रविवार, 2 अप्रैल 2017

ध्यान दर्शन-(साधना-शिविर)-प्रवचन-10



ध्यान दर्शन-(साधन-शिविर)
ओशो
प्रवचन-दसवां-(ध्यान: प्यास का अनुसरण)

मेरे प्रिय आत्मन्!
थोड़े से सवाल।

एक मित्र ने पूछा है कि जिस प्रभु का हमें पता नहीं, उसका नाम लेकर संकल्प कैसे करें?

प्रभु का तो पता नहीं है। लेकिन सच ही प्रभु का पता नहीं है? क्योंकि जब भी हम प्रभु से कोई प्रतिमा--कोई राम, कोई कृष्ण, कोई बुद्ध का खयाल ले लेते हैं, तभी कठिनाई हो जाती है। मेरे लिए प्रभु का अर्थ समग्र अस्तित्व है, टोटल एक्झिस्टेंस है।
ये हवाएं बहती हैं, इनका पता नहीं है? यह आकाश है, इसका पता नहीं है? यह जमीन है, इसका पता नहीं है? आप हैं, इसका पता नहीं है? होने का पता नहीं है? यह जो होने की समग्रता है, यह जो बड़ा सागर है अस्तित्व का, इस पूरे सागर का नाम परमात्मा है।

तो जब आप परमात्मा का नाम ले रहे हैं, तो किसी परमात्मा का नाम नहीं ले रहे हैं--हिंदुओं के या मुसलमानों के या ईसाइयों के। आप इस समग्र अस्तित्व को साक्षी रख कर संकल्प कर रहे हैं।

उन मित्र ने यह भी पूछा है कि बिना साक्षी रखे भी संकल्प हो सकता है!

करें। अगर हो सकता होता तो हो गया होता। जरूर करें, हो सके तो बहुत अच्छा। लेकिन न हो सके तो फिर? न हो सके तो साक्षी रख कर भी करके देख लें। हो जाए तो बहुत अच्छा।
लेकिन आप एक लहर से ज्यादा नहीं हैं। लहर क्या संकल्प करेगी? कर भी न पाएगी और मिट जाएगी। जब लहर बन रही है, तब मिट ही रही है। जब हम उसे उठता देख रहे हैं, तब उसने गिरना शुरू कर दिया है। लहर क्या संकल्प करेगी? लहर का संकल्प अहंकार से ज्यादा नहीं हो सकता है। और अहंकार एक बड़ी झूठ है। लेकिन सागर के साथ लहर अपने को एक समझे तो संकल्प हो सकता है। लहर नहीं रहेगी, तब भी संकल्प रहेगा। लहर नहीं थी, तब भी संकल्प था। और लहर जब सागर को सामने रख कर संकल्प करती है, तो सागर की पूरी शक्ति उसे उपलब्ध हो जाती है। और जब लहर अपने को समझ लेती है कि मैं ही काफी हूं और सागर से क्या लेना-देना! तब लहर अपने हाथ से निर्वीर्य, नपुंसक हो जाती है, सब खो देती है।
करके देखें। व्यक्ति की हैसियत से आपके संकल्प की बहुत कीमत नहीं हो सकती। क्योंकि व्यक्ति की हैसियत से आप ही कहां हैं! बनती और मिटती लहर से ज्यादा नहीं हैं। इसलिए सागर को स्मरण करना उचित है। और सागर चारों तरफ है। अगर मैं कहता कि कोई प्रतिमा वाला परमात्मा, तो सवाल था यह। हवाओं में, ये तारों में, चांदत्तारों में, आस-पास बैठे लोगों में, आप में, सबके भीतर जो विस्तार है अस्तित्व का, उसका नाम ही परमात्मा है।
अंधेरे में छलांग है। लेकिन जिसे हम जिंदगी कहते हैं, जिसे हम जानी-मानी जिंदगी कहते हैं, वह भी अंधेरे से क्या कुछ कम है? अज्ञात, अननोन में उतरना है। अगर परमात्मा ज्ञात ही हो, तो फिर जानने को और क्या शेष रह जाता है? नहीं है ज्ञात। टटोलते हैं, खोजते हैं, पुकारते हैं।
