मातरम् पितरम् हंत्वा—प्रवचन—95
प्रश्न
सार:
पहला
प्रश्न:
मैं दूसरों को सलाह देने में बडा कुशल हूं, यद्यपि
अपनी समझ अपने ही काम नहीं आती है। दूसरों को सलाह देना इतना सरल क्यों होता है?
महाराज आप सोचते हैं कि आपकी सलाह दूसरों के काम
आती है! सलाह किसी के काम नहीं आती। जब आपके ही काम आपकी' सलाह नहीं
आती, तो दूसरे के काम कैसे आ जाएगी? जिसको
आपने ही इस योग्य नहीं माना कि इसका उपयोग करूं जीवन में, उसका
कौन उपयोग करने वाला है?
लुकमान
से किसी ने पूछा था,
ऐसी कौन सी चीज है दुनिया में जिसे सभी देते हैं और कोई नहीं लेता?
लुकमान ने कहा, सलाह। दी खूब जाती है, लेता कोई भी नहीं। तुम खुद ही अपनी सलाह मानने को तैयार नहीं हो, थोड़ा सोचो!
मैंने
सुना है, एक सूफी फकीर के पास एक स्त्री अपने बेटे को लेकर आयी और उसने कहा कि इसे
जरा समझा दें, मैं हार गयी, इसके पिता
हार गए, इसके शिक्षक हार गए, हम सबसे
समझवा चुके हैं, यह समझता नहीं, अब आप
ही एकमात्र आशा हैं, यह बहुत गुड खाता है। फकीर ने कहा,
सात दिन बाद आओ।
स्त्री
तो समझी नहीं। इसमें सात दिन बाद आने की क्या बात थी? सात दिन
बाद पहुंची बेटे को लेकर। फकीर ने कहा कि क्षमा करो, सात दिन
और लगेंगे, सात दिन बाद आओ। ऐसा तीसरी बार भी कहा तो उस
स्त्री ने कहा, बात क्या है? उसने कहा,
बात तो मैं सात दिन बाद आओ तभी बताऊंगा।
इक्कीसवें
दिन उस फकीर ने कहा,
बेटा, गुड़ खाना बंद कर दे। स्त्री ने तो सिर
से हाथ मार लिया कि इस सलाह के लिए इक्कीस दिन भटकाया! तीन बार बुलाया। उसने कहा,
यह इतनी सी सलाह नहीं, मैं खुद ही गुड़ खाने का
बहुत शौकीन हूं। इस छोटे से बच्चे को मैं कहूं कि गुड़ खाना छोड़ दे, बुरा है, इसके पहले मैं तो छोड़ दूं। इक्कीस दिन मुझे
छोड़ने में लग गए। और इसे सलाह देता तो बेईमानी की होती, झूठी
होती। उस बेटे ने फकीर की तरफ आंख उठाकर देखा, उसके चरणों
में झुका और उसने कहा, तो मैं भी छोड़ देता हूं।
तुम्हारी
सलाह में मूल्य तभी आता है जब तुम भी उसे करते हो। तुम्हारा जीवन अगर तुम्हारे
विचार के विपरीत है,
तो लोग तुम्हारा जीवन देखते हैं, तुम्हारा
विचार थोड़े ही। विचार से कोई प्रभावित नहीं होता, लोग
प्रभावित जीवन से होते हैं। तुम्हारे भीतर की अग्नि से होते हैं। बातें तुम आग की
करो और तुम्हारे जीवन में राख ही राख हो। तुम्हारा जीवन तुम्हारे वचनों को झुठला
देगा। बातें तो सभी अच्छी करते हैं। बातें अच्छी करने में क्या लगता है। हल्दी लगे
न फिटकरी, रंग चोखा हो जाए। कुछ खर्च तो होता नहीं है बात
करने में। लोग जानते हैं कि बातें तो कचरा हैं। और इस देश में तो और। इस देश में
इतनी सलाहें दी गयी हैं, इतने उपदेश दिए गए हैं कि लोग थक गए
हैं। लोग ऊब गए हैं। लोग छुटकारा चाहते हैं।
तुम
सोचते हो कि 'मैं दूसरों को सलाह देने में बड़ा कुशल हूं लेकिन मेरी सलाह मेरे ही काम
क्यों नहीं आती?'
किसी
के काम नहीं आती। जब तुम्हारे काम नहीं आती तो किसी के भी काम नहीं आएगी।
मैंने
सुना है, मुल्ला नसरुद्दीन के पडोसी के घर एक बड़ा कीमती तोता था। तोता सात दिन तक
मल—मूत्र विसर्जन न किया, तो पड़ोसी घबड़ा गया। ऐसा कभी न हुआ
था। कब्जियत आदमियों को होती है, तोतों को नहीं। तोते अभी
इतने बिगड़े नहीं। अभी जीवन इतना खराब नहीं हुआ। चिंतित हुआ, कुछ
समझ में न आया सोचा मुल्ला नसरुद्दीन से पूछ लूं बुजुर्ग आदमी हैं, के आदमी हैं, जीवन देखा है, परखा
है, बाल ऐसे ही सफेद नहीं किए हैं। नसरुद्दीन को बुलाया।
मुल्ला
ने अपने चश्मे को ठीक—ठाक किया, तोते के पिंजरे के चारों तरफ घूमा ठीक से
निरीक्षण किया, विचार किया काफी। फिर कहा, भाईजान, पिंजरे में आपने हिंदुस्तान का नक्शा क्यों
बिछाया है? पड़ोसी ने कहा, मल—मूत्र
नीचे न गिरे इसलिए मैं सदा अखबार बिछा देता हूं। और जब से इमरजेंसी समाप्त हो गयी
है, अखबारों में भी हड़ताल होने लगी है। तो सात दिन पहले
अखबार की हड़ताल थी, अखबार आया नहीं, तो
मैंने यह हिंदुस्तान का नक्शा बिछा दिया। क्या इसमें कोई गलती हो गयी? क्या मैंने कोई भूल—चूक की? इसमें आपको कोई एतराज है?
मुल्ला हंसा और बोला, बड़े मिया, एतराज नहीं, समस्या सुलझ गयी। तोते अद्यिमयों जैसे
जड़ नहीं होते, तोते बुद्धिमान होते हैं और संवेदनशील भी होते
हैं। हिंदुस्तान जितना मल—मूत्र सह सकता था, सह चुका। और
ज्यादा सहने की इसकी क्षमता नहीं है। यही देख बेचारा तोता मल—मूत्र साधे योगी बना
बैठा है। हटाओ यह हिंदुस्तान का नक्शा!
तुम्हारे
उपदेश, तुम्हारे उपदेष्टा, तुम्हारे सलाह देने वाले,
तुम्हारे तथाकथित धर्मगुरु, तुम्हारी खोपडी को
खूब कचरे से भर चुके हैं। जितनी सलाहें इस देश में दी गयी हैं उतनी और कहीं नहीं
दी गयीं। इस देश की दुर्गति का यही बड़े से बड़ा कारण है। और जो सलाह दे रहा है,
वह इसकी फिकर ही नहीं करता कि उसके जीवन में सलाह के लिए कोई प्रमाण
नहीं है। उसका जीवन झुठला रहा है। वह जो कह रहा है, ठीक उससे
उलटा उसका जीवन कह रहा है।
इसे
तुम समझना। बड़ों की तो बात छोड़ दो, छोटे—छोटे बच्चे भी तुम क्या कहते
हो यह नहीं सुनते, तुम क्या करते हो इसे सुन लेते हैं। मां—बाप
क्या कहते हैं बच्चे को, इससे थोड़े ही बच्चा प्रभावित होता
है। मां—बाप क्या करते हैं, इससे प्रभावित होता है। बच्चा
देखता रहता है। तुम लाख कहो कि झूठ मत बोलो, लेकिन बच्चा झूठ
बोलेगा। क्योंकि तुम झूठ बोलते हो। तुम लाख कहो कि निर्भीक रहो, इससे कुछ फर्क नहीं पड़ता।
मैंने
सुना है, एक छोटा बच्चा भागा घर के भीतर आया और उसने अपनी मां से कहा—मम्मी,
मम्मी, एक शेर चला आ रहा है। चौंककर उसकी मां
ने देखा, एक मरियल सा कुत्ता चला आ रहा था। उसकी मां ने कहा
कि हद्द हो गयी झूठ की, यह शेर है? कितनी
दफा कहा, लाख दफे समझा चुकी हूं कि झूठ मत बोलो। चलो इसी
वक्त आंख बंद करो और भगवान से प्रार्थना करो और क्षमा मांगो। बेटा बैठ गया पालथी
लगाकर, आंख बंद करके। थोड़ी देर बाद उठा और बोला, क्षमा मांग ली। मां ने पूछा, क्या हुआ, क्या तुमने कहा? उसने कहा, मैंने
कहा कि हे प्रभु, एक कुत्ता आ रहा था और मैंने अपनी मम्मी को
कहा कि शेर आ रहा है, मेरी मम्मी बहुत नाराज हो गयी, कहती है झूठ नहीं बोलना चाहिए, आपका क्या विचार है?
प्रभु बोले, अरे बेफिकर रह, जब मैं छोटा था तो मैं भी अपनी मम्मी को ऐसे ही कुत्ते को शेर कहकर डराया
करता था।
बच्चा
जानता है, तुम्हारा ईश्वर भी झूठा! किससे प्रार्थना करने को कह रहे हो उसे। उसने
कुत्ते को शेर कहा, इसमें तो शायद थोड़ी सच्चाई भी हो,
लेकिन किस ईश्वर से आंख बंद करके उससे तुम प्रार्थना करने को कह रहे
हो? कोई भी नहीं है वहां। कुत्ते को शेर कहा, थोड़ी अतिशयोक्ति की, और आंख बंद करके तो कोई भी नहीं
है वहां, किसको तुम भगवान कह रहे हो! न तुम्हें अनुभव है,
न किसी को अनुभव है, झूठ पर और महाझूठ की
पर्तें जमाए जा रहे हो।
बच्चे
देखते हैं, सब तरफ झूठ चल रहा है। बाप कहता है कि झूठ मत बोलना और फिर कह देता है—कोई
दरवाजे पर आया, किराएदार आ गया—तो पहुंचा देता है बेटे को,
कह दो कि पिताजी घर में नहीं हैं। अब बेटा देख रहा है कि यह बात झूठ
है। इस सब का क्या अर्थ होता है? इसका अर्थ होता है कि जब
कहना हो तो यही कहो कि झूठ नहीं बोलना चाहिए और जब बोलना हो तो जिसमें लाभ हो वही
बोलो। यह बात इतनी स्पष्ट है, यह संदेश इतना साफ है।
छोटे
बच्चे तक तुम्हारे सत्य को देख लेते हैं, तो बड़े—जो काफी बेईमान हो गए,
जिन्होंने जीवन में काफी अनुभव कर लिया है—वे तुम्हारे सत्य को न
देख पाएंगे?
