रविवार, 30 अप्रैल 2017

जो बोले सो हरि कथा-(प्रश्नोत्तर)-प्रवचन-11



जो बोले सो हरि कथा-(प्रश्नोत्तर)-ओशो
प्रवचन-ग्याहरवां-(स्वानुभव का दीया)

श्री रजनीश आश्रम, पूना, प्रातः, दिनांक ३१ जुलाई, १९८०

पहला प्रश्न: भगवान, लगता है आचार्य श्री तुलसी आपके प्रवचनों और वक्तव्यों से काफी तिलमिला गए हैं, क्योंकि कई बार बहुत लोगों के बीच में आपने कहा कि आचार्य तुलसी आपसे एकांत में ध्यान सीखना चाहते थे। और उनके युवराज शिष्य मुनि नथमल को आपने मुनि थोथूमल कहा। इससे गुरु-शिष्य की प्रतिष्ठा को काफी धक्का पहुंचा है और बौखलाहट में उन्होंने संपूर्ण महाराष्ट्र में आपकी विकृत विचार-धारा का सामना और शुद्धिकरण करने के लिए अपनी साध्वियों के पांच समूह जगह-जगह भेजे हैं। ये समूह शास्त्र-शुद्ध प्रेक्षा-ध्यान शिविर आयोजित करेंगे। उनकी एक सैंतालीस वर्षीय साध्वी श्री चांदकुमारी दस हजार मील की यात्रा करके पूना पधारी हैं।
भगवान, यह प्रेक्षा-ध्यान क्या है? इस विधि से क्या आत्मशुद्धि व पर-शुद्धि हो सकती है? और कृपया यह भी बताएं कि क्या भगवान महावीर का ध्यान भी इसी प्रकार का था?

चैतन्य कीर्ति!

 आचार्य तुलसी मूलतः एक राजनैतिक व्यक्ति हैं। धर्म से उनका दूर का भी कोई संबंध नहीं; धर्म का कोई अनुभव भी नहीं। लेकिन धर्म के नाम पर सदा से राजनीति चलती रही है। राजनीति जब राजनीति के नाम पर चलती है, तब तो गंदी होती ही है; और जब धर्म की आड़ में चलती है, तब तो बहुत गंदी हो जाती है। अच्छे-अच्छे आवरणों में गंदी से गंदी आकांक्षाएं छिपाई जा सकती हैं।
मैं इस देश के करीब-करीब सभी साधु-संतों से निकट से परिचित हूं। और यह जान कर हैरान हुआ हूं कि इन सभी लोगों को, अच्छा होता कि इन्होंने अपनी जीवन-चर्या राजनीति को समर्पित की होती। तो कम से कम इनके चेहरे तो साफ होते। कम से कम मुखौटे तो इनको इतने न ओढ़ने पड़ते।
आचार्य तुलसी ने मुझे निमंत्रण दिया, तो मैं गया था। फिर मुझसे जब उन्होंने ध्यान के संबंध में पूछा, तब भी वे बेचैन हुए थे, क्योंकि मैंने कहा, मैं सोचता था, आप सात सौ साधुओं के गुरु हैं; दीक्षा देते हैं--साधुओं को, साध्वियों को; जैनों के एक प्रमुख संप्रदाय के अनुशासक हैं--आपको ध्यान का पता नहीं!
उन्होंने कहा, नहीं, ध्यान के संबंध में तो मैं सब जानता हूं, लेकिन ध्यान करने का कभी अवसर नहीं मिला। कहने लगे, आप तो देखते ही हैं, इतने साधु-साध्वियों के समाज को सम्हालना, इतने बड़े तेरापंथ संप्रदाय को सम्हालना--इसमें ही सब समय लग जाता है। फिर पैदल यात्राएं; फिर साधु-साध्वियों की गुटबंदियां-राजनीतियां--समय कहां है!
मैंने उनसे कहा, यही बात मुझे दुकानदार कहता है कि समय कहां है। यही बात मुझे जीवन के सामान्य कार्यक्रमों में व्यस्त लोग कहते हैं। और यही बात साधु भी कहेंगे, तो फिर भेद क्या है? फिर संसार क्यों छोड़ा? किसलिए छोड़ा? एक संसार से हटे नहीं कि और बड़े संसार में उलझ गए!
तिलमिला तो वे उसी दिन गए थे। फिर जब उन्होंने कहा कि मैं एकांत में बात करना चाहता हूं, तो मैंने कहा, अच्छा यही होगा कि आप सब के सामने बात करें। मगर एकांत में बात करने में भी राजनीति थी, ताकि कल कोई गवाह न हो कि उन्होंने एकांत में मुझसे क्या पूछा था।
लेकिन एकांत बिलकुल एकांत नहीं था। उसमें मुनि थोथूमल मौजूद थे। वे इसलिए मौजूद थे, कि मैं जो कहूं उसको जल्दी से लिखते रहें। कहीं ऐसा न हो कि मेरी कही गई कोई बात भूल जाए, चूक जाए!
तो मैंने पूछा, जब एकांत ही है, तो फिर बिलकुल ही एकांत हो।
उन्होंने कहा कि नहीं, अच्छा यही होगा कि आप जो भी सूचन दें, वह सब लिपिबद्ध कर लिया जाए, ताकि ध्यान करने में कोई भूल-चूक न हो।
तो जो मैंने कहा था, वह लिपिबद्ध कर लिया गया। तब भी मुझे लगा कि यह सब बहुत जालसाजी की बात है। सब को हटाया, ताकि कोई गवाह न हो। फिर भी मैंने कहा--कोई हर्ज नहीं। ठीक भी है। सात सौ साधुओं को यह पता चले कि हमारे गुरु को ध्यान का कोई पता नहीं, नाहक अड़चन होगी; नाहक शघमदा होना होगा। मैं किसी को शघमदा करना भी नहीं चाहता। तब तक मैंने मुनि थोथूमल को थोथूमल कहा भी नहीं था। नथमल ही कहता था, उनका नाम जो था। लेकिन थोथूमल कहने की मजबूरी उसी दिन दोपहर आ गई।
यह बात सुबह हुई। दोपहर समस्त साधुओं-साध्वियों और तेरापंथियों के बीच--कोई बीस हजार लोग इकट्ठे थे; उनका वार्षिक उत्सव था। मुझे बोलने के लिए निमंत्रण था। मैं अकेला बोलने वाला था। लेकिन आश्चर्य तो तब हुआ, जब मेरा बोलने का समय आया, तो मेरे नाम की घोषणा न करके नथमल के नाम की घोषणा की गई, कि मेरे बोलने के पहले मुनि नथमल बोलेंगे!
तब भी मुझे लगा कि कोई हर्ज नहीं; शायद परिचय देते होंगे मेरा; मैं अपरिचित हूं। लेकिन जो उन्होंने बोला, वह तो निश्चित मुझे चकित कर गया। सुबह एकांत में मेरी जो बात हुई थी, जो नोट्स लिए गए थे, वे पूरे के पूरे तोते की तरह दोहरा दिए गए! एक घंटा बोले वे। और उस एक घंटे में एक शब्द भी नहीं छोड़ा, जो मैंने कहा था। यह दूसरी चालबाजी थी। यह यह दिखाने की कोशिश थी, ताकि मैं कभी यह न कह सकूं कि जो ध्यान मैंने बताया है, वह मैंने बताया है। ताकि वे कह सकें कि यह तो हम जानते ही हैं! यह तो हमारे मुनि नथमल ने तभी कहा था; मेरे एक शिष्य ने तभी कहा था!
लेकिन मैं तो इतना सीधा, साफ-सुथरा आदमी नहीं हूं! मेरी चाल तो बहुत तिरछी है! एक घंटा सुनने के बाद मैं जब बोला, तो जो एक घंटा मुनि नथमल ने कहा था, उसका खंडन किया। अब उनका अवसर था चौंकने का। एक-एक चीज का खंडन किया। एक शब्द भी मैंने नहीं छोड़ा, जिसको मैंने गलत न कहा हो।
रात जब मुझे मिले, कहने लगे, आपने यह क्या किया!
मैंने कहा कि करना पड़ा! मैं मंत्र, यंत्र, तंत्र ही नहीं समझता--षडयंत्र भी समझता हूं। मेरे साथ जो चालबाजी की गई है, जो मारवाड़ीपन आपने किया, जो धोखाधड़ी की, उसका सिवाय इसके कोई जवाब न था।
मारवाड़ी मुनि भी क्यों न हो जाए, मारवाड़ी ही होता है! वही बाजार के दांव-पेंच! उसकी सोचने की प्रक्रिया वही होती है। उसकी तर्क-सरणी वही होती है।
मैंने सुना है कि एक मारवाड़ी पहली बार अपनी पत्नी को लेकर बंबई घूमने आया। घूमते-घूमते वे नरीमन प्वाइंट की बीसत्तीस मंजले मकानों के पास आए। तभी किसी औरत ने पच्चीसवीं मंजिल से कूद कर आत्महत्या की थी। संयोग से वह औरत कचरे की पेटी में पड़ी थी। यह देखकर वह मारवाड़ी बोला, अरे, ये बंबई वाले भी गजब के उड़ाऊ लोग होते हैं! यह औरत अभी तो दस-पंद्रह साल तो आसानी से चल सकती थी। इसको कचरे में फेंक दिया!
एक मारवाड़ी धंधे के लिए बंबई गया हुआ था। काफी दिन बीत चुके थे और अपनी पत्नी को कुछ पैसे भी भेज नहीं सका था। नहीं कि पैसे उसके पास नहीं थे। मगर भेजना मारवाड़ी को बहुत कठिन होता है। पैसा देना मारवाड़ी के लिए आत्मा देने से भी कठिन बात है। आत्महत्या कर ले, वह सरल; पैसा हाथ से छूट जाए, वह कठिन!
