अनंत की पुकार—(अहमदाबाद)
ओशो
प्रवचन-आठवां-(रस और आनंद से
जीने की कला)
मैं एक मैगजीन में आपके जीवन के बारे में, आपके जीवन-दर्शन के बारे में कुछ देना चाहती हूं।
तो जीवन का देगी कि जीवन-दर्शन का देना चाहिए।
दोनों साथ में!
जीवन का क्या मूल्य है? जीवन का कोई भी मूल्य
नहीं है, दर्शन का ही मूल्य है।
आपने ही कल बताया कि जीवन से भागना नहीं चाहिए।
हां, तो क्या लिखना है, बोल, क्या बताना है?
मैं आपसे प्रश्न पूछ लेती हूं।
अच्छा पूछ, प्रश्न पूछ।
आपका जन्म कहां हुआ था और कब हुआ था?
उन्नीस सौ इकतीस, गाडरवारा, मध्यप्रदेश।
जबलपुर के पास है?
हां, जबलपुर के पास है।
आपके माता-पिता हैं अभी या...
हां, वे लोग हैं, अभी गांव में हैं।
वे जैनी थे?
वे जैनी थे।
वे पारंपरिक जैनी थे?
वे जैन हैं, लेकिन मैं जैन नहीं हूं। यह खयाल रखना, नहीं तो फिर गलती हो जाए। क्योंकि जन्म से धर्म का कोई संबंध नहीं है।
अच्छा, माता-पिता में से
किसका आप पर ज्यादा असर है, ऐसा आपको लगता है।
नहीं, किसी का भी नहीं।
किसी का भी नहीं?
असर किसी का भी नहीं है। और असर मैं मानता भी नहीं कि किसी का भी किसी
पर होना चाहिए। मेरी समझ ही यह है कि हर आदमी को अपने जैसा होना चाहिए। न किसी से
प्रभावित होना चाहिए, न किसी का असर लेना चाहिए और न किसी को असर में डालना
चाहिए। नहीं डालना चाहिए।
शाला जीवन में कोई यादगार प्रसंग है क्या?
बहुत प्रसंग हैं यादगार के तो, बचपन से प्रसंग ही
प्रसंग हैं।
एक-दो बताएंगे?
किस संबंध में तेरे को प्रसंग चाहिए? क्योंकि...
आपके यह विकास में कोई प्यारा वेग मिला हो, ऐसा कोई हो, या तो आपको ज्यादा, अभी तक याद रहे, ऐसा कोई प्रसंग हो। जैसा आपने कल
बताया था वह कि रुपये छोड़ दिए तो तीस साल तक याद रहा।
हां, ऐसा कोई बताना पड़े।
तो मैंने कुछ छोड़ा ही नहीं। बडा मुश्किल है।
तो पहली बात तो यही थी, परिवार की परंपरा,
या समाज की शिक्षा, या गुरुजनों के उपदेश,
किसी पर मुझे कभी कोई आस्था नहीं रही। अनास्था बिलकुल प्रारंभ से ही
है। अविश्वास और संदेह। जैसे मुझे मंदिर ले जाया गया तो मैंने कहा कि मुझे कोई
भगवान दिखाई नहीं पड़ते; मुझे तो सिर्फ पत्थर की मूर्ति दिखाई
पड़ती है। आपको भगवान दिखाई पड़ते हैं तो आप सिर झुकाएं, मैं
झुकाने को तब तक राजी नहीं जब तक मुझे दिखाई न पड़ जाएं। और फिर तब से मैं मंदिर
नहीं गया।
वह कब हुआ था? कितनी उमर थी?
बहुत समय की बात हो गई, कोई आठ-नौ साल का था।
और किसी भी चीज में तर्कयुक्तता हो तो ही मुझे उसमें अर्थ मालूम पड़ता
था।
हमारे स्कूल में, कंचन भाई, टोपी
लगाना लाजिमी था। मैं टोपी लगा कर नहीं गया स्कूल। हाई स्कूल जब गया तो बिना टोपी
लगाए गया। वे जो हेड मास्टर थे वे बहुत सख्त थे टोपी के लिए। यह संभव ही नहीं था
कि बिना टोपी लगाए कोई स्कूल में प्रविष्ट हो जाए। तो उन्होंने मुझे बुलाया,
तो मैंने उनको कहा कि मैं टोपी जरूर लगाऊंगा, एक
नहीं दस टोपी इकट्ठी लगाऊंगा, लेकिन वजह मुझे समझा दी जाए कि
टोपी लगाने से क्या हित होगा। और नहीं वजह समझाई जाए, तो फिर
मुझसे कहना भी नहीं चाहिए आपको यह बात। नहीं तो आप सोच लें और मुझे समझा दें। और
जिस दिन भी आप समझाने को राजी हो जाएंगे कि टोपी लगाने के ये फायदे और हित हैं
शरीर को, मन को, आत्मा को, किसी को भी, तो मैं लगाने को राजी हूं, नहीं तो मैं लगाने को राजी नहीं। सिर्फ आपका नियम है इसलिए नहीं लगाऊंगा।
तो नहीं लगाई। और उसके लिए मुझे दो महीने बाहर खड़ा रखा उन्होंने--कि
तो फिर बाहर खड़े रहो। तो मैं बाहर...पूरे तीन साल पढ़ना है स्कूल तो मैं बाहर खिड़की
के खड़े होकर पढ़ लूंगा, लेकिन ऐसी बात के लिए नहीं झुकूंगा जिसके लिए आपके
पास कोई तर्क नहीं है।
दो महीने बाद उनको दया आ गई; उन्होंने कहा,
मैं हाथ जोड़ता हूं, माफी मांगता हूं, तुम भीतर बैठो और पढ़ो; लगाना हो लगाओ, मत लगाना हो मत लगाओ।
तो एक तो किसी भी चीज के बाबत जब तक मेरी पूरी बुद्धि तृप्त न हो, तब तक मानने का मेरा कोई मन नहीं है, किसी भी बात
को।
शाला जीवन में कोई शिक्षक के बारे में आपको कोई
ज्यादा दिलचस्पी हो या तो कोई जिस पर सम्मान हो...
नहीं दिखाई पड़ता, नहीं दिखाई पड़ता न, नहीं दिखाई पड़ता।
अच्छा, कालेज जीवन में कुछ
घटना...
घटनाएं तो बहुत घटी हैं। अब तेरे मतलब की क्या हैं, यह सवाल है। मुझे तो कालेज से पहले तो इंटरमीडिएट में मुझे रेस्टिकेट कर
दिया गया। इंटरमीडिएट में मुझे निकाल दिया गया कालेज से।
कालेज से निकाल दिया गया?
कालेज से निकाल दिया गया। क्योंकि मेरे जो तर्क के प्रोफेसर थे उनकी
बर्दाश्त के बाहर हो गई मेरी मौजूदगी भी। वह तर्क का ही विषय था न। तो मुझसे
निर्णय पर उनसे तर्क हो जाते। आठ महीने के बाद उन्होंने लिख कर दे दिया कि या तो
मैं रहूंगा कालेज में या यह विद्यार्थी रहे, हम दोनों साथ नहीं रह
सकते।
क्लास में राजी नहीं आपको रखने के लिए?
नहीं। तो प्रिंसिपल ने मुझे कहा कि भई हम उनको तो छोड़ नहीं सकते, हमारे बीस साल पुराने प्रोफेसर हैं। और प्रतिष्ठित व्यक्ति हैं, अखिल भारतीय ख्याति के आदमी हैं। उनको तो हम छोड़ नहीं सकते। तो मैंने कहा
कि मैं जाने को राजी हूं, लेकिन मुझे यह कह दिया जाए कि मेरी
गलती क्या है? और जिन चीजों पर मैंने विवाद भी किया, उन चीजों पर भी अगर वे कह दें कि मैं गलत था, तो भी
मैं छोड़ने को राजी हूं। लेकिन जबरदस्ती आप मुझे निकालते हों तो आप पछताएंगे इस बात
के लिए कभी न कभी, दुखी होंगे। लेकिन वे घर ही बैठ गए,
तीन दिन नहीं आए प्रोफेसर। फिर मुझे उस कालेज से निकाल दिया गया।
मुझे दूसरे कालेज में जगह दी गई तो इस शर्त पर, मुझसे लिखवा लिया गया कि मैं किसी कक्षा में किसी प्रोफेसर से कोई प्रश्न
नहीं पूछ सकूंगा।
प्रश्न नहीं पूछूंगा?
तो मेरे जिस दूसरे कालेज में मुझे जगह दी प्रिंसिपल ने उसमें एक शर्त
लिखवा कर ली, क्योंकि वह तो सारे नगर में चर्चा हो गई कि निकाल दिए
गए हैं और इस वजह से निकाले गए हैं कि तर्कपूर्ण हैं। तो मैंने उनको कहा कि फिर
मैं भी एक शर्त पर नाम लिखवा लेता हूं आपके कालेज में कि मैं क्लास में नहीं
आऊंगा। क्योंकि अगर मैं पूछ नहीं सकता हूं तो मेरे मौजूद होने की कोई जरूरत भी
नहीं है। तो आप मुझे अटेंडेंस देते रहें। तो उन्होंने कहा, यह
हो जाएगा। तो मैं दो साल गया नहीं फिर कालेज। क्योंकि जब मैं पूछ ही नहीं सकता तो
सुनने की भी कोई जरूरत नहीं है। और जब मैं सुनूंगा तो पूछना बहुत जरूरी हो जाएगा।
तो वह उन्होंने दो साल मुझे अटेंडेंस दी, मैं कालेज गया नहीं,
अटेंडेंस दी।
और तो बहुत घटनाएं हैं, वह तो सब लंबा
सिलसिला था--तर्क का, विवाद का। क्योंकि वह मुझे कोई चीज
नहीं ठीक लगती है तो फिर उसको मानना तो बहुत कठिन मामला हो जाता है।
प्रोफेसर बोलते हैं इसलिए मानना...
उस लिए तो मानने का, राजी होने का सवाल ही नहीं उठता।
आपको किसी का जीवन अच्छा लगा हो कालेज में, कोई अध्यापक के साथ जो मानता है कि नहीं आपकी तर्कशक्ति अच्छी है...
हां-हां, मिले न कुछ लोग, कुछ वहां
प्रोफेसर थे। एम.ए. में मुझे अच्छे लोग मिले। क्योंकि मैंने जबलपुर छोड़ दिया फिर;
क्योंकि जबलपुर में एम.ए. में मुझे फिर जगह नहीं मिल सकती थी। तो
उसके लिए मैं सागर यूनिवर्सिटी में एम.ए. किया। वहां चार प्रोफेसर थे मेरे,
चारों ही बड़े अदभुत लोग थे, अच्छे लोग थे। वे
ही मुझे ले गए।
सागर?
हां। मैं इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में एक अखिल भारतीय काम्पिटीशन में
बोलने गया एक विवाद में। वहां मेरे एक जज थे प्रोफेसर। उन्होंने मुझे सौ में से
निन्यानबे मार्क दिए। वे सागर यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर थे। और उन्होंने मुझे कहा
कि तुम सागर आ जाओ। तो मैं सागर गया, उनकी वजह से। सागर
में मेरे जो वाइस चांसलर थे, सागर यूनिवर्सिटी के, वे प्रोफेसर मुझे वाइस चांसलर से मिलाने ले गए। और उन्होंने लिख कर दिया
वाइस चांसलर को कि ऐसा विद्यार्थी यूनिवर्सिटी में न पहले आया है और न आना संभव है
जल्दी, इसलिए आपका मिलना जरूरी है। तो वे मुझे मिलाने ले गए।
और उनकी इच्छा थी कि मुझे कोई स्कॉलरशिप और यह सारी व्यवस्था हो जाए। तो उन दिनों
मैं खड़ाऊं पहनता था। तो खड़ाऊं देख कर वाइस चांसलर ने मुझसे कहा कि आप खड़ाऊं पहनते
हैं? और एम.ए. में पढ़ते हैं और यह लुंगी लगाते हैं?
तो वे जो प्रोफेसर मुझे ले गए थे, उन्होंने कहा,
इनका कुछ प्राकृतिक जीवन पर आग्रह है। तो कुछ प्राकृतिक जीवन पर
उनसे कुछ विवाद हो गया। वे वाइस चांसलर कुछ विरोधी थे प्राकृतिक जीवन वगैरह की
बातों के। कुछ साइंटिफिक माइंड के आदमी के लिए यह सब...। तो वह विवाद इतना हो गया
कि वे जो प्रोफेसर मुझे लेकर गए थे वे डरे कि स्कॉलरशिप वगैरह तो दूर हो गई,
यह तो मामला बिगड़ जाएगा। तो वे मेरा कपड़ा नीचे से खींचने लगे। तो
मैंने उनको वाइस चांसलर को कहा कि ये जो प्रोफेसर मुझे लेकर आए हैं, वे मेरा कपड़ा खींचते हैं नीचे से, वे यह इशारा कर
रहे हैं कि अगर मैंने आपसे विवाद किया तो यह स्कॉलरशिप मुझे नहीं मिल सकेगी। लेकिन
इतना बुरा आदमी मैं आपको नहीं समझ सकता हूं।
उन्होंने फिर बात ही नहीं की। वह स्कॉलरशिप मुझे लिख कर दी और कहा
कि...
वे प्रोफेसर तो बेचारे पसीना-पसीना हो गए। और बाहर आकर बोले कि तुमने
मुझे ऐसी मुसीबत में डाल दिया कि जिसका कोई हिसाब नहीं। वे क्या सोचते होंगे!
मैंने कहा, मेरा कह देना जरूरी था। क्योंकि आप कपड़ा खींचे ही
जाते हैं, वे विवाद किए ही जाते हैं, अब
मैं उसमें बड़ी मुश्किल में पड़ गया कि मैं उनको क्या कहूं।
पर दो वर्ष उन्होंने मुझे जितनी सुविधाएं हो सकती थीं, वाइस चांसलर ने दीं। उन्होंने कहा कि मैं इससे बहुत खुश हुआ कि जब तुम
अपने काम से आए हुए थे तब भी तुम विवाद कर सके और जरा भी तुमने विवाद में उदारता
नहीं दिखाई कि तुम जरा भी समझौते के लिए राजी हुए होओ। जब कि तुम्हारा काम था,
जब कि तुम्हें मेरी खुशामद करनी चाहिए थी। वह तुमने इतनी खुशामद तो
बात दूर रही, तुम मुझसे विवाद करने को तैयार हो गए। और तुमने
मेरी बातों को ऐसी उससे खंडन किया कि मैं हैरान रह गया! अब मैं तुम्हें सारी
व्यवस्था, जब तक मैं हूं यहां...। सारी सुविधा मुझे दी,
बहुत सुविधा मुझे दी।
तो ये जो प्रोफेसर मुझे ले गए थे, वे बड़े प्यारे आदमी
हैं, बड़े प्यारे आदमी हैं। अभी वे इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में
प्रोफेसर हैं। अभी मैं गया तो...
उनका नाम?
प्रोफेसर राय, एस.एस.राय। फिलासफी के रीडर हैं इलाहाबाद यूनिवर्सिटी
में।
और फिर मुझे एक डाक्टर सक्सेना मिले। वे अब हवाई में, अमेरिका में, वहां प्रोफेसर हैं। उन्होंने भी मेरी
बड़ी फिकर ली, बड़ी फिकर ली। यहां तक कि परीक्षा का उन्हें
विश्वास नहीं रहा कभी कि मैं परीक्षा दूंगा कि नहीं दूंगा। तो यूनिवर्सिटी की
परीक्षा हो तो वे मेरे हॉस्टल के बाहर सुबह गाड़ी लेकर खड़े हो जाएंगे सात बजे--साढ़े
सात बजे तुम्हें हॉल में छोड़ आऊं, एग्जामिनेशन हॉल में,
फिर मैं निश्चिंत हो जाऊं। तो मुझे रोज नियमित, जब परीक्षा हो तो मुझे वे हॉल में छोड़ आएं, तब वे
निश्चिंत हों। उनको कहा भी कि आप इतने क्यों घबड़ाते हो? उन्होंने
कहा, तुम्हारा कोई भरोसा नहीं। तुम पढ़ रहे हो, यही हैरानी की बात है। तुम परीक्षा दोगे, यह भी
मुश्किल की बात है।
तो वे मुझे, दो वर्षों में उन्होंने इतनी फिकर ली मेरी, जिसका कोई हिसाब नहीं।
अच्छा, आप भी अभी आश्रम
बनाने के लिए तत्पर हो गए हैं, तो उसका हेतु तो यही है कि
मनुष्य को मनुष्य बनाना चाहिए। तो फिर कालेज के अध्यापन में भी वही काम था,
तो वह आपने क्यों छोड़ दिया?
इसलिए नहीं छोड़ा कि वह काम बुरा था, इसलिए छोड़ा कि बहुत
छोटा काम था, और बड़ा काम मैं कर सकता हूं, तो उसको छोड़ना पड़ा। यानी उसको इसलिए नहीं छोड़ा कि वह बुरा था। मेरी उतनी
ही शक्ति से बहुत बड़ा काम हो सकता है, तो उस शक्ति को छोटे
से दस-पंद्रह विद्यार्थियों पर व्यय करना उचित नहीं था। और उन विद्यार्थियों को तो
अब भी मैं समय दे ही रहा हूं। मैं इस शर्त पर ही छोड़ा कालेज। उन लड़कों ने मुझसे
शर्त ली जो मेरे विद्यार्थी थे--कि जब भी आप जबलपुर होंगे, तो
हम जब भी समय चाहेंगे, हमको समय देना ही पड़ेगा। उतना समय मैं
उनको पहले भी नहीं दे पाता था जितना अब वे मेरा ले लेते हैं। तो उनकी तो शर्त पर
ही छोड़ा। और सवाल तो यह हो गया था कि मैं...अब फिलासफी में कभी दो विद्यार्थी होते
हैं, कभी तीन विद्यार्थी होते हैं...तीन विद्यार्थियों के
लिए मैं दो साल व्यय करूं, तो यह तो क्रिमिनल वेस्ट हो
जाएगा। यह जान कर छोड़ा। वह गलत था इसलिए नहीं छोड़ा। वह काम गलत नहीं था।
(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)
बहुत क्रिमिनल वेस्ट हो रहा था न। और मुझे सारे मुल्क में मित्र पीछे
पड़ गए थे कि आप क्या कर रहे हो? इस मजबूरी में! यानी वह मुझे
बुरा था इसलिए नहीं छोड़ा है।
अच्छा, और अब आश्रम जो बनाना
चाहते हैं, तो मुझे लगता है कि--जैसा आप भी बोलते हैं,
ऐसे भारत में आश्रम तो बहुत ही हैं--उसमें एक ज्यादा हो जाएगा,
ऐसा तो नहीं हो जाएगा न!
नहीं, ऐसा आश्रम है ही नहीं।
वह तो सब ऐसा ही पहले बोलते हैं कि हमारा आश्रम
अलग है।
न-न, मेरी विचार-दृष्टि को समझोगी...
आपकी विचार-दृष्टि समझती हूं। मगर इसके लिए ही यह
प्रश्न पूछ रही हूं कि जरा मुझे ऐसा लगता है कि जो आप सिखाते हैं कि आश्रम नहीं
होना चाहिए। ऐसा भी आप लेक्चर से मनुष्य को मनुष्य बना सकते हैं। तो फिर आश्रम की
क्या जरूरत है?
न-न। आश्रम का मतलब ही क्या होता है? आश्रम का मतलब ही
क्या होता है? पहली तो बात यह है कि आश्रम का मतलब केवल,
मेरी दृष्टि में, इतना ही है कि एक केंद्र हो
जहां लोग मेरे निकट ज्यादा देर तक रह सकें। लेक्चर में तुम मेरे पास घंटे भर होती
हो, और तब भी मेरा व्यक्तिगत तुम से कोई संपर्क नहीं हो
पाता। अगर तुम्हें मेरी बात ठीक लगती है, प्रीतिकर लगती है
और तुम ज्यादा सान्निध्य और ज्यादा निकटता चाहती हो, तो कहीं
तो कोई जगह होनी चाहिए जहां बैठ कर मैं तुम्हें ज्यादा निकटता दे सकूं।
अब मुल्क भर से सैकड़ों पत्र पहुंचते हैं कि हम आपके पास महीना भर रहना
चाहते हैं, हम दो महीना रहना चाहते हैं, हम
तीन महीना रहना चाहते हैं, ताकि हम पूरी चीज को पूरी तरह से
जीवन में उतार सकें। अब मेरे पास कोई सुविधा नहीं है कि मैं उनको कहां तीन महीने
रखूं।
तो आश्रम का मेरे लिए कोई और मतलब नहीं है। आश्रम का जैसा अर्थ है इस
मुल्क में, वैसा कोई अर्थ नहीं है। मेरे लिए तो वह एक शिक्षण
केंद्र होगा, जहां कुछ लोग मेरे पास आकर रह सकेंगे, जा सकेंगे। और परिपूर्णता से रह सकेंगे। और उनकी चौबीस घंटे की चर्या के
बाबत मैं उनसे विचार कर सकूं और उनको सलाह दे सकूं, उनकी
भूल-चूक को सुधार सकूं। इस सारी दृष्टि से।
फिर, जैसे और आश्रम हैं वैसा यह आश्रम होता तो मैं खुद भी
राजी नहीं होता कि यह संख्या बढ़ाने से कोई भी फायदा नहीं है। यह बहुत ही भिन्न
होगा! शायद उन आश्रमों के बिलकुल विपरीत ही होगी इसकी पूरी चर्या और पूरी
जीवन-दृष्टि। और यहां से निर्मित जो व्यक्ति होगा वह जीवन-विरोधी नहीं होगा। वे
सभी आश्रम जीवन-विरोधी दृष्टि निर्मित करते हैं। यहां से तो हम जीवन को कितने रस
से और कितने आनंद से जी सकें, इसकी कला सिखाने की मेरी
दृष्टि है। और उन सारे आश्रमों की दृष्टि यह है कि जीवन असार है, यह समझाया जा सके। वे जीवन विरोधी हैं। तो लाइफ निगेटिव है उनकी एप्रोच।
और अभी इस मुल्क में तो, या इस मुल्क के बाहर भी, जीवन को कैसे परिपूर्णता और आनंद से जीया जा सके, इस
बाबत कोई केंद्र नहीं है। यानी मुझे न तो सौंदर्य से विरोध है, न स्त्री से विरोध है, न प्रेम से विरोध है, न संसार से विरोध है, न गृहस्थी से विरोध है। तो अब
तक जीवन के समर्थन में कोई भी आश्रम नहीं है पृथ्वी पर, सब
जीवन के विरोध में हैं। तो जो जीवन से निराश और दीन-हीन लोग हैं और मृत्यु के करीब
पहुंच गए, उनका आयोजन है वहां। और मैं तो युवकों के लिए सारी
व्यवस्था करना चाहता हूं कि वे जीवन को जीने के बाबत सोच सकते हैं। इसलिए बात
बिलकुल भिन्न होने वाली है।
ठीक कहती हो तुम कि सभी यही कहते हैं कि बात भिन्न होने वाली है।
शांति निकेतन जैसा होगा?
शांति निकेतन और तरह की बात थी। शांति निकेतन की दृष्टि और ही थी।
शांति निकेतन की दृष्टि एक पूरे जीवन को परिवर्तित करने की नहीं थी, बल्कि शिक्षा के मार्ग को ही पूरा परिवर्तित करने की थी। मेरा पूरे ही
जीवन को परिवर्तित करने का विचार है। उसमें शिक्षा एक हिस्सा होगी। रवींद्रनाथ की
नजर में शिक्षा ही सब कुछ थी वहां। तो इतना बहुत बड़ा फर्क है। और शिक्षा सब कुछ थी
इसलिए मामला बिगड़ा। क्योंकि आज नई शिक्षा गवर्नमेंट के हाथ में चली गई। और जब
यूनिवर्सिटी बड़ी हो गई तो वह सेंट्रल यूनिवर्सिटी हो गई।
यह शिक्षा ही नहीं है सिर्फ--इसमें खाना, पीना, कपड़ा, शरीर, सारे बाबत, पूरे जीवन के बाबत। शिक्षा उसमें एक बहुत
छोटा सा हिस्सा है। यानी मेरी दृष्टि में शिक्षा इतनी महत्वपूर्ण ही नहीं है कि वह
पूरे के पूरे जीवन को घेर ले। बल्कि मुझे तो यही लगता है कि एक आदमी अशिक्षित रह
जाए तो हर्जा नहीं है। अगर उसका और सब तरह से जीवन समृद्ध हो जाए, तो अशिक्षित होने से कोई बड़ा फर्क नहीं पड़ता। तो मैं कोई उसके बहुत पक्ष
में नहीं हूं। सिर्फ इंटलेक्चुअल ट्रेनिंग की मेरी कोई दृष्टि नहीं है। वह तो,
इसीलिए तो जब वह पूरा साफ होगा, जब मैं बनाना
शुरू करूं तो पूरी बात साफ हो सके कि वहां क्या हो सकता है और वह कितना भिन्न है।
और भिन्नता तो तुम्हें तब पता चलेगी जब सारे आश्रम उस आश्रम के विरोध में खड़े
दिखाई पड़ेंगे। तब तुम्हें समझ में आ जाएगा कि यह उनमें से एक नहीं है। यह उनसे
बिलकुल ही भिन्न मामला है। अभी मुझे भी लोग सोचते हैं कि मैं भी और साधुओं में से
एक साधु हूं। लेकिन जब मेरे खिलाफ साधु खड़े होते जा रहे हैं तो पता चलने लगेगा कि
मैं उनमें से एक नहीं हूं।
वह बात बराबर है, मगर आश्रम से मुझे ऐसा लगता है कि...
ठीक बात है। सोचना ठीक है। खयाल में आता है।
...आप खड़े हैं तब अच्छा है, मगर
बाद में भी वही बात हो जाएगी तो?
बाद के लिए चिंता नहीं करनी चाहिए। इसलिए क्योंकि मेरा खयाल यह है कि
मेरे साथ ही सब चीजें तोड़ देनी हैं। तोड़ देनी हैं, उनको नहीं आगे ले
जाना चाहिए। मेरा खयाल है कि आदमी मरते हैं, उसी तरह
संस्थाओं को भी मरना चाहिए। नहीं तो संस्थाएं बोझ हो जाती हैं।
और आपके निकट जो रहता है उस पर आपका असर तो होगा ही। आप बोलते हैं कि
किसी का किसी पर असर नहीं होना चाहिए। तो आपके पास रहने का क्या उपयोग है? क्यों रहे?
हां, अगर इस बात को, मेरे पास रहने
से अगर यह बात सीखने में आ जाए उसे--कि किसी के भी असर से मुक्त होने की कला क्या
है, विद्या क्या है, ताकि उसके भीतर जो
छिपा है वह प्रकट हो सके--तो उपयोग हो गया। और यह मेरा असर नहीं हुआ। यह मेरा असर
नहीं हुआ। मेरे जैसा बन जाए वह, मैं जैसा रहता हूं वैसा रहने
लगे, मैं जो कहता हूं वैसा कहने लगे, तो
मानना एक झूठा आदमी पैदा हो गया। नहीं लेकिन, जो उसके भीतर
छिपा है, वह उसे प्रकट करने के लिए जितनी हिंडरेंसेस हो रही
हैं उन सबको अलग कर दे, उसमें एक हिंडरेंस मैं भी हो सकता
हूं, वह उसको भी अलग कर दे, तो उसके
भीतर जो छिपा है वह प्रकट हो सके।
तो वहां आश्रम की ज्यादा से ज्यादा फिकर पाजिटिव कम और निगेटिव ज्यादा
होगी कि हम जितनी बाधाएं हैं जीवन की, उनको अलग कर दें,
ताकि भीतर जो छिपा है वह प्रकट हो जाए। एक रास्ता यह होता है कि
बाहर कोई है उसको हम कापी कर लें--हम गांधी बन जाएं या फलां बन जाएं, वैसे बन जाएं। वह मेरी दृष्टि नहीं है। इसलिए मुझे कई मित्र कहते हैं कि
मेरे साथ जो हैं वे मेरे जैसे होने चाहिए। मैंने कहा, यह तो
सवाल ही नहीं है। वे अपने जैसे होने चाहिए। मेरी नकल में खड़े होने का कोई सवाल
नहीं है।
वह बुद्धि से माना जाता है, मगर मुझे लगता है कि आपके पास आएंगे तो उनके ऊपर असर पूरी होगी। नहीं होगी,
ऐसा कैसे हो सकता है?
न हो, इसके मेरे प्रयास होंगे। इसके मेरे प्रयास होंगे कि न
हो। और होगी, तो यह उनकी भूल होगी। अब इसके लिए मैं क्या कर
सकता हूं?
न न न
(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)
हां, यह उन्होंने कुछ लिखा है कृष्णमूर्ति और मेरी तुलना
में। तो एक तो यही बात गलत है कि तुलना की जाए और फिर उन्होंने जो कुछ मतलब निकाल
लिया मेरी बातों का आखिर में, वह भी बड़ा फिजूल और अजीब सा
निकाल लिया है। और कहीं के अप्रासंगिक वचन चुन कर और उनमें से कुछ भी गोल-मोल किया
है। इसको थोड़ा देख जाना। इसको थोड़ा देख जाओ और तुम्हें लगे कि इसका कोई उत्तर
लिखना जरूरी है, तो इसका उत्तर लिखो। तो ये अभी कृष्णमूर्ति
इधर आते हैं, तो उस वक्त ये दोनों पब्लिश करके उनके वर्गों
में बांट देने का है। ताकि उनके जो तीन हजार लोग हैं वे थोड़ा मुझसे परिचित हो सकें
और थोड़ा संपर्क उनसे पैदा हो सके। तो उस खयाल से, यह एक
जाएगा, यह भी जाना जरूरी है, तो यह भी
एक जाएगा और उसके साथ ही तेरा एक लिखा हुआ लेख हो, ये दोनों
इकट्ठे पब्लिश करके बांट देने हैं। सिर्फ इस खयाल से कि वे जो कृष्णमूर्ति को
प्रेम करने वाले लोग हैं वे मुझसे थोड़ा परिचित हो सकें। क्योंकि बात बहुत जोर से
उनके भीतर चलनी शुरू हुई है और उसका यह फल हुआ है। तो उसका यह फल हुआ है कि ये लोग
डर गए मालूम होता है कुछ। और उसके बचाव के लिए यह सारा मामला कर रहे हैं। तो इसको
जरा देख लेना। और तुम्हें लगे तो एक इसका आंसर लिखो और इसके साथ दोनों को छाप कर
बांट देने का है। और प्रयोजन कुल इतना है कि उसमें जो उनका बड़ा वर्ग है उनके
मित्रों का, उस तक मेरा नाम तो पहुंचता है, लेकिन उससे कुछ परिचय नहीं बन रहा है। परिचित होना उस वर्ग का जरूरी है।
(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)
हां, कुछ लोग तो आए हैं। जो लोग आए हैं वे तो परिचित होना
शुरू हुए हैं। लेकिन जो नहीं आ पाए हैं अभी, उन तक खबर भी
पहुंचे सिर्फ, इसलिए इसमें दो काम करने हैं...
अननेसेसरी विरोध होता है।
अननेसेसरी है यह, अननेसेसरी है।
उसमें क्या है कि एक ही पब्लिश होता है तो अननेसेसरी विरोध होता है।
अगर दोनों पब्लिश होते हैं देन वी आर आल मूविंग इन दि सेम चैनल।
वह छापने के लिए बच्चू भाई को दिया, लेकिन बच्चू भाई फिर
मुझसे परिचित हैं। तो बच्चू भाई ने कहा कि यह तो छापने का काम उनको नहीं लगता। वह
फिर अपने किशन सिंह चावला को दिखाया होगा। तो उन्होंने कहा, यह
बेवकूफी है, इसको छापना मत। तो उन्होंने इधर इनको दे दिया।
तो मैंने कहा, इसको देख कर और इसका अगर उत्तर बनता हो,
तो दोनों इकट्ठे छापो। और दोनों इकट्ठे, उनकी
मीटिंग बैठती है, उसमें बांट दो। और उसमें दूसरा काम यह कि
उसके पीछे सारे साहित्य की एक लिस्ट...
लेकिन किशन सिंह वुड बी मोर एप्रोप्रिएट परसन फॉर इट।
कौन? कौन?
किशन सिंह जी।
न, तू देख। नाम सवाल नहीं है। वह तू देख, तुझे लिखने का खयाल में बने तो एक लिख डाल। उसका कोई सवाल नहीं है;
नाम किसका जाता है, उससे कोई फर्क नहीं पड़ता।
समझे न?
वे कह रहे थे आपके साथ इन्होंने काफी समय गुजारा, किशन सिंह जी ने, वह अहमदाबाद में।
हां-हां अहमदाबाद में। फिर अभी तीन दिन मैं उनके घर ही था बड़ौदा में।
अच्छा, कल मुझे एक बात नहीं
जंची।
क्या, बोल!
भूला जी भाई ने जो कहा है कि जो लोग कुछ खास रकम
देंगे उनका नाम सिल पर लिखा जाएगा, उनके नाम की बोर्ड
लगने वाली है। तो मेरे खयाल में, जहां पर अहंकार का उन्मूलन
ही सिखाना है उसकी नींव में ही यह अहंकार को दृढ़ करने की बात क्यों? क्योंकि नींव में वह डाली जाती है, मेरे खयाल से।
आपने कल जैसे कहा कि आप पैसे देंगे तो मैं धन्यवाद नहीं मानूंगा। उसी तरह उनको भी
कहना चाहिए कि जो कोई कोई भी रकम देगा उसका नाम तो कहीं जाएगा ही नहीं, क्योंकि यह नाम के लिए नहीं देना है। क्योंकि नाम देना एक रूप से अहंकार
को चलाना ही है। इसलिए अपने नाम की...
लेकिन मेरा बल है न यह तो। उनका बल इतना नहीं है। मेरे और मेरे साथ
काम करने वाले लोगों के बल में फर्क है। तो उनका बल धीरे-धीरे बढ़ाना है। जरा खयाल
उनको देंगे, जरा खयाल उनको देंगे।
क्योंकि एक सच्ची बात से ही शुरू करनी है, तो बिलकुल बेस से ही, कि उसमें कोई गलत बात न आ जाए।
सही बात है।
आप तो अभी जबलपुर जाने वाले हैं?
हां, आज जबलपुर जाता हूं।
तो तू देख ले उसको, पहली बात। फिर तेरे को लिखने
जैसा लगे तो लिख डाल। हां, उसे लिख डाल। और फिर वह परिचय के
खयाल से कि ताकि उनके मित्र भी परिचित हो सकें और मुझसे संपर्क साध सकें।
न न न
साहित्य के बारे में दो बातें की हैं। एक तो संकलन करके एक प्रेस के
लिए निकालें। और दूसरा, आपकी जो फिलासफी है, आपका जो
चिंतन है, उसकी एक पुस्तक हो। और कुछ ट्रांसलेशंस शायद बाकी
हों तो...
हां, कुछ ट्रांसलेशंस बाकी
हैं।
ये तो तीनों उपयोगी हैं, कि एक तो पूरी
फिलासफी पर एक इकट्ठा संकलन हो। एक ही किताब पढ़ने से पूरी दृष्टि खयाल में आ जाए।
और ये मधु प्रेस के लिए भी निकाल लेगी। और साथ ही सारी किताबों के लिए पूरे मुल्क
में बड़ी मांग है, तो वह अंग्रेजी में भी पहुंच सके कुछ
अनुवाद। तीनों ही तरह से उपयोगी होगा।
अभी एक मित्र ने एक अनुवाद किया था, लेकिन वह मुझे पसंद
नहीं पड़ा। साधना-पथ का एक अनुवाद किया था एक मित्र ने, वह
अच्छा नहीं हुआ है। एक तो वह कुछ, जैसा ओरिएंटल जो स्कॉलर्स
होते हैं, उस ढंग का उन्होंने कर दिया, जैसे पुरानी किताबों का अनुवाद करते हैं--पुराण का और पुरानी किताबों का,
तो वह थोड़ी पुराने ढंग की अंग्रेजी में अनुवाद कर दिया। वह ठीक नहीं
मालूम हुआ। फिर कुछ उसमें बड़ी बुनियादी भूलें कर दीं उन्होंने, कई जगह वह उलटा ही मतलब हो गया। तो वह अनुवाद रोक ही दिया, फिर उसको बिकने नहीं दिया। लेकिन फिर भी वह कुछ जगह तो पहुंच ही गई वह
किताब।
वह आपको पहले दिखाई नहीं गई?
मुझे इतनी मुश्किल हो गई है देखने की, इतनी फुर्सत नहीं
मुझे मिल पाती है। क्योंकि मैं दिन-रात सफर में हूं।
फिर भी वह प्रिंट में जाने के पहले यह जरूरी है
कि आप एक नजर देख लें।
हां, थोड़ा सा एक हिस्सा उन्होंने भेजा था, कोई आठ-दस पन्ने भेजे थे। वह हुआ क्या कि आठ-दस पन्ने उन्होंने मुझे भेजे
थे शुरू के, वे ठीक थे। और वह मैं देख कर उनको भेज दिया था।
फिर पीछे क्या हुआ कि जिन्होंने आठ-दस पन्ने किए थे वह सज्जन ने काम नहीं किया आगे,
तो उन्होंने किसी दूसरे से करवा लिया। तो वह सब गड़बड़ हो गया। लेकिन
अब वह...तो आप कोई देखें थोड़ा सा, उसको करें, तो बड़ा अच्छा होगा।
कोशिश करूंगा मैं।
हां-हां, जरूर करें।
एक-दो किताबें और मेरे पास हैं, मेरी खुद की हैं, वे अभी चल रही हैं। प्रिंट में हैं
अभी। थोड़ा सा मैनेजमेंट करना है। उसके बाद इसको मैं जरूर करूंगा।
हां। आप जरा देखेंगे। सब साहित्य आपको पहुंचा देंगे। एक नजर डाल लें।
सेट भी देख लेंगे और जो ट्रांसलेशन हुआ है वह भी
देख लेंगे।
तो एक नजर डाल लें, बाकी वह आपको आनंदपूर्ण मालूम
पड़े तभी अनुवाद करने में भी मजा हो सकता है।
मैं यह सोचता हूं कि अनुवाद ऐसा नहीं होना चाहिए
कि वह अनुवाद जैसा लगे।
नहीं होना चाहिए। बिलकुल ठीक है। नहीं तो मजा ही चला गया पूरी बात का।
तात्पर्य जो है वह बराबर आ जाए, और जैसे आप इंग्लिश में बोलें तो जैसी भाषा हो, वैसा
अनुवाद होना चाहिए।
बस-बस, वही है। वही ठीक है।
ट्रांसलेशन अगर ऐसा हो कि वह ट्रांसलेशन जैसा लगे, तो पढ़ने वाले को कोई मजा नहीं आता।
नहीं आता।
इसलिए अच्छा होगा कि अनुवाद करने वाले आपका
साहित्य पढ़ें, आपको सुनें...
हां, यहां बहुत टेप हैं, कुछ टेप आप
सुनें...
एक तो फिलासाफिकल एक्सपोजीशन के ढंग से, यानी आप क्या कहना चाहते हैं, और उसके लिए क्या तर्क
हैं, उस ढंग से अगर कोई कर सके, तो
फॉरेन कंट्रीज में भी बहुत प्रभावी हो सकती है, क्योंकि वे
विश्लेषण ज्यादा पसंद करते हैं।
वह आप जरा देख जाएं एक बार और फिर इन दोनोंत्तीनों तरह से सोचें कि
कैसा हो सकता है। पर बड़ी जरूरत हो गई है।
डिमांड बहुत हो गई है और अंग्रेजी में अभी एक ही पुस्तक है। तो हमारी
प्रॉब्लम यह हो जाती है कि यह किताब देते हैं तो फिर वे आगे और मांगते हैं। तो
डिमांड को किस प्रकार फुलफिल कर सकते हैं, इस दृष्टिकोण से काम
जरूरी है।
आप भी कुछ करिए!
हां, जरूर। आपने जो बोला, हम लोगों
को सबको बहुत अच्छा लगा। और उसी से जो किताब भी लिखी है, उसमें
जो सुंदर-सुंदर वाक्य कहते हैं कि जो पढ़ने वाले औरतें, बच्चे,
सबको अच्छी लगी वह किताब। पढ़े तो फिर उसको पूरी पढ़ कर ही छोड़े,
कि इसको पूरी करनी ही चाहिए। बहुत अच्छी लगी किताब। सब स्टूडेंट पढ़
रहे हैं। कोई छोड़ता ही नहीं है। अभी कालेज में जाकर आई हूं।
अच्छी बात है। तो आप भी थोड़ी कुछ फिकर करिए, हिंदी में कुछ लिखिए। अब जैसे कल महिलाओं के बीच जो मैं बोला हूं, उस पर आप कुछ लेख लिखिए, तो वह उपयोगी होगा हिंदी
में। वह यहां की किसी अच्छी मैगजीन में भेजिए। और पुस्तक के रूप में भी छप सकता
है। गुजराती में तो ये कर रहे हैं, हिंदी में आप थोड़ी फिकर
करिए।
न न न
हां, बोलो।
अंतिम ध्येय तक पहुंचने के लिए क्या ध्यान से शुरू करना जरूरी है?
बस, ध्यान से शुरू करना जरूरी है।
तो ध्यान कैसे करना?
वह तो तुम जब किसी शिविर में आ जाओ तीन दिन के लिए जहां मैं ध्यान ही
सिखाता हूं तीन दिन तक।
वह किधर शिविर होगा?
अभी आजोल में एक शिविर है, अहमदाबाद के पास। तीन
दिन के लिए आजोल आ जाओ या इंदौर में शिविर है इसके बाद, वहां
आ जाओ। तो तीन दिन मैं तुम्हें...फिर पूरी प्रक्रिया मेरे साथ करोगे तो खयाल में आ
जाए। बिलकुल आ जाए, बिलकुल आ जाए।
न न न
(टाइम्स के रिपोर्टर के साथ बातचीत)
आपका जन्म कहां हुआ?
मेरा जन्म गाडरवारा, मध्यप्रदेश में हुआ।
किस वर्ष में?
उन्नीस सौ इकतीस।
आप कितने भाई हैं?
छह भाई।
क्या आप सबसे बड़े हैं?
सबसे बड़ा हूं।
बहनें?
चार बहनें।
आपके पिता क्या करते थे?
वे कपड़े के व्यापारी हैं।
आपकी शिक्षा-दीक्षा?
एम.ए.।
किस यूनिवर्सिटी से?
सागर यूनिवर्सिटी।
आपने किस विषय में एम.ए.किया?
फिलासफी।
अध्यात्म की अंतःप्रेरणा आपको कब अनुभव हुई? किस उम्र में?
यह हमेशा से मेरे अंदर थी। मुझे याद नहीं पड़ता कि कब पहली बार मुझे यह
अनुभव हुई हो। यह हमेशा से मेरे साथ थी।
तो एम.ए. करने तक आप अपने परिवार वगैरह के साथ
रहे और फिर आपने संसार छोड़ने का निर्णय लिया।
नहीं, मैंने संसार नहीं छोड़ा है। मैं कुछ भी छोड़ने के पक्ष
में नहीं हूं।
जैसे विनोबा भावे को लें। उन्होंने संसार छोड़
दिया। उनके पास कुछ भी नहीं है, एक कौड़ी भी नहीं।
जैसे गांधीजी। वे कोई संन्यासी नहीं हैं।
मैं संसार छोड़ने में भरोसा नहीं करता। और मेरा दृष्टिकोण लाइफ
अफर्मेटिव है, जीवन विधायक है।
लाइफ अफर्मेटिव, जीवन विधायक दृष्टिकोण से आपका क्या मतलब है?
जैसा धर्म आज तक रहा है जीवन-निषेध का रहा है--जीवन का त्याग, जीवन की निंदा, जीवन असार है और जीवन के पार के
लक्ष्य की खोज।
क्या जीवन के पार कोई लक्ष्य है?
नहीं! जीवन स्वयं लक्ष्य है। उसके पार कुछ भी नहीं है। तो जीवन को
उसकी संपूर्णता और परिपूर्णता में जीना ही, मेरे देखे, धार्मिक होना है। जीवन ही प्रभु है। और जीवन के रहस्यों को जान लेना ही
उपलब्धि का मार्ग है।
कैसी उपलब्धि? जब जीवन के पार कुछ है ही नहीं, तो आप क्या उपलब्ध करते हैं?
हम जीवन उपलब्ध करते हैं--उसकी संपूर्णता में, उसकी अखंडता में।
हम जब मरते हैं तो क्या होता है?
कोई मरता नहीं।
मृत्यु नहीं है?
मृत्यु नहीं है! मृत्यु एक झूठ है, एक भ्रांति।
लेकिन आदमी मरता तो है। कि नहीं मरता?
जीवन रूप बदलता है।
क्या आप विश्वास करते हैं कि जीवन में हर चीज
अपने अंत पर पहुंचती है?
न कहीं कोई शुरुआत है, न कहीं कोई अंत। हर
चीज है। लेकिन जीवन रूप बदलता है, नये रूपों में प्रकट होता
है। यह बदलाहट ही मृत्यु का भ्रम निर्मित करती है।
चाहे यह भ्रम हो या न हो, हम जीवन में एक दिन अंत पर पहुंचते ही हैं। एक वृक्ष कुछ समय बाद मर जाता
है। पशु मरते हैं; पक्षी मरते हैं। उसी प्रकार एक मनुष्य भी
मरता है। शरीर के तल पर हम सब समाप्त होते हैं।
एक वृक्ष मरता है, लेकिन यह वृक्ष की भीतर से
प्रतीति नहीं है।
लेकिन वृक्ष में भी जीवन है।
वृक्ष में जीवन है। हर चीज में जीवन है। दूसरों को यह मृत्यु जैसी
लगती है। तुमने दूसरों को मरते देखा है, स्वयं को कभी मरते
नहीं देखा। किसी ने मृत्यु को स्वयं में घटते नहीं देखा है। हमेशा दूसरा मरता है।
जीवन रूप बदलता है। दूसरों को ऐसा लगता है कि कुछ मर गया। कुछ मर सकता नहीं। सब
कुछ है।
क्या आप दूसरे शब्दों में यह कहना चाहते हैं कि
केवल शरीर मरता है, जो भीतर है वह नहीं मरता?
रूप बदलता है।
लेकिन शरीर मरता है--मानव शरीर! क्या आप इसे
स्वीकार करते हैं?
केवल रूप बदलता है।
आप उसे क्या कहते हैं? हम उसे आत्मा कहते हैं।
तुम उसे आत्मा कह सकते हो।
एक बार इस शरीर के मर जाने के बाद क्या आत्मा के
साथ पुनः संयुक्त होने की कोई संभावना है?
कोई संभावना नहीं है। क्योंकि कुछ भी दोहरता नहीं। सब कुछ हमेशा नया
और ताजा है।
आपने इस पैम्फलेट में कहा है कि अध्यात्म या धर्म
में नये प्राण फूंकने की जरूरत है। तो नये प्राण फूंकने से आपका क्या मतलब है? क्या भारत में धर्म में कुछ गलत है?
सब कुछ गलत है।
लेकिन भारत में इतने धर्म हैं! अगर आप कहते हैं
धर्म, तो मेरा अलग धर्म है, किसी और
का कोई और...
धर्म, जो हम समझते हैं।
तो सब कुछ गलत है...
धर्म की जो धारणा रही है वह पूरी गलत है।
भारत में?
सब जगह!
नहीं, हम विदेश के बाबत तो
कुछ नहीं कह सकते।
देशी-विदेशी का सवाल नहीं है। जैसा धर्म अभी तक सारी दुनिया में
अस्तित्व में है। बुद्धिज्म, हिंदूइज्म, क्रिश्चिएनिटी और इस्लाम का सवाल नहीं है, धर्म जैसा
आज तक रहा है--एक संगठन की तरह, एक चर्च की तरह, एक क्रियाकांड की तरह--वह गलत है। क्योंकि, मेरे
देखे, धर्म नितांत वैयक्तिक है। धर्म का कोई संगठन नहीं हो
सकता है।
तो दुनिया में कोई संगठित धर्म नहीं हो सकता?
संगठित धर्म नहीं हो सकता। जैसे ही संगठित होता है, गलत हो जाता है। गलत होने से मेरा वही मतलब है। वह राजनीति हो जाती है। तो
ये नाम--इस्लाम, हिंदू, क्रिश्चिएनिटी,
जैन, बौद्ध--ये नाम, ये
मत धार्मिक नहीं हैं, ये सब राजनैतिक हैं। धर्म बहुत नहीं हो
सकते, जैसे साइंस बहुत नहीं हो सकती।
केवल एक?
केवल एक! क्योंकि सत्य एक है और यूनिवर्सल है।
दूसरे शब्दों में--हर धर्म में सत्य तो एक है, सत्य की उपलब्धि के ढंग या मार्ग भिन्न हैं। मेरी समझ से धर्म मार्ग हैं।
नहीं! सत्य की उपलब्धि भिन्न-भिन्न मार्गों से नहीं होती। उसका एक ही
मार्ग है, और वह है ध्यान--जो कि निर्विचार और सजगता को उपलब्ध
करना है।
लेकिन ऐसा तो नहीं है कि धर्म ध्यान नहीं सिखाता।
उसमें ध्यान आता है, उपवास आता है, आत्मत्याग आता
है। धर्म और अध्यात्म एक ही बात है। आत्मदमन के बिना, गलत
कर्मों की शुद्धि के बिना यह कैसे संभव है?
गलत कर्मों को तुम पोंछ नहीं सकते।
लेकिन मनुष्य गलत कर्म करता है।
मनुष्य गलत कर्म करता है।
और उसे दोषी नहीं ठहराया जा सकता। क्योंकि उसे
परमात्मा ने बनाया है। क्या परमात्मा ने हमें बनाया है या कोई परमात्मा नहीं है?
बनाने वाला बनाए जाने वाले से पृथक नहीं है।
यह मैं जानता हूं। अगर दोनों में कोई अंतर नहीं
है, तो हम बनाने वाले के साथ एक हैं, जिसने हमें बनाया है।
नहीं-नहीं। कोई बनाने वाला नहीं है।
हमें किसी ने नहीं बनाया?
हमें किसी ने नहीं बनाया। सृष्टि से पृथक और पार कोई स्रष्टा नहीं है।
मैं इसी बिंदु पर आ रहा हूं। यह असली बात है। मैं
पूछता हूं: क्या हमें बनाने वाला कोई है? क्या ईश्वर है?
नहीं! नहीं!
कोई ईश्वर नहीं है?
नहीं! स्रष्टा की तरह कोई ईश्वर नहीं है।
और तो कोई स्रष्टा नहीं हो सकता!
यह पूरी सृजन की ऊर्जा--मेरी दृष्टि में परमात्मा का अर्थ है समग्र
सृजनात्मकता।
मैं सृजनात्मकता की बात नहीं कर रहा, मैं सृष्टि की बात कर रहा हूं।
न कोई सृष्टि है, न कोई स्रष्टा है, केवल सृजनात्मकता है, सृजन की ऊर्जा है।
बहुत-बहुत धन्यवाद!
आज इतना ही
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