ऐसा
हुआ, दक्षिण की एक कथा है। दक्षिण में एक बड़े प्रसिद्ध पंडित हुए, पंडित मणि। पंडित मणि कदिरेश चेट्टियार भगवान मुरुगन कार्तिकेय के भक्त
थे। एक दिन उनके यहां एक भगत आया। वह गले में रुद्राक्ष की माला पहने, माथे पर भस्म रमाए हुए था और मुंह से मुरुगा—मुरुगा की रट लगा रहा था।
उसने पंडित मणि से कहा, मैं भगवान मुरुगन का मंदिर बनवाने की
सोच रहा हूं, कल रात भगवान ने स्वयं में दर्शन देकर कहा कि
चिंता मत करो, पंडित मणि के पास जाओ, तुम्हें
जो कुछ भी चाहिए वे देंगे। पंडित मणि ने इस पर भगत से बड़ी विनम्रता से प्रार्थना
की कि रातभर मेरे यहां .रहिए, सुबह बातें होंगी।
सबेरे
उन्होंने भगत को बुलाकर बताया, महाराज, रात को भगवान ने
मुझे भी दर्शन दिए हैं और कहा कि सामने वह जो ताड़ है, उसके
नीचे पांच फुट की गहराई पर खजाना गड़ा हुआ है, उसे निकालकर
भगत के हवाले कर दो। अगर वहां गुप्त खजाना न मिले तो? भगत ने
शंका की। महाराज, पंडित मणि ने कहा, मुझे
भी यही शंका हुई थी और मैंने हिम्मत करके भगवान मुरुगन से पूछ भी लिया। उन्होंने
फौरन उत्तर दिया कि अगर वहा खजाना न मिले तो वहा भगत जी को गाड़ दो। यह सुनना था कि
बगुला भगत लोटा—सोटा उठाकर वहां से भाग गया।
न
तुम्हें भरोसा है तुम्हारे भगवान का, न तुम्हारे बच्चों को आएगा,
न तुम जिनको सलाह देते हो उन्हें आएगा। तुम्हारा जीवन तुम्हारी कथा
कहता है। तुम झूठ चला नहीं सकते। झूठ पकड़ा ही जाएगा।
अब
तुम कहते हो कि 'सलाह देने में मैं बड़ा कुशल हूं। '
यह
कुशलता महंगी पड़ रही है। यह कुशलता छोड़ो। इस कुशलता से किसी को लाभ नहीं हुआ, हालांकि
तुम्हारा जीवन व्यर्थ जाएगा। इस कुशलता के कारण कोई तुम्हें कभी धन्यवाद नहीं
देगा। लोग सिर्फ ऊबते होंगे तुम्हारी सलाह से। क्योंकि 98
मातरम् पितरम हत्वा जब तक कोई सलाह मांगे नहीं, तब तक
देना मत। और जब कोई सलाह मांगे, तो तभी देना जब तुम्हारे
जीवंत अनुभव से निकलती हो। तो किसी के काम पड़े। तो किसी के जीवन में राह बने। तो
किसी के अंधेरे में दीया जले।
ये
दो कसौटी खयाल रख लेना। पहले तो बिन मांगी सलाह देना मत। क्योंकि बिन मांगी सलाह
कोई पसंद नहीं करता,
अपमानजनक है। बिन मांगी सलाह का मतलब होता है कि तुम दूसरे को
अज्ञानी सिद्ध करने की कोशिश कर रहे हो। दूसरे के अहंकार को चोट लगती है। वह तुमसे
बदला लेगा। तुम्हारी सलाह से उसे तो कोई लाभ न होगा, शायद
तुम्हें हानि पहुंचाए। सलाह देने वालों को लोग माफ नहीं कर पाते।
तो
पहले तो बिन मांगी सलाह देना मत। और सौ में निन्यानबे सलाहें बिन मांगी दी जाती
हैं। फिर अगर कोई मांगे भी,
तो विचार कर लेना कि तुम्हारी अपनी अनुभूइत क्या है। अपनी अनुशइत के
विपरीत सलाह मत देना। अगर तुम ये दो बातें करने में सफल हो जाओ तो न तो तुम किसी
को हानि पहुंचा सकोगे, न तुम किसी का अपमान करोगे, न तुम लोगों का मन व्यर्थ कचरे से भरोगे। यह कुशलता छोड़ो! यह कुशलता काम
की नहीं है! यह गले में फांसी है तुम्हारे। और अगर ये दो बातें तुमने ध्यान में
रखीं तो तुम्हारे जीवन में धीरे—धीरे निखार आएगा, क्योंकि
तुम वही करोगे जो कहोगे, और वही कहोगे जो तुम करोगे।
जब
किसी व्यक्ति के जीवन में कृत्य में और विचार में तालमेल हो जाता है तो परम संगीत
पैदा होता है। नहीं तो ऐसा ही समझो कि तबला एक ढंग से बज रहा है और सितार एक ढंग
से बज रहा है,
दोनों में कोई तालमेल नहीं है। बेसुरापन है। ऐसे तुम्हारे विचार एक
ढंग से चल रहे हैं और तुम्हारा जीवन एक ढंग से चल रहा है। दोनों में कोई तालमेल
नहीं है। बैलगाड़ी में जुते बैल, एक इस तरफ को जा रहा है,
एक उस तरफ को जा रहा है, और बैलगाड़ी की
दुर्दशा हुई जा रही है। जीवन में संगीत तभी पैदा होता है, शांति
तभी पैदा होती है, सुख तभी पैदा होता है, जब तुम्हारे विचार और जीवन में एक तालमेल होता है, एक
सामंजस्य होता है, एक समन्वय होता है।
वही
कहो जो तुमने जाना हो। ईमानदार बनो। अगर तुमने ईश्वर को नहीं जाना है तो भूलकर
किसी से मत कहना कि ईश्वर है। कहना कि मैं खोजता हूं, अभी मुझे
मिला नहीं, तो कैसे कहूं! मिल जाएगा तो निवेदन करूंगा। या
इसके पहले तुम्हें मिल जाए तो मुझ पर दया करना, मुझे खबर
देना। अपने छोटे बच्चों से भी यही कहना कि ईश्वर को खोजता हूं, अभी मुझे मिला नहीं। बेटे, शायद तुझे मिल जाए,
मुझसे पहले मिल जाए—कौन जाने—तो मुझे याद रखना, मुझे बता देना। तेरा पिता अभी भी अंधेरे में है! तेरी गा अभी भी भटकती है!
काश, तुम अपने
बच्चों के प्रति इतने सच्चे हो सको, अपने पड़ोसियों के प्रति इतने
सच्चे हो सको, अपने मित्र—प्रियजनों के प्रति इतने सच्चे हो
सको, तुम सोचते हो, तुम्हारे जीवन में
कैसी न सुगंध आ जाएगी! कैसे न तुम सुंदर हो उठोगे!
यह
कुशलता छोड़िए। और सबसे पहले तो जो तुम किसी से कहने चले हो, उसे परखो,
जांचो, उसे जीवन की कसौटी पर कसो, वह सच भी है! ही, तुम्हें लगे कि सच है, फ्तें उससे रस मिले, तुम्हारे जीवन में आनंद बहे,
तुम्हारे जीवन में थोड़ी रोशनी हो, थोड़ा साफ—साफ
दिखने लगे, तुम्हारी आंखों का धुंधलका मिटे, फिर तुम जरूर कह देना। स्वभावत:, जब तुम्हें दिखायी
पड़ेगा, तो जिन्हें तुम प्रेम करते हो, उनसे
तुम निवेदन करना चाहोगे। लेकिन अभी तो अक्सर यही होता है कि तुम दूसरों को सलाह
इसलिए देते हो, सिर्फ यही सिद्ध करने को कि मैं तुमसे ज्यादा
ज्ञानी हूं मुझे ज्यादा पता है।
मैं
छोटा था तो मेरे गांव में एक बड़े पंडित थे, मेरे पिता के मित्र थे। मैं पिता का
खाया करता, कोई भी सवाल उठाता। मगर वह ईमानदार आदमी हैं,
उनकी ईमानदारी के कारण मेरे मन में उनके प्रति अपार श्रद्धा है। वह
मुझसे कहते, मुझे पता नहीं, तुम
पंडितजी के पास चलो। पंडितजी के प्रति मेरे मन में कोई श्रद्धा कभी पैदा नहीं हुई।
क्योंकि मुझे दिखता नहीं कि वह जो कहते थे, उसमें जरा भी
सचाई थी। उनके घर जाकर मैं बैठकर उनका निरीक्षण भी किया करता। वह जो कहते थे उससे
उनके जीवन का कोई तालमेल न था। लेकिन बड़ी ब्रह्मज्ञान की बातें करते थे।
ब्रह्मसूत्र पर भाष्य करते थे। और जब मैं उनसे ज्यादा विवाद करने लगता तो वह कहते,
ठहरो, जब तुम बड़े हो जाओगे, उम्र पाओगे, तब यह बात समझ में आएगी। मैंने कहा,
आप उम्र की एक तारीख तय कर दें। अगर आप जीवित रहे तो मैं निवेदन
करूंगा उस दिन आकर। मुझे टालने के लिए उन्होंने कह दिया होगा—कम से कम इक्कीस साल
के तो हो जाओ।
जब
मैं इक्कीस का हो गया,
मैं पहुंच गया। मैंने कहा, कुछ भी मुझे अनुभव
नहीं हो रहा है जो आप बताते हैं, इक्कीस साल का हो गया,
अब क्या इरादा है? अब कहिएगा बयालीस साल के हो
जाओ! बयालीस साल का हो जाऊंगा तब आगे की बता देना। टालो मत! तुम्हें हुआ हो तो कहो
कि हुआ, नहीं हुआ हो तो कहो कि नहीं हुआ। उस दिन न—मालूम
कैसे भाव की दशा में थे वे, कोई और था भी नहीं। नहीं तो उनके
भक्त बैठे रहते थे, भक्तों के सामने और कठिन हो जाता। उस दिन
उन्होंने आंख बंद कर लीं, उनकी आंख से दो आंसू गिर पड़े। उस
दिन मेरे मन में उनके प्रति श्रद्धा पैदा हुई।
उन्होंने
कहा, मुझे क्षमा करो, मैं झूठ ही बोला था, मुझे भी कहां हुआ है। टालने की ही बात थी। उस दिन भी तुम छोटे थे लेकिन
तुम पहचान गए थे, क्योंकि मैं तुम्हारी आंखों से देख रहा था,
तुम्हारे मन में श्रद्धा पैदा नहीं हुई थी। तुम भी समझ गए थे,
मैं टाल रहा हूं कि बड़े हो जाओ। मुझे भी पता नहीं है। उम्र से इसका
क्या संबंध! सिर्फ झंझट मिटाने को मैंने कहा था। मैंने कहा, आज
मेरे मन में आपके प्रति श्रद्धा का भाव पैदा हुआ। अब तक मैं आपको निपट बेईमान
समझता था। खयाल रखना कि तुम जो भी सलाह तुम्हारे जीवंत अनुभव से नहीं प्रगटी है,
देते हो, उससे तुम बेईमान समझे जाते हो,
ईमानदार नहीं। वही कहो जो जाना है। तब कितना कम कहने को रह जाता है!
कभी सोचा? कितना कम रह जाता है कहने को! एक पोस्टकार्ड पर
लिख सकते हो, इतना कम बचता है। सब कूड़ा—करकट हट जाता है। और
तुम चकित हो जाओगे, उस छोटे से पोस्टकार्ड पर लिखी गयी बातें
इतनी बहुमूल्य हो जाती हैं। एक—एक बात का वजन ऐसा हो जाता है जैसा हिमालय का वजन
हो। तुम जिसे दोगे, वह कृतकृत्य होगा!
पूछतें
हो, 'दूसरे को सलाह देना इतना सरल क्यों होता है?'
इसमें
कठिनाई है भी क्या?
तुम्हें करना नहीं है, करे तो दूसरा, फंसे तो दूसरा, न करे तो पछताए, करे तो पछताए। मुसीबत तुमने दूसरे की खड़ी कर दी। तुम्हें क्या अड़चन है?
तुम्हें दूसरे पर दया भी नहीं है। सिर्फ दयाहीन मुफ्त सलाह देते
हैं। तुममें करुणा भी नहीं है। तुम्हें दूसरे के प्रति सहानुश्रइत भी नहीं है।
मैंने
सुना, मुल्ला की पत्नी चौके के बाहर आयी और उसने कहा, नसरुद्दीन,
आज मेरे दांत में बहुत दर्द है। नसरुद्दीन ने अखबार से आंखें उठायीं, बड़ी बेरुखी से,
बेमन से, और कहा, तो
निकलवा दो। मेरे दांत में होता तो मैं तुरंत ही निकलवा देता। पत्नी ने कहा,
ही जी, लेकिन यह तुम्हारा दांत थोड़े ही है!