उसकी पत्नी ने बार-बार खबर भेजी, खत दिए, तार दिए। स्पष्टीकरण किया कि जल्दी करो। एक-एक चीज की मुश्किल खड़ी हो गई है। दूध वाला पैसे मांग रहा है; बिजली के दफ्तर के पैसे चुकाने हैं; नौकरानी की तनख्वाह चढ़ती जा रही है, गरीब भी क्या करे! नौकर छोड़ कर चला गया है। बच्चों की स्कूल में फीस चुकानी है।
लेकिन वह हमेशा इस तरह के पत्र लिखता कि पैसे की तो बहुत ही तंगी है, पर मेरी प्यारी पत्नी, तुझे मेरी ओर से हजार चुंबन भेजता हूं! अब चुंबन में कुछ लगता है! और मारवाड़ी के चुंबन में कुछ होता है! कोई आत्मा होती है? ऐसे मुंह से आवाज कर दी!
कुछ दिनों बाद पत्नी का पत्र आया। आखिर पत्नी भी मारवाड़ी; कब तक देखती! उसने लिखा: अब घबड़ाओ मत। तुमने जो हजार चुंबन भेजे थे, दस चुंबन में दूध वाले को निपटा दिया है। बीस चुंबन में अनाज वाले को निपटा दिया है। पंद्रह चुंबन में धोबी को निपटा दिया है। तीस चुंबन में नौकर वापस लौट आया है। ऐसे ही भेजते रहना आगे भी! सब काम मजे में चल रहा है!
मारवाड़ी का एक जगत है--एक अलग ही उसका जगत है। उसके सोचने के ढंग ही अलग हैं। उसका गणित अलग, उसकी भाषा अलग, उसकी चालबाजियां अलग।
सर! अंग्रेजी के मास्टर अंग्रेजी में पढ़ाते हैं। हिंदी के मास्टर हिंदी में, और संस्कृति के मास्टर संस्कृत में, तो आप गणित के मास्टर हो कर गणित में क्यों नहीं पढ़ाते?
मारवाड़ी अध्यापक ने कहा, देख, ज्यादा तीन-पांच न कर। फौरन नौ-दो-ग्यारह हो जा। वरना छठी का दूध याद दिला दूंगा!
देखा, गणित की भाषा बोल दी! ज्यादा तीन-पांच न कर। फौरन नौ-दो-ग्यारह हो जा। नहीं तो छठी का दूध याद दिला दूंगा!
मारवाड़ी का अपना गणित है। और आचार्य तुलसी को देखकर मुझे लगा कि ये शुद्ध मारवाड़ी हैं! वे तब से ही तिलमिलाए हुए हैं।
फिर दूसरे दिन और मुसीबत हो गई। बात और बिगड़ गई। मेरे साथ बात बिगड़नी आसान होती है, बननी बहुत मुश्किल होती है। मुझे दुश्मन बनाने की कला आती है! दोस्त तो कोई मेरे बावजूद बन जाए, उसकी मरजी। मेरी सारी चेष्टाओं को भी एक तरफ हटा कर दोस्त बन जाए, यह उसकी मरजी। अन्यथा मैं सिर्फ दुश्मन बनाने में कुशल हूं! मेरे अपने कारण हैं। क्योंकि मैं सच में ही उतने ही लोगों को अपने पास चाहता हूं, जो दोस्त हैं। इसलिए अपनी तरफ से पूरी व्यवस्था करता हूं कि कोई कूड़ा-कचड़ा भीतर न आ जाए।
दूसरे दिन और भी मुसीबत हो गई। क्योंकि दूसरे दिन एक छोटी संगोष्ठी थी, जिसमें आचार्य तुलसी ने देश से मुझे भी बुलाया था और बीस और लोगों को भी बुलाया था। उसमें मोरारजी देसाई भी निमंत्रित थे। मोरारजी देसाई तब भारत के वित्त मंत्री थे, पंडित जवाहरलाल नेहरू के नीचे।
आचार्य तुलसी तो मंच पर चढ़ कर बैठे गोष्ठी में जो बीस लोग बुलाए गए थे जिनमें मैं भी एक था, उन सब को मंच के नीचे बिठाला। मुझे तो कोई अड़चन न थी। कोई मंच पर चढ़ कर बैठे, कोई मंच से नीचे बैठे, इसमें कुछ हर्ज नहीं। थोड़ा बेहूदा तो था मामला, क्योंकि यह कोई सभा नहीं थी, जहां हजार पांच सौ लोग मौजूद हों, कि मंच पर चढ़ना पड़े। बीस लोगों की संगोष्ठी थी। इसमें तो पास-पास बैठा जा सकता था। लेकिन मैंने इस पर तब तक ध्यान नहीं दिया, जब तक मोरारजी ने मामले को उठाया नहीं। लेकिन मोरारजी की छाती में तो कटार चुभ गई! भारत का वित्त-मंत्री--और कोई साधारण आदमी--मोरारजी देसाई!
इसके पहले की गोष्ठी शुरू हो, तात्विक प्रश्न उठे, मोरारजी ने कहा कि एक प्रश्न का मैं पहले जवाब चाहता हूं। इसी से क्यों न गोष्ठी शुरू हो। आचार्य तुलसी तो बहुत खुश हुए। उन्होंने कहा कि जरूर। आप ही शुरू करें।
मोरारजी ने कहा कि मैं पूछना चाहता हूं कि आप मंच पर चढ़ कर क्यों बैठे हैं? और मंच कोई छोटी ऊंची नहीं थी! होगी कम से कम आठ फीट ऊंची! कि हम लोगों को अगर आपको देखना भी पड़े तो गर्दन दुखने लगेगी! और हम सब को नीचे क्यों बिठाला गया है? यह तो गोष्ठी है। गोष्ठी का तो मतलब होता है: पारिवारिक--निकटता से बैठना और बात करना। आप कोई प्रवचन नहीं दे रहे हैं! तो आप ऊपर क्यों चढ़ कर बैठे हैं?
तुलसी जी के चेहरे पर हवाइयां उड़ने लगीं। अब जवाब भी क्या दें! कोई और एरा-गैरा नत्थू खैरा होता, तो डांट-डपट कर चुप कर देते। और मारवाड़ी तो ऐसे प्रश्न पूछते ही नहीं। और तेरापंथी तो पूछेंगे क्या! तेरापंथी तो बेचारे अभी भी पुराने सामन्तशाही जमाने में रहते हैं। वे तो कहते हैं--जी हुकुम! हुजूर! हुजूर साहब! किस जमाने की भाषा बोल रहे हैं! इनको पता भी नहीं कि बीसवीं सदी आ गई!
अब तुम देखते हो कि राजा मिट गए, महाराजा मिट गए--और आचार्य तुलसी अपने उत्तराधिकारी को युवराज कह रहे हैं! जरा भाषा देखते हो! यह भाषा सामंतवादी है। युवराज! न तुम राजा हो--कैसे युवराज! और युवराज भी कहते हैं कोई जवान हो--तो भी कुछ बात जंचे। पैंसठ साल के थोथूमल! ये युवराज! मगर ये उनके सबसे बड़े चमचे! ये उनकी प्रशंसा में, स्तुति में गीत गाते रहते हैं--तो युवराज!
तो वही सामंतवादी ढंग, और वही सामंतवादी रुख मोरारजी का भी है।
एक क्षण तो सन्नाटा छा गया। ऐसा लगा कि गोष्ठी तो यहीं खतम हुई! अब आगे कैसे चलेगी! मैंने देखा कि बात तो बिगड़ ही गई। इतने दूर की यात्रा, और इतनी यह सब परेशानी, और यह बात तो सब खराब हुई जा रही है। और तुलसीजी से कुछ कहते बन नहीं पड़ रहा है। तो मैंने उनसे कहा कि देखें।...मोरारजी मेरे बगल में ही बैठे थे। मैंने उनसे कहा कि मोरारजी ने मुझसे पूछा नहीं है। इसलिए जवाब मुझे देना उचित भी नहीं है। पूछा आपसे है, लेकिन आप चुप्पी साधे बैठे हैं। आप बोल नहीं रहे हैं। शायद जवाब देने की आपकी हिम्मत नहीं। क्योंकि मोरारजी को कोई ऐसी बात कहना, जिससे उनको चोट लग जाए, तो वे जिंदगी भर बदला लेंगे! और उनके हाथ में ताकत है। और उनको बड़ी खुशामद से तो लाया गया है! बामुश्किल तो वे आने को राजी हुए हैं। महीनों तो उनकी सेवा की गई कि चलिए। चलिए, आपके बिना होगा ही नहीं। तो वे आए हैं। और अब उनको नाराज करना आपकी हिम्मत के बाहर है। इसलिए आप सच बोल सकते नहीं। और कुछ झूठ बोलने की भी आपकी हिम्मत नहीं है, क्योंकि मोरारजी कुछ यूं ही छोड़ न देंगे। यह मामला जब उठाया है, तो यह मामला आगे चलेगा। अगर आप और मोरारजी दोनों राजी हों, तो मैं जवाब दे दूं।
तुलसीजी ने सोचा कि झंझट मिटी और मोरारजी ने भी कहा कि यह तो गोष्ठी है, ठीक है, कोई बात नहीं। आप जवाब दे दें।
तो मैं उनसे कहा कि देखिए, मुझे इसमें बहुत परेशानी नहीं है कि वे ऊपर क्यों बैठे हैं। और जरा ऊपर देखिए; छप्पर पर छिपकली है! और जरा ऊपर देखिए, मुंडेर पर कौआ बैठा है! और जरा ऊपर देखिए, आकाश में चील उड़ रही है! आप किसकी-किसकी फिक्र करेंगे! अगर ऊपर-नीचे का ऐसा हिसाब हो, तब तो जिंदगी बड़ी मुश्किल हो जाएगी! तो छिपकली आचार्य तुलसी से ऊपर! कौआ छिपकली से ऊपर! चील कौवे से ऊपर! तो हम तो सब मारे गए! हम तो कहीं के न रहे! इसकी क्या फिक्र कर रहे हो! आठ फीट ऊंचाई पर बैठे वे सिर्फ बुद्धू मालूम पड़ रहे हैं--और कुछ भी नहीं। संगोष्ठी बुलाई है उन्होंने। वे हमारे मेजबान हैं। हम उनके मेहमान हैं। हमें सम्मान दिया होता; हमें ऊंचाई पर बिठाल कर खुद नीचे बैठ गए होते, तो भी समझ में आ सकता था। मगर यह मेहमानों के साथ मेजबान का व्यवहार, अतिथियों के साथ आतिथेय का यह व्यवहार! इसमें न तो धर्म है, न शिष्टाचार है। इसमें थोड़ी सभ्यता भी नहीं है! यह तो बात ही फिजूल है!
