जीवन संगीत-(साधना-शिविर)
ओशो
नौवां-प्रवचन
मेरे प्रिय आत्मन्!
तीन दिनों की चर्चाओं के संबंध में बहुत से प्रश्न मित्रों ने भेजे
हैं। जितने प्रश्नों के उत्तर संभव हो सकेंगे, मैं देने की कोशिश
करूंगा।
एक मित्र ने पूछा है कि आप नये विचारों की
क्रांति की बात कहते हैं। क्या अब भी कभी हो सकता है जो पहले नहीं हुआ है? इस पृथ्वी पर सभी कुछ पुराना है, नया क्या है?
इस संबंध में जो पहली बात आपसे कहना चाहता हूं, वह यह कि इस पृथ्वी पर सभी कुछ नया है, पुराना क्या
है? पुराना एक क्षण नहीं बचता, नया
प्रतिक्षण जन्म लेता है। पुराने का जो भ्रम पैदा होता है, इसलिए
पैदा होता है, कि हम दो के बीच जो अंतर है, उसे नहीं देख पाते।
कल सुबह भी सूरज ऊगा था, कल सुबह भी आकाश में
बादल छाए थे, कल सुबह भी हवाएं चली थीं। और आज भी सूरज ऊगा
और बादल छाए और हवाएं चली थीं। और हम कहते हैं, वही है!
लेकिन जरा भी वही नहीं है।
जैसे बादल कल सुबह बने थे, वैसे अब कभी भी इस
पृथ्वी पर दुबारा नहीं बनेंगे। और जैसी हवाएं कल संध्या बही थीं, वैसी हवाएं आज नहीं बह रही हैं। कल सांझ आप आए थे, सोचते
होंगे वही आज आप फिर आ गए हैं? न तो मैं वही हूं, न तो आप वही हैं। चौबीस घंटे में गंगा का बहुत पानी बह चुका है।
प्रतिपल सब कुछ नया है। पुराने को परमात्मा बर्दाश्त ही नहीं करता है।
एक क्षण बर्दाश्त नहीं करता। जीवन का अर्थ ही यही है। जीवन का अर्थ है, जो नित नया होता चला जाता है। लेकिन मनुष्य ने ऐसी कोशिश करने की जरूर
हिम्मत की है कि पुराने को बचाने की चेष्टा में भी, उस दिशा
में भी उसने काम किया है।
परमात्मा तो पुराने को बचाता ही नहीं, लेकिन आदमी जरूर
पुराने को बचाने की कोशिश करते हैं। और इसीलिए आदमी का समाज जिंदा समाज नहीं है,
एक मरा हुआ समाज है। और जो देश पुराने को बचाने की जितनी कोशिश करता
है, वह उतना ही मरा हुआ देश होता है। यह हमारा देश मरे हुए
देशों में से एक है।
हम बहुत गौरव करते हैं इस बात का, कि बेबीलोन न रहा,
सीरिया न रहा, मिश्र न रहा--लेकिन हम हैं।
लेकिन कोई गौर से देखेगा तो पाएगा, कि वे इसलिए न रहे,
कि वे बदल गए, नये हो गए और हम इसलिए हैं,
क्योंकि हम बदले नहीं और पुराने होने की हमने भरसक चेष्टा की है।
अगर हम बदले भी हैं, तो हम परमात्मा की जोर-जबर्दस्ती से!
अपनी कोशिश तो यही रही, कि हम बदल न जाएं। वही बना रहे जो
था।
बैलगाड़ी अगर छूट रही है, तो कोई हमारे कारण
नहीं। हम तो छाती से पूरी ताकत लगा कर, सारे महात्मा और सारे
सज्जन और सब नेता मिल कर बैलगाड़ी को बचाने की कोशिश करते हैं। लेकिन भगवान नहीं
मानता और जेट, ट्रेन पैदा किए चला जाता है। और हम घसिटते चले
जा रहे हैं नये की तरफ। नये की तरफ जाना हमारी जैसे मजबूरी है। सारी दुनिया में
उलटा है, सारी दुनिया में पुराने के साथ रहना मजबूरी है।
हमारे साथ नये की तरफ जाना मजबूरी है।
सारी दुनिया में नये को लाने का आमंत्रण है। हम नये को स्वीकार करते
हैं ऐसे, जैसे वह पराजय हो! इसीलिए पांच हजार वर्ष पुरानी
संस्कृति तीन सौ वर्ष, पचास वर्ष पुरानी संस्कृतियों के साथ
हाथ जोड़ कर भीख मांगती है, और हमें कोई शर्म भी नहीं मालूम
होती है।
पांच हजार वर्ष से तो कम से कम हम हैं, ज्यादा ही वर्षों से
हैं, लेकिन ज्ञात इतिहास कम से कम पांच हजार वर्षों का है।
हम पांच हजार वर्षों में इस योग्य भी न हो सके, कि गेहूं
पूरा हो सके, कि मकान पूरे हो सकें, कि
कपड़ा पूरा हो सके।
अमरीका की कुल उम्र तीन सौ वर्ष है। तीन सौ वर्ष में अमरीका इस योग्य
हो गया है कि सारी दुनिया के पेट को भरे। और रूस की उम्र तो केवल पचास वर्ष ही है।
पचास वर्ष में रूस गरीब मुल्कों की कतार से हट कर अमीर मुल्कों की आखिरी कतार में
खड़ा हो गया है। पचास वर्ष पहले जिसके बच्चे भूखे थे, आज उसके बच्चे
चांदत्तारों पर जाने की योजनाएं बनाने लगे हैं। पचास सालों में क्या हो गया है?
कोई जादू सीख गए हैं वे! जादू नहीं सीख गए हैं, उन्होंने एक राज सीख लिया कि पुराने से चिपके रहने वाली कौम धीरे-धीरे
मरती है, सड़ती है, गलती है।
नये का निमंत्रण, नये का आमंत्रण, नये का बुलावा, नये की चुनौती और जितनी जल्दी हो सके,
नये को लाओ, पुराने को विदा करो। इस सीक्रेट
को, इस राज को वे सीख गए। इसका परिणाम यह हुआ है, कि वे जीवंत हैं। हम? हम करीब-करीब मरे-मरे मुर्दा
हो गए हैं।
वह मित्र पूछते हैं कि नया क्या कुछ आ सकता है?
एक कहानी मुझे याद आती है। कहानी आपने भी सुनी होगी जरूर। सुना होगा
जरूर कि चूहों ने एक दफा बैठक की है, और विचार किया कि
कैसे बचें बिल्ली से। किसी समझदार चूहे ने सलाह दी, और
समझदार चूहे इसी तरह की सलाहें देते हैं। सलाहें तो बड़ी अच्छी होती हैं, पूरी नहीं हो सकती हैं। यही समझदार चूहों के साथ तकलीफ होती है।
समझदार चूहे ने कहा, घंटी बांध दो बिल्ली के गले में।
सबने ताली पीटी और कहा, बिलकुल ठीक है, लेकिन सवाल है कि गले में कौन घंटी बांधेगा?
समझदार चूहे ने कहा कि हम तो थ्योरी बताते हैं, सिद्धांत बताते हैं, व्यवहार तुम खोजो। हमारा काम
सिद्धांत बनाना है। हमने सिद्धांत बना दिया अब तुम खोजो। बात इतनी है कि घंटी बांध
दो, खतरा नहीं रहेगा। बिल्ली आएगी, घंटी
बजेगी, चूहे सावधान हो जाएंगे। फिर यह बात चूहों के शास्त्र
में लिख ली गई।
ऐसा हजारों साल पहले की बात है। और हर बार जब भी सवाल उठता है, बिल्ली से कैसे बचें? चूहे कहते हैं, अपनी पुरानी किताब में देखो। पुरानी किताब खोलते हैं, उसमें लिखा है, घंटी बांध दो। चूहे कहते हैं,
बात तो बिलकुल सच है, बाप-दादों से सुनी है कि
घंटी बांध देनी चाहिए, लेकिन घंटी कौन बांधे? इसी सवाल पर ही अटक जाते हैं।
अभी फिर ऐसा हुआ। कुछ दिन पहले चूहों ने फिर सभा की। उन्होंने कहा, अब तो बहुत मुसीबत हो गई। बिल्ली बहुत सता रही है। फिर वही पुरानी
किताब...।
तो दो नये लड़कों ने कहा, नये लड़के थे, नये चूहे थे, कालेज में पढ़ते होंगे। उन्होंने कहा,
छोड़ो बकवास पुरानी किताब की, बहुत हो गया,
वही बात, वही पुरानी किताब, फिर वही सवाल आ जाएगा। फिर भी उन्होंने कहा, बिना
शास्त्र देखे हम नहीं जा सकते। नया कुछ दुनिया में कभी हुआ है? जो भी हुआ है, बाप-दादे लिख गए हैं और उससे आगे कुछ
हो सकता है? पर हमारे बाप-दादे अज्ञानी थे? इतने ज्ञानी थे कि वह सब बातें जानते थे, सर्वज्ञ
थे। उन्होंने लिखा हुआ है, कि घंटी बांधो। शास्त्र खोला गया,
फिर बात वहीं अटक गई। शास्त्र खोलने वाले हमेशा वहीं अटक जाते हैं,
जहां सदा से अटके रहे हैं; आगे बढ़ते नहीं। फिर
वही सवाल, घंटी कौन बांधे?
उन चूहों ने कहा, बकवास बंद करो। हम घंटी बांध
देंगे। नये लड़के थे। बूढ़े चूहों ने कहा, पागल हो गए हो,
बिगड़ गए हो? कभी घंटी बंधी है आज तक, कभी ऐसा हुआ है? कभी सुना है कि चूहों ने कभी घंटी
बांधी हो बिल्ली के गले में! ऐसा कभी नहीं हुआ है, न कभी हो
सकता है। उन चूहों ने कहा, बातचीत बंद, कल घंटी बंध जाएगी।
उस सुबह बड़ा आश्चर्य हुआ कि बिल्ली के गले में घंटी बंध गई। चूहे, बड़े पुराने चूहे, बड़े हैरान हुए। उन्होंने कहा,
बड़ी अजीब बात है, घंटी बंधी कैसे? उन नये लड़कों ने कहा, इसमें कोई खास बात नहीं थी।
दोनों नये चूहों का एक दवा की दुकान में आना-जाना था। वे नींद की गोली उठा लाए और
जिस घर में बिल्ली दूध पीती थी, उसमें डाल दी। फिर मामला तो
हल हो गया। बिल्ली बेहोश हो गई। घंटी चूहों ने बांध दी! लेकिन पुराने चूहे सदा यही
कहते रहे कि कहीं नया कुछ हुआ है? कहीं घंटी बंधी है?
अब घंटी चूहों ने बांध दी!
आपके गांव में बांधी या नहीं, मुझे पता नहीं!
तरहत्तरह के गांव हैं, और राजस्थान के गांव तो एकदम पिछड़े
हैं। यहां के चूहों ने शायद ही घंटी बांधी हो! और वही सोचते चले जाते हैं, कहीं नया कुछ होता है? विचार की क्रांति कहीं हुई है?
दुनिया में सदा विचार की क्रांति होती रही है, सिर्फ इस देश को छोड़ कर। हम ही एक अभागे देश हैं, जहां
हम सोचते ही नहीं कि नया हो सकता है। और नये की बात उठे, तो
और फौरन हमारे सवाल होंगे--चांद पर बस्ती बनेगी? रूस के
बच्चे चांद पर बस्ती बनाने की बातें सोचते हैं, अमरीका के
बच्चे अंतरिक्ष में यात्राएं करने के सपने देखते हैं, और
हमारे बच्चे? हमारे बच्चे रामलीला देखते हैं।
रामलीला देखना कुछ बुरा नहीं है, राम बड़े प्यारे हैं,
और कभी-कभी उन्हें देखा जाए तो बहुत सुखद है, लेकिन
रामलीला ही देखते रहना खतरनाक है। यह वृत्ति बुरी है। न केवल रामलीला देखते हैं,
बल्कि राम-राज्य लाने की बातें भी करते हैं।
कुछ ऐसा हमें भ्रम हो गया है, कि पीछे सब अच्छा हो
चुका है। यह गलत है बात। पीछे सब अच्छा नहीं हो चुका है। पीछे जो भी हुआ है,
उससे अच्छा सदा आगे हो सकता है, क्योंकि हम
पीछे से ज्यादा अनुभवी होकर बाहर आते हैं, हमेशा ज्यादा
अनुभवी होकर बाहर आते हैं। आखिर समय बीतता है, इतिहास बीतता
है, हम कुछ सीखते हैं। कि हममें सीखने की बिलकुल क्षमता ही
नहीं है।
राम-राज्य फिर से नहीं ले आना है। अब तो हम नये राज्य लाएंगे, जिन पर अगर राम भी उतर कर आएं, तो चौंक कर देखेंगे
कि क्या हो गया! लेकिन हमें यह खयाल है, कि पीछे सब अच्छा हो
चुका है। यह बिलकुल गलत खयाल है। इस गलत खयाल की वजह से हम अतीत से, पुराने से बंधे रहते हैं। और नये को सोच भी नहीं पाते।
इस देश में हम सबकी यह धारणा है, कि स्वर्णयुग हो चुका
है। वह जो गोल्डन एज है, हो चुकी है। दूसरे मुल्क सोचते हैं
गोल्डन एज, स्वर्णयुग आने वाला है, आएगा।
इससे फर्क पड़ता है। जो सोचते हैं आने वाला है, वे लाने की
कोशिश करते हैं। जो सोचते हैं--हो चुका, वे आंख बंद करके बैठ
जाते हैं। वे कहते हैं, हो ही चुका। वह आना नहीं है। अब तो
रोज-रोज पतन होना है। कलियुग, और कलियुग, और कलियुग आएगा...अंधेरा, अंधेरा और प्रलय...।
इस मुल्क में जाएं तो इस मुल्क में जो भी लोगों को समझाता है कि
महाप्रलय आ रही है, वह एकदम गुरु हो जाता है। और लोग मिल जाते हैं,
कहते हैं सच्ची बात है। सब चीजें बिगड़ती जा रही हैं, सब बिगड़ता जा रहा है, सब खराब होता जा रहा है।
महाप्रलय आ रही है। सब बुरे दिन आने वाले हैं। और ये बुरे दिन इसलिए नहीं आ रहे
हैं कि आने वाले हैं, यह इसलिए आ रहे हैं कि हम अच्छे दिन
बनाने की क्षमता नहीं जुटा पाते हैं।
और ये इसलिए आ रहे हैं, कि सारे मुल्क का
चित्त काहिल, कमजोर और इतना डरा हुआ हो गया है कि वह कहता है
कि जो है, उसको ही पकड़े रहो, कहीं वह न
खो जाए। नया कुछ हो नहीं सकता, पुराने मकान में ही रहे जाओ।
अगर गिरने का डर लगता है, तो राम-राम जपो। उसी में सब तरह से
लकड़ियां लगा कर इंतजाम कर लो सुरक्षा का, लेकिन छोड़ो मत।
कहीं पुराना चला गया और नया न बना, तो क्या होगा? डर इतना ज्यादा है! इस डर के भी कुछ कारण हैं। वह भी कारण समझ लेना जरूरी
है।
पहली तो, एक यह बात झूठी प्रचारित की गई है, कि पहले सब अच्छा था। यह बात बिलकुल झूठी है। लेकिन इसके पैदा होने की कुछ
वजह हैं, और बड़ी वजह यह है, जैसे आज से
हजार साल बाद, दो हजार साल बाद न कोई मुझे याद रखेगा,
न आपको कोई याद रखेगा। एक आदमी हुआ हमारे बीच--उसका नाम याद रखेगा।
दो हजार साल बाद लोग उसे याद करेंगे। और तब वे क्या सोचेंगे?