तुम्हारा होता तो मैं भी उसे निकलवाने में कोई कोर—कसर उठा न रखती।
अपना
दांत निकलवाना हो,
तो अड़चन होती है। दूसरे का दांत निकलवाना हो, इसमें
सलाह देने में क्या अड़चन है? दूसरे को सलाह देने में अड़चन
नहीं है। इसीलिए मैं कहता हूं सोचकर देना। कच्ची मत दे देना। ऐसे ही मत दे देना।
टालने को मत दे देना। व्यर्थ ज्ञान का प्रभाव दिखाने को मत दे देना। थोथे आडंबर के
कारण मत दे देना। पीडा से देना, सोचकर देना, अनुभव करके देना, उसके साथ सहानुभूति रखकर देना।
तो
तुम पाओगे कि तुम्हारी हर सलाह दूसरे को बदले न बदले, तुम्हें
बदलती है। तुम अपनी हर सलाह में पाओगे कि तुम्हारा जीवन निखरता है। हर सलाह
तुम्हारे जीवन पर छेनी की एक चोट बनेगी। तुम्हारी प्रतिमा ज्यादा साफ उभरेगी।
भीड़ में ऐसे कोई
इंसान की बातें करे
जैसे पत्थर के
बुतों में जान की बातें करे
झूठ को सच पर जहां
तरजीह देना आम हो
कौन होगा जो वहा
पर ज्ञान की बातें करे
है तो खुशफहमी महज
लेकिन बहस से फायदा
है तो खुशफहमी महज
लेकिन बहस से फायदा
शापग्रस्तों से
कोई वरदान की बातें करे
मंजिलों की ओर बढ़ना
है तो चलते ही रहो
लाख दुनिया
गर्दिशो—तूफान की बातें करे
जो स्वयं चल पाए
काधे पर लिए अपनी सलीब
हक बजानिब है वही
ईमान की बातें करे
जब
तक अपने कंधे पर अपनी सूली लेकर तुम न चले होओ, तब तक ईमान की बातें करना ही मत।
जब तक धर्म के रास्ते पर तुमने तकलीफ न उठायी हो, तब तक धर्म
की बात करना ही मत। जब तक प्रभु के चरणों में तुमने अपना सिर काटकर न चढ़ाया हो,
तब तक प्रभु — अनुभव की बात करना ही मत। जब तक अपने मन को राख करके
समाप्त न कर दिया हो, तब तक ध्यान—समाधि की बात करना ही मत।
जो स्वयं चल पाए काधे पर लिए अपनी सलीब
हक बजानिब है वही
ईमान की बातें करे
तब
तुम्हें हक मिलता है। नहीं तो गैर—अधिकार बात है। हिंसा है। इसे रोको। इसे छोड़ो।
इस जाल को तोड़ो,
इसके बाहर आओ। तुम्हारा जीवन ही तब सलाह बन जाता है। तुम्हारे उठते—बैठते
से लोगों को किरणें मिलेंगी। तुम्हारी आंख का इशारा पर्याप्त होगा।
अभी
तुम लाख सिर मारो,
तुम जब कह रहे हो बड़े बल से, तब भी तुम्हारे
भीतर की निर्बलता साफ जाहिर होती है। तुम लड़खड़ा रहे हो। तुम कह रहे हो श्रद्धा की
बात और भीतर संदेह खड़ा है। इस श्रद्धा में श्रद्धा जैसा कुछ भी नहीं है।
गुरजिएफ
का एक बड़ा शिष्य आस्पेंस्की जब पहली दफा उसे मिला तो गुरजिएफ ने आस्पेंस्की से कहा, यह कोरा
कागज है, इस पर तू एक तरफ लिख ला कि क्या तू जानता है और
दूसरी तरफ लिख ला कि क्या तू नहीं जानता है। आस्पेंस्की ने कहा, क्यों? तो गुरजिएफ ने कहा, ताकि
जो तू जानता है, उसकी बात हम कभी न करेंगे—जब तू जानता ही है
तो उसकी हम बात क्यों करें? जो तू नहीं जानता, उसकी बात करेंगे। जो तू नहीं जानता, वह मैं जनाने की
कोशिश करूंगा; जो तू जानता है, वह
समाप्त हो गयी बात।
सोचते
हो, किस कठिनाई में पड़ गया होगा आस्पेंस्की! ले तो लिया कागज हाथ में, बगल की कोठरी में चला गया। सर्द रात थी और बर्फ पड़ रही थी बाहर, लेकिन उसे पसीना आने लगा। कलम तो उठा ली, लेकिन
लिखने को कुछ न सूझे—क्या जानता हूं?
और
आज बात बड़ी महंगी थी—सस्ती नहीं थी—क्योंकि एक दफा लिख दिया इस कागज पर, तो वह तो
जानता है गुरजिएफ को कि वह आदमी ऐसा है कि अगर लिख दिया कि ईश्वर को जानता हूं तो
फिर ईश्वर की बात न करेगा! लिख दिया कि ध्यान को जानता हूं तो फिर ध्यान की बात न
करेगा। लिख दिया कि प्रेम को जानता हूं, तो फिर प्रेम की बात
न करेगा। आज बड़ी कठिन थी बात। बड़ी कठिन घड़ी थी। महंगा था यह सौदा। आज सोचकर ही
लिखना था। खूब सोचने लगा, प्रेम को जानता हूं? ध्यान को जानता हूं? धर्म को जानता हूं? ईश्वर को, आत्मा को, क्या
जानता हूं? उसने बड़ी किताबें लिखीं थीं इसके पहले—आस्पेंस्की
ने—जगतख्याति थी उसकी। गुरजिएफ को तो कोई जानता भी न था, एक
गरीब फकीर! लेकिन आस्पेंस्की जगतख्यात था, उसकी किताबें सारी
दुनिया में थीं, अनेक भाषाओं में अनुवादित हो चुकी थीं,
लोग उसे ज्ञानी की तरह मानते थे।
यह
ज्ञानी लेकिन आदमी ईमानदार रहा होगा। एक घंटेभर बाद वापस आया, इसने कोरा
कागज गुरजिएफ के हाथ में दे दिया और कहा, मुझे कुछ भी पता
नहीं है, आप अ, ब, स से शुरू करें। मैं निपट अज्ञानी हूं, इससे बात
शुरू करें। गुरजिएफ ने कहा, तब कुछ हो सकता है। मैं सोच रहा
था कि तूने कितना अज्ञान अपनी किताबों में बघारा है! कितनी बातें तू लोगों को सलाह
देता रहा है! आज कसौटी हो जाएगी कि तू आदमी ईमानदार है या नहीं? तू ईमानदार है। मैं तुझे स्वीकार करता हूं। तू इस रास्ते पर बढ़ सकेगा।
जगत
की बडी से बड़ी ईमानदारी इस बात में है कि हम स्वीकार करें कि हमें मालूम नहीं है।
जो स्वीकार करते हैं कि हम अज्ञानी हैं, किसी दिन ज्ञानी हो सकते हैं। जो
स्वीकार करने में झिझकते हैं, जो थोथे और झूठे ज्ञान को अपना
ज्ञान दावा करते रहते हैं, उनके ज्ञानी होने की कोई संभावना
नहीं है।
दूसरा प्रश्न:
ट्राजेक्यानल एनालिसिस के बारे में बोलते हुए
आपने कहा कि अगर इस विधि के खोजने वालों को भगवान बुद्ध का मातरम् पितरम् हत्वा
वाला सूत्र मिल जाए तो यह विधि अपूर्व रूप से उपयोगी हो जाए। इस पर कुछ और प्रकाश
डालने की कृपा करें।
मनुष्य जब पैदा होता है, तो कोरे कागज
की तरह पैदा होता है। मनुष्य जब पैदा होता है, तो शुद्ध
निर्मलता की तरह पैदा होता है। मनुष्य जब पैदा होता है, तो
पूर्ण स्वतंत्रता की तरह पैदा होता है। बेशर्त। उस पर कोई सीमा नहीं होती, कोई मर्यादा नहीं होती—अमर्याद, असीम। मनुष्य जब
पैदा होता है, तो आत्मा की तरह पैदा होता है। फिर समाज,
परिवार, पिता, माता,
शिक्षक, स्कूल, कालेज,
विश्वविद्यालय, सब मिलकर इस आत्मा के आसपास मन
की एक पर्त खड़ी करते हैं। मन की एक दीवाल बनाते हैं।
ध्यान
रखना, मन समाज द्वारा निर्मित होता है। आत्मा तुम्हारी है, शरीर प्रकृति का है और मन समाज का है। मन बिलकुल उधार और बासी चीज है।
शरीर भी सुंदर है, क्योंकि प्रकृति का सौंदर्य है उसमें—झरनों
की कलकल है तुम्हारे खून में, मिट्टी की सुगंध है तुम्हारी
देह में, जैसे आकाश के तारे हैं ऐसी ऊर्जा है तुम्हारे प्राण
में; तुम्हारा शरीर निसर्ग से आया, वह
प्राकृतिक है। वह प्रकृति है। तुम्हारी आत्मा परमात्मा से आयी। दोनों सुंदर हैं,
दोनों अपूर्व रूप से सुंदर हैं। दोनों के बीच में एक दीवाल है मन
की। मन समाज द्वारा निर्मित है। मन तुम्हारे शरीर को भी दबाता है और तुम्हारी
प्रकृति को धीरे— धीरे विकृति बना देता है। मन तुम्हारी आत्मा को भी दबाता है,
घेरता है और कारागृह में बंद कर देता है।
मन
के दो काम हैं—शरीर की प्रकृति को नियंत्रित कर लेना और आत्मा की अबाध स्वतंत्रता
को कारागृह में डाल देना।
सारे
धर्म का इतना ही सूत्र है,
मन से कैसे मुक्त हो जाएं। जो समाज ने किया है, धर्म उसे नकारता है। बुद्धपुरुषों का इतना ही उपयोग है, सदगुरु के पास होने का इतना ही प्रयोजन है कि जो समाज ने तुम्हारे साथ कर
दिया है, सदगुरु उसे धीरे — धीरे हटाता है, तुम्हें सहयोग देता है कि तुम हटा दो। समाज ने जो दीवाल तुम्हारे तरफ चुन
दी है मन की, विचारों की, उसकी एक—एक
ईंट खिसका देता है।
जिस
दिन मन विसर्जित हो जाता है, उसी दिन समाधि लग जाती है। जिस दिन शरीर
नैसर्गिक और आत्मा स्वतंत्र, इन दोनों के मध्य समाधि का स्वर
उठता है। यह जो चीन की दीवाल है—मन—यह दोनों को अलग किए है। अ—मन समाधि का सूत्र है,
नो—माइंड, उन्मन। मन से मुक्त हो जाना ध्यान
का अर्थ है।
तो
सारे धर्म की आधार—शिला एक ही है कि समाज ने जो किया है, उसे कैसे
अनकिया किया जा सके। तुम फिर से कैसे उस जगह पहुंच जाओ जहां तुम पैदा हुए थे।
तुम्हारी आंखें फिर कैसे उसी तरह निर्धूम
और निर्धूल हो जाएं, जैसी जब तुम पहली दफा मां के पेट से
जन्मे थे और आंखें खोली थीं उस क्षण थीं।
कोई पर्दा न था। तुम्हारे कान फिर कैसे वैसे ही खुल जाएं जैसे पहली दफा जब तुमने
ध्वनि सुनी थी तब थे। तुम्हारा स्पर्श कैसे फिर उतना ही संवेदनशील हो जाए जैसा
पहले दिन था जब तुम जन्मे थे। तुम फिर कैसे उसी तरह मुक्त सांस लेने लगो, जैसी तुमने पहली सांस ली थी। तुम फिर कैसे वैसे ही हसो—क्यारे—तुम फिर
कैसे वैसे ही रोओ—क्वारे—कैसे तुम क्वारे हो जाओ, कैसे समाज
ने तुम पर जो—जो थोपा है वह फिर से हटा लिया जाए।
समाज
के इस आरोपण में माता—पिता ने बहुत बड़ा हाथ बंटाया है, क्योंकि
वे ही तुम्हारा पहला समाज थे। फिर तुम्हारे भाई—बहन थे, फिर
तुम्हारे पड़ोसी थे, फिर स्कूल था, फिर
कालेज था, फिर युनिवर्सिटी थी, फिर यह
सारा विस्तार था—पर्त दर पर्त, जैसे कि प्याज होती है,
एक पर्त के ऊपर दूसरी पर्त जमती चली गयी है। अब तो तुम खो ही गए हो
भीड़— भड़क्के में। अब तो तुम्हें पता ही नहीं चलता कि तुम कौन हो। अब तो तुम्हें
पूछना पड़ता है कि मैं कौन हूं। वर्षों चेष्टा करोगे कि मैं कौन हूं, तब कहीं तुम्हें उत्तर आएगा। क्योंकि जहां से उत्तर आ सकता है उसमें और
तुम्हारे बीच इतना अंतराल हो गया है, और इतनी दीवालें,
और इतने पर्दे, और इतनी अड़चनें, इतनी बाधाएं हो गयी हैं। धर्म का अर्थ है, इन बाधाओं