मगर, मैंने कहा, आपको क्यों अखर रही है? यहां और भी आपको छोड़ कर उन्नीस लोग मौजूद हैं। हममें से किसी को अखरी नहीं। तो मैं आपको भी यह कहना चाहता हूं कि आपको अखर रही है इसलिए कि आपका भी दिल वहीं बैठने का हो रहा है, सो आप भी चढ़ जाइए! और कोई रोके, तो मैं जिम्मेवार हूं। मैं कहता हूं: आप भी चढ़ जाइए। आप भी ऊपर बैठ जाइए। आप दोनों ऊपर बैठिए। बाकी हम अठारह लोग नीचे बैठेंगे!
और मैंने कहा कि आपको ऊपर बैठना अखर रहा है, यह बात सच नहीं है। आपको अपना नीचे बैठना अखर रहा है। छाती पर हाथ रख कर कहो कि बात अखर कौन-सी रही है! उतना ऊपर बैठना--या अपना नीचे बैठना? और दोनों में बुनियादी फर्क है। जमीन-आसमान का फर्क है। हमें अखरता कुछ है, हम कहते कुछ हैं! हम तो हर बात को छिपा कर चलते हैं। हम तो कभी भी सीधी चीजों को उघाड़ते नहीं।
उस दिन से मोरारजी भी नाराज हैं, तुलसीजी भी नाराज हैं। वह नाराजगी उनकी उस दिन से गई नहीं है। जा सकती भी नहीं। गांठें बांध कर लोग बैठ जाते हैं!
तुम यह भी जान कर चकित होओगे चैतन्य कीर्ति, कि मुझसे मिलने के पहले, उनसे पूछा--क्यों नहीं ध्यान-शिविर लेते थे? मुझसे मिलने के बाद ध्यान-शिविर शुरू हो गए! और ठीक तीन दिन के, क्योंकि उस समय मैं तीन दिन के ही ध्यान-शिविर लेता था! और उनसे यह भी पूछो कि अगर उन्होंने मुझसे ध्यान नहीं सीखा है, तो मेरे पास चंदन मुनि और उनके साथियों को किसलिए भेजा था? बंबई आकर चंदन मुनि और उनके शिष्य मेरे पास ध्यान करके गए हैं। और मैंने ही ध्यान नहीं करवाया; योग चिन्मय यहां मौजूद हैं, योग चिन्मय उन्हें ध्यान करवाते थे। योग चिन्मय के कमरे में ही वे ध्यान करते थे। किसलिए उन्हें मेरे पास भेजा था?
और उनसे यह भी पूछो कि उनके मुनि मीठालाल को आबू साधना-शिविर में मेरे पास किसलिए भेजा था? और उनसे यह भी पूछो कि उनकी सारी साध्वियों को, उनमें संभवतः ये चांद कुमारी जी भी रही हों, क्योंकि कोई सौ डेढ़ सौ साध्वियां थीं; मुझे सौ डेढ़ सौ साध्वियों के नाम याद रखने का कोई उपाय नहीं। पूछा भी नहीं था, कौन कौन है। और मुंह पर पट्टी बांधे हुए औरतें बैठी हों, तो वैसे ही पहचानना मुश्किल है कि कौन कौन है! आदमी है, कि औरत है, कि क्या है! कि क्या नहीं! भूत है, प्रेत है, क्या है! उनसे पूछो कि ये डेढ़ सौ साध्वियों को क्यों मुझसे कहा था कि मैं ध्यान करवाऊं? और इन डेढ़ सौ साध्वियों ने ध्यान किया था, उसके गवाह हैं। क्योंकि मैं अकेला नहीं था। मुझे जो लोग ले गए थे, वे भी मौजूद थे।
अगर उनको ध्यान पहले से ही पता था, तो मुझे बुलाया किसलिए, मुझसे ध्यान के संबंध में पूछा किसलिए? फिर ठीक है, वह तो व्यक्तिगत निजी बात थी, उसका कोई गवाह नहीं है। थोथूमल तो मेरे साथ गवाही देंगे नहीं। लेकिन बंबई आकर चंदन मुनि और उनके शिष्य ध्यान करके गए हैं, दिनों, कई दिनों; और मुनि मीठालाल...। तरु को भी याद है, तो वह हंसी, कि आबू के शिविर में, आकर मौजूद रहे हैं। और जिन डेढ़ सौ साध्वियों ने मेरे पास बैठ कर ध्यान किया था, उसके भी गवाह मौजूद हैं। रमणीक झवेरी, बंबई के, मेरे साथ मौजूद थे। वही मुझे ले गए थे।
अगर तुम्हें ध्यान का पहले से ही पता था, तो इस सब की क्या जरूरत थी?
और जिसको वे प्रेक्षा-ध्यान कहते हैं, वैसा जैन-शास्त्रों में किसी ध्यान का कोई उल्लेख नहीं है। यह प्रेक्षा शब्द उनका गढ़ा हुआ शब्द है। और मैंने उन्हें जो ध्यान कहा था, उसी ध्यान को अब वे प्रेक्षा-ध्यान कह रहे हैं!
मैंने उनसे ध्यान की दो विधियां कही थीं। एक तो उनकी करने की हिम्मत नहीं--सक्रिय ध्यान। क्योंकि वह तो अब जग-जाहिर है कि मेरा है।
अभी किसी मित्र ने खबर दी है कि लंदन में कोई व्यक्ति सक्रिय-ध्यान करवा रहा है, और बता रहा है कि वह उनका ध्यान है! लेकिन कितनी देर बता सकेगा! संन्यासी वहां पहुंचने लगे हैं और पूछने लगे हैं कि यह सक्रिय-ध्यान तुम्हारा ध्यान तो नहीं है! सक्रिय-ध्यान तो किसी शास्त्र में उपलब्ध नहीं है। वह तो मेरा आविष्कार है। न जैन शास्त्र में है, न किसी हिंदू शास्त्र में है। इसलिए उसके लिए तो कोई शास्त्रीय प्रामाणिकता खोजी नहीं जा सकती। वह तो मेरी निजी अनुभूति के आधार पर खड़ा है।
और मेरा मानना है कि बीसवीं सदी में किसी भी व्यक्ति को अगर ध्यान की ऊंचाइयों पर जाना है, तो सक्रिय-ध्यान से ही शुरू करना पड़ेगा। क्योंकि जो हजार तरह की दमित वासनाएं भीतर पड़ी हैं, उनको सक्रिय-ध्यान उलीच कर बाहर कर देता है।
और दूसरा ध्यान मैंने उनसे कहा था--बुद्ध का प्रसिद्ध ध्यान--विपस्सना। वह भी जैन शास्त्रों में नहीं है। वह बुद्ध का है। सक्रिय-ध्यान मेरा है; विपस्सना--बुद्ध का है। ये दो ध्यान मैंने उनसे कहे थे। क्योंकि ये दोनों ध्यान एक दूसरे को संतुलित कर देते हैं। सक्रिय-ध्यान अकेला हो, तो उलीचने के तो काम में आ जाएगा, लेकिन फिर भरोगे कैसे! कचरे को तो अलग करना है, जरूर अलग करना है; लेकिन हीरे-जवाहरात! कंकड़-पत्थर अलग करने हैं, लेकिन कंकड़-पत्थर अलग करने से ही हीरे-जवाहरात नहीं आ जाएंगे। सक्रिय-ध्यान आधा हिस्सा है। प्राथमिक है। एकदम अनिवार्य है। लेकिन जब सक्रिय-ध्यान पूरा हो जाए, तब विपस्सना के बीज बोने हैं।
और मैं निश्चित कहता हूं कि विपस्सना मेरी खोज नहीं है। जो जिसकी है, उसकी है। वह गौतम बुद्ध की खोज है। और मुझे कोई एतराज नहीं है--गौतम बुद्ध की खोज का उपयोग कर लेने में। क्योंकि किसी की बपौती तो नहीं हैं ये खोजें। हां, इतनी जरूर ईमानदारी होनी चाहिए कि जिसकी खोज हो, हम कम से कम उसकी कहने तक, उसकी बताने तक तो ईमानदारी प्रकट करें!
