सोमवार, 8 मई 2017

मृत्युार्मा अमृत गमय-(प्रश्नोंत्तर)-प्रवचन-01



मृत्युार्मा अमृत गमय-(प्रश्नोंत्तर)-ओशो

दिनांक 01 अगस्त सन् 1979
प्रवचन-पहला
* धर्म की आड़ में अहंकार
* अहंकार अंधकार है
* अनुग्रह भाव

प्रश्न-सार
*क्या भारत-भूमि ही धार्मिकता की दृष्टि से अग्रणी रहेगी या इसमें भी विदेशी साधक अग्रणी हो जाएंगे? क्या आपकी संपदा से फिर भारत-भूमि वंचित रह जाएगी? क्या आगे भी ऐसे ही महान पुरुषों का अवतार भारत-भूमि पर होता रहेगा?

*तथागत बुद्ध के अनुसार जन्म दुख है, मरण दुख है, जीवन दुख है।
आपके अनुसार जन्म क्या है, मृत्यु क्या है, जीवन क्या है?
और उपनिषदों की इस प्रार्थना "मृत्योर्मा अमृतं गमय' का क्या आशय है? यह किस मृत्यु से किस अमृत की ओर जाना है?

*प्रार्थना क्या है?


*पहला प्रश्न: भगवान! इस भारत-भूमि पर कृष्ण, बुद्ध, महावीर, कबीर, नानक तथा ऐसी ही महान आत्माओं की किरणों का प्रकाश तो मैं प्रत्यक्ष आप में देख रहा हूं। क्या भारत-भूमि ही धार्मिकता की दृष्टि से अग्रणी रहेगी या इसमें भी विदेशी साधक अग्रणी हो जाएंगे? क्योंकि विदेशी वैज्ञानिक, इंजीनियर, डाक्टर, विचारक, द्रष्टा इस प्रकार पूना भागे आ रहे हैं कि पूरे विश्व की संपदा यह आश्रम है। आपके सान्निध्य में ध्यान तथा प्रवचनों में जो सत्य, अहिंसा, करुणा, प्रेम, समर्पण का भाव इन विदेशियों ने सीखा है, आत्मसात किया है, यह आश्रम की गतिविधियों से स्पष्ट नजर आता है। भगवान, क्या आपकी संपदा से फिर भारत-भूमि वंचित रह जाएगी? क्या ढोंगी सत्य साईंबाबा जैसे ही लोग घड़ियां निकाल कर तथा राख गिरा कर भारत को राख में ही नहीं मिला देंगे? या आगे भी ऐसे ही महान पुरुषों का अवतार भारत-भूमि पर होता रहेगा? कृपया समझाने की कृपा करें।

