जो बोले सो हरि कथा-(प्रश्नोत्तर)-ओशो
प्रवचन-नौवां-(ध्यान-प्रेम-समर्पण)
श्री रजनीश आश्रम, पूना, प्रातः, दिनांक २९ जुलाई,
१९८०
पहला प्रश्न: भगवान,
देर लगी आने में हमको,
शुक्र है फिर भी आए तो।
आस ने दिल का साथ न छोड़ा,
वैसे हम घबराए तो।
शफक, धनक, महताब, घपाएं,
तारे, नग्मे, बिजली, फूल।
दामन में तेरे क्या-क्या कुछ है,
दामन ये हाथ में आए तो।
चाहत के बदले में हम तो,
बेच दें अपनी मर्जी तक।
कोई मिले तो दिल का गाहक,
कोई हमें अपनाए तो।
प्रभु, आपकी कृपा से अब मेरा
तमस शांत हो गया है। चेतना से रजस का बोझ भी कम होता जा रहा है। आपके पास रह कर
सत्व में प्रवेश हो सकेगा। किसी दिन आपकी अनुकंपा से गुणातीत हो जाऊं, यह प्रार्थना है। एक छोटी-सी कहानी--
दिल्ली वाले निजामुद्दीन औलिया के एक शिष्य अपनी
आजीविका चलाने के लिए साग-सब्जी उबाल कर बेचा करते थे। गांव वाले उन्हें जमीकंद
आदि दे जाया करते थे। वे लकड़ी तोड़ लाते और उन्हें उबाल कर बेचा करते। इस तरह उनका
जिक्र और फिक्र साथ-साथ चलता था। उम्र बढ़ जाने पर उनकी दीनाई कम होती गई, नेत्र-ज्योति कमजोर होने से उन्हें कम सूझने लगा। इसलिए लोग खा-पीकर खोटे
सिक्के उन्हें दे जाते। वे उन खोटे सिक्कों को लेकर जमा करते जाते, मटकियां भर जातीं। यह जानते हुए कि लोग उन्हें खोटे सिक्के दिए जा रहे हैं,
वे किसी को कुछ भी नहीं कहते थे। तबीयत से खिलाते-पिलाते रहे। यह
सिलसिला चलता रहा। और एक दिन जब उनकी अंतिम घड़ी आ गई, उन्होंने
शुक्राने की नमाज पढ़ी। नमाज अता करके उन्होंने बारगाहे-इलाही में यह दुआ की: या
अल्लाह, मैं ताउम्र लोगों से खोटे सिक्के लेता रहा हूं। अब
यह खोटा सिक्का भी तेरे पास आ रहा है। तू इसे स्वीकार कर, इनकार
न करना। इतना कह कर वे गिर गए और मर गए।
भगवान, उनकी यह प्रार्थना
आपके समक्ष दोहराने का अर्थ तो आप समझ ही गए हैं। मेरे प्राण स्वीकार करें और मुझे
आशीष दें!
दिनेश भारती!
यह कहानी मुझे भी प्रीतिकर रही है, लेकिन खोटे सिक्कों
वाली इस कहानी में थोड़ी-सी खोट भी है! इसलिए इस कहानी को मैंने चाहा भी है,
और अपनी प्रशंसा प्रकट करने में संकोच भी किया है।
जहां तक लोगों के खोटे सिक्के दे जाने का सवाल है, वहां तक तो कोई समझने में अड़चन नहीं। लोगों के पास और दूसरे कोई सिक्के
हैं ही नहीं। जिनको तुम सच्चे सिक्के कहते हो, वे भी खोटे
सिक्के हैं। लोग ही खोटे हैं! उनके हाथ जो पड़ जाता है, खोटा
हो जाता है। सोना छूते हैं, मिट्टी हो जाती है।
सिक्के थोड़े ही असली और खोटे होते हैं; आदमी के हाथ का जादू!
ऐसे लोग होते हैं कि मिट्टी छूते हैं, सोना हो जाती है। ऐसे
लोग होते हैं, सोना छूते हैं, मिट्टी
हो जाता है! अधिक लोग तो ऐसे ही हैं, जिनके जीवन में कोई
जादू नहीं है, उत्सव नहीं है, रंग नहीं
है। वे जो भी छुएंगे, असुंदर हो जाएगा।
तो लोगों का कुछ कसूर न था, पहली तो मैं यह बात
तुम्हें याद दिला दूं, अन्यथा इस कहानी को पढ़ते वक्त ऐसा
लगता है--कैसे बेईमान लोग थे!
यह कहानी सूफी बहुत दोहराते हैं। सबसे पहले मुझे एक सूफी फकीर ने ही
कही थी और जो मैंने उससे कहा था, वही मैं तुमसे भी कह रहा हूं
दिनेश भारती। यही मैंने उससे पूछा था कि तुम मुझे यह कहो: जब लोग ही खोटे हैं तो
असली सिक्के कहां से लाएंगे? मत उन्हें कसूरवार कहो।
बहुत चौंका था वह फकीर। उसने कभी इस पहलू से सोचा ही न था। लोग सोचते
ही कहां हैं; लोग तो चबा-चबाया गटक जाते हैं; चबाते भी नहीं।
मेरे लिए जो सबसे महत्वपूर्ण बात है वह यह है कि लोग करें क्या, उनका कसूर क्या? उनकी जिंदगी अंधेरे से भरी है,
मूर्च्छा से भरी है। मूर्च्छा में वे जो भी करेंगे, गलत होगा। मंदिर बनाएंगे, मंदिर बनेगा नहीं। लोगों
ने मंदिर बनाए और वेश्यालय बन गए। मंदिरों की वेश्याओं को तुम फिर चाहो देवकन्याएं
कहो या जो तुम्हारी मर्जी। नाम बदल देने से कुछ भी न होगा। लोगों ने मंदिर बनाए और
चाहा था कि इनसे प्रेम के फूल खिलेंगे, लेकिन घृणा के कांटे
लगे। फूल तो खिले ही नहीं। मगर बात सीधी-साफ है। जिन्होंने बनाए थे, उनके हाथों में फूलों के बीज ही न थे। उनके प्राण ही खोटे थे। भाव तो
अच्छे थे, मगर अकेले भावों से तो कुछ होता नहीं।
अंग्रेजी में कहावत है कि नर्क का रास्ता अच्छे भावों से पटा हुआ पड़ा
है! वह कहावत बड़ी महत्वपूर्ण है; जरूर किसी बड़ी गहरी सूझ-बूझ के
आदमी ने उसे खोजा होगा। वह साधारण कहावत नहीं है। नर्क का रास्ता अच्छी भावनाओं से
पटा पड़ा है। अच्छी भावनाएं--और पहुंचा देती हैं नर्क! हिंदू लड़े मुसलमानों से,
मुसलमान लड़े ईसाइयों से। पृथ्वी को रक्त से भर दिया--धर्मों के नाम
पर! और भावनाएं अच्छी थीं। कोई यह न कह सकेगा कि भावनाएं बुरी थीं। कोई इसलाम की
रक्षा कर रहा था, कोई हिंदू-धर्म की रक्षा कर रहा था,
कोई ईसाइयत की रक्षा कर रहा था। भावनाओं में क्या बुराई खोजोगे?
कोई कुरान की प्रतिष्ठा बचा रहा था, कोई गीता
की प्रतिष्ठा बचा रहा था। मगर बचाने वाले लोग दिवालिए थे; उनकी
आंखें अंधी थीं। उनके भीतर आत्मा ही कहां थी जो गीता समझती, कुरान
समझती, बाइबिल समझती? समझ नाम की चीज
उनके हाथ ही न लगी थी। इसलिए जो उन्होंने किया, सब गलत हो
गया। करने गए थे नेकी, मगर बदी हुई! चाहा था फूलों से पाट
देंगे लोगों के रास्तों को; कांटों से भर दिया।
दिनेश भारती, वे जो लोग खोटे सिक्के दे गए, मजबूर
थे। उन पर किसी ने ध्यान नहीं दिया।
इस कहानी को बहुत लोगों ने पढ़ा है, मुझे बहुत लोगों के
द्वारा यह कहानी सुनने मिली है। और जब भी मैंने यह सवाल उठाया है कि लोग करें क्या,
तो वे चौंके, उन्होंने कहा, हमने इस पहलू से नहीं सोचा था!
दूसरी बात: वह सूफी फकीर निजामुद्दीन औलिया का शिष्य, कितनी ही उसकी आंखें कमजोर हो गई हों, भलीभांति
पहचानता था कि सिक्के खोटे हैं। सिक्कों की खोट उसे बराबर दिखाई पड़ती रही। इतनी
आंखें कमजोर नहीं थीं उसकी। और इन खोटे सिक्कों को इस आशा में इकट्ठा करता गया कि
इनके बदले में परमात्मा से मांग लूंगा कुछ। वहां लोभ भी था। और कहां इस जगत के
खोटे सिक्के--और उस जगत की संपदा को खरीदने चल पड़ा था! होशियार आदमी रहा होगा,
चालबाज था, बेईमान था। अगर उसे खोटे सिक्के
दिखाई ही नहीं पड़ते थे, तो मुक्त हो जाता। तो फिर परमात्मा
से यह प्रार्थना करने की भी जरूरत न थी कि मुझ खोटे सिक्के को भी आ जाने दो;
जिस तरह मैंने औरों के खोटे सिक्के स्वीकार किए, मुझे भी स्वीकार कर लो। इसमें तो बड़ा सौदा है! साफ दुकानदारी है।
इसे दूसरों के खोटे सिक्के खोटे मालूम पड़ते थे। इसे अभी साफ-साफ फर्क
था कि क्या खोटा सिक्का है और क्या असली सिक्का है। अभी इसे भी दिखाई नहीं पड़ा था
कि इस जमीन के असली सिक्के भी खोटे सिक्के हैं। खोटे सिक्के और असली सिक्कों में
यहां कोई भेद नहीं है।
यहां के अच्छे आदमी और यहां के बुरे आदमियों में कोई फर्क नहीं है। और
अगर कोई फर्क होगा भी तो ज्यादा से ज्यादा मात्रा का फर्क होगा; गुण का कोई भेद नहीं है।
यहां बुरे तो बुरा कर रहे हैं, यहां अच्छे भी बुरा
कर रहे हैं। और मेरे देखे बुरे ज्यादा बुरा नहीं कर सकते हैं, क्योंकि ज्यादा बुरा करना हो, तो अच्छे की आड़ चाहिए।
अगर तुम्हें किसी की गर्दन काटनी हो, तो बुराई के लिए काटोगे,
तो मन में अपराध लगेगा। लेकिन अगर भलाई के लिए काटोगे--इसलाम की
रक्षा के लिए, हिंदू-धर्म की रक्षा के लिए, भारतीय संस्कृति की रक्षा के लिए--तो अपराध भी नहीं लगेगा। यूं काटोगे,
जैसे पुण्य-कर्म कर रहे हो! जन्मों-जन्मों का अवसर हाथ लगा, यह चूकना नहीं चाहिए!
यह आदमी अभी बुरे और भले में भेद कर रहा था।
सच्चा फकीर वही है, जिसे शुभ और अशुभ में भेद नहीं
रह जाता। मेरी तो परिभाषा सच्चे फकीर की वही है--जिसे नीति और अनीति में भेद नहीं
रह जाता; जिसे रात और दिन बराबर मालूम होने लगते हैं;
जिसे संसार और मोक्ष एक हो जाता है; जो कह
सकता है, संसार ही मोक्ष है। वही मेरे लिए सच्चा फकीर है।
उसका ही मोक्ष है, उसका ही संसार है। भेद क्या करना
है? चुनाव क्या करना है? यह निर्विकल्प
दशा है। जब तक विकल्प हैं--यह अच्छा, यह बुरा; इसको चुन लूं, इसको छोड़ दूं--तब तक तुम दुकानदारी
में पड़े हो। तब तक तुम सांसारिक ही हो। लाख समझाओ और लाख लीपापोती करो धार्मिक
होने की, तुम धार्मिक नहीं हो।
यह आदमी खोटे सिक्के को जानता था कि खोटे हैं--पहली बात। दूसरी बात:
खोटे सिक्के भी इकट्ठा करता चला गया! उनकी भी इसने मटकियां भर लीं! अगर इसको दिखाई
पड़ रहा था कि खोटे हैं, तो इकट्ठे किसलिए किए? खोटे को
भी इकट्ठा करने में राज है।
हमसे कुछ छूटता ही नहीं। परिग्रह की हमारी ऐसी वृत्ति है कि जो मिल
जाए, इकट्ठा करो--कंकड़-पत्थर, कूड़ा-करकट,
कुछ भी मिल जाए, इकट्ठा करो! अब जब इसको दिखाई
पड़ रहा था कि खोटे हैं...साग-सब्जी बेचनी थी, रोटी खिलानी थी,
खिलाता रहता; वह उसकी मौज थी। मगर खोटे सिक्के
किसलिए इकट्ठे किए? इस आशा में कि मैं तो सब्जी दे रहा हूं
खोटे सिक्कों में, खरीदूंगा इन्हीं खोटे सिक्कों से स्वर्ग,
जन्नत!
