गुरुवार, 20 अप्रैल 2017

एस धम्मो सनंतनो-(ओशो)-प्रवचन-114



जीन की कला—प्रवचन—114

प्रश्‍न सार:


पहला प्रश्‍न

आत्मा और परमात्मा को अस्वीकार करने वाले गौतम बुद्ध धर्म-गंगा को पृथ्वी पर उतार लाने वाले विरले भगीरथों में गिने गए। और आपने अपने धम्मपद-प्रवचन को नाम दिया-एस धम्मो सनंतनो। धम्मपद-प्रवचन के इस समापन-पर्व में हमें संक्षेप में एक बार फिर इस धर्म को समझाने की अनुकंपा करें।

त्‍मा और परमात्मा को मानना-वस्तुत: किसी भी चीज को मानना-कमजोरी और अज्ञान का लक्षण है। मानना ही अज्ञान का लक्षण है। जानने वाला मानता नहीं। जानता है, मानने की कोई जरूरत नहीं। मानने वाला जानता नहीं। जानता नहीं, इसीलिए मानता है।
मानने और जानने के फर्क को खूब गहरे से समझ लेना। मानने से जानने की भ्रांति पैदा हो जाती है। वह सस्ता उपाय है। वह झूठी दवा है।

मान लिया-ईश्वर है। इस मानने में बड़ी तरकीब है मन की। अब जानने की कोई जरूरत न रही। मानने से, जानने का भ्रम खड़ा कर लिया। मानते रहे वर्षों तक, दोहराते रहे कि ईश्वर है, दोहराते रहे कि ईश्वर है—मदिर और मस्जिद में, और गिरजे और गुरुद्वारे में—तो धीरे— धीरे भूल ही जाओगे कि मुझे पता नहीं है। बार—बार दोहराने से ऐसी प्रतीति होने लगेगी कि हा, ईश्वर है।
मगर यह तुम्हारी पुनरुक्ति है। यह तुम्हारा ही मनोभाव है, जो सघन हो गया। यह आत्म—सम्मोहन है। यह आटो—हिप्‍नोसिस है। यह केवल संस्कार मात्र है। तुम कहीं पहुंचे नहीं। तुम बदले नहीं। तुम्हारे जीवन में कोई क्रांति नहीं हुई। तुम वैसे के वैसे हो। सिर्फ तुमने एक आवरण ओढ़ लिया। तुमने राम—नाम चदरिया ओढ़ ली। भीतर तुम ठीक वैसे हो, जैसे पहले थे। तुमने विश्वास का वस्त्र ओढ़ लिया।
किसको धोखा दे रहे हो? और तुमने मूलतः अपने को एक भ्रांति और झूठ के साथ बांध लिया।
जिस दिन पहली बार तुमने माना कि ईश्वर है—वह झूठ था, —क्योंकि तुमने बिना जाने माना था। तुमने बेईमानी की हद कर दी!
तुम संसार में धोखा— धड़ी करते थे—ठीक। तुम बाजार—दुकान पर धोखा— धड़ी करते थे—ठीक। तुम मंदिर में भी अपना झूठ ले आए! तुम तो न बदले मंदिर में आकर, तुमने मंदिर का ही रूप बदल दिया! मंदिर भी विकृत हुआ, भ्रष्ट हुआ तुम्हारे साथ। तुम तो न तर सके नाव को लेकर; नाव को डुबा बैठे! आप डुबंते पांडे, ले डूबे जजमान!
और जब पहले दिन ही बात झूठ थी, तो दोहराते—दोहराते अंतिम दिन कैसे सच हो जाएगी? झूठ दोहराने से सच होता है? लाख दोहराओ, झूठ झूठ है। लेकिन झूठ दोहराने से प्रतीत होता है कि सच हो गया।
अडोल्फ हिटलर ने यही अपनी आत्मकथा मेन कैम्‍फ में लिखा है कि झूठ को दोहराते जाओ, दोहराते—दोहराते एक दिन सच हो जाता है। सुनो ही मत किसी की, दोहराते जाओ।
बार—बार सुनने से लोगों को भरोसा आने लगता है कि सच ही होगा—जब इतनी जगह दोहराया जा रहा है, इतने लोग दोहरा रहे हैं, इतने मंदिर—मस्जिद, इतने पंडित—पुरोहित, इतने मौलवी दोहरा रहे हैं एक ही बात। मां—बाप, स्कूल, समाज, संस्कृति—सब दोहरा रहे हैं. ईश्वर है। इस दोहराने वालों की जमात में तुमने भी दोहराना शुरू कर दिया। और धीरे— धीरे लगेगा कि सच हो गया है। लेकिन झूठ कभी सच नहीं होता।
दोहराने से कैसे कोई बात सच हो सकती है! तुम लाख दोहराते रहो कि यह पत्थर गुलाब का फूल है। पत्थर पत्थर है, गुलाब का फूल नहीं होगा। लेकिन यह हो सकता है कि बहुत बार दोहराने से तुम्हें गुलाब का फूल दिखायी पड़ने लगे। वह झूठा गुलाब का फूल होगा। वह सपना है, जो तुमने पत्थर पर आरोपित कर लिया। कुछ दिन मत दोहराओ, फिर पत्थर पत्थर हो जाएगा। पत्थर कभी कुछ और हुआ ही न था, पत्थर पत्थर ही था। सिर्फ दोहराने से तुम भांति में पड़े थे।
सब चीजें तुमने झूठ कर डाली हैं। तुमने धर्म भी झूठ कर डाला है।
इसलिए बुद्ध कहते हैं. न तो ईश्वर को मानने की जरूरत है; न आत्मा को मानने की जरूरत है। मानने की जरूरत ही नहीं है। मानने की जड़ काटने के लिए उन्होंने कहा, ईश्वर नहीं है, आत्मा नहीं है।
ऐसा नहीं कि ईश्वर नहीं है। ऐसा नहीं कि आत्मा नहीं है। ऐसा तो बुद्ध कैसे कहेंगे! बुद्ध जानते हैं।
लेकिन तुम्हारी भ्रांतियां बहुत हो चुकीं और उनकी जड़ काटनी जरूरी है। और एक ही तरह से जड़ कट सकती है—कि बुद्ध जैसा पुरुष कह दे कि नहीं कोई ईश्वर है, और नहीं कोई आत्मा है, ताकि तुम झकझोरे जाओ; ताकि तुम्हारी भ्रांति के बाहर तुम आओ, ताकि तुमने जो झूठ निर्मित कर लिए हैं, और झूठों के आधारों पर जो भवन खड़े कर लिए हैं, वे गिर जाएं। तुम्हारे ताश के पत्तों से बने घर को फूंक मारी बुद्ध ने। तुम्हारी कागज की नावों को डुबा दिया तुम्हारे सामने; बेरहमी से डुबा दिया। इसलिए तो यह देश बुद्ध को माफ नहीं कर पाया। इस देश ने बुद्ध को इस देश से ही उखाड़ फेंका।
जो तुम्हारे ताश के महलों को गिराएगा, उससे तुम नाराज हो ही जाओगे। जो तुम्हारे सपनों को तोड़ेगा और तुम्हें नींद से उठाएगा, उसके तुम दुश्मन हो ही जाओगे। और जैसा अथक प्रयास बुद्ध ने किया, किसी और ने कभी नहीं किया। बुद्ध की चोट संघातक है। जो हिम्मतवर थे और जिन्होंने झेल ली अपनी छाती पर, वे नए हो गए, उनका नया जन्म हो गया। जो कमजोर थे, वे क्रुद्ध हो गए। जो कमजोर थे, उन्होंने बदला लिया। बुद्ध के सामने तो न ले सके; लेकिन बुद्ध के जाने पर बदला लिया।
जिस देश में बुद्ध जैसा व्यक्ति पैदा हुआ, उस देश में बौद्धों का नाम मात्र न बचा! यह कैसे हुआ होगा? जरूर इस देश के मन में बड़ी प्रतिक्रिया हुई होगी—कि हमारा भगवान झूठ? हमारी आत्मा झूठ? हमारे शास्त्र झूठ? हमारे वेद झूठ! हम झूठ! सब झूठ! सिर्फ यह एक आदमी गौतम बुद्ध सच!
ऐसा बुद्ध ने कहा नहीं था कि सिर्फ मैं सच। बुद्ध ने इतना ही कहा था. मान्यता झूठ; जानना सच। विश्वास झूठ, बोध सच। यही बुद्धत्व के धर्म का सार है।
बोध सच। जागो। जागकर देखो। मानकर मत देखो, क्योंकि मानकर देखने से तो तुम्हारी आंख पर चश्मा हो जाता है—मानने का चश्मा! तुमने मान लिया कि जगत लाल है। और मानते चले गए। और लाल को ही देखते चले गए; देखने की चेष्टा करते रहे, सम्हालते रहे। इसी को तो लोग साधना कहते हैं—लाल को देखने की चेष्टा! फिर एक दिन तुम्हें लाल दिखायी पड़ने लगा। हरे वृक्ष लाल मालूम होने लगे! नीला आकाश लाल मालूम होने लगा। तब तुमने समझा कि अब पहुंच गए।
कहीं नहीं पहुंचे। तुम और भटक गए। तुम और गिर गए। तुम जहां थे, वहा से भी पीछे फिंक गए।
आंख खोलो और विश्वासों की धूल झाडू दो। बुद्ध का संदेश सीधा—साफ है। आंख हो और विश्वास—मुक्त हो। चैतन्य हो और संस्कार—मुक्त हो। बोध हो और विचार—मुक्त हो। बस, फिर जो है, वही दिखायी पड़ जाएगा।
जो है, उसको बुद्ध ने नाम भी नहीं दिया, क्योंकि नाम देना खतरनाक है। तुम इतने खतरनाक लोग हो कि नाम देते ही नाम को पकड़ लेते हो। जिसको नाम दिया है, उसको तो भूल ही जाते हो। इसलिए बुद्ध ने कहा—जो है।
उस जो है का स्वभाव ही धर्म है। बिना विचार के जगत को देखना धर्म को जानना है। निर्विचार भाव में अस्तित्व को अनुभव करना धर्म की प्रतीति है, धर्म का साक्षात्कार है।