विपस्सना का अर्थ है: निरीक्षण। विपस्सना शब्द का अर्थ होता है--देखना; पश्यना--पश्य। हिंदी में भी हमारे पास शब्द है--दरस-परस; देखना। बद्ध ने कहा: सिर्फ अपने विचारों को देखते रहो। देखते-देखते ही वे शांत हो जाते हैं। बुद्ध की इसी खोज को कृष्णमूर्ति च्वाइसलेस अवेयरनेस कहते हैं। यद्यपि वे भी स्वीकार नहीं करते कि यह बुद्ध की खोज है। उनके इस स्वीकार न करने में मैं थोड़ी-सी बेईमानी की झलक पाता हूं। यूं वे विरोध करते हैं सारे अतीत का, लेकिन जिसको वे चुनाव-रहित सजगता कहते हैं, वह बुद्ध की खोज है।
और कृष्णमूर्ति को बचपन से ही एनीबीसेंट, लीडबीटर और अन्य थियोसोफिस्टों ने बुद्ध के ही मार्ग पर चलाया था। क्योंकि उन सब की चेष्टा यही थी कि बुद्ध का जो आने वाला अवतार है, मैत्रेय, कृष्णमूर्ति उसी अवतार के लिए तैयार किए जा रहे हैं। जब कृष्णमूर्ति तैयार हो जाएंगे, परिपूर्ण शुद्ध हो जाएंगे, तो बुद्ध की आत्मा उनमें उतरेगी--और वे जगत-गुरु की तरह सारे मनुष्य जाति को पुनः धर्म से ओतप्रोत कर देंगे। इसलिए बुद्ध की प्रक्रिया से ही उनको बचपन से अवगत कराया गया। जब वे केवल नौ वर्ष के थे, तब से उनको विपस्सना करवाई गई। मगर कृष्णमूर्ति भी अतीत के साथ अपना संबंध तोड़ कर बताना चाहते हैं, कि मेरा कोई अतीत से संबंध नहीं है। इसलिए वे भी यह नहीं कह सकते कि जिसको मैं च्वाइसलेस अवेयरनेस कह रहा हूं, वह केवल नया शब्द है; बात पुरानी है। बोतल नई है, शराब पुरानी है! और शराब तो जितनी पुरानी हो, उतनी ही कीमती होती है। बोतलें बदलते रहो। बोतलें खराब हो जाती है, टूट जाती हैं, फूट जाती हैं; कोई फिक्र नहीं।
लेकिन हमें इतनी निष्ठा होनी चाहिए कि हम कह सकें जो जिसका है।
तो मैंने उनको कहा था कि सक्रिय-ध्यान मेरी खोज। और बुद्ध उसकी खोज कर भी नहीं सकते थे; न महावीर कर सकते थे। क्योंकि उस सदी में जरूरत न थी। लोग इतने दमित न थे। लोग सरल थे। स्वाभाविक थे, सहज थे। जीवन ज्यादा प्राकृतिक था, प्रकृति के करीब था, आज तो जीवन प्रकृति से बहुत दूर हो गया है। और सभ्यता के ढाई हजार वर्षों ने आदमी के भीतर इतने कीड़े-मकोड़े दबा कर रख दिए हैं, सांप-बिच्छू छिपा कर रख दिए हैं कि जब तक हम उनको न निकाल फेंके, जब तक हम अपने पात्र की गंदगी को सफा न कर लें, तब तक विपस्सना जैसा ध्यान हो नहीं सकता।
विपस्सना अपूर्व प्रक्रिया है। ध्यान के जगत में उससे बहुमूल्य कुछ भी नहीं है। लेकिन वह महावीर की ध्यान-पद्धति नहीं है।
तो मैंने उनको कहा था, सक्रिय-ध्यान करवाएं। सक्रिय-ध्यान में तो उनकी छाती कंपी। उन्होंने कहा कि चीखना-चिल्लाना, नाचना-कूदना, यह तो मुश्किल होगा! हम इसके लिए शास्त्र में कहां से समर्थन खोजेंगे? है भी नहीं समर्थन--मैंने कहा। शास्त्र में समर्थन खोजा भी नहीं जा सकता। लेकिन हर चीज के लिए शास्त्र में समर्थन हो भी नहीं सकता। रेलगाड़ी के लिए कोई समर्थन है? हवाई जहाज के लिए कोई समर्थन है? अरे, सायकिल तक के लिए कोई समर्थन नहीं है! मगर सायकिल पर मजे से चढ़े चले जा रहे हो।
मगर समर्थन खोजने वालों की भी एक धुन है। वे हर चीज में समर्थन खोजते हैं!
एक ईसाई समझा रहा था बाइबिल के संबंध में और कह रहा था, बाइबिल में सब कुछ है। परमात्मा ने हर चीज बनाई।
एक छोटा-सा बच्चा खड़ा हो गया और उसने कहा कि यह मैं नहीं मान सकता। मैंने भी पढ़ी है, आपने जो बताई बात। लेकिन परमात्मा ने रेलगाड़ी कहां बनाई? रेलगाड़ी किसने बनाई?
थोड़ा तो झिझका पादरी, मगर चालबाज होते हैं धार्मिक लोग। फिर उसने कहा कि साफ लिखा है बाइबिल में कि परमात्मा ने सब सरकती हुई चीजें बनाईं। और रेलगाड़ी भी सरकती है। उसी में आ गई।
अब देखते हो तरकीब! सरकती हुई चीजें बनाईं, मतलब केंचुए, छिपकलियां, सांप। सरकती हुई चीजों में यहां तक तो ठीक था। मगर रेलगाड़ी--सरकती हुई चीजों में बना दी! उसकी गिनती सरकती हुई चीजों में हो गई!
तो मैंने कहा कि सक्रिय-ध्यान के लिए तोड़-फोड़ करें, तो कुछ खोज की जा सकती है। जैसे पतंजलि में भस्त्रिका प्राणायाम का एक रूप है। तो सक्रिय-ध्यान का पहला चरण भस्त्रिका से जोड़ा जा सकता है जिसमें श्वास को गहरा लेना और फेंकना है। चाहें ही खोजना, तो भस्त्रिका से पहला चरण जुड़ सकता है।
दूसरे चरण के लिए पतंजलि में कोई उपाय नहीं मिलेगा। लेकिन समस्त शास्त्रों में रेचन शब्द का प्रयोग हुआ है। रेचन का अर्थ होता है--साफ करना, निकालना, फेंक देना, वमन कर देना। इसलिए जिन चीजों से पेट की सफाई की जाती है, उनको रेचक कहते हैं। तो मैंने कहा, रेचन शब्द में अगर खोजना चाहें, तो खोज लेना, दूसरा चरण मिल जाएगा।
तीसरे चरण के लिए हिंदू शास्त्रों में तो कुछ भी नहीं है, लेकिन इसलाम में उपाय है। अगर हिम्मत हो तो तीसरा चरण जो हू-हू का है, वह अल्लाहू का हिस्सा है। वह सूफियों की ध्यान की पद्धति है। जब कोई व्यक्ति अल्लाहू-अल्लाहू-अल्लाहू-अल्लाहू--इस तरह की सतत पुनरुक्ति करता है, इतने जोर से करता है कि अल्लाहू-अल्लाहू एक दूसरे के ऊपर चढ़ जाएं, जैसे कि रेलगाड़ी के डब्बे एक दूसरे के ऊपर चढ़ जाएं, जैसे मालगाड़ी के डब्बे एक दूसरे के ऊपर चढ़ जाएं। तो धीरे-धीरे आखिर में उसे अल्लाहू-अल्लाहू पूरा सुनाई नहीं पड़ता। हू-हू-हू ही सुनाई पड़ने लगता है। अल्ला दब जाता है, एक हू से दूसरे हू पर छलांग लग जाती है। एक अल्लाह एक हू के भीतर दब जाता है। आखिर में हू-हू--हूंकार रह जाती है।
तो मैंने कहा, अगर खोजना ही हो, तो इस तरह खोज सकते हो। मगर यह बहुत जगह से खोजना पड़ेगा। और इतनी हिम्मत भी आपकी नहीं हो सकती कि पतंजलि को भी आप स्वीकार करो, रेचन की विधियां भी आप स्वीकार करो, जिनका जैन शास्त्रों में कोई उल्लेख नहीं है। और फिर मुश्किल तो पड़ जाएगी अल्लाहू के साथ। जिसका कि हिंदू, जैन, बौद्ध--किसी शास्त्र में उल्लेख नहीं है। जो कि इसलाम की प्रक्रिया है। मगर अगर चाहो, तो हूंकार शब्द है हमारे पास। हूंकार का अर्थ होता है, हू की आवाज। बिठालना ही हो किसी तरह, तो बिठाल लेना। मगर यह सब जबरदस्ती होगी।
यह सक्रिय-ध्यान तो बीसवीं सदी की खोज है। और बीसवीं सदी के लिए है। और आने वाली सदियों के लिए रोज-रोज ज्यादा मूल्यवान होता जाएगा। मगर यह बगीचे को साफ करने जैसा है। इसकी सफाई के बाद विपस्सना। इसकी सफाई पूरी हो जाए, तो फिर विपस्सना के फूल खिलने में जरा भी अड़चन नहीं है।
विपस्सना का अर्थ है--मन की समस्त प्रक्रियाओं को--भावनाओं को, विचारों को, वासनाओं को, ऐषणाओं को सिर्फ साक्षी भाव से देखना। इस साक्षी भाव में एक जादू है। और वह जादू यह है कि अगर मन की प्रक्रियाओं को साक्षी भाव से देखा जाए, तो वे धीरे-धीरे अपने आप तिरोहित हो जाती हैं। उनको हमारा अगर सक्रिय सहयोग न मिले तो उनके प्राण समाप्त हो जाते हैं। वे जीती हैं हमारे सहयोग से। और जब हम देखने में लग जाते हैं, तो हमारी ऊर्जा देखना बन जाती है। हमारी ऊर्जा फिर विचारणा नहीं बनती, तो विचार के प्राण निकलने लगते हैं। थोड़े दिन में सांप मर जाता है, खोल पड़ी रह जाती है। थोड़े दिन में खोल भी समाप्त हो जाती है। और एक अपूर्व घड़ी आती है, जब शून्य रह जाता है। उस शून्य में पूर्ण का साक्षात्कार है।
आचार्य तुलसी ने विपस्सना को ही प्रेक्षा कहना शुरू कर दिया। प्रेक्षा का मतलब भी देखना ही होता है। प्रेक्षा, प्रेक्षण, प्रेक्षक, आब्जर्वर, निरीक्षण। विपस्सना की पद्धति जैन-पद्धति नहीं है। जैन पद्धति बड़ी भिन्न है। वही तो महावीर और बुद्ध का विवाद था। इसलिए विपस्सना शब्द का उपयोग तो तुलसी नहीं कर सकते हैं, क्योंकि विपस्सना शब्द का उपयोग करेंगे, तो जैन फौरन उपद्रव खड़ा कर देंगे कि यह तो बौद्ध पद्धति है! और बौद्धों और जैनों की तो आज ढाई हजार साल पुरानी विवाद की स्थिति है, दुश्मनी है। जितनी जैनों और बौद्धों में कलह हुई है, उतनी हिंदू और जैनों में नहीं हुई। स्वाभाविक था, क्योंकि बुद्ध और महावीर दोनों समसामायिक थे, एक साथ मौजूद थे। और एक साथ एक ही प्रदेश बिहार में अपना प्रचार कर रहे थे। तो रोज यह होता था कि कोई आदमी महावीर के डेरे से बुद्ध के डेरे में चला जाता; कोई आदमी बुद्ध के डेरे से महावीर के डेरे में चला जाता। बड़ा कठोर संघर्ष था। और विधियां बिलकुल अलग-अलग थीं।
