंगे। और सारा चित्त रोगग्रस्त होता चला जा रहा है।
मैं एक कालेज में कुछ दिन तक था। एक दिन निकल रहा था और कालेज के प्रिंसिपल किसी लड़के को जोर से डांट रहे थे। मैं भीतर गया, मैंने पूछा क्या बात है?
तो प्रिंसिपल खुश हुए, उन्होंने कहा, आप बैठिए। इसे थोड़ा समझाएं। इसने एक लड़की को प्रेम पत्र लिखा है। उस लड़के ने कहा, मैंने कभी लिखा ही नहीं। किसी और ने मेरे नाम से लिख दिया होगा।
प्रिंसिपल ने कहा, झूठ बोल रहे हो तुम। यह पत्र तुमने लिखा है, पहले और भी रिपोर्ट आ चुकी हैं। तुमने पत्थर भी तीन लड़कियों को मारा है। वह यह सब पता है। हर लड़की को अपनी मां-बहन समझना चाहिए।
वह लड़का बोला मैं तो समझता ही हूं, आप कैसी बातें कर रहे हैं। मैंने कभी इससे अन्यथा कुछ समझा ही नहीं। हर लड़की को मां-बहन समझता ही हूं। जितना वह इनकार करने लगा, उतना प्रिंसिपल उस पर चिल्लाने लगे।
मैंने उनसे कहा, एक मिनट रुक जाइए। मैं कुछ सवाल पूछूं।
प्रिंसिपल ने कहा, खुशी से।
वे समझे कि मैं लड़के से पूछूंगा।
मैंने कहा, लड़के से नहीं कुछ आपसे मुझे पूछना है।
आपकी उम्र कितनी है? उनकी उम्र बावन वर्ष। मैंने पूछा, आप छाती पर हाथ रख कर यह बात कह सकते हैं कि हर लड़की को मां-बहन समझने की हालत में आप हैं? अगर आ गए हों, तो इस लड़के से कुछ कहने का हक है। अगर न आ गए हों, तो बात भी करने के हकदार आप नहीं हैं।
उन्होंने उस लड़के से कहा, तुम बाहर जाओ।
मैंने कहा, वह बाहर नहीं जाएगा। उसके सामने ही यह बात होगी।
और मैंने उस लड़के से कहा, पागल है तू। अगर तू ठीक कह रहा है, कि तू सब लड़कियों को मां-बहन समझता है, तो चिंता की बात है। तू रुग्ण है, बीमार है, कुछ गड़बड़ है।
और अगर तुमने प्रेम पत्र लिखा है तो कुछ बूरा नहीं किया है। अगर बीस और चौबीस वर्ष के लड़के और लड़कियां प्रेम करना बंद कर देंगे। उस दिन यह दुनिया नर्क हो जाएगी। प्रेम करना चाहिए। लेकिन प्रेम पत्र में तुमने गाली लिखी है, यह बेवकूफी की बात है।
प्रेम पत्र में कहीं गालियां लिखनी पड़ती है। अगर मेरा बस चले तो मैं तुझे सिखाऊंगा कि कैसे प्रेम पत्र लिख। यह प्रेम पत्र गलत है। प्रेम पत्र लिखना गलत नहीं है। एकदम स्वाभाविक है। लेकिन जब स्वाभाविक बात को, अस्वाभाविक थोपा जाएगा और कहा जाएगा कि लड़कियों को मां-बहन समझो। तो इसका परिणाम उलटा होगा।
लड़का ऊपर से कहेगा, हम मां-बहन समझते हैं। और उसकी पूरी प्रकृति किसी लड़की को प्रेम करना चाहेगी। फिर वह एसिड फेंकेगा, पत्थर मारेगा, गालियां लिखेगा। बाथरूम में श्लोक लिखेगा। फिर यह सब होगा। और समाज गंदा होगा, श्रेष्ठ नहीं होगा।