परमात्मा नहीं है, आत्मा नहीं है—सिर्फ इसीलिए कहा बुद्ध ने कि अगर ये हैं—ऐसा कहो, तो तुम्हारी पुरानी झूठी धारणाओं को सबलता मिलती है, बल मिलता है।
मैं भी रोज यही करता हूं। चेष्टा करता हूं कि तुम्हारी पुरानी धारणा टूट जाए। और ऐसा नहीं है कि तुम्हारी पुरानी धारणा गलत ही होनी चाहिए। धारणा गलत है। यह हो सकता है, ईश्वर है। लेकिन ईश्वर को मानने की वजह से तुम नहीं देख पा रहे हो। ईश्वर के मानने को छीन लेना है, ताकि जो है, वह प्रगट हो जाए।
फिर दोहरा दूं : कमजोर आदमी मानता है। कायर मानते हैं। जिनमें थोड़ा साहस है, हिम्मत है, वे जानने की यात्रा पर चलते हैं।
जानने की यात्रा पर बड़े साहस की जरूरत है। सबसे बड़ा साहस तो यही है कि अपनी सारी मान्यताओं को छोड़ देना है। मान्यताओं को छोड़ते ही तुम्हें लगेगा कि तुम अज्ञानी हो गए। क्योंकि तुम्हारी मान्यताओं के कारण तुम ज्ञानी प्रतीत होते थे। एकदम नग्न हो जाओगे, अज्ञानी हो जाओगे। सब हाथ से छूट जाएगा, सब संपदा तुम्हारे तथाकथित शान की। इसलिए हिम्मत चाहिए।
धन छोड़ने के लिए इतनी हिम्मत की जरूरत नहीं है, क्योंकि धन बाहर है। ज्ञान छोड़ने के लिए सबसे बड़े हिम्मत की जरूरत है, क्योंकि ज्ञान भीतर बैठ गया है। धन तो ऐसा है, जैसे वस्त्र किसी ने पहने हैं। फेंक दिए। नग्न हो गया। ज्ञान ऐसे है, जैसे हड्डी—मास—मज्जा—चमड़ी; उखाड़ों, अलग करो—बड़ी पीड़ा होती है।
इसलिए लोग धन को छोड़कर जंगल चले जाते हैं, लेकिन ज्ञान को साथ ले जाते हैं। हिंदू जंगल में बैठकर भी हिंदू रहता है! जैन जंगल में बैठकर भी जैन रहता है। मुसलमान जंगल में बैठकर भी मुसलमान रहता है। क्या मतलब हुआ? संस्कार तो साथ ही ले आए।
कहते हो. समाज को छोड़ दिया। क्या खाक छोड़ा! जिस समाज ने तुम्हें ये संस्कार दिए थे, वे तो तुम साथ ही ले आए। यही तो असली समाज है, जो तुम्हारे भीतर बैठा है। समाज बाहर नहीं है। समाज बड़ा होशियार है और कुशल है। उसने भीतर बैठकर तुम्हारे अंतस्तल में जगह बना ली। अब तुम कहीं भी भागो, वह तुम्हारे साथ जाएगा। जब तक तुम जागोगे नहीं, समाज तुम्हारा पीछा करेगा।
बुद्ध ने कहा—जागो। जागकर जिसका दर्शन होता है, उसको ही उन्होंने धर्म कहा। वह धर्म शाश्वत है, सनातन है। एस धम्मो सनंतनो।
धर्म तुम्हारा स्वभाव है। अस्तित्व का स्वभाव, तुम्हारा स्वभाव; सर्व का स्वभाव। धर्म ही तुम्हारे भीतर श्वास ले रहा है। और धर्म ही वृक्षों में हरा होकर पत्ते बना है। और धर्म ही छलांग लगाता है हरिण में। और धर्म ही मोर बनकर नाचता है। और धर्म ही बादल बनकर घिरता है। और धर्म ही सूरज बनकर चमकता है। और धर्म ही है चांद—तारों में। और धर्म ही है सागरो में। और धर्म ही सब तरफ फैला है।
धर्म से मतलब है स्वभाव। इस सबके भीतर जो अंतस्तल है, वह एक ही है। जीवंतता अर्थात धर्म। चैतन्य अर्थात धर्म। यह होने की शाश्वतता अर्थात धर्म। यह होना मिटता ही नहीं। तुम पहले भी थे—किसी और रूप, किसी और रंग, किसी और ढंग में। तुम बाद में भी होओगे—किसी और रंग, किसी और रूप, किसी और ढंग में। तुम सदा से थे और तुम सदा रहोगे। लेकिन तुम जैसे नहीं। तुम तो एक रूप हो। इस रूप के भीतर तलाशो, जरा खोदो गहराई में। इस देह के भीतर जाओ, इस मन के भीतर जाओ और वहां खोजो। जहां लहर सागर बन जाती है, जहां लहर सागर है। जब भी तुम सागर में उठी किसी लहर में जाओगे, तो थोड़ी देर में, देर—अबेर सागर मिल जाएगा।
ऐसे ही तुम एक लहर हो। लहरें बनती हैं, मिटती हैं, सागर न बनता, न मिटता। सागर शाश्वत है, सनातन है। लेकिन तुमने लहर को खूब जोर से पकड़ लिया है। तुम कहते हो : मैं यह लहर हूं। और तुम इस चिंता में भी लगे हो कि कैसे यह लहर शाश्वत हो जाए।
यह कभी न हुआ है, न होगा। लहरें कैसे शाश्वत हो सकती हैं! लहर का तो अर्थ ही है जो लहरायी और गयी। आयी और गयी—वही लहर। लहर कैसे शाश्वत हो सकती है? बनती नहीं कि मिटने लगती है। बनने में ही मिटती है। तुम तो जन्मे नहीं और मरने लगे। जन्म के साथ ही मृत्यु शुरू हो गयी।
लहर तो बनने में ही मिटती है। लहर शाश्वत नहीं हो सकती। लहर को शाश्वत बनाने का जो मोह है, इसी का नाम संसार है। यह चेष्टा—कि जैसा मैं हूं ऐसा ही बच जाऊं। बड़े कंजूस हो! ऐसा ही बच जाऊं, जैसा हूं! और जैसे हो, इसमें कुछ सार नहीं मिल रहा है—मजा यह है। जैसे हो, इसमें कुछ मिला नहीं है—न कोई सौंदर्य, न कोई सत्य, न कोई आनंद। फिर भी जैसा हूं ऐसा ही बना रहूं!
तुमने कभी सोचा कि अगर यह तुम्हारी आकांक्षा पूरी हो जाए, तो इससे बदतर कोई दशा होगी! तुम जैसे हो, अगर ऐसे ही रह जाओ, सदा—सदा के लिए ऐसे ही, जैसे तुम हो; ठहर जाओ। तुमने सोचा भी नहीं है, नहीं तो तुम घबड़ा जाओगे। तुम कहने लगोगे. नहीं प्रभु! भूल हो गयी। यह प्रार्थना वापस लेता हूं। ऐसा ही रह जाऊंगा—ठहरा, रुका, अवरुद्ध! कष्टपूर्ण हो जाएगा। नहीं, मुझे जाने दो, नए को आने दो।
संसार है—मैं जैसा हूं वैसे ही रहने की आकांक्षा। संन्यास है—जैसा हो, वैसा ही हो जाने की तत्परता। जैसा हो! आज आदमी, तो आदमी; कल कब में पड़ोगे और घास बनकर उगोगे। हरी घास कब पर परम सुंदर है।
आदमी से थक नहीं गए? घास नहीं होना है? घास का फूल नहीं बनना है? आज आदमी हो, कल आकाश में बादल होकर मंडराओ। आज आदमी हो, कल एक तारे होकर चमको। आज आदमी हो, कल एक गौरैया होकर गीत गाओ सुबह—सुबह सूरज के स्वागत में। आज आदमी हो, कल गुलाब का फूल बनो—कि कमल बनकर किसी सरोवर में तैसे।
आदमी ही रहोगे! इसी लहर के साथ जड़? जड़ता को पकड़ लोगे?
आज पुरुष हो, कल स्त्री; आज स्त्री हो, कल पुरुष। रूप को बहने दो; धारा को बहने दो। इस सरिता को रोको मत, अवरुद्ध मत करो।
जो हो, उसका स्वीकार, तथाता—संन्यास। जैसा मैं हूं बस ऐसा ही रहे सदा, ऐसी जड़ आग्रह की अवस्था, ऐसा दुराग्रह—संसार।
संसार में अगर दुख मिलता है, तो इसीलिए दुख मिलता है, क्योंकि जो नहीं हो सकता, उसकी तुम मल करते हो। और संन्यासी अगर सुखी है, प्रफुल्लित है, आनंदित है, तो कोई खजाना मिल गया है उसे। वह खजाना क्या है? वह खजाना यही है कि जो होता है, वह उसी के साथ राजी है। जैसा होता है, उसमें रत्तीभर भिन्न नहीं चाहता। भिन्न की आकांक्षा गयी। उसकी कोई वासना नहीं है। वह कुछ मांगता नहीं है। वह प्रतिपल जीता है आनंद से। जवान है, तो जवानी में प्रसन्न है, और बच्चा था, तो बचपने में प्रसन्न था; और का हो जाएगा, तो बुढ़ापे का सुख लेगा। जीता था, तो जीने का गीत देखा, और जीने का नाच; और मरेगा, तो मृत्यु का नाच देखता हुआ मरेगा। जहां है, जैसा है, उससे अन्यथा या कहीं और होने की आकांक्षा नहीं है।
ऐसी जब दशा बन जाएगी, तो जो तुम्हें ज्ञान होता है, उसका नाम धर्म है। फिर तुम्हें सागर का पता चलता है। तरंगों से तुम मुक्त हो गए; लहरों से मुक्त हो गए। और निश्चित ही सागर शाश्वत है।
बुद्ध ने उसी को धर्म कहा है, जिसको दूसरों ने ईश्वर कहा है। बुद्ध ने उसी को धर्म कहा है, जिसको दूसरों ने आत्मा कहा है। लेकिन आत्मा और ईश्वर के साथ ज्यादा खतरा है। धर्म के साथ उतना खतरा नहीं है।
ईश्वर का मतलब हो जाता है : कोई बैठा है आकाश में, चला रहा है सारे जगत

 जीने की कला को। चलो, इसकी खुशामद करें, स्तुति करें। इसको प्रसन्न कर लें किसी तरह, तो अपने लिए कुछ विशेष आयोजन हो जाएगा। अपने पर दया हो जाएगी। इसकी अनुकंपा अपने को मिल जाए, तो हम दूसरों से आगे निकल जाएंगे—धन में, ध्यान में। तो हमारी जो मांगें हैं, हम इससे पूरी करवा लेंगे। चलो इसके पैर दबाएं। चलो, इससे कहें कि हम तुम्हारी चरण—रज हैं।
तो दिशा गलत हो गयी। दिशा वासना की हो गयी। ईश्वर को मानते ही कि ईश्वर आकाश में बैठा है मनुष्य की भांति, स्वभावत: तो जो मनुष्य की कमजोरियां हैं, वे ईश्वर में भी आरोपित हो जाएंगी।
मनुष्य को खुशामद से राजी किया जा सकता है, तो ईश्वर को भी खुशामद से राजी किया जा सकता है। अगर मनुष्य को खुशामद से राजी किया जा सकता है, तो ईश्वर को थोड़ी और सुंदर खुशामद चाहिए; उसका नाम स्तुति! अगर मनुष्य को रिश्वत दी जा सकती है, तो ईश्वर को भी रिश्वत दी जा सकती है। जरा देने में ढंग होना चाहिए; जरा कुशलता और प्रसादपूर्वक। और अगर आदमी से अपनी मांगें पूरी करवायी जा सकती हैं, चाहे वे न्यायसंगत न भी हों, तो फिर ईश्वर से भी पूरी करवायी जा सकती हैं।
तुम चकित होओगे. दुनिया के धर्म—शास्त्रों में ऐसी प्रार्थनाएं हैं, जो कि धर्म —शास्त्रों में नहीं होनी चाहिए। अधार्मिक प्रार्थनाएं हैं। मगर वे सूचक हैं, इस बात की कि अगर ईश्वर को मनुष्य की तरह मानोगे, तो यह उपद्रव होने वाला है।
वेद में ऐसी सैकड़ों ऋचाएं हैं, जिनमें प्रार्थना कर रहे हैं ऋषि कि हमारे दुश्मन को मार डालो! यहीं तक नहीं, हमारी गाय के थन में दूध बढ़ जाए और दुश्मन की गाय के थन में दूध बिलकुल सूख जाए। ये किस तरह की प्रार्थनाएं हैं! कि हमारे खेत में इस बार खूब फसल आए और पड़ोसी का खेत बिलकुल राख हो जाए। ये किस तरह की प्रार्थनाएं हैं! और वेद में!
मगर ये खबर देती हैं कि अगर ईश्वर को आदमी की तरह मानोगे, तो तुम उससे जो प्रार्थनाएं करोगे, वह भी आदमी की तरह होंगी। यह आदमी की असलियत है! मंदिर भी जाता है, तो क्या मांगता है? कुरान में भी इस तरह के वचन हैं और बाइबिल में भी। सुंदर नहीं हैं।
इस अर्थ में बुद्ध ने बड़ी क्रांतिकारी दृष्टि दी। बुद्ध ने कहा : हटाओ इस ईश्वर को। इसके कारण वेद की ये अभद्र ऋचाएं पैदा होती हैं। इसके कारण आदमी के भीतर की बेहूदी आकांक्षाओं को सहारा मिलता है। ईश्वर को हटा दो।
ईश्वर की जगह नियम को स्थापित किया बुद्ध ने धर्म में। अब नियम से कोई प्रार्थना थोड़े ही कर सकते हो। किसी को तुमने गुरुत्वाकर्षण से प्रार्थना करते देखा—कि आज जरा घर के बाहर जा रहा हूं; हे गुरुत्वाकर्षण! रास्ते पर गिरा मत देना! टांग मत तोड़ देना! क्योंकि और लोगों के, कई के फ्रैक्चर हो गए हैं; मुझे न हो यह। देखो, मैं तुम्हारा भक्त हूं!
गुरुत्वाकर्षण से कोई प्रार्थना नहीं करता। करेगा, तो मूढ़ मालूम पड़ेगा। खुद की ही आंखों में मूढ़ मालूम पड़ेगा। लेकिन एक दफा गुरुत्वाकर्षण को भी आदमी का रूप दे दो, कि गुरुत्वाकर्षण जो है वह एक देवता है, जो देखता रहता है कि कौन ठीक चल रहा है, कौन ठीक नहीं चल रहा है। जो इरछा—तिरछा चलता है, उसको गिराता है। दे मारता है। हड्डी तोड़ देता है। अस्पताल में भर्ती करवा देता है। जो सीधा चलता है, सधकर चलता है, सम्हलकर चलता है, उसको बचाता है।
यही तो है। बादल आकाश में गरजे; तुमने कल्पना कर ली इंद्र देवता की—कि नाराज हो रहा है इंद्र देवता! हमसे कुछ भूल हो गयी।
बिहार में भयंकर अकाल पड़ा। और महात्मा गांधी ने पता है क्या कहा! उन्होंने कहा : यह हमारे पापों का फल है। देवता पापों का प्रतिकार, दंड दे रहा है। क्या पाप? हरिजनों के साथ जो हमने पाप किया है, उसका फल दे रहा है। लेकिन वह पाप तो पूरे देश में हो रहा है; सिर्फ बिहार में ही नहीं हो रहा है! तो बिहार के ही लोगों को क्यों सता रहा है? ये बिहारियों ने बेचारों ने क्या बिगाड़ा है?
लेकिन हम जब भी ईश्वर को व्यक्ति की तरह मान लेते हैं, तो कुछ झंझटें आनी शुरू होती हैं।
बुद्ध ने ईश्वर के व्यक्तित्व को पोंछ डाला; व्यक्तित्व को हटा दिया। रूप को गिरा दिया; अरूप बना दिया।
वेद कहते हैं. परमात्मा अरूप है। लेकिन फिर भी उनकी प्रार्थनाएं जो हैं, वे उसको रूप मानकर ही चल रही हैं। बुद्ध ने वस्तुत: परमात्मा को अरूप कर दिया—है ही नहीं परमात्मा; कोई ईश्वर नहीं है। फिर क्या है? फिर एक महानियम है। जीवन का एक शाश्वत नियम है, सब जिसके आधार से चल रहा है।
नियम की प्रार्थना नहीं की जा सकती, नियम से प्रार्थना नहीं की जा सकती। नियम की खुशामद भी नहीं की जा सकती। नियम को रिश्वत भी नहीं दी जा सकती। नियम का तो पालन ही किया जा सकता है। पालन करोगे, सुख पाओगे। नहीं पालोगे, दुख पाओगे। और ऐसा नहीं है कि नियम वहा बैठा है डंडा लिए कि नहीं पाला तो सिर तोड़ देगा! कोई वहां बैठा नहीं है। तुम नियम के विपरीत जाकर स्वयं को दंड दे लेते हो।
जब तुम शराब पीकर इरछे—तिरछे चलते, तो गिर जाते हो। ऐसा नहीं कि गुरुत्वाकर्षण देख रहा है बैठा हुआ वहां कि अच्छा, अब इस आदमी ने शराब पी! अब इसकी तोड़ो टांग! ऐसा वहां कोई भी नहीं है। जब तुम संतुलन खो देते हो, अपने संतुलन खोने के कारण ही तुम गिर पड़ते हो।
तुम ही अपने को दंड देते, तुम ही अपने को पुरस्कार। बुद्ध ने तुम्हें सारी शक्ति दे दी। बुद्ध ने तुम्हें सार्वभौम शक्ति दे दी।
बुद्ध ने जब कहा—कोई ईश्वर नहीं है, तो बुद्ध ने तुम्हारे जीवन में ईश्वरत्व की घोषणा कर दी।