महावीर की विधि को तो अगर कुछ कहना हो, तो वह ध्यान की विधि कम है, तपश्चर्या की विधि ज्यादा है। महावीर ज्यादा शरीरवादी हैं। बुद्ध ज्यादा मनोवैज्ञानिक हैं।
मनुष्य के भीतर तीन तत्व हैं। एक तो उसकी आत्मा है, जो उसका अंतर्तम है, जिसको पाना है। जैसे एक त्रिकोण हो। वह जो तीसरा कोण है ऊपर, वह तो आत्मा है। और वे जो दो आधार पर कोण हैं, उनमें एक मन है और एक शरीर है। तीसरे कोण तक जाने के लिए या तो शरीर से जाना होगा या मन से जाना होगा। दो उपाय हैं। तीसरा कोई उपाय नहीं है। पतंजलि भी शरीरवादी हैं। उनकी भी प्रक्रिया शरीर से शुरू होती है--यम, नियम, प्राणायाम, आसन, इत्यादि। शुरू करते हैं शरीर से और महावीर भी पतंजलि ही जैसे व्यक्ति हैं। उनकी प्रक्रिया भी शरीर से शुरू होती है।
एक अर्थ में महावीर जैसे पतंजलि से राजी हैं। अगर आधुनिक जगत में हम महावीर का कोई समर्थन खोजना चाहें, तो पावलोव, रूस का मनोवैज्ञानिक। स्क्निर--अमरीका का मनोवैज्ञानिक। देलगादो। ये तीन व्यक्ति हैं आधुनिक युग में जो महावीर से राजी होंगे। इन तीनों को कहा जाता है--बिहेवियरिस्ट; व्यवहारवादी। ये व्यक्ति के व्यवहार को बदलते हैं, उसके शरीर की कीमिया को बदलते हैं। और शरीर की कीमिया की बदलाहट से उसके अंतर्तम को बदला जा सकता है।
एक अर्थ में तो महावीर वैज्ञानिक हैं, बहुत वैज्ञानिक हैं। लेकिन उनका विज्ञान शरीर से शुरू होता है। पहुंचता आत्मा पर है। इसलिए महावीर की प्रक्रिया ध्यान की नहीं, तप की है। शरीर को शुद्ध करना है उपवास से...। इतना शुद्ध करना है शरीर को, कि शरीर की सारी की सारी वासनाएं क्षीण हो जाएं। और जब शरीर की सारी वासनाएं क्षीण हो जाती हैं, तो उसके साथ ही मन में पड़ती हुई शरीर की प्रतिछायाएं क्षीण हो जाती हैं।
तुम्हारे भीतर कामवासना उठती है, उसके दो अंग होते हैं: एक तो मन और एक शरीर। अगर तुम बहुत गौर से देखोगे, तो तुम पाओगे कि दोनों तत्वों का सम्मिलन होता है कामवासना में--शरीर का और मन का। अगर शरीर साथ न दे, तो भी मन कुछ कर नहीं सकता। और अगर मन साथ न दे, तो शरीर कुछ कर नहीं सकता। शरीर और मन एक ही सिक्के के बाहर और भीतर के पहलू हैं। इस सिक्के को फेंकने के दो ढंग हैं। या तो शरीर का पहलू फेंक दो, दूसरा पहलू अपने आप फिंक जाएगा। और या फिर मन का पहलू फेंक दो। शरीर का पहलू फेंकना कठिन है, दुर्गम है। इसलिए महावीर की साधना दुर्गम है। तभी तो उन्हें महावीर कहा। यह उनका नाम नहीं है। उनका नाम तो था वर्धमान। लेकिन उनको महावीर कहा, क्योंकि उन्होंने दुर्धर्ष साधना की बारह वर्ष। शरीर को यूं शुद्ध किया की शरीर की सारी केमिस्ट्री, शरीर का पूरा रसायन बदल दिया। और ये तुलसी और इस तरह के लोगों को उस रसायन को बदलने की भी कोई कला पता नहीं है!
उस रसायन को बदलना भी बहुत दुरूह मार्ग है। मैं सोचता हूं, कभी जरूरत होगी, तो उस संबंध में भी तुमसे बात करूंगा। अभी जरूरत नहीं आई। लेकिन अगर मुझे किसी दिन लगा, कम्यून के बन जाने पर, कि कुछ ऐसे लोग आ गए हैं जो शरीर की उस दुर्धर्ष साधना में भी उतर सकते हैं, तो जरूर तुम्हें शरीर की केमिस्ट्री उसका रसायन बदलने की प्रक्रिया भी दूंगा, वह महावीर की प्रक्रिया होगी। उसको मैंने आज तक दिया नहीं है। उसको मैंने आज तक कहा नहीं है। क्योंकि किससे कहना है!
और जिन बनियों के हाथ में महावीर पड़ गए हैं, ये क्या खाक शरीर के रसायन को बदलेंगे! ये मारवाड़ी--और शरीर के रसायन को बदलेंगे!
नागपुर में मैं एक घर में मेहमान था। बगीचे में बैठा था सुबह-सुबह। एक कार आ कर रुकी। एक आदमी उतरा और उसने कहा कि सेठ कचरमल के यहां से लड्डू आए हैं। तो आप घर के मालिक को बुला दें।
मैंने कहा कि घर के मालिक तो बाहर गए हैं, मालकिन भी बाहर गई हैं। मैं मेहमान हूं। अगर मुझ पर भरोसा हो, तो लड्डू छोड़ जाओ। गिनती कर लो। लेकिन वह आदमी कुछ बेचैन-सा दिखाई पड़ा लड्डू छोड़ने की बात जो मैंने कही।
तो मैंने कहा, भैया, गिनती कर ले। तो गिनती तू फोन पर कह देना। जैसे ही वे आएंगे, मैं कह दूंगा कि फोन करके सेठ कचरमल के यहां पूछ लें, कितने लड्डू भेजे हैं। मगर तू लड्डू छोड़ जा बेफिक्री से।
उसने कहा, नहीं, नहीं। मैं इसलिए नहीं अचकचा रहा हूं। असल में मेरा नाम लड्डू है! सेठ कचरमल के यहां से लड्डू आए हैं, उसका यह मतलब नहीं कि लड्डू ले कर आया हूं। मेरा नाम लड्डू है, इसलिए मैं थोड़ा अचकचा रहा हूं!
अब ये कचरमल और लड्डू--ये शरीर का रसायन बदलेंगे! एक तो कचरमल--उनके घर से लड्डू आए हैं!
मैंने कहा कि भैया, तू जा! मुझे छोड़ अकेला। तुझे बिठालने की जरूरत नहीं है! लड्डू भी होते, तो ठीक था।
जिस दिन मुझे लगेगा कि वे लोग आ गए...। कुछ लोग जरूर आ जाएंगे। क्योंकि मनुष्य में सभी तरह के लोग हैं। उनकी मात्राएं कम-ज्यादा हो गईं। महावीर के समय में वैसे लोग काफी थे। उसका कारण था। उसका कारण था कि क्षत्रिय होना एक साधना थी।
महावीर क्षत्रिय थे। जैनों के चौबीस तीर्थंकर ही क्षत्रिय थे। कैसा दुर्भाग्य कि जिनके चौबीस तीर्थंकर क्षत्रिय थे, उनके सब मानने वाले बनिए हैं! इससे बड़ा दुर्भाग्य घट सकता है कुछ और!
ये क्षत्रिय थे। इन्होंने तलवार पर ही धार नहीं रखी थी, इन्होंने अपने शरीर पर भी धार रखी थी। ये वर्षों की तपश्चर्या से गुजरे थे। क्षत्रिय होना तपश्चर्या है। क्षत्रिय होना कोई खेल नहीं। यह जीवन-मरण को हाथ में लेकर चलना है। यह गर्दन को यूं उतार कर रख देने की कला है। इन्होंने शरीर को साधा था। इन्होंने शरीर की बहुत-सी भीतरी प्रक्रियाएं की थीं। इन्होंने शरीर के बहुत से आंतरिक अनुष्ठान किए थे। उन अनुष्ठानों, प्रक्रियाओं और तपश्चर्याओं के आधार पर महावीर ने अपनी साधना-पद्धति खोजी थी। वह साधना-पद्धति बहुत दुर्गम है। उस पद्धति को करने के लिए उस तरह के लोग चाहिए। वैसे लोग खो गए आज तो पृथ्वी पर क्षत्रिय समाप्त हो गए। जापान में समुराई समाप्त हो गए। समुराई थे, वे लोग साध सकते थे महावीर की साधना को।
जान जैसे कोई बात ही न थी! तुम चकित होओगे, समुराइयों की अगर तुम कहानियां पढ़ोगे, तो तुम हैरान होओगे।
एक समुराई--तीन सौ साल पुरानी कहानी है--जापान के सम्राट का रक्षक था। समुराई को कैसे उठना, कैसे बैठना, कैसे खड़े होना; कब बोलना, कब नहीं बोलना; क्या बोलना, कितने संतुलित शब्दों में बोलना--सब की वर्षों शिक्षा दी जाती थी। और कहा जाता था कि दो समुराई अगर कभी तलवार के युद्ध में जूझ जाएं, तो कोई भी जीत नहीं सकता था। उनकी सजगता ऐसी होती थी कि दोनों की धारें ऐसी होती थीं कि तलवारें टूट जातीं, मगर समुराइयों को चोट नहीं पहुंचती थी। और अगर कोई मर जाता या कट जाता, तो उसका मतलब सिर्फ इतना ही था कि वह अभी कच्चा था। और छोटी-छोटी बात पर्याप्त थी। समुराई की इज्जत और आदर की बात ऐसी थी, उसका स्वाभिमान ऐसा था...। और ध्यान रखना: वह सिर्फ अहंकार की बात नहीं थी; उसका स्वाभिमान बड़ी और बात थी। क्षत्रिय का स्वाभिमान बड़ी और बात थी। अहंकार तो उनमें होता है, जिनमें स्वाभिमान की क्षमता नहीं होती।
यह समुराई--सम्राट ने कुछ पूछा--और उसने बात कुछ ऐसी पूछी थी कि सबको हंसी आ गई। लेकिन समुराई को मालिक के सामने हंसना नहीं चाहिए। मालिक ने उसे इस ढंग से देखा, एक क्षण को, कि समुराई होकर और वह मालिक के समाने हंसे!