एक बात पक्की ज्ञात है, सरोवर का तो कोई पता नहीं है, लेकिन प्यास का पता है। प्यास है मरुस्थल, तो भी प्यास है। और प्यास कहती है कि बुझने का भी कोई उपाय होगा। परमात्मा का पता नहीं है, लेकिन परमात्मा की खोज की प्यास है, सत्य की खोज की प्यास है। परमात्मा शब्द से कोई प्रयोजन नहीं; सत्य कहें, जीवन कहें, अस्तित्व कहें, जो भी नाम आपको पसंद हो, दे लें। नाम आपकी मर्जी। नाम से कुछ फर्क न पड़ेगा। लेकिन क्या है जीवन, उसकी खोज की प्यास है। उस प्यास का पता है, तो काफी है। बस उसी प्यास से संकल्प को उठने दें और समग्र के प्रति समर्पित हो जाने दें। जैसे ही कोई व्यक्ति समग्र को साथ लेकर संकल्प करता है, उसके संकल्प की शक्ति अनंत गुना हो जाती है। क्योंकि वह अनंत को साक्षी बनाता है। अनंत को स्मरण करता है। अनंत के साथ अपने को जुड़ा हुआ अनुभव करता है।
यह मनुष्य जब से सोचने लगा है, मैं काफी हूं, तभी से कमजोर, दीन-हीन हो गया है। और जो मनुष्य भी सोचेगा कि मैं काफी हूं, वह अत्यंत दरिद्र रह जाएगा। कोई काफी नहीं है। अनंत के मिलने के पूर्व सब कुछ ना-काफी है। जब तक कि सब ही के साथ मिलन न हो जाए तब तक संतुष्टि नहीं हो सकती।

कहा है कि आपका सुझाव मान कर करूंगा संकल्प तो अनुकरण हो जाएगा। और अनुकरण तो ठीक नहीं है।

आप यहां आए क्यों? अनुकरण हो चुका है। मुझे सुनेंगे, वह भी अनुकरण हो जाएगा। मेरी बात समझेंगे, वह भी अनुकरण हो जाएगा।
नहीं, अनुकरण का यह मतलब नहीं होता। किसी दूसरे जैसे बनने की पागल अंधी कोशिश का नाम अनुकरण है। समझ का नाम अनुकरण नहीं है। और जब मैं आपसे कह रहा हूं कि संकल्प करें, तो आप अपनी समझ से। न करें तो बाहर, पीछे खड़े हो जाएं, देखने वालों में सम्मिलित हो जाएं, करने वालों से हट जाएं। समझ लें कि संकल्प का मूल्य क्या है, अर्थ क्या है, प्रयोजन क्या है। क्या होगा, इसे समझ लें। प्यास हो तो करें। अनुकरण मेरा नहीं है, आप अपनी प्यास का अनुकरण करते हुए यहां आए हैं। और अगर यहां नहीं मिलेगा तो कहीं और जाएंगे, वहां नहीं मिलेगा तो कहीं और जाएंगे, इस जन्म में नहीं मिलेगा तो किसी और जन्म में खोजेंगे। आप अपनी प्यास का अनुकरण कर रहे हैं। अगर इतने कुओं पर भटके हैं, तो अपनी प्यास के कारण, किसी कुएं के कारण नहीं। और अगर इतने नदी के तट खोजे हैं, तो अपनी प्यास के कारण, किसी नदी के लिए नहीं।
आप मेरे लिए नहीं आए हैं, अपनी प्यास से आए हैं। अपनी ही प्यास का अनुसरण करें। मेरे अनुकरण की कोई भी जरूरत नहीं है। और जब मैं सुझाव दे रहा हूं, तो मैं सुझाव, आप एक प्रयोग करने में समर्थ हो जाएं, इसलिए दे रहा हूं। अगर आप अपने से ही समर्थ हैं, तो सुझावों की कोई जरूरत नहीं है।
लेकिन नहीं हैं समर्थ। इसलिए सुझाव का प्रयोग करके देख लें। फिर तो कल से सुबह से आप बिलकुल मुक्त होंगे। मैं सुझाव देने को वहां नहीं रहूंगा, फिर आप करना। अभी यह सोच कर मत रुक जाना कि कहीं अनुकरण न हो जाए, नहीं तो कल फिर यह परेशानी होगी कि अब अनुकरण कैसे करें। अभी ताकत लगा लें। एक प्रयोग करके देख लें। जब मैं कहता हूं, तो जो भी मैं कह रहा हूं वह कोई कागज में लिखी हुई बात नहीं कह रहा हूं। जो भी मैं कह रहा हूं, वह जो मैं देखता हूं, वह कह रहा हूं।
हमारे पास एक शब्द है श्रद्धा। जिस दिन से श्रद्धा का अर्थ विश्वास हो गया, उस दिन से श्रद्धा का शब्द व्यर्थ हो गया। जिस दिन से हम श्रद्धा का अर्थ बिलीफ करने लगे, उस दिन से बड़ी भूल हो गई। श्रद्धा का मतलब विश्वास और बिलीफ नहीं है। श्रद्धा का मतलब है ट्रस्ट, भरोसा। और जब मैं कहता हूं कि मैं आंख की देखी हुई बात कह रहा हूं, तो थोड़ा सा भरोसा करें, दो कदम मेरे साथ चल कर भी देख लें। हां, अगर मैं यह कहूं कि आप जहां बैठे हैं वहीं बैठे रहें, बाहर सूरज है, लेकिन यहीं बैठे हुए विश्वास कर लें, तो विश्वास बिलीफ बन जाएगा।
मैं आपसे कह रहा हूं कि बाहर सूरज है, मैंने देखा है, आप मेरे साथ चलें और देख लें। अगर सूरज मिले तो ठीक, न मिले तो कहना झूठ है।
लेकिन आप कहते हैं: नहीं, हम आपकी बात का सुझाव मान कर बाहर नहीं जा सकते। और भीतर तो आप हैं ही, वहां सूरज नहीं दिखाई पड़ रहा है। बाहर जाना पड़ेगा। आपकी प्यास सूरज की तलाश में काम करेगी। और उन लोगों की खबरें भी काम करेंगी, जो कहेंगे कि उन्होंने देखा है।
मैं आपसे इतना ही कह रहा हूं कि मैंने जो देखा है, उसका रास्ता है, और उस रास्ते पर दो कदम मेरे साथ चल कर देख लें। अगर मैं कहूं कि आंख बंद करके मेरी बात मान लें, तो गलत है। अगर मैं कहूं कि आंख खोल कर मेरे साथ चल लें और देख लें, तो वैज्ञानिक भी क्या कर सकता है और इससे ज्यादा। अगर वह कहता है, हाइड्रोजन और आक्सीजन मिल कर पानी बन जाते हैं। आप कहेंगे, हम आपका अनुकरण नहीं करते, हम हाइड्रोजन-आक्सीजन मिला कर ही नहीं देखेंगे। क्योंकि हम अनुकरण नहीं कर सकते हैं। तो वैज्ञानिक भी क्या करेगा! आप कहेंगे, हम विश्वास नहीं कर सकते; हम श्रद्धा नहीं कर सकते। वैज्ञानिक कहता है, श्रद्धा करने को हम कह नहीं रहे। विज्ञान में एक शब्द है हाइपोथीसिस, वह श्रद्धा के करीब-करीब है। श्रद्धा हाइपोथेटिकल ट्रस्ट है। वैज्ञानिक कहता है, हाइपोथेटिकली मान लें कि हाइड्रोजन और आक्सीजन मिल कर पानी बनते हैं। मैंने बना कर देखे हैं। आप भी आ जाएं प्रयोगशाला में, मिला कर देख लें। बन जाए पानी तो मान लेना; न बने तो चले जाना, कहना कि गलत थी बात।
मैं भी सिर्फ एक वैज्ञानिक हाइपोथेटिकल ट्रस्ट के लिए आपसे कहता हूं, उससे ज्यादा नहीं। लेकिन हमारे अहंकार को दो कदम भी किसी के साथ चलने में कष्ट होता है। वह कष्ट इमिटेशन का नहीं है। क्योंकि कपड़े आप दूसरों के देख कर पहने हुए हैं। आपने अपने कपड़े ईजाद किए हैं? बटन आपने कहां लगाई हुई है? वहीं जहां दूसरे लगाए हुए हैं। पैंट आपने कैसा पहना हुआ है? वैसा ही जैसा दूसरे पहने हुए हैं। पढ़ाई-लिखाई आपने क्या की है? वही जो दूसरों ने की है। घर कैसा बनाया है? वही जो दूसरों ने बनाया है। फिल्म कौन सी देखते हैं? वही जो दूसरे देखते हैं। किताब कौन सी पढ़ते हैं? वही जो दूसरे पढ़ते हैं। आप कर क्या रहे हैं?
