दिनांक 9 अक्तूबर 1980;
श्री ओशो आश्रम, पूना
पहला प्रश्न:
भगवान,
सत्यं परं परं
सत्य।
सत्येन न
स्वर्गाल्लोकाच च्यवन्ते कदाचन।
सतां हि सत्य।
तस्मात्सत्ये
रमन्ते।
अर्थात सत्य परम
है, सर्वोत्कृष्ट है, और जो परम है
वह सत्य है। जो सत्य का आश्रय लेते हैं वे स्वर्ग से, आत्मोकर्ष
की स्थिति से च्युत नहीं होते। सत्पुरुषों का स्वरूप ही सत्य है। इसलिए वे सदा
सत्य में ही रमण करते हैं।
भगवान, श्वेताश्वतर उपनिषद के इस सूत्र को हमारे लिए विशद रूप से खोलने की
अनुकंपा करें।
चैतन्य
कीर्ति
सत्यं परम परम सत्य।
परम का अर्थ सर्वोत्कृष्ट नहीं होता।
वैसा भाषांतर भूल भरा है। सर्वोत्कृष्ट तो उसी शृंखला का हिस्सा है। सीढ़ी का आखिरी
हिस्सा कहो, मगर सीढ़ी वही है। पहला पायदान भी सीढ़ी का है और सबसे
ऊंचा पायदान भी सीढ़ी का है।
सर्वोत्कृष्ट में गुणात्मक भेद नहीं होता, केवल परिमाणात्मक भेद होता है। परम का अर्थ सर्वोत्कृष्ट नहीं है।
परम का अर्थ है: जो शृंखलाओं और
श्रेणियों का अतिक्रमण कर जाए। जिसे किसी श्रेणी में और किसी कोटि में रखने की
संभावना न हो। जो स्वरूपतः अनिर्वचनीय है। जिसके संबंध में कुछ भी नहीं कहा जा सकता।
जिसके संबंध में कुछ भी कहो तो भूल हो जाएगी।
लाओत्सू का प्रसिद्ध वचन है: सत्य को
बोला कि बोलते ही सत्य असत्य हो जाता है। बोलते ही। क्योंकि सत्य है विराट आकाश
जैसा और शब्द बहुत छोटे हैं, आंगन से भी बहुत छोटे हैं,
शब्दों में सत्य का आकाश कैसे समाए?
और हमारी कोटियां हमारे मन के ही
विभाजन हैं। इसे कहते पदार्थ, इसे कहते चेतना, लेकिन कौन करता है निर्णय? कौन करता है भेद? भेद करने की प्रक्रिया तो मन की है। और सत्य है मनातीत, मन के पार। इसलिए सत्य को मन की किसी कोटि में नहीं रखा जा सकता।
सर्वोत्कृष्ट कहने की भूल में मत पड़ जाना। सबसे ऊंचा भी हो तो भी नीचे से ही जुड़ा
होगा। वृक्ष कितना ही आकाश में ऊपर उठ जाए, तो भी उन्हीं
जड़ों से जुड?ा होगा जो गहरी जमीन में चली गयी हैं।
फ्रेड्रिक नीत्शे का प्रसिद्ध वचन है
कि अगर किसी वृक्ष को आकाश के तारे छूने हों, तो उसे अपनी जड़े पाताल
तक भेजनी होंगी। और वृक्ष एक है। पाताल तक गयी जड़े, स्वर्ग
को छूती हुई शाखाएं अलग-अलग नहीं हैं; एक ही जीवनधारा दोनों
को जोड़े है। तुम्हारे पैर और तुम्हारा सिर अलग-अलग नहीं हैं। यह अलग-अलग होने की
भ्रांति ने बड़े पागलपन पैदा कर दिया।
मनुस्मृति कहती है: ब्राह्मण ब्रह्मा
के मुख से पैदा हुए। क्यों? क्योंकि मुख सर्वोत्कृष्ट। और शूद्र ब्रह्मा के पैरों
से पैदा हुए। क्योंकि पैर अत्यंत निकृष्ट। वैश्य जंघाओं से पैदा हुए। शूद्रों से
जरा ऊपर! मगर फिर भी निम्न का ही अंग। क्योंकि आदमी को दो हिस्सों में बांट दिया।
कमर के ऊपर जो है, श्रेष्ठ और कमर के नीचे जो है, अश्रेष्ठ। कैसा मजा है! एक ही रक्त की धार बहती है, कहीं
कोई विभाजन नहीं है, हड्डियां वही हैं, मांस वही है, रक्त वही है, सब
जुड़ा हुआ है, सब संयुक्त है, लेकिन
इसमें भी विभाजन कर दिया। फिर क्षत्रिय हैं, वे बाहुओं से पैदा
हुए। और थोड़ा ऊपर। और फिर ब्राह्मण है, वह मुख से पैदा हुआ।
लेकिन शूद्र हो या ब्राह्मण, अगर पैर और मुंह से ही जुड़े हैं, तो उनमें कुछ
गुणात्मक भेद नहीं है। गुणात्मक भेद हो नहीं सकता। क्योंकि वे एक शरीर के अंग हैं।
मेरी परिभाषा में तो सभी व्यक्ति
शूद्र की तरह पैदा होते हैं। और जो व्यक्ति मन की सारी शृंखलाओं के पार चला जाता
है, जो उस अज्ञात और अज्ञेय में प्रवेश कर जाता है जिसे कहने के लिए न कोई
शब्द है, न कोई सिद्धांत, जिसे कहने का
कोई उपाय नहीं, जिसे जानने वाला गूंगा हो जाता है, गूंगे का गुड़ है जो, वही ब्राह्मण है। ब्राह्मण वह
है: जिसने ब्रह्म को जाना। जिसने जीवन के परम सत्य को जाना, वह
ब्राह्मण है। पैदा सभी शूद्र होते हैं। फिर कोई ध्यान की प्रक्रिया से समाधि तक
पहुंच कर, मन के पार होकर ब्राह्मण हो जाता है। ब्राह्मण
होना उपलब्धि है। जन्म से कोई ब्राह्मण नहीं होता है।
यह सूत्र प्यारा है:
सत्यं परम...
सत्य परम है। मगर फिर याद दिला दूं, तुमने परम का अर्थ किया है: सर्वोत्कृष्ट। नहीं, वह
तो अहंकार की ही भाषा है। सर्वोत्कृष्ट! सबसे ऊपर। तो जो सबसे ऊपर है, वह किसी को नीचे दबाएगा, वह किसी की छाती पर चढ़ेगा।
मैं कल ही श्री मोरारजी देसाई का एक
वक्तव्य देख रहा था। किसी ने उनसे पूछा एक पत्रकार सम्मेलन में कि यदि लोग आपसे
कहें पुनः प्रधानमंत्री हो जाने के लिए, तो आप राजी होंगे?
उन्होंने कहा, निश्चय ही! प्रधानमंत्री तो
क्या, अगर लोग मुझसे गधे पर बैठने को कहें तो भी राजी हो जाऊंगा।
मैं थोड़ा सोच-विचार में पड़ गया। लोग कौन हैं? पहले गधे से भी
तो पूछो! गधा भी इनको बिठालने को राजी होगा!
और तब मुझे याद आया--
सेठ चंदूलाल का बेटा उनसे पूछ रहा था, पापा, दूल्हा को लोग घोड़े पर क्यों बिठालते हैं,
गधे पर क्यों नहीं बिठालते? तो चंदूलाल ने कहा,
बेटा, घोड़े पर इसलिए बिठालते हैं ताकि पता
चलता रहे कौन दूल्हा है और कौन घोड़ा है। गधे पर बिठाल दें तो कैसे पता चलेगा कौन
दूल्हा है, कौन गधा है? वरमाला किसके
गले में पहनाएगी? वधू बड़ी मुश्किल में पड़ जाएगी, किंकर्तव्यविमूढ़ हो जाएगी, एक गधे पर दूसरा गधा चढ़ा
बैठा है! इसलिए घोड़े पर बिठालते हैं।
ये मोरारजी देसाई गधे पर बैठने को
राजी है। मगर कोई गधा उनको बिठालने को राजी है? और लोग कौन हैं,
जो इनको कहें कि तुम गधे पर बैठ जाओ। गधे का हक सिर्फ गधे को है।
मगर कोई गधा इतना गधा नहीं है कि इनको बैठालने को राजी हो जाए। मगर आतुरता है किसी
के ऊपर बैठने की! चलो, गधा ही सही, मगर
ऊपर बैठ जाएं!
ऊपर बैठने की जो आकांक्षा है, वह अहंकार है। सत्य और अहंकार का कोई संबंध नहीं जहां अहंकार गिर जाता है,
वहां सत्य है। जब तक तुम हो, तब तक सत्य नहीं।
जब तुम नहीं हो, तब सत्य है। तुम्हारी शून्यता की सुगंध सत्य
है। तुम्हारी राख पर खिलता है फूल सत्य का। तुम खाद बन जाते हो। तब, केवल तब ही सत्य की अनुभूति शुरू होती है। जब तक तुम हो, तब तक सत्य के संबंध में विचार कर सकते हो, लेकिन
सत्य को न जाने पाओगे। और सत्य के संबंध में कितना ही जानो, वह
सत्य को जानना नहीं है। कोई लाख जान ले प्रेम के संबंध में अगर प्रेम का नाद उसके
प्राणों में न छिड़ा हो, तो सारे शास्त्र पढ़ डाले प्रेम के
संबंध में, फिर भी प्रेम से वंचित ही रह जाएगा। कोई प्रकाश
के संबंध में सब पढ़ा ले, सब गुन ले, मगर
अगर आंखें न हों उसके पास, या आंखें भी हों और बंद हों,
तो प्रकाश को न जान सकेगा। इस भेद को ख्याल में रखना, प्रकाश को जानना और प्रकाश के संबंध में जानना दो अलग बातें हैं। प्रकाश
के संबंध में जानना दर्शनशास्त्र है और प्रकाश को जानना: धर्म।
सत्य के संबंध में जाना जा सकता है।
बहुत जाना जा सकता है। सारे विश्व के पुस्तकालय भरे पड़े हैं, पटे पड़े हैं। मगर वह सत्य को जानने की व्यवस्था नहीं है। सत्य को जानने की
प्रक्रिया तो ठीक उलटी है। सब कोटियां तोड़ देनी होंगी, सब
शृंखलाएं विसर्जित कर देनी होंगी, सारी धारणाओं को नमस्कार
कर लेना होगा--आखिरी नमस्कार! हिंदू की धारणा, मुसलमान की,
ईसाई की, जैन की बौद्ध की, सिक्ख की, पारसी की, सारी
धारणाओं को विदा कर देना होगा। क्योंकि जब तक तुम्हारी धारणाएं हैं, जब तक तुम्हारे पक्षपात हैं, जब तक तुम मान कर चल
रहे हो, तब तक तुम उसे न जाने सकोगे जो है। तुम्हारी मान्यता
उस पर आरोपित हो जाएगी। तुम्हारी आंखों पर चश्मा लगा है तो उसको रंग तुम्हें
भ्रांति देगा क्योंकि उसका रंग तुम्हारे चारों तरफ हावी हो जाएगा। और क्या है
हिंदू होना और मुसलमान होना और जैन होना? चश्मे हैं। अलग-अलग
रंग के। और जिस रंग से तुम देखोगे, वही रंग सारे अस्तित्व का
दिखाई पड़ने लगेगा।
अस्तित्व को देखना हो तो चश्मे उतार
देना जरूरी है। शास्त्री के बोझ से मुक्त हो जाना जरूरी है। और जब तुम्हारे भीतर
कोई भी ज्ञान नहीं रह जाता तब निर्दोषता का जन्म होता है। तब तुम्हारे भीतर वही
हृदय होता है, जो तुम बच्चे की तरह लेकर आए थे। वही सरलता, वही जिज्ञासा, वही जानने की आतुरता।
पंडित में जानने की आतुरता नहीं होती।
वह तो जाने ही बैठा है!