समुराई ने मालिक के पैर छुए, घर जा कर छुरी मार कर आत्महत्या कर ली। छुरी भी समुराई इस ढंग से मारता था कि उसके मरने की भी कला अदभुत थी; हाराकिरी कहते हैं जापान में। ठीक नाभि के दो इंच नीचे समुराइयों ने एक बिंदु खोज निकाला था, जिसको वे मृत्यु-बिंदु कहते हैं, हारा कहते हैं। अभी तक विज्ञान उसको खोज नहीं पाया है, लेकिन उस पर चोट करने से, बिना किसी पीड़ा के, होशपूर्वक व्यक्ति समाप्त हो जाता है। लेकिन होश नहीं खोता। वही कला थी उसकी। क्योंकि होश खो जाए, तो क्या समुराई! जिंदा में भी होश; मरने में भी होश। होश नहीं खोना चाहिए। होश खो गया, तो बात खो गई। बेइज्जती हो गई।
इस समुराई के तीन सौ शिष्य थे। यह बड़ा गुरु था समुराइयों का। जब उन्होंने देखा--हमारे गुरु से भूल हो गई, और उसने हाराकिरी कर ली, तो तीन सौ शिष्यों ने हाराकिरी कर ली! उनसे तो कोई भूल ही न हुई थी। मगर जब गुरु से भूल हो गई, और जब गुरु विदा हो गया, तो हम किस मुंह से खड़े रहें! अब हम किस मुंह से कहेंगे कि हम किस गुरु के शिष्य हैं!
सम्राट तो घबड़ा गया जब उसको खबर मिली। उसने कहा, यह क्या पागलपन है! लेकिन उसके दरबारियों ने कहा, आप समुराइयों को नहीं जानते हैं। आपको उस ढंग से नहीं देखना था। आपकी नजर में निंदा थी। उतना काफी है, इशारा काफी है। समझदार को इशारा काफी है। ये घोड? वे नहीं हैं, जिनको मारो, तब चलें। इनको तो सिर्फ कोड़े की छाया काफी है। आवाज भी नहीं करनी पड़ती।
यहां मेरे संन्यासियों ने समुराइयों का एक छोटा-सा वर्ग बनाया है। वे कराते, अकीदो की साधना करते हैं। उसमें जर्मन सम्राट का प्रपौत्र भी एक समुराई है। सम्राट के परिवार का है--विमल कीर्ति--तो उसके ढंग भी...। यद्यपि आज संन्यासी है, मगर है तो वह जर्मन सम्राट के बेटे का बेटा। उसके खून और उसकी हड्डी-मांस-मज्जा में है तो वही स्वाभिमान।
वह मेरे कमरे के बाहर पहरे पर होता है। उसे सदा वहां होना चाहिए। वह उसकी साधना का हिस्सा है। एक दिन मैं कमरे के बाहर आया; वह एक दस-पांच कदम दूर था। मैंने तो कुछ खयाल नहीं किया; मैंने यूं ही पूछा, कीर्ति, सब ठीक है ना! वह एकदम सिर झुका कर खड़ा हो गया।
मैं आगे बढ़ गया। पीछे विवेक ने मुझे आकर कहा कि आपने क्या कर दिया! विमल कीर्ति कहता है कि मैं हाराकिरी कर लूंगा!
मैंने कहा, उस पागल को कहो कि यहां कोई हाराकिरी करने की जरूरत नहीं है! विमल कीर्ति कहता है कि मुझे जहां होना चाहिए, वहां से मैं दस फीट दूर था। बड़ी बेइज्जती हो गई!
और मुझे खयाल ही नहीं था; मैं तो उससे यूं ही पूछा, सब ठीक है! मगर उसने समझा कि मैंने उसे इशारा किया--कि यह क्या! दस फीट दूर अपनी जगह से!
ऐसे मैं अपने कमरे से निकलता ही नहीं हूं। इसलिए कुछ पता ही नहीं चलता किसी को कभी। उस दिन किसी काम से बाहर निकला था। मेरे दांत में तकलीफ थी। और देवगीत मेरे डाक्टर हैं मेरे दांतों के, वे बाहर मेरी प्रतीक्षा कर रहे थे। तो उनके पास जा रहा था। विमल कीर्ति को पता नहीं था कि मुझे निकलना है, जाना है। वह टहल रहा होगा। खड़ा भी कब तक रहे कोई व्यक्ति! तो दस कदम दूर था, तो कोई कसूर न था। और मैंने कसूर की बात भी न उठाई थी। मगर समुराई की धारणा--कि यह तो बात गलत हो गई! अब मुझे मर जाना चाहिए!
मैंने कहा, पागलो! यहां कुछ मरना सीखने का सवाल नहीं है, यहां जीना सीखने का सवाल है! बामुश्किल उसको समझाया कि समुराई यहां होने का मतलब यह है कि जीने की कला सीखो!
मगर यह समुराइयों की दुनिया थी। यह क्षत्रियों की दुनिया थी।
महावीर महा क्षत्रिय थे। उनकी प्रक्रिया बिलकुल और है। उसमें प्रेक्षा का कोई स्थान नहीं है। और प्रेक्षा शब्द का तो बिलकुल ही जैन शास्त्रों में कोई उल्लेख नहीं है। लेकिन तुलसीजी दिखलाना चाहते हैं कि उन्होंने कोई ध्यान की बड़ी अभूतपूर्व विधि खोज ली है!
विपस्सना कह नहीं सकते। क्योंकि विपस्सना कहें तो वह बौद्धों का है। और जैन शास्त्रों में कोई शब्द नहीं है उसके लिए। इसलिए--प्रेक्षा। प्रेक्षा का मतलब वही होता है।
मुझसे सीख कर नाहक इस बेचारी गरीब चांद कुमारी को दस हजार मील की यात्रा करवा दी! और भी शिष्याओं को भेज दिया है!
और भी मित्रों ने प्रश्न पूछे हैं, इसी संदर्भ में।

जिनस्वरूप ने पूछा है: भगवान, इस देश के राजनीतिज्ञ, साधु-महात्मा जो आपका विरोध करते हैं, वे लोग आश्रम आ कर स्वयं अपनी शंकाओं का निराकारण क्यों नहीं कर लेते?

हिम्मत नहीं है, बल नहीं है; नपुंसक हैं। इस आश्रम में आकर अपनी शंकाओं का निराकारण करने में घबड़ाते हैं। डर है कि कहीं निराकरण हो न जाए! फिर क्या करेंगे! और निराकरण निश्चित हो जाएगा। मैं तो कहता हूं कि तुलसी आ जाएं। और उनके इस काम से अब उनको तुलसी कहने का भी मेरा मन नहीं रहा। अब तो आचार्य भोंदूमल! तो भोंदूमल, थोथूमल दोनों आ जाएं।
यहां सौ मनस-क्रांति की प्रक्रियाएं चल रही हैं। सौ के उनको नाम भी नहीं मालूम होंगे; उनके बाप-दादों को भी मालूम नहीं होंगे। वे यहां आ जाएं; उन्हें सारी प्रक्रियाओं से गुजार देंगे। उन्हें आदमी बना देंगे! मगर पहले मुरगा बनना पड़ेगा! क्योंकि वे प्रक्रियाएं ऐसी हैं। अब प्राइमल थैरेपी से गुजरोगे, तो मुरगा तो बनना पड़ेगा!
और उनकी हिम्मत नहीं हो सकती यहां आने की। और मेरे विरोध में प्रचार क्या करोगे, जब मुझे समझते भी नहीं हो! और इन गरीब औरतों को भेज दिया है यहां। यह भी नामर्दी की हद्द हो गई। अरे खुद आना था, क्या औरतों को आगे करना!
बर्मा में रिवाज है कि आदमी आगे चलता है, जैसे कि सारी दुनिया में रिवाज है; और औरत पीछे चलती है। लेकिन दूसरे महायुद्ध में ऐसा हुआ कि अचानक...अंग्रेज बड़े हैरान हुए कि बर्मा में कुछ एकदम से क्रांति हो गई--क्या हुआ! औरतें आगे चलने लगीं, आदमी पीछे चलने लगे! तो एक अंग्रेज सेनापति ने एक बर्मी से पूछा कि भाई, बात क्या है--एकदम से क्रांति हो गई! सारी दुनिया में आदमी आगे चलता है, औरत पीछे चलती है। औरत आगे चले, तो आदमी को शरम मालूम होती है। और यहां भी यही था कल तक रिवाज। अब यह क्या हो गया! तुमने तो क्रांति कर दी। तुमने तो स्त्रियों को समान अधिकार दे दिया। समान से भी ज्यादा अधिकार दे दिया!
वह बर्मी हंसने लगा। उसने कहा, यह मत पूछिए। मत ही पूछिए! यह बात छेड़िए ही मत। यह कोई समान अधिकार वगैरह नहीं है। यह जो दूसरा महायुद्ध चल रहा है, इसके कारण।
अंग्रेज ने कहा, मैं समझा नहीं! उसने कहा, अब आप नहीं समझते, तो मुझे समझाना पड़ेगा। अरे कुछ पक्का पता नहीं है कि कहां सुरंगें बिछी हैं, कहां बम छिपे हैं। सो औरत को आगे चलाने लगे, कि मरें तो ये ही मरें! युद्ध के कारण जगह-जगह सुरंगें बिछी हैं, बम बिछे हैं, बम छिपे हैं। पता नहीं कहां क्या हो! तो औरतों को आगे चलाने लगे। यह कोई क्रांति वगैरह नहीं है।
अब ये भोंदूमल, थोथूमल को खुद ही आ जाना चाहिए। क्या जरूरत है, इन बेचारी गरीब स्त्रियों को भेजने की! और इन स्त्रियों को क्या पता--ये मेरा क्या विरोध करेंगी! पहले तो इनको इस आश्रम में आना चाहिए। मगर इनका तो सब कुछ नष्ट-भ्रष्ट हो जाएगा! क्योंकि अगर मुझे समझना है, तो तंत्र भी समझना होगा। अगर मेरा विरोध करना है, तो समाधि की ही अकेली समझ काफी नहीं है; संभोग की भी समझ जरूरी हो जाएगी। क्योंकि मेरा तो पूरा का पूरा जीवनकोंण--संभोग से समाधि की ओर!
अब ये गरीब स्त्रियां--ये क्या समझेंगी! भोंदुओं को खुद आना चाहिए। मगर जहां देखा कि सुरंगें बिछी हैं, वहां औरतों को आगे कर दिया! और उनके डर यही हैं कि यहां आएंगे, तो मेरी सारी प्रक्रियाओं से गुजरना होगा। और इन प्रक्रियाओं से गुजरेंगे, तो ही समझ सकते हैं कि मैं क्या कह रहा हूं। मगर उसके लिए उन्हें बहुत से उपद्रव छोड़ने पड़ेंगे। उन्हें बहुत-सी आदतें छोड़नी पड़ेंगी। और आदतें बड़ी मुश्किल से छूटती हैं। छूटती ही नहीं। आदतें जड़ हो जाती हैं। धारणाएं छाती पर यूं सवार हो जाती हैं कि उतरती ही नहीं!