को कैसे हटाए।
इसका
यह अर्थ नहीं होता कि हम बच्चे को इस तरह पाल सकते हैं कि उस पर कोई पर्दे ही न
पड़े। यह असंभव है। समझना इसे। मेरी बात सुनकर बहुत बार ऐसा लग जाता है, तो फिर हम
बच्चों को कोई संस्कार क्यों दें? संस्कार देने से बचा नहीं
जा सकता। संस्कार देने ही पड़ेंगे। अनिवार्य बुराई है। नेसेसरी इविल।
आखिर
बच्चा आग की तरफ जा रहा होगा तो रोकना ही पड़ेगा कि मत जाओ। संस्कार मिलेगा।
अंधेरी रात में बच्चा बाहर जाना चाहेगा तो मां को कहना पड़ेगा कि मत जाओ, खतरा है;
भय पैदा होगा, निर्भय पर सीमा बन जाएगी भय की।
जहर घर में रखा होगा तो दूर रखना पड़ेगा, बच्चे के हाथ तक न पहुंच
जाए। हाथ पहुंच जाए तो झटके से छीन लेना होगा। बच्चा अपने को नुकसान पहुंचा सकता
है, दूसरे को नुकसान पहुंचा सकता है। ये सारी बातें रुकावट
डालनी होंगी। बच्चे को संस्कार देने होंगे। बच्चे को अनुशासन देना होगा। हर कहीं
खड़े होकर मल—मूत्र विसर्जन करे तो रोकना होगा, समय पर,
ठीक स्थान पर मल—मूत्र विसर्जन करे, इसकी
शिक्षा देनी होगी, टायलेट ट्रेनिंग देनी होगी। समय पर भोजन
मांगे, दिनभर भोजन न करता रहे, हर घड़ी,
हर कहीं, हर कोई काम न करने लगे, एक विवेक देना होगा। इससे बचा नहीं जा सकता। यह करना ही होगा। कम—ज्यादा,
ऐसा—वैसा, लेकिन यह होगा ही। यह अनिवार्य है।
और
धर्म जो कहता है,
वह भी बात महत्वपूर्ण है। जब यह सारी की सारी व्यवस्था निर्मित हो
जाएगी, तो एक दिन इसे तोड़ना भी इतना ही जरूरी है। फिर तोड़ा
जा सकता है। जिसके भीतर अनुशासन आ गया, उसे अनुशासन से मुक्त
किया जा सकता है।
इस
बात को समझना,
इसके विरोधाभास को समझना।
वस्तुत:
उसे ही अनुशासन से मुक्त किया जा सकता है, जिसके भीतर अनुशासन आ गया। जब तक
नहीं आया है, तब तक तो मुक्त नहीं किया जा सकता है। जिसके
भीतर समझ आ गयी, उसे फिर संस्कार से मुक्त किया जा सकता है।
इसलिए हमने इस देश में संन्यासी को सारे संस्कारों से मुक्त रखा। हमने उसके ऊपर
वर्ण की बाधा नहीं मानी, आश्रम की बाधा नहीं मानी, संन्यासी होते ही समाज की सारी व्यवस्था के बाहर माना। सारी व्यवस्था का
अतिक्रमण कर गया। जो संन्यस्त हो गया, उस पर अब कोई रुकावट
नहीं, कोई बाधा नहीं, उसकी स्वतंत्रता परम
है। न शास्त्र रोकता है, न संस्कृति, न
समाज। क्यों? क्योंकि हमने यह जाना कि संन्यस्त होने का अर्थ
ही यही होता है कि कम से कम समझ पैदा हो गयी, अपनी समझ पैदा
हो गयी, अब ऊपर से रोपी गयी समझ की कोई जरूरत नहीं है।
ऐसा
ही समझो कि बच्चा चलना शुरू करता है तो मा उसका हाथ पकड़ती है, चलाती है।
यह हाथ सदा नहीं पकड़े रहना है। एक दिन पकड़ना पड़ता है, एक दिन
छोड़ना भी पड़ता है। अगर मां बहुत दया में इस हाथ को पकड़े ही रहे तो दुश्मन है। जब
बच्चा चलना सीख जाए, तो जैसे एक दिन मां ने दया करके बच्चे
का हाथ पकड़ा था, ऐसे ही दया करके हाथ हटा भी लेना होगा। नहीं
तो यह बच्चा जवान हो जाएगा और मां इसका हाथ पकड़े फिरेगी—यह कभी प्रौढ़ ही न हो
पाएगा। बहुत सी माताएं ऐसा करती हैं। बहुत से पिता ऐसा करते हैं। उनके बच्चे
मुर्दा रह जाते हैं—गोबर—गणेश।
सहारा
दो, पर सहारा जरूरत से ज्यादा मत दे देना। सहारा देना इसीलिए कि किसी दिन
व्यक्ति बेसहारा खड़ा हो सके। अपने पैर पर खड़ा हो सके। नियम देना, ताकि नियम से मुक्त हो सके। संयम देना, ताकि संयम से
मुक्त हो सके। सब समझा देना, जब उसकी सब समझ साफ हो जाए,
तो उससे कहना, अब समझ भी छोड़ दे, अब तू मुक्त हो सकता है।
यह
दूसरी बात नहीं हो पाती। पहली बात हो जाती है, दूसरी अटक जाती है। ट्रांजेक्यानल
एनालिसिस का इतना ही अर्थ है कि यह दूसरी बात हो जाए। जो मां एक दिन तुम्हारा हाथ
पकड़ ली थी, वह पकड़े ही न रह जाए, उसका
हाथ एक दिन छोड़ना जरूरी है। अगर उसने न छोड़ा हो तो तुम छोड़ना। तुम्हें वह हाथ से
मुक्त हो जाना जरूरी है। तुम्हारे पिता ने एक दिन तुम्हें सुरक्षा दी थी, तुम्हें सब तरफ से घेरकर सुविधा दी थी, एक दिन वह
घेरा तोड़ देना। अगर पिता तोड्ने को राजी न हों तो तुम तोड़ देना। वह तोड़ना जरूरी है,
अन्यथा तुम घेरे में आबद्ध मर जाओगे। वह घेरा तुम्हारी कब्र हो
जाएगा।
देखते
न, एक पौधे को लगाते.. मुक्ता यहां बगीचे में पौधा लगाती है, तो उसके सहारे के लिए एक बांस लगा देती है। फिर ऐसा हुआ कि यह यूक्लिप्टस
यहां पास में है, इसका बांस लगा ही रहा। वह यूक्लिप्टस बड़ा
हो गया है, लेकिन प्रौढ़ नहीं हो पा रहा। छप्पर से ऊपर उठ गया
है, लेकिन बिना बांस के गिर जाता है। उसमें रीढ़ पैदा नहीं हो
पायी। बांस जरूरत से ज्यादा लगा रह गया। अब कोई उपाय नहीं दिखता कि अब क्या किया
जाए! अब बांस को हटाओ तो गिरता है, मर जाएगा। बांस को न हटाओ
तो खतरा है—क्योंकि अब, अब बांस की जरूरत नहीं है, यह बांस हट जाना चाहिए था। ऐसी हालत बहुत लोगों की है।
छोटा
वृक्ष होता है,
उसके चारों तरफ हम बागुड़ लगा देते हैं, कटघरा
खड़ा कर देते हैं—सुरक्षा के लिए—फिर एक दिन कटघरे को अलग कर लेना होता है। हम अलग
न करें तो वृक्ष तोड़कर आगे बढ़ जाता है।
ऐसी
ही अवस्था मनुष्य की है। मनुष्य एक छोटा पौधा है। बच्चा एक बहुत नाजुक घटना है।
उसके आसपास सब तरह की सुरक्षा चाहिए। लेकिन धीरे— धीरे सुरक्षा हटनी चाहिए। तो ही
बच्चा बलशाली होगा,
तो ही उसके भीतर रीढ़ पैदा होगी। इसलिए अक्सर ऐसा होता है कि बड़े
घरों के बेटे बिना रीढ़ के होते हैं। जिनके पास खूब सुख—सुविधा है, उनके बच्चे मुर्दा होते हैं।
तुमने
देखा होगा, बड़े घरों में प्रतिभाशाली लोग पैदा नहीं होते। प्रतिभा पैदा ही नहीं होती।
जितना धन—पैसा हो किसी घर में, उतने ही बुद्ध पैदा होते हैं।
प्रतिभा के लिए चुनौती चाहिए। अमीर का बेटा, चुनौती ही नहीं
है उसके लिए, वह कहता है, जो चाहिए वह
मुझे मिला ही हुआ है, अब और क्या करना है! पढ़—लिखकर भी क्या
होगा! विश्वविद्यालय में सिर मारने से भी क्या फायदा है!
मैंने
सुना है, हेनरी फोर्ड—अमरीका का बड़ा करोड़पति—अपने बेटों कौ गरीबों की तरह पाला।
फोर्ड के बड़े मोटर—कारखाने के सामने उसके बेटे छोटे जब थे तो जूते पर पालिश करते
थे। किसी ने हेनरी फोर्ड को कहा, यह तुम क्या कर रहे हो?
उसने कहा कि मैं ऐसे ही जूते पालिश करता था, उस
जूते पालिश करने से मैं हेनरी फोर्ड बना। अगर मेरे बच्चे अभी से हेनरी फोर्ड बन गए,
तो एक दिन जूता पालिश करेंगे।
बात
में बल है, बात सच है। आदमी कठिनाई से बढ़ता है, सुविधा से दब
जाता, मर जाता। अति सुविधा हितकर नहीं है। थोड़ी असुविधा भी
होनी चाहिए, थोड़ी सुविधा भी। और धीरे— धीरे सुविधा हटती जानी
चाहिए और चुनौती बड़ी होती जानी चाहिए। हटा लो बांस, हटा लो
बागुड़, ताकि वृक्ष उठे, तूफानों से
टक्कर ले, अंधड़ों से जूझे, तो जड़ें
मजबूत होंगी। तो उसके पैर जमीन में धंसेंगे और बल आएगा, आत्मविश्वास
आएगा। यह भरोसा आएगा कि मैं तूफानों से जूझ सकता हूं कि मैं चांद—तारों की यात्रा
पर अकेला जा सकता हूं कि मेरे पैर मजबूती से जमीन में गड़े हैं—यह पृथ्वी मेरी है,
यह आकाश मेरा है।
ट्राजेक्यानल
एनालिसिस का बुनियादी आधार यही है कि एक दिन व्यक्ति को अपने मां—बाप से मुक्त
होना चाहिए। बुद्ध का जो सूत्र है, मातरम् पितरम् हत्या, वह इसी का सूत्र है। बुद्ध कहते हैं, एक दिन माता—पिता
की हत्या कर देनी चाहिए। ठीक यही बात जीसस ने भी कही है। ईसाई भी इस बात को पकड़
नहीं पाए और बड़े शर्मिंदा हो जाते हैं; जब बाइबिल में यह वचन
उनको दिखलाया जाता है तो वे बड़े परेशान हो जाते हैं। वे हल नहीं कर पाते। क्योंकि
जीसस ने कहा है, जब तक तुम अपने माता—पिता को घृणा न करो,
तुम मेरे शिष्य न हो सकोगे।
अब
यह भी बात उस आदमी के मुंह से जो प्रेम का उपदेष्टा था; जिसने कहा,
अपने दुश्मन को भी प्रेम करना, और जिसने कहा
कि जो तुम्हारे एक गाल पर चांटा मारे उसके सामने दूसरा भी कर देना, और जिसने कहा कि जो तुम्हारा कोट छीन ले उसको कमीज भी दे देना, हो सकता है बेचारे को कमीज की भी जरूरत हो, और जो
तुमसे एक मील बोझ ले जाने को कहे उसके साथ दो मील चले जाना, क्योंकि
कौन जाने संकोचवश कह न रहा हो; शत्रु को भी अपने जैसा प्रेम
करना; जिसने यह बात कही, उन्हीं ओंठों
से यह दूसरी बात बड़ी अजीब लगती है कि जब तक तुम अपने मां—बाप को घृणा न करोगे,
मेरे शिष्य न हो सकोगे।
ईसाइयत
इन वचनों को छिपाती रही है। इन पर व्याख्या नहीं की जाती। बुद्ध का वचन तो और भी
खतरनाक है। जीसस तो कहते हैं, जब तक तुम अपने माता—पिता को घृणा न करो—यह कुछ
भी नहीं है! मेरी अपनी समझ यही है कि बुद्ध का सूत्र ही है जो जीसस के कानों में
पड़ गया था, लेकिन जीसस ने इसमें बदलाहट की होगी। क्योंकि
जिनसे वह बात कर रहे थे वे तो यह भी नहीं समझ पा रहे थे, हत्या
की बात सुनकर तो वे बिलकुल ही पागल हो जाते कि तुम कह क्या रहे हो! बुद्ध ने कहा
है, मां—बाप की हत्या न करे जो, वह
भिक्षु न हो सकेगा।
यह
तो और भी कठिन बात हो गयी—और बुद्ध के मुंह से! महाकरुणावान! बुद्ध से ज्यादा
करुणा से भरा कोई व्यक्ति नहीं हुआ, हिंसा की बात कह रहे हैं—हत्या कर
दो मां —बाप की!
