बुधवार, 19 अप्रैल 2017

एस धम्मो सनंतनो-(ओशो)-प्रवचन-106



बुद्धत्व का कमल—प्रवचन—106

प्रश्‍न सार:

पहला प्रश्‍न:

उस सुबह बुद्ध ने मौन की परम संपदा महाकाश्यप को प्रतीक फूल देकर दी। फूल सुबह खिलता है और सांझ मुर्झा जाता है। पर झेन की परंपरा आज तक जीवंत है। फूल की क्षणभंगुरता और झेन की जीवंतता को कृपा करके हमें समझाइए।

ह प्रश्न महत्वपूर्ण है। ठीक से समझना और याद रखना।
बुद्ध ने क्षणभंगुर को ही स्वीकार किया है। जो है, क्षणभंगुर है। क्षणभंगुर से अन्य कुछ भी नहीं है। इसलिए बुद्ध के विचार को क्षणिकवाद का नाम मिला। प्रतिपल बदलाहट हो रही है। फूल ही नहीं बदल रहा है, पहाड़ भी बदल रहे हैं। फूल ही नहीं कुम्हला रहा है, चांद—तारे भी कुम्हला रहे हैं।
बुद्ध ने कहा है : जो जन्मा है, वह मर रहा है। मृत्यु की प्रक्रिया जन्म के साथ ही शुरू हो गयी। कोई दिनभर जीएगा, कोई सौ वर्ष जीएगा, कोई हजार वर्ष, कोई करोड़ वर्ष, इससे कुछ फर्क नहीं पड़ता। लेकिन प्रत्येक वस्तु प्रतिक्षण गल रही है, मर रही है, विलीन हो रही है। फूल उसका प्रतीक है, और जीवंत प्रतीक है। सुबह खिलता है, सांझ मुर्झा जाता है। सुबह ऐसे प्रगट होता है, जैसे सदा रहेगा, और सांझ ऐसे खो जाता है, जैसे कभी नहीं था। ऐसा ही तो जीवन है। जब होता है, तो ऐसा भरोसा लगता है कि सदा रहेंगे। प्रत्येक को यही भ्रांति है।