एक गांव से चोर गुजर रहे थे। उन्होंने देखा कि एक नट छलांग लगा कर रस्सी पर चढ़ गया और खेल दिखाने लगा। चोरों ने सोचा, इस नट को उड़ कर ले जाना चाहिए। किसी दो मंजले मकान पर वह आसानी से चढ़ जाएगा। अरे इतनी छलांग लगाता है! और अपना काम आसान कर देगा। अपने को कितनी मेहनत हो जाती है! चढ़ने में ही बहुत झंझट हो जाती है। और यह तो यूं छलांग लगाता है कि जैसे इसको पंख हों!
उस नट को ले कर चोर चोरी करने आधी रात को गए। एक हवेली के पास पहुंचे और बोले, तुम छलांग लगा कर पहली मंजिल पर पहुंच जाओ। नट ने चोरों से कहा कि भई, यह तो नहीं हो सकता। पहले मेरा आयोजन पूरा करो।
एक चोर ने गुस्से में कहा, अबे तू जल्दी कूद जा न! अपने पास वक्त बहुत कम है।
नट ने चीख कर कहा, लेकिन पहले नगाड़ा तो बजाओ! बिना नगाड़े के मैं नहीं कूद सकता! बिना नगाड़े के कूदूं कैसे! बिना नगाड़े के कभी कूदा ही नहीं। पहले नगाड़ा बजे! फिर देखो। अरे तुम पहली मंजिल कहते हो, मैं तीसरी पर कूद जाऊं। मगर नगाड़ा!
मगर चोर आधी रात को नगाड़ा बजाएं तो हो गया फैसला!
आदतें--गहरी आदतें!
और फिर ये दमित लोग; ये बेचारे क्या शुद्धि करेंगे! कचरे से भरे हुए--कचरमल! इनके भीतर इतना कूड़ा-कर्कट है! मुझसे कितने जैन साधुओं ने नहीं कहा कि कामवासना से कैसे छुटकारा हो! मैंने कहा कि तुम कामवासना से छुटकारे के लिए तो जैन साधु हुए थे। अभी तक छूटी नहीं! छूटती कहां--और बड़ी हो जाती है--और गहन हो जाती है।
जितनी काम-विकृतियां पैदा हुई हैं दुनिया में, वे सब साधु-संन्यासियों की वजह से पैदा हुई हैं। पुरुषों को एक बाड़े में बंद कर दिया है; स्त्रियों को एक बाड़े में बंद कर दिया है! ईसाइयों ने भी, जैनों ने भी, बौद्धों ने भी। ये बाड़े उपद्रव के कारण हैं। जब पुरुष एक साथ रहेंगे, तो स्वभावतः उनमें विकृतियां आनी शुरू हो जाएंगी। उनमें समलैंगिक व्यवहार शुरू हो जाएंगे। यह मैं नहीं कह रहा हूं; मनोवैज्ञानिकों के सारे अध्ययन कहते हैं, सारी शोधें कहती हैं। स्त्रियां इकट्ठी होंगी, उनमें समलैंगिक व्यवहार शुरू हो जाएंगे। यह होने वाला है। उनमें न मालूम किस-किस तरह की विकृतियां पैदा होंगी! उनकी आंखों पर सदा ही कामवासना डोलने लगेगी।
एक रजनीशी संन्यासी से किसी मुंहपट्टीधारी तेरापंथी जैन साधु ने कहा कि आप लोग भी किस आदमी की बातों में पड़े हैं! यह आदमी आपको डुबाएगा।
रजनीशी संन्यासी बोला, हमें डूबने में मजा है। हमें पार जाना नहीं है। हम तो डूब गए कि पार हो गए! जिंदगी की कोई मंजिल तो नहीं। जिंदगी मौज है, साहिल तो नहीं!
तेरापंथी साधु एक क्षण को तो चुप रह गया। तभी रजनीशी संन्यासी ने कहा, महाराज, यह तुम्हारे मारवाड़ी बनिए का दिमाग बहुत ही सड़ा-गला हुआ है। पर तुम्हें हम चरित्रहीन लगते हैं। सड़े-गले तुम हो। तुम्हें स्वस्थ लोग चरित्रहीन लगते हैं। अंधे तुम हो, तुम्हें आंख वाले अंधे लगते हैं! एक बात तुमसे पूछता हूं, जवाब दो। बोलो, वह क्या चीज है, जो औरतों को दो और गायों को चार होती है?
इस पर तेरापंथी तो बहुत परेशान हो गया। कुछ देर सिर खुजलाया और बोला कि देखो जी, तुम रजनीशी सुबह-सुबह ही ऐसी गंदी बातें शुरू कर देते हो!
इसर पर रजनीशी संन्यासी बोला, अरे टांगें, बेटा, टांगें!
मगर वे दमित लोग हैं, उनकी खोपड़ी में तो कचरा भरा है। उन्हें तो और कुछ दिखाई पड़ता ही नहीं।
तुमने पूछा, चैतन्य कीर्ति, कि वे शास्त्र-शुद्ध प्रेक्षा-ध्यान शिविर आयोजित करेंगे। बड़ी अच्छी बात है; करें। ध्यान तो जैसे फैले--अच्छा; किसी बहाने फैले--अच्छा। प्रेक्षा नाम रखो; विपस्सना कहो, निर्विकल्प ध्यान कहो, निर्बीज ध्यान कहो--जो मौज हो, कहो। मुझे कुछ चिंता नहीं। किसके नाम से चलता है, इससे भी क्या लेना-देना। ध्यान फैले--अच्छा। मगर ये गरीब साधु-साध्वियां--इनको ध्यान है! इनको ध्यान हुआ है अगर इनको ध्यान नहीं हुआ है, ये दूसरों को कैसे करा सकेंगे! असंभव है यह बात। सिर्फ ध्यानी ही दूसरे के भीतर ध्यान की चिनगारी पैदा कर सकता है। खुद का दीया जला हो, तो ही तो हम दूसरे के बुझे दीए को जला सकते हैं! और कोई उपाय नहीं है।
जिनस्वरूप ने पूछा है: ये साध्वियां भ्रष्ट लोगों को ठीक करने के लिए भेजी गई हैं! बड़ा अच्छा काम है! भ्रष्ट लोगों को ठीक करना ही चाहिए। मगर जो मेरे द्वारा भ्रष्ट हुआ है, इसको ठीक करना बहुत मुश्किल है। असंभव। यह तो किसी को भी भ्रष्ट कर देगा। इसका भ्रष्ट होना कोई साधारण घटना नहीं है। और मैं सिर्फ भ्रष्ट थोड़े ही करता हूं। भ्रष्ट करने की कला भी सिखाता हूं! चलो, मौज रहेगी; तुम भी जाया करो इन साध्वियों को भ्रष्ट करने! वे तुम्हें सुधारें, तुम उन्हें बिगाड़ो!
मेरा तो काम ही बिगाड़ना है! मत चूको यह मौका। अब दस हजार मील से चल कर बेचारी आई हैं, कितनी तकलीफ उठाई है; कुछ तो इनको लाभ पहुंचाओ! तो जाओ।
और भी मित्रों ने पूछा है। सुभाष सरस्वती ने पूछा है: आचार्य तुलसी की आत्मा की शांति के लिए हम क्या करें?
भैया, पहले आत्मा भी तो होनी चाहिए! इसलिए तो जब आदमी मर जाते हैं, तब हम उनकी आत्मा की शांति के लिए प्रार्थना करते हैं। कि न रहा बांस, न रही बांसुरी; अब झंझट मिटी; अब कर लो आत्मा की शांति की प्रार्थना! किसी की जिंदा में तुम करते हो आत्मा की शांति की प्रार्थना! क्योंकि तुम्हें खुद ही झिझक होगी, कि पहले आत्मा भी तो होनी चाहिए! अब मर ही गए, तो दिखाई ही नहीं पड़ते, तो होगी आत्मा!
आत्मा ध्यान से निखरती है, प्रकट होती है। ध्यान है ही कला आत्मा के निखारने की, उघाड़ने की। साधारणतः आदमी अनगढ़ पत्थर की तरह पैदा होता है। यह तो ध्यान की छेनी है, हथौड़ी है, जिसके द्वारा किसी सदगुरु के हाथ में पड़ जाए यह पत्थर, तो मूर्ति बने; तो आत्मा प्रकट हो। नहीं तो अनगढ़ पत्थर ही रह जाते हैं। इनके मुंह पर पट्टी बांध दो, तो भी कुछ फर्क नहीं पड़ता। ये पानी छान कर पी लें, तो कोई फर्क नहीं पड़ता। ये रात भोजन न करें, तो कोई फर्क नहीं पड़ता।
और एक से एक अजीब धारणाएं हैं। और उन धारणाओं को मान कर ये लोग जीते हैं। तेरापंथियों की तो बहुत अजीब धारणा है। ये महावीर के अनुयायी हैं, महावीर की अहिंसा में मानते हैं और इनकी अहिंसा भी बहुत अदभुत है! इनकी अहिंसा का अर्थ भी समझने जैसा है।
तेरापंथी मानते हैं कि अगर रास्ते पर कोई कुएं में भी गिर गया हो, तो तुम बचाना मत। क्यों? क्योंकि अगर तुमने उसे बचाया, तो पहली तो बात: उसके पिछले जन्मों के कर्मों के कारण वह गिरा था; तुमने उसके कर्मों की प्रक्रिया में बाधा डाल दी। वह अपना कर्म-फल भोग रहा था, तुमने अटकाव डाल दिया! उसको बेचारे को फिर कुएं में गिरना पड़ेगा। तभी तो कर्म-फल भुगतेगा! तुमने उसका कुछ साथ नहीं दिया। तुम उसके दुश्मन हो। अरे और डुबकी दिलवा देनी थी, कि मार ले बेटा डुबकी। निकल ही मत। अब खतम ही कर ले अपने कर्म! छुटकारा ही पा जा आवागमन से!