समझ
लेना। बाहर के मां—बाप से इसका प्रयोजन नहीं है। तुम्हारे भीतर जो संस्कारित होकर
मां —बाप बैठ गए हैं,
उनकी हत्या कर दो। तुम्हारे भीतर जो मां—बाप की आवाज बहुत गहरे में
प्रविष्ट हो गयी है, जो तुम्हें अब भी मुक्त नहीं होने देती,
जो संस्कार तुम्हारे भीतर बहुत जंजीर की तरह बंधा पड़ा है, उसे तोड़ दो।
ऐसा
रोज तुम्हें अनुभव होगा अगर तुम थोड़ा समझपूर्वक जीओगे, थोड़े
ध्यानपूर्वक जीओगे, थोड़ी स्मृति को जगाओगे, तो तुम घड़ी—घड़ी पाओगे।
मेरे
एक मित्र हैं,
हिंदी के बड़े कवि हैं। कोई पचास साल तो उम्र है, पत्नी है, बच्चे हैं; लड़की की
शादी हो गयी, उसके बच्चे हैं। एक दफा मेरे साथ सफर किए। उनकी
पत्नी ने मुझसे कहा कि सफर में आपको इनकी कई खूबियां पता चलेंगी। मैंने कहा,
यह मेरे पुराने परिचित हैं। उन्होंने कहा, इससे
कुछ नहीं होता। सफर में पता चलेंगी। और सफर में पता चलीं।
डाक्टर
के बेटे हैं वह। पिता तो चल बसे। पिता कुछ झक्की किस्म के थे। डाक्टर थे और झक्की।
सो दोहरी बीमारियां। झक्की ऐसे थे कि हर चीज में शक होता था कि कहीं कोई इकेक्यान
न लग जाए, यह न हो जाए, वह न हो जाए। वही झक्क इनको भी है। वह
मुझे पता भी नहीं था। जब ट्रेन में चाय आयी तो उन्होंने कहा कि नहीं, मैं नहीं पीऊंगा। मैंने कहा, क्या बात है? उन्होंने कहा, नहीं—नहीं। फिर भी, मुझे बताएं तो! उन्होंने कहा, नहीं, मुझे पीना ही नहीं, मुझे अभी इच्छा ही नहीं है। चलो,
मैंने कहा, कोई बात नहीं।
भोजन
का वक्त हो गया। भोजन आया तो कहा, नहीं, मुझे भोजन भी नहीं
करना है। तो मैंने कहा, हुआ क्या तुम्हारी भूख को? उन्होंने कहा, नहीं, कोई बात
नहीं। पर मैंने कहा कि कोई तकलीफ हो रही है? पेट में कुछ
अड़चन है? क्या बात है? उन्होंने कहा,
अब आप बार—बार जिद्द करेंगे और चौबीस घंटे साथ रहना है, बात यह है कि मैं कहीं की चाय नहीं पी सकता और कहीं का भोजन नहीं कर सकता।
यह चौबीस घंटे मैं तो उपवास करूंगा। मैंने कहा, क्यों?
उन्होंने कहा, अब आप ज्यादा न छेड़े, बात यह है कि मुझे इकेक्यान का डर है। मैंने कहा, यह
डर आया कहां से? उन्होंने कहा कि मेरे पिता!
पिता
चल बसे, मगर पिता जो संस्कार दे गए हैं वह बैठा है। जब बुद्ध कहते हैं, माता—पिता की हत्या कर दो, तब बुद्ध यह कह रहे हैं
कि यह भीतर जो संस्कार है इसकी हत्या कर दो। अब यह फिजूल की बकवास है। और इतने डर—डरकर
जीओगे तो जीने में कोई सार ही नहीं है, मर ही जाओ। ऐसे डर—डरकर
तो जी न सकोगे। उनकी पत्नी ने मुझे बताया कि मेरे पति ने मुझे कभी चूमा नहीं;
क्योंकि इन्फेक्शन!
यह
तो बात सच है कि चुंबन से ज्यादा इन्फेक्सियस दुनिया में कोई और चीज नहीं है।
क्योंकि दूसरे के ओंठों से लाखों कीटाणु तुम्हारे ओंठों में चले जाते हैं। अब यह
पति तो तभी चूम सकते हैं अपनी पत्नी को जब, जब उसके ओंठ वगैरह सब स्टरलाइब्ड
किए जाएं। मगर तब तक चुंबन का अर्थ न रह जाएगा, प्रयोजन न रह
जाएगा। यह तो भय सीमा से आगे बढ़ गया। यह पागलपन आ गया।
तुम
जरा अपने भीतर खोजना,
शायद इतनी अतिशयोक्ति न हो, लेकिन तुम यही
पाओगे। जब तुम अपने बेटे से बात कर रहे हो तब जरा गौर करना, तुम
उसी ढंग से बात कर रहे हो, जिस तरह तुम्हारे पिता तुमसे बात
करते थे। यह बड़े मजे की बात है। तो तुम बढे जरा भी नहीं, तुम
वही दोहरा रहे हो, तुम ग्रामोफोन के रिकार्ड हो। तुम जब अपनी
पत्नी से झगड़ा करो तो जरा गौर से देखना, यह झगड़ा वैसे ही हो
रहा है जैसे तुम्हारे पिता और तुम्हारी मां का होता था। अक्सर तुम वही दोहरा रहे
हो। इसमें जरा भी नया नहीं, कुछ नवीन नहीं है।
और
अगर तुम स्त्री हो तो जरा गौर करना कि तुम अपने पति के साथ जो व्यवहार कर रही हो, वह तुमने
अपनी मां से सीखा। मां जो तुम्हारे पिता के साथ करती थी, वही
तुम अपने पति के साथ किए जा रही हो।
ऐसे
सदियों तक चीजें दोहरती रहती हैं। और चैतन्य का लक्षण है—नवीनता। जब इतना दोहराव
होता है जीवन में,
इतनी पुनरुक्ति होती है, तो चेतना दब जाती है,
जड़ हो जाती है, मर जाती है, तब तुम जीवंत नहीं रह जाते।
तुम
जरा जांचपरख करना। तुम अपनी भाव— भंगिमाओं में अपने माता—पिता को छिपा पाओगे। तुम
अपने व्यवहार में अपने माता—पिता को छिपा पाओगे, तुम अपने बोलने—चालने में
माता—पिता को छिपा पाओगे, तुम अपने कृत्यों में, दुष्कृत्यों में माता—पिता को छिपा पाओगे, अच्छे—बुरे
में छिपा पाओगे। तो तुम हो कहां? बुद्ध जब कहते हैं माता—पिता
की हत्या कर दो, तो वह कहते हैं उस हत्या के बाद ही तुम्हारा
जन्म होगा। एक जन्म तो हो गया, उतना जन्म काफी नहीं है,
द्विज बनो, अब दूसरा जन्म चाहिए, फिर से जन्मों। यह दूसरा जन्म तुम्हारी चैतन्य की पहली घोषणा होगी। दोहराओ
मत। तुम कोई अभिनय मत करो।
मगर
ऐसा ही हो रहा है। मैं लोगों को देखता हूं। मेरे पास कभी कोई आ जाता है, वह कहता
है कि मेरे पिता का ऐसा दुर्व्यवहार है, कि मेरी मां ऐसी
दुष्ट है, तो इस—मां तो यहां मौजूद नहीं है, पिता यहां मौजूद नहीं हैं—मैं इसी आदमी का निरीक्षण करता रहता कुछ दिन तक।
और अक्सर इस आदमी में ही प्रमाण मिल जाते हैं कि इसकी बात सच है या नहीं। इसको ही
देखकर इसके मां—बाप की सारी कथा धीरे— धीरे लिखी जा सकती है। इसके ही व्यवहार में
इसके मां—बाप को पकड़ा जा सकता है।
इस
बात के लिए बुद्ध ने कहा कि अपने मां—बाप की हत्या कर दो। अपने संस्कार जो एक दिन
जरूरी थे अब तोड़ डालो,
बागुड़ हटा दो, बांस गिरा दो, अब सहारे की जरूरत नहीं है। बैसाखियां फेंक दो। अब अपने पैर पर खड़े हो
जाओ। आत्मवान बनो। यह आत्मवान बनने का सूत्र ही ट्रांजेक्यानल एनालिसिस का सूत्र
भी है। स्वयं बनो। स्वत्व की घोषणा करो। उधार—उधार, बासे—बासे
न रहो।
तुम
निरीक्षण करोगे तो तुम बहुत चौकोगे। निन्यानबे प्रतिशत तुम उधार हो। और सबसे ज्यादा
उधारी मा—बाप के प्रति है,
स्वाभाविक। और ध्यान रखना, इसका यह मतलब भी
नहीं है कि बुद्ध यह कह रहे हैं, मां —बाप गलत थे—यह तो
बुद्ध कह ही नहीं रहे हैं। मां—बाप तुम्हारे कितने ही अच्छे रहे हों, इससे कोई संबंध नहीं है। अक्सर तो ऐसा होता है, बुरे
मां—बाप से छूटना कठिन नहीं होता, अच्छे मां—बाप से ही छूटना
कठिन होता है। अच्छे मां—बाप की जकड़ गहरी होती है। क्योंकि अच्छे से कैसे छूटो?
सोने की जंजीर होती है, उसे छोड़ो कैसे,
तोड़ो कैसे? बुरे मां—बाप से तो छुटकारा हो
जाता है, अच्छे मां—बाप से मुश्किल होता है। अच्छे से तो
लगाव बनता है, मोह बनता है—इतने प्यारे मां—बाप!
बुद्ध
यह नहीं कह रहे हैं कि तुम्हारे मा—बाप गलत हैं, बुद्ध का वक्तव्य मां —बाप
से कुछ भी संबंधित नहीं है। मां—बाप कैसे थे, इस संबंध में
बुद्ध के वक्तव्य में कोई बात नहीं कही गयी है—न अच्छा, न
बुरा। बुद्ध सिर्फ इतना ही कह रहे हैं कि प्रत्येक व्यक्ति को एक दिन अपने मां—बाप
से मुक्त होने की क्षमता जुटानी चाहिए। जिस दिन यह क्षमता तुम्हारी पूरी हो जाती
है कि तुम मा—बाप से पूरी तरह मुक्त हो गए, उस दिन तुम
व्यक्ति बने, उस दिन तुम आत्मवान हुए। उस दिन अगर तुम्हारे मां—बाप
को थोड़ी भी समझ है, तो वे आनंदित होंगे और उत्सव मनाएंगे।
तुम्हारा असली जन्म हुआ, तुम्हारा पहली दफा जन्मदिन आया।
तुम्हारे मां—बाप फूल लगाएंगे, दीए जलाएंगे। अगर उनमें समझ
है, तो भोज देंगे, मित्रों को बुलाएंगे
कि आज मेरा बेटा स्वत्व को उपलब्ध हुआ। आज यह हमारी पुनरुक्ति नहीं है, आज इसके अपने जीवन की यात्रा शुरू होती है।
इन
वक्तव्यों में माता—पिता से कुछ भी प्रयोजन नहीं है। इन वक्तव्यों में सिर्फ इतना
ही प्रयोजन है,
जैसे एक आदमी सीढ़ी चढ़ता है। बिना सीढ़ी चढ़े ऊपर की छत पर पहुंच नहीं
सकता, फिर अगर सीढ़ी को ही पकड़कर रुक जाए रास्ते में तो भी छत
तक नहीं पहुंच सकता। सीढ़ी पर चढ़ना भी होता है, फिर एक दिन
सीढ़ी छोड़ भी देनी होती है। और स्वभावत:, मां—बाप का संस्करण
सबसे गहरा होता है। क्योंकि वे हमारे सबसे ज्यादा करीब होते हैं, पहली शिक्षा उन्हीं से मिलती है।
अब
तुम इसे जरा समझो कि किस तरह हम जकड़े हुए हैं। पहली दफा बच्चा पैदा होता है, बच्चे का
जो पहला संसर्ग है जगत से, संसार से, वह
मा के स्तन से होता है। पहला संसर्ग, पहला संसार मां का स्तन
है। और तुम देखना, ऐसा पुरुष खोजना मुश्किल है जो स्त्री के
स्तनों से मुक्त हो। जब तक तुम स्त्री के स्तनों से मुक्त नहीं हो, तब तक तुम अभी बचकाने ही हो, अभी तुम पहले दिन के
बच्चे ही हो, जो मां के स्तन पर निर्भर था।
सदियां
बीत गयीं, लोग मूर्तियां बनाते तो स्तन महत्वपूर्ण, चित्र
बनाते तो स्तन महत्वपूर्ण; फिल्म बनाते तो स्तन महत्वपूर्ण,
कविता लिखते, उपन्यास लिखते तो स्तन
महत्वपूर्ण। और ऐसा मत सोचना कि आज ही, ऐसा हो गया है,
सदा से ऐसा है। तुम अपने पुराने से पुराने काव्यों को उठाकर देखो—कालिदास
को, कि भवभूति को—वहा भी वही है, स्तनों
का वर्णन है। तुम पुरानी से पुरानी मूर्तियां देखो, तो स्तन
बहुत उभारकर दिखाए गए हैं; इतने बड़े स्तन होते भी नहीं जितने
मूर्तियों में दिखाए गए हैं—खजुराहो जाकर देखो। इतने सुडौल स्तन होते भी नहीं
जितने चित्रकारी में और कविताओं में खोदे गए हैं।
यह
क्या बात है?
मामला क्या है? आदमी स्तन के पीछे ऐसा दीवाना
क्यों है? यह पुरुष स्तन के प्रति इस तरह उत्सुक क्यों है?
क्योंकि सभी पुरुषों का जो पहला संसर्ग संसार से हुआ, जो पहला संस्कार पड़ा, वह स्तन का है। और जो छोटा
बच्चा, छोटा सा बच्चा, उसके लिए स्तन
बहुत बड़ी घटना है। और स्वभावत:, स्तन जितना भरा हो, उतना बच्चे के लिए सुखद है। स्तन जितना सुडौल हो, उतना
बच्चे के लिए सुखद है—उतना ज्यादा दूध देता है। वही भाव पोषण का गहरे में बैठ गया
है। तो जिस स्त्री का स्तन बड़ा न हो, उसमें तुम्हारा रस कम
होता है।
तो
तुम्हारे भीतर जो बचपन में बैठा संस्कार है, अब भी तुम्हारी आंखों पर पर्दा किए
हुए है। अब जरूरी नहीं है कि छोटे स्तन वाली स्त्री बुरी स्त्री हो और बड़े स्तन
वाली स्त्री अच्छी स्त्री हो, जरूरी नहीं, आवश्यक नहीं। लेकिन प्लेब्बाय और दुनियाभर में जितनी अश्लील पत्रिकाएं
छपती हैं और अश्लील किताबें लिखी जाती हैं, उन सबमें बड़े
स्तनों पर बड़ा आग्रह है।
अमरीका
में तो अब यह है कि अगर स्तन छोटा हो तो लोग इंजेक्यान ले रहे हैं—सिलिकान का
इंजेक्यान—ताकि स्तन बड़ा हो जाए, सुडौल हो जाए, फूल जाए।
जबर्दस्ती फूल जाए तो भी चलेगा। कृत्रिम औषधि से फूल जाए तो भी चलेगा। मगर स्तन
फूला हुआ होना चाहिए, क्योंकि पुरुष उसमें आकर्षित है।
पुरुष
स्तन में आकर्षित है,
स्त्रियां भी स्तन में आकर्षित हैं। तो स्तन को सम्हाले रखने के लिए
न—मालूम कितने तरह की बा बनती हैं। स्तन को बड़ा दिखाने के लिए न—मालूम कितने तरह
की पैडिंग की जाती है। छिपाती भी हैं स्त्रियां स्तन को और दिखाती भी हैं। एक बड़ा
खेल चलता है। छिपाती भी हैं और दिखाती भी हैं। इस बात को खयाल में रखना। छिपा—छिपाकर
दिखाती हैं, दिखा—दिखाकर छिपाती हैं। स्त्रियों को भी पता है,
पुरुषों को भी पता है। लेकिन यह बडी बचकानी दुनिया है। इसका मतलब इस
दुनिया में कोई बढ़ता ही नहीं, प्रौढ़ होता ही नहीं। और यह
मैंने सिर्फ उदाहरण के लिए कहा। इसी तरह सारी चित्त की दशा है। तुम 'वहीं उलझे हो, जहां से कभी के पार हो चुकना था। तुम
वहां अटके हो, जहां से तुम सोचते हो पार हो चुके हो।
ट्राजेक्यानल
एनालिसिस कहती है,
अपने चित्त का ठीक से विश्लेषण किया जाए, अपने
कृत्यों की. ट्राजेक्यान का मतलब होता है, तुम जो कृत्य कर
रहे हो दूसरों से संबंधित होने में, अंतर्संबंधों में
तुम्हारे जो कृत्य हो रहे हैं, ट्रांजेक्यान जो हो रहा है,
जो तुम्हारा लेन—देन हो रहा है दूसरों से, उस
लेन—देन में ठीक से अगर विश्लेषण किया जाए, तो तुम पाओगे कि
तुम अपने बचपन में अभी भी उलझे हो वहा से तुम निकल नहीं पाए; शरीर बडा हो गया है, तुम्हारी चेतना विकसित नहीं हो
पायी। तुम्हारी आत्मा छोटी रह गयी है। इस छोटी आत्मा को मुक्त करना है। इसे
कारागृह के बाहर लाना है।
इसको
कारागृह के बाहर लाने का उपाय है—मातरम् पितरम् हत्वा, तुम माता—पिता
के हंता हो जाओ। इसलिए बुद्ध ने कहा अपने भिक्षुओं को कि देखते हो इस भिक्षु को!
यह महाभाग्यशाली है, यह अपने माता—पिता की हत्या करके परमसुख
को उपलब्ध हो गया है।
जिस
दिन तुम माता—पिता से मुक्त हुए, तुम संसार से मुक्त हुए। माता—पिता तुम्हारे
संसार का द्वार हैं। उन्हीं के कारण तुम संसार में आए हो, उन्हीं
के सहारे संसार में आए हो। जिस दिन उनसे मुक्त हो गए, उस दिन
तुमने निर्वाण के द्वार में प्रवेश कर लिया।
ट्रांजेक्यानल
एनालिसिस अभी प्रारंभिक है। बुद्ध का सूत्र अंतिम है, आखिरी है।
इसलिए मैंने कहा कि अगर ट्राजेक्यानल एनालिसिस के अनुयायियों को बुद्ध के ये
सूत्रों का पता चल जाए तो वे बड़े गदगद होंगे, उन्हें बड़ा
सहारा मिलेगा। तब .उनकी बात केवल मनोवैज्ञानिक ही न रह जाएगी, उनकी बात का एक धार्मिक आयाम भी हो जाएगा।
तीसरा प्रश्न
त्याग बड़ी बात है या छोटी?
आदमी आदमी पर
निर्भर है।
अगर
तुमने समझकर त्यागा तो बडी छोटी बात है। अगर नासमझी से त्यागा तो बड़ी बात है, बड़ी बड़ी
बात है। समझ का अर्थ होता है, तुमने जाना धन में कोई मूल्य
ही नहीं है। तो त्याग बड़ी छोटी बात है। कचरा था छोड़ दिया, तो
क्या छोडा? तुम उसका गुणगान न करोगे, स्तुति
न करोगे। स्तुति न करवाओगे, न आंकाक्षा करोगे। तुम कहते न
फिरोगे कि मैंने लाखों छोड़ दिए हैं। वहां कुछ था ही नहीं, तुम्हें
दिखायी पड़ गया है, इसलिए छोड़ा। कूड़ा—करकट था, छोड़ दिया, कंकड़—पत्थर थे, छोड़
दिए।
लेकिन
अगर तुमने किसी की बात सुनकर छोड़ा, स्वर्ग के लोभ में छोड़ा, पुरस्कार की आशा में छोड़ा, सोचा कि यहां छोड़ेंगे तो
वहां मिलेगा, परमात्मा के घर में खूब मिलेगा, यहां लाख छोड़े तो वहां दस लाख मिलेंगे, ऐसे गणित से
छोड़ा, तो तुम घोषणा करते फिरोगे। क्योंकि तुम्हें स्वयं
दिखायी नहीं पड़ा है कि धन व्यर्थ है। तुम तो और धन की आंकाक्षा में इस धन को छोड़े
हो। तुम शाश्वत धन की आशा में क्षणभंगुर धन को छोड़े हो। तुम तो भगवान के साथ भी
जुआ खेल रहे हो, लाटरी लगा रहे हो। तो तुमने बड़ा त्याग किया,
तुम घोषणा करोगे, चिल्लाते फिरोगे कि मैंने
इतना छोड़ा। मगर फिर त्याग हुआ ही नहीं।
मैंने
सुना है कि एक औरत मरी—एक सूफी कहानी है—एक औरत मरी। देवदूत उसे लेने आए। अब वे
सोचने लगे कि इसे कैसे स्वर्ग ले जाएं? इसने कोई अच्छा कृत्य कभी किया?
पूछा उसी की की आत्मा से, उसने कहा—हा,
मैंने एक मूली एक बार एक भिखारी को दी थी। तो उन्होंने कहा चल,
मूली के ही सहारे चल। मूली प्रगट हो गयी। उस औरत ने मूली को पकड
लिया, और वह स्वर्ग की तरफ उठने लगी। और लोगों ने देखा। उसको
स्वर्ग की तरफ उठते देखते कोई ने उसके पैर पकड़ लिए, वह भी
उठने लगा, किसी ने उसके पैर पकड लिए, वह
भी उठने लगा, बड़ी लंबी कतार लग गयी। क्यू तो लग गया। चली
स्त्री उठती और वह लंबी कतार चली उठती। स्त्री को बडा बुरा भी लगने लगा कि दान तो
मैंने की मूली और ये फालतू ऐरे—गैरे—नत्थू—खैरे, ये मेरे पैर
पकडकर चले आ रहे हैं। उसे बड़ा क्रोध भी आने लगा, उसे बड़ी अकड़
भी आने लगी।
आखिर
जब ठीक स्वर्ग के द्वार पर पहुंच गयी तो उसने कहा कि हटो, छोड़ो मेरे
पैर, मूली मेरी है। बात इतनी बढ़ गयी कि वह भूल ही गयी,
विवाद में हाथ छोड़ दिए मूली से और कहा, मूली
मेरी है। पूरी कतार जमीन पर गिर गयी। वह मेरे का भाव स्वर्ग के द्वार से वापस ले
आया।
अगर
त्याग किया है तो त्याग का अर्थ यह होता है कि तुम समझ गए कि यहां क्या मेरा, क्या तेरा?