श्रवण! भारत और अभारत, देश और विदेश की भाषा अधार्मिक है। यह मौलिक रूप से राजनीति, कूटनीति, हिंसा, प्रतिहिंसा, वैमनस्य, इस सबको तो परिलक्षित करती है--धर्म को नहीं, ध्यान को नहीं, समाधि को नहीं।
ध्यान क्या देशी और क्या विदेशी? प्रेम क्या देशी और क्या विदेशी? रंग लोगों के अलग होंगे, चेहरे-मोहरे भिन्न होंगे; आत्माएं तो भिन्न नहीं! देह थोड़ी-बहुत भिन्न हो सकती है; फिर भी देह का जो शास्त्र है, वह तो एक है। और आत्मा, जो कि बिलकुल एक है, उसके क्या अनेक शास्त्र होंगे? आत्मा को भी देशों के खंडों में बांटोगे?
इस बांटने के कारण ही कितना अहित हुआ है! इस बांटने के कारण ही पृथ्वी स्वर्ग नहीं बन पाई, पृथ्वी नर्क बन गई है। क्योंकि खंडित जहां भी लोग हो जाएंगे, प्रतिस्पर्धा से भर जाएंगे, अहंकार पकड़ लेगा--वहीं नर्क है।
यह अहंकार की भाषा है श्रवण। तुम सोचते हो, तुमने बहुत धार्मिक प्रश्न पूछा है। तुम्हारा प्रश्न बिलकुल अधार्मिक है। किसको तुम देश का हिस्सा मानते हो, किसको विदेश का हिस्सा मानते हो? बस नक्शे पर लकीरें खिंच जाती हैं, और तुम सोचते हो भूमि बंट जाती है?
लाहौर कल तक भारत था, अब भारत नहीं है! ढाका कल तक भारत था, अब भारत नहीं है! जब तुम भारत-भूमि शब्द का उपयोग करोगे तो करांची, ढाका, लाहौर उसमें आते हैं या नहीं? कल तक तो आते थे; उन्नीस सौ सैंतालीस के पहले तक तो आते थे; अब नहीं आते। कल देश और भी सिकुड़ सकता है। कल हो सकता है दक्षिण उत्तर से अलग हो जाए। तो फिर भारत देश उत्तर में ही समाहित हो जाएगा; फिर गंगा का कछार ही भारत रह जाएगा; फिर दक्षिण भारत नहीं रहेगा! अभी भी तुमने जिनके नाम गिनाए, वे सब उत्तर के हैं--कृष्ण, बुद्ध, महावीर, कबीर, नानक। उनमें एक भी दक्षिण का व्यक्ति नहीं है। दक्षिण की तो याद ही आती है तो तत्क्षण रावण की याद आती है!
दक्षिण में भी संत हुए हैं--अदभुत संत हुए हैं! तिरुवल्लुवर हुआ, जिसके शास्त्र को दक्षिण में पांचवां वेद कहा जाता है। और निश्चित ही उसका शास्त्र पांचवां वेद है। अगर दुनिया में कोई पांचवां वेद है तो तिरुवल्लुवर की वाणी है। लेकिन दक्षिण को भी तुम गिनोगे नहीं! तुम्हारा भारत सिकुड़ता जाता है, छोटा होता जाता है।
यह सारी पृथ्वी एक है। तुमने इसमें क्राइस्ट को क्यों नहीं जोड़ा? तुमने इसमें जरथुस्त्र को क्यों नहीं जोड़ा? लाओत्सू को क्यों नहीं जोड़ा? पाइथागोरस को क्यों नहीं जोड़ा? हेराक्लाइटस को क्यों नहीं जोड़ा? बस इसलिए, चूंकि वे तुम्हारे राजनीतिक भारत के हिस्से नहीं हैं, द्रष्टा न रहे? ज्योतिर्मय पुरुष न रहे? सूरज जैसा पूरब का है, वैसा पश्चिम का। ऐसे ही आत्मा का प्रकाश जैसे पूरब का है, वैसे पश्चिम का। सबका अधिकार है।
धर्म को राजनीति से न बांधो। धर्म की राजनीति से सगाई न करो। धर्म का राजनीति से तलाक होना चाहिए। यह सगाई बड़ी महंगी पड़ी है। इसमें राजनीति छाती पर चढ़ गई और धर्म धूल-धूसरित हो गया।
धार्मिक व्यक्ति का पहला लक्षण है कि वह सीमाओं में नहीं सोचता। जो असीम को खोजने चला है, वह सीमाओं में सोचेगा? फिर सीमाओं का कोई अंत है? भाषा की सीमाएं हैं; रंग की सीमाएं हैं; अलग-अलग आचरण, अलग-अलग मौसम--इनकी सीमाएं हैं। अलग-अलग परंपराएं, अलग-अलग धारणाएं जीवन की--इनकी सीमाएं हैं। कितने धर्म हैं पृथ्वी पर--तीन सौ! और कितने देश हैं! और कितनी भाषाएं हैं--कोई तीन हजार! सीमाओं को सोचने बैठोगे तो बड़ी मुश्किल में पड़ जाओगे।
जो सोचते हैं कि संस्कृत ही देववाणी है, उनके लिए बुद्ध-महावीर जाग्रत पुरुष नहीं हैं क्योंकि वे संस्कृत में नहीं बोले। संस्कृत शायद जानते भी नहीं थे। लोक-भाषा में बोले। जो उस दिन जनता की भाषा थी, उसमें बोले; पाली में बोले, प्राकृत में बोले। जो सोचता है अरबी ही परमात्मा की भाषा है, उसके लिए कुरान के अतिरिक्त फिर कोई किताब परमात्मा की नहीं रह जाती। या कोई सोचता है कि हिब्रू उसकी भाषा है, तो बस बाइबिल पर बात समाप्त हो गई।
तुम क्यों इतनी छोटी सीमाओं में सोचते हो? यह भी अहंकार का ही विस्तार है। क्योंकि तुम भारत में पैदा हुए, इसलिए भारत महान! तुम अगर चीन में पैदा होते तो चीन महान होता। तुम्हें अगर बचपन में ही चुपचाप चीन में ले जाकर छोड़ा गया होता और चीन में तुम बड़े होते, तो तुम बुद्ध, महावीर, कृष्ण, नानक, कबीर, इनका नाम कभी न लेते; तुम लेते नाम--लाओत्सू, कनफ्यूशियस, च्वांगत्सू, लीहत्सू, जो तुमने शायद अभी सोचे भी नहीं। या तुम्हें अगर यूनान में पाला गया होता, तो तुम कहते--सुकरात, अरिस्टोटल, प्लेटो, हेराक्लाइटस, पाइथागोरस। कबीर की कहां गिनती होती! कबीर की तुम्हें याद भी नहीं आती। कबीर का तुम्हें पता भी नहीं होता।
यहां भी तुम अगर हिंदू घर में पैदा हुए हो या जैन घर में पैदा हुए हो, तो एक बात; अगर मुसलमान घर में पैदा हुए हो, तो तुम सोचते हो, इनमें से तुम एक भी नाम ले सकते! भारत-भूमि में ही अगर मुसलमान होते, तो मोहम्मद, बहाऊद्दीन, बायजीद, अलहिल्लाज मंसूर, राबिया, ये नाम तुम्हें याद आते। ये सिर्फ हमारी सीमाएं हैं। इन सीमाओं को तुम सत्य पर मत थोपो।
तुम्हारा प्रश्न: "इस भारत-भूमि पर...।'
कौन सी भारत-भूमि? कभी अफगानिस्तान भारत का हिस्सा था। अफगानिस्तान में बौद्ध प्रतिमाएं मिली हैं, बौद्ध विहारों के अवशेष मिले हैं, अशोक के शिलालेख मिले हैं। कभी भारत का हिस्सा था, अब तो भारत का हिस्सा नहीं है। कभी बर्मा भारत का हिस्सा था, अब तो भारत का हिस्सा नहीं है। और अभी-अभी हमारे सामने पाकिस्तान टूटा और भारत का हिस्सा नहीं रहा। किस भूमि को तुम भारत-भूमि कहते हो?
और जमीन क्या कोई पवित्र होती है, कोई अपवित्र होती है? जेरुसलम काशी से अपवित्र है? कि काबा गिरनार से? कि आल्प्स पर्वत के शिखर हिमालय के शिखरों से कम पवित्र हैं या कम सुंदर हैं या कम महिमावान हैं?
मेरे संन्यासी होकर ऐसी भाषा छोड़ो। मेरा संन्यासी होने का अर्थ ही यही है कि हम असीम की तलाश पर चले हैं, अपने को असीम करेंगे; अपने को सारी सीमाओं से, सारी क्षुद्रताओं से मुक्त करेंगे। न कोई किताब हमें बांधेगी, न कोई देश हमें बांधेगा; न कोई चर्च, न कोई संप्रदाय हमें बांधेगा। हम सारे बंधन ही गिराएंगे।
लेकिन तुम्हारे मन में अभी भी कहीं यह अहंकार छिपा है कि "क्या भारत-भूमि ही धार्मिकता की दृष्टि से अग्रणी रहेगी?'
क्यों अग्रणी रहे? अग्रणी होने की भाषा में महत्वाकांक्षा है। जैसे धन, तो मैं सबसे पहले होना चाहिए! पद, तो मैं सबसे आगे! और जीसस ने कहा है: धन्य हैं वे जो अंतिम हैं, क्योंकि परमात्मा के राज्य में वे ही प्रथम होंगे। और अभागे हैं वे जो प्रथम होने की चेष्टा में लगे हैं, क्योंकि परमात्मा के राज्य में उनकी गिनती अंतिम होगी।
विनम्रता, निरहंकारिता गुण है। मगर एक मजे की बात है, जब तुम निरहंकारिता व्यक्तिगत रूप से अपने जीवन में लाते हो, तो लोग तुम्हें सम्मानित करते हैं। यही निरहंकारिता तुम अपने धर्म के संबंध में, अपने देश के संबंध में, अपनी भाषा के संबंध में लाओ, तो लोग अपमानित करेंगे। लोग कहेंगे, देशद्रोही हो। अगर तुम कहते हो कि "मैं तो कुछ भी नहीं, आपके चरणों की धूल हूं'--ठीक। लेकिन अगर तुम कहो कि "भारत-भूमि कुछ भी नहीं, आपके चरणों की धूल है'--झगड़ा खड़ा हो जाएगा। "हिंदू धर्म तो कुछ भी नहीं है, बस आपके चरणों की धूल है'--हिंदू मारने को उतारू हो जाएंगे। भूल जाएंगे निरहंकार की भाषा। भूल जाएंगे सदियों-सदियों के संदेश। तब विनम्रता नहीं काम आती।
असल में सामूहिक अहंकार में हम तृप्ति लेते हैं। व्यक्तिगत अहंकार में समूह नाराज होता है। अगर तुम कहो, मैं सबसे बड़ा!  तो दूसरे लोग नाराज होंगे। लेकिन तुम अगर कहो, हम सबसे बड़े! तो दूसरों की भी तृप्ति हो रही है, तुम्हारी भी तृप्ति हो रही है; नाराज कोई क्यों हो? अगर तुम कहो कि भारत सबसे अग्रणी धार्मिक देश, तो कम से कम भारत में तो कोई नाराज नहीं होगा। हां, चीन में जाकर ऐसा मत कहना; रूस में जाकर ऐसा मत कहना। तो रूस में कोई जाकर कहेगा भी नहीं। और कहेगा भी, तो लोग हंसेंगे कि पागल हो गए हो--भारत और अग्रणी!
मैंने सुना है कि सिसली एक छोटा सा द्वीप है। उस द्वीप का राजदूत चीन गया। इतना छोटा द्वीप है कि चीन के सामने उसकी तो कहीं कोई गिनती ही नहीं। लेकिन सिसली के सम्राट ने अपने राजदूत को कहा कि कुछ बातें खयाल रखना। चीन के लोगों को यह भ्रम है कि उनका देश दुनिया का सबसे बड़ा देश है। तो अगर कोई वहां तुमसे यह कहे कि चीन सबसे बड़ा देश है, तो चुपचाप स्वीकार कर लेना; मत कहना कि सिसली सबसे बड़ा देश है। क्योंकि वे लोग नहीं समझ सकेंगे।
सिसली की कहां गणना है! चीन अगर हिमालय पर्वत है, तो सिसली कोई छोटा-मोटा टीला भी नहीं। अगर चीन महासागर है, तो सिसली कोई छोटी-मोटी तलैया भी नहीं। लेकिन सिसली में रहने वाले लोग तो यही मानते हैं कि उनके देश से महान और कौन!
हमें अपनी मूढ़ताएं दिखाई नहीं पड़तीं।
जब अंग्रेज पहली दफा चीन गए, तो वे बड़े हैरान हुए। चीनियों को देख कर उन्हें भरोसा ही न आए कि ये भी आदमी हैं! पहले यात्रियों ने अपने संस्मरणों में लिखा है कि चीनियों को देख कर हमें पहली दफा हैरानी हुई कि इनको आदमी कहें या कुछ और नाम दें! नाक चपटी, मुंह की हड्डियां उभरी हुईं; और दाढ़ी के नाम पर इतने बाल कि अंगुलियों पर गिन लो! चेहरे पीले! ये किस तरह के लोग हैं! इनकी वेशभूषा!
और चीनियों ने अंग्रेजों को देख कर क्या अपनी किताबों में लिखा--कि अब तक तो हमने सिर्फ सुना था कि ऐसे भी देश हैं जहां बंदरों जैसे आदमी होते हैं, अब हमें पक्का प्रमाण मिल गया है कि बंदरों जैसे आदमी होते हैं। ये बिलकुल बंदर! इनकी शक्ल-सूरत, इनकी चाल-ढाल, इनका रंग! और इनकी भाषा तो देखो, क्या गिच-पिच, गिच-पिच लगा रखी है!
और चीनियों की भाषा? अंग्रेज यात्रियों ने अपने संस्मरणों में लिखा है कि ऐसा लगता है कि ये लोग जब बच्चे का नाम रखते हैं, तो सारे घर की चम्मचें, बर्तन इत्यादि उठा कर जोर से ऊपर फेंकते हैं। फिर वे सब गिरती हैं, चिंग चुंग चांग चींग आवाज होती है। उस आवाज में से ये लोग नाम निकालते हैं। नहीं तो ऐसे-ऐसे नाम निकालेंगे कैसे!