और दूसरा खतरा यह है कि तुमने इसको अगर कुएं से निकाल लिया, और कल यह किसी की हत्या कर दे--फिर! तो उसका जुम्मा तुम पर भी पड़ेगा! तुम भी सड़ोगे अगले जन्मों में! न तुम उसे बचाते, न वह हत्या करता!
देखते हो--क्या गजब के तर्क! महावीर की अहिंसा को मानने वाले लोग! किसी भिखमंगे को भीख मत देना, क्योंकि पता नहीं, वह खाने के बाद क्या करे! किसी वेश्या के यहां चला जाए--फिर! उसका मतलब: मुनि महाराज भी गए! डूब गए उसी के साथ! न देते भोजन--न वह जाता वेश्या के यहां! और भिखमंगों की कुछ न पूछो--कहां जाएं! अकसर तो वेश्याओं के यहां जाएंगे; शराबघर जाएंगे, सिनेमा देखेंगे! भिखमंगे तो जिंदगी मजे से जीते हैं! अरे अपने बाप का जाता क्या है! फिर कल झटकेंगे किसी से। आज का आज निपटा देते हैं, कल का कल देखेंगे। ऐसे निश्चिंत भाव से जीते हैं!
भिखमंगे को देना मत कुछ। कोई कुएं में गिर जाए, बचाना मत। कोई प्यासा मर रहा हो रेगिस्तान में, तो भी पानी मत पिलाना। क्योंकि पता नहीं, किस जन्म के कर्मों का फल भोग रहा है। और पानी पी कर बच जाए, फिर न मालूम कौन से कर्म करे! तो तुम भी उसमें साझीदार हो गए!
ये साधु! यह धर्म! यह प्रेम! ये अहिंसा की बातें! ये ध्यानी! ये परोपकारी! जरा सोचो भी तो इन लोगों की दृष्टि और इनका अंधापन!
ये अपने को ही सुधार लें, उतना ही काफी है। ये नाहक क्यों कष्ट करने यहां आए! और आत्मा वगैरह तो सुभाष इनकी है नहीं, इसलिए अभी शांति के लिए तुम कुछ नहीं कर सकते। जिसके पास आत्मा होती है, वह शांत होता ही है। आत्मा का होना और शांत होना एक ही बात है। अशांत होना और आत्मा का सोया होना, एक ही बात है।
और वंदना ने पूछा है कि आचार्य तुलसी अपने ही हाथों अपनी पिटाई क्यों करवाना चाहते हैं?
कुछ लोगों को पिटने में मजा आता है। कुछ लोग ऐसे होते हैं, कि जब तक उनकी पिटाई न हो, उन्हें लगता है कि जैसे वे हैं ही नहीं; उन पर कोई ध्यान ही नहीं दे रहा है! कुछ लोग तो सुबह से ही निकलते हैं और बैलों से कहते हैं--आ बैल; सींग मार! जब तक बैल सींग न मारे, उन्हें अपने अस्तित्व का बोध नहीं होता। अपने हाथ से पिटने निकल पड़े हैं! क्या करोगे!
अब मुझे तो इनका खयाल ही नहीं था कि बिलकुल। इतने दूर से बेचारों ने मेहनत की। अभी कल मैं अखबार में देख रहा था, कोई एक दर्जन से ज्यादा संतों और महात्माओं और महंतों की नामावलि गुजराती अखबारों में निकली है। गुजरात के अलग-अलग क्षेत्रों से इन साधु, संतों और महात्माओं ने--दर्जन से ऊपर संख्या है, पंद्रह होंगे--या ज्यादा भी हो सकते हैं, मैंने गिनती की नहीं; लंबी फेहरिश्त है--इन सब ने प्रार्थना की है सरकार से कि मुझे प्रवेश न करने दिया जाए गुजरात में। और जनता से--कि मेरे प्रवेश में बाधा डाली जाए। और इस बात की घोषणा की है कि हम प्रवेश नहीं करने देंगे गुजरात में।
मैं फेहरिश्त पढ़ रहा था, तो मुझे एक बात खयाल में आई कि यह अच्छा मौका है, अगर गुजरात में कितने गधे हैं, इसकी गणना करनी हो, तो यह मौका हाथ से चूकना नहीं चाहिए। गुजरात के सब गधे अपने आप रेंकेंगे! छिपे भी होंगे, वे भी रेंकेंगे! अब इन पंद्रह में से किसी का नाम कभी मैंने सुना नहीं। मगर कहां छिपे थे, एकदम रेंकने लगे!
क्या मजा है! अभी मैं गया भी नहीं और गधों में एकदम चहलकदमी मच गई है! तब मुझे यह भी खयाल आया कि पहले गुजरात के गधों की संख्या कर लें, फिर बदल देंगे। फिर कहेंगे--कटक जाते हैं! फिर वहां के गधों की गणना कर लेंगे--फिर कहेंगे: अब हिमालय जाते हैं। फिर वहां के गधों की गणना कर लेंगे। ऐसे पूरे भारत में कितने गधे हैं...इसका और कोई तो उपाय नहीं है। मगर यह बड़ी अच्छी तरकीब हाथ लग गई!
कल मैं जब अखबार पढ़ रहा था, मैंने कहा--यह बड़ा मजेदार है काम। पहले यहां के गधे गिन लो; फिर दूसरे प्रांत चलेंगे, फिर वहां के गधे गिन लेंगे। ऐसे अपने पास फेहरिश्त होगी, पहली फेहरिश्त सारी दुनिया में कि एक देश में कितने गधे हैं!
और भारत तो पुण्यभूमि है, यहां तो गधे तरसते हैं पैदा होने को! एक से एक पहुंचे हुए गधे; सिद्ध गधे! अब ये पिटाई न करवाएं, तो क्या करें! अब ये रेंकेंगे--तो पिटेंगे! चुपचाप रहे आते, तो कोई इनसे बोल नहीं रहा था।
अब इसमें एक तो ऐसे सज्जन हैं, महंत हरिदास। उनका नाम भर मुझे पता था, क्योंकि दो ही दिन पहले चितरंजन के एक मित्र हैं बड़ौदा में चंद्रकांत, उन्होंने मुझे पत्र लिखा था कि चितरंजन आजकल एक महंत हरिदासजी के पीछे घूमते हैं। और यह भी कहते फिरते हैं कि भगवान जो काम परंपरा के बाहर रह कर कर रहे हैं, वही हरिदासजी परंपरा के भीतर रह कर कर रहे हैं।
मैं कह नहीं सकता कि चंद्रकांत की बात कितने दूर तक ठीक होगी, क्योंकि चंद्रकांत और चितरंजन में बड़ी गहरी दोस्ती है--मतलब बड़ी गहरी दुश्मनी है! पुराने दोस्त हैं, सो बड़ी स्पर्धा है। कहां तक सच है मुझे पता नहीं। मगर अगर ये वही गधे हैं, तो चितरंजन को मैं कहता हूं: संग-वंग घूमने की जरूरत नहीं है; सवारी करो! क्या संग-साथ! गधों का कोई संग-साथ करना पड़ता है! सवारी करो। और अगर परंपरा के भीतर गधा घूम रहा हो, तो बाहर ले चलो! अरे गधा ही तो है, हांक दो। अब मिल ही गया है संग-साथ, तो गधे को भी निकाल ही लो!
चितरंजन! मत चूको मौका।
कुछ लोग हैं, जो पिटने फिरते हैं, कुछ किया नहीं जा सकता। उनको खुजलाहट चढ़ती है।

आखिरी प्रश्न: भगवान,
अपने ही बस में नहीं मैं
दिल है कहीं तो हूं कहीं मैं
डर है सफर में कहीं खो न जाऊं मैं
रस्ता नया हां, हां, हां
आज फिर जीने की तमन्ना है
आज फिर मरने का इरादा है।

वीणा भारती! उतरने लगी शराब तेरे गले में। तभी तो--हां, हां, हां--आज फिर जीने की तमन्ना है, आज फिर मरने का इरादा है! ये दोनों बातें एक साथ ही आती हैं। क्योंकि जीना और मरना एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। जब जीने की तमन्ना आती है, तो मरने का इरादा भी आता है। जो जीना जानता है, वही मरना भी जानता है। जिसके जीने में आनंद होता है, उसकी मृत्यु में नृत्य होता है।
शुभ हो रहा है। अब पीछे लौटकर कर मत देखना।
जाम चलने लगे, दिल मचलने लगे
जाम चलने लगे...चलने लगे...चलने लगे...चलने लगे
दिल मचलने लगे...मचलने लगे...मचलने लगे
अंजुमन झूम उठी बज्म लहरा गई
जाम चलने लगे, दिल मचलने लगे
जाम चलने लगे, दिल मचलने लगे
बाद मुद्दत महफिल में वो क्या आ गए
जैसे गुलशन में बहार आ गई...
जिंदगी एक चमन है, चमन है मगर
इस चमन की बहार ओ खिजां
कुछ नहीं, कुछ नहीं, कुछ नहीं, कुछ नहीं
वो न आएं तो समझो खिजां के हैं दिन
अरे वो जो आ जाएं तो समझो बहार आ गई
रंग, खुशबू, सबा, चांद, तारे, किरन, फूल, शबनम, शफक
आबजू चांदी
उनकी दिलकश जवानी की तस्वीर में हुश्ने फितरत की हर चीज
काम आ गई
जाम चलने लगे, दिल मचलने लगे...
अंजुमन झूम उठी बज्म लहरा गई
अब लौट कर पीछे मत देखना। पीती चल। जीती चल। नाच। गा। गुनगुना खुद भी मस्त हो, औरों को भी मस्ती से भर।
अंजुमन को झुका देना है, लहरा देना है। इस पूरी पृथ्वी को मस्ती से भर देना है। वसंत आ सकता है, पुकार देने वाले चाहिए। मैं चाहता हूं, मेरे संन्यासी उस पुकार को देंगे, उस आह्वान को देंगे। इस पूरी पृथ्वी को मयखाना बना डालना है। उससे कम पर हमें राजी नहीं होना है।

आज इतना ही।
श्री रजनीश आश्रम, पूना, प्रातः, दिनांक ३१ जुलाई, १९८०


1 टिप्पणी: