बुधवार, 5 अप्रैल 2017

ध्यान के कमल-(साधना-शिविर)-प्रवचन-10



ध्यान के कमल-(साधना-शिविर)
ओशो

प्रवचन-दसवां-(ध्यान: जीवन में  क्रांति)


जीसस ने कहा है: जो भारग्रस्त हैं, चिंता से भरे हैं, जिनका मन विक्षिप्तता का बोझ हो गया है, वे मेरे पास आएं, मैं उन्हें निर्भार कर दूंगा।
यही मैं तुमसे भी कहता हूं। चिंताएं, दुख, पीड़ाएं, संताप इसलिए हैं, क्योंकि तुमने इन्हें जोर से पकड़ रखा है। चिंताएं किसी को पकड़ती नहीं, दुख किसी को पकड़ते नहीं, आदमी ही उन्हें पकड़ लेता है।
ध्यान की सारी प्रक्रिया दुख छोड़ने की, पीड़ा छोड़ने की प्रक्रिया है। धन नहीं छोड़ना है, संसार नहीं छोड़ना है; छोड़ देना है दुख को पकड़ने की वृत्ति। और एक बार यह अनुभव हो जाए कि दुख ने आपको नहीं, आपने दुख को पकड़ा हुआ था, तो जीवन में क्रांति घटित हो जाती है। क्योंकि फिर कोई भी जान कर दुख को पकड़ नहीं सकता। दुख को हम तभी तक पकड़ सकते हैं, जब तक हम सोचते हों कि दुख हमें पकड़ लेता है और हम असहाय हैं। उलटी ही है बात। दुख की सामर्थ्य नहीं किसी को पकड़ने की। हम ही पकड़ते हैं। और हम ही छोड़ भी सकते हैं।

