जागो और जीओ—प्रवचन—121
सूत्र:
आसा यस्य न विज्जन्ति
अस्मिं लोके परम्हि च।
निरासयं
विसंयुत्तं तमहं ब्रूमि ब्राह्मणं ।।324।।
अस्सालया न विज्जन्ति
अज्जाय अकथंकथी।
अमतोगधं अनुप्पतं
तमहं ब्रूमि ब्राह्मणं ।।325।।
यो’ध पुज्जज्च
पापज्च उभो संगं उपच्चगा।
असोकं विरजं
सुद्धं तमहं ब्रूमि ब्रह्मणं ।।326।।
चन्दं‘व विमलं
सुद्धं विप्पसन्नमनाविलं।
नन्दीभवपरिक्खीणं
तमहं ब्रूमि ब्राह्माणं ।।327।।
हित्वा मानुसकं
योगं दिब्बं योगं उपच्चगा ।
सब्बयोगविसंयुत्तं
तमहं ब्रूमि ब्राह्मणं ।।328।।
पुब्बेनिवासं यो
वेदि सग्गापायज्च पस्सति ।
अथो जातिखयं पत्तो
अभिज्जवासितो मुनि
सब्बवोसितवोसानंतमहं
ब्रमि ब्राह्माणं ।।329।।
धम्मपद के अंतिम सूत्रों
का दिन आ गया।
लम्बी
थी यात्रा, पर बड़ी प्रीतिकर थी। मैं तो चाहता था—सदा चले। बुद्ध के साथ उठना, बुद्ध के साथ बैठना; बुद्ध की हवा में डोलना, बुद्ध की किरणों को पकड़ना, फिर से जीना उस शाश्वत
पुराण को; बुद्ध और बुद्ध के शिष्यों के बीच जो अपूर्व
घटनाएं घटीं, उन्हें फिर से समझना—बूझना—गुनना; उन्हें फिर हृदय में बिठालना—यात्रा अदभुत थी।
पर
यात्रा कितनी ही अदभुत हो,
जिसकी शुरुआत है, उसका अंत है। हम कितना ही
चाहें, तो भी यहां कुछ शाश्वत नहीं हो सकता। यहां बुद्ध भी
अवतरित होते हैं और विलीन हो जाते हैं। औरों की तो बात ही क्या! यहां सत्य भी आता
है, तो ठहर नहीं पाता। क्षणभर को कौंध होती है, खो जाता है। यहां रोशनी नहीं उतरती, ऐसा नहीं। उतरती
है। उतर भी नहीं पाती कि जाने का क्षण आ जाता है।
बुद्ध
ने ठीक ही कहा है—यहां सभी कुछ क्षणभंगुर है। बेशर्त, सभी कुछ
क्षणभंगुर है। और जो इस क्षणभंगुरता को जान लेता है, उसका
यहां आना बंद हो जाता है। हम तभी तक यहां टटोलते हैं, जब तक
हमें यह भांति होती है कि शायद क्षणभंगुर में शाश्वत मिल जाए! शायद सुख में आनंद
मिल जाए। शायद प्रेम में प्रार्थना मिल जाए। शायद देह में आत्मा मिल जाए। शायद
पदार्थ में परमात्मा मिल जाए। शायद समय में हम उसे खोज लें, जो
समय के पार है।
पर
जो नहीं होना,
वह नहीं होना। जो नहीं होता, वह नहीं हो सकता
है।
यहां
सत्य भी आता है,
तो बस झलक दे पाता है। इस जगत का स्वभाव ही क्षणभंगुरता है। यहां
शाश्वत भी पैर जमाकर खड़ा नहीं हो सकता! यह धारा बहती ही रहती है। यहां शुरुआत है;
मध्य है; और अंत है। और देर नहीं लगती। और
जितनी जीवंत बात हो, उतने जल्दी समाप्त हो जाती है। पत्थर तो
देर तक पड़ा रहता है। फूल सुबह खिले, सांझ मुरझा जाते हैं।
यही
कारण है कि बुद्धों के होने का हमें भरोसा नहीं आता। क्षणभर को रोशनी उतरती है, फिर खो
जाती है। देर तक अंधेरा—और कभी—कभी रोशनी प्रगट होती है। सदियां बीत जाती हैं,
तब रोशनी प्रगट होती है। पुरानी याददाश्तें भूल जाती हैं, तब रोशनी प्रगट होती है। फिर हम भरोसा नहीं कर पाते।
यहां
तो हमें उस पर ही भरोसा ठीक से नहीं बैठता, जो रोज—रोज होता है। यहां चीजें
इतनी स्वप्नवत हैं! भरोसा हो तो कैसे हो। और जो कभी—कभी होता है सदियों में,
जो विरल है, उस पर तो कैसे भरोसा हो! हमारे तो
अनुभव में पहले कभी नहीं हुआ था, और हमारे अनुभव में शायद
फिर कभी नहीं होगा।
इसलिए
बुद्धों पर हमें गहरे में संदेह बना रहता है। ऐसे व्यक्ति हुए! ऐसे व्यक्ति हो
सकते हैं? और जब तक ऐसी आस्था प्रगाढ़ न हो कि ऐसे व्यक्ति हुए हैं, अब भी हो सकते हैं, आगे भी होते रहेंगे—तब तक
तुम्हारे भीतर बुद्धत्व का जन्म नहीं हो सकेगा। क्योंकि अगर यह भीतर संदेह हो कि
बुद्ध होते ही नहीं, तो तुम कैसे बुद्धत्व की यात्रा करोगे?
जो होता ही नहीं, उस तरफ कोई भी नहीं जाता।
जो
होता है—सुनिश्चित होता है—ऐसी जब प्रगाढ़ता से तुम्हारे प्राणों में बात बैठ जाएगी, तभी तुम
कदम उठा सकोगे अज्ञात की ओर।
इसलिए
बुद्ध की चर्चा की। इसलिए और बुद्धों की भी तुमसे चर्चा की है। सिर्फ यह भरोसा
दिलाने के लिए;
तुम्हारे भीतर यह आस्था उमग आए कि नहीं, तुम
किसी व्यर्थ खोज में नहीं लग गए हो, परमात्मा है। तुम अंधेरे
में नहीं चल रहे हो, यह रास्ता खूब चला हुआ है। और भी लोग
तुमसे पहले इस पर चले हैं। और ऐसा पहले ही होता था—ऐसा नहीं। फिर हो सकता है।
क्योंकि तुम्हारे भीतर वह सब मौजूद है, जो बुद्ध के भीतर
मौजूद था। जरा बुद्ध पर भरोसा आने की जरूरत है।
और
जब मैं कहता हूं. बुद्ध पर भरोसा आने की जरूरत, तो मेरा अर्थ गौतम बुद्ध से नहीं
है। और भी बुद्ध हुए हैं। क्राइस्ट और कृष्ण, और मोहम्मद और
महावीर, और लाओत्सु और जरथुस्त्र। जो जागा, वही बुद्ध। बुद्ध जागरण की अवस्था का नाम है। गौतम बुद्ध एक नाम है। ऐसे
और अनेकों नाम हैं।
गौतम
बुद्ध के साथ इन अनेक महीनों तक हमने सत्संग किया।
धम्मपद
के तो अंतिम सूत्र का दिन आ गया, लेकिन इस सत्संग को भूल मत जाना। इसे सम्हालकर
रखना। यह परम संपदा है। इसी संपदा में तुम्हारा सौभाग्य छिपा है। इसी संपदा में
तुम्हारा भविष्य है।
फिर—फिर
इन गाथाओं को सोचना। फिर—फिर इन गाथाओं को गुनगुनाना। फिर—फिर इन अपूर्व दृश्यों
को स्मरण में लाना। ताकि बार—बार के आघात से तुम्हारे भीतर सुनिश्चित रेखाएं हो
जाएं। पत्थर पर भी रस्सी आती—जाती रहती है, तो निशान पड जाते हैं।
इसलिए
इस देश ने एक अनूठी बात खोजी थी, जो दुनिया में कहीं भी नहीं है। वह थी—पाठ।
पढना तो एक बात है। पाठ बिलकुल ही दूसरी बात है। पढ़ने का तो अर्थ होता है एक किताब
पढ़ ली, खतम हो गयी। बात समाप्त हो गयी। पाठ का अर्थ होता है
जो पढ़ा, उसे फिर पढा, फिर—फिर पढ़ा।
क्योंकि कुछ ऐसी बातें हैं इस जगत में, जो एक ही बार पढ़ने से
किसकी समझ में आ सकती हैं! कुछ ऐसी बातें हैं इस जगत में, जिनमें
गहराइयों पर गहराइयां हैं। जिनको तुम जितना खोदोगे, उतने ही
अमृत की संभावना बढ़ती जाएगी। उन्हीं को हम शास्त्र कहते हैं।
किताब
और शास्त्र में यही फर्क है। किताब वह, जिसमें एक ही पर्त होती है। एक बार
पढ़ ली और खतम हो गयी। एक उपन्यास पढ़ा और व्यर्थ हो गया। एक फिल्म देखी और बात खतम
हो गयी। दुबारा कौन उस फिल्म को देखना चाहेगा! देखने को कुछ बचा ही नहीं। सतह थी,
चुक गयी।
शास्त्र
हम कहते हैं ऐसी किताब को,
जिसे जितनी बार देखा, उतनी बार नए अर्थ पैदा
हुए। जितनी बार झांका, उतनी बार कुछ नया हाथ लगा। जितनी बार
भीतर गए, कुछ लेकर लौटे। बार—बार गए और बार—बार ज्यादा मिला।
क्यों ग्र क्योंकि तुम्हारा अनुभव बढ़ता गया। तुम्हारे मनन की क्षमता बढ़ती गयी।
तुम्हारे ध्यान की क्षमता बढ़ती गयी।
बुद्धों
के वचन ऐसे वचन हैं कि तुम जन्मों —जन्मों तक खोदते रहोगे, तो भी तुम
आखिरी स्थान पर नहीं पहुंच पाओगे। आएगा ही नहीं। गहराई के बाद और गहराई। गहराई
बढ़ती चली जाती है।
पाठ
तो तभी समाप्त होता है,