यह बिलकुल स्वाभाविक है। हम ऐसे ही अंधे हैं। हम सब ऐसे अंधे हैं। हमारे अंधेपन की बड़ी प्रगाढ़ता है, बड़ी सघनता है। संन्यासी को यह अंधापन तोड़ना पड़े। यह दुनिया प्यारी है, क्योंकि यहां भिन्न-भिन्न लोग हैं, वैविध्य है। विविधता में रस है। विविधता में आनंद है।
लेकिन हम एक-दूसरे को बरदाश्त नहीं कर पाते, क्योंकि एक-दूसरे को देख कर हमें अड़चन होती है। फिर हमारी स्थिति क्या है? हम कहां? हम सदा इसी हिसाब में लगे रहते हैं कि क्यू में कौन आगे खड़ा है? यहां क्यू है ही नहीं; वर्तुलाकार लोग खड़े हैं। सब सब के आगे, सब सब के पीछे। चक्कर में खड़े होकर देखो, कौन किसके आगे है? कोई न कोई आगे है, कोई न कोई पीछे है। पीछे की तरफ देखो तो सब तुम्हारे पीछे हैं; आगे की तरफ देखो तो सब तुम्हारे आगे हैं। यह पृथ्वी गोल है, और हम वर्तुलाकार खड़े हैं। लेकिन सदियों से ये मूढ़तापूर्ण बातें दोहराई गई हैं। इसलिए तुम आकर अगर मेरे संन्यासी भी हो जाते हो तो भी एक-दो दिन में यह सदियों-सदियों का अंधकार टूटता नहीं है। तुम मेरी बात भी सुनते हो, तो पता नहीं क्या अर्थ लगाते होओगे!
मैं कोई भारत देश की गरिमा थोड़े ही गा रहा हूं! न कृष्ण ने गाई है, न बुद्ध ने गाई है, न महावीर ने, न नानक ने, न कबीर ने। ऐसे लोग क्षुद्रताओं के पार होते हैं। वे सारी पृथ्वी के हैं। यह सारी पृथ्वी इकट्ठी है; कहीं तो बंटी नहीं है। कहीं कोई दरार है, जहां एक देश दूसरे देश से अलग हो जाता हो? कहीं कोई दरार नहीं है। सब संयुक्त है। पृथ्वी ही संयुक्त नहीं है, चांदत्तारे भी संयुक्त हैं। यह सारा अस्तित्व इकट्ठा है। यहां कौन आगे, कौन पीछे!
मगर अहंकार इसी भाषा में सोचता है--आगे-पीछे--धन हो कि पद हो। और धन और पद में आगे-पीछे के सोचने का गणित, तर्कसरणी क्षमा भी कर दी जाए, लेकिन धर्म के जगत में तो क्षमा नहीं की जा सकती। यहां तो प्रथम होने की बात ही पाप है।
तुम पूछते हो: "क्या भारत-भूमि धार्मिकता की दृष्टि से सदा अग्रणी रहेगी?'
क्यों? कब थी अग्रणी? तुम्हारे सिवाय और कोई नहीं सोचता कि अग्रणी कभी थी। तुम जरा अपने ही भीतर तो जांच कर देखो। हिंदू महावीर को मानते हैं कि वे भगवान हैं? जैन बुद्ध को मानते हैं कि वे भगवान हैं? कि बौद्ध कृष्ण को मानते हैं कि वे भगवान हैं? जैनों ने कृष्ण को नर्क में डाला है! डालना ही पड़ेगा। उनके सिद्धांत के हिसाब से कृष्ण से ज्यादा उपद्रवी और कौन! भलामानुस था अर्जुन, सज्जन! युद्ध छोड़ कर मुनि होने की तैयारी कर रहा था। नहीं भागने दिया उसको। कृष्ण ने उसे जाल में बांध कर, समझा-बुझा कर, ठोंक-पीट कर किसी तरह...। इतनी लंबी गीता ऐसे ही तो नहीं चलती! खूब ठोंका, खूब पीटा। यहां से भागना चाहा, वहां से...। यह संदेह उठाया, वह संदेह उठाया। कृष्ण ने कोई संदेह टिकने न दिया। जबरदस्ती उसको लड़वा दिया! ऐसे-ऐसे सिद्धांत उसको बताए--कि जिनको तू समझ रहा है जिंदा, वे तो मर ही चुके हैं। परमात्मा तो उन्हें मार ही चुका है; तू तो निमित्त मात्र है। और तू नहीं मारेगा, तो कोई और मारेगा। तू क्यों मौका चूकता है? परमात्मा के अवसर का एक मौका मिल रहा है। परमात्मा ने तुझे अवसर दिया कि तू निमित्त हो जा। परमात्मा तो कोट टांगेगा, कोई न कोई खूंटी पर टांगेगा। तेरी खूंटी पर टांग रहा है, तू क्यों भाग रहा है? टंग जाने दे कोट! यह धन्यभाग्य है। बड़ी मुश्किल से मिलता है ऐसा भाग्य।
कई तरह से अर्जुन ने निकलना चाहा कि मैं चला जाऊं जंगल। क्या करूंगा इस राज्य को लेकर! अगर अपनों को ही मार कर यह राज्य मिलता हो तो इसका मूल्य कितना?
अगर गौर से तुम देखो, तो अर्जुन की बात ज्यादा आध्यात्मिक मालूम पड़ती है। क्योंकि वह यह कह रहा है, मारने से क्या फायदा? हिंसा से कहीं कोई पुण्य हो सकता है? लाखों लोग कटेंगे। अठारह अक्षौहिणी सेना खड़ी है, इसमें लाखों लोग कट जाएंगे। पट जाएगी धरती लाशों से। और सब अपने हैं, क्योंकि युद्ध गृहयुद्ध था, सही अर्थों में गृहयुद्ध था। आधे-आधे बंट गए थे। खुद कृष्ण अर्जुन की तरफ थे, उनकी फौज विपरीत लड़ रही थी। भाई इस तरफ थे, चचेरे भाई उस तरफ थे। मामा यहां थे, फूफा वहां थे। बचपन के मित्र बंट गए थे। क्योंकि सब साथ बड़े हुए, साथ पढ़े। भीष्म पितामह उस तरफ थे। जिनके सदा चरण छुए, आज उनकी छाती पर गांडीव लेकर हमला करने चलना पड़ेगा! द्रोणाचार्य उस तरफ थे, जिनसे धनुर्विद्या सीखी। जिनसे सीखी धनुर्विद्या, उन्हीं की छाती में तीर भोंक देंगे, छुरा भोंक देंगे! गुरुहत्या से बड़ी हत्या दुनिया में कही नहीं है कोई और।
अगर तुम गौर से देखो, तो लगता है अर्जुन ठीक ही तो कह रहा है कि इस युद्ध में रखा क्या है! चलो, इन्हीं को भोगने दो। मैं जंगल चला जाता हूं। अगर इनको इसमें रस है, तो लेने दो। पड़ा क्या है! दो दिन की जिंदगी है, जंगल में गुजार लूंगा। नहीं वस्त्र होंगे तो पत्तों से शरीर को ढांक लूंगा। मेरा मन ऊबता है। मेरा मन राजी नहीं होता।
लेकिन कृष्ण बड़े तर्क देते हैं और किसी तरफ ठोंक-पीट कर राजी कर लेते हैं! अगर पूरी गीता को गौर से देखो तो ऐसा लगता है: अर्जुन राजी नहीं होता, राजी किया जाता है। और जब वह राजी होता मालूम भी पड़ता है, तब भी ऐसा ही लगता है कि जैसे उसकी बोलती बंद कर दी गई। इतने तर्क दिए कृष्ण ने उसको कि उसने सोचा कि इससे बेहतर है लड़ ही लो! अब कब तक यह बकवास जारी रहे! और यह आदमी मानने वाला नहीं। और यह तो पक्का है कि यह आदमी मेधावी है। और इसकी मेधा के सामने मैं टिकूंगा नहीं। मेरे तर्क सब खंडित कर डाले, मेरे संदेह सब काट डाले। तो अर्जुन ने अंत में कहा कि ठीक है। आप ही ठीक कहते हैं। मेरे सब संदेह गिर गए। मजबूरी में अपना गांडीव उठा लिया!
युद्ध हुआ। भयंकर हिंसापात हुआ। इतना हिंसापात हुआ कि उस युद्ध के पहले भी इतना बड़ा युद्ध नहीं हुआ था भारत में, उसके बाद भी नहीं हुआ। इसलिए तो उसे महाभारत कहते हैं। फिर सब युद्ध छोटे पड़ गए--आगे के भी और पीछे के भी।
जैनों की तो सारी की सारी जीवन-दृष्टि अहिंसा पर खड़ी है। इसमें अर्जुन ज्यादा अहिंसक मालूम पड़ता है; कृष्ण हिंसक मालूम पड़ते हैं। और कृष्ण भाग्यवाद सिखा रहे हैं--कि सब नियत है, परमात्मा पहले ही मार चुका है। और जैनों की तो पूरी चिंतना कर्म पर खड़ी है, भाग्य पर नहीं। मनुष्य चाहे तो अपने भाग्य को बदल सकता है--यह उनकी आधारभूमि है। और जैन तो कहते हैं, कोई परमात्मा है नहीं, जिसने भाग्य लिख दिया हो; जिसने तुम्हारे माथे पर नियति खोद दी हो कि ऐसा ही होगा। तुम जो निर्णय करोगे, वही होगा। तुम्हारा निर्णय ही तुम्हारी नियति है।
तो जैन क्या करें? अर्जुन को सातवें नर्क में नहीं डाला है; कृष्ण को सातवें नर्क में डाला है! अर्जुन तो निमित्त मात्र है। ठीक ही कहा था कृष्ण ने कि तू निमित्त मात्र है। वे तो कह रहे थे परमात्मा का निमित्त मात्र; जैनों ने कहा कि यह निमित्त मात्र है कृष्ण का। यह चालबाजी कृष्ण की है! यह तो बेचारा केवल फंस गया जाल में; यह जवाब नहीं दे पाया। इसलिए अर्जुन तो पड़ा है पहले नर्क में, कृष्ण गए सातवें नर्क में! अर्जुन तो छूट भी गया होगा; उसका तो समय पूरा हो गया। कृष्ण नहीं छूटे हैं, और नहीं छूटेंगे। जब तक यह पूरी सृष्टि नष्ट नहीं होगी और नयी सृष्टि निर्मित नहीं होगी, तब तक नहीं छूटेंगे!
लेकिन जो कृष्ण को मानते हैं, उन्होंने महावीर का उल्लेख करने योग्य भी नहीं माना। उन्होंने अपने शास्त्र में महावीर का कोई उल्लेख नहीं किया है।
मेरे एक परिचित थे, ऋषभदास रांका। वे ही मुझे पहली दफा पूना लाए थे। जैन थे और गांधीवादी थे, तो गांधी का सर्व-धर्म-समन्वय उनके सिर में खूब भर गया था। मुझसे बोले कि मैं एक किताब लिख रहा हूं बुद्ध और महावीर पर। आप जरा देख जाएंगे तो अच्छा होगा। मैंने कहा, जरूर। जब उन्होंने अपनी किताब मुझे दिखाई, तो मैं शीर्षक पर ही अटक गया; आगे नहीं बढ़ा। फिर मैंने कहा, आगे मैं नहीं पढूंगा अब। शीर्षक था: भगवान महावीर और महात्मा बुद्ध!
मैंने पूछा, या तो दोनों को महात्मा लिखो या दोनों को भगवान।
वे कहने लगे कि दोनों को तो एक साथ कैसे रखूं? महावीर तो उपलब्ध हो गए हैं; बुद्ध उपलब्ध होने के करीब-करीब हैं, अभी हुए नहीं। महात्मा तक तो मान सकता हूं, लेकिन भगवान? क्योंकि भगवान के जो लक्षण महावीर ने कहे हैं वे बुद्ध में पूरे नहीं हो रहे हैं!
और बौद्धों से पूछो! बौद्धों ने जो लक्षण भगवान के कहे हैं वे महावीर में पूरे नहीं होंगे। क्योंकि लक्षण तो अपने-अपने गुरु को देख कर तय किए जाते हैं, वे दूसरे गुरु पर लागू कैसे होंगे? बौद्ध ग्रंथों में मजाक उड़ाया गया है महावीर का। क्योंकि जैन कहते हैं महावीर को त्रिकालज्ञ, तीनों काल का ज्ञाता। बौद्ध कहते हैं, जब भाग्य होता ही नहीं, तो भविष्य का कोई ज्ञाता कैसे हो सकता है? भविष्य का ज्ञान तो तभी हो सकता है जब भाग्य होता हो।
अगर कोई तुमसे कहे कि कल सुबह ऐसा-ऐसा होगा कि तुम्हारे हाथ से चाय की प्याली गिर कर टूट जाएगी। तो इसका मतलब तो यह हुआ कि यह तय है अभी कि कल चाय की प्याली गिरेगी। तुम लाख कुछ भी करो, कुछ होने वाला नहीं; चाय की प्याली गिरनी है। अगर यह तय ही है तो फिर मनुष्य के हाथ में क्या रहा? फिर कर्म का सिद्धांत खंडित हो जाता है।
और बौद्ध शास्त्र कहते हैं कि महावीर को कहते हैं जैन त्रिकालज्ञ! और हमने तो ऐसा सुना है--बौद्ध शास्त्र कहते हैं--कि एक बार महावीर ने एक ऐसे घर के सामने भिक्षा मांगी जिसमें कोई था ही नहीं! त्रिकालज्ञ--और ऐसे घर के सामने भिक्षा मांगने खड़े हो गए जिसमें कोई है ही नहीं! दरवाजा बंद है, और उनको इतना भी न दिखाई पड़ा त्रिकालज्ञ को कि भीतर कोई है नहीं!
और हमने तो ऐसा भी सुना है--बौद्ध शास्त्र कहते हैं--कि महावीर एक सुबह अंधेरे में, यात्रा को निकले होंगे एक गांव से दूसरे गांव को जाते समय, सोए हुए कुत्ते की पूंछ पर पैर पड़ गया! कुत्ता भौंका, तब पता चला कि कुत्ता सोया है। त्रिकालज्ञ--और सामने पड़े सोए कुत्ते का पता नहीं चलता! ये कैसे त्रिकालज्ञ?