तब तो छोटी बात है।
ऐसा
समझो, इस छोटी सी घटना को सुनो, बात है चैतन्य महाप्रभु
की। गृहस्थ थे तब की बात है। नाम था उनका निमाई पंडित। एक सुबह नौका में जा रहे थे,
हाथ में एक न्याय का हस्तलिखित ग्रंथ था और साथ थे सहपाठी रघुनाथ
पंडित। रघुनाथ ने आग्रह किया तो चैतन्य प्रभु अपना ग्रंथ उन्हें पढ़कर सुनाने लगे।
ज्यों—ज्यों वे ग्रंथ सुनाते जाते, तैसे —तैसे रघुनाथ पंडित
का दुख बढ़ता जाता और चित्त उदास होता जाता। अंत में रघुनाथ पंडित रो पड़े। निमाई ने
कारण पूछा, तो उन्होंने कहा, क्या
बताऊं, मैंने भी बड़े परिश्रम से एक ग्रंथ लिखा है—दिधिति।
समझता था कि यह ग्रंथ न्याय के ग्रंथों में सबसे प्रधान होगा, पर तुम्हारे इस ग्रंथ के आगे उसे कौन पूछेगा? इसलिए
मैं दुखी हो गया हूं। तुम्हारा ग्रंथ निश्चित उससे श्रेष्ठ है। मेरे वर्षों की
मेहनत व्यर्थ गयी।
निमाई
हंसकर बोले, बस, इतनी छोटी सी बात! इतनी सी छोटी बात के लिए इतना
दुख! यह लो, और उन्होंने पोथी को जल में फेंक दिया। एक क्षण
न लगा, पोथी जल में ड़ब गयी। पोथी के पन्ने जल में बिखर गए।
रघुनाथ ने कहा, यह तुमने क्या किया? इतने
महान ग्रंथ को ऐसे फेंक दिया! निमाई ने कहा, महान कुछ भी
नहीं, सब शब्दों का जाल है। बड़ा इसका कोई मूल्य नहीं है। दो
कौड़ी की बात है। तुम सुखी हो सको, इसके मुकाबले यह कुछ भी
नहीं। तुम्हारे ओंठ पर मुस्कुराहट आ सके, तो ऐसे हजार ग्रंथ
नदी में फेंक दूं।
निमाई
ने कहा, छोटी सी बात!
जब
तुम जीवन के सत्यों को ठीक—ठीक पहचानते हो तो त्याग बड़ी छोटी बात है। जब जीवन के
सत्यों को ठीक—ठीक नहीं पहचानते तो बड़ी कठिन बात है, बड़ी कठिन, और बड़ी बड़ी! तुम उसे खूब गुणनफल करके देखते हो। एक रुपया दान करोगे तो
हजार कहोगे। कुछ छोटा—मोटा दान कर दोगे तो धीरे — धीरे बढ़ाते जाओगे। तुमको पता ही
नहीं चलेगा कि तुम उसे बढ़ाते जा रहे हो। हर बार जब तुम बताओगे तो कुछ ज्यादा
बताओगे, और ज्यादा बताओगे, बात बढ़ती
चली जाएगी। तुम बडा करके बताना चाहते हो।
इस
जगत में कोई भी वस्तु मूल्यवान नहीं है, ऐसी प्रतीति का नाम त्याग। त्याग
का अर्थ दान नहीं है, त्याग का अर्थ बोध। त्याग का अर्थ देना
नहीं है, त्याग का अर्थ है इस बात की समझ कि यहां देने योग्य
भी क्या है! लेने योग्य भी क्या है! यहां का यहीं पड़ा रह जाएगा! हम आए और हम चले,
सब ठाठ पड़ा रह जाएगा। जब हम नहीं आए थे तब भी यहीं था, हम चले जाएंगे तब भी यहीं होगा, हम नाहक ही बीच में
अपना—तुपना करके बहुत झगड़े—झांसे खड़े कर लेते हैं। मेरा, तेरा।
दे लेते, रोक लेते। कब्जा कर लेते, त्याग
का मजा ले लेते। और अपना यहां कुछ भी नहीं है। अपना यहां कुछ है नहीं, ऐसी प्रतीति को मैं कहता हूं त्याग।
तो
व्यक्ति व्यक्ति पर निर्भर है। त्याग बड़ी बात है या छोटी, तुम पर
निर्भर है। अगर ध्यान है, तो त्याग कुछ भी खास बात नहीं,
बड़ी साधारण बात है—ध्यान की छाया। अगर ध्यान नहीं है, तो फिर त्याग बड़ी बात है, बहुत बड़ी बात है।
चौथा प्रश्न
अगर शराब ध्यान में बाधक है, तो
सच्चिदानंद वाली समाधि की तो बात ही क्या! अनुभव से समझता हूं कि इस खड्ड से
निकलकर ही ध्यान की प्राप्ति हो सकती है। कृपाकर इस खड्ड से निकलने का उपाय बताएं।
पूछा है लालभाई ने।
पक्के
पियक्कड़ हैं। मगर चलो पूछा,
यह भी खूब। रास्ता इससे ही बनेगा। पूछना आ गया तो पहली किरण आ गयी।
यह भाव उठने लगा कि इस खड्डे से बाहर निकलना है, तो निकल
आओगे। खड्डे में तुम ही गए हो, जिन पैरों से गए हो वे ही पैर
वापस ले आएंगे। जिस खड्डे में गिर गए हो, अगर पहचानने लगो कि
यह खड्डा है, तो कितनी देर पड़े रहोगे? खड्डे
में आदमी इसीलिए पड़ा रहता है कि सोचता है महल है, सोने का
महल है। फिर तुम पैर पसारकर और चादर ओढ़कर सोए रहते हो। जिस दिन दिखायी पड़ा,
अरे, खड्डा है, उठना
शुरू हो गया, बाहर निकलना शुरू हो गया।
मैंने
पिछले दिन कहा,
शराब ध्यान में बाधक है, यह आधी ही बात थी।
आधी बात तुमसे और कह दूं ध्यान भी शराब में बाधक है। शराब पीए तो ध्यान करना
मुश्किल होगा, और अगर ध्यान किए तो शराब पीना मुश्किल हो
जाएगा। और यह बात खयाल रखना, अगर दोनों में कुश्तमकुश्ती हो
तो ध्यान ही जीतता है, शराब नहीं जीतती। शराब जीत भी कैसे
सकती है! शराब छोटी शराब है, ध्यान बड़ी शराब है। शराब साधारण
अंगूरों से निकलती है, ध्यान तो आत्मा का निचोड़ है। तो ध्यान
और शराब में अगर संघर्ष हो जाए, तो पहले शायद थोड़े दिन तक
शराब जीतती मालूम पड़े, घबड़ाना मत, ध्यान
ही जीतेगा, संघर्ष जारी रहने देना।
हां, मैंने निश्चित
कहा कि शराब ध्यान में बाधक है। मगर इससे तुम यह मत सोचना कि फिर मैं ध्यान कैसे
करूं? क्योंकि मैं तो शराब पीता हूं तो ध्यान कैसे करूं?
अगर ध्यान न करोगे, तो फिर बाहर न निकल पाओगे।
ध्यान शुरू करो, शराब बाधा डालेगी... तुम शराब ही थोड़े हो गए
हो, तुम्हारे भीतर अभी थोड़ा बोध है, बोध
बिलकुल नष्ट तो नहीं हो गया—नष्ट कभी होता नहीं—उस थोड़े से बोध से ध्यान शुरू करो।
ध्यान के विरोध में शराब तुम्हें खींचेगी, हटाएगी, ड़लाएगी, तुम उसको चुनौती मानना। और तुम अपने बोध को
ध्यान में लगाना। धीरे — धीरे तुम पाओगे, बोध बड़ा होने लगा,
शराब की पकड़ छोटी होने लगी। एक दिन बोध इतना बड़ा हो जाएगा कि शराब
कब गिर गयी तुम्हें याद भी न रहेगी।
पूछा
है तुमने, 'इस खड्ड से निकलने का उपाय बताएं।'
ध्यान
ही उपाय है। और कोई उपाय नहीं। ध्यान की सीढ़ी ही लगाओ इस खड्ड में। तुम्हें अड़चन
होगी। तुम कहोगे,
एक तरफ मैं कहता हूं कि शराब पीने से ध्यान में बाधा पड़ती है—निश्चित
पड़ती है, ध्यान करोगे और शराब न पीते होओगे तो ध्यान जल्दी
लग जाएगा; शराब पीते हो तो देर से लगेगा। अड़चन डालेगी शराब,
शराब पूरी तरह उपाय करेगी तुम्हें फुसलाने के कि ध्यान मत करो।
क्योंकि शराब अनुभव करेगी कि यह ध्यान तो दुश्मन है, तुम
दुश्मन के खेमे में जा रहे हो, आज नहीं कल अगर ध्यान लग गया
तो मुझसे तुम्हारा छुटकारा हो जाएगा। इसी कारण तो मैं कहता हूं तुम ध्यान से लगाव
लगाओ। चौबीस घंटे थोडे ही शराब में पड़े हो, लालभाई! कभी पी
लेते हो, तब अगर चूक भी गए, कोई हर्जा
नहीं, जब नहीं पीते तब ध्यान मत चूको। जैसे—जैसे ध्यान में
मजा बढ़ेगा, वैसे—वैसे तुम पाओगे क्रांति होने लगी।
आदमी
शराब क्यों पीता है?
दुखी है। और मैं जानता हूं लालभाई को, दुखी
हैं। भले आदमी हैं, सरल चित्त हैं और दुखी हैं। जिंदगी में
बेचैनिया हैं, उन बेचैनियों को भुलाने के लिए शराब पी लेते
हैं। जब तक शराब पीए रहते हैं, बेचैनिया भूली रहती हैं,
दुख भूले रहते हैं। फिर जब होश में आते हैं, दुख
खड़े हो जाते हैं। दुख खड़े हो जाते हैं तो कोई और उपाय नहीं सूझता, फिर शराब पीओ, फिर भुलाओ। हालांकि शराब पीने से दुख
मिटते नहीं। यह कोई मिटाने का उपाय नहीं। यह तो शुतुर्मुर्ग का ढंग है। दुश्मन
दिखायी पड़ा, आंख बंद कर ली और रेत में सिर गड़ाकर खड़े हो गए;
इससे दुश्मन मिटता नहीं। कभी तो निकालोगे सिर रेत के बाहर। भोजन की
तलाश करने तो शुतुर्मुर्ग जाएगा! दुकान—दफ्तर तो जाओगे। जैसे ही सिर निकालोगे फिर
परेशानियां खड़ी हो गयीं।
ध्यान
करने से तुम पाओगे कि परेशानियां मिटने लगीं। परेज्ञानियों के कारण शराब पीते हो, ध्यान
परेशानियां मिटाने लगेगा। ध्यान तुम्हें दुख के बाहर लाने लगेगा। जैसे — जैसे दुख
के बाहर आओगे वैसे—वैसे शराब पीने की जरूरत कम होने लगेगी। शराब कोई जानकर और मजे
से थोड़े ही पीता है। इस खयाल में पड़ना ही मत। लोग अत्यंत दुख में शराब पीना चुनते
हैं। बहुत दुखी होता है आदमी तभी अपने को भुलाना चाहता है। जब आदमी सुखी होता है
तब अपने को बिलकुल नहीं भुलाना चाहता है।
मैं
एक नगर में बहुत वर्षों तक रहा, एक मुसलमान वकील मेरे पास आए और उन्होंने कहा
कि देखें, आपकी बात पढता हूं, जँचती
है। लेकिन कभी आया नहीं, क्योंकि एक बात मुझे मालूम है कि
मैं जाऊंगा तो झंझट में पड़गा। झंझट यह है कि मैं शराब पीता और मांस खाता। और मैं
मानता हूं कि आप जरूर कहेंगे कि ये दोनों बातें छोड़ दो। मैंने कहा, तो तुमने मुझे समझा ही नहीं। मैं क्यों कहूं छोड़ दो? तुम मजे से मास खाओ, मजे से शराब पीओ। उन्होंने कहा,
क्या कहते हैं! आप कह क्या रहे हैं! यह मैं अपने कानों से सुन रहा
हूं! मैंने कहा, तुम पीओ, तुम खाओ,
तुम्हें जो करना है करो, मैं तो कहता हूं
ध्यान शुरू करो। मैं तुम्हें कुछ छोड़ने को कहता नहीं, मैं तो
तुम्हें कुछ पकड़ने को कहता हूं। मेरी दृष्टि विधायक है, नकारात्मक
नहीं। मैं अंधेरा मिटाने को नहीं कहता, मैं कहता हूं दीया
जलाओ। अंधेरा मिट जाएगा जब दीया जलेगा।
उन्होंने
कहा, तो मैं, छोड़ने की कोई मुझे जरूरत नहीं है, तो बचती है, फिर आपसे मेरा मेल बैठ जाएगा। मैं कई
साधु —संतों के पास गया, मेल मेरा बैठता नहीं, क्योंकि वे पहले ही बता देते हैं कि मांसाहार छोड़ो, शराब
बंद करो। वह मुझसे होता नहीं, इसलिए बात आगे बढ़ती नहीं। मैंने
कहा, आज से तुम कभी मांसाहार, शराब की
बात मेरे सामने उठाना ही मत। यह तुम्हारा काम, तुम जानी। मेरा
काम इतना है कि तुम ध्यान करो। मेरे से अब से तुम्हारा ध्यान का संबंध हुआ और कसम
खाओ कि मेरे सामने अब कभी यह शराब और मांस की बात नहीं उठाओगे। उन्होंने कहा,
उठाऊंगा ही क्यों, बात ही खतम हो गयी!