एक मित्र ने प्रश्न पूछा है...प्रमोद
उनका नाम है...कि आपको समझना इतना कठिन क्यों है? मुझे समझना कठिन नहीं
है, मैं तो बहुत सीधी-सादी भाषा बोल रहा हूं, लेकिन वह जो प्रमोद के साथ "पंडित' जुड़ा है उस
"पंडित' ने उपद्रव कर दिया है। वह "पंडित' नहीं समझने देगा। पांडित्य ने कभी किसी को नहीं समझने दिया। जीसस को सूली
पर चढ़ाया? पंडितों ने। यहूदी धर्म के पंडित थे। किसने मंसूर
के हाथ-पैर काटे, गर्दन काटी? मुसलमान
पंडितों ने। मौलवियों ने, इमामों ने, अयातुल्लाओं
ने। वे उनके पंडित थे। मंसूर से चूक गये, जीसस से चूक गये।
बुद्ध को किसने इनकार किया इस देश में इस? देश से कैसे बुद्ध
की अदभुत सुगंध तिरोहित हो गयी? पंडितों का जाल! उनके
बर्दाश्त के बाहर हो गया।
और कारण है उनके बर्दाश्त के बाहर
होने का। पंडित का एक स्वार्थ है, बहुत गहरा स्वार्थ है। उसका
ज्ञान खतरे में है। अगर वह बुद्धों की सुने, तो उसे पहली तो
बात यह करनी होगी कि ज्ञानी को छोड़ने का साहस, जुटाना होगा।
और ज्ञान को छोड़ना ये है जैसे कि कोई उससे प्राण छोड़ने को कह रहा हो। वही तो उसी
संपदा है। वही उसकी धरोहर है। उसी के बल पर तो उसके अहंकार में सजावट है, शृंगार है। वही तो उसका आभूषण है। वही तो है उसके पास, और तो कुछ भी नहीं है। वह शास्त्रों का बोझ ही तो उसे भ्रम दे रहा
है--जानने का।
लेकिन जानना बड़ी और बात है, जानने का भ्रम और।
अज्ञान से आदमी नहीं भटकता इतना, जीना जानने के भ्रम से भटक जाता है। क्योंकि अज्ञानी कम से कम इतना तो
अनुभव करता है कि मुझे पता नहीं। इतनी तो उसमें प्रामाणिकता होती है कि मुझे पता
नहीं। लेकिन पंडित में यह प्रामाणिकता भी नहीं होती। पता तो नहीं है, मगर उसे ख्याल होता है मुझे पता है। उसने बिना जाने मान लिया है कि जान
लिया। अब कैसे जानेगा? उसके जानने की दीवार बीच में खड़ी हो
गयी। ज्ञान से नहीं जाना जाता सत्य, सत्य ध्यान से जाना जाता
है। और ध्यान का अर्थ होता है: मन का अतिक्रमण। मनातीत हो जान।
नानक ने उसे अ-मनी दशा कहा है। मन से
मुक्त हो जाना। नीचा और ऊंचा, ऐसा और वैसा, ये सब मन के ही खेल हैं। जहां मन बिलकुल चुप हो गया, जहां एकदम सन्नाटा छा गया, वहां सत्य का अवतरण होता
है। सत्यं परम परम सत्य। और अब तुम जानते हो पहली बार विराट को। तब तुम जानते हो
पहली बार उसको, जो है। वह निश्चित ही परम है।
परम का अर्थ: उसे जानने वाला सब जान
लिया जो जानने योग्य है। परम का अर्थ: उसे जिसने पी लिया, अमृत पी लिया। परम अर्थ: उसने परमात्मा को जान लिया, उसने आत्मा की आत्यंतिक सुगंध पहचान ली। उस सुगंध के जीवन में आ जाते ही
क्रांति हो जाती है। उस क्रांति को ही स्वर्ग कहते हैं।
स्वर्ग कोई भौगोलिक अवस्था नहीं है।
सत्येन न स्वर्गाल्लोकाच च्यवन्ते
कदाचेन।
जिसने सत्य को जाना, जिसने सत्य को जीया, वह स्वर्ग में प्रविष्ट हो गया।
और ऐसे स्वर्ग में, जहां से कोई पतन नहीं होता। जहां से कभी
कोई गिरता नहीं।
तुम जिस स्वर्ग की बातें करते हो, वहां से तो लोग गिरते हैं। वहां तो वही भय है; वह तो
वही राजनीति है। तुम्हारे पुराण कथाओं से भरे पड़े हुई हैं। वे सब कथाएं। झूठ इसलिए
हैं कि जिस स्वर्ग की बात की गयी हैं, वह भौगोलिक है। और जिस
स्वर्ग की बात की गयी है, वह वह स्वर्ग नहीं है जिसकी यह
उपनिषद चर्चा कर रहा है। नहीं तो इंद्र को क्या भय हो सकता है? कोई ऋषि, कोई मुनि ध्यान करे, समाधि
के निकट पहुंचने लगे, तो इंद्र का आसन क्यों डावांडोल हो
जाता है? इंद्र को क्या भय होने लगता है? क्या घबड़ाहट होने लगती है? घबड़ाहट होती है, पुराण कहते हैं, कि कहीं मेरा सिंहासन न छिन जाए।
सत्य कहीं छिना है! और जो छिन जाए, वह सत्य नहीं है। जो छिन
सकता है, वह छिन ही गया। उसका कोई मूल्य नहीं है, वह दो कौड़ी का है। तुमने तिनके का सहारा पकड़ा है। तुम सोच रहे हो कि तुम
बच जाओगे। तुम भी डूबोगे और तुम्हारे साथ तिनका भी डूबेगा। तिनके को पकड़ कर कोई
बचा है? मगर कहावत है: डूबते को तिनके का सहारा। आशा लगा
रखता है। तिनके ही से आशा लगा लेता है। तिनके को ही पकड़ लेता है। आंख बंद कर लेता
है कि दिखाई न पड़े कि तिनका है।
ये तुम्हारे इंद्र तुम्हारी कल्पनाएं
हैं। ये तुम्हारे देवी-देवता तुम्हारी कल्पनाएं हैं। यह तुम्हारा स्वर्ग तुम्हारी
अधूरी आकांक्षाओं का प्रक्षेपण है। जो तुम वहां नहीं पूरा कर पाए हो--चाहा तो था
कर लेना पूरा, मगर नहीं पूरा कर पाए। क्योंकि जिंदगी में सभी
इच्छाएं कैसे पूरी हों? इच्छाएं अनंत हैं और जीवन छोटा-सा।
यह सत्तर साल की छोटी-सी जिंदगी और इच्छाओं का तो कोई अंत ही नहीं। और एक-एक इच्छा
भी दुष्पूर है। और अनंत इच्छाएं! बहुत कुछ अधूरा रह जाता है। सभी कुछ अधूरा रह
जाता है। हर आदमी अधूरा ही मर जाता है।--तो अब इस अधूरी इच्छाओं के लिए कुछ तो आशा
चाहिए, कि आगे कहीं पूरी हो जाएंगी। स्वर्ग तुम्हारी इन्हीं
अधूरी इच्छाओं की आधारशिला पर खड़ा है।
यहां तुमने सुंदर स्त्रियां चाही थीं, वहीं मिलीं। यहां तुमने सुंदर पुरुष चाहे थे, नहीं
मिले। यहां सौंदर्य मृगमरीचिका है। दूर से देखो, तो स्त्री
सुंदर मालूम होती है, पुरुष सुंदर मालूम होता है, पास आओ और फूल कांटों में बदल जाते हैं, यह समझ में
भी नहीं आता! प्यारे-प्यारे ओंठ और कैसे-कैसे कठोर शब्द बोलने लगते हैं!
प्यारी-प्यारी आंखें और कैसे दग्ध अंगारे बन जाती है! सुंदर-सुंदर देहें, किस तरह जंजीरें बन जाती हैं! यह तुम सबका अनुभव है। और तब आदमी आशा के
फूलों की मालाएं पिरोने लगता है। स्वर्ग में अप्सराएं होंगी--उर्वशी होगी, मेनका होगी--स्वर्ण उनकी काया होगी, कंठ उनके
कोकिल-कंठ होंगे, उनके जीवन में सुवास-ही सुवास होगी...पसीना
भी नहीं बहता स्वर्ग में अप्सराओं को! अप्सराएं बूढ़ी भी नहीं होती।
मुल्ला नसरुद्दीन एक स्त्री के प्रेम
में था और कहता था कि सदा तुझे प्रेम करूंगा। स्त्रियों को ऐसी बातों पर भरोसा
नहीं आता। सुन लेती है, इनकार भी नहीं करतीं--क्योंकि इनकार करने का मन नहीं
होता--मगर भरोसा नहीं आता। बहुत बार सुन चुकी तो एक दिन उसने पूछा कि तुमसे सच
पूछती हूं, ईमान से कहो, खाओ परमात्मा
की कसम, छाती पर हाथ रख कर कहो, सदा
मुझे प्रेम करोगे? जब मैं बूढ़ी हो जाऊंगी, जीर्ण-जर्जर हो जाऊंगी, तब भी तुम मुझे प्रेम करोगे?
जब मैं बीमार हो जाऊंगी, रुग्ण हो जाऊंगी,
हड्डी-मांस सूखने लगेगा, तब भी तुम मुझे प्रेम
करोगे? मुल्ला नसरुद्दीन थोड़ा झिझका। उसने नहीं सोचा था कि
बात यहां तक पहुंचेगी। उसने कहा, हां-हां जरूर प्रेम करूंगा!
और फिर कुछ सोच कर कहा, लेकिन एक बात बताओ, तुम अपनी मां जैसी तो नहीं मालूम होने लगेगी?
मां जैसी तो मालूम होने ही लगेगी।
इतनी शर्त उसने बचा ली, कि इतना भर ख्याल रखना कि मां जैसी मालूम मत होने
लगना!
लोग प्रेम में जो बातें कह देते हैं, फिर पीछे पछताते हैं। इस जगत में धन इकट्ठा हो जाता है, निर्धनता नहीं मिटती। महल बन जाते हैं, मगर मौन सब
छीन लेता है। तो स्वर्ग की कल्पना की है। वह स्वर्ग और उपनिषद के ऋषियों का,
द्रष्टाओं का स्वर्ग बड़े भिन्न हैं। तुम्हारे पुराण कपोल-कल्पनाएं
हैं। कचरा हैं। लेकिन उपनिषद मणि-माणिक्य हैं।
यह सूत्र कोहिनूर जैसा है। यह सूत्र
कह रहा है: सत्य में जीना स्वर्ग है। यह बात और हो गयी। इसका भूगोल से नाता न रहा।
यह बात आध्यात्मिक हो गयी। इसका बाहर से कोई संबंध न रहा, बात भीतर की ही हो गयी। सत्य में जीना स्वर्ग है। समाधि मैं जीना स्वर्ग
है। मन के पार होना स्वर्ग है। और तुम्हारा स्वर्ग तो मन की ही आकांक्षाएं है,
मन की ही एषणाएं है। वह तो हारे-थके मन की ही आखिरी आशा है कि चलो,
यह नहीं तो मौत के बाद। चलो, यहां नहीं तो
आगे। कहीं न कहीं मिलेगा। और आदमी आशा के बल जीए चला जाता है। हजार तरह के दुख,
झेले चला जाता है। पहाड़ जैसे बोझ ढोए चला जाता है। आशा बनी रहती है
कि आगे।
तुमने कहावत सुनी है कि आशावादी
व्यक्ति जब रेलगाड़ी के पहाड़ों के बीच में खुदे हुए बोगदों में से देखता है, तो उसे दूर उस पर किनारे पर रोशनी दिखाई पड़ती है। और वह चल पड़ता है,
मीलों लंबे अंधेरे बोगदे में, इस आशा में कि
वह दूर जो रोशनी दिखाई पड़ रही है, अभी नहीं कल, कल नहीं परसों, नहीं तो नरसों...! और इसी आशा में तो
हमने अनेक जन्मों की कथा गढ़ ली है। क्योंकि एक जन्म में तो भरोसा नहीं लगता कि यह
बोगदा पार होगा, यह अंधेरा पार होगा। तो चौरासी करोड़ योनियों
की हमने कल्पना की है। सोचो तुम जरा, चौरासी करोड़ योनियां!
इसका मतलब यह है कि कभी न कभी तो यह अंधेरा पार होगा! कभी न कभी तो यह रात कटेगी,
सहर होगी, सुबह होगी!
मगर अक्सर यह होता है कि अंधेरा तो
कटता नहीं और वह जो प्रकाश बोगदे के उस किनारे पर दिखाई पड़ता है, वह किसी ट्रेन के आने का प्रकाश सिद्ध होता है। आ तो जाता है, मगर तुमको कुचलता हुआ निकल जाता है। तुम्हारी हड्डी-पसली तोड़ता हुआ निकल
जाता है।
तुम्हारी सब आशाएं दुराशाएं सिद्ध
होती हैं। तुम्हारी हर आशा हताशा में परिणित हो जाती है। मगर आदमी फिर नयी-नयी
आशाएं संजो लेता है, फिर सोचने लगता है, फिर सपने
देखने लगता है।
पुराणों में जिन स्वर्गों की चर्चाएं
हैं, वे चाहे हिंदुओं के हों, चाहे
मुसलमानों के, चाहे ईसाइयों के, यह
सिर्फ मनुष्य की एषणाओं की ही विस्तार है। लेकिन उपनिषद जिस स्वर्ग की बात कह रहा
है, वह बात ही और। सत्य में जीना स्वर्ग है। और निश्चित ही
जिसने सत्य में जीना जान लिया, वहां से कोई कैसे च्युत हो
सकता है? उस आलोक से, उस आनंद से,
छंद से कोई कैसे नीचे गिर सकता है? वह संगीत
मिला एक बार, तो मिला सदा को।
बुद्ध ने कहा है: दुख का प्रारंभ नहीं
है, अंत है, और आनंद का प्रारंभ है, अंत नहीं। बहुत गहरी बात कहीं! तुम्हारे दुख का कोई प्रारंभ नहीं है,
अनंत काल से तुम दुख भोग रहे हो। प्रारंभ खोजने निकलोगे, मिलेगा नहीं। जैसा खोदते जाओगे, उतना और आगे,
और आगे, पता चलेगा कि जड़ें और भी पीछे चली गयी
हैं, और भी पीछे चली गयी हैं। दुख का कोई प्रारंभ नहीं है,
बुद्ध कहते हैं, लेकिन अंत है। चाहो तो अभी
अंत हो जाए। चाहो तो यही अंत हो जाए। इसी क्षण अंत हो जाए। दुख का अंत है, क्योंकि मन के पार होने का उपाय है।
बुद्ध ने चार सत्य कहे हैं। पहला सत्य
दुख है। अधिकतर लोग तो इसको अंगीकार ही नहीं करते। इसको झुठलाते हैं, छिपाते हैं, दबाते हैं। तुम किसी से पूछो, कैसे हो? वह कहता है: बड़े मजे में हैं। और इसकी
आंखों में देखो, इसके चेहरे पर देखो, कहीं
कुछ मजा दिखाई पड़ता है! जो देखो वही मुसकरा कर कहता है: प्रभु की बड़ी कृपा है! सब
ठीक-ठाक चल रहा है। तुम भी यही कहते हो। कहीं कुछ ठीक-ठाक नहीं चल रहा है! सारी पृथ्वी
उदासी से भरी हुई है, दुख से भरी हुई है, नर्क बनी हुई है--और हर आदमी कह रहा है: सब ठीक-ठाक चल रहा है! प्रभु की
बड़ी कृपा है! आनंद ही आनंद है! झूठ ही लोग बोल रहे हैं। एक दिखावा है। और दिखावे
का भी कारण है। क्या सारे है अपने घाव दूसरों के सामने प्रकट करने से? अपनी मवाद किसी के सामने उघाड़ने से सार क्या है? कौन
बंटा लेगा? तो छुपाए ही रखो! मवाद है, घाव
हैं, फूल ले जाओ बाजार से खरीद कर, उनके
ऊपर फूल सजा दो। लोगों को तो फूल दिखने दो।
तुम भी लोगों को देख कर मुस्कुराते हो, वह भी मुस्कुराते हैं, न तुम्हारे भीतर मुस्कुराहट
है, न उनके भीतर मुस्कुराहट है। तुम्हारे भीतर भी आंसू भरे
हैं और उनके भीतर भी आंसू भरे हैं। मगर एक चेहरा बना कर रखना पड़ता है। इसको लोग
कहते हैं: शिष्टाचार, सभ्यता , संस्कृति।
एक पाखंड बना कर रखना पड़ता है।
बुद्ध कहते हैं: पहले तो स्वीकार करो
कि दुख है। क्योंकि अगर तुम दुख को स्वीकार ही न करोगे, तो फिर आगे तो यात्रा चलेगी ही नहीं।
फिर दूसरी बात बुद्ध कहते हैं: समझने
की कोशिश करो कि दुख के कारण हैं। अकारण तो कोई नहीं होता। मत टालो भाग्य पर!
भाग्य तो बहाना है। कारण से बचने का बहाना है। मत कहो विधाता ने लिख दिया है! मत
कहो कि किसी और की जिम्मेवारी है। कारण हो तो तुम हो। कारण हैं तो तुम्हारे भीतर
हैं, तुम्हारी मूर्च्छा में हैं। अब क्रोध करोगे तो दुख न
होगा तो क्या होगा? और लोभ करोगे तो दुख न होगा तो और क्या
होगा? दूसरों को दुख दोगे, सताओगे,
तो क्या तुम सोचते हो तुम्हारे जीवन में सुख की वीणा बजेगी? तुम जो दूसरों को दोगे, वही तुम पर लौट आएगा। यह जगत
तो प्रतिफल करता है। यह जगत तो यूं हैं कि तुम जो इसे देते हो, उसी को हजार गुना करके लौटा देता है। सब तुम पर ही आ जाता है वापिस। जो
गङ्ढे तुम औरों के लिए खोदते हो, एक दिन सिद्ध होता है कि
तुम्हारे लिए ही, तुम्हारी ही कब्र बन जाती हैं।
तो कारण हैं। लेकिन हम कारणों को भी
बचाते हैं। पहले तो हम दुख है, यह मानने को राजी नहीं होते। आने
से भी छिपाते हैं, औरों से भी छिपाते हैं। यूं भ्रांति बनाए
रखते हैं, ऐसा भरम बनाए रखते हैं कि सब ठीक है। भीतर आग लगती
रहती है, ज्वालामुखी उबलता है और बाहर एक मुखौटा ओढ़े रखते
हैं। फिर दूसरे अगर यह स्वीकार भी कर लें कि दुख है, तो हम
सदा कारण दूसरों पर थोपते हैं। पति अगर दुखी है तो पत्नी के कारण। पत्नी अगर दुखी
है तो पति के कारण। बाप अगर दुखी है तो बेटे के कारण। बेटा अगर दुखी है तो बाप के
कारण।
मुल्ला नसरुद्दीन का बेटा फजलू
परीक्षा में असफल हो गया सो घर से भाग गया। अखबारों में विज्ञापन निकलवाएं:
तुम्हारी मां दुखी हैं, तुम्हारे पिता दुखी हैं, बेटा
घर लौट आओ! तुम्हारे बिना मर जाएंगे। मगर फजलू न लौटा सौ न लौटा। आखिर फजलू की मां
की मां ने एक रामबाण विज्ञापन छपाया। कि बेटा अब एकदम आ जाओ! तुम इसी डर से भाग
गये हो कि परीक्षा में उत्तीर्ण नहीं हुए। अब घबड़ाओ मत; तुम्हें
डर था कि तुम्हारे पापा मारेंगे-पीटेंगे, तुम्हारे पापा भी
अपने डिपार्टमेंट की परीक्षा में असफल हो गये हैं--अब तुम घर आ जाओ! और फजलू उसी
दिन घर आ गया।
एक-दूसरे से घबड़ाहट है! एक-दूसरे पर
टाले हुए हैं! एक-दूसरे पर हटा रहे हैं!
और जो व्यक्ति कारण दूसरों पर छोड़
देता है, उसने फिर बचाव का उपाय खोज लिया। वह कहने लगा कि मैं
करूं तो करूं क्या! समाज बुरा, समाज की व्यवस्था बुरी,
यह परिवार का ढांचा बुरा, यह अर्थनीति बुरी,
यह राजनीति बुरी। मैं अकेला आदमी इस भवसागर में फंसा हूं! कैसे हो
छुटकारा? कूल दिखाई पड़ता नहीं, किनारे
का कुछ पता नहीं। और हरेक जान लेने को तत्पर है।
यूं तुम बच जाते हो, मगर यह कुछ बचना न हुआ। यह अपने हाथ से फांसी लगा लेना हुआ। कारण तुम्हारे
भीतर हैं।
इसलिए बुद्ध ने दूसरा आर्य-सत्य
कहा--पहला: दुख है, और दूसरा कि दुख के कारण हैं, कारण
तुम्हारे भीतर हैं। और तीसरा कारणों को काटने के उपाय हैं। हताश मत हो जाना!
विधियां हैं, जिनसे कारण उखाड़े जा सकते हैं। एक बार पता चल
जाए कि जड़ कहां है, तो गङ्ढे खोदे जा सकते हैं, घास-पात उखाड़ी जा सकती है, काटी जा सकती है। उसी
विधि का नाम धर्म है, ध्यान है, योग है,
तंत्र हैं। अलग-अलग नाम हैं, मगर प्रक्रिया एक
ही है। प्रक्रिया है: किसी भी तरह अपने को मन का साक्षी बना लेना। जैसी ही साक्षी
तुम्हारे भीतर हुआ, अतिक्रमण हो जात है। तुम परम अवस्था को
उपलब्ध हो गये। और बुद्ध ने कहा: चौथा आर्य सत्य है कि कारण व्यर्थ नहीं हैं और
उपाय भी व्यर्थ नहीं जाते, वह अवस्था भी है जहां दुख बिलकुल
समाप्त हो जाता है, शून्य हो जाता है। वह परम आनंद की अवस्था
भी है। उसका मैं गवाह हूं। बुद्ध ने कहा: उसका में गवाह हूं। मैंने जाना है,
इसलिए तुमसे कहता हूं।
सत्य में जो जीएगा, उस जीवन से फिर गिरना असंभव है। सत्य में जो जीएगा, वह
कैसे असत्य में गिर सकता है?
सतां हि सत्य।
और फिर सत्य क्या है? सत्पुरुषों का स्वरूप ही सत्य है। सतां हि सत्य। उनकी जो सत्ता है,
वही सत्य है। सत्य कोई सिद्धांत नहीं, कोई
निष्कर्ष नहीं, प्रबुद्ध-पुरुषों के भीतर जो आभा है, जो उनका अस्तित्व है, जो उनका स्वरूप है, उनके भीतर जो कलकल नाद हो रहा है, उनके चारों तरफ जो
किरणें विर्कीण हो रही हैं, जो गंध उड़ चली है, वही सत्य है। तो सत्य कुछ ऐसा नहीं है जैसे गणित के सत्य होते हैं कि दो
और चार। सत्य कुछ ऐसा नहीं है जैसे विज्ञान के सत्य होते हैं, जिनको प्रयोगशालाओं में प्रयोग करके पाया जाता है। सत्य तुम्हारे जीवन की
आत्यंतिक अनुभूति है। तुम क्या हो, इसकी अनुभूति सत्य है।
तुम्हारा स्वरूप क्या है, तुम्हारा वास्तविक होना क्या है,
इस सत्य को न वेदों से पाया जा सकता है, न
कुरानों से, न बाइबिलों से। इसे पाना हो तो अपने भीतर ही उस आखिरी गहराई में डुबकी मारनी
जरूरी है। जिन खोजा तिन पाइयां। जिन्होंने खोजा, जरूर पाया
है।
जिन खोजा तिन पाइयां गहरे पानी पैठ।
कबीर ठीक कहते हैं। मगर बड़ी गहराई में बैठना होता है, ताकि तुम अपनी आधारभूमि को खोज लो, अपने स्वरूप को
खोज लो। और तुम्हारे स्वरूप पर बहुत-सा कचरा लाद दिया है दूसरों ने, उस सबको काटना पड़ेगा, हटाना पड़ेगा। न-मालूम कितने
पत्थर तुम्हारे ऊपर रख दिये हैं! तुम्हारा स्वरूप तो न-मालूम कहां खो गया है,
पत्थर पर पत्थर रख दिये हैं। कि तुम हिंदू हो! बच्चा पैदा हुआ नहीं
कि जल्दी से इसका यज्ञोपवीत करो! बच्चा पैदा हुआ नहीं कि इसका खतना करो, इसको मुसलमान बनाओ! बच्चा पैदा हुआ नहीं कि इसको बपतिस्मा करो, इसको ईसाई बनाओ। रखने लगे लोग पत्थर! चढ़ाने लगे चट्टानें तुम्हारे ऊपर!
