ज्यूं मछली बिन नीर-(प्रश्नोत्तर)-ओशो
अंतर्यात्रा पर निकलो-(प्रवचन-तीसरा)
दिनांक 23 सितंबर, 1970;
श्री रजनीश आश्रम, पूना
पहला प्रश्न: भगवान,
अथर्ववेद में एक ऋचा है--
पृष्ठात्पृथिव्या अहमन्तरिक्षमारुहम्
अन्तरिक्षाद्दि विमारूहम्, दिवोनाकस्य
पृष्ठात्ऽ सर्वज्योतिरगामहम्।
अर्थात हम पार्थिव लोक से उठ कर अंतरिक्ष लोक में आरोहण करें, अंतरिक्ष
लोक से ज्योतिष्मान् देवलोक के शिखर पर पहुंचें, और
ज्योतिर्मय देवलोक से अनंत प्रकाशमान ज्योतिपुंज में विलीन हो जाएं।
भगवान कृपया बताएं कि
ये लोक क्या हैं और कहां हैं?
चैतन्य कीर्ति,
लोक
शब्द से भ्रांति हो सकती है--हुई है। सदियों तक शब्दों की भ्रांतियों के
दुष्परिणाम होते हैं। लोक शब्द से ऐसा लगता है कि कहीं बाहर, कहीं
दूर--यात्रा करनी है किसी गन्तव्य की ओर। लोक से भौगोलिक बोध होता है, जबकि ऋषि का मन्तव्य बिलकुल भिन्न है। यह तुम्हारे भीतर की बात
है--तुम्हारे अंतरलोक की।
जो
जानता है, वह बात ही भीतर की करता है। बाहर कर बात तो सिर्फ इसलिए की जा सकती है,
ताकि भीतर की बात का स्मरण दिलाया जा सके। तुम तो बाहर की भाषा
समझते हो, इसलिए मजबूरी है ऋषियों की। उन्हें बाहर की भाषा
बोलनी पड़ती है। तुम जो समझ रहे हो वही तुमसे कहा जा सकता है। लेकिन फिर खतरा है।
खतरा यह है कि तुम वही समझोगे जो तुम समझ सकते हो।
ऋषि
जब जीवित होता है,
तब तो वह तुम्हारी भ्रांतियों को रोकने के उपाय कर लेता है, तुम्हें सम्हाल लेता है, शब्दों के जाल में नहीं
पड़ने देता। लेकिन जब ऋषि मौजूद नहीं रह जाता और ऋषि की जगह पंडित-पुरोहित ले लेते
हैं जिनका की सारा आयाम ही शब्दों का है--तब ठीक वह होना शुरू हो जाता है जो ऋषि
के विपरीत है।
जीसस
ने बहुत बार दोहराया कि वह ईश्वर का राज्य तुम्हारे भीतर है। लेकिन फिर भी ईसाई जब
हाथ जोड़ते हैं तो आकाश की तरफ। वह ईश्वर तुम्हारे भीतर है--थक गये बुद्धपुरुष
कह-कह कर, लेकिन जब भी तुम पूजा करते हो तो किसी मूर्ति की। और अगर मूर्ति की भी न
की, अगर मस्जिद में भी गये, तो पुकार
भी लगाते हो तो बाहर के किसी परमात्मा के लिए। सारी अंगुलियां भीतर की तरफ इशारा
कर रही हैं और तुम जब भी देखते हो बाहर की तरफ देखते हो।
मत
पूछो कि ये लोक कहां हैं। कहां से उपद्रव शुरू होता है? तुमने
पूछा कि कोई बताने वाला मिल जाएगा कि कहां हैं। नक्शे टंगे हैं मंदिरों में इन
लोकों के। ये लोक तुम्हारी चेतना के भिन्न आयामों के नाम हैं। और इतना साफ है,
फिर भी आदमी इतना अंधा है। सारी बातें इतनी रोशन हैं, फिर भी अंधे को तो कैसे दिखाई पड़े! रोशनी ही दिखाई नहीं पड़ती, रोशनी में लिखे गये ये सूत्र हैं। इसलिए हमने इनको ऋचा कहा है, साधारण कविता नहीं।
कविता
और ऋचा में भेद है। कविता अज्ञानी की ही व्यवस्था है, जोड़त्तोड़
है, शब्दों का जमाव है। राग में बांध ले, छंद में बांध ले, तुक बिठा दे--वह सब ठीक, लेकिन अंधेरा और अंधा टटोले, बस ऐसी ही कविता है।
ऋषि हम उसे कहते हैं जिसने देखा और जो देखा, उसे गुनगुनाया,
उसे गाया।
ऋषियों
से जो वचन झरते हैं,
बुद्धपुरुषों से जो वचन झरते हैं, उनके लिए
हमने अलग ही नाम दिया--ऋचा। ऋषि से आए तो ऋचा। और ऋषि वह जो देखने में समर्थ हो
गया, जिसके भीतर की आंख खुल गयी। भीतर की आंख खुलेगी तो भीतर
की ही बात होगी। तुम्हारी तो बाहर की आंखें हैं, भीतर की आंख
बंद है। ऋषि भीतर की कहते हैं, तुम बाहर की समझते हो।