जब तुम दूसरे को मरते देखते हो, तब भी यह खयाल कहा आता कि मैं भी मरूंगा! जब तुम दूसरे की लाश को चिता पर चढ़े देखते हो, तो सोचते हो. बेचारा! उस पर दया खाते हो, अपने पर दया नहीं खाते।
जब भी चिता जलती है, तुम्हारी ही चिता जलती है। और जब भी मौत रास्ते से गुजरती है, तुम्हारी ही मौत गुजरती है। कभी पूछने मत भेजना कि किसकी लाश निकली! हर बार तुम्हारी ही लाश निकलती है।
लेकिन आदमी इस भ्रांति में रहता है कि मैं तो रहूंगा। .सदा दूसरे मरते हैं, मैं कहां मरता हूं! और इस तर्क में थोड़ा बल भी मालूम होता है। क्योंकि कभी अ मरा, कभी ब मरा, कभी स मरा, तुम तो नहीं मरे। तुम तो अपनी मृत्यु को नहीं देख पाओगे, इसलिए तुमने तो सिर्फ अपना जीवन ही देखा। मरे तो तुम भी हो, बहुत बार मरे हो, पर मृत्यु देखने के पहले ही व्यक्ति मूर्च्‍छित हो जाता है। मृत्यु कै भय से मूर्च्छित हो जाता है।
मृत्यु को जो देखने में समर्थ हो जाता है, वह तो मुक्त हो गया, फिर उसका कोई जन्म नहीं। जो मृत्यु में शॉति से, जागरूकता से, समाधिपूर्वक लीन हो गया, फिर लौटकर नहीं आता। उसे तो जीवन का राज ही समझ में आ गया।
तो बुद्ध ने कहा है सारा जीवन क्षणभंगुर है। जैसे नदी बह रही है, ऐसा जीवन बह रहा है। सब चीजें बदल रही हैं। बच्चे जवान हो रहे हैं, जवान के हो रहे हैं; के मर रहे हैं। सब चीज सतत धारा की तरह बह रही है। फूल उसका बड़ा उपयुक्त प्रतीक है।
लेकिन इस सारी क्षणभंगुरता के पीछे, इस सारी क्षणभंगुरता के पार, कुछ है जो शाश्वत है। उसी को बुद्ध ने कहा : एस धम्मो सनंतनो। धर्म शाश्वत है, शेष सब मरता है; शेष सब विनष्ट होता है।
बुद्ध जिसे धर्म कहते हैं, उसे ही लाओत्सु ने ताओ कहा। बुद्ध जिसे धर्म कहते हैं, उसी को महावीर ने आत्मा कहा। बुद्ध जिसे धर्म कहते हैं, उसी को हिंदू मुसलमान, ईसाई परमात्मा कहते हैं। ये अलग— अलग नाम हैं।
क्षणभंगुर तभी हो सकता है, जब सबकी पृष्ठभूमि में कुछ शाश्वत हो। बैलगाड़ी चलती है, चाक घूमता है; लेकिन कील नहीं घूमती, जिस पर चाक घूमता है। अगर कील भी घूम जाए, तो फिर चाक वहीं गिर जाए; फिर चाक नहीं घूम पाए। चाक के घूमने के लिए एक कील चाहिए, जो न घूमती हो। परिवर्तन के लिए कुछ नित्य चाहिए, जिस पर परिवर्तन टंगा रहे। नहीं तो परिवर्तन किस पर टंगेगा!
बचपन था, जवानी आयी, बुढ़ापा आया। जीवन था, मौत आयी। तुम्हीं बच्चे थे, तुम्हीं जवान हुए। सब बदल गया। और फिर भी पीछे कोई खड़ा है। नहीं तो कैसे कहोगे कि मैं बच्चा था, मैं जवान हुआ! संबंध ही टूट जाएगा। बचपन खतम हुआ, जवानी शुरू हुई; बीच में दोनों के कोई जोड़ न रहेगा। तुम कभी न कह पाओगे कि मैं बच्चा था, अब मैं जवान हो गया। जरूर कोई एक सूत्र भीतर बह रहा है।
सारे परिवर्तन के बीच कुछ है, जो अपरिवर्तित है। उस कुछ को बुद्ध ने धर्म कहा है। ठीक ही कहा है। धर्म का अर्थ होता है. स्वभाव। धर्म का अर्थ होता है सारी प्रकृति के पीछे छुपा हुआ अंतिम रहस्य।
सब बदलता दिखायी पड़ रहा है, सुबह फूल खिला, सांझ मुर्झा गया। कल फिर फूल खिलेगा, फिर मुर्झाएगा। अनंत बार खिला है, अनंत बार मुर्झाया है। लेकिन फूल में कुछ सौंदर्य है, जो शाश्वत है। वह सौंदर्य फूल का धर्म है।
तुमने एक गुलाब का फूल देखा, दूसरा गुलाब का फूल देखा; तीसरा गुलाब का फूल देखा। सब फूल मुर्झा जाते हैं। लेकिन फिर भी कुछ गुलाब .में गुलाबीपन है। फिर भी कुछ गुलाब में पकड़ में न आने वाला सौंदर्य है। काटने जाओगे गुलाब को, विश्लेषण करोगे, नहीं पकड़ में आएगा, पकड़ के बाहर है। लेकिन हर गुलाब को तुम पहचान लेते हो यह गुलाब का फूल है। कैसे पहचान लेते हो? दो गुलाब के बीच कुछ गुलाबीपन जरूर होगा, जो एक जैसा है, जो मूलत: एक जैसा है। नहीं तो एक गुलाब से दूसरे गुलाब का क्या संबंध!
फिर, गुलाब का फूल है, चमेली का फूल है, कमल का फूल है—इन सबके बीच भी कुछ है, जो शाश्वत है। और गहरे जाओ, तो वह जो खिलना, जिसको हम फूलना कहते हैं, वह जो फूल होने की आत्मा है, वह जो खिलाव है। वह एक ही है। जब गुलाब का फूल खिलता और कमल का फूल खिलता—उनके रूप अलग, ढंग अलग, व्यक्तित्व अलग, देह अलग, गंध अलग—सब अलग, आकार अलग, लेकिन खिलना तो एक ही जैसा है। चाहे घास का फूल खिले और चाहे कमल का फूल खिले, खिलना तो एक जैसा है। वह जो खिलावट है, वह उनका धर्म है।
फिर फूलों को छोड़ो। एक फूल खिलता है और एक सुंदर युवती खिलती है। आकाश में तारा खिलता है। ये जो इतनी अनंत अभिव्यक्तियां होती हैं, इनमें बडा भेद है। लेकिन इन सबके और गहरे चलो, तो तुम पाओगे? सबके भीतर खिलने की एक परम अभीप्सा है।
तुमने देखा, हमारे पास एक शब्द है—प्रफुल्लता। वह फूल से ही बना है। अर्थ तो होता है : आनंद; लेकिन बना है फुल्लता से, फूलने से। प्रफुल्लता! जब कोई आनंदित होता है, तब उसमें भी कुछ खिलता है।
तुम आनंदित आदमी में देख सकते हो, कुछ खिलता हुआ। और दुखी आदमी में देख सकते हो, कुछ बंद हो गया। दुखी आदमी बंद हो जाता है; अपने में सिकुड़ जाता है, संकुचित हो जाता है। प्रसन्न—प्रफुल्लित—खिल जाता है।
प्रफुल्लित आदमी के पास तुम एक तरह की सुवास पाओगे, जैसी फूलों में होती है। एक तरह का रंग, एक तरह का निखार पाओगे, जैसा फूलों में होता है। आनंदित आदमी के पास तुम्हें गंध मिलेगी; तुम्हें वैसा ही आनंद— अहोभाव मिलेगा, जैसा फूलों में होता है।
इसलिए फूल आनंद के प्रतीक बन गए। और इसलिए मंदिरों में लोग फूल ले जाते हैं चढ़ाने। वे प्रतीक हैं। क्योंकि परमात्मा को तुम अपना सिकुडापन कैसे चढ़ाओगे! अपना फूलापन चढाओगे। उसके चरणों में तुम प्रफुल्लित होकर अपने को निवेदन करोगे।
ये फूल तो प्रतीक हैं, जो तुम चढ़ा आते हो। इन्हीं को चढ़ाकर तृप्त मत हो जाना। ये तो संकेत हैं। ये तो इस बात की खबर हैं कि तुम परमात्मा के चरणों में चढ़ने योग्य तभी होओगे, जब तुम फूल की तरह खिले होओगे। जब तुम फूल बन गए होओगे, तभी तुम उसके चरणों में चढने की पात्रता पाओगे। तुम फूल बनो, तो ही उसके चरण पा सकोगे। फूल बनने का अर्थ है. तुम तृप्त हुए। तुम जो होना चाहते थे, हो गए।
गुलाब की झाडी पर गुलाब नहीं होता, तो तुमने खयाल किया, कुछ खाली—खाली लगती है, कुछ खोया—खोया लगता है। जब गुलाब की झाड़ी पर फूल खिलता है, तो झाड़ी दुल्हन की तरह सजी होती है! मगन होती है! फूल के बाद फिर कुछ और नहीं है। अंतिम चरण आ गया। जहां तक आना था, वहां तक आना हो गया, मंजिल आ गयी, अपना घर आ गया।
ऐसा ही तो बुद्धपुरुषों में होता है. खिल गए; अब कहीं और जाने को न रहा। जो था, वह सुगंध में बिखेर दिया। पवन उसे ले चला दूर—दूर, अनंत की दिशाओं में।
बुद्ध को मरे पच्चीस सौ साल हो गए, लेकिन जिनको भी थोड़ी सी समझ है, उन्हें आज भी उनकी सुगंध मिल जाती है। जिन्हें समझ नहीं थी, उन्हें तो उनके साथ मौजूद होकर भी नहीं मिली। जिनमें थोड़ी संवेदनशीलता है, पच्चीस सौ साल ऐसे खो जाते हैं कि पता नहीं चलता, फिर बुद्ध जीवंत हो जाते हैं। फिर तुम्हारे नासापुट उनकी गंध से भर जाते हैं। फिर तुम उनके साथ आनंदमग्न हो सकते हो। समय का अंतराल अंतराल नहीं होता, न बाधा बनती है। सिर्फ संवेदनशीलता चाहिए।
हालांकि ऐसे लोग भी थे, जो बुद्ध को देखने गए और जिन्होंने कहा भाई! हमें तो कुछ दिखायी नहीं पड़ता!
अंधे रहे होंगे; बहरे रहे होंगे; जड़ रहे होंगे। दुख से बंद रहे होंगे। रंध्र भी नहीं होगी उनमें, जहां से बुद्ध की ज्योति प्रवेश कर जाए। सब द्वार—दरवाजे बंद करके अपने कारागृह में रहे होंगे। बुद्ध बाहर —बाहर रह गए। गंध आयी, द्वार से लौट गयी। प्रकाश आया, द्वार से लौट गया। और तुमने कहा. हमें तो भाई कुछ दिखायी नहीं पड़ता।
देखने के लिए आंखें चाहिए। देखने के लिए खुलापन चाहिए। तुम वही देख सकते हो, जो तुम थोड़े — थोड़े अर्थों में होने लगे। तुम खिलो, तो तुम खिले हुए को देख सकोगे। तुम बंद हो तो तुम बंद को ही देख पाओगे। समान समान को समझ पाता है। तुम वही जान पाते हो, जो तुम हो।
इसलिए चोर चोर को पहचान लेता है। हजार आदमियों की भीड़ में एक चोर दूसरे चोर को पहचान लेता है। जेबकतरा जेबकतरे को पहचान लेता है। बेईमान बेईमान को पहचान लेता है। साधु ही साधु को पहचान पाएगा।
तुम वही पहचान सकते हो, जिसकी तुम्हारे भीतर थोड़ी अनुभूति होनी शुरू हो गयी। दीया सूरज को पहचान सकता है, हालांकि दीया बडा छोटा है, मगर रोशनी तो वही है, प्रकाश तो वही है; प्रकाश का गुणधर्म तो वही है। बूंद सागर को पहचान सकती है, सागर होना जरूरी नहीं है। लेकिन कम से कम बूंद तो हो जाओ! क्योंकि बूंद में भी सागर का सारा तत्व आ गया। एक बूंद को समझ लो, तो सब सागरों की कथा समझ ली।
वैज्ञानिक अगर एक बूंद का विश्लेषण कर लेते हैं, तो वे कहते हैं हमें पानी के सारे राज पता हो गए। फिर जल कहीं भी होगा; यहां ही नहीं, चांद—तारों पर कहीं होगा, तो भी हमने उसका राज समझ लिया। जल कहीं भी होगा, तो एच टू ओ ही होगा। वह उद्जन और आक्सीजन से ही मिलकर बनेगा। कहीं भी जल होगा, ऐसा ही होगा। एक बूंद जल को समझ लिया, तो सारे अस्तित्व में जहां —जहां जल है, सब समझ में आ गया।
बुद्धत्व को समझना हो, तो एकाध पखुडी तो तुम्हारी कम से कम खुले। न सही पूरी कली फूल बने, एकाध पखुडी खुले, एकाध खिड़की खुले, एकाध वातायन से गंध आए।
तो फूल प्रतीक है परिपूर्णता का। क्षणभंगुरता का भी प्रतीक है, परिपूर्णता का भी प्रतीक है। जीवंतता का भी प्रतीक है।
फूल से ज्यादा जीवंत तुमने कोई चीज देखी! हालांकि सुबह खिलता, सांझ मुर्झा जाता। और उसी के पास पड़ा हुआ पत्थर, सदियों से पडा है, फिर भी पत्थर पत्थर है। फूल फूल है। पत्थर जीवंत नहीं मालूम होता; जड़ है; शायद इसीलिए ज्यादा देर जीता है।
फूल इतना जीवंत है कि ज्यादा देर जी कैसे सकता है! जितनी जीवंतता होगी, जितनी जीवंतता की गहराई होगी, उतनी ही जल्दी स्वप्‍न की तरह जीवन उड़ जाएगा।
फूल और बातों का भी प्रतीक है। जैसे योग में मनुष्य का जो अंतिम चक्र है, उसको सहस्रार कहा है। कहा है सहस्रदल—कमल। जैसे मनुष्य की चेतना जब परिपूर्ण रूप से प्रगट होती है, तो हजार—हजार पखुडियों वाला कमल खिलता है।
इसलिए बुद्ध को, महावीर को, और अवतारी पुरुषों को हमने कमल पर खड़ा किया है। वह सिर्फ सूचक है। कोई ये कमल पर ही खड़े नहीं रहे। ये कोई नाटक—मंडली में नहीं थे कि कमल पर खड़े रहे! और कमल पर खड़े —खड़े करोगे भी क्या! लेकिन कमल प्रतीक है। ये पूरे खिल गए। ये पूरे खिलाव पर सवार हो गए—यह मतलब है। इनके भीतर कुछ भी अनखिला न रहा।
तो बुद्ध का उस दिन हाथ में कमल के फूल को लेकर महाकाश्यप को दे देना, इन सब बातों की सूचना थी।
फिर, फूल बिना कुछ कहे बहुत कुछ कहता है। मौन है उसका वक्तव्य। हालांकि खूब बोलता है फूल; वाणी से नहीं बोलता। तुम ठिठके खड़े रह जाते हो। कभी —कभी फूल तुम्हें ऐसा आकर्षित कर लेता है, कभी—कभी फूल में तुम्हें इस जगत का सर्वाधिक सौंदर्य झलकता हुआ दिखायी पड़ जाता है। फूल की कोमलता! फूल का चुप मौन—संगीत! बोलता नहीं, फिर भी अभिव्यक्ति है!
ऐसा ही तो बुद्धपुरुष का वक्तव्य है। ऐसा ही तो उस दिन बुद्ध चुप रहे। फूल को देखते रहे। महाकाश्यप समझा कि इस घड़ी में बुद्ध फूल ही हैं, और कुछ भी नहीं। आज बोलेंगे नहीं; आज जैसे फूल चुपचाप निवेदन करता है, वैसा ही निवेदन कर रहे हैं। आज तो वे ही समझ पाएंगे बुद्ध को, जो शून्य की भाषा समझ सकते हैं। महाकाश्यप समझ पाया। वह अकेला था, जो शून्य की भाषा समझ सकता था।
फिर, फूल को जब तुम देखते हो... जैसा बुद्ध ने उस सुबह देखा, शायद तुमने वैसा कभी देखा ही न हो। फूल को भी देखने —देखने के ढंग हैं। देखने वाले पर निर्भर करता है।
बगीचे में फूल खिले हैं; एक माली को ले आओ। वह तत्क्षण सोचने लगेगा. किन को तोड़ लूं र किन को बेच दूं बाजार में; कितने पैसे मिल जाएंगे! उसे फूल में सिर्फ पैसे दिखायी पड़ेंगे। वह रुपए गिनने लगेगा।
किसी वैज्ञानिक को ले आओ। वह भी फूल को देखेगा। सोचने लगेगा : किन रासायनिक द्रव्यों से मिलकर बना है? वह विश्लेषण करने में लग जाएगा। वह फूल को तोड़कर जल्दी अपनी प्रयोगशाला में भागना चाहेगा—कि देख लूं छांटकर, काटकर, विश्लेषण करके कि क्या इसका राज है!
तुम एक कवि को लाओ। उसे न तो रुपए—पैसे दिखायी पड़ेंगे—उसे फूल को बाजार में बेचना नहीं है। बेचने की बात ही उसे जघन्य अपराध मालूम होगी। उसे फूल का विश्लेषण भी करना पाप मालूम होगा। फूल को तोड़ना ही पाप है। फिर फूल को खंड—खंड करना सौंदर्य की हत्या है। वह भी फूल को देखेगा और शायद उसके भीतर एक गीत उमगे। वह फूल की प्रशंसा में एक गीत गाए; स्तुति करे।
और तुम किसी नर्तक को ले आओ। शायद वह, फूल जैसे हवा में नाच रहा है, ऐसा उसके आसपास नाचने लगे।
तुम किसी चित्रकार को ले आओ। वह अपनी रंग—तूलिका लाकर जल्दी ही केनवास पर इस फूल को उतारने में लग जाएगा। इसका प्रतिबिंब पकड़ने में लग जाएगा। क्योंकि यह फूल तो खो जाएगा। इसके पहले कि खो जाए, इसे शाश्वत कर देना है। इसके पहले कि यह खो जाए, इसके भागते हुए सौंदर्य को पकड़ लेना है। .अलग— अलग लोग अलग— अलग ढंग से एक ही फूल को देखेंगे।
बुद्ध ने कैसे देखा? बुद्ध उस दिन आए। राह पर किसी ने उन्हें कमल का फूल भेंट कर दिया था। बे —मौसम का फूल था।
इस कथा के पीछे एक और कथा है। उस कथा को भी समझो।