ध्यान है छोड़ना--दुख का, पीड़ा का, संताप का। जो नरक हम निर्मित किए हैं अपने लिए, वह हमारा ही सृजन है। और आदमी के मन में ही हैं दोनों संभावनाएं--या तो बना ले नरक, या बना ले स्वर्ग।
और यही मन जो नरक बनाता है, स्वर्ग को बनाने वाला भी बन जाता है। और भेद बहुत थोड़ा है। सिर्फ छोड़ने की कला। एक लेट गो। सब कुछ समर्पित कर देने की संभावना, एक बार खुल जाए, तो स्वर्ग उतर आता है।
जीसस ने जो कहा है वही मैं तुमसे भी कहता हूं। इस प्रयोग में सब कुछ मुझ पर छोड़ दो। प्रयोग की पूरी विधि तुम्हें छोड़ने के लिए तैयार करवाने के लिए ही है। अगर कोई बिना विधि के छोड़ सके, तब किसी भी विधि की कोई जरूरत नहीं है।
लेकिन आदत है पुरानी। पकड़ना है जन्मों-जन्मों का। इसलिए छोड़ना आसान नहीं होता। सब उपाय, छोड़ना आसान बनाने को हैं। सब उपाय निषेधात्मक हैं, निगेटिव हैं। जैसे ही तुम छोड़ दोगे, वैसे ही भर जाओगे असीम की अनुकंपा से। यहां छोड़ा और वहां भरना शुरू हो जाता है। यहां तुम खाली हुए और वहां मेघ बरसने शुरू हो जाते हैं--अमृत के, आनंद के।
पर तुम्हारा खाली होना जरूरी है। इस खाली होने के लिए तीन चरण ध्यान के ठीक से समझ लें। चौथा चरण नहीं है, चौथा तीन के बाद विश्राम है।
पहला चरण है ध्यान का: आठ मिनट तक भस्त्रिका, अराजक श्वास-प्रश्वास। कोई व्यवस्था नहीं, कोई अनुशासन नहीं श्वास का। सिर्फ उलीचना, जैसे लोहार की धौंकनी चलती हो। फेंकना श्वास को बाहर--पूरी शक्ति से, कुछ भी भीतर न बचे। और लेना श्वास को भीतर--पूरी शक्ति से, जितना भी भीतर भरा जा सके। और भूल जाना शेष सब। इतना ही स्मरण रखना कि तुम सिर्फ लोहार की धौंकनी हो गए हो। श्वास आए, जाए; श्वास आए, जाए। सारी शक्ति एक ही काम पर नियोजित कर देना--श्वास लेने और श्वास छोड़ने पर।
श्वास सेतु है, जहां से तुम जुड़े हो शरीर और आत्मा में। श्वास के हटते ही शरीर मृत हो जाता है। श्वास बीच का जोड़ है। इसलिए जिसे भी भीतर प्रवेश करना है, पहली कोशिश श्वास के साथ ही करनी होती है। जब तुम सब भूल जाते हो--शरीर भी, स्वयं को भी, विचारों को भी--और एक ही क्रिया रह जाती है श्वास-प्रश्वास की, तब तुम शरीर से हट गए और सेतु पर खड़े हो गए, मध्य में, जहां से एक द्वार शरीर की तरफ खुलता है और एक द्वार आत्मा की तरफ खुलता है।
यह अपने आप में भी बड़ी घटना है, क्योंकि इस सेतु पर खड़े होते ही तत्क्षण दिखाई पड़ना शुरू हो जाता है कि तुम देह नहीं हो।
तो पहले आठ मिनट, जितनी तुम में हो शक्ति, सब लगा कर, श्वास पर जैसे पूरा जीवन ही दांव पर लगा देना है। इस श्वास के प्रयोग में तुम्हारी शक्ति में, तुम्हारे शरीर में अनूठे परिवर्तन होंगे। सारा छिपा हुआ शरीर का जो विद्युत स्रोत है, वह सजग हो जाएगा। रोएं-रोएं में विद्युत प्रवाहित होने लगेगी। पूरा शरीर एक विद्युत-प्रवाह बन जाएगा। अनुभव तुम करोगे कि जैसे शरीर मिट्टी-मांस-मज्जा का बना हुआ नहीं, वरन विद्युत-किरणों से निर्मित है, ऊर्जा निर्मित है।
यह जो शरीर-ऊर्जा है, यह जो बायो-एनर्जी है, जीव-ऊर्जा है, यह जग जाए तो ही अंतर्यात्रा पर जाया जा सकता है। क्योंकि यही ऊर्जा अंतर्यात्रा के लिए ईंधन का, फ्यूल का काम करती है। और बिना ईंधन के तुम यात्रा पर न जा सकोगे। इसलिए जो कंजूसी करेगा, कृपणता करेगा पहले चरण में, वह पहले पर ही अटक जाएगा, दूसरे में कोई यात्रा न होगी। पहला चरण जब अपनी चरम स्थिति में हो, तभी दूसरे में छलांग लगती है। तो पहले चरण को पूरा करना, ताकि तुम्हारा शरीर पदार्थ न मालूम पड़े, शक्ति मालूम पड़ने लगे। शरीर की जो पार्थिवता है, वह खो जाए और एक तरल ऊर्जा का अनुभव तुम्हें होने लगे कि शरीर शक्ति-पुंज है। तीव्र श्वास का प्रयोग अनिवार्य रूप से इस परिणाम को ले आता है। तुम्हें कुछ और करना नहीं, श्वास पर पूरा दांव लगा देना है। जैसे ही तुम्हारा शरीर शक्ति की एक धारा बन जाती है, तब फिर अंतर्यात्रा शुरू हो सकती है।
दूसरे चरण में आठ मिनट तक, शरीर में जो भी दबा हुआ पड़ा है...हजार-हजार रोग हैं--शरीर के, मन के, जो हमने दबाए हैं। वे रोग ही हिमालय की तरह बाधा बन गए हैं भीतर की यात्रा में। और जब तक उन रोगों को तोड़ा न जा सके, विघटित न किया जा सके, जब तक उन रोगों को हम बाहर फेंक न दें अपने से, तब तक हम हलके और निर्भार न हो पाएंगे।
तो दूसरा चरण है रेचन का, कैथार्सिस का। तुम्हें उलीच देना है, अपने सब रोगों को बाहर। तुम ऐसा ही समझना कि सब रोग मुझे दे रहे हो। सब मुझे दे दो। सब छोड़ दो। कुछ भी बचाना मत। और जो भी होना चाहे, सहज उसे होने देना। कोई रोने लगेगा, कोई चीखने लगेगा, कोई चिल्लाने लगेगा, कोई नाचने लगेगा, कोई छाती पीटने लगेगा, किसी का चेहरा क्रोध के आवेश से भर जाएगा, कोई लगेगा कि बिलकुल विक्षिप्त हो गया। रोकना मत, जो भी हो रहा हो, पूरी तरह छोड़ देना मेरे हाथों में। और तुम से सिर्फ रोग मांगता हूं, इनको छोड़ देना।
इनको छोड़ते ही तुम भीतर हलके होने लगोगे। जैसे किसी को बहुत ऊंची उड़ान भरनी हो, तो फिर भार नहीं चाहिए। और जैसे कोई हिमालय चढ़ रहा हो, तो फिर बोझ कम करना होता है। अपना ही बोझ काफी है। और रोगों का बोझ साथ ले जाने की कोई जरूरत नहीं है। अपने पंखों से सारा बोझ मेरे पास फेंक दो।
तुम यही सोचना दूसरे चरण में कि तुम्हारे भीतर जो भी दबा हुआ, दमित, पागलपन है, वह सब तुम्हें समर्पित कर देना है। और जैसे ही तुम समर्पण करने लगोगे, तुम्हारे भीतर से एक धारा शुरू हो जाएगी। तुमने जीवन में जो-जो दबाया है, वह सब निकलने लगेगा।
न तुम कभी रोए हो खुल कर, न कभी हंसे हो खुल कर, न कभी क्रोध किया है। जो भी तुमने किया है सब दबा-दबा है, अधूरा-अधूरा है। वह सब इकट्ठा हो गया है तुम्हारे भीतर। और यह एक दिन का नहीं है, एक जन्म का नहीं है, जन्मों का है। लंबी यात्रा की धूल है। और वही तुम्हें दबाए है, वही तुम्हारी छाती पर पत्थर बन कर बैठ गई है।
और हमारी सभ्यता, समाज, संस्कार, सभी दमन के पक्ष में हैं। क्योंकि समाज जी नहीं सकता। समाज दबाएगा, संस्कार दबाएंगे। लेकिन तुम अगर समाज के इस दमन को ढोते ही चले जाते हो, और किसी दिन इसको फेंक कर अलग नहीं हो जाते, तो तुम्हारी कोई मुक्ति नहीं है। समाज के लिए जो सुविधा है, वही तुम्हारा बंधन है।
पर इसका यह अर्थ नहीं है कि तुम्हें क्रोध आए तो तुम किसी पर क्रोध कर लेना और किसी की हत्या करने का मन हो तो हत्या कर देना। ध्यान की यही कीमिया है--कि क्रोध तुम्हें आए तो व्यक्ति पर प्रकट मत करना, ध्यान में शून्य में विसर्जित कर देना। हत्या करने का वेग हो, उस वेग को भी शून्य में विसर्जित कर देना।
तो दूसरे चरण में, तुम्हारे मन में जो भी आ जाए, उसे निःसंकोच, बिना किसी बाधा के प्रकट करना है, अभिव्यक्ति देनी है, सहयोग देना है। रोना आ रहा है, तो पूरी शक्ति रोने में लगा देना। चीखने का मन हो रहा है, तो पूरी शक्ति चीखने में लगा देना। अर्थ मेरा है कि तुम चीख ही बन जाना। तुम भूल ही जाना कि तुम कुछ और हो। एक चीख भी तुम्हें हलका कर जाएगी। जो घट रहा हो उसमें तुम अपना पूरा सहयोग दे देना। सब तरह के संकोच को छोड़ देना। और अनुभव करना कि सारी बीमारी, सारे रोग, सारा दमित उपद्रव, सारी धूल तुम मुझे दिए दे रहे हो। क्योंकि तुम मुझे यह न दे सको, तो मैं तुम्हें आनंद नहीं दे सकता हूं। तुम मुझे यह दे दो, तो तुम खाली हो जाओगे और आनंद से भरे जा सकते हो।
त्याग के लिए बहुत लोगों ने कहा है--कि धन छोड़ना, मकान छोड़ना, घर, प्रियजन, परिवार छोड़ना। मैं तुमसे सिर्फ दुख छोड़ने की बात करता हूं। सिर्फ दुख छोड़ देना। और तुम अगर दुख देने को राजी हो, तो मैं तुम्हें आनंद देने को राजी हूं। वह इसी क्षण घटित हो सकता है।
दूसरा चरण अगर पूरा हो जाए, तो तुम खाली पात्र की भांति हो जाओगे, जिसमें अब कुछ भी मैल, कोई भी धूल इकट्ठी नहीं। या एक ऐसे दर्पण की भांति हो जाओगे, जिसकी हमने युगों-युगों की धूल साफ कर दी। और अब उसमें प्रतिबिंब बन सकता है--निखालिस, शुद्ध।
अगर दूसरा चरण अधूरा रह गया, तो तीसरे में प्रवेश नहीं होगा। क्योंकि सभी छलांग पूर्णता से लगती हैं। जब दूसरा चरण पूरा होता है, तभी तुम उस शिखर पर होते हो जहां से तीसरे में कूद सको। प्रत्येक चरण एक अनिवार्य शृंखला है। अगर एक भी अधूरा रह जाता है, तो तुम वहीं अटक जाओगे। और यह दूसरा कठिन है, क्योंकि पहला तो सिर्फ श्वास का लेना था। यह दूसरा कठिन है, क्योंकि तुम डरोगे कि तुम्हारे भीतर कैसा-कैसा पागलपन छिपा है। तुम प्रकट न करना चाहोगे जो भीतर है।
लेकिन अगर तुम अपनी बीमारी ही प्रकट करने को राजी नहीं, तो फिर कोई औषधि भी उस बीमारी के लिए नहीं खोजी जा सकती। और अगर तुम बीमारी प्रकट करने को राजी नहीं, तो कोई शल्य-चिकित्सा, कोई सर्जरी भी नहीं हो सकती। तुम्हारे दबे हुए घाव उघाड़ने ही पड़ेंगे। तुमने कितने ही उन्हें छिपा रखे हों, उन्हें वापस आविष्कृत करना होगा, ताकि तुम्हारी उनसे मुक्ति कराई जा सके।
तो मेरे सामने इस प्रयोग में तुम पूर्णतया नग्न, जो तुम्हारे भीतर है, उसको कुछ भी छिपाना मत। उसे पूरा प्रकट हो जाने देना। और भय छोड़ देना कि कोई क्या कहेगा। वही भय ध्यान के लिए बाधा है। किसी की भी चिंता मत करना। एक ही चिंता करना कि मैं स्वस्थ हो जाऊं, मेरी सारी बीमारियां छूट जाएं।
इस दूसरे चरण में तुम बिलकुल विक्षिप्त हो जाओगे। क्योंकि जैसी स्थिति है, हर आदमी विक्षिप्त समाज में पैदा होता है। और इसके पहले कि होश सम्हाले, खुद भी पागल हो जाता है। एक बड़ी पागलों की भीड़ है। वह भीड़ तुम्हें होश नहीं सम्हालने देती, उसके पहले ही तुम्हें विक्षिप्त और रुग्ण कर देती है।
तो जब तुम प्रकट करने लगोगे, तुम्हारे भीतर का पागल बाहर आना शुरू होगा। तुम उसे मुझे दान कर देना। तुम उसे पूरे भाव से मेरे पास छोड़ देना। तो दूसरे चरण में पूरी विक्षिप्तता को सहयोग देना।
दूसरे चरण के बाद तीसरा चरण। जब तुम खाली हो जाओगे तुम्हारे रोगों से, दमित वेगों से, तुम्हारे भीतर के उपद्रव जब तुम बाहर फेंक दोगे, तभी तीसरे चरण का उपयोग हो सकता है। क्योंकि तीसरा चरण एक महामंत्र है। यह महामंत्र है एक ध्वनि--हू हू हू। इस ध्वनि को इतने जोर से करना है कि तुम्हारा सारा तन-प्राण का पूरा संस्थान उसमें लग जाए। तुम्हारा मन भी गूंज उठे 'हू' से। तुम्हारा तन भी गूंज उठे 'हू' से। तुम्हारे भीतर कुछ न बचे जो 'हू' नहीं कर रहा है। तुम्हारा एक-एक जीवाणु, श्वास-श्वास, तुम्हारा एक-एक रोआं 'हू' की ध्वनि से भर जाए, हुंकार से भर जाए।
जब तुम खाली हो गए हो, तभी इस ध्वनि का उपयोग किया जा सकता है। जब तुम पागलपन से भरे हो और विक्षिप्त आवाजें तुम्हारे भीतर हैं और एक भीड़ तुम्हारे भीतर चल रही है, तब यह 'हू' की ध्वनि तुम्हारे भीतर प्रवेश नहीं कर सकती। जब तुम बिलकुल खाली हो और भीतर मौन हो गया और शून्य हो गया, तब इस 'हू' की ध्वनि से, तुम्हारे भीतर वह जो विराट छिपा है, उस पर चोट पड़नी शुरू हो जाती है।
इस 'हू' की ध्वनि के अनेक परिणाम हैं। पहला, जैसे ही तुम इस हुंकार से भरना शुरू होते हो, वैसे ही तुम्हारी काम-ऊर्जा, सेक्स-सेंटर पर भीतर चोट पड़नी शुरू हो जाती है। और मनुष्य के पास जो शक्ति है वह एक ही है, वह है काम-ऊर्जा। काम-ऊर्जा अगर बाहर की तरफ बहे तो जैविक-संतति का उत्पादन बन जाती है। काम-ऊर्जा अगर भीतर की तरफ बहने लगे तो आध्यात्मिक जन्म शुरू हो जाता है।
काम-ऊर्जा जन्म-दात्री है। काम का जो केंद्र है, उस पर चोट साधारणतः बाहर से होती है। एक पुरुष एक स्त्री को देखता है, और एक चोट तुम्हारे काम-केंद्र पर हो जाती है। एक स्त्री एक पुरुष से आकर्षित होती है, और उसके काम-केंद्र पर तत्काल बाहर से चोट शुरू हो जाती है। यह चोट भी विद्युत की ही चोट है। पुरुष विद्युत का एक प्रकार है और स्त्री एक प्रकार। और दोनों विरोधी विद्युत के ध्रुव हैं, एक-दूसरे को आकर्षित करते हैं। पर यह आकर्षण की चोट सदा बाहर से पड़ती है। और जहां से चोट पड़ती है, उसी तरफ काम-ऊर्जा प्रवाहित होनी शुरू हो जाती है।
'हू' की ध्वनि भीतर से चोट करने की कोशिश है। जब तुम जोर से 'हू' चिल्लाते हो, तब यह 'हू' की ध्वनि तुम्हारे भीतर जाती है, ठीक नाभि के नीचे, काम-केंद्र पर जाकर जोर से चोट करती है। यह भीतर से चोट है, उसी केंद्र पर। और इस चोट को इतने जोर से करना है कि केंद्र भीतर से टूट जाए। और जैसे ही यह केंद्र भीतर से टूटता है--एक छोटा सा सूराख भी--और तुम्हारे भीतर ऊर्जा चढ़नी शुरू हो जाती है। जिसे योग ने कुंडलिनी कहा है। या और अलग-अलग नाम दिए हैं। नाम से कुछ भेद नहीं पड़ता। काम-ऊर्जा ही अंतर्मुखी होकर अध्यात्म शक्ति बन जाती है।
इसे तुम प्रत्यक्ष अनुभव करोगे। जैसे ही 'हू' की चोट पड़नी शुरू होगी, भीतर एक उत्तप्त प्रवाह तुम्हारी काम-ऊर्जा का चढ़ना शुरू हो जाएगा ऊपर की तरफ। तुम उसे शरीर में भी अनुभव करोगे। ठीक तुम्हारी रीढ़ में कोई नया प्रवाह धारा का शुरू हो रहा है। रीढ़ उत्तप्त होने लगेगी, जैसे कोई गरम लावा भीतर प्रवाहित होता हो। और जैसे-जैसे यह लावा तुम्हारी रीढ़ में ऊपर चढ़ने लगेगा, वैसे-वैसे तुम पाओगे तुम बदलने लगे, तुम दूसरे होने लगे, एक नये आदमी का आविर्भाव होने लगा।
जितने ऊपर जाता है यह काम-ऊर्जा का प्रवाह तुम्हारी रीढ़ में, उतने ही ऊंचे बिंदुओं से तुम जीवन को देखना शुरू कर देते हो। काम-केंद्र पर खड़ी हुई ऊर्जा शरीर से ज्यादा और कुछ भी अनुभव नहीं कर सकती। वह निम्नतम बिंदु है। और ऐसे सात चक्र हैं तुम्हारे शरीर में। एक-एक चक्र में प्रवेश होता है और तुम एक-एक नये शरीर का अनुभव शुरू कर देते हो। सातवें चक्र पर तुम अनुभव करते हो वह जगह, जिसको हमने द्वार कहा है मोक्ष का। क्योंकि उस जगह से तुम्हें अशरीरी, अपौदगलिक, अपार्थिव, इम्मैटीरियल का अनुभव शुरू हो जाता है।
यह कभी एक क्षण में भी हो सकता है, कभी लंबा समय भी लग सकता है। निर्भर करेगा तुम्हारी तीव्रता पर। कितनी गहन तुम चोट करते हो।
तो तीसरे चरण में 'हू' की इतनी चोट करनी है कि यह शक्ति का केंद्र भीतर टूटने लगे। और विद्युत-धारा, इस केंद्र से तुम्हारी रीढ़ में ऊपर की तरफ, ऊर्ध्वमुखी यात्रा पर निकल जाए।
तीसरा चरण जब पूरा हो जाएगा, तब मैं तुम्हें चौथे चरण के, जो कि वस्तुतः चरण नहीं, ठीक कहें तो ध्यान है। ये तीन तैयारी हैं। ये तीन हैं तैयारी चौथे में प्रवेश की। तुम सीधे चौथे में नहीं जा सकते, इसलिए इन तीन की जरूरत है। चौथे में कुछ भी करना नहीं है। जैसे ही तीसरा पूरा हो जाएगा, चौथे में तुम्हें लेट जाना, बैठ जाना, या खड़े रहना हो तो खड़े रहना है। शरीर को ऐसे छोड़ देना है चौथे में जैसे मुर्दा हो गया। जैसे तुम अब शरीर नहीं हो। हो भी नहीं, अगर तीन चरण पूरे हुए तो तुम शरीर हो भी नहीं। और शरीर को मुर्दे की तरह छोड़ना न पड़ेगा, छूट ही जाएगा। इस चौथे चरण में सिर्फ तुम्हें साक्षी बने रहना है, सिर्फ तुम्हें देखते रहना है भीतर जो भी हो रहा हो। बहुत कुछ घटेगा। तो चौथा चरण गहन प्रतीक्षा और साक्षी-भाव का है, विश्राम का है।
बहुत कुछ भीतर घटना शुरू होगा। पहली घटना सामान्यतया घटेगी कि तुम्हें बहुत अनूठे प्रकाश की प्रतीति होने लगेगी। अगर काम-ऊर्जा रीढ़ में प्रवेश कर गई, तो तत्क्षण प्रकाश का लोक तुम्हारे भीतर खुल जाता है। तुमने प्रकाश देखा है बाहर का। उससे इसका कोई मेल नहीं है। जैसे हजार-हजार सूर्य भीतर इकट्ठे उग जाएं, वैसा प्रकाश तुम्हारे भीतर होने लगेगा।
उस प्रकाश से जरा भी भय मत लेना। क्योंकि हम अंधेरे में रहने के आदी हो गए हैं। और हमारी आंखें केवल अंधेरे की आदी हैं। भीतर हमारे बिलकुल अंधेरा है। वहां हमने कभी कोई प्रकाश नहीं देखा है। वहां जब पहली दफा प्रकाश होता है तो मन बहुत भयभीत होने लगेगा, तुम भयभीत मत होना। क्योंकि यहां मैं मौजूद हूं। तुम जरा भी चिंता मत करना। तुम सारी बात मुझ पर छोड़ देना। भयभीत जरा भी मत होना। और उस अंधेरे में जब पहली दफा प्रकाश का उदभव हो, तो तुम अहोभाव अनुभव करना, धन्यभाग अनुभव करना, प्रसन्न होना कि तुम्हें प्रसाद उपलब्ध हो रहा है। क्योंकि जितना तुम अहोभाव अनुभव करोगे, उतनी आसानी से इस प्रकाश में तुम लीन हो सकोगे। जिससे हम भयभीत हो जाते हैं, उससे हम दूर हो जाते हैं। जिससे हम प्रसन्न होते हैं, उसके हम निकट हो जाते हैं। और इस प्रकाश की निकटता चाहिए। क्योंकि अब यही प्रकाश तुम्हारा वाहन होगा और आगे की यात्रा का। जैसे-जैसे तुम इस प्रकाश के साथ तत्सम होने लगोगे, एक होने लगोगे, तुम्हारा तादात्म्य सध जाएगा, जैसे बूंद सागर में गिर जाए और एक हो जाए ऐसे जब तुम इस प्रकाश के सागर में गिर कर एक हो जाओगे, तो तत्क्षण तुम्हें दूसरा अनुभव शुरू होगा, जो आनंद का है।
तुमने सुख जाना है, दुख जाना है, आनंद कभी नहीं जाना। आनंद सुख नहीं है। आनंद एक और ही अनुभव है, जो उतना ही दूर है सुख से जितना दुख से। आनंद में सुख-दुख दोनों ही शून्य हो जाते हैं। क्यों? क्योंकि दुख भी बाहर से मिलता और सुख भी बाहर से मिलता। आनंद में बाहर से कुछ मिलता ही नहीं। पहली दफे तुम भिखारी नहीं रह जाते। पहली दफे तुम्हारे भीतर कुछ घटित होता है--जो बाहर से नहीं मिल रहा, जो तुम्हारा अपना है, जो तुम्हारा स्वधर्म है। यह आनंद तुम्हें तभी घेरेगा, जब तुम प्रकाश के साथ एक हो जाओगे।
तो दूसरी प्रतीति तुम्हें गहन आनंद की होगी। जैसे भीतर करोड़-करोड़ फूल एक साथ खिल जाएं। कोई अनूठा नाद बजने लगे। कोई दिव्य गंध भीतर फैलने लगे। ऐसा बहुत कुछ भीतर इस आनंद में होना शुरू होगा। प्रत्येक व्यक्ति को थोड़ा-थोड़ा अलग होगा। लेकिन हर स्थिति में आनंद की गहन प्रतीति होगी। और तुम्हें लगेगा: धन्य हुआ। और तुम्हें लगेगा कि जीवन सार्थक था। और तुम्हें लगेगा: होने में, होना मात्र इस क्षण में पर्याप्त है, और कुछ भी नहीं चाहिए। इस आनंद के क्षण में मन में कोई वासना नहीं रह जाती, कोई इच्छा नहीं पैदा होती, कोई मांग नहीं रह जाती। जैसे हो इस क्षण में, वैसा होना काफी है। और तुम पूरी तरह तृप्त हो।