अगर तुम बौद्ध और जैनों से पूछो कि राम अवतार हैं, भगवान हैं? कैसे मानेंगे? सीता मैया की मौजूदगी अड़चन डालेगी। और धनुष लिए हुए खड़े हैं। भगवान--और धनुष लिए खड़ा हो, धनुर्धारी हो! और तुलसीदास तो कहते हैं कि मैं तो धनुर्धारी के प्रेम में हूं। वे कृष्ण की प्रतिमा के सामने झुकते नहीं; कहते हैं कि जब तक धनुष-बाण हाथ नहीं लोगे, मैं सिर नहीं झुकाऊंगा। जैसे धनुष-बाण कोई प्रतीक है भगवान का, कि बिना धनुष-बाण के कोई भगवान नहीं हो सकता!
और परशुराम! उनका तो फिर कहना ही क्या! उन्होंने पृथ्वी को अठारह बार, कहते हैं, क्षत्रियों से विहीन कर दिया। गजब के ब्राह्मण! महाब्राह्मण कहना चाहिए। फरसा लिए घूम रहे हैं क्षत्रियों को काटते। हिंसा ही हिंसा जिनके जीवन का स्वर है। इनको हिंदू तो अवतार गिनते हैं।
तुम जरा यहीं गौर करो, और तुम मुश्किल में पड़ जाओगे। बाहर की तो बात छोड़ दो, तुम यहां भी तय नहीं कर पाओगे। और मैं तो कहता हूं, जीसस को भी जोड़ो, और मोहम्मद को भी जोड़ो, और जरथुस्त्र को भी जोड़ो, और मूसा को भी जोड़ो। मैं तो तुम्हें एक विराट दृष्टि दे रहा हूं। और तुम्हारे सबके भीतर संकीर्ण दृष्टियां बंधी हैं। उन संकीर्ण दृष्टियों में बंधे हुए तुम संकीर्ण रह जाओगे। मैं तो कहता हूं, इतनी खुली आंख होनी चाहिए, इतना विराट हृदय होना चाहिए कि राम भी समा जाएं, परशुराम भी समा जाएं--फरसा सहित! और मूसा भी, और मोहम्मद भी, और महावीर भी, और बुद्ध भी, और कृष्ण भी, कबीर भी, नानक भी। सारी पृथ्वी हमारी है। इस पृथ्वी पर खिले सारे फूल हमारे हैं। बगिया को छोटा क्यों करते हो? और एक ही फूल को फूल क्यों कहते हो?
अब जिसने गुलाब को ही फूल मान लिया और जो कहे कि मैं सिर्फ गुलाब को ही फूल मानता हूं, स्वभावतः कमल उसके लिए फूल नहीं रहा, चंपा उसके लिए फूल नहीं रहा, चमेली उसके लिए फूल नहीं रहा। रजनीगंधा खिलेगी, रात उसकी सुगंध से भर जाएगी, लेकिन जो गुलाब को ही फूल मानता है वह अपनी नाक पर रूमाल रख कर निकल जाएगा। वह इसको दुर्गंध कहेगा। वह इसे सुगंध नहीं मान सकता। सुगंध तो होती है गुलाब की!
तुम क्यों फूलों पर तय हो जाते हो? महावीर एक ढंग के फूल हैं, बुद्ध और ढंग के फूल हैं, परशुराम और ढंग के फूल हैं, राम और ढंग के फूल हैं, कृष्ण और ढंग के फूल हैं। इस परमात्मा की बगिया में बहुत फूल हैं। और इसलिए प्यारा है यह जगत! सतरंगा है। इंद्रधनुषी है।
अब तक तुम्हारी जो दृष्टियां हैं, इकतारे जैसी हैं। बस बैठे इकतारा बजा रहे। और भी वाद्य हैं, जिनमें बहुत तार होते हैं। और भी वीणाएं हैं; इकतारा ही सब कुछ नहीं है। लेकिन अब तक के धर्म इकतारे थे, एकांगी थे, एक-आयामी थे। मैं तुम्हें जो धर्म की दृष्टि दे रहा हूं बहु-आयामी है।
श्रवण, ये छोटी बातें छोड़ो। कौन आगे, कौन पीछे! यह भाषा ही भ्रांत है। यह भाषा ही पाप की भाषा है--आगे और पीछे। क्योंकि महत्वाकांक्षा पाप है। आकांक्षा से जगो, अहंकार से जगो। सारे अस्तित्व को स्वीकार करो। और इस अस्तित्व में जितने अनूठे-अनूठे पुरुष हुए हैं, सबको पीयो! सबका स्वाद लो। सबका स्वाद लोगे, तो तुम्हारे प्राणों में भी अपूर्व नाद का जन्म होगा।
श्रवण, तुम्हें तकलीफ है कि यहां विदेशी साधक हैं। इंजीनियर, डाक्टर, विचारक, द्रष्टा सारी दुनिया से पूना भागे आ रहे हैं! क्या वे हमसे आगे निकल जाएंगे?
तुम अपने को अलग क्यों करते हो? जैसे वे आ रहे हैं, वैसे तुम आ रहे हो। अब और अलग करना हो, तो पंजाबी अलग हो जाएगा, और गुजराती अलग हो जाएगा, और महाराष्ट्रियन अलग हो जाएगा। और फिर और अलग करना हो तो करते जाओ अलग, फिर पंजाब से आया हुआ सिक्ख अलग है और हिंदू अलग है। फिर यह अलग करना कहां रुकता है? यह तो कहीं भी नहीं रुकता। इसको अगर तुम गौर से खींचते जाओगे, तो आखिर में पाओगे: सवाल यह है कि मैं आगे रहूंगा कि कोई और आगे हो जाएगा? अगर तुम इसको खींचते गए, खींचते गए, तो निष्पत्ति, तार्किक निष्पत्ति यह होगी कि मैं आगे रहूंगा कि दूसरा आगे हो जाएगा?
मगर धर्म तो आगे होने की दौड़ ही नहीं है। यह तो अपने को मिटा देने की कला है; अपने को विसर्जित कर देने की कला है।
और अगर तुम्हें लग रहा है कि विदेशियों ने यहां जो प्रेम, करुणा, समर्पण का भाव सीखा है, आत्मसात किया है, वह आश्रम की गतिविधियों में स्पष्ट नजर आता है--तो तुम भी सीखो। तो तुम भी वैसा ही आत्मसात करो--अहिंसा को, करुणा को, प्रेम को, सेवा को। तो तुम भी वैसे ही डूबो।
और उनको विदेशी क्यों कहते हो? या तो हम सब विदेशी हैं। अगर परम चिंतन की बात करो, तो हम सब विदेशी हैं। हंसा, उड़ चल वा देस! तो यहां हमारा किसी का भी घर नहीं है; देश किसी का भी नहीं है यहां। जाना है हमें परलोक, पाना है परमात्मा को--उस दूसरे किनारे। इस किनारे पर हमारा घर नहीं है, सिर्फ पड़ाव है, बीच का पड़ाव है। ठहर गए हैं दो क्षण को, तंबू बांध लिया है। मगर कल सुबह होगी और उखाड़ना पड़ेगा तंबू। यहां तो सभी को मर जाना है, यह देश कैसा? यह देश नहीं है अपना। या तो इस अर्थ में अगर तुम विदेशी शब्द का उपयोग करो, तो मैं राजी हूं। लेकिन तब श्रवण, तुम भी विदेशी हो।
और अगर इस अर्थ में न कर सको, कि तुम देशी और दूसरे जो आए हैं--कोई इंग्लैंड से, कोई जर्मनी से, कोई इटली से, कोई हालैंड से, कोई जापान से--वे विदेशी हैं, तो फिर तुम गलत भाषा का उपयोग कर रहे हो। फिर कोई विदेशी नहीं है। फिर हम सब एक पृथ्वी के वासी हैं। लद गए दिन देशों के, और लद गए दिन राजनीति के। भविष्य कुछ और ला रहा है--कुछ नया आ रहा है! और तुम उस भविष्य की ही पहली झलक यहां देख रहे हो। तुम चौंकते भी नहीं।
और तुम्हारी ही ऐसी भूल नहीं है; यहां पत्रकार आते हैं--खासकर भारतीय पत्रकार--उनका पहला सवाल यही कि यहां इतने विदेशी क्यों हैं, देशी क्यों नहीं? लेकिन जर्मन नहीं पूछता कि यहां इतने इटालियन क्यों हैं! इटालियन नहीं पूछता कि यहां इतने डच क्यों हैं! डच नहीं पूछता कि यहां इतने जापानी क्यों हैं! यह मूढ़ता तुम्हीं को क्यों पकड़ती है?
और विदेशी ज्यादा दिखाई पड़ेंगे--स्वभावतः उसमें डच सम्मिलित है, स्वीडिश सम्मिलित है, स्विस सम्मिलित है, फ्रेंच सम्मिलित है, इटालियन सम्मिलित है, जर्मन, जापानी, चीनी, रूसी, कोरियन, आस्टे्रलियन, उसमें सारी दुनिया सम्मिलित है। और भारत तो फिर एक छोटी सी चीज रह गई। तो फिर तुमको अड़चन होती है कि यहां भारतीय कम क्यों हैं? जैसे तुम्हें कुछ हीनता का बोध होता है।
यह सारी पृथ्वी का आश्रम है। यह तो संयोग की बात है कि यह भारत की सीमा में पड़ रहा है; सिर्फ संयोग की बात है। यह पाकिस्तान में हो सकता है, यह ईरान में हो सकता है, यह कहीं भी हो सकता है। यह बिलकुल सांयोगिक है इसका यहां होना या वहां होना।
मेरी देशना सार्वलौकिक है, सार्वभौम है।
लेकिन हमें हर चीज में यह उपद्रव सिखाया गया है। और अच्छे-अच्छे लोग उपद्रव सिखा गए हैं। जिनको हम अच्छे लोग कहते हैं, उनमें भी हमारी मौलिक भूलों के आधार बने ही रहते हैं, मिटते नहीं। देशी-विदेशी का भाव जाता ही नहीं।
छोड़ो यह भाव! सब विदेशी या सब देशी--दो में से कुछ एक चुन लो। मैं दोनों में से किसी से भी राजी हूं। मगर खंड न करो, अखंड रहने दो।
अब तुम पूछ रहे हो: "भगवान, क्या आपकी संपदा से भारत-भूमि वंचित रह जाएगी?'
फिर वही भारत-भूमि वापस आ जाती है! तुम्हारा दिमाग विक्षिप्त तो नहीं है? यह भारत-भूमि, भारत-भूमि क्या तुमने लगा रखी है? भूमि को कुछ भी पता नहीं है। जरा भूमि से तो पूछो! जरा मिट्टी भारत की उठा कर और चीन की मिट्टी उठा कर और जापान की मिट्टी उठा कर, जरा तय करने की कोशिश करो कि कौन सी मिट्टी भारत की है। और तुम मुश्किल में पड़ जाओगे। मिट्टी मिट्टी है। पत्थर पत्थर हैं। पानी पानी है। आदमी आदमी है। पुरुष पुरुष हैं, स्त्रियां स्त्रियां हैं। लेकिन हम विशेषणों के आदी हो गए हैं।
अब तुम्हें यह डर लग रहा है कि यहां इतने विदेशी आ रहे हैं, कहीं इसके कारण, जो सत्य मैं तुम्हें दे रहा हूं, वह विदेशी न लूट ले जाएं!
यह सत्य कुछ लूटने वाली चीज थोड़े ही है। जो लेगा, उसे मिलेगा। और तुम इसी चिंतना में न पड़े रहो। तुम भी जल्दी करो। तुम भी पीयो। और जिनको प्यास है, वे आ रहे हैं। जिनको इस देश में प्यास है, वे भी आ रहे हैं। जिनको बाहर के देशों में प्यास है, वे भी आ रहे हैं।
और स्वभावतः इस तथाकथित भारत के बाहर प्यास ज्यादा है। उसका कारण है। क्योंकि भारत को तो यह भ्रांति है पहले से कि हम तो धार्मिक हैं ही। अब जिसको यह खयाल हो कि मैं स्वस्थ हूं ही, वह चिकित्सक के पास क्यों जाए? किसलिए जाए? कोई कारण नहीं उसका जाने का। जिसको एहसास होगा कि मैं बीमार हूं, वह चिकित्सक के पास जाएगा।
भारत को यह भ्रांति है कि हमारे पास तो धर्म है ही। हमारा तो धंधा ही धर्म है। हमारा तो काम ही यह है। हमें तो यही काम दिया है भगवान ने कि सारी दुनिया को धर्म का संदेश दें। हम तो धर्म के संदेशवाहक हैं, धर्म हो या न हो!
एक अंग्रेज यात्री ने लिखा है कि दिल्ली स्टेशन पर वह उतरा और एक सरदारजी ने, जो कि ज्योतिषी हैं, उसका हाथ पकड़ लिया। वह हाथ छुड़ाए, मगर सरदार! सरदार ऐसे कोई हाथ छोड़ न दे। फिर वह संकोचवश, एकदम मारने-पीटने को उतारू होना भी ठीक न मालूम पड़े, नया-नया आया है और सरदारजी उसकी सुनते ही नहीं, उसकी रेखाएं देख कर उसका भविष्य बताना शुरू कर दिया। भविष्य बोले ही जा रहे हैं। वह कहता है, मुझे भविष्य जानना नहीं है। मुझे भविष्य में कोई रस नहीं है। मेरी कोई मान्यता नहीं है भविष्य की। आप कृपा कर मेरा हाथ छोड़ो! मगर सरदारजी उसकी सुन ही नहीं रहे हैं! सुन लें तो वे सरदार ही नहीं फिर! और हाथ ऐसा कस कर पकड़ा है कि छुड़ा भी नहीं सकता। और शिष्टाचारवश भी ऐसा लगता है कि यह आदमी कोई बुरा तो कर नहीं रहा है। और जब दस-पंद्रह मिनट सरदारजी धुआंधार बोले ही गए, तो उसने कहा, भाई, मुझे जाने भी दो, मुझे जाना है! तो सरदारजी ने कहा कि दो रुपये फीस! उसने कहा, मैं पहले से कह रहा हूं कि मुझे जानना नहीं है। यह तो जबरदस्ती है। सरदारजी ने मालूम उससे क्या कहा! उसने कहा, अरे भौतिकवादी! दो रुपये के पीछे मरे जा रहे हो!
अब इसमें भौतिकवादी कौन है? सरदार दो रुपये लेकर माना। छोड़ा नहीं पीछा। पीछे ही चलता रहा। चिल्लाता रहा कि अरे भौतिकवादी! अरे भ्रष्ट! अरे दो रुपये के पीछे मरने वाले! मैंने तुम्हारा भविष्य बताया, पंद्रह मिनट खराब किए!