इसलिए
हर शास्त्र गलत समझा गया है और हर शास्त्र की गलत टीकाएं और व्याख्याएं की गयी
हैं। कोई ऋषि ही किसी दूसरे ऋषि के मंतव्य को प्रगट कर सकता है। यह काम पांडित्य
का नहीं, शास्त्रीयता का नहीं।
पार्थिव
लोक से अर्थ है--तुम्हारी देह, तुम्हारा शरीर। अंतरिक्ष लोक से अर्थ
है--तुम्हारा मन! ज्योतिष्मान देवलोक के शिखर से अर्थ है--आत्मा। और प्रकाशमान
ज्योतिपुंज में अंततः सब विलीन हो जाता है, वह है अस्तित्व
का नाम--चौथी अवस्था, तुरीय, समाधि,
निर्वाण। तीन को पार करना है, चौथे को पाना
है। न केवल शरीर के पार जाना है, न केवल मन के पार जाना
है--आत्मा के भी पार जाना है, क्योंकि आत्मा भी सूक्ष्म रूप
में अहंकार ही है। मैं-भाव अभी भी मौजूद है। आत्मा का अर्थ ही होता है: मैं। इसलिए
बुद्ध ने "अनत्ता' शब्द का उपयोग किया। "अत्ता'
यानी आत्मा, मैं। अनत्ता यानी "न-मैं',
अनात्मा।
बुद्ध
को समझा नहीं जा सका। अथर्ववेद की टीका करने वाले भी नहीं समझे, कैसा मजा
है! ब्राह्मण, पंडित-पुरोहित नहीं समझे। जो दोहराते हैं
ऋचाओं को निरंतर सुबह-सांझ, वे भी नहीं समझे। उनको तो लगा ये
बुद्ध नास्तिक हैं, आत्मा भी नहीं! और यह अथर्ववेद का सूत्र
यही कह रहा है कि "ज्योतिर्मय देवलोक से अनंत प्रकाशमान ज्योतिपुंज में विलीन
हो जाएं', जहां सब विलीन हो जाता है। इस "विलीन'
के लिए बुद्ध ने जो शब्द चुना, बड़ा प्यारा
है--"निर्वाण'। निर्वाण का अर्थ होता है: दीये का बुझ
जाना। जैसे दीया जला हो और तुम फूंक मार दो और दीया बुझ जाए और कोई पूछे कि कहां
गयी ज्योति। कहां बताओगे? कहां विलीन हो गयी। इतना ही कह
सकते हो। अब न बता सकोगे कहां है पता ठिकाना; विलीन हो गयी,
अस्तित्व में एक हो गयी।
जैसे
दीये का बुझ जाना है,
ऐसे ही व्यक्ति का बुझ जाना है--तब समष्टि के साथ एकता सधती है।
व्यक्ति का होना एक तरह का त्रैत है। शरीर, मन , आत्मा--यह त्रिकोण है। इस त्रिकोण से तुम निर्मित हो। इस त्रिकोण के मध्य
में वह बिंदु है, जहां त्रिकोण शून्य हो जाता है। ये तीनों
कोने मिट जाते हैं: निराकार प्रगट होता है, सब आकार खो जाता
है।
बहुत
स्पष्ट है ऋचा--"हम पार्थिव लोक से उठ कर अंतरिक्ष लोक में आरोहण करें।' हम उठें
शरीर से। अधिक लोग तो शरीर में ही खोये हैं। जो शरीर में खोया है वह पशु। जो शरीर
में खोया है वह शूद्र। फिर चाहे वह ब्राह्मण घर में पैदा हुआ हो, इससे कुछ फर्क नहीं पड़ता। जो शरीर में है वह शूद्र। और अधिकतम लोग शरीर
में हैं। शरीर ही उनका सब कुछ है। खाओ पीओ मौज करो--बस इतना ही उनके जीवन का अर्थ
है। यही उनके जीवन का गणित है। काम उनके जीवन की सारी अर्थवत्ता है। वासना उनका
सारा विस्तार है। भोग--बस इतिश्री आ गयी! भोजन, वस्त्र,
काम, धन-दौलत, पद-प्रतिष्ठा--बस
यहीं समाप्त हो जाता है।
और
रोज देखते हैं लोगों को गिरते। रोज देखते हैं लोगों को कब्रों में उतरते। रोज
देखते हैं लोगों को चिताओं पर जलते। फिर भी होश नहीं आता। जैसे तय ही कर रखा है कि
होश को आने न देंगे! बेटियां हैं, परिवार है, मित्र हैं
प्रियजन हैं--और कौन अपना है? कहां कौन किसका है? मगर जीवन भर यही आकांक्षा रहती है--किसी तरह खोज लें, शायद कहीं कोई मिल जाए। अभी तक नहीं मिला, आज तक
नहीं मिला, कल मिल सकता है--आशा बनी रहती है। आशा की
टिमटिमाती मोमबत्ती में हम चले चले जाते हैं।
अब
तक मुझे न कोई मिरा राजदां मिला
अब
तक