इस परम तृप्ति से भी भय लगेगा। क्योंकि हम वासनाओं में जीए हैं। और हम सदा जीए हैं भविष्य के लिए--कुछ मिले। इस क्षण में सब मिलने की दौड़ बंद हो जाती है। तुम पहली दफा खड़े हो जाते हो। कोई दौड़ नहीं रह जाती। इसका तुम्हें अनुभव नहीं है। पैर दौड़ना चाहेंगे, मन भागना चाहेगा। भय लगेगा--यह खड़ा होना कहीं मृत्यु तो न हो जाएगी? कहीं मैं रुक जाऊं तो मर तो नहीं जाऊंगा? यह क्षण इतना रुका हुआ है, सारी गति खो गई, सारा स्पंदन खो गया, तो तुम डर सकते हो--कहीं मौत तो नहीं आ जाएगी?
घबड़ाना मत। मैं मौजूद हूं। तुम सारी फिक्र मुझ पर छोड़ देना। मौत आएगी एक अर्थ में, तुम जो थे वह मर जाएगा। लेकिन जो मरेगा, वह वस्तुतः तुम थे नहीं, तुम्हें सिर्फ लगता था कि तुम हो। और जन्म भी होगा एक अर्थ में, क्योंकि तुम वस्तुतः जो हो उसका पहली दफे तुम्हें परिचय, पहला संपर्क, पहली प्रतीति, उससे पहली मुलाकात होगी। तो मृत्यु होगी पुराने की, जन्म होगा नये का। तुम रहोगे जो वस्तुतः तुम हो और तुम मिट भी जाओगे जो तुम नहीं थे।
भय मत लेना। अगर आनंद से भय लिया, तो तीसरा कदम नहीं उठ पाता। यह सोच कर तुम्हें कठिनाई लगेगी--कि आनंद से हम क्यों भय लेंगे? दुख से हम भयभीत होते हैं, आनंद से हम क्यों भयभीत होंगे?
पर तुम्हें पता नहीं; सभी नई चीजें भय से भर देती हैं। जिसका तुम्हें कोई अनुभव नहीं, अनजान, अपरिचित भय से भर देता है। अज्ञात भय से भर देता है। जाना-माना दुख भी अच्छा लगता है, परिचित है। उससे तुम गुजरे हो, उसमें कुछ डर नहीं। डर है सदा अज्ञात का, अननोन, वह घबड़ाता है। और आनंद से ज्यादा अज्ञात क्या है तुम्हें?
भय मत करना। यहीं गुरु उपयोगी हो जाता है। क्योंकि उन क्षणों में जहां तुम निश्चित ही भय करोगे, वह तुम्हें ढाढस दे सकेगा। वह तुम्हें कह सकेगा, घबड़ाओ मत, मैं साथ हूं।
आनंद के साथ जब तुम धन्यभाव का अनुभव करोगे और एक हो जाओगे, तो तीसरी प्रतीति तुम्हारे भीतर शुरू होगी जो परमात्मा की मौजूदगी की है। आनंद अगर तुम्हें अनुभव हुआ, तो तत्क्षण तुम पाओगे कि सब संसार मिट गया और सिर्फ परमात्मा ही रह गया। वह जो शंकर ने कहा है कि सब माया है, वह तुम्हें पता चलेगा इस क्षण में कि वह सब स्वप्न की भांति तिरोहित हो गया जो था। तुम किसी और ही लोक, किसी और ही आयाम में प्रविष्ट हो गए हो। चारों ओर दिव्य मौजूद है, सभी कुछ वही है, और तुम उसके सागर में हो।
यहां अंतिम भय पकड़ेगा, जो परमात्मा के द्वार पर पकड़ता है; क्योंकि इस द्वार पर तुम पूरी तरह ही मिट जाओगे। आनंद के अनुभव में तुम्हारा पुराना मिटता है, लेकिन नया हो जाता है। इस अनुभव में तुम बिलकुल ही नहीं बचोगे--न पुराने, न नये। तुम बचोगे ही नहीं। तुम्हारी सब सीमाएं टूट जाएंगी। तुम्हारा होने का भाव टूट जाएगा। अब परमात्मा ही बचेगा। तो और भी भय पकड़ता है, क्योंकि आदमी मिटना नहीं चाहता। आदमी का गहरा भय एक ही है कि कहीं मैं मिट न जाऊं। नॉन-बीइंग, कहीं ऐसा न हो कि मैं न हो जाऊं। बना रहूं, बचा रहूं।
 इसलिए बुद्ध ने इस तीसरे अनुभव को परमात्मा का भी नाम नहीं दिया। बुद्ध ने इसे कहा है: निर्वाण। निर्वाण का अर्थ होता है: दीये का बुझ जाना। यह निर्वाण है, परमात्मा निर्वाण है। वहां तुम्हारा दीया बिलकुल बुझ जाएगा, क्योंकि उसकी कोई भी जरूरत नहीं। वहां स्रोत-रहित प्रकाश मौजूद है। तुम्हारे टिमटिमाते दीये को करोगे भी क्या? उसका कोई अर्थ भी नहीं है। वहां भी डर पकड़ेगा।
 कुछ लोग प्रकाश के अनुभव पर रुक जाते हैं। कुछ लोग आनंद के अनुभव पर रुक जाते हैं। लेकिन जो परमात्मा तक नहीं पहुंचता, वह अभी परम तक नहीं पहुंचा। और उसे संसार में भटकना ही होगा। वह प्रकाश को अनुभव कर ले, तो भी भटकेगा। वह आनंद को अनुभव कर ले, तो भी भटकेगा। जब तक तुम फना ही न हो जाओ, जब तक तुम मिट ही न जाओ पूरे, तब तक तुम भटकोगे ही। तुम्हारा होना ही तुम्हारा भटकाव है।
तो इस तीसरे चरण में महामृत्यु तुम्हें घेर लेगी। क्योंकि परमात्मा का अनुभव होता ही तब है जब तुम नहीं होते। जब तक तुम हो, तब तक बाधा है। थोड़े से भी तुम हो, तो उतनी थोड़ी सी बाधा है। और एक झीना सा पर्दा भी परमात्मा और हमारे बीच हिमालय की तरह है। उतना भी काफी है। क्योंकि परमात्मा है अदृश्य। एक झीना सा पर्दा भी उसे पूरी तरह छिपा लेता है। एक पारदर्शी पर्दा भी उसे पूरी तरह छिपा लेता है। क्योंकि वह कोई आंख से दिखाई पड़ने वाली चीज नहीं है। इसलिए यह जो आखिरी पर्दा रह जाता है मेरे होने का, वह भी बाधा है।
बहुत घबड़ाहट लगेगी। लेकिन मेरा स्मरण करना और घबड़ाहट को छोड़ देना, और एक छलांग लगाना। ताकि तुम बिलकुल ही मिट जाओ। जहां तुम मिटते हो, वहीं परमात्मा का आविर्भाव है।...

मैं फिर सुझाव देना चाहता हूं। आंख बंद कर लें। और मन में संकल्प दोहरा लें तीन बार कि सब कुछ मेरे हाथ में छोड़ रहे हैं। सब कुछ मेरे हाथ में छोड़ रहे हैं। अपने पास कुछ भी न बचाएं, पूरी तरह निर्भार होकर यात्रा करें।

अब पहले चरण में प्रवेश करें। आठ मिनट तक श्वास ही श्वास...श्वास ही श्वास...सारी शक्ति श्वास पर लगा दें...सब भूल जाएं, सिर्फ श्वास लें...एक धौंकनी की तरह हो जाएं--श्वास बाहर, श्वास भीतर...जोर से करें...श्वास ही श्वास रह जाए...शरीर को भूल जाएं, श्वास ही रह जाए...बाहर-भीतर श्वास...श्वास... शरीर की शक्ति को पूरी चोट करें, जोर से चोट करें...

(इस प्रकार ओशो के सुझावों के साथ आठ मिनट तक तीव्र श्वास-प्रश्वास का प्रयोग चलता रहा। फिर दूसरा चरण प्रारंभ हुआ।)
अब दूसरे चरण में प्रवेश करें। जो भी भीतर है, सब निकाल दें--हंसें, नाचें, गाएं...जोर से...जोर से...जोर से...जोर से...जोर से...जोर से...

(दूसरे आठ मिनट में रेचन के, कैथार्सिस के प्रयोग में रोना, हंसना, नाचना, चिल्लाना आदि चलता रहा। ओशो बीच-बीच में जोर से करने का सुझाव देते रहे।  फिर तीसरा चरण प्रारंभ हुआ।)

अब तीसरे चरण में प्रवेश करें। हू की आवाज--हू हू हू हू।...जोर से चोट करें, जोर से चोट करें, जोर से चोट करें...पूरी शक्ति, पूरी शक्ति दांव पर लगा दें...चोट करें...चोट करें...जोर से...जोर से...

(तीसरे चरण में आठ मिनट तक 'हू' का प्रयोग चलता रहा। ओशो जोर से 'हू' की चोट करने का सुझाव देते रहे। फिर चौथे चरण में प्रवेश हुआ।)

बस, अब शांत हो जाएं, शांत हो जाएं, अब शांत हो जाएं। चौथे चरण में प्रवेश करें। बिलकुल शांत हो जाएं...जैसे हैं ही नहीं, जैसे मृत्यु घट गई...शरीर को छोड़ दें मुर्दे की भांति...कोई आवाज नहीं, कोई हलन-चलन नहीं...शक्ति जाग गई, उसे भीतर काम करने दें...सब तरह अपने को रोक दें, कुछ भी अभिव्यक्त न हो, बिलकुल रोक लें...आंख बंद रखें, शरीर को मुर्दे की भांति छोड़ दें...शक्ति जाग गई, उसे भीतर काम करने दें...रोकें, कोई आवाज नहीं...
अब अपने दाएं हाथ की हथेली को माथे पर रखें, तीसरे नेत्र की जगह, ठीक दोनों भौंहों के मध्य में, और आहिस्ता से रगड़ें...यही वह जगह है, जहां से अंतर्यात्रा शुरू होती है। यही है वह केंद्र, जो खुल जाए तो प्रकाश का आयाम खुल जाता है... आहिस्ता से रगड़ें, आहिस्ता से रगड़ें...तृतीय नेत्र को आहिस्ता से रगड़ें...
रगड़ें, सारी शक्ति तीसरे नेत्र के पास इकट्ठी हो रही है...सारी शक्ति खिंच कर तीसरे नेत्र के पास इकट्ठी हो रही है...अनुभव करें, सारी शक्ति तीसरे नेत्र पर इकट्ठी हो रही है...आहिस्ता से रगड़ें, पूरी जीवन-ऊर्जा इसी केंद्र पर आ गई है...आहिस्ता से रगड़ें...रगड़ते-रगड़ते ही भीतर प्रकाश दिखाई पड़ना शुरू हो जाएगा...रगड़ते-रगड?ते ही भीतर प्रकाश का द्वार खुल जाएगा...
अब रगड़ना बंद कर दें और गहरे प्रकाश में प्रवेश कर जाएं...भीतर प्रकाश ही प्रकाश फैल गया...अनंत प्रकाश, जैसा प्रकाश कभी न देखा हो, जैसे हजार-हजार सूरज एक साथ निकल आए हों...भय न करें, डरें न, इस प्रकाश के साथ एक हो जाएं...छोड़ दें अपने को प्रकाश की धारा में, प्रकाश के साथ बहने को राजी हो जाएं। जैसे प्रकाश एक नदी है और आप उसमें अपने को छोड़ दिए...तैरें भी मत, सिर्फ बहें। प्रकाश के साथ बहते चले जाएं...प्रकाश ही प्रकाश, अनंत प्रकाश चारों ओर घेरे हुए है...प्रकाश में डूब गए...बहें, छोड़ दें अपने को, जरा भी बचाएं नहीं, छोड़ दें और बह जाएं...प्रकाश की नाव ही उस किनारे ले जा सकती है...छोड़ दें, जरा भी भय न करें, मैं साथ हूं...छोड़ दें, बह जाएं, एक हो जाएं प्रकाश के साथ...
प्रकाश में डूब गए, एक हो गए...गहन शांति, तन-प्राण सब शांत हो गए, प्रकाश ही प्रकाश रह गया...डूब गए, डूब गए, डूब गए, डूब गए, प्रकाश के साथ एक हो गए...
प्रकाश की गहनता ही आनंद बन जाती है...प्रकाश के साथ एक हो जाना ही आनंद को अनुभव करना है...अब अनुभव करें, अनुभव करें, आनंद ही आनंद, बाहर-भीतर सब ओर, सब दिशाओं में...रोएं-रोएं में समा जाने दें, श्वास-श्वास में आनंद का भाव...जैसे नदी सागर में गिरे, ऐसे आनंद के सागर में गिर गए...न कोई इच्छा है अब, न कोई दौड़, सब ठहर गया, जैसे समय समाप्त हो गया...भीतर कोई दौड़ नहीं, कोई मांग नहीं...सब चुप, मौन, ठहर गया...पूर्णरूपेण ठहर जाना ही आनंद है...अनुभव करें, अनुभव करें...
भय न करें, मैं साथ हूं...आनंद, आनंद, आनंद, एक ही स्वर रह जाए...आनंद, आनंद, एक ही स्वर भीतर बहने लगे...आनंद, आनंद, एक हो जाएं आनंद के साथ...आनंद की गहनता ही प्रभु की उपस्थिति बन जाती है...एक हो जाएं आनंद के साथ और परमात्मा चारों ओर प्रकट हो जाता है...
मिट गया संसार स्वप्न की भांति...मिट गई देह स्वप्न की भांति...मिट गए आप स्वप्न की भांति...रह गया अमिट, रह गया दिव्य, रह गई परमात्मा की मौजूदगी...
केवल वही मौजूद है, केवल वही मौजूद है...डरें नहीं, खो दें अपने को बिलकुल, मिटा दें...खो दें, मिटा दें, यह मृत्यु ही मुक्ति है...मिटा दें, चारों ओर वही है, आप मिट गए...आप नहीं हैं, वही है...परमात्मा, परमात्मा, परमात्मा, वही मौजूद है...सब खो गया, सब शांत हो गया, सब मौन हो गया, एक उसकी उपस्थिति ही शेष रह गई...

अब पुनः तृतीय नेत्र पर अपनी हथेली को आहिस्ता से रगड़ें...तीसरे नेत्र के स्थान पर दोनों भौंहों के बीच आहिस्ता से रगड़ें...भीतर बहुत कुछ होना शुरू हो जाएगा... एक शांति, एक रूपांतरण...आहिस्ता से रगड़ें, भीतर बहुत कुछ होना शुरू हो जाएगा, साक्षी बने देखते रहें...
अभी रोकें, प्रकट नहीं करना...भीतर कुछ भी हो, रोकें, सिर्फ आहिस्ता से तृतीय नेत्र को रगड़ते रहें...रगड़ें, तीसरे नेत्र को आहिस्ता से रगड़ें...
आनंद, अहोभाव, धन्यभाव भीतर फैल गया, अब उसे दो मिनट प्रकट कर सकते हैं...अपने आनंद को जिस रूप में भी प्रकट करना हो, पूरी तरह हृदयपूर्वक अपने आनंद को दो मिनट के लिए प्रकट कर सकते हैं...
अब दोनों हाथ जोड़ लें और प्रभु को धन्यवाद दे दें...दोनों हाथ जोड़ लें और उसके चरणों में सिर को झुका दें...एक ही भाव मन में रह जाए: प्रभु की अनुकंपा अपार है, प्रभु की अनुकंपा अपार है, प्रभु की अनुकंपा अपार है। आदमी असहाय है अकेले, अकेले कुछ भी न हो पाएगा। उसकी सहायता चाहिए, उसका प्रसाद चाहिए, उसकी अनुकंपा चाहिए...

अब ध्यान से वापस लौट आएं...धीरे-धीरे आंख खोल लें, दो-चार गहरी श्वास ले लें, ध्यान से वापस लौट आएं...
आज इतना ही।
समाप्त


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