जब तुम भी शास्त्र हो जाते हो, उसके पहले
समाप्त नहीं होता। पाठ तो तब समाप्त होता है, जब शास्त्र की
गहराई तुम्हारी अपनी गहराई हो जाती है।
ऐसी
ये अपूर्व गाथाएं थीं। अंतिम गाथाओं के पहले इस दृश्य को समझ लें।
पहला
दृश्य:
रेवत स्थविर आयुष्मान
सारिपुत्र के छोटे भाई थे सारिपुत्र बुद्ध के अग्रणी शिष्यों में एक हैं। रेवत
उनके छोटे भाई थे। वे विवाह के बंधन में बंधते—बंधते ही छूट भागे थे। बीच बारात से
भाग गए थे! बारात पहुंची ही जा रही थी मंडप के पास जहां पुजारी तैयार थे। स्वागत
का आयोजन था बैड— बाजे बज रहे थे। ऐसे घोड़े से बीच में उतरकर रेवत भाग गए थे।
फिर
जंगल में जाकर बुद्ध के भिक्षु मिल गए तो उनसे उन्होंने प्रव्रज्या ग्रहण कर ली।
और खदिरवन में एकांत ध्यान और मौन के लिए चले गए थे। वहां उन्होंने सात वर्ष
समग्रता से साधना की और अर्हत्व को उपलब्ध हुए।
उन्होंने
अभी तक भगवान का दर्शन नहीं किया था। पहले सोचा रेवत ने कि योग्य तो हो लूं तब उन
भगवान के दर्शन को जाऊं। पहले कुछ पात्रता तो हो मेरी। पहले आंख तो खोल लूं जो देख
सके उन्हें। पहले हृदय तो निखार लूं जो झेल सके उन्हें। पहले भूमि तो तैयार कर लूं
ताकि वे भगवान अपने बीज फेंके तो बीज यूं ही न चले जाएं; उनका श्रम
सार्थक हो। पहले इस योग्य हो जाऊं तब उनके दर्शन को जाऊं
तो
रेवत सात वर्षों तक भगवान के दर्शन को नहीं गया। फिर सात वर्षों की समग्र साधना
ध्यान में सारी शक्ति को लगा देना; रेवत अर्हत्व को उपलब्ध हो गया।
पहले इसलिए नहीं गया देखने भगवान को कि कैसे जाऊं। और जब अर्हत्व को उपलब्ध हो गया
तो जाने की कोई बात ही न रही। तो भगवान को जान ही लिया।
बिना
देखे जान लिया। क्योंकि भगवत्ता भीतर ही उमग आयी।
सो
रेवत बड़ी मुश्किल में पड़ गया। पहले गया नहीं। तब सोच— सोच रोने लगा कि पहले गया
नहीं सोचता था कि पात्र हो जाऊं और अब जाऊं क्या! अब जिसे देखने चला था उसके दर्शन
तो भीतर ही हो गए। जिस गुरु को बाहर खोजने चला था वह गुरु भीतर मिल गया सो रेवत
मग्न होकर अपने जंगल में ही रहा।
उसके
अर्हत्व को घटा देख भगवान स्वयं सारिपुत्र आदि स्थविरों के साथ वहां पहुंचे। वह
जंगल बहुत भयंकर था रास्ते ऊबड़— खाबड़ और कंटकाकीर्ण थे। जंगली पशुओं की छाती को
कंपा देने वाली दहाड़े भरी दोपहर में भी सुनायी पड़ती थीं। लेकिन भिक्षुओं को इसकी
कोई खबर नहीं मिली;
कुछ पता नहीं चला। न तो रास्तों का ऊबड़—खाबड़ होना पता चला; न जंगली जानवरों की दहाड़े सुनायी पड़ी। न कांटों से भरा हुआ जंगल दिखायी
पड़ा। उन्हें तो सब तरफ फूल ही फूल खिले दिखायी पड़ते थे। उन्हें तो सब तरफ जंगल की
परम शांति ध्वनित होती मालूम पड़ रही थी।
रेवत
ने ध्यान में भगवान को आते देख उनके लिए सुंदर आसन बनाया। कुछ जंगल में विशेष
चीजें तो उसके पास नहीं थीं। भिक्षु था। जो भी मिल सका— पत्थर ईटं— जो भी मिल सके
उसी को लगाकर आसन बनाया। घास— पात जो मिल सका वह बिछा दिया। फूल बिखेर दिए। ध्यान
में भगवान को आता देख...।
भगवान
खदिरवन में एक माह रहे। फिर वे रेवत को भी साथ लेकर वापस लौटे। आते समय दो
भिक्षुओं के उपाहन तेल की फोंफी और जलपात्र पीछे छूट गए। सो वे मार्ग से लौटकर जब
उन्हें लेने गए तो जो उन्होंने देखा उस पर उन्हें भरोसा नहीं आया। किसी को भी न
आता।
रास्ते
बड़े ऊबड़— खाबड़ थे। जंगली पशु दहाड़ रहे थे फूल तो सब खो गए थे। सारा जंगल कांटों से
भरा था। इतना ही नहीं रेवत का जो निवास स्थान घड़ी दो घड़ी पहले इतना रम्य था कि
स्वर्ग को झेंपाए वह कांटों ही कांटों से भरा था। और जिस परम सुंदर आसन पर रेवत ने
बुद्ध को बिठाया था,
उस पर कोई भिखारी भी बैठने को राजी न हो। ऐसा कुरूप था। इतना ही
नहीं घडीभर पहले जो भवन अपूर्व जीवंतता से नाच रहा था वह बिलकुल खंडहर था। वह भवन
था ही नहीं। कह किसी.. न मालूम सदियों पहले कोई रहा होगा उसके महल का खंडहर था।
वे
तो भरोसा न कर सके। देखकर वहां ऐसा लगा कि जैसे हमने कोई सपना देखा था।
श्रावस्ती
लौटने पर महोपासिका विशाखा ने उनसे पूछा—उन दो भिक्षुओ से—आर्य रेवत का निवास
स्थान कैसा था? मत पूछो, उपासिके! वे भिक्षु बोले मत पूछो। ऐसी खतरनाक
जगह हमने कभी देखी नहीं। खंडहर था खंडहर! निवास स्थान कहो मत। सब कांटों से भरा
था। जंगल और भी बहुत देखे हैं मगर ऐसा भयानक जंगल नहीं। आदमी दिन में खो जाए तो
राह न मिले। भरी दुपहरी में ऐसा घना जंगल कि सूरज की किरणें न पार कर सकें वृक्षों
को। और भयंकर जानवरों से भरा हुआ! बचकर आ गए यही कहो उपासिके। पूछो मत। वह बात याद
दिलाओ मत। और यह रेवत कैसे उस जगह में रहता था! कांटों ही कांटों से भरा था वह
खंडहर। इतना ही नहीं सांप— बिच्छुओं से भी भरा था।
फिर
विशाखा ने और भिक्षुओं से भी पूछा। उन्होंने कहा आर्य रेवत का स्थान स्वर्ग जैसा
सुंदर है मानो ऋद्धि से बनाया गया हो। चमत्कार है महल सुंदर हमने बहुत देखे हैं
मगर रेवत जिस महल में रह रहा शु ऐसा महल स्वर्ग के देवताओं को भी उपलब्ध नहीं
होगा। इतनी शांति! इतनी प्रगाढ़ शांति! ऐसा सन्नाटा! ऐसा अपूर्व संगीतमय वातावरण—
नहीं इस पृथ्वी पर दूसरा नहीं है।
इन
विपरीत मंतव्यों से विशाखा स्वभावत: चकित हुई। फिर उसने भगवान से पूछा. भंते! आर्य
रेवत के निवास स्थान के संबंध में पूछने पर आपके साथ गए हुए भिक्षुओं में कोई उसे
नर्क जैसा और कोई उसे स्वर्ग जैसा बताते हैं। असली बात क्या है?
भगवान
हंसे और बोले उपासिके! जब तक वहां रेवत का वास था वह स्वर्ग जैसा था। जहां रेवत
जैसे ब्राह्मण विहरते हैं वह स्वर्ग हो ही जाता है। लेकिन उनके हटते ही वह नर्क
जैसा हो गया। जैसे दीया हटा लिया जाए और अंधेरा हो जाए ऐसे ही। मेरा पुत्र रेवत
अर्हत हो गया है;
ब्राह्मण हो गया है। उसने ब्रह्म को जान लिया है।
तब
उन्होंने ये गाथाएं कही थीं:
आसा यस्य न विज्जन्ति
अस्मिं लोके परम्हि च।
निरासयं
विसंयुत्तं तमहं ब्रूमि ब्राह्मणं ।।
'इस लोक और परलोक के विषय में जिसकी आशाएं नहीं रह गयी हैं, जो निराशय और असंग है, उसे मैं ब्राह्मण कहता हूं।’
अस्सालया न विज्जन्ति
अज्जाय अकथंकथी।
अमतोगधं अनुप्पतं
तमहं ब्रूमि ब्राह्मणं ।।
'जिसे आलय—तृष्णा—नहीं है, जो जानकर वीतसंदेह हो गया
है, और जिसने डूबकर अमृत पद निर्वाण को पा लिया है, उसे मैं ब्राह्मण कहता हूं।’
यो’ध पुज्जज्च
पापज्च उभो संगं उपच्चगा।
असोकं विरजं
सुद्धं तमहं ब्रूमि ब्रह्मणं ।।
'जिसने यहां पुण्य और पाप दोनों
की आसक्ति को छोड़ दिया है, जो विगतशोक, निर्मल और शुद्ध है, उसे मैं ब्राह्मण कहता हूं।’
सूत्रों
के पूर्व दृश्य को खूब मनन करो। दृश्य पर ध्यान करो।
रेवत
स्थविर सारिपुत्र का छोटा भाई था। बारात जाती थी। घोड़े पर बैठा होगा। लेकिन बीच से
भाग गया। क्या हो गया?
दुनिया
में तीन तरह के लोग हैं। पहले, जिन्हें हम मूढ़ कहें, बुद्धिहीन
कहें। वे अनुभव से भी नहीं सीखते हैं। बार—बार अनुभव हो, तब
भी नहीं सीखते हैं। वे पुन: —पुन: वही भूल करते हैं। वे भूलें भी नयी नहीं करते
हैं! वे भूलें भी पुरानी ही दोहराते हैं। उनके जीवन में नया कुछ होता ही नहीं।
उनका जीवन कोल्हू के बैल जैसा होता है। बस, उसी में डोलता
रहता है। वही चक्कर काटता रहता है। गाड़ी के चाक जैसा घूमता रहता है।
एक
आदमी अपनी पत्नी से बहुत पीड़ित था। और कई बार अपने मित्रों से कह चुका था कि अगर
यह मेरी स्त्री मर जाए,
तो मैं दुबारा सपने में भी विवाह की न सोचूंगा। फिर स्त्री मर गयी,
संयोग की बात। और पाच—सात दिन बाद ही वह आदमी नयी स्त्री की तलाश
करने लगा। तो उसके मित्रों ने पूछा. अरे! अभी पांच—सात दिन ही बीते। और तुम तो
कहते थे, सपने में न सोचूंगा। उन्होंने कहा. छोड़ो भी। जाने
भी दो। उस समय की बात उस समय की थी। सब बदल गया अब। सभी स्त्रियां एक जैसी थोड़े ही
होती हैं। उसने दुख दिया, तो सभी दुख देंगी, ऐसा थोड़े ही है।
उसने
फिर विवाह कर लिया और फिर दुख पाया। तब वह अपने मित्रों से बोला कि तुम ठीक ही
कहते थे। अब यह भी अनुभव हो गया कि सभी स्त्रियां एक जैसी हैं। कुछ भेद नहीं
पड़ता। सब संबंधों में दुख है। और यह विवाह का संबंध तो महादु:ख है। अब कभी नहीं।
अगर भगवान एक अवसर और दे,
तो अब कभी न करूंगा विवाह।
पुरानी
कहानी है, भगवान ने सुन लिया होगा। एक अवसर और दिया! पत्नी फिर मर गयी। साधारणत:
पहली पत्नी नहीं मरती! अक्सर तो ऐसा होता है कि पत्नी पति को मारकर ही मरती है।
तुमने
देखा, विधवाएं दिखायी पड़ती हैं। स्त्रियों की शारीरिक उम्र पुरुषों से ज्यादा है;
पांच साल ज्यादा है, औसत। अगर आदमी सत्तर साल
जीएगा, तो स्त्री पचहत्तर साल जीएगा। और एक मूढ़ता के कारण कि
जब हम विवाह करते हैं, तो हम पुरुष की उम्र तीन—चार—पांच साल
ज्यादा..। लड़का होना चाहिए इक्कीस का और लड़की होनी चाहिए सोलह की या अठारह की। तो
पांच साल का तो स्वाभाविक भेद है, पांच साल का भेद हम खड़ा कर
देते हैं। तो पुरुष दस साल पीछे पिछड़ जाता है। तो अगर पुरुष मरेगा, तो उसके दस साल बाद तक उसकी पत्नी के जिंदा रहने की संभावना है।
तो
पहली पत्नी ही नहीं मरती! पहली भी मरी। दूसरी मरी। यह कथा सतयुग की होगी। कलयुग
में ये बातें कहां! दूसरी स्त्री के मरने के पांच—सात दिन बाद ही वह आदमी फिर
स्त्री तलाश करने लगा। मित्रों ने कहा : अरे भई! अब तो सम्हलो। वह आदमी मुस्कुराया
और उसने कहा : सुनो। अब मुझे एक बात समझ में आ गयी मन में कि आशा की हमेशा अनुभव
पर विजय होती है। अब मुझे फिर आशा बंध रही है कि कौन जाने, तीसरी
स्त्री भिन्न हो,! अरे! किसने जाना!
आशा
पर अनुभव नहीं जीत पाता;
अनुभव पर आशा जीत जाती है—यह क् का लक्षण है।
दूसरे
वे लोग हैं, जिन्हें हम बुद्धिमान कहें। वे अनुभव से सीखते हैं। अनुभव के बिना नहीं
सीखते। बुद्धिमान को पुनरुक्ति नहीं करनी पड़ती। एक ही अनुभव काफी होता है। मगर एक
अनुभव जरूरी होता है। बिना अनुभव के नहीं बुद्धिमान सीख सकता। मगर एक काफी है। एक
बार चख लिया समुद्र के पानी को, तो सारे समुद्रों का पानी चख
लिया। बात समाप्त हो गयी। उस स्वाद ने निर्णय दे दिया। अब दुबारा यही भूल नहीं
करेगा।
मूढ़
बंधी—बंधायी भूलें करता है। कुछ सीखता ही नहीं। इसका मतलब हुआ—वही—वही भूलें करने
का मतलब हुआ—कि कुछ सीखता नहीं कि भूलों को बदल ले। नयी भूलें करे। पुरानी छोड़े।
कुछ नए उपाय करे।
बुद्धिमान
एक भूल को एक बार करता है। ऐसा नहीं कि बुद्धिमान भूलें नहीं करता। मगर जब करता है, तो नयी
भूलें करता है। इसलिए बुद्धिमान विकासमान होता है। वह आगे बढ़ता है। हर अनुभव उसे
नया ज्ञान दे जाता है।
तीसरे
व्यक्ति होते हैं,
जिनको प्रज्ञावान कहा जाता है। वे बुद्धिमान से आगे होते हैं। वे
अनुभव में नहीं गुजरते। वे अनुभव को बाहर से ही देखकर जाग जाते हैं। वे दूसरों का
अनुभव देखकर भी जाग जाते हैं। उन्हें स्वयं ही अनुभव में जाने की जरूरत नहीं होती।
पहला
आदमी ऐसा कि जब गिरेगा आग में, तो एक बार गिरेगा, दो बार
गिरेगा। रोज जलेगा; फिर—फिर गिरेगा। दूसरा आदमी ऐसा कि एक
बार जल जाएगा, तो सम्हल जाएगा। और तीसरा आदमी ऐसा कि दूसरों
को गिरते देखकर, जलते देखकर ही सम्हल जाएगा। उसको प्रज्ञावान
कहा है।
रेवत
प्रज्ञावान था। उसने देखे होंगे चारों तरफ विवाहित और दुखी लोग। विवाहित और दुखी
करीब—करीब पर्यायवाची शब्द हैं। विवाहित—और तुमने सुखी देखा! इस बात को बचाने के
लिए कहानियां विवाह के बाद खतम हो जाती हैं। फिर आगे नहीं जातीं, क्योंकि
आगे जाना खतरनाक है।
फिल्में
भी—बैड—बाजा बज रहा है,
शहनाई बज रही है—और खतम हो जाती हैं। विवाह हुआ; खतम हुईं। कहानियां पुरानी कहती हैं कि उन दोनों का विवाह हो गया, फिर वे दोनों सुख से रहने लगे। यहीं जाकर खतम हो जाती हैं। फिर आगे की बात
उठाना खतरे से खाली नहीं है।
विवाह
के बाद कौन कब सुख से रहा?
विवाह के पहले लोग भला सुख से रहे हों। एक आदमी ही जब दुखी था,
तो दो होकर दुगना दुख हो जाएगा, हजार गुना हो
जाएगा। दो दुखी मिलेंगे, तो सुख पैदा हो कैसे सकता है न: दो
जहरों के मिलने से कहीं अमृत बनता है?
और
ध्यान रखना, कसूर न स्त्री का है, न पुरुष का। कसूर यही है कि
हमारी मौलिक भ्रांति है कि मैं दुखी हूं; कोई स्त्री भी दुखी
है; हम दोनों मिल बैठेंगे, साथ—साथ हो
जाएंगे, तो दोनों सुखी हो जाएंगे। हम एक असंभव बात की कल्पना
कर रहे हैं। मैं दुखी हूं; स्त्री दुखी है। अकेली वह भी दुखी
है, अकेला मैं भी दुखी हूं। ये दो दुखी आदमी एक—दूसरे से
मिलकर दुख को अनंत गुना कर लेंगे। यह जोड़ ही नहीं होगा; गुणनफल
होगा। और तब तड़फेंगे, तब परेशान होंगे।
रेवत
ने देखा होगा चारों तरफ। रेवत ने देखे होंगे अपने मां—बाप। रेवत ने देखे होंगे
अपने पड़ोसी, अपने बुजुर्ग, अपने परिवार के लोग। और फिर रेवत ने
यह भी देखा होगा, सारिपुत्र का सब छोड़कर संन्यस्त हो
जाना—बड़े भाई का। फिर उसने यह भी देखा होगा कि सारिपुत्र की आंखों में एक और ही
आभा आ गयी। फिर उसने यह भी देखा होगा कि सारिपुत्र पहली दफा आनंदित हुए। ऐसा
आनंदित आदमी उसने नहीं देखा था।
ये
सब बातें वह चुपचाप देखता रहा होगा। ये सारी बातें इकट्ठी होकर उसके भीतर घनी होती
रही होंगी। फिर घोड़े पर सवार करके जब लोग उसे आग की तरफ ले चलने लगे, और जब
बैंड—बाजे जोर से बजने लगे, तब उसके भीतर निर्णय की घड़ी आ
गयी होगी। उसने सोचा होगा. अब सोच लूं या फिर सोचने का आगे कोई उपाय न रहेगा। कुछ
करना हो तो कर लूं? अन्यथा घडीभर बाद फिर करना झंझट से भर
जाएगा।
उसने
देखा होगा कि सारिपुत्र घर छोड़कर गए, तो उनकी पत्नी कितनी दुखी है।
सारिपुत्र परम सुख को उपलब्ध हो गए हैं, लेकिन पत्नी बहुत
दुखी है। पति जिंदा है और पत्नी विधवा हो गयी है जीते जी पति के, दुखी न होगी, तो क्या होगा!
सारिपुत्र
घर छोड़कर चले गए,
उनके बेटे दीन—हीन और अनाथ हो गए हैं। सारिपुत्र तो परम अवस्था को
उपलब्ध हो गए, लेकिन थोड़ी खटक तो है इसमें कि ये बच्चे अनाथ
हो गए; यह पत्नी दुखी है। के मां—बाप चिंतित हैं, परेशान हैं। उनको यह बोझ ढोना पड़ रहा है सारिपुत्र की पत्नी और बच्चों का।
ये
सब बातें सघन होती रही होंगी। उस घड़ी में इन सारी बातों का जोड़ हो गया। उसने सोचा
होगा : अब एक क्षण और रुक जाऊं कि मैं भी उसी जाल में पड़ जाऊंगा। और मैं भी वही
करूंगा, जो सारिपुत्र ने किया। बेहतर है, मैं भाग जाऊं। कोई
बहाना करके उतर गए होंगे—कि जरा घोड़े से उतर जाऊं। और भागे, सो
भागे। फिर घोड़े पर वापस नहीं लौटे।
शायद
दूल्हे को घोड़े पर बिठाकर इसीलिए ले जाते होंगे, जिसमें भाग न सके। छुरी
इत्यादि लटका देते हैं। यह उसको समझाने को कि तू बड़ा बहादुर है। भगोड़ा थोड़े ही है।
देख, घोड़े पर बैठा है! राजा—महाराजा है! और देख, इतनी बारात चल रही है, इतना बैंड—बाजा बज रहा है!
उसको सब तरह का भ्रम देते हैं।
जैसे
डाक्टर जब किसी का आपरेशन करता है, तो पहले बेहोश करने के लिए
क्लोरोफार्म देता है। ये सब क्लोरोफार्म हैं! एक दिन के लिए उसको राजा बना देते
हैं—दूल्हा राजा! और एक दिन की अकड़ में वह भूला रहता है और मस्त रहता है। उसे पता
नहीं है, इस मस्ती का परिणाम क्या है!
मगर
यह रेवत बड़ा होशियार आदमी रहा होगा, प्रज्ञावान रहा होगा। यह उतरा और
चुपचाप भाग गया। इसने फिर पीछे लौटकर नहीं देखा। जंगल चला गया। भिक्षु मिल गए
मार्ग पर, उन्हीं से दीक्षा ले ली।
अब
बहुत ऐसे लोग हैं जो बुद्ध के पास पहुंचकर भी अर्हत न हो सके। और यह आदमी बुद्ध के
सामान्य भिक्षुओं से,
अज्ञातनाम भिक्षुओं से, जिनके नाम का भी पता
नहीं है, कि किनसे उसने दीक्षा ली थी, कोई
प्रसिद्ध भिक्षु न रहे होंगे, उनसे दीक्षा लेकर अर्हत्व को
उपलब्ध हो गया!
तो
खयाल रखना असली सवाल तुम्हारी प्रगाढ़ता का है। तुम बुद्ध के पास होकर भी चूक सकते
हो, अगर प्रगाढ़ नहीं हो। अगर तुम्हारे भीतर त्वरा और तीव्रता नहीं है, अगर सारे जीवन को दाब पर लगा देने की हिम्मत नहीं है, तो बुद्ध के पास भी चूक जाओगे। और अगर सारे जीवन को दाव पर लगा देने की
हिम्मत है, तो किसी साधारणजन से दीक्षा लेकर भी पहुंच जाओगे।
एकांत
, मौन और ध्यान—इन तीन चीजों में रेवत संलग्न हो गया। अकेला रहने लगा,
चुप रहने लगा और अपने भीतर विचारों को विदा करने लगा। यही तीन सूत्र
हैं समाधि के।
एकांत
! ऐसे रहो, जैसे तुम अकेले हो। कहीं भी रहो—ऐसे रहो, जैसे तुम
अकेले हो। न कोई संगी है, न कोई साथी। भीड़ में भी रहो,
तो अकेले रहो। परिवार में भी रहो, तो अकेले
रहो। इस बात को जानते ही रहो भीतर, एक क्षण को यह सूत्र हाथ
से मत जाने देना। एक क्षण को भी यह भांति पैदा मत होने देना कि तुम अकेले नहीं हो,
कि कोई तुम्हारे साथ है। यहां न कोई साथ है; न
कोई साथ हो सकता है। यहां सब अकेले हैं। अकेलापन आत्यंतिक है। इसे बदला नहीं जा
सकता। थोडी—बहुत देर को भुलाया जा सकता है, बदला नहीं जा
सकता।
और
सब भुलावे एक तरह के मादक द्रव्य हैं। एक प्रकार के नशे हैं। कैसे तुम भुलाते हो, इससे फर्क
नहीं पड़ता। कोई शराब पीकर भुलाता है। कोई धन की दौड़ में पड़कर भुलाता है। कोई पद के
लिए दीवाना होकर भुलाता है। कैसे तुम भुलाते हो, इससे फर्क
नहीं पड़ता। लेकिन थोड़ी देर को भुला सकते हो। बस।
और
जब भी नशा उतरेगा,
अचानक पाओगे. अकेले हो।
संन्यासी
वही है, जो जानता है कि मैं अकेला हूं और भुलाता नहीं अपने अकेलेपन को। भुलाना तो
दूर, अपने अकेलेपन में रस लेता है। और प्रतीक्षा करता है कि
कब मौका मिल जाए कि थोड़ी देर अपने अकेलेपन का स्वाद लूं। थोड़ी देर आंख बंद करके
अपने में डूब जाऊं, अकेला रह जाऊं। वही मेरी नियति है। वही
मेरा स्वभाव है। उसी स्वभाव से मुझे पहचान बनानी है।
दूसरों
से पहचान बनाने से कुछ भी न होगा; अपने से पहचान बनानी है। दूसरों को जानने से
क्या होगा? अपने को ही न जाना और सबको जान लिया, इस जानने का कोई मूल्य नहीं है। मूल में तो अज्ञान रह गया।
तो
रेवत एकांत में बैठ गया। मौन रखने लगा।
बोलना बंद कर दिया।
बोलने
को है क्या? जब तक जान न लो, तब तक बोलने को है क्या? जब तक जान न लो, तब तक बोलना खतरनाक भी है, क्योंकि तुम जो भी बोलोगे, वह गलत होगा। तुम जो भी
लोगों से कहोगे, वह भटकाने वाला होगा। तुम भटके हो, और औरों को भटकाओगे!
बोलना
तो तभी सार्थक है,
जब कुछ जाना हो : जब कुछ अनुभव हुआ हो। जब कोई बात तुम्हारे भीतर
प्रखर होकर साफ हो गयी हो। जब तुम्हारे भीतर ज्योति जली हो और तुम्हारे पास अपनी
आंखें हों, तब बोलना। तब तक तो अच्छा है, चुप ही रहना। तुम अपना कूड़ा—करकट दूसरे पर मत फेंकना। तुम्हीं दबे हो,
औरों पर कृपा करो। मत किसी को दबाओ अपने कूड़े—करकट से।
लेकिन
लोग बड़े उत्सुक होते हैं! लोग अकेले—अकेले में घबडाने लगते हैं। राह खोजने लगते
हैं कि कोई मिल जाता। किसी से दो बात कर लेते। बात करने का मतलब कुछ कचरा वह हमारी
तरफ फेंकता, कुछ कचरा हम उसकी तरफ फेंकते। न हमें पता है, न उसे
पता है। इसको लोग बातचीत कहते हैं!
यह
बातचीत महंगी है। क्योंकि दूसरा भी अपने अज्ञान को छिपाता है और अपनी बातों को इस
तरह से कहता है,
जैसे जानता हो। तुम भी अपने अज्ञान को छिपाते हो और अपनी बातों को
इस तरह से कहते हो, जैसे तुमने जाना है। दोनों एक—दूसरे को
धोखा दे रहे हो। और अगर दूसरे नै मान लिया तुम्हारी बात को, तो
गड्डे में गिरेगा। तुम खुद गड्डे में गिरते रहे हो। तुम्हारी बात मानकर जो चलेगा,
वह गड्ढे में गिरेगा।
इसलिए
तो कोई किसी की सलाह नहीं मानता। तुमने देखा, दुनिया में सबसे ज्यादा चीज जो दी
जाती है, वह सलाह है। और सबसे कम जो चीज ली जाती है, वह भी सलाह है।
कोई
किसी की मानता नहीं। बाप की बेटा नहीं मानता। भाई की भाई नहीं मानता। मित्र की
मित्र नहीं मानता। अध्यापक की शिष्य नहीं मानता।
एक
लिहाज से अच्छा है कि लोग किसी की मानते नहीं। अरे, गिरना है तो कम से कम अपने
ही गड्डे में गिरो। दूसरे की सलाह लेकर दूसरे के गड्डे में क्यों गिरना! अपने
गड्डे में गिरोगे, तो शायद कुछ अनुभव भी होगा। अपनी तरफ से
गिरोगे, अपने हाथ से गिरोगे, तो शायद
निकलने की संभावना भी है। अवश, दूसरे की सलाह से गिरोगे,
तो निकलने की संभावना भी न रह जाएगी।
मैं
तुमसे कहना चाहता हूं : अपने ही पैर से चलकर जो नर्क तक पहुंचा है, वह वापस
भी लौट सकता है। जो दूसरों के कंधों पर चढ़कर पहुंच गया है, वह
गौडा है। वह वापस कैसे लौटेगा त्र: उसका लौटना बहुत असंभव हो जाएगा।
और
नर्क तक ले जाने वाले लोग तो तुम्हें बहुत मिल जाएंगे। एक ढूंढो, हजार मिल
जाएंगे। लेकिन नर्क से स्वर्ग तक लाने वाला तो बहुत मुश्किल है। नर्क में कहां
पाओगे ऐसा आदमी जो तुम्हें स्वर्ग तक ले जाए? यहां से नर्क
तक जाने के लिए तो सब गाडियां बिलकुल भरी हैं, लबालब भरी
हैं। लेकिन नर्क से इस तरफ आने वाली गाड़ियां चलती कहां हैं! उनको चलाने वाला नहीं
है कोई।
अच्छा
ही है कि कोई किसी की सलाह नहीं मानता।
रेवत
भाग गया। एकांत में बैठ गया। चुप हो गया।
बोलता ही न था।
और
जब तुम एकांत में रहोगे और चुप रहोगे, तो भीतर
विचार कब तक चलेंगे? कब तक चलेंगे? उनका
मौलिक आधार ही कट गया। जड ही कट गयी। तुमने पानी सींचना बंद कर दिया। वही—वही
विचार कुछ दिन तक गूंजेंगे—गूंजेंगे— गूंजेंगे; धीरे— धीरे
तुम भी ऊब जाओगे, वे भी ऊब जाएंगे।
रोज—रोज
नया कुछ होता रहे,
तो विचार में धारा बहती रहती है, प्राण पड़ते
रहते हैं। अब अकेले में बैठ गए, न बोलना है, न चालना है। कब तक सिर में वही विचार घूमते रहेंगे? धीरे—
धीरे मुर्दा हो जाएंगे। गिर जाएंगे। सूखे पत्तों की तरह झड़ जाएंगे। नए पत्ते तो अब
आते नहीं। पुराने पत्ते एक बार झड़ गए, तो मन निर्विचार हो
जाएगा। उस दशा का नाम ही ध्यान है।
वहां
उन्होंने सात वर्ष समग्रता से साधना की।
और
साधना हो ही तब सकती है,
जब कोई समग्रता से करे। कुछ भी बचाया, तो चूक
जाओगे। निन्यानबे डिग्री पर भी पानी भाप नहीं बनता। सौ डिग्री पर ही बनता है। और
जब तुम भी सौ डिग्री उबलोगे, तो ही रूपांतरित होओगे। एक
डिग्री भी बचाया, तो रूपांतरित नहीं हो पाओगे।
इसलिए
रूपांतरण के लिए समग्र रूप से दाब लगाने की क्षमता और साहस चाहिए। लोग दुकानदार
हैं। और परम सत्य को पाने के लिए जुआरी चाहिए, जो सब दाब पर लगा दे। दुकानदार
दो—दो पैसे का हिसाब लगाकर दाव पर लगाता है—कि कितना लाभ होगा? अगर लाभ नहीं होगा, तो हानि कितनी होगी? अभी इतना लगाऊं। पहले देखूं थोड़ा लगाकर। फिर लाभ हो, तो थोड़ा और ज्यादा लगाऊंगा। फिर लाभ हो, तो थोडा और
ज्यादा लगाऊंगा!