प्रेम की अपनी पवित्रता है। प्रेम से ज्यादा पवित्र और क्या है? लेकिन हमने स्त्री-पुरुष को दूर करके प्रेम की पवित्रता भी नष्ट कर दी। उसको भी गंदगी बना दिया है।
और धीरे-धीरे हर स्वाभाविक चीज पर बाधा डाल कर, हर चीज को अस्वाभाविक, अननेचरल बना दिया है। और तब जो परिणाम होने चाहिए, वे हो रहे हैं।
हिंदुस्तान तब तक ब्रह्मचर्य की दिशा में अग्रसर नहीं हो सकता। जब तक काम और सेक्स को समझने की स्वस्थ और वैज्ञानिक दृष्टि पैदा नहीं होती।
यह पागलपन बंद होना चाहिए, जो हो रहा है। इस पर रुकावट लगनी चाहिए। और गलत बातें सिखानी बंद करनी चाहिए, उनसे जो नुकसान हो रहा है, उसका हिसाब लगाना मुश्किल है। आप कल्पना भी नहीं कर सकते कि हम कितना नुकसान हम अपने बच्चों को पहुंचा रहे हैं।
सारे दुनिया के चिकित्सक कहते हैं कि सेक्स मैच्योरिटी के बाद। चौदह और पंद्रह साल के बाद--बच्चे की, लड़के की उत्सुकता लड़की में और लड़की की उत्सुकता लड़के में होनी स्वाभाविक है।
अगर न हो, तो खतरा है। बिलकुल स्वाभाविक है। अब इस उत्सुकता को हम कितने अच्छे, सुसंस्कृत मार्ग पर ले जाएं, यह हमारे हाथ में है। और जितने सुसंस्कृत मार्ग पर हम ले जाएंगे, उतना ही इस बच्चे को जीवन में वीर्य की ऊर्जा को संभालने में, शक्ति को संचित करने में, ब्रह्मचर्य की दिशा में बढ़ने का सहारा मिलेगा।
लेकिन हम क्या कर रहे हैं? हम बीच में एकदम पत्थर की दीवाल खड़ी कर देते हैं और चोरी के सब रास्ते खोल देते हैं। और बड़े मजे की बात है, एक तरफ ब्रह्मचर्य की शिक्षा दिए चले जाते हैं। और दूसरी तरफ पूरा कामुकता का प्रचार करता चला जाता है। बच्चे चौबीस घंटे कामुकता के प्रचार से पीड़ित हैं। और इधर ब्रह्मचर्य की शिक्षा से भी पीड़ित हैं।
दोनों विरोधी शिक्षाएं मिल कर उनके जीवन को बहुत संघातक स्थिति में डाल देती है। हिंदुस्तान के बच्चों में उतना ही ओज है, जितना दुनिया के किसी कौम के बच्चों में।
लेकिन उस ओज के कम होने में बड़ा कारण तो गरीबी, भोजन की कमी। और उससे भी बड़ा कारण, हमारी अवैज्ञानिक दृष्टि है सेक्स के संबंध में। यह दृष्टि अगर वैज्ञानिक हो, तो हमारे बच्चे किसी भी कौम के बच्चों से ज्यादा ओजस्वी और तेजस्वी हो सकते हैं।
लेकिन अत्यंत मंद बुद्धि साधु जो कुछ भी कहे चले जा रहे हैं, न जिन्हें बायलॉजी का कुछ पता है। न फिजियालॉजी का कुछ पता है, न जिन्हें शरीर का कुछ पता है, न जिन्हें वीर्य के निर्माण का कोई पता है। न जिन्हें कुछ संबंध है।
वे न जाने क्या-क्या फिजूल बातें समझाए चले जा रहे हैं। हिंदुस्तान के समझाने वाले समझाते हैं कि जैसे वीर्य का संचित कोश शरीर में रखा हुआ है कि अगर वह खर्च हो गया तो तुम मर जाओगे।