उस आदमी ने सोचा कि दो रुपये देकर झंझट मिटा लेना ठीक, क्योंकि भीड़ इकट्ठी होने लगी। जैसे ही उसने दो रुपये दिए, सरदार ने फिर उसका हाथ पकड़ लिया और कहा कि कुछ बातें और रह गई हैं जो मैं बताऊंगा। उसने कहा,अब मुझे बिलकुल नहीं जाननी। और अगर बतानी हों तो खयाल रखना, फिर दो रुपये मत मांगने लगना!
इस देश से ज्यादा भौतिकवादी देश खोजना मुश्किल है। लेकिन धार्मिक होने का अहंकार है। धार्मिक होने के वस्त्र ओढ़े हुए हैं। लोग राम-नाम की चदरिया ओढ़े हुए हैं। और सोचते हैं कि हमें क्या जरूरत है! हमें तो धर्म का पता ही है! पश्चिम का सौभाग्य है कि उसको यह बोध है कि उसे धर्म का पता नहीं है। और तुम्हारा यह दुर्भाग्य है कि तुम्हें यह खयाल है, भ्रांति है कि तुम्हें धर्म का पता है। और तुम्हें यह भ्रांति क्यों? क्योंकि तुम्हें गीता कंठस्थ है। क्योंकि तुम्हें वेद याद हैं। क्योंकि तुम्हें यह खयाल है कि सारे अवतारी पुरुष तुम्हारे यहां पैदा हुए। यह सारी भ्रांतियों का लंबा इतिहास है, जो तुम्हारी छाती पर पत्थर की तरह बैठा हुआ है। और यही तुम्हारी अकड़ है। और तुम्हारे पास अकड़ को कुछ है भी नहीं! यही थोथी अकड़ बस तुम्हारे अहंकार को फुला कर रखे हुए है। इसलिए तुम आओ क्यों! गीता घर पढ़ लेते हो, तिलक-चंदन लगा लेते हो, आरती उतार लेते हो, यज्ञ-हवन कर लेते हो। तुम्हें आने की जरूरत क्या!
पश्चिम के आदमी के जीवन में एक अपूर्व घटना घट रही है और वह यह कि वह बहुत तथ्यवादी हो गया है। विज्ञान का यह परिणाम है। विज्ञान ने तीन सौ वर्षों में पश्चिम को तथ्यवादी होना सिखाया है। मिथ्या धारणाएं नहीं, आकाश की बातें नहीं--पृथ्वी की बातें! और इन तथ्य को जानने की प्रक्रिया का जो अंतिम परिणाम हुआ है वह यह कि पश्चिम को यह दिखाई पड़ने लगा कि हमारे भीतर कुछ कमी है। यह तथ्य बोध में आने लगा। हम इसे बाइबिल से ढांक न सकेंगे। हम इसे जीसस के वचनों को कंठस्थ करके छिपा न सकेंगे।
यह बोध बड़ा सौभाग्य है, क्योंकि यह बोध की पीड़ा उसे तलाश में ले जा रही है। वह दूर-दूर देशों की यात्रा कर रहा है--जहां संभव हो, जहां से खबर आए, जहां से सूरज की किरण मिले, जहां एक दीया जला मिले। उसे पता हो गया है कि वह अमावस की अंधेरी रात में रह रहा है।
तुम आंख बंद किए बैठे हो और सोचते हो कि पूर्णिमा है। तुम जोर-जोर से चिल्ला रहे हो कि पूर्णिमा है! पूर्णिमा है! पूर्णिमा है! तुम आंख खोल कर देखते नहीं। आंख खोल भी नहीं सकते, क्योंकि देखोगे, तो तुमको अमावस दिखाई पड़ेगी। इस देश में घना अंधेरा है। तुम्हारे पंडित अंधे हैं, उन्हें कुछ पता नहीं है। और अंधों के पीछे अंधे चल रहे हैं। नानक ने कहा, अंधा अंधा ठेलिया! अंधे अंधों को धक्का दे रहे हैं; अंधे अंधों को चला रहे हैं। दोनों कूप पड़ंत! दोनों कुएं में गिरेंगे। मगर कुएं में भी गिर जाएं, तो भी वे कहेंगे कि मानसरोवर आ गए! कुएं में भी गिर जाएं, डुबकी भी खाएं, तो भी कहेंगे कि अहा, कैसा आनंद आ रहा है!
तुम्हारी ये भ्रांत धारणाएं हैं। इससे बड़े कुएं में और तुम गिरोगे कहां जहां तुम आज गिरे पड़े हो? और अंधेरा क्या होगा? और दीनता क्या होगी? और दरिद्रता क्या होगी? इससे ज्यादा और रुग्ण अवस्था क्या होगी? मगर खोपड़ी में एक वहम है, वह वहम नहीं आने देता।
लोग मुझे पत्र लिखते हैं। एक जैन ने ग्वालियर से चार-छह दिन पहले ही पत्र लिखा, कि मैं बीस वर्ष से साधना कर रहा हूं। काफी प्रगति हुई है, अनुभव भी काफी हो रहे हैं। कुंडलिनी भी जग रही है। प्रकाश का भी अनुभव होता है। लेकिन सोचता हूं, शायद आपके पास आने से और भी लाभ हो! लेकिन पहले मैं यह जानना चाहता हूं कि आप कौन सा मंत्र देते हैं। क्योंकि मंत्र मैं आपसे नहीं ले सकता हूं। मंत्र तो मैंने लिया ही हुआ है।
मैंने उनको लिखवाया: यहां आने की कोई जरूरत ही नहीं है। प्रकाश भी हो रहा है; कुंडलिनी भी जग रही है; मंत्र भी लिया हुआ है। अब और यहां आने की क्या जरूरत है?
और मंत्र भी ले नहीं सकते हैं। गुरु भी बना नहीं सकते हैं। क्योंकि गुरु तो मैं पहले ही, बीस साल पहले किसी को बना चुका हूं। तो फिर यहां आने का सवाल क्या है?
इस देश में हर एक का गुरु है और हर एक ने मंत्र लिया हुआ है। और कुछ उपलब्ध नहीं हुआ है तुम्हारे मंत्रों से और तुम्हारे गुरुओं से। मगर यह कहने के लिए भी छाती चाहिए, बड़ी छाती चाहिए कि मुझे कुछ उपलब्ध नहीं हुआ है। उनके पत्र से जाहिर है कि कुछ उपलब्ध नहीं हुआ है, नहीं तो यहां आने का सवाल क्या? जब तुम ठीक रास्ते पर चल पड़े हो और रोशनी भी आने लगी, आनंद भी आने लगा, तो अब चलते जाओ।
मैंने उनको लिखवा दिया कि मजे से अपने रास्ते पर चलो। मुझे तो उनको रास्ता दिखाने दो, जिनके पास मंत्र नहीं है, गुरु नहीं है, राह नहीं है, जो अंधेरे में खड़े हैं। तुम तो काफी प्रकाश में हो; तुम्हें तो राह मिल ही गई; अब उसी को चले चलो। नाक की सीध में चलते जाना, पहुंच जाओगे!
एक सज्जन कुछ दिन पहले यहां आए। तीस साल से हिमालय रहे हैं, तो अकड़ आ गई हिमालय की। तीस साल पहले घर छोड़ा था। जवान थे, अब तो बूढ़े हो गए। कहने लगे कि परम आनंद मिल रहा है हिमालय में। फिर मैंने कहा, तुम यहां काहे के लिए परेशान हुए हो? परम आनंद से ऊपर तो और कुछ है नहीं!
वे थोड़े झिझके। कहा कि नहीं, सोचा शायद...।
मैंने कहा, शायद का कोई सवाल ही नहीं। अगर शायद का कोई सवाल हो, तो पहले परमानंद के संबंध में तय हो जाना चाहिए--कि परमानंद मिल रहा है कि नहीं मिल रहा?
उन्होंने कहा, अब आप अगर आग्रह ही करते हैं, तो शायद मुझसे गलती हो गई। परमानंद नहीं कहना चाहिए, आनंद मिल रहा है।
तो मैंने कहा कि आनंद में भी कमोबेश होता है? कम आनंद, ज्यादा आनंद--ऐसी भी कोई चीज होती है? जैसे वर्तुल पूरा होता है या फिर वर्तुल नहीं होता। ऐसे ही आनंद पूरा होता है। परम तो अनावश्यक विशेषण है। आनंद तो परम है ही।
वे थोड़े और मुश्किल में पड़े। उन्होंने कहा कि तो आप ऐसा मान लो कि नहीं मिल रहा आनंद। मैंने कहा, मैं क्यों मानूं? आपको मिल रहा हो और मैं मानूं कि नहीं मिल रहा है, मुझे क्यों अज्ञान में डालते हैं? आपको मिल रहा है, तो जरूर मिल रहा होगा। लेकिन जिसको आनंद मिल रहा हो वह हिमालय से यहां की यात्रा किसलिए करेगा?
मैंने कहा, मैं तो आपसे बात भी नहीं करूंगा, जब तक आप अंगीकार न करें सत्य को कि आपको आनंद का कोई पता नहीं। क्योंकि मुझे दिखाई पड़ रहा है, आपकी आंखों में कोई आनंद नहीं है। तीस साल गंवाए हैं। मगर अहंकार मानने को राजी नहीं होता।
उन्होंने चारों तरफ देखा। इसीलिए मैं लोगों से अकेले में नहीं मिलता। क्योंकि अकेले में वे जल्दी स्वीकार कर लेते हैं। मगर उस स्वीकृति का कोई मूल्य नहीं है। चारों तरफ देखा कि अब कैसे कहें! लेकिन बड़ी दुविधा भी हो गई। इतनी दूर आए हैं। कई दिनों से आने का कहते थे, लिखते थे। आ भी गए। कहा कि ठीक कहते हैं आप। सच तो यही है कि आनंद का कुछ पता नहीं चला। जो-जो कहा, किया। लेकिन कुछ मिला नहीं। इसीलिए आपके पास आया हूं।
मैंने कहा, अब कोई बात हो सकती है। अब आगे बढ़ा जा सकता है। तुम बीमार नहीं, और मैं निदान करूं; तुम बीमार नहीं, और मैं उपचार करूं; तुम बीमार नहीं, और मैं औषधि दूं--तो मुझसे पागल और कौन होगा!
भारत की यही कठिनाई है। श्रवण, यहां सारे लोग ब्रह्मज्ञानी हैं! जो देखो वही ब्रह्मज्ञान की चर्चा में लीन है! सुनते-सुनते ब्रह्मज्ञान की बातें सभी को कंठस्थ हो गई हैं। तुलसीदास की चार चौपाइयां याद हो गईं, कि बस। रहीम के दोहे याद हो गए, कि बस। क्यों जाना कहीं, क्यों खोजना!
और फिर मेरे जैसे लोगों के पास आना तो और भी कठिन हो जाता है, क्योंकि मैं तुम्हें जड़ों से हिलाता हूं। मैं पत्ते-पत्ते नहीं काटता। पत्ते काटने में मेरा भरोसा नहीं है; जड़ें ही काटने में मेरा भरोसा है। क्योंकि जड़ें ही काटें, तो क्रांति। पत्ते काटने से तो फिर ऊग आएंगे; और घने हो जाएंगे।
भारत चूकेगा, अगर अपने अहंकार को छोड़ने को लोग राजी न हों तो। जरूर चूकेगा। अहंकार बाधा है। फिर वह भारतीय का अहंकार हो कि गैर-भारतीय का, इससे कुछ फर्क नहीं पड़ता। अहंकार जहां है, वहां बाधा है।
और तुम पूछते हो: "क्या भविष्य में भी भारत-भूमि पर इसी तरह महान पुरुषों का अवतार होता रहेगा?'
तुम कहां की फिजूल की बातों में पड़े हो! तुम्हें अपनी कुछ फिक्र है कि नहीं? भविष्य से तुम्हें क्या लेना-देना? अतीत में इतने महापुरुष हो गए, तुम्हें क्या लाभ हुआ? और भविष्य में भी होते रहे मान लो, तो तुम्हें क्या लाभ होगा?
तुम कुछ पी लो। तुम कुछ जी लो। तुम औरों की चिंता न करो। अपने माहिं टटोल! अपनी स्थिति समझो। तुम्हारा उत्तरदायित्व तुम्हारे प्रति है। अब भारत में आगे होंगे कि नहीं होंगे, छोड़ो उन पर जो भारत में आगे आएंगे। वे जानें, उनका काम जाने। अतीत में इतने महापुरुष हुए, क्या तुमने लाभ लिया? जब अतीत के महापुरुषों तक का लाभ नहीं ले सके, तो भविष्य के तो अभी हुए ही नहीं हैं, उनका तो तुम कैसे लाभ लोगे? जो फूल खिल गए उनकी गंध नहीं ले रहे हो, तो जो फूल कभी खिलेंगे भविष्य में उनकी क्या तुम गंध लोगे?
और फूल खिलते रहेंगे। यह पृथ्वी कभी सूनी नहीं होती। परमात्मा किसी न किसी रूप में उतरता रहता है। क्योंकि परमात्मा ने अभी आदमी के प्रति आशा नहीं खोई है। अभी परमात्मा आदमी से निराश नहीं हुआ है। अभी परमात्मा ने मनुष्य से वैराग्य नहीं लिया है। अभी मनुष्य से परमात्मा का राग है, प्रीति है, प्रेम है। लेकिन तुम इन उलझनों में न पड़ो।
श्रवण, सुनो! तुम्हें नाम दिया है श्रवण। सुनो! जी भर कर सुनो! गुनो! और सुनो और गुनो ही नहीं, जीओ भी। तुम्हारे भीतर का दीया जल जाए।
मेरी सारी निष्ठा व्यक्ति में है; समाज में नहीं, राष्ट्र में नहीं, अतीत में नहीं, भविष्य में नहीं। मेरी सारी निष्ठा वर्तमान में और व्यक्ति में है। क्योंकि व्यक्ति ही रूपांतरित होता है, समाज रूपांतरित नहीं होते। क्रांति व्यक्ति में होती है, क्योंकि व्यक्ति के पास आत्मा है। जहां आत्मा है, वहां परमात्मा उतर सकता है। समाज की कोई आत्मा ही नहीं होती, वहां परमात्मा की कोई संभावना नहीं है।


*दूसरा प्रश्न: भगवान! तथागत बुद्ध के अनुसार जन्म दुख है, मरण दुख है, जीवन दुख है। भगवान, आपके अनुसार जन्म क्या है, मृत्यु क्या है, जीवन क्या है? और उपनिषदों की इस प्रार्थना "मृत्योर्मा अमृतं गमय' का क्या आशय है? यह किस मृत्यु से किस अमृत की ओर जाना है? कृपया समझाएं।

चैतन्य कीर्ति! बुद्ध कहते हैं: जन्म दुख है, मरण दुख है, जीवन दुख है। मैं उनसे राजी भी, राजी नहीं भी। एक अर्थ में राजी, एक अर्थ में राजी नहीं। अहंकार का जन्म दुख है, अहंकार का मरण दुख है, अहंकार का जीवन दुख है। इस अर्थ में मैं राजी। लेकिन आत्मा का जीवन आनंद है। आत्मा का जन्म आनंद है, आत्मा की मृत्यु आनंद है।
आत्मा का जन्म आनंद है, क्योंकि आत्मा का जन्म होता ही नहीं, आत्मा जन्म के पहले है। आत्मा का जीवन आनंद है, क्योंकि आत्मा केवल साक्षी है, भोक्ता नहीं। और आत्मा की मृत्यु भी आनंद है, क्योंकि आत्मा की कोई मृत्यु होती ही नहीं, आत्मा अमृत है।
बुद्ध ने अहंकार के आधार पर कहा है कि जीवन दुख है, जन्म दुख है, मरण दुख है।
तुम्हारा जीवन दुख है, मेरा जीवन दुख नहीं है। तुम अगर अहंकार के केंद्र पर जी रहे हो, तो तुम्हारे चारों तरफ नरक पैदा होगा। अहंकार झूठ है, असत्य है, मिथ्या है। उससे बड़ा कोई असत्य नहीं है। और असत्य के आधार पर जो जीवन का भवन खड़ा करेगा वह कागज की नाव में यात्रा करने की कोशिश कर रहा है, कि पत्ते के महल बना रहा है--ताश के पत्तों के घर--जरा सा झोंका हवा का आया कि गए! इसलिए पछतावा होगा, रोना होगा, पीड़ा होगी। जो भी बनाओगे, मिट जाएगा। जो भी जुड़ाओगे, छिन जाएगा। सब जीवन पानी के बबूलों जैसा होगा।
लेकिन कारण जीवन नहीं है, कारण तुम्हारा अहंकार है। इसलिए बुद्ध ने कहा, मैं-भाव छोड़ दो। मैं हूं ही नहीं, शून्य हूं--ऐसा जान लो, तो निर्वाण। जिसे बुद्ध निर्वाण कहते हैं, उसे ही मैं आत्मा कह रहा हूं, उसे ही परम जीवन कह रहा हूं। मैं छूट जाए तो रस ही रस है। रसो वै सः। फिर परमात्मा की रसधार उतरनी शुरू होती है। अहंकार चट्टान की तरह रोक रहा है उसके झरने को फूटने से।
तो चैतन्य कीर्ति, खयाल रखना, बुद्ध से इस अर्थ में तो मैं राजी हूं। अहंकार का जन्म दुख। और अहंकार का ही जन्म होता है, क्योंकि झूठ का ही जन्म होता है। सत्य तो सदा है, उसका कोई जन्म नहीं होता। और झूठ ही मरता है। सत्य कैसे मर सकता है? सत्य तो शाश्वत है। और सत्य का जीवन कैसे दुख हो सकता है? सत्य का जीवन तो आनंद ही होगा। सत्य की आभा आनंद की होगी। सत्य तो आनंद को ही विकीर्णित करता है। सत्य में तो आनंद के फूल पर फूल खिलते चले जाते हैं। सत्य तो मदिरा है मस्ती की। अहंकार तो कांटा है छाती में गड़ा हुआ; घाव करता है, मवाद पैदा करता है, नासूर बनाता है; कीड़े पड़ जाते हैं।
और तुमने पूछा कि "उपनिषदों की इस प्रार्थना--मृत्योर्मा अमृतं गमय--का क्या आशय है?'
उपनिषद की यह प्रार्थना संसार की श्रेष्ठतम प्रार्थना है। इतनी छोटी, इतनी गहरी, इतनी विराट कोई और प्रार्थना नहीं है। इस प्रार्थना में सब आ गया है।
पूरी प्रार्थना है: तमसो मा ज्योतिर्गमय! हे प्रभु, मुझे अंधकार से प्रकाश की ओर ले चल।
याद दिला दूं कि अंधकार अर्थात अहंकार। यह बाहर के अंधकार की बात नहीं है। क्योंकि बाहर के अंधकार के लिए प्रभु से क्या प्रार्थना करनी! वह तो बिजली दफ्तर में गए, तो भी काम हल हो जाएगा। घासलेट का तेल काफी है। इसके लिए प्रभु से क्या प्रार्थना करनी! बाहर का अंधकार तो बाहर की रोशनी से मिट जाता है।
लेकिन भीतर एक अंधकार है, वह बाहर की रोशनी से नहीं मिटता। सच तो यह है कि बाहर जितनी रोशनी होती है, उतना ही भीतर का अंधकार स्पष्ट होता है, रोशनी के संदर्भ में और भी उभर कर प्रकट होता है। जैसे रात में तारे दिखाई पड़ने लगते हैं अंधेरे की पृष्ठभूमि में, दिन में खो जाते हैं। ऐसे जितना ही बाहर प्रकाश होता है, जितनी भौतिकता बढ़ती है, उतना ही भीतर का अंधकार स्पष्ट होता है। जितनी बाहर समृद्धि बढ़ती है, उतनी ही भीतर की दरिद्रता पता पड़ती है। जितना बाहर सुख-वैभव के सामान बढ़ते हैं, उतना ही भीतर का दुख सालता है।
इसलिए मैं एक अनूठी बात कहता हूं जो तुमसे कभी नहीं कही गई है। मैं चाहता हूं, पृथ्वी समृद्ध हो, खूब समृद्ध हो। धन ही धन का अंबार लगे। कोई गरीब न हो। क्यों? क्योंकि जितना धन का अंबार लगेगा बाहर, उतना ही तुम्हें भीतर की निर्धनता का बोध होगा। जितने तुम्हारे पास वैभव के साधन होंगे, उतनी ही तुम्हें पीड़ा मालूम होगी कि भीतर तो सब खाली-खाली है, रिक्त-रिक्त।
आज पश्चिम में, जहां बाहर का धन, बाहर का वैभव अपनी अंतिम पराकाष्ठा को छू रहा है, वहां एक ही बात की चर्चा है कि आदमी के भीतर इतनी रिक्तता क्यों है, इतना खालीपन क्यों है? भारत में इसकी कोई बात ही नहीं करता कि आदमी के भीतर रिक्तता क्यों है। भीतर की खाक बात करें, अभी बाहर की रिक्तता तो भरती नहीं! अभी पेट की रिक्तता तो भरती नहीं, आत्मा की रिक्तता की बात भी करें तो किस मुंह से करें! अभी पेट खाली है, रोटी चाहिए। अभी जीसस का वचन कि आदमी केवल रोटी के सहारे नहीं जी सकता, जंचेगा नहीं। सुन भी लोगे तो भी जंचेगा नहीं। अभी तो तुम कहोगे, पहले रोटी तो मिले, फिर सोचेंगे कि रोटी के सहारे जी सकता है या नहीं। यह भी रोटी मिल जाए उसके बाद ही सोचा जा सकता है।
मैं जीसस के वचन में एक वचन और जोड़ देना चाहता हूं। अधूरा है वह वचन। असल में अतीत के सारे वचन एक अर्थों में अधूरे हैं। जीसस कहते हैं: मनुष्य रोटी के सहारे ही नहीं जी सकता। मैं यह भी कहना चाहता हूं कि मनुष्य रोटी के बिना भी नहीं जी सकता। रोटी चाहिए, मगर रोटी पर्याप्त नहीं है। जरूरी है, आवश्यक है--काफी नहीं है। रोटी मिल जाए, पेट भरा हो, तो एक नई भूख का अनुभव होता है--आत्मा की भूख। बाहर प्रकाश हो, तो एक नये अंधकार की प्रतीति होती है--भीतर का अंधकार। उस अंधकार का नाम अहंकार है। उस अहंकार के कारण ही दिखाई नहीं पड़ता कि मैं कौन हूं। यह मैं की गलत धारणा ही हमें दिखाई नहीं देने देती उसको जो हम वस्तुतः हैं।
इसलिए उपनिषद के ऋषि की प्रार्थना ठीक है कि हे प्रभु, मुझे अंधकार से प्रकाश की ओर ले चल। असतो मा सद्गमय! हे प्रभु, मुझे असत्य से सत्य की ओर ले चल।
इसमें एक तर्क-सरणी है। अंधकार से प्रकाश का अर्थ होता है अहंकार से आत्मा की ओर। आत्मा प्रकाश है, अहंकार अंधकार है। फिर दूसरा कदम: असत्य से सत्य की ओर ले चल।
अहंकार असत्य है। है नहीं, भासता है। कितना हम उछालते हैं अहंकार को, जो है ही नहीं! जो नहीं है, उसके पीछे मर जाते हैं, कट जाते हैं। जरा किसी का धक्का तुम्हें लग जाए तो तुम फौरन कहते हो, जानते हो, मैं कौन हूं! खुद भी पता नहीं है कि तुम कौन हो।
प्रसिद्ध दार्शनिक शापेनहार के जीवन में यह घटना है कि वह सुबह-सुबह जल्दी ही बगीचे में घूमने चला गया एक दिन। उसने सोचा था कि सुबह होने के करीब ही है, लेकिन अभी आधी रात ही थी। वह बगीचे में घूमने लगा; कोई न था, सन्नाटा था। जोर-जोर से अपने से पूछने लगा, मैं कौन हूं? अभी-अभी उपनिषद पढ़ रहा था। शापेनहार उपनिषदों से इतना प्रभावित हुआ था कि उनको सिर पर लेकर नाचा था। उपनिषदों ने एक जिज्ञासा उसके मन में जगाई थी कि मैं कौन हूं? वह गूंज रही थी उसके भीतर। उसी के कारण वह सो भी नहीं सका, क्योंकि बड़ी बेचैनी पैदा हो गई कि मुझे पता नहीं कि मैं कौन हूं! नाम तो मैं नहीं हूं निश्चित ही। रूप भी मैं नहीं हूं, क्योंकि बचपन में एक रूप था, जवानी में दूसरा, बुढ़ापे में तीसरा। देह भी मैं नहीं हूं, क्योंकि मेरा हाथ कट जाए तो भी मैं नहीं कटता हूं, मेरा पैर कट जाए तो मैं नहीं कटता हूं। मैं जरा भी कम नहीं होता। तो देह मैं नहीं हूं। और मन भी मैं नहीं हूं, क्योंकि मन तो प्रतिपल भागा जा रहा है, बदला जा रहा है। अभी क्रोध, अभी प्रेम; अभी घृणा, अभी वैमनस्य; अभी करुणा, अभी क्रूरता। कुछ पता ही नहीं, मन तो ऐसा भाग रहा है! इस मन के साथ मैं कैसे हो सकता हूं? जरूर मैं कुछ और हूं--देह, मन, दोनों के पार।
तो पूछ रहा था एकांत पाकर बगीचे में। कोई नहीं था, तो धीरे-धीरे पूछते-पूछते जोर-जोर से पूछने लगा कि मैं कौन हूं? माली जाग गया। लालटेन लेकर माली आया कि इतनी रात अंधेरे में कौन घुस आया! और जब उसने सुना कि पूछ रहा है "मैं कौन हूं?' तो समझा कि कोई पागल है।
पागल ही पूछते हैं कि मैं कौन हूं; और कौन पूछेगा! यहां समझदारों को तो पता ही है। अगर तुमसे कोई पूछे तो तुम कहोगे, इसमें क्या पूछना है! मेरा नाम, मेरा पता, यह रहा मेरा कार्ड! अगर बहुत तुम्हें संदेह हो तो आइडेंटिटी कार्ड बता दोगे, कि अपना पासपोर्ट बता दोगे कि यह लो। यह मेरे पिता का नाम है, यह मेरे गांव का नाम है, यह मेरा नाम है, यह मेरी फोटो रही, और क्या चाहिए! समझदार तो बस इतने पर राजी हो गए हैं। खाक समझदारी है!
माली को लालटेन लिए...डरा-डरा माली लालटेन और लट्ठ लिए चला आ रहा है! डरा-डरा, कि पागल आदमी मालूम होता है। आधी रात बगीचे में घुस आया एक तो, और इतने जोर-जोर से पूछ रहा है कि मैं कौन हूं! माली को आता देख कर शापेनहार चुप हो गया। संकोच लगा उसे कि इसके सामने कैसे पूछना जोर-जोर से कि मैं कौन हूं! क्या सोचेगा! माली ने पास आकर जोर से लट्ठ पटका, लालटेन ऊपर उठाई और कहा कि भाई, तुम कौन हो?
शापेनहार ने कहा, हद कर दी! अरे, यही मैं पूछ रहा हूं! मुझे ही पता होता तो यहां बगीचे में आधी रात इस सर्दी में शोरगुल मचाता, तेरी नींद खराब करता! तुझे पता हो तो बता दे मैं कौन हूं! माली ने कहा, पागल तो नहीं हो? शापेनहार ने कहा, अब तक पागल था, क्योंकि सोचता था कि जानता हूं कि मैं कौन हूं। आज पहली दफा पागल नहीं हूं। तुझे पता है तू कौन है?
माली ने कहा, भैया, ये विचार तुम अपने ही पास रखो। मेरे बाल-बच्चे हैं, पत्नी है। अभी-अभी शादी, अभी घर-गृहस्थी बस ही रही है, कच्ची है। ये सवाल तुम अपने ही पास रखो। ऐसे उलटे-सीधे सवाल मैं नहीं पूछता। यह भी कोई सवाल है--मैं कौन हूं!
जिसको हमने मान रखा है अब तक "मैं हूं', वह असत्य है, झूठ है, मान्यता मात्र है। इसलिए उपनिषद की प्रार्थना कहती है: हे प्रभु, मुझे असत्य से सत्य की ओर ले चलो। मैंने एक मिथ्या को मैं मान रखा है और उस मिथ्या में मेरा असली मैं छिप गया है।
और फिर तीसरा वचन है: मृत्योर्मा अमृतं गमय! हे प्रभु, मुझे मृत्यु से अमृत की ओर ले चलो।
मृत्यु अहंकार की ही होती है। मृत्यु अहंकार की ही हो सकती है। मृत्यु सिर्फ झूठ की ही होती है। सत्य की कोई मृत्यु नहीं होती। इसलिए इस प्रार्थना का मेरा अर्थ, चैतन्य कीर्ति, एक है: अहंकार से निरहंकार की ओर ले चलो। उसके ये तीन चरण हैं, तीन अभिव्यक्तियां हैं, तीन द्वार हैं: अंधकार से प्रकाश की ओर; असत्य से सत्य की ओर; मृत्यु से अमृत की ओर। मगर इशारा एक है। मंदिर के द्वार तीन हैं, पहुंचोगे एक जगह। बोध होगा कि मैं कौन हूं। और वह बोध ऐसा है जो शब्दों में समाता नहीं, कहा नहीं जा सकता। मस्त तो हो जाओगे। नाच तो उठोगे। क्योंकि परमात्मा तुम्हारे साथ हो जाएगा। साथ कहना भी ठीक नहीं, क्षमा करना, तुम परमात्मा हो जाओगे, या परमात्मा तुम हो जाएगा। साथ कहना ठीक नहीं, क्योंकि उसमें द्वैत रह जाता है। जैसे दो प्रेमी गहन प्रेम के क्षण में एक हो जाते हैं। मगर वह एक होना बस रुकता है पल भर को; पलक झपी और गया! प्रार्थना परम प्रेम है, पराकाष्ठा है प्रेम की।
प्रेम की तीन सीढ़ियां हैं। एक तो साधारण प्रेम--मित्र-मित्र में, पत्नी-पति में, मां-बेटे में, भाई-भाई में। एक असाधारण प्रेम--शिष्य और गुरु में। और एक साधारण-असाधारण दोनों का अतिक्रमण कर जाए, तीसरा प्रेम--आत्मा और परमात्मा में, बूंद में और सागर में।
मत शरमाओ, हाथ बढ़ाओ
जो  मैं  गाऊं,  वह  तुम  गाओ
हर मुश्किल आसान बना लूं--मेरे साथ अगर तुम हो लो।
पथ के कांटे फूल बना लूं
मझधारों  को  कूल  बना  लूं
हर रोदन को गान बना लूं--मेरे साथ अगर तुम हो लो।
पतझर को मधुमास बना लूं
धरती  को  आकाश  बना  लूं
सीना वज्र समान बना लूं--मेरे साथ अगर तुम हो लो।
खोलो, मन के द्वारे खोलो
सोच रहे क्या, कुछ तो बोलो
सत्य सभी अनुमान बना लूं--मेरे साथ अगर तुम हो लो।
यह तो साधारण प्रेमी की, साधारण प्रेम की भाषा है। लेकिन परम प्रेम में भी यही घटता है। अगर परमात्मा का मेल हो जाए तो नाच उठोगे, गीत झरने लगेंगे। जैसे जुही के फूल झर-झर झरें, ऐसे तुम्हारे भीतर गीत झरने लगेंगे। जैसे कमल झीलों में खिल जाएं, ऐसे ही तुम्हारी चेतना के कमल खिल जाएंगे। जैसे अंधेरी रात में दीपावली सज जाए, ऐसे ही तुम्हारे भीतर ज्योति-मालिकाएं जल जाएंगी।
कौन सी मदिरा पिलाई पीर ने!
आंख मेरी हो गई इतनी रसीली,
बात मेरी हो गई इतनी नशीली,
पास जो आता, न जाना चाहता है,
ले लिया जग मोल एक फकीर ने!

देह दर्पण-सी दमकने लग गई है,
सौ दीयों की ज्योति मन में जग गई है,
प्राण पर जो कालिमा बाकी बची थी,
पोंछ ली कब, क्या पता किस चोर ने!

मैं नशे में चूर होकर भी सजग हूं,
आंसुओं के साथ रहकर भी अलग हूं,
चेतना सोती नहीं अब रात में भी,
कर दिया आजाद हर जंजीर ने!
कौन   सी   मदिरा   पिलाई   पीर   ने!
प्रेम की पीड़ा एक मदिरा है। पीओगे तो ही जानोगे। और जब भी कोई मंदिर जिंदा होता है तो मधुशाला होता है। वहां पियक्कड़ इकट्ठे होते हैं। वहां पीने वालों की जमात होती है।
मणिकांत को बुलाया था चैरिटी कमिश्नर ने कुछ पूछताछ के लिए। पूछा कि कितना आश्रम में पैसा आता? कहां से आता? कहां जाता? तो मणिकांत ने कहा कि भगवान वहां इतनी पिलाते हैं कि कहां हिसाब रखें! उसने कहा, तो तुम पीते भी हो? तो वहां पीना भी चलता है? कहा क्लर्क से, लिखो जल्दी! वे इसी तरह की तलाश में बेचारे लगे रहते हैं! मणिकांत ने कहा, आप समझे नहीं। यह और ही तरह का पीना है। यह अंगूर की शराब की बात नहीं है--आत्मा की पिलाते हैं। कभी आप भी आओ!
बेचारा उदास हो गया। बात ही खराब हो गई। कुछ मतलब की बात हाथ लगनी शुरू हुई थी।
अंगूर की शराब तो उन्हीं को लुभा सकती है जिन्होंने आत्मा की शराब नहीं पी है। आत्मा की शराब पी ले जो, फिर सब शराबें फीकी; पानी--गंदा पानी! कौन छुए उसे!
कौन सी मदिरा पिलाई पीर ने!
आंख मेरी हो गई इतनी रसीली,
बात मेरी हो गई इतनी नशीली,
पास जो आता, न जाना चाहता है,
ले  लिया  जग  मोल  एक  फकीर  ने!
फकीर हमेशा ही सम्राटों की तरह जीए हैं। फकीर ही सम्राट हैं। यह सारा जगत उनका है।
वही चैरिटी कमिश्नर लक्ष्मी को पूछ रहा था कि मैंने सुना है कि आश्रम का धन स्विटजरलैंड के बैंकों में जमा है, अमरीका के बैंकों में जमा है। लक्ष्मी ने कहा, अमरीका, स्विटजरलैंड क्या, ऐसा कोई देश नहीं है जहां हमारा धन जमा न हो। उसने कहा, तो कहां-कहां जमा है और कितना-कितना जमा है? लक्ष्मी ने कहा, सारा धन अपना है। धन अपन दूसरे का किसी का मानते ही नहीं हैं!
फिर हो गया बेचारा उदास। बड़ी चिंता में पड़ा है कि कुछ पकड़ आ जाए। मगर ये बातें उसकी पकड़ में नहीं आतीं।
सब धन अपना है? सारा जगत अपना है। सारा अस्तित्व अपना है। चांदत्तारे अपने हैं। छोटे-छोटे आंगन को क्या अपना कहना!
इस छोटी सी प्रार्थना में सारे उपनिषदों का सार आ गया। उपनिषदों का ही नहीं, कुरान, बाइबिल, धम्मपद, सबका सार आ गया। लेकिन इसका मौलिक सूत्र समझ लेना: अहंकार जाए, तो तीनों बातें पूरी हो जाएं। अहंकार जाए, तो प्रकाश ही प्रकाश। अहंकार जाए, तो सत्य ही सत्य। अहंकार जाए, तो अमृत ही अमृत।


*आखिरी प्रश्न: भगवान! प्रार्थना क्या है?

अर्चना! प्रार्थना की कोई परिभाषा नहीं। प्रेम की ही कोई परिभाषा नहीं, तो प्रार्थना की कैसे परिभाषा होगी? और चूंकि प्रेम की परिभाषा नहीं, प्रार्थना की परिभाषा नहीं, इसीलिए तो परमात्मा की परिभाषा नहीं हो पाती। परिभाषा होती है मस्तिष्क में, और प्रार्थना होती है हृदय में। ये अलग-अलग दुनियाएं हैं।
यह प्रश्न ऐसा ही है...। लगता तो ठीक, शाब्दिक अर्थों में ठीक लगता है--प्रार्थना क्या है? प्रार्थना की परिभाषा क्या है? इसको गलत नहीं कह सकते। यह ऐसा ही है लेकिन जैसे कोई पूछे कि हरे रंग का स्वाद क्या है?
हरे रंग का स्वाद क्या है--इस वाक्य में भाषा और व्याकरण की दृष्टि से कोई गलती न निकाल पाओगे। लेकिन अस्तित्वगत भूल है। हरे रंग और स्वाद का कोई संबंध ही नहीं। हरे रंग का कोई स्वाद नहीं। स्वाद का कोई रंग नहीं। हरे रंग का कोई भी स्वाद हो सकता है, मगर वह हरे रंग का नहीं है, किसी चीज का होगा जो हरी है। और स्वाद का कोई भी रंग हो सकता है, लेकिन वह स्वाद का रंग नहीं है, उस चीज का रंग होगा जिसका स्वाद है। स्वाद और रंग का कोई संबंध नहीं।
ऐसे ही प्रार्थना और परिभाषा का कोई संबंध नहीं। प्रार्थना उमगती है हृदय में; परिभाषाएं जन्मती हैं मस्तिष्क में। परिभाषाएं होती हैं शब्दों और तर्कों की; और प्रार्थना है भावना।
और अर्चना, तुझे तो मैंने नाम ही दिया अर्चना! अर्चना यानी प्रार्थना। इसे तो जीकर ही जानना होगा, पीकर ही जानना होगा।
कैसी लंबी रात विरह की, बीत नहीं पाए।
पिया बिन नींद नहीं आए।

मुसकाई संध्या की लाली
आई फिर रजनी घुंघराली
उगा गगन में चांद, मगर मन-मेघ नहीं छाए।
पिया बिन नींद नहीं आए।

आई बगिया में बहार है
जागा यौवन में खुमार है
दूर कहीं मधुबन में कोयल, गीत मधुर गाए।
पिया बिन नींद नहीं आए।
जब से साजन ने मुंह फेरा
कजरा  धोते  हुआ  सबेरा
थके उनींदे दो नयनों में, सावन लहराए।
पिया बिन नींद नहीं आए।
जो प्रेम में रोया न हो, जिसने प्रेम का विरह न जाना हो, उसे तो प्रार्थना की तरफ इंगित भी नहीं किया जा सकता। इसलिए मैं प्रेम का पक्षपाती हूं, प्रेम का उपदेष्टा हूं। कहता हूं, खूब प्रेम करो! क्योंकि प्रेम का ही निचोड़ एक दिन प्रार्थना बनेगा। प्रेम के हजार फूलों को निचोड़ोगे, तब कहीं प्रार्थना की एक बूंद, एक इत्र की बूंद बनेगी।
सुबह    जानी
शाम    जानी
तेरी  सूरत  जब  पहचानी।

रूप   तुम्हारा   एक   जौहरी
प्यार  अंगूठी  सा  गहना  है,
कुछ चाहों से मोल चुका कर
मन की अंगुली में पहना है।
सदा  सुहागिन
पर  बंजारिन
सुधियों की बदनाम जवानी।

दिन को चहल-पहल के नगमे
सारी   रात   मौत   का   डेरा,
किस पल तुमसे बात करूं मैं
सूरजमुखी   प्यार   है   मेरा।
गम  का  पहरा
तम  है  गहरा
सूनी  सी  मन  की  रजधानी।

मन का प्यार कर्ज है, जिसका
सारी  उमर  ब्याज  भरना  है,
मन  के  नातों  को  बतला  कर
खुद  को  बेपरदा  करना  है।
जीवन  के  क्रम
बदलें  हमत्तुम
चलते-चलते  डगर  अजानी।
सुबह    जानी
शाम    जानी
तेरी   सूरत   जब   पहचानी।
जब भूल जाओगे सब गणित, न सुबह पहचान में आएगी, न शाम पहचान में आएगी; जब भूल जाओगे सब हिसाब-किताब की सारी भाषा; जब उतर आओगे मस्तिष्क से हृदय में, विचारणा से भावना में, मोलत्तोल से अतौल में, अमोल में, तब जान पाओगे! तभी जाना जा सकता है कि प्रार्थना क्या है।
यहां बैठो, यहां प्रार्थना बरस रही है। अर्चना, इस शांति को, इस मौन को चखो। यह जो मेरेत्तुम्हारे बीच घट रहा है, यह प्रार्थना है। यह कोई बातचीत नहीं। यह कोई प्रवचन नहीं है। यह कोई वार्ता नहीं हो रही है। यह मेरेत्तुम्हारे हृदय का साथ-साथ नृत्य है। ये शब्द तो केवल बहाने हैं। निःशब्द की तरफ इंगित कर जाएं, बस इतना इनका प्रयोजन है। निमित्त मात्र हैं।
साधों की रिमझिम का
रंग  कहीं  खो  बैठे,
फागुनी  फुहारों  में--वही  याद  आता  है।
किरन-डोर लिए गगन
रोल-रोल  मोती  कण
धरती के बालों में गूंथ कर सजाता है।
प्यार  के  सिंगारों  में--वही  याद  आता  है।
केसर, कुमकुम, चंदन
घोल-घोल मलय-पवन
नये सुमन प्यालों में ढाल कर पिलाता है।
झूमते  खुमारों  में--वही  याद  आता  है।
परिवर्तन  का  कूजन
डोल-डोल वन, उपवन
लुटी-ठगी डालों को जिंदगी दिलाता है।
पतझर  की  हारों  में--वही  याद  आता  है।
चंदा हर घर-आंगन
बोल-बोल आमंत्रण
मधुबन की तालों में मिलन-स्वर मिलाता है।
रास  की  बहारों  में--वही  याद  आता  है।
वासंती  अवगुंठन
खोल-खोल अलस नयन
लाज के गुलालों में चांदनी खिलाता है।
आस  की  पुकारों  में--वही  याद  आता  है।
यहां जो घट रहा है, यह चर्म-चक्षुओं से दिखाई पड़ने वाली बात नहीं है। इसलिए जो यहां पक्षपातों को लेकर बैठा है, खाली जाएगा--खाली हाथ आया, खाली हाथ जाएगा। लेकिन जो पक्षपात छोड़ कर सुनने को राजी है; सुनने को ही नहीं, मेरे साथ एक-रस होने को राजी है! संन्यास और क्या है--इसी बात की घोषणा है! प्रेम में मेरे साथ एक-रस होने को जो राजी है, उसे प्रार्थना का अर्थ तत्क्षण समझ में आ जाएगा। उसे पूछने नहीं जाना पड़ेगा कहीं और। प्राणों में घुलता है रस। वहीं मिठास फैल जाती है।
देश अजाना, पंथ अजाना
नाम    जाना, धाम    जाना
तुम्हीं बताओ, कैसे चल दूं, बैठ तुम्हारी पालकी!
कठिन है। मैं तो बुलाता हूं, पुकारता हूं कि आओ, बैठो मेरी पालकी! चलो, बैठो मेरी नाव! मगर तुम्हारा डर भी मैं समझता हूं।
देश अजाना, पंथ अजाना
नाम    जाना, धाम    जाना
तुम्हीं बताओ, कैसे चल दूं, बैठ तुम्हारी पालकी!
भरी बहारों पवन न डोला
चांद-सितारों ने विष घोला
कभी न लट गूंथी बदली ने
लाज लुटाई गली-गली ने
मांग न सेंदुर, आंख न अंजन
पग    महावर,  हाथ    कंगन
कैसे बैरिन बिंदिया से, शोभा दमकाऊं भाल की!
तुम्हीं बताओ, कैसे चल दूं, बैठ तुम्हारी पालकी!
सेज कली की सदा कंटीली
भरी जवानी पीली-पीली
स्वप्नीली तस्वीर मिटा कर
कभी सेज पर, कभी चिता पर
हंसी न मधुऋतु, उड़ी न केसर
लसे    भंवरों  के  नीलम  पर
कैसे कलियां बन महकूं, तेरी चंपक उरमाल की!
तुम्हीं बताओ, कैसे चल दूं, बैठ तुम्हारी पालकी!
उड़-उड़ छाने अंबर भूतल
गिरते रहे पंख तिल-तिल जल
शाख-शाख ने ताने मारे
रूठे तिनके-दाने सारे
नीड़ न चहके सांझ-सबेरे
घनी   रात   लुट   गए   बसेरे
कैसे  काटूं  रैन,  विरानी  सेज  अजानी  डाल  की!
तुम्हीं बताओ, कैसे चल दूं, बैठ तुम्हारी पालकी!
जब-जब मंगल बेला आई
बजी नौबतें शुभ शहनाई
सिसक पड़ी सिंगार पिटारी
सपने दर-दर बने भिखारी
दमक न पाई चुनरी-चोली
बाट    जोहती    सूनी    डोली
किससे जोडूं गांठ, उमर बन चली दुल्हनिया काल की।
देश अजाना, पंथ अजाना
नाम    जाना, धाम    जाना
तुम्हीं बताओ, कैसे चल दूं, बैठ तुम्हारी पालकी!
मगर चलो तो ही जान सको। और नहीं चंदन चाहिए, नहीं केसर, नहीं महावर। नहीं कोई आभूषण, नहीं कोई औपचारिकता। जैसे हो, बस ऐसे ही बैठ जाओ इस पालकी में।
तुम से कुछ भी तो शर्त पूरी नहीं करवाना चाहता हूं, कि ऐसा आचरण हो, कि ऐसा चरित्र हो। तुम पर कोई भी शर्त तो नहीं लादता हूं। बेशर्त प्रार्थना का स्वाद देने को तैयार हूं। मगर थोड़ा साहस तो तुम्हें दिखाना पड़े! तुम्हें दो कदम चल कर पालकी में तो बैठ जाना पड़े!
दो डग उठाओ अर्चना, प्रार्थना समझ में आ जाएगी। ऐसी समझ में आएगी कि रोएं-रोएं में समा जाएगी। ऐसी समझ में आएगी कि श्वास-श्वास में भर जाएगी। ऐसी समझ में आएगी कि आंसू-आंसू में झरेगी। ऐसी समझ में आएगी कि सोओ कि जागो, उठो कि बैठो, चारों तरफ छाया की तरह डोलती रहेगी; तुम्हारी आभा बन जाएगी।
प्रार्थना कृत्य नहीं है, भाव की एक दशा है। और प्रार्थना से तुम भरे होओ, तो परम अनुभूति घटती है। परम अनुभूति से मेरा अर्थ है: अगर तुम्हारा हृदय प्रार्थनापूर्ण है, तो परमात्मा तुम्हारे द्वार पर दस्तक देता है। निश्चित दस्तक देता है। और जो प्रार्थना से भरा है, वही उसकी दस्तक सुन भी पाता है। जो प्रार्थना से भरा नहीं है, वासना से भरा है, वह उसकी दस्तक नहीं सुन पाता है।
और जीवन को जीने के दो ही ढंग हैं--एक वासना, एक प्रार्थना। वासना का ढंग गृहस्थ का ढंग; प्रार्थना का ढंग संन्यस्त का ढंग। गृहस्थ और संन्यासी में स्थान का भेद नहीं होता, स्थिति का भेद होता है। घर छोड़ कर भाग जाओ तो संन्यासी हो गए, ऐसा नहीं। कि जंगल में कुटी बना कर रहने लगे तो संन्यासी हो गए, ऐसा नहीं। वासना न रहे!
वासना मांगती है--यह मिले, वह मिले। प्रार्थना धन्यवाद देती है--कि जो दिया, मेरी पात्रता से ज्यादा है; मेरे पात्र के ऊपर से बहा जा रहा है।
अनुग्रह को जगाओ, अर्चना। प्रार्थना अपने आप जगेगी। धन्यवाद को जगाओ, और प्रार्थना अपने आप जगेगी। धन्यवाद का भाव ही प्रार्थना है। अनुग्रह की भावदशा ही प्रार्थना है।

आज इतना ही।


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