सत्यमेव जयते—प्रवचन—98
अभूतवादी निरयं
उपेति यो चापि।
कत्वा न करोमीति
चाह।
उभोति ते पोच्च
समा भवंति।
निहीनकम्मा मनुजा
परत्थ ।।257।।
कुसो यथा दुग्गहीतासे
हत्थमेवानुकंतति।
सामज्जं दुप्परामट्ठं
निरमाय उपकड्ढति ।।258।।
कयिरा च कयिराथेनं
दल्हमेनं परक्कमे।
सिथिलो हि परिब्बाजो
भिय्यो आकिरते रजं ।।259।।
नगरं यथा पच्चंतं
गुत्तं संतरबाहिरं ।
एवं गोपेथ अत्तानं
खणो वे मा उपच्चगा।
खणातीता हि सोचंति
निरयम्हि समप्पिता ।।260।।
अलज्जिता ये लज्जंति
लज्जिता ये न लज्जरे।
मिच्छादिट्ठिसमादाना
सत्ता गच्छंति दुग्गति ।।261।।
अभये व भयदस्सिनो
भये व अभयदस्सिनो।
मिच्छादिद्विसमादाना
सत्ता गच्छंति दुग्गतिं ।।262।।
सूत्र—संदर्भ। कथा ऐसी है—
भगवान का प्रभाव
प्रतिदिन बढ़ता जाता था। और जो वस्तुत: धर्मानुरागी थे वे अतीव रूप से आनंदित थे।
उनके हृदय— कुसुम भी भगवान की किरणों में खुले जाते थे। उनके मन— पाखी भगवान के
साथ अनंत की उड़ान के लिए तत्पर हो रहे थे लेकिन ऐसे लोग तो दुर्भाग्य से थोड़े ही
थे। बहुत तो ऐसे थे जिनके प्राणों में भगवान की उपस्थिति भाले सी चुभ रही थी।
भगवान का बढ़ता प्रभाव उन्हें क्रोध के जहर से भर रहा था। भगवान के वचन उन्हें
विध्वंसक मालूम होते थे। उन्हें लगता था कि यह गौतम तो धर्म के नाश पर उतारू है
और
उनकी बात में थोड़ी सचाई भी थी।
क्योंकि
गौतम बुद्ध की शिक्षाएं जिसे वे मतांध धर्म समझते थे उससे निश्चय ही विरोध में
थीं। गौतम किसी और ही धर्म की बात कर रहे थे। गौतम शुद्ध धर्म की बात कर रहे थे
गौतम परंपरावादी नहीं थे। न संप्रदायवादी थे न शास्त्रों के पूजक थे न रूढ़ियों—
अंधविश्वासों के। गौतम का धर्म अतीत पर निर्भर ही नहीं था। गौतम का धर्म उधार नहीं
था स्वानुभव पर आधारित था। गौतम अपने शास्त्र स्वयं थे। गौतम का धर्म स्थिति—
स्थापक नहीं था आमूल क्रांतिकारी था। धर्म हो ही केवल क्रांतिकारी सकता है। गौतम
की निष्ठा समाज में नहीं व्यक्ति में थी और गौतम की आधारशिला मनुष्य था आकाश का
कोई परमात्मा या देवी— देवता नहीं गौतम ने मनुष्य की और मनुष्य के द्वारा चैतन्य
की परम प्रतिष्ठा की थी।
इस
सबसे रूढ़िवादी दकियानूस धर्म के नाम पर भांति— भांति के शोषण में संलग्न प्रकार—
प्रकार के पंडित— पुरोहितो और तथाकथित धर्मगुरुओं में किसी भी भांति गौतम को बदनाम
करने की होड़ लगी थी। उन्होंने एक सुंदरी परिव्राजिका को विशाल धनराशि का लोभ देकर
राजी कर लिया कि वह बुद्ध की अकीर्ति फैलाए। वह सुंदरी उनके साथ षड्यंत्र में
संलग्न हो गयी। वह नित्य संध्या जेतवन की ओर जाती थी और परिव्राजिकाओं के समूह में
रहकर प्रात: नगर में प्रवेश करती थी। और जब श्रावस्ती— वासी पूछते कहां से आ रही
है? तब वह कहती थी रातभर श्रमण गौतम को रति में रमण कराकर जेतवन से आ रही हूं
ऐसे
भगवान की बदनामी फैलने लगी। लेकिन भगवान चुप रहे सो चुप रहे। भिक्षु आ— आकर सब
उनसे कहते लेकिन वे हंसते और चुप रहते। धीरे— धीरे यह एक ही बात सारे नगर की चर्चा
का विषय बन गयी लोग रस ले— लेकर और बात को बढ़ा— बढ़ाकर फैलाने लगे। और भगवान के पास
आने वालों की संख्या रोज— रोज कम होने लगी हजारों आते थे फिर सैकड़ों रह गए और फिर
अंगुलियों
पर गिने जा सकें
इतने ही लोग बचे। और भगवान हंसते और कहते— देखो सुंदरी परिव्राजिका का अपूर्व
कार्य कचरा— कचरा जल गया सोना— सोना बचा।
भगवान
की शांति को अचल देख उन तथाकथित धर्मगुरुओं ने गुंडों को रुपये देकर सुंदरी को
मरवा डाला और फूलों के एक ढेर में जेतवन में ही छिपा दी उसकी लाश। भगवान की शांति
से सुंदरी अपने कुकृत्य पर धीरे— धीरे पछताने लगी थी। भगवान ने उसे एक शब्द भी
नहीं कहा था और न ही उसके आने— जाने पर कोई रोक ही लगायी थी। उसकी अंतरात्मा ही
उसे काटने लगी थी। इस कारण उसकी हत्या आवश्यक हो गयी थी। उसके द्वारा सत्य की
घोषणा का डर पैदा हो गया था फिर यह हत्या षड्यंत्र को और भी गहरा बनाने का उपाय भी
थी
सुंदरी
की हत्या के बाद उन धर्मगुरुओं ने नगर में खबर फैला दी कि मालूम होता है कि गौतम
ने अपने पाप के भय से सुंदरी को मरवा डाला है। उन्होंने राजा से भी जाकर कहा कि
महाराज हम सुंदरी परिव्राजिका को नहीं देख रहे दाल में कुछ काला है। वह श्रमण गौतम
के पास जेतवन में ही रातें गुजारा करती थी।
राजा
ने जेतवन में सुंदरी की तलाश के लिए सिपाही भेजे वहां पायी गयी उसकी लाश। धर्मगुरु
ने राजा से कहा— महाराज देखिए यह महापाप। अपने पाप को छिपाने के लिए गौतम इस
महापाप को करने से भी न चूका और वे धर्मगुरु नगर की गली— गली में घूमकर गौतम की
निंदा में संलग्न हो गए। भगवान के भिक्षुओं का भिक्षाटन भी कठिन हो गया। भगवान के
पास तो अब केवल दुस्साहसी ही जा सकते थे।
और भगवान ने इस सब पर क्या टिप्पणी की!
भगवान
ने कहा— भिक्षुओ असत्य असत्य है तुम चिंता न करो। सत्य स्वयं अपनी रक्षा करने में
समर्थ है। फिर सत्य के स्वयं को प्रगट करने के अपने ही मार्ग हैं अनूठे मार्ग हैं
तुम बस शांति रखो धैर्य रखो। ध्यान—करो और सब सहो यह सहना साधना है श्रद्धा न खोओ
श्रद्धा को इस अग्नि से भी गुजरने दो। यह अपूर्व अवसर है ऐसे अवसरों पर ही तो
कसौटी होती है। श्रद्धा और निखरकर प्रगट होगी। सत्य सदा ही जीतता है।
और
फिर ऐसा ही हुआ। सप्ताह के पूरे होते— होते ही जिन गुंडों ने सुंदरी को मारा था वे
मधुशाला में शराब की मस्ती में सब कुछ कह गए। सत्य ने ऐसे अपने को प्रगट कर ही
दिया। तथाकथित धर्मगुरु अति निंदित हुए और भगवान की कीर्ति और हजार गुना हो गयी।
लेकिन स्मरण रहे कि. भगवान कुछ न बोले सो कुछ न बोले सत्य को स्वयं ही बोलने दिया।
अंत में उन्होंने अपने भिक्षुओं से इतना ही कहा कि असत्य से सदा सावधान रहना। उसके
साथ न कभी जीत हुई है न कभी हो सकती है। एस धम्मो सनंतनो।
और
तब उन्होंने ये गाथाएं कहीं।
गाथाओं
में प्रवेश के पहले इस कथा के संबंध में कुछ बातें—
पहली
तो बात, यह कथा गौतम बुद्ध के साथ घटी, न घटी, इसका बहुत मूल्य नहीं है। क्योंकि यह ऐसी कथा है कि सदा से सभी बुद्धों के
साथ घटती रही है। यह कथा अनूठी है। इस कथा में मनुष्य के मन का सारा रोग छिपा है।
जब
भी भगवत्ता कहीं प्रगट होती है, तो अड़चन शुरू होती है। अड़चन का पहला तो कारण
यही है कि धर्म के नाम पर जो परंपराएं जड़ हो जाती हैं, धर्म
के नाम पर जो धारणाएं लोगों के चित्त में दृढ़ हो जाती हैं, वे
ही धारणाएं धर्म की विरोधी हैं। जब भी नया धर्म पैदा होगा, तब
धर्म की असली टक्कर अधर्म से नहीं होती—अधर्म की तो कोई सामर्थ्य ही नहीं कि धर्म
से टक्कर ले—धर्म से टक्कर होती है झूठे धर्म की, मरे धर्म
की। जीवित धर्म से टक्कर होती है मृत धर्म की। संघर्ष धर्म और अधर्म में नहीं है,
संघर्ष सदा से धर्म और धर्म के नाम पर चलते हुए तथाकथित धर्म में
है।
बुद्धों
का विरोध नास्तिकों ने नहीं किया, बुद्धों का विरोध तथाकथित आस्तिकों ने किया है।
बुद्धों का विरोध उन्होंने नहीं किया जो ईश्वर को नहीं मानते, बुद्धों का विरोध उन्होंने किया है जो झूठे ईश्वर को मानते हैं। बुद्धों
का विरोध उन्होंने किया है जिनको ईश्वर का स्वयं तो कोई अनुभव नहीं है, ईश्वर की धारणा से जिनका आग्रह है। बुद्धों का विरोध उन्होंने किया है जो
धर्म के नाम पर किसी तरह का शोषण करने में संलग्न हैं—पंडित, पुरोहित, धर्मगुरु। बुद्धों का विरोध धर्म के नाम पर
चल रहे पाखंड से आता है।
यह
बात बहुत सोच लेने जैसी है।
धर्म
का विरोध धर्म से ही होता है। जैसे असली सिक्के का विरोध कंकड़—पत्थर थोड़े ही कर
सकते हैं, सिर्फ नकली सिक्का करता है। असली सिक्के से टक्कर गैर—सिक्कों की नहीं है,
नकली सिक्कों की है। नकली सिक्का डरता है असली सिक्के से। असली
सिक्का बाजार में आ जाए तो नकली सिक्के का चलना मुश्किल हो जाए। असली सिक्का लोगों
को पता चल जाए तो कौन पूछेगा नकली सिक्के को? असली सिक्का
जाहिर न हो पाए, नहीं तो नकली की नकल जाहिर हो जाएगी। सत्य
से डर नकली को है। सत्य से डर अभिनेता को है, वह जो अभिनय कर
रहा है, वह जो पाखंड कर रहा है।
तो
चाहे बुद्ध हों,
चाहे कृष्ण हों, चाहे क्राइस्ट हों, जब भी कोई व्यक्ति भगवत्ता को उपलब्ध हुआ है, तो यह
आश्चर्यजनक घटना घटती है कि सारे मंदिर, सारे मस्जिद,
सारे गुरुद्वारे उसके विरोध में हो जाते हैं। ये मंदिर, ये मस्जिद, ये गुरुद्वारे आपस में कितने ही लड़ते हों,
लेकिन जब कोई बुद्ध पैदा होता है तो उससे लड़ने के लिए सब साथ हो
जाते हैं।
बहुत
से संप्रदाय थे भारत में,
जब बुद्ध का जन्म हुआ। और उन सभी संप्रदायों का आपस में बड़ा विरोध
था। लेकिन बुद्ध के आविर्भाव के साथ ही जैसे उन सबका विरोध बुद्ध से हो गया,
उनकी आपस की दुश्मनिया कम हो गयीं। अब उन सबको खतरा एक ही से था।
किसी भी भांति बुद्ध का सत्य लोगों की समझ में न आए। क्योंकि बुद्ध के सत्य के समझ
में आने का अर्थ था कि उनकी दुकान गयी, उनकी दुकान उठी।
बुद्ध के सत्य का समझ में आ जाना तो उनके जीवन—मरण का सवाल हो गया। उनका सारा
व्यवसाय टूट जाएगा।
तो
यह कथा नयी नहीं है। यह गौतम बुद्ध के साथ तो घटी ही है, लेकिन
समस्त बुद्धों के साथ घटी है। इसलिए इस कथा को मैं अनूठी कथा कहता हूं। यह
ऐतिहासिक नहीं है, यह पौराणिक है। यह पहले भी घटती रही है,
आज भी घटती है और कल भी घटेगी। ऐसा सौभाग्य का दिन अब तक नहीं आया
जब हम सत्य का स्वागत करने को सहज तैयार हों। ऐसा सौभाग्य का दिन कभी आएगा,
इसकी आशा भी दुराशा है।
और
जाल में कई जटिलताएं हैं। जैसे बुद्ध के साथ यह टक्कर हुई, धर्मगुरु
लड़े। फिर बुद्ध ने जो कहा, उस बात को सुनकर नए धर्मगुरुओं का
जाल खड़ा हो गया। अब अगर आज फिर कोई बुद्ध पैदा हो तो यह मत सोचना कि बुद्ध के
अनुयायी उसका साथ देंगे, नहीं, वे भी
लड़ने को उसके साथ उतने ही तत्पर होंगे। अतीत बुद्धों के अनुयायी नए बुद्धों से
लड़ते रहते हैं। क्योंकि जैसे ही बुद्ध का जाना होता है, जैसे
ही बुद्ध की विदा होती है इस जगत से कि पंडित—पुरोहितो का गिरोह बुद्ध के वचनों को
भी घेर लेता है। वहां भी मंदिर बनेगा, वहा भी शास्त्र रचा