जुआरी
सब इकट्ठा लगा देता है। या इस पार या उस पार। और जिसने भी सब इकट्ठा लगा दिया
ध्यान में, वह उस पार ही होता है; इस पार का उपाय ही नहीं। उसके
सब लगाने में ही उस पार हो गया। वह सब लगाने की जो वृत्ति थी, उसी में उस पार हो गया। अब कोई और दूसरी बात नहीं बची।
सात
वर्ष की समग्र साधना;
रेवत अर्हत्व को उपलब्ध हो गया। उसने जान लिया अपने आत्यंतिक स्वरूप
को, अपने भीतर छिपी पड़ी भगवत्ता को। उसने अपने को पहचान
लिया। वह अपने आमने—सामने खडा हो गया। वह आह्लादित हो गया। आनंदित हो गया। वह
मुक्त हो गया।
उसने
अभी तक भगवान का दर्शन नहीं किया था। पहले सोचता था पात्र हो जाऊं, तब
करूंगा। और अब, अब यह बात ही व्यर्थ मालूम पड़ने लगी कि भगवान
की देह को देखने जाऊं। अब तो भगवान का अंतरतम देख लिया।
वही
तो बुद्ध ने कहा है जो धर्म को जानता है, वह मुझे जानता है। जिसने धर्म देखा,
उसने मुझे देखा। जो मुझे ही देखता रहा और मेरे भीतर के धर्म से
वंचित रहा, उसने मुझे देखा ही नहीं। वह तो अंधा था। क्योंकि
मैं देह नहीं हूं।
देह
के पार जब तुम देखने लगोगे,
तभी बुद्धों से संबंध होता है, संबंध जुड़ता
है। वह संग आत्मा का है, देह का नहीं।
तो
पहले तो सोचा था—ठीक ही सोचा था, रेवत बड़ा प्रज्ञावान है—ठीक ही सोचा कि पहले
पात्र तो हो जाऊं। उन भगवान की आंख मेरे ऊपर पड़े, इस योग्य
तो हो जाऊं। उनके चरण छुऊं, इस योग्य हाथ तो हो जाएं। कुछ हो
तो मेरे पास चढ़ाने को। ऐसे खाली—खाली क्या जाना! कुछ लेकर जाऊं, कुछ ध्यान की संपदा लेकर जाऊं। कुछ उनके पैरों में रखने की मेरे पास
सुविधा हो। कुछ कमाकर जाऊं।
ठीक
सोचा था। काश! ऐसे लोग अधिक हों दुनिया में, तो दुनिया का रूप बदले। अक्सर तो
ऐसा होता है कि अपात्र भी बुद्धों के पास पहुंच जाते हैं और पहुंच कर ही सोचते हैं
कि सब हो गया। फिर वे बुद्धों को ही दोष देने लगते हैं कि आपके पास आए इतने दिन हो
गए, अभी तक कुछ हुआ क्यों नहीं? फिर वे
बुद्धों पर शक करने लगते हैं कि जब इतने दिन हो गए और कुछ नहीं हुआ, तो मालूम होता है ये बुद्ध सच्चे नहीं हैं। जैसे बुद्धों के ऊपर ही सब है!
कुछ
तुम भी करोगे?
तुम्हारे भीतर घटनी है बात, और तुम्हारे भीतर
कुछ भी नहीं है।
जीसस
का प्रसिद्ध वचन है जिसके पास है, उसे और दिया जाएगा। और जिसके पास नहीं है,
उससे वह भी छीन लिया जाएगा, जो उसके पास है।
अनूठा
वचन है जिसके पास है,
उसे और भी दिया जाएगा।
तो
रेवत ने सोचा. कुछ लेकर जाऊं। कुछ हो मेरे पास, तब जाऊं। बड़ी ठीक बात थी। लेकिन
फिर अड़चन में पड़ा। जब घटना घट गयी, तो चौंका। तो उसने सोचा
अब जाकर क्या करूंगा! अब तो उन भगवान को मैं यहीं से देख रहा हूं। अब तो समय का और
स्थान का फासला गिर गया। अब तो मैंने जान लिया कि न मैं देह हूं न वे देह हैं। अब
तो मैं वहां पहुंच गया, जहां वे हैं। अब कहां जाना! अब कैसा
आना—जाना?
तो
फिर वह कहीं नहीं गया। बैठा रहा। और तब यह अपूर्व घटना घटी।
उसके
अर्हत्व को घटा देख भगवान स्वयं सारिपुत्र आदि स्थविरों के साथ वहां गए।
यही
है सत्य। जिस दिन तुम तैयार होओगे, भगवान स्वयं तुम्हारे पास आता है।
तुम्हारे जाने की कहीं कोई जरूरत नहीं है। जिस दिन तुम्हारी तैयारी पूरी है,
उस दिन परमात्मा उतरता है। यह अर्थ है इस कहानी का।
तुम्हें
कहीं जाने की जरूरत नहीं है। न मक्का, न काबा; न
काशी, न कैलाश। तुम्हें कहीं जाने की जरूरत नहीं है। न
जेरूसलम, न गिरनार। तुम्हें कहीं जाने की जरूरत नहीं है।
फिर
तुम जाओगे भी कहां! कहां खोजोगे उसे? जब यहां नहीं दिखायी पड़ता, तो कैलाश पर कैसे दिखायी पड़ेगा? अंधा आदमी यहां अंधा
है; कैलाश पर भी अंधा होगा। जब यहां नहीं मिलता, तो काशी में कैसे मिलेगा? मिलना तो तुम्हें है। नजर
तुम्हारी निखरी होनी चाहिए। आंखें तुम्हारी खुली होनी चाहिए। हृदय तुम्हारा
प्रफुल्लित होना चाहिए, फूल की तरह खिला हुआ। यहां नहीं खिल
रहा है, काबा में कैसे खिलेगा?
तुम
समझते हो, जो काबा में रहते हैं, वे परमात्मा को उपलब्ध हो गए
हैं! तुम सोचते हो, काशी में रहने वाले परमात्मा को उपलब्ध
हो गए हैं?
जो
यहां घट सकता है,
वही कहीं और भी घटेगा। और जो कहीं और घट सकता है, वह यहां भी घट सकता है। असली सवाल तुम्हारे भीतर का है।
बड़ी
प्राचीन कहावत है कि जब शिष्य तैयार हो, तो गुरु उपस्थित हो जाता है। जब
तुम तैयार हो, तो परमात्मा चुपचाप कब चला आता है, तुम्हें पता भी नहीं चलता।
उसके
अर्हत्व को घटा देख भगवान स्वयं सारिपुत्र आदि स्थविरों के साथ वहां गए। वह जंगल
बहुत भयंकर था। रास्ते ऊबड़—खाबड़ और कंटकाकीर्ण थे। जंगली पशुओं की छाती को कंपा
देने वाली दहाड़े भरी दोपहरी में सुनायी पड़ती थीं। लेकिन भिक्षुओं को इस सब का कोई
पता ही न चला।
जिन्हें
भगवान का साथ है,
उन्हें यह सब पता चलेगा ही नहीं। बुद्ध के साथ चलते थे। बुद्ध की
छाया में चलते थे। बुद्ध की रोशनी में चलते थे। बुद्ध का एक वायुमंडल था, उसमें चलते थे। सुरक्षित थे। यह जंगल जैसे था ही नहीं। रास्ते ऊबड़—खाबड़
नहीं थे।
नजर
बुद्ध पर लगी हो,
तो कहा रास्ता ऊबड़—खाबड़! रास्तों में काटे पड़े थे। लेकिन नजर बुद्ध
जैसे फूल पर लगी हो, तो किसको ये छोटे—मोटे काटे दिखायी पड़ते
हैं! जंगल में जंगली आवाजें गंज रही होंगी जरूर, कोई जंगल के
जानवर भिक्षुओं को देखकर चुप नहीं हो जाएंगे। लेकिन जिसका हृदय बुद्ध को सुनने में
लगा हो, उनके पदचाप को सुनने में लगा हो, जो यहां एकाग्र —चित्त होकर डूबा हो, उसे सब खो जाता
है।
तुमने
देखा न। तुम जब कभी एकाग्र —चित्त हो जाओ, तो आकाश में बादल गरजते रहें और
तुम्हें सुनायी न पड़ेंगे। ट्रेन गुजरे, हवाई जहाज
निकले—तुम्हें सुनायी न पड़ेगा। तुम जब चित्त से शांत होते हो, एक दिशा में अनस्यूत होते हो, तो और सारी दिशाएं
अपने आप खो जाती हैं।
बुद्ध
के प्रेमी थे ये भिक्षु। बुद्ध थोड़े से चुने हुए व्यक्तियों को लेकर ही गए होंगे; सारिपुत्र
आदि को। सारिपुत्र होगा, महाकाश्यप होगा; मोद्गल्यायन होगा; आनंद होगा। ऐसे चुने हुए लोगों को
लेकर गए होंगे। थोड़े से लोगों को रेवत को दिखाने ले गए होंगे—कि देखो रेवत को।
अकेला है। मुझे कभी मिला भी नहीं। दूर से ही श्रद्धा के फूल चढ़ाता रहा है। मुझे
कभी देखा नहीं और पहुंच गया!
रेवत
ने भगवान को ध्यान में आते देख......।
जब
बुद्धि शांत हो जाती है और विचारों का ऊहापोह मिट जाता है, तो ध्यान
की आंख खुलती है। ध्यान की आंख के लिए कोई बाधा नहीं है। ध्यान की आंख सब देख पाती
है।
बुद्ध
के आने को देख सुंदर आसन बनाया।
प्रभु
आते हैं! जिनके पास जाने की कितनी—कितनी तमन्नाएं थीं, और
कितनी—कितनी अभीप्साएं थीं, और कितने—कितने सपने थे! जिनके पास
जाने के लिए सात साल अथक मेहनत की थी कि पात्र हो जाऊं तो जाऊं। आज वे स्वयं आते
हैं। उसका आह्लाद तुम समझो। उसकी प्रतीक्षा तुम समझो। उसका आनंद! आज स्वर्ग टूटने
को है!
वह
तो भूल ही गया होगा कि मैं यह क्या कर रहा हूं! ये पत्थर, और ये
ईंटें, और जंगल से कुछ भी उठाकर आसन बना रहा हूं! इसकी फिक्र
ही न रही होगी। प्रेम ऐसा जादू है कि पत्थर को छुए, सोना हो
जाए। और तुमने अगर बेमन से सोने की ईंटें लगाकर भी आसन बनाया, तो मिट्टी हो जाती है। असली सवाल प्रेम का है। बुद्ध प्रेम को देखते हैं।
भगवान
रेवत के पास एक माह रहे।
कहानी
कुछ नहीं कहती। कहानी बडी महत्वपूर्ण है। कहानी यह नहीं कहती कि भगवान ने रेवत को
कुछ कहा कि रेवत ने भगवान से कुछ कहा। बस इतना ही कहती है कि भगवान रेवत के पास एक
माह रहे।
नहीं; कुछ कहा
नहीं होगा। कहने की अब कोई बात ही न थी। रेवत वहां पहुंच ही गया, जहां पहुंचाने के लिए भगवान कुछ कहते। और रेवत तो क्या कहे! जो चाह थी,
वह बिना मांगे पूरी हो गयी। भगवान उसके द्वार पर आ गए।
मेरी
अपनी दृष्टि यही है कि वे बैठे होंगे चुपचाप पास—पास। कोई कुछ न बोला होगा। बोलने
को कुछ बचा न था। दो अर्हत बोल भी क्या सकते हैं! दो ज्ञानियों के पास बोलने को
कुछ नहीं होता।
दो
अज्ञानियों के पास बहुत होता है बोलने को। बोलने से ही काम नहीं चलता, सिर खोलकर
मानेंगे। दो अज्ञानी एक—दूसरे की गरदन पकड़ लेते हैं।
दो
ज्ञानी मिलें,
तो चुप हो जाते हैं। हां, एक अज्ञानी हो और एक
ज्ञानी, तो कुछ बोलने को हो सकता है।
बुद्ध
सदा बोलते हैं;
रोज बोलते हैं। लेकिन इस एक माह कुछ बोले, इसकी
कोई खबर नहीं है। यह एक माह जैसे चुप्पी में बीता होगा। जिनको साथ ले गए होंगे,
वे भी ऐसे लोग थे, जो अर्हत्व को पा गए हैं।
रेवत भी अर्हत था।
यह
सन्नाटे में बीता होगा महीना। यह महीना बड़ा प्यारा रहा होगा। यह महीना इस पृथ्वी
पर अनूठा रहा होगा। इतने बुद्धपुरुष एक साथ बैठे चुपचाप! खूब बरसा होगा अमृत वहा।
खूब घनी बरसा हुई होगी। मूसलाधार बरसा होगा अमृत वहा। सारा वन आनंदित हुआ होगा।
पशु—पक्षियों तक की आत्माएं मुक्त होने के लिए आतुर हो उठी होंगी। वृक्षों के
प्राण सुगबुगाकर जग गए होंगे। ऐसी गहन चुप्पी रही होगी।
फिर
रेवत को साथ लेकर वे वापस लौटे।
और
जब भगवान तुम्हारे पास आएं,
तो एक ही प्रयोजन होता है कि तुम्हें अपने पास ले आएं। और तो कोई
प्रयोजन नहीं हो सकता। गुरु शिष्य के पास आता है, ताकि शिष्य
को गुरु अपने पास ले आए। गुरु की किरण तुम्हें टटोलती आती है—खोजती।
रेवत
को साथ लेकर वापस लौटे। आते समय दो भिक्षुओं के उपाहन, तेल की
फोंफी और जलपात्र पीछे छूट गए। सो वे मार्ग से लौटकर जब उन्हें लेने गए, तो जो उन्होंने देखा, उस पर उन्हें भरोसा नहीं आया।
रास्ते बड़े ऊबड़—खाबड़ थे।
इस
बार भगवान का साथ न था। वे ही रास्ते, भगवान साथ हों, तो प्यारे हो जाते हैं। वे ही रास्ते, भगवान साथ न
हों, तो ऊबड़—खाबड़ हो जाते हैं।
दुनिया
वही है। भगवान का साथ हो,
तो स्वर्ग; भगवान का साथ चूक जाए, तो नर्क। सब वही है, सिर्फ भगवान के साथ से फर्क
पडता है। तुम अकेले हो, भगवान का साथ नहीं; सब ऊबड़—खाबड़ होगा। जिंदगी एक दुख की कथा होगी। अर्थहीन, विषाद से भरी, रुग्ण। और भगवान का साथ हो, तो सब रूपांतरित हो जाता है जादू की तरह। तुम स्वस्थ हो जाते हो। कहीं कोई
काटे नहीं रह जाते हैं। सब तरफ फूल खिल जाते हैं। कहीं कोई शोरगुल नहीं रह जाता।
सब तरफ शाति बरसने लगती है।
उन्हें
भरोसा न आया कि हो क्या गया! अभी— अभी हम आए थे, अभी— अभी हम गए; दो घड़ी में इतना सब बदल गया! ये वे ही रास्ते हैं? यह
वही जंगल है? ये वे ही वृक्ष हैं? इतना
ही नहीं, रेवत का जो निवास स्थान घड़ी दो घड़ी पहले इतना रम्य
था कि स्वर्ग मालूम होता था, वह सिर्फ काटो से भरा था,
और एक खंडहर था। और ऐसा लगता था, जैसे सदियों
से वहां कोई न रहा हो।
श्रावस्ती
लौटने पर महोपासिका विशाखा ने उनसे पूछा. आर्य रेवत का वास स्थान कैसा था?
मत
पूछो, उपासिके! सारा काटो से भरा है और सांप—बिच्छुओं से भी। भूलकर भी भगवान न
करे कि ऐसी जगह दुबारा जाना पड़े।
फिर
विशाखा ने और भिक्षुओं से भी पूछा। उन्होंने कहा, आर्य रेवत का स्थान स्वर्ग
जैसा सुंदर है, मानो ऋद्धि से बनाया गया हो! जैसे हजारों
सिद्धों ने अपनी सारी सिद्धि उंडेल दी हो। चमत्कार है वह जगह। ऐसी सुंदर जगह
पृथ्वी पर नहीं है।
इन
विपरीत मंतव्यों को सुनकर स्वभावत: विशाखा चकित हुई। फिर उसने भगवान से पूछा भंते!
आर्य रेवत के स्थान के विषय में पूछने पर आपके साथ गए भिक्षुओं में कोई कहता नर्क
जैसा, कोई कहता स्वर्ग जैसा। बात क्या है? असली बात क्या
है? आप कहें।
भगवान
ने कहा. उपासिके! जब तक वहां रेवत का वास था, वह स्वर्ग जैसा था। जहां रेवत जैसे
ब्राह्मण विहरते हैं, वह स्वर्ग हो जाता है। लेकिन उनके हटते
ही वह नर्क जैसा हो गया। जैसे दीया हटा लिया जाए और अंधेरा हो जाए—ऐसे ही। मेरा
पुत्र रेवत अर्हत हो गया है, ब्राह्मण हो गया है। उसने
ब्रह्म को जान लिया है। धम्मपद ब्राह्मण की परिभाषा पर पूरा होता है—कि ब्राह्मण
कौन! ब्राह्मण क्या! ब्राह्मण अंतिम दशा है—ब्रह्म को जान लेने की।
'इस लोक और परलोक के विषय में जिसकी आशाएं नहीं हैं.।’
जो
न तो यहां कुछ चाहता है,
न वहा कुछ चाहता है। जो कुछ चाहता ही नहीं, जो
अचाह को उपलब्ध हो गया है।
'ऐसे निराशय और असंग को मैं ब्राह्मण कहता हूं।’
रेवत
ऐसा ब्राह्मण हो गया है।
'जिसे तृष्णा नहीं है, जो जानकर वीतसंदेह हो गया है,
जिसने डूबकर अमृत पद निर्वाण को पा लिया है, उसे
मैं ब्राह्मण कहता हूं।’
ऐसा
मेरा पुत्र रेवत ब्राह्मण हो गया है।
'जानकर वीतसंदेह हो गया.......।’
इस
बात को समझना। लोग दो तरह से संदेह से बच सकते हैं। एक तो जबर्दस्ती किसी विश्वास
को अपने ऊपर थोप लें और संदेह से बच जाएं। वह झूठा है संदेह से बचना। वह संदेह आज
नहीं कल बदला लेगा;
बुरी तरह बदला लेगा।
तुम
दुनिया में इतने नास्तिक देखते हो, इतने नास्तिक नहीं हैं। दुनिया में
नास्तिक बहुत ज्यादा हैं। क्योंकि जिन्हें तुम आस्तिक की तरह देखते हो, उनमें से शायद ही कोई आस्तिक है। वे सब नास्तिक हैं। भीतर तो नास्तिकता है,
ऊपर से आस्तिकता की सिर्फ धारणा है। मान्यता है। मानते हैं कि ईश्वर
है, जाना नहीं है। बिना जाने कैसे मानोगे? बिना जाने मानना नपुंसक है। उसमें कोई प्राण नहीं है।
इसलिए
बुद्ध कहते हैं,
जानकर जो वीतसंदेह हो गया है, जिसने जानकर
संदेह से मुक्ति पा ली, जिसने परमात्मा को पहचान लिया,
सत्य को पहचान लिया। जो यह नहीं कहता है कि मानता हूं कि ईश्वर है।
जो कहता है, मैं जानता हूं—ऐसा व्यक्ति ब्राह्मण है।
ब्रह्म
को मानने से कोई ब्राह्मण नहीं होता। ब्रह्म को जानने से कोई ब्राह्मण होता है।
'जिसने यहां पुण्य और पाप दोनों की आसक्ति को छोड़ दिया है, जो विगतशोक, निर्मल और शुद्ध है, उसे मैं ब्राह्मण कहता हूं।’
और
मेरा पुत्र रेवत ऐसा ही ब्राह्मण हो गया है। इस ब्राह्मण के कारण वहा स्वर्ग था।
इस ब्राह्मण के कारण वहां ऋद्धि की वर्षा हो रही थी। इस ब्राह्मण की मौजूदगी ने उस
जंगल को महल बना दिया था।
और
तुम समझ लेना। अगर तुम्हारे भीतर आनंद नहीं है, तो तुम महलों में भी रहो, तो जंगल में रहोगे। और तुम्हारे भीतर आनंद है, तो
तुम जहां रहो, वहीं महल है। वहीं महल खडा हो जाएगा। वहीं महल
निर्मित हो जाएगा। तुम जहां रहो, जैसे रहो, वही महल है।
खयाल
रखना, लोग कहते हैं कि जो आदमी पाप करेगा, उसे नर्क भेजा
जाएगा। और जो पुण्य करेगा, उसे स्वर्ग भेजा जाएगा। यह गलत
बात है। सच बात कुछ और है। .जो पाप करता है, वह नर्क में
जीता है। भेजा जाएगा—ऐसा नहीं— भविष्य में। वह नर्क में जीता है—अभी और यहीं। और
जो पुण्य करता है, वह स्वर्ग में जीता है—अभी और यहीं।
पाप
और पुण्य प्रतिपल फल लाते हैं। कोई सरकारी काम थोड़े ही है कि फाइलों को सरकने में
इतना समय लगे! कि तुमने पाप किया था पिछले जन्म में और अब तुम्हें फल मिलेगा! यह
तुमने कोई भारतीय सरकार की व्यवस्था समझी है! कि फाइलें सरकती हैं एक टेबल से
दूसरी टेबल। और सरकती ही रहती हैं और कभी कोई परिणाम नहीं होता।
तत्क्षण
है फल। धर्म नगद है। यहां उधार कुछ भी नहीं है।
दूसरा
सूत्र:
चन्दं‘व विमलं सुद्धं विप्पसन्नमनाविलं।
नन्दीभवपरिक्खीणं
तमहं ब्रूमि ब्राह्माणं ।।
'जो चंद्रमा की भांति विमल, शुद्ध, स्वच्छ और निर्मल है तथा जिसकी सभी जन्मों की तृष्णा नष्ट हो गयी है,