एक गरीब आदमी सुबह उठा। उसने अपने मकान के पीछे पोखरे में कमल का बे—मौसम फूल खिला देखा। ऐसा कभी नहीं देखा था उसने। यह समय न था फूल खिलने का। इस समय फूल कभी खिलता ही नहीं था कमल का।
उसने फूल तोड़ा और सोचा कि कोन इसके दाम दे सकेगा! सम्राट ही दे सकता है दाम। और तो कोई पहचानेगा क्या! बे—मौसम का हो कि मौसम का हो, फूल फूल है। सम्राट तक कैसे पहुंच पाएगा!
ऐसा सोचता वह राजमहल की तरफ जाता था, तब उसे राह पर वजीर का रथ आता हुआ मिला। वजीर ने उसके हाथ में बे —मौसम का फूल देखा। रथ रोका। और कहा. कितना लेगा इसका?
उस गरीब आदमी की हिम्मत कितनी, उसने कहा कि सौ रुपए मिल जाएं। वजीर ने कहा कि हजार का, फूल मुझे दे। जब वजीर ने कहा हजार रुपए दूंगा, फूल मुझे दे, तब वह गरीब आदमी थोडा चौंका। उसने सोचा. मामला इतने सस्ते में बेच देने जैसा नहीं लगता। और यह वजीर ही है। काश! सम्राट से मिलना हो जाए, तो पता नहीं कितना मिले! उसने कहा कि नहीं, नहीं बेचूंगा। क्षमा करें। माफ करें। बेचूंगा ही नहीं। दस हजार रुपए देने को वजीर राजी था। लेकिन उसने कहा — नहीं, अब बेचना ही नहीं है मुझे। जैसे—जैसे रुपए बढ़ाता गया वजीर, वैसे —वैसे उसने कहा मुझे बेचना नहीं है।
वजीर जा रहा था बुद्ध के दर्शन को। उसने सोचा, बुद्ध के चरणों में बे —मौसम का फूल! चाहे कितने में ही मिल जाए, ले लेने जैसा है। बुद्ध के चरणों में रखने जैसी चीज है। लेकिन उस गरीब आदमी ने नहीं बेचा। उस आदमी का नाम था सुदास। वह एक चमार था।
जैसे ही वजीर का रथ गया कि राजा का रथ आया। तब तो वह बड़ा प्रसन्न हो गया। सोचने लगा. आज ये सब कहा जा रहे हैं सुबह—सुबह! राजा ने भी फूल देखा, रथ रुकवाया। बोले इसके कितने दाम लेगा? जितना मांगेगा, उससे दस गुना देंगे। अब तो सुदास बड़ी मुश्किल में पड़ गया। जितना मांगे, उससे दस गुना मिल सकता है! दस हजार माये, तो लाख मिल सकता है। दस लाख मांगे, तो करोड़ मिल सकता है!
उसने कहा महाराज! मैं गरीब आदमी। बड़ी मुश्किल में पड़ गया हूं! एक
प्रार्थना है, इतना दाम देकर आप इस फूल का करोगे क्या! वजीर भी बहुत दाम दे रहा था। मेरी तो बुद्धि चकरा गयी। मैं तो सोचकर निकला था कि कोई पाच रुपए भी दे दे, तो बहुत। बड़ी हिम्मत करके मैंने सौ मांगे थे, जानते हुए कि वजीर नाराज होगा और गुस्सा करेगा। लेकिन वह हजार देने को तैयार था। फिर दस हजार देने को तैयार था। अब आप हैं कि आपने मुझे और उलझन में डाल दिया। आप कहते हैं, जितना मांगेगा, उससे दस गुना मिलेगा, फूल मुझे दे दे। और फिर सुबह—सुबह आप सब जा कहां रहे हैं आज?
उस सम्राट ने कहा : तुझे पता नहीं! भगवान बुद्ध का आगमन हुआ है। शायद उनके आने से ही बे —मौसम का फूल खिला है। शायद उनकी मौजूदगी का ही परिणाम है, प्रसाद है। उन्हीं के दर्शन को जा रहा हूं। और यह फूल किसी भी कीमत पर मुझे चाहिए। बहुत लोगों ने कमल के फूल बुद्ध के चरणों में चढ़ाए होंगे, लेकिन बे —मौसम...! यह बात ही विशिष्ट है। यह मेरे ही हाथ से होनी चाहिए। तू मांग ले, जो तुझे मांगना है।
लेकिन तुम जानते हो, सुदास को क्या हुआ! सुदास ने कहा प्रभु! फिर मुझे क्षमा कर दें। फिर मैं ही उनके चरणों में यह फूल चढ़ाऊंगा।
अभी तक सुदास परेशान था, अब सम्राट परेशान हो गए। दस गुना देने की तैयारी है और यह गरीब आदमी क्या कह रहा है!
सुदास ने कहा कि क्षमा करें मुझे। मैं गरीब आदमी हूं। बेचने चला था। मुझे पता ही नहीं था कि भगवान का आगमन हुआ है। धन्यवाद आपका! लेकिन अब बेच न सकूंगा। जब आप इतना दाम देकर चरणों में चढ़ाने जा रहे हैं, तो चरणों में चढ़ाने में जरूर ज्यादा रस होगा, ज्यादा आनंद होगा। मैं ही चढ़ा लूंगा। गरीब तो हूं ही, तो गरीब तो रहा ही आऊंगा। क्या फर्क पड़ता है! इतने दिन गरीबी में गुजार दिए, आगे भी गुजार दूंगा। मगर फूल सुदास ही चढ़ाका।
ऐसे उस दिन बुद्ध जब प्रवचन को आते थे, तो मार्ग पर सुदास ने उनके चरणों में फूल रख दिया था। वही फूल महाकाश्यप को दिया था।
वह फूल भी अदभुत था। सुदास का बड़ा दान था, बड़ी कुरबानी थी; बड़ा त्याग था। फूल साधारण नहीं था। एक तो बे—मौसम खिला था। फिर एक गरीब आदमी ने सम्राट को धुतकारा था। और एक गरीब आदमी ने कह दिया था : अब फूल नहीं बिकेगा। फूल अनूठा था। बुद्ध उसी फूल को लेकर आकर प्रवचन—सभा में बैठ गए। और उस फूल को देखने लगे।
मैंने कहा. चित्रकार एक ढंग से देखेगा; वैज्ञानिक और ढंग से; कवि और ढंग से; माली और ढंग से। बुद्ध ने कैसे देखा? बुद्ध का ढंग सबसे भिन्न होगा, सबसे अनूठा और सबसे पार।
जब बुद्ध उस फूल को देखते रहे, तो सिर्फ साक्षी मात्र थे। कोई विचार भी भीतर नहीं था। फूल के संबंध में कोई धारणा भी नहीं थी। फूल सुंदर है, असुंदर है; ऐसा है, वैसा है—ऐसी कोई तरंग नहीं उठ रही थी। बुद्ध निस्तरंग उस फूल को लिए बैठे थे। फूल था, बुद्ध थे। दोनों मौजूद थे। दोनों पूरी तरह मौजूद थे। दोनों की मौजूदगी का मिलन हो रहा था। लेकिन कहीं कोई शब्द, कहीं कोई विचार, कहीं कोई प्रत्यय, कहीं कोई तरंग नहीं थी।
उस साक्षीभाव में ही बुद्ध का संदेश था। वही महाकाश्यप ने पकड़ा। महाकाश्यप को पूरा सूत्र मिल गया। झेन संप्रदाय की बुनियाद पड़ी। क्या था सूत्र? साक्षी हो जाओ। ऐसे चुप हो जाओ कि तुम्हारे भीतर कोई विचार न उठे। जब तुम कुछ देखो, तो निर्विचार देखो। चैतन्य तो हो, लेकिन विचार न हो। दर्पण बन जाओ।
अगर दर्पण बन जाओ, तो जो है, वही झलके। जो है, वही झलके, तो सत्य मिल गया। जब तक तुम विचार करोगे, तब तक झलक विकृत होती रहती है, कुछ का कुछ दिखायी पड़ता है। तुम्हारे विचार रंग जाते हैं। तुम सोचकर ही पहले से बैठे हो ऐसा है, वैसा है। तो जो है, वही नहीं दिखायी पड़ता है। तुम्हारी आंख पहले ही धुएं से भरी है। तुम्हारे दर्पण पर पहले से ही धूल जमी है।
उस सुबह संदेश क्या था बुद्ध का? दर्पण हो जाओ। वह फूल तो प्रतीक ही था। उस फूल से भी बड़ी बात जो बुद्ध कह रहे थे, वह थी साक्षीभाव। वे कह रहे थे ऐसे देखो—जगत को ऐसे देखो —जैसे मैं इस फूल को देख रहा हूं। सिर्फ शुद्ध दृष्टि हो। इसी शुद्ध दृष्टि को बुद्ध ने सम्यक दृष्टि कहा है—ठीक दृष्टि।
ठीक दृष्टि यानी भीतर कोई दृष्टि ही न हो, सिर्फ दर्शन हो। ठीक दृष्टि यानी तुम्हारा कोई भाव न हो, कोई मंतव्य न हो, सिद्धात न हो, शास्त्र न हो। सूना आकाश हो भीतर। उस सूने आकाश से जगत को देखो, तब तुम वही देख लोगे, जो है। तुम वही देख लोगे, जो छिपा है, अदृश्य है। नहीं तो तुम कुछ का कुछ देखते रहोगे।
फूल तो प्रतीक था। फूल तो बाहर था। बुद्ध ने उस दिन अपने भीतर का पूरा फूल भी प्रगट किया। बाहर फूल था, भीतर फूल था। बाहर कमल था, भीतर कमल था। दो कमलों का मिलन हो रहा था।
इन दो कमलों के मिलन को देखकर महाकाश्यप हंसा, प्रफुल्लित हुआ। यह अपूर्व घटना थी। इसलिए बुद्ध ने यह कमल महाकाश्यप को भेंट कर दिया और कहा अपने संन्यासियों को—कि जो मैं शब्द से कह सकता था, तुम्हें दे दिया, और जो शब्द से नहीं कह सकता था और नहीं कहा जा सकता था, वह मैं महाकाश्यप को दे रहा हूं। निःशब्द दे रहा हूं महाकाश्यप को।
फिर ऐसे ही झेन की परंपरा में एक गुरु दूसरे गुरु को निःशब्द में देता रहा है। एक कथा और।
महाकाश्यप की परंपरा में हुआ बोधिधर्म। फिर बोधिधर्म चीन गया, और भारत से झेन की परंपरा चीन पहुंची। बोधिधर्म भारतीय गुरुओं में अट्ठाइसवां गुरु था।
चीन में बोधिधर्म नौ वर्ष तक दीवाल की तरफ मुंह किए बैठा रहा। लोग आते थे, तो उनकी तरफ देखता नहीं था। पीठ ही किए रहता था। लोग पूछते भी कि बहुत भिक्षु हमने देखे, बहुत संत देखे, मगर आप हमारी तरफ पीठ क्यों किए हैं? तो बोधिधर्म कहता. जो मेरी आंखों में पड़ने के योग्य होगा, जब उसका आगमन होगा, —तब देखूंगा। अभी देखने से कुछ सार नहीं है। अभी तो दीवाल देखूं कि तुम्हें देखूं? सब बराबर है। दीवाल ही है चारों तरफ। तुम भी दीवाल हो!
नौ वर्ष बाद वह व्यक्ति आया, जिसकी प्रतीक्षा बोधिधर्म ने की थी। बोधिधर्म को भी महाकाश्यप मिला; जैसे बुद्ध को महाकाश्यप मिला था। उस व्यक्ति ने आकर अपना एक हाथ तलवार से काटकर बोधिधर्म को भेंट किया और कहा. जल्दी से इस तरफ मुंह करो अन्यथा गरदन भी भेंट कर दूंगा! फिर क्षणभर बोधिधर्म नहीं रुका। जल्दी से घूमा। वह नौ साल जो दीवाल को देखता रहा था, वह घूमा और उसने कहा कि तो तुम आ गए! मैं तुम्हारी प्रतीक्षा में था। क्योंकि जो सब देने को तैयार हो, गरदन देने को तैयार हो, वही मेरे संदेश को झेल सकता है।
इस व्यक्ति को बोधिधर्म ने अपना संदेश दे दिया, जो बुद्ध ने महाकाश्यप को दिया था। वह क्या है संदेश? शब्द में कहने का उपाय नहीं।
यह नौ वर्ष तक दीवाल का साक्षी रहा था। बुद्ध तो थोड़ी देर फूल के साक्षी रहे थे। बोधिधर्म नौ वर्ष तक दीवाल को देखता रहा था। यह नौ वर्ष का साक्षीभाव था, जो उसने इस व्यक्ति को दे दिया।
फिर यह व्यक्ति गुरु हुआ। बोधिधर्म वापस लौट गया चीन से भारत की तरफ। भारत कभी पहुंचा नहीं। कहीं हिमालय में खो गया होगा। और खो जाने को बेहतर जगह है भी नहीं।
फिर यह व्यक्ति, जिसको बोधिधर्म दे आया था, का हुआ; और इसे भी अपने शिष्य की तलाश थी। इसके आश्रम में पांच सौ भिक्षु थे। इसने एक दिन खबर की कि अब मुझे शिष्य की तलाश है। जो भी सोचता हो कि योग्य हो गया है, वह मेरे द्वार पर आकर लिख जाए धर्म का सार चार पंक्तियों में।
जो सबसे बडा पंडित था, महापंडित था, स्वभावत: उसी ने हिम्‍मत की। उसी ने बड़े डरते —डरते हिम्मत की। क्योंकि वे जानते थे अपने गुरु को कि उसे धोखा नहीं दिया जा सकता। औरों ने तो हिम्मत ही नहीं की, विचार ही नहीं किया। लेकिन एक ने हिम्मत की, जो सबसे बडा पंडित था, जिसे शास्त्र कंठस्थ थे। वह रात चोरी से गया, वह भी दिन में नहीं; रात जाकर गुरु के द्वार पर चार पंक्तियां लिख आया। उसने पंक्तियां लिखी थीं कि—
मन दर्पण की भांति है
इस पर विचारों —विकारों की धूल जम जाती है
उस विचार—विकार की धूल को पोंछ दें
यही धर्म का सार है।
दूसरे दिन सब में खबर पहुंच गयी कि बात तो कह दी है, बिलकुल ठीक कह दी। लेकिन गुरु प्रसन्न नहीं था। गुरु ने पढ़े वचन; लेकिन चुप रहा, कोई वक्तव्य न दिया। लोग सोचने लगे : यह ज्यादती है। इससे सुंदर और वचन क्या लिखा जाएगा! इसमें तो सारा सार आ गया।
यह खबर चलती थी, विवाद चलता था, भिक्षु इस पर एक —दूसरे से चर्चा करते थे। ऐसे दो भिक्षु चर्चा करते भोजनालय से निकलते थे कि आश्रम के भोजनालय में जो व्यक्ति चावल कूटने का काम करता था, वह इन दोनों की बातें सुनकर हंसने लगा।
वह बारह साल से चावल ही कूट रहा था। बारह साल पहले आया था, तब गुरु ने उससे पूछा था : तू धर्म जानना चाहता है या धर्म के संबंध में जानना चाहता है? तो उसने कहा था. संबंध में जानकर क्या करूंगा! धर्म ही जानना है। तो गुरु ने कहा था. तो फिर जा और अब चौके में चावल कूट। जब —जरूरत होगी, मैं आ जाऊंगा। अब तू मेरे पास मत आना।
तो बारह साल से यह आदमी चुपचाप चावल कूट रहा था। बुद्ध थोड़ी देर चुप रहे थे फूल को हाथ में लेकर। बोधिधर्म नौ साल दीवाल के सामने बैठा रहा था। और यह व्यक्ति! इसका नाम था हुईको; यह बारह साल से चुपचाप चावल कूट रहा था!
लोग जानते नहीं थे कि इसका कोई अस्तित्व है। सुबह से उठता, सांझ तक चावल कूटता रहता। रात गिर पड़ता। सुबह फिर उठकर चावल कूटता। बारह साल तक सिर्फ चावल कूटा। न अखबार पढ़ा। न किसी से बात की। न किताब पढ़ी। न कभी किसी से बोला। बारह साल में इसका सब शांत हो गया था। यह साक्षीभाव को उपलब्ध हो गया।
यह बारह साल मे पहला मौका था, जब किसी ने इसको हंसते देखा। वे दोनों भिक्षु चौंके। यह ऐसा ही था, जैसे कि तुम पत्थर पड़ा हो और एकदम उसको चलते हुए देखो। बारह साल! किसी ने सोचा भी नहीं था कि यह हंसता भी है, कि इसमें प्राय भी हैं, कि आत्मा भी है! इसका कोई विचार ही नहीं करता था। बड़े—बड़े सवाल थे विचारने को। कोन इसकी फिकर करता था!
इसको जोर से हंसते देखकर वे दोनों ठिठके। उन्होंने कहा तुम क्यों हंसे? और बारह साल से तुम्हें किसी ने हंसते नहीं देखा! बात क्या हुई आज!
जैसे महाकाश्यप हंसा था, ऐसे हुईनेंग हंसा। और हुईको ने कहा कि मैं इसलिए तस। कि ये पंक्तियां जो लिखी हैं, जिसने भी लिखी हों, महामूढ़ है।
अब तो और भी चौंकाने वाली बात हो गयी। उन्होंने कहा कि चावल कूटते तेरी जिंदगी बीत गयी और तू समझता है, तू ज्ञानी है! और हमारे आश्रम के सबसे बडे महापंडित को महामूढ़ कहता है! तो तू इनसे बेहतर पंक्तियां लिख सकता है? उसने कहा. लिख तो सकता हूं लेकिन मैं लिखना भूल गया हूं। अगर तुम लिख दो, तो मैं बोल दूंगा। चलो अभी।
वह गया और उसने जाकर कहा कि पोंछ दो ये पंक्तियां दूसरे की लिखी हुई। मैं जो कहता हूं लिखो।
पहली पंक्तिया थीं कि—
मन दर्पण की भांति है
इस पर विचार—विकार की धूल जम जाती है
उसे पोंछ दो
यही धर्म का राज है।
हुईनेंग ने कहा.
कैसा दर्पण! कहां का दर्पण!
मन कोई दर्पण नहीं है
धूल जमेगी कहां?
ऐसा जिसने जान लिया, उसने धर्म को जाना।
मन का कोई दर्पण ही नहीं है, धूल जमेगी कहा? जिसने ऐसा जान लिया, उसने धर्म को जाना।
इस व्यक्ति को मिली संपदा। जो संपदा बुद्ध ने महाकाश्यप को दी थी, वह संपदा के गुरु ने हुईको को दे दी।
ऐसी बड़ी अनूठी घटनाओं से झेन की परंपरा चलती रही है। लेकिन सदा संवाद शून्य का है, साक्षी का है।

 दूसरा प्रश्न:

 बौद्ध—साहित्य में एक अपूर्व प्रसंग है। एक समय विमलकीर्ति ने अपने पांच सौ शिष्यों को बुद्ध के पास उपदेश लेने भेजा और स्वयं अस्वस्थ होकर वैशाली में रहे। बुद्ध ने सारिपुत्र, मौद्गलपुत्र, महाकाश्यप, सुभूति, पूर्णमैत्रायणीपुत्र, महाकात्यायन, अनिस्ज, उपाली, राहुल, आनंद और अन्य सभी बोधिसत्वों को एक—एक करके विमलकीर्ति के पास जाकर स्वास्थ्य का समाचार लाने को कहा। पर आश्चर्य, सभी ने कहा कि वे इस योग्य नहीं कि उनके स्वास्थ्य के संबंध में पूछने जाएं। और इस असमर्थता के लिए रूपष्ट कारण कहे।
और अंत में बुद्ध के कहने पर महासत्व मंजुश्री सभी को लेकर विमलकीर्ति के पास गए और उनके बीच अदभुत संवाद घटा। भगवान! महासत्व विमलकीर्ति की विस्मयजनक गुणवत्ता को हमें कहिए। और यह भी समझाइए कि सभी प्रमुख शिष्य और बोधिसत्व उनके पास जाने में क्यों कर झिझके और किस अदम्य साहस के वश महासत्व मंजुश्री उनके पास जा पाए?

ड़ी महत्‍वपूर्ण कथा है।
विमलकीर्ति संन्‍यासी नहीं था; विमलकीर्ति गृहस्थ था। विमलकीर्ति ने कभी घर नहीं छोडा। क्योंकि विमलकीर्ति का भी कहना यही था. छोडना क्या! पकड़ना क्या! जो छोडता है, उसने यह बात मान ही ली कि मैंने पकड़ा था। जो त्यागता है, उसने यह बात मान ही ली कि मेरा था।
समझना। जब तुम कहते हो, मैंने धन त्याग दिया, तो तुम क्या घोषणा कर रहे हो? तुम परोक्ष से यह घोषणा कर रहे हो कि धन मेरा था। त्याग में भी घोषणा यही है कि मेरा था।
विमलकीर्ति कहता था : वास्तविक त्याग तो वही है, जो जानता है, मेरा नहीं है तो लागू कैसे? पकडूं कैसे? छोडूं कैसे? पकड़ना भी गया; छोड़ना भी गया। वही वास्तविक त्याग है।
इसलिए विमलकीर्ति ने कभी घर नहीं छोड़ा। पत्नी नहीं छोड़ी। बच्चे नहीं छोड़े। दुकान नहीं छोड़ी। काम नहीं छोड़ा। उसकी दृष्टि बड़ी पैनी थी। और जिन्होंने छोड़ा था, उन्हें वह झंझट में डालता था। रास्ते पर कहीं मिल जाता.।
मौद्गल्यायन लोगों को समझा रहा था एक रास्ते पर. कि छोड़ो; संसार असार है। आ गया विमलकीर्ति। उसने कहा : असार है, तो छोड़े क्यों? असार है ही —इतना जानना काफी है। जब असार को कोई छोड़ता है? जब असार ही है, तो स्ट्रोडने को बचा क्या?
मौद्गल्यायन को उसने घबडा दिया। ऐसे उसने बुद्ध के सारे शिष्यों को परेशान कर रखा था। वह खुद भी बुद्ध का शिष्य था। लेकिन अनूठा था। और सब शिष्य संन्यस्त थे, दीक्षित हुए थे, भिक्षु थे। वह संसार में था। वह परम संन्यासी था।
इसलिए मैं अपने संन्यासी को संसार छोड़ने को नहीं कहता। मैं चाहता हूं : तुम विमलकीर्ति बनो। तुम जहां हो, वहीं समझो। जैसे हो, वैसे ही रहो। भीतर बोध जगे। न, पर की क्षुद्र बातों में मत पड़ो।
पत्नी छूटे, यह सवाल नहीं है। पत्नी के प्रति मेरी पत्नी है, यह भाव छूट जाए; इतना काफी है। कोन किसका है? पत्नी तुम्हारी कैसे? तुम पत्नी के कैसे? सब मालकियत झूठी है। सब स्वामित्व झूठा है। इतना समझ आ जाए.......।
तो ध्यान रखना, यह तो समझ में नहीं आता। पहले तुम कहते हो : धन मेरा। फिर कहते हो मैंने धन छोड़ा। मगर स्वामित्व तो कायम रहा। जब था, तब भी था। अब छोड़ा, अब भी है।
मेरे एक परिचित हैं। कई वर्ष पहले उन्होंने घर—गृहस्थी छोड़ दी; धन इत्यादि छोड़ दिया। मगर वे कहते फिरते हैं अभी भी; तीस साल हो गए, अभी भी कहते हैं : मैंने लाखों रुपए पर लात मार दी!
मैं उनको मिलने गया एक बार, तो मैंने कहा कि लात लग नहीं पायी मालूम होता है! लग गयी होती, तो अब उसकी बकवास! तीस साल हो गए! बात खतम हो गयी। तीस साल पहले लात चलायी थी, अब इसकी कोई चर्चा तीस साल तक करता! और अभी भी तुम बड़े रस से कहते हां कि लाखों रुपयों पर लात मार दी! हजारों पर मारते, तो इतना मजा न आता। सैकड़ों पर मारते, तो कुछ खास बात ही न थी। करोड़ों पर क्यों नहीं मारी? करोड़ों पर मारो, तो और रस आएगा! अरबों पर मारो, तो और रस आएगा। मगर यह रस क्या खबर दे रहा है?
लाखों पर लात मार दी, यह नयी अकड़ है। लाख तुम्हारे थे? अब भी तुम मानते हो, तुम्हारे थे? तुमने यह हिम्मत की कैसे लात मारने की? जो तुम्हारा नहीं उस पर तुमने लात मारी कैसे? तुम हां कोन?
लात तो हम उसी को मार सकते हैं, जो अपना हो; जिस पर मालकियत हो। तीस साल चले गए; लात चूकती ही चली गयी है। लात मारने का सवाल ही नहीं। सिर्फ समझ की बात है। यहां अपना क्या है? हम नहीं थे, तब भी सब था। हम नहीं होंगे, तब भी सब ऐसा ही होगा। इस दो दिन की जिंदगी में अपना—तेरा कर लेने का सब भ्रम है।
विमलकीर्ति बुद्ध के भिक्षुओं को बड़ी दिक्कत में डाल देता था। खुद बुद्ध का परम शिष्य था। लेकिन अनूठा था। अकेला था, जिसने घर —द्वार नहीं छोड़ा। और उससे सभी डरते थे। क्योंकि वह ऐसे प्रश्न उठाता था, जिनके उत्तर नहीं हो सकते थे। जैसे कोई समझा रहा है...।
बुद्ध के भिक्षु जाते थे समझाने। किसी वृक्ष के नीचे सारिपुत्र बैठा है और लोगों को समझा रहा है. ध्यान करो। और आ गया विमलकीर्ति। तो पसीना छूट जाता सारिपुत्र को। —क्योंकि वह खड़े होकर ऐसे सवाल उठा देता कि मुश्किल खड़ी कर देता। वह कहता. ध्यान करो! कोन करे ध्यान? करने वाला कोन? और कृत्य से कभी ध्यान हुआ है? ध्यान कृत्य है? करने में तो अहंकार है। और हर कृत्य अहंकार को मजबूत करता है।
इसलिए विमलकीर्ति कहता : ध्यान किया नहीं जाता। ध्यान होता है। करने का शब्द वापस ले लो। कहां मत किसी से कि ध्यान करो। ध्यान कोई क्रिया है? ध्यान अक्रिया है —नान एक्शन।
ध्यान में करते क्या हो? सब करना छूट जाता है। करोगे कैसे? ध्यान में तो बस होते हो। यह माला फेरनी, या घंटी बजानी, या जप करना—यह ध्यान नहीं है। क्योंकि इसमें तो करना जारी है। इसमें तो उपद्रव जारी है। इसमें तो मन का व्यापार जारी है।
जब मन का सब व्यापार रुक जाता है, तो माला कैसे फिरेगी? माला का फिरना भी मन का ही व्यापार है। राम—राम, राम—राम कोन जपेगा? जब मन का व्यापार ही रुक गया, तो रामजी भी गए! फिर राम—राम जपना नहीं हो सकता। यह जपने में कुछ फर्क नहीं है। पहले काम—काम, काम—काम जपते थे। फिर राम —राम, राम—राम जपने लगे। इससे क्या फर्क पड़ता है!
कोई आदमी बैठा रुपैया—रुपैया जपता रहता है। कोई आदमी कुछ और जपता रहता है। मगर यह सब जपने में मन का व्यवसाय है; मन की क्रिया है। और मन की किया जारी रहेगी, तो मन जिंदा रहेगा।
तो विमलकीर्ति कहता कि वापस ले लो शब्द अपने, सारिपुत्र! क्षमा मांग लो इन लोगों से! ऐसा उसने सारे बुद्ध के शिष्यों को परेशान कर रखा था। और वह कहीं भी आ जाता मौके—बेमौके। और वह ऐसे बेक प्रश्न खड़े कर देता था, जिनके उत्तर किसी के भी पास नहीं थे।
इसीलिए जब उसके पाच सौ शिष्य बुद्ध के दर्शन करने आए और उनसे खबर बुद्ध को मिली कि विमलकीर्ति बीमार है, स्वभावत: उन्होंने अपने प्रमुख शिष्यों को कहा कि तुम जाओ, विमलकीर्ति के स्वास्थ्य का समाचार पूछ आओ। मगर कोई जाने को राजी नहीं हुआ। उन्होंने कहा कि क्षमा करिए। क्योंकि हम तो स्वास्थ्य का समाचार पूछने जाएंगे, वे कोई झंझट खड़ी करेंगे। वे वहीं चार आदमियों के सामने बेइज्जती करवा देंगे।
और वही हुआ। जब मंजुश्री गया और उसने पूछा : आप बीमार! तो विमलकीर्ति ने कहा. सारा संसार बीमार है। यह कोई पूछने की बात है! यहां सभी दुख में पीड़ित हैं। जन्म बीमारी; जीवन बीमारी; जरा बीमारी; मृत्यु बीमारी। सब बीमारी है। तुम क्या पूछने आए हो? बेचारा मंजुश्री पूछा कि मेरा मतलब कि आपका स्वास्थ्य इत्यादि ठीक नहीं है! तो विमलकीर्ति ने कहा कि मैं तो सदा ठीक हूं। और जो ठीक नहीं है, वह मैं नहीं हूं।
अब ऐसे आदमी से स्वास्थ्य का समाचार पूछने जाना भी मुश्किल! क्योंकि वह वहीं फजीहत हो गयी! कोई राजी नहीं था। उन्होंने कहा. क्षमा करें; हमारी योग्यता नहीं है। हमें उस आदमी के पास न भेजें। वह तो सिंह के मुंह में जाना है। वह कुछ न कुछ. वे बीमार हैं कि नहीं, हमें पक्का नहीं। हो सकता है सिर्फ बहाना हो हम को उलझाने का!
और सच बात यही थी कि विमलकीर्ति बीमार नहीं था। और ऐसे ही लेट रहे थे। वह इन्हीं बोधिसत्वों की प्रतीक्षा कर रहे थे कि आ जाएं, तो इनको दुरुस्त किया जाए कि किसकी खबर पूछने आए हो? कोन बीमार? कैसा बीमार? बीमारी क्या है? देह बीमारी है, तो जो भी देह में है, वही बीमार है। देह उपाधि है और इसकी कोई औषधि कहां? तुम सोचते हो, तुम बीमार नहीं हो? अगर तुम बीमार नहीं हो, तो जगत में क्यों हो? जगत में तो आते ही वे हैं, जो बीमार हैं। जब कोई बीमार नहीं रह जाता, तो जगत से मुक्त हो जाता है। फिर उसका निवास मोक्ष में है। फिर यहां नहीं। जो स्वस्थ हो गया, जो स्वयं में स्थित हो गया, फिर यहां कहां! फिर तो गया परलोक। फिर तो खो जाता है यहां से।
वे सब जानते थे। विमलकीर्ति के ढंगों से वे परिचित थे। यह जैसे एक परीक्षा थीं बोधिसत्वों की। सबने इनकार कर दिया। सिर्फ मंजुश्री राजी हुआ। मंजुश्री क्यों राजी हुआ? यह भी समझने जैसा है।
मंजुश्री भी अनूठा शिष्य है। वह अकेला है, जिसमें अहंकार नहीं है। इसलिए राजी हुआ। चलो, विमलकीर्ति दो—चार थपेड़े मारेंगे, तो क्या हर्जा है! चोट लगने वाला वहां भीतर कोई है नहीं, जिस पर चोट लग जाए। वहां अहंकार नहीं है। वहां अहंकार की रेखा भी नहीं है, तो चोट कैसे लगेगी?
मंजुश्री अकेला है बुद्ध के शिष्यों में, जो शुन्य्भाव में है। जब उससे कहा, तो वह तत्‍क्षण चलने को राजी हो गया। और उसने और सबको भी ले लिया साथ कि आओ भाई! जो होगा देखना। तुम डरते हो, तुम खड़े रहना। मैं चला जाऊंगा सिंह के मुंह में, और जो होगा देख लेना।
मंजुश्री गया और उसने सवाल किए। और हर सवाल के उत्तर में विमलकीर्ति ने चांटा मारा। लेकिन एक भी चाटा मंजुश्री को लगा नहीं। मंजुश्री खरा उतरा। विमलकीर्ति ने उसका धन्यवाद किया। ऐसे ही व्यक्ति की तलाश थी। चलो, बुद्ध के शिष्यों में एक पारस—पत्थर बना!
विमलकीर्ति ने इधर झझोरा; उधर झझोरा। सोचा कि किसी तरह प्रतिक्रिया हो जाए; क्रोधित हो जाए; अशांत हो जाए; सोचने लगे एक क्षण को मन में कि कहां फंस गए! हम भी मना कर दिए होते, जैसे सबने किया था। अब यह सब के सामने फजीहत हो रही है! लेकिन फजीहत का कोई सवाल ही नहीं है। अहंकार की फजीहत होती है, शून्य की क्या फजीहत! मंजुश्री वैसे ही रहा, जैसा आया था, वैसा ही रहा—एकरस। जरा भी उद्विग्नता नहीं हुई। जरा भी अशांति नहीं हुई।
दूसरों की अकड़ क्या थी? दूसरों की अड़चन यह थी कि वे तो सब थे भिक्षु, संन्यासी, और विमलकीर्ति था गृहस्थ। पहले तो गृहस्थ के घर संन्यासी पूछने जाए कि कैसे हो! यही बात ठीक नहीं। क्योंकि संन्यासी तो ऊपर और गृहस्थ नीचे। और इसीलिए बुद्ध भेजना चाहते थे कि संन्यासी का यह अहंकार जाना चाहिए। कोन ऊपर? कोन नीचे? यह भी अहंकार ही है कि हम कैसे जाएं!
तुमने देखा, जैन मुनि को नमस्कार करो, तो वह हाथ जोड़कर नमस्कार नहीं करता। मुनि कैसे नमस्कार करे गृहस्थ को!
एक सम्मेलन था। आचार्य तुलसी ने बुलाया। मुझे भी भूल से बुला लिया! काफी वर्ष हो गए। मोरारजी भी निमंत्रित थे, तब वे वित्तमंत्री थे।
इसके पहले कि सम्मेलन में सब लोग भाग लें, जो विशिष्ट अतिथि थे दस—पांच, उनको आचार्य तुलसी ने विशेष रूप से अलग मिलने के लिए व्यवस्था की थी। तो मैं भी गया; मोरारजी गए; और भी जो दो —चार लोग थे, वे गए। सब ने नमस्कार किया और आचार्य तुलसी ने तो आशीर्वाद दिया। वे तो नमस्कार कर नहीं सकते।
किसी और को तो अखरा भी नहीं, लेकिन मोरारजी को अखर गया। मोरारजी को यह बात जंची नहीं कि मैं नमस्कार करूं और: आप आशीर्वाद दें! उन्होंने तत्‍क्षण प्रश्न उठा दिया कि क्षमा करिए; लेकिन यह बात शोभा नहीं देती। हमने हाथ जोडकर नमस्कार किया, आपने नमस्कार का उत्तर नहीं दिया! क्या कारण है इसका? और दूसरा सवाल, उन्होंने कहा, यह भी मैं पूछना चाहता हूं —और यह संगोष्ठी बुलायी है प्रश्नों के लिए, चर्चा करने के लिए, तो चलो इसी से संगोष्ठी शुरू हो—कि आप ऊपर चढ़कर क्यों बैठे हैं और हम सब लोग नोचे बैठे हैं! ही, सभा हो; ठीक है! कोई आदमी ऊंचाई पर बैठे; नहीं तो लोग देख न पाएं। मगर यह तो संगोष्ठी है। दस —बारह लोग तो हैं .हो कुल। तो आप नीचे क्यों नहीं बैठे हैं?
संगोष्ठी कैसे चले! वह तो खतम होने के करीब आ गयी शुरू में ही! तुलसी जी बेचैन होने लगे। उत्तर क्या दें! उत्तर है भो क्या! इतनी भी हिम्मत नहीं कि उतर आए नीचे, कि कहें कि ठीक है यह बात; भूल हो गयी। ऊपर बैठने की कोई जरूरत नहीं थी। छोटी सी बैठक है। नीचे साथ—साथ बैठ जाएगे। इतनी भी हिम्मत नहीं है कि हाथ जोड़कर नमस्कार कर लें, कि क्षमा करें, भूल हो गयी। इतना ही बोले कि मुनि कैसे गृहस्थ को नमस्कार करे! शास्त्र में वर्जना है मुनि गृहस्थ को नमस्कार न कर।
मगर यह कोई उत्तर है! मुनि तो विनम्र होना चाहिए। गृहस्थ को नमस्कार भी न कर सके, तो गृहस्थ की महानिंदा हो गयी।
और कहा कि मुनि को ऊपर बैठना चाहिए।
तो मोरारजी भाई ने कहा कि आप तो अपने को क्रांतिकारी संत कहलवाते हैं। थोड़ी क्रांति करिए। ये तो बातें कुछ जंचती नहीं कि मुनि को ऊपर बैठना चाहिए! मैंने देखा, यह तो मामला बिगड़ा ही जाता है। यह तो बातचीत अब कुछ हो नहीं सकती। यह तो विवाद हो गया। मैंने तुलसीजी को कहा कि अगर आप कहें, तो मैं मोरारजी को जवाब दू!
उन्होंने सोचा. चलो, भार टला। उन्होंने कहा. बड़ी खुशी से आप जवाब दें।
तो मैंने मोरारजी को कहा कि वे ऊपर बैठे हैं—एक नासमझी। आपको अखर रही है—यह दूसरी नासमझी। छिपकली देखते हैं! वह और ऊपर बैठी है! वह महामुनि है। आप छिपकली से परेशान नहीं हो रहे कि छिपकली छप्पर पर क्यों बैठी है! बैठी रहने दो। आपको अखरा क्यों? जिस कारण वे बैठे हैं, उसी कारण आपको अखर रहा है। कुछ भेद नहीं है। आपने हाथ जोड़कर नमस्कार किया, बात खतम हो गयी। दूसरा उत्तर दे ही—ऐसी अपेक्षा क्यों! इतनी स्वतंत्रता तो दूसरे को देनी चाहिए कि उसको उत्तर देना हो दे, न देना हो न दे। आपने नमस्कार किया, इससे आपकी सज्जनता प्रगट हुई। उन्होंने नहीं जवाब दिया, इससे उनकी दुर्जनता प्रगट हुई। लेकिन अब आप खड़े होकर विवाद कर रहे हैं, अदालत में मुकदमा चलाइएगा, कि हमने हाथ जोड़े! तो आपके हाथ जोड्ने में भी हेतु था कि आपके भी हाथ जुड्ने चाहिए! प्रत्युत्तर की आकांक्षा थी।
तो मैंने कहा. मुझे कुछ बहुत भेद नहीं दिखायी पड़ता। उनमें अगर थोड़ी समझ होती, तो उतरकर नीचे आ गए होते। और अगर आपको ज्यादा अखर रहा है, आप भी ऊपर चढ जाएं। हम लोग नीचे बैठे रहेंगे। कोई अडूचन नहीं है। आप दोनों ही ऊपर बैठ जाएं। झंझट खतम हुई।
अहंकार बड़ी कठिनाइयां खड़ी करता है; बड़ी अड़चनें खड़ी करता है।
उस दिन से तुलसीजी भी नाराज हैं, मोरारजी भी नाराज हैं! उस दिन के बाद दोनों का रुख सख्त हो गया। स्वाभाविक!
बुद्ध भेजना चाहते हैं अपने बोधिसत्वों को, जो करीब—करीब बुद्धत्व के आ गए हैं। लेकिन करीब—करीब जानना—अभी बुद्ध हो नहीं गए। सिर्फ एक बुद्ध हुआ है—मंजुश्री। जब उससे कहा, तो वह खड़ा हो गया।
और मंजुश्री को भी विमलकीर्ति ने बहुत झंझेड़ा है। लेकिन वह सदा आनंदित होता था। विमलकीर्ति को देखकर सभा में अकेला वही था, जो आनंदित होता था। और सोचता था आज कुछ महत्वपूर्ण बात विमलकीर्ति जरूर कहेंगे। वही गया। और विमलकीर्ति ने सब तरह से चांटे मारे, और सब तरफ से धक्के दिए। मगर वह अकंप रहा। पूरा शास्त्र है, अदभुत शास्त्र है विमलकीर्ति—निदेंश—सूत्र। उसमें लंबी चर्चा है। विमलकीर्ति चोट पर चोट करते हैं और मंजुश्री अकंप हैं। वह प्रश्न पूछे चला जाता है। वह विनम्र भाव से वे जो कहते हैं, उसे समझने की कोशिश करता है। अंततः विमलकीर्ति स्वीकार कर लेते हैं कि यही एक व्यक्ति है, जो शन्यभाव में जी रहा है।
यह परीक्षण था।
विमलकीर्ति—निदेंश—सूत्र पढना; खूब ध्यान से पढ़ना; क्योंकि विमलकीर्ति का एक—एक वक्तव्य कोहिनूर हीरे जैसा है। उसने जो भी कहा है वह परम सत्य है। जैसे : ध्यान किया नहीं जा सकता। जब सब करना छूट जाता है, तब ध्यान। मोक्ष पाया नहीं जा सकता। जब सब पाना छूट जाता है, तब जो शेष रहता है, वही मोक्ष है। त्याग किया नहीं जा सकता। जो किया जाए, वह भोग ही होगा। जब बोध परिपूर्ण हो जाता है, तब असार असार दिखायी पड़ जाता है, सार सार। न कुछ छोड़ना पड़ता है, न कुछ पकड़ना पड़ता है। सब चुपचाप घट जाता है।
विमलकीर्ति परम संन्यासी हैं।

 तीसरा प्रश्न:

 ध्यान, प्रवचन और कीर्तन— और फिर काम— धंधा! बहुत भद्दा लगता है! कैसे करते रहें?

 द्दा क्यों लगता है? किसको लगता है? विमलकीर्ति की जरूरत है तुम्हें!
भद्दा! तो नया अहंकार तुम पोष रहे हो कि मैं कीर्तन करने वाला, मैं ध्यान करने वाला, मैं प्रवचन सुनने वाला, मैं सत्संग करने वाला—कैसे दुकानदारी करूं? यह तो नया मैं हो गया! यह तो छूटे नहीं, और बंधे। इससे तो भला यही था कि न प्रवचन सुनते, न कीर्तन करते, न ध्यान करते; चुपचाप शांति से अपनी दुकान करते। कम से कम यह अहंकार तो न होता।
एक दिन मोहम्मद ने अपने परिवार के एक युवक को कहा कि तू पड़ा—पड़ा सोया रहता है सुबह; कभी—कभी मेरे साथ चला कर मस्जिद। सुबह की नमाज भी हो जाएगी; टहलना भी हो जाएगा। ताजी हवा, सूरज का निकलना, पक्षियों के गीत। त पड़ा—पड़ा क्या करता है?
कई बार कहा, तो एक दिन वह युवक उनके साथ हो लिया। गया मस्जिद, मोहम्मद ने नमाज पढ़ी। वह भी खड़ा—खड़ा कुछ—कुछ गुन—गुन करता रहा होगा। जब लौटने लगे, तो उसे बडी अकड़ आ गयी।
गरमी के दिन थे और लोग अभी भी अपने — अपने घरों के सामने बिस्तरों पर सोए थे। उसने मोहम्मद से कहा. हजरत! जरा इन पापियों की तरफ तो देखिए! अभी तक सो रहे हैं! यह कोई समय सोने का है! यह प्रभु—प्रार्थना का समय है! इन पापियों की क्या गति होगी हजरत? मरकर ये कहा जाएंगे?
मोहम्मद तो एकदम चौंके। यह पहली दफे गया था। कल तक यह भी सोया रहा था। आज अचानक यह पुण्यात्मा हो गया! और इसकी गुन—गुन भी देखी होगी। इसको कुछ आता—वाता तो होगा नहीं, चला गया था। साथ—साथ खड़ा हो गया। देखता होगा कि मोहम्मद झुके, तो झुक जाता होगा।
मोहम्मद रुक गए। उन्होंने कहा. तू मुझे क्षमा कर। मुझसे बड़ी भूल हो गयी, जो मैं तुझे मस्जिद ले गया। तेरी तो नमाज हुई नहीं, मेरी नमाज खराब हो गयी। तू घर जा भाई! और मैं फिर वापस मस्जिद जाकर नमाज करूं।
वह युवक कहने लगा क्यों? तो मोहम्मद ने कहा कि तू न आता, वही अच्छा था। कम से कम दूसरों को पापी तो न समझता था। कम से कम यह पुण्यात्मा होने का दंभ तो तुझ में नहीं था। यह तो बड़ी गलती मुझसे हो गयी। मुझे क्षमा कर। अब ऐसी भूल दुबारा न करूंगा। अब भूलकर तुझ से न कहूंगा कि मस्जिद चल। तू घर जा, बिस्तर पर सो जा। मुझे जाने दे मस्जिद; मैं फिर नमाज करके आ जाऊं। और क्षमा महा लूं परमात्मा से कि मुझसे बड़ी भूल हो गयी।
तुम से मैं क्षमा मांग या क्या करूं! बड़ी गलती हो गयी, जो तुम्हें ध्यान में लगाया; कि कीर्तन में रस लेने को कहा। इसलिए नहीं कहा था कि जीवन भद्दा हो जाए।
खयाल करना। जब तुम सोचोगे कि दुकान पर बैठना भद्दा है, तो बाकी सब दुकानदार पापी हो गए। जब तुम सोचोगे कि दुकान पर बैठना भद्दा है, तो उसका मतलब हुआ कि तुम्हारा अहंकार बडा धार्मिक रूप ले रहा है। बड़ी भयंकर बात हो रही है!
अहंकार का सांसारिक रूप तो स्थूल होता है, धार्मिक रूप बहुत सूक्ष्म होता है। तुम्हारे पास धन है बहुत; यह अहंकार बहुत स्थूल है। यह तो बुद्ध को भी दिखायी पड़ जाता है। लेकिन तुमने त्याग कर दिया धन का, यह अहंकार बड़ा सूक्ष्म है। यह तो बुद्धिमानों को भी दिखायी नहीं पड़ता। तुमने इतने उपवास कर लिए, इतने व्रत कर लिए; एक अकड़ भीतर होने लगती है। और अकड़ ही तो मारे डाल रही है। अकड़ ही संसार है।
अब तुम कहते हो ' ध्यान, प्रवचन और कीर्तन—और फिर काम— धंधा! बहुत भद्दा लगता है! कैसे करते रहें?'
अगर छोड़ना ही हो तो प्रवचन, कीर्तन और भजन छोड़ दो। धंधा मत छोड़ना। मेरी सारी चेष्टा यहां यही है कि तुम्हें जीवन में परमात्मा का अनुभव हो। तुम्हें जीवन की सामान्य स्थितियों में परम के दर्शन हों। तुम्हें ग्राहक में दिखायी पड़े।
मैं यह नहीं कह रहा हूं कि तुम जैसे तराजू मारते रहे पहले, वैसे ही मारते रहना। मैं यह कह रहा हूं. तुम्हें ग्राहक में परमात्मा दिखायी पड़े। तुम सेवा कर रहे हो उसकी। अगर तुम्हारा ध्यान और कीर्तन और भजन ठीक जा रहा है, तो तुम्हारा तराजू मारना बंद हो जाएगा। तुम्हारा ध्यान, प्रवचन, कीर्तन ठीक जा रहा है, तो ग्राहक को भी तुम ऐसे नहीं देखोगे कि मछली फंसी। तुम ग्राहक में भी परमात्मा देखोगे। तुम ग्राहक को धोखा नहीं दोगे। जरूर तुम्हें भी दो पैसे चाहिए जीने के लिए, तो तुम कहोगे कि चार आने की चीज है, और दो पैसे मुझे भी चाहिए। तुम लूटौगे नहीं। तुम्हारी लूटने की वृत्ति नहीं होगी।
निश्चित, तुम्हें भी कुछ चाहिए; और मैं नहीं कहता कि तुम्हें कुछ भी नहीं लेना है। तुम्हें कुछ लेना है। लेकिन तुम साफ करके लोगे कि दो पैसे मुझे, मेरी सेवा के। उतना तुम्हारा हक है।
लेकिन काम— धंधा छोड़ने को मैं नहीं कहूंगा। जीवन रूपांतरित होना चाहिए। भगोड़ेपन से क्या होगा? तुम दुकान छोड़कर भाग भी गए, तो करोगे क्या! तुम जहां बैठोगे, जैसे रहोगे, उसमें सै ही कुछ न कुछ निकल आएगा और तुम्हारी पुरानी दुनिया फिर शुरू हो जाएगी।
तुमने सुना, एक संन्यासी मर रहा था। बूढ़ा हो गया था। उनका शिष्य—एक ही शिष्य था उनका—उनके पास गया और कहा. गुरुदेव! अब जाते वक्त कुछ आखिरी संदेश! गुरु ने कहा मरते वक्त. एक ही बात खयाल रखना, बिल्ली कभी मत पालना। और इतना कहकर वे मर गए।
बिल्ली कभी मत पालना! वह युवक बड़ा हैरान हुआ कि हद्द हो गयी! बहुत वेद—पुराण—कुरान सब देखे, मगर बिल्ली मत पालना, ऐसा न तो मूसा ने कहा, न मनु ने कहा, न मोहम्मद ने, न महावीर ने, किसी ने नहीं। ये गुरुदेव का दिमाग या तो मरते वक्त खराब हो गया! कुछ शक तो होता था कि सठिया गए हैं। अब यह हद्द हो गयी! अब किसी को अगर मैं कह भी कि मेरे गुरुदेव यह कह गए मरते वक्त कि बिल्ली मत पालना, तो लोग मुझ पर भी हंसेंगे। सो उसने किसी से न कहा।
और जो होना था, सो हुआ। उसने बिल्ली पाल ली। जो गुरु के जीवन में घटा था, जिसके कारण वे कह गए थे कि ऐसा मत करना.। वह रुक नहीं सका, जो गुरु के जीवन में घटा, वैसा ही शिष्य के जीवन में घटा।
गुरु के जीवन में क्या घटा था? वे सब घर—द्वार छोड़कर जंगल चले गए थे। एक लंगोटी बचायी थी।
अब लंगोटी तो बचानी ही पडेगी। मगर लंगोटी में ही सारा संसार भी बच सकता है। क्योंकि संसार तुम्हारे भीतर है। इससे कुछ फर्क नहीं पड़ता कि लंगोटी है तुम्हारे पास या राजमहल है। लंगोटी में ही सारा संसार हो सकता है।
अब वे लंगोटी लटका देते थे रात में, एक थी, पहन लेते, एक धोकर डाल देते। चूहे उसको काट जाते।
तो किन्हीं समझदारों ने—समझदारों से जरा सावधान रहना—किन्हीं समझदारों ने कहा कि गुरुदेव, आप ऐसा करिए कि एक बिल्ली पाल लीजिए; तो ये चूहों को खा जाएगी। आपकी झंझट मिट जाएगी। नहीं तो लंगोटी बार—बार। अच्छा भी नहीं मालूम पड़ता। फिर —फिर आपको गांव जाना पड़ता है कि भई लंगोटी चूहों ने काट दी, अब फिर लंगोटी चाहिए!
यह बात जंची। यह बिलकुल तर्कयुक्त थी। यही तो मजा है मन का कि मन को तर्कयुक्त बातें जंचती हैं। बस जंच गयी बात। वे एक बिल्ली पाल लिए। चूहे तो बिल्ली खाने लगी। लेकिन चूहे जल्दी ही खतम हो गए। अब वह बिल्ली भूखी मरती बैठी वहां! अब इसके लिए क्या करना?
फिर समझदारों से सलाह ली। और जाओ भी कहां? समझदार ही हैं चारों तरफ! सलाह देने वाले हर जगह मौजूद हैं! उन्होंने कहा. आप ऐसा करो कि बिल्ली ने सेवा तो आपकी काफी की, आपको इसको भोजन तो देना ही चाहिए। एक गाय रख लो।
सो उन्होंने एक गाय रख ली। बिल्ली को भी दूध पिला देते, खुद भी पी लेते। अब गाय का सवाल उठा कि इसके लिए घास—पात लाओ! गांव वालों ने कहा कि महाराज! घास—पात अब आप कहां रोज—रोज गांव जाओगे लेने। यह तो बड़ी झंझट होगी। इतनी तो जमीन पडी है यहां, इसी में घास—पात उगा लो।
खेती—बाड़ी करने लगे! अब कभी बीमार हो जाते और पानी डालने नहीं जा पाते, और कभी ज्यादा जरूरत पड़ती काम की, काम पूरा न होता। फिर धीरे — धीरे खेती—बाड़ी बढ़ी। घास—पात पैदा करते —करते गेहूं भी पैदा किया, चावल भी पैदा किए। फिर काम बढ़ने लगा। गांव वालों ने कहा कि महाराज! ऐसा है कि आप एकाध सहयोगी रख लो। ऐसे तो नहीं चलेगा। अब यह काम काफी फैल गया। कोई। आप भी के हुए जाते हैं, आपकी भी सेवा कर दे।
तो गांव में एक विधवा स्त्री थी, उसको लोग ले आए कि यह खाली है, किसी काम की भी नहीं है। आपकी भी सेवा कर देगी, भोजन भी बना देगी, देखभाल भी कर लेगी।
तो जो होना था हुआ। कुछ दिन बाद वह विवाह हो गया उनका! बच्चे हो गए! सो गुरुदेव बेचारे ठीक ही कहकर मरे थे कि तू एक खयाल रखना बिल्ली भर मत पालना।
तुम अगर भाग भी जाओगे संसार से, कुछ होगा नहीं। मन को कहां छोड़ोगे? मन तो तुम्हारे साथ चला जाएगा। जहां जाओगे, वहीं चला जाएगा। अगर मन बेईमान है, तो तुम जहां रहोगे, वहीं बेईमानी करोगे।
मैंने सुना है एक आदमी स्वर्ग के द्वार पर दस्तक दिया। देवदूत ने द्वार खोला। पूछा आप यहां कैसे! तीन बजे रात! यह कोई वक्त है आने का? उसने कहा मैं क्या करूं, डाक्टर की कृपा! तीन बजे मार डाला!
देवदूत ने कहा कि देखना पडेगा खाते —बही में, क्योंकि किसी की यहां खबर नहीं कि इतने वक्त आना चाहिए। कोई बड़ा डाक्टर मिल गया! मैं जरा भीतर जाकर देखूं। तुम काम क्या करते थे? उस आदमी ने कहा. काम कुछ खास नहीं था। यही लोहा—लंगड़ खरीदना, कबाड़ी की दुकान थी।
देवदूत अंदर गए। जब लौटकर आए, तो वह आदमी भी नदारद था और लोहे का फाटक भी नदारद था। अब लोहा—लंगड़ बेचने वाला आदमी, उतनी देर मौका मिल गया, तो स्वर्ग से भी ले भागा वह। जिंदगीभर कबाडी का काम किया; देखा होगा, अच्छा फाटक है; और यहां क्या जरूरत है! वह ले भागा।
तुम्हारा मन तो तुम्हारे साथ जाएगा, जहां तुम जाओगे। तुम्हारा मन अगर कबाड़ी है, तो तुम स्वर्ग के द्वार पर भी वही करोगे।
तुम काम— धंधे के दुश्मन न बनो। यह अकडू न लाओ। मेरे साथ होने का अर्थ ही यही है कि .तुम इस जगत को स्वीकार करो। तुम्हारी स्थिति जैसी है, उसे स्वीकार करो। तुम्हारी स्थिति जैसी है, उसको ही तुम प्रभु का भजन बनाओ; उसको ही कीर्तन बनाओ, वही तुम्हारा ध्यान बने।
जरा करके देखो। तुम चकित होओगे। वही आदमी जो कल ग्राहक की तरह आया था, और तुम सिर्फ उसकी जेब में उत्सुक थे, और तुमने उसके साथ ऐसा भी व्यवहार नहीं किया, जैसा आदमी के साथ करना चाहिए; वही आदमी, कल तुम उसे परमात्मा की तरह देखो—है तो उसमें भी छिपा हुआ; जो तुम में छिपा है, वह उस में भी छिपा है—तुम जरा उसकी परमात्मा की तरह सेवा करो, और तुम फर्क देखना। काम— धंधा काम— धंधा नहीं रहा। काम— धंधे में ध्यान की गंध उतरने लगेगी। और यह हो तो ही कला है।
भगोड़ेपन से क्या होता है! भागकर जाओगे, कुछ फर्क नहीं पड़ता। तुम वही रहोगे, और तुम्हारा व्यवहांर वही रहेगा। और तुम वहां भी किसी न किसी तरह का काम— धंधा खोज लोगे।
मैंने देखा, मैं छोटा था, एक बड़े प्रसिद्ध संन्यासी का प्रवचन सुनने गया। वे ब्रह्मचर्चा कर रहे हैं और बीच—बीच में कोई आ जाते..। सेठ कालूराम आ गए। तो वे कहते : आइए, सेठजी! ब्रह्मचर्चा छूट जाती। सेठजी आ गए। कोन फिकर करता ब्रह्म की। भाड़ में जाओ। पहले कालूराम सेठजी को बिठालते वे—कि आइए, बैठिए। आगे कर लेते। सेठजी पीछे बैठ रहे थे, वे उनको आगे बुला लेते। तब तक विध्‍न—बाधा पड़ती। ब्रह्मचर्चा रुक जाती। सेठजी बैठ जाते, तब फिर ब्रह्मचर्चा शुरू होती।
जब मैंने दो—तीन बार यह देखा, तो मैंने उनसे पूछा कि ब्रह्मचर्चा काहे के लिए चला रहे हैं! आप इसमें क्षणभर भी डूबते नहीं! फिर कोई सेठजी आ गए; फिर कोई फलानेजी आ गए! इंचार्ज साहब आ गए! कलेक्टर साहब आ गए! यह चर्चा है? यह कोई धर्म—प्रवचन हो रहा है?
यह आदमी दुकानदार है। यह काम— धंधे वाला आदमी है। यह दुकान पर जैसे सेठजी को बुलाकर बिठालता रहा होगा, और कलेक्टर साहब आ गए तो उनको बिठालता रहा होगा, और उनके लिए पान लाओ, और सिगरेट लाओ, और चाय बुलवाओ। हालांकि पान, सिगरेट, चाय, अब नहीं बुलवा सकता। मगर भीतर इसके वे भी इरादे उठ रहे होंगे, जब कहता है. बैठो कालूरामजी! बिराजिए। ठीक तो हैं! ब्रह्मचर्चा रुक जाती है।
कालूरामजी में ब्रह्म बिलकुल मालूम नहीं होते। सबसे कम ब्रह्म जिनमें दिखते हों वह कालूरामजी! मगर और किसी के लिए नहीं रुकती। कालूरामजी की जेब भरी है, तो ब्रह्मचर्चा रुकती है!
तुम जाकर क्या करोगे, भागकर क्या करोगे? कहां जाओगे? तुम जहां जाओगे काम — धंधा किसी न किसी तरह पैदा होगा। हो ही जाएगा।
इसलिए कहीं भागने की कोई जरूरत नहीं है। संसार एक अवसर है जागने का। भागो मत—जागो। जहां हो, उसी परिस्थिति में परम संतुष्ट हो जाओ। और उसी परिस्थिति में परमात्मा को तलाशने लगो।
सब परिस्थितियां समान हैं खोजी के लिए। सब परिस्थितियां समान हैं, मैं तुमसे कहता हूं। एक बहुत प्रसिद्ध वचन है इजिप्त की एक पुरानी किताब में कि अगर तुम नर्क में हो, तो उसे स्वीकार कर लो, तुम्हारी स्वीकृति के साथ ही नर्क स्वर्ग हो जाएगा। यह बात मुझे समझ में आती है। यह बात गहरी है।
नर्क को जिसने स्वीकार कर लिया, फिर नर्क कैसे रहेगा? अहोभाव से स्वीकार कर लिया; नर्क उसी क्षण स्वर्ग होने लगा। और तुम स्वर्ग में भी रहो, और शिकायत रहे, तो नर्क ही रहेगा।
तुम कहां हो, इससे फर्क नहीं पड़ता। तुम भीतर से कैसे हो, इससे फर्क पड़ता है। और कम से कम मेरे पास तो ऐसे प्रश्न मत लाओ, क्योंकि मैं संसार—विरोधी नहीं हूं। मैं तुम्हें विमलकीर्ति बनाना चाहता हूं। मैं तुम्हें ऐसे गृहस्थ बनाना चाहता हूं, जो संन्यस्त हैं। मैं संसार और संन्यास की दूरी कम करना चाहता हूं। संन्यास आत्मा बन जाए संसार की, संसार देह रहे, तभी तालमेल बैठता है; तब महासंगीत पैदा होता है।

 चौथा प्रश्न:

 मैं सदा नए की खोज में लगा रहता हूं। कुछ भी नया हो, तो मुझे भाता है। इसमें कुछ भूल तो नहीं है?

भूल तो निश्‍चित है। कुछ नहीं; बड़ी भूल है। क्योंकि यही तो मन के जीने का मन सदा नए की तलाश करता है। मन नए के लिए खुजलाहट है। पुरानी पत्नी नहीं भाती, नयी पत्नी चाहिए। पुराना मकान नहीं भाता; नया मकान चाहिए। पुराने कपड़े नहीं भाते; नए कपड़े चाहिए। हमेशा नया चाहिए। यही तो मन है, जो दौड़ाता है। नए की इस आकांक्षा से महत्वाकांक्षा पैदा होती है। और तुम सदा बेचैन रहते हो। आखिर हर नयी चीज पुरानी पड़ जाएगी, और बेचैनी बढ़ती ही चली जाएगी।
पश्चिम में इतनी बेचैनी है, क्योंकि नए की बहुत पागल दौड़ है। हर चीज नयी होनी चाहिए। उपयोगिता का भी सवाल नहीं है, नए का सवाल है। हो सकता है, पुरानी चीज ज्यादा बेहतर हो, ज्यादा मजबूत हो, ज्यादा काम का हो। लेकिन इससे कोई संबंध नहीं है। नयी चीज चाहिए। नयी बदतर हो, तो भी चलेगा। टीम —टाम हो, तो भी चलेगा। मगर नयी चाहिए।
फिर नए की दौड़ पूरी करने में तुम्हारा जीवन लग जाता है। और नया कभी कुछ भी नहीं हो पाता। चीजें कहीं नयी हो सकती हैं? चीजों की दौड का कोई अंत नहीं है। इसी में समाप्त हो जाओगे।
ही, एक और ढंग है जीने का। जो है बाहर, ठीक है। अगर नए को ही खोजना है, तो भीतर खोजो। भीतर पुराने को काटो।
दुनिया में दो तरह के लोग हैं बाहर पुराने को नए मैं बदलते रहते हैं—इनका नाम संसारी। और जो भीतर पुराने को काटते और प्रतिपल नयी चेतना को मुक्त करते रहते हैं अतीत से—इनका नाम संन्यासी।
स्मृति को जाने दो, भीतर अतीत का बोझ मत ढोओ, भीतर जो अतीत का कूड़ा—कचरा इकट्ठा हो गया है, उसे हमेशा आग लगाते रहो, जलाते रहो। भीतर नए रहो। और तुम परम आनंद पाओगे। भीतर का नयापन दिव्य में प्रवेश —बन जाएगा। बाहर के नएपन से क्या होगा? और शायद हम बाहर नयापन इसलिए खोजते हैं कि हमारे भीतर नए की तलाश है— भीतर—और हम भूल से बाहर खोजते हैं। भीतर चाहिए युवापन, नयापन, ताजगी, सुबह की ताजगी, सुबह की ओस की बूंदों की ताजगी, सुबह के सूरज की ताजगी, सुबह के फूल की ताजगी। ऐसी भीतर चाहिए दशा। भीतर तो नहीं खोजते। सोचते हैं. नयी कार ले आएं; नया मकान बना लें, नयी स्त्री मिल जाए; नयी दुकान खोल लें, नया धंधा कर लें, तो शायद हल हो जाएगा। नहीं हल होगा।
सिकंदरों का हल नहीं होता, तुम्हारा कैसे हल होगा! जिनके पास बहुत है, उनका हल नहीं होता; तुम्हारा कैसे हल होगा?
इस गलत दिशा से अपने चित्त को मुक्त करो। भीतर नए होने की कला सीखो। यह नयापन सिर्फ तुम्हें उलझाए रखता है, व्यस्त रखता है।
किनारे पर बैठकर
कंकड़ें फेंकते
गुजर गए हैं बहुत दिन
पर, फिर भी तो
इस मौन के समुंदर में
कोई
हलचल नहीं है
वैसे ही जड़ है यह
यातनाओं का रेगिस्तान चलो
शब्दों की किश्तिया
तैराएं
ख्वाबों के नखलिस्तान उगाए
संकरी हो आयी
चेतना की पगडंडियों पर अब नहीं चला जाता आओ
कुछ नया ढूंढ लाएं
गुलाबी हथेलियों पर सरसों उगाए
जिससे
पहाड़—से ये लंबे—लंबे दिन बीत जाएं

 कुछ न कुछ करते रहो। चलो, हाथ पर सरसों उगाए! कुछ न कुछ करते रहो! देखा तुमने : नदी के किनारे बैठ जाते हो, तो उठा—उठाकर पत्थर ही फेंकने लगते हो नदी में! कुछ न कुछ करते रहो! घर में आते हो, तो खटर—पटर करते हो। यह चीज यहां रख दो, यह चीज वहां रख दो, खिड़की खोलो, बंद करो। कुछ न कुछ करते रही! क्यों? क्योंकि जब खाली हो जाते हो, तब घबड़ाहट लगती है। खाली होने का रस तुम्हें नहीं है। खाली होने का मजा तुम्हें नहीं है। खाली होने का उत्सव तुमने नहीं जाना है। जब खाली हो जाते हो, तो भय लगता है। कैंपने लगते। उलझाए रहो। भूले रहो। तो अपने को विस्मृत किए रहते। यह उलझाव एक तरह की शराब है।
शराबी क्या करता है? यही करता है, जो तुम कर रहे हो। शराबी यही करता है कि शराब पीकर अपने को भुला लेता है। तुम और ढंग से भुलाते हो।
अंग्रेजी में अल्कोहलिक के मुकाबले एक शब्द और अभी— अभी निर्मित हो गया है—वकोंहलिक। एक तो वह है, जो शराब पीकर अपने को भुलाता है। और एक वह है, जो काम में अपने को भुलाए रखता है—वकोंहलिक!
मोरारजी देसाई—वकोंहलिक! शराब के विरोधी, शराब के दुश्मन; शराब जानी चाहिए। मगर उनको खयाल नहीं है कि शराबी भी वही कर रहा है। तुम राजनीति में उलझकर वही कर लेते हो। अपने को उलझाए हो; लगाए हो।
भागे जा रहे हैं। दौड़े जा रहे हैं! कोल्ह के बैल की तरह जुते हैं। ऐसे जुते—जुते एक दिन मर जाते हो। यह भी तुम्हारा बेहोश होने का ढंग है। अपनी याद न आए। अपने से बचने का उपाय है यह सब।
यह नए की खोज अपने से बचने का उपाय है। और अपना साक्षात्कार करना है, अपने से बचना नहीं है। अपने आमने —सामने आना है। अपने को पहचानना है। अपनी पहचान के बिना तुम्हारे जीवन का रहस्य खुलेगा ही नहीं। इस आत्मा से, जिससे तुम बचते फिर रहे हो, इसी के साथ सगाई करनी है, इसी के साथ गठबंधन करना है।
खाली बैठे हैं, रेडियो खोल लेते, अखबार पढ़ने लगते। चले, उठे, क्लब चले। कि चलो, होटल हो आएं। कि चलो, सिनेमा देख आएं। किसी तरह दिन गुजार दें। फिर पड़ जाएं बिस्तर पर, और सो जाएं। सुबह फिर दौड— धूप शुरू हो जाएगी। ऐसे ही जिंदगी बीत जाएगी। दिन आएंगे और चले जाएंगे। कब जन्म मृत्यु बन जाएगी, तुम्हें पता भी न चलेगा। तुम बेहोशी बेहोशी में ही गुजार दोगे।
नहीं, यह नए की तलाश खतरनाक है—बाहर। बड़ी खतरनाक है। अगर भीतर इसकी दिशा मोड़ दो, तो यही साधना बन जाती है। फिर तुम नया काम नहीं खोजते, नया धंधा नहीं खोजते, नया सामान नहीं खोजते। फिर तुम नयी चेतना खोजते हो, फिर तुम नयी बोध की दशाएं खोजते हो। फिर तुम कहते हो : और ध्यान की गहराइयों में जाऊं, ताकि और नए—नए स्रोत मिलते जाएं। जितना तुम भीतर खुदाई करोगे, उतने ही ज्यादा स्वच्छ जल के स्रोत मिलने लगेंगे।
जैसे कोई कुएं को खोदता है, तो पहले तो कूड़ा—कर्कट हाथ लगता है। फिर रूखे मिट्टी —पत्थर हाथ लगते हैं। फिर धीरे — धीरे गीली भूमि हाथ आती है। फिर जल के स्रोत मिलने शुरू होते हैं। फिर और गहरे जाकर स्वच्छ जल मिलना शुरू होता है।
अपने भीतर खुदाई करो। अपने को कुआं बनाओ। और तुम्हारे भीतर परमात्मा का जल है। तुम्हारे भीतर समाधि की संभावना है।

पांचवां प्रश्‍न:

 भगवान, प्रात: प्रवचन—स्थल पर आप पधारते हैं, तो बड़ी देर तक हाथ जोड़े प्रणाम की मुद्रा में आपको देखकर मुझे बड़ी पीड़ा होती है। लगता है कि आप बाहर आकर सीधे बैठ जाया करें। हम अंधों के लिए आपके जुड़े हाथ देखकर मुझे कष्ट होता है।

संबोधि ने पूछा है यह प्रश्‍न:
यह कष्‍ट शुभ है। यह आँख के खुलने की शुरूआत है। इतना भी तुम्‍हें दिखाई पड़ने लगा कि तुम अंधे हो, तो काफी दिखाई पड़ने लगा। जिसको यह दिखायी पड़ने लगा कि मैं अंधा हूं, उसकी आंख खुलने लगी।
कहते हैं: जब पागल को यह समझ में आना शुरू हो जाए कि मै पागल हूं, तो वह ठीक होने लगा। पागल को समझ में आता ही नहीं कि मैं पागल हूं। तुम किसी पागल को पागल कहो, वह तुम्हें पागल सिद्ध करेगा। वह कहेगा मैं और पागल? तुम पागल हो। मुझे जो पागल कहता है, वह पागल है।
पागल अपने को पागल नहीं मानता। पागलपन में इतनी बुद्धिमत्ता हो भी कैसे सकती है कि अपने को पागल मान ले! जिस दिन पागल मानने लगता है कि मैं पागल हूं; बुद्धिमत्ता की पहली किरण उतरी।
जिस दिन तुम जानते हो कि मैं अज्ञानी हूं ज्ञान का पहला प्रकाश उतरा।
शुभ है संबोधि कि इससे पीड़ा होती है। यह पीड़ा अच्छी है। यह पीडा हितकर है कल्याणदायी है।
और तुम पूछती हो कि हम अंधों के लिए आपके हाथ जुडें—यह ठीक नहीं। तुम अंधे हो नहीं, सिर्फ आंख बंद किए बैठे हो। तुम में और बुद्धों में जो अंतर है, वह ऐसा नहीं है कि बुद्ध के पास आंख है और तुम्हारे पास आंख नहीं है। आंख तुम्हारे पास उतनी ही है, जितनी बुद्ध के पास है। लेकिन बुद्ध खोले हैं अपनी आंख; तुम बंद किए हो।
हालांकि मूर्ति में उलटा दिखायी पड़ता है. बुद्ध की आंख बंद है और तुम्हारी खुली है। बुद्ध की आंख बाहर से बंद है, इसलिए भीतर खुली है। तुम्हारी आंख बाहर खुली है, इसलिए भीतर से बंद है। और भीतर खुले, तो ही खुले। भीतर खुलना ही असली खुलना है।
तुम अपने को देखने लगो, तो आंख वाले हुए। तुम देख तो रहे हो, औरों को देख रहे हो। अपने को नहीं देख रहे। जिस दिन अपने को देखने लगोगे, उसी दिन आंख खुल गयी।
तुम अंधे नहीं हो। अंधे का तो मतलब यह होता है. आंख खुल ही नहीं सकती। अंधे का तो मतलब होता है : आंख है ही नहीं; तो खुलेगी कैसे! अंधा मत मान लेना अपने को। कहीं यह मन की तरकीब न बन जाए। मन यह कहने लगे कि तुम तो अंधे हो; यह हो ही नहीं सकता। बात खतम हो गयी। तो जैसे जी रहे हो, जीए जाओ।
नहीं; तुम अंधे नहीं हो। सिर्फ तुम्हारी आंख गलत तरफ खुली है, इसलिए ठीक तरफ बंद है। तुम्हारी दिशा भ्रांत है। ठीक दिशा में चैतन्य बहने लगे, तुम भी आंख वाले हो जाओगे—उतने ही जितने बुद्ध हैं।
एक दिन बुद्ध भी ऐसे ही अंधे थे, जैसे तुम हो। फिर एक दिन आंख वाले बने। तुम भी एक दिन आंख वाले बन सकते हो। तुम जैसे हो, ऐसा ही मैं था। तो मैं जैसा हूं? ऐसे ही तुम भी हो सकते हो। जरा भी भेद नहीं है।
मैं जब तुम्हें हाथ जोड़ रहा हूं, तो तुम्हारी इसी संभावना को हाथ जोड़ रहा हूं। हाथ जोड़कर तुम्हें कह रहा हूं. बुद्ध तुम्हारे भीतर विराजमान हैं। तुम जरा उनकी सुध लो। हाथ जोड़कर तुम्हें इशारा कर रहा हूं कि तुम अपने को उतना ही मत मान लो, जितना तुमने अपने को जाना है। तुम बहुत बडे हो, तुम विराट हो, तुम्हारे भीतर अनंत छिपा है—तत्वमसि। वह, जिसकी तुम खोज कर रहे हो, तुम्हारे भीतर बैठा है। तुम मंदिर हो, प्रभु के मंदिर। तुम्हें पता नहीं है, यह और बात। लेकिन तुम जिस जमीन पर बैठे हो, वहां खजाना गड़ा है।
एक गांव में ऐसा हुआ; एक भिखारी मरा। तीस साल एक ही जगह बैठकर भीख मागता रहा था। जब मर गया, तो पड़ोस के लोगों ने सोचा कि इसके सब चीथड़े जला दो, इसके सब बर्तन फोड़कर फेंक दो। कुछ खास थे भी नहीं। और फिर किसी को खयाल आया कि तीस साल से यह भिखारी इस जमीन को गंदी करता रहा, थोड़ी सी जमीन भी यहां की उखाड़कर नयी जमीन डाल दो। यह अशुद्ध कर गया। बुरी तरह अशुद्ध कर गया! गंदा था।
उन्होंने जमीन थोड़ी सी खोदी। चकित हो गए। उस जमीन में तो हंडे गड़े थे। वहां तो बड़ा खजाना था। और सारा गांव सोच—सोचकर हंसने लगा कि हद्द हो गयी! यह भिखारी भीख मांगता रहा जिंदगी भर और जिस जमीन पर बैठा था, वहां इतना खजाना था कि यह सम्राट हो जाता!
गांव भर हंसा भिखारी पर। लेकिन एक फकीर उस गांव में था, वह पूरे गांव वालों पर हंसा। उसने कहा कि पागलो! तुम उस भिखारी की बात कर रहे हो! यही हालत तुम्हारी है। तुम भी जहां बैठे हो, वहां खजाना गड़ा है। तुम सम्राट हो सकते हो।
लेकिन कोई उसकी बात समझा हो, ऐसा दिखायी नहीं पड़ता। लोग हंसे होंगे कि यह एक और पागल देखो! या हो सकता है कुछ लोग उसकी बात समझे भी होंगे, तो घर जाकर उन्होंने थोड़ी जमीन खोदकर देखी होगी। फिर खजाना नहीं मिला होगा। उन्होंने कहा होगा कि कहां पागल की बातों में पड़े हो! कहीं ऐसा सभी जगह थोड़े ही खजाना गड़ा है। वह तो संयोग की बात थी।
मगर फकीर तुम्हारे भीतर की तरफ इशारा कर रहा था। सब फकीरों के इशारे तुम्हारे भीतर की तरफ हैं। उनके सबके तीर तुम्हारे भीतर की तरफ हैं। किसी से पूछो; एक ही रास्ता बताते हैं. भीतर जाओ। अपने में आओ।
बाहर भटकती आंख को जरा भीतर मोड़ो। यही आंख जो अभी संसार देख रही है; यही आंख जो अभी पदार्थ को देखती है, यही आंख परमात्मा को देख लेगी। आंख तो यही है, सिर्फ इस आंख को परमात्मा की तरफ लगाना है। उस लगाने का नाम ध्यान है।
तुम्हारे हाथ जोड़ता हूं? ताकि तुम्हें याद आ जाए, ताकि तुम्हें भूल — भूल न जाए, तुम्हें याद बनी ही रहे; रोज—रोज याद आ जाए—कि तुम्हारे भीतर कोई परम आराध्य बैठा है। यही याद सघन होगी, तो तुम बदलोगे, रूपांतरित होओगे। तुम्हारे भीतर क्रांति इसी याद की सघनता से हो सकती है।

 अंतिम प्रश्न

 मैं आपका संदेश लोगों तक पहुंचाना चाहता हूं, लेकिन मेरी सामर्थ्य अति अल्प है। फिर लोगों के विरोध से भी डरता हूं। मेरे लिए कोई आदेश?

 देश तो मैं कोई भी नहीं देता। क्योंकि आदेश का मतलब तो होता है: मैं तुम्‍हारे जीवन का नियंता हो गया। आदेश का अर्थ होता है: मैं तुम्‍हारा मालिक हो गया। आदेश का अर्थ होता है: तुम मेरे गुलाम हो गये। आदेश का तो अर्थ होता है मैंने तुम्हारी स्वतंत्रता छीन ली।
मैं तुम्हें स्वतंत्रता देता हूं आदेश नहीं। मैं तुम्हें समझ देता हूं जरूर। मैं तुम्हें अपनी आंखें भी देने को तैयार हूं, ताकि तुम उनसे थोडी देर देख सको। और उस देखने से तुम अपनी आंखों की याद से भर जाओ। इसलिए तुम से बोलता हूं।
यह बोलने में आदेश नहीं है। यही उपदेश और आदेश का फर्क है।
जैन परंपरा में यह वचन है कि तीर्थंकर आदेश नहीं देते, सिर्फ उपदेश देते हैं। क्या फर्क है दोनों में?
आदेश का मतलब होता है ऐसा करना ही पड़ेगा; ऐसा करो। नहीं करोगे तो दंड के भागी हो जाओगे। उपदेश का अर्थ होता है ऐसा करना शुभ है। करो तो शुभ होगा। नहीं करोगे, तो शुभ से चूकोगे। लेकिन कोई जोर—जबरदस्ती नहीं है। उपदेश का अर्थ है ऐसा है। देखो। आदेश का अर्थ है देखने—वेखने की जरूरत नहीं। ऐसा करो। आदेश में करने पर जोर होता है, उपदेश में देखने पर जोर होता है। उपदेश सिर्फ दर्शन की प्रक्रिया है। और आदेश? आदेश में तुम्हारी चिंता नहीं है कि तुम्हें दिखायी पड़ता है कि नहीं दिखायी पड़ता।
नीति आदेश देती है; धर्म उपदेश है। नीति कहती है : चोरी मत करो, दान करो। धर्म यह नहीं कहता कि चोरी मत करो, दान करो। धर्म कहता है. देखो, समझो; उसी समझ में चोरी चली जाएगी और दान फलित होगा। और दान का अहंकार भी नहीं आएगा। और मैं चोरी नहीं करता, इसलिए कुछ विशिष्ट हूं —ऐसी अकड़ भी नहीं आएगी। धर्म आंखें खोलने की कला है।
तो पहली तो बात, मैं कोई आदेश नहीं देता।
दूसरी बात तुम पूछते हो, ' आपका संदेश लोगों तक पहुंचाना चाहता हूं। '
यह संदेश खतरनाक है। इसे पहुंचाने में झंझट तो आएगी, अड़चन तो आएगी। विरोध तो होगा। इसलिए अगर तुम विरोध से डरते हो, तो भूल जाओ यह बात।
लेकिन विरोध से डरना क्या? विरोध चुनौती है। और चुनौती में आदमी के प्राण उज्ज्वल होते हैं, निखार आता है। अगर तुम्हारे जीवन में कोई चुनौती नहीं है, तुम मुर्दा और नपुंसक रह जाओगे। चुनौती को चूको ही मत। जहां चुनौती आती हो, उसको झेलो। हर चुनौती तुम्हारी तलवार पर धार रखेगी। हर चुनौती तुम्हें बलशाली बनाएगी।
ऐसा हुआ। एक बार एक किसान भगवान की प्रार्थना—प्रार्थना करते—करते इतना कुशल हो गया प्रार्थना में कि भगवान को अवतरित होना पड़ा। उन्होंने कहा कि तुझे मांगना क्या है! तू मांगता तो कभी कुछ नहीं। किए जाता है प्रार्थना!
उसने कहा अब आप आ गए; अब मांगे लेता हूं। बात यह है कि मुझे ऐसा शक है कि आपको खेती—बाड़ी नहीं आती! दुनिया बनायी होगी आपने भला, मगर खेती—बाड़ी का आपको कोई अनुभव नहीं है। जब जरूरत होती है पानी की, तब धूप! जब धूप की जरूरत होती है, तब पानी! जब किसी तरह फसल खड़े होने को हो जाती है, तो अंधड़, ओले, तुषार। आपको बिलकुल अकल नहीं है। यही कहने के लिए इतने दिन से प्रार्थना करता था। एक बार मुझे मौका दो, तो मैं आपको दिखलाऊं कि खेती—बाड़ी कैसे की जाती है!
पुरानी कहानी है, तब तक परमात्मा इतना समझदार नहीं हुआ था। वह राजी हो गया। उसने कहा. चलो, ठीक है। इस वर्ष तू जो चाहेगा, वही होगा।
किसान ने जो चाहा, वही हुआ। जब उसने धूप मांगी, धूप आयी। जब उसने पानी मागा, पानी आया। और स्वभावत:, किसान तो भूलकर भी क्यों मांगता अंधड़, ओले, तुषार। वे तो कुछ आए नहीं।
खेत बड़े होने लगे। ऊंचे उठने लगे पौधे। ऐसे जैसे कभी नहीं उठे थे। सिर के पार होने लगे! किसान ने कहा. अब! अब दिखलाऊंगा कि देखो, क्या गजब की फसल हो रही है!
पौधे तो बडे—बड़े हो गए। फसल पकने का मौका भी आ गया। लेकिन उनमें गेहूं नहीं पके। पोचे! सिर्फ खोल! भीतर गेहूं नहीं। वह बड़ा हैरान हुआ। वह बड़ी तकलीफ में पड़ा कि अब क्या होगा!
तो फिर परमात्मा की प्रार्थना की और कहा कि मुझ से भूल कहां हो गयी?
परमात्मा ने कहा बिना ओलों के सत्य पैदा होता ही नहीं। चुनौती चाहिए।
तूने अच्छा — अच्छा मांग लिया; मीठा—मीठा मांग लिया। खारे की भी जरूरत है। तूने सुख ही सुख मांग लिया, दुख की भी जरूरत है। दर्द निखारता है। तूने अच्छा— अच्छा मांग लिया। खूब पानी मांगा। धूप मिली। यह सब किया। लेकिन तूने संघर्ष का मौका ही नहीं दिया पौधों को। इसलिए संघर्ष नहीं था, तो पौधों की जड़ें मजबूत नहीं हुईं। पौधे ऊपर तो उठ गए, लेकिन नीचे कमजोर हैं। जरा जड़ें तो उखाड़कर देख!
देखा, तो जडें बड़ी छोटी—छोटी। तो भूमि से सत्व नहीं मिला। जब पौधों को अंधड़ झेलना पड़ता है, खतरा लेना पड़ता है, तो जड़ें गहरी जाती हैं।
तुमने देखा, तुम चकित होओगे जानकर। अगर हवा का रुख हमेशा एक तरफ से हो, समझो कि बायीं तरफ से आती हो और वृक्ष को दायीं तरफ झुकाती हो, तो बाएं तरफ वृक्ष की जड़ें ज्यादा मजबूत हां जाती हैं। क्योंकि उस तरफ उसको जमीन को जोर से पकडूना होता है। नहीं तो गिर जाएगा। उतनी ही गहरी जड़ें चली जाती हैं।
तुमने देखा. अफ्रीका में वृक्ष बड़े ऊंचे जाते हैं। जाना पड़ता है। क्योंकि चारों तरफ घना जंगल है। अगर ऊंचे न जाएं, तो सूरज की रोशनी न मिलेगी। इसलिए अफ्रीकन वृक्ष ऊंचा होता है। उसी को यहां ले आओ, वह यहां नीचा हो जाता है। यहां उतने ऊंचे जाने की कोई जरूरत नहीं है।
संघर्ष, परमात्मा ने कहा उस किसान को, अत्यंत जरूरी है। नहीं तो संकल्प पैदा नहीं होता। और संकल्प पैदा न हो, तो समर्पण तो कभी पैदा होगा ही नहीं। चुनौती चाहिए।
तुम कहते हो : 'डरता हूं विरोध से। '
डर भी स्वाभाविक है। लेकिन डर को एक किनारे रखो। होने दो विरोध।
क्या कोई छीन लेगा? है क्या हमारे पास, जो कोई छीन लेगा? ज्यादा से ज्यादा जिंदगी कोई ले सकता है। लेकिन जिंदगी तो ऐसे ही चली जाएगी। कोई मार ही डालेगा न—वह भी ज्यादा से ज्यादा। कोई मारता करता नहीं। कितने लोग मारे जाते हैं! बहुत थोड़े लोग मारे जाते हैं। लेकिन ज्यादा से ज्यादा समझ लो, कोई मार डालेगा, तो भी क्या बिगड़ा! क्या खो गया? यह जिंदगी तो जाने ही वाली थी, ढंग से गयी।
और हो सकता है, अगर मरते क्षण में भी तुम्हारा हृदय अनुकंपा से भरा हो, तो तुम मुक्त हो जाओगे। यह मृत्यु मोक्ष बन सकती है।
लोग पत्थर मारेंगे न। लोग अपमान करेंगे। लोग प्रतिष्ठा खराब कर देंगे। तो ठीक है। इससे अहंकार को गिरने में सहायता मिलेगी। हर्जा क्या है!
मंजुश्री को देखा! चला गया! और डरे। उन्होंने कहा : वह विमलकीर्ति कष्ट में डालेगा! मंजुश्री चला गया और लोग डरे। मंजुश्री को कुछ डर नहीं था, क्योंकि अहंकार नहीं था।
यह विरोध का भय भी अहंकार का ही भय है।
और तुम कहते हो कि 'मेरी सामर्थ्य अति अल्प है।'
सभी की है। जितनी है, उसका उपयोग करो, तो बढेगी। इस गीत पर ध्यान

            दीपक गान
अगर आधिया चल रहीं तो चलें
किसी ने संजोया मुझे प्यार से
मदिर प्यार से, आज मनुहार से
संवारा मुझे जीत और हार से
किसी की अलस— आस का दीरा मैं
रहा जल तिमिर में नवल चांद —सा
अगर बिजलियां गिर रहीं तो गिरें
मचलकर सभी दीप पथ के बुझे
चरण राहियों के डगर पर रुके
थके दृग सभी के मुझी पर झुके
किसी की सरस छाह में मैं पला
रहा जल विगत की मधुर याद—सा
अगर बदलिया घिर रहीं तो घिरें
नहीं डर मुझे आज तूफान से
न तूफान से और न निर्वाण से
न निर्वाण से और न अवसान से
किसी का शुचिर साधना—दीप मैं
अकंपित अचंचल जला हास—सा
अगर छल रही चिर प्रलय,
तो छले जला मैं,
जली प्राण की वर्तिका
चले जल शलभ,
जल रही उर शिखा
मुझे छू हंसी,
स्वर्ण—सी मृत्तिका
किसी की करुण आह का दीप मैं
रहा जल चिरंतन रुचिर फूल—सा
अगर आंधिया चल रहीं तो चलें

 चलने दो आंधियों को; आने दो तूफानों को। तुम छोटे दीप ही सही; मिट्टी के दीए ही सही। लेकिन तुम में भी सूरज का प्रकाश है। तुम छोटे से आंगन ही सही, मगर तुम में भी विराट आकाश है। जितनी चुनौतियां होंगी, उतने ही तुम बड़े हो जाओगे।
आदेश नहीं देता हूं। यह सिर्फ समझ दे रहा हूं। तुम ऐसा करो ही, ऐसा नहीं कह रहा हूं।
और ऐसा भूलकर भी मत सोचना कि मैंने कहा, इसलिए तुम करोगे। वह तो बात बेकार हो गयी। मेरे कहे किया, तो किसी काम का न रहा। तुम्हारे आनंद से हो; तुम्हारे आनंद से निकले। सहज —स्फूर्त हो। सहज—स्फूर्त ही सुंदर है।

 आज इतना ही।

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