जाएगा, वहा भी पद—प्रतिष्ठाएं खड़ी होंगी, वहां 'भी राजनीति चलेगी। जब दुबारा फिर कभी बुद्ध का
आगमन हो, तो यह जो जाल खड़ा हो जाएगा, यह
बुद्ध से लड़ेगा। स्वयं बुद्ध भी लौटकर आएं, तो भी उन्हें
अपने ही भक्तों से लड़ना पड़ेगा। यह दुर्भाग्यपूर्ण है।
हम
असत्य के इतने पुराने पूजक हैं कि हम एक असत्य को छोड़ते हैं कि हम दूसरे को पकड़
लेते हैं। इधर छूटा नहीं कि उधर हमने पकड़ा नहीं। असत्य को पकड़ने की हमारी आदत इतनी
जड़ है कि अगर हम कभी एक असत्य को छोड़ते भी हैं तो तत्क्षण हम दूसरे को पकड़ लेते हैं। या अगर कभी भूल—चूक
से सत्य भी हमारे हाथ में आ जाए, तो हमारे हाथ में आने के कारण असत्य हो जाता
है। हमारे पात्र इतने जहरीले हो गए हैं कि अमृत भी अगर हमारे पात्र में भरता है तो
जहरीला हो जाता है। हमारे हाथों में चमत्कार हो गया है! असली सिक्के आकर हमारे
हाथों में झूठे हो जाते हैं
वेद
तो झूठा था ही बुद्ध के समय में लोगों के हाथों में—नहीं कि वेद झूठा है, लोगों ने
झूठा कर लिया था—बुद्ध ने तो फिर सत्य दिया, लेकिन लोगों के
हाथ में जाकर झूठा हो गया। बुद्ध का विरोध किया उपनिषद के ऋषियों को मानने वालों
ने। शंकराचार्य का विरोध किया बुद्ध को मानने वालों ने। आज कोई खड़ा हो, शंकराचार्य उसके विरोध को तत्पर हैं।
इस
बात की व्यवस्था को समझ लेना। अतीत विरोध करता है वर्तमान का, मृत विरोध
करता है जीवंत का। सड़ा—गला विरोध करता है नए खिले फूल का। और जिनके मन अतीत से
मुक्त नहीं हैं, वे कभी बुद्धों को समझ नहीं पाते। किसका मन
अतीत से मुक्त है! बहुत मुश्किल से! उंगलियों पर गिने जा सकें ऐसे लोग हैं जिनकी इतनी
हिम्मत है, जो अपने अतीत —को टालकर एक तरफ रख दें, सूरज की जो नयी किरण निकली हो उसके स्वागत के लिए राजी हो जाएं। सूरज की
इस नयी किरण पर अपनी आस्थाएं, अपनी धारणाएं न रोपे, अपने पक्षपात न रोपे। इस सूरज की किरण के पक्ष में अपने सारे पक्षपात गिरा
दें, नग्न हो जाZn, निर्वस्त्र होकर
इसे स्वीकार कर लें। वे ही थोड़े से लोग रूपांतरित हो पाते हैं।
तो
यह कथा नयी नहीं।
दूसरे
कारण से भी यह कथा बड़ी प्राचीन है। जब भी बुद्धों को बदनाम करना हो, तो किसी न
किसी रूप में दो ही उपाय काम में लाए जाते हैं—या तो बदनाम करो कि उनका धन से कुछ
संबंध है, या बदनाम करो कि काम से उनका कुछ संबंध है। कामिनी
और कांचन, दो ही उपाय। बड़ी पुरानी बात हो गयी, बड़ी सड़ी—गली बात हो गयी। बस ये दो ही उपाय हैं। धन से विरोध करो, कहो कि यह आदमी धन के प्रति मोह से भरा है, या काम
से विरोध करो।
क्यों? मनुष्य के
मन के संबंध में इससे खबर मिलती है। मनुष्य का मन दो बातो से घिरा है—कामिनी और
काचन। मनुष्य दो ही चीजों में उत्सुक है, दो ही में उसका रस
है। और ये दो ही बातें हैं जिनके प्रति मनुष्य ने सदा अपने को दबाया है और दमित
किया है। फिर धन के संबंध में दमन बहुत ज्यादा नहीं है, लेकिन
काम के संबंध में दमन बहुत ज्यादा है।
इसलिए
काम के संबंध में अगर प्रचार कर दो कि बुद्ध का कोई, किसी तरह का भी काम—संबंध
है, तो बुद्ध की प्रतिष्ठा को नुकसान पहुंचाने से तुम चूक न
पाओगे, तुम सफल हो जाओगे। क्योंकि लोगों का हृदय कुंठा से
भरा है, काम के प्रति इतने दमन से भरा है कि वे मानते हैं यह
कि ऐसा होना ही चाहिए। यह सच होगा ही, यह झूठ हो नहीं सकता,
क्योंकि वे अपने को जानते हैं, अपने भीतर जलते
हुए काम के प्रवाह को जानते हैं, अपने भीतर ज्वालामुखी छिपा
है इसको जानते हैं। वे सोचते हैं, जो मेरे भीतर छिपा है वह
बुद्ध के भीतर कैसे न होगा? सब ऊपर की बातें हैं, भेद सब ऊपर के हैं, भीतर तो बुद्ध भी ऐसे ही आदमी
हैं जैसा मैं आदमी हूं। और जब मेरे भीतर कामवासना ऐसी जलती है, लपटें लेती है, तो बुद्ध के भीतर भी लेती होगी।
तो
जैसे ही खबर मिल जाए उन्हें कि बुद्ध का भी किसी स्त्री से कोई संबंध है, तो फिर
इसमें वे विचार नहीं करते, फिर इसकी खोजबीन नहीं करते,
इसको तो वे तत्क्षण मान लेते हैं। इसे तो वे स्वीकार कर लेते हैं,
क्योंकि यह तो उनके भीतर की ही बात थी। यह उन्होंने अफवाह मानी,
ऐसा नहीं, वे सिर्फ अफवाह की प्रतीक्षा करते
थे, राह देखते थे कि आती ही होगी खबर—देर अबेर की बात है।
कोई न कोई तो पता लगा ही लेगा। एक को धोखा दोगे, दूसरे को
धोखा दोगे, कितने लोगों को धोखा दोगे? और
कितने दिन तक धोखा दोगे? कहीं न कहीं से तो पता चल ही जाएगा।
अब चल गया पता! बैठे ही थे, तत्पर बैठे थे, नजर गड़ाए बैठे थे, पलक—पांवड़े बिछाए बैठे थे कि
अफवाह आती ही होगी।
तो
जैसे ही अफवाह आती है,
उनके हृदय बड़े प्रसन्न हो जाते हैं। वे अपनी पीठ ठोंकने लगते हैं।
वे कहते हैं, मैं तो पहले से ही कहता था, मैं तो पहले से ही जानता था कि यही होगा, आखिर पाया गया।
फिर वे खोजने नहीं जाते, फिर वे पता लगाने नहीं जाते।
तुम
अपने मन को भी देखना। तुम अपने मन के संबंध में भी एक खयाल रखना। अगर किसी के
संबंध में कोई तुम्हें खबर दे कि फला आदमी भगवत्ता को उपलब्ध हो गया, तो तुम
मानते नहीं। तुम कहते हो, अजी, कहीं
ऐसी बातें होती हैं! कहानियों में लिखी हैं, पुराणों में
लिखी हैं, होतीं थोड़ी। कौन भगवान को उपलब्ध होता, और कलियुग में तो कम से कम होता ही नहीं! होते थे, पहले
होते रहे होंगे, हमें उसका कुछ पता नहीं, आज तो कोई नहीं हो सकता—इस कलियुग में, इस पंचम—काल
में, जहां भ्रष्टता ऐसी फैली है, कौन
होने वाला है!
ऐसा
ही वे सदा कहते थे। बुद्ध के समय में भी वे यही कहते थे—कि अब कहां! होते थे सतयुग
में, अब कहां! कृष्ण के समय में भी यही कहते थे—कि होते थे पहले, अब कहां!
यह
पहले कब था? ऐसा कोई काल नहीं हुआ जब लोगों ने यही न कहा हो। कहते थे—पहले होते थे,
अब कहां! यह पहले होते थे, यह टालने का उपाय
है। अब नहीं हो सकते, यह अपनी रक्षा की व्यवस्था है।
कोई
कहे कि फलां व्यक्ति संतत्व को उपलब्ध हो गया, तुम्हें हजार संदेह उठते हैं। और
कोई आकर कहे कि फला संत भ्रष्ट हो गया—अब यह तुम्हारा तर्क देखना मन में—संत तो
तुमने कभी उसे न माना था, लेकिन भ्रष्ट तुम मान लेते हो।
पहली तो बात, अगर संत नहीं था तो भ्रष्ट कैसे हुआ! तुम तभी
उसको संत मानते हो जब भ्रष्ट होना पक्का हो जाता है। तब तुम कहते हो, देखो, वह संत भ्रष्ट हो गया।
इस
मजे को देखना। भ्रष्ट होने के पहले तुमने उसे कभी संत माना ही नहीं था, लेकिन
जैसे ही पक्का चल गया तुम्हें पता—और पक्का ही चलता है जब पता चलता है, तुम उसमें कोई कच्चापन लेते ही नही—कि भ्रष्ट हो गया, जिस दिन भ्रष्ट हो गया, तुम कहते हो कि देखो,
वह संत भ्रष्ट हो गया, अरे, महात्मा कैसे पतित हो गए! इस आदमी को तुमने महात्मा इसके पहले कहा ही नहीं
था, अब तुम कहते हो जब तुम्हें भ्रष्ट होने का पक्का हो जाता
है।
तुम
किसी को महात्मा तभी कहते हो, जब तुम उसे पहले गिरा लेते हो। उसके पहले
महात्मा नहीं कहते। अब महात्मा कह सकते हो, अब कोई डर नहीं
है, अब तो धूल में पड़ा है, तुमसे भी
बुरी हालत में हो गया है, अब तुम्हें कोई इससे भय नहीं है।
तुमसे भी पिछड़ गया। कम से कम तुम इतने बुरे तो नहीं हो। अपनी पत्नी के साथ रहते हो,
अपने बच्चों के साथ रहते हो, तुम कम से कम
अपनी सीमा और मर्यादा में रहते हो। यह आदमी तुमसे बुरा हो गया। लेकिन अब इसको अगर
पूरा—पूरा बुरा सिद्ध करना है तो संत मानना जरूरी है, नहीं
तो गिरेगा कैसे! अगर पहले से बुरा था, तो पतन तो हुआ नहीं।
अब तुम कहते हो कि ही, यह आदमी पहले संत था, अब भ्रष्ट हो गया है।
और
जब भी भ्रष्ट होने की बात तुम्हारे खयाल में आती है, तब किसी न किसी तरह
कामवासना से जुड़ी होती है। कामवासना से ही क्यों तुम्हारे भ्रष्ट होने का भाव जुड़ा
है? जब भी तुम कहते हो, फला आदमी
अनैतिक है, तो तुम्हारे मन में एक ही सवाल उठता है कि अनैतिक,
मतलब किसी न किसी तरह काम के जगत में भ्रष्ट। झूठ बोले, इसका खयाल नहीं आता, कि आदमी अनैतिक है तो झूठ बोलता
होगा। वचन का पालन न करता होगा, इसका खयाल नहीं आता। बेईमान
होगा, इसका खयाल नहीं आता। तस्करी करता होगा, इसका खयाल नहीं आता। डाका डालता होगा, इसका खयाल
नहीं आता। हत्या करता होगा, इसका भी खयाल नहीं आता। जैसे ही
किसी ने कहा, फलां आदमी अनैतिक है, इम्मारल
है, तुम समझ गए कि किसी स्त्री के साथ गलत संबंध है।
तुम्हारी
सारी नैतिकता कामवासना पर केंद्रित हो गयी है। और तुम्हारी सारी अनैतिकता का एक ही
अर्थ होता है कि कोई व्यक्ति किसी तरह के असामाजिक, गैरकानूनी काम—संबंधों में
संलग्न है।
इतनी
क्षुद्र नैतिकता! इतनी सीमित नैतिकता! तुम्हारी नैतिकता अति कामुक है। और इसका
कारण है। क्योंकि सदियों—सदियों से तुम्हारे मन में जो वासना दबायी गयी है, वही सबसे
महत्वपूर्ण हो गयी है। जिसे दबाओगे वही महत्वपूर्ण हो जाता है। जिसे बार—बार
दबाओगे, वह बार—बार उभरना चाहेगा। जिसे दबाओगे, वह बदला लेना चाहेगा। जिसे तुम दबाओगे, झुठलाओगे,
वह नए—नए रूपों में उठेगा। जिसे तुम अपने भीतर दबाओगे, उसको तुम दूसरे के ऊपर प्रतिस्थापित करने लगोगे।
इस
मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया को खयाल में लेना।
तुम
दूसरे में वही देखने लगोगे जो तुमने अपने में दबाया है। तुमने अगर धन की वासना
दबायी है, तो तुम्हें दूसरों में धन की वासना खूब प्रगाढ़ होकर दिखायी पड़ने लगेगी।
कहीं तो देखोगे न उसे जो तुमने दबा लिया है। उसको कहीं तो रखोगे। अपने भीतर तो रख
नहीं सकते, उसे किसी और के ऊपर रखोगे। तुमने अगर कामवासना
दबायी है, तो तुम कामवासना किसी और के ऊपर रखोगे।
मैंने
सुना है, सूफी फकीर हुआ बायजीद। एक और फकीर उसके पास रात मेहमान हुआ। वह फकीर बड़ी
निंदा करने लगा स्त्रियों की कि स्त्रियां ही नर्क का द्वार हैं—जैसे कि तुम्हारे
साधु—संत सदा से कहते हैं, स्त्री नर्क का द्वार है। एक दफा
बायजीद ने सुना, दूसरी दफा बायजीद ने सुना। तीसरी दफा बायजीद
ने कहा, मेरे भाई, तुम इस द्वार में
इतने उत्सुक क्यों हो? तुम्हें नर्क जाना है? तुम जब से आए हो, परमात्मा की बात ही नहीं की!