 दूसरा प्रश्‍न:

 भगवान, संन्यास में दीक्षित करके आपने हमें संसार का परम सौंदर्य प्रदान किया। मृत्यु सिखाते हुए जीवन का प्रेमपूर्ण उल्लास दिया। आज हम दोनों हमारी पच्चीसवीं लग्न—तिथि पर आपके दिव्य चरणों में नृत्य करते हुए बहुत—बहुत अनुगृहीत हैं। आपकी कला अपरंपार है। भाव को प्रगट करने में वाणी असमर्थ है। आपके चरणों में हमारे शत—शत प्रणाम।

पूछा है मंजु और गुलाल ने।
ऐसा ही है। जीवन का सत्‍य बड़ा विरोधाभासी है। अगर मरने की तैयारी हो, तो जीवन का अनुभव होता है। और अगर दुख को अंगीकार कर लेने की क्षमता हो, तो सुख के मेघ बरस जाते हैं। और अगर जीवन में कोई वासना न रह जाए, तो जीवन अपने सब घूंघट उघाड़ देता है। जो कुछ नहीं चाहता, उसे सब मिल जाता है। और जो सब की मांग करता रहता है, उसे कुछ भी नहीं मिलता।
जीवन का गणित बहुत बेबूझ है, रहस्यपूर्ण है। ऐसा ही है।
मंजु और गुलाब ने कहा : 'संन्यास में दीक्षित करके आपने हमें संसार का परम सौंदर्य प्रदान किया।
संन्यासी ही जान सकता है संसार के सौंदर्य को; संसारी नहीं जान सकता। क्योंकि संसारी इतना लिप्त है, इतना डूबा है गंदगी में, दूर खड़े होने की क्षमता नहीं है उसकी। वह दूर खड़े होकर देख नहीं सकता। और मजा तो दूर खड़े होकर देखने में है।
तुम जब बहुत व्यस्त होते हो संसार में, तो संसार का सौंदर्य देखने की सुविधा कहां! फूल खिलते हैं, मगर तुम्हें दिखायी नहीं पड़ते। चांद—तारे आते हैं, मगर तुम्हें दिखायी नहीं पड़ते। तुम अपनी दुकान में सिर झुकाए अपने खाता—बही में लगे हो। तुम्हें समय कहां, सुविधा कहां, अवकाश कहां कि तुम फूलों से दोस्ती करो; कि पहाड़ों से नमस्कार करो; कि नदियों के साथ बैठो; कि वृक्षों से बात करो। तुम्हें फुरसत कहां? तुम्हें अपनी तिजोड़ी से फुरसत कहां?
तिजोड़ी से तुम्हारा वार्तालाप बंद हो, तो चांद—तारों की तरफ आंख उठे। तुम क्षुद्र में उलझे हो, तो विराट की सुधि कैसे लोगे? उसकी सुरति कैसे आएगी; उसकी स्मृति कैसे जगेगी?
इसलिए यह विरोधाभास घटता है। संन्यासी जान पाता है संसार के सौंदर्य को। और संसार के सौंदर्य को जानने की क्षमता पैदा ही तब होती है, जब तुम्हारा संसार से कुछ लेना—देना नहीं है। जब तुम अलिप्त भाव से खड़े हो गए; जब तुमने कहा, जो है, ठीक है। जैसा है, शुभ है। अहोभाग्य कि मैं अभी श्वास ले रहा हूं। अहोभाग्य कि मेरी आंखें हैं और मैं रंग—रूप देख सकता हूं। अहोभाग्य कि मेरे पास कान हैं और पक्षियों के गीत सुनायी पड़ते हैं। और कोई वीणा छेड़ता है, तो मेरे प्राण संगीत से भर जाते हैं। अहोभाग्य!
फिर चारों तरफ तुम्हें वीणा छिड़ती हुई मालूम पड़ेगी। प्रकृति सब तरफ मृदंग लिए नाच रही है। यहां नाच चल रहा है, अपरिसीम नाच चल रहा है। हर चीज नाच रही है। नृत्य। लेकिन देखने वाले को थोड़ी सी क्षमता तो होनी चाहिए।
और एक बात है तुम उतना ही जान सकते हो, जितनी तुम्हारी गहराई बढ़ जाती है। जैसे—जैसे तुम्हारा ध्यान गहरा होता है, वैसे—वैसे तुम्हारी दृष्टि प्रकृति में गहरी उतरती है। तब स्थूल विलीन होने लगता है और सूक्ष्म का दर्शन होने लगता है। संन्यास का अर्थ क्या है? संन्यास का अर्थ है. जो है, उससे मैं तृप्त हूं। और जो है, उससे जब तुम तृप्त हो, तो गयी भाग—दौड़, गयी आपा— धापी। फिर न कहीं जाना, न कहीं पाना, न कुछ होना।
संन्यासी का मतलब यह नहीं कि वह स्वर्ग पाने में लगा है। वह तो फिर दुकानदार ही है। फिर भी संसारी रहा वह। संन्यासी का अर्थ यह नहीं कि अब परमात्मा को पाना है; कि अब परमात्मा को पाकर रहेंगे। यह तो फिर नयी तुमने खाते —बही खोल दिए। तुमने नया बैंक—बैलेंस खोल दिया—परलोक में, मगर उपद्रव शुरू हो गया। पहले धन कमाते थे; अब पुण्य कमाने लगे। पहले धन के सिक्के इकट्ठे करते थे, अब पुण्य के सिक्के इकट्ठे करने लगे। यह तो कुछ फर्क न हुआ। यह तो बीमारी का नाम बदला, बस। जहर वही का वही, शायद और भी गहरा हो गया; और भयंकर हो गया।
संन्यासी का अर्थ है. जिसने खोज ही छोड़ दी। जिसने कहा. खोजने को क्या है? जो है, मिला हुआ है। जिसने कहा. जाना कहां है? सब यहीं है। जिसने कहा. न कैलाश जाऊंगा, न काबा। यही स्थल, जहां मैं बैठा हूं—कैलाश। यही स्थल, जहां मैं बैठा हूं—काबा। अब किताबों में न खोजूंगा; अब आंख बंद करूंगा, अपने में खोंका। आंख खोलूंगा और प्रकृति में खोंका। लोगों की आंखों में झांकूगा। मुर्दा किताबों में क्या होगा! जिंदा किताबें मौजूद हैं। ये चलते—फिरते कुरान! ये चलती—फिरती बाइबिलें! ये चलते—फिरते गुरुग्रंथ! ये चलते —फिरते वेद! इनमें झांकूगा। इनसे दोस्ती बनाऊंगा। इनके साथ नाचूंगा।
संन्यासी का अर्थ है : जिसके लिए यही क्षण सब कुछ है।
फिर सौंदर्य कितनी देर तुमसे छिप सकता है! तुम जब इतने ठहर जाओगे; जब तुम्हारी जीवन—ज्योति को कोई वासना कंपाकी नहीं; तुम अकंप हो जाओगे। जैसे दीए को जलाते हो, हवा के झोंके उसे कंपाते हैं, ऐसे ही तुम्हारे भीतर की जो चेतना का दीया है, उसे वासना के झोंके कंपाते हैं। जब कोई वासना नहीं रह जाती, दीए की ज्योति थिर हो जाती है। उस थिरता में ही कुंजी है।
ठीक कहा मंजु—गुलाब ने कि 'संन्यास में दीक्षित करके आपने हमें संसार का परम सौंदर्य प्रदान किया।'
मैं संसार—विरोधी नहीं हूं; मैं जीवन—विरोधी नहीं हूं। मेरा संन्यास जीवन को जानने की कला है। जीवन को त्यागने की नहीं, जीवन के परम भोग की कला है। मैं तुम्हें भगोड़ा नहीं बनाना चाहता। भगोडापन तो कायरता है। जो संसार से भागते हैं र वे कायर हैं। वे डर गए हैं। वे कहते हैं यहां रहे, तो फंस जाएंगे। यह सौ का नोट उन्हें दिखायी पड़ा कि उनके भीतर एकदम उथल—पुथल मच जाती है कि अब नहीं बचा सकेंगे अपने को। यह सौ का नोट डुबा लेगा!
यह सुंदर स्त्री जाती है। अब भागो यहां से, अन्यथा इसके पीछे लग जाएंगे! मगर यह आदमी, जो नोट देखकर लार टपकाने लगता है, यह आदमी जो सुंदर स्त्री को गुजरते देखकर एकदम होश खो देता है, यह पहाड़ पर भी बैठ जाएगा, तो क्या होगा! यह आदमी यही का यही रहेगा। यह पहाड़ पर बैठकर भी क्या सोचेगा? आंख बंद करेगा—सौ के नोट तैरेंगे! आंख बंद करेगा—सुंदर स्त्रियां खड़ी हो जाएंगी।
और ध्यान रखना. कोई स्त्री इतनी सुंदर नहीं है, जितनी जब तुम आंख बंद करते हो तब सुंदर हो जाती है, क्योंकि वह कल्पना की स्त्री होती है। वास्तविक स्त्री में तो कुछ झंझटें होती हैं। और जितनी सुंदर हो, उतनी ज्यादा झंझटें होती हैं। क्योंकि उतनी कीमत चुकानी पडती है। जितना बड़ा सौंदर्य होगा, उतनी कीमत स्त्री मांगेगी। लेकिन कल्पना की स्त्री तो सुंदर ही सुंदर होती है। वह तो बनती ही सपनों से है। और तुम्हारे ही सपने हैं, तुम जैसा चाहो बना लो। नाक थोड़ी लंबी, तो लंबी। छोटी कर दो नाक, तो छोटी। या छोटी है, तो थोड़ी लंबी कर दो।
मैंने सुना है एक स्त्री ने रात सपना देखा कि आ गया राजकुमार, जिसकी प्रतीक्षा थी; घोड़े पर सवार। उतरा घोड़े से। घोड़ा भी कोई ऐसा—वैसा घोड़ा नहीं रहा होगा। रहा होगा चेतक। शानदार घोड़े से उतरा शानदार राजकुमार। जब सपना ही देख रहे हो, तो फिर अच्चर—खच्चर पर क्या बिठाना! अपना ही सपना है, तो चेतक पर बिठाया होगा। और राजकुमार ही आया। फिर राजकुमार भी रहा होगा सुंदरतम। अब जब सपना ही देखने चले हैं, तो इस में क्या कंजूसी, क्या खर्चा! मुफ्त सपना है, अपना सपना है!
उतरा राजकुमार। सुंदर देह उसकी। नील वर्ण। रहा होगा कृष्ण जैसा। उठाया गोद में इस युवती को। बिठाया घोड़े पर। जैसे पृथ्वीराज संयोगिता को ले भागा।
पढ़ी होगी कहानी कहीं पृथ्वीराज—संयोगिता की। चला घोडा। उसकी टापें मीलों तक सुनायी पड़े, ऐसी आवाज। चला घोड़ा भागता हुआ। काफी दूर निकल गए संसार से।
प्रेमी सदा दूर निकल जाना चाहते हैं संसार से, क्योंकि संसार बड़ी बाधा देता है। यहां अड़ंगे खड़े करने वाले बहुत लोग हैं। प्रेम में अडंगा खड़े करने वाले तो बहुत लोग हैं। सब तैयार, बैठे हैं। क्योंकि खुद प्रेम नहीं कर पाए, दूसरे को कैसे करने दें! खुद चूक गए हैं, अब औरों को भी चुकाकर रहेंगे। बदला लेकर रहेंगे। यहां सब प्रेम के शत्रु हैं।
तो जब सपना ही देख रहे हैं, तो फिर चले संसार से दूर। युवती बड़ी प्रफुल्लित हो रही है। बड़ी खिली जा रही है। उसके हृदय की कली पहली दफे खिली है। आ गया राजकुमार, जिसकी जन्मों से प्रतीक्षा थी। उसी घोड़े पर सवार, जिस पर सदा राजा—महाराजा आते हैं; कि देवता आते हैं।
फिर उसने पूछा, युवती ने, बड़े सकुचाते हुए, बड़े शरमाते हुए—अपना ही सपना है, तो शरमाओ खूब, सकुचाओ खूब—उसने पूछा कि हे राजकुमार! मुझे कहां लिए चलते हो? और राजकुमार हंसने लगा। और उसने कहा यह सपना तुम्हारा है, तुम जहां कहो! इसमें मेरा क्या बस है! मैं इसमें आता कहां हूं! सपना तुम्हारा है।
तो वे जो तुम्हारे ऋषि—मुनि बैठ जाते हैं पहाड़ों पर..। यहां अगर स्त्री मोह लेती थी, तो वहा सपने स्त्री के ही चलेंगे। तुम जिससे भागोगे, वह तुम्हारा पीछा करेगा। तुम जिससे डरोगे, तुम उसी से हारोगे।
इसलिए मैं भागने को नहीं कहता। मैं कहता हूं : यहीं समझो, पहचानो, निखारो अपने चैतन्य को।
मैं जीवन—विरोधी नहीं हूं। जीवन से मेरा असीम प्रेम है। और मैं चाहता हूं कि तुम्हारा संन्यास ऐसा हो कि तुम्हारे संसार को निखार दे; तुम्हारे संसार को ऐसा बना दे कि परमात्मा झलकने लगे।
और मंजु—गुलाब ने कहा 'मृत्यु सिखाते हुए जीवन का प्रेमपूर्ण उल्लास दिया!'
वह दूसरा विरोधाभास है। जो मरना जानता है, वही जीना जानता है। जो मरने से डरता है, वह कभी जी नहीं पाता। कैसे जीएगा? कायर कैसे जीएगा? जो मरने से डरता है, वह जी नहीं सकता, क्योंकि जीना हमेशा मौत लाता है। जीए कि मौत!
तुमने देखा, जो जितनी त्वरा से जीएगा, उतनी जल्दी मौत आ जाती है। एक चट्टान है, पड़ी है सदियों से, मरती नहीं। और गुलाब का फूल सुबह खिला और सांझ मर गया। तुमने कभी सोचा कि गुलाब का फूल इतने जल्दी क्यों मर जाता है! इसलिए मर जाता है कि इतनी तेजी से जीता है, इतनी त्वरा से जीता है, इतनी इंटेंसिटी से, इतनी सघनता से जीता है कि जो चट्टान को सदियां लगती हैं जिस समय को पार करने में, उसे गुलाब का फूल एक दिन में पार कर जाता है। एक दिन में इतना जी लेता है, जितना मंदबुद्धि चट्टान सदियों में जी पाती है। और शायद जी पाती है कि नहीं जी पाती!
तुम गुलाब का फूल होना चाहोगे कि चट्टान होना चाहोगे? चट्टान का जीवन लंबा है। गुलाब के फूल का जीवन बड़ा छोटा है, बड़ा क्षणभंगुर है। क्या तुम चट्टान होना चाहोगे? अधिक लोगों ने यही सोचा है कि वे चट्टान होना चाहेंगे। क्योंकि वे कहते हैं. जीवन लंबा हो; मौत न आ जाए।
अगर गुलाब का फूल भी सोचे कि मौत न आ जाए, तो उसके जीवन की त्वरा कम हो जाएगी। वह धीरे— धीरे जीएगा। क्योंकि जितने धीरे जीएगा, उतनी ही देर लगेगी मौत के आने में। जितना कुनकुना जीएगा, उतनी देर लगेगी मौत के आने में। जितना कम जीएगा, उतनी मौत दूर हो जाएगी। अगर बिलकुल न जीए, तो मौत को सदा के लिए टाला जा सकता है।
मगर जो बिलकुल न जीए, वह तो मर ही गया! अब मौत को टालकर भी क्या होगा?
तुमने देखा कि मरा हुआ आदमी फिर दुबारा नहीं मरता! और अगर तुम चाहते हो कि मैं कभी न मरूं, तो उसका मतलब एक ही होता है कि तुम बिलकुल मुर्दा हो जाओ। मरा हुआ आदमी कभी नहीं मरता। एक दफे कब में चले गए, सो चले गए; फिर कभी मौत नहीं होती।
कुछ लोग इसी डर से जीते नहीं और जीते जी कब्रों में बैठ जाते हैं। अपनी कब में रहने लगते हैं
मैं तुम्हें जीवन सिखाता हूं। जीवन सिखाने का एक ही उपाय है कि तुम्हें मृत्यु सिखायी जाए। मरने को अंगीकार करने की पात्रता जिस दिन आ जाएगी, उस दिन तुम जीयोगे गुलाब के फूल की तरह—और वही जीवन है। उस दिन तुम जीयोगे, जैसे मशाल को कोई दोनों ओर से एक साथ जला दे। एक गहरी भभक.।
और ध्यान रखना. लंबे जीने से कुछ सार नहीं। एक क्षण को भी अगर गहरे जी लिया—लंबा नहीं, गहरा, समय में फैला हुआ नहीं, क्षण में गहरा डूबा हुआ—एक क्षण भी अगर तुमने गहराई से जी लिया, तो एक क्षण में ही तुम्हें एस धम्मो सनंतनो का पता चल जाता है। वह जो शाश्वत धर्म है, उसका पता चल जाता है। और ऐसे तुम सदियों तक एक लकड़ी के टुकड़े की तरह धारा के ऊपर तैरते रहो, धक्के खाते रहो लहरों के—इस किनारे से उस किनारे, इस तट से उस तट—तुम्हें हीरे—मोती हाथ न लगेंगे। हीरे —मोती के लिए तो गहरे जाना होता है, डुबकी मारनी होगी।
और मंजु और गुलाब ने सुनने की कोशिश की है मुझे, समझने की कोशिश की है। चल पड़े हैं। अभी और—और सौंदर्य प्रगट होगा। इतने से कुछ नहीं होने वाला है, अभी और—और सौंदर्य प्रगट होगा। अभी रोज—रोज सौंदर्य घना होगा।
जो सूत्र हाथ लगे है—कि मौत से जीवन मिलता और संन्यास से संसार का सौंदर्य प्रगट होता—इन सूत्रों का उपयोग करते रहे, करते रहे, तो एक दिन विराट बरसेगा। वह घड़ी ही समाधि की घड़ी है।

 तीसरा प्रश्न:

 प्रश्न पूछने में सार क्या है?