वर्षभर
उन्होंने ध्यान किया—लेकिन बडी निष्ठा से ध्यान किया, आदमी
ईमानदार थे —वर्षभर के बाद उन्होंने मुझे आकर कहा कि क्षमा करें, वचन तोडना पड़ेगा, आज मुझे शराब की बात करनी पड़ेगी और
मांसाहार की भी। मैंने कहा, क्या हुआ? उन्होंने
कहा, छह महीने ध्यान करने के बाद धीरे— धीरे शराब में रस कम
होने लगा, नौ महीने के बाद रस ही कम नहीं हो गया, नौ महीने के बाद शराब से अड़चन होने लगी, जब पी लेता
तो जैसी मस्ती ध्यान की बनी रहती थी वह खो जाती। जब न पीता तो मस्ती ज्यादा होती।
अब
समझना! शराब तो भुलाने का काम करती है, अगर तुम दुखी हो तो दुख को भुला
देती है, अगर तुम मस्त हो तो मस्ती को भुला देती है।
तो
शराब छुड़ाने का एक ही उपाय है कि तुम किसी तरह मस्त हो जाओ। उस दिन असली बात दाव
पर लगेगी, उस दिन शराब पीना हो तो पीना। जब मस्ती को भुलाना पड़ेगा, तब तुम खुद ही पाओगे कि यह तो महंगा सौदा हो गया। यह तो कोई सार न हुआ।
पैसा लगाओ, शराब पीओ, चोरी करो,
पत्नी से झगड़ो, तलाक की हालत सहो, बच्चे गाली दें, मोहल्लाभर तुमको पागल समझे, जहां जाओ वहां बेइज्जती हो, और इस सबका परिणाम कुल
इतना कि हाथ जो मस्ती लगी वह खो—खो जाए!
तो
उन्होंने कहा कि नौ महीने के बाद मैंने शराब बंद कर दी। क्योंकि अब इसमें कोई सार
ही नहीं रहा। सार की तो बात ही छोड़ दो, उलटा जो मेरी मस्ती सध रही थी वह
इसकी वजह से टूटती। यह महंगा सौदा हो गया। लेकिन तब तक मांसाहार पर कोई अड़चन न आयी
थी। उसके बाद मांसाहार पर अड़चन शुरू हो आयी। ध्यान एक—एक कदम जाता है, धीरे — धीरे जाता है। शराब इतनी गहरी नहीं थी जितना मांसाहार गहरा था,
क्योंकि मुसलमान थे। शराब तो जब जवान हो गए तब पीना शुरू की थी,
मांसाहार तो बचपन से किया था। मांसाहार में तो पले थे। उसका संस्कार
बहुत गहरा था, वह मां —बाप से मिला था। वह तो जब तक मां—बाप
को न मार डालो, तब तक उससे छुटकारा होने वाला नहीं था। वह
जरा गहरी बात थी। शराब तो ऊपर—ऊपर थी। पहले शराब चली गयी।
फिर
जिस दिन उन्होंने मुझसे आकर यह बात कही, उन्होंने कहा कि आज मैं एक मित्र
के घर भोजन करने गया था, जब मांस परोसा गया तो मुझे एकदम
उल्टी होने लगी। एकदम घबड़ाहट हुई। मांस देखकर मेरे भीतर एकदम ऐसा तूफान उठ गया,
और जब तक मैं स्नानगृह में जाकर उल्टी नहीं कर लिया तब तक राहत न
मिली। और अब मैं मांस न खा सकूंगा। खाने की तो बात दूर, अब
मुझे यही सोचकर हैरानी होती है कि मैंने पिछले पैंतालीस साल जीवन के कैसे मांसाहार
किया? कैसे?
जिस
दिन तुम्हारा ध्यान गहरा होता है, ये परिणाम अपने से आने शुरू होते हैं। तो मैं
कहता हूं लालभाई! ध्यान में लगो! ध्यान और शराब को लड़ा दो! ध्यान सदा जीता है,
शराब सदा हारी है। प्रमाण के लिए दूसरे शराबी का प्रश्न है—तरु का:
थोड़े
समय से शराब की एक मात्रा होती है जिसकी मैं तलाश में थी। बेहोशी जब आने लगती है
तब संकल्प से उस घड़ी को सम्हाल लेती हूं, कुछ क्षण बाद जागृति का बड़ा
विस्फोट होता है और साथ—साथ नशा पूरा एक ही साथ उतर जाता है। भीतर कुछ इतना सम्हल
गया है कि मैं वर्णन नहीं कर सकती। अब कुछ अपने में श्रद्धा बढ़ रही है। लगता है कि
वे दिन दूर नहीं हैं जिनकी मुझे तलाश थी। आपकी ही शराब में ड़बने लायक हो जाऊं,
इतनी प्रार्थना। आपने जिस तरह मुझे मेरे पर छोड़ दिया और निंदा न की,
इसलिए आज मैं शराब जैसी आदत को छोड़ पाऊंगी। किस तरह आपका धन्यवाद
अदा करूं! बस अब बिलकुल सब ठीक चल रहा है।
बदला
लेने का भाव भी विसर्जित हो गया है। मगर आपने मुझे मौका दिया, यह क्या
कम है! अब निंदा या कडेमनेशन भी नहीं है। मगर जागकर और जानकर सब कुछ अपने आप छूट
रहा है। और यह मेरे बस की बात नहीं है। यह प्रश्न नहीं, हकीकत
है। मेरे प्रणाम स्वीकार करें!
जो आज तरु को हुआ है, कल लालभाई
को भी हो सकता है। जरा साहस रखने की, संकल्प को सम्हाले रखने
की, जरा धैर्यपूर्वक साधना में लगे रहने की जरूरत है। साधना
निश्चित फल लाती है।
पांचवां प्रश्न:
मैं क्या करूं कि मुझे मेरे असली रूप के दर्शन
हो जाएं?
एक बहुत गंदे बच्चे
ने अपने पिता से पूछा—पिताजी, हम सब जासूस—चोर खेल रहे हैं और मैं जासूस हूं, जरा बताइए कि मैं क्या करूं कि मेरे दोस्त मुझे पहचान न पाएं? बेटा, तुम सिर्फ साबुन से मुंह धो लो, तुम्हें कोई नहीं पहचानेगा, पिताजी बोले।
'मैं क्या करूं कि मुझे मेरे असली रूप के दर्शन हो जाएं?'
जरा
साबुन! कबीर ने ध्यान को साबुन कहा है। जरा ध्यान, जरा धो डालो मुंह, जरा ध्यान के छींटे पड जाने दो।
आखिरी प्रश्न
आप कहते हैं कि राजनीतिज्ञ धार्मिक नहीं हो
सकता। क्यों?
यह भी कोई बडी कठिन
बात है समझनी कि राजनीतिज्ञ धार्मिक नहीं हो सकता। राजनीति का अर्थ होता है, दूसरों पर
कैसे बलशाली हो जाऊं? दूसरों पर बलशाली वही होना चाहता है जो
अपने पर जरा भी बल नहीं रखता। यह उसकी ही पूर्ति है।
मनोवैज्ञानिक, विशेषकर
एडलर कहता है, जिनके जीवन में हीनता—ग्रंथि है, इन्फिरिआरिटी कांप्लेक्स है, जिनको भीतर से लगता है
मैं हीन हूं? कुछ भी नहीं हूं वे सारे लोग राजनीति में
संलग्न हो जाते हैं। क्योंकि उनके पास एक ही उपाय है कि कुर्सी पर बैठ जाएं बडी,
तो दुनिया को वह दिखा सकें कि मैं कुछ हूं। और दुनिया मान ले कि मैं
कुछ हूं तो उनको खुद भी भरोसा आ जाए कि मैं कुछ हूं और तो उनके पास उपाय नहीं।
हीनग्रथि
के लोग ही राजनीति में उत्सुक होते हैं। हीनतम लोग राजनीति में उत्सुक होते हैं।
तुम्हारी राजधानियों में हीनतम लोग इकट्ठे हैं। राजधानी करीब—करीब अपराधियों से
भरी है, पागलों से भरी है, विक्षिप्तों से भरी है।
लेकिन
ये अपराधी बड़े कुशल अपराधी हैं। ये बड़ी व्यवस्था और नियम से अपराध करते हैं। ये
इस ढंग से अपराध करते है कि जैसे सेवा कर रहे हों। ये सेवा कहकर अपराध करते हैं।
मैंने
सुना है, मुल्ला नसरुद्दीन दिल्ली गया था। एक संध्या एक बगीचे में घूमने गया था।
सर्दी आने— आने को थी, मीठी—मीठी सर्दी बढ़ने लगी थी, लोग अपने ऊनी वस्त्र निकाल लिए थे। मुल्ला भी अपना ऊनी कोट पहनकर बगीचे की
तरफ घूमने गया था। एक बूढ़े भिखारी ने चार आने मांगे। उसकी दशा अति दयनीय थी,
पेट पीठ से लगा जा रहा था, वस्त्र चीथड़े हो गए
थे, आंखें दुर्बलता
से अब बुझी, तब बुझी, ऐसी मालूम होती
थीं।
मुल्ला
नसरुद्दीन ने उससे कहा,
बड़े मियां, चार आने से क्या होगा? चार आने में कुछ आता भी तो नहीं—खाक भी नहीं मिलती चार आने में! चार आने
से क्या खरीदोगे? यह लो पांच रुपए का नोट ले लो।
लेकिन
का भिखमंगा पीछे हट गया,
उसने कहा कि नहीं साहब, चार आने काफी हैं;
क्योंकि इतने राजनीतिज्ञों से भरी दिल्ली में पांच रुपए जैसी बड़ी
रकम लेकर चलना खतरे से खाली नहीं है।
सब
बेईमान, सब अपराधी, सब तरह के चालबाज राजधानियों में इकट्ठे
हो जाते हैं। जिस दिन दुनिया में राजधानियां न होंगी, दुनिया
बडी बेहतर होगी। और जिस दिन दुनिया में राजनीतिज्ञ न होंगे, दुनिया
बडी स्वस्थ होगी। जिस दिन दुनिया से राजनीति हट जाएगी, उस
दिन दुनिया में धर्म होगा।
धर्म
बिलकुल उलटी यात्रा है। धर्म का अर्थ है, मैं अपना मालिक हो जाऊं। और
राजनीति का अर्थ है, मैं दूसरों का मालिक हो जाऊं। धर्म का
अर्थ है, मैं अपने भीतर जाऊं। राजनीति का अर्थ है, बाहर मेरा राज्य फैले। धर्म भीतर के राज्य की खोज है और राजनीति बाहर के
राज्य की खोज है। धन बाहर है, पद बाहर है, राजनीति उसमें उत्सुक है। ध्यान भीतर है, परमात्मा
भीतर है, धर्म उसमें उत्सुक है। धर्म अंतर्यात्रा है,
राजनीति बहियांत्रा।
तो
जब मैं कहता हूं, राजनीतिज्ञ धार्मिक नहीं हो सकता, तो बड़ी सीधी सी
बात है—जो बाहर की यात्रा पर गया है, वह कैसे साथ ही साथ
भीतर की यात्रा पर जा सकता है? भोतर की यात्रा पर जाने के
लिए अनिवार्य चरण है कि बाहर की यात्रा रुके। बाहर की यात्रा समाप्त हो, बंद हो। क्योंकि वही ऊर्जा जो बाहर जा रही है, भीतर
आएगी। ऊर्जा तो एक ही है तुम्हारे पास, जीवन तो एक ही है,
कहीं भी लगा दो, या तो बाहर की सेवा में लगा
दो, या भीतर की खोज में लगा दो। राजनीतिज्ञ बहिर्मुखी है,
धार्मिक अंतर्मुखी।
आज इतना ही।
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