तुम्हारी नजरें इस द्वार पर क्यों अटकी हैं? और यहां कोई
स्त्री है भी नहीं, यहां मैं बैठा और तुम बैठे। यहां द्वार
कहां है? तुम्हें यह द्वार दिखायी क्यों पड़ता है? तुम स्त्री से इतने भयभीत क्यों हो? जरूर तुमने
स्त्री को खूब दबा लिया है भीतर, वह स्त्री बदला ले रही है।
जिन—जिन
संतो ने तुम्हारे शास्त्रों में लिखा है कि स्त्री नर्क का द्वार है, उनसे
सावधान रहना। ये व्यक्ति न तो स्त्री को समझ पाए, न स्वयं को
समझ पाए। और ये शास्त्र चूंकि पुरुषों ने लिखे हैं इसलिए नर्क का द्वार है,
अगर स्त्रियां लिखती तो? तो पुरुष नर्क का
द्वार होना चाहिए। क्योंकि स्त्रियां अपने ही द्वार से तो नर्क नहीं जा सकेंगी!
कौन द्वार अपने में से ही नर्क जा सकता है? द्वार तो सदा
दूसरा चाहिए। स्त्रियां भी नर्क जाती हैं या नहीं?
एक
महात्मा एक समय मेरे पास मेहमान थे। वह कहने लगे, स्त्रियां नर्क का द्वार
हैं। तो मैंने कहा कि तुम सोचते हो इसका मतलब हुआ कि सब स्त्रियां स्वर्ग पहुंची
होंगी। नर्क तो जा ही नहीं सकतीं। पुरुष स्वर्ग का द्वार है और स्त्रियां नर्क का
द्वार हैं, तो यह तो बड़ा महंगा मामला हो गया। सब पुरुष नर्क
में पड़े होंगे, सब स्त्रियां स्वर्ग में होंगी। स्त्रियां
किस द्वार से नर्क जाती हैं? मैंने उनसे कहा, यह मुझे कहो महात्मा कि स्त्रियां किस द्वार से नर्क जाती हैं? वह जरा बेचैन हुए, उन्होंने कहा, यह तो कहीं शास्त्र में लिखा नहीं कि स्त्रियां किस द्वार से नर्क..
स्त्रियों का विचार ही कौन करे!
स्त्रियों
को गालियां दी गयी हैं। गालियां स्त्रियों को नहीं दी गयी हैं, गालियां
दी गयी हैं अपनी ही दबी वासना के प्रति क्रोध है, क्योंकि वह
वासना धक्के मारती है। फिर इस वासना को दूसरे पर आरोपित करना जरूरी है। तो थोड़ा
हल्कापन आता है। जिसको मनोवैज्ञानिक प्रोजेक्यान कहते हैं। जो तुमने अपने भीतर दबा
लिया, उसे तुम दूसरे में देखने लगते हो। चोर को सभी लोग चोर
दिखायी पड़ने लगते हैं। जेबकट अगर किसी महात्मा के भी पास जाए तो अपनी जेब सम्हालकर
रखता है। क्या भरोसा! और महात्माओं का क्या भरोसा! कलियुग चल रहा है, कहां के महात्मा! जेब न काट लें!
तुम्हारे
भीतर जो दबा है,
वह तुम तैयार हो किसी पर्दे पर फैला दो, तुम्हें
राहत मिल जाए। कामवासना सबसे ज्यादा दबायी गयी बात है। इस दुनिया में उसी दिन
बुद्धों को इस तरह की बदनामी से बचने का अवसर आएगा जिस दिन लोगों की कामवासना दबी
न रहेगी, स्वस्थ होगी, सहज होगी,
स्वीकृत होगी।
तुमने
कभी देखा, कोई यह तो दोष नहीं लगाता बुद्ध पर कि रात सोते हुए पाए गए। क्यों नहीं
लगाता? क्योंकि निद्रा को हम स्वीकार करते हैं। कोई बुद्ध पर
यह दोष तो नहीं लगाता कि स्नान करते पाए गए। क्योंकि स्नान को हम स्वीकार करते
हैं। लेकिन अगर तुम अस्वीकार कर दो स्नान को, तो दोष पकड़ में
आ जाएगा।
जैन
हैं, दिगंबर जैन हैं, वे मानते हैं कि मुनि को स्नान नहीं
करना चाहिए। मुनि क्यों स्नान करे! यह तो संसारी जन स्नान करते हैं। यह तो शरीर को
सुंदर—स्वच्छ बनाने की जिनकी आकांक्षा प है, वे स्नान करते
हैं। यह तो शरीर के पीछे जो दीवाने हैं, वे स्नान करते हैं।
स्नान तो शरीर का प्रसाधन है। जैन—मुनि क्यों स्नान करे! उसे तो शरीर से कोई मोह
नहीं है। इसलिए दिगंबर जैन—मुनि स्नान नहीं करता।
लेकिन
दिगंबर जैन—मुनियों के प्रति इस तरह की अफवाहें चलती हैं कि फला दिगंबर मुनि ख्यात
में तौलिया पानी में भिगोकर शरीर साफ कर लेता है। यह पाप हो गया। तुमने कभी सोचा
नहीं होगा कि तुम दिन में दो दफा स्नान करते हो, महापाप कर रहे हो। और कोई
अगर तुम्हारी बदनामी करे तो उसे यह करनी पड़ेगी कि यह सज्जन स्नान नहीं करते। स्थान
करते हैं, इसमें क्या बदनामी है! लेकिन जैन—मुनि, दिगंबर जैन—मुनि की बदनामी हो जाती है।
श्वेतांबर
जैन—मुनि दातून नहीं करता—नहीं करना चाहिए। तो श्वेताबर जैन—मुनि या साध्वियों के
संबंध में बदनामी चलती है कि फलानी के वस्त्रों में टूथपेस्ट छुपा हुआ पाया गया।
अब
यह भी कोई पाप है! मैं तुमसे यह कह रहा हूं कि पाप बनता इस बात से है, जिस चीज
को तुम दबाना चाहोगे वही पाप बन जाएगी। अगर किसी साध्वी के मुंह से बास न आए तो
श्रावकों को शक हो जाता है कि कुछ गड़बड़ है, दाल में काला है।
मुंह से बास नहीं आ रही है! इसका मतलब दातून की है, या मुंह
साफ किया है। यह तो नहीं करना चाहिए साधु को। मुंह साफ इत्यादि तो वे लोग करते हैं
जिनका शरीर में रस है। यह शरीर तो सड़ा—गला है ही, इसको
साफ—सुथरा क्या करना है! यह तो मर ही जाएगा, मिट्टी में
मिट्टी गिर जाएगी, इसको क्या दातून करनी! जिस चीज के भी
प्रति तुमने दमन किया, उसका परिणाम अंततः यह होगा कि उस चीज
को तोड्ने की बात पाप मालूम होने लगेगी।
दुनिया
में जब तक कामवासना सहज स्वीकार न होगी, तब तक बुद्धों के प्रति इस तरह की
कहानियां पैदा होती रहेंगी। ये कहानियां बुद्धों के कारण पैदा नहीं होतीं, ये लोगों के चित्त में कामवासना का जो अस्वीकार है, जो
विरोध है, उसके कारण पैदा होती हैं। ये कहानियां बुद्धों के
संबंध में नहीं हैं, ये कहानियां तुम्हारे संबंध में हैं।
तुम यह मान ही नहीं सकते कि कोई व्यक्ति कामवासना के पार हो सकता है। कैसे तुम
मानो! तुम तो हो नहीं पाते। और तुम कभी हो न पाओगे जब तक लड़ोगे। जिस दिन तुम लड़ना
बंद करोगे और कामवासना को सहज भाव से स्वीकार कर लोगे, तुम
भी पार होने लगोगे। क्योंकि कामवासना बड़ी अनूठे ढंग की वासना है।
इसको
खयाल में लेना।
भोजन
की वासना है,
भोजन के बिना तुम जी नहीं सकते, भोजन के बिना
तुम मरने लगोगे। तो चाहे हम कितना ही बुद्धों सै आशा रखें कि वे भोजन न करें,
फिर भी वे भोजन तो करेंगे। चलो दो बार न करेंगे तो एक बार करेंगे।
बहुत सुस्वादु न करेंगे तो बेस्वाद करेंगे। खीर—मलाई नहीं उपयोग करेंगे, रूखा—सूखा खाएंगे, लेकिन कुछ तो खाएंगे ही। क्योंकि
भोजन के बिना तो एक क्षण जी न सकेंगे। पानी तो पीएंगे। चलो रात न पीएंगे, दिन ही पीएंगे। मगर पानी पीना तो पड़ेगा। श्वास तो लेंगे। अनिवार्य है।
कामवासना
इस तरह की अनिवार्य वासना नहीं है। कामवासना पर तुम्हारा जीवन निर्भर नहीं है।
कामवासना के बिना तुम मर न जाओगे। कामवासना के बिना तुम्हारे बच्चे पैदा न होंगे, यह सच है।
कामवासना के बिना तुम नहीं मर जाओगे, बच्चे पैदा नहीं होंगे।
लेकिन अगर भोजन न किया, पानी न पीया, श्वास
न ली, तो तुम मर जाओगे।
तो
कामवासना जीवन के लिए,
तुम्हारे जीवन के लिए अपरिहार्य नहीं है। छोड़ी जा सकती है। इससे
मुक्त हुआ जा सकता है। लेकिन मुक्त केवल वे ही लोग हो सकते हैं, जिन्होंने इसे पहले स्वीकार किया हो, और इसे स्वीकार
करके समझा हो, और इस पर ध्यान किया हो, और इसकी पूरी आंतरिक—व्यवस्था समझी हो—उठती क्यों है?