सोचेंगे गांधी के साथ, गांधी के जमाने के
लोग कैसे अदभुत रहे होंगे। और जमाने के लोग हम हैं! हम तो भूल जाएंगे, हमारा तो कोई इतिहास नहीं, हिसाब नहीं होगा। हमारे
लिए तो कोई किताब लिख कर रख नहीं जाएगा, कि हम कैसे आदमी हैं?
असली आदमी हम हैं, और गांधी सिर्फ अपवाद हैं--एक्सेप्शन
हैं। कोई नियम नहीं हैं। वह जो अपवाद हैं, वह तो रह जाएंगे
और हम जो असली हैं, खो जाएंगे। और उनके नाम से हम याद किए
जाएंगे, कि गांधी जी का युग था!
लोग कहेंगे गांधी जैसा आदमी...और कैसे बढ़िया लोग रहे होंगे? कैसी अहिंसा रही होगी! कैसा प्रेम रहा होगा! कहां का प्रेम और कहां की
अहिंसा। ठीक यही भूल हमेशा होती रही है। राम हमको याद रह गए हैं। राम के आस-पास जो
असली आदमियों की भीड़ थी, उसका कोई ठिकाना नहीं, उसका कोई हिसाब नहीं। भीड़ क्या थी?
राम के आधार पर हम सोचते हैं, कि राम के जमाने के
लोग अच्छे रहे होंगे। बुद्ध के आधार पर सोचते हैं, कि बुद्ध
के जमाने के लोग अच्छे रहे होंगे। यह बात गलत है। बुद्ध को आधार बना कर मत सोचिए,
क्योंकि मेरा कहना है, कि अगर बुद्ध और महावीर
के जमाने के लोग बहुत अच्छे रहे होते, तो बुद्ध और महावीर की
याद भी न रह जाती।
याद सिर्फ उनकी रहती है जो अपवाद हैं, याद सब की नहीं रहती।
अगर सोच लें, हिंदुस्तान में गांधी जैसे दस हजार आदमी होते,
ज्यादा नहीं, तो मोहनदास करमचंद्र गांधी का
कोई पता रखना आसान होता? खो गए होते कहीं! जहां दस हजार
गांधी जैसे अच्छे आदमी हों, वहां कौन एक मोहनदास करमचंद्र
गांधी को याद रखेगा! वह तो महावीर या बुद्ध बिलकुल अकेले हैं, करोड़ों में, अरबों में इसलिए याद हैं, नहीं तो भूल जाते।
मेरा कहना यही है कि यह उनकी याददाश्त बताती है, कि वह अकेले और न्यून रहे होंगे और उनकी याददाश्त यह भी बताती है कि जिन
लोगों में वे चमक कर दिखाई पड़े होंगे, वे लोग उनसे उलटे रहे
होंगे। नहीं तो चमत्कार नहीं दिखाई पड़ सकते।
स्कूल में चले जाएं, छोटा सा प्राइमरी स्कूल का
शिक्षक भी जो जानता है, वह भी हम नहीं जानते। वह सफेद दीवाल
पर नहीं लिखता है सफेद खड़िया से। लिख तो सकता है, लिख जाएगा,
लेकिन पढ़ा नहीं जाएगा। काले बोर्ड पर लिख रहे हैं, सफेद खड़िया से लिख रहे हैं। सफेद खड़िया काले बोर्ड पर चमक कर दिखाई पड़ती
है। ये राम, बुद्ध, कृष्ण, महावीर--ये सब काले ब्लैक-बोर्ड पर समाज के चमक कर दिखाई पड़ रहे हैं,
ये कभी नहीं दिखाई पड़ सकते थे।
ये जितने महात्मा हैं, अगर हीन समाज न हो,
तो कभी दिखाई नहीं पड़ सकते; हों तो भी दिखाई
नहीं पड़ सकते। महात्मा के पैदा होने के लिए हीन समाज जरूरी है, नहीं तो महात्मा पैदा नहीं हो सकता। हीन समाज का ब्लैक-बोर्ड चाहिए,
तब उस पर महात्मा दिखाई पड़ेगा, नहीं तो दिखाई
नहीं पड़ेगा। हो पैदा, तो भी दिखाई नहीं पड़ सकता।
इसलिए मैं कहता हूं, जिस दिन महान समाज पैदा होगा,
उस दिन महान मनुष्य पैदा होने बंद हो जाएंगे। बंद नहीं हो जाएंगे,
दिखाई पड़ने बंद हो जाएंगे। जिस दिन महान मनुष्यता पैदा होगी,
उस दिन महात्माओं का युग समाप्त हो जाएगा, फिर
उनकी कोई जरूरत नहीं है। होंगे पैदा जरूर, लेकिन उनको खोजा
भी नहीं जा सकता।
अगर हम गौर से देखें, बुद्ध और महावीर की शिक्षाएं
देखें, कनफ्यूशियस और लाओत्से की शिक्षाएं देखें, मोहम्मद, मूसा, जरथुस्त्र की
शिक्षाएं देखें, तो शिक्षाओं में क्या है? एक बड़े मजे की बात है!
महावीर सुबह से सांझ तक लोगों को समझाते हैं, चोरी मत करो, हिंसा मत करो, दूसरे
की औरत मत भगाओ, बेईमानी मत करो। यह किन लोगों को समझा रहे
हैं? अच्छे लोगों को? दिमाग खराब था जो
अच्छे लोगों को ऐसी बातें सिखा रहे थे! और चौबीस घंटे यही राग है--चाहे महावीर हों,
चाहे बुद्ध हों--यही बात चल रही है--चोरी मत करो, बेईमानी मत करो, हिंसा मत करो, मारो मत, झूठ मत बोलो। किसको समझा रहे हैं?
दो ही रास्ते हैं। या तो ऐसे आदमी रहे हों, जिनको समझाना जरूरी है, और एक दिन समझाना नहीं,
दिन-रात यही समझाना और या फिर इनका दिमाग खराब रहा हो और ये फिक्र
ही न करते हों, कि किससे बात कर रहे हैं।
मैंने सुना है, एक चर्च में एक फकीर को निमंत्रण दिया है बोलने के
लिए और कहा है सत्य पर बोलो। उस फकीर ने कहा, चर्च में और
सत्य पर! क्यों बोलूं? सत्य वगैरह पर तो कारागृह में बोलना
चाहिए कैदियों के बीच। यह तो चर्च है, मंदिर है, यहां तो सब अच्छे लोग इकट्ठे हुए हैं। यहां सत्य पर बोलूंगा तो लोग मुझे
पागल कहेंगे। नहीं, मुझे क्षमा करो। लेकिन चर्च के लोग नहीं
माने। उन्होंने कहा, नहीं, आप सत्य पर
हमें जरूर समझाइए।
उस फकीर ने कहा, बड़ी अजीब बात है। फिर भी आप कहते
हैं, तो मैं एक प्रश्न पूछता हूं। तुम सबने बाइबिल पढ़ी है?
सब लोगों ने कहा, हमने बाइबिल पढ़ी है, हाथ उठा दिए।
उसने पूछा, तुमने बाइबिल में ल्यूक का उनहत्तरवां अध्याय पढ़ा है?
उन सबने हाथ उठा दिए, सिर्फ एक आदमी को छोड़ कर।
उसने कहा, तब ठीक है, मुझे सत्य पर बोलना
चाहिए। और मैं तुम्हें बता दूं, ल्यूक का उनहत्तरवां अध्याय
जैसा अध्याय बाइबिल में है ही नहीं! और आप सबने पढ़ा है! अब ठीक है, अब मैं समझ गया कि किस तरह के लोग यहां चर्च में इकट्ठे हैं।
फकीर नासमझ होगा। चर्च में हमेशा इसी तरह के लोग इकट्ठे होते हैं।
धार्मिक स्थानों में अधार्मिकों के सिवाय कोई भी इकट्ठा नहीं होता है।
तीर्थस्थानों में पापियों के जमघट के सिवाय किसी का जमघट नहीं होता। प्रार्थना और
पूजा सिवाय बेईमानों के और कोई भी नहीं करते। वह जो हमारा दिमाग है, उलटा है। वह जो पाप कर लेता है, वह कहता है पूजा करो,
क्योंकि पूजा करके पाप को मिटाना है। वह जो यहां गङ्ढा करता है,
वहां ठेर उठाता है, कि इंतजाम करना जरूरी है।
उस फकीर ने कहा, ठीक है, लेकिन
मुझे बड़ी हैरानी है, कि एक आदमी ने हाथ क्यों नहीं उठाया! यह
सच्चा बोलने वाला चर्च में कहां से आ गया?
उसने कहा, मेरे भाई, धन्यवाद तुम्हारा कि
तुम यहां आए हो। वह सामने ही बैठा था, बूढ़ा आदमी था।
उसने कहा, आपने हाथ क्यों नहीं उठाया?
उस आदमी ने कहा, माफ करिए, मुझे
जरा कम सुनाई पड़ता है, क्या आपने पूछा, उनहत्तरवां अध्याय ल्यूक का? रोज पाठ करता हूं। यह
मैं समझ नहीं सका, तो मैंने सोचा, बिना
समझे हाथ क्यों उठाऊं?
दुनिया में जिन महापुरुषों के आधार पर हम उनके जमाने को बहुत बड़ा
मानते हैं, वे उन लोगों को क्या समझाते हैं, लोग क्या समझते हैं? उनकी शिक्षाएं गवाही हैं इस बात
की कि लोग अच्छे नहीं थे। लेकिन यह भ्रम चलता है। और यह भ्रम न मिट जाए, तो हम नये समाज और नये आदमी को पैदा नहीं कर सकते।
मैं आपसे कहता हूं, नया निरंतर पैदा होता है,
अगर हम बाधा न डालें तो नया पैदा होगा ही। लेकिन हम बाधा डालते हैं।
हम रुकावट डालते हैं। हम कोशिश करते हैं पुराने को बचाने की। और यह पुराने को
बचाने की जो कोशिश है, यह धीरे-धीरे ऐसी रुग्ण, सड़ी हुई व्यवस्था बना देती है कि उसके भीतर जीना भी मुश्किल हो जाता है,
मरना भी मुश्किल हो जाता है। ऐसी हालत देश की हो गई है।
नया ज्ञान चाहिए। नये जीवन के नियम चाहिए। फिर रोज नया चाहिए, क्योंकि कोई भी पुराना नियम थोड़े दिन के बाद खतरनाक हो जाता है।
वैसे जैसे कि हम छोटे बच्चे को पायजामा पहनाते हैं, लेकिन लड़का तो बड़ा होता जाता है। फिर हम कहते हैं, पायजामा
वही पहनो। हम वे लोग हैं जो एक दफा तय कर लिया तो तय कर लिया। अब उसकी जान निकलती
है--या तो पायजामा बदले और नहीं तो वह बड़ा होता जाता है, पायजामा
बड़ा होता नहीं! कोई नियम बड़ा नहीं होता। क्योंकि नियम तो जड़ हैं। वे कसे रह जाते
हैं और वह पायजामा छोटा पड़ गया और आदमी बड़ा होता जा रहा है। अब वह कहता है,
बड़ी मुश्किल में डाल दी, यह पायजामा हमारी जान
लिए ले रहा है।
अब दो ही रास्ते हैं उसके पास, या तो वह नंगा खड़ा हो
जाए और या फिर पायजामा बदले। पायजामा बदलने नहीं देते, तो
फिर वह नंगा खड़ा होने की कोशिश करता है। और यह हिंदुस्तान के समाज में इतना नंगापन,
इतना ओछापन, इतनी मीनिंगलेस, इतना काइयांपन पैदा हुआ, उसका कारण है।
पुराने सब नियम छोटे पड़ गए। नया नियम हम बनाते नहीं और पुराना नियम
बदलना नहीं चाहते। तो फिर आदमी बिना नियम के खड़े होने की कोशिश करता है। वह कहता
है कम से कम जिंदा तो रहने दो। हम जिंदा तो रहेंगे, आपका नियम अपने पास
रखो आप। और या फिर यह होता है, कि आदमी पाखंडी हो जाता है,
हिपोक्रेट हो जाता है। ऊपर से दिखाता है कि नियम बिलकुल ठीक है,
हम बिलकुल मानते हैं और भीतर नियम से उलटा चलता है।
इस देश में हर आदमी दोहरा हो गया है। एक-एक आदमी के भीतर दो-दो आदमी
हैं। एक वह आदमी है, जो बाहर दिखाने के काम के लिए तैयार रखा जाता है। जब
जरूरत हुई, उस आदमी को ओढ़ लिया, निकल
पड़े। घर आए आदमी निकाल कर एक तरफ रखा, नकली आदमी काम करने
लगा। असली आदमी काम करता है, नकली आदमी ओढ़ने के मतलब आता है।
इस पूरे देश की व्यवस्था ने ऐसी हालत खराब कर दी है, क्योंकि
नियम ऐसे जड़ हो गए हैं कि वे हिलने नहीं देते और हिलना तो पड़ेगा ही।
तो मैं आपसे कहना चाहता हूं, कि नये चिंतन,
नये समाज, नयी क्रांति, इन
सब दिशाओं में सोचने के लिए मन के द्वार खुले रखिए। ऐसा मत सोचिए, कि यह सब पुराना है, इसलिए नये की कोई जरूरत नहीं
हैं। कुछ भी पुराना नहीं है, रोज नये की जरूरत है।
एक मित्र ने पूछा है कि क्या एक-एक आदमी को स्वयं ही सत्य की खोज करनी
पड़ेगी? क्या जो खोजे गए सत्य हैं वे हमारे किसी काम के नहीं
हैं?
यह मामला कुछ थोड़ा सा नाजुक है। नाजुक इसलिए है, कि सत्य कोई ऐसी चीज ही नहीं है, कि कोई और आपको दे
दे। सत्य अगर कोई ऐसी चीज होती कि बाजार में दुकान खुली होती और वहां सत्य बिकता
होता, हालांकि दुकानें खुली होती हैं और वहां सत्य बिक रहे
हैं। हिंदुओं की दुकानें हैं, मुसलमानों की दुकानें हैं,
ईसाइयों की हैं, इन सबकी दुकानें हैं। और कुछ
नई-नई दुकानें भी खुली हैं। उन सब दुकानों में वे कहते हैं, सत्य
यहां बिकता है।
लेकिन सत्य न बिक सकता है, न किसी दूसरे से मिल
सकता है। सत्य को पाने के लिए जो साधना है, उस साधना से बिना
गुजरे, सत्य का कोई अनुभव नहीं है। उससे गुजर कर ही वह मिलता
है।
एक फकीर के पास एक आदमी गया और उस फकीर से उसने कहा, मैं दुनिया में सबसे सुखी आदमी से मिलना चाहता हूं। मैं बहुत परेशान हो
गया हूं। मुझे ऐसा लगता है कि मुझसे ज्यादा दुखी कोई भी नहीं है। फिर मुझे यह खयाल
आता है, हो सकता है, सभी दुखी हों। मैं
उस आदमी को खोजना चाहता हूं जो सबसे ज्यादा सुखी हो। उस फकीर ने कहा, तुम जाओ, इस जगह खोजो। ऐसे-ऐसे खोजते हुए उस पहाड़ पर
जाना, उस चोटी पर, वहां तुमको आदमी मिल
जाएगा।
वह चोटी बड़ी दूर थी, वह पहाड़ बड़ा दूर था। उसका जो
रास्ता उसने बताया था, वह बड़ा लंबा था। लेकिन वह आदमी खोजना
चाहता था। वह खोजने गया। वह न मालूम कितने लोगों से मिला और उनसे पूछा। उन सबने
कहा, हम सुखी हैं, लेकिन हमसे भी
ज्यादा सुखी एक आदमी है, तुम वहां जाओ। वह वहां गया। उधर भी
यही उत्तर मिला, हम सुखी हैं, हमसे भी
ज्यादा सुखी एक आदमी है।
बारह वर्ष तक वह परेशान हो गया। कोई यह भूल ही गया कि मेरा भी कोई सुख
है और मेरा भी कोई दुख है। वह इसी झंझट में पड़ गया। कौन सबसे ज्यादा सुखी है! बारह
साल बाद वह उस पहाड़ की चोटी पर पहुंचा, जहां वह बूढ़ा आदमी
बैठा था, जिसने कहा हां, मैं सबसे
ज्यादा सुखी आदमी हूं। क्या चाहते हो तुम? उस आदमी ने कहा,
बात ही खत्म हो गई। मैं यह चाहते निकला था कि सुख कैसे मिले,
लेकिन बारह वर्ष तक दूसरों के सुख-दुख को सोचते-सोचते मैं तो यह भूल
ही गया कि मेरा भी कोई दुख है। आज मैं अनुभव करता हूं, दुख
ही नहीं है, तो सुख का क्या सवाल है?
उस बूढ़े आदमी को उसने गौर से देखा, शक्ल पहचानी हुई
मालूम पड़ी। कहा, जरा आप अपनी पगड़ी दूर करिए। आपकी आंखें ढंकी
हैं, मैं आपको जरा ठीक से देखूं। वह बूढ़ा हंसने लगा, यह वही फकीर था जो बारह साल पहले उसे मिला था।
उसने कहा, अरे, तो इतनी भटकने की क्या
जरूरत थी? आप उसी दिन कह देते, कि मैं
ही सबसे ज्यादा सुखी आदमी हूं।
उस फकीर ने कहा, उस दिन तुम्हें समझ में नहीं
आता। यह बारह वर्ष की यात्रा जरूरी थी। तभी तुम समझ सकते थे, जो मैं कह रहा हूं।
मैं तुझसे पूछता हूं, क्या तुम उस दिन समझ सकते थे?
उस आदमी ने कहा, ठीक कहते हैं आप।
जिन्होंने जाना है, उन्होंने कह दिया है, लेकिन आप उसे नहीं समझ सकते, जब तक आप भी एक लंबी
यात्रा की खोज से न गुजर जाएंगे। गुजर जाएंगे, तो समझ
जाएंगे। वह गुजरना अनिवार्य तैयारी है, पिप्रेशन है उस चीज
को समझने की, जो लिखी पड़ी है। लेकिन उस लिखे से कोई मतलब
नहीं है, उसके लिखे होने से कोई मतलब नहीं है।
जब तक आप इस प्रक्रिया से न गुजर जाएं कि आपका चित्त वहां पहुंच जाए
जहां चीजें साफ हो जाती हैं, तब तक आपको कहीं से कुछ दिखाई
नहीं पड़ सकता। मजे की बात यह है, कि उस दिन तो आपको भी दिखाई
पड़ जाता है। शास्त्र में देखिए या न देखिए, कोई अर्थ नहीं है,
आप खुद ही शास्त्र बन जाते हैं।
सत्य कोई बात ऐसी नहीं है कि कोई और आपको दे देगा। आपको गुजरना पड़ेगा।
गुजरना पड़ेगा। एक लंबी यात्रा है, खोज है। वह खोज आपको ही
रूपांतरित करती है, और कुछ नहीं करती। सत्य तो अपनी जगह है।
अभी भी वहीं है। वह अभी भी आपके पड़ोस में खड़ा है, लेकिन आपकी
देखने की पात्रता नहीं है।
वह पात्रता जिस दिन पैदा हो जाएगी, आप पाएंगे बड़ी मुश्किल
हो गई, कहां खोजते फिरते थे, यह तो सब
जगह मौजूद था। जिसे हम खोजने गए वह तो यह रहा। हम व्यर्थ ही परेशान हुए।
लेकिन व्यर्थ ही कोई कभी परेशान नहीं होता है। वह परेशानी भी तैयारी
का अनिवार्य हिस्सा है। इसलिए यह मत सोचिए, कि किसी किताब में हम
पढ़ कर सीख लेंगे और काम चल जाएगा। किताब में पढ़ कर सिर्फ उत्तर मिलेंगे। प्रश्न का
उत्तर आप तैयार कर लेंगे।
लेकिन उत्तर बासा होता है। रहेगा, आपका नहीं है। उसकी
कोई जड़ आपके भीतर नहीं है। वह ऐसा फूल है जो आप खरीद लाए हैं बाजार से। वह फूल
आपके कामों से नहीं आया है।
मैंने सुना है, एक गांव में सम्राट आने वाला था। और उस गांव के जो
खास-खास थे, उन सबको सम्राट के सामने प्रस्तुत किया जाने को
था, उनसे सम्राट मिलेगा।
गांव में एक बूढ़ा संन्यासी भी है। उस गांव के लोगों ने कहा, हम अपने बूढ़े संन्यासी को सबसे पहले खड़ा करेंगे। वह हमारा सबसे ज्यादा
आदृत आदमी है।
लेकिन राज्य के अधिकारियों ने कहा, संन्यासी कुछ गड़बड़
आदमी है, पता नहीं राजा से क्या कह दे, ठीक से व्यवहार न करे, शिष्टाचार न करे, कुछ का कुछ हो जाए, मुसीबत हो जाएगी। अगर संन्यासी
को खड़ा करना है, तो हम उसे पहले से ट्रेनिंग देंगे। उसे हम
तैयार करेंगे कि उसे इस-इस तरह की बात करनी है, तो ही हम ले
जा सकते हैं।
गांव के लोगों ने कहा, ठीक है, संन्यासी सीधा आदमी है। आप सिखा सकते हैं।
उन्होंने कहा, देखो, राजा आएगा, वह आपसे कुछ पूछेगा। पूछेगा, आपकी उम्र कितनी है?
तो इस तरह की बातें मत करना कि उम्र यानी क्या? आत्मा तो अमर है, उसकी तो उम्र ही नहीं। इस तरह की
बातें मत करना। नहीं तो बहुत हैरान होगा। तुम तो सीधा बता देना कि मेरी साठ साल की
उम्र है।
उसने कहा, जैसी मर्जी। पक्का रहा, साठ साल
कह दूंगा और ज्यादा तो मुझे नहीं कुछ कहन?
कुछ भी नहीं करना, जब वह पूछे तुम्हारी उम्र?
तो तुम कह देना साठ साल। और पूछे कि तुम कितने दिन से साधना कर रहे
हो? तो ऐसा मत कह देना कि अनंत जन्मों से चल रही है, यह तो कभी से चल रही है, अनादि, अनंत...। इससे कोई मतलब नहीं है। इस जन्म की बात है। और तीस साल से साधना
कर रहे हैं, ऐसा कह देना। उसे सिखा दिया गया। उसने कहा,
हम तैयार हो गए हैं।
राजा आया, सारे लोग गए। संन्यासी भी गया। बड़ी गड़बड़ हो गई! राजा
को पहले पूछना चाहिए था कि आपकी उम्र कितनी है? उसने पूछ
लिया, आप साधना कितने दिन से कर रहे हैं?
उस संन्यासी ने कहा, साठ साल से।
आपकी उम्र ऐसे कितनी है?
उसने कहा, तीस साल। उत्तर तो तैयार था। अधिकारी तो घबड़ाए कि हो
गई गलती।
और राजा ने कहा, पागल हो! तुम पागल हो कि मैं?
उसने कहा, दोनों।
राजा ने कहा, मतलब?
उसने कहा, मतलब यह कि आप गलत सवाल पूछते हैं।
हम सब गलत जवाब देते हैं और जवाब में हमें सिखाया हुआ है। अगर हमारा
हो तो हम ठीक करके भी दे दें। हम मुश्किल में पड़ गए हैं। पागल तुम हो, फिर नंबर दो पागल हम हैं, कि हम आए यहां और जवाब
हमने सीखा। और तुम गलत सवाल पूछ रहे हो।
हम जितने लोग गीता, कुरान, बाइबिल
से सीख कर बैठ जाते हैं। जिंदगी के सवाल पूछिए। जो आपके सीखे हुए जवाब होंगे,
जो किताब से आए, उनको कोई तालमेल होने वाला
नहीं है। कहीं कोई तालमेल नहीं होगा। सिर्फ जिंदगी कुछ पूछेगी, आप कुछ कहोगे। क्योंकि आपके भीतर से जो जवाब नहीं आया, वह कभी सुसंगत नहीं हो सकता। वह हमेशा असंगत होगा, एब्सर्ड
होगा।
और जिस देश में किताब पढ़ कर ज्ञानी बहुत हो जाते हैं, उस देश में जवाब तो बहुत चलते हैं, लेकिन जवाब एक
नहीं होते हैं। हर आदमी जवाब देगा। हर आदमी को गीता कंठस्थ है, रामायण मालूम है, चौपाइयां याद हैं। और मूढ़ता की
हद्द हो गई। हर आदमी के पास जवाब बंधा हुआ है। सवाल पूछिए, जवाब
रेडीमेड, जवाब पहले से तैयार है! रास्ता खोज रहा है जवाब,
कि कोई सवाल पूछे और जवाब निकले। यह जो जवाब की तैयारी है, शास्त्र सिर्फ इतना ही करवाते हैं। खोज तो खुद करनी पड़ेगी। जिसकी खोज हो
जाती है, जिस दिन अपनी प्रतीति होती है, उस दिन सब शास्त्र सत्य हो जाते हैं। शास्त्रों को पढ़ कर कोई सत्य को नहीं
जानता, सत्य को जान कर कोई शास्त्रों को पढ़ सकता है।
इसलिए मैं जो कहता हूं, आपको निजी तौर से
गुजरना ही पड़ेगा, तो ही कुछ अनुभव हो सकता है और अनुभव ही
सत्य है।
एक और मित्र ने पूछा है कि आप जो कह रहे हैं वह
आपका अनुभव है कि सत्य है?
शायद उनका खयाल है कि अनुभव और सत्य दो चीजें हैं। अनुभव यानी सत्य!
लेकिन कौन सा अनुभव सत्य है? असत्य अनुभव भी तो होते हैं। एक
आदमी रास्ते पर जा रहा है और एक रस्सी पड़ी है और सांप का अनुभव हो जाता है,
वह भाग खड़ा होता है। वह लौट कर कहता है, सांप
था, मैंने अनुभव किया। लेकिन सांप तो वहां था नहीं, रस्सी पड़ी थी। असत्य अनुभव भी होते हैं।
असत्य अनुभव भी होते हैं, शायद इसीलिए उन्होंने
पूछा, कि आप जो कह रहे हैं, अनुभव है
कि सत्य है। असत्य अनुभव भी होते हैं, लेकिन कौन सा? और सत्य कौन सा अनुभव? और सत्य पर्यायवाची हो जाते
हैं। जब तो मैं की प्रतीति चलती है, तब तक अनुभव का कोई
भरोसा नहीं कि वह सत्य है कि झूठ। सच तो यह है, कि जब तक कोई
भीतर मैं है, तब तक सत्य का अनुभव नहीं हो सकता है।
मैं सभी अनुभवों को असत्य कर देता है। लेकिन जिस दिन भी मैं चला गया, मैं नहीं है, सिर्फ अनुभव हुआ। आप ऐसा नहीं कहते कि
मैंने अनुभव किया, आप कहते हैं, मैं
नहीं था, तब अनुभव हुआ।
फिर असत्य नहीं होता, फिर असत्य करने वाली चीज ही चली
गई। जैसे हम एक लकड़ी पानी में डालें। पानी में डालते से ही लकड़ी तिरछी हो जाती है।
लकड़ी तिरछी नहीं होती, लेकिन लकड़ी तिरछी दिखाई पड़ने लगती है।
वह जो पानी की सघनता है, वह लकड़ी को तिरछा कर देती है। लकड़ी
तिरछी फिर भी नहीं होती, लकड़ी बाहर निकालिए, लकड़ी सीधी है। फिर पानी में डालिए, लकड़ी तिरछी दिखाई
फिर भी नहीं होती, लकड़ी बाहर निकालिए, लकड़ी
सीधी है। फिर पानी में डालिए, लकड़ी फिर तिरछी हो गई। वह पानी
का जो माध्यम है, वह लकड़ी को तिरछी करता है। अहंकार का जो
माध्यम है, ईगो का जो माध्यम है, वह
सत्य को असत्य करता है।
तो जब तक अहंकार के द्वारा कोई देख रहा है जगत को, तब तक उसके अनुभव असत्य के अनुभव होंगे। यही असत्य के अनुभव का अर्थ हुआ,
अहंकार के द्वारा देखी गई वस्तु। और सत्य के अनुभव का अर्थ हुआ,
निर-अहंकार दशा में जाना गया, जहां कोई मैं
नहीं है वहां जाना गया।
इसलिए भूल कर भी कभी आप यह मत सोचना, कि मैं सत्य को जान
लूंगा। मैं कभी सत्य को नहीं जानता। जब सत्य जाना जाता है तब मैं होता ही नहीं,
और जब तक मैं होता है, तब सत्य का कोई प्रयोजन
नहीं। और हम सब मैं से भरे हुए हैं। हम जीवन भर मैं को ही मजबूत करते हैं। और मैं
के लिए अनुभवों का आधार लेकर सब अनुभव इकट्ठे करते हैं। और जब तक मैं का आधार है,
तब तक सब अनुभव झूठे होते हैं, कोई अनुभव सत्य
नहीं हो सकता।
इसलिए अगर ठीक से समझें, तो मैं के द्वारा
देखा गया परमात्मा ही माया है। मैं के द्वारा देखा गया परमात्मा ही जगत है। मैं के
द्वारा देखा गया वह है, जो नहीं है। और जिस दिन मैं समाप्त
हो जाता है, उस दिन जो देखा जाता है, उस
दिन जो प्रतीति होती है, वह प्रतीति प्रभु है, सत्य है। कोई और नाम दें, इससे कोई फर्क नहीं पड़ती
है।
एक और मित्र ने पूछा है, क्या है लक्ष्य जीवन का? क्या मुक्ति ही लक्ष्य है?
क्या मोक्ष ही लक्ष्य है?
नहीं, जीवन का लक्ष्य न मुक्ति है, न
मोक्ष है। जीवन का लक्ष्य तो स्वयं जीवन की पूर्ण अनुभूति है। और जिस दिन जीवन की
पूर्ण अनुभूति होती है, उस क्षण मुक्ति हो जाती है, उस क्षण मोक्ष हो जाता है। वह बाइ-प्राडक्ट है। वह जीवन का लक्ष्य नहीं
है। जैसे एक आदमी गेहूं बोता है, तो भूसा पैदा करना उसका
लक्ष्य नहीं है। गेहूं बोता है, गेहूं पैदा होते हैं। भूसा
साथ में पैदा हो जाता है, भूसा बाइ-प्राडक्ट है। वह सब साथ
में पैदा हो जाता है।
जीवन की परिपूर्ण अनुभूति जीवन का लक्ष्य है, लेकिन परिपूर्ण अनुभूति पर बंधन गिर जाते हैं। मुक्ति बाइ-प्राडक्ट है,
मुक्ति भूसे की तरह है। लेकिन हजारों लोग भूसे को मूल बना रहे हैं
और गेहूं को बाइ-प्राडक्ट बना रहे हैं, तो दिक्कत में पड़ गए
हैं। वह जाकर खेत में भूसे को बो देते हैं। न उससे भूसा पैदा होता है, न गेहूं पैदा होते हैं, बल्कि जो भूसा हाथ में था वह
भी सड़ जाता है। और तब वे यह कहते हैं कि धर्म-वर्म कुछ नहीं है, बेकार की मुसीबत है। इससे कुछ होता नहीं है।
हजारों साल से, सैकड़ों साल से मोक्ष को लक्ष्य बनाया, उससे गड़बड़ हो गई। मोक्ष लक्ष्य नहीं है, जीवन की
परिपूर्णता लक्ष्य है। जीवन को उसके पूरे आनंद में, पूरे
अर्थों में जानना लक्ष्य है। और जब जीवन अपने पूरे आनंद में नृत्य करता है,
तो सारे बंधन गिर जाते हैं।
जब जीवन अपने पूरे अर्थों में प्रकट होता है, तो सब बाधाएं गिर जाती हैं। जब जीवन अपने पूरे रूप में संयुक्त होता है
समग्र से, तो मुक्त हो जाता है। अधूरा जीवन बंधन है, पूर्ण जीवन मुक्ति है। मुक्ति लक्ष्य नहीं है, लक्ष्य
सदा जीवन है। अगर मुक्ति को लक्ष्य बनाया, तो बहुत खतरे होते
हैं, क्योंकि अलग ही दिशा चली जाती है।
जो आदमी कहता है, मुक्ति जीवन का लक्ष्य है,
वह जीवन को छोड़ने लगता है। वह कहता है, जीवन
को छोड़ो, हमारा लक्ष्य तो मुक्ति है। हम तो जीवन से हटेंगे,
हम तो भागेंगे, हम तो पलायन करेंगे, हम जीवन को मानते नहीं। हम तो अपने को गलाएंगे, नष्ट
करेंगे। हम तो मरने में मानते हैं। मोक्ष वाला आदमी मरने में मानता है, मोक्ष वाला आदमी स्युसाइडल होता है। वह कहता है, हम
आत्महत्या करेंगे। कुछ जल्दी करने वाले हिम्मतवर होते हैं, कुछ
कमजोर धीरे-धीरे मरते हैं।
कोई कहता है--एक-एक चीज को छोड़ कर हम मरेंगे। हम ऐसे जीएंगे, जैसे मरा हुआ आदमी जीता है। इसी को हम संन्यासी कहते हैं।
इस संन्यासी ने बहुत नुकसान पहुंचाया है, क्योंकि इसने जीवन की सब जड़ों को विषाक्त कर दिया है। इसकी जीवन की निंदा
ने जीवन के आनंद को छीन लिया है। इसके जीवन के विरोध ने जो लोग जीवन में खड़े हैं,
उनको भी पापी करार दे दिया, उनको भी कंडेम्ड
कर दिया। वह भी वहां ऐसे खड़े हैं, जैसे अपराधी हों!
जीवन को जीना एक अपराध हो गया है, हंसना एक अपराध हो
गया, खुश होना अपराध हो गया, नाचना अपराध
हो गया, सब अपराध हो गया! उदास, लंबे
चेहरे मातम के, बस एक सदृश रह गए हैं।
भागो, जिंदगी छोड़ो। जो आदमी जिंदगी से जितना भाग जाए,
सिकुड़ जाए, एक कोने में, एक गुफा में, उसको कहते हैं, कि
यह आदमी की मुक्ति की तरफ जा रहा है! मुक्ति की तरफ यह नहीं जा रहा है, यह सिर्फ मरने की तरफ जा रहा है। यह कब्र खोज रहा है।
मुक्ति की तरह तो वह जाता है, जो और जीवन की तरफ
जाता है। जो सारे जीवन की किरणों को पीता है, जो चांदत्तारों
के जीवन के साथ नाचता है, जो दूसरों की आंखों के जीवन के रस
को लेता है, जो फूल-पत्ती सब जो चारों तरफ सब जीवन है,
उसके साथ आह्लादित है। जो उसके साथ रोएं-रोएं को एक कर लेता है,
जिसकी श्वास-श्वास सारे जीवन से एक हो जाती है। जो जीवन के साथ उठता
है, बैठता है, सोता है, जागता है, नाचता है, गीत गाता
है। जो जीवन ही हो जाता है! कैसा व्यक्ति मुक्ति को उपलब्ध होता है, क्योंकि बांधेगा कौन? सारा ही एक हो गया जीवन,
तो बांधेगा कौन? और ऐसा व्यक्ति जीवन-मुक्त,
ऐसा व्यक्ति जीते जी मोक्ष बना लेता है।
वह जो भागने वाला मोक्ष है, वह हमेशा मरने के बाद
होता है। जिंदा व्यक्ति का कभी नहीं हो सकता, क्योंकि उसके
लिए पूरा मरना जरूरी पड़ेगा। और जिंदा आदमी कुछ तो जिंदा होगा, कितना ही मर जाए, कुछ तो जिंदा होगा, सांस तो लेगा, आंख तो खोलेगा। वह जो कुछ जिंदगी रह
गई है, वह भी बाधा है। मरने के बाद ही मोक्ष हो सकता है। और
जो मोक्ष मरने के बाद होता है, वह दो कौड़ी का है। जो मोक्ष
जीते जी, जीवन की पूरी सफलता में होता है, वही शाश्वत है, वही सत्य है।
तो मेरी दृष्टि में, अगर परमात्मा ऐसे मरने वाले
मोक्ष का पक्षपाती होता, तो जीवन के होने की कोई जरूरत नहीं।
परमात्मा के विरोध में जीवन चल रहा है। अगर परमात्मा इसका विरोधी है और चाहता है
कि सब मुक्त हो जाएं तो एक बार निपटारा करे, या खत्म करे।
लेकिन परमात्मा तो जीवन का पक्षपाती मालूम पड़ता है। परमात्मा तो तुम
कितना ही जीवन को मिटाओ, नयी कोंपलें फोड़ देता है। तुम कितने ही एटम गिराओ,
तुम कितनी ही मुश्किल करो, परमात्मा जीवन को
पैदा किए ही चला जाता है। परमात्मा तो जीवन का बड़ा प्रेमी है।
लेकिन महात्मा जीवन के बड़े दुश्मन हैं। इसलिए महात्मा अक्सर परमात्मा
के दुश्मन होते हैं। और दुनिया महात्माओं के प्रभाव में है, परमात्मा से दुनिया को कोई मतलब नहीं। इसलिए धर्म जो है वह धीरे-धीरे
स्युसाइडल, लाइफ निगेटिव, जीवन-विरोधी
होता चला गया है। और धर्म होना चाहिए लाइफ अफरमेटिव, जीवन को
देने वाला! ऐसे धर्म की दृष्टि मरने के बाद के मोक्ष में नहीं होगी। इसी वक्त
क्यों नहीं हो सकती है? मैं यह जो दे रहा हूं कि जीवन का
लक्ष्य जीवन ही है!
और ध्यान रहे जो भी श्रेष्ठतम है जीवन की अनुभूतियां उनका लक्ष्य वही
होते हैं।
जैसे कोई किसी को प्रेम करता हो। अच्छा प्रेम का लक्ष्य क्या है? हर आदमी बता दे कि प्रेम का लक्ष्य यह है तो प्रेम दो कौड़ी का हो जाएगा।
क्योंकि प्रेम तब साधन बन जाएगा और साध्य कोई और हो जाएगा।
लेकिन प्रेमी जानता है, वह कहेगा, प्रेम का लक्ष्य? प्रेम का लक्ष्य कुछ भी नहीं है।
प्रेम ही प्रेम का लक्ष्य है। मैं प्रेम करता हूं, इससे
ज्यादा नहीं।
किसी आदमी से बोलो कि सत्य बोलने का लक्ष्य क्या है?
वह आदमी कहे कि गांव में इज्जत बनाना। रिस्पेक्टिबिलिटी। वह आदमी सत्य
बोलने से पहले सत्य नहीं विचारेगा। उसका तो मतलब गांव में इज्जत बढ़ाने से संबंध
है।
और गांव अगर चोरों का हो तो वहां झूठ भी बोल सकता। वहां झूठ बोलने से
सब संभव है। सवाल उसका दूसरा ही है। उसको सत्य बोलने से कोई मतलब ही नहीं है।
इज्जत से मतलब है।
एक आदमी कहता है--सत्य इसलिए बोलता हूं कि मुझे मरकर स्वर्ग जाना है।
सब राजनीतिज्ञ मर कर स्वर्ग में प्रवेश करते चले जाते हैं। फिर वह कहेगा फिजूल की
मेहनत करने की जरूरत नहीं है। सब राजनीतिज्ञ स्वर्गीय हो जाते हैं, चलो वहां चलकर सोचेंगे। हम भी कुछ रिश्वत देकर अंदर निकल जाएंगे।
राजनीतिज्ञ तो बिना रिश्वत के स्वर्ग नहीं जा सकता, हालांकि सब मर कर स्वर्गीय हो जाते हैं। असल में मरकर स्वर्ग तो कोई जाते
नहीं। लेकिन कुछ दिन पहले स्वर्गीय हो गए हैं। राम-नाम-सत्य हो गए हैं। मूर्ति
बनाओ, पत्थर लिखवाओ। और जितनों की मूर्तियां लगती हैं,
उनमें से अधिक नरक में होंगे। लेकिन नारकीय लिखो तो झगड़ा हो जाए।
वह आदमी देखेगा कि स्वर्ग जब राजनीतिज्ञ तक चले जा रहे हैं, तो फिर क्या दिक्कत है। तो हम भी चले जाएंगे, कुछ
देखेंगे, वहीं कुछ तामझाम होगा। तो फिर वह आदमी सत्य नहीं
बोलेगा। सत्य बोलने का जो कहेगा कि सत्य बोलना ही सत्य बोलने का लक्ष्य है। आनंद
है यह मेरा, इसलिए मैं सत्य बोलता हूं। इसके आगे और कोई सवाल
नहीं है। वही आदमी सत्य बोलते हैं।
जीवन में जो भी श्रेष्ठ है वह सब कुछ वही है, उस...वह स्वयं ही साध्य है। और जीवन तो परम साध्य है। वह तो अल्टीमेट एंड
है। वह किसी दूसरे का साधन नहीं है। कोई कहे कि मोक्ष जाने का साधन है जीवन,
गलत कहता है। जीवन अपना ही पूर्ण है। जब जीवन पूर्ण हो तब जो
अनुभूति होती है, वह मोक्ष की है। क्योंकि तब कोई बंधन नहीं
मालूम पड़ते। कोई रुकावट नहीं मालूम पड़ती। कोई सीमा नहीं मालूम पड़ती। काई अंत नहीं
मालूम पड़ता। काई नृत्य मालूम पड़ती।
उस क्षण में जीवन की परिपूर्ण अनुभूति के क्षण में मोक्ष का भी भाव
समा जाता है। लेकिन मोक्ष लक्ष्य नहीं है। मोक्ष को भी जो लक्ष्य बनाते चले जाएगा, उसे मृत्यु पर भी मोक्ष का अनुभव नहीं होगा। और जो जीवन का लक्ष्य बनाकर
चलता है, वह मोक्ष पर पहुंच जाता है।
मैं कहता हूं, जीवन ही लक्ष्य है। जीवन ही मोक्ष है।
एक बात...
एक मित्र ने पूछा है कि आपको यदि राष्ट्रपति बनने के लिए कहा जाए तो
आप राजी हो जाएंगे?
मजेदार बात पूछी है। पहली तो बात यह समझ लेनी चाहिए। पदों के लिए
आतुरता सिर्फ हीन व्यक्ति के लिए होती है। इनफिरीअरिटी कांप्लेक्स। जिनके भीतर हीन
ग्रंथि होती है। वह पदों के लिए लोलुप होते हैं।
जो भी आदमी पद के लिए लोलुप मालूम पड़े जानना कि भीतर उसे ऐसा लगता है
कि हीन आदमी है, किसी कुर्सी पर चढ़ जाऊं। मैं यह हीनता मिटा दूं।
कुर्सियों पर बस हीनता से बचने के लिए चढ़ते हैं। इसलिए कुर्सियों पर श्रेष्ठ आदमी
मुश्किल से ही जाने के लिए राजी होते हैं। मुश्किल से ही।
हीनता की ग्रंथि ही पदों की लोलुपता है। और इसीलिए तो पदों पर हीनतम
व्यक्ति सारी दुनिया मैं बैठे हुए हैं। पदों पर हीनतम व्यक्ति बैठे हुए हैं। और
इसीलिए तो सारी दुनिया में सारी चीजें उपद्रव ग्रस्त हो गई है। क्योंकि सबसे
ज्यादा हीन वृत्तियों से भरे हुए लोग नेताओं में पहुंच गए हैं। दुनिया में...
दूसरी बात यह समझ लेनी जरूरी है। कि किसी आदमी के पद पर पहुंच जाने से
ही समाज का हित नहीं है। समाज का हित अच्छे आदमी के कहीं पहुंच जाने से नहीं हो
जाता। समाज का हित व्यक्ति पर निर्भर नहीं है।
समाज का हित अपने सामाजिक जीवन दर्पण पर है। व्यवस्था ने यह भूल काफी
कर ली है। समाज ने कुछ अच्छे लोगों को ऊपर भेजा है बीस-पच्चीस सालों से। जब वे
पहुंचाए गए तो वे अच्छे लोग थे। जब वे पहुंच गए तो पता चला कि ऐसा भी नहीं था कि
उनमें सभी लोग बुरे थे, कुछ बहुत ही अच्छे लोग थे। लेकिन वे अच्छे लोग भी बड़े
गलत जाल में कुछ भी करने लगे।
समाज का पूरा जीवन दर्पण बदलना चाहिए। आदमियों के बदलने से कुछ नहीं
होता। आदमियों के बदलने से कुछ भी नहीं होता। आदमियों की बदलाहट करीब-करीब ऐसी
होती है। उससे राहत तो मिलती है थोड़ी देर।
जैसे कोई आदमी मरघट ले जा रहा है किसी की अरथी को। रास्ते में एक कंधा
दुखने लगता है, दूसरे कंधे पर ले लेता है। राहत मिलती है थोड़ी देर।
एक कंधा हो गया। लेकिन अरथी का वजन उतना का उतना है। थोड़ी देर में दूसरा कंधा
दुखने लगता है।
आदमी हम बदलते चले जाते हैं। आदमी बदलने से कुछ भी नहीं होगा। थोड़ी
देर राहत लगती है कि लगता है नया आदमी आया है, कुछ होगा। लेकिन जाल
जब तक पुराना है, पूरा जाल पुराना है। आदमी इतनी छोटी चीज है,
उसको बदलो, लेकिन पूरा जाल इतना बड़ा है उस
आदमी को पीछे रख देता है वह। उसको अपनी चक्की में घूमा देता है। वह आदमी उस चक्की
में घूम जाता है और पिस जाता है।
हिंदुस्तान की जो समाज और राजनीति बंध, व्यवस्था है, वह जो मशीन है, वह जो चक्की है वह बदलने की जरूरत है,
वह तोड़ने की जरूरत है। आदमियों के बदलने से कुछ नहीं होगा। अभी तो
हिंदुस्तान की जैसे आर्थिक सामाजिक व्यवस्था है, उसमें भगवान
को राष्ट्रपति बना कर बैठाओ, सिवाय बदनामी के उनके और कुछ
नहीं होने वाला। यह सवाल व्यक्ति का नहीं है। और हमें व्यक्तियों के संबंध में
सोचना बंद कर देना चाहिए। और यह आशा छोड़ देनी चाहिए कि सिर्फ सच्चे आदमी को बिठा
देने से सब कुछ हो जाएगा।
नहीं, हमें जीवन की पूरी दृष्टि को पुरानी दृष्टि की जगह
बिठाना होगा। और जिस दिन जीवन की नई दृष्टि बैठ जाए, उस दिन
अधर्म से भी अधर्मी आदमी वहां बैठ कर काम कर लेगा। जैसे बैल गाडी चल रही है.....
.......अस्पष्ट।
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