ओशो
पलटू अंधियारी मिटी, बाती
दीन्हीं बार।
दीपक बारा नाम का, महल भया
उजियार।।
मनुष्य जन्मता तो है, लेकिन
जन्म के साथ जीवन नहीं मिलता। और जो जन्म को ही जीवन समझ लेते हैं, वे जीवन से चूक जाते हैं। जन्म केवल अवसर है जीवन को पाने का। बीज है,
फूल नहीं। संभावना है, सत्य नहीं। एक अवसर है,
चाहो तो जीवन मिल सकता है; न चाहो, तो खो जाएगा। प्रतिपल खोता ही है। जन्म एक पहलू, मृत्यु
दूसरा पहलू। जीवन इन दोनों के पार है। जिसने जीवन को जाना, उसने
यह भी जाना कि न तो कोई जन्म है और न कोई मृत्यु है।
साधारणतः लोग सोचते हैं, जीवन जन्म
और मृत्यु के बीच जो है उसका नाम है। नहीं जीवन उसका नाम है जिसके मध्य में जन्म
और मृत्यु बहुत बार घट चुके हैं, बहुत बार घटते रहेंगे। तब
तक घटते रहेंगे जब तक तुम जीवन को पहचान न लो। जिस दिन पहचाना, जिस दिन प्रकाश हुआ, जिस दिन भीतर का दीया जला,
जिस दिन अपने से मुलाकात हुई, फिर उसके बाद न
कोई लौटना है, न कहीं आना, न कहीं
जाना। फिर विराट से सम्मिलन है।
बीज सुबह की धूप में भी पड़ा हो तो भी अंधकार
में होता है। क्योंकि बीज तो बंद होता है। उसके भीतर तो सूरज की किरणें पहुंचती
नहीं। हां, बीज में फूल छिपे हैं--अनंत फूल छिपे हैं। काश, बीज
के फूल पकड़ हो जाएं तो फिर सूरज की रोशनी से संबंध जुड़ जाता है। फिर फूल नाचते हैं
धूप में, हवाओं में, वर्षा में;
गाते हैं पक्षियों के साथ, गुफ्तगू करते हैं
सितारों से। साधारण मनुष्य बीज की तरह है, बंद इसलिए अंधेरा
है भीतर। खुलो तो उजियारा हो जाए। यह सूत्र प्यारा है--
ओशो
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