वीर्य का कोई संचित कोश नहीं है। वीर्य जितना खर्च होता है उतना पैदा होता है। इसलिए वीर्य के खर्च से कभी भी घबड़ाने की कोई जरूरत नहीं है। कोई जरूरत ही नहीं है, विज्ञान तो यह कहता है। लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि कोई वीर्य को ऐसे ही खर्च करता रहे।
वीर्य तो रोज निर्मित होता है, और जो कहा जाता है कि अगर एक बूंद वीर्य की खो गई तो सारा जीवन नष्ट हो गया है। ऐसी बातें कहने वालों पर जुर्म लगने चाहिए और मुकदमे चलने चाहिए। क्योंकि ऐसी बात जो बच्चा पढ़ेगा, वह उसका अगर एक बूंद वीर्य खो गया तो वह सदा के लिए घबड़ा गया कि मैं मर गया।
कोई नहीं मरता और न जीवन नष्ट होता है। और बड़े मजे की बात है, वीर्य तो शरीर का हिस्सा है। और आत्मवादी जब शरीर के हिस्सों को जब इतना महत्व देते हों तो समझ में आता है, वे कितने शरीरवादी होंगे। इतना मूल्य नहीं है तुच्छ। और ध्यान रहे वीर्य के खर्च से नुकसान नहीं होता। नुकसान इस बात से होता है कि वीर्य खर्च हो गया तो नुकसान हो जाएगा। यह मानसिक भाव विकृत करता है और नुकसान पहुंचाता है। इसका यह मतलब नहीं है कि मैं कहता हूं कि कोई पागलों की तरह वीर्य के खर्च करने में लग जाए।
जो बहुत गहरे जानने वाले है वे तो यह कहते हैं कि प्रकृति ने ऐसी व्यवस्था की है कि आप ज्यादा वीर्य खर्च कर ही नहीं सकते। प्रकृति की पूरी की पूरी ऑटोमेटिक व्यवस्था है शरीर पर। आप ज्यादा खर्च कर ही नहीं सकते।
लेकिन आप चाहें तो बिलकुल खर्च न करें, यह हो सकता है। इन दोनों बातों को समझ लें आप, आप ज्यादा खर्च नहीं कर सकते। आपके खर्च करने पर सीमा है। उस सीमा से ज्यादा कोई खर्च कर नहीं सकता। क्योंकि शरीर इनकार कर देता है। ऑटोमेटिक है, शरीर फौरन इनकार कर देता है। जितना शरीर खर्च कर सकता है उससे ज्यादा खर्च करने से फौरन इनकार कर देता है।
लेकिन आप चाहें तो बिलकुल खर्च न करें यह हो सकता है। बिलकुल खर्च न करें, यह दो तरह से हो सकता है। या तो जबरदस्ती; जबरदस्ती वाला आदमी पागल हो जाएगा। जैसे केतली के भीतर भाप बंद कर दो। दरवाजे सब बंद कर दो केतली के। केतली फूट जाए, यह होगा।
जबरदस्ती जो रोकेगा, वह विक्षिप्त हो जाएगा, दुनिया में सौ पागलों में से अस्सी पागल सेक्स के कारण होते हैं। एक दूसरा रास्ता भी है। सारा ध्यान मनुष्य का नीचे न जाकर ऊपर की तरफ चला जाए, ध्यान।
ध्यान ऊपर की तरफ चला जाए। ध्यान परमात्मा की खोज में, सत्य की खोज में संलग्न हो जाए। ध्यान वहां चला जाए, जहां सेक्स से मिलने वाले सुख से करोड़-करोड़ गुना आनंद मिलना शुरू हो जाता है। अगर ध्यान वहां चला जाए, तो सेक्स की सारी शक्ति का ऊर्ध्वगमन शुरू हो जाता है।
उस आदमी को पता ही नहीं चलता कि सेक्स जैसी कोई चीज भी खींचती है। पता ही नहीं चलता। सेक्स उसके रास्ते में खड़ा ही नहीं होता।
आपका ध्यान जैसे एक बच्चा कंकड़-पत्थर बीन रहा है, खेल रहा है, और कोई उस बच्चे को खबर दे दे कि साथ में हीरे-जवाहरातों की खदान है, और वह बच्चा भाग कर वहां जाए, और हीरे-जवाहरात मिल जाएं, क्या उस बच्चे का ध्यान अब कंकड़-पत्थरों की तरफ जाएगा।
गई वह बात। अब उसकी सारी शक्ति अब हीरे-जवाहरात बीनेगी। आदमी जब तक परमात्मा की दिशा में गतिमान न हो जाए, तब तक अनिवार्यरूपेण उसका सेक्स की दिशा में आकर्षण होता है।
वह जैसे ही परमात्मा की तरफ गतिमान हो जाए, वैसे ही सारी शक्तियां एक नई यात्रा पर निकल जाती है।
ब्रह्मचर्य का मतलब आप समझते हैं, क्या होता है? ब्रह्मचर्य का अर्थ है ईश्वर जैसा जीवन। ब्रह्मचर्य का मतलब सेक्स से तो कुछ जुड़ा ही हुआ नहीं है। उसका अर्थ है ईश्वर जैसा जीवन, ब्रह्म जैसी चर्या। उससे कोई संबंध ही नहीं है वीर्य वगैरह से। ईश्वर जैसी चर्या कैसे होगी? जब ईश्वर की तरफ बहती हुई चेतना होगी, तब चर्या धीरे-धीरे ईश्वर जैसी होती चली जाएगी।
और जब चित्त ऊपर जाता है तो नीचे की तरफ नहीं जाता है। फिर नीचे की तरफ जाना बंद हो जाता है।
अगर मैं यहां बोल रहा हूं और पास में ही कोई वीणा बजाने लगे, तो आपके सारे चित्त अचानक वीणा की तरफ चले जाएंगे। आपको ले जाना नहीं पड़ेगा, वे चले जाएंगे। आप एक क्षण में पाएंगे कि मुझे भूल गए हैं, वीणा सुन रहे हैं।
जब भीतर आत्मा की वीणा बजने लगती है, तो ध्यान शरीर से हट कर आत्मा की तरफ चला जाता है। और तब जो फलित होता है, वह ब्रह्मचर्य है। उस ब्रह्मचर्य का अदभुत आनंद है। उस ब्रह्मचर्य की अदभुत शांति है। और उस ब्रह्मचर्य का रहस्य बहुत अदभुत है।
लेकिन वे सप्रेस करने वाले और दमन करने वाले लोगों को उपलब्ध नहीं होता। इसलिए आप कहते हैं, हम सारे लोग कि हमारे युवकों के चेहरे कमजोर है, आंखों में ज्योति नहीं। तो हमारे साधुओं की कतार खड़ी करके देख लो, तो उन पर तो ज्योति होनी चाहिए।
वे हम से ज्यादा बीमार और रोग ग्रस्त मालूम होते हैं। उनकी हालत हमसे बुरी है। लेकिन हम कहेंगे, वे त्याग, तपश्चर्या कर रहे हैं, इसलिए यह हालत है।
यह जो हालत है, बेरोनकी की, इसके पीछे दरिद्रता, दीनता, भुखमरी कारण है। और यह जो अश्लीलता और कामुकता की जो स्थिति है, उसके पीछे ब्रह्मचर्य की गलत दिशा और शिक्षा है। दमन की शिक्षा है।
कुछ और प्रश्न रह गए। वे संध्या की चर्चा में मैं आपसे बात करूंगा।

मेरी बातों को इतनी शांति और प्रेम से सुना, उससे बहुत अनुगृहीत हूं। और अंत में सबके भीतर बैठे परमात्मा को प्रणाम करता हूं, मेरे प्रणाम स्वीकार करें।


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