उसे मैं ब्राह्मण कहता हूं।’
हित्वा मानुसकं
योगं दिब्बं योगं उपच्चगा ।
सब्बयोगविसंयुत्तं
तमहं ब्रूमि ब्राह्मणं ।।
'जो मानुषी बंधनों को छोड़ दिव्य बंधनों को भी छोड़ चुका है, जो सभी बंधनों से विमुक्त है, उसे मैं ब्राह्मण कहता
हूं।’
पुब्बेनिवासं यो
वेदि सग्गापायज्च पस्सति ।
अथो जातिखयं पत्तो
अभिज्जवासितो मुनि
सब्बवोसितवोसानंतमहं
ब्रमि ब्राह्माणं ।।
'जो पूर्व—जन्म को जानता है, जिसने स्वर्ग और अगति को
देख लिया है, जिसका पूर्व —जन्म क्षीण हो चुका है, जिसकी प्रज्ञा पूर्ण हो चुकी है, जिसने अपना सब कुछ
पूरा कर लिया है, उसे मैं ब्राह्मण कहता हूं।’
इन
सूत्रों का आधार,
इनकी पृष्ठभुमि, द्वितीय दृश्य :
राजगृह में चंदाभ नामक एक
ब्राह्मण था। वह पूर्व— जन्म में भगवान कश्यप बुद्ध के चैत्य में चंदन लगाया करता
था जिसके पुण्य से उसकी नाभि से चंद्र— मंडल सदृश आभा निकलती थी। कुछ पाखंडी
ब्राह्मण उसे नगर— नगर लेकर घूमते थे और लोगों को लूटते थे। वे कहते थे. जो इसके
शरीर को स्पर्श करता है वह जो चाहता है पाता है।
एक
समय जब भगवान जेतवन में विहरते थे तब उसे लिए हुए वे ब्राह्मण श्रावस्ती पहुंचे।
संध्या समय था और सारा श्रावस्ती नगर भगवान के दर्शन और धर्मश्रवण के लिए जेतवन की
ओर जा रहा था। उन ब्राह्मणों ने लोगों को रोककर चंदाभ का चमत्कार दिखाना चाहा।
लेकिन कोई रुकना ही नहीं चाहता था। फिर वे ब्राह्मण भी शास्ता के अनुभाव को देखने
के लिए चंदाभ को लेकर जेतवन गए। भगवान के पास जाते ही चंदाभ की आभा लुप्त हो गयी।
वह तो अति दुखित हुआ और चमत्कृत भी। वह समझा कि शास्ता आभा लुप्त करने का कोई
मंत्र जानते हैं। अत: भगवान से बोला हे गौतम! मुझे भी आभा को लुप्त करने का मंत्र
दीजिए और उस मंत्र को काटने की विधि भी बताइए मैं सदा— सदा के लिए आपका दास हो
जाऊंगा।
भगवान
ने कहा मैं प्रव्रजित होने पर ही मंत्र दे सकता हूं चंदाभ भगवान की बात सुनकर
प्रव्रजित हो थोड़े ही समय में ध्यानस्थ हो अर्हत्व को पा लिया। वह तो भूल ही गया
मंत्र की बात। महामंत्र मिले तो कौन न भूल जाए? जब
ब्राह्मण उसे लेने के लिए वापस आए तो वह हंसा और बोला तुम लोग जाओ। अब मैं नहीं
जाने वाला हो गया हूं। मेरा तो आना— जाना सब मिट गया है।
ब्राह्मणों
को तो बात समझ में ही न आयी कि यह क्या कह रहा है! ब्राह्मणों को तो छोड़ दें
भिक्षुओं को भी यह बात समझ में न आयी कि यह क्या कह रहा है। भिक्षुओं ने जाकर
भगवान से कहा : भंते! यह चंदाभ भिक्षु अभी नया— नया आया है और अर्हत्व का दावा कर
रहा है! और कहता है मैं आने— जाने से मुक्त हो गया हूं। और इस तरह निरर्थक सरासर
झूठ बोल रहा है आप इसे चेताइए।
शास्ता
ने कहा : भिक्षुओ। मेरे पुत्र की तृष्णा क्षीण हो गयी है। और वह जो कह रहा है वह
पूर्णत: सत्य है। वह ब्राह्मणत्व को उपलब्ध हो गया है।
तब
उन्होंने ये सूत्र कहे थे।
यह
छोटी सी कहानी समझ लें।
यह
चंदाभ नाम का ब्राह्मण किसी अतीत जन्म में भगवान कश्यप बुद्ध के चैत्य में चंदन
लगाया करता था।
कुछ
और बड़ा कृत्य नहीं था पीछे। लेकिन बड़े भाव से चंदन लगाया होगा कश्यप बुद्ध के
चैत्य में, उनकी मूर्ति पर। असली सवाल भाव का है। बडी श्रद्धा से लगाया होगा। तब से
ही इसमें एक तरह की आभा आ गयी थी। जहां श्रद्धा है, वहां आभा
है। जहां श्रद्धा है, वहां जादू है।
उस
पुण्य के कारण,
वह जो कश्यप बुद्ध के मंदिर में चंदन लगाने का जो पुण्य था, वह जो आनंद से इसने चंदन लगाया था, वह जो आनंद से
नाचा होगा, पूजा की होगी, प्रार्थना की
होगी, वह इसके भीतर आभा बन गयी थी। ज्योतिर्मय हो कर इसके
भीतर जग गयी थी।
कुछ
पाखंडी ब्राह्मण उसे साथ लेकर नगर—नगर घूमते थे। क्योंकि वह बड़ा चमत्कारी आदमी था। उसकी नाभि में से रोशनी
निकलती थी। वे कपड़ा उघाड़—उघाड़कर लोगों को उसकी नाभि दिखाते थे। नाभि देखकर लोग
हैरान हो जाते थे। और उन्होंने इसमें एक धंधा बना रखा था। वे कहते थे. जो इसके
शरीर को स्पर्श करता है,
वह जो चाहता है, पाता है। और जब तक लोग बहुत
धन दान न करते, वे उसका शरीर स्पर्श नहीं करने देते थे। ऐसे
वे काफी लोगों को लूट रहे थे।
भगवान
जेतवन में विहरते थे,
तब वे उसे लिए हुए श्रावस्ती पहुंचे। जेतवन श्रावस्ती में था।
संध्या समय था और सारा नगर भगवान के दर्शन और धर्मश्रवण के लिए जेतवन की ओर जा रहा
था। उन ब्राह्मणों ने लोगों को रोककर चंदाभ का चमत्कार दिखाना चाहा। लेकिन कोई
रुकना नहीं चाहता था।
जिसने
भगवान को देखा हो,
जिसने किसी बुद्धपुरुष को देखा हो, उसके लिए
सारी दुनिया के चमत्कार फीके हो गए। जिसने साक्षात प्रकाश देखा हो, उसके लिए किसी की नाभि में से थोड़ी—बहुत रोशनी निकल रही है—इसका कोई अर्थ
नहीं है। बच्चों जैसी बात है। इस तरह की बातों में बच्चे ही उत्सुक हो सकते हैं।
कोई
रुका नहीं। ब्राह्मण बड़े हैरान हुए। ऐसा तो कभी न हुआ था। उनके अनुभव में न आया
था। जहां गए थे,
वहीं भीड़ लग जाती थी। तो उन्हें लगा कि जरूर इससे भी बड़ा चमत्कार
कहीं बुद्ध में घट रहा होगा, तभी लोग भागे जा रहे हैं। तो
बुद्ध का अनुभाव देखने के लिए—कि कौन है यह बुद्ध! और क्या इसका प्रभाव है! क्या
इसका चमत्कार है! वे ब्राह्मण चंदाभ को लेकर बुद्ध के पास पहुंचे। भगवान के सामने
जाते ही चंदाभ की आभा लुप्त हो गयी।
हो
ही जाएगी। क्योंकि जो आभा थी, वह ऐसी ही थी, जैसे कोई
दीया जलाए सूरज के सामने। सूरज के सामने दीए की रोशनी खो जाए, इसमें आश्चर्य क्या! दीए की तो बात और; सुबह सूरज
निकलता है, आकाश के तारे खो जाते हैं। अंधेरे में चमकते हैं,
रोशनी में खो जाते हैं। सूरज की विराट रोशनी तारों की रोशनी छीन
लेती है। तारे कहीं जाते नहीं; जहां हैं, वहीं हैं। मगर दिन में दिखायी नहीं पड़ते। जब सूरज ढलेगा, तब फिर दिखायी पड़ने लगेंगे।
यह
चंदाभ की जो आभा थी,
मिट्टी का छोटा सा दीया था। बुद्ध की जो आभा थी, जैसे महासूर्य की आभा।
लेकिन
चंदाभ तो बेचारा यही समझा कि जरूर कोई मंत्र जानते होंगे। मेरी आभा को मिटा दिया।
दुखी भी हुआ,
चमत्कृत भी। उसने कहा. हे गौतम! मुझे भी आभा को लुप्त करने का मंत्र
दीजिए। और उस मंत्र को काटने की विधि भी बताइए। तो मैं सदा—सदा के लिए आपका दास हो
जाऊंगा, आपकी गुलामी करूंगा।
बुद्धपुरुष
कभी मौका नहीं चूकते। कोई भी मौका मिले, किसी भी बहाने मौका मिले, संन्यास का प्रसाद अगर बांटने का अवसर हो, तो वे
जरूरत बांटते हैं। बुद्ध ने यही मौका पकड़ लिया। इसी निमित्त चलो।
उन्होंने
कहा देख, मंत्र दूंगा—मंत्र—वत्र है नहीं कुछ—मंत्र दूंगा। लेकिन पहले तू संन्यस्त
हो जा।
मंत्र
के लोभ में वह आदमी संन्यस्त हुआ।
लेकिन
बुद्ध ने देखा होगा कि इस आदमी में क्षमता तो पड़ी है, बीज तो
पड़ा है। वह जो कश्यप बुद्ध के मंदिर में चंदन लगाया था; वह
जो भावदशा इसकी सघन हुई थी, वह आज भी मौजूद है। तड़फती है
मुक्त होने को। उस पर ही दया की होगी। यह आदमी ऊपर से तो भूल— भाल चुका है। किस
जन्म की बात! कहां की बात! किसको याद है! इस आदमी की बुद्धि में तो कुछ भी नहीं
है। सब भूल— भाल गया है। इसकी स्मृति में कोई बात नहीं रह गयी है। इसे सुरति नहीं
है। लेकिन इसके भीतर ज्योति पड़ी है।
कल
एक युवक नावें से आया। मैंने लाख उपाय किया कि वह संन्यस्त हो जाए, क्योंकि
उसके हृदय को देखूं र तो मुझे लगे कि उसे संन्यस्त हो ही जाना चाहिए। और उसके
विचारों को देखूं, तो लगे कि उसकी हिम्मत नहीं है। सब तरह
समझाया—बुझाया उसे कि वह संन्यस्त हो जाए। तरंग उसमें भी आ जाती थी। बीच—बीच में
लगने लगता था कि ठीक। हृदय जोर मारने लगता, बुद्धि थोड़ी
क्षीण हो जाती। लेकिन फिर वह चौंक जाता।
दो
हिस्सों में बंटा है। सिर कुछ कह रहा है। हृदय कुछ कह रहा है। और हृदय की आवाज बड़ी
धीमी होती है;
मुश्किल से सुनायी पड़ती है। क्योंकि हमने सदियों से सुनी नहीं है,
तो सुनायी कैसे पड़े! आदत ही चूक गयी है। खोपड़ी में जो चलता है,
वह हमें साफ—साफ दिखायी पड़ता है। हम वहीं बस गए हैं। हमने हृदय में
जाना छोड़ दिया है।
तो
यह आदमी तो चाहता था मंत्र। मंत्र के लोभ में संन्यस्त हुआ। इसे पता नहीं कि
बुद्धों के हाथ में तुम अंगुली दे दो, तो वे जल्दी ही पहुंचा पकड़ लेंगे!