तुमसे कहने लगे, तुम ईसाई हो।
जब भी कोई बच्चा पैदा होता है, न तो ईसाई होता है, न हिंदू होता है, न जैन होता है। बच्चा तो सिर्फ एक शुद्ध चेतना, एक
कोरी किताब की तरह पैदा हाता है। मगर लोग बैठे हैं स्याही में अपनी-अपनी कलमें
डुबोए हुए कि इधर बच्चा पैदा हो कि वे उसकी कोरी किताब पर लिखावट शुरू करें! कोई
लिख देगा गीता को, कोई लिख देगा कुरान को, कोई लिख देगा बाइबिल को। कर दी खराब उसकी कोरी किताब! उसे मौका ही न दिया
कि वह अपने पहचान लेता। इसके पहले कि वह अपने को पहचानता, तुमने
उसके ऊपर धारणाएं थोप दीं। कि तुम भारतीय हो, कि तुम चीनी हो,
कि तुम जर्मन हो। तुम लादने लगे, कि तुम
ब्राह्मण हो, कि तुम क्षत्रिय हो, कि
तुम वैश्य हो, कि शूद्र हो। और फिर वर्गों में वर्ग बंटे हुए
हैं। शूद्र भी सभी अपने को समान नहीं मानते। शूद्रों में भी नीचे शूद्र हैं और
ऊंचे शूद्र हैं।
मैं एक चमारों की सभा में बोलने गया।
रैदास की वह जयंती मनाते थे, तो उन्होंने मुझसे कहा कि आप आएं,
रैदास पर कुछ कहें। तो मैं गया। वहां देखा कि बस थोड़े-से चमार इकट्ठे
हैं। मैंने कहा कि इस गांव में इतने शूद्र हैं--भंगी हैं, कुम्हार
हैं--वे सब कहां हैं? चमारों ने कहा, क्या
आप कहते हैं! हम भंगियों के साथ बैठें! मैंने कहा, फिर मैंने
गलती की जो मैं तुम्हारे साथ बैठा। मुझे यह पता नहीं था कि तुम्हारे भीतर भी वर्ग
हैं, श्रेणियां हैं। चमार अपने को ऊंचा मानते हैं भंगी से।
भंगी के साथ कैसे बैठ सकता है। उन्होंने ब्राह्मणों को निमंत्रण दिया था, मगर ब्राह्मण कैसे आएं? मैंने उनसे पूछा कि तुमने
मुझे किसलिए बुलाया? उन्होंने कहा, हमने
आपको इसलिए बुलाया कि आपको सुनने वाले इतने लोग हैं, वे सब
कम से कम आएंगे, मगर वे कोई नहीं आए। मैंने कहा, वे तुम्हारे साथ कैसे बैठें? जब तुम भंगियों के साथ
बैठने को राजी नहीं हो, तो हद हो गयी, यह
मुझे पता नहीं था अब तक कि शूद्रों में भी श्रेणियां हैं! उसमें भी ऊंचे शूद्र हैं,
नीचे शूद्र हैं।
आदमी सिर्फ आदमी है। क्यों उस पर
भूगोल लादते हो? क्यों इतिहास लादते हो? क्यों
उस पर जमाने भर की गंदगियां लादते हो? मगर ये लाद दी गयी
हैं। और जिस व्यक्ति को खोजना हो, अपने स्वरूप को, उसे इस सारी गंदगी को काटना होगा। इस कूड़े-करकट को अलग करना होगा--इसको आग
लगा देनी होगी! इतना साहस न हो, तो कोई सत्य को उपलब्ध नहीं
हो सकता है।
सतां हि सत्य। तुम्हारा स्वरूप सत्य
है। और स्वरूप के ऊपर बहुत पर्तें जम गयी हैं, बहुत धूल जम गयी है।
दर्पण पर इतनी धूल जम गयी है कि दर्पण का पता ही नहीं चलता। यह सारी दर्पण साफ
करनी है।
कष्टपूर्ण है।
क्योंकि किसी से भी कहो कि तुम्हारा
हिंदू होना बाधा है स्वरूप को जानने में, या मुसलमान होना,
या जैन होना, वह झगड़ा करने को तैयार है। वह
मरने-मारने को तैयार है। क्योंकि वह यह नहीं सोचता कि ये थोपी गयी चीजें हैं,
यह उसका स्वरूप नहीं है, ये विकृतियां हैं,
यह धार्मिकता नहीं है। धार्मिक व्यक्ति सिर्फ धार्मिक होता है।
उसमें कोई विशेषण नहीं होते। धार्मिक व्यक्ति की कोई राष्ट्रीयता नहीं होती।
धार्मिक व्यक्ति न गोरा मानता अपने को, न काला मानता।
क्योंकि वह अपने को शरीर ही नहीं मानता। वह अपने को चेतना मानता है। धार्मिक व्यक्ति
न अपने को पुरुष समझता, न स्त्री। क्योंकि चेतना कहीं स्त्री
और पुरुष होती है! आत्मा भी वहीं स्त्री और पुरुष होती है! मगर क्या-क्या पागलपन
हैं! जैनों की धारणा है कि स्त्री की देह से मोक्ष नहीं। मोक्ष क्या देह का होता
है? देह तो यहीं पड़ी रह जाती है--पुरुष की हो कि स्त्री की
हो। मोक्ष अगर होगा तो आत्मा का होगा। और मोक्ष अगर होगा तो साक्षीभाव में होगा।
तो पुरुष की आत्मा देखेगी कि मेरे चारों तरफ पुरुष का शरीर है और स्त्री की आत्मा
देखेगी कि मेरे चारों तरफ स्त्री का शरीर है। मगर आत्मा थोड़े ही स्त्री है! आत्मा
तो साक्षी है। दोनों की। एक सी साक्षी है। हां, गोरे आदमी की
आत्मा देखेगी कि मेरे चारों तरफ गोरी चमड़ी है काले आदमी की देखेगी कि मेरे चारों
तरफ काली चमड़ी है, लेकिन आत्मा चमड़ी नहीं है। लेकिन हम बस
न-मालूम किन-किन बातों में आत्मा को गंवा बैठे हैं! धन गंवा दिया है, कंकड़-पत्थर इकट्ठे कर लिये हैं। स्वरूप को खो बैठे हैं, शास्त्रों से लद गये हैं। सत्य का तो कोई बोध नहीं है, लेकिन सिद्धांतों में बड़े हम प्रवीण हो गये हैं।
सतां हि सत्य।
और सत्य है तुम्हारा स्वरूप।
तस्मात्सत्ये रमन्ते।
इसलिए रमो सत्य में। इसलिए जीओ सत्य
में। और सत्य में जो जीता है, वही संत है, इसलिए मैं तुमसे यह कहना चहता हूं कि अगर संत कहे कि मैं हिंदू हूं,
तो समझ लेना कि संत नहीं है। अगर संत कहे कि मैं जैन हूं, तो समझ लेना कि संत नहीं है। संत तो वही है जो सत्य में जीता है। और सत्य
न हिंदू है, न मुसलमान है; न जैन है,
न ईसाई है। सत्य न तो मंदिरों में है, न
गिरजों में, न गुरुद्वारों में। सत्य तुम्हारे भीतर है। सत्य
आत्मान्वेषण है।
यह सूत्र प्यारा है! यह सूत्र जीने
योग्य है!
दूसरा प्रश्न:
भगवान, मैं तो विवाह में फंस कर नर्क भोग रहा हूं। आप विवाह से कैसे बच गये?
यह भी बताएं कि क्या मेरे लिए अब भी बचने का कोई उपाय है? मैं अपना नाम नहीं लिख रहा हूं, क्योंकि मेरी पत्नी
भी यही मौजूद है। पर आप उत्तर जरूर देना। थोड़ा लिखा, ज्यादा
समझना।
थोड़ा लिखा, वह तो ज्यादा समझूंगा, जो नहीं लिखा, वह भी समझ लिया।
पहली
बात तो तुम पूछे हो: आप विवाह से कैसे बच सके? अरे, जाको राखै साइयां मार सकै न कोय? और तुम पूछ रहे हो:
में विवाह में फंस कर नर्क भोग रहा हूं। नहीं, तुमको नर्क
भोगना होगा, इसलिए विवाह में फंसे होओगे। उल्टी बातें न करो!
तुम दोष दे रहे हो विवाह को। जैसे कि विवाह ने तुम्हें कर लिया। अरे, तुमने विवाह किया है! तुम्हीं घोड़े पर चढ़े होओगे, मोर-मुकुट
बांध कर! देखते हो, मोरारजी देसाई गधे तक पर चढ़ने को तैयार
हैं! तुम घोड़े पर चढ़े होओगे, दूल्हा राजा बने होओगे! क्या
मजा है, एक दिन के लिए राजा बना देते हैं आदमी को, फिर जिंदगी भर का गुलाम--जोरू का गुलाम! और क्या गहरी तुम्हारी गुलामी है
कि अपना नाम भी नहीं लिख रहे हो! क्योंकि पत्नी यही मौजूद है।
मैं समझा तुम्हारी तकलीफ!
पति का अर्थ ही है: जिसकी इति हो गयी।
कि जिसमें अब कुछ न बचा। और पत्नी का मतलब है: सदा रहे तनीत्तनी। वह बैठी होगी
तुम्हारे बगल में और तनीत्तनी। और तुम यह मत समझना कि तुमने नाम नहीं लिखा है तो
वह नहीं पहचानेगी। अरे, जब तुमने कम लिखा और मैं ज्यादा समझ रहा हूं, तो तुम्हारी पत्नी तुम्हारा नाम न पहचान लेगी? नहीं
लिखा पहचान लेगी? अभी भी हुद्दे मार रही होगी तुमको! कि घर
चलो, घर चल कर दिखाऊंगी तुम्हें!
मैंने सुना है, एक जोड़ा मर कर स्वर्ग के द्वार पर पहुंचा--और भी बहुत लोग मर कर पहुंचे
थे। रोज ही इतने लोग मरते हैं कि भीड़ लगी रहती है वहां, स्वर्ग
के दरवाजे पर दो तख्तियां लगी थीं। एक तख्ती लगी थी कि जोरू के गुलाम यहां से
प्रवेश करें। और जो अपनी जोरू के गुलाम नहीं हैं, उनके लिए
एक दूसरा दरवाजा था; वे यहां से प्रवेश करें! सारी भीड़ वहीं
थी, जोरू के गुलाम जहां तख्ती लगी थी। सिर्फ एक आदमी,
एक दुबला-पतला सा आदमी--शायद तुम्हीं रहे होओ--डरा-डरा उस दरवाजे पर
खड़ा था--अकेला ही--जहां से उनके लिए प्रवेश था जो जोरू के गुलाम नहीं हैं। जो
राजदूत पहरा दे रहा था--रहे होंगे हमारे संत महात्मा जैसे--उसने जाकर उस आदमी को
एक धक्का दिया और कहा, तू यहां क्या कर रहा है? तू समझता है तू जोरू का गुलाम नहीं! चल, लग
"क्यू' में, जहां बड़े-बड़े पहलवान
खड़े हैं! तू यहां क्या कर रहा है? उसने कहा, मैं क्या करूं? मैं यहां से नहीं हट सकता! राजदूत
ने कहा, क्यों नहीं हट सकता, क्या
तकलीफ है तुझे? उसने कहा, मेरी पत्नी
ने कहा कि तू यहीं खड़ा रह! भगवान भी मुझे हटाएं तो मैं हटने वाला नहीं हूं,
जब तक मेरी पत्नी न कहेगी। उसने कहा है, तू इस
दरवाजे से प्रवेश कर। मैं इसी से प्रवेश करूंगा। मैं कभी उसकी आज्ञा के खिलाफ नहीं
जा सकता।
तुम कहते हो, मैं विवाह में फंस कर नर्क भोग रहा हूं। फंसे क्यों? नर्क भोगना होगा, इसलिए। और नर्क भोग रहे हो,
क्योंकि भोगना चाहते हो। जरा गौर से अपने भीतर कारण खोजो। कारण
दूसरे पर मत टालो! और तुम अकेले ही थोड़े भोग रहे होओगे नर्क, तुम्हारी पत्नी भी भोग रही होगी। क्योंकि नारकीय प्राणियों के साथ कोई
स्वर्ग भोग सकता है? जब तुम नर्क में हो, तो तुम्हारी पत्नी क्या स्वर्ग में हो सकती है? इतना
फासला हो तो तुम निकल ही न भागो। वह भी तुम्हारे बगल में ही बैठी है--यहां भी बैठी
है! तो साथ ही साथ भोग रहे होओगे। एक-दूसरे का नर्क बना रहे होओगे, यह हो सकता है। नहीं तो किसी भी क्षण नर्क के बाहर हुआ जा सकता है। कोई
रोकने वाला नहीं है। क्या बेचारी पत्नी की हैसियत हो सकती है।
पत्नी से पति इतने डरे क्यों होते हैं? डरने का कारण उनके ही भीतर होता है। कारण अपने भीतर खोजने की कोशिश करो!
और तुम तत्क्षण पहचान लोगे कि कहां अड़चन है। तुम पत्नी के सामने एक रूप प्रकट कर
रहे हो, अपना जो तुम्हारा असली रूप नहीं है। इससे तुम्हें डर
है। झूठ हमेशा डर लगता है। असत्य के साथ भय आएगा ही।
सेठ चंदूलाल एक रात सपने में जोर से
बोल गये: कमला! प्यारी कमला!! और पत्नी का नाम है: निर्मला। और पत्नियां तो नींद
में भी सोती नहीं। ध्यान तो रखती है कि पति क्या सपना देख रहे है। सपने में पता
नहीं कुछ गड़बड़ कर रहा हो। कमला! यह कमला कौन है! उसने उसी वक्त हिलाया चंदूलाल को
कि कौन है यह कमला? यह कलमुंही कौन है? नींद में थे,
एकदम घबड़ा भी गये! कि अचानक कमला का मामला कहां से आ गया? उन्हें तो पता ही नहीं कि सपने में क्या बर्रा रहे थे! उसने कहा, मैं कुछ समझा नहीं। कि जरा मुझे हाथ-मुंह तो धो लेने दो, बात क्या है? कौन कमला? उसने
कहा, अभी तुमने नींद में दो दफें कहा, कमला,
कमला! तब तक उन्होंने अपना हिसाब बिठा लिया था। उन्होंने कहां,
अरे कुछ भी नहीं है, एक घोड़ी का नाम
है--रेसकोर्स की एक घोड़ी का नाम है कमला, उस पर मैंने दांव
लगाया है। उसकी याद आ गयी होगी।
मगर यूं कोई पत्नी को धोखा तो दे नहीं
सकता। दोपहर को जब सेठ चंदूलाल दूकान पर बैठे थे, पत्नी का फोन आया कि
घर आ जाओ जल्दी, क्योंकि वह घोड़ी तुमसे मिलने आयी है। और ऐसे
घोड़ी मैंने पहले नहीं देखी, बिलकुल स्त्री जैसी मालूम होती
है!
कहां तक बचोगे?
जहां झूठ बोले, जहां किया, वहां भय आया। सत्य हो तो भय नहीं है।
सत्य अभय लाता है। तुम भयभीत हो अपनी पत्नी से इतने ज्यादा कि नाम नहीं लिख सकते!
यह तो हद हो गयीं! अरे कच्छ केसरी, अचल गच्छाधिपति, जोरू के गुलाम सूरीश्वर महाराज, कुछ तो अपने को
समादर दो! कुछ तो अपनी आत्म-प्रतिष्ठा रखो! ऐसे क्या बिलकुल भीगी बिल्ली बने हो!
कारण खोजो कि इतना भय क्या है? क्यों इतने डरे हुए हो?
सेठ चंदूलाल के बेटे ने पूछा, पापा, यह बकरा में-में क्यों करता है? चंदूलाल ने कहा, बेटा, इसे
कसाइयों ने पकड़ लिया है। दो-चार घड़ी का मेहमान है यह। इसको, झटका
देकर मार कर इसका मांस बाजार में बेचा जाएगा। बेटा बोला, बस
इतनी-सी बात के पीछे में-में कर रहा है। अरे, मैं तो समझा कि
लोग इसका विवाह करने ले जा रहे हैं!
चंदूलाल का बेटा देखता है अपने बाप की
दुर्गति दिन-रात, स्वभावतः उसने सोचा कि इसका भी विवाह हो रहा है दिखता
है। जो हमारे बाप पर गुजर रही है, वही इस पर गुजर रही है।
तुम्हारे बच्चे भी जानते हैं।
एक घर में बच्चों में शांति रहे, सुव्यवस्था रहे तो बच्चों की मां ने कहा सबको इकट्ठे करके कि सुनो,...भारतीय परिवार, कोई डेढ़ दर्जन बच्चे! एक ही चीज का
उत्पादन हम जानते हैं: बच्चे!...सबको इकट्ठे कर लिया। सबको वह एक जैसे कपड़े पहनाती
थी। कई दफा उससे पूछा भी लोगों ने कि सबको एक जैसे कपड़े क्यों पहनाती है? पहले उनके तीन-चार ही बच्चे थे, उनको भी एक जैसे
कपड़े पहनाती थी। तब वह कहती थी कि कहीं खो न जाएं, इसलिए,
और अब दस-पंद्रह बच्चे हैं, अब भी एक से कपड़े
पहनाती है तो लोग पूछते हैं: अब क्यों? तो वह कहती है कि
इनमें कोई दूसरा आकर न मिल जाए! नहीं तो पता नहीं चलेगा, महीने-दो
महीने तो पता ही नहीं चलेगा। इतनी भीड़-भड़क्का है! तो घर की तुम हालत समझ सकते हो!
सबको इकट्ठा करके उसने कहा कि अब
मैंने एक नियम बनाया है कि हर सप्ताह पुरस्कार बांटा जाएगा। जो सबसे ज्यादा
आज्ञाकारी होगा, उसको पुरस्कार मिलेगा। सब बच्चों ने कहा कि हमें
इसमें कोई रस नहीं है। उसने कहा, क्यों? बच्चों ने कहा कि हमें मालूम है कि पुरस्कार किसको मिलेगा। पिता जी को
मिलेगा। आज्ञाकारी होना है, यह हमेशा पुरस्कार पिता जी को
जाएगा, इसलिए हमें इसमें कोई रस नहीं है।
क्यों इतने तुम डरे हुए हो? इतना भय का क्या है? आखिरी पत्नी कोई जंगली जानवर तो
नहीं है! कारण तुम्हारे भीतर होंगे।
तुम पत्नी के सामने सरलता से अपनी प्रामाणिकता
की उदघोषणा करो! तुम जैसे हो वैसे ही खोल कर अपने को रख दो! एक दफा झंझट होगी। तुम
आज यहां आकर भी अपना नाम नहीं लिख रहे हो! और पत्नी तो पता लगा लेगी! उसे तो पता
लग ही गया होगा कि कौन सज्जन हैं ये!
"एक जैसी सैकड़ों
भैंसों में से तुमने अपनी भैंस को कैसे पहचान लिया?'--जज ने
एक फरियादी महिला से पूछा।
उसकी भैंस खो गयी थी और उसने सैकड़ों
भैंसों से अपनी भैंस को खोज लिया।
वह महिला बोली, "इसमें कौन-सी बड़ी बात है, मालिक! अरे, आपकी कचहरी में सैकड़ों काले कोट पहने हुए वकील खड़े हैं, भैंसों जैसे ही लगते हैं, लेकिन मैं अपने वकील को
फिर भी पहचान ही रही हूं या नहीं? इसी तरह अपनी भैंस को
मैंने पहचान लिया।'
तुम्हारी पत्नी तुम्हें पहचानती होगी।
अरे, अपनी भैंस को कौन नहीं पहचानता! तुम नाम लिख ही देते
तो कम से कम ईमानदारी शुरू तो होती--यहीं से ईमानदारी शुरू करो! और नहीं तो बात तो
पकड़ी जाएगी! अब तुम चोरी-छिपे घर जाओगे। अब तुम डरते हुए, कंपते
हुए घर जाओगे। यही भय का कारण है। हमेशा प्रामाणिक होने से भय के कारण विनष्ट हो
जाते हैं। और जब तुम भयभीत रहोगे, तो देर-अबेर पकड़े जाओगे।
और तब तक और बिगड़ जाती है।
स्विमिंग पूल में तैर रहे सेठ चंदूलाल
की भेंट एक सुंदरी से करवायी गयी। उससे कुछ देर बात करने के बाद वे घर लौटने लगे, तब उस सुंदरी से कहा कि बाई, एक बात का ख्याल रखना,
इस मुलाकात की कहीं चर्चा मत करना!
करीब एक माह बाद किसी पार्टी से सेठ
चंदूलाल अपनी पत्नी के साथ गये, तो वही सुंदरी फिर मिल गयी। उसने
दो-एक मिनिट चंदूलाल की और गौर से देखा, फिर नमस्कार करके
बोली: "क्षमा कीजिएगा, आज आप कपड़े पहने हैं, इसलिए पहचानने में थोड़ा समय लग गया।'
अब फंसे! अब बुरी तरह फंसे!! ठीक ही
है, देखा होगा स्विमिंग पूल पर नहाते हुए, लंगोटी लगाए
हुए। अब किसी को लंगोटी लगाए देखो और फिर कपड़ों में देखो तो बहुत फर्क पड़ ही जाता
है!...जैसे महावीर स्वामी तुम्हें मिल जाएं पेंट-कोट-टाई पहने हुए, तो मैं नहीं सोचता एक भी जैन मुनि पहचान पाएगा! सिर्फ मैं पहचान सकूंगा,
बाकी कोई नहीं पहचान पाएगा। अब जिनको नंग-धड़ंग देखा, अब उनको कैसे पहचानोगे पेंट-कोट-टाई पहने हुए?...मगर
फंस गये। अब बुरी तरह फंसे अब बचाव भी न रहा
अपने भय के कारण खोजो! पत्नी पर मत
थोपो! पत्नी का क्या कसूर है? तुम डरते हो, इसलिए डराती है। एक दफा अपने सब मुखौटे अलग कर दो--अरे बहुत होगा तो बेलन
चलाएगी तो वैसे ही चलाती है!--एक दफा जो होना है हो जाए, लेकिन
एक दफा अपने सारे ताश के पत्ते सीधे करके रख दो! मगर एक बार निपटारा कर लो! कह दो
कि मैं ऐसा आदमी हूं, यह मेरी स्थिति है, अंगीकार हो तो ठीक, न अंगीकार हो तो ठीक।
और मेरी अपनी समझ यह है--लाखों
स्त्रियों का अध्ययन करने के बाद में यह कह रहा हूं--मेरी अपनी समझ यह है कि
स्त्रियां अगर उनको धोखा न दिया जाए तो पुरुषों से बहुत ज्यादा प्रेमपूर्ण हैं।
मगर जो उन्हें धोखा दे रहा हो, उसके प्रति उनकी कठोरता गहन हो
जाती है। स्त्रियां बदला ले रही हैं सदियों का तुमसे। सदियों से आदमी ने स्त्रियों
को इस तरह सताया है! और कोई उपाय भी नहीं छोड़ा तुमने। सब द्वार-दरवाजे बंद कर दिये
हैं। उनके लिए कोई स्वतंत्रता नहीं छोड़ी। उनके लिए जीवन का कोई आयाम नहीं छोड़ा।
तुम उन्हें कहीं अकेला जाने न दोगे, किसी से मिलने न दोगे,
किसी से मैत्री न बनाने दोगे, उनके जीवन में
किसी रुचि का विकास न होने दोगे, उनको सब तरह से घर में बंद
कर दिया है, अगर उनका क्रोध उबल आता हो--और फिर तुम्हीं
मिलते हो, और तो कोई है भी नहीं, तो
किस पर अपना क्रोध फेंके?
तुम्हीं हो जिम्मेवार उनकी गुलामी के।
उनको स्वतंत्रता दो!
अपनी पत्नी को तुम वस्तु मत समझो।
क्योंकि तुम जिस पत्नी को वस्तु समझोगे वह भी तुम्हें रास्ते पर लगाएगी! वह भी
तुम्हें वस्तु बना कर बताएगी! कोई भी व्यक्ति, चाहे स्त्री हो,
चाहे पुरुष, परतंत्र नहीं होना चाहता है।
लेकिन पुरुषों स्त्रियों को तो परतंत्र बना लिया है और खुद चाहते हैं कि स्वतंत्र
बने रहे। यह असंभव। यह सौदा नहीं हो सकता। इसका दुष्परिणाम हुआ है।
यहां मेरे आश्रम में तो कोई पुरुष
संन्यासी किसी स्त्री से डरा हुआ नहीं हैं। कोई नहीं है। कोई वजह नहीं है। चीजें
साफ-सुथरी हैं। और चीजें साफ-सुथरी होनी चाहिए। प्रामाणिक जीवन की यही तो शुरुआत
है। तो किसी दिन शायद तुम परम सत्य को भी उपलब्ध हो सको। अगर तुम जीवन के इन
छोटे-छोटे मामलों में भी असत्य हो, तो आशा ही छोड़ दो
सत्य की।
मुल्ला नसरुद्दीन से मैंने पूछा, "नसरुद्दीन, क्या तुम्हारी और तुम्हारी पत्नी की राह
कभी एक भी हुई है?'
नसरुद्दीन ने कहा, हां, केवल जीवन में एक बार, जब
हमारे घर में आग लगी थी तब हम दोनों ने एक साथ आगे के दरवाजे से निकलने की सोची
थी।'
पत्नी के साथ थोड़ी मैत्री बनाओ! लेकिन
में नहीं देखता किसी पति की अपनी पत्नी से मैत्री हो। कि वह अपने हृदय की बातें
उससे कहता हो। पति-पत्नी बातें करते ही नहीं। असल में पति बात ही करने में डरता है
कि कही बात में कोई और बात न निकल आए। पत्नी को देखा कि एकदम अखबार पढ़ने लगता
है--वही अखबार जो तीन दफे दिन भर में पढ़ चुका है, फिर पढ़ने लगता है।
जल्दी से रेडियो खोल लेता है। या बातें भी करता है तो इधर-उधर की करता है, जिसमें पत्नी को खोल लेता है। या बातें भी करता है तो इधर-उधर की करता है,
जिसमें पत्नी को कोई रस नहीं। जिसमें उनको भी कुछ रस नहीं, सिर्फ समय काटने के लिए बातें करता है। सिर्फ ऐसी बातें करता है जिनमें
कोई झगड़े का उपाय न हो। और वही-वही बातें फिर रोज करता है। पत्नी भी ऊब जाती है
उसकी बकवास सुन-सुन कर।
मैत्री साधो! प्रेम तो दूर की बात है, कम से कम मैत्री तो साधो! और मैत्री सधे तो शायद कभी प्रेम भी सध जाए।
कभी पत्नी के साथ बैठ कर ताश खेलते हो? कभी पत्नी के साथ बैठ कर शतरंज खेलते हो? कभी चौपड़
बिछाते हो? कभी पत्नी के साथ बैठ कर गपशप करते हो? कोई संबंध नहीं तुम्हारा मैत्री का। पति और पत्नी के बीच मैत्री असंभव
मालूम होती है। तो फिर दुश्मनी ही बच रहती है। फिर क्या? एक
ही नाता बच रहा फिर और वह दुश्मनी का।
और तुम कहते हो: स्त्री धन है। तुम
ऐसी कहावतें बनाए हुए हो--
जर, जोरू, जमीन
झगड़े के घर तीन
तुमने जोरू को भी जमीन और जर के साथ
जोड़ दिया। इस सारे अपमान का बदला किससे लिए जाए? तो यह विस्फोटक
स्थिति है।
सेठ चंदूलाल अपनी पत्नी से बोले, "देख बाई, तू बात-बात में लड़ा नहीं कर। घर में थोड़ी
शांति रहने दे। कृपा कर!' उनकी पत्नी गुलाबो ने बेलन उठाकर
कहा, "तुम्हें यह इलजाम लगाते शर्म नहीं आती? मैं कहां लड़ती हूं? ऐसे गलत इलजाम लगाए, तो याद रखना, ऐसा मारूंगी कि नानी याद आ जाएगी!'
पति और पत्नी की बीच एक तनाव है। और
वह तनाव तुम झुठलाने की कोशिश करते हो, लीपापोती करते रहते
हो, मगर उस तनाव को हल करने की कोशिश नहीं करते। तुम सरलता
से स्वीकार करो कि पत्नी की भी अपनी स्वतंत्र आत्मा है। उसका अपना व्यक्तित्व है,
अपनी निजता है। और तब वह भी तुम्हें मौका देगी स्वतंत्र होने का और
निज होने का। और स्वतंत्रता के लिए सब कुछ न्योछावर किया जा सकता है। विवाह कुछ
इतनी मूल्यवान चीज नहीं है कि उसके लिए तुम्हें अपना जीवन न्योछावर करना पड़े। और
एक बार पत्नी को यह समझ में आ जाए कि तुम स्वतंत्रता को इतना प्रेम करते हो कि अगर
विवाह भी खत्म हो तो तुम फिकिर न करोगे, लौट कर न सोचोगे,
तो पत्नी पुनर्विचार करेगी पूरी स्थिति पर। लेकिन तुम डरे रहे तो
डराए जाओगे।
टिल्लू गुरु बैठकखाने में दोस्तों से
बातें कर रहे थे। उनकी बात सुन रहे उनके बेटे ने भाग कर मां को सूचना दी:
"मां, मां, डैडी कह रहे हैं पति और
गधे में अंतर नहीं होता। क्या वे गधे हैं?'
मां बोली, "बड़ों की बात में अविश्वास नहीं करना चाहिए। वे जो कहते हैं, सही ही कहते हैं।'
पति-पत्नी के बीच एक मैत्री का नाता
चाहिए। अन्यथा क्या बच रहता है फिर? पत्नी नौकर हो गयी
तुम्हारी। खाना बनाए, बच्चों को पाले, दिन
भर घर साथ करे, तुम्हारे कपड़े धोए और फिर उसका शरीर है
तुम्हारे लिए, उसका तुम रात उपयोग करो। और बदले में तुम क्या
दे रहे हो? तुमने कभी पत्नी बर्तन मल रही हो, उसके साथ हाथ बंटाया बर्तन मलने में? वह घर साफ कर
रही हो तो तुमने कभी कहा कि तू बैठ, आराम कर ले, मैं फुर्सत में बैठा हूं, मैं घर साफ किये देता हूं?
तुम थोड़ा मैत्री बनाना शुरू करो, तो यह भय
अपने से विसर्जित हो जाए।
और तुम पत्नी को सम्मान दो, तो ही सम्मान पा सकते हो। सम्मान के उत्तर में ही सम्मान मिलता है। तुम
अपमान कर रहे हो, तो अपमान ही पाओगे। पुरुषों की यह दृष्टि
है कि स्त्रियां क्या हैं? पैर की जूतियां हैं। कैसे सम्मान
पाओगे? और साधारण लोगों की नहीं, तुम्हारे
बाबा तुलसीदास जैसे लोगों की भी यहीं बुद्धि है। "ढोल गंवार शूद्र पसु नारी।'
सबको ढोल गंवार में बिन दिया, पशुओं में गिन
दिया, शूद्रों में गिन दिया स्त्रियों को। और कभी बाबा
तुलसीदास ने यह भी न सोचा कि उनकी स्त्री के कारण ही उनके जीवन में राम का पदार्पण
हुआ। उसी स्त्री को धन्यवाद देना था। उसको धन्यवाद तो कभी नहीं दिया, गाली दी। जैसे बदला दिया।
खुद तो कामी और अंधे थे। और इतने अंधे
कि पत्नी गयी थी मायके तो भरी बरसात की रात में चोरी से पहुंच गये। नदी पार कर ली
एक मुर्दे को पकड़ कर, यह सोच कर कि लकड़ी का कोई बड़ा भारी झाड़ जा रहा है।
ऐसे अंधे रहे होंगे! वासना सदा अंधी होती है। फिर घर के पीछे से गये--बाहर से तो
जाने का उपाय न था। क्या कहते पत्नी के मां-बाप। कि अभी दो दिन तो उसे आए नहीं हुए
और तुम चले आए! और आधी रात! यह कोई वक्त है आने का? कोई खबर
भी न की! तो घर के पीछे से--बरसात के दिन थे, सांप लटक रहा
था छज्जे से, उसको पकड़ कर चढ़ गये। वासना तो बिलकुल अंधी है,
वे समझे कि रस्सी लटक रही है। होश ही कहां था?
पत्नी ने जब यह सब देखा, ऊपर जब पहुंचे, तो उसने कहा कि यह तुम क्या करते हो?
अगर इतना प्रेम तुम्हारे मन में परमात्मा के प्रति होता, तो तुम परमात्मा को पा लेते। और यह अंधापन, यह मोह
से आविष्ट दशा सुंदर तो नहीं है!
इसी चोट को खा कर तुलसीदास के जीवन में परिवर्तन
आया। धन्यवाद देना था! रामचरितमानस को इसी स्त्री को समर्पित करना था। मगर समर्पण
की तो बात दूर, स्त्रियों की गिनती शूद्रों में, ढोल में, गंवारों में। और ढोल की क्यों जोड़ दिया
इसमें? इसलिए जोड़ दिया कि ढोल को मारो तो ही बजता है।'
ये सब ताड़न के अधिकारी।' इनका एक ही अधिकार है
कि इनको सताओ। तो ही जैसे ढोल बजता है मारने से, ऐसे ही
स्त्री के जीवन में तुम्हारे प्रति आदमी होगा--मगर सताओगे, तो--सम्मान
होगा।
यह तो बिलकुल ही मूढ़तापूर्ण बात है।
स्त्री को सम्मान दो, आदमी दो। तुमने बहुत अपमान किया है। तुमने ही नहीं, तुम्हारे
तथाकथित महात्माओं ने बहुत अपमान किया है। स्त्री को नर्क का द्वार कहा है। स्त्री
की जितना गर्हित आलोचना हो सकती है। स्वभावतः यह सब स्त्री के भीतर इकट्ठा हो गया
है। यह उस जगह आ गया है जहां विस्फोट होता है।
और अगर हमें एक बेहतर मनुष्य जाति को
जन्म देना हो, तो इस कूड़े-कचरे को साफ कर देना चाहिए स्त्री को सम्मान
दो, वह तुम्हारी कोई गुलाम नहीं है। अगर तुमने उसे गुलाम
बनाया, तो वह तुम्हें गुलाम बनाकर रहेगी। और तुमने अगर उसे
भी स्वतंत्रता दी, तो तुम्हें भी स्वतंत्रता मिल सकती है।
लेकिन अच्छा हुआ कि यहां आ गये। शायद
कुछ हो जाए। मेरी बातों को धैर्य-पूर्वक समझने की कोशिश करना। और पहला काम तो यह
करना, जा कर पत्नी को कह देना कि मैंने ही प्रश्न पूछा था।
इसी से शुरुआत होगी। साफ उससे कह देना कि मैंने ही प्रश्न पूछा था। और यह मेरी ही
भ्रांतियां और मेरे ही भय आधारभूत हैं। अपने हृदय को खोल कर रख देना--निष्कपट। जब
भी आ गये, भला। देर से आए तो भी भला। सुबह का भूला सांझ भी
घर आ जाए तो भी भूला नहीं कहाता।
देर लगी आने में तुमको...
देर लगी आने में तुमको
शुक्र है फिर भी आए तो
देर लगी आने में तुमको
शुक्र है फिर भी आए तो...
आस ने दिल का साथ न छोड़ा...
आस ने दिल का साथ न छोड़ा
वैसे हम घबराए तो
आस ने दिल का साथ न छोड़ा
वैसे हम घबराए तो
देर लगी आने में तुमको...
शफक धनक मेहताब घटायें
तारे नभ में बिजली फूल
इस दामन में क्या-क्या कुछ है
दामन हाथ में आए तो
शफक धनक मेहताब घटायें
तारे नभ में बिजली फूल
इस दामन में क्या-क्या कुछ है
दामन हाथ में आए तो
देर लगी आने में उनको...
झूठ है सब तारीख हमेशा
अपने को दोहरानी है...
झूठ है सब तारीख हमेशा
अपने को दोहरानी है
अच्छा मेरा ख्वाबे-जवानी
थोड़ा-सा दोहराये तो...
अच्छा मेरा ख्वाबे जवानी
थोड़ा-सा दोहराये तो
देर लगी आने में तुमको...
चाहत के बदले में हम तो
बेच दें अपनी मर्जी भी...
चाहत के बदले में हम तो
बेच दें अपनी मर्जी भी
कोई मिले तो दिल का गाहक
कोई हमें अपनाये तो
कोई मिले तो दिल का गाहक
कोई हमें अपनाये तो
चाहते के बदले में हम तो
बेच दें अपनी मर्जी भी
कोई मिले तो दिल का गाहक
कोई हमें अपनाये तो
देर लगी आने में तुमको
शुक्र है फिर भी आए तो
आस ने दिल का साथ न छोड़ा
वैसे हम घबराये तो
देर लगी आने में तुमको...
कोई चिंता नहीं। विवाह हो गया, उलझ गये जाल में, लेकिन कितनी ही देर हो गयी हो,
अभी भी क्रांति घट सकती है। और अच्छा ही हुआ कि इस अनुभव से गुजर
गये। बिना इस अनुभव से गुजरे भी मुश्किल थी। न विवाह करते तो सोचते जिन्होंने
विवाह किया है, अहह, कैसे मजे में हैं!
जैसा अभी सोच रहे हो कि जिन्होंने विवाह नहीं किया, अहह,
कैसे मजे में हैं! जो मिल जाता है, उससे आदमी
अतृप्त हो जाता है और जो नहीं मिलता, उसमें आशा लगी रहती है।
अच्छा ही हुआ कि एक झंझट से मिट गये, एक उपद्रव मन से शांत
हो गया। यह तो अकल आ गयी। इतनी अकल विवाह ला दिया, यही कोई
कम बात है! इतना होश आ आया कि फंस गये, नर्क में पड़ गये,
मगर अपने हाथ से पड़े हो, तो बाहर निकल सकते हो,
यह अनुभव कीमती हो सकता है। और जिस स्त्री को तुमने अपनी पत्नी
बनाया है, खुद भी निकलो, उसे भी
निकालो! इतना तो कर्तव्य है ही! जैसे तुम नर्क में गिरे हो और उसे भी गिराया है,
ऐसे ही तुम भी निकलो और उसे भी निकालो। और मैं कहता हूं कि तुम अगर
निकलो, तो वह भी निकल जाएगी।
मैंने सदा अनुभव किया है कि स्त्रियों
के पास ज्यादा सूझ-बूझ है, स्पष्ट। क्योंकि स्त्रियां बुद्धि नहीं सोचती,
हृदय से सोचती हैं। तर्क से नहीं सोचती, लेकिन
उनका प्रेम पर्याप्त है उनको अंतर्दृष्टि देने में। अगर वह देखेगी तुम्हारा उज्जवल
रूप, तुम्हारा, ध्यानस्थ, रूप, तुम्हारा उठता हुआ प्रकाश, तुम्हारा खिलता हुआ फूल, तो तुमसे पीछे नहीं रह
जाएगी। तुमसे आगे भी जा सकती है।
अकेले मुक्त होने की चेष्टा तो बहुत
लोगों ने की है--भाग गये जंगल--मगर मैं उनको भगोड़े मानता हूं, कायर मानता हूं। कोई भागने की जरूरत नहीं है। जहां हो वहीं मुक्त भी होओ
और वहीं दूसरों को भी मुक्ति देने का उपाय करो। और तुम्हारा मुक्त होने से उनके
लिए भी मार्ग खुलेगा। मगर तुम डरे, तुम अगर भयभीत रहे,
तो तुम खुद भी बंधन में रहोगे और तुम दूसरे को भी बंधन में रखोगे।
आखिरी प्रश्न:
भगवान, मैं प्रेम में पराजित होकर आपके पास आया हूं।
...सुनते हो, कच्छ-केसरी, अचल गच्छाधिपति! तुम विवाह में फंस कर
यहां आ गये हो और पूछ रहे हो नर्क से कैसे छूटूं और यह प्रश्न सुनो--
मैं प्रेम में
पराजित होकर आपके पास आया हूं। आत्मघात करने का विचार उठता है। अब जीना नहीं चाहता
हूं। मैं क्या करूं क्या न करूं?
अविनाश!
दो ही उपाय हैं। या तो समझने की चेष्टा करो। उसके लिए बहुत प्रगाढ? बुद्धि चाहिए। ध्यान से निखारो अपनी बुद्धि की तलवार को। ताकि तुम देख सको
कि जिनको प्रेम में सफलता मिल गयी है, उनको क्या मिला है?
कच्छ-केसरी से मिलो! और यह एक से एक कच्छ-केसरी मौजूद हैं। कुछ ऐसा
नहीं कि तुम्हें खास उन्हीं से मिलना जरूरी है। अरे, किसी भी
विवाहित पुरुष से मिलो! उसकी कथा सुनो, उसकी व्यथा सुनो। और
तब तुम कहोगे, मैं धन्यभागी हूं, कि
परमात्मा की कृपा है कि मैं बच गया। तब तुम यह न कहोगे कि मैं प्रेम में पराजित
होकर आपके पास आया हूं। और तुम जिस स्त्री के साथ जीना चाहते थे, जरा पता तो लगाओ कि वह जिसके साथ जी रही है, उस पर
क्या गुजर रही है? वह पागल हो गया, कि
भाग कर त्रिदंडी साधु हो गया, कि जैन मुनि हो गया--कुछ पता
तो लगाओ, उस पर क्या गुजर रही है! अपने ही आंसुओं में मत
डुबे रहो! जरा आंखें खोलो!
तुम कहते हो कि पराजित हो कर आपके पास
आया हूं। आत्मघात करने का विचार उठता है। यह विचार है प्रेम में पराजित व्यक्तियों
को भी उठते हैं और प्रेम में जो जीत गये, उनके भी उठते हैं।
आत्मघात का ही विचार।
मुल्ला नसरुद्दीन फांसी लगा रहा था।
भूल से दरवाजा खुला छोड़ दिया। कमरे के भीतर जाकर कोई और चीज तो उसको मिली नहीं, टाई थी उसकी, सो उसने गले में टाई बांधी और
सेंडेलियर से बांध कर लटकने ही जा रहा था कि पत्नी पहुंच गयी। और पत्नी ने कहा,
यह क्या कर रहे हो? अरे, यह तुम्हारी सबसे कीमती टाई है! मरना ही हो तो कोई और मैं रस्सी ला दूं,
यह टाई तो खराब न करो, किसी और के काम आएगी!
यह सुनते ही कि किसी और के काम आएगी, वह फौरन नीचे उत्तर
आया। उसने कहा, हमें नहीं मरना। कौन है वह जिसके काम आएगी?
।
इन विचारों में क्या रखा है!
फिर एक दफा आत्महत्या कर रहा था। तो
उसने दरवाजा बंद कर लिया, क्योंकि पहली दफा पत्नी ने आकर गड़बड़ कर दी थी। उसने
टाई का सवाल उठा दिया। कि टाई तो खराब न करो! अरे, मरना है
तो मर जाओ!...स्त्रियों का तो गणित ही अलग उसको पड़ी है टाई की कि अभी तो खरीदी है,
नई की नई टाई! अरे, आदमी का क्या है, आदमी तो हजार मिल जाते हैं, मगर टाई! यह नाहक खराब
कर रहा है!
सो दरवाजा बंद कर लिया था। बहुत उसने
दरवाजा पीटा और मुल्ला कहे कि नहीं खोलेंगे। हमने तो मरने का पक्का विचार कर लिया
है।...विचार करना पड़ता है मरने का! अरे, जिसको मरना है वह मर
जाता है! तुम यहां, आते, अविनाश,
पूछने! इतनी दूर की यात्रा करते हो! जिस ट्रेन में आए, उसी के नीचे लेट गये होते! न-मालूम कहां से चले आ रहे हो, कितनी देर से यात्रा करके, कितने मौके बीच में आए
होंगे--पहाड़ियां पड़ी होंगी, कुएं मिले होंगे, ट्रेन मिली होंगी, बसे मिली होंगी, और एक से एक पहुंचे हुए सरदार ट्रक चलाए जा रहे हैं--कितने अवसर चूक कर
तुम इधर आए! विचार से कुछ नहीं होता, भइया, कुछ करके दिखाना पड़ता है! विचार तो बहुत लोग करते हैं।
मनोवैज्ञानिक कहते हैं, ऐसा आदमी खोजना कठिन है जिसने कम से कम जिंदगी में चार बार मरने का विचार न
किया हो। मगर विचार विचार है। अच्छा विचार है, नेक विचार है,
मगर विचार का कोई परिणाम तो होता नहीं। लोग सोचते ही रहते हैं।
सोचते से राहत मिलती है कि अहह, कैसे गजब का विचार किया!
प्रेम में पराजित हो गये हैं, देखो, मजनूं
को पराजित कर दिया, आत्महत्या का विचार कर रहे हैं! कि देखो
फरहाद को पानी पिला दिया; आत्महत्या का विचार कर रहे हैं,
अब और क्या चाहिए! इतनी बड़ी कुर्बानी! किया-धरा कुछ नहीं है अभी,
सोच रहे हैं।
सो मुल्ला नसरुद्दीन, तीन घंटे उसकी पत्नी दरवाजा पीटे, वह कहे हम विचार
करते हैं, हम तो मरेंगे। वह मेरे पास आयी। मैंने कहा,
तू बिलकुल पागल है! कोई तीन घंटे लगते हैं मरने मैं--सोचने में,
विचार करने में? सातवीं मंजिल पर रहते हो कूद
ही पड़ता। छोड़ो फिकिर! मगर वह बोली कि नहीं, एक दफा तो मैंने
बचा लिया था, अब कहीं कुछ कर ही न बैठे! फिर से करने लगा है।
तो मैं गया।
तो मैंने दरवाजा खटखटाया, मैंने कहा कि दरवाजा खोलो! तुम्हें चार घंटे हो गये, अभी तक तुम कोई उपाय नहीं खोज पाए, तो मैं तुम्हें
रास्ता बताए देता हूं कि कैसे मरना! यह उसने नहीं सोचा था कि कोई रास्ता बताने
आएगा मरने का। जो भी आए थे, मुहल्ले-पड़ोस के लोग, उन्होंने कहा, भाई, ऐसा मत
करो! अरे, बाल-बच्चों का ख्याल करो, पत्नी
का ख्याल करो!...और पत्नी बाल-बच्चों के कारण ही तो वह मरने जा रहे हैं, इनका क्या खाक ख्याल करे! वे उसको और जोश चढ़ा रहे थे। और जले पर नमक छिड़क
रहे थे।...मैंने कहा कि तुम्हें मरना है, बहुत अच्छी बात है।
मरने में कोई बुराई नहीं है। जरूर मर जाओ। मगर कोई ढंग से! तीन-चार घंटे लगा रहे
हो, इतने में पुलिस आ जाएगी, कुछ भी,
पकड़ गये, झंझट में पड़ोगे--आत्महत्या जुर्म है!
कोई शीघ्र व्यवस्था करनी चाहिए। मैं तुम्हें रास्ता बताता हूं। दरवाजा खोलो!
अब मुझे वह कैसे कहे कि दरवाजा नहीं
खोलते, कि हमें तो मरना है! दूसरों से कह सकता था। मैं तो
रास्ता ही बता रहा था। उसने दरवाजा खोला। देखा मैंने कि क्या कर रहा था वह। दोनों
कंधे में उसने रस्सी बांध ली थी। टाई तो पत्नी ने उसी दिन से सब उठा कर अलग रख दी
थीं। मैंने कहां, कंधों में रस्सी बांध कर तुम सेंडेलियर से
लटका कर फर्श पर खड़े हो, कैसे मरोगे? मैंने
कहा, गले में बांध, पागल! उसने कहा,
मैंने पहले गले में बांधी थी मगर उससे बड़ा जी घुटता है।
जी तो घुटेगा ही। जब आत्महत्या करोगे, तो जी नहीं घुटेगा!
तुम पूछते हो, अविनाश, कि मैं प्रेम में पराजित होकर आपके पास आया
हूं। आत्मघात का विचार उठता है। मैं अब जीना नहीं चाहता हूं। और फिर भी पूछ रहे
हो: "मैं क्या करूं, क्या न करूं?' अरे, अब जब जीना ही नहीं है, तो
अब क्या पूछना! अभी जिनको जीना है, उनको दो। अब जैसे ये
कच्छ-केसरी हैं। अभी इनको जीना है, इनको पूछने दो। तुम्हें
तो जीना ही नहीं है, अब पूछ कर क्या करोगे? और पूछना ही हो तो मरने के बाद कोई मिल जाए, उससे
पूछ लेना।
नहीं, मरना वगैरह तुम्हें
नहीं है। तुम सिर्फ अपने अहंकार को पोषित कर रहे हो कि देखो, मैं प्रेम पर मरने के लिए तैयार हूं और अगर तुम यहां मरने के लिए ही आए हो,
तो मैं जरूर तुम्हें मरने की ऐसी कला बताता हूं कि फिर जन्म लेना ही
न पड़े। क्योंकि नहीं तो मरे, फिर जन्म लेना पड़ेगा। फिर कोई
उपद्रव होगा। जन्म हुआ तो उपद्रव की शुरुआत है। कुछ न कुछ होगा। प्रेम में असफल
होओगे, कि सफल होओगे, हर हाल में मरने
की बात उठेगी। धन मिलेगा तो तो फांसी लगेगी, नहीं मिलेगा तो
फांसी लगेगी। जनम हो गया कि फिर उपद्रव है। इसीलिए तो इस देश ने सदियों-सदियों से
यह निचोड़ निकाला कि आवागमन से छुटकारा चाहिए। अगर ख्याल, रखना,
पहले आना, उससे छुटकारा हो जब जाने से छुटकारा
होता है। जाने के लिए तो कोई भी उत्सुक है, मगर फिर आ जाओगे।
कुछ ऐसा उपाय होना चाहिए, जिससे कि फिर आना ही न पड़े। उसको
ही मैं संन्यास कहता हूं, ध्यान कहता हूं। वह असली मरना है।
अहंकार का मरना असली मृत्यु है।
आत्मा तो मर सकती नहीं। तुम लाख उपाय
करो, आत्मा को तो कोई कभी मार सका नहीं। कृष्ण ठीक कहते
हैं; न हन्यते हन्यमाने शरीर। शरीर को मिटा डालो, तो भी वह नहीं मिटती है। जला डाला, वह नहीं जलती है।
छेद डालो अस्त्र-शस्त्रों से, वह नहीं छिदती है। आत्मा तो
अमर है। इसलिए उसको तो मारने का कोई उपाय नहीं है। लेकिन अहंकार मारा जा सकता है।
वही जन्म लेता है, वही मरता है। वही आवागमन है। वही तुम्हें
भरमाए रखता है, भटकाए रखता है।
अभी भी तुम कहे हो कि मैं प्रेम में
पराजित होकर लौटा, मगर तुम गलत कह रहे हो। तुम अहंकार में पराजित हुए
हो। प्रेम तुम क्या खाक जानोगे! प्रेम जानोगे कैसे? और प्रेम
जाना है, वह कभी पराजित हुआ ही नहीं। क्योंकि प्रेम को कोई
उपाय ही नहीं है हराने का। तुमने किसी को प्रेम किया, यह
तुम्हारा हक था। उसने स्वीकार किया या नहीं किया, यह उसका हक
है। तुम्हारे प्रेम करने को वहां रुकावट है? तुम चांद को
प्रेम करते हो, इसका मतलब यह थोड़े ही है कि चांद को जेब में
रखना पड़ेगा तभी प्रेम जाहिर होगा। तुम फूलों को प्रेम करते हो, इसका यह मतलब थोड़े ही है उनको तोड़ कर और गुलदस्ता बनाना पड़ेगा तभी प्रेम
जाहिर होगा।
जार्ज बर्नार्ड शा के पास एक मित्र
फूलों का एक गुलदस्ता बना कर ले आया। जार्ज बर्नार्ड शा ने कहा, क्षमा करें, मैं यह स्वीकार नहीं मरूंगा। उसने कहा,
मैं तो सोचा कि आप सौंदर्य के परखी हैं, इतने
बड़े कलाविद, आपको फूलों में रस होगा, ये
बड़े फूल हैं गुलाब के, बड़े सुंदर फूल हैं, इसलिए तो इनका मैं गुलदस्ता बना लाया हूं कि आपकी टेबल पर सजा दूं। बनार्ड
शा ने कहा कि मुझे छोटे बच्चे भी प्यारे लगते हैं, इसका क्या
मतलब उनकी गर्दनें काटकर गुलदस्ता बना लूं? अगर तुम फूलों को
प्रेम करते हो तो तुम काट कैसे सके, पहले यह मुझे जवाब दो!