तुमने
खयाल किया कब—कब तुम्हारा मन कामवासना से भरता है? तुम चकित होओगे यह बात जानकर
कि जब तुम ज्यादा चिंतित होते हो तब ज्यादा कामवासना से भरता है। जब तुम निश्चित
होते हो, प्रफुल्लित होते हो, तो नहीं
भरता। जब तुम शांत होते हो, आनंदित होते हो, तो नहीं भरता। तब तुम भूल जाते हो। लेकिन जब तुम अशांत होते हो, बेचैन होते हो, तब कामवासना से भर जाता है। अक्सर यह
होता है।
पश्चिम
के मनस्विद कहते हैं कि अक्सर पति—पत्नी इस राज को समझ लेते हैं। इसलिए संभोग करने
के पहले लड़ाई—झगड़ा कर लेते हैं, क्रोधित हो जाते हैं, एक—दूसरे
को गाली दे लेते हैं, झंझट खड़ी कर लेते हैं, फिर इसके बाद कामवासना में उतरना आसान हो जाता है।
यह
बडी अजीब सी बात है। पति—पत्नी अक्सर लड़ते हैं। उनके लड़ने से ही बेचैनी और
परेशानी पैदा होती है। परेशानी और बेचैनी में कामुकता पैदा होती है। शांत, चैन में
भरा हुआ चित्त हो तो कामवासना पैदा नहीं होती। कामवासना तुम्हारे भीतर एक तरह का
ज्वर है; और कामवासना से राहत मिलती है। राहत तभी मिलती है
जब ज्वर खड़ा हो। तो कामवासना तुम्हारे शरीर को क्षीण करती है, शक्ति क्षीण हो जाती है तो ज्वर क्षीण हो जाता है। भीतर का उबाल कम हो
जाता है, तुम शांति से सो जाते हो।
कामवासना
जाती है कामवासना के दमन से नहीं, ध्यान के माध्यम से उमगी शांति के द्वारा। जब
कोई व्यक्ति ठीक विराम में जीने लगता है, जिसके जीवन में कोई
तनाव नहीं है, कोई चिंता नहीं है, कोई
बेचैनी नहीं है, जिसका जीवन हल्के फूल जैसा है, जिसके पैर जमीन पर नहीं पड़ते, जो हवा में उड़ा—उड़ा है
और जो प्रतिपल रस में डूबा है—रसो वै सः —जैसे कल पतंजलि ने अपने शिष्य चैत्र से
कहा कि जो सदा रसलीन है, वह कामवासना में नहीं उतरेगा।
क्योंकि कामवासना में वह उतरकर पाएगा कि सिर्फ शक्ति क्षीण होती है और उसका रस
खोता है।
कामवासना
से जितना आनंद मिलता है,
जब तुम उससे ज्यादा आनंद की अवस्था में जीने लगोगे तो कामवासना
समाप्त हो जाएगी। जब तक कामवासना में जो रस मिलता है, वह
तुमसे ऊपर है और तुम उससे नीचे जी रहे हो, तब तक तो रस बना
रहेगा।
बात
को खयाल में लेना,
तुम्हारे लिए काम की है। इन कथाओं के सहारे मैं कुछ तुमसे कहना चाह
रहा हूं। बुद्ध में मेरी उतनी उत्सुकता नहीं है, जितनी
तुममें मेरी उत्सुकता है। क्योंकि तुमसे मैं बात कर रहा हूं। बुद्ध तो बहाना हैं।
जब
तक तुम्हारा चित्त कामवासना से ज्यादा रस न पाने लगे, तब तक तुम
कामवासना से न छूट सकोगे। और जो लोग कामवासना से लड़ते हैं, उनकी
हालत और बदतर हो जाती है। उनका चित्त और भी बेचैन हो जाता है, वे और भी नीचे गिर जाते हैं। इसलिए उनके चित्त में सदा कामवासना के ही
विचार तैरते रहते हैं। मनुष्य—जाति ने काम का इतना दमन किया है, इसीलिए काम से मुक्त नहीं हो पाती। और इसीलिए अफवाहें काम से ही संबंधित
होती हैं।
फिर
अब बुद्ध के प्रति धन की बात तो कही नहीं जा सकती थी, क्योंकि
धन तो उनके पास बहुत था, छोड्कर आ गए थे। वह तो उनकी बदनामी
का कारण नहीं बनाया जा सकता था। एक लई बात बचती थी कि कामवासना को उनकी बदनामी का
कारण बनाया जाए। बुद्ध से, बुद्ध के सत्य से सीधी टक्कर भी नहीं
ली जा सकती थी। क्योंकि सत्य इतना प्रगाढ़ था, इतना एकष्ट था,
सूर्य की तरह ऊगा था। इन धर्मगुरुओं की हैसियत भी न थी कि इस सत्य
के सामने आंखें उठाकर खड़े हो जाएं। इस सत्य के सामने तो आ भी नहीं सकते थे। पीछे
छुपकर पीठ में छुरा मार सकते थे। अंधेरे में छुरा मार सकते थे। और इससे ज्यादा
सुगम कोई उपाय नहीं है।
कामवासना
से दमित लोगों के जगत में इतनी ही बात काफी है लोगों में फैला देनी कि कोई सुंदरी
स्त्री बुद्ध के पास रात जाती है और बुद्ध को रति—रमण कराती है। बस इतना काफी था।
'यह सुंदरी पूरिव्राजिका इस गांव के बहुत लोगों को लुभाती रही होगी। एक तो
सुंदर थी, फिर भिक्षुणी थी, बुद्ध की
शिष्या थी। गांव में भिक्षा मांगते हुए इस भिक्षुणी को देखकर न मालूम कितनों का मन
डांवाडोल हुआ होगा।
इस
बात को भी खयाल में लेना। साधारण स्त्री से भी ज्यादा साध्वी लुभाती है, क्योंकि
साधारण स्त्री को पाना बहुत कठिन नहीं, साध्वी को पाना बहुत
कठिन है। और जिसको पाना कठिन है, उसमें उतना ही रस आता है।
जितना दुर्गम हो जाए पाना, उतना ही रस आता है। जिसे पाना सरल
है, उसमें रस खो जाता है। उसमें क्या रस! उसमें अहंकार को
कोई चुनौती नहीं होती।
यह
सुंदरी साध्वी घूमती होगी गांव में, भिक्षा मांगती होगी। इसकी सुंदर
देह देखकर, इसका सुंदर रूप देखकर अनेकों का मन डावाडोल हुआ
होगा। फिर अचानक खबर गांव में आयी कि यह सुंदरी तो बुद्ध के साथ शारीरिक—संबंध
रखती है, तो अनेकों ने मान लिया होगा। जिन—जिन ने इससे
शारीरिक—संबंध बनाने की कामना की होगी, सपना देखा होगा,
उन सबने मान लिया होगा कि बात बिलकुल ठीक है, हम
भी डोले थे। अपने मन में सोचा होगा—हमें भी प्रभावित किया था। और उन्होंने बदला भी
लिया होगा। अब यह अच्छा मौका था, बुद्ध से बदला लिया जा सकता
है।
बुद्ध
से हम बदला क्यों लेना चाहते हैं?
बुद्ध
के कारण हमें बहुत चोट लगती है। अंधों के बीच जैसा आंख वाला अंधों को चोट पहुंचाता
है, क्योंकि उसके कारण वे अंधे मालूम होते हैं। बीमारों के बीच जैसे स्वस्थ
बीमारों को चोट पहुंचाता है, क्योंकि उसके कारण तुलना में
उनको बीमारी दिखायी पड़ती है। जहां घना अंधेरा है और सब लोग अंधेरे में टटोल रहे
हैं, वहां एक व्यक्ति जिसका भीतर का दीया जल रहा है, हमारे भीतर बड़ा क्रोध जगाता है। यह हमारा अपमान है। दीया हममें नहीं जल
रहा है, किसी और में जल रहा है, यह
हमारे लिए ईर्ष्या का कारण बन जाता है।
तो
ऐसा ही नहीं है कि हमने जीसस को अकारण सूली दे दी। हमें देनी पड़ी। बर्दाश्त के
बाहर हो गए। एक सीमा थी सहने की। फिर यह आदमी घूम—घूमकर हमें पीड़ा देने लगा। जब भी
हम इसे देखते,
हमें अड़चन होने लगी। यह हमें नकारने लगा। इसके सामने मौजूद, खड़े होने पर हम दीन—हीन मालूम होने लगे। हमें लगने लगा कि हम तुच्छ,
ना—कुछ। जीवन ऐसा होना चाहिए। और हमारा जीवन कीड़े—मकोड़े सा सरकता
हुआ! जीवन ऐसा होना चाहिए। यह आदमी हमें बहुत तड़फाने लगा। यह आदमी हमें बहुत
ज्यादा चोटें करने लगा। यह हमें शांति से सोने न दे। इसे सूली देना जरूरी हो गयी।
सुकरात
को हमने जहर दिया,
क्योंकि सुकरात घूम—घूमकर लोगों को जगाने लगा। सोए लोग जागना नहीं
चाहते। सोए लोग सिर्फ सो ही थोड़े रहे हैं, बड़े—बड़े मधुर सपने
देख रहे हैं। जब इन्हें तुम जगाओ तो इनके सपने टूटते हैं। और इन्होंने सपनों के
अतिरिक्त और कुछ जाना नहीं है। सपने ही इनके जीवन का सत्य हैं।
तो
तुम इन्हें जब जगाते हो तो इनको लगता है, तुम हमारे दुश्मन हो। तुम हमारे
सपने तोड़े दे रहे हो। हम इतने मजे में लीन थे—महल बना रहे थे, सुंदर रानियां थीं, पुत्र थे, बड़ा
राज्य था—तुम हमें घसीटकर कहां ला रहे हो इस जागने में। इस जागने में कुछ भी नहीं
है, हम भिखमंगे हैं, यह झोपड़ी है,
यह कुरूप सी पत्नी है, यह उपद्रवी लड़का है। हम
अपनी नींद में मजे से पड़े थे, हम सपना मीठा देख रहे थे,
तुम हमें जगाओ मत।
हम
बुद्धों से नाराज रहे हैं। हमने उस नाराजगी का उनसे अनेक तरह से बदला लिया है।
हमारा प्रतिशोध बहुत गहरा है। और उपाय क्या हैं हमारे प्रतिशोध के? हमारे
उपाय यही हैं कि जैसे हम हैं वैसा ही हम उन्हें भी सिद्ध कर दें। इतना सिद्ध हो
जाए कि जैसे हम हैं वैसे ही वे हैं, बात खतम हो गयी। फिर कोई
अड़चन न रही। भगवान का प्रभाव प्रतिदिन बढ़ता जाता था।
इस
प्रभाव को बढ़ाने के लिए कुछ करना नहीं होता। इस प्रभाव को बढ़ाने की कोई आकांक्षा
भी नहीं होती जिसके भीतर भगवत्ता का जन्म हुआ हो। यह प्रभाव अपने से बढ़ता है। जैसे
सूरज ऊगता है और रोशनी फैलती है। और फूल खिलता है और सुगंध बिखरती है। ऐसा यह
प्रभाव है। इस प्रभाव को करने की कोई चेष्टा नहीं है। कोई प्रभावित हो, ऐसा
बुद्धपुरुष चेष्टा नहीं करते। उनकी सहज उपस्थिति, उनका जागरण,
उनका चैतन्य अनेकों को खींचने लगता है। वे चुंबक हो जाते हैं। लोग
ऐसे खिंचे चले आते हैं जैसे लोहे के टुकड़े खिंचे चले आते हैं। उनकी मौजूदगी
सम्मोहक हो जाती है। जिन्होंने उनका स्वाद लिया, फिर उन्हें
भूल नहीं पाते, फिर और स्वाद लेने का मन होने लगता है।
भगवान
का प्रभाव प्रतिदिन बढ़ता जाता था। जो धर्मानुरागी थे, वे खूब
आनंदित थे।
जो
धर्मानुरागी थे वे इसलिए आनंदित थे कि भगवान की मौजूदगी में उन्हें प्रमाण मिल गया
कि धर्म सत्य है। कि वेद जो कहते हैं, कि उपनिषद जो कहते हैं, वे सिर्फ कथन मात्र नहीं हैं, वे वक्तव्य मात्र नहीं
हैं, यहां जीता धर्म प्रगट हो गया था। जो वस्तुत:
धर्मानुरागी थे वे तो बड़े आनंदित थे, वे तो नाच रहे थे,
वे तो मगन थे। वे कहते थे, हम धन्यभागी हैं!
सुना था शास्त्रों में, अब आंख से देखा। सुनते आए थे,
अब अनुभव किया।
बड़ा
फर्क है। सूरज के संबंध में सुना हो और फिर सूरज को ऊगते देखना, बड़ा फर्क
है। हिमालय की तस्वीरें देखी हों और फिर जाकर हिमालय देखना, बड़ा
फर्क है। तस्वीर में न तो वह ताजगी है, न वह शीतलता है,
तस्वीर में न हवाएं हैं, न रोशनी है, तस्वीर में कहां वे ऊंचाइया जो हिमालय की हैं! कहां वे गहराइयां जो हिमालय
की हैं! तस्वीर में कहां वे पक्षी जो हिमालय पर गीत गाते, कहां
वे फूल जो खिलते और सुगंध से भर देते हैं घाटियों को! तस्वीर तो तस्वीर है! जो
तस्वीरों में देखा था, वह सामने आंख के आ गया।
वेद
तो तस्वीर है,
उपनिषद तो तस्वीर है, हजारों साल बाद कोई
व्यक्ति बुद्ध होता। तो जो धर्मानुरागी थे, उनको ऐसा नहीं
लगा कि बुद्ध वेद के विपरीत हैं। उन्हें तो ऐसा लगा, बुद्ध
वेद के साक्षी हैं। अब तक वेद बिना साक्षी के था, बुद्ध में
साक्षी मिल गया। अब तक जो बात केवल तर्क थी, अब अनुभव बनने
का उपाय हो गया। यह सामने खड़ा है व्यक्ति! और जो इसके भीतर हो सकता है, वह हमारे भीतर भी हो सकता है।
उनके
हृदय—कुसुम भी भगवान की किरणों में खुले जाते थे। उनके मन—पाखी भगवान के साथ अनंत
की उड़ान के लिए तत्पर हो रहे थे।
जो
धर्मानुरागी है,
वह तो बुद्धपुरुषों की मौजूदगी से आह्लादित हो जाता है। इसकी ही तो
प्रतीक्षा थी जन्मों—जन्मों से कि कोई हो जो प्रमाण हो। बौद्धिक प्रमाण नहीं चाहिए
धर्मानुरागी को, जीवंत, अस्तित्वगत
प्रमाण चाहिए। कोई हो, जिसकी हवा में भगवत्ता हो। जिसके कारण
हमें अनुभव में आए कि भगवान है। जिसकी मौजूदगी में हमें प्रमाण मिलने लगे कि भगवान
है। जिसकी मौजूदगी हमें बताए कि संसार पदार्थ पर समाप्त नहीं हो जाता है, यहां छिपे हुए रहस्य भी हैं। यहां बड़े गहरे रहस्य दबे पड़े हैं। खोज के लिए
उपाय है। जिसकी मौजूदगी हमारे लिए अभियान की पुकार बने। जो हमें चुनौती दे कि आओ,
मेरे साथ चलो! और जैसे पंख मेरे हैं ऐसे तुम्हारे भी हैं। तुम कभी
उड़े नहीं, इसलिए पंखों की तुम्हें याद नहीं। तुम पंख लेकर ही
पैदा हुए हो। फड़फड़ाओ, तुम भी उड़ सकोगे। जो मुझे मिला है,
वह तुम्हारी भी संपदा है।
लेकिन
ऐसे लोग तो दुर्भाग्य से थोड़े ही थे।
उस
दिन भी थोड़े थे,
उसके पहले भी थोड़े थे, अब भी थोड़े हैं।
दुर्भाग्य है यह कि इतने धार्मिक लोग हैं, मगर धर्मानुरागी
नहीं। मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारा,
गिरजा जाते हुए कितने लोग हैं, लेकिन धर्म के
प्रेमी कहा! यह तो सब थोथा व्यवहार है, यह तो लोकोपचार है।
यह तो समाज की व्यवस्था है कि लोग चर्च चले जाते रविवार को, कि
गुरुद्वारा चले जाते, कि जपुजी पढ़ लेते, कि गीता पढ़ लेते, कि नमोंकार मंत्र का जाप कर लेते,
कि माला फेर लेते। लेकिन हृदय से न माला फेरी, न जपुजी किया, हृदय से न कभी मंदिर गए, न हृदय से कभी परमात्मा को पुकारा। हृदय से पुकारा होता तो मिल ही गया
होता। नहीं मिला है, यह काफी प्रमाण है कि ऐसे ही खिलवाड़
करते रहे। ऐसे ही, उपचार की तरह, करना
चाहिए कर्तव्य की भांति करते रहे। यह तुम्हारे जीवन की शैली नहीं है। तुम इस पर
दाव पर कुछ भी लगाने को राजी नहीं हो। तुम चाहते हो मुफ्त भगवान ऐसे मिलता हो,
माला इत्यादि फेरने से मिल जाए तो ठीक, न मिले
तो ठीक।
कभी—कभी
तो शायद डरते भी हो कि कहीं ज्यादा माला न फेर दूं कहीं मिल ही न जाए! क्योंकि मिल
जाए तो अड़चन खड़ी होगी। मिल जाए भगवान तो फिर क्या करोगे? मिल जाए
भगवान तो फिर ऐसे ही तो न हो सकोगे जैसे हो। फिर उसके रंग में रंगना होगा। फिर अ ब
स से एक दूसरी ही भाषा सीखनी होगी। जीवन का एक और ही ढांचा रचना होगा, एक और ही मंदिर बनाना होगा। उतनी अड़चन कोई लेना नहीं चाहता। माला भी हम जप
लेते हैं, पाठ भी हम पढ़ लेते हैं, पूजा
भी हम कर लेते हैं और भरोसा रखते हैं कि इससे कहीं कुछ होने वाला थोड़े ही है।
बहुत
थोड़े से लोग हैं जो सच में ही सत्य की तलाश पर हैं। और जो तलाश पर हैं, उन्हें
मिलता है। जो तलाशा जाता है, मिलता ही है। इस जगत में तुम जो
चाहोगे, मिलेगा। अगर न मिले तो एक ही बात समझना कि तुमने
चाहा ही न था। चाहत गहरी हो, तो परिणाम होते ही हैं। प्यास
गहरी हो, तो प्यास ही प्राप्ति बन जाती है।
बहुत
तो ऐसे थे जिनके प्राणों में भगवान की उपस्थिति भाले सी चुभ रही थी। उनका व्यवसाय
खतरे में था,
उनकी व्यवस्था खतरे में थी, उनका पांडित्य,
उनका पौरोहित्य खतरे में था। भगवान की मौजूदगी में वे अज्ञानी मालूम
होने लगे थे। भगवान मौजूद नहीं थे तो वे ज्ञानी थे, लोग उनके
पास आते थे, लोग उनसे पूछते थे, सलाह—मशविरा
लेते थे। भगवान की मौजूदगी में पंडित फीका होने लगा। जब भी कोई व्यक्ति बुद्धत्व
को उपलब्ध होता है तो सबसे ज्यादा चोट पंडित को पहुंचती है। क्योंकि बुद्धत्व है
असली शान और पांडित्य है झूठा ज्ञान—नकली, उधार, बासा, कूड़ा—करकट, उच्छिष्ट,
इकट्ठा किया हुआ। तो जैसे ही कोई बुद्धत्व को उपलब्ध व्यक्ति मौजूद
हो जाता है, वैसे ही पंडित सबसे ज्यादा अड़चन में पड़ता है;
सबसे बड़ी कठिनाई उसकी खड़ी हो जाती है।
जीसस
को जिन लोगों ने सूली दी,
वे यहूदियों के पंडित—पुरोहित थे। बुद्ध के खिलाफ जिन लोगों ने
हजारों तरह के षड्यंत्र रचे, वे सब पंडित और पुरोहित थे।
धर्म का दुश्मन इस पृथ्वी पर पंडित और पुरोहित से ज्यादा और कोई भी नहीं है।
मंदिरों में भगवान की पूजा नहीं हो रही है, क्योंकि
पंडित—पुरोहित के हाथ में पूजा है और पंडित—पुरोहित सदा से शैतान के हाथ में है।
वह कभी भगवान का साथी रहा नहीं। वह सदा से भगवान का दुश्मन है। वह भगवान के नाम का
उपयोग करता है, शोषण करता है, वह अच्छा
धंधा है।
इन
लोगों को लगता था कि गौतम धर्म के नाश पर उतारू है। और एक बात, इसमें
थोड़ी सचाई भी थी।
जिसको
वे धर्म कहते थे,
निश्चित ही गौतम उस धर्म के विनाश के लिए उतारू थे। क्योंकि वह धर्म
था ही नहीं। धर्म को तो रोज—रोज नया—नया पैदा होना पड़ता है। पुराना होते ही सड़
जाता है, मर जाता है। धर्म को तो ऐसे ही रोज—रोज पैदा होना
पडता है जैसे तुम श्वास लेते हो। जो श्वास गयी, गयी। नयी
चाहिए। यही अर्थ है एस धम्मो सनंतनो का। प्रतिपल धर्म को जीना पड़ता है। प्रतिपल
उतरना पड़ता है। प्रतिपल ताजा—ताजा ही। ताजा—ताजा ही भोग लो तो भोगा। बासा—बासा
इकट्ठा किया तो तुम्हारे हाथ राख लगेगी, अंगारा तो बुझ चुका।
अंगारा तो वर्तमान में होता है। बुद्ध थे अंगारे की तरह, राख
की तरह जो पंडित थे उन्हें बड़ी अड़चन हुई होगी।
बुद्ध
परंपरावादी नहीं थे,
शास्त्रों के पूजक नहीं थे, रूढ़ियों—
अंधविश्वासों के पूजक नहीं थे।
हों
भी क्यों? जिसको जीवन का सत्य स्वयं दिखायी पड़ गया हो, वह
क्यों चले दूसरों की बंधी—बंधायी लकीरों पर! जिसके पास अपनी आंख हो, वह क्यों पूछे दूसरों से रास्ता! और जिसके पास आंख हो, वह क्यों टटोले लकड़ी लेकर हाथ में! लकीरों पर तो वे चलते हैं जिनके पास
अपनी आंख नहीं। पूछते तो वे हैं जो स्वयं जानते नहीं। जिसका अपने भीतर का दीया जल
गया हो—अब उससे दूसरे पूछें!
तो
बुद्ध न वेद से पूछ रहे थे,
न उपनिषद से पूछ रहे थे, बुद्ध किसी से पूछ ही
नहीं रहे थे। बुद्ध के पास तो अब देने को तैयार था। यद्यपि जो लोग जरा भी समझ रखते
थे उनको तत्क्षण दिखायी पड़ेगा कि बुद्ध
वही दे रहे हैं जो वेदों ने दिया है। अन्यथा हो भी कैसे सकता है!
शायद
भाषा बदल गयी हो— भाषा बदल जाती है—प्रतीक बदल गए हों। वेद के ऋषि संस्कृत में
बोले थे, बुद्ध पाली में बोल रहे थे। वेद के ऋषियों ने किसी और तरह के दार्शनिक
ढांचे का उपयोग किया था, बुद्ध किसी और तरह के ढांचे का
उपयोग कर रहे थे। अंगुलिया अलग—अलग थीं, इशारा एक ही तरफ था।
लेकिन पंडित—पुरोहित को लगा कि यह तो धर्म का विनाश हो जाएगा।
गौतम
का धर्म स्थिति—स्थापक नहीं है। गौतम क्रांति के पक्षपाती हैं।
गौतम
परिवर्तन के पक्षपाती हैं। वह कहते हैं, तुम्हारे भीतर ज्योति जलनी चाहिए,
महापरिवर्तन होना चाहिए, तुम ऐसा कुछ भी न करो
जिससे तुम्हारी ज्योति बुझी रहे। तुम ऐसा सब करो जिससे तुम्हारी ज्योति जल जाए। सब
प्रयत्न करो, ताकि तुम जीवंत हो जाओ। स्वयं की आंख चाहिए,
स्वयं के कान चाहिए, स्वयं का धड़कता हुआ हृदय
चाहिए, अपने पैर चाहिए और अपने ही बल पर पहुंचने की हिम्मत
चाहिए।
गौतम
ने आधारशिला रखी थी मनुष्य के ऊपर।
और
धर्म ईश्वर पर आधारशिला रखते हैं। कोई देवी—देवताओं पर आधारशिला रखता है। गौतम ने
आधारशिला रखी थी मनुष्य पर। गौतम ने आधारशिला रखी थी तुम पर।
चंडीदास
का प्रसिद्ध वचन है—साबार ऊपर मानुस सत्य ताहार ऊपर नाहीं। मनुष्य का सत्य सबसे
ऊपर है, उसके ऊपर और कोई सत्य नहीं।
यह
वचन निश्चित ही बुद्ध से प्रभावित है। बुद्ध ने यह पहली दफा कहा : साबार ऊपर मानुस
सत्य। सबसे ऊपर मनुष्य का सत्य है। मनुष्य को परम प्रतिष्ठा दी। और कहा. मनुष्य को
कहीं झुकने की जरूरत नहीं है, जगने की जरूरत है। मनुष्य को किसी को मानने की
जरूरत नहीं है, बस अपने को ही जानने की जरूरत है।
जो
मनुष्य अपने को जान लेता है, वही भगवत्ता को उपलब्ध हो जाता है। बुद्ध ने
भगवान की बड़ी नयी व्याख्या की। बुद्ध ने नहीं कहा कि भगवान वह है जो दुनिया बनाता
है। दुनिया तो बुद्ध ने कहा किसी ने न बनायी, न कोई बनाने
वाला है। बुद्ध ने भगवान को नया अर्थ दिया। बुद्ध ने कहा, भगवान
का अर्थ है भाग्यशाली। वह भाग्यशाली जिसने स्वयं को जान लिया, वही भगवान है। मनुष्य ही जागकर भगवान हो जाता है। आत्मा ही जाग्रत होकर,
दीप्तमय होकर परमात्मा हो जाती है। तुम्हारे भीतर बीज छिपा है
परमात्मा का—बीज है आत्मा—अभी तुम सोए हो इसलिए बीज टूटता नहीं, जाग जाओ तो बीज टूट जाए। जागने का सूत्र दिया ध्यान।
इसलिए
बुद्ध ने प्रार्थना की बात ही नहीं की। बुद्ध ने पूजा की बात ही नहीं की। बुद्ध ने
तो सिर्फ एक सीधा सा सूत्र दिया ध्यान। ध्यान का अर्थ है—नींद को तोड़ो, सपने को
तोड़ो और जागो। जैसे —जैसे जागने लगोगे, वैसे—वैसे परमात्म—
भाव तुम्हारा पैदा होने लगेगा। जिस दिन तुम पूरे जाग गए, उस
दिन तुम परमात्मा हो गए। मनुष्य को ऐसी महिमा किसी ने भी न दी थी।
साबार
ऊपर मानुस सत्य ताहार ऊपर नाहीं।
इस
सबसे स्वभावत: दकियानूस,
रूढ़िवादी, धर्म के नाम पर भांति— भांति का
शोषण करने वाले लोग बहुत पीड़ित हो गए थे। उन्हें कुछ सूझता भी न था, कैसे इस गौतम से विवाद करें। विवाद वे करने में समर्थ भी नहीं थे। गौतम
कोई पंडित होते तो विवाद आसान हो जाता। गौतम के सामने आकर उन पंडितो के विवाद और
तर्क बड़े छोटे और ओछे मालूम होने लगते थे। उनमें कोई बल न था। वे तर्क नपुंसक थे।
तो पीछे से ही छुरा मारा जा सकता था। उपाय उन्होंने यह खोजा— एक सुंदरी
परिव्राजिका को विशाल धनराशि का लोभ देकर राजी कर लिया कि बुद्ध की अकीर्ति फैलाए।
अब
यह सुंदरी परिव्राजिका बुद्ध की शिष्या थी। शिष्य होकर भी कोई इतना दूर हो सकता है, इसे याद
रखना। शिष्य होकर भी कोई अपने गुरु को बेच सकता है, इसे याद
रखना। क्राइस्ट को भी जिसने बेचा—जुदास—वह क्राइस्ट का शिष्य था। बारह शिष्यों में
एक। और बेचा बड़े सस्ते में—तीस रुपये में। तीस चांदी के टुकड़ों में।
इस
सुंदरी परिव्राजिका को लोभ दिया होगा धन का, पद का, प्रतिष्ठा
का, लोभ में आ गयी होगी। जो लोभ में आ जाए, वह संसारी है, चाहे वह संन्यासी ही क्यों न हो गया
हो। परिव्राजिका थी, संन्यास ले लिया था, लेकिन संन्यास भी लोभ के कारण ही लिया होगा। फिर लोभ के कारण ही डोल गयी।
वह
षड्यंत्र में संलग्न हो गयी। नित्य संध्या जेतवन जाती, परिव्राजिकाओं
के साथ समूह में रहकर प्रात: नगर में प्रवेश करती। और जब श्रावस्ती—वासी पूछते—और
ये श्रावस्ती—वासी कोई और न होंगे, वही पंडित—पुरोहित! नहीं
तो कौन किससे पूछता है! वे ही पूछते होंगे रास्तों पर खड़े हो—होकर—कहा से आ रही हो?
तब वह कहती, रातभर श्रमण गौतम को रति में रमण
कराकर जेतवन से आ रही हूं। ऐसे भगवान की बदनामी फैलने लगी। लेकिन भगवान चुप रहे सो
चुप रहे। सत्य को इतना समादर शायद ही किसी ने दिया हो।
फर्क
समझना। महात्मा गांधी ने एक शब्द इस देश में प्रचलित करवा दिया सत्याग्रह। कि सत्य
का आग्रह करना चाहिए। यह कथा इसके बिलकुल विपरीत है। बुद्ध कहते हैं, सत्य का
आग्रह भूलकर नहीं करना चाहिए। सत्य तो अनाग्रह से पैदा होता है। सत्य कहने से थोड़े
ही होता है। असल में आग्रह सभी असत्य के होते हैं। जब हम किसी चीज को बहुत चेष्टा
से सत्य सिद्ध करने की दिशा में संलग्न हो जाते हैं, तो हम
इतना ही कहते हैं कि हमें डर है कि अगर हमने इसको बहुत प्रबल प्रमाण न जुटाए,
तो यह कहीं बात हार न जाए। सत्य में तो कोई भय का कारण ही नहीं है।
इसलिए सत्य का कोई आग्रह नहीं होता।
सत्याग्रह
से ज्यादा गलत शब्द कोई हो नहीं सकता! सत्य का कोई आग्रह होता ही नहीं। सत्य तो
मौन है। सत्य तो इतना बलशाली है कि उसके लिए किसी सुरक्षा का कोई आयोजन करने की
जरूरत नहीं है।
तो
बुद्ध चुप रहे सो चुप रहे। एक शब्द न कहते। यह भी न कहते कि झूठ बोलती है यह
सुंदरी। यह भी न कहते कि यह भी खूब षड्यंत्र चल रहा है, कुछ भी न
कहते। न सुंदरी के खिलाफ एक शब्द बोले। न सुंदरी को बुलाया, न
सुंदरी को समझाया, न चेताया। सुंदरी को सुंदरी पर छोड़ दिया।
इस
अनूठी प्रक्रिया को समझना। महात्मा गांधी होते तो उपवास करते। वह कहते कि मैं मर
जाऊंगा, आमरण अनशन करूंगा, अब सत्य की घोषणा करो। सुंदरी
सत्य कहे, नहीं तो मैं आमरण अनशन करता हूं। बुद्ध ने एक शब्द
भी नहीं कहा। आमरण अनशन की तो बात दूसरी, सुंदरी को बुलाया
भी नहीं। सुंदरी को समझाया भी नहीं। सुंदरी से पूछा भी नहीं।
इस
अनूठी प्रक्रिया को समझना। यह सत्य का अनाग्रह है। सत्य पर इतना भरोसा है, सत्य पर
ऐसी अटूट श्रद्धा है कि सत्य अगर है, तो जीतेगा ही। आज नहीं
कल, देर— अबेर जीतेगा ही। कुछ कहने की जरूरत नहीं समझी।
और
यह भी भरोसा किया कि आखिर सुंदरी के भीतर भी आत्मा है, कचोटेगी।
कितनी देर नहीं कचोटेगी? एक दिन बीता होगा, दो दिन बीते होंगे, तीन दिन बीते होंगे, गांव में अफवाह खूब घनी होने लगी होगी, कि धुआं खूब
फैलने लगा होगा। सुंदरी को लगता तो होगा कि बुद्ध बुलाएंगे, पूछेंगे,
डांटेंगे—डपटेंगे। ऐसा भी नहीं था कि डांटते—डपटते नहीं थे! हमने कई
कहानियां देखी हैं कि बुद्ध अपने शिष्य को बुलाते हैं, डांटते—डपटते
हैं। शिष्य के हित में हो तो डांटते—डपटते हैं। लेकिन यह तो बात अपने हित की थी,
इसलिए कुछ भी नहीं कहा। शिष्य गलत जा रहा हो, शिष्य
अपने को नुकसान पहुंचा रहा हो, तो बुद्ध सब उपाय करते। लेकिन
इस मामले में तो बुद्ध ने कोई भी उपाय न किया। इस मामले में बिलकुल चुप रहे।
इस
चुप्पी का भी परिणाम होता है। चुप्पी भी बड़ी अपूर्व ऊर्जा प्रगट करती है। कभी—कभी
मौन रह जाने से जैसा उत्तर आता है, वैसा कुछ कहने से नहीं आता। कभी न
लड़ने से जीत होती है और कभी लड़ने से हार हो जाती है। बुद्ध चुप रहे। धीरे— धीरे यह
बात सारे नगर की चर्चा का विषय बन गयी। फिर तो लोगों ने कोई और बात ही न की होगी
महीनों तक। एक ही चर्चा रही होगी। फिर बात बढ़ने लगी। एक मुंह से दूसरे मुंह जाने
लगी और बड़ी होने लगी।
लोग
ऐसे ही चर्चा थोड़े ही करते हैं, चर्चा में थोड़ा जोड़ते हैं। लोग बड़े सर्जनात्मक
हैं! लोग जोड़ते भी हैं, बढ़ाते भी हैं, सुधारते
भी हैं, चमकाते भी हैं, आभूषण भी लगाते
हैं। बात जब फैलती है तो तुम समझ सकते हो कि उसमें हजारों कलाकार भाग लेते हैं!
लेकिन भगवान चुप थे सो चुप ही रहे।
परिणाम
होने शुरू हो गए। भगवान के पास आने वालों की संख्या रोज—रोज कम होने लगी। हजारों
आते थे, फिर सैकड़ों रह गए, फिर अंगुलियों पर गिने जा सकें
इतने ही लोग बचे। और तब भगवान हंसते और कहते—देखो, सुंदरी
परिव्राजिका का अपूर्व कार्य, कचरा—कचरा जल गया, सोना—सोना बचा।
यह
बात सुंदरी को भी खबर लगती होगी कि भगवान हंसते हैं और ऐसा कहते हैं कि देखो, सुंदरी का
अपूर्व कार्य। बड़ी कृपा की सुंदरी ने। उसके मन में और चोट होने लगी होगी, और काटने लगा होगा यह भाव, रातभर सो न सकती होगी,
उठती—बैठती होगी और पीड़ा होती होगी, यह शूल की
तरह चुभने लगा होगा कि वह क्या कर रही है?
भगवान
की शांति को अचल देख धर्मगुरुओं ने गुंडों को रुपये देकर सुंदरी को मरवा डाला और
फूलों के एक ढेर में जेतवन में ही छिपा दी उसकी लाश।
भगवान
की शांति से सुंदरी धीरे— धीरे अपने कुकृत्य पर पछताने लगी थी। धर्मगुरुओं को पता
चलने लगा होगा कि सुंदरी अब रस नहीं लेती है। सुंदरी अब गांव भी नहीं आती है। अगर
उससे पूछते भी हैं तो कहती भी है, तो भी पुराने ढंग से नहीं कहती है, बेमन से कहती है। सुंदरी उदास दिखती है, सुंदरी को
बेचैनी पैदा हो गयी है, अंतःकरण में एक संघर्ष पैदा हो गया
है, यह संकट उन्हें दिखायी पड़ गया होगा। सुंदरी को हटा देना
जरूरी है। सुंदरी का जीते रहना अब खतरे से खाली नहीं है।
सुंदरी
को उन्होंने मरवा डाला। जेतवन में ही छिपा दी लाश। गांव भर में खबर फैला दी कि
गौतम ने अपने पाप को छिपाने के लिए मालूम होता है सुंदरी को मरवा डाला।
धर्म
के नाम पर ऐसा सब कुछ होता रहा है। आज भी होता है। और जब धर्म के नाम पर होता है
तो लोग बड़ी आसानी से धोखा भी खा जाते हैं। क्योंकि धर्मगुरुओं से हम ऐसी आशा नहीं
करते। धर्मगुरुओं से हम ऐसी आशा नहीं करते, इसलिए जल्दी से भरोसा भी कर लेते
हैं। मगर यह पुरानी कथा है। यह सदा से होती रही बात है। जिनका धंधा दाव पर लग जाए,
वे अपने को बचाने की सब तरह चेष्टा करते हैं। ठीक, गलत, फिर कोई चिंता नहीं रह जाती।
फिर
वे श्रावस्ती के राजा के पास गए। और उन्होंने कहा, दाल में कुछ काला है,
महाराज! गौतम ने मालूम होता है कुछ या तो मार डाला, या कहीं छिपा दिया, सुंदरी दिखायी नहीं पड़ती है कुछ
दिनों से। और आपको तो पता होगा ही कि जेतवन में ही रातें गुजारा करती थी गौतम के
साथ।
राजा
ने सिपाही भेजे,
लाश मिल गयी। उन धर्मगुरुओं ने कहा—महाराज, देखिए
यह महापाप! एक पाप को छिपाने के लिए यह गौतम इतना बड़ा महापाप करने को तैयार हो
गया।
अब
तो हइ हो गयी। अब तो कहानी में पूरी कहानी हो गयी। काम का कृत्य हो गया, हत्या भी
हो गयी। इतने से ही तो सारी जासूसी कहानियां बनती हैं। अब तो पूरा सस्पेन्स! अब तो
उन्होंने पूरी सनसनी पैदा कर दी! अब और कुछ बचा नहीं। और वहां एक आदमी है गौतम
बुद्ध—निहत्था, चुप बैठा! इस पर भी गौतम कुछ भी न बोले। इस
पर भी चुप रहे।
भिक्षुओं
को भिक्षा मिलनी भी गांव में मुश्किल हो गयी। भिक्षा की दूर, गांव में
निकलना मुश्किल हो गया। गांव में चलना मुश्किल हो गया। जहा जाते होंगे, लोग कहते, यह देखो, उस हत्यारे
गौतम के शिष्य जा रहे। उस कामी गौतम के शिष्य जा रहे। इन्हें कौन भिक्षा देगा! कौन
भिक्षा देकर झंझट में पड़ेगा? क्योंकि जो भिक्षा देगा,
वह भी गांव की नजरों में गिरेगा। द्वार—दरवाजे बंद हो जाते होंगे।
शायद बुद्ध को दों—चार दिन भोजन भी न मिला हो। क्योंकि बुद्ध के पास और तो कोई
उपाय न था। लेकिन कुछ थोड़े से लोग थे, जो दुस्साहसी थे और अब
भी आते थे। ऐसी ही घड़िया कसौटी की घड़ियां होती हैं।
भगवान
ने अपने भिक्षुओं से सिर्फ इतना ही कहा—असत्य असत्य है, तुम चिंता
न करो। सत्य स्वयं अपनी रक्षा करने में समर्थ है।
सत्याग्रह
की कोई जरूरत नहीं है। सत्य निराग्रह भी जीतता है। जीतता ही है। सत्य की जीत
अपरिहार्य है,
सिर्फ समय शायद लग जाए। असत्य की हार अपरिहार्य है, शायद थोडी देर असत्य सिंहासन पर बैठने का मजा ले ले। मगर यह थोड़ी देर का
राग—रंग है। तुम चिंता न करो। तुम इतना ही करो, शांति रखो,
धैर्य रखो, ध्यान रखो। सब सहो। यह सहना साधना
है। श्रद्धा न खोओ। श्रद्धा को इस अग्नि से भी गुजर जाने दो। यह अपूर्व अवसर है,
ऐसे अपूर्व अवसर पर ही कसौटी होती है। इसके बाद श्रद्धा जो निखरेगी,
श्रद्धा ज्योतिर्मय होकर प्रगट होगी।
और
ऐसा ही हुआ। गुंडों ने रुपये ले लिए थे, सुंदरी को मार डाला था.. पाप छिपते
थोड़े ही, पाप बोलते। रात शराब पी ली होगी मधुशाला में जाकर,
ज्यादा पी गए होंगे, फिर पी गए तो सारी बात कह
गए। सब बता दिया, खोल दिया सब कि मामला क्या है। कि हमने
हत्या की है, और किन ने हत्या करवायी है, और क्यों हत्या करवायी है, और गौतम निष्पाप है।
लेकिन
भगवान फिर भी कुछ न बोले सो न बोले। चुप ही रहे। सत्य को स्वयं ही बोलने का
उन्होंने अवसर दिया। अंत में अपने भिक्षुओं से उन्होंने इतना ही कहा कि असत्य से
सदा सावधान रहना। उसके साथ कभी न जीत हुई है, न कभी हो सकती है। एस धम्मो
सनंतनो। यही शाश्वत नियम है।
और
तब उन्होंने ये गाथाएं कहीं—
अभूतवादी निरयं
उपेति यो चापि।
कत्वा न करोमीति
चाह।
उभोति ते पोच्च
समा भवंति।
निहीनकम्मा मनुजा
पंरत्थ ।।
'असत्यवादी नर्क में जाता है, और वह भी जो कि करके भी
कहता है कि नहीं किया। दोनों ही प्रकार के नीच कर्म करने वाले मनुष्य मरकर समान
होते हैं।'
असत्यवादी
नर्क में जाता है,
इसका अर्थ होता है—उन दिनों की भाषा है यह—आज की भाषा में इसका अर्थ
होता है, असत्यवादी दुख भोगता है। नर्क कोई भौगोलिक जगह नहीं
है, कहीं पाताल में, जहां तुम्हें जाना
पड़ेगा, नर्क तुम्हारी मनोदशा है। जब भी तुम असत्य बोलते हो,
तुम नर्क में पड़ते हो। तुम अपने मन में बड़े नीचे उतर जाते हो। तुम
अपने ही मन के अंधकारपूर्ण, दुखपूर्ण घाटी में डूब जाते हो।
और ऐसा मत सोचना कि एक दफा नर्क जाते हो। तुम जितनी बार दिन में झूठ बोलते हो,
जितनी बार बेईमानी करते हो, उतनी बार नर्क में
गिरते हो। और जितनी बार सच बोलते हो, उतनी बार स्वर्ग में
उठते हो। तुम थर्मामीटर के पारे की तरह ऊंचे—नीचे होते रहते हो।
तुम
इसकी जरा जांच करना,
तुम्हें मेरी बात की सचाई तब खयाल में आएगी कि जब भी तुम झूठ बोलते
हो तब तुम दुख में पड़ जाते हो। जब भी तुम सच बोलते हो, तभी
तुम मुक्त हो जाते हो, खुल जाते हो, निर्बंध
हो जाते हो। जब तुम सच बोलते हो, निर्भार हो जाते हो। कोई
भार नहीं रह जाता। जब तुम झूठ बोलते हो, छाती पर पत्थर रख
जाता है। झूठ चाहे छोटा ही हो, पत्थर बहुत बड़ा होता है। झूठ
चाहे दो कौड़ी का हो, जिसका कोई बड़ा मूल्य भी नहीं है,
न बोलते तो भी चल जाता, न बोलते तो भी कुछ
बहुत खो जाने वाला नहीं था, लेकिन झूठ बोलते ही सिकुड़ जाते
हो। झूठ सिकोड़ता है, झूठ तुम्हारे हृदय को दबाता है, झूठ तुम्हें बंद करता है। झूठ तुम्हारे भीतर हजार तरह के रोग पैदा करता
है।
पश्चिम
में अदालतो में रखी रहती है एक मशीन, आदमी के झूठ पकड़ने के लिए। वह मशीन
सबूत है इस बात की। आदमी को खड़ा कर देते हैं मशीन पर। उसे तो पता भी नहीं कि मशीन
पर खड़ा है, मशीन तो छिपी होती है नीचे। खड़ा कर दिया उसको एक
चबूतरे पर, चबूतरे के भीतर छिपी है मशीन। मजिस्ट्रेट उससे
पहले कुछ प्रश्न पूछता है, ऐसे प्रश्न जिनमें वह झूठ बोल ही
नहीं सकता। जैसे कहता है, देखो यह घड़ी है, इसमें कितने बजे हैं? अब सामने घड़ी लटकी है, झूठ कैसे बोलोगे? और झूठ बोलने की जरूरत भी क्या?