फिर पूछा काहे के लिए! फिर इस पर भी संयम रखते, संवर करते थोड़ा! इसको भी पूछने में क्या सार है? यह भी प्रश्न है।
प्रश्न अगर भीतर उठते हैं, तो पूछो या न पूछो, उठते ही रहेंगे। हा, पूछ लेने में एक संभावना है : शायद समझ के कारण गिर जाएं।
ध्यान रखना यहां जो उत्तर दिए जाते हैं, वे तुम्हारे प्रश्नों को हल कर देंगे, ऐसे उत्तर नहीं हैं। वे तुम्हारे प्रश्नों को सदा के लिए गिरा देंगे, ऐसे उत्तर हैं। जो प्रश्न हल होता है, वह तो शायद कल फिर खड़ा हो जाए। जो आज तुमने किसी तरह समझ लिया कि हल हो गया, वह कल फिर मौजूद हो जाएगा।
तो उत्तरों में मेरा भरोसा नहीं है। मेरा भरोसा तो इस बात में है कि तुम्हारा चित्त निष्प्रश्न हो जाए। पूछ—पूछकर ही होगा। आज पूछोगे, कल पूछोगे। इधर से पूछोगे, उधर से पूछोगे। और मैं तुम्हें हर बार तुम्हीं पर फेंक रहा हूं। मेरा हर उत्तर तुम्हें तुम्हीं पर वापस फेंक देता है।
अनेक बार पूछोगे, जितने प्रश्न पूछते जाओगे, उतने प्रश्न कम होते जाएंगे। नए—नए उठेंगे। जल्दी अंत नहीं आने वाला है। मन इतने जल्दी थकता नहीं, नए पैदा करेगा। लेकिन यह अच्छा है कि नए प्रश्न उठें। उनसे नयी ताजगी होगी; नया खून बहेगा।
और जब तुम प्रश्न पूछते हो, तो तुम्हारे चित्त की दशा का सूचन होता है। और अच्छा है कि तुम्हारे चित्त की दशा तुम मेरे प्रति सूचित करते रहो।
तुम शायद डरते हो पूछने में। तुम्हें शायद यह लगता है कि पूछा तो अज्ञानी मालूम पडूगा। तो तुम अपने को समझा रहे हो कि सार क्या है! अज्ञानी पूछ रहे हैं। मैं तो ज्ञानी हूं। मुझे तो पता ही है। मुझे क्या पूछना!
लेकिन तुम्हारे भीतर प्रश्न जरूर हैं। नहीं तो यह सवाल भी नहीं उठता कि प्रश्न पूछने में सार क्या है! ऐसा पूछकर तुम इतना ही कर रहे हो कि अपने भीतर के अज्ञान को छिपा रहे हो।
यहां कई तरह के लोग हैं। एक तो वे, जो पूछते नहीं इसलिए, कि ध्यान की गहराई सघन हुई है और पूछने को अब कुछ बचा नहीं है। दूसरे वे, जो पूछते नहीं हैं इसलिए, कि डरते हैं कि कहीं पूछने से अज्ञान प्रगट न हो जाए। तीसरे वे, जो पूछते हैं इसलिए, और इस तरह के प्रश्न पूछते हैं, जिनसे ज्ञान प्रगट हो, पांडित्यपूर्ण प्रश्न पूछते हैं। और चौथे वे, जो इसलिए पूछते हैं, ताकि वे अपने हृदय को मेरे सामने खोल सकें, जैसा है, बुरा, भला।
ध्यान रखना : अगर तुम्हारे भीतर प्रश्न उठने बंद हो गए हैं, तब तो शुभ। वह तो सबसे ऊंची बात है। फिर पूछने का सवाल ही नहीं उठता। हैं ही नहीं, तो पूछोगे क्या! अगर यह न हुआ हो, तो दूसरी बात जो चुनने जैसी है वह यह है कि पूछना वही, जो तुम्हारे भीतर वस्तुत: उठता हो। ज्ञान—प्रदर्शन के लिए नहीं, अपने हृदय के आवेदन के लिए।
और हर चीज तुम्हारे संबंध में खबर देती है। तुम्हारा चलना, तुम्हारा उठना, तुम्हारा पूछना। और अच्छा है कि तुम अपने को प्रगट करते रहो। अच्छा है कि तुम मेरे दर्पण में आकर अपना चेहरा बार—बार देखते रहो। ताकि तुम्हें साफ रहे कि तुम कहा हो, क्या हो, कैसे हो।
पूछो। सार है बहुत। सार यही है कि तुम्हें तुम्हारी शक्ल बार—बार पता चलती रहे। पता चलती रहे, तो रूपांतरण संभव है।
रोज सुबह दर्पण के सामने खड़े होकर पूछते नहीं कि क्या सार है! कल भी तो देखा था, परसों भी तो देखा था। वही का वही तो हूं बदल क्या गया! लेकिन फिर दर्पण के सामने देखते हो। सच में रोज तुम बदल रहे हो। वही नहीं हो, जो कल था। वही नहीं हो, जो परसों था। बच्चा जवान हो रहा है; जवान का हो रहा है; जिंदगी मौत में ढली जाती है। सब बदल रहा है।
ऐसे ही तुम रोज—रोज पूछकर दर्पण के सामने अपने को खड़ा कर लेते हो। तुम्हारा हर प्रश्न, अगर ईमानदारी से भरा हो, तो उसमें बड़ा सार है। हां, पांडित्यपूर्ण प्रश्नों का कोई सार नहीं है। इसलिए मैं उनके उत्तर भी नहीं देता। तुम पूछते भी हो, तो भी उनके उत्तर नहीं देता।
एक युवा डाक्टर ने अपनी प्रेमिका से रोमांटिक लहजे में कहा : तुम्हारी आंखों में जीवन का टानिक है। जब उदास होता हूं तो तुम्हारा सामीप्य ऐसा महसूस होता है, जैसे आखिरी सासें गिनते हुए मरीज को आक्सीजन मिल जाए। तुम्हारे घने काले केशों में क्लोरोफार्म जैसी मीठी मदहोशी! तुम्हारे...।
बस, उस स्त्री ने कहा : बकवास बंद करो। मैं तुम्हारी प्रेमिका हूं या डिस्पेन्सरी? मगर डाक्टर बेचारा अपना निवेदन कर रहा है!
तुम जो कहते हो, जो पूछते हो, उसमें तुम मौजूद रहो तो अच्छा है। चीजें साफ होती हैं।
एक जेबकतरा नए फैशन के कपड़ों की किताब देख रहा था। उसके चेले ने पूछा. क्यों गुरु! अब क्या दर्जी बनने का इरादा है?
नहीं, मैं देख रहा हूं कि नयी फैशन के कपड़ों में जेबें कहां—कहां बनायी जाती
एक व्यापारी ने अपनी नयी दुकान के बाहर एक बोर्ड लगा रखा था यह दुकान आपकी जरूरतों के लिए खोली गयी है। अब आपको कहीं दूर जाकर अपने को ठगाने की जरूरत नहीं है।
यहीं ठगा सकते हैं! उनका मतलब साफ है। हालांकि उसको खयाल नहीं होगा कि उसने क्या लिख दिया है! अब ठगाने के लिए दूर जाने की कोई जरूरत नहीं है! गुरुदेव! यथार्थ और भ्रम में अंतर स्पष्ट कर दें, तो बड़ी कृपा होगी, भक्त ने विनती की।
आपका यहां उपस्थित रहना और मेरा प्रवचन करना यथार्थ है, परंतु मेरा यह सोचना कि मेरी बात पर आप ध्यान दे रहे हैं, मेरा भ्रम है। संत ने समाधान किया। शिष्य ने पूछा है यथार्थ और भ्रम में अंतर क्या है! तो गुरु ने कहा कि मेरा यहां उपस्थित रहना और मेरा प्रवचन करना यथार्थ है। और मेरा यह समझना कि आप यहां उपस्थित हैं और मुझे सुन रहे हैं, मेरा भ्रम है।
तुम जो पूछोगे, उसमें तुम रहो, तो जरूर सार है, नहीं तो व्यर्थ है। दूसरे के प्रश्न मत पूछना। उधार प्रश्न मत पूछना। किताबी प्रश्न मत पूछना। जीवंत पूछना। तुम्हारे जीवन में समस्याएं होंगी; तुम्हारे जीवन में उलझनें होंगी। अगर सुलझ गए, तब तो बड़ा अच्छा, सौभाग्य। अगर समाधान मिल गया।
और समाधान तो तभी मिलता है, जब समाधि मिल जाए। समाधान शब्द से ही तो समाधि बना है। या समाधि से समाधान बना है। जब समाधि मिल जाए, तब समाधान। उसके पहले तो समस्याएं हैं और समस्याओं का जटिल जाल है।
तुम ऐसे हो, जैसे जंगल में कोई भटका हुआ आदमी। तुम पूछते हो किसी से रास्ता पूछने में क्या सार है! जंगल में भटके हो और रास्ता नहीं पूछोगे? कभी—कभी ऐसा हो जाता है कि आदमी दंभ के कारण नहीं पूछता।
एक आदमी ने शराब पी ली और अपनी कार में बैठकर घर की तरफ चला। शराब के नशे में कुछ उसे दिखायी नहीं पड़ता कि रास्ता घर का कहां है और घर कहां है! मगर किसी से पूछे, तो लोग कहेंगे. हद्द हो गयी! गांव का प्रतिष्ठित आदमी है; गांव का शायद मेयर है। अब किसी से पूछे कि मेरा घर कहां है, या किस रास्ते से जाऊं, तो लोग हंसेंगे! सारा गांव उसे जानता है। और लोग कहेंगे. अरे! क्या ज्यादा पी गए? इतनी पी गए कि अपना घर भूल गए?
तो वह पूछता भी नहीं किसी से, क्योंकि संकोच लगता है, अहंकार को चोट लगती है। तो उसने सोचा. अब करूं क्या! तो जो कार उसके सामने जा रही थी, उसने सोचा, इसी के पीछे लगा चलूं।
वह उसके पीछे हो लिया। वह आदमी जाकर अपनी गैरेज में गाड़ी खड़ा किया। जब वह अपनी गैरेज में गाड़ी खड़ा किया, तो इसने जाकर उसकी गाड़ी से टक्कर मार दी! और खिड़की के बाहर सिर निकालकर चिल्लाया कि हद्द हो गयी! संकेत क्यों नहीं दिया कि गाड़ी खड़ी करते हो? उस आदमी ने कहा : हद्द हो गयी! मेरे ही गैरेज में मैं गाड़ी खड़ी करूं और संकेत दूं? किसको संकेत दूं? आप यहां चले कैसे आ रहे हैं?
कितनी देर छिपाओगे?
अक्सर लोग ऐसा करते हैं। किसी से पूछें न ?r चुपचाप कोई विधि निकाल लें, किसी के पीछे हो लें, किसी की बात मान लें, कोई किताब पढ़ लें, उसी में से रास्ता निकालकर चल पड़े।
किसी के गैरेज में जाकर टकराओगे। और अच्छा यही है कि पूछ ही लो। नशा गहरा है। तुमने भी खूब शराब पी रखी है। और तुम्हें भी अपना घर भूल गया है। संकोच मत करो। सहजता और सरलता से जो प्रश्न तुम्हारे हों—पूछ लो।
और मैं यह नहीं कह रहा हूं कि मेरे उत्तर से तुम्हें उत्तर मिल जाएगा। मैं यह कह रहा हूं कि मेरे उत्तर से तुम्हें अपने प्रश्न को देखने की ज्यादा क्षमता आ जाएगी। प्रश्न को समझने की क्षमता आ जाएगी। प्रश्न के प्रति जागने की बुद्धि आ जाएगी।
मैं यह नहीं कह रहा हूं कि मेरा उत्तर तुम पकड़ लेना। मैं यह कह रहा हूं कि मेरे उत्तर से तुम्हारे भीतर कुछ रूपांतरण हो सकता है। उत्तर पकड़ लिया, तो कोई सार न होगा। वह तो ऐसे ही हुआ कि तुम' दिल्ली जाते थे, रास्ते पर मील का पत्थर लगा था। उस पर लिखा था दिल्ली और तीर बना था आगे की तरफ। तुम पत्थर को ही पकड़कर बैठ गए। तुमने कहा कि अच्छा हुआ, दिल्ली मिल गयी!
उत्तर को पकड़ोगे, तो बस, मील का पत्थर पकड़कर बैठ गए। फिर बैठे रही। उत्तर तो तीर है, वह आगे की तरफ इशारा करता है। वह कहता है चलो! कुछ करो! ऐसे हो जाओ, तो समाधान है।
प्रश्न हैं ये
उत्तरों तक दौड़ते से प्रश्न।
क्या सफर पूरा करेंगे
राह में दम तोड़ देंगे
ये अकेला छोड़ते से प्रश्न।
प्रश्न ये दर्शन कभी कविता
कभी तो धर्म
साक्ष्य हैं इतिहास के
भवितव्य के हैं जन्म
ये कभी अनुमान हैं तो
हैं कभी संधान
ये कभी ऋत हैं, कभी हैं
पूर्ण का अभिज्ञान
रास हैं ये
जिंदगी को मोड़ते से प्रश्न।
ये अकेला छोड़ते से प्रश्न।
प्रश्न में सबसे बडा है
प्रश्न तू है कौन
मध्य में कुछ दिख रहा है
आदि में सब मौन
अंत के उस पार क्या है
राधिका या कृष्ण
तृप्ति है या हम सभी
रह जाएंगे सतृष्ण
प्रश्न हैं ये
उत्तरों तक दौड़ते से प्रश्न।
प्रश्न के कुछ और भी हैं
रंग और आयाम
सत्य तक संकट—ज्वलित हो
क्या करेंगे काम
क्या महानिर्वीय हो कर
शव बनेंगे हम
या हथेली पर रखेंगे
प्राण अपने उष्ण
प्रश्न हैं ये
उत्तरों तक दौड़ते से प्रश्न।
ये रहस्यों की खदानें
खोदते से प्रश्न
चिंतकों के घर किये हैं
राग रौनक जश्न
ज्ञेय से अज्ञेय तक है
सेतु—केतु प्रश्न
क्षितिज क्षितिजों से धरा को
जोडते से प्रश्न।
प्रश्न हैं ये
उत्तरों तक दौड़ते से प्रश्न।
क्या सफर पूरा करेंगे
राह में दम तोड़ देंगे
ये अकेला छोड़ते से प्रश्न।
प्रश्न तो यात्रा का इंगित है। प्रश्न तो समाधान और तुम्हारे बीच सेतु है। लेकिन सच्चा हो प्रश्न। और अगर सच्चा हो, तो आज नहीं कल तुम असली प्रश्न पूछोगे कि मैं कौन हूं। सारे प्रश्न उसी एक प्रश्न में जाकर निमज्जित हो जाते है—कि मैं कौन हूं!
और जो जान लेता है—मैं कौन हूं! उसे सारे उत्तर मिल जाते हैं। उस एक शान से सारे उत्तर झर आते हैं।

 चौथा प्रश्न:

 पंचग्र —दायक ब्राह्मण के घर भगवान बुद्ध का पधारना नदी —नाव —संयोग था या नदी —सागर—संयोग? लेकिन क्या यह सच नहीं है कि नदी सागर के पास जाती है, सागर नदी के पास नहीं आता है?

हली बात : सदगुरु से मिलना नदी—नाव—संयोग नहीं है, नदी—सागर—संयोग है। नदी—नाव—संयोग क्षणभर का होता है। पति—पत्नी का, भाई— भाई का, मित्र—मित्र का। इस जगत के और सारे संबंध नदी—नाव—संयोग हैं; बनते, मिट जाते। जो बनकर मिट जाए, वह संबंध सांसारिक है। जो बनकर न मिटे, वह संबंध संसार का अतिक्रमण कर जाता है।
इसीलिए तो सदा से आकांक्षा रही है आदमी के मन में कि ऐसा प्रेम हो, जो कभी मिटे न। क्योंकि ऐसा प्रेम अगर 'हो जाए, जो कभी न मिटे, तो वही परमात्मा तक ले जाने का मार्ग बन जाएगा। और जो प्रेम मिट—मिट जाते हैं, बनते हैं मिट जाते हैं, वे प्रेम नदी—नाव—संयोग हैं।
कोई अनिवार्यता नहीं है, नदी नाव से अलग हो सकती है, नाव नदी से अलग हो सकती है। तुम नाव को खींचकर तट पर रख दे सकते हो। कोई अनिवार्यता नहीं है। लेकिन एक बार गंगा सागर में गिर गयी, फिर गंगा को खींचकर बाहर न निकाल सकोगे। फिर कोई उपाय नहीं है। फिर खोज भी न सकोगे कि गंगा कहां गयी। फिर गंगा को दुबारा बाहर निकालने की कोई संभावना नहीं है।
प्रेम इस ऊंचाई पर पहुंचे, तो नदी—सागर—संयोग हो जाता है। और अगर बुद्धपुरुषों के पास भी प्रेम इस ऊंचाई पर न पहुंचे, तो फिर कहां पहुंचेगा?
जो बुद्ध के पास थे, या जो महावीर के पास थे, या जो नानक के, कबीर के पास थे, जो सच में पास थे.। उनकी नहीं कह रहा हुं जो भीड़ लगाकर खड़े थे। भीड़ लगाकर खड़े होने से कोई पास है, यह पक्का नहीं है। पास तो वही है, जिसके भीतर ऐसे प्रेम का उदय हुआ है, जिसका अब कोई अंत नहीं है। वही पास है, जिसके भीतर शाश्वत प्रेम की ज्वाला जली है, जो अब कभी बुझेगी नहीं, जो बुझ ही नहीं सकती। वही गुरु और शिष्य का संबंध है। वह इस जगत में अपूर्व संबंध है। वह इस जगत में है, और जगत का नहीं है। वह संसार में घटता है, और संसार के पार है।
तो गुरु और शिष्य का मिलन नदी—सागर—संयोग है। पहली बात।
दूसरी बात तुमने पूछी है. 'लेकिन क्या यह सच नहीं है कि नदी सागर के पास जाती है, सागर नदी के पास नहीं आता?'
नहीं; ऊपर—ऊपर से ऐसा दिखता है कि नदी सागर के पास जाती है। भीतर— भीतर कहानी बिलकुल और है। भीतर— भीतर कहानी ऐसी है कि सागर नदी के पास आता है।
ऊपर—ऊपर ऐसा दिखता है, शिष्य गुरु के पास आता है। भीतर— भीतर ऐसा है कि गुरु शिष्य के पास जाता है। जब तक गुरु शिष्य के पास नहीं गया, शिष्य गुरु के पास आ ही नहीं सकेगा। शिष्य बेचारा क्या आएगा! अंधा—अंधेरे में टटोलता? जो रोशनी में खड़ा है, वही..। जो भटका है, वह कैसे गुरु को खोजेगा? जो पहुंच गया है, वही भटके को खोज सकता है।
और वस्तुत: भी ऐसा ही होता है। सूक्ष्म तल पर सागर ही नदी में आता है। तुम देखते नहीं. रोज सागर चढ़ता है भाप बनकर बादलों में, आकाश में, और गिरता है पहाड़ों पर और नदियों में उतरता है। रोज तो यह होता है, फिर भी तुम खयाल नहीं लेते! सागर रोज चढ़ता है, किरणों का सहारा लेकर, किरणों की सीढ़ियों से। बादल बनता है। मेघ बनता है। फिर मेघ चलते उड़कर पहाड़ों की तरफ।
मेघ में तुम्हें सागर दिखायी नहीं पड़ता, क्योंकि मेघ सूक्ष्म है। इसलिए तुम्हें भूल हो गयी। इसलिए तुम्हें खयाल में नहीं आया कि अगर सागर नदी के पास न जाए, तो नदी सागर तक कभी नहीं पहुंच सकेगी। नदी में जल ही नहीं होगा सागर तक पहुंचने का।
रोज सागर आता मेघ बनकर और गिरता गगोत्रियो में, और गंगा बनती, और गंगा बहती, और गंगा सागर तक पहुंचती।
गंगा सागर तक तभी पहुंच पाती है, जब सागर पहले गंगा तक पहुंच जाता। नहीं तो गंगा बन ही नहीं सकती। गंगा के पास कोई उपाय नहीं है सागर तक पहुंचने का। बिना मेघों के आए गंगा क्या होगी? रेत का एक सूखा रास्ता, जिस पर कोई जलधारा नहीं होगी।
ऐसा ही गुरु और शिष्य का संबंध है। गुरु मेघ बनकर आता है, इसलिए दिखायी नहीं पड़ता; सूक्ष्म तल पर आता है; तुम्हारे अंतस्तल में आता है, इसलिए दिखायी नहीं पड़ता है।
तुम जब गुरु की तरफ जाते हो, तो दिखायी पड़ता है—कि चले। गंगा जब जाती है सागर की तरफ, तो अंधे को भी दिखायी पड़ता है कि चली गंगा सागर की तरफ। यह तो बहुत गहरी आंख हो तो दिखायी पड़ता है. जब बादलों की तरफ उठने लगी भाप, तो सागर चला गंगा की तरफ, गुरु चला शिष्य की तरफ।

 पांचवां प्रश्‍न:

 मेरे प्रश्न के उत्तर में आपने विनोदपूर्वक आत्मघातों के असफल होने की कई कहानियां कहीं। लेकिन मैं उनमें से किसी विधि का विचार नहीं करता हूं। मुझे तो सदा एक ही खयाल आता है कि अपने मकान से कूद पडूं। मैं रहता हूं बंबई की एक गगनचुंबी इमारत में तेरहवीं मंजिल पर। भगवान, यह विधि कैसे असफल हो सकती है?

स विधि का मुझे पता था। मगर यह बड़ी खतरनाक विधि है और इसलिए इसको मैंने छोड़ दिया था। जो विधियां मैंने कही थीं, उनमें असफलता हो सकती थी। इस विधि में और भी खतरा है।
एक झूठा लतीफा। टुनटुन अपने मोटे शरीर से परेशान हो गयी और तीसरे मंजिल मकान से, जहां वह रहती थी, कूद पड़ी। सुबह जब उसकी अस्पताल में आंख खुली, तो डाक्टर से उसने पूछा डाक्टर! क्या मैं अभी जिंदा हूं? डाक्टर ने कहा देवी! आप तो जिंदा हैं; मगर वे तीनों मर गए जिनके ऊपर आप गिरी थीं! इसलिए छोड़ दिया था इस विधि को। यह तो आप करना ही मत। और वह तो तीसरी मंजिल से गिरी थी, तीन मारे, आप तेरहवीं मंजिल पर रहते हैं, आप तेरह मार सकते हो! आप कृपा करके यह मत करना।
आत्मघात में इतना रस क्यों है? इतना चिंतन जीवन जीने के लिए करो, इतनी शक्ति और ध्यान जीवन की खोज में लगाओ, तो तुम्हें तेरहवीं मंजिल से कूदकर, सड़क पर गिरकर, मिटना न पड़े। तुम्हें पंख लग जाएं; तुम आकाश में उड़ जाओ। इतना विराट अवसर जीवन का और तुम आत्मघात की ही सोचते रहोगे? इतनी जल्दी भी क्या है? मृत्यु तो अपने से ही हो जाएगी; तुम न चाहोगे, तो भी हो जाएगी।
जीवन तुम्हारे हाथ में नहीं है; मृत्यु तो तुम्हारे हाथ में भी है। तुम चाहो, तो आज मर सकते हो। मगर जीवन तुम्हारे हाथ में नहीं है। जीवन तुमसे बड़ा है। मृत्यु तुमसे छोटी है, इसीलिए हाथ में है। तुम जीवन पैदा नहीं कर सकते, हालांकि आत्मघात कर सकते हो।
खयाल किया इस बात पर! इसका मतलब क्या होता है? इसका मतलब हुआ कि मौत तो हमारी मुट्ठी में भी हो सकती है। लेकिन जीवन हमसे इतना बड़ा है कि हम उसे मुट्ठी में नहीं बांध सकते।
जो बड़ा है, जो विराट है, उसमें डूबो; उसमें तैसे; उसमें संतरण करो।
और मौत तो अपने आप आ जाएगी। यह रुग्ण विचार तुम्हारे भीतर चलता क्यों है? यह इसीलिए चल रहा है कि तुम किसी भांति जीवन से चूके जा रहे हो और चूक गए हो।
आदमी आत्मघात की तभी सोचता है, जब जीवन में उसे कोई फूल खिलते दिखायी नहीं पड़ते, जब वह जीवन में हारा होता है। तुमने किसी सुखी आदमी को आत्मघात करने की बात सोचते देखा? तुमने कभी किसी प्रेमी को प्रेम के क्षण में आत्मघात करने की बात सोचते देखा? तुमने कभी किसी संगीतज्ञ को वीणा बजाते हुए आत्मघात की बात सोचते हुए देखा?
जब जीवन में कोई संगीत होता, फूल खिलते, सृजन होता, प्रेम होता—तो कोई आत्मघात की नहीं सोचता। तुम्हारा जीवन अनखिला रह गया होगा। तुम्हारे जीवन में सृजनात्मकता नहीं होगी। तुम्हारे जीवन में प्रेम ने पदार्पण नहीं किया। तुम्हारे जीवन में आनंद की कली नहीं खिली। तुम रेगिस्तान जैसे रह गए होओगे, इसलिए आत्मघात की बात उठती है।
और आत्मघात कर लेने से कोई कली नहीं खिल जाएगी। कली खिल जाए, तो आत्मघात का विचार विदा हो जाए।
लेकिन बहुत लोग हैं दुनिया में जो आत्मघात का विचार करते रहते हैं। सच तो यह है, मनस्विद कहते हैं कि ऐसा आदमी खोजना कठिन है, जिसने जिंदगी में एक दो बार आत्मघात का विचार न किया हो। कभी न कभी, किसी दुख, किसी पीड़ा के क्षण में, किसी विषाद के क्षण में सभी ने सोचा है। किया नहीं—यह और बात है। और तुम भी करोगे नहीं—यह भी पक्का है। क्योंकि इतना सोचने वाले करते नहीं। सुना न. भौंकने वाले कुत्ते काटते नहीं।
आत्मघात के लिए सोचने की क्या जरूरत है! करना हो तो कर ही लो। इतने दिन से सोच रहे हो; सम्यक विधि की तलाश कर रहे हो! यह विधि की तलाश कर रहे हो और जीए जा रहे हो! यह जरा रुग्ण जीवन हो गया कि जी रहे हैं मौत की विधि की तलाश करने के लिए! कि मरने का विचार कर रहे हैं, इसलिए जीना पड़ रहा है, क्या करें! अभी ठीक विधि हाथ नहीं लगी।
यह बड़ी रुग्ण दशा है। इस रुग्ण दशा के बाहर आओ। इसलिए मैंने तुम्हें सुझाव दिया कि आत्मघात पीछे मैं तुम्हें बताऊंगा, ठीक—ठीक कैसे कर लेना। पहले तुम संन्यासी तो हो जाओ! इतना तो करो। इतनी हिम्मत तो करो। तुममें इतनी भी हिम्मत नहीं है। तुम आत्मघात क्या करोगे!
तुम कम से कम इतना साहस करो कि लोग हंसेंगे कि तुम संन्यासी हो गए, तो हंसने दो। लोग समझेंगे कि पागल हो गए, तो समझने दो। तुम इतनी हिम्मत कर लो, तो फिर मैं तुम्हें ठीक—ठीक विधि बता दूंगा।
सच तो यह है कि ठीक विधि तुम्हें सदगुरु के पास ही मिलेगी आत्मघात की। बाकी तो आत्मघात झूठे हैं। शरीर मर जाएगा, फिर पैदा होना पड़ेगा। मैं तुम्हें ऐसी विधि बताऊंगा कि तुम ही मर जाओगे; फिर कभी पैदा न होना पड़ेगा। वह मैं— भाव ही मर जाएगा। आवागमन से छुटकारा हो जाएगा।
मैं तुम्हें ऐसी मृत्यु दे सकता हूं कि फिर दुबारा कभी न जन्म होगा और न मृत्यु होगी।

 छठवां प्रश्न:

भगवान, शत—शत प्रणाम।
तेरे बिना जिंदगी से कोई शिकवा नहीं, शिकवा तो नहीं।
तेरे बिना जिंदगी जिंदगी नहीं, जिंदगी नहीं।

पूछा है मनु और हंसा ने।
ऐसा दिखाई पड़ने लगे, तो शुभ घड़ी आ गयी। ऐसी प्रतीति होने लगे कि अब कोई शिकायत नहीं, तो प्रार्थना की पहली किरण उतरी। मैं प्रार्थना कहता ही हूं उसे, उस चित्त की दशा को, जहां कोई शिकायत नहीं है।
और अक्सर तुम जाते हो मंदिर में प्रार्थना करने, और सिर्फ शिकायतें करने जाते हो; नाम प्रार्थना होता है। कि मेरी पत्नी बीमार है, कि मेरे बच्चे को नौकरी नहीं लग रही है, कि मेरे पास रहने को मकान नहीं है। और इसको तुम प्रार्थना कहते हो! ये सब शिकायतें हैं; ये सब शिकवे हैं। यह तुम्हारा ईश्वर के प्रति श्रद्धा का भाव नहीं है। यह तुम ईश्वर के होने पर संदेह उठा रहे हो—कि तेरे होते हुए, और मेरे पास मकान नहीं! अगर तू है, तो मकान होना चाहिए। और अगर मकान नहीं हुआ, तो समझ रख तू भी नहीं है। भीतर छिपी यह भावदशा है कि मैं तुझे मानूंगा, अगर तू मेरी मांगें पूरी कर दे। अगर तूने मेरी मतों पूरी नहीं कीं, तो सोच—समझ रख! एक भक्त खोया फिर तूने! फिर मैं तेरा दुश्मन हो जाऊंगा।
और भीतर तो गहरे में तुम जानते हो कि कहा है तू! कहां कौन है! यह तो देख रहे हैं, एक कोशिश करके देखे लेते हैं कि शायद मिल जाए। मूलत: मकान में तुम्हारा रस है, परमात्मा में नहीं।
तुम्हारी प्रार्थनाएं शिकायतों के छिपे हुए ढंग हैं; रंगी—पुती शिकायतें हैं। भीतर तो शिकायत की गंदगी है, ऊपर से सुंदर रंग चढ़ा दिए हैं, टीम—टाम, नया बना दिया है! किसको धोखा दे रहे हो?
लेकिन शिकायत मिटे, शिकवा मिटे, तो प्रार्थना का जन्म होता है। और प्रार्थना का जन्म इस जगत में अपूर्व बात है। प्रार्थना का अर्थ है अहोभाव। प्रार्थना का अर्थ है धन्यवाद, आभार। प्रार्थना का अर्थ है. जो है, वह मेरी पात्रता से ज्यादा है।
'तेरे बिना जिंदगी से कोई शिकवा नहीं, शिकवा तो नहीं।
परमात्मा न भी मिले, तो भी जिंदगी प्यारी है, अपूर्व है। और जिंदगी में ही उतरते जाओगे, तो परमात्मा भी करीब आता जाएगा। जिंदगी में ही छिपा है। यह जिंदगी उसका ही घूंघट है। तुम उठाओगे जिंदगी का घूंघट और भीतर परमात्मा मुस्कुराता मिलेगा।
'तेरे बिना जिंदगी जिंदगी नहीं, जिंदगी नहीं।
यह भी बात ठीक है। जिंदगी को प्रेम करो बिना शिकायत के और यह भी स्मरण रखो कि जब तक तू नहीं है—सब है, फिर भी कुछ कम है। सब है; सब तरह से तूने पूरा किया है, लेकिन तेरे बिना, तेरी मौजूदगी के बिना कुछ—कुछ कम है।
यह शिकायत नहीं है, यह प्रार्थना है।
प्रार्थना अगर मांगे, तो एक चीज मांगे—परमात्मा को मांगे। प्रार्थना कुछ और न मांगे। तुमने कुछ और मला कि प्रार्थना गलत हुई।
तो ठीक मनु—हंसा! शिकवा गया, शिकायत गयी, प्रार्थना बन रही है। और उस प्रार्थना में निश्चित ही यह भाव भी सघन होगा कि 'तेरे बिना जिंदगी जिंदगी नहीं।बहुत है; सब कुछ है, मगर फिर भी कुछ चूक रहा है।
परमात्मा ही जब उपस्थित हो जाता है बाहर— भीतर, तो ही परिपूर्ण परितृप्ति, तो ही परितोष। फिर उसके पार न तो शिकायत है, न प्रार्थना है। पहले शिकायत चली जाती है, फिर एक दिन प्रार्थना भी चली जाती है।
शिकायत जाए, तो प्रार्थना आती है। प्रार्थना भी एक दिन जाएगी, उसी दिन परमात्मा भी उतर आएगा।

 सातवां प्रश्‍न:

 धम्मपद के गाथा—प्रसंगों से पता लगता है कि ब्राह्मण ही भगवान बुद्ध के विरोधी थे और वे ही उनके ध्वज—धर भी बने। ऐसा क्यों हुआ भगवान?

स्‍वाभाविक है।
जो असली ब्राह्मण थे, वे तो बुद्ध के साथ हो लिए। असली ब्रह्मण को तो बुद्ध में ब्रह्म के दर्शन हो गए। ब्राह्मण वहीं,  जिसको ब्रह्म देखने की कला आती हो, ब्रह्मण वही जो ब्रह्मय हो। वे बुद्ध को कैसे चूकते? जो वस्तुत: ब्राह्मण थे, जाति और कुल से ही नहीं, अस्तित्वगत ब्राह्मण थे.....।
जैसा कि उद्दालक ने अपने बेटे श्वेतकेतु से कहा है। जब श्वेतकेतु लौटा गुरु के आश्रम से, तो बड़ा अकड़ा हुआ लौटा। अकड़ा हुआ लौटा, क्योंकि सब शास्त्रों में पारंगत होकर लौटता था। स्वाभाविक थी अकड़। जवान की अकड़! जैसे विश्वविद्यालय से कोई लौटता है। सोचता है : सब जान लिया।
उद्दालक ने उसे देखा खिड़की से, बगीचे में अंदर आते, उसकी अकड़ देखी, उद्दालक उदास हो गए। क्योंकि अकड़ ब्राह्मण को शोभा नहीं देती।
आया बेटा। उद्दालक ने पूछा. तू क्या—क्या सीखकर लौटा है? तो बेटे ने सब शास्त्र गिनाए—कि वेद, उपनिषद, व्याकरण, भाषा, काव्य—सब, जो भी था। दर्शन, धर्म, ज्योतिष, भूगोल, इतिहास, पुराण—जो भी उन दिनों के विषय होंगे, सब उसने गिना दिए। कि सब में पारंगत होकर लौटा हूं सब में प्रथम कोटि के अंक पाकर लौटा हूं। ये रहे मेरे सर्टिफिकेट!
लेकिन बाप ने सब ऐसे सुना, जैसे उसे इसमें कुछ रस नहीं है। उसने कहा मैं तुझसे यह पूछता हूं कि ब्राह्मण होकर लौटा कि नहीं?
श्वेतकेतु ने कहा ब्राह्मण तो मैं हूं ही। आपका बेटा हूं!
तो बाप ने कहा कि नहीं; हमारे परिवार में जन्म से हम ब्राह्मण को नहीं स्वीकार करते। तेरे बाप—दादे, मेरे बाप—दादे, सदा से ब्राह्मणत्व को अनुभव से सिद्ध करते रहे हैं। हम पैदा होने से ब्राह्मण अपने को स्वीकार नहीं करते। हमारे परिवार में जन्मना हम ब्राह्मण को नहीं मानते। तू वापस जा। ब्राह्मण होकर लौट।
बेटे ने पूछा : कमी क्या दिखायी पड़ती है! बाप ने कहा. तेरी अकड़, तेरा अहंकार। साफ है तेरे अहंकार से कि तू अपने को बिना जाने आ गया है। तूने और सब जान लिया, लेकिन अपने को नहीं जाना है, आत्मज्ञान नहीं हुआ है। तू जा। ब्राह्मण होकर लौट।
यह ब्राह्मण की परिभाषा देखते हैं! यह ब्राह्मण का अर्थ हुआ. ब्रह्म को जानो। भीतर छिपे ब्रह्म को जानो, ताकि बाहर छिपा ब्रह्म भी प्रगट हो जाए; तो ब्राह्मण। तो जो असली में ब्राह्मण थे—जन्म से नहीं; अनुभव से, ज्ञान से, बोध से—वे तो बुद्ध के पास आए, वे तो बुद्ध के प्यारे हो गए। बुद्ध के सारे बड़े शिष्य ब्राह्मण थे। उन्होंने यह फिकर नहीं की कि बुद्ध क्षत्रिय हैं और क्षत्रिय के सामने ब्राह्मण कैसे झुके!
ब्राह्मण तो वही है, जो झुकने की कला जानता है। वह क्या फिकर करता है, कौन क्षत्रिय और कौन शूद्र! जहां ब्रह्म अवतरित हुआ है, जहां ब्रह्म का फूल खिला है, जहां वह सहस्रार कमल खिला है, सहस्रदल कमल, और जहां सुगंध व्याप्त हो गयी है—वहा झुकेगा।
जो असली ब्राह्मण थे, वे तो झुक गए बुद्ध के पास आकर। वे तो बुद्ध के ध्वज— धर बन गए। लेकिन जो नकली ब्राह्मण थे..।
और नकली स्वभावत: ज्यादा हैं। सौ में एकाध असली, निन्यानबे नकली। जो सिर्फ किसी घर में पैदा होने के कारण, नदी—नाव—संयोग के कारण अपने को ब्राह्मण समझते थे। समझते थे कि मेरा बाप ब्राह्मण था, इसलिए मैं ब्राह्मण हूँ।
इतना आसान है ब्राह्मण होना! कि बाप ब्राह्मण था, तो तुम ब्राह्मण हो गए! तुम्हारे बाप डाक्टर हों, इससे तुम डाक्टर नहीं हो जाते। तो ब्राह्मण कैसे हो जाओगे? यह तो और गहरी बात है। तुम्हारे बाप इंजीनियर थे, इसलिए तुम इंजीनियर नहीं हो जाते। तुम्हारे बाप की जानकारी तक तुम तक नहीं पहुंचती, तो बाप का ज्ञान तो कैसे पहुंचेगा! बाप की जानकारी है कि वे बड़े डाक्टर थे। तो तुम डाक्टर बाप के घर पैदा हुए, तो तुम अपने को डाक्टर थोड़े ही लिखने लगते हो! जैसा यहां हिंदुस्तान में चलता है कि डाक्टर की पत्नी डाक्टरनी कहलाती है। यह बड़े मजे की बात है! तो तुम डाक्टर के बेटे हो, तो तुम अपने को डाक्टर तो नहीं लिखने लगते। तुम जानते हो कि डाक्टर मैं कैसे हो सकता हूं। बाप की जानकारी थी। जानकारी मुझे अर्जित करनी पड़ेगी।
जानकारी तक नहीं आती जन्म के साथ, खून में नहीं आती, तो ज्ञान तो कैसे आएगा? ज्ञान का अर्थ होता है, आत्म—अनुभव। स्मृति नहीं उतरती, तो बोध तो कैसे उतरेगा। बोध तो और गहरा है; स्मृति से बहुत गहरा है।
इसलिए जो सोचते थे कि हम ब्राह्मण हैं, क्योंकि ब्राह्मण बाप के घर पैदा हुए हैं, और जो सोचते थे कि हम ब्राह्मण हैं, क्योंकि हमें वेद कंठस्थ हैं, जो सोचते थे कि हम ब्राह्मण हैं, क्योंकि हमें शास्त्र का ज्ञान है—वे बुद्ध के दुश्मन हो गए। क्योंकि जब भी बुद्ध जैसा व्यक्ति पैदा होता है, तब वह सदा शास्त्रों के विपरीत पड़ जाता है। वह परंपरा के विपरीत पड़ जाता है। वह हर जड़ स्थिति के विपरीत पड़ जाता है। तो इन निन्यानबे ब्राह्मणों को तो लगा कि यह दुश्मन है, शत्रु है। यह हमारे धर्म को नष्ट करने को पैदा हुआ है। इसे उखाड़ फेंकें।
तो ब्राह्मण पक्ष में भी थे, ब्राह्मण विरोध में भी थे। यह सदा से हुआ है।
यहां भी कुछ ब्राह्मण हैं; मगर वे सौ में एक ही होंगे। निन्यानबे तो विरोध में होंगे। झूठे सदा विरोध में होंगे। सच्चे पास आ जाते हैं। फिर वे फिक्र नहीं करते।
ऐसा हुआ काशी में। सच्चे ब्राह्मण इकट्ठे हुए। काशी में झूठे ब्राह्मण तो बहुत हैं, मगर एक दफे सच्चे ब्राह्मण इकट्ठे हुए सारे देश से। वे कबीर के दर्शन को इकट्ठे हुए—पंद्रह सौ ब्राह्मण। अनूठी कथा है। हुई भी हो, इसमें शक होता है। पंद्रह सौ ब्राह्मण? मगर हो भी सकती है सच। कबीर जैसे व्यक्तियों के पास कभी—कभी ऐसे प्रसंग भी हो जाते हैं।
पंद्रह सौ ब्राह्मण सारे देश से इकट्ठे हुए कबीर के सत्संग के लिए। कबीर तो जुलाहा थे, मुसलमान थे जन्म से तो। उनकी तो शूद्र से कोई ऊंची स्थिति नहीं थी। शूद्र से गए—बीते थे! खुद उनके गुरु रामानंद ने, जो कि हिम्मतवर आदमी थे, उन तक ने इनकार कर दिया था कबीर को दीक्षा देने से—कि तू भई, हमें झंझट में डाल देगा!
कबीर ने उनसे दीक्षा ली थी बड़े उपाय से, बड़ी कुशलता से। ऐसी दीक्षा पहले कभी हुई भी नहीं थी। रामानंद ने कई बार इनकार कर दिया कबीर को कि तू यहां आया ही मत कर, क्योंकि इससे हम झंझट में पड़ जाएंगे। यह ब्राह्मणों का गढ़ है काशी, और यहां मैं किसी जुलाहे को दे दूंगा दीक्षा, तो मुश्किल होगी। हिम्मतवर न रहे होंगे, कमजोर रहे होंगे।
तो कबीर गंगा के किनारे सीड़ी पर, जहां रामानंद स्नान करने जाते रोज सुबह चार बजे, चांदर ओढ़कर पड रहे। अंधेरे में रामानंद का पैर पड़ गया कबीर पर। पैर पड़ गया तो कहा. राम! राम! और कबीर ने कहा बस, दे दिया मंत्र! हो गया मैं शिष्य आपका। आप हुए मेरे गुरु। अब राम—राम जपूंगा और पा लूंगा। और कबीर राम—राम जपकर पा लिए।
इतनी खोज हो, तो राम—राम क्या, कुछ भी जपो—मिल जाएगा। ऐसी प्रगाढ़ आकांक्षा हो! फिर तो रामानंद भी इनकार न कर सके कि ऐसा प्यारा आदमी!
इस तरकीब से दीक्षा ली! कहा कि फूंक दिया कान! ब्रह्ममुहूर्त में कह दिया. राम—राम। अब और क्या चाहिए! अब कभी न आऊंगा; अब कभी न सताऊंगा, आपको परेशान न करूंगा। लेकिन आपका हो गया।
रामानंद जिससे डरे थे शिष्य बनाने में, उसके दर्शन के लिए पंद्रह सौ ब्राह्मण.। सच्चे ब्राह्मण रहे होंगे। वही तो कबीर में उत्सुक हो सकते हैं। वे इकट्ठे हुए। कबीर को उन्होंने निमंत्रित किया कि आप आएं और धर्म हमें समझाएं।
कबीर आए। वहां पंद्रह सौ पुरुषों को देखा और लौट गए। बड़े हैरान हुए ब्राह्मण। उन्होंने कहा आप लौट क्यों जा रहे हैं! बात क्या है?
उन्होंने कहा. मीरा कहां है?
जो कबीर को सुनने आ गए थे—कबीर जुलाहे कों—उनकी भी इतनी हिम्मत नहीं थी कि स्त्री को बुलाएं! स्त्री की हालत शूद्र से बदतर रही।
इसलिए तो तुलसीदास ने उसको शूद्रों में गिना है। शूद्र, ढोल, पशु, नारी—ये सब ताड़न के अधिकारी। तुलसीदास से ज्यादा खतरनाक और बीमार आदमी इस देश में दूसरा नहीं हुआ। और जब तक इस देश का तुलसीदास से छुटकारा नहीं होता, तब तक बड़ी अड़चन है।
तो मीरा की खबर तो कई लोगों को थी। मीरा पास ही थी; उसकी सुगंध भी आती थी। लेकिन स्त्री के पास पुरुष जाए! पुरुष तो परमात्मा है, और स्त्री तो ताड़न की अधिकारी है! स्त्री को पुरुष सम्मान दे! शूद्र को भी दे दे एक बार, चलो, आखिर पुरुष है न शूद्र! पुरुष तो है। मीरा में तो बहुत झंझटें हो गयीं। स्त्री भी है। यह तो कठिन बात थी।
कबीर आकर खड़े हुए और उन्होंने कहा. जब तक मीरा न आएगी, तब तक मैं नहीं आऊंगा। मजबूरी में मीरा को निमंत्रित करना पड़ा। और जब मीरा आयी और नाची, तब कबीर आए। उन्होंने कहा : मीरा के नाच से सब शुद्ध हो गया। अब यहां सच में ही ब्राह्मणत्व की ज्योति जल रही है। अब न कोई शूद्र है, न कोई स्त्री है। अब सब भेद गिरे।
जहं। भेद गिर जाते हैं, वहां ब्रह्म का अनुभव है। अभेद—ब्रह्म का अनुभव है। तो जो सच्चे ब्राह्मण थे, वे तो बुद्ध के साथ हो लिए। वे सदा से रहे बुद्ध के साथ, महावीर के साथ, कबीर, नानक, मोहम्मद, जीसस—दुनिया में जहां भी कभी कोई लोग हुए हैं, जिन्होंने जाना है—असली ब्राह्मण सदा उसके साथ हो गए। नकली ब्राह्मण सदा उसके विपरीत हो गए हैं।
नकली की भीड़ है। नकली का समूह है। इन नकलियों ने मिलकर बुद्ध के धर्म को इस देश से उखाड़ दिया। इस देश की सबसे बड़ी संपदा इन नकलियो ने भ्रष्ट कर दी। इस देश का सबसे बड़ा मानव इन नकलियो ने पराया कर दिया।
आज सारा एशिया बुद्ध का गुणगान करता है—एक सिर्फ उनके इस देश को छोड़कर! यह अभागा देश बुद्ध के गुणगान से भरा हुआ नहीं है।

 आखिरी प्रश्न:

दीपक की चमक में आग भी है
दुनिया ने कहा परवाने से।
परवाने मगर ये कहने लगे
दीवाने तो जलकर ही देखेंगे।
तेरी याद में जलकर देख लिया
अब आग में जलकर देखेंगे।
इस राह में अपनी मौत सही
ये राह भी चलकर देखेंगे।

पूछा है अनादि ने।
यही मार्ग संन्‍यासी का भी है—परवाने का मार्ग। जो जलने को तत्पर है, जो मिटने को राजी है, जो खोने की हिम्मत रखता है।
'दीपक की चमक में आग भी है
दुनिया ने कहा परवाने से।
दुनिया तो सदा से कहती रही है परवाने से—कि पागल! कहा जाता है? वह सिर्फ चमक नहीं है दीए में; वहा आग भी है।
यही तो तुमसे भी कहा है लोगों ने कि मेरे पास मत आना, यहां चमक ही नहीं है, आग भी है।
लेकिन परवाने दुनिया की सुनते! परवाने दुनिया की सुनें, तो परवाने नहीं। जो दुनिया की सुनें, वे परवाने हो नहीं सकते। परवाने तो अपने भीतर की सुनते हैं। दीए ने पुकारा है। शमा ने पुकारा है। उस जलती ज्योति ने पुकारा है। जाना है—चाहे कोई भी कीमत हो।
'दीपक की चमक में आग भी है
दुनिया ने कहा परवाने से।
परवाने मगर ये कहने लगे
दीवाने तो जलकर ही देखेंगे।
दुनिया में और कोई देखने का उपाय भी नहीं है, जलकर ही देखना पड़ता है। चलकर ही पहुंचता है कोई और जलकर ही देखता है कोई। बिना अनुभव के कोई शान नहीं।
'तेरी याद में जलकर देख लिया
अब आग में जलकर देखेंगे।
इस राह में अपनी मौत सही
ये राह भी चलकर देखेंगे।
मौत निश्चित ही है; शक—सुबहा कहां! मौत निश्चित ही है। वह परवाना देख रहा है दूसरे परवाने भी जल गए हैं, जो पास पहुंचकर गिर गए हैं। उनके पंख जल गए हैं; उनके प्राण उड़ गए हैं। लेकिन यह दूसरों को दिखायी पड़ता है—कि बेचारा परवाना! जलकर मर गया! लेकिन जो दूसरे परवाने चले आ रहे हैं, वे देखते हैं कि धन्यभागी था; देह से मुक्त हो गया; पिंजरे से बाहर हो गया। छूट गया बंधन, छूट गयी काया।
ये तो जो अपने को बचाना चाहते हैं, वे सोचते हैं कि बेचारा! जलकर मर गया! नासमझ, अज्ञानी, जलकर मर गया। दूर रहता।
लेकिन जो परवाने चले आ रहे हैं और उड़ते हुए, उनको तो यही दिखायी पड़ता है कि धन्यभागी था जो हमसे पहले पहुंच गया। वे इतना ही नहीं देखते कि जो नीचे जलकर गिरकर पड़ी है देह; वे वह भी देखते हैं जो उड़ गयी आत्मा, जो मुक्त हो गयी आत्मा। उन्हें कुछ और भी दिखायी पड़ता है।
एक तो वह है, जिसे दिखायी पड़ता है कि बीज सड़ गया, खतम हो गया— बेचारा! और एक वह है, जिसे दिखायी पड़ता है कि पौधा पैदा हो गया। धन्यभागी! बीज मरता है, तभी तो पौधा पैदा होता है। परवाना मरता है, तभी तो परतंत्रता से मुक्त होता है; परम दशा को पाता है।
'इस राह में अपनी मौत सही.......।'
सही नहीं—होने ही वाली है। मौत के बिना कभी कुछ होता ही नहीं। मौत के बिना जीवन ही नहीं होता। जितनी बड़ी मौत, उतना बड़ा जीवन। जितनी घनी मौत, उतना बड़ा जीवन।
तुम उसी मात्रा में जीते हो, जिस मात्रा में तुम साहस रखते हो मरने का।
वही तो है जिंदगी, है जिसमें अटूट एहसास बका का
है मौत का जिसमें खौफ हरदम, वो जिंदगी जिंदगी नहीं है
वही तो है सरवरी जो बंदों से दोस्ती बन के हो नुमायां
जो कुर्सिए—अर्श पर मकीं है, वो सरवरी सरवरी नहीं है
वही तो है आगही, न जिसमें हो जहदो—इसिया में फर्क कोई
हो नेकोबद की तमीज ??, वो आगही आगही नहीं है
वही अखुब्बत है, फर्क हो जब न आदमी आदमी में कोई
रवा जो रखे ये फर्क, वो कौमे—अहमदी अहमदी नहीं है
वही तो है आदमी जो जीता है दूसरों के लिए हमेशा
जिए फकत अपने ही लिए, वो आदमी आदमी नहीं है
वही तो है शायरी जो राजे —जमाले —फितरत की तरजुमा हो
जो घिर के रह जाए रंगो—बू में, वो शायरी शायरी नहीं है
वही तो है जिंदगी, है जिसमें अटूट एहसास बका का
है मौत का जिसमें खौफ हरदम, वो जिंदगी जिंदगी नहीं है

 आज इतना ही।

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