तुम प्रेम वगैरह नहीं करते हो। प्रेम किया होता तो फूल जिंदा था वृक्ष पर, उसे तोड़ने का कोई सवाल न था। फिर फूल को जिसने प्रेम किया, क्या जरूरत है कि वह फूल तुम्हारी बगिया में ही खिले तभी तुम प्रेम करोगे!
वह किसी की भी बगिया में खिले। वह खिले, प्रेम की यही
आकांक्षा होगी।
मगर प्रेम कब्जा चाहता है, मालकियत चाहता है। मालकियत प्रेम नहीं है, अहंकार
है। हां, तुम चाहो तो अहंकार के जहर पर प्रेम की थोड़ी-सी
पतली शक्कर की पर्त जमा दो, वह बात और है। मगर भीतर जहर भरा
हुआ है। पराजित होने की भाषा प्रेम की भाषा ही नहीं है। प्रेम ने कभी पराजित होना
जाना ही नहीं है। प्रेम तो सदा जीता हुआ है। और जो प्रेम में जीया है, वह जीत ही जीत में जीया है। उसकी कोई हार नहीं है। हारता है अहंकार।
क्योंकि अहंकार जीतना चाहता है। प्रेम तो जीतना ही नहीं चाहता, हारेगा कैसे? जहां जीत की आकांक्षा नहीं है, वहां हार कैसे हो सकती है?
प्रेम तो जिसे प्रेम देता है, उसे स्वतंत्रता देता है। अगर तुमने किसी स्त्री को चाहा और उस स्त्री ने
किसी और को चाहा और वह उसके साथ आनंदित है, तो तुम प्रसन्न
होओगे कि वह आनंदित है। तुम उस पर अपने को थोपोगे नहीं। लेकिन हम बड़े अजीब लोग
हैं। हम हमेशा थोपने के लिए आतुर हैं। और ऐसा नहीं है कि प्रेमी प्रेमिकाओं पर थोप
रहे हैं, प्रेमिकाएं प्रेमियों पर थोप रही हैं, हर कोई हर दूसरे पर थोप रहा है। मां-बाप भी बच्चों पर थोपते हैं। अगर
तुम्हारा बेटा किसी लड़की के प्रेम में पड़ जाए, बस, खतरा हो गया। लड़की तुम्हें चुननी चाहिए। तुम जिस लड़की को चुनो, उसे तुम्हारा बेटा प्रेम करे। लड़का चुने या तुम्हारी लड़की चुने, बस, चोट लगी! चोट किसको लग रही है? तुम लड़के और लड़की की खुशी में उत्सुक हो या अहंकार की यात्रा में? यहां सब अपने अहंकार को सजाने में लगे हुए हैं। नाम कुछ भी दो, असलियत कुछ और है। तुम अभी प्रेम जानते ही नहीं। तुमने अगर प्रेम जाना
होता तो आत्मघात का प्रश्न ही नहीं उठता था। जिसने प्रेम जाना, उसके जीवन में तो जीवन की अमरता, जीवन का अमृत
स्वरूप प्रकट होने लगेगा।
मगर एक लिहाज से तुम ठीक जगह आ गये, क्योंकि मैं तुम्हें यहां असली आत्मघात सिखा सकता हूं। अहंकार मर जाए,
यह असली आत्मघात है। क्योंकि फिर इस जगत में आना नहीं होता लेकिन
तुम्हें तो कठिनाई होगी। तुम तो इस कवि से राजी होओगे।
मेरे हमनफस,...
मेरे हमनफस, मेरे हमनवा,...
मेरे हमनफस, मेरे हमनवा
मुझे दोस्त बनके दगा न दे...
मेरे हमनफस, मरे हमनवा
मुझे दोस्त बनके दगा न दे
मैं हूं सोजे-इश्क से जांबलब
मुझे जिंदगी की दुआ न दे
मेरे हमनफस, मेरे हमनवा...
मैं हूं सोजे-इश्क से जांबलब
मुझे जिंदगी की दुआ न दे
मेरे हमनफस, मेरे हमनवा...
मेरे दागे-दिल से है रौशनी...
मेरे दागे-दिल से है रौशनी
इसी रोशनी से है जिंदगी
मुझे डर है ये मेरे चारागर...
मुझे डर है ये मेरे चारागर
ये चराग तू ही बुझा न दे
मेरे हमनफस, मेरे हमनवा...
मैं गमे-जहां से निढाल हूं...
मैं गमे-जहां से निढाल हूं
कि शरापादर्द-मलाल हूं
जो लिखे हैं मेरे नसीब में...
जो लिखे हैं मेरे नसीब में
वो अलम किसी को खुदा न दे
मेरे हमनफस, मेरे हमनवा...
कभी जाम लब से लगा दिया...
कभी जाम लब से लगा दिया
कभी मुस्कुराके हटा दिया...
कभी जाम लब से लगा दिया
कभी मुस्कुराके हटा दिया
तेरी छेड़छाड़ ये साकिया...
तेरी छेड़छाड़ ये साकिया
मेरी तिश्नगी को बुझा न दे...
तेरी छेड़छाड़ ये साकिया
मेरी तिश्नगी को बुझा न दे
मेरे हमनफस, मेरे हमनवा...
मुझे छोड़ दे मेरे हाल पर...
मुझे छोड़ दे मेरे हाल पर
तेरा क्या भरोसा है चारागर
ये तेरी नबाजिशे-मुख्तसर...
ये तेरी नबाजिशे-मुख्तसर
मेरा दर्द और बढ़ा न दे
मेरे हमनफस, मेरे हमनवा...
मेरा अज्म इतना बुलंद है
कि पराये शोलों का डर नहीं
मुझे खौफ...
मुझे खौफ अतिशे-गुल से है..
मुझे खौफ अतिशे-गुल से है
ये कहीं चमन को जला न दे
मेरे हमनफस, मेरे हमनवा...
वो उठे हैं लेके गुमो शुबू...
वो उठे हैं लेके गुमो शुबू
अरे ओ "शकील'...
अरे ओ "शकील' कहां है तू
तेरा जाम लेने की बज्म में...
तेरा जाम लेने की बज्म में
कोई और हाथ बढ़ा न दे
मेरे हमनफस, मेरे हमनवा
मुझे दोस्त बनके दगा न दे...
मुझे दोस्त बनके दगा न दे
मैं हूं सोजे-इश्क से जांबलब...
मैं हूं सोजे-इश्क से जांबलब
मुझे जिंदगी की दुआ न दे
मेरे हमनफस,...
मेरे हमनफस, मेरे हमनवा
मैं तो तुम्हें अमृत जीवन का ही आशीष
दे सकता हूं। तुम तो आत्मघात का विचार कर रहे हो, मैं तुम्हें अमृत की
कीमिया ही दे सकता हूं मैं तुम्हें ऐसी जीवन का द्वार दिखा सकता हूं, जो शाश्वत है। और ऐसे प्रेम का द्वार दिखा सकता हूं, जो पराजय नहीं जानता। लेकिन तुम्हें अपनी व्यर्थ की धारणाओं से, जो तुमने मूर्च्छा में पकड़ रखी हैं, मुक्त हो जाना
होगा।
पहली तो बात अभी समझो कि तुमने प्रेम
किया नहीं। प्रेम करना साधारण बात नहीं है। प्रेम वही कर सकता है जो पहले अहंकार
को गिरा दे। जहां अहंकार है वहां कैसा प्रेम! अहंकार के साथ प्रेम असंभव है। दोनों
का सह-अस्तित्व न कभी हुआ है, न हो सकता है। प्रेम करना है?
पहले अहंकार को गिराओ। और अहंकार को गिराने की तलवार ध्यान है। काट
डालो अहंकार का सिर ध्यान से। और फिर तुम्हारे जीवन में प्रेम के झरने फूटेंगे। और
वे झरने पराजित नहीं होते हैं। और वे झरने तुम्हारे भीतर ऐसे तलाश न भरेंगे,
निराश न भरेंगे। वे झरने तुम्हारे भीतर ऐसा उल्लास भर देंगे,
जिसकी कोई सीमा नहीं है। वे तुम्हारे जीवन को उत्सव में रूपांतरित
कर देंगे।
अगर आत्मघात तक की तैयारी है, तो कम से कम संन्यास की तो हिम्मत करो। अरे, जब मरने
को ही तैयार हो, तो इतना तो करो कि संन्यास में उतर जाओ! जो
मरने को तैयार है, अब उसे क्या डर? मरता
क्या न करता! इतना तो कर लो! संन्यासी हो जाओ, अविनाश! और
मैं तुम्हीं सच में ही अविनाश होने का मार्ग दे सकता हूं।
मगर इन टुच्ची बातों में न पड़ो कि
प्रेम में पराजित हो गये, आत्मघात का विचार उठ रहा है, मारना
चाहते हो, जीने की इच्छा न रही! अभी जाना क्या है तुमने?
अभी जीवन को पहचाना कहां? अभी प्रेम से परिचय
नहीं। इस सब के लिए कुछ जीवन की कला सीखनी होती है। जीवन को कुछ निखार देना होता
है। जीवन हमें मिलता है ऐसे जैसे अनगढ़ पत्थर। फिर उस पर छेनी उठा कर बहुत-से
व्यर्थ हिस्से पत्थर के काट डालने पड़ते हैं। तब उसमें कभी बुद्धत्व की मूर्ति
प्रकट होती है।
हम सब अनगढ़ पत्थर की तरह पैदा होता
हैं, मगर अगर चाहें तो बुद्ध होकर विदा होते हैं। जो बुद्ध
होकर विदा होता है, वह अनंत में विलीन हो जाता है। यह उपनिषद
का सूत्र उसी बुद्धत्व के लिए सही है:
सत्यं परम परम सत्य।
सत्य है परम है सत्य।
सत्येन न स्वर्गाल्लोकाच च्यवन्ते
कदाचन।
जो उठ गया उस परम सत्य तक, पा लिया उसने स्वर्ग जहां से गिरना असंभव है। सतां हि सत्य।
वैसे व्यक्ति का अस्तित्व ही सत्य है।
वैसे व्यक्ति की श्वास-श्वास सत्य है। वैसे व्यक्ति का जीवन भागवत है। वह बोले तो
भगवदगीता। वह चुप रहे तो उसके मौन में भी संगीत है।
तस्मात्सत्ये रमन्ते।
वह उठता है तो सत्य, बैठता है तो सत्य, सोता है तो सत्य। वह सत्य में ही
रमण करता है।
आज इतना ही।
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