पकड़े गए कि पकड़े गए। फिर छूटना मुश्किल है।
बुद्ध
ने उसको समझाया होगा कि अब तू ध्यान कर—तो मंत्र। समाधि लगा—तो मंत्र! ऐसे धीरे—
धीरे कदम—कदम उसको समाधि में पहुंचा दिया। जब वह समाधिस्थ हो गया, तो वह तो
भूल ही गया मंत्र की बात। कौन न भूल जाएगा! महामंत्र मिल गया। अब तो उसे खुद भी
दिखायी पड़ गया होगा कि वह बात ही —मूढ़ता की थी कि मैं मंत्र मांगता था। न तो
उन्होंने काटा था, न कोई मंत्र था। बड़ी रोशनी के सामने आकर
छोटी रोशनी अपने आप लुप्त हो गयी थी। किसी ने कुछ किया नहीं था। बुद्ध कुछ करते
नहीं हैं। बुद्ध कोई मदारी नहीं हैं।
जब
ब्राह्मण उसे लेने के लिए आए, तो वह हंसा और बोला कि तुम लोग जाओ। मैं तो अब
नहीं जाने वाला हो गया हूं। मैं तो ऐसी जगह ठहर गया हूं,
जहां से जाना इत्यादि होता ही नहीं। मैं समाधिस्थ हो गया हूं।
जाना
कैसे हो? जाना तो विचार के घोड़ों पर होता है। जाना तो वासनाओं पर होता है। जाना तो
तृष्णाओं के सहारे होता है। वे सब तो गए सहारे। अब मेरी कोई दौड नहीं, क्योंकि मेरी कोई चाह नहीं। अब मुझे कहीं जाना नहीं, कहीं पहुंचना नहीं, क्योंकि मुझे जहां पहुंचना था,
वहा मैं पहुंच गया हूं। मेरा तो आना—जाना सब मिट गया। आवागमन मिट
गया। तुम कहां की बातें कर रहे हो! अब तो इस जमीन पर भी मैं लौटकर आने वाला नहीं।
मुझे महामंत्र मिल गया है।
ब्राह्मण
तो चौंके ही चौंके कि यह क्या हो गया! लेकिन भिक्षु भी चौंके, जो ज्यादा
सोचने जैसी बात है। आदमी इतना राजनैतिक प्राणी है! वह यह बर्दाश्त नहीं कर सकता।
धार्मिक आदमी भी, भिक्षु भी ईर्ष्या से भर गए होंगे कि यह
अभी— अभी तो आया चंदाभ, और अभी—अभी ज्ञान को उपलब्ध हो गया!
और हम इतने दिन से बैठे हैं! हम कपास ही ओट रहे हैं। और यह आए देर नहीं हुई,
अभी नया—नया सिक्सडू, सिद्ध होने का दावा कर
रहा है!
उन्होंने
जाकर बुद्ध को कहा कि भंते! चंदाभ भिक्षु अर्हत्व होने का दावा कर रहा है। और इस
तरह झूठ बोल रहा है। आप उसे चेताइए।
लेकिन
बुद्ध ने चंदाभ को नहीं चेताया। चेताया उन भिक्षुओं को, कि
भिक्षुओ! तुम चेतो। तुम ईर्ष्या से भरे हो। तुम देख नहीं रहे हो जो घट रहा है। तुम
अहंकार से भरे हो। मेरे पुत्र की तृष्णा क्षीण हो गयी है। और वह जो कर रहा है,
पूर्णत: सत्य है। वह जो कह रहा है, पूर्णत:
सत्य है। वह ब्राह्मणत्व को उपलब्ध हो गया है।
'जो चंद्रमा की भांति विमल, शुद्ध, स्वच्छ और निर्मल है तथा जिसकी सभी जन्मों की तृष्णा नष्ट हो गयी, उसे मैं ब्राह्मण कहता हूं।’
और
चंदाभ ब्राह्मण हो गया है भिक्षुओ। वह ठीक चंद्रमा की भाति अब हुआ। तब तो नाम ही
था। तब जो जरा सी ज्योति थी उसकी नाभि में। अब ज्योति सब तरफ फैल गयी। अब वह
ज्योति स्वरूप हो गया। अब चंदाभ चंद्रमा ही हो गया है। तुम फिर से देखो भिक्षुओ!
उसमें तृष्णा नहीं बची। उसमें मांग नहीं रही। उसकी वासना भस्मीभूत हो गयी है। वह
ब्राह्मण हो गया है।
'जो मानुषी बंधनों को छोड़ दिव्य बंधनों को भी छोड़ चुका है।’
उसने
मनुष्यों से ही बंधन नहीं छोड़ दिए हैं, उसने दिव्यता से भी बंधन छोड़ दिए
हैं। आया था मंत्र मांगने, अब वह कुछ भी नहीं मांगता,
मोक्ष भी नहीं मांगता है।’सभी बंधनों से जो
विमुक्त है, उसे मैं ब्राह्मण कहता हूं।’
'जो पूर्व—जन्म को जानता है........।’
और
अब उसे याद आ गयी है कि वह जो आभा उसकी नाभि में थी—क्यों थी। उसे याद आ गयी, कश्यप
महाबुद्ध के चैत्य में चंदन लगाया था' आनंद से। उतनी सी छोटी
बात भी इतना फल लायी थी! उसे याद आ गए हैं अपने सब पिछले जीवन के रास्ते। और चूंकि
उनकी याद आ गयी है, इसलिए अब उसके आगे के सब रास्ते टूट गए
हैं।
अब
उसने देख लिया कि मैं व्यर्थ ही भटक रहा था। बाहर जो भटकता है, व्यर्थ
भटकता है। जन्मों—जन्मों यही वासनाएं, यही कामनाएं, यही तृष्णाएं, और इन्हीं—इन्हीं के सहारे दौड़ता रहा
और कहीं नहीं पहुंचा।
अब
मेरा पुत्र पहुंच गया है। अब वह वहां पहुंच गया है, जहां जन्म—मरण शांत हो जाते
हैं। उसने स्वर्ग—नर्क का सब रहस्य जान लिया है। उसका पूर्व —जन्म क्षीण हो गया
है। अब वह दुबारा नहीं आएगा। वह अनागामी हो गया है।
'जिसकी प्रज्ञा पूर्ण हो चुकी है, जिसने अपना सब कुछ
पूरा कर लिया है, उसे मैं ब्राह्मण कहता हूं।’
बुद्ध
ने ब्राह्मण की जो परिभाषा की, वही भगवत्ता की परिभाषा है। बुद्ध ने ब्राह्मण
को जैसी ऊंचाई दी, वैसी किसी ने कभी नहीं दी थी। ब्राह्मणों
ने भी नहीं। ब्राह्मणों ने तो ब्राह्मण शब्द को बहुत क्षुद्र बना दिया—जन्म से जोड़
दिया। बुद्ध ने आत्म— अनुभव से जोड़ा। बुद्ध ने निर्वाण से जोड़ा।
वह
जो मुक्त है,
वह जो शून्य है, वह जो खो गया है बूंद की तरह
सागर में और सागर हो गया है, उसे मैं ब्राह्मण कहता हूं—ऐसा
बुद्ध ने कहा।
मैंने
तुमसे कहा सभी लोग शूद्र की तरह पैदा होते हैं। और दुर्भाग्य से अधिक लोग शूद्र की
तरह ही मरते हैं। ध्यान रखना, फिर दोहराता हूं—सभी लोग शूद्र की तरह पैदा
होते हैं। ब्राह्मण की तरह कोई पैदा नहीं होता। क्योंकि ब्राह्मणत्व उपलब्ध करना
होता है, पैदा नहीं होता कोई। ब्राह्मणत्व अर्जन करना होता
है। ब्राह्मणत्व साधना का फल है।
शूद्र
की तरह सब पैदा होते हैं,
क्योंकि सभी शरीर के साथ तादात्म्य में जुड़े पैदा होते हैं। शूद्र
हैं, इसीलिए पैदा होते हैं। नहीं तो पैदा ही क्यों होते?
शूद्रता के कारण पैदा होते हैं। क्योंकि अभी शरीर से मोह नहीं गया।
इसलिए पुराना शरीर छूट गया, तत्क्षण जल्दी से नया शरीर ले
लिया। राग बना है, मोह बना है, तृष्णा
बनी है—फिर नए गर्भ में प्रविष्ट हो गए। फिर पैदा हो गए।
तुम्हें
कोई पैदा नहीं कर रहा है। तुम अपनी ही वासना से पैदा होते हो। मरते वक्त जब तुम
घबडाए होते हो,
और जोर से पकड़ते हो शरीर को, और चीखते हो और
चिल्लाते हो, और कहते हो बचाओ मुझे। थोड़ी देर बचा लो। तब तुम
नए जन्म का इंतजाम कर रहे हो।
जो
मरते वक्त निश्चित मर जाता है, जो कहता है. धन्य है! यह जीवन समाप्त हुआ।
धन्य—कि इस शरीर से मुक्ति हुई। धन्य—कि इस क्षणभंगुर से छूटे। जो इस विश्राम में
विदा हो जाता है, उसका फिर कोई जन्म नहीं है।
तुम
जन्म का बीज अपनी मृत्यु में बोते हो। जब तुम मरते हो, तब तुम नए
जन्म का बीज बोते हो। और तुम जिस तरह की वासना करते हो, उस
तरह के जन्म का बीज बोते हो। तुम्हारी वासना ही देह धरेगी। तुम्हारी वासना ही गर्भ
लेगी।
बुद्ध
ने कहा है तुम नहीं जन्मते,
तुम्हारी वासना जन्मती है। तो जब वासना नहीं, तब
तुम्हारा जन्म समाप्त हो जाता है।
सब
शूद्र की तरह पैदा होते हैं। लेकिन शूद्र की तरह मरने की कोई जरूरत नहीं है।
स्मरणपूर्वक कोई जीए,
होशपूर्वक कोई जीए; एकांत में, मौन और ध्यान में
कोई जीए, तो ब्राह्मण की तरह मर सकता है। और जो ब्राह्मण की
तरह मरा, वह संसार में नहीं लौटता है, वह
ब्रह्म में विलीन हो जाता है।
ये
सारे धम्मपद के सूत्र,
कैसे कोई ब्रह्म को उपलब्ध कर ले, कैसे कोई ब्राह्मण
हो जाए, इसके ही सूत्र थे। धम्मपद का अर्थ होता है. ब्राह्मण
तक पहुंचा देने वाला मार्ग, धर्म का मार्ग, जो तुम्हें ब्राह्मणत्व तक पहुंचा दे।
सुनकर
ही समाप्त मत कर देना। जीना। इंचभर जीना, हजार मीलों के सोचने से बेहतर है।
क्षणभर जीना, शाश्वत, हजारों वर्षों तक
सोचने से बेहतर है। कणभर जीना, हिमालय जैसे सोचने से बेहतर
है, मूल्यवान है।
जीओ—जागो
और जीओ।
आज इतना ही।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें