बुधवार, 12 अप्रैल 2017

साक्षी की साधना-(साधना-शिविर)-प्रवचन-08



साक्षी की साधना-(साधना-शिविर)
ओशो
आठवां प्रवचन

...उसके बिना समाधि को उपलब्ध करना संभव नहीं है। आज के तीसरे चरण में समाधि का आगमन कैसे हो, उस संबंध में हम विचार करेंगे।
समाधि साधी नहीं जा सकती, लेकिन उसका आगमन हो सकता है। यह तो पहली बात है, जो जान लेनी जरूरी है। समाधि साधी नहीं जा सकती, उसका आगमन हो सकता है। जैसे हम घर के भीतर सूर्य के प्रकाश को गठरियों में बांध कर नहीं ला सकते, लेकिन अगर द्वार खुला छोड़ दें, तो प्रकाश आ सकता है। लाया नहीं जा सकता, आ सकता है। तो समाधि के आगमन में हमें जो करना है, वह द्वार खोलने जैसा काम है। अत्यंत नकारात्मक है, निगेटिव है। सिर्फ बाधाएं हटा देने की जरूरत है, समाधि आएगी।
एक छोटी सी घटना से इस बात को मैं समझाने की कोशिश करूं।

रवींद्रनाथ एक बजरे पर यात्रा करते थे। बहुत जीवन की रात्रियां उन्होंने नदियों पर और बजरों में व्यतीत कीं। शायद यही कारण होगा कि उनके काव्य में जो निसर्ग की ध्वनि है वह बहुत कम काव्यों में होती है। जो सरिताओं की कल-कल और शीतल, स्वच्छ हवाओं की जो छाप उनके गीतों पर है वह मुश्किल से होती है। क्योंकि अधिक लोग तो बंद कमरों में गीत लिखते हैं, तो उन गीतों में भी वैसा बंदीगृह स्वभाव छिपा होता है। या मिट्टी के तेल से जलती लालटेन के किनारे बैठ कर लिखते हैं, तो वह साहित्य में भी घासलेट की बास आ जाती हो, तो कोई आश्चर्य नहीं है।
रवींद्रनाथ ने जीवन का बहुत अधिक समय निसर्ग के अनुकूल व्यतीत किया। वे चांद की रातें थीं और वे बजरे पर थे। एक छोटी सी मोमबत्ती को जला कर देर तक कोई शास्त्र पढ़ते रहे, फिर दो बजे के करीब रात मोमबत्ती बुझाई, लेटने को बिस्तर पर हुए, तो लेट नहीं सके। उठ आए, बजरे के बाहर, नाव पर निकल आए और उन्होंने एक गीत उस रात लिखा, और उस गीत में उन्होंने यह कहा कि मुझे सत्य का आज तक पता भी नहीं था। मैं भीतर बजरे की कोठरी में मोमबत्ती जलाए बैठा था और बाहर पूर्णिमा का चांद था। लेकिन पूर्णिमा की रोशनी बाहर रुकी रही। बजरे की खिड़कियों और द्वारों से उसने प्रवेश न किया, वह छोटी सी मोमबत्ती का प्रकाश बाधा बना हुआ था। जैसे ही मैंने मोमबत्ती बुझाई, मोमबत्ती के बुझते ही चांद की अपूर्व किरणें चारों तरफ रंध्र-रंध्र से बजरे में प्रविष्ट हो गईं, द्वार से, खिड़कियों से, सब तरफ से चांद भीतर आ गया। और तब रवींद्रनाथ ने कहा कि मैंने जाना कि मेरी छोटी सी मोमबत्ती का पीला सा प्रकाश बड़ी बाधा बना था। द्वार पर चांद की रोशनी खड़ी थी, लेकिन द्वार पर ही ठिठकी खड़ी रही, भीतर प्रवेश न कर सकी। मोमबत्ती के बुझते ही भीतर आ गई।
हमारे भीतर कुछ बाधाएं हैं, जो परमात्मा के प्रकाश को बाहर रोके हुए खड़ी हैं। द्वार पर रुका है प्रकाश। समाधि का आनंद निकट है चारों तरफ, लेकिन हममें कुछ बाधाएं हैं, जो उसे रोके हैं। उसे लाना नहीं है, उसे लाया नहीं जा सकता, केवल बाधाएं अलग कर देनी हैं, वह आ जाएगा अपने से और सहज। और जीवन में जो भी महत्वपूर्ण है--प्रेम या परमात्मा, या सौंदर्य का बोध, या सत्य की अनुभूति हो, कोई भी लाई नहीं जा सकती, सिर्फ बाधाएं हम अलग कर दें, वे आ जाती हैं। क्योंकि जिसे भी हम लाएंगे वह हमसे बड़ा नहीं हो सकता, इसे स्मरण रखें।
मनुष्य का चित्त जिस चीज को भी ला सकता है, वह मनुष्य के चित्त से बड़ी नहीं हो सकती, उससे क्षुद्र होगी। और मनुष्य का चित्त ही बहुत क्षुद्र है, तो वह जो लाएगा वह अति क्षुद्र होगा। मनुष्य जो भी लाएगा और बनाएगा वह अति क्षुद्र होगा। क्योंकि मनुष्य ही तो बनाएगा उसे और लाएगा।
समाधि या परमात्मा की अनुभूति मनुष्य की लाई हुई अनुभूति नहीं। मनुष्य क्या कर सकता है? मनुष्य केवल द्वार दे सकता है। मनुष्य केवल बाधाएं अलग कर सकता है, जो हिंडरेंसेज हैं, उन्हें अलग कर सकता है। मनुष्य केवल मार्ग छोड़ सकता है। फिर कुछ आएगा, जो मनुष्य से ज्यादा विराटतर है, जो मनुष्य से विशाल है, जो मनुष्य से बहुत बड़ा है, मनुष्य का बहुत अतिक्रमण कर जाता है।
तो एक बात प्राथमिक रूप से समाधि के संबंध में जान लेनी जरूरी है कि समाधि साधी नहीं जा सकती, आ सकती है। मनुष्य का मन कुछ भी ऐसा नहीं कर सकता कि वह समाधि को पा ले। हां, जो बाधाएं हैं उन्हें अलग करके प्रतीक्षा कर सकता है। बाधाएं हटते ही द्वार खुल जाता है प्रतीक्षा करनी नहीं पड़ती। इसलिए समाधि की सारी साधना निगेटिव है, नकारात्मक है। कुछ चीजें हटा देनी हैं। कुछ चीजें मार्ग से हटा देनी हैं, रास्ता साफ कर देना है, फिर कोई आएगा, फिर कोई आएगा, कुछ होगा। और वह कुछ फिर हमारे हाथ का नहीं होगा, हमसे बहुत बड़ा होगा। हमें बहा ले जाएगा, हम मिट जाएंगे उसमें।
यह प्राथमिक रूप से समझ लेना जरूरी है। अन्यथा साधक, धर्म की दिशा में जाने वाले लोग इसी खयाल में होते हैं कि वे साधेंगे, वे साध लेंगे--समाधि साध लेंगे, यह कर लेंगे, वह कर लेंगे, परमात्मा का दर्शन कर लेंगे। ये सारी की सारी बातें अत्यंत अहंकारग्रस्त हैं। कि मैं मोक्ष को पा लूंगा, मैं परमात्मा को पा लूंगा, मैं योग साध लूंगा, मैं ध्यान साध लूंगा, ये सब अहंकारग्रस्त हैं। ये बहुत नासमझी की बातें हैं।
यह तो समझ में भी आ सकता है कि आप एक मकान बना लेंगे, एक दुकान खोल लेंगे, आप किसी राज्य के मंत्री हो जाएंगे या कुछ और हो जाएंगे। यह तो समझ में भी आ सकता है, क्योंकि से सब बातें अत्यंत क्षुद्र हैं। मनुष्य का मन इन्हें करने में समर्थ है। लेकिन जब कोई मनुष्य ऐसा सोचने लगता है कि मैं परमात्मा को पा लूंगा, मैं मोक्ष पा लूंगा, मैं आत्मा को साध लूंगा, तब वह भूल में पड़ जाता है। वह अपने से बहुत बड़ी बातों को, अपने द्वारा किए जाने की कामना कर रहा है, कल्पना कर रहा है, वह भूल में है। वे बातें जरूर हो सकती हैं, वे बातें हो सकती हैं, उसके द्वारा नहीं, बल्कि उसके हट जाने पर। उसके कारण नहीं, बल्कि उसके विलीन हो जाने पर। उसके शक्ति से नहीं, बल्कि उसकी शून्यता से। यह बहुत-बहुत समझ लेनी जैसी बात है, नहीं तो धर्म की साधना में जो बुनियादी भूल हो जाती है आधारभूत, वह यहीं हो जाती है। और इसीलिए जिसे हम संन्यासी कहें, साधु कहें, वह बहुत अहंकारग्रस्त होता चला जाता है। क्योंकि आप तो मकान ही बनाते हैं, तो आपका अहंकार कितना बड़ा होगा? आप तो राज्य ही जीतते हैं, आपका अहंकार कितना बड़ा होगा? वह परमात्मा की विजय पर निकला हुआ है, उसका आक्रमण बहुत बड़ा है। वह ईश्वर को जीतने चला है, स्वर्ग को जीतने चला है, मोक्ष को जीतने चला है, उसका अहंकार बहुत प्रबल है। इसलिए संन्यासी में दंभ का होना बहुत स्वाभाविक है। उसका बहुत ईगोइस्ट होना बहुत स्वाभाविक है। यह स्वाभाविक है कि उसका दंभ बहुत बड़ा हो। आप तो संसार को जीतने चले हैं, वह तो सत्य को ही जीतने चला है। और आप तो असार संसार को जीत रहे हैं, वह सार संसार को जीत रहा है। और आप तो साधारण से क्षुद्र पदार्थ की दुनिया में खोज रहे हैं, वह परमात्मा की ही विजय के लिए निकला हुआ है।
यह जो विजय की यात्रा है, यह भ्रांत है। परमात्मा की विजय नहीं की जा सकती, और परमात्मा पर कोई आक्रमण भी नहीं किया जा सकता। क्योंकि आक्रमण करने वाला और विजय की कामना करने वाला चित्त इतना क्षुद्र है, आक्रमण का भाव ही इतना क्षुद्र है, विजय की कामना ही इतनी क्षुद्र है, और वह भी परमात्मा की विजय की कामना, मोक्ष को जीत लेने की कामना।
महावीर के पास उस समय का एक बहुत बड़ा राजा श्रेणिक मिलने गया। श्रेणिक ने कहा कि मैंने बहुत राज्य जीते, मैंने राज्य की बड़ी सीमाएं कीं, मैंने बहुत धन जीता, आज अकूत धन है मेरे पास, उसका कोई हिसाब नहीं। हिसाब लगाने की सुविधा और समय भी नहीं, क्योंकि इतना धन है, इतना अकूत कि अगर मैं हिसाब लगाने बैठूं, तो मेरा सारा जीवन उसी में व्यतीत हो जाए, इसलिए कोई हिसाब का कारण भी नहीं है। लेकिन सब मैंने जीता। अभी-अभी मैं सुनता हूं कि बिना आत्मा को पाए कुछ भी नहीं हो सकता। तो अब में आत्मा को भी जितना चाहता हूं। उसने महावीर से जाकर कहा:  अब मैं आत्मा को भी जीतना चाहता हूं। अगर कोई परमात्मा है, तो मैं उसको भी जीतना चाहता हूं।
महावीर ने कहा:  तुम लौट जाओ, क्योंकि जो जीतने का भाव लेकर इस दिशा में आता है, उसकी हार सुनिश्चित है। क्योंकि जीतने का भाव अहंकार का भाव है। यहां तो वह जीतता है जो हारने को तैयार होता है।
दो तरह की दुनिया है, एक जो हम जिस दुनिया को जानते हैं, पदार्थ की, वहां वह जीतता है जो जीतता है। एक और दुनिया भी है, वहां वह जीतता है जो हारता है।
समाधि तो हारने से मिलती है, जीतने से नहीं मिलती। जैसे-जैसे आप हारते जाएंगे, वैसे-वैसे मिलती चली जाएगी। जिस दिन आप बिलकुल नहीं होंगे, उस दिन वह उपलब्ध हो जाएगी।
तो पहली बात तो यह जान लेनी जरूरी है कि आप साध नहीं सकते हैं सत्य को और समाधि को, हां, अपने को विलीन कर सकते हैं और मिटा सकते हैं। कोई बूंद सागर को पा नहीं सकती, लेकिन बूंद सागर में अपने को खो सकती है। और खोते ही सागर हो जाती है। लेकिन कोई बूंद अगर इस खयाल में हो कि वह सागर को जीत लेगी, तो गलती में है। सागर को जीतने के खयाल में केवल ताप में उड़ जाएगी और भस्म हो जाएगी। लेकिन अगर कोई बूंद सागर में खोने के लिए तैयार हो जाए और राजी हो जाए, मिटने को राजी हो जाए, तो सागर में गिरते ही, मिटते ही सागर हो जाती है। ऐसे सागर मिट कर पा लिया जाता है। सत्य को पाने की दिशा भी मिट कर पाने की दिशा है। वह आपका अचीवमेंट नहीं है, आपकी उपलब्धि नहीं है, आपकी मृत्यु है, आपका मिटना है।
इसलिए समाधि को मैं कहता हूं: स्वयं अपने हाथों स्वीकार किया गया मिटना। स्वयं अपने हाथों अपनी मृत्यु का अंगीकार। स्वयं अपने हाथों अपनी बूंद को खो देनी की तैयारी।
किन सूत्रों से हम मिट सकते हैं? तो उन्हीं सूत्रों की बात करेंगे। वे ही सूत्र समाधि के आगमन के लिए द्वार खोल देंगे, मार्ग बन जाएंगे। किन सूत्रों से हम खुद मिट सकते हैं? अगर परमात्मा को होने देना है, तो मिटना पड़ेगा। इस खयाल में मत रहें कि आप परमात्मा से मिल सकेंगे, जब तक आप हैं तब तक मिलना नहीं हो सकता। जब तक आप हैं तब तक आप ही रहेंगे, परमात्मा नहीं हो सकता। जिस दिन आप नहीं हैं, जिस दिन आप अनुपस्थित हैं, उस दिन परमात्मा है।
कबीर ने कहा है कि उसकी गली बड़ी संकरी, वहां दो नहीं समा सकते हैं। उसकी गली बहुत संकरी है, वहां दो नहीं समा सकते हैं। या तो वह और या आप।
रूमी ने एक गीत लिखा है, एक सूफी गीत है: एक प्रेमी ने अपनी प्रेयसी के द्वार पर जाकर दरवाजे खटखटाए, पीछे से पूछा किसी ने, कौन है? उसने कहा:  मैं हूं, तुम्हारा प्रेमी। फिर भीतर से कोई आवाज नहीं आई। उसने बहुत द्वारा खटखटाए, बहुत चिल्लाया और उसने कहा:  क्या हो गया है? इतनी चुप्पी क्यों? ऐसा मालूम होता है घर सूना है। भीतर से आवाज आई, जो अभी यह कहता है कि मैं हूं, उसके लिए प्रेम के द्वार खुलने असंभव है। क्योंकि "मैं' ही तो प्रेम के द्वार बंद किए हुए है।
तो वह प्रेमी वापस लौट गया। कई चांद आए और गए, कई रातें और दिन आए और बीते, और वह "मैं' कैसे मिट जाए इसकी खोज करता रहा। और वर्षों के बीतने के बाद फिर इस द्वार पर आया। और उसने फिर सांकल खटखटाई, पीछे से वही प्रश्न, कौन है? हमेशा प्रेम के मंदिर में यही पूछा गया है, कौन है? और हमेशा परमात्मा के भीतर से भी आवाज आती है, कौन है? उस मकान से भी आवाज आई, कौन है? उसने अब की बार कहा:  अब तो कोई भी नहीं, अब तो तुम ही हो। और वे द्वार खुल गए। वे द्वार शायद खुले ही थे, मैं की अंधी आंखें उन्हें नहीं खुला हुआ देख पाती थीं।
वे द्वार खुल गए। जिस दिन व्यक्ति समर्थ हो जाता है इस बात को जानने में कि मैं नहीं हूं, उसी दिन समाधि प्रविष्ट हो जाती है, द्वार खुल जाते हैं, मार्ग निष्कंटक हो जाता है। बाधाएं हैं हमारी खड़ी की हुई। एक-एक बाधा को खिसका देना होगा, एक-एक बाधा को हटा देना होगा। फिर तो आप पाएंगे कि समाधि शायद बाहर भी नहीं थी, वह भीतर ही थी। मौजूद ही था सत्य, परमात्मा मौजूद ही था, लेकिन हमारी ही बाधाओं के कारण दिखाई नहीं पड़ता था।
कौन-कौन सी बाधाएं हैं? कैसे-कैसे वे बाधाएं दूर हो जाएं? तीन सूत्रों की मैं चर्चा करना चाहूंगा।
पहला सूत्र है: सहज जीवन। हमारा जीवन बहुत असहज है, बहुत कृत्रिम, बहुत आर्टिफिसियल, बहुत झूठा, बहुत मिथ्या, बहुत वंचक, बहुत डिसेप्टिव। ऐसा नहीं कि हम किसी और को धोखा देते होंगे, हम अपने को ही धोखा दिए चले जाते हैं। धोखा देते-देते हम उस स्थिति में पहुंच जाते हैं कि यह भी तय करना मुश्किल हो जाता है कि हमने कभी धोखा दिया था। धोखा भी निरंतर दिया जाए, निरंतर दिया जाए, तो मुश्किल हो जाता है।
एक आदमी ने हत्या की थी। और उस पर मुकदमा जला, और वह पकड़ा गया। लेकिन उसके पक्ष के वकील ने बड़ी तगड़ी दलीलें कीं उसके पक्ष में, उसके बचाने में। महीनों वह मुकदमा चला और आखिर में वह आदमी बच गया। वह हत्यारा छूट गया। छूट जाने के बाद उस वकील ने उस हत्यारे से अपने घर पर जाकर पूछा, क्या मित्र, अब तुम सच कह सकोगे कि तुमने हत्या की थी या नहीं? उसने कहा:  पहले तो मेरा खयाल था कि मैंने की थी, लेकिन आपकी दलीलें सुनते-सुनते मुझे शक हो गया। अब मैं संदिग्ध हूं कि मैंने की या नहीं की? और अगर दो-चार महीने यह मुकदमा और चलता तो पक्का हो जाता कि मैंने नहीं की। पहले तो मुझे खयाल था कि मैंने की, लेकिन आपकी बातें और दलीलें सुनते-सुनते मुझे संदेह पैदा हो गया कि मैंने की या नहीं की है?
जीवन भर जो बातें हम दूसरों को दिखलाते रहते हैं, धीरे-धीरे खुद को यह विश्वास पड़ जाता है कि हम वैसे हैं और जीवन बिलकुल कृत्रिम और झूठा हो जाता है। हमारा प्रेम झूठा, हमारा चरित्र झूठा, हमारा व्यक्तित्व झूठा, हमारा मन झूठा, हमारे प्राण झूठे, तो इतने असहज व्यक्तित्व के कारण तो बाधा खड़ी हो जाती है। सब झूठा जहां हैं, वहां एकदम बाधा खड़ी हो जाती है।
सत्य क्या है हमारे व्यक्तित्व में? सहज क्या है हमारे व्यक्तित्व में? असहज सब कुछ है हमारा; जो हम बोलते हैं वह असहज है, हम चलते हैं वह असहज है। कभी खयाल किया? अगर रास्ते पर आप अकेले चले जाते हैं, तो आप और ढंग से चलते हैं, उस तरफ से चार लोग आ जाएं, तो आप दूसरे ढंग से चलने लगते हैं। कभी खयाल किया इस बात पर? अपने बाथरूम में जब आप अकेले होते हैं, तो आप दूसरे आदमी होते हैं, और अपने बैठकखाने में जब बैठे होते हैं, तो बिलकुल दूसरे आदमी होते हैं। कभी खयाल किया इस बात पर?
कैसा यह हमारा व्यक्तित्व है? हम लोगों की आंखों को देख कर, उसे बदलते, और वे चार आदमी अगर बहुत बड़े आदमी हों, तो आप और बदल जाते हैं। हमारा सब हिसाब बदल जाता है। हमारा पूरा व्यक्तित्व, जैसे हमने कई तरह के मुखौटे बना रखे हैं अपने भीतर, और जब जैसी जरूरत होती है उसको पहन लेते हैं। धीरे-धीरे मुखौटों में खोते-खोते हम यह भूल ही जाते हैं कि हमारा कोई अपना चेहरा भी है, निपट हमारा चेहरा, जो हमने किसी की अपेक्षा में खड़ा नहीं किया है। जो हमने किसी की अपेक्षा में खड़ा नहीं किया, जो हमारा ही चेहरा है, पता है आपको? आपका ओरिजिनल फेस, आपका वस्तुतः जैसा चेहरा है, पता नहीं आपको। आपने बहुत चेहरे बनाएं हैं, हमने बहुत चेहरे बनाएं हैं, और हर आदमी की अपेक्षा में चेहरा बदल जाता है। सुबह कुछ होते हैं, घड़ी भर बाद कुछ, दोपहर कुछ, रात्रि कुछ; पत्नी के सामने कुछ, मित्र के सामने कुछ, पुत्र के सामने कुछ, पिता के सामने कुछ, नौकर के सामने कुछ, मालिक के सामने कुछ, चौबीस घंटे इतना जो कृत्रिम व्यवहार चलता है और अभिनय चलता है और जीवन भर, तो गहरी पर्तें खड़ी हो जाती हैं। उसमें एक चीज खो जाती है, ओरिजिनल फेस खो जाता है। वह जो मौलिक व्यक्तित्व है वह खो जाता है और झूठे व्यक्तित्व चारों तरफ खड़े हो जाते हैं।
ये झूठे व्यक्तित्व, ये जो फॉल्स पर्सनैलिटीज हैं, ये झूठे व्यक्तित्व सबसे बड़ी बाधा हैं परमात्मा के निकट आने में।
एक आदमी सुबह से उठ कर मंदिर चला जाता है, उस वक्त उसका चेहरा देखा? मंदिर में खड़े हुए उसे पहचाना? क्या यह वही आदमी है जो दुकान पर अभी मिला था? दफ्तर में अभी मिला था? आफिस में अभी मिला था? यह वही आदमी है यह जो चर्च में खड़ा है हाथ जोड़े?
लियो टालस्टाय एक दफा सुबह-सुबह, सर्दी के दिन थे, एक चर्च में गया। तो रूस का एक बड़ा विचारशील व्यक्ति था। अंधेरा था और एक गांव का सबसे बड़ा धनपति वहां खड़ा हुआ परमात्मा के सामने कनफेशन कर रहा था। वह अपने पापों का अपराध स्वीकार कर रहा था। और वह कह रहा था कि मैं बहुत बेईमान हूं, मैं बहुत चोर हूं, मैंने बहुत पाप किए हैं, परमात्मा मुझे क्षमा कर।
टालस्टाय ने अंधेरे में खड़े हुए, ये बातें सुन लीं। फिर वह आदमी बाहर निकला, टालस्टाय उसके पीछे हो लिया। सुबह होने लगी थी और सूरज निकल रहा था और बीच चौरस्ते पर जाकर टालस्टाय चिल्लाया कि रुको! जो बातें तुमने चर्च में कहीं हैं, मैं सब लोगों को बता दूं? उस आदमी ने कहा कि जबान बंद रखना, नहीं तो सांझ होने के पहले हवालात के अंदर बंद हो जाओगे। लेकिन टालस्टाय ने कहा कि तुम अभी चर्च में कहते थे कि मैं पापी हूं, मैं बेईमान हूं? उसने कहा:  बस, बंद। मुझे पता नहीं था कि तुम वहां मौजूद हो, मैं तो समझा, अकेला परमात्मा है। जो बातें परमात्मा के सामने कहीं हैं, वे लोगों के सामने कहने की नहीं हैं। और उसने कहा:  अगर इस बात को आगे बढ़ाया, तो मानहानि का मुकदमा चलेगा, और कठिनाई में पड़ जाओगे।
टालस्टाय ने लौट कर अपनी डायरी में लिखा कि आज मुझे पता चला गया कि परमात्मा से अकेले में जो बातें कहीं जाती हैं, वे सबके सामने नहीं कही जा सकती हैं।
ऐसे हमारे चेहरे हैं, ऐसे चेहरों को लेकर क्या हम सोचते हैं कि हम साक्षात कर सकेंगे सत्य का कभी? सत्य का साक्षात तो बहुत दूर, हम खुद ही सत्य नहीं हैं, तो सत्य का साक्षात कैसे होगा?
सत्य के साक्षात के लिए स्वयं का व्यक्तित्व तो सत्य होना ही चाहिए। हम जैसे हैं--जैसे हैं, बुरे और भले, छोटे और बड़े, जैसे भी हम हैं, हमें अपने वैसे होने को जानना चाहिए। और हमें, उस जैसे हम हैं, उस सहज केंद्र पर ही जीने को आवर्तित करना चाहिए, तो जीवन में सहजता होगी, कपट विलीन होगा।
कौन सी कठिनाई है कि हम सहज नहीं हो पाते हैं? कौन सी कठिनाई है? कौन सी बात रोकती है हमें कि हम सहज नहीं हो पाते? जरूर कोई बात रोकती है, अन्यथा सारी मनुष्य-जाति क्यों असहज होती? कोई बात रोकती है। वह बात है, विशिष्ट होने का खयाल रोकता है। समबडी होने का खयाल रोकता है। कुछ होने का खयाल रोकता है। हर आदमी को यह वहम है कि वह विशिष्ट है। और इस वहम की पूर्ति के लिए वह विशिष्ट रूप खड़े करता है। और इस वहम की, इस भ्रम की पूर्ति के लिए वह विशिष्ट होने की कोशिश करता है। इस सत्य को निरंतर जानते हुए भी कि जो विशिष्ट थे वे, और जो साधारण थे वे, जो सामान्यजन थे वे, और जो अति असाधारणजन थे वे, वे सब मिट्टी में धूल-धूसरित हो जाते हैं। वे सब मिट्टी में गिर जाते हैं और विलीन हो जाते हैं।
लेकिन, हरेक को यह खयाल है कि वह विशिष्ट हो जाए। और विशिष्ट होने से जो टेंशन और तनाव पैदा होता है जीवन में, वह असहज कर देता है। फिर हम जो नहीं होते, उसे दिखलाने की कोशिश करने लगते हैं। जो हममें नहीं होता, वह हम अभिव्यक्त करने करते हैं। जो हमारे भीतर नहीं होता, उसे हम बाहर से ओढ़ लेते हैं।
हम जैसे हैं वैसे को स्वीकार नहीं कर पाते, क्योंकि हम कुछ और दिखलाने की कोशिश से और प्रेरणा से भरे हुए हैं। लेकिन जो भी आंख खोल कर देखेगा, वह पाएगा, वह एक बात पाएगा, और वह बात बड़ी सीधी है, और वह यह है कि जो व्यक्ति जैसा है और जो है उससे अन्यथा न तो वह हो सकता है न कभी होने की संभावना है। दिखने की कोशिश कर सकता है और भ्रम में रह सकता है लेकिन हो नहीं सकता। गुलाब का फूल गुलाब का फूल है और चंपा का फूल चंपा का फूल है। और कोई कारण नहीं है कि चंपा का फूल गुलाब का फूल दिखने की कोशिश करे। और कोई कारण नहीं है कि नीम का वृक्ष आम का वृक्ष बनने की कोशिश करे। छोटे पौधे हैं और बड़े पौधे हैं, छोटे तारे हैं और बड़े तारे हैं, सारे जगत में जो जहां है और जैसा है, अगर वह अपने वहां होने को और वैसे होने को सहज भाव से स्वीकार कर ले, उसके जीवन में एक क्रांति हो जाएगी। और फिर कुछ होगा। और उसके भीतर कुछ विकसित होगा। लेकिन फिर वह उसके अहंकार के केंद्र पर विकसित नहीं होगा, फिर जैसे परमात्मा ही उसके भीतर काम करने लगेगा और कुछ होता चला जाएगा। अभी तो हम अहंकार के केंद्र पर कुछ होने की कोशिश करते हैं और अहंकार के केंद्र पर हम जो भी होने की कोशिश करेंगे, वह एक झूठे व्यक्तित्व से ज्यादा नहीं हो सकता है।
स्मरण रखें, अहंकार से प्रेरित होकर जो भी होगा वह एक झूठा व्यक्तित्व का निर्माण होगा और अहंकार शून्य होकर जो भी होगा, वह एक बहुत आत्यंतिक रूप से आत्मिक निर्माण होगा।
तो पहली बात, अहंकार के केंद्र पर कुछ होने की कोशिश भ्रांत है। सिकंदर वही करता है, नेपोलियन वही करता है, राजनीतिज्ञ वही करता है, धनपति वही करता है; जिसको हम कहते हैं, सच्चरित्र और चरित्रवान, सज्जन, साधु, वह भी वही करता है। अहंकार के केंद्र पर वह सारी कोशिश करता है।
कल ही किसी ने मुझसे कहा कि मैं बहुत अच्छा आदमी होना चाहता हूं। मैंने कहा:  क्यों लेकिन? आखिर तुम्हारी कौन सी जरूरत पड़ गई बहुत अच्छा आदमी होने की? एक आदमी बहुत धनी होना चाहता है, तो हम कहते हैं, यह पागल है। लेकिन एक आदमी कहता है कि मैं बहुत अच्छा आदमी होना चाहता हूं, महात्मा होना चाहता हूं। तो हम कहते हैं, यह बड़ा ऊंचा आदमी है। यह दौड़ बिलकुल एक सी है, दोनों का केंद्र अहंकार है। दोनों जैसे हैं सहज और सामान्य, वैसे होने को स्वीकार नहीं करते हैं।
एक बहुत अच्छे वस्त्र पहन कर खड़ा हो जाना चाहता है, एक बहुत अच्छा चरित्र ओढ़ कर खड़ा हो जाना चाहता है; लेकिन क्यों? दूसरों को नीचे दिखाने के लिए? दूसरों को पीछे छोड़ने के लिए? दूसरों को दुख देने के लिए? अहंकार का सारा सुख दूसरों को दुख देने पर खड़ा होता है।
एक आदमी बड़ा मकान बना लेता है, इससे थोड़े ही खुश होता है कि मैंने बड़ा मकान बनाया, इससे खुश होता है कि मैंने दूसरों के मकान छोटे कर दिए। अभी उसके बड़े मकान के बगल में एक बड़ा मकान खड़ा हो जाने दें, वह दुखी हो जाएगा। मकान उसका वही है, लेकिन दुख कैसे आ गया? किसी और ने उसके मकान को छोटा कर दिया। आप बहुत अच्छे कपड़े पहन कर थोड़े ही सुखी होते हैं, नहीं, दूसरों के कपड़ों को दरिद्र बना कर, नीचा बना कर सुखी हो जाते हैं।
दुनिया में इतनी दरिद्रता क्यों है? इतना दुख क्यों है? क्योंकि हर आदमी दूसरे को बिना दुखी किए सुखी होने का कोई उपाय ही नहीं जानता है। और अहंकार जो कुछ भी करेगा--एक सज्जन है, साधु-चरित्र व्यक्ति है, उसका भी जो सुख है वह सज्जनता और साधु-चरित्रता का नहीं है, वह दूसरों को दुर्जन और असाधु सिद्ध करके मजा ले रहा है। अगर सारे लोग उसी जैसे साधु हो जाएं, वह बड़ी परेशानी में और कष्ट में पड़ जाएगा। उसका सारा सुख और सारा मजा इस बात में है कि वह दूसरों को नीचे दिखा पा रहा है। किसी भी वजह से वह दूसरों को नीचे दिखा पा रहा है, लोगों को नीचा कर पा रहा है।
अहंकार एक ही सुख जानता है, दूसरों को नीचे करने का सुख। आत्मा एक ही सुख जानती है, किसी को नीचे-ऊपर करने का सुख नहीं जानती, बल्कि स्वयं के भीतर जो भी छिपा है, उसे प्रकट और अभिव्यक्त करने का सुख। लेकिन आत्मा के गति और आत्मा के केंद्र पर विकास तभी हो सकता है जब अहंकार के केंद्र पर हमारी गति और विकास बंद हो जाए। हम सब उसी केंद्र पर दौड़े चले जाते हैं इस बात की बिना फिकर किए, आंखें खोले बिना कि कितने लोग उस तल पर दौड़ते हैं लेकिन कहां पहुंचते हैं? कहां पहुंचते हैं? और मनुष्य के अहंकार के लिए कारण भी कहां है? कौन सा कारण है मनुष्य के अहंकार के लिए? लेकिन मनुष्य बड़ा अहंकारी है।
बर्नार्ड शा से किसी ने पूछा कि क्या आप यह मानते हैं कि जमीन सूरज का चक्कर लगाती है? बर्नार्ड शा ने कहा:  यह मैं कभी मान ही नहीं सकता। पूछने वाले ने कहा:  आपके मानने, न मानने का कहां सवाल है, यह तो सिद्ध है और प्रमाणित है कि जमीन सूरज का चक्कर लगाती है। उसने कहा:  जरूर इसमें कुछ गलती होगी, बर्नार्ड शा जिस जमीन पर रहता है वह कहीं सूरज का चक्कर लगा सकती है, सूरज ही जमीन का चक्कर लगाता होगा।
बात तो उसने बड़े व्यंग्य में कही, लेकिन कही तो मतलब की है।
मनुष्य से पूछिए, मनुष्य की किताबों में लिखा है कि मनुष्य जो है परमात्मा की सर्वश्रेष्ठ कृति है। यह किसने तुम्हें बताया? या खुद तुम ही कहे चले जा रहे हो? सारे पशु-पक्षियों से ऊपर ये ही हैं, भगवान ने इनके लिए विशेष रूप से बनाया है। कौन तुमको कहता है?
अभी कल ही मैं कह रहा था कि एक पति ने जाकर अपने मित्रों को कहा कि मेरी स्त्री से ज्यादा सुंदर और कोई भी नहीं है। उन मित्रों ने पूछा, किसने तुम्हें बताया? उसने कहा:  मेरी स्त्री ने ही बताया। उस पर लोग हंसे। लेकिन मनुष्य निरंतर हजारों वर्ष से यह दोहरा रहा है कि हम सर्वश्रेष्ठ कृति हैं परमात्मा की। कोई इस पर हंसता नहीं। क्योंकि हम सभी मनुष्य इसमें सहमत हैं। हम सभी इसमें सहमत हैं। किसने यह कहा आपसे? कौन बता गया यह आपको?
मनुष्य के अहंकार की सीमा नहीं है। शक्ति क्षुद्र है और ना-कुछ है। एक श्वास आती है और लौट कर न आए, तो हमारा वश नहीं है। लेकिन नहीं, जरा सा ताप बढ़ जाए, तो हम समाप्त हो जाएंगे। जरा सी शीत बढ़ जाए, तो हम समाप्त हो जाएंगे। कब जमीन टूट जाए, कब सूरज ठंडा हो जाए, हम समाप्त हो जाएंगे। और हमारे समाप्त होने की इस विराट विश्व में कहीं भी कोई सूचना नहीं निकलेगी, कोई अखबार में खबर नहीं छपेगी। कहीं कोई पता नहीं चलेगा कि एक पृथ्वी पर मनुष्यों की एक छोटी सी जाति थी वह समाप्त हो गई। कहीं कोई खबर भी पता नहीं चलेगी। ये तीन अरब आदमी यहां ठंडे हो जाएं, तो यह जो विराट जगत है, जिसकी सीमाओं का भी हमें कोई पता नहीं, इसमें कहीं कोई लहर भी कंपित नहीं होगी कहीं कोई संवेदना की, सभा भी नहीं होगी, कहीं कोई शोक-प्रस्ताव भी नहीं होंगे, कहीं कुछ भी नहीं होगा, पता भी नहीं चलेगा।
हमें पता चलता है जब कोई घर में एक चींटी मर जाती है? हमें पता चलता है जब कि कोई घास का एक पौधा सुख जाता है? इससे ज्यादा और कुछ भी पता नहीं चलेगा पूरी मनुष्य-जाति समाप्त हो जाए तो भी। आज है भी, तो भी कहीं कोई पता नहीं है। वहां तो इटरनल साइलेंस है चारों तरफ। और जहां तक हमारी आंखें बढ़ती हैं, और जहां तक देखने की हमारी क्षमता बढ़ती है, हम पाते हैं कि हम कितने छोटे हैं।
एक वक्त था कि हम बहुत बड़े थे, जैसे-जैसे हमारी समझ बढ़ी है हम छोटे होते चले गए हैं। जमीन तो कुछ भी नहीं है, आदमी तो कुछ है ही नहीं। जमीन से बड़ा, साठ हजार गुना बड़ा सूरज है। और सूरज सबसे छोटा सूरज है इस सारे जगत में। ऐसे कोई दो करोड़ सूरज, हम पता लगा सके हैं। उनके पार भी अनंत विस्तार है। और उनके पार भी कितने सूरज होंगे, कुछ कहा नहीं जा सकता। और सीमा कहीं होगी यह तो असंभव है, क्योंकि सीमा तो तभी हो सकती है जब दूसरी दुनिया शुरू हो जाए आगे। सीमा से तो हमेशा दूसरी चीज शुरू हो जाती है। जहां आपका घर समाप्त होता है, दूसरे का घर शुरू हो जाता है। जहां आपका खेत समाप्त होता है, दूसरे का खेत शुरू हो जाता है। सीमा तो हमेशा दो के बीच होती है, इसलिए इस विश्व की कोई सीमा तो हो नहीं सकती, नहीं तो दूसरा विश्व शुरू हो जाएगा। दूसरा समाप्त होगा, तीसरा शुरू हो जाएगा। उससे कोई मतलब हल नहीं होगा।
विश्व की कोई सीमा तो हो नहीं सकती। यह जो असीम जगत है, जिसमें ये छोटे-छोटे से बिंदु हैं--पृथ्वी के, सूरज के, और इनके बीच अनंत खड्ड हैं, खाइयां हैं, जहां कुछ भी नहीं है, वहां एक छोटा सा मनुष्य है, जिसके अहंकार का हिसाब नहीं। जो अपने झंडे ऊंचे किए जाता है डंडों पर लगा-लगा कर। और चिल्लाता है, और उन झंडों के लिए मरता है और मारता है, और जिसके दंभ की कोई सीमा नहीं। दंभ के लिए कोई भी कारण नहीं है। एक पत्ते के लिए कोई कारण नहीं है, एक बूंद के लिए कोई कारण नहीं है। आपके लिए, मेरे लिए भी कोई कारण नहीं है। अगर हम आंख खोल कर देखेंगे, तो हम पाएंगे, अहंकार के लिए कोई भी तो कारण नहीं है। कोई भी तो कारण नहीं है। लेकिन जीवन भर हम अहंकार के लिए कारण खोजते हैं। और शक्ति हमारी इतनी अल्प है, न जीवन पर कोई वश है, न मृत्यु पर कोई वश है। चीजें हमारे भीतर होती हैं, लेकिन हम भ्रमवश कहते हैं कि मैं कर रहा हूं।
किसी से आपको प्रेम हो जाता है, तो आप कहते हैं कि मैं प्रेम कर रहा हूं। कभी किसी ने प्रेम किया है? प्रेम हुआ है। क्रोध आपको आ जाता है, आप कहते हैं कि मैं क्रोध कर रहा हूं। कभी किसी ने क्रोध किया है? क्रोध हुआ है। आप कहते हैं, मेरा जन्म-दिन! आपका कोई जन्म-दिन है? आपने कोई तय किया था? आपसे किसी ने पूछा था? कोई किसी का जन्म-दिन नहीं, कोई किसी का मृत्यु-दिवस नहीं; जीवन आता है और जाता है। जैसे सागर पर लहरें उठती हैं और विलीन हो जाती हैं। अगर लहरों को भी पता हो, तो उठने को वे कहेंगी, जन्म-दिन, और गिरने को कहेंगी, मृत्यु-दिवस। जो जरा ज्यादा ऊंची उठ जाएंगी, वे संगमरमर की कब्रें बनवाएंगी। जो जरा और ज्यादा ऊंची उठ जाएंगी, वे अपनी आत्मकथाएं लिखेंगी। जो जरा और ज्यादा ऊंची उठ जाएंगी, उनके नाम पर झगड़े होने शुरू हो जाएंगे कि ये भगवान की विशेष अवतार थीं। लेकिन लहरों से ज्यादा जीवन में और कुछ भी नहीं है। पत्ते आते हैं और पतझड़ में झड़ जाते हैं। और मनुष्य पैदा होता है और विलीन हो जाता है।
अगर जीवन को आंख खोल कर देखेंगे, बिना किसी पूर्वाग्रह के, और मनुष्य के बहुत पूर्वाग्रह हैं, न मालूम क्या-क्या अपने को समझे हुए हम बैठे हैं। अगर हम थोड़ा आंख खोल कर और निष्पक्ष होकर देखेंगे, तो पाएंगे, अहंकार के लिए तो कोई भी कारण नहीं। मेरे भीतर भी जीवन ने एक शाखा को विकसित किया है, किसी भी दिन खींच लेगा। आपके भीतर भी जीवन ने एक पंखुड़ी खोली है, किसी भी दिन भी बंद हो जाएगी, कुम्हला जाएगी और गिर जाएगी।
आप कहां हैं? जीवन है और लाइफ फोर्स है, आप कहां हैं? मैं कहां हूं? एक-एक पत्ते को होश आ जाए तो वह चिल्लाने लगे कि मैं कुछ हूं। और जो पत्ता ऊपर की शाखा पर खिला है वह नीचे की शाखा वाले से कहे कि तू शूद्र है और हम ब्राह्मण हैं, या कि हम क्षत्रिय हैं, या कुछ और, पागलपन कई तरह के हैं। लेकिन नीचे की शाखा पर जो पत्ता खिला है वह भी उसी तरह परमात्मा से खिल रहा है जैसे ऊपर की शाखा पर। और परमात्मा के जगत में कोई ऊपर की और नीचे की शाखा नहीं है, क्योंकि ऊपर और नीचे वहां हो सकता है जहां विश्व की सीमा हो। जहां कोई सीमा नहीं वहां कोई ऊपर और नीचे कैसे हो सकता है? सीमा हो तो कोई ऊपर और नीचे हो सकता है, लेकिन जहां सीमा न हो वहां ऊपर-नीचे नापिएगा कैसे कि कौन नीचे कौन ऊपर? कहीं कोई ऊपर सीमा हो, आपके घर का ऊपर छप्पर है, तो आप एक छोटी कुर्सी रखते हैं और एक बड़ी कुर्सी, तो नापने का उपाय है। छप्पर से जो कुर्सी करीब है वह ऊंची, जो कुर्सी दूर है वह नीची। लेकिन जहां कोई छप्पर न हो, वहां कौन नीचे? कौन पीछे? कौन आगे? जहां ओर-छोर न हो, वहां कोई आगे नहीं है, कोई पीछे नहीं है, कोई नीचे नहीं है, कोई ऊपर नहीं है। ये सारी ऊपर-नीचे की कल्पनाएं हमारी कल्पनाएं हैं जो हम जबरदस्ती थोपे हुए हैं।
एक कंकड़ भी वैसे ही परमात्मा की अभिव्यक्ति है, वैसी ही अनूठी। एक पक्षी भी वैसी ही अनूठी कृति है। एक पौधे में भी वैसा ही अनूठा व्यक्तित्व उठा है, जैसा आप में या किसी और में, या कृष्ण में, या राम में, या बुद्ध में, या महावीर में। कोई ऊंचा-नीचा नहीं है। लाइफ फोर्स, जीवन की शक्ति अनंत-अनंत रूपों में अभिव्यक्त होती है, विलीन होती है, अभिव्यक्त होती है, लहरें उठती हैं और जाती हैं। इसमें आप कहां हैं? मैं कहां हूं? लेकिन हम बहुत घनीभूत रूप से होकर बैठ गए हैं कि हम हैं, मैं हूं। और यह मेरा होना हमें असहज किए जाता है, हमें जीवन की सहजता को स्वीकार नहीं करने देता।
एक फकीर हुआ, नानईन। जापान में हुआ कोई हजार वर्ष पहले। जापान का बादशाह उससे मिलने गया। वह अपनी बगिया में बाहर गङ्ढे खोद रहा था। बादशाह ने सोचा था कोई बहुत विशिष्ट महापुरुष होगा, जिसके सिर के चारों तरफ, प्रकाश का आवृत बना होगा। साधु-संतों के बना रहता है। पहले से ही फोटोग्राफर को कह रखते हैं, बना देना। पुराने दिनों में फोटोग्राफर तो होते नहीं थे, चित्रकार होते थे, वे बना देते थे। तो उसने सोचा था कि इतना महापुरुष है, तो कोई प्रकाश चारों तरफ इसके मुखमंडल के आवृत बना होगा। जाकर गङ्ढा खोदते आदमी से उसने पूछा कि महात्मा नानईन से मिलना चाहता हूं।
तो उसने कहा:  यहां तो कोई महात्मा रहते ही नहीं; एक नानईन नाम का आदमी रहता है।
तो उसने कहा:  तू बहुत अशिष्ट मालूम होता है। कहां है वह?
तो उसने कहा:  महात्मा का तो मुझे कोई पता नहीं, नानईन का मुझे पता है, कहिए तो बता दूं?
उसने कहा:  कहां है?
तो उसने कहा:  मैं ही हूं।
राजा हैरान हुआ! समझा कि यह पागल, यह क्या नानईन होगा, जो गङ्ढा खोद रहा है दरवाजे के बाहर बैठा हुआ? और कहता है, यहां कोई महात्मा रहते ही नहीं, मुझे तो पता ही नहीं, मैं तो यहां कई साल से रहता हूं। यहां तो एक नानईन नाम का आदमी रहता है।
लेकिन राजा के वजीर ने कहा कि मैं एक दफा और देख कर गया था, यही आदमी मालूम होता है। वह तो एक लंगोटी सी लगाए हुए गङ्ढा खोद रहा है। तो राजा बड़ा हैरान हुआ! उसने सोचा मन में कि यह तो उचित नहीं कि ऐसे आदमी से मिलने और मैं और आया। लेकिन अब आ ही गया हूं तो इससे थोड़ी-बहुत बात कर लूं। तो उसने उस नानईन से पूछा कि तुम्हारी साधना क्या है?
उसने कहा:  साधना! यह शब्द मैंने सुना ही नहीं। मैंने कभी कुछ साधना की नहीं। आप गलती से कहीं आ गए, और कहीं जाइए। किसी साधु के पास जाइए, मैं क्या साधना-वगैरह।
फिर भी आप करते क्या हैं?
उसने कहा:  जब मुझे भूख लगती है, मैं खाना खाने की कोशिश करता, और जब नींद आ जाती, तो सो जाता हूं, जब नींद खुल जाती, तो उठ जाता हूं, और तो मैंने कुछ किया नहीं।
उस राजा ने कहा कि यह तो हम भी करते हैं।
नानईन ने कहा कि जहां तक मैं समझता हूं, यह आप नहीं करते होंगे, नहीं तो मेरे पास क्यों आते। यह आप नहीं करते होंगे। नहीं तो मेरे पास आने का कोई कारण नहीं था।
जिसने जीवन को इतनी सरलता से लिया हो कि भूख लगे तो खाना ले, नींद आए तो सो जाए, नींद खुल जाए तो उठ आए। और जिसने जीवन पर जबरदस्ती थोपा न हो कुछ, जो इतना सहज हो गया हो, क्योंकि थोपने का कृत्य अहंकार का कृत्य है। वह कहता है, ब्रह्ममुहूर्त में उठना, चाहे नींद खुले, चाहे न खुले। अहंकार का कृत्य है। वह कहता है, इतना खाना, इतना मत खाना, यह उपवास करना, वह उपवास करना, यह मंत्र पढ़ना, यह किताब पढ़ना, इस तरह उठना, यह टीका लगाना, इस तरह का माला पहनना, यह सब वह।
जीवन की सहजता को स्वीकार नहीं करता अहंकार, उसमें फर्क लाता है, काट-छांट लाता है। जीवन जैसा अपने से विकसित होता है सहज, उसे वह स्वीकार नहीं करता। और इसलिए फिर एक क्रिपिल्ड और अग्ली, एक पंगु और कुरूप व्यक्तित्व का जन्म होता है, जिसे हमने चारों तरफ से ठोंक-ठोंक कर बिठाया। चारों तरफ से जबरदस्ती जिसको हमने बांधा और एक ढांचे में खड़ा किया, फिर अशांति होती है, दुख होता है। तो फिर हम शांति की खोज में हिमालय जाते हैं। फिर दुख होता है, तो हम सोचते हैं, कोई गुरु के आशीर्वाद से ठीक हो जाए। लेकिन हम यह नहीं देखते कि जीवन असहज होता है, इसलिए दुख और अशांति होती है।
कोई पौधा दुखी नहीं है और कोई पक्षी नहीं है। मनुष्य बहुत दुखी है। मनुष्य ने जीवन के ऊपर ढांचे थोपने शुरू किए हैं, हजार तरह के ढांचे थोपता है। और अपने को जिस तरह का वह बांधने का, सम्हालने का सब तरफ से प्रयास करता है। उसके सब प्रयास, जीवंत जो शक्ति है उसके भीतर, उसके विरोध में खड़े हो जाते हैं, और उस जीवन की धारा को प्रवाह देने लगते हैं।
एक नदी बहती है, तो बही चली जाती है। जहां मार्ग मिलता है, जहां ढलान होती है, बही चली जाती है। अगर नदियों को खयाल आ जाए कि किस रास्ते पर बहना चाहिए, किस ढंग से बहना चाहिए, किस मिट्टी के करीब से बहना चाहिए, किस पहाड़ से दूर रहना चाहिए, और कौनसा काम करना चाहिए, नहीं करना चाहिए, फिर कोई नदी सागर तक नहीं पहुंच सकेगी। फिर कोई नदी सागर तक नहीं पहुंच सकेगी। लेकिन सभी नदियां सागर तक पहुंच जाती हैं। जहां उनकी जीवंत गति ले जाती, चुपचाप चली जाती है।
जिस व्यक्ति को परमात्मा के सागर तक पहुंचना हो, उसे सरिताओं की भांति हो जाना चाहिए। पटरियों पर दौड़ती हुई रेलगाड़ियों की भांति नहीं। कि पटरियां पहले बिछा दें और फिर रेलगाड़ियां उस पर चला दिए। नहीं, सरिताओं की भांति जिनका का कोई मार्ग निर्णीत नहीं, और जिनकी जीवंत शक्ति जहां मार्ग पाती है बही चली जाती है, अत्यंत सहजता से। लेकिन हम सब लोगों का जीवन रेलगाड़ियों की भांति है जो बिछी हुई पटरियों पर दौड़ रहे हैं। बिछी हुई पटरियों पर जो व्यक्ति दौड़ रहा है वह असहज हो जाएगा। लेकिन मेरी बात सुन कर घबड़ाहट होगी कि हम अगर बिलकुल सहज हो गए, तब तो पशु हो जाएंगे। अगर हम बिलकुल सहज हो गए, तो फिर तो सब गड़बड़ हो जाएगा, फिर हम मनुष्य कैसे रहेंगे?
निश्चित ही, अगर बिलकुल सहज हो जाएं, तो मनुष्य तो नहीं रह जाएंगे, लेकिन पशु नहीं होंगे, परमात्मा हो जाएंगे। पशु की सहजता बोधपूर्वक नहीं है, आपकी सहजता अत्यंत बोधपूर्वक होगी, कांशस होगी, होशपूर्वक होगी। और जहां परिपूर्ण होश के साथ जीवन की सहजता को स्वीकार कर लिया जाता है, जीवन अपने आप ही उन श्रेष्ठतम दिशाओं की और गतिमान होने लगता है। जिनकी और हम लाख उपाय करते, तो भी गतिमान नहीं हो सकता था।
ऐसे व्यक्ति को जिसने सब भांति सहज जीवन को अंगीकार कर लिया, मैं साधु कहता हूं। ऐसे व्यक्ति को मैं साधु कहता हूं, जिसने जीवन की सहजता को स्वीकार कर लिया। और जिसने अपने अहंकार की जो काट-छांट थी, और अहंकार की हर तरफ जो रुकावट थी, उससे अपने को मुक्त कर लिया। और उसने मान लिया कि जो होना है उसे हो जाने देना है।
अभी हमें डर लगेगा, क्योंकि हमारी हजारों साल की पूरी परंपराएं हमसे यह कहती हैं कि यह तो बड़ा मुश्किल हो जाएगा। लेकिन कभी जीकर देखें, घड़ी, आधी घड़ी, दिन, दो दिन को, कभी एकांत में महीने, दो महीने को इतने सहज, जैसे आप एक पशु हैं, एक पक्षी हैं, एक पौधा हैं। जीकर देखें और पाएं कि आपके भीतर कैसे अदभुत शांति के लोक खुलते चले जाते हैं।
और बड़े आश्चर्य की बात है, जितना सहज और शांत व्यक्तित्व होगा, जिनको हम बुराई कहते हैं और विकार कहते हैं, वे उसमें उठने बंद हो जाते हैं। वे उसमें उठते भी नहीं। वे उठते हैं असहज व्यक्तित्व में।
स्पांटेनियस, अत्यंत सहज जीवन को समझना, जानना और गतिमान होने देना पहला सूत्र है कि परमात्मा आए।
दूसरा सूत्र है: अद्वंद्व। चित्त में कांफ्लिक्ट न हो, द्वंद्व न हो। चित्त में विरोधी स्वर न हो।
हमारे चित्त में बहुत विरोधी स्वर हैं। एक स्वर कुछ कहता है, दूसरा स्वर कुछ कहता है। दोनों के बीच लड़ते हैं। और जब हमारे ही दोनों स्वर हों, तो लड़ाई का क्या हल हो सकता है? अगर मेरे ही दोनों हाथ आपस में लड़ें, तो क्या होगा? कोई जीतेगा? कोई हारेगा? कोई जीतेगा नहीं, कोई हारेगा नहीं। लड़ाई जीवन भर चलेगी, हार-जीत कुछ भी नहीं होगी। एक बात हो जाएगी, दोनों हाथों की लड़ाई में मैं टूटता चला जाऊंगा। क्योंकि दोनों हाथ मेरे हैं और दोनों में मेरी शक्ति ही लड़ती है। दोनों तरफ से मेरी शक्ति लड़ती है, दाएं हाथ से भी मेरी और बाएं हाथ से भी मेरी। चाहे दायां बुरा हो और बायां अच्छा हो, चाहे बायां बुरा हो, चाहे दायां अच्छा हो। दोनों हालत में मेरी शक्ति ही दोनों तरफ से लड़ती है। हाथ तो कोई जीत नहीं सकते, क्योंकि दोनों मेरे हैं, हार-जीत कुछ निर्णय नहीं हो सकता, एक बात तय है कि दोनों कि लड़ाई में मेरी शक्ति का अपव्यय होता है।
चित्त में लेकिन हमने बहुत द्वंद्व खड़े कर लिए हैं, शुभ के, अशुभ के; भले के, बुरे के; यह अच्छा है, वह बुरा है; यह नीति है, वह अनीति है; यह पाप है, वह पुण्य है; और हम लड़ रहे हैं चौबीस घंटे। मैं आपको स्मरण दिला दूं, लड़ने वाला चित्त ही एकमात्र पाप है। भीतर जिसने सारी लड़ाई को विसर्जित कर दिया है, वह चित्त एकमात्र पुण्य है। लेकिन जब तक हमें यह खयाल नहीं है कि लड़ने में दोनों तरफ मैं ही हूं, तब तक लड़ाई बंद नहीं हो सकती है।
जब आपके भीतर क्रोध उठता है, तो क्रोध के भीतर शक्ति किसकी जाती है? आपकी। और जब आपके भीतर क्रोध का पश्चात्ताप उठता है, तो किसकी शक्ति जाती है? आपकी। जब आप क्रोध में होते हैं, तब भी आपकी शक्ति व्यय होती है और जब आप क्रोध के खिलाफ लड़ते हैं, तब भी आपकी ही शक्ति व्यय होती है। क्रोध में टूटते हैं, फिर क्रोध से लड़ने में टूटते हैं। और लड़ने से क्रोध कभी समाप्त हुआ है आज तक किसी का? इसके ऊपर खयाल भी नहीं करते कि लड़ने से कभी क्रोध समाप्त नहीं हुआ। बल्कि यह लड़ने वाला चित्त जो है यह क्रोधी चित्त है। नहीं तो क्रोध ही न हो तो लड़े कैसे? अपने क्रोध से लड़ना भी क्रोध का ही उपक्रम है। चित्त में लोभ है, तो लोभ से लड़ते हैं; अलोभ को साधते हैं। चित्त में झूठ है, तो झूठ से लड़ते हैं; सत्य को साधते हैं। लेकिन झूठ किसका है? लोभ किसका है? आपका। लड़ने वाला कौन है? आप। बड़ी हैरानी की बात है! किससे लड़ रहे हैं? और इस लड़ाई में कैसे हल होगा? क्या यह वैसी ही भ्रांत लड़ाई नहीं है, जैसे कोई आदमी अपने कमरे में बंद हो जाए और तलवारें उठा लें और लड़ने लगे अपने से ही। क्या होगा? सुबह तक क्षत-विक्षत हो जाएगा। खुद के हाथ-पैर तोड़ लेगा। लेकिन जीत क्या होगी? जीतेगा किससे? कोई दूसरा मौजूद ही नहीं है, लड़ किससे रहे हैं आप? आप अकेले हैं।
इस तथ्य को जानना जरूरी है कि मैं अकेला हूं अपने जीवन में, लड़ किससे रहा हूं? जिससे मैं लड़ रहा हूं वह मेरा ही अंश होगा, मेरा ही खंड होगा। इस भांति हर लड़ाई मेरे व्यक्तित्व को खंडित करेगी, डिसइंटिग्रेटिड करेगी, तोड़ देगी, व्यक्तित्व टुकड़े-टुकड़े हो जाएगा, मैं अपने भीतर ही कई आदमी हो जाऊंगा। और हर आदमी कई आदमी हो गया है। जब यह सीमा बहुत ज्यादा बढ़ जाती है, आदमी पागल हो जाता है। खुद ही कई आदमी है वह। होना चाहिए एक आदमी, कई आदमी नहीं। यह जो मल्टी-साइकिक बीइंग हमारे भीतर पैदा हो जाता है, बहुचित्तता पैदा हो जाती है, यही तो खतरा है, यही तो जीवन को क्षीण करता और तोड़ देता।
तो क्या करें?
पहली बात तो यह जानें कि मेरे भीतर मैं अकेला हूं, इसलिए लडूंगा किससे? इससे लड़ाई का तो सारा खयाल ही छोड़ दें।
फिर क्या करें?
फिर हमको घबड़ाहट होती है। इसका तो मतलब यह हुआ कि क्रोध हो, तो हम क्रोध करें और लोभ हो, तो हम लोभ करें।
नहीं, इसका यह मतलब नहीं होता।
क्रोध हो, तो क्रोध को जानें; लड़े नहीं। लोभ हो, तो लोभ को जानें; लड़े नहीं। मेरा लोभ है, मेरा क्रोध है, मैं जानूंगा, पहचानूंगा। क्यों है? क्या है? लडूं क्यों? जैसे मुझे दो आंखें मिली हैं, दो हाथ मिले हैं, वैसे ही मुझे क्रोध भी मिला है। जरूर प्रकृति में उसका कोई उपयोग होगा, कोई अर्थ होगा, अन्यथा अकारण कुछ मिलता नहीं। अगर मुझे लोभ मिला है, तो उसका भी कोई अर्थ होगा। अगर मुझे भय मिला है, तो उसका भी कोई अर्थ होगा, जीवन संरक्षण में और विकास में उसका कोई प्रयोजन होगा। लडूं क्यों? उसे जानूं और पहचानूं और उसकी शक्ति को खोजूं।
बड़े हैरानी की बात है, जो व्यक्ति अपने क्रोध को जानने में लग जाएगा वह क्रोध के भीतर ही उस शक्ति को उपलब्ध कर लेगा जो करुणा बन जाती है। जो व्यक्ति अपने लोभ को समझने में लग जाएगा, वह लोभ के भीतर ही उस शक्ति को उपलब्ध कर लेगा, जो अलोभ और दान बन जाती है।
क्या आपको पता है, बीज फूल का हम बोते हैं, तो बीज के ऊपर एक सख्त खोल होती है, और उसके भीतर बीज का प्राण होता है। वह सख्त खोल बीज के प्राण की रक्षा करती है। अगर हम उस सख्त खोल को देख कर कहें कि यह सख्त खोल से फूल का क्या संबंध होगा? और सख्त खोल को नष्ट कर दें, तो बीज भी नष्ट हो जाएगा। लेकिन हम जानते हैं, सख्त खोल का भी प्रयोजन है। वह भीतर जो अत्यंत कोमल प्राणत्तंतु छिपा है उसकी रक्षा कर रही है। जितना कोमल प्राणत्तंतु होता है बीज के भीतर, उतनी ही सख्त खोल होती है। लेकिन हम उसे जमीन में बो देते हैं, जब जमीन में वह प्राणत्तंतु विकसित होने लगता है, सख्त खोल अपने आप टूट जाती है और विलीन हो जाती है और प्राणत्तंतु बाहर निकल आता, और पौधा बन जाता, और फूल पैदा होने लगते हैं।
मैं आपको यह निवेदन करना चाहता हूं, आपके लोभ की खोल के भीतर, आपके क्रोध की खोल के भीतर बड़े दूसरे प्राणत्तंतु छिपे हैं। लेकिन अगर आप खोल से ही लड़ने लगे, तो उन प्राणत्तंतुओं को आप कभी विकसित न कर पाएंगे। खोल से लड़िए मत, समझिए। जो कुछ भी है जीवन में अकारण नहीं है, उसकी उपयोगिता है, उसकी उपादेयता है। लेकिन झूठी, तथाकथित मॉरेलिटी और नैतिकता और शिक्षा उसकी उपादेयता को इनकार कर देती है। और हम उससे लड़ना शुरू कर देते हैं। खोल से ही लड़ना शुरू कर देते हैं। और जो खोल से लड़ने लगता है, उसके जीवन में मुश्किल खड़ी हो जाती है, कांफ्लिक्ट खड़ी हो जाती है।
तो मैं कहता हूं, क्रोध को खोजिए, क्रोध अदभुत शक्ति है। क्रोध के भीतर बहुत कुछ छिपा है। लेकिन जो द्वार से ही लौट आया खोल कर देख कर वह कभी भीतर नहीं गया, वह क्रोध के महल में क्या छिपा था, पता भी न कर पाएगा। क्रोध तो व्यवस्था थी कुछ चीज को छिपा रखने की भीतर।
क्या आपको पता है, जिन लोगों में क्रोध नहीं होता, उनके जीवन में व्यक्तित्व ही नहीं होता। क्या आपको पता है, जिन लोगों के जीवन में भय नहीं होता, वे ईडियट हैं, जड़बुद्धि हैं। वे मर जाएंगे, वे जी नहीं सकते। जीवन की सुरक्षा नहीं हो सकती उनकी। सांप आ रहा होगा, तो वहीं खड़े रहेंगे। मकान गिर रहा होगा, तो वहीं बैठे रहेंगे। मकान में आग लग जाएगी, तो और सो जाएंगे। अगर उनके जीवन में भय न हो...फियर है, कोई सुरक्षा है भीतर। लेकिन अगर हम भय में प्रवेश करें और समझने की कोशिश करें, तो हम पाएंगे कि भय तो जीवन की रक्षा का एक उपाय है। और जितना हम भय के भीतर प्रवेश करेंगे, और भय को समझने की कोशिश करेंगे, जितना हम भय को समझते जाएंगे, उतने हम अभय को उपलब्ध होते चले जाएंगे। जो व्यक्ति भय को समझ लेता है, वह अभय को उपलब्ध हो जाता है। और जो व्यक्ति भय से लड़ने लगता है, वह नये तरह के भय खड़े कर लेता है।
एक फकीर हुआ चीन में, उसने भय से लड़ाई छेड़ दी अभय को पाने के लिए। उसने मनुष्यों की बस्ती छोड़ दी, दूर जंगल में जहां जंगली जानवर, रीछ और भालू और शेर और सिंह थे, वहां रहने लगा, जहां सांप थे वहां रहने लगा। उसने कहा कि भय छोड़ना ही है, तो अभ्यास करना पड़ेगा अभय का। उसने जरूर अभय को उपलब्ध कर लिया उस तरह का। एक वक्त आ गया कि सारे चीन में उसकी ख्याति पहुंच गई। सारे चीन में उसकी ख्याति पहुंच गई। लोग उसके दर्शन को जाने लगे। उसके गले में से सांप लपट जाए, तो वह कंपता भी नहीं था। उसके पीछे आकर उसको भेड़िया धक्का दे दे, तो वह लौट कर भी नहीं देखता था। उसके झाड़ के पीछे से सिंह गर्जना करने लगे, तो उसकी पलकें नहीं झपती थीं। ऐसा वह फियरलेस हो गया। ऐसा वह भय-शून्य हो गया।
एक नवयुवक भिक्षु उससे मिलने गया। वह भिक्षु जब उससे मिल रहा था, एक चट्टान के पास पीछे से आकर किसी जंगली जानवर ने जोर की गर्जना की, वह भिक्षु एकदम उठ कर खड़ा हो गया, वह युवा भिक्षु जो मिलने आया था, घबड़ा कर खड़ा हो गया।
उस वृद्ध फकीर ने कहा:  डरते हो? भय खाते हो? अगर भय खाते हो, तो स्मरण रखो, परमात्मा को कभी नहीं पा सकते, सत्य को कभी नहीं पा सकते। जो भयभीत है, वह कैसे पाएगा?
उस युवक ने कहा:  मैं तो बहुत घबड़ा गया हूं। मुझे एकदम से प्यास लग आई घबड़ाहट में, आप थोड़ा पानी ला देंगे?
वह वृद्ध उठा और अपने झोपड़े में भीतर गया पानी लेने। जब वह पानी लेकर बाहर आया, उस नये भिक्षु ने, उस युवा भिक्षु ने, जिस चट्टान पर वह बैठा था, वहां लिख दिया--नमो बुद्धाय। एक पत्थर से उठा कर लिख दिया--नमो बुद्धाय। जैसे वह वृद्ध भिक्षु आया और पैर रखने लगा, उसका पैर कंप गया और वह नीचे उतर गया और उसने कहा:  यह तुमने क्या किया?
पर उसने कहा:  डरते तो आप भी हैं। और मैं तो सिंह से डरा था, जो कि बिलकुल वास्तविक था, और यहां सिर्फ मैंने "नमो बुद्धाय' लिख दिखा, बुद्ध का नाम लिख दिया, उस पर पैर रखने से डरते? तो जो डरता है, वह मोक्ष को कैसे पा सकेगा?
इस आदमी ने अभय को नहीं पाया है, इसने केवल भय को ट्रांसफर कर लिया, रूपांतरित कर लिया। यह अब बुद्ध से डरने लगा, राम से डरने लगा, भगवान से डरने लगा। लेकिन भगवान से, राम से और बुद्ध से डरना बिलकुल काल्पनिक है और सिंह से डरना एकदम वास्तविक है। सिंह के भय से जीवन संवर्धन होता है, राम के भय से जीवन संवर्धन नहीं होता। यह काल्पनिक है बिलकुल। लेकिन भय मौजूद है। भय से लड़ाई करके उसने दूसरे भय को खड़ा कर लिया। वह भय हमें दिखाई नहीं पड़ेगा। कोई नरक से डर रहा है, कोई किसी से डर रहा है और चरित्रवान बना हुआ है। वह भय हमें दिखाई नहीं पड़ता कि वह भय है।
मैं आपसे कहता हूं, भय से लड़ कर कोई अभय को कभी उपलब्ध होता नहीं। भय को जान कर अभय को उपलब्ध होता है। भय की जो वृत्ति है भीतर, उसे हम जानें, उसके प्रति पूरे कांशस हो जाएं, पूरे सचेत हो जाएं, लड़ने की कोई जरूरत नहीं है। और जैसे-जैसे आप भय को जानेंगे, भय की जो व्यर्थता है वह विलीन हो जाएगी और जो सार्थकता है वह जीवन के लिए सहयोगी हो जाएगी। सहयोगी हो जाएगी जीवन के लिए।
बुद्ध भी चलेंगे, तो जहां कांटा पड़ा होगा, वहां से दूर पैर रखेंगे। क्यों? स्वाभाविक है, जीवन सुरक्षा है, कांटे पर पैर रखने का कोई मतलब नहीं है। बुद्ध को भी आप थाली में भोजन परोसेंगे, तो खाना खाएंगे और थाली को छोड़ देंगे, थाली को थोड़े ही खा जाएंगे। जीवन की सुरक्षा है।
जो व्यक्ति भय के प्रति सचेत हो जाएगा, भय का जो भी जीवन संरक्षक तत्व है वह शेष रह जाएगा और बाकी सब भय विलीन हो जाएंगे। जो व्यक्ति क्रोध के प्रति सचेत हो जाएगा, क्रोध में जो भी जीवन संरक्षक है वह शेष रह जाएगा और जो जीवन संरक्षक नहीं है वह विलीन हो जाएगा। और तब क्रोध ही तेज बन जाता है। जिस व्यक्ति में क्रोध ही नहीं, उसमें तेज ही नहीं होता। वह तो इंपोटेंट होता है, उसमें रीढ़ ही नहीं होती। उसमें कोई रीढ़ नहीं होती है। उसमें कोई व्यक्तित्व नहीं होता। कोई बल नहीं होता।
जीवन में जो भी मैं उसे खाद की भांति समझता हूं। हम खाद को लाकर घर में ढेर लगा लें, तो दुर्गंध फैलने लगती है। लेकिन समझदार उसे बगिया में डाल देता है और फूलों के बीज डाल देता है। फूलों से सुगंध निकलने लगती है। खाद में जो दुर्गंध थी, वही फूलों में सुगंध बन गई। ट्रांसफार्मेशन हुआ, परिवर्तन हुआ।
जीवन में जिसको हम बुरा कहते हैं, अशुभ कहते हैं और उससे लड़ते हैं, वह अशुभ नहीं है, उस अशुभ से ही परिवर्तन होगा और जीवन में क्रांति होगी। जो-जो दुर्गंधपूर्ण है, वही सुगंधपूर्ण बन जाएगा। लेकिन उसके बदलने की कीमिया, उसके बदलने का राज, जो सीक्रेट है: लड़ाई नहीं; उसका सम्यक ज्ञान, राइट नालेज। जो भी जीवन में है उसका सम्यक ज्ञान, उसका ठीक-ठीक जानना। लड़ने वाला तो कभी जान ही नहीं पाता, जिससे आप लड़ते हैं उसको आप कभी नहीं जान सकते हैं। जाना जा सकता है उसको जिसे आप प्रेम करते हैं और मित्र हैं।
तो अपनी सारी शक्तियों को एकदम से निर्णय न करें कि कौन शुभ है, कौन अशुभ है। जो भी मनुष्य के भीतर है उसमें जरूर कुछ शुभ है। जो भी मनुष्य के भीतर है वह जरूर परमात्मा से है। जो भी मनुष्य के भीतर है उसका कोई फल होगा आगे, कोई यात्रा होगी, कोई बीज में छिपी हुई चीज होगी। घबड़ाएं न उससे, जल्दी लड़ाई न छेड़ दें। लड़ाई छेड़ कर रुक जाएंगे और टूट जाएंगे।
तो मैं कहूंगा, उसे जानें, उसे पहचानें, उसके प्रति बोधपूर्वक समझ को विकसित करें।
द्वंद्व नहीं चाहिए मन में, अद्वंद्व ज्ञान चाहिए मन का।
लेकिन जो लोग ज्ञान की तरफ उत्सुक होते हैं, वे पूछते हैं, परमात्मा कैसा है? यह हम जानना चाहते हैं। वे यह नहीं पूछते कि क्रोध कैसा है, यह हम जानना चाहते हैं। वे पूछते हैं कि स्वर्ग कैसा है? यह हम जानना चाहते हैं। वे यह नहीं पूछते कि हमारे भीतर भय कैसा है, यह हम जानना चाहते हैं।
मेरे पास न मालूम कितने लोग आते हैं, कोई पूछता है कि परमात्मा त्रिमूर्ति हैं या नहीं? कोई पूछता है, उनके कितने सिर हैं? कोई पूछता है, कितने हाथ हैं? लेकिन कोई यह नहीं पूछता कि हमारे चित्त के कितने हाथ हैं, कितने सिर हैं। हमारा चित्त, जो कुछ भी होना है वह चित्त से होना है। धर्म मेटाफिजिक्स नहीं है। धर्म कोई फिजूल की बकवास और तत्व चिंतन नहीं है। धर्म तो पूरी की पूरी साइकोलॉजिकल म्यूटेशन है। पूरा का पूरा चित्त का आवर्तन और परिवर्तन है। पूरी क्रांति है चित्त में। तो उसी चित्त की तो क्रांति हो सकेगी, जिसको हम जानेंगे।
एक दिन था कि आकाश में बिजलियां चमकती थीं और लोगों पर गिरती थीं और लोग मरते थे। आज मैं बोल रहा हूं उसी बिजली से, आपके घर में पंखा चल रहा है, हवा हो रही है, मशीन चल रही है। वही बिजली जो लोगों पर गिरती थी और प्राण लेने के सिवाय कोई काम नहीं करती थी। वह बिजली न मालूम कितने लोगों के प्राण बचा रही है। क्या हो गया? हमने बिजली को जान लिया। हम जान गए बिजली को कि क्या सीक्रेट है इसका, बस जानते से ही बिजली जीवन के लिए सहयोगी हो गई, अज्ञान में बाधा थी, ज्ञान में सहयोगी हो गई।
भीतर क्रोध बिजली की तरह शक्ति है। अभी हम जानते नहीं, इसलिए उससे टूटते हैं, परेशान होते हैं, मिटते हैं। जान लेंगे, तो वही क्रोध जीवन को न मालूम क्या गति देने लगेगा।
तो मेरा कहना है कि जीवन में कुछ भी बुरा नहीं है। हम नहीं जानते, यह बुरा है। अज्ञान में बुरा हो जाता है।
एक छोटे से बच्चे के हाथ में तलवार दे दें, खतरा हो जाएगा। तलवार ऐसे ताकत है, छोटे बच्चे के हाथ में खतरा हो जाएगा। और अभी सभी छोटे बच्चों के हाथों में तलवारें हैं। इससे दुनिया में बड़ा खतरा होता जा रहा है। समझदार आदमी के हाथ में तलवार सहयोगी हो जाएगी, ताकत बन जाएगी, जिंदगी के लिए आधार बन जाएगी।
धन्य हैं वे लोग, जो क्रोध कर सकते हैं, लेकिन नरक में पड़ जाते हैं, क्योंकि क्रोध का उन्हें कोई ज्ञान नहीं। शक्तियां मिली हैं, लेकिन शक्तियों के प्रति हम अज्ञानी हैं। और अज्ञान में लड़ना शुरू कर देते हैं। और अज्ञान में न मालूम कौन-कौन सी मूढ़तापूर्ण शिक्षाएं, उनको पकड़ लेते हैं और लड़ाई शुरू कर देते हैं। फिर जीवन टूटता है, बिगड़ता है, बनता नहीं है।
जीवन के विकास का सूत्र है: जीवन की शक्तियों का सम्यक ज्ञान।
अपने भीतर जो भी छिपा है उसे जानने में लगें और देखें कि जैसे-जैसे आप जानते जाएंगे वैसे-वैसे आप पाएंगे कि वे शक्तियां जो आपके लिए घातक सिद्ध होती थीं, आपके लिए साधक हो गईं। वे ही जो आपके लिए मार्ग के पत्थर थे, सीढ़ियां बन गईं। वे ही जिन्होंने आपको रोका था, आपको पहुंचाने वाली बन गईं। लेकिन उनके जानने से यह हो सकेगा।

विज्ञान काम कर रहा है...


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