इनमें चालबाज कौन है--जिन्होंने सब्जी खरीदी खोटे सिक्कों से वे, या जो स्वर्ग खरीदने चला है खोटे सिक्कों से, वह?
जब मैंने किसी सूफी को ये सारी बातें कहीं, तो वह तिलमिला गया। उसे बेचैनी हो गई। मैंने उसके माथे पर पसीने की बूंदें
देखीं, घबड़ाहट देखी। क्योंकि उसने कभी कल्पना भी नहीं की थी
कि उसकी इस प्यारी कहानी की मैं ऐसी धज्जियां उड़ा दूंगा! मगर मैं भी क्या करूं?
जैसा मुझे दिखाई पड़ता है, वैसा ही मैं कह सकता
हूं। मैं भी विवश हूं।
मैं भी असहाय हूं इस अर्थों में कि सत्य को मैं झुठला नहीं सकता। और
चाहे कितने ही सुंदर वस्त्रों में कोई असत्य को ढांक कर लाए, असत्य को सत्य जैसा प्रतिपादित करे, मैं तो सत्य को
उसकी नग्नता में ही रखना चाहता हूं; उसे सुंदर वस्त्र पहनाने
की जरूरत नहीं है। और असत्य को तो कभी भी भूल कर सत्य के रंग मत पोतना, अन्यथा तुम ही फंसोगे--अपने ही जाल में खुद ही गिरोगे।
और इस कहानी में बात स्पष्ट है कि जब उसकी अंतिम घड़ी आई, तो उसने शुक्राने की नमाज पढ़ी और नमाज अता करके बारगाहे-इलाही में यह दुआ
की: या अल्लाह, मैं ताउम्र लोगों से खोटे सिक्के लेता रहा
हूं! पक्का है कि इसे कभी भी धोखा नहीं हुआ। खोटे सिक्के खोटे थे, जान कर इसने लिए थे! इकट्ठे किए थे इसी दिन के लिए, वह
दिन आ गया। आज यह परमात्मा से बदला मांग रहा है!
यही तुम्हारे तथाकथित साधु-संन्यासियों का ढंग है; जो भी उन्होंने किया उसका बदला मांगेंगे। यह किया मैंने, यह किया मैंने, इसका मुझे बदला चाहिए। ये इस संसार
में ही नहीं सफल होना चाहते, ये उस संसार में भी सफल होने के
लिए दीवाने हैं। ये लोभी हैं, महालोभी हैं!
मैं इस संसार के लोगों को इतना लोभी नहीं देखता। उनके लोभ भी क्या हैं? थोड़ा-सा धन, मकान, पद-प्रतिष्ठा।
सब क्षणभंगुर चीजें हैं। पानी पर खींची गई लकीरें हैं। असली लोभी तो वे हैं,
जो कहते हैं, इस क्षणभंगुर में क्या पड़ना! हम
तो शाश्वत पर कब्जा करेंगे! इनको मैं असली दंभी कहता हूं। ये असली उपद्रवी हैं।
इस संसार में इस संसार की क्षणभंगुरता में जो लोग थोड़ा-सा रस ले रहे
हैं, उनको तुम बच्चे समझो। बच्चे कहो, तो चलेगा। थोड़े बचकाने हैं। नासमझ हैं। मगर ये तथाकथित साधु-संन्यासी,
ये फकीर, ये त्यागी-व्रती, ये बच्चे नहीं हैं, ये बेईमान हैं। इनकी बड़ी
होशियारी है। ये पक्के बनिया हैं। ये हिसाब बांधे बैठे हैं; एक-एक
कर्म का हिसाब रखे बैठे हुए हैं।
जैन मुनि अपनी डायरी में लिखता रहता है--कितने उपवास किए, कितने व्रत किए! भर रहा है अपनी मटकियां! और खयाल रखना सब खोटे सिक्के
हैं। और दूसरे भी नहीं दे गए, खुद ही ने ईजाद किए हैं। भर-भर
कर मटकियां ले जाएगा; रखेगा मोक्ष के द्वार पर कि ये देखो,
इतने मैंने व्रत किए, इतने नियम किए, इतना संयम साधा, अब फल चाहिए।
और जो फल मांगता है, वही सांसारिक है।
कृष्ण ने ठीक परिभाषा की है संन्यासी की: कर्म तो करे, फल न मांगे। फल को भूल ही जाए। यात्रा में रस ले, मंजिल
की मांग न करे।
मगर हम तो यात्रा में एक कदम नहीं उठाते; पहले मंजिल चाहिए, फिर यात्रा करेंगे। जब मंजिल का
पक्का भरोसा हो जाए, तब यात्रा करेंगे!
अब इस फकीर ने क्या किया, देखते हो? कहा, या अल्लाह, मैं ताउम्र
लोगों से खोटे सिक्के लेता रहा हूं। अब यह खोटा सिक्का भी तेरे पास आ रहा है। तू
इसे स्वीकार कर। इसकी इसी बात के कारण सूफी फकीर इस कहानी को बहुत दोहराते हैं,
क्योंकि वे कहते हैं: कितना विनम्र आदमी था! बोला उसने कि यह खोटा
सिक्का तेरे पास आ रहा है! कैसी सरलता, कैसी निरहंकारिता!
अपने को खोटा कह रहा है!
लेकिन इसके खोटे कहने के पीछे रहस्य क्या है? यह खोटा इसलिए कह रहा है कि अब आने दे मुझे जन्नत में, स्वर्ग में, बहिश्त में! इसके खोटे कहने के पीछे लोभ
है। और यह कह रहा है कि देख प्रमाण-स्वरूप, मैंने भी लोगों
के खोटे सिक्के स्वीकार किए, इसलिए तू मुझे इनकार न कर
सकेगा!
तो जिंदगी भर यही गणित बिठाता रहा। वे जो मटकियां भरी जा रही थीं, इसी गणित से भरी जा रही थीं। यह खुश ही हो रहा था कि अच्छा है कि लोग खोटे
सिक्के दे जा रहे हैं। यह प्रोत्साहन ही दे रहा होगा कि खोटे सिक्के दे जाएं। यह
लोगों में यह भ्रांति पैदा कर रहा होगा कि तुझे बिलकुल दिखाई नहीं पड़ता। उनके खोटे
सिक्कों को ऐसे प्रेम से लेकर और मटकी में रखता होगा कि लोगों को लगता होगा कि अहा,
अच्छा फायदा ही फायदा हो रहा है! मगर उन्हें पता नहीं था, यह आदमी उनके कंधों पर बंदूक रख कर चलाने की कोशिश में संलग्न है। यह बदला
लेगा, अच्छा बदला लेगा।
इसने दोहरे काम कर दिए--लोगों की निंदा भी कर दी परमात्मा के सामने कि
मैं उनके खोटे सिक्के लेता रहा हूं। यह भी जाहिर कर दिया, यह भी छुपा कर न रखा कि सब मुझे खोटे सिक्के देते रहे हैं, अब तू उनसे समझ लेना! वह बात कही नहीं, कोष्ठक में
है। लेकिन बात जाहिर है कि लोग मुझे खोटे सिक्के देते रहे। और यह भी बात जाहिर है
कि देख, मुझे देख! मेरी तरफ देख! मैंने उनके खोटे सिक्के भी
स्वीकार किए हैं! तो मेरी सहृदयता देख, मेरी उदारता देख!
मैंने कभी किसी के खोटे सिक्के को खोटा नहीं कहा!
यह आदमी कह देता तो अच्छा था। यह फेंक देता उनके खोटे सिक्के तो अच्छा
था। कम से कम परमात्मा के सामने यह अकड़ तो न बचती। मगर इसी अकड़ के लिए तो सारे
खोटे सिक्के इसने इकट्ठे किए थे। इकट्ठे ही इसलिए किए थे कि परमात्मा पूछने लगे कि
कहां हैं खोटे सिक्के, तो मटकियां के ढेर बता दूंगा, कि
ये भरी मटकियां रखी हैं, प्रमाण-स्वरूप! यह देख मेरी डायरी
में कितने व्रत-उपवास-नियम, कितनी साधना-त्यागत्तपश्चर्या
मैंने की है! क्या नहीं खाया, कब नमक छोड़ा, कब घी छोड़ा, क्या नहीं किया! कितनी देर-देर तक सिर
के बल खड़ा रहा! पांच नमाज पूरी की हैं, हर रोज पूरी की हैं!
एक दिन नहीं चूका। बीमार था तो नहीं चूका। मर रहा था, तो
नहीं चूका। अब इस सबका फल चाहिए। अब इस जीवन भर की चेष्टा का निचोड़ कर रस लूंगा!
तो उसने कहा, अब यह खोटा सिक्का भी तेरे पास आ रहा है।
क्या तुम सोचते हो यह आदमी विनम्र है? अपने को परमात्मा के
सामने खोटा सिद्ध करने की कोशिश में भी अहंकार ही है। यह यह कह रहा है कि देखो,
मैं विनम्र आदमी हूं, सहृदय, उदार--ऐसा उदार कि लोगों के खोटे सिक्के असली मानता रहा; कभी किसी को एतराज न किया, कभी शिकायत न की; कभी कोई शिकवा न किया! अब तू भी मुझसे शिकायत नहीं कर सकता है! अब तू भी
किस मुंह से मुझसे शिकवा करेगा? जब मैंने तेरे लोगों के साथ
ऐसा व्यवहार किया, तो तू भी मेरे साथ ऐसा ही व्यवहार कर। और
मैंने हजारों खोटे सिक्के लिए, मैं तो सिर्फ एक खोटा सिक्का
हूं, अब मुझे आने दे!
यह भी यह आदमी परमात्मा पर नहीं छोड़ रहा है कि जो तेरी मर्जी! यह
दावेदार है। यह दावा कर रहा है। यह कह रहा है, अब यह खोटा सिक्का भी
तेरे पास आ रहा है, तू इसे स्वीकार कर। इनकार न करना! यह
आदेश दे रहा है। आदेश निरहंकारिता से नहीं उठते, अहंकार से
ही उठते हैं।
यह कहानी ऊपर-ऊपर से अच्छी लगती है, भीतर-भीतर बिलकुल सड़ी
है। भीतर इसमें कुछ बड़ा राज नहीं है।
और दिनेश भारती, अगर यही कहानी तुम्हारी भी कहानी
है, तो तुम वही गलती कर रहे हो जो उस फकीर ने गलती की थी। इस
कहानी में कुछ पता नहीं कि परमात्मा ने उसके साथ क्या किया। लेकिन मैं क्या करूंगा,
वह तुम्हें पता हो जाना चाहिए। मेरे साथ चालबाजियां नहीं!
तुम जैसे हो, मुझे स्वीकार हो। मगर यह खोटे वगैरह होने का अहंकार
मत घोषित करो। ये तरकीबें नहीं। खोटे हो, तो ठीक। क्या हर्जा?
कौन खोटा नहीं है? मगर खोटे की घोषणा करके तुम
इस भ्रांति में न पड़ो कि तुम दूसरों से विशिष्ट हुए जा रहे हो। वही मोह भीतर छिपा
है।
अब तुम कह रहे हो कि आपकी कृपा से मेरा तमस शांत हो गया है। मेरी कृपा
से अगर लोगों का तमस शांत होने लगे, तो मैं सारी दुनिया
का तमस शांत कर दूं! मेरी कृपा से कुछ भी नहीं होता।
तुम मेरी प्रशंसा मत करो। तुम मेरी प्रशंसा से कुछ भी नहीं पा सकते
हो। मुझे धोखा देना असंभव है। मैं किसी तरह की स्तुति में भरोसा नहीं करता। तुम जो
यह कह रहे हो--आपकी कृपा से मेरा तमस शांत हो गया है--इस कहने में ही तमस मौजूद है, अंधेरा मौजूद है।
तुम सोच रहे हो उसी ढंग से, जैसे आम आदमी को
प्रभावित किया जाता है। हां, किसी राजनेता से जा कर कहोगे कि
आपकी कृपा से, तो वह आह्लादित हो जाएगा। किसी महात्मा से
कहोगे कि आपकी कृपा से ऐसा हो गया, तो वह आह्लादित हो जाएगा।
मैं अहमदाबाद से बंबई आ रहा था। एक व्यक्ति एकदम मेरे पैरों पर गिर
पड़ा हवाई जहाज में। जैसे ही मैं अंदर गया, एकदम मेरे पैरों पर
गिर पड़ा और कहा कि आपकी कृपा से गजब हो गया! मैंने पूछा, क्या
गजब हो गया, मैं थोड़ा समझ लूं! क्योंकि मैंने किसी पर कोई
कृपा नहीं की। इसलिए मैं जिम्मेवार नहीं हो सकता हूं।
वह थोड़ा चौंका, क्योंकि उसने और बहुत से महात्माओं पर यही चाल चलाई
होगी, यही तीर चलाया होगा। और जैसे महात्मा हैं, उन पर यह तीर एकदम चलता है। उनके पैरों पर गिर पड़ो और कहो, आपकी कृपा से घर में बच्चा हो गया, मुकदमा जीत गया,
नौकरी लग गई, तो वे मुस्कुराकर सिर हिलाते हैं
और कहते हैं कि ठीक। ठीक बच्चा! अरे मेरी कृपा से क्या नहीं हो सकता!