पूरी जिंदगी इमिटेशन है! सिर्फ परमात्मा के मामले में इमिटेशन बाधा बन जाता है। पूरी जिंदगी वही कर रहे हैं जो दूसरे कर रहे हैं। कौन सा काम है जो आप कर रहे हैं--यूनीक, इंडिविजुअल? ऐसा कौन सा काम है जिसमें आप हैं? कुछ भी नहीं है! लेकिन परमात्मा की बात उठती है तो सवाल उठता है--इमिटेशन? नहीं, वह हम न करेंगे।
मत करें! मैं नहीं कहता कि करें। इतना ही कहता हूं, सोच-समझ लें कि आप क्या कह रहे हैं और इसका क्या परिणाम हो सकता है।
अनुकरण है भी नहीं, भरोसा है। मेरी आंखों में देखें, थोड़ा सा खयाल करें, जो मैं कह रहा हूं, दो कदम चल कर मेरे साथ देख लें। न हो तो कह देना गलत कहा था; हो तो मैं आपसे यह भी न कहूंगा कि मुझे धन्यवाद दे जाएं, उसकी भी कोई जरूरत नहीं है। लेकिन दो कदम चल कर देख लें।

एक दूसरे मित्र ने पूछा है कि कल से तो आपकी फिजिकल प्रेजेंस, शारीरिक मौजूदगी नहीं होगी, तो हम क्या करेंगे?

, मेरे ऊपर निर्भर नहीं हो जाना है। चार दिन तो हमने एक प्रयोग किया। अगर आपको प्रयोग समझ में पड़ गया है, तो मेरे बिना भी आप कर सकेंगे। और अगर समझ में नहीं पड़ा है, तो मेरे साथ भी आप नहीं कर सके। मैं बिलकुल ही बेमानी हूं। मेरे ऊपर निर्भर नहीं हो जाना है। कल से आप सुबह अपना प्रयोग शुरू करें।
अगर यहां हो गया है, तो वहां भी हो जाएगा। जरा भी इसकी चिंता न लें। आपने किया है, मेरी मौजूदगी ज्यादा से ज्यादा आपके लिए एक चुनौती थी। ज्यादा से ज्यादा एक पुकार, एक आह्वान। ज्यादा से ज्यादा एक धक्का। लेकिन अगर आपने जरा सा भी अनुभव किया है, तो वह अनुभव आपकी संपत्ति हो गई है। आप उसे कल से फिर-फिर खोज पाएंगे। वह अनुभव रोज बढ़ता चला जाएगा। उसमें मेरे ऊपर निर्भर होने की कोई भी जरूरत नहीं है।
आखिरी दिन है, इसलिए दो-चार बातें आपसे कह दूं, जो कि शायद कल से आपके लिए जरूरत की होंगी। एक तो ध्यान के लिए सातत्य अत्यंत अनिवार्य है, कंटिन्युटी। जितना गहरा सातत्य होगा, उतने ही अनुभव की प्रगाढ़ता होगी। अक्सर ऐसा हो जाता है कि दो दिन किया, एक दिन नहीं किया, तो आप फिर उसी जगह खड़े हो जाते हैं, जहां आप दो दिन करने के पहले थे। कम से कम तीन महीने के लिए तो एकदम सातत्य चाहिए। जैसे हम कुआं खोदते हैं, एक ही जगह खोदते चले जाते हैं। आज एक जगह खोदें, फिर दो दिन बंद रखें, फिर दूसरे दिन दूसरी जगह खोदें, फिर चार दिन बंद रखें, फिर कहीं खोदें। वह कुआं कभी बनेगा नहीं। वह बनेगा नहीं।
जलालुद्दीन रूमी एक दिन अपने विद्यार्थियों को लेकर जो ध्यान सीख रहे थे, सूफी फकीर था, एक खेत में गया। और उन विद्यार्थियों से कहा, जरा खेत को गौर से देखो! वहां आठ बड़े-बड़े गङ्ढे थे। उन विद्यार्थियों ने कहा, पूरा खेत खराब हो गया। यह मामला क्या है? रूमी ने कहा, खेत के मालिक से पूछो। उस मालिक ने कहा कि मैं कुआं खोद रहा हूं। पर उन्होंने कहा कि तुमने आठ गङ्ढे खोदे, अगर तुम एक ही जगह इतनी ताकत लगा देते आठ गङ्ढों की, तो न मालूम कितने गहरे कुएं में पहुंच जाते। तुम यह कर क्या रहे हो?
उसने कहा कि कभी काम पिछड़ जाता है, बंद हो जाता है। फिर मैं सोचता हूं, पता नहीं उस जगह पानी हो या न। फिर दूसरी जगह शुरू करता हूं। वहां भी नहीं मिलता, फिर तीसरी जगह शुरू करता हूं, फिर चौथी जगह। आठ गङ्ढे तो खोद चुका, लेकिन कुआं अब तक नहीं खुदा है।
रूमी ने कहा कि देखो, तुम भी अपने ध्यान में कुआं खोदते वक्त खयाल रखना। यह किसान बड़ा कीमती है। तुम भी ऐसी भूल मत कर लेना। इसने ज्यादा नुकसान नहीं उठाया, केवल खेत खराब हुआ। तुम ज्यादा नुकसान उठा सकते हो, पूरा जीवन खराब हो सकता है।
अक्सर ऐसा होता है, अक्सर ऐसा होता है, आप में से कई ने न मालूम कितनी बार ध्यान शुरू किया होगा, फिर छोड़ दिया। फिर शुरू करेंगे, फिर छोड़ देंगे।
नहीं; कम से कम तीन महीना बिलकुल सतत। और तीन महीना क्यों कहता हूं? क्या इसलिए कि तीन महीनों में सब कुछ हो जाएगा?
जरूरी नहीं है! लेकिन एक बात पक्की है कि तीन महीने में इतना रस जरूर आ जाएगा कि फिर एक भी दिन बंद करना असंभव है। तीन महीने में हो भी सकती है घटना। नहीं होगी, ऐसा भी नहीं कहता हूं। तीन दिन में भी हो सकती है, तीन घंटों में भी, तीन क्षण में भी हो सकती है। आप पर निर्भर करता है कि कितनी प्रगाढ़ता से आपने छलांग मारी। लेकिन तीन महीना इसलिए कहता हूं कि मनुष्य के मन की कोई भी गहरी पकड़ बनने के लिए तीन महीना जरूरी सीमा है।
आपको शायद पता न हो, अगर आप नये घर में रहने जाएं तो कम से कम तीन सप्ताह लगते हैं आपको इस बात को भूलने में कि वह नया घर है। वैज्ञानिक बहुत प्रयोग किए हैं, तब वे कहते हैं कि इक्कीस दिन कम से कम लग जाते हैं, पुरानी चीज बनाने में नई चीज को। नये मकान में आप सोते हैं पहले दिन तो नींद ठीक से नहीं आती। वैज्ञानिक कहते हैं कि नींद की नार्मल स्थिति लौटने में कम से कम इक्कीस दिन, तीन सप्ताह लग जाते हैं।
जब एक मकान बदलने में तीन सप्ताह लग जाते हों, तो चित्त बदलने में तीन महीने को बहुत ज्यादा तो नहीं कहिएगा न! तीन महीने बहुत ज्यादा नहीं हैं। बहुत थोड़ी सी बात है। तीन महीने सतत, इसका संकल्प लेकर जाएं कि तीन महीने सतत करेंगे।
नहीं लेकिन बड़ा मजा है! कोई कहता है कि नहीं, आज थोड़ा जरूरी काम आ गया। कोई कहता है, आज किसी मित्र को छोड़ने एयरपोर्ट जाना है। कोई कहता है, आज स्टेशन जाना है। कोई कहता है, आज मुकदमा आ गया।
लेकिन न तो आप खाना छोड़ते हैं, न आप नींद छोड़ते हैं, न आप अखबार पढ़ना छोड़ते हैं, न आप सिनेमा देखना छोड़ते हैं, न सिगरेट पीना छोड़ते हैं। जब छोड़ना होता है तो सबसे पहले ध्यान छोड़ते हैं, तो बड़ी हैरानी होती है। क्योंकि और भी चीजें छोड़ने की हैं आपके पास। और भी चीजें छोड़ने की हैं, उनमें से कभी नहीं छोड़ते। तो ऐसा लगता है कि जिंदगी में यह ध्यान और परमात्मा, हमारी जो फेहरिस्त है जिंदगी की, उसमें आखिरी आइटम है। जब भी जरूरत पड़ती है, पहले इस बेकार को अलग कर देते हैं, बाकी सब को जारी रहने देते हैं।
नहीं; ध्यान केवल उन्हीं का सफल होगा, जिनकी जिंदगी की फेहरिस्त पर ध्यान नंबर एक बन जाता है। अन्यथा सफल नहीं हो सकता है। सब छोड़ दें, ध्यान मत छोड़ें। एक दिन खाना न खाएं, चलेगा; थोड़ा लाभ ही होगा, नुकसान नहीं होगा। क्योंकि चिकित्सक कहते हैं कि सप्ताह में एक दिन खाना न खाएं तो लाभ होगा। एक दिन दो घंटे न सोएं तो बहुत फर्क नहीं पड़ेगा। कब्र में सोने के लिए बहुत घंटे मिलने वाले हैं।
और कितना सोते हैं, कुछ थोड़ा सोते हैं! एक आदमी साठ साल जीता है, तो बीस साल सोता है। आठ घंटे के हिसाब से अगर गिनती कर लें, तो बीस साल सोता है। अगर सारा हिसाब लगाया जाए साठ साल जीने वाले आदमी का, तो बहुत मुश्किल होती है यह जान कर कि वह जीता कब है। बीस साल सोने में गंवाता है, कुछ साल खाने में गंवाता है, कुछ साल सिगरेट पीने में, सिनेमा देखने में, अखबार पढ़ने में गंवाता है, कुछ साल मौसम अच्छा है कि नहीं है अच्छा, इसकी बकवास में गंवाता है। न मालूम क्या-क्या करने में गंवा देता है। और आखिर में हाथ में पूंजी क्या होती है? मरते वक्त हाथ बिलकुल खाली होते हैं। बच्चे के हाथ से भी ज्यादा खाली होते हैं।
कभी खयाल किया कि बच्चे मुट्ठी बांधे पैदा होते हैं और बूढ़े मुट्ठी खोल कर मरते हैं। बच्चे पोटेंशियली मुट्ठी बांध कर आते हैं, अभी बड़ी आशाएं हैं, अभी मुट्ठी बंधी है। बूढ़ों की सब आशाएं भी खत्म हो जाती हैं। सब चुक गया, हाथ खुल जाता है।
सातत्य, एक बात आपसे कहना चाहूंगा, उसका संकल्प लेकर जाएं कि तीन महीने सतत। दूसरी बात ध्यान में रखना है: अनूठे-अनूठे अनुभव होंगे, ऐसे जो आपने कभी नहीं जाने, तो घबड़ा मत जाना। कभी-कभी तो नया सुख भी घबड़ा देता है। एकदम से आनंद की वर्षा हो जाए तो भी प्राण कंप जाते हैं। नये को पकड़ पाने में वक्त लग जाता है। नये को समझ पाने में समय लगता है। और नया रूट्स ले ले हमारे भीतर, जड़ें फैला ले, इसमें भी बहुत देर लगती है। तो कभी अचानक इतना एक्सटेटिक हो जाएगा, इतना हर्षोन्माद हो जाएगा, इतनी खुशी भर जाएगी कि पैर जमीन पर न पड़ेंगे। तो घबड़ा मत जाना। अनूठे अनुभव में क्या-क्या हो सकता है उनकी थोड़ी सी बात आपसे कह दूं तो आपके खयाल में रह जाए।
कभी इतने प्रकाश का अनुभव हो सकता है कि ऐसा लगे कि आंखें अंधी तो न हो जाएंगी। तो घबड़ा मत जाना। कभी इतने प्रकाश का अनुभव हो सकता है ध्यान में कि एकाध-दो दिन की नींद खो जाए। तो घबड़ा मत जाना। कोई चिंता लेने की बात नहीं। कभी किसी क्षण में ऐसा लगता है कि श्वास बंद हो गई है। तो घबड़ा मत जाना। असल में, जब मन बिलकुल शांत होता है, तो श्वास इतनी करीब-करीब धीमी हो जाती है कि बंद मालूम पड़ती है। बंद होती नहीं है। लेकिन ऐसा मालूम पड़ता है बंद हो गई। तो घबड़ा मत जाना। ऐसा होता है। और कोई खतरा नहीं है। कभी-कभी तो ऐसा भी लग सकता है कि कोई ऐसी घड़ी आ रही है ध्यान के भीतर कि कहीं मैं मर तो न जाऊंगा। तो घबड़ा कर उठ मत आना। वह घड़ी बड़ी कीमती है, उसे चूक मत जाना। उस घड़ी के बाद ही ध्यान समाधि बनता है। जब ध्यान में कभी भीतर ऐसा लगता है कि अब मैं मरा, मरा, मरा, ऐसा डूब रहा हूं, सिंकिंग का अनुभव होता है कि जैसे डूब रहा हूं, और भीतर कहीं खो न जाऊं किसी एबिस में, किसी खड्ड में, किसी खाई में, कोई अंतहीन विस्तार में कहीं गिर न जाऊं। तो घबड़ा कर लौट मत आना। वह क्षण बड़ा कीमती है। उसी की हम मेहनत कर रहे हैं। राजी हो जाना। परमात्मा से कहना, तेरी मर्जी! डुबा दे, मिटा दे।
और जैसे ही राजी होंगे वैसे ही पहली दफे पता चलेगा कि ध्यान समाधि बन गया और आप मृत्यु के बाहर हो गए। मृत्यु को जाने बिना, मृत्यु के बाहर कोई नहीं हो पाता है। ध्यान में भी एक मृत्यु घटित होगी और उसी दिन ध्यान समाधि बन जाता है।
ऐसा और कुछ भी घटित हो, अलग-अलग लोगों को अलग-अलग घटनाएं घटेंगी, तो चिंता नहीं लेने की है। कोई चिंता का कारण नहीं है। ध्यान से कभी किसी का कोई अहित, कोई अमंगल नहीं हुआ। और ध्यान के बाहर किसी का कभी कोई हित और मंगल नहीं हुआ है, यह भी ध्यान रखना।
अब हम, आखिरी दिन है, तो पूरी शक्ति ध्यान में लगानी है। कुछ मित्र नये होंगे, तो मैं दो मिनट उनको सूचना दे दूं। जो मित्र देखने को ही आ गए हों और करना न चाहते हों, वे सिर्फ मेरे सामने अर्थात साधकों के पीछे वाली पंक्ति में खड़े होंगे। और साधकों से थोड़ी दूर, और हमें सहयोग देंगे कि उनके कारण कोई बाधा न हो, बातचीत न हो।
जो मित्र खड़े होकर करते रहे हैं और जो मित्र बैठते रहे हैं अब तक, लेकिन आज खड़े होकर करना चाहते हों, वे मेरे पीछे और मेरे दोनों ओर फैल जाएं। जो मित्र बैठ कर करना चाहते हों, वे बैठ कर कर सकते हैं। लेकिन ध्यान रहे, जिनके शरीर में जोर से गति आती है, वे खड़े हो जाएं।
बातचीत न करें। चुपचाप। जिनको देखना है वे मेरे सामने की पंक्ति में चले जाएं, वह जगह देखने वालों के लिए छोड़ दी है। बीच में कोई देखने वाला न बैठा रहे, उसे नुकसान होगा और दूसरों को भी नुकसान होगा, पीछे चले जाएं, देखना है तो पीछे चले जाएं। खड़े होकर करना है तो मेरे पीछे और दोनों तरफ फैल जाएं।
देर न करें और समय जाया न करें। दोनों तरफ कोई देखने वाला खड़ा न हो। और देखने वाले मित्र अपनी जगह पर ही खड़े रहें या बैठे रहें, लेकिन इधर-उधर न घूमें और करने वालों को किसी तरह की बाधा न पहुंचाएं। मजे से देखें, लेकिन चुपचाप देखते रहें, बातचीत भी न करें। जो लोग बैठे हैं, उनको मैं कह दूं कि उनको बैठे नहीं रह जाना है, प्रयोग पूरा करना है। सुबह के प्रयोग का स्मरण कर लें और सुबह शरीर में जो-जो हुआ था, वह होना चाहे तो उसे होने दें। चिल्लाना, रोना, डोलना, कंपना--शरीर में जो भी हो, बैठ कर भी होने दें। बैठ कर भी यह चिंता न करें कि उसे रोकना है। रोकें मत। और आज आखिरी दिन है, जो थोड़े से दस-पंद्र्रह प्रतिशत मित्र खाली रह गए हैं, मैं नहीं चाहूंगा कि वे भी खाली जाएं, वे भी अनुभव की एक किरण लेकर ही जाएं। इसलिए आज पूरी शक्ति लगा देनी है।
दोत्तीन बातें और। चालीस मिनट का प्रयोग है। मेरी ओर टकटकी लगा कर देखना है। आंख झपकनी ही नहीं है, पलक को बिलकुल ही खुला रखना है। और शरीर को जो कुछ होने लगे, होने देना है। जब आपके भीतर की शक्ति जागने लगेगी, तो मैं हाथ से इशारा करूंगा, बोलूंगा नहीं, तब आप अपनी शक्ति को पूरा बल दे दें और पूरी तरह शक्ति को काम करने दें। जब मुझे लगेगा कि ऊपर से परमात्मा की शक्ति भी आप में उतर सकती है, तो मैं ऊपर से नीचे की तरफ हाथ करूंगा। तब आपसे अगर चीख, चिल्लाना, गिरना, नाचना जोर से होने लगे, तो उसे रोकना नहीं है, उसे पूरी तरह होने देना है। परमात्मा के हाथ में अपने को पूरी तरह छोड़ देना है।
अब दो मिनट के लिए आंख बंद करके, हाथ जोड़ कर संकल्प कर लें। फिर हम प्रयोग में प्रवेश करेंगे।
आंख बंद कर लें, हाथ जोड़ लें।

(इसके बाद चालीस मिनट तक ध्यान-प्रयोग चलता रहा।)


कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें