जुहो! जुहो! जुहो!—प्रवचन—87
प्रश्न
सार:
पहला
प्रश्न:
मेरे
पास सब है,
लेकिन शांति नहीं। पूंजी है, पद है, प्रतिष्ठा है, लेकिन सुख नहीं। मैं क्या करूं?
नहीं जी, आपके पास
कुछ भी नहीं है। सबकी तो बात ही छोड़ो, कुछ भी नहीं है।
क्योंकि सब होता तो शांति होती। सब होता तो सुख होता। वृक्ष तो फल से पहचाना जाता
है। फल ही न लगे, उस वृक्ष को वृक्ष कहोगे? सुख का फल न लगे तो वृक्ष झूठा होगा। मान लिया होगा। शांति का जन्म न हो
तो संपदा कैसी? फिर तुम विपदा को संपदा कह रहे हो। संपत्ति
का अर्थ ही यही होता है कि जिससे सुख पैदा हो, जिसमें सुख के
फूल लगें। फल से ही कसौटी है। सुनार सोने को कसता है कसौटी पर, कसौटी पर सोने का चिह्न न बने और वह कहे—सोना तो मेरे पास है लेकिन कसौटी
पर चिह्न नहीं बनता, तो तुम क्या कहोगे? पागल है।
शांति
तो चिह्न है। सुख चिह्न है कसौटी पर। तुम्हारे पास संपत्ति होती तो जरूर ये चिह्न
बनते। तुम न भी बनाना चाहते तो भी बनते। अनायास बनते, अपने आप
बनते। तो कहीं भूल हो रही है। तुम कुछ व्यर्थ को सार्थक समझ बैठे हो। तुमने कूड़ा—करकट
इकट्ठा कर लिया है और उसे तुम संपत्ति मान रहे हो। मानने से तो संपत्ति संपत्ति
नहीं होती। होती हो तो ही होती है। तुम लाख मानो, तुम लाख
चेष्टा करो कि रेत से हम निचोड़ लें तेल, नहीं निचोड़ पाओगे।
रेत में तेल हो तो निचुड़ आता, रेत में तेल है नहीं।
तुम
कहते हो, 'मेरे पास सब है, लेकिन शांति नहीं।'
तो
कुछ भी नहीं है। इस आति को छोड़ो। यह सब होने की भ्रांति तुम्हें अटका रखेगी। यह
भ्रांति टूट जाए तो शांति की यात्रा शुरू हो सकती है। शांति की यात्रा में पहला
कदम यही है कि अब तक जो भी कदम मैंने उठाये गलत दिशा में उठाये, अब इस
दिशा में और कदम नहीं उठाने हैं।
तुम
कहते, 'पूंजी है। '
पूंजी
की परिभाषा तुम्हें मालूम?
पूंजी का अर्थ होता है, जो खोयी न जा सके। जो
मिली सो मिली। जो सदा तुम्हारी हो। जो छिन जाए, उसे पूंजी कहते
हो? जिसे चोर चुरा ले जाएं, उसे पूंजी
कहते हो? जिसका आज मूल्य हो, कल
निर्मूल्य हो जाए, उसे पूंजी कहते हो? पूंजी
तो वही है जो शाश्वत मूल्य रखती है। पूंजी तो भीतर की होती है, बाहर की नहीं होती। पूंजी तो कुछ बात ऐसी है कि मौत भी उसे नहीं छीन पाती।
अग्नि उसे जलाती नहीं, शस्त्र उसे छेदते नहीं। लपटों में
तुम्हारा शरीर जल जाएगा, तुम्हारी पूंजी अछूती बची रहेगी। धन
पूंजी नहीं है, ध्यान पूंजी है। तुम कहते हो, 'पद है।'
जानने
वालों ने तो परमात्मा को ही पद कहा है, परमपद कहा है। और सब पद तो धोखे
हैं। जरा बड़ी कुर्सी पर बैठ गये, कहने लगे, पद है। छोटे बच्चों जैसी बातें हैं। छोटे बच्चे अक्सर खड़े हो जाते हैं बाप
के पास, स्कूल पर खड़े हो जाते हैं, कुर्सी
पर खड़े हो जाते हैं और कहते हैं, मैं आपसे बड़ा, मैं तुमसे बड़ा। कुर्सियों पर बैठकर कोई बड़ा होता है! कुर्सियां छिन जाने
से कोई छोटा होता है! जो बड़प्पन, जो छोटापन कुर्सियों पर
निर्भर हो, वह बडप्पन नहीं, आत्मवचना
है। तुम सपने देख रहे हो। पूंजी तो एक है—आत्मा की। और पद एक है—परमात्मा का। और
प्रतिष्ठा? उसी पूंजी में, उसी पद में
ठहर जाओ तो प्रतिष्ठा है। प्रतिष्ठा शब्द बड़ा महत्वपूर्ण है। उसी में जड़ें जमा लो,
कोई हिला न सके वहा से, कोई उपाय न हिला सके,
कोई परिस्थिति न हिला सके, तो प्रतिष्ठा।
मैंने
एक छोटी सी कहानी सुनी है।
दो
हजार वर्ष पहले की बात। शत्रुओं ने यूनान के एक नगर पर विजय पायी और निवासियों को
नगर छोड़ने की आज्ञा दी। यद्यपि उनकी वीरता से वे प्रभावित थे, बहुत
प्रभावित थे। और इसी कारण उन्होंने इतनी सुविधा दी कि वे अपने साथ जो भी और जितना
भी ले जा सकें, ले जाएं। पूरा नगर अपना—अपना सामान अपनी पीठ
पर लादकर—और उसके लिए रोता हुआ जो नहीं लादा जा सका—दूसरे नगर की ओर चलने लगा। बोझ
से सभी की कमर झुकी जा रही थी, पांव लडूखडा रहे थे, प्यास से सूखे कंठ थे, लेकिन प्रत्येक ने अपनी
सामर्थ्य से अधिक बोझ लादा हुआ था।
स्वभावत:, तुम्हारे
गाव पर शत्रुओं का हमला हो जाए और फिर शत्रु कहें कि जितना तुम अपनी पीठ पर लादकर
ले जा सकते हो, बस उतना ले जाओ, तो
क्या तुम ऐसा आदमी पा सकोगे जो अपने योग्य लादे? प्रत्येक
अपने से ज्यादा लाद लेगा। जिन्होंने कभी सामान नहीं ढोया था, वे भी भारी गट्ठर लादे हुए चल रहे थे। सोना था, चांदी
थी, रुपये थे, आभूषण थे, हीरे—जवाहरात थे और हजार तरह की बहुमूल्य चीजें थीं। और रो भी रहे थे,
क्योंकि बहुत कुछ छोड़ आना पड़ा था। अपना पूरा घर तो लाद नहीं सकते।
बहुत कुछ छोड़ आना पड़ा था। जो छोड़ आए, उसके लिए रो रहे थे;
और जो ले आए, उससे दबे जा रहे थे। दोनों में
मौत थी। छोड़ आए उसके लिए दुख था, ले आए उससे दुखी हो रहे थे।
उस
पूरे यात्री—दल में केवल एक ही पुरुष ऐसा था जिसके पास ले जाने को कोई सामान न था।
वह खाली हाथ,
सिर ऊपर उठाए छाती सीधी ताने बड़ी शांति से चल रहा था। इतना ही नहीं,
उस रोती भीड़ में वह अकेला आदमी था जो गीत गुनगुना रहा था। यह था
दार्शनिक बायस।
एक
स्त्री ने बड़े करुणापूर्ण स्वर में कहा, ओह! बेचारा कितना गरीब है। इसके
पास ले जाने को भी कुछ नहीं?
क्योंकि
भिखारी भी लादे हुए थे अपना— अपना गट्ठर। भिखारी भी इतना भिखारी थोड़े ही है कि कुछ
भी लादने को न हो। कम होगा लादने को, बहुत कम होगा, लेकिन होगा तो। भिखारियों ने भी अपनी गड़ी संपत्ति खोद ली थी। वे भी उसे
लादकर चल रहे थे। यह बायस अकेला आदमी था जिसके पास कुछ भी नहीं था, जो खाली हाथ था, जो मुक्तमना। जो पीछे लौटकर भी नहीं
देख रहा था। पीछे कुछ था ही नहीं तो लौटकर क्या देखना। और जिस पर कोई बोझ भी न था।
एक
स्त्री दया से बोली,
आह, बेचारा कितना गरीब है! इसके पास ले जाने
को कुछ भी नहीं? रहस्यवादी बायस बोला, अपने
साथ अपनी सारी पूंजी ले चल रहा हूं। मुझ पर दया मत करो, दया
योग्य तुम हो।
स्त्री
चौंकी, उसने कहा, मुझे कोई पूंजी दिखायी नहीं पड़ती। कैसी
पूंजी? किस पूंजी की बात कर रहे हो? होश
में हो? कि निर्धन हो और पागल भी हो? बायस
खिलखिलाकर हंसने लगा, उसने कहा, मेरा
ध्यान मेरी पूंजी है, मेरा आचरण मेरी पूंजी है, मेरी आत्मा की पवित्रता मेरी पूंजी है। उसे शत्रु छीन नहीं सकते हैं। उसे
कोई मुझसे अलग नहीं कर सकता। मैंने वही कमाया है जो मुझसे अलग न किया जा सके।
तुमने वह कमाया है जो तुमसे कभी भी अलग किया जा सकता है। और जो अलग किया जा सकता
है वह मौत के क्षण में यहीं पड़ रह जाएगा। जो अलग किया जा सकता है, उससे शांति नहीं मिलती, सुख नहीं मिलता। जो अलग नहीं
किया जा सकता, वही अदृश्य शांति लाता है, सुख लाता है। यह अदृश्य पूंजी ही ऐसी पूंजी है जिसका कोई बोझ नहीं होता।
शरीर की पूंजी बोझ देती है, आत्मा की पूंजी कोई बोझ नहीं
देती।
तो
तुम कहते हो,
'मेरे पास सब है, लेकिन शांति नहीं। '
जिसको
तुम सब कह रहे हो,
इसके कारण ही अशांति है। शांति तो दूर, इसके
कारण ही अशांति है। और जिसको तुम पूंजी कहते, पद कहते,
प्रतिष्ठा कहते, इसी के कारण तुम दुखी हो। सुख
तो बहुत दूर, सुख की तो बात ही छोड़ो, इससे
तो दुख ही दुख पैदा हुआ है। कांटे ही कांटे पैदा हुए हैं। संताप और चिंताएं।
एक
सम्राट ने एक रात अपने नगर का परिभ्रमण करते हुए एक भिखारी को—पूरे चांद की रात थी—एक
वृक्ष के नीचे आनंद से अपने भिक्षापात्र को बजाकर और गीत गाते देखा। वह बहुत चकित
हुआ। इसके पास कुछ भी न था। किस बात का गीत! और सम्राट के पास सब था और गीत उसके
ओंठों पर आते ही नहीं। कब के भूल गए हैं। नाच उसके पैरों में उठता ही नहीं, कब का
विस्मरण हो गया है। हृदय सुख गया, रसधार बहती नहीं। इसके पास
क्या है जिसके कारण यह गीत गुनगुना रहा है?
सम्राट
ने घोड़ा रोक दिया,
उसके गीत में कुछ जादू था। उस स्वरलहरी में कुछ मिठास थी जो इस
पृथ्वी की नहीं। जो कहीं दूर से आती मालूम होती थी। उसमें एक मस्ती थी, उसके आसपास एक तरंग थी। वह रुक गया। थोड़ी देर को भूल ही गया अपना राजा
होना, अपनी चिंताएं, अपनी परेशानियां।
जब
गीत रुका तो चौंका। उसने उस भिखारी से पूछा, तेरे पास क्या है जिसके कारण तू
गीत गुनगुना रहा है? क्या है तेरे पास जिसके कारण तू चिंतित
नहीं है? क्या है तेरे पास जिसके कारण तू मस्त है इस चांद की
रात में? क्या है तेरे पास जिसके कारण मैं तेरे प्रति
ईर्ष्या से भर गया हूं? तूने मुझे जलन से भर दिया है। बड़े
सम्राटों को देखकर भी मेरे भीतर कोई जलन नहीं पैदा होती, क्योंकि
सब जो उनके पास है मेरे पास भी है, थोड़ा—बहुत कम—ज्यादा होगा,
कुछ फर्क पड़ता नहीं। मगर तेरे पास क्या है कि मैं ठिठक गया हूं?
मैं आगे न बढ़ सका।
वह
भिखारी हंसने लगा। उसने कहा, दिखा सकूं? ऐसा मेरे पास
कुछ भी नहीं है। लेकिन गा सकूं? ऐसा मेरे पास बहुत कुछ है।
दिखा सकूं? ऐसा मेरे पास कुछ भी नहीं है। लेकिन गुनगुना सकु
ऐसा मेरे पास बहुत कुछ है। मुझे देखो, पूछो मत। प्रश्न का
उत्तर मैं न दे सकूंगा, मेरी आंखों में देखो। सम्राट उससे
इतना प्रभावित था कि उसे महल में ले आया। उसे सुला दिया और कहा कि सुबह बात करेंगे।
सुबह
जब उठे तो सम्राट ने शिष्टाचारवश उससे पूछा कि रात कैसी बीती? उसने कहा,
कुछ आप जैसी, कुछ आपसे बेहतर। सम्राट थोड़ा
हैरान हुआ, उसने कहा, मतलब मैं समझा
नहीं। कुछ आप जैसी, कुछ आपसे बेहतर—क्या मतलब तुम्हारा?
उसने कहा, जब सो गए, जब
गहरी नींद में खो गए तो आप जैसी, कोई भेद न रहा। जब तक जागते
रहे, हम प्रभु—स्मरण करते रहे, तुम
चिंताओं में डूबे रहे होओगे। कुछ आप जैसी, कुछ आपसे बेहतर।
नींद में जब पड़ गए गहरी, तो आप जैसी; और
जब तक जागते रहे, तब हम प्रभु—स्मरण में डूबे रहे, तुम चिंताओं में डूबे रहे होओगे, व्यर्थ के ठीकरे
गिनते रहे होओगे। इसलिए कहता हूं कि कुछ आप जैसी, कुछ आपसे
बेहतर।
अगर
तुम्हें पूंजी,
पद और प्रतिष्ठा की सच में तलाश हो, तो ध्यान
खोजो, प्रेम खोजो। प्रेम के सिक्के ही तुम्हारे जीवन को धन
से भरेंगे, ध्यान के सिक्के ही तुम्हारे जीवन में सुरभि
लाएंगे। और तब शांति अपने आप आती है। जैसे दीए के जलने पर प्रकाश हो जाता है,
अंधेरा चला जाता है, ऐसे ध्यान के जलने पर अशांति
का अंधेरा अपने से चला जाता है।
तुमने
अब तक जो किया है,
गलत ही किया है। अभी भी देर नहीं हो गयी है। कुछ किया जा सकता है।
एक क्षण में भी क्रांति हो सकती है। मगर पहली बात, इन चीजों
को अब तुम पूंजी कहना बंद करो। अगर तुम इनको पूंजी कहे चले गए तो इसी कहने के कारण
इन्हीं में ग्रसित रहोगे। इसलिए मैं जोर देकर कह रहा हूं कि इसे अब पद मत कहो,
प्रतिष्ठा मत कहो, पूंजी मत कहो; जिससे कुछ भी नहीं मिला, इसे अब तो पूंजी जैसे सुंदर
शब्द देने बंद करो।
हम
जो कहते हैं,
उसका परिणाम होता है। हम जो शब्द देते हैं, उसके
कारण हमारे जीवन में धाराएं पैदा होती हैं। अगर तुम इसे पूंजी कहोगे तो पकड़ोगे।
तुम अगर कहने लगे, यह सब असार है, कूड़ा—करकट
है, तो मुट्ठी खुलने लगेगी। शब्दों का बड़ा बल है। छोटे —छोटे
शब्दों के भेद बड़े भेद ले आते हैं।
तो
मैं तुमसे प्रार्थना करता हूं, अब इसे तुम पूंजी मत कहो, पद मत कहो, प्रतिष्ठा मत कहो। तुम्हारे जीवनभर के
अनुभव ने प्रमाणित कर दिया है कि यह पूंजी नहीं है, पद नहीं
है, प्रतिष्ठा नहीं है। जिससे दुख ही मिला, चिंता ही मिली, अशांति ही मिली, जिससे विक्षिप्तता मिली, उसे ऐसे सुंदर नाम मत दो।
परमात्मा को पूंजी कहो, परमात्मा को पद कहो, परमात्मा में प्रतिष्ठा खोजो।
मगर
यह तभी संभव है जब तुम यहां खोज बंद कर दो। क्योंकि तुम खोजने वाले अकेले हो। अगर
तुम संसार में ही खोजते चले गए, तो संसार का कोई अंत नहीं है। एक वासना से
दूसरी वासना पैदा हो जाती है। एक वासना से दूसरी वासना का सिलसिला पैदा होता चला
जाता है। यह अंतहीन श्रृंखला है। इसमें तुम जाकर कहीं भी कुछ न पाओगे। जितने
भागोगे, उतने ही गहरे मरुस्थल में पहुंच जाओगे। और जितने
इसमें गए उतना ही लौटना पड़ेगा, याद रखना। और लौटना कष्टपूर्ण
होगा। जाते तो उत्साह से हो, लौटने में बड़ा विषाद होगा।
इसलिए जहां हो वहीं ठहर जाओ। और मैं तुमसे यह भी नहीं कहता कि संसार से भाग जाओ।
इतना ही कहता हूं जाग जाओ।
इस
पूंजी में पूंजी नहीं है। तो घड़ी दो घड़ी असली पूंजी की तलाश में लगाओ। तेईस घंटा
दे दो व्यर्थ को,
एक घंटा तो सार्थक को दो। एक घंटा तो मरूद्यान में जीओ। तेईस घंटे
भटकते रहो मरुस्थल में, मगर एक घंटा तो मरूद्यान में जीओ,
एक घंटा तो डुबकी लगाओ भीतर।
इतना
भी अगर हो जाए तो जल्दी ही तुम पाओगे वह एक घंटा जीत गया और तेईस घंटे हार गए। वह
एक घंटा इतना बलशाली है,
उसमें ऐसे स्वर फूटेंगे, ऐसी प्रकाश की किरणें
उपलब्ध होंगी कि तुम अचानक पाओगे—छोटी—छोटी किरणों ने तुम्हारे जीवन को बदलना शुरू
कर दिया, तुम सूरज की यात्रा पर निकल पड़े, तुम्हारे पंख लग गए, तुम उड़ने लगे किसी और यात्रा पर।
तुम
पूछते हो, 'मैं क्या करूं?'
मैं
कहता हूं ध्यान करो,
प्रेम करो। दो शब्द याद रखो—भीतर ध्यान, बाहर
प्रेम, बस सब हो जाएगा। जब अकेले रहो तो ध्यान में डूब जाओ,
तब ऐसे अकेले हो जाओ कि भूल ही जाओ कि संसार है, आंख बंद हो जाएं, विचारों को छोड़ दो, चलते भी हों तो चलते रहें, लेकिन तुम उनसे पृथक हो
जाओ, अलग हो जाओ, तुम अपना तादात्म्य
छोड़ दो। चलते हों चलते रहें, जैसे रास्ते पर भीड़ चलती है।
शोरगुल चलता है, चलने दो, लेकिन तुम अब
उनके साथ अपने को जोड़ो मत। तुम धीरे— धीरे विलग होकर दूर खड़े हो जाओ। तुम अपने
साक्षीभाव में जीओ। और जब कोई पास हो, तब प्रेम बहाओ। जब
अकेले, तब ध्यान में डुबकी लगाओ; और जब
कोई पास हो तो प्रेम बहाओ।
अगर
तुमने ये दो बातें सम्हाल लीं तो मिलेगी पूंजी, निश्चित मिलेगी। पद भी मिलेगा,
प्रतिष्ठा भी मिलेगी, क्योंकि परमात्मा मिलेगा।
दूसरा प्रश्न.
क्या
बुद्ध के चार आर्य—सत्य वैज्ञानिक हैं?
निश्चित ही। इसमें
रत्तीभर संदेह नहीं। बुद्ध की पकड़ बड़ी वैज्ञानिक है। वैज्ञानिकता को समझना हो तो
इस तरह समझो—
मार्क्स
को तो तुम वैज्ञानिक कहते हो न! मार्क्स को तो कम्युनिस्ट कहते हैं, दुनिया का
सबसे बड़ा वैज्ञानिक। समाजशास्त्र के संबंध में सबसे प्रगाढ़ विश्लेषक, सबसे गहरी इसकी पैठ है। और फ्रायड को तो तुम वैज्ञानिक कहते हो न! सारी
दुनिया कहती है कि मन के संबंध में ऐसी पहुंच, ऐसी पकड़ और
किसी की कभी नहीं थी। लेकिन तुम जानकर यह हैरान होओगे कि दोनों ने बुद्ध के चार
आर्य—सत्यों
का प्रयोग किया है।
बुद्ध के चार आर्य—सत्य दोहरा दूं फिर इन दोनों से संबंध जुड़ना आसान हो जाएगा।
बुद्ध
ने कहा, पहली बात तो यह जानना जरूरी है कि दुख है। क्योंकि बहुत लोग ऐसे हैं
जिन्हें यही पता नहीं कि दुख है। मानकर बैठे हैं कि यही जीवन है। जब यही जीवन है,
तो फिर दुख क्या मानना।
ऐसा
समझो कि एक आदमी पैदा हुआ और पैदा होने के साथ ही उसके सिर में दर्द रहा है—तीस
साल हो गए पैदा हुए उसे,
सिर में दर्द पहले दिन से ही रहा है, चौबीस
घंटे रहा है—उसे पता ही नहीं चलेगा कि सिर में दर्द है। और जब उसे पता ही न चलेगा
कि सिर में दर्द है, तो वह चिकित्सा क्यों खोजेगा! चिकिक्क
क्यों खोजेगा! औषधि क्यों खोजेगा!
तो
पहली तो बात यह है कि किसी भी दुख से छुटकारे के लिए कि दुख है, इसकी बहुत
प्रगाढ़ भावना होनी चाहिए। इसका बहुत एकष्ट बोध होना चाहिए। मार्क्स ने कहा कि
दुनियाभर में इतना दुख है, इतनी पीड़ा है, इतनी दरिद्रता है, इतना शोषण है, लेकिन लोगों को पता ही नहीं। गरीब मानकर चलता है कि गरीब होना ही मेरा
भाग्य है। उसे इस बात का बोध नहीं है कि मैं दुखी हूं और यह मेरा भाग्य नहीं है,
इसका इलाज हो सकता है।
तो
मार्क्स ने बुद्ध के चार आर्य—सत्यों में पहला आर्य—सत्य—दुख है—इसका प्रयोग
सामाजिक तल पर किया। और उसने कहा कि दरिद्र को, दीन को, सर्वहारा
को बोध होना चाहिए कि मैं दुखी हूं। जिस दिन गरीब को यह पीड़ा साफ हो जाएगी कि मैं
दुखी हूं और दुखी होना भाग्य नहीं हो सकता; स्वास्थ्य स्वभाव
है, दुखी होना विकृति है, दुर्घटना है,
तो जरूर कहीं कुछ गड़बड़ हो रही है, जो कि ठीक
की जा सकती है। तो पहली बात कि दुख है, इसका एकष्ट बोध हो।
ठीक
यही बात फ्रायड ने कही मनोविज्ञान के संबंध में। बहुत लोग विक्षिप्त अवस्था में
हैं, लेकिन मनोवैज्ञानिक के पास नहीं जाते, क्योंकि
उन्हें स्मरण ही नहीं है कि वे दुखी हैं। बहुत लोग दुखी हैं, लेकिन कभी तलाश नहीं करते, उन्होंने मान ही लिया कि
यही जीवन है, ऐसा ही जीवन है, और कैसा
जीवन होता है! यही रोज की आपाधापी, यही उठना—बैठना, सो जाना, यही कलह, यही प्रेम,
यही जीवन है। इससे अन्यथा जीवन हो सकता है, इसका
सपना भी उनके भीतर नहीं उठा, तुलना भी पैदा नहीं हुई।
तो
फ्रायड भी कहता है कि किसी व्यक्ति की मनोचिकित्सा तभी हो सकती है जब उसे यह एकष्ट
हो जाए कि मेरे चित्त की जो दशा है, जैसी होनी चाहिए वैसी नहीं है;
कुछ विकृत है, कुछ गड़बड़ हो गया है। तो ही तो
चिकित्सा खोजी जाती है। दोनों ने बुद्ध के पहले आर्य—सत्य का उपयोग किया है,
चाहे उन्हें पता हो, चाहे उन्हें पता न हो।
दूसरा
आर्य—सत्य है कि दुख का कारण है। दुख है, इतने से क्या होगा? अगर दुख अकारण हो तो फिर कुछ भी नहीं किया जा सकता, फिर
हम अपंग हो गए, असहाय हो गए। कोई चीज अकारण होती हो तो फिर
कुछ भी नहीं किया जा सकता; फिर क्या करोगे? लेकिन अगर कारण हो तो कारण बदला जा सकता है।
समझो
कि तुम्हारे सिर में दर्द है, क्योंकि तुम कुछ भोजन लेते रहे हो जो कि
सिरदर्द पैदा करता है, तो उस भोजन को लेना बंद किया जा सकता
है। तुम्हारे सिर में दर्द है, क्योंकि रात तुम बिना तकिए के
सोते रहे हो, अगर इसका पता चल जाए तो तकिए के साथ सो सकते हो,
सिर का दर्द मिट सकता है। तुम्हारे सिर में दर्द है, तो कारण खोजना होगा। कारण अगर न हो, तो फिर सिरदर्द
नहीं मिटाया जा सकता, फिर कोई उपाय नहीं है। यह बड़ी
वैज्ञानिक खोज है बुद्ध की कि दुख है, इतने से क्या होगा?
दुख का कारण है।
और
यही तो मार्क्स कहता है। मार्क्स कहता है, आदमी गरीब हैं, क्योंकि गरीबी का कारण है, शोषण चल रहा है। यही
फ्रायड कहता है, कि लोग दुखी हैं, विक्षिप्त
हैं, पागल हो रहे हैं, रुग्ण हैं,
चित्त से स्वस्थ नहीं हैं, कारण है। कारण है
चित्त की स्वाभाविकताओ का दमन, रिप्रेशन। कारण पकड़ में आ जाए
तो बस, हम ठीक रास्ते पर चल पड़े। यह बुद्ध का दूसरा आर्य—सत्य
है। इसकी वैज्ञानिकता बड़ी साफ है।
तुम
जब चिकित्सक के पास जाते हो तो वह यही तो पूछता है, क्या तकलीफ है? पहले पूछता है, क्या दुख है? फिर
जब दुख का पता चल जाता है तो वह फिर तुम्हारी जांच—परख करता है, निदान करता है। निदान यानी कारण, कि क्या कारण?
अगर कारण ठीक—ठीक पकड़ में आ गया तो इलाज करीब—करीब हो ही गया,
पचास प्रतिशत तो हो ही गया। इसलिए ठीक निदान पा लेना, इलाज आधे के करीब पूरा कर लेना है।
इसीलिए
तो तुम जब किसी डाक्टर के पास जाते हो जो न दवा देगा, न इलाज
करेगा खुद, लेकिन सिर्फ डायग्नोसिस करेगा, सिर्फ निदान करेगा, उसकी फीस सबसे ज्यादा होती है।
दवा देने वाले की तो कोई फीस ही नहीं होती—कंपाउंडर दे देता है, कि केमिस्ट दे देता है, उसकी कोई फीस थोड़े ही होती
है। एक दफा निदान हो गया कि यह रही बीमारी और ये रहे कारण, फिर
तो बात सरल है। फिर तो अड़चन नहीं है। सबसे महत्वपूर्ण बात है निदान।
तो
बुद्ध जब कहते हैं कि दुख है, दुख का कारण है, तो वह
निदान कह रहे हैं। वे कह रहे हैं। पहले निदान कर लो। मार्क्स ने निदान किया कि
समाज में इतनी दरिद्रता, दीनता, पीड़ा
सदियों से रही है, क्योंकि शोषण है। अगर यह निदान गलत हो तो
इलाज न हो सकेगा। दूसरों ने भी निदान किए थे, लेकिन गलत थे।
धार्मिक
लोग कहते रहे हैं आदमी से कि आदमी गरीब है, क्योंकि पिछले जन्मों में पाप किया
है। यह झूठा निदान है। यह निदान सच्चा नहीं है। इस निदान के कारण गरीब आदमी गरीब
ही रहा। और इस निदान को मानने वाले गरीब ही रहेंगे, क्योंकि
यह निदान ही झूठा है। इससे कुछ संबंध ही नहीं है जीवन के यथार्थ का।
आदमी
गरीब है, क्योंकि उसे गरीब रखने का एक पूरा षड्यंत्र है। आदमी गरीब है, क्योंकि वह कमाए, इसके पहले उसके पास से खींच लिया
जाता है। आदमी कुछ पैदा करे, इसके पहले ही उसकी जेब कट जाती
है। और जेब कटने के इतने सूक्ष्म आयोजन हैं कि उसे पता भी नहीं चलता। और इतने
सदियों से चल रहा है कि उसे होश भी नहीं आता कि यह चल रहा है। और जिनके हाथ में
संपत्ति है, जिनके हाथ में बल है, स्वभावत:
वे तो समझाएंगे कि हम क्या कर सकते हैं, पिछले जन्मों के
पापों के कारण तुम दुख भोग रहे हो।
अब
मजा समझना। पिछले जन्मों का अगर पाप कारण है, तो अब तो कुछ किया नहीं जा सकता,
भोगना ही पड़ेगा। क्योंकि पिछले जन्म तो हो चुके, हो चुके सो हो चुके, अब उनको बदला नहीं जा सकता। अब
तो इतना ही हो सकता है—आगे की सम्हाल लो। अगले जन्म को सम्हाल लो। तो अब कुछ ऐसी
भूल—चूक मत करना कि अगले जन्म में गरीब हो जाओ।
न
पीछे जन्म का कुछ पता है,
न अगले जन्म का कुछ पता है। और जिनके पास धन है, स्वभावत: वे कहते हैं, हम पिछले जन्मों के पुण्यों
का फल भोग रहे हैं। हालत उलटी है। जिनके पास धन है, वे इसी
जन्म के पापों का फल भोग रहे हैं। और जिनके पास धन नहीं है, वे
शायद इसी जन्म के पुण्यों का फल भोग रहे हैं। भले आदमी चूसे जा रहे हैं, बुरे आदमी छाती पर सवार हो जाते हैं। छाती पर बैठने के लिए बुरा आदमी होना
जरूरी है, नहीं तो छाती पर बैठ ही न सकोगे।
तो
राजा हैं, महाराजा हैं, धनपति हैं, शोषण
का बडा जाल फैलाया है। और उस जाल में जो सबसे बड़ा उपयोगी आदमी था, वह था पुरोहित, पंडित, पुजारी।
क्योंकि उसने लोगों को जहर दिया। उसने लोगों को कहा कि क्या करोगे, तुम गरीब इसलिए हो कि तुमने पिछले जन्म में पाप किए, अब मत करना। अब तो शांत रहो, भले रहो, शुद्ध आचरण करो, और जो हो रहा है उसको झेलो। भाग्य
है, अब कुछ किया नहीं जा सकता। इसको दंड मानकर स्वीकार करो।
यह
अब तक का निदान था,
यह झूठा निदान है। यह निदान वैसा ही झूठा है जैसे किसी आदमी का तो
दिमाग खराब हो गया और तुम कहते हो, भूत लगा है; चलो किसी झाडू की पूजा करो, किसी ओझा के चरण दबाओ।
इसका दिमाग खराब हुआ है, तुम कहते हो, भूत
लगा है, यह जैसा झूठा निदान है, ऐसा ही
झूठा निदान यह कर्म का सिद्धांत था। इसने शोषण को खूब सहारा दिया।
मार्क्स
ने ठीक—ठीक निदान पकड़ा। उसने पकड़ा—कारण यह नहीं है। कारण यह है कि शोषण का एक जाल
है। मगर इस पूरी प्रक्रिया में बुद्ध के चार आर्य—सत्य का दूसरा हिस्सा काम में
लाया जा रहा है।
फ्रायड
ने भी कहा कि दुख का कारण है। दुख का कारण यह है कि तुम्हारे जीवन की जो नैसर्गिक
इच्छाएं हैं,
उनको दबाया गया है, उनको प्रगट नहीं होने दिया
गया है, इसलिए आदमी विक्षिप्त है।
सौ
पागलों में निन्यानबे इसलिए पागल होते हैं कि कामवासना दबायी गयी है, जबरदस्ती दबायी
गयी है। जब कामवासना को जबरदस्ती दबा दिया जाता है, तो ऐसा
ही समझो कि केतली का ढक्कन दबाए बैठे हो और नीचे आग जल रही है, और केतली के भीतर पानी उबल रहा है और उबल रहा है और भाप बन रही है और तुम
ढक्कन दबाए बैठे हो, अगर विस्फोट न हो तो क्या हो! विस्फोट
होगा।
कामवासना
अग्नि है, उसे दबाना नहीं है, उसे समझना है। उसका उपयोग करना
है। दबायी जाए तो विस्फोट होगा, विक्षिप्तता आएगी। न दबायी
जाए, उपयोग कर लिया जाए, ठीक—ठीक दिशा
में संलग्न कर दी जाए, सृजनात्मक उपयोग कर लिया जाए, तो संभोग की क्षमता ही समाधि बन जाती है।
तो
या तो कामवासना तुम्हें विकृत कर देती है और पागल बना देती है, या
कामवासना के ही घोड़े पर सवार हो जाओ अगर ठीक से, तो तुम
परमात्मा के द्वार तक पहुंच जाते हो। कामवासना ठीक—ठीक समझ ली जाए तो ब्रह्मचर्य
बन जाती है; और समझी न जाए, जबरदस्ती
दबायी जाए, तो व्यभिचार बन जाती है, मानसिक
व्यभिचार बन जाती है। विकृति बन जाती है।
तो
मार्क्स ने कहा,
समाज में दुख है, क्योंकि शोषण है। फ्रायड ने कहा,
मनुष्य विक्षिप्त होता है, पागल होता है,
क्योंकि उसकी नैसर्गिकता को दबाया गया है, अवरुद्ध
किया गया है। उसकी नैसर्गिकता को बहने का ठीक—ठीक सहज मौका नहीं दिया गया है। ये
दोनों ही बुद्ध के आर्य—सत्य हैं।
फिर
तीसरा बुद्ध का आर्य—सत्य है कि कारण से मुक्त होने का उपाय है, औषधि है।
तो मार्क्स कहता है, उपाय है क्रांति। मार्क्स कहता है,
उपाय है सर्वहारा का राज्य, सर्वहारा के हाथ
में शक्ति। उपाय है, शोषण के यंत्र को तोड़ देना और एक वर्ग—विहीन
समाज की स्थापना। और फ्रायड कहता है, उपाय है, मनोविश्लेषण; अपने दबाए हुए मनोवेगों में
अंतर्दृष्टि, इनसाइट।
इसलिए
मनोविश्लेषक और कुछ नहीं करता, सिर्फ तुम्हारी दबी हुई वासनाओं को प्रगट
करवाता है, तुम्हीं से बुलवाता है। धीरे— धीरे, धीरे— धीरे उनको अचेतन से खींचकर चेतन में लाता है, उनको
अंधेरे में से पकड़कर प्रकाश में लाता है, उन्हें तुम्हारे
सामने खड़ा कर देता है।
जिस
दिन तुम्हें अंतर्दृष्टि मिल जाती है कि मैं किस कारण पागल हुआ जा रहा हूं जिस दिन
तुम देख लेते अपने भीतर के सारे उपद्रव को जिसमें तुम्हें जबर्दस्ती संलग्न करवाया
गया है, उसी दिन तुम पाते हो, औषधि मिल गयी। अब और नहीं
दबाना है, यही औषधि है। दबाए हुए को सहज स्थिति में लाना है
और आगे दमन नहीं करना है। यह तीसरा आर्य—सत्य है। औषधि, उपाय।
और
चौथा आर्य—सत्य है कि जब निदान हो गया, उपाय हो गया, कारण मिटा दिए गए, तो अवस्था है चौथी—सुख की अवस्था।
समाज की दृष्टि से मार्क्स कहता है : साम्यवाद, जब समता हो
जाएगी। और फ्रायड कहता है : मनो—स्वास्थ्य, जब मन संतुलित
होगा, स्वस्थ होगा, ऊर्जावान होगा।
ये
बुद्ध के ही चार आर्य—सत्यों का उपयोग है। बुद्ध ने बड़ा विराट उपयोग किया, मार्क्स
और फ्रायड का उपयोग बहुत संकीर्ण है। बुद्ध ने अस्तित्व के लिए प्रयोग किया।
मार्क्स ने समाज के लिए, अर्थ—व्यवस्था के लिए। और फ्रायड ने
मन के लिए, मनो—व्यवस्था के लिए।
बुद्ध
ने तो जो निवेदन किया है वह सारे अस्तित्व के लिए—दुख है, आदमी दुखी
है, इससे बड़ा सत्य क्या होगा? सुखी
आदमी मिलता कहा है? जो मुस्कुराते मिलते हैं, वे भी सुखःाई कहा हैं? अक्सर तो ऐसा होता है कि दुखी
आदमी मुस्कुराहटें थोपे रहते हैं अपने चेहरों पर, यह दुख से
अपने को छिपाए रखने का उपाय है। सब मुस्कुराहटें झूठी हैं। हर मुस्कुराहट के पीछे आंसू
छिपे हैं। खोखले हैं आदमी के सुख, भीतर दुख का अंबार लगा है। थोथे हैं आदमी के सुख, मुखौटे
हैं, ऊपर से ओढ़ लिए चेहरे हैं, भीतर का
असली चेहरा कुछ और ही है।
लेकिन
हम सब एक—दूसरे को धोखा देने में सफल हो जाते हैं। दूसरे तुम्हारा चेहरा देखते हैं, तुम्हें
तो देख नहीं पाते, इसलिए हर आदमी के भीतर एक अड़चन पैदा हो
जाती है। वह अड़चन यह होती है कि सब सुखी मालूम होते हैं, मैं
ही दुखी हूं। वह देखता है कि फलां मुस्कुरा रहे हैं, ढिका
मुस्कुरा रहे हैं, देखो फलां पति—पत्नी कैसे मजे से चले जा
रहे हैं!
कभी
इनके दर्शन इनके घर में किए हैं? अभी ये सज—संवरकर बाहर निकल आए हैं और बड़े
प्रसन्न चले जा रहे हैं। सजने—संवरने के पहले घर में इनकी हालत देखी है? तुम्हें अपने ही घर की हालत पता है। मगर तुमने यह देखा कि तुम भी जब बाहर
जाते हो तब तुम भी सज—संवर जाते हो। और तब तुम भी ऐसे दिखलाते हो कि सब सुख ही सुख
है। तब तुम भी ऐसे ही दिखलाते हो; जैसा कि होता नहीं,
सिर्फ कहानियों में पाया जाता है, कि सब सुख
ही सुख है, बड़े आनंद में हैं। ऐसा ही ये भी दिखला रहे हैं।
एक
सूफी कहानी है कि एक आदमी बहुत—बहुत दुखी था और वह परमात्मा से रोज प्रार्थना करता
है कि हे प्रभु,
आखिर मैंने तेरा क्या बिगाड़ा है? इतना दुख
तूने मुझे दिया! सारी दुनिया सुखी मालूम होती है एक मुझ ही को छोड्कर। अगर कभी कोई
दुखी भी मिलता है तो इतना दुखी नहीं जितना मैं दुखी हूं। आखिर मैंने तेरे साथ क्या
कसूर किया?
एक
रात उसने सपना देखा। सपने में देखा कि आकाश से परमात्मा बोला कि उठ, आज तेरी
बदलाहट किए देते हैं। तू कहता है, सब तेरे से ज्यादा सुखी
हैं, तू ही सबसे ज्यादा दुखी है? उसने कहा,
ही प्रभु, यही तो कह रहा हूं जिंदगीभर से यही
कह रहा हूं; अब सुनवायी हुई! परमात्मा ने कहा, चल, उठ जा! एक बड़े भवन की तरफ सारा नगर जा रहा है,
सब लोग अपने—अपने कंधे पर गठरियां लिए हुए हैं। क्योंकि सबको कहा
गया है कि अपने— अपने दुख, अपने—अपने सुख अपनी—अपनी गठरी में
बांधकर ले आओ। यह भी अपने सुख—दुख जल्दी से बांधकर पहुंच गया कि आज बदलने का मौका
है।
मंदिर
में पहुंचकर सारे लोगों की भीड़ लगी है अपनी—अपनी गठरी लिए हुए। आशा हुई कि सब
खूंटियों पर अपनी गठरियां टल दो। गठरियां टल दी गयीं। फिर आज्ञा हुई कि अब जिसको
भी जिसकी गठरी चुननी हो,
वह चुन ले।
बड़ी
भाग—दौड़ मच गयी,
यह आदमी भी भागा; लेकिन चकित होंगे यह जानकर
आप कि सभी ने अपनी— अपनी गठरियां वापस चुन लीं—इस आदमी ने भी—और बड़ी खिलखिलाहट हुई
आकाश में और परमात्मा ने कहा, क्यों? तो
उसने कहा कि जब गठरियां देखीं तो दूसरों की इतनी बड़ी हैं, अपनी
ही छोटी मालूम पड़ी! फिर, अपने दुख कम से कम परिचित तो हैं,
अब दूसरे के अपरिचित दुख इस बुढ़ापे में और कौन ले! अपने दुख जाने—माने
तो हैं। दूसरों के दुख कभी देखे नहीं थे, अब गठरियों में लदे
देखे तो पता चला कि काफी हैं। जिनके चेहरे पर मुस्काने थीं, वे
भी बड़े—बड़े गट्ठर लिए आ रहे हैं। तो अपनी ही ठीक है। बुरा— भला जैसा भी है,
कम से कम अपना तो है, जिंदगोभर से साथ रहने की
आदत तो है, अनुभव तो है, निपट लेंगे।
अब नए दुख और बुढ़ापे में कौन ले! पता नहीं कौन सी झंझटें आएं, जिनके साथ निपटना भी सुगम न हो, अभ्यास न हो तो
कठिनाई हो जाए। और वह देखकर यह हैरान हुआ कि उसने ही अपनी चुनी हो ऐसा नहीं,
प्रत्येक ने झपटकर अपनी—अपनी चुन ली। किसी ने भी दूसरे की गठरी नहीं
चुनी है।
हम
देखते हैं दूसरों की मुस्कुराहटें और देखते हैं अपने दुख, इससे बड़ी
एक भ्रांत स्थिति पैदा होती है; लगता है, सारा जगत मजे में है, एक हमको छोड्कर। बुद्ध ने कहा,
दुख है, सारा जगत दुखी है। तुम्हीं नहीं,
सारा अस्तित्व दुख से ग्रस्त है। संसार में होना ही दुख है। जो दुखी
नहीं है, वह संसार में होते ही नहीं। जैसे ही दुख समाप्त हो
जाता है, बस उनकी संसार से यात्रा समाप्त हो गयी। यह उनका
आखिरी पड़ाव है, फिर वह दुबारा न लौटेंगे। सुखी लौटते नहीं।
एक दफा जो परमसुख को उपलब्ध हो गया, गया सो गया।
बुद्ध
ने तो कहा, ऐसा चला जाता है जैसे दीए को फूंक देते हैं न और उसकी लौ विलुप्त हो जाती
है, बस ऐसा विलुप्त हो जाता है। जिसको सुख मिल गया, वह गया सो गया, फिर वह लौटता नहीं। निर्वाण उसका हो
जाता है। निर्वाण का अर्थ है, दीया जैसे बुझ जाता, ऐसे वह विलुप्त हो जाता है, फिर कहीं खोजे से न
मिलेगा!
उसका
अहंकार, उसकी अस्मिता, उसके पैदा होने के जो मौलिक कारण हैं,
वे सब समाप्त हो जाते हैं। फिर वह दुबारा नहीं लौटता। तो यहां तो जो
भी लौटे हैं, दुखी ही हैं। दुखी हैं, इसीलिए
लौटे हैं। लौटे हैं, इसलिए पक्का है कि दुखी हैं, चेहरे कुछ भी कहें, मत फिकर करना। यहां दुखी ही
लौटता है।
तो
बुद्ध ने कहा,
दुख है। अस्तित्व दुख से ग्रस्त है। समाज और मन तो छोटी—छोटी बातें
हैं, ये तो संकीर्ण उपयोग हैं, बुद्ध
ने पूरे अस्तित्व को कहा कि दुख है। फिर इस दुख के कारण हैं। इस दुख का कारण बुद्ध
ने कहा : तृष्णा, वासना, और की दौड—और
मिल जाए, और मिल जाए, और ज्यादा पा लूं।
इस कारण लोग दुखी हैं। जितनी और की दौड़, उतने ही ज्यादा दुखी।
यह कारण है, तृष्णा कारण है।
और
उपाय—तृष्णा से मुक्ति। तृष्णा का छोड़ देना। तृष्णा को समझ लेना और तृष्णा को
विसर्जित कर देना। देख लेना वासना को और फिर वासना से छूट जाना, अर्थात
ध्यान। वृत्ति उठे, वासना उठे, विचार
उठे और तुम अडिग अपने भीतर बने रहो, जरा भी डांवाडोल न हो।
तुम कहो कि उठते रहो अंधड़, उठते रहो तूफान, मेरे केंद्र से तुम मुझे च्युत न कर सकोगे। धीरे— धीरे यह अंधड़ और तूफान
फिर नहीं उठते। फिर तुम्हें कोई नहीं पुकारता, फिर तुम अपने
भीतर ठहर जाते, प्रतिष्ठा हो जाती—स्व—प्रतिष्ठा हो जाती,
स्व—स्थित हो जाते, स्वास्थ्य को उपलब्ध हो
जाते।
और
चौथी स्थिति—निर्वाण। जहां महासुख है। तुम तो नहीं बचोगे, सुख ही
सुख बचेगा। तुम तो जब तक बचोगे तब तक थोड़ा दुख बचेगा। अहंकार का भाव ही दुख की
गांठ है। कैंसर की गांठ समझो। तुम तो न बचोगे, सुख का सागर
बचेगा। उस सुख के सागर को चौथी दशा कहा।
पूछते
हो तुम, 'क्या बुद्ध के चार आर्य—सत्य वैज्ञानिक हैं?'
मैंने
इससे बड़ी कोई और वैज्ञानिक बात देखी नहीं। बुद्ध ने ठीक मनुष्य के अंतस्तल के
संबंध में वही किया जो चिकित्सक मनुष्य की बीमारी के संबंध में करता है। जो
मार्क्स ने समाज के लिए किया, फ्रायड ने मन के लिए किया, बुद्ध ने समस्त जीवन के लिए, समस्त अस्तित्व के लिए
किया है।
एक
किसान ने एक बार भगवान बुद्ध से शिकायत की कि मैं खेत में श्रम करता, हल चलाता,
बीज बोता हूं और तब मुझे खाने को मिल पाता है। क्या यह बेहतर न होता
कि आप भी बीज बोते, हल चलाते और तब खाते? बड़ी अनूठी बात किसान ने पूछी बुद्ध से। बुद्ध ने कहा, ओ ब्राह्मण, मैं भी हल चलाता हूं? बीज बोता हूं फसल कांटता हूं तभी खाता हूं! किसान ने हैरान होकर कहा,
अगर तुम किसान हो तो तुम्हारे खेती के उपकरण कहां हैं? कहा हैं तुम्हारे बैल? बीज कहा हैं? कहा हैं हल? बुद्ध ने कहा, विश्वास
मेरा बीज है जिसे मैं बोता हूं। भक्ति है वर्षा जो उसे अंकुरित करती है। विनय है
मेरा बक्सर। मन है बैलों को बांधने की रस्सी, और स्मृति है
मेरा हल और हंकनी। सत्य है बांधने का साधन; कोमलता खोलने का
साधन। शक्ति हैं बैल मेरे। इस तरह मैं हल चलाकर भ्रम की कांस उखाड़ देता हूं। और जो
फसल कांटता हूं, वह है निर्वाण की। इस तरह दुख विनष्ट होता
है, निर्वाण प्रगट होता है; हे
ब्राह्मण, तू भी ऐसा ही कर।
मनुष्य
को बुद्ध ने बड़ा वैज्ञानिक विचार दिया है। उसे तुम समझो तो दुख से मुक्त हो सकते
हो।
तीसरा प्रश्न
क्या शास्त्रों से वस्तुत: ही कोई लाभ नहीं है?
सुना तो नहीं कभी कि
लाभ हुआ हो। लेकिन इस पर निर्भर करेगा कि लाभ से तुम्हारा अर्थ क्या है। कौन सा
लाभ?
अगर
तुम सत्य को पाना चाहते हो तो शास्त्र से नहीं मिलता, स्वयं से
मिलता है। अगर तुम सिद्धांत जुटाना चाहते हो, निश्चित
शास्त्र से मिल जाते हैं, स्वयं से कभी नहीं मिलते। अगर तुम
पंडित होना चाहते हो तो शास्त्र के द्वारा ही हो सकते हो। अगर वही लाभ है, तो जरूर लाभ होता है शास्त्र से।
लेकिन
पंडित होना कोई लाभ है?
उधार, बासे विचारों को इकट्ठा कर लेना कोई लाभ
है? दूसरों ने जाना और तुमने सिर्फ सुनकर इकट्ठा कर लिया,
वह भी कोई लाभ है? यह तो धोखा है।
बुद्ध
कहते थे, एक आदमी अपने घर के सामने बैठा रोज सुबह गांव से बाहर जाती गौओं, भैसों की गिनती करता था। और रोज शाम फिर जब वे लौटतीं, तब फिर गिनती करता था। और धीरे— धीरे गिनती करते—करते उसे ऐसा लगने लगा कि
वह उसकी ही गाएं हैं। पांच सौ गाएं जातीं, पांच सौ आतीं।
उसकी
पत्नी ने उसे कहा कि तुम पागल हो गए हो? दूसरों की गाएं गिनते हो बैठे—बैठे
कि इतनी गयीं, इतनी आयीं, बड़ा हिसाब
लगाते हो—वह बैठा कागज पर हिसाब लगाता रहता, कि अभी एक गाय
नहीं लौटी, कि अभी दस गाएं नहीं लौटीं, कि आज क्या बात हो गयी—उसकी पत्नी ने कहा कि एक अपनी गाय हो वह भी काफी है,
पांच सौ दूसरों की अपने किस काम की! जाएं कि आएं, तुम बैठे—बैठे समय क्यों खराब करते हो?
बुद्ध
कहते थे, ऐसा ही आदमी वह है जो दूसरों के वचनों का हिसाब लगाता रहता है। वेद में
क्या लिखा, कुरान में क्या लिखा, उसका
हिसाब लगाता रहता है। इसकी फिकर ही नहीं करता कि एकाध गाय अपनी हो कि जिसका दूध
पीए, कि एकाध गाय अपनी हो कि पुष्टि दे।
बुद्ध
ने बहुत अच्छे वचन कहे,
लेकिन क्या काम पड़ेंगे? एकाध किरण बुद्धत्व की
अपने में हो—एकाध गाय अपनी हो। मोहम्मद ने अदभुत वचन कहे, लेकिन
क्या करोगे? याद कर लोगे, कंठस्थ कर
लोगे, तोतों की तरह दोहराने लगोगे। अब तो तोते भी बिगड़ गए
हैं।
कल
मैं एक कहानी पढ़ रहा था।
एक
आदमी ने एक पिंजड़ा टल रखा था और उसमें तीन तोते थे। एक ऊंचे पद पर बैठा था, दो उसके
आसपास बैठे थे। किसी पड़ोसी ने पूछा कि भई, बात क्या है?
तीन तोते! तो उन्होंने कहा, दो सेक्रेटरी हैं।
ये बताते हैं कि क्या बोलना। यह जो ऊपर बैठा है, यह समझो
प्रधानमंत्री या राष्ट्रपति। ये दो तोते याद करते हैं और जब बोलना होता है तो इसको
बता देते हैं, तब यह बोल देता है।
एक
तो तोतापन ही उधार,
फिर उसमें भी सेक्रेटरी! एक तो बुद्ध के वचन उधार और फिर उसमें भी
यह बीच में पंडितों की बड़ी कतार! वे तुम्हें बताते हैं ?? वेद
का क्या अर्थ है। जिन्हें स्वयं पता नहीं कि वेद का क्या अर्थ, वे तुम्हें बताते हैं वेद का क्या अर्थ। फिर उनकी भी कोई एक—दो नहीं,
बड़ी श्रृंखला है, जंगल का जंगल है, उसमें तुम भटक जाओगे। यह उधार ज्ञान काम नहीं आता, अपना
हो तो ही काम आता है।
अब
तुम पूछते हो कि क्या लाभ?
मेरे
देखे तो इतना ही लाभ हो सकता है—अगर तुम्हें अंधा होना हो तो शास्त्र, अगर
तुम्हें बहरा होना हो तो शास्त्र, लूला—लंगड़ा होना हो तो
शास्त्र, अपाहिज—अपंग होना हो तो शास्त्र। इस तरह के लाभ हैं।
खलील
जिब्रान की एक छोटी सी कहानी—
मैंने
सुन रखा था कि कहीं एक ऐसी नगरी भी है जिसके वासी ईश्वरीय पुस्तकों के आधार पर
अपना जीवन व्यतीत करते हैं। मैं उस नगर में पहुंचा। मुझे यह देखकर बड़ा आश्चर्य हुआ
कि उस नगर के समस्त वासियों के केवल एक—एक हाथ और एक—एक आंख है और एक—एक पैर है।
बड़ी दुर्दशा थी। यह दुर्दशा किसने की? मैंने आश्चर्य से भरकर उनसे पूछा,
आपकी यह दशा क्यों कर हुई? आप सबके कोई भी
पूरे अंग नहीं हैं। आपकी आंखों का क्या हुआ? एक—एक आंख कहा
गयी त्र: आपके हाथों का क्या हुआ? आपके पैर किसने कांट डाले?
वे
सब मुझे दो आंखों वाला देखकर आश्चर्य—चकित थे, जैसा मैं उन्हें देखकर आश्चर्य—चकित
था। फिर भी उन्होंने मुझे अपने साथ आने का संकेत दिया। उनमें से अनेक की तो जबानें
भी कटी थीं, वे बोल भी नहीं सकते थे।
उनके
साथ मैं एक मंदिर में गया। उस मंदिर के आगन में हाथों, पांवों,
आंखों और जीभों का एक विशाल ढेर लगा था। मैं दुखी हुआ और मैंने पूछा,
किस निर्दय ने, किस हत्यारे ने आपके साथ यह
दुर्व्यवहार किया है? इस पर वे आपस में कुछ बड़बडाए और एक
वृद्ध ने आगे बढ़कर कहा, यह हमारा अपना कार्य है; यह हमारी साधना है, यह हमारे शास्त्र का आदेश है।
हमने अपने अवगुणों पर विजय पायी है। यह कहकर वह फ्टेर एक चबूतरे पर ले गया।
वहा
एक शिलालेख था जिसमें लिखा था—यदि तुम्हारी दाहिनी आंख तुम्हें ठोकर खिलाए तो उसे
बाहर निकालकर फेंक दो। क्योंकि सारे शरीर को नर्क में पडने की अपेक्षा एक अंग का
नष्ट हो जाना बेहतर है। और यदि तुम्हारा दाहिना हाथ तुम्हें बुराई पर उकसाए तो उसे
कांटकर फेंक दो,
ताकि तुम्हारा केवल एक अंग नष्ट हो और पूरा शरीर नर्क में न पड़े। और
यदि तुम्हारी वाणी अशुभ बोले तो जीभ को कांट दो, ताकि जीभ ही
दुख पाए और तुम दुख न पाओ।
यह
लेख पढ़कर सब वृत्तांत मुझ पर खुल गया। मैंने पूछा, क्या तुममें कोई भी ऐसा
नहीं है जिसके दो हाथ और दो आंखें हों? जिसकी जबान साबित हो?
जिसके पैर कटे न हों?
उन
सबने उत्तर दिया—नहीं,
कोई नहीं, सिवाय उन छोटे बच्चों के अतिरिक्त
जो अल्पायु होने के कारण शिलालेख को पढ़ने में अभी असमर्थ हैं।
जब
हम मंदिर के बाहर आए तो मैं तुरंत उस पवित्र नगरी से निकल भागा, क्योंकि
मैं अल्पायु न था और इस शिलालेख को भलीभांति पढ़ सकता था।
खलील
जिब्रान की यह कहानी अर्थपूर्ण है। तुम्हारे शास्त्रों ने तुम्हें सिर्फ अपंग किया
है। तुम्हारी जबानें कांट डाली हैं। चाहे भौतिक जबानें न भी काटी हों, लेकिन
तुम्हें बोलने में नपुंसक कर दिया है। तुम सत्य कहने में असमर्थ हो गए हो। तुम्हें
पता भी चलता है कि यह सत्य है तो भी तुम नहीं कह पाते, क्योंकि
शास्त्र विपरीत पड़ते हैं। तुम्हारी आंखों को धुंधला कर दिया है, चश्मे चढ़ा दिए हैं, धूल चढ़ा दी है। तुम वही नहीं
देखते, जो है। तुम वही देखते हो जो तुम्हारे शास्त्र कहते
हैं। तुमने अपनी चेतना खो दी है। तुम अंधों की भांति शास्त्र की लकड़ी को पकड़कर चल
रहे हो। और शास्त्र खुद मुर्दा हैं, इसलिए तुम्हें चला तो
नहीं सकते। शास्त्र दूसरे मुर्दों के हाथ में हैं, जिनको तुम
पंडित कहते हो। ऐसे मुर्दे मुर्दों को ढकेल रहे हैं और अंधे अंधों को चला रहे हैं
लाभ
की तुम पूछते हो। तुम पर निर्भर है। लाभ से तुम्हारा क्या मतलब? अंधा होना
है? तो शास्त्र बड़े उपयोगी हैं, उनसे
बड़ा लाभ होता है। अपंग होना है? तो जरूर उपयोगी हैं। लेकिन
अगर स्वस्थ होना हो, तो शास्त्र से सहायता नहीं मिलती। क्या
मैं यह कह रहा हूं कि शास्त्र का कोई भी उपयोग नहीं है? नहीं,
शास्त्र का एक उपयोग है, लेकिन वह तो स्वयं
सत्य को जान लेने के बाद है। तुमसे मैं एक अजीब सी बात कहना चाहता हूं—शास्त्र
पढ़ना जरूर, जब तुम थोड़े ध्यान को उपलब्ध हो जाओ, तब पढ़ना। फिर शास्त्र तुम्हें नुकसान न पहुंचाएंगे। फिर शास्त्र तुम्हें
साथ देंगे, शास्त्र तुम्हारे साक्षी बन जाएंगे।
अभी
तो तुम गीता पढ़ोगे,
तो गीता पढ़ोगे कैसे? तुम गीता में से अपने
अर्थ निकालोगे। वे अर्थ सब गलत होंगे। तुम एक बार अपने भीतर के गीत को सुनो,
तुम्हारे भीतर प्रभु का गीत पहले जन्म ले, तुम्हारे
भीतर कृष्ण पहले बोलें,' फिर तुम गीता पढ़ना। तब तुम जानोगे
कि सच कहा है, ठीक कहा है, वही कहा है
जो तुमने भीतर सुना है। लेकिन तुम पहले सुनना, फिर गीता
तुम्हारी साक्षी हो जाएगी।
और
फिर एक अपूर्व घटना घटती है—गीता ही साक्षी नहीं होगी, कुरान भी
तुम्हारा साक्षी होगा और बाइबिल भी तुम्हारी साक्षी होगी। जिसने ध्यान से जीवन के
सत्य को समझा है, उसके लिए सभी शास्त्र गवाही हो जाते हैं,
एक साथ गवाही हो जाते हैं, उनमें फिर कोई
विरोध नहीं होता। फिर हिंदू का कि मुसलमान का, ईसाई का कुछ
अंतर नहीं होता।
लेकिन
अगर तुमने भीतर का सत्य नहीं सुना, नहीं देखा, अपनी
भीतर की किताब नहीं पढ़ी, असली किताब नहीं पढ़ी, उसके पन्ने बिना उलटे पड़े हैं और तुम पढ़ लिए गीता, तो
हिंदू बन जाओगे, धार्मिक नहीं; पढ़ लिए
कुरान तो मुसलमान बन जाओगे, धार्मिक नहीं। और धार्मिक होना
बड़ी और बात है, मुसलमान होना बड़ी और बात है। मुसलमानों से छुटकारा
चाहिए, हिंदुओं से छुटकारा चाहिए, जैनों
और बौद्धों से छुटकारा चाहिए। दुनिया में ईसाई और पारसी न हों तो दुनिया बेहतर
होगी। दुनिया में धार्मिक आदमी चाहिए।
धार्मिक
आदमी बड़ी और ही बात है। धार्मिक आदमी का मन संकीर्ण नहीं होता, सांप्रदायिक
नहीं होता। जिसने सत्य को जाना वह सांप्रदायिक होना भी चाहे तो कैसे होगा? सत्य इतना विराट है कि सत्य में सब समाहित है। सत्य इतना बड़ा है कि
विरोधाभास भी वहां लीन हो जाते हैं और संगम बन जाता है। वहां कुरान और गीता में
फिर कोई विरोध नहीं रह जाता, सिर्फ भाषा का भेद रह जाता है,
अभिव्यक्ति के अंतर रह जाते हैं।
कृष्ण
का अपना कहने का ढंग है,
अपनी शैली है; मोहम्मद का अपना ढंग है,
अपनी शैली है—और दोनों शैलिया प्यारी हैं और अनूठी। बस शैली का भेद
है, भाषा का भेद है। कृष्ण संस्कृत में बोले हैं, मोहम्मद अरबी में बोले हैं, बस इतना ही भेद है। तो
स्वभावत: कृष्ण ईश्वर की बात करते हैं और मोहम्मद अल्लाह की, मगर जिसकी वे बात करते हैं वह एक ही।
अब
आम को आम कहो कि मैगो,
क्या फर्क पड़ता है? आम आम है। लेकिन जिसने आम
का स्वाद न लिया हो, उसे फर्क पड़ सकता है। जिसने आम न देखा
हो, उसे फर्क पड़ सकता है। वह कहेगा, एक
आदमी आम चाहता है, दूसरा आदमी मैगो चाहता है। ये दोनों में
बड़ा विरोध है। झगड़ा भी हो सकता है। लेकिन जिसने आम का स्वाद लिया है, वह कहेगा, ये दोनों एक ही बात चाहते हैं, एक ही चीज चाहते हैं; ये एक ही तरफ इशारा कर रहे हैं,
इनके शब्द अलग—अलग हैं।
जब
मैं चांद की तरफ अंगुली उठाता हूं तो मेरी अंगुली अलग होती है। जब तुम चांद की तरफ
अंगुली उठाते हो,
तुम्हारी अंगुली अलग होती है। हो सकता है मेरी अंगुली काली है,
तुम्हारी गोरी है, हो सकता है मेरी अंगुली
कुरूप है, तुम्हारी अंगुली सुंदर है; हो
सकता है मेरी अंगुली नंगी है, तुम्हारी अंगुली पर हीरे—जवाहरातों
का आभूषण है; लेकिन जिस चांद की तरफ हम इशारा करते हैं,
वह चांद तो एक ही है। मगर जिसने चांद न देखा हो, वह अंगुलियों के हिसाब में पड़ जाएगा।
शास्त्र
पढ़ने में यही खतरा है। तुम अंगुलियों का हिसाब करने लगोगे। पहले चांद देख लो। फिर
सभी शास्त्र उसी का गीत गा रहे हैं, उसी की गुनगुनाहट कर रहे हैं। मगर
अपना गीत पहले सुनो। भीतर की किताब पहले खोलो। भीतर की किताब की परिपूरक न बन जाए
बाहर की किताब।
इसलिए
मैं बार—बार दोहराता हूं कि शास्त्रों में सार नहीं है। ऐसा न हो कि तुम बाहर की
किताब ही खोले बैठे रहो और समझो कि भीतर की किताब खोल ली। यह खतरा है। इतना भर
स्मरण रहे और भीतर की किताब पर दृष्टि रहे, फिर कोई खतरा नहीं है। भीतर के
पन्ने पढ़ते जाओ, जितने पन्ने भीतर के पढ़ लो, उतने पन्ने तुम गीता, कुरान, बाइबिल
के पढ़ लेना। पढ़ना हो तो पढ़ लेना, न पढ़ना हो तो न पढ़ना,
कोई अर्थ भी नहीं है, न पढ़ा तो भी चलेगा। जब
भीतर का ही पढ़ लिया तो अब प्रयोजन भी क्या है?
लेकिन
अगर पढ़ना हो तो पढ़ लेना,
तो भी चलेगा। तो आनंदित होओगे कि तुमने जो जाना, वही तो कृष्ण ने जाना, वही क्राइस्ट ने जाना,
वही जरथुस्त्र ने जाना। ये सब तुम्हारे गवाह हो जाएंगे।
चौथा प्रश्न
मैं सदा से चाहता हूं कि कोई प्रश्न पूछूं? लेकिन कोई
प्रश्न बनता ही नहीं है। जो बनते हैं, वे पूछने जैसे नहीं
मालूम होते हैं। अब मैं क्या करूं?
तो पूछने की खुजलाहट छोड़ो। यह खुजली है। पूछना ही
क्या! अब बात साफ ही है कि जो तुम पूछना चाहते हो, वह बन नहीं पाता। नहीं
बनेगा। कभी नहीं बना है। तुम अपवाद नहीं हो सकते। पूछने योग्य प्रश्न पूछा ही नहीं
गया है। पूछने योग्य प्रश्न पूछा ही नहीं जा सकता, क्योंकि
वह प्रश्न इतना बड़ा है। वह प्रश्न इतना बड़ा है कि तुम उसे शब्दों में न समा पाओगे।
उसे तो तुम्हें मौन आंखों से ही निवेदन करना होगा। उसे तो तुम्हें अपने शून्य से
ही अभिव्यक्ति देनी होगी।
ही, शायद कभी
आसुओ में प्रगट हो जाए, या तुम्हारे नाच में, या तुम्हारी चुप्पी में, लेकिन बोलकर तो तुम उसे न
कह पाओगे।
जो
तुम पूछ सकते हो,
सदा पाओगे पूछकर कि अरे, यह कुछ और पूछ लिया।
जो पूछना था वह तो छूट ही गया। वह समाता ही नहीं है। व्यर्थ ही शब्दों में समाता
है, सार्थक समाता नहीं।
लेकिन
तुम अड़चन में मत पड़ो,
यही अड़चन मेरी भी है। जो तुम पूछना चाहते हो, पूछा
नहीं जा सकता; और जो मैं कहना चाहता हूं कहा नहीं जा सकता—जो
मुझे उत्तर देना है, वह भी नहीं कहा जा सकता। न तो असली
प्रश्न पूछा जा सकता है, न असली उत्तर दिया जा सकता है।
इसलिए तुम यह मत सोचो कि तुम्हीं अड़चन में हो। वैसी ही अड़चन मेरी है। वैसी ही अड़चन
सदा से रही है। कि जो नहीं पूछा जा सकता, स्वभावत: उसका
उत्तर भी नहीं दिया जा सकता। शून्य में ही तुम्हें उसे समझना होगा। शून्य में ही
निवेदन करना होगा। और शून्य में ही पीना होगा उत्तर। चुप्पी में ही घटना घटेगी।
चुपके—चुपके घटना घटेगी। शब्द बाधा बन जाते हैं।
तुम
कहते हो, 'मैं सदा से चाहता हूं कि कोई प्रश्न पूछूं? लेकिन
कोई प्रश्न बनता ही नहीं।'
नहीं
बनेगा। जितने होशपूर्वक सोचोगे, उतना ही मुश्किल होता जाएगा बनना। और जो बनेंगे,
वह तुम पाओगे, ये तो पूछने नहीं थे। यह तो न
पूछा तो चल जाएगा। व्यर्थ प्रश्न जल्दी से बंध जाते हैं, जल्दी
से बन जाते हैं।
'और जो बनते हैं, वे पूछने जैसे मालूम नहीं होते।'
ठीक
हो रहा है, एकदम ठीक हो रहा है। यह शुभ घड़ी है। यह खुजलाहट ही छोड़ो। यह बात ही जाने
दो। इससे एक बात साफ हैँ कि तुम्हें एकष्ट हो रहा है भीतर, मौन
में, क्या पूछने योग्य है। तुम उसे शब्द में बांधना चाह रहे
हो, हारते जा रहे हो। नहीं बंधेगा। तुम कोरा कागज ही भेज दो।
मत लिखो, कुछ मत लिखो।
मैंने
सुना है, झेन सदगुरु हुआ, हुई ची। उससे फेंग लिन ने पूछा,
मैं आपसे कुछ पूछना चाहता हूं; कुछ प्रश्न हैं,
क्या मैं पूछूं? सदगुरु ने बड़ी अजीब बात कही।
उसने कहा, क्यों अपने को घाव पहुंचाना चाहते हो? व्हाय डू यू वांट टु कं योर सेल्फ? यह भी कोई उत्तर
हुआ—क्यों अपने को घाव पहुंचाना चाहते हो? मगर बड़ा
महत्वपूर्ण उत्तर हुआ। हर प्रश्न खुजली जैसा है। ज्यादा खुजलाओगे, घाव बन जाता है। खुजली मीठी लगती है, फिर बहुत पीड़ा
लाती है।
प्रश्न
घाव ही हैं। पूछो,
तो फिर उत्तर चाहिए। और उत्तर से कुछ हल नहीं होता। उत्तर से दस नए
प्रश्न खड़े होते हैं, फिर दस घाव बनते हैं। फिर पूछो,
दस उत्तर मिलेंगे और सौ घाव पैदा हो जाएंगे। हर उत्तर दस नए प्रश्न
खड़ा करता है और क्या होता है? घाव और गहरा होता जाता है। कोई
उत्तर किसी प्रश्न के घाव को मिटाता नहीं। जिंदगी के घाव इतने सस्ते हैं भी नहीं
कि पूछने से, कि बताने से भर जाएं। उत्तर चाहिए, तो निष्प्रश्न दशा चाहिए। प्रश्न का उत्तर नहीं है, लेकिन
अगर तुम निष्प्रश्न हो जाओ तो उत्तर है। प्रश्न का उत्तर चाहिए, तो धीरे—ध्गईरे प्रश्न छोड़ते जाओ, गिराते जाओ,
हटाते जाओ। और फिर कौन दूसरा तुम्हें उत्तर दे सकेगा! दूसरे का
उत्तर दूसरे का ही होगा। जहां से तुम्हारा प्रश्न उठ रहा है, वहीं, उसी गहराई में तुम्हें उत्तर खोजना होगा।
इसलिए
बजाय प्रश्न बांधने के तुम अपने प्रश्न की गहराई में उतरो। उसी में डुबकी लगा जाओ।
जाओ अपने अंतस्तल में,
जहां से प्रश्न उठ रहा है। और अंततः तुम पाओगे कि प्रश्न के भीतर ही
उत्तर छिपा है। अगर हम ठीक से प्रश्न में उतर जाएं तो हम उत्तर तक पहुंच जाएंगे।
प्रश्न खोल है, उसी खोल में उत्तर भीतर छिपा है। जैसे बीज की
खोल में वृक्ष छिपा होता है, ऐसे प्रश्न की खोल में उत्तर
छिपा होता है।
सौभाग्यशाली
हो कि ऐसा प्रश्न तुम्हारे भीतर उठता है जो बंध नहीं रहा है। इसका मतलब साफ है कि
भीतर जाने की घड़ी आ गयी। पूछ लिए बाहर बहुत प्रश्न और पा लिए बाहर बहुत उत्तर, अब और घाव
मत बनाओ। जिज्ञासा अच्छी है, कुतूहल के मुकाबले, ध्यान रखना, लेकिन मुमुक्षा के मुकाबले कुछ भी नहीं
है।
इन
तीन शब्दों को ठीक से समझ लेना। कुतूहल कुछ भी पूछता रहता है। छोटे बच्चों जैसा
होता है। जैसे छोटा बच्चा चल रहा है तो वह पूछता है, यह झाडू बड़ा क्यों? यह कुत्ते की पूंछ क्यों? कि आकाश में सूरज क्यों?
वह कुछ भी पूछता रहता है। तो तुम उत्तर न भी दो तो भी कोई फिकर नहीं
उसे, वह पूछता ही चला जाता है। उसे कोई मतलब भी नहीं है कि
तुमने उत्तर दिया है कि नहीं। तुम उत्तर दो भी तो वह कोई बहुत फिकर नहीं करता
तुम्हारे उत्तर की। जब तक तुम उत्तर दे रहे, तब तक वह दूसरा
प्रश्न तैयार कर लेता है। तुम्हारा उत्तर सुनता भी नहीं। तुम उत्तर देकर पाते हो
कि जैसे उसे कोई रस ही नहीं है उत्तर में, उसे तो पूछने में
मजा है। वह पूछने में ही रस ले रहा है। पूछने के लिए पूछ रहा है।
ऐसा
कुतूहल बच्चों में ही होता तो भी ठीक था, को में भी होता है। पूछने के लिए
पूछते रहते हैं। जीवन को दाव पर लगाने की कोई जरूरत भी नहीं मानते। पूछ लिया,
शायद उत्तर मिल जाए, न मिले तो भी चलेगा। कोई
संकट नहीं है उनके जीवन में।
जिज्ञासा
कुतूहल से बेहतर है। जिज्ञासा का मतलब होता है, कुछ दाव पर लगा है। कुछ! बिना पूछे
बेचैनी रहेगी। न पूछेंगे तो प्रश्न मन पर घुमडुता रहेगा, रात
ठीक से सो न सकेंगे, कोई चीज चुभती रहेगी काटे की तरह,
तो जिज्ञासा। जिज्ञासा कुतूहल से बेहतर है। लेकिन मुमुक्षा के
मुकाबले कुछ भी नहीं है।
फिर
तीसरी बात है—मुमुक्षा। मुमुक्षा का मतलब है, सब दाव पर लग गया है; ऐसा प्रश्न उठा है कि अगर इसका उत्तर न मिला तो जीवन व्यर्थ है। इसका
उत्तर चाहिए ही चाहिए। प्रश्न ऐसा है कि इसी पर सारी दारोमदार है। लेकिन ऐसे
प्रश्न का उत्तर बाहर से नहीं मिलता। ऐसे प्रश्न का उत्तर तो भीतर से ही आता है।
मुमुक्षा
का उत्तर तो मोक्ष में है। मुमुक्षा के भीतर मोक्ष छिपा है। इसीलिए तो उसको
मुमुक्षा कहते हैं,
जिसमें मोक्ष छिपा हो। मुमुक्षा खोल की तरह है, मोक्ष उसके भीतर छिपा है। मुमुक्षा टूट जाए तो मोक्ष प्रगट हो।
तुम
सौभाग्यशाली हो कि तुम्हारे भीतर एक ऐसा प्रश्न उठ रहा है, जो तुम
पूछना चाहते हो, पूछना चाहते हो, पूछना
चाहते हो, लेकिन बंधता नहीं। और जो बंधता है, बंधते ही तुम पाते हो, यह तो कुछ और हो गया, यह तो बात वही न रही जो हम पूछना चाहते थे।
तो
जरूर तुम्हें कुछ धुंधला— धुंधला स्मरण आ रहा है मुमुक्षा का। तुम्हारे भीतर
मुमुक्षत्व पैदा हो रहा है। तुम धन्यभागी हो। इस प्रश्न को पूछने की जरूरत ही नहीं
है। तुम निष्प्रश्न हो जाओ,
तुम शांत हो जाओ, उत्तर मिलेगा। उत्तर
तुम्हारे भीतर से ही उमगेगा। तुम्हारे ही अंतस्तल से आएगा। तुम्हारी परिधि जरा शांत
हो जाए, कोलाहल जरा बंद हो जाए, तो
तुम्हारे भीतर बैठा गुरु तुम्हें उत्तर दे दे।
कुतूहल
वाले के उत्तर देने में कोई सार नहीं है। जिज्ञासा जिसकी होती है उसको उत्तर देने
चाहिए, ताकि धीरे — धीरे जिज्ञासा उसे मुमुक्षा तक ले जाए। लेकिन मुमुक्षा वाले
का उत्तर नहीं दिया जा सकता।
तुम
समझना। तुम पूछ सकते हो,
फिर मैं इतने उत्तर क्यों देता हूं? सौ गश्न
आते हैं, दस के उत्तर देता हूं नब्बे के नहीं देता, वे कुतूहल वाले प्रश्न होते हैं, उनके मैं उत्तर
नहीं देता। जिन दस के उत्तर देता हूं वे जिज्ञासा के हैं। कभी—कभी उन दस में एक
तुम्हारे जैसा प्रश्न आ जाता है, उसका भी उत्तर नहीं दिया जा
सकता है, क्योंकि वह मुमुक्षा का है।
कुतूहल
वाले का उत्तर देना समय खराब करना है, उसे मतलब ही नहीं है, उसने पूछा ही नहीं है; ऐसे ही चलते—चलते! इस तरह के
लोग हैं। कभी—कभी बड़ी उम्र के लोग मिल जाते हैं।
मैं
वर्षों तक सफर करता था मुल्क में—मैं स्टेशन पर ट्रेन पकड़ने भागा जा रहा हूं गाड़ी
छूटी जा रही है,
कोई मेरा हाथ ही पकड़ ले कि जरा रुकिए तो, ईश्वर
है? जरा एक क्षण में बता दीजिए। इसको कुछ होश ही नहीं है कि
यह क्या पूछ रहा है! कोई संदर्भ होता, कोई समय होता, कोई अनुकूल परिस्थिति होती! और ईश्वर कोई ऐसी बात थोड़े ही है कि मैं कह
दूं ही और न, और हो गयी! कि मेरे ही और न कहने से इसका
प्रश्न हल हो जाएगा। के हैं, लेकिन बचपन नहीं गया।
बायजीद
अपने गुरु के पास गया तो कहते हैं, बारह साल तक चुप बैठा रहा। बारह
साल लंबा वक्त होता है। तब गुरु ने बायजीद की तरफ देखा और कहा कि अब भाई पूछ ही ले।
बायजीद चरणों में झुका, उसने कहा कि अब पूछने की जरूरत न रही।
जब पूछने की जरूरत थी, मैंने इसलिए नहीं पूछा कि अभी समय
नहीं आया। अब समय आ गया है तो मेरे भीतर साथ ही उत्तर भी आ गया है। अब पूछने की
जरूरत न रही, मैं आपका धन्यवाद करता हूं। आपके निकट बैठे—बैठे
हो गया। बायजीद के गुरु ने कहा, लेकिन याद रखना, मैंने नहीं किया है। मैं तो सिर्फ बहाना था कि मेरे पास तू बारह साल शांत
होकर बैठ सका। शायद अकेला तू नहीं बैठ सकता, अकेले मुश्किल
होता बारह साल शांत बैठना! इस आशा में बैठा रहा कि गुरु के पास बैठे हैं, गुरु के सत्संग में बैठे हैं, कुछ होगा, कुछ होगा, कुछ होगा.. हो गया।
तो
बायजीद के गुरु ने कहा,
मैंने नहीं दिया है, याद रखना। हुआ तुझे ही है,
मैं तो सिर्फ एक बहाना था। जिसको रसायनविद कहते हैं, केटेलिटिक एजेंट। उसकी मौजूदगी भर से। कुछ किया नहीं है गुरु ने।
यह
छोटी सी कहानी सुनो,
चीन की घटना है।
एक
बहुत बड़ा झेन गुरु हुआ,
लियांग चियाई। वह अपने गुरु युन येन के निर्वाण—दिवस पर बांटने के
लिए आश्रम में भोजन तैयार कर रहा था। एक भिक्षु ने लियांग चियाई से पूछा, स्व गुरु युन येन से आपको क्या शिक्षा मिली थी? लियाग
चियाई ने कहा, कोई भी नहीं। मैं उनके निकट रहा, पर उन्होंने कभी मुझे कोई शिक्षा नहीं दी। भिक्षु हैरान हुआ। उसने पूछा,
तब फिर आप युन येन की स्मृति में यह भोज क्यों दे रहे हैं? क्योंकि ऐसा भोज तो गुरु की स्मृति में ही दिया जाता है। जब उन्होंने कोई
शिक्षा ही नहीं दी, तो वे आपके गुरु कैसे हुए? और लियांग चियाई ने कहा, इसीलिए! इसीलिए! खूब हंसने
लगा वह।
उसने
कहा, मैं युन येन को उनके सदगुणों, उनकी शिक्षाओं और
व्यक्तित्व के कारण आदर नहीं करता हूं, मेरा सारा आदर उनके
द्वारा सत्य उदघाटित करने के मेरे अनुरोध को अस्वीकार कर देने के कारण है।
उन्होंने मुझे सत्य बताने से सदा इंकार किया। जब भी मैंने पूछा, तभी उन्होंने चुप्पी के लिए इशारा किया। और जब भी मैंने कुछ कहा, उन्होंने जल्दी से ओंठ पर अपनी अंगुली रख दी और कहा, चुप रह! ऐसे वर्षों बीते, मुझे कभी कोई शिक्षा न दी—और
फिर एक दिन हो गया।
अब
मैं उनकी याद करता हूं। इसीलिए याद करता हूं कि उन्होंने मुझे कोई शिक्षा न दी, अगर वह
मुझे शिक्षा देते तो शायद जो मेरे भीतर हुआ, वह न हो पाता।
उन्होंने बाहर से कुछ भी न दिया। उन्होंने भीतर को मुक्त रखा। वह मुझे बस चुप्पी
करवाते रहे—चुप! जब भी मैं रूम तब तब तो मुझे बहुत अखरता था, तब तो बहुत बुरा भी लगता था। दूसरों के प्रश्नों के उत्तर देते थे। ऐरे—गैरों
के उत्तर देते थे, कोई राह चलता आ जाता, उसका उत्तर देते थे। और मैं वर्षों से बैठा चरणों में सेवा कर रहा,
और जब भी मैं रूम कहें—बस, चुप! मेरी तरफ
ध्यान भी न देते थे। बहुत पीड़ा भी होती थी, अहंकार को चोट भी
लगती थी, लेकिन आज मैं जानता हूं—उनकी कृपा अपरंपार थी।
इसीलिए यह भोज दे रहा हूं कि वह मेरे गुरु थे। सच्चे गुरु थे। उन्होंने मुझे उत्तर
नहीं दिया और सदा मुझे मेरे ऊपर वापस फेंक दिया। सदा धक्का दे दिया मेरे भीतर कि
जा वहां। धक्का खाते —खाते एक दिन मैं पहुंच गया। एक दिन भीतर से लपट की तरह उठी
बात, सब रोशन हो गया। वह उनकी ही कृपा से हुआ है। उन्होंने
मुझे कोई शिक्षा नहीं दी, लेकिन गुरु तो वे मेरे हैं।
अब
ध्यान रखना, शिक्षा देने से ही कोई गुरु नहीं होता। सत्य के निकट पहुंचाने से कोई गुरु
होता है। और सत्य के निकट कैसे पहुंचोगे? अगर गुरु तुम्हें
अपने में उलझा ले तो नहीं पहुंच पाओगे।
इसलिए
सदगुरु की सदा चेष्टा होती है कि तुम उसमें न उलझ जाओ। वह तुम्हें धक्के देता रहता
है, वह तुम्हें तुम पर फेंकता रहता है।
अच्छा
हुआ है कि तुम प्रश्न पूछना चाहते हो और प्रश्न बनता नहीं। शुभ हुआ है।
'और जो बनते हैं, वे पूछने जैसे मालूम नहीं पड़ते। अब
मैं क्या करूं?'
अब
तुम इस खुजली को छोड़ो। अब तुम चुप रहो। अब जब भी तुम्हें प्रश्न पूछने की याद आए, याद करना
कि मैंने कहा—चुप रही; पूछो ही मत। होगा, एक दिन हो जाएगा। जिस दिन होगा, उस दिन तुम निश्चित
मेरा धन्यवाद मानोगे। उस दिन तुम याद करोगे कि मैंने तुम्हें उत्तर नहीं दिया था
तो अच्छा किया था। उस दिन तुम समझोगे कि तुमने नहीं पूछा, वह
भी अच्छा किया था। क्योंकि पूछो तो मुमुक्षा जिज्ञासा हो जाती है, नीचे गिर जाती है।
कुछ
बातें हैं, जो कहने से नीचे गिर जाती हैं। उनकी ऊंचाई ऐसी है कि वे बिना कहे ही उस
ऊंचाई पर होती हैं—बोले कि चूके!
पांचवां प्रश्न
आपसे क्या छिपा है! भीतर कुछ हो रहा है, अहोभाग्य!
समझ नहीं पडता है, आश्वस्त करें। अगर ठीक, तो फिर यह आंखमिचौनी कब तक? प्रणाम!
पूछा है रामपाल ने।
राम
पाल से मेरा सबंध पुराना है, लंबे दिनों का है। और रामपाल ने शायद यह पहला
ही प्रश्न पूछा है वर्षों में। जरूर हो रहा है, रामपाल
तुम्हें ही पता नहीं है, मुझे भी पता है। तुम्हें पता चला,
उससे पहले मुझे पता है। हो रहा है, आश्वस्त
रहो। और जल्दी भी मत करो। क्योंकि कुछ बातें हैं जो धीरे— धीरे होती हैं। ये कोई
मौसमी फूल नहीं हैं कि अभी डाले और अभी फूल लग गए। ये बड़े वृक्ष हैं, जो आकाश में उठते हैं, चांद—तारों को छूते हैं,
इनकी बड़ी गहरी जड़ें होती हैं। और जब कोई वृक्ष आकाश को छूने की आकांक्षा
करता है तो उसकी जड़ों को पाताल छूना पड़ता है। धीरे— धीरे होते हैं। यह परमात्मा का
अनुभव बड़े धीरे— धीरे होता है। और धीरे—धीरे हो, यही अच्छा।
कभी—कभी तेजी से हो जाए, जल्दी हो जाए, तो आदमी विक्षिप्त हो सकता है।
मुझे
पता है। तुम पूछते हो,
'आपसे क्या छिपा है!'
कुछ
भी नहीं छिपा है। बहुत कुछ तुमसे छिपा है, जो मुझसे नहीं छिपा है। तुम्हें तो
धीरे— धीरे ऊपर—ऊपर का पता चल रहा है, मुझे तुम्हारे भीतर
अंतस्तल के गहरे में क्या हो रहा है, उसका भी पता है। देख
रहा हूं? चुपचाप देख रहा हूं और बहुत खुश हूं। न तुम पूछो,
न मैं कुछ कहूं। आह्लादित रहो। अहोभाग्य ही है।
'समझ में नहीं पड़ता है। '
समझ
में पड़ने की जरूरत भी नहीं है। यह इतनी बात नहीं है जो समझ में आ जाए। यह ऐसी बात
नहीं जो समझ में आ जाए। इतनी छोटी बात नहीं जो समझ में आ जाए। यह बड़ी बात है, यह समझ से
बड़ी बात है। समझ बड़ी छोटी सी चीज है। संसार समझ में आता है, परमात्मा
कब समझ में आता है! दुकान समझ में आती है, मंदिर कब समझ में
आता है! साधारण बातचीते समझ में आती हैं, सत्य की उदघोषणाएं
कब समझ में आती हैं! समझ बड़ी छोटी है। समझ के पिंजड़े में सत्य का पक्षी कभी बंद
होता ही नहीं, उसे तो खुला आकाश चाहिए।
तो
समझ में आएगा नहीं। और समझने की कोशिश मत करना। क्योंकि समझने की कोशिश में तुम
सिकुड़ जाओगे। और समझने की कोशिश में तुम विकृति खड़ी कर दोगे। समझने की कोशिश से
बाधा पड़ जाएगी। तुम समझने की कोशिश ही मत करना। इसीलिए तो समस्त सदगुरुओं ने कहा
है, उस परम घड़ी में श्रद्धा के अतिरिक्त और कोई सहारा नहीं है। अब तो श्रद्धा
रखो, बुद्धिमानी से काम न चलेगा। अब तो बुद्धिमानी
बुद्धिहीनता होगी। अब तो अनुभव आ रहा है, अनुभव के साथ बहो,
हिम्मत से बहो, जहां ले जाए जाओ, जो हो होने दो। अब तुम्हारी समझ काम नहीं पड़ेगी, समझ
को छोड़ो।
बड़ी
महत्वपूर्ण घटना घट रही है,
अब उसे समझ से विकृत मत करना। समझ का अर्थ ही यह होता है कि मेरी
बुद्धि के पकड़ में आ जाए। समझ का अर्थ होता है, चम्मच में
सागर आ जाए। समझ का अर्थ होता है, एक दीए को लेकर सूरज को
रोशनी दिखा दूं।
नहीं, यह नहीं
हो सकेगा। तुम दीए को फूको, समझ को बुझा दो। अब समझ की कोई
जरूरत ही न रही। समझ तो ऐसे है जैसे अंधे के हाथ मे लकड़ी। अंधा लकडी से टटोलता है।
फिर उसकी आंखें ठीक हो गयीं, अब थोड़े ही लकड़ी से टटोलता है,
अब तो लकड़ी फेंक देता है। हालाकि पुरानी आदत के कारण हो सकता है
एकदम न फेंके।
ऐसा
हुआ। जीसस ने एक अंधे की आंखें छू दीं और वह ठीक हो गया। उसने बहुत धन्यवाद दिया
और अपनी टेकने की लकड़ी को लेकर चलने लगा। जीसस ने कहा, भाई,
लकड़ी तो दे जा। यह लकड़ी कहां ले जा रहा है! वह अंधा बोला कि नहीं,
इसके बिना मैं कैसे चलूंगा? यही तो मेरा सहारा
है।
आंखें
ठीक हो गयीं! मगर पुरानी आदत! हो सकता है चालीस साल से, पचास साल
से लकड़ी से टेक—टेककर चलता रहा हो, आज आंखें भी ठीक हो गयीं
तो भी एकदम से पचास साल की आदत तो न छूट जाएगी।
सो
रामपाल, समझ की लकड़ी छोड़ो, अब आंखें ठीक होने का वक्त आ गया।
अब समझ से कुछ जरूरत नहीं। समझ संसार में चाहिए, परमात्मा
में नहीं। परमात्मा में प्रेम चाहिए। और प्रेम तो नासमझी का नाम है। प्रेम तो
पागलपन है। अब यह पागलपन की शुभ घड़ी आ रही है, इसे उतरने दो।
और
आश्वस्त करता हूं घबड़ाओ मत। यह घबड़ाहट आती है, पैर डगमगाते हैं। उस द्वार पर खड़े
होकर बहुत भय भी लगता है। क्योंकि मिटने जैसा है, मौत जैसा
है। ध्यान की परम घड़ी में मौत घटती है, मौत यानी अहंकार की
मौत। तुम तो मिटे, यह बूंद तो गयी, अब
सागर होगा।
लेकिन
बूंद को कैसे भरोसा आए,
बूंद कैसे जाने कि मैं मिटूंगी और बिलकुल ही न मिट जाऊंगी? बूंद कैसे भरोसा लाए कि मैं सागर में डूबकर बचूंगी और सागर हो जाऊंगी?
बीज को कैसे भरोसा आए कि मैं टूटकर जब जमीन में खो जाऊंगा तो वृक्ष
पैदा होगा? होगा, इसका कैसे भरोसा आए?
क्योंकि बीज जब तक है तब तक वृक्ष नहीं है, और
जब वृक्ष होगा तब बीज नहीं—दोनों का कभी मिलना नहीं होता। इसीलिए श्रद्धा। इसीलिए
सदगुरु के हाथ में हाथ हो, उपयोगी है। क्योंकि वह कहेगा,
फिकर मत कर, मैं रहा वृक्ष, मेरी तरफ देख, ऐसे ही मैं बीज था और मिट गया बीज और
वृक्ष हुआ, ऐसे ही तू अभी बीज है, मेरी
तरफ देख, ध्यान रख, इस बीज को मिटने दे।
आश्वस्त
करता हूं। ठीक हो रहा है। तुम मस्ती में गीत गाते इसमें उतरते चलो। और फिर पूछते
हो, 'अगर ठीक.। '
ऐसी
चिंता पैदा होती .है. कि यह जो हो रहा है, ठीक हो रहा है कि नहीं ठीक हो रहा
है? हमारे सब मापदंड छोटे पड़ जाते हैं। हमारे तराजू काम नहीं
आते हैं। पुराने हिसाब—किताब, पुरानी कोटियां, कुछ काम नहीं पड़ती हैं, कोई पुराना वर्गीकरण काम नहीं
पड़ता। पता नहीं ठीक हो रहा है कि गलत हो रहा है, मैं कहा जा
रहा हूं, किसी अनजान रास्ते पर भटक न जाऊं, किसी अंधेरी गली में खो न जाऊं, पता नहीं क्या हो
रहा है।
तो
तुम पूछते हो,
'अगर ठीक…….।'
अगर
नहीं, ठीक ही हो रहा है, बिलकुल ठीक हो रहा है। लेकिन
तुम्हारी अड़चन मैं समझता हूं। आज तो तुम्हें कैसे पता चलेगा! ऐसे ही समझो कि जैसे
छोटा बच्चा मां के पेट से पैदा होता है। नौ महीने मां के गर्भ में रहा, सब सुख था। सुख ही सुख था, चिंता तो कोई भी न थी,
दायित्व कोई न था—नौकरी नहीं, दफ्तर नहीं,
कारखाना नहीं, कुछ नहीं— भोजन मिलता था चुपचाप,
श्वास भी मां लेती, भोजन भी मां करती, सब मां करती थी, उसे कुछ पता भी नहीं था। इससे
ज्यादा निश्चित फिर तो कोई घड़ी होगी नहीं।
मनोवैज्ञानिक
कहते हैं कि मनुष्य ने जो सुख जाना है नौ महीने मां के गर्भ में ?ऊ उसी के
कारण जीवन में उसे दुख अनुभव होता है। क्योंकि वह तुलना भीतर बैठी है—वह परम सुख
का क्षण! मनोवैज्ञानिक तो यह भी कहते हैं कि मोक्ष की तलाश वस्तुत: उसी गर्भ की
पुन: तलाश है।
और
इसमें सच्चाई है। इसमें सत्य है। यह जो बच्चा नौ महीने मां के पेट में रहा, आज प्रसव
की पीड़ा उठी, और यह बच्चे को मां का पेट धक्के मारने लगा कि
बाहर निकल! स्वभावत:, बच्चा घबड़ाका कि यह क्या हो रहा है?
बसी—बसायी बस्ती उजड़ी जाती है। सब ठीक —ठाक चल रहा था, यह कौन सी झंझट आ रही है! और यह जो मां के पेट से निकलने का मार्ग है,
यह बड़ा संकरा है, इसमें बड़ी बेचैनी होती है।
इस संकरी गली से निकलना पड़ रहा है! सब तरह से अवरुद्ध हो जाता है, घुटा जाता है, मरा जाता है।
लेकिन
उसे क्या पता कि आगे क्या होने को है। आगे का तो उसे कुछ पता भी नहीं हो सकता। उसे
तो यह पीड़ा दिखायी पड़ती है,
पीछे का सुख दिखायी पड़ता है। वर्तमान की पीड़ा दिखायी पड़ती है,
अतीत का सुख दिखायी पड़ता है। भविष्य तो उसे पता नहीं है कि जीवन.
मिलेगा, कि सूरज, चांद—तारे, कि वृक्ष और फूल और पक्षी और रोशनी और हवाएं और विराट का दर्शन होगा—यह तो
उसे कुछ पता नही—कि इंद्रधनुष होते हैं, कि सागर में लहरें
उठती हैं, इसे तो कुछ पता नहीं कि बाहर क्या है! यह तो इसी
बंद कोठरी को सुख मान रहा था। सुखी था भी।
तो
जैसे यह बच्चा घबड़ाता है और पकड़ लेना चाहता है गर्भ को कि निकल न जाए बाहर, ऐसी ही
घबड़ाहट साधक को आती है जब समाधि के करीब कदम पड़ते हैं।
तो
तुम पूछते हो,
'अगर ठीक, तो फिर यह आंखमिचौनी कब तक?'
यह
ठीक है? बिलकुल ठीक है। और आंखमिचौनी भी तब तक होती रहेगी, जब
तक तुम्हारे भीतर जरा भी झिझक है। थोड़ी झिझक है, इसलिए आंखमिचौनी।
तुम्हारी झिझक के कारण है। तुम थोड़े अटके— अटके हो। और तुम्हारी झिझक एकदम
अस्वाभाविक है, ऐसा भी मैं नहीं कहता। स्वाभाविक ही है,
सभी झिझकते हैं, मैं भी झिझका था। सभी झिझकते
हैं। ऐसा लगता है सब हाथ से जा रहा है, रोक लें अपने को,
सम्हाल लें अपने को, पता नहीं फिर लौट सकेंगे
कि नहीं लौट सकेंगे! और जो हो रहा है, यह पागलपन तो नहीं है?
क्योंकि हमने जीवन में दुख जाना, जब सुख की
पहली किरण आती है, हमें भरोसा नहीं आता कि ऐसा हो सकता है।
जब पहली दफे आनंद का झोंका आता है तो हमें लगता है, कल्पना
तो नहीं कर ली? कहीं सम्मोहन में तो नहीं पड़ गए?
एक
मित्र ने कल ही मुझे लिखा कि जब भी आपको सुनने आता हूं एक डर लगता है कि कहीं किसी
सम्मोहन में तो नहीं पड़ा जा रहा हूं? अच्छा लगता है, और घबड़ाहट भी होती है, भय भी होता है। फिर दो—चार
महीने 'नहीं आता। फिर याद आने लगती है कि चलो एक दिन तो चला
जाए, फिर आ जाता हूं। और फिर यही चिंता होती है। और मेरी
पत्नी भी मुझसे यही कहती है कि तुम सम्मोहित मत हो जाना। वहा जाकर कई लोग सम्मोहित
हो जाते हैं। फिर महीने दो महीने रुक जाता हूं। रुक भी नहीं सकता, आ भी नहीं सकता!
बेचैनी
स्वाभाविक है। तुम्हें घबडाहट पकड़ेगी कि यह क्या हो रहा है? मेरा
नियंत्रण टूटा जा रहा है, मेरी सीमा टूटी जा रही है, मेरी एक व्यवस्था थी, बिगड़ी जा रही है।
और
तुम्हें इसके लिए कहीं भी सहारा न मिलेगा। तुम्हारी पत्नी कहेगी, पागल हुए
जा रहे! तुम्हारे बेटे कहेंगे कि डैडी, आपको क्या हो गया है?
तुम्हारे पिता कहेंगे कि ऐसा मत करो, सम्हल
जाओ, अभी कुछ बिगड़ा नहीं है। तुम्हारे मित्र, प्रियजन, दफ्तर के लोग कहेंगे कि अब और आगे मत बढ़ो,
इस मार्ग पर कई लोग पागल हो गए हैं, अभी लौट
आओ, अपना संसार भला है। और तुम्हारा मन भी यही कहेगा कि रुक
जाओ, ठहर जाओ, अभी कुछ नहीं बिगड़ा,
अभी रुक सकते हो; कहीं ऐसा न हो एक कदम और,
और फिर तुम फिसलो और फिर तुम्हारा पता न चले! इसीलिए आंखमिचौनी हो
रही है, देर लग रही है, क्योंकि तुम
झिझक रहे हो। झिझक छोड़ो, आश्वस्त होकर आगे बढ़ो!
और आखिरी प्रश्न.
एक प्यास है मेरे भीतर, बस इतना
ही जानता हूं। किस बात की है, यह भी साफ—साफ नहीं। आप कुछ
कहें।
मैं एक छोटी सी कहानी
कहूंगा।
हिमालय
की घाटियों में एक चिड़िया निरंतर रट लगाती है—जुहो! जुहो! जुहो!
अगर तुम हिमालय गए
हो तो तुमने इस चिड़िया को सुना होगा। इस दर्द भरी पुकार से हिमालय के सारे यात्री
परिचित हैं। घने जंगलों में, पहाड़ी झरनों के पास, गहरी
घाटियों में निरंतर सुनायी पड़ता है—जुहो! जुहो! जुहो! और एक रिसता दर्द पीछे छूट
जाता है। इस पक्षी के संबंध में एक मार्मिक लोक—कथा है।
किसी
जमाने में एक अत्यंत रूपवती पहाडी कन्या थी, जो वर्ड्सवर्थ की लूसी की भांति
झरनों के संगीत, वृक्षों की मर्मर और घाटियों की
प्रतिध्वनियों पर पली थी। लेकिन उसका पिता गरीब था और लाचारी में उसने अपनी कन्या
को मैदानों में ब्याह दिया। वे मैदान, जहां सूरज आग की तरह
तपता है। और झरनों और जंगलों का जहां नाम—निशान भी नहीं। प्रीतम के स्नेह की छाया
में वर्षा और सर्दी के दिन तौ किसी तरह बीत गए, कट गए,
पर फिर आए सूरज के तपते हुए दिन—वह युवती अकुला उठी पहाड़ों के लिए।
उसने नैहर जाने की प्रार्थना की। आग बरसती थी—न सो सकती थी, न
उठ सकती थी, न बैठ सकती थी। ऐसी आग उसने कभी जानी न थी।
पहाड़ों के झरनों के पास पली थी, पहाड़ों की शीतलता में पली थी,
हिमालय उसके रोएं—रोएं में बसा था। पर सास ने इनकार कर दिया।
वह
धूप में तपें गुलाब की तरह कुम्हलाने लगी। श्रृंगार छूटा, वेश—विन्यास
छूटा, खाना—पीना भी छूट गया। अंत में सास ने कहा—अच्छा,
तुम्हें कल भेज देंगे। सुबह हुई, उसने आकुलता
से पूछा—जुहो? जाऊं? जुहो पहाड़ी भाषा
में अर्थ रखता है—जाऊं? सुबह हुई, उसने
पूछा—जुहो? जाऊं? सास ने कहा— भोल जाला।
कल सुबह जाना। वह और भी मुरझा गयी, एक दिन और किसी तरह कट
गया, दूसरे दिन उसने पूछा—जुहो? सास ने
कहा—भोल जाला। रोज वह अपना सामान संवारती, रोज प्रीतम से
विदा लेती, रोज सुबह उठती, रोज पूछती—जुहो?
और रोज सुनने को मिलता— भोल जाला।
एक
दिन जेठ का तप—तपा लग गया। धरती धूप में चटक गयी। वृक्षों पर चिडियाए लू खाकर
गिरने लगीं। उसने अंतिम बार सूखे कंठ से पूछा—जुहो? सास ने कहा— भोल जाला। फिर
वह कुछ भी न बोली। शाम एक वृक्ष के नीचे वह प्राणहीन मृत पायी गयी। गरमी से काली पड़
गयी थी। वृक्ष की डाली पर एक चिड़िया बैठी थी, जो गर्दन
हिलाकर बोली—जुहो? और उत्तर की प्रतीक्षा के बिना अपने नन्हे
पंख फैलाकर हिमाच्छादित हिमशिखरों की तरफ उड़ गयी।
तब
से आज तक यह चिड़िया पूछती है—जुहो? जुहो? और एक
कर्कश—स्वर पक्षी उत्तर देता है— भोल जाला। और वह चिड़िया चुप हो जाती है।
ऐसी
पुकार हम सबके मन में है। न—मालूम किन शांत, हरियाली घाटियों से हम आए हैं! न—मालूम
किस और दूसरी दुनिया के हम वासी हैं! यह जगत हमारा घर नहीं। यहां हम अजनबी हैं।
यहां हम परदेशी हैं। और निरंतर एक प्यास भीतर है अपने घर लौट जाने की, हिमाच्छादित शिखरों को छूने की। जब तक परमात्मा में हम वापस न लौट जाएं तब
तक यह प्यास जारी रहती है, प्राण पूछते ही रहते है—जुहो?
जुहो?
तुमने
पूछा है, 'मेरे भीतर एक प्यास है, बस इतना ही जानता हूं। किस
बात की, यह साफ नहीं है। आप कुछ कहें। '
मैंने
यह कहानी कही;
इस पर ध्यान करना। सभी के भीतर है—पता हो, न
पता हो। होश से समझो, तो साफ हो जाएगी; होश से न समझोगे, तो धुंधली— धुंधली बनी रहेगी और
भीतर— भीतर सरकती रहेगी। लेकिन यह पृथ्वी हमारा घर नहीं है। यहां हम अजनबी हैं।
हमारा घर कहीं और है—समय के पार, स्थान के पार। बाहर हमारा
घर नहीं है, भीतर हमारा घर है। और भीतर है शांति, और भीतर है सुख, और भीतर है समाधि। उसकी ही प्यास है।
आज इतना ही।
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