वह आदमी थोड़ा चौंका। मैंने कहा, मैंने किसी पर कृपा
ही नहीं की। कब हुई यह कृपा? कैसी कृपा और क्या हुआ?
उसने कहा, नहीं, आप छिपाने की कोशिश न
करो।
मैंने कहा, मैं छिपाने की कोशिश नहीं कर रहा। मैं सिर्फ यह जानना
चाहता हूं कि क्या, हुआ क्या है?
उसने कहा, मैं मुकदमा जीत गया।
मैंने कहा, मैं मुकदमे जिताता हूं? और सचाई
क्या थी--मुकदमा तुझे जीतना था कि नहीं? तूने किया क्या था?
उसने कहा, अब आपसे क्या छिपाना? संभावना
तो मेरे हारने की थी, क्योंकि मेरा मामला झूठ था। मगर आपकी
कृपा से क्या नहीं हो सकता!
तो मैंने कहा, देख, तू नरक जाएगा, और मुझे भी ले चलेगा! तू भैया अकेला जा! और अगर मुझे नरक ले चलना है साथ
में, तो कितना रुपया जीता है अदालत से?
उसने कहा कि कोई पचास हजार रुपया। तो मैंने कहा, पच्चीस हजार मुझे दे दे। बात खतम कर! अगर नरक भी चलना है, तो मैं मुफ्त नहीं जाऊंगा।
वह बोला, अरे नहीं-नहीं, आप जैसे
महापुरुष को कहां पैसे से पड़ी!
मैंने कहा देख, यह नहीं चलेगा। नरक जाते वक्त मैं भी फंसूंगा,
क्योंकि मुझसे भी पूछा जाएगा, क्यों की इस पर
कृपा? यह हारना था मुकदमा, सजा होनी थी
इसकी छह साल की। सजा भी नहीं हुई, उल्टे यह पचास हजार रुपए
मुकदमे में जीत भी गया! तो सजा मेरी होगी। और वे पचास हजार में से कम से कम पच्चीस
हजार तो मुझे भरने ही पड़ेंगे और तीन साल तो कम से कम मुझे भी नर्क में काटने
पड़ेंगे। तू पच्चीस हजार मुझे दे ही दे!
वह आदमी तो ऐसा चौंका। उसने कहा कि मैं बहुत महात्माओं के पास गया, आप कैसी बात कर रहे हैं! मैंने कहा, मैं बात
सीधी-साफ कर रहा हूं। तू जो भाषा समझता है वही बात कर रहा हूं। या फिर अपनी बात
वापस ले ले। मैंने तो तुझसे कहा नहीं। मैंने दावा किया नहीं कि मैंने तुझ पर कृपा
की। मैं तो इनकार ही कर रहा हूं, अभी भी इनकार कर रहा हूं।
लेकिन अगर तू मानता है मैंने कृपा की, तो फिर हिस्सा कर ले।
वह तो बिलकुल पीछे जा कर बैठ गया! मगर मैं दोत्तीन दफा उसके पास गया
उठ-उठ कर, कि भैया, तू क्या करता है?
बंबई करीब आई जा रही है! वह तो अपना अखबार पढ़े। मैंने कहा, अखबार-वखबार बाद में पढ़ना, तू रुपए दे दे! फिर बंबई
में मैं तुझे कहां खोजता फिरूंगा? तेरा नाम क्या, तेरा पता क्या?
बोला, आप क्यों मेरे पीछे पड़े हैं?
मैंने कहा, कृपा के वक्त तू मेरे पीछे पड़ा था!
उसने अपना सिर ठोंक लिया। उसने कहा, मैं माफी मांगता हूं।
मैं आपके चरण छूता हूं!
मैंने कहा, तो कह दे कि मैंने कृपा नहीं की।
उसे कहने में भी डर लगे, क्योंकि उसे यह डर
लगे कि कहीं आगे कोई दचका न खाना पड़े। मैंने कहा कि तू बिलकुल बेफिक्री से कह दे
कि मैंने कोई कृपा नहीं की, मेरा मामला खतम हो गया। लेन-देन
साफ। तू कह दे, ताकि आगे जब निर्णय होगा, तो मैं भी कह सकूंगा कि इसने साफ मना कर दिया था कि मैंने कृपा की ही
नहीं!
वह न कहे वह। उसमें उसकी घबड़ाहट कि पता नहीं, इन साधु-महात्माओं का क्या! फिर कल कोई झंझट में फंसा दें। किसी तरह तो
बचा हूं!
वह कहने लगा, आप मुझ पर कृपा करो।
मैंने कहा, देख, एक कृपा की, उसका तूने अभी भुगतान भी नहीं किया, उधारी ही चला
रहा है! अब और कृपा करूं तेरे पर? तू माफी मांग ले और साफ कह
दे कि आपने कृपा नहीं की, नहीं तो बंबई उतरते ही से मेरे लोग
वहां होंगे, पकड़ा दूंगा फौरन! और तूने मुझसे कहा है कि
मुकदमा तू झूठा जीता है, शोरगुल मचा दूंगा कि इसका मुकदमा
झूठा है। अदालत में घसीटूंगा।
ये जो लोग हैं, ये सब बेईमान हैं। लेकिन इनसे महात्मा भी प्रसन्न!
महात्माओं की तो तुम बात ही छोड़ो; लोग देवी-देवताओं को,
भगवान को, सबको रिश्वतें दे रहे हैं! इसलिए इस
देश से रिश्वत को मिटाना बहुत मुश्किल है।
मुझे नहीं लगता कि भारत से रिश्वत मिटेगी। उसी दिन मिटेगी, जिस दिन भारतीय संस्कृति मिटेगी! मगर भारतीय संस्कृति को तो बचाना है! लोग
एक सड़ा नारियल चढ़ा आते हैं बजरंगबली पर, कि हे बजरंगबली,
खयाल रखना! ये हुड़दंगअली हैं, इन्होंने कुछ
गड़बड़ किया है, अब बजरंगबली को भी फंसा रहे हैं, और एक सड़ा नारियल चढ़ा रहे हैं! और पता नहीं, क्या
उपद्रव किया है, और सड़े नारियल के पीछे बजरंगबली इनका खयाल
रखें! और बड़े प्रसन्न हो रहे हैं कि यह कैसा भक्ति-भाव! कैसे गदगद हो कर प्रार्थना
करते हैं! क्या आरती उतारते हैं!
मेरे गांव में, जिस परिवार में मैं पैदा हुआ, उसके
मंदिर में जो लोग भी बहुत ज्यादा भक्ति-भाव से आरती उतारते थे, मैं उनके पीछे-पीछे चला जाता था पूछने कि आज आपने बड़ी भक्ति-भाव प्रकट की,
मामला क्या है? कहें, मामला
क्या है जी, इसमें मामला क्या है! तुम मेरे पीछे क्यों आ रहे
हो?
मैं यह पूछने आ रहा हूं, आपने कुछ गड़बड़ की
होगी या करने का इरादा होगा। नहीं तो ऐसा भक्ति-भाव पहले कभी नहीं दिखाई पड़ा। और
मैं तो यहीं खड़ा होकर देखता हूं कि कौन-कौन भक्ति-भाव प्रकट कर रहा है। उससे मुझे
पता चल जाता है कि इस बस्ती में कितने बदमाश हैं, कितने
लुच्चे हैं और कितने लुच्चे नहीं हैं तो लुच्चे होने की तैयारी कर रहे हैं। तुमने
इतने भक्ति-भाव से...! एकदम आंसू बह रहे थे, तुम्हारे और
आंसू बहें!
जा भाई तू अपना काम कर--वे मुझसे कहें--तू अपना काम कर! हमें
भक्ति-भाव भी नहीं करने देगा क्या?
मैंने कहा, भक्ति-भाव बराबर करो, खूब जी भर
कर करो! मगर आज तक तुमने नहीं की, आज ही क्यों की? रोज तो मैं देखता हूं, ऐसा भक्ति-भाव प्रकट नहीं हुआ
था। जरूर या तो तुम कुछ कर गुजरे हो या इरादा है! तुम मुझे साफ-साफ कह दो, नहीं तो मैं पुलिस चौकी जा रहा हूं कि इस आदमी पर ध्यान रखा जाए!
भई, तू आदमी कैसा है--वे मुझसे कहें--कि तू आदमी कैसा है!
किसी को भक्ति-भाव नहीं करने देगा। पुलिस चौकी क्यों जाओगे? ठहरो!
तो मैंने कहा, साफ-साफ मुझे कर दो, क्योंकि
यहां लोग भक्ति-भाव ही इसीलिए करते हैं।
स्तुति रिश्वत का एक ढंग है। इसलिए भारत में रिश्वत धार्मिक चीज है।
इसलिए तुम लाख कहो, लोगों को लाख समझाओ कि रिश्वत मत लो; मगर जो लोग सदियों से परमात्मा तक को रिश्वत देते रहे हैं, वे आदमियों को रिश्वत न देंगे? जो जानते हैं कि जब
परमात्मा तक रिश्वत में फंसता है, तो बेचारा तहसीलदार,
थानेदार, कलेक्टर, कमिश्नर,
इनकी हैसियत क्या है? गवर्नर, राष्ट्रपति, किसी की कोई हैसियत नहीं। जब स्वयं
परमात्मा भी सड़े नारियल से मान जाता है, तो ये तो आदमी हैं!
आखिर आदमी की सामर्थ्य क्या?
मुल्ला नसरुद्दीन एक लिफ्ट में एक स्त्री के साथ ऊपर की तरफ जा रहा
था। रास्ते में बोला, अहा, क्या सौंदर्य पाया है!
स्त्री थोड़े भड़की। उसने कहा कि शर्म नहीं आती! एकांत में स्त्री को
देखकर और कुछ भी अंट-शंट बोलते हो!
उसने कहा, मैं अंट-शंट नहीं बोलता। भाई, मैं
जो भी कहता हूं, उसका मूल्य चुकाने को तैयार हूं। मगर एक रात
मेरे साथ रुक जा, पचास हजार रुपए दूंगा!
स्त्री भी ढीली पड़ गई। पचास हजार में कौन ढीला न पड़ जाए! उसने कहा, पचास हजार!
नसरुद्दीन ने कहा, बिलकुल पचास हजार!
उसने कहा, अच्छी बात। कौन-सी मंजिल पर रहते हो?
उसने कहा, वह मैं तो बाद में बताऊंगा। सच पूछो तो मेरे पास
सिर्फ पचास रुपए हैं!
वह स्त्री एकदम भड़की। उसने कहा कि मैं अभी शोरगुल मचा दूंगी। तुमने
मुझे समझा क्या है?
नसरुद्दीन ने कहा, समझने का अब कोई सवाल ही नहीं।
वह तो अपन तय कर चुके। वह तो पचास हजार में तय हो गया कि तू क्या है, हम क्या हैं; सब तय हो गया। अब तो मोल-भाव कर रहा
हूं! अब समझना वगैरह कुछ भी नहीं; समझना तो हो चुका। अब शोर
वगैरह मचाने की कोई जरूरत नहीं। अगर पचास हजार में तू रात भर मेरे पास रुकने को
राजी है, तो पचास में क्या हर्जा है? अब
यह हैसियत-हैसियत की बात है। अपने पास पचास हजार हैं नहीं। वह तो मैंने जरा इशारा
किया कि देख लूं कि कहां तक गहरा पानी है; कितने गहरे पानी
में है तू। वह तो तय ही हो गया कि तू कौन है।
तो किसी की थोड़ी कीमत होगी, किसी की ज्यादा कीमत
होगी। मगर जिसके चरणों में गिर जाओगे और जिसकी प्रशंसा करोगे...। तुम गधे के भी
पैरों में गिर कर कहो कि अहा, क्या सुंदर काबुली घोड़ा है! तो
गधा भी सिर हिलाएगा। वह कहेगा कि यह बिलकुल ठीक कह रहे हो। तुम्हीं मुझसे पहचानने
वाले मिले!
मैं एक कालेज से निकाल दिया गया था, क्योंकि कालेज के
अध्यापक परेशान आ गए, प्रिंसिपल परेशान आ गया। उसने कहा कि
तुम्हारे साथ सिवाय झंझट के कुछ नहीं है। जो प्रोफेसर आता है, वही कहता है कि या तो यह लड़का रहे या हम नौकरी छोड़ते हैं। तुम ऐसे सवाल
खड़े करते हो! अब तुमने कल एक प्रोफेसर को पूछा कि क्या तुम सिद्ध कर सकते हो कि
तुम अपने बेटे के ही बाप हो? बोलो! यह कोई सवाल है?
मैंने कहा कि पहले आप यह पूछो कि उसने क्या कहा था। उसने कहा था कि
मैं जब तक किसी चीज को सिद्ध न करूं, मानता ही नहीं। और
उसका लड़का भी मेरी क्लास में पढ़ता है, तो मैंने कहा कि ठीक
है, मामला तय हो जाए। तुम यह सिद्ध करके बताओ कि यह लड़का
तुम्हारा ही है। बस, वह एकदम नाराज हो गया।
मैंने कहा, उसने ही कहा था। उसने ही भड़काया मुझे। शरारत वह करे,
फंसूं मैं? यह कोई बात है। बुलाओ उसको। पूरी
कक्षा गवाह है कि उसने ही कहा था कि मैं जब तक किसी बात को सिद्ध न कर दूं,
मानता ही नहीं। मैं वैज्ञानिक बुद्धि का आदमी हूं।
तो मैंने कहा कि मैं भी वैज्ञानिक बुद्धि का हूं। यह लड़का तुम्हारा है? तुम्हें पक्का भरोसा है? किस आधार पर भरोसा है?
तुम्हारे पास कोई प्रमाण है? बस वह एकदम बौखला
गया और कहा कि तुम क्लास से निकल जाओ। मैंने कहा, मैं नहीं
निकलूंगा। पहले तुम सिद्ध करो। अगर तुम सिद्ध कर दो कि यह लड़का तुम्हारा है,
मैं सदा के लिए क्लास से निकल जाऊंगा, बात
खतम। फिर मुझे नहीं पढ़ना, फिर क्या पढ़ना है! यही पढ़ने आया
था! तुमको निकलना हो निकल जाओ! वह एकदम निकल गया गुस्से में, आपके पास पहुंच गया!
प्रिंसिपल थोड़ी देर सोचता रहा। उसने कहा कि बात तो तुम ठीक कहते हो, मगर यह बात ऐसी है कि मैं भी सिद्ध नहीं कर सकता। मेरे भी लड़के हैं। यह
तुम झंझटों की बातें खड़ी करते हो। तुम यहां से छोड़ ही दो, दूसरे
कालेज में चले जाओ।
मैंने कहा, मुझे कौन दूसरा कालेज भरती करेगा? गांव भर में मेरी बदनामी है। कौन मुझे कालेज में लेगा? आप सिफारिश करोगे? आप लिख कर दो।
उन्होंने कहा कि मैं लिखकर नहीं दे सकता, क्योंकि मैं लिखकर दूं और कल तुम वहां कोई गड़बड़ करो! गड़बड़ तुम करोगे।
मैंने कहा, वह मैं लिख कर दे सकता हूं कि करूंगा। मैं तो जो
कहता हूं, वह लिख कर भी दे सकता हूं। यह बेईमान कौन है--मैं
हूं या तुम? तुम कह रहे हो कि लिख कर नहीं दे सकता, फोन पर कह दूंगा। अरे जब फोन पर कह सकते हो, लिख कर
दे दो। जब मुंह चला सकते हो, तो हाथ चलाने में क्या हर्जा है?
तुम्हारा मुंह क्या हाथ से गया-बीता है?
उसने कहा, देखो, तुमने फिर गड़बड़ बातें
शुरू कर दीं! इन्हीं झंझटों की बातों के कारण हम तुम्हें अलग कर रहे हैं। तुम बात
में से बात निकाल लेते हो!
तो मुझे एक कालेज में जा कर...जो सबसे गांव का रद्दी कालेज था, जहां कोई जाता ही नहीं था। मैंने सोचा, वे ही मुझे
जगह देंगे। पर मुझे कोई फिक्र भी न थी। मैंने कहा, चलो वहीं
निपटेंगे।
गया, तो प्रिंसिपल घर पर पूजा कर रहे थे। वे दुर्गा के भक्त
थे, काली के भक्त--जय काली, जय काली!
और भक्त ही नहीं थे, मतलब शरीर से भी बिलकुल काली के ही भक्त
थे वे। बिलकुल काले-कलूतरे, मोटे, भयंकर!
उनको लोग अवधूत कहते थे! वे एकदम जय काली, जय काली ऐसा उदघोष
कर रहे थे, कि सारा मुहल्ला कंपा जा रहा था। मैं बाहर बैठा रहा,
सुनता रहा, सुनता रहा। मुझे भर्ती होना था। जब
वे बाहर निकले, मैंने उनसे कहा कि मैंने बहुत भक्त देखे,
मगर आप जैसा भक्त नहीं देखा! इस कलियुग में आप जैसे सतयुगी पुरुष का
दर्शन--धन्य हो गया!
उन्होंने कहा, बेटा, तू पहला युवक है, जो मुझे पहचान पाया! आज तक मुझे कोई नहीं पहचान पाया। अरे दूसरों की क्या,
मेरे घर के, मेरे बेटे, मेरी
पत्नी, मेरे भाई, कोई मुझे नहीं
पहचानते! वे समझते हैं, यह पागल है।
मैंने कहा, वे सब पागल हैं। आप परमहंस हैं!
मुझे उन्होंने फौरन कालेज में भर्ती कर लिया, फिर पूछताछ ही नहीं की कि तू कहां से निकाला गया, क्यों
निकाला गया! और फिर जब भी कभी कोई मौका आता, तो वे यह बात
चूकते नहीं थे कहने से कि यह एकमात्र युवक है, जो मुझे
पहचाना!
जब मैं कालेज छोड़ने लगा...और उन्होंने फिर कहा कि तुम जा रहे हो, दिल को मेरे दुख होता है! मैंने कहा कि दुख आपको होता है, दुख मुझको भी होता है। क्योंकि मैं एकमात्र व्यक्ति हूं, जो तुम्हें पहचाना!
उन्होंने कहा, क्या मतलब?
मैंने कहा कि अब तो मैं जा ही रहा हूं, तो अब सच्ची बात कह
दूं कि मैंने तुम जैसा मूढ़ आदमी नहीं देखा। लोग ठीक कहते हैं।
कहा, क्या मतलब?
मैंने कहा कि मैं पहचान गया था उसी वक्त कि किस ढंग के आदमी हो, तभी तो मैंने कहा कि अहा, सतयुगी हो आप! कोई मूढ़ ही
इन बातों में आएगा। कलियुग में कहां से सतयुगी होओगे? कलियुग
में कोई कैसे सतयुगी हो सकता है, तुम्हीं बताओ! यह तो यूं ही
हुआ कि झाड़ तो नीम का है और आम लगा हुआ है, कि अहा, क्या नीम के झाड़ में आम लगा हुआ है! कोई मूरख नीम ही बातों में आ जाए तो आ
जाए, नहीं तो नीम का झाड़ पूरा हंसेगा कि अरे रहने दे भाई!
तुम महामूढ़ हो।
उन्होंने कहा, तो मैं इतने दिन धोखे में रहा!
मैंने कहा, तुम धोखे में रहे, उससे ही तो
सिद्ध होता है। अगर तुममें थोड़ी भी अक्ल होती, तो तुम जितनी
जोर से काली-काली चिल्ला रहे थे--मैंने काली को भागते देखा था, निकलते तुम्हारे कमरे से, कि मैं यह चली; जब यह दुष्ट यहां से हटेगा तब वापस लौटूंगी! तुम जितने जोर से काली-काली
चिल्लाते हो...किसको धोखा दे रहे हो! मैंने देखा कि जब तुम काली की इस तरह स्तुति
कर रहे हो, काली तक को धोखा देने की सोच रहे हो, मैं फौरन तुम्हारा गणित समझ गया। मैंने कहा, अब मुझे
भरती होना है, तुम्हारे गणित का उपयोग तुम्हीं पर कर दूं! और
जाते वक्त सच्ची बात कह जाऊंगा। तो मैं कहे जा रहा हूं।
तब से वे मुझसे बहुत नाराज हैं। फिर मैं वर्षों उस गांव में रहा, रास्ते में मिल जाएं, मैं जयरामजी करूं, तो वे जवाब न दें! इधर-उधर मुंह करें। मैं भी चारों तरफ घूम कर जयरामजी
करूं। मैं जयरामजी तो कर ही लूं। मैं ही तो वह एकमात्र व्यक्ति हूं, जो आपको पहचाना!
दिनेश, तुम ये क्या बातें कर रहे हो कि आपकी कृपा से मेरा
तमस शांत हो गया! मेरी कृपा से शांत हुआ और मेरी कृपा न रही, फिर क्या होगा? मैं अपनी कृपा वापस ले सकता हूं। कल
तमस आ जाए, तुम फिर मेरी जान खाओगे कि आपने दिखता है कृपा
वापस ले ली!
तमस कहीं गया-वया नहीं है, वह अपनी जगह बैठा हुआ
है। कभी-कभी सांप कुंडली मार कर बैठ जाता है, सोएगा भी तो न!
इसलिए तो कुंडलिनी कहते हैं उसको। जब सांप तुम्हारा कुंडली मार कर सोया रहता है,
तो उसको कहते हैं कुंडलिनी। और जब सांप फनफना कर उठता है, तो कहते हैं--कुंडलिनी जगी! तो अभी तुम्हारा तमस सो गया होगा, या कम से कम तुम धोखा दे रहे होओगे कि अरे बिलकुल सो गया! अब तो आश्रम में
जा कर भरती कर लिया जाऊं। अब तो साफ कह दूंगा कि मेरा तमस शांत हो गया है।
चेतना से रजस का बोझ भी कम होता जा रहा है। झूठ भी बोले, मगर पूरा नहीं बोल पाए। तुमने सोचा कि जरा थोड़ा संकोच से बोलूं, क्योंकि यह आदमी खतरनाक है; इससे कहेंगे कि रजस भी
समाप्त हो गया, तो यह पकड़ लेगा। मैंने तुम्हें पहले ही पकड़
लिया, उसके पहले ही!
...बोझ समाप्त होता जा रहा है। और आपके पास रह कर सत्व
में प्रवेश हो सकेगा।
तुम्हारी तैयारी हो, तो एक क्षण में सारी बात हो जाती
है। यह कोई धीरे-धीरे का काम है कि पहले तमस कटेगा, फिर रजस
कटेगा, फिर सत्व में प्रवेश होगा? कितने
जन्म लोगे? कितना समय गंवाओगे? तुम्हारी
अगर तैयारी हो ईमान से...
और मुझे कोई धोखा देने की कोशिश न करे, क्योंकि मैं खोटे
सिक्के वगैरह इकट्ठे नहीं करता। मुझे कोई परमात्मा के सामने मटकी नहीं रखनी कि हे
महाराज, देखो, कितने खोटे सिक्के मैंने
लिए थे, अब आप मुझे भी ले लो! मैं कोई खोटा सिक्का हूं नहीं।
मैं ऐसी कोई प्रार्थना करने वाला नहीं।
मैं किसी से कोई प्रार्थना ही करने वाला नहीं। आखिरी नमाज तो मैं कब
की पढ़ चुका! मैं तो दरवाजे पर धक्का दे कर घुस जाने वाला हूं। कोई प्रार्थना वगैरह
करनी है? प्रार्थना ही करेगा तो परमात्मा कि ऐ भाई, इतनी जोर से मत घुसो, कि आहिस्ता आओ, कम से कम नींद तो न तोड़ो! और मैं अकेला घुसने वाला हूं? और पीछे कतार रहेगी! शिवजी की पूरी बारात! आखिर डेढ़ लाख संन्यासी मेरे
कहां जाएंगे? एक को भी यहां-वहां नहीं जाने दे सकता। स्वर्ग
पर कब्जा करना है। कच्छ से तो सिर्फ शुरुआत है--अभ्यास के लिए कि देखो, यूं कब्जा किया जाता है!
एक अभ्यास करते हैं न! तुमने फायर ब्रिगेड वालों को अभ्यास करते देखा
होगा। झूठे ही आग लगा देते हैं, फिर बुझाते हैं। अभ्यास हो रहा
है। ऐसे ही कच्छ एक अभ्यास! झूठी आग लगा दी, बुझाई, जिससे तुम्हें थोड़ा अभ्यास हो जाए कि जब स्वर्ग पर हमला करेंगे तो किस तरह
प्रवेश करना है।
तुम मुझे स्वीकार हो, दिनेश, सदा
से स्वीकार हो! तामसी हो, तो स्वीकार हो। मैं कोई तमस,
रजस और सत्व में कोई भेद करता हूं? तुम इस
चिंता में ही मत पड़ो। सिर्फ तुम्हारी तैयारी होनी चाहिए समर्पण की। लेकिन पीछे
तुमने हमेशा उलटे सबूत दिए। तुम्हारी चालबाजी यह है कि तुम मेरे प्रति तो समर्पण
दिखाते हो...और यह तुम्हारी ही अकेले की नहीं, और भी बहुत
लोगों की है।
लेकिन मुझे तुम किसी तरह का धोखा नहीं दे सकते, उसका कारण यह है कि मैं सब तरह के धोखे खुद ही दे चुका हूं! मैं बिलकुल
अभ्यासी हूं। मुझे कोई धोखा नहीं दे सकता। जितने ढंग से जेब काटना मुझे आता है,
किसी को भी नहीं आता। तो तुम क्या खाक मेरी जेब काटोगे! इसलिए मैं
तो जेब ही नहीं रखता, क्या खाक काटोगे? तुम देखे, मेरी जेब है? नहीं
है। और बिना जेब के किस मजे से जी रहा हूं! इसको कहते हैं परम संन्यास! कोई जेब भी
काटना चाहे, तो नहीं काट सकता।
गरीब से गरीब आदमी की जेब होती है। कुछ भी न हो जेब में, तो भी जेब होती है। कम से कम ठंड इत्यादि के समय में हाथ डाल कर कम से कम
थोड़ी गर्मी ही देती है। उतनी भी जेब नहीं रखी।
तुम मुझे किसी तरह का धोखा नहीं दे सकोगे। और उसी तरह का धोखा और भी
कुछ लोग देते हैं। वे क्या करते हैं? उनकी होशियारी क्या
है? वह और जगह काम आ जाती है, यहां
नहीं काम आएगी। वह होशियारी क्या है?
वे मेरे प्रति समर्पण दिखलाते हैं और आश्रम में उपद्रव खड़ा करते हैं।
वे कहते हैं, भगवान को तो हम प्रेम करते हैं। मगर यह आश्रम की
व्यवस्था और इसके नियम इत्यादि, इनमें हम नहीं मानते। उनका
इरादा यह है कि वे मेरे प्रति समर्पण दिखाएं, तो मैं कुछ
बोलूं न, मैं कुछ कहूं न, कि देखो
कितने समर्पित व्यक्ति! और संस्था के प्रति सब तरह के उपद्रव खड़े करें। मैं कुछ
बोलूं नहीं, मैं कुछ कहूं नहीं, क्योंकि
वे मेरी खुशामद करें और संस्था के प्रति सारी तरह की अराजकता फैलाएं। यह नहीं
चलेगा।
जिसका मेरे प्रति समर्पण है, उसका मेरे कम्यून के
प्रति भी समर्पण होना चाहिए; वही सबूत है, नहीं तो कोई सबूत नहीं है। मेरे प्रति समर्पण का एक ही सबूत है कि कम्यून
के प्रति भी उसका समर्पण होना चाहिए। जो मन में इस तरह की तरकीब कर रहा हो कि मेरे
प्रति समर्पण और कम्यून से क्या लेना-देना है! अरे जब भगवान को राजी कर लिया तो
कम्यून की क्या फिक्र! उस व्यक्ति को मेरे पास कोई जगह नहीं हो सकती।
यह कम्यून है ही इसलिए कि तुम प्रमाणित करो कि तुम्हारा मेरे प्रति
समर्पण है, तो कम्यून के प्रति बिलकुल ही अपने को समर्पित कर दो।
तिरोहित हो जाओ। अपने अहंकार को वहां न बचाओ।
और यह तो अभी छोटे पैमाने पर कम्यून है, जल्दी ही दस हजार,
बीस हजार, पच्चीस हजार लोग एक साथ रहेंगे। अगर
अभी से मैं इस तरह के उपद्रव को, छोटे-छोटे उपद्रव को जगह
दूंगा, तो फिर उन बीस-पच्चीस हजार लोगों को सम्हालना मुश्किल
हो जाएगा। और तुम मुझे देखते हो कि मैं सम्हालने के लिए एक क्षण के लिए भी कमरे के
बाहर ही नहीं आता। मुझे कमरे के भीतर से सम्हालना है।
तुम चमत्कारों की बातें करते हो, लेकिन तुम अंधे हो,
नहीं तो चमत्कार तुमको दिखाई पड़े। मैं कमरे में बैठा रहता हूं और
पंद्रह सौ व्यक्ति आश्रम में काम करते हैं। कहीं कोई उपद्रव है? कहीं कोई अड़चन नहीं, कोई बाधा नहीं, कोई व्यवधान नहीं, कोई विरोध नहीं। इसको ही मैं
चमत्कार कहता हूं। ये पंद्रह सौ कल पंद्रह हजार होंगे। तो मुझे थोड़ा-सा...। उस तरह
के लोगों को जरा भी जगह नहीं रखनी। एक भी सड़ी मछली सारे पानी को गंदा कर सकती है,
सारे तालाब को गंदा कर सकती है।
तो तुम उतनी तैयारी कर लो: कम्यून के प्रति समर्पण, तो तुम आज स्वीकार हो, अभी स्वीकार हो।
और तुम कहते हो, देर लगी आने में हमको, शुक्र है फिर भी आए तो!
अभी आए कहां? अभी आना है।
कहते हो, आस ने दिल का साथ न छोड़ा, वैसे
हम घबराए तो।
यह तो मैं जानता हूं कि तुम आना चाहते हो, तुम्हारी आशा है। तुम्हें आना भी है, आना भी चाहिए।
मगर थोड़ी-सी अपनी छोटी-छोटी चालबाजियां, अड़चनें छोड़ दो। और
कुछ बड़ी-बड़ी अड़चनें नहीं हैं, छोटी-छोटी अड़चनें हैं। लेकिन जहां
एक बड़े कम्यून को जन्म ले रहा हो, वहां अपने उन छोटे-छोटे
उपद्रवों को छोड़ देना चाहिए, जिनके कारण उस बड़े कम्यून के
जीवन में बाधा पड़ती हो। तुममें कुछ ऐसी बुराइयां नहीं हैं, किसी
में कुछ बुराइयां नहीं हैं। लेकिन सवाल तब खड़े होते हैं, जब
बहुत लोगों को साथ रहना हो--जहां सह-अस्तित्व का सवाल उठता है, वहां।
अकेला-अकेला तो हर आदमी अच्छा है, हर आदमी सुंदर है।
अगर तुम्हें जंगल में रहना है, तो कोई खराबी ही नहीं है।
लेकिन जहां दूसरे के साथ रहना है, वहां टकराव न हो।
मैं एक ऐसा कम्यून चाहता हूं जो प्रमाण बने, पृथ्वी पर पहली दफा प्रेम का। दुनिया में बहुत कम्यूनें बनीं, लेकिन कोई भी टिकी नहीं। यह जान कर तुम्हें आश्चर्य होगा कि यह पहली
कम्यून है, जिसके टिकने की संभावना है। अब तक कोई कम्यून सफल
नहीं हुई। बहुत कम्यून बनी हैं, लेकिन टूट क्यों गईं?
कम्यूनों का अधिकतम जीवन तीन साल रहा है पूरे मनुष्य जाति के इतिहास
में। बहुत बार प्रयोग हुए और बड़े-बड़े लोगों ने प्रयोग किए। और मेरे पास तो एक पैसा
नहीं था, तब प्रयोग शुरू किया। ऐसे लोगों ने, जैसे राबर्ट ओवेन ने प्रयोग किया।
राबर्ट ओवेन इंग्लैंड का करोड़पति था, सबसे बड़ा करोड़पति था।
उसने अपनी सारी संपत्ति में कम्यून लगा दी। फिर भी तीन साल में ठप्प हो गई। सारी
संपत्ति डूब गई। राबर्ट ओवेन भिखमंगा मरा! उसके कफन के लिए पैसे दूसरों को जुटाने
पड़े। क्या हुआ? इतना पैसा था, कम्यून
तो चल सकती थी। लेकिन गड़बड़ वहीं हो गई! पैसे के कारण बदमाश इकट्ठे हो गए--जिनके
आने का कारण पैसा था; जिनके आने का कारण कम्यून नहीं थी;
आने का कारण पैसा था। राबर्ट ओवेन का पैसा। मुफ्तखोरी। अच्छा ही है
यह। न कुछ करना, न धरना!
ओवेन के करोड़ों रुपए तीन साल में फूंक डाले लोगों ने। और जैसे-जैसे
पैसे फुंकते गए, लोग नदारद होते गए!
और यह कोई एक दफा नहीं हुआ। साइमन की कम्यून इस तरह टूटी। और अमरीका
में तो बहुत कम्यूनें बनीं और सब कम्यूनें खतम हुईं। धीरे-धीरे लोग थक ही गए।
लोगों को भी यह विश्वास आ गया कि कम्यून सफल नहीं हो सकते। लेकिन मैं कहता हूं, कम्यून सफल हो सकते हैं। उनकी आधारशिलाएं गलत थीं।
राबर्ट ओवेन की बुनियादी गलती यह थी कि उसे खुद भी न तो ध्यान था, न प्रेम था। सिर्फ एक धुन थी, एक आदर्शवादी व्यक्ति
था, एक सिद्धांतवादी व्यक्ति था। मैं न तो सिद्धांतवादी हूं,
न आदर्शवादी हूं--सिद्धांत-शून्य, आदर्श-मुक्त।
दूसरी गलती उसकी थी कि पैसे से शुरू किया। मैंने बिना पैसे के काम
शुरू किया है। तो जो कम्यून में आ रहा है, उसे समझ कर आना चाहिए
कि यह प्रेम और ध्यान का कम्यून है। यहां तुम्हें प्रेम और ध्यान के जीवन में जीना
पड़ेगा।
और मैं गलत लोगों को क्षण भर भी बर्दाश्त नहीं करता। गलत से मेरा अर्थ
यह नहीं कि वे कुछ गलत हैं। गलत से मेरा अर्थ है कि सामूहिक जीवन के लिए योग्य
नहीं हैं। उनमें ऐसी पात्रता नहीं है कि चार आदमियों के साथ मिल कर चल सकें। अकेले
चल सकते हैं। अकेले चलने में कोई अड़चन ही नहीं होती। सवाल ही वहां उठते हैं, जहां चार को साथ ले कर चलना हो। तो कभी अपनी गति कम भी करनी पड़ती है,
कभी अपनी गति ज्यादा भी करनी पड़ती है। लेकिन जो इस अकड़ में हों कि
हम तो अपनी चाल से ही चलेंगे, वे फिर कम्यून के जीवन में
नहीं जी सकते।
वही तुम्हारी भूल है दिनेश। मैं बहुत-से भारतीय मित्रों को स्वीकार
नहीं कर रहा हूं। उसका कारण यही है कि भारतीय मित्रों के आने का कारण गलत होता है।
अधिकतम भारतीय मित्र तो इसलिए आना चाहते हैं कि यह अच्छा है, न नौकरी करनी, न धंधा करना; मुफ्तखोरी
करेंगे! हालांकि वे ऐसा कहते नहीं कि हम मुफ्तखोरी करेंगे। अगर वे साफ मुझे कहें
कि हम मुफ्तखोरी करना चाहते हैं, मैं स्वीकार कर लूं उनको,
कि कम से कम आदमी ईमानदार तो है! वे कहते हैं, हम तो भाव-भक्ति करेंगे। बस, उनको मैं निकाल बाहर कर
देता हूं। भाव-भक्ति और कहीं करो, इतना बड़ा मुल्क पड़ा हुआ
है! यहां भाव-भक्ति करने की क्या जरूरत है? और यहां
भाव-भक्ति कैसे करोगे?
यहां भारतीय मित्र आते हैं, वे कहते हैं, हमें तो सिर्फ साधना में रस है। हमें कोई श्रम वगैरह नहीं करना। तो साधना
हिमालय पर जा कर करो। यहां तो श्रम भी करना होगा।
यहां भारतीय पुरानी परंपरा के साधु-संन्यासी आ जाते हैं। वे कहते हैं
कि हमें सम्मिलित कर लें। मैं उनसे पूछता हूं, तुम हमारे किस उपयोग
के हो? कम्यून में तो उपयोगिता होनी चाहिए। कोई तुम्हारी
सृजनात्मकता होनी चाहिए। और तुम अपना गांजा और अपनी भांग यहां नहीं घोंट सकोगे। और
उनका इरादा यही रहता है कि मजे से खाएंगे-पीएंगे; चिलम
भरेंगे! वही वे करते रहे हैं। तो काम नहीं चलेगा। उनको मैं स्वीकार नहीं कर सकता।
मैं स्वीकार कर सकता हूं उन मित्रों को, जो सच में ही समर्पित
होने को राजी हैं। उनको मैंने स्वीकार किया है। उनको मैं निमंत्रण दे रहा हूं।
उनको मैं कह रहा हूं: आओ! और नहीं कुछ जरूरी है कि वे धन ले कर आएं। धन कोई सवाल
ही नहीं है। बस, ध्यान और प्रेम। मगर प्रेम अनिवार्य शर्त
है।
ध्यान अकेला, व्यक्ति को निष्क्रिय कर देता है। प्रेम व्यक्ति को
सृजन देता है। अकेला ध्यान वाला धर्म निष्क्रिय हो जाता है, मुर्दा
हो जाता है। अकेला प्रेम वाला धर्म सक्रिय हो जाता है। लेकिन उसकी सक्रियता में एक
तरह का बुखार होता है, विक्षिप्तता होती है!
मैं जिस संन्यास को जन्म दे रहा हूं, वह ध्यान और प्रेम का
समन्वय है। पृथ्वी पर कभी ऐसा किया नहीं गया है। और इसलिए एक बड़ी भारी आशा है कि
अगर यह प्रयोग सफल होता है तो मनुष्य-जाति के लिए एक नया आधार मिलेगा।
दुनिया में दो तरह के धर्म रहे हैं--प्रेम के धर्म और ध्यान के धर्म।
दोनों हार गए और दोनों पराजित हो गए हैं। दोनों धराशाई हो गए। जैसे बुद्ध-धर्म, जैन-धर्म--ध्यान के धर्म हैं। ईसाइयत, इस्लाम--प्रेम
के धर्म हैं। चूंकि ईसाइयत और इस्लाम में ध्यान के लिए बहुत जगह नहीं है। जगह ही
नहीं है! प्रार्थना, प्रेम...। तो सक्रियता तो बहुत पैदा
हुई। इस्लाम की सक्रियता ने आक्रामक रूप ले लिया। वह पुरुष की सक्रियता बन गई।
उसने तलवार उठा ली। वह तलवार के बदौलत लोगों को बदलने लगा।
अब तलवार से कहीं लोग बदले जा सकते हैं? मारे जा सकते हैं,
बदले नहीं जा सकते। काटे जा सकते हैं, रूपांतरित
नहीं किए जा सकते। तो आज पृथ्वी पर जितने लोग मुसलमान हैं, उनमें
से अधिक लोग तो तलवार के बल से मुसलमान हुए हैं। इसलिए नाम के मुसलमान हैं। उनके
जीवन में कोई क्रांति नहीं हुई। वे हिंदू रहते तो भी ऐसे ही रहते, ईसाई रहते तो भी ऐसे ही रहते, जैन रहते तो भी ऐसे ही
रहते। कोई फर्क नहीं पड़ा। मगर तलवार के बल से, कायर थे,
बदल गए। मरने के बजाय उन्होंने समझौता कर लेना उचित समझा।
ईसाइयत ने उतना आक्रामक रूप नहीं लिया, क्योंकि ईसा और
मोहम्मद के व्यक्तित्व में फर्क है। मोहम्मद का व्यक्तित्व बहुत पुरुष का
व्यक्तित्व है--आक्रामक, बहिर्मुखी। ईसा का व्यक्तित्व
स्त्रैण है, कोमल है, अंतर्मुखी। इसलिए
ईसाइयत में प्रेम ने सेवा का रूप लिया। और सेवा के द्वारा लोगों को बदलने की
चेष्टा में वे संलग्न हो गए। इसलिए बड़े मिशनरी पैदा हुए और उन्होंने न मालूम कितने
लोगों को--रोटी दो, पानी दो, दवा दो,
स्कूल खोलो, अस्पताल बनाओ; और इस बहाने जो बीमार फंस गए, अनाथ फंस गए, उनको ईसाई बना लो!
अभी कलकत्ता की मदर टेरेसा बार-बार कह रही हैं कि मैं संतति-नियमन के
विरोध में हूं, गर्भपात के विरोध में हूं; इन
पर कानूनी रोक लगनी चाहिए। लगनी ही चाहिए, नहीं तो अनाथ
बच्चे कहां से मिलेंगे? और अनाथ बच्चे नहीं, तो ईसाइयत कहां? यह ईसाइयत जी रही है अनाथ बच्चों
पर! मदर टेरेसा को नोबल पुरस्कार मिला अनाथ बच्चों के कारण। अगर कलकत्ते के लोग
संतति-नियमन का उपयोग करें, तो मदर टेरेसा के पास जो बच्चों
की भीड़ इकट्ठी है, वह कहां से आए? यह
पूरी दुकान उन लोगों के कारण चल रही है, जो जरूरत से ज्यादा
बच्चे पैदा किए जा रहे हैं। हैं तो बंगाली बाबू बिलकुल फुसफुसे, मगर बच्चे पैदा किए जा रहे हैं। अब उन बच्चों को पाले कौन, पोसे कौन? तो न मालूम कितने बच्चे कलकत्ते की सड़कों
पर छोड़ दिए हैं! बस, वे बच्चे मदर टेरेसा को मिल जाते हैं।
जिनकी कोई मां नहीं है, कोई पिता नहीं है--मदर टेरेसा उनकी
मां है। और फिर उनको ईसाई बनाने में सुविधा है। जब इनके कोई मां-बाप ही नहीं हैं,
तो अब इनको ईसाई बनाने में क्या दिक्कत है? फिर
ये ईसाइयों के बीच बड़े होंगे, वही पढ़ाएंगे, वही लिखाएंगे, वही इनको भोजन देंगे, वही कपड़े देंगे। ये ईसाई होने वाले हैं। उन्हें कोई फिक्र नहीं कि सारी
दुनिया मर जाए; इस बात की फिक्र है कि ईसाइयों के स्रोत बंद
न हो जाएं। दुनिया में गरीबी रहनी चाहिए।
हिंदू पंडित हैं--करपात्री महाराज। उन्होंने एक किताब लिखी है:
रामराज्य और समाजवाद। उसमें उन्होंने समाजवाद कि खिलाफ जो दलीलें दी हैं, उसमें एक दलील यह भी है कि हिंदू शास्त्रों में लिखा हुआ है, भारतीय संस्कृति का मूल आधार है, कि दान ही धर्म है।
अगर गरीब नहीं होंगे, तो दान कौन लेगा? और जब दान ही नहीं बचेगा, तो धर्म नष्ट हो जाएगा! जब
दान ही धर्म है, तो गणित तो बिलकुल साफ है। गरीब चाहिए,
अमीर चाहिए। देने वाले चाहिए, लेने वाले
चाहिए। जब सभी समान होंगे, तो कौन लेगा दान और कौन देगा दान?
जो तुमको दान देने की कोशिश करेगा, तुम एक चपत
लगाओगे उसको कि अपनी अकल की बातें करो! किसको चाहिए दान! और जब दान ही नहीं होगा,
तो धर्म नहीं होगा। इसलिए समाजवाद का विरोध होना चाहिए।
क्या-क्या गजब के लोग पड़े हैं! गरीबी रहनी चाहिए, नहीं तो गरीबी के बिना तो मैं नष्ट हो जाएगा!
मगर एक बात मैं कहूंगा कि यह बात पते की है। हालांकि कह गए वे नासमझी
में। कह गए हैं मूढ़ता में। लेकिन बात पते की है। भूल से सच्ची बात निकल आई है। कोई
धर्म नहीं चाहता दुनिया से गरीबी मिटे, क्योंकि गरीबी मिटी,
तो धर्म मिटा।
बर्ट्रेंड रसेल कहता था कि जब तक दुनिया में गरीबी है, बीमारी है, परेशानी है, बुढ़ापा
है, विधवाएं हैं, रोग हैं, लोग सड़ रहे हैं--तब तक धर्म है। जिस दिन सभी लोग सुखी और प्रसन्न हो
जाएंगे, स्वस्थ, युवा, बुढ़ापा समाप्त हो जाएगा विज्ञान के प्रयोगों के द्वारा और कोई बीमारी की
खास जरूरत न रह जाएगी और शरीर के अंग भी जो सड़ जाएंगे, खराब
हो जाएंगे, बदले जा सकेंगे, सुविधा से
बदले जा सकेंगे; जिस दिन जीवन में लोगों के विवाह के कारण
पैदा हुए उपद्रव नहीं होंगे; जिस दिन समाज संपन्न, प्रसन्न, आनंदित होगा, स्वस्थ
होगा, प्रेम मुक्त होगा--उस दिन धर्म की क्या जगह रह जाएगी?
बर्ट्रेंड रसेल की बात में भी सचाई है। वह करपात्री से ठीक उलटी बात
है। अगर करपात्री कहते हैं, गरीब चाहिए तो धर्म बचेगा, तो
फिर बर्ट्रेंड रसेल बिलकुल ठीक कहते हैं कि गरीबी मिटी कि धर्म मिटा। मदर टेरेसा
करपात्री से राजी होंगी।
सारी दुनिया के धार्मिक आदमी राजी हैं इस बात से कि दुनिया में
परेशानी रहनी चाहिए, दुख रहना चाहिए, नहीं तो क्या
होगा धर्म का? अरे जीवन में दुख है, यही
समझा-समझा कर तो लोगों को कहते हैं कि आवागमन से छुटकारा पाओ भाई, जीवन में दुख है। जीवन में सुख ही होगा और तुमसे कोई आकर कहेगा, भैया आवागमन से छुटकरा पाओ, तो तुम कहोगे: किसलिए?
हम तो बड़े सुखी हैं! काहे को आवागमन से छुटकारा पाएं? तुम्हें दुख हो, तुम पा लो। हम आनंदित हैं।
तुमसे कोई आ कर कहेगा कि स्वर्ग में बड़ा रस है, शराब के चश्मे बहते हैं, सुंदर स्त्रियां है। तुम
कहोगे कि यहीं मौजूद हैं, क्या जरूरत स्वर्ग वगैरह जाने की?
और शराब के ही चश्मे के लिए जा रहे हो न, तो
यहां हमने अच्छी से अच्छी शराब बना ली है, अब वहां क्या
करेंगे जा कर? वहां पता नहीं, बाबा आदम
के जमाने की शराब...होगी बिलकुल ठर्रा! उसको पीएगा कौन? और
स्त्रियां भी वहां की बिलकुल गई-गुजरी होंगी! आदिवासी समझो। लाख तुम मेनका कहो,
उर्वशी कहो; मगर उनके ढंग-ढौल सब गड़बड़ होंगे।
आधुनिक स्त्री जब मौजूद हो, स्वस्थ स्त्री मौजूद हो, स्वस्थ पुरुष मौजूद हों, क्या करना जा कर तुम्हारे
बैकुंठ में? सच तो यह है, बैकुंठ में
आंदोलन चलेगा कि लोग कहेंगे कि भइया, हमें पृथ्वी पर जाना है,
कि हमें यहां रहना ही नहीं!
मैंने सुना है कि ओनासिस जब मरा...। ओनासिस यूनान का, समृद्धतम व्यक्तियों में से एक था, जिसने राष्ट्रपति
कैनेडी की विधवा जेकलीन से विवाह किया था। और भी बहुत विवाह किए थे। उसके पास अपने
द्वीप थे, अपने बड़े-बड़े जहाज थे। मेरे सामने मुक्ता बैठी है,
मुक्ता उसे जानती रही होगी। मुक्ता भी ओनासिस की दुनिया से ही आती
है। उसके पिता भी एक बहुत बड़े जहाज के मालिक थे--जहाज कंपनी के। शायद मुक्ता का
ओनासिस से कोई पारिवारिक संबंध भी रहा होगा। वे एक ही वर्ग के लोग हैं।
ओनासिस जब मरा तो कहते हैं, जब वह स्वर्ग के
द्वार पर पहुंचा, तो सेंट पीटर से उसने पूछा कि भई
पहले...इसके पहले कि मैं प्रवेश करूं, जरा मैं जानकारी चाहता
हूं: स्त्रियां ढंग-ढौल की हैं कि नहीं? सेंट पीटर ने कहा कि
आप हैं कौन? आपकी शक्ल से ऐसा लगता है, अखबारों में देखी है आपकी शकल, आप ओनासिस तो नहीं
हैं?
कहा, मैं ओनासिस हूं।
उसने कहा कि फिर जरा मुश्किल है। आपने इतनी सुंदर स्त्रियां देखी हैं, इतनी सुंदर स्त्रियों के साथ रहे हैं कि यहां की स्त्रियां आपको जरा
पुराने ढर्रे की मालूम पड़ेंगी। हैं तो, मगर उनका ढंग-ढौल
पुराना है।
शराब वगैरह?
उसने कहा कि अगर शुद्ध असली फ्रेंच शराब चाहिए हो, तो यहां कहां! तो उसने कहा, मकान वगैरह, रहने की सुविधा वगैरह?
उन्होंने कहा कि सब हैं। मगर सब पुराने ढर्रे की हैं। अभी यहां आधुनिक
ढंग के। बाथरूम नहीं बने। अभी तो नदी में स्नान करो, वहीं कपड़े सुखा लो,
और मजा करो।
ओनासिस ने कहा कि यह मामला क्या है! हम तो स्वर्ग की बड़ी बातें सुनते
रहे!
सेंट पीटर ने कहा, आपकी मर्जी हो तो अंदर आ जाओ।
एक-दो-चार दिन देख लो। मगर मैं आप से इतना कहे देता हूं कि आपको यहां कुछ जंचेगा
नहीं।
और यह बात कहानी नहीं है, यह बात सच है। ओनासिस
जैसा आदमी जाएगा तुम्हारे स्वर्ग में, क्या जंचेगा? आखिर तुम दे ही क्या सकते हो स्वर्ग में? जो विज्ञान
यहां दे सकता है, वह तुम्हारे स्वर्ग में भी नहीं मिल सकता।
तुम्हारा स्वर्ग बहुत दकियानूसी है। अभी वहां विज्ञान पहुंचा कहां! अभी वहां
एयरकंडीशनिंग तक नहीं पहुंची! बैठे रहो कल्प-वृक्ष के नीचे, और
खोपड़ी पर फल वगैरह गिर जाए, तो और अस्पताल में भरती होओ!
मनुष्य सुखी होगा, तो निश्चित ही तुम्हारे तथाकथित
धर्म मुर्दा हो जाएंगे। लेकिन मैं मानता हूं कि तब एक नए धर्म का उदय होगा,
जिसकी मैं बात कर रहा हूं। क्यों न हम इस पृथ्वी को स्वर्ग बना लें?
क्यों हम आगे की बात करें? क्यों न हम एक नए
जीवन की रचना करें?
इसलिए कम्यून कोई त्यागी-व्रतियों का कम्यून नहीं होगा। कम्यून होगा
आनंदित लोगों का; आलसियों का नहीं, सर्जकों का।
कम्यून तो स्वर्ग को धरा पर उतारने की चेष्टा है। इसलिए मैं उन लोगों को ही
स्वीकार कर सकता हूं, जिनका समर्पण समग्र है और जो मुझमें और
मेरे कम्यून में किसी तरह का फासला नहीं करते। वह चालबाजी नहीं चलेगी, कि हम आपको तो मानते हैं, लेकिन हम और कोई के नियम
नहीं मान सकते। तो अब अगर यहां दस हजार लोग रहेंगे और प्रत्येक मुझको माने और मेरी
खोपड़ी खाए चौबीस घंटे, तो वह नहीं चलेगा।
यहां कुछ लोग हैं, मुझे पत्र ही लिखते रहते हैं कि
हमें यहां रोक दिया गया, हमें यह नहीं करने दिया, हमें वह नहीं करने दिया गया! आप रुकावट क्यों नहीं डालते?
अगर मैं ऐसी छोटी-छोटी बातों में एक-एक बात की फिक्र करता फिरूं, तो फिर विनोबा जी जैसा आश्रम बना लेना चाहिए! दस-पंद्रह आदमी हुए, तो विनोबा जी जा कर उनके कमरे में भी रोज देख आते हैं कि सफाई हुई कि
नहीं। कमरे में ही नहीं, उनका पाखाना भी खुलवा कर देखते हैं
कि सफाई हुई कि नहीं! यह गोरखधंधा मुझसे नहीं हो सकता।
तुम्हें यहां उत्तरदायित्व समझना होगा।
स्वीकार हो तुम। पूरे मेरे प्रेम से स्वीकार हो। लेकिन ध्यान और प्रेम
दोनों में तुम्हें गहराई में जाना होगा, तो ही इस बात की
संभावना है कि तुम मेरे कम्यून की आधारशिला बन सको। और आज जो मेरे पास हैं,
वे आधारशिला बनने वाले हैं। इसलिए उन पर बहुत कुछ निर्भर है। बाद
में जो लोग आएंगे, वे चुपचाप इन आधारशिलाओं पर ईंटें बनते
जाएंगे। मगर अगर आधारशिलाएं गलत हुईं, तो फिर भवन निर्मित
नहीं होगा। आधारशिला तो बहुत चुन कर रखनी होगी। फिर थोड़ी कमजोर ईंटें भी चल
जाएंगी। मगर अभी तो कोई कमजोर ईंट नहीं चल सकती है।
इसलिए तैयारी हो, दिनेश भारती...। और तुम्हारे
बहाने मैं और बहुत लोगों को भी कह रहा हूं--कि तैयारी हो, तो
ध्यान और प्रेम में पूरी तरह उतरने की तैयारी करो। समर्पण समग्र हो। और मेरे प्रति
समर्पण का अर्थ होना चाहिए--कम्यून के प्रति समर्पण। तभी वह समर्पण है। फिर द्वार
खुले हैं। फिर तुम्हें कोई रोक नहीं रहा है।
दूसरा प्रश्न: भगवान, आप ज्ञान के सागर हैं। ज्ञान में इस समय आप जैसा कोई दूसरा नहीं। कृपया
मुझे भी कोई ऐसी साधना बताएं, जिसके करने से ऐसी प्रखर मेधा
उपलब्ध होती हो। मैं आपका आभारी रहूंगा।
पंडित तिलकधर शास्त्री!
हे लुधियाना निवासी। एक तो पंजाबी और फिर पंडित--करेला और नीम चढ़ा!
बड़ा खतरनाक संयोग है। क्या करोगे प्रखर मेधा का भैया? कौन-सी अड़चन आ गई है? कौन-सी मुसीबत टूट पड़ी है?
लेकिन लोग मेधा का भी उपयोग अहंकार की तृप्ति के लिए करना चाहते हैं।
उसका भी उपयोग यूं करना चाहते हैं, जैसे लोग धन का और पद
का करते हैं। प्रखर मेधा! और प्रखर मेधा तब उपलब्ध होती है, जब
अहंकार नहीं होता। इसलिए बड़ी उलझन है। गणित बड़ा उलटा है।
तुम प्रखर मेधा चाहते ही इसलिए हो कि अहंकार को आभूषण मिल जाएं, कोहिनूर तुम्हारे मुकुट में जड़ जाए। और प्रखर मेधा उपलब्ध तब होती है,
उसकी पहली शर्त यही है कि अहंकार खो जाए। अहंकार खो जाए, तो मेधा तो प्रत्येक व्यक्ति में है। अहंकार के पत्थर, अहंकार की चट्टानें तुम्हारे भीतर के चेतना के झरनों को रोके हुए हैं।
अब तुम कहते हो, आप ज्ञान के सागर हैं!
पंडित तिलकधर शास्त्री, भूल में हो। न तो मैं
सागर हूं, न बूंद। अरे बूंद भी खो गई, सागर
की तो बात ही छोड़ दो। मैं हूं ही नहीं, तो क्या सागर होऊंगा?
बूंद भी नहीं हूं। लेकिन ये हमारी आदतें स्तुति की, ये हमारी थोथी आदतें प्रशंसा की छूटती नहीं। ये हमारे खून में मिल गई हैं।
और भारत के पंडितों की तो आदत पुरानी हो गई। ये भारत के पंडित क्या
हैं, ये सब दरबारी किस्म के लोग हैं! ये राजा-महाराजाओं की
प्रशंसा के गीत गाते रहे सदियों से। इन्होंने ही राजा राम के गीत गाए। ये ही अकबर
के दरबार में उपस्थित हो गए नवरत्न बन कर। ये ही विक्रमादित्य के गीत गाते रहे।
इनसे तो तुम्हें जिसकी प्रशंसा करवानी हो, करवा लो। इनका
धंधा ही यही है--प्रशंसा करना; दूसरों के अहंकार को
फैलाना-फुलाना। और स्वभावतः, राजे-महाराजे फिर प्रसन्न हो
जाते थे इनकी स्तुतियों से। और ये क्या-क्या स्तुतियां नहीं करते थे! फिर कोई
स्तुति में सीमा मानता है! जब स्तुति ही करने बैठे हैं, तो
फिर कंजूसी क्या! अरे मुफ्त की चीज, उसमें कुछ लेना-देना तो
होता नहीं, बकवास ही करनी है। सिर्फ गर्म हवा। फुलाते गए
फुग्गे को, फिर चाहे फूट ही क्यों न जाए! फूटे तो उसके भाग्य
से, अपना क्या ले जाएगा! मगर फुग्गे फुलाने में लोग बड़े कुशल
हो गए हैं!
तुम किसी बदसूरत से बदसूरत स्त्री से कहो कि अहा, तेरा चेहरा चांद को भी मात करता है! वह भी इनकार न करेगी। वह भी कहेगी कि
तुम ही पहले आदमी हो, जो मुझे पहचाने। अब तक बहुत आदमी मिले,
मगर आंख ही नहीं है लोगों के पास। सब अंधे हैं, सब सूरदास हैं। तुम देख पाए। तुमने पहचाना।
कर्कशा से कर्कशा स्त्री से कहो कि तुम्हारी वाणी क्या है, कोकिल-कंठी हो तुम! हे कोकिल! और वह देखो क्या मुस्कुराती है! चाहे
मुस्कुराहट खी-खी-खी की ही आवाज हो, कि भूत-प्रेत डर जाएं,
कि भूत-प्रेत की छाती भी कंप जाए कि कौन माई आ गई! मगर तुम कहोगे,
फूल झर रहे हैं! अहा, क्या फूल झर रहे हैं!
हरसिंगार के फूल!
लोग अपने भीतर-भीतर ऐसी बातें सोचते ही रहते हैं कि कोई कहे। और जब
कोई कह देता है, तो फिर उनकी छाती फूल जाती है। और उनकी छाती फूल जाए,
तब तक तुम जो झटक लो उनसे झटक लो!
ईरान के बादशाह ने संदेशवाहक भेजा अकबर के दरबार में। निश्चित ही
जिसको संदेशवाहक चुना गया था, सारे दरबारी उसके खिलाफ हो गए।
स्वभावतः दरबारियों में तोर् ईष्या चलने ही वाली है--संघर्ष, जालसाजियां, षडयंत्र। एक-दूसरे को गिरा देना,
पटक देना। एक-दूसरे को खींच कर अलग कर देना, उसकी
जगह अपनी बना लेना। यह तो स्वभावतः दरबार में तो यह होने ही वाला है। राजनीति किसी
तरह की हो, वहां ये ही दांव-पेंच चलेंगे।
तो जब उसको चुन कर भेजा गया, तो बाकी दरबारियों को
तो आग लग गई--इसको चुना गया, हमको नहीं चुना गया! उन्होंने
उसके पीछे जासूस लगा दिए कि जो-जो इसके संबंध में खबरें ऐसी हों जिनसे कि राजा भड़क
जाए, इसका दुश्मन हो जाए, ऐसी हालत कर
देना कि आते-आते राजा को इतना गुस्सा आ जाए कि आते ही इसकी गर्दन काट ले। और हालत
उन्होंने ऐसी कर दी, क्योंकि उसने जा कर अकबर के दरबार में
कहा कि आप पूर्णिमा के चांद हैं!
बस, लोग आए थे पीछे, उन्होंने खबर
भेज दी कि हद्द हो गई, अपना आदमी और अकबर से कहा कि आप
पूर्णिमा के चांद हैं!
अकबर ने कहा, अगर मैं पूर्णिमा का चांद हूं तो तुम हो तो सेवक ईरान
के बादशाह के, फिर ईरान का बादशाह कौन है? दो पूर्णिमा के चांद तो नहीं हो सकते।
उस दरबारी ने कहा, महाराज, कभी
नहीं। आप पूर्णिमा के चांद हैं। ईरान का बादशाह तो दूज का चांद समझिए।
खबर पहुंच गई इस आदमी के पहले लौटने के। अकबर तो बहुत प्रसन्न हुआ, बहुत धन-दौलत दी। कई ऊंटों पर लाद कर धन-दौलत यह दरबारी लौटा। मगर ईरान के
बादशाह ने अपनी तलवार निकाल ली जब उसने यह सुना कि इस शरारती ने मुझे दूज का चांद
बताया है और अकबर को पूर्णिमा का चांद! जब यह पहुंचा दरबार में, उसने तलवार निकाल ली, उसने कहा कि गर्दन उतार लूंगा
तेरी, पहले जवाब दे। तूने क्यों अकबर को पूर्णिमा का चांद
कहा और मुझे दूज का?
उसने कहा, महाराज, तलवार म्यान में रखिए,
आप समझे नहीं। अकबर बुद्धू है। आप बुद्धू हैं? अरे दूज का चांद, इसका अर्थ होता है अभी बढ़ती-बढ़ती
होती रहेगी। अभी विकास होना है। पूर्णिमा का चांद मतलब खात्मा! अब मौत के सिवा कुछ
भी नहीं आगे।
प्रफुल्लित हो गया ईरान का बादशाह। तलवार तो म्यान में चली गई और
जितना धन यह लाया था, उससे दुगना धन इसको और भेंट किया। और उसने दरबारियों
की तरफ देखा कि समझे! अरे जिसको कला आती है, वह तो कहीं भी
होशियारी कर लेगा!
ये पंडित सब राजाओं के दरबारों में पलते रहे। इनकी भाषा में गंदगी हो
गई।
अब तुम कहते हो, आप ज्ञान के सागर हैं। मैं बूंद
भी नहीं हूं। ज्ञान वगैरह यहां कहां? महाअज्ञानी समझो मुझे।
जानता क्या हूं? जानने वाला ही नहीं बचा कोई। यह तो बांस की
पोंगरी है--पोली पोंगरी। अगर गीत हैं तो परमात्मा के, मेरे
कुछ भी नहीं। अगर कहीं कोई भूल-चूक होती हो तो वह मेरी बांस की पोंगरी के कारण
होती होगी। अगर स्वर में कोई बाधा पड़ती हो, तो वह मेरे
इरछे-तिरछेपन के कारण पड़ती होगी। लेकिन सब स्वर उसके हैं। बूंद भी वही, सागर भी वही; मेरा कुछ भी नहीं है।
तुम मुझसे ऐसी बातें पूछ रहे हो कि मैं तुम्हें कोई तरकीब बता दूं, जिससे तुम्हारी स्मृति अच्छी हो जाए, तुम्हारी मेधा
प्रखर हो जाए, तुम्हारी बुद्धि में तेज और चमक आ जाए,
कि तुम भी चमको सारी दुनिया में। मगर ध्यान रखना, मुझको सिवाय गालियों के और कुछ मिलता नहीं! मेरे जैसे चमकने के लिए तैयारी
चाहिए। मेरे जैसे चमकने के लिए हजार तरह की गालियां जगह-जगह से गालियां! मुझ जैसी
मस्ती चाहिए कि गालियों में मजा लेता हूं! गालियों में गीत खोज लेता हूं! मुझ जैसी
मस्ती चाहिए कि गालियों में मजा लेता हूं! गालियों में गीत खोज लेता हूं! गालियां
यूं सुनता हूं, जैसे मेरी प्रशंसा में गीत गाए जा रहे हों।
यह कोई सस्ता सौदा नहीं है।
और स्मृति तो मेरी कुछ अच्छी है नहीं। सब भूल-भाल जाता हूं। मगर फिक्र
किसको पड़ी है! जब अपना कुछ हिसाब ही न रखा, सब फिक्र ही उस पर
छोड़ दी, तो अब वह जाने। जो वेद में नहीं है, वेद में बता देता हूं! अपना क्या जाता है? हो तो ठीक,
न हो तो ठीक! हो तो अच्छा, न हो तो जोड़ लेना।
इस उपनिषद का उस उपनिषद में कर देता हूं। होश किसको है! यहां तो मस्ती की दुनिया
है। यहां कहां स्मृति वगैरह?
मैंने एक दिन सरदार विचित्तर सिंह से पूछा, बापे, महाभारत की कथा तो सुनाओ।
विचित्तर सिंह बोले, सुण पुत्तर! बुजुर्ग आदमी हैं,
मुझसे तो उम्र में दुगने हैं, तो उन्होंने ठीक
कहा कि सुण पुत्तर! द्रौपदी दे पंज पुत्तर। इकदा नाम युधिष्ठिर, एक अर्जुन, एक भीम, एक और...और
एक भूल गया!
मैंने कहा, विचित्तर सिंह, गजब कर दिया! कम
से कम तीन तो तुम्हें याद हैं! अरे तीन में तो सारा गणित पूरा हो जाता है! वही तो
त्रिवेणी है। मुझे तो तीन भी याद नहीं थे। तुमने अच्छा बता दिया।
मेरी कोई स्मृति तो है नहीं ठिकाने की। मेरा गणित भी बड़ा गड़बड़ है। कभी
दो और दो तीन हो जाते हैं, कभी दो और दो पांच हो जाते हैं! मेरे तर्क का तो कुछ
तुम ठिकाना ही न समझो। जो मौज हो, वह उसमें से मतलब निकाल
लेता हूं। जब जैसी मौज हो। अरे कल जो कहा, आज गलत कह दूं।
अभी-अभी जो कहा है, अभी-अभी बदल जाऊं! मैं तो क्षणजीवी हूं।
चंदूलाल जब छोटे ही थे, बच्चे ही थे, तो उनके मित्र नसरुद्दीन ने पूछा, चंदूलाल, आज तुम इतने खुश क्यों हो?
चंदूलाल ने कहा, आज हमारे यहां लड़का पैदा होगा।
नसरुद्दीन ने कहा, तुम्हें कैसे मालूम हुआ?
चंदूलाल ने कहा, पिछले साल मेरी मम्मी के पेट में
दर्द हुआ था, तो लड़की पैदा हुई थी; इस
बार मेरे डैडी के पेट में दर्द है, स्वभावतः...। साफ गणित है,
तर्क साफ है। अरे जब मम्मी के पेट में दर्द हुआ और बेटी पैदा हुई,
तो जब डैडी के पेट में दर्द हो रहा है तो लड़का ही पैदा होगा,
और क्या पैदा होगा?
ऐसा ही मेरा गणित, ऐसा ही मेरा तर्क।
एक फोटोग्राफर और सरदार विचित्तर सिंह साथ-साथ किसी बगीचे में बैठे थे।
विचित्तर सिंह बोले, तबीयत गार्डन-गार्डन हो गई! अर्थात बाग-बाग हो गई!
फोटाग्राफर तो बहुत चौका, क्या गजब की अंग्रेजी बोल रहे हैं!
क्या बाग-बाग का गार्डन-गार्डन, क्या अनुवाद किया! ऐसी ही
तुम मेरी भाषा समझो। इतने में ही एक नीग्रो वहां से निकला। उसे देख कर विचित्तर
सिंह ने कहा, देख भाई फोटोग्राफर, देख,
अरे निगेटिव जा रहा है!
तुम मेरी बातों में मत आना। मैं कोई ढंग का आदमी नहीं!
पंडित तिलकधर शास्त्री, तुम भी कहां यहां
ज्ञान का सागर खोज रहे हो! कहां की प्रखर बुद्धि, कहां की
मेधा? यहां मौज है, यहां मस्ती है। यहां
रिंदों की जमात है। पियक्कड़ों की दुनिया है। ये सब बातें यहां नहीं।
एक बस के टिकिट काउंटर के बाहर दो नोटिसें टंगी थीं--एक महिलाओं के
लिए; दूसरी, कृपया क्यू में आइए।
सरदार विचित्तर सिंह ने देखा। एक ही बार में पढ़ गए: महिलाओं के लिए कृपया क्यू में
आइए।
ऐसा ही मेरा पढ़ना-लिखना है! कुरान में बाइबिल पढ़ जाता हूं, बाइबिल में कुरान पढ़ जाता हूं!
यहां तो मिटना हो, तो कुछ रास्ता बन सकता है। यहां
मेधा को प्रखर वगैरह करने का कोई उपाय नहीं है। यहां तो डूबना हो, तो कुछ हो सकता है।
मगर पंडितों की अपनी तकलीफें हैं। डूबने से तो वे डरते हैं। अहंकार
छोड़ने से तो घबड़ाते हैं। उनका तो सारा सोचना-समझना एक ही चिंता का है कि किस तरह
और-और आभूषण जोड़ लें।
एक दूसरे पंडित ने पूछा है, भगवान, मुझे बड़ा दुख हुआ जब आपने पंडित मनसाराम शास्त्री के उत्तर में कहा कि यह
कोई धर्म-चक्र-प्रवर्तन नहीं है, बल्कि मौज-मस्ती का मेला है,
मयकदा है। क्या सृजन और क्रांति लाने के लिए मौज-मस्ती की आवश्यकता
है या अथक साधना और श्रम की? नए मनुष्य का आगमन कैसे होगा?
पूछने वाले हैं नरेंद्र वाचस्पति।
क्या तुम सोचते हो, मौज और मस्ती आसान बात है?
मौज और मस्ती अथक साधना और श्रम से मिलती है। उदास होना हो, तो न श्रम की जरूरत है, न साधना की जरूरत है।
एक पादरी समझा रहा था नए-नए दीक्षित हुए पादरियों को--जो कि धर्म
प्रचार के लिए जाने वाले थे--आखिरी सुझाव दे रहा था कि जब तुम ईश्वर के राज्य की
बातें करो तो आकाश की तरफ देखना। आंखें अहोभाव से भर जाएं। चेहरा दम-दमाता हुआ हो।
ओठों पर मुस्कुराहट हो। आनंद ही आनंद झलके! जब तुम स्वर्ग शब्द का उपयोग करो, तो इस तरह की भाव-भंगिमा प्रकट करना, तब लोग
समझेंगे।
एक पादरी ने खड़े होकर पूछा, और जब नर्क की बात
करनी हो?
तो उसने कहा कि उस हालत में तुम जैसे हो ऐसे ही खड़े हो जाना। तुम्हें
देख कर ही नर्क समझ में आ जाएगा!
नरेंद्र वाचस्पति, मेरे लिए मौज और मस्ती ही
धर्म-चक्र-प्रवर्तन है। मेरे लिए लोगों को परमात्मा को पिला देना ही, शराब की तरह पिला देना ही धर्म-चक्र-प्रवर्तन है। मगर तुम्हें धक्का लगा
होगा। तुम्हें दुख हुआ होगा।
कुछ लोग तो दुखी होने को तैयार बैठे हैं! मनहूसी शक्लें हैं उनकी।
उन्हें तो मौका मिल जाए दुखी होने का, तो छोड़ते नहीं। यहां
तक आ कर दुखी हो जाते हैं, तो हद्द हो गई! यहां, जहां दुख की कोई बात ही नहीं, जहां सुख ही सुख की
चर्चा है! लेकिन यहां भी वे अपनी तरकीबें खोजते रहते हैं कि दुखी कैसे होना।
त्यागत्तपश्चर्या, साधना, अथक साधना,
श्रम!
तुम्हारी मर्जी भैया, पत्थर तोड़ो! सिर के बल खड़े रहो!
भूखे मरो! तुम्हें जो करना हो, करो। मगर मेरे लिए तो साधना
सिर्फ एक है कि तुम्हारे जीवन में जितना आनंद झर सके, तुम्हारा
जीवन जितना प्रफुल्लित हो सके, तुम्हारे प्राणों के फूल
जितने खिल सकें। और एक ही श्रम है। मैं उसको ही श्रम कहता हूं, जिससे तुम्हारा सहस्रदल-कमल खुल जाए, तुम्हारी सुगंध
बिखर जाए, तुम्हारा दीया जले, रोशनी
झलझला उठे। और ऐसा ही नहीं कि तुम्हारा ही दीया जले; दीए से
दीए जलते जाएं, दीवाली हो जाए।
मेरी बातों को समझने की कोशिश करो। दुखी होना हो, तुम्हारी मर्जी। और ज्यादा धक्का लग जाए, तो ससून
हास्पिटल है, वहां भर्ती हो जाना! चिकित्सा करवा लेना। यहां
दुर्घटनाएं तो कई होती हैं। पंडितों को अकसर हो जाती हैं। अब तुम वाचस्पति हो,
खतरा है ही। यहां पंडितों की जगह नहीं। यहां पंडितों की गर्दन कट
जाती है। देखा, पंडित मनसाराम की कटी! अभी पंडित तिलकधर की
कटी, अब तुम फंस गए!
नए मनुष्य का जन्म ही मौज और मस्ती से होगा। पुराना मनुष्य सड़ा-गला
मनुष्य था। वह जी लिया खूब साधना करके, खूब श्रम करके,
उदास हो कर। तपश्चर्या, त्याग, व्रत उसकी आधारशिलाएं थीं। उस मनुष्य ने मनुष्य-जाति को कुछ भी नहीं दिया।
न फूल खिले, न दीए जले। न होली हुई, न
दीवाली हुई।
यहां तो हम एक नई ही मनुष्य के जन्म की प्रक्रिया को निर्मित कर रहे
हैं, कि हर दिन होली, हर दिन दीवाली!
यह तो एक बगिया है, जहां फूल पर फूल खिलने हैं।
तो मैं फिर दोहरा दूं कि हमारा तो धर्म-चक्र-प्रवर्तन यही है: मौज हो, मस्ती हो। मंदिर नहीं चाहिए, मयकदा चाहिए। तीर्थ
नहीं चाहिए--मधुशालाएं। और यहां साकी इकट्ठे हैं और पिलाने का पूरा आयोजन है। अब
तुम ओंठ सी कर बैठे हो, तुम्हारी मर्जी। तुम हकदार हो,
दुखी रहना चाहो दुखी रहो। तुम मालिक हो, आनंदित
होना चाहो आनंदित हो जाओ। स्वर्ग और नर्क दोनों के द्वार खुले हैं, जिसमें प्रवेश करना हो।
आज इतना ही।
श्री रजनीश आश्रम, पूना, प्रातः, दिनांक २९ जुलाई,
१९८०
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