तुम कहते हो कि साढ़े नौ बजे हैं। तुम सच बोल रहे हो तो तुम्हारा
हृदय एक तरह से धड़कता है। वह जो नीचे रखी मशीन है, जैसा
कार्डियोग्राम में ग्राफ बनता है, ऐसे उस मशीन में ग्राफ
बनता है, —वह तुम्हारे हृदय की धड़कन, तुम्हारे
शरीर की धड़कन का ग्राफ बनाती है। फिर तुमसे पूछता है कि यहां कमरे में कितने लोग
हैं? तुम गिनती करके कहते हो कि बीस लोग हैं। झूठ बोलने का
कोई कारण नहीं है। मशीन ग्राफ बनाए चली जाती है। एक समतल ग्राफ बनता है। तब वह
पूछता है, क्या तुमने हत्या की? तुम्हारे
भीतर तो उठता है कि ही, क्योंकि तुमने की है, ऊपर से तुम कहते हो, नहीं। तुम्हारे ग्राफ में अड़चन
आ जाती है, तुम्हारे नीचे जो ग्राफ बन रहा है उसमें गांठ पड़
जाती है। तत्क्षण गांठ पड़ जाती है। एक क्षण के लिए हृदय धक्क से रह जाता है। कुछ
कहना चाहते थे और कुछ कहा। वह जो गैप है, वह जो दोनों के बीच
में अंतराल है, वह मशीन पकड़ लेती है।
यह
तो छोटा सा प्रयोग है। लेकिन जो आदमी जिंदगीभर झूठ बोल रहा है, उसके हृदय
में ही वह गांठ पड़ जाएगी। फिर तो वह सच भी बोलना चाहेगा तो न बोल सकेगा। गांठ
मजबूत हो जाएगी।
तुमने
देखा, कि लोग चालीस साल की उम्र के करीब आते— आते झंझटों में पड़ना शुरू होते
हैं। इतने दिन तक गांठ बनती है, फिर हृदय का दौरा पड़ता,
हार्ट अटैक होता, कि कैंसर हो जाता, कि टी. बी हो जाती। अक्सर ये बीमारियां चालीस और बयालीस साल के बाद होती
हैं। इतनी देर तक तुम्हारा शरीर किसी तरह झेल लेता है। तुम्हारा शरीर इतनी देर तक
झेलने में समर्थ है। फिर ऊंट पर आखिरी तिनका रख जाता है—किसी भी दिन—और तराजू
डांवाडोल हो जाता है।
अमरीका
में तो वे कहते हैं कि जिस आदमी को बयालीस साल की उम्र तक हार्ट अटैक न हो, वह आदमी
असफल आदमी है। सफल आदमी को होता ही है। सफल आदमी का मतलब जिसने हजार तरह की
बेईमानियां कीं और पकड़ा नहीं गया, हजार तरह की चोरियां कीं
और पकड़ा नहीं गया। सफल आदमी का मतलब, खूब धन इकट्ठा कर लिया,
दिल्ली पहुंच गया, कि वाशिंगटन पहुंच गया। सफल
आदमी का मतलब कि मिनिस्टर हो गया, कि गवर्नर हो गया, कि राष्ट्रपति हो गया। सफल आदमी का मतलब ही यह होता है कि उसने बहुत से
जाल फैलाए और सब जालों में से किसी तरह से निकलता चला गया।
मगर
तुम बाहर से निकलते चले जाओ, भीतर तुम्हारे हृदय में गांठें पड़ती जाती हैं।
उन गांठों के जोड़ का नाम नर्क है। यह तो पुरानी भाषा है, इसलिए
बुद्ध पुरानी भाषा बोल रहे हैं। मैं तो पच्चीस सौ साल बाद बोल रहा हूं इसलिए
पुरानी भाषा नहीं बोलूंगा। तुम अपना नर्क पैदा कर रहे हो। तुम अपना स्वर्ग भी पैदा
कर सकते हो। तो बुद्ध ने कहा, जो असत्यवादी है, वह दुख में पड़ जाता है।
कुसो यथा
दुग्गहीतो हत्थमेवानुकंतत्ति।
सामज्जं दुप्परामट्ठं
निरमाय उपकड्ढ़ति ।।
'जैसे ठीक से नहीं पकड़ने से कुश
हाथ को ही छेद देता है, वैसे ही ठीक से नहीं ग्रहण करने पर
श्रामण्य नर्क में ले जाता है।'
अब
वे कहते हैं कि—सुदरी का नाम भी नहीं लेते हैं—इतना ही कहते हैं कि तुम यही मत सोच
लेना भिक्षुओ कि तुमने संन्यास ले लिया, इतना काफी है। अगर संन्यास भी गलत
—का से लिया, तो भी नर्क जाओगे। कोमल सी घास देखी न—कुश—इस
कोमल सी घास को भी अगर गलत ढंग से तोड़ो तो हाथ कट जाता है। कोमल सी घास क्या हाथ
काटेगी? लेकिन कोमल सी घास को भी अगर तोड़ना न आता हो और तुम
गलत ढंग से तोड़ लो तो हाथ कट जाए, लहू निकल आए। संन्यास जैसी
सहज और शांत चीज भी अगर तुम गलत ढंग से पकड़ो, तो काट देगी,
तो तुम्हें दुख में ले जाएगी, तो नर्क में
गिरा देगी।
संन्यास
भी गलत हो सकता है,
यह स्मरण रखना। और संसार भी सही हो सकता है, यह
भी स्मरण रखना। ठीक और सही आदमी होते हैं, संन्यास और संसार
का कोई सवाल नहीं है।
अब
यह सुंदरी परिव्राजिका संन्यासी हो गयी थी, बुद्ध से दीक्षित हो गयी थी। यह
कैसी दीक्षा थी! यह कैसा संन्यास था! इसे संकोच भी न लगा। यह जो करने चल पड़ी,
इसने कभी विचार भी न किया। धन के लोभ में आ गयी।
और
तुम ऐसा मत सोचना कि बड़ी पापी रही होगी। बिलकुल मत सोचना, सामान्य
थी। ऐसे ही सामान्य लोग हैं। अगर कोई तुम्हें रुपया दे और मेरे खिलाफ कोई बात
कहलवाना चाहे, तो तुम जरा अपने मन में विचार करना कल सुबह
बैठकर कि तुम कितने रुपये लेकर खिलाफ बात कहने को राजी—सिर्फ विचार करना, कोई दे भी नहीं रहा है, तुम ले भी नहीं रहे हो,
सिर्फ विचार करना—हजार रुपया, कि दो हजार,
कि पांच हजार, कि दस हजार! जैसे—जैसे संख्या
बड़ी होने लगेगी कि तुम पाओगे, रस आने लगा; कि पचास हजार, तुम कहोगे पचास हजार जरा ज्यादा हो
गया; पचास हजार न लूं जरा मुश्किल हो जाएगा; कि लाख, तुम कहोगे अब छोड़ो भी, अब जाने दो, अब तो ले लो लाख। तुम जरा देखना कि
कितने रुपये—और तुम्हें कोई दे नहीं रहा है—तब तुम पाओगे कि सुंदरी तुम्हारे भीतर
भी छिपी है। सामान्य है। कोई विशिष्ट बात नहीं है।
पापी
कहकर मत छूट जाना। नहीं तो हमारी तरकीबें हैं ये। हम कहते हैं, अरे,
बड़ी महापापी रही होगी, बुद्ध जैसे व्यक्ति पर
और ऐसा लाछन लगाया! महा घोर पापी रही होगी।
ऐसा
कहकर बच मत जाना। यह सामान्य मनुष्य का कृत्य है। और यह सामान्य मनुष्य सबके भीतर
छिपा बैठा है। यह हो सकता है कि सबके मूल्य अलग—अलग, कोई पांच रुपये में राजी हो
जाए—जुदास तीस रुपये में राजी हो गया।
मगर
तीस रुपये भी उस दिन के बहुत थे, खयाल रखना। आज के तीस रुपये की बात नहीं है।
नगद चांदी थी। आज के तीस रुपये तो उस जमाने के एक रुपये के मुकाबले भी नहीं हैं।
उस जमाने के तीस रुपये बहुत थे। एक रुपये में जुदास के जमाने में पूरा महीना मजे
से गुजर जाता था, शान से गुजर जाता था। तीस रुपये काफी थे।
तीस रुपये से इतना ब्याज मिल सकता था उन दिनों कि आदमी जिंदगीभर गजे से जी लेता।
तो
तुम तीस रुपये पर अपने तीस रुपये मत सोचना। वह जो नोट तीस रुपये पुकारे खीसे में
रहते हैं, उनसे मत सोचना कि तीस रुपये में कैसे जीसस को बेच ?r दया! तुम जरा सोचो कि जिंदगीभर विश्राम मिल जाए, नौकरी
इत्यादि की जरूरत न रही, धंधा नहीं करना, चले गए माथेरान और विश्राम कर रहे हैं जिंदगीभर, और
जरा सा एक झूठ बोलना है, चूकोगे? चूकोगे
तो पछताओगे। तो मन होगा कि बड़ी गलती कर रहे हो।
तुम
जरा विचार करना। और कभी भी किसी को जल्दी पापी कहकर अपना छुटकारा मत कर लेना। ऐसे
लेबल लगाकर हम अपने को बचा लेते हैं। सुंदरी ऐसे ही सामान्य व्यक्ति थी, जैसे तुम
हो, जैसे सब हैं। आ गयी होगी धोखे में।
बुद्ध
तो उसका नाम भी नहीं लेते हैं। वे तो इतना ही कहते हैं, 'जैसे ठीक
से नहीं पकड़ने से कुश हाथ को ही छेद देता है, वैसे ही ठीक से
नहीं ग्रहण करने से श्रामण्य भी नर्क में ले जा सकता है।'
कयिरां च
कयिराथेनं दल्हमेनं परक्कमे।
सिथिलो हि परिब्बाजो
भिय्यो आकिरते रजं ।।
'यदि प्रवज्या—कर्म करना है—यदि
संन्यास लेना है तो फिर भलीभांति ले— भलीभांति करे, उसमें
दृढ़ पराक्रम के साथ लग जावे। ढीला—ढाला श्रामण्य बहुत मल व धूल बिखेरता है।''
उससे
तो संसारी भला। कम से कम धोखाधड़ी तो नहीं है। झूठा संन्यास न ले, बुद्ध
कहते हैं। क्योंकि झूठा संन्यास और भी खतरनाक है। संसारी से भी ज्यादा खतरनाक।
अब
थोड़ा समझो। अगर यह सुंदरी परिव्राजिका न होती और वेश्या होती तो शायद गांव के लोग
इतनी जल्दी भरोसा न करते। कहते कि अरे वेश्या है, उसकी बात का क्या भरोसा! दो
कौड़ी उसकी कीमत है, उसकी बात का क्या भरोसा! यह अगर वेश्या
होती तो कोई इसकी बात का शायद इतनी आसानी से भरोसा न करता। लेकिन यह श्राविका थी,
यह परिव्राजिका थी, यह संन्यासिनी थी, फिर बुद्ध की ही संन्यासिनी थी, अब इसकी बात तो कैसे
झुठलाओ! जब यह कहती है तो ठीक ही कहती होगी। लोगों ने जल्दी भरोसा कर लिया। थी तो
यह स्त्री वेश्या ही, नहीं तो इस तरह राजी हो जाती!
वेश्या
का अर्थ क्या होता है?
इस शब्द पर कभी ध्यान दिया? यह शब्द उसी से
बनता है, जिससे वैश्य बनता है। वैश्य का मतलब होता है—बेचकर
जीने वाला, दुकानदार। वेश्या का मतलब होता है—अपने को बेचकर,
अपने शरीर को बेचकर जीने वाली। उसने अपनी आत्मा तक बेच दी, ऐसा झूठ बोली जो उसकी आत्मा के विपरीत था। ऐसा झूठ बोली, जो उसके विपरीत था जिसके चरणों में सिर झुकाया था। ऐसा झूठ बोली, जो उसके विपरीत था जिसको भगवान पुकारा था। यह आत्मा बेच देना हो गया।
वेश्या ही थी। मगर ऊपर से वस्त्र तो पीत—वस्त्र थे, वस्त्र
तो भिक्षुणी के थे, वस्त्र तो परिव्राजिका के थे, रंग—ढंग तो संन्यासिनी का था, इसलिए और भी आसानी हो
गयी।
तो
बुद्ध कहते हैं,
'ढीला—ढाला श्रामण्य बहुत मल व धूल बिखेरता है।'
नगरं यथा पच्चंतं गुत्तं संतरबाहिरं ।
एवं गोपेथ अत्तानं
खणो वे मा उपच्चगा।
खणातीता हि सोचंति
निरयम्हि समप्पिता ।।
'जैसे सीमांत का नगर भीतर—बाहर खूब रक्षित होता है, उसी
प्रकार अपने को रक्षित रखे। क्षणभर भी न चूके, क्योंकि क्षण
को चूके हुए लोग नर्क में पड़कर शोक करते हैं। '
बुद्ध
कहते हैं, जैसे सीमांत का नगर, ऐसा हो संन्यासी।
नगर
दो तरह के होते हैं। सीमांत का नगर होता है, जैसे कि पंजाब है। तुमने कभी सोचा
कि पंजाबी इतना मजबूत कैसे हो गया है? सीमांत के लोग सदा
मजबूत हो जाते हैं। सीमांत पर रहने वाले लोग सदा कट्टर हो जाते हैं, हिम्मतवर हो जाते हैं। मध्यदेश में रहने वाले लोग ढीले—पोले हो जाते हैं।
हो ही जाते हैं, क्योंकि वहां कोई खतरा तो आता नहीं। सारा
खतरा जब आया तो पंजाब। जब भी कोई खतरा आए तो पंजाब, पहली ही
टक्कर पंजाब में। सिकंदर आए, कि तैमूर आए, कि नादिर आए, कि कोई भी आए, आए
तो पंजाब। तो पंजाबी को पहले टक्कर लेनी पड़े। तो उसे सजग भी रहना पड़े। उसे जूझने
के लिए तैयारी भी रखनी पड़े। तो अगर वह बलशाली हो जाए और उसमें एक साहस आ जाए,
आश्चर्य नहीं है।
मध्यदेश
में रहने वाला आदमी,
उस पर झगड़े—झंझट आते ही नहीं। सुरक्षित है, चारों
तरफ से सुरक्षित है। उस पर खतरा नहीं आता, तो उसमें रीढ़ भी
पैदा नहीं होती। बुद्ध कहते हैं, संन्यासी सीमांत पर जैसे
नगर होता है ऐसा होना चाहिए।
संसारी
तो ठीक है, बीच में रहता है, उस पर उतने खतरे भी नहीं हैं।
लेकिन संन्यासी पर खतरे ज्यादा हैं, क्योंकि उसने वासनाओं से
टक्कर लेने का निर्णय किया। उसने वृत्तियों के ऊपर उठने की आकांक्षा की। वह इस
संसार के पार जाने के लिए अभीप्सु हुआ है। उसने एक बड़ा अभियान करना चाहा है। उस
पर खतरे ज्यादा हैं। सारी वृत्तियां जिनके वह पार जाना चाहता है उस पर हमला
करेंगी। लोभ संसारी को उतना नहीं सताता, जितनी तीव्रता से
संन्यासी को सताता है। क्योंकि लोभ देखता है कि तुम निकले! कि तुम चले मेरे हाथ के
बाहर! जा कहां रहे हो! लोभ पुंगखिरी हमला करता है।
काम
संसारी को उतना नहीं सताता है जितना संन्यासी को सताता है। क्योंकि काम भी देखता
है कि जा कहां रहे हो,
महाराज! मुझे छोड़ चले! इतने दिन का साथ ऐसे तोड़ चले! रुको, मैं भी आता हूं! और बड़े जोर से हमला करेगा। स्वाभाविक, इतना पुराना संगी—साथी, ऐसे एकदम अचानक रास्ते में
छोड्कर आप चल पड़े! पूरी जिद्द से, हठ से लगेगा। झुकाएगा।
स्वाभाविक है।
तो
बुद्ध कहते हैं,
'सीमांत का नगर जैसे भीतर—बाहर से खूब रक्षित..। '
ऐसा
संन्यासी हो,
भीतर—बाहर से खूब रक्षित। ध्यान से रक्षित, शांति
से रक्षित, धैर्य से रक्षित, श्रद्धा
से रक्षित।
'क्षणभर भी न चूके।'
और
ऐसा भी न करे कि एकाध क्षण चूकेंगे तो क्या हर्जा है! एक क्षण चूके तो काफी हो
जाता है। क्षण में ही तो सब भूलें हो जाती हैं। चौबीस घंटे जागा रहे। बुद्ध कहते
थे, सपने में भी न चूके।
बुद्ध
अपने शिष्यों को ऐसी प्रक्रियाएं देते थे जिनमें सपने में भी वे जागे रहें। समझो
कि दिन में तो तुमने किसी तरह सम्हाले रखा अपने को—स्त्री निकली, तुमने आंख
उठाकर न देखा, तुम अपनी आंखें नीचे गड़ाए रहे; तुमने कोई तस्वीर न देखी स्त्री की, कोई फिल्म देखने
न गए; ऐसी जगह से बचे जहां आकर्षण हो सकता था, धन न छुआ, पद की किसी ने बात की तो तुमने इंकार कर
दिया कि भई, मुझसे मत करो, मैं
संन्यासी, तुम अपने को बचा लिए। लेकिन रात, सपने में, जब तुम सो जाओगे तब, तब क्या होगी रक्षा?
तो
यह तो बाहर से रक्षा हो गयी, अब भीतर का सवाल है। दिन में तो बाहर थे
दुश्मन—कोई आता था और कहता था कि महाराज, यह एक हीरा मेरे
पास पड़ा है, सोचता हूं मैं क्या करूं, आप
ले लें; तुमने कह दिया, भई मैं
संन्यासी हूं मन तो डांवाडोल हो भी रहा था, लेकिन तुमने कहा
कि मैं संन्यासी हूं, मैं हीरा लेकर क्या करूंगा, तू अपना हीरा ले जा और दुबारा इस तरह की बात मुझसे मत करना—यह तुमने बाहर
से तो रक्षा कर ली। लेकिन रात सपने में भीतर से उपद्रव शुरू होगा और तुम सोए होओगे,
फिर क्या करोगे? बुद्ध कहते थे, सपने में भी होश रखे। सोते—सोते होश रखे।
बुद्ध
की प्रक्रिया यह थी कि जब भिक्षु सोने लगे तो एक ही बात ध्यान में रहे सोते समय कि
मैं जागा हूं मैं देख रहा हूं मैं देख रहा हूं और मैं पहचान रहा हूं और मैं पहचान
रहा हूं कि यह सब सपना है और सब झूठ है। ऐसा ही भाव करते—करते रोज सोते—सोते कोई
तीन महीने के बाद घटना घटती कि एक रात तुम सो जाते हो और तुम्हारे भीतर कुछ थोड़ा
सा जागा रहता है;
सपना आता है और तुम्हारे भीतर कोई बोलता है धीमे से कि सपना है,
सावधान!
जो
बात तुम तीन महीने तक अपने चेतन में दोहराते रहे, वह धीरे— धीरे— धीरे रिस—रिसकर
अचेतन में पहुंच जाती है। और जब अचेतन में पहुंच जाती है, तो
फिर काम शुरू हो जाता है। जब भीतर और बाहर, दोनों से कोई
सुरक्षित हो जाता है, तभी संन्यासी हो पाता है।
'क्षणभर भी न चूके, क्योंकि क्षण को चूके हुए लोग
नर्क में पड़कर शोक करते हैं।'
अलज्जिता ये लज्जंति
लज्जिता ये न लज्जरे।
मिच्छादिट्ठिसमादाना
सत्ता गच्छंति दुग्गति ।।
'लज्जा न करने की बात में जो
लज्जित होते हैं और लज्जा करने की बात में लज्जित नहीं होते, वे लोग मिथ्या—दृष्टि को ग्रहण करने के कारण दुर्गति को प्राप्त होते हैं।'
और
बुद्ध कहते हैं,
लज्जा जिस बात की करनी चाहिए, लोग उसकी तो
लज्जा नहीं करते, और जिसकी लज्जा नहीं करनी चाहिए, उसकी लज्जा करते हैं।
अब
जैसे, तुम्हारी यह फिकर नहीं होती कि मैं झूठ न बोलूं तुम्हारी यह फिकर होती है
कि किसी को यह पता न चले कि मैं झूठ बोला। यह बड़ी अजीब सी बात है। तुम्हारी यह
चिंता नहीं होती कि मैं झूठ न बोलूं —वही असली बात है जिसकी लज्जा होनी
चाहिए—तुम्हारी इतनी ही फिकर होती है कि किसी को पता न चले कि मैं झूठ बोला,
बस। पकड़े जाओ तो लज्जित होते हो। करते वक्त लज्जित नहीं होते,
पकड़े जाते वक्त लज्जित होते हो।
लज्जित
ही होना हो तो,
बुद्ध कहते हैं, करते वक्त लज्जित होओ। तो
पकड़ने की बात ही न उठे, पकड़ने का मौका ही न आए। जागे तो उस
वक्त जब ऐसा कुछ तुम कर रहे हो, जो गलत है, असम्यक है।
लेकिन
लोग उसमें लज्जित नहीं होते। लोग लज्जित तब होते हैं जब पकड़े जाते है। पकड़े भी जाते
हैं तो भी छिपाने की कोशिश करते हैं। सब तरह की लाग—लपेट करते हैं, सब तरह का
आयोजन करते हैं, वकील खड़े करते हैं कि नहीं, ऐसा हमने किया नहीं, ऐसा हम करना नहीं चाहते थे। अगर
हो भी गया हो तो अनजाने हुआ होगा, चाहकर नहीं हुआ है,
ऐसा हमारा अभिप्राय न था, ऐसी हमारी मनोवृत्ति
न थी —हजार तर्क खोजते हैं। लज्जित उस बात से होते हैं जिससे नहीं होना चाहिए।
तो
भिक्षुओं को उन्होंने कहा,
लज्जित वहीं हो जाना जहां से कृत्य शुरू होता है। वहीं सजग हो जाना।
अभये व भयदस्सिनो
भये व अभयदस्सिनो।
मिच्छादिद्विसमादाना
सत्ता गच्छंति दुग्गतिं ।।
'भय न करने की बात में जो भय करते हैं और भय करने की बात में भय नहीं करते,
वे लोग मिथ्या—दृष्टि को ग्रहण करने के कारण दुर्गति को प्राप्त
होते हैं।
'भय उस बात का करना जिसके कारण तुम्हारी जीवन चेतना खोती हो। भय उस बात का
करना जिससे तुम्हारी मूल संपदा नष्ट होती हो। भय उस बात का करना जिससे तुम ओछे और
छोटे और संकीर्ण होते हो। और किसी बात का भय मत करना। लोग क्या कहते हैं, इसका भय मत करना। लोग क्या कहते हैं, लोग जानें। वह
लोगों की समस्या है।
इस
बात की चिंता मत करना कि लोगों का मंतव्य क्या है तुम्हारे संबंध में। तुम द्वय सी
बात की चिंता करना कि तुम्हारा मंतव्य क्या है तुम्हारे संबंध में, तुम अपने
संबंध में क्या सोचते हो। अगर तुम अपनी आंखों के सामने उज्ज्वल हो, तो सारी दुनिया तुम्हें कुछ भी कहे, तुम चिंता मत
करना। सत्य घोषणा का उपाय खोज लेगा। अगर तुम अपनी ही आंखों में उज्ज्वल नहीं हो,
तो दुनिया तुम्हें कितना ही पूजती रहे, उससे
कुछ सार नहीं। असत्य आज नहीं कल खुल जाएगा। असत्य वही है, जो
आज नहीं कल खुल जाएगा। और सत्य वही है, जो आज नहीं कल
उदघोषित होगा, प्रतिष्ठित होगा। सत्य की प्रतिष्ठा है। असत्य
की अप्रतिष्ठा है।
यह
भी बुद्ध ने अपने भिक्षुओं से कहा, सुंदरी का नाम भी नहीं लिया। वह
बात ही नहीं उठायी। उस बात को जैसे छेड़ा ही नहीं। वह बात आयी और गयी।
बुद्ध
की यह दृष्टि जीवन की समस्याओं को हल करने की है, खयाल रखना। यह सत्य पर
भरोसा है। यह सत्य के प्रति अपूर्व श्रद्धा है। सत्य जीतेगा ही। अन्यथा कभी हुआ
नहीं। अन्यथा हो नहीं सकता। सत्यमेव जयते।
एस
धम्मो सनंतनो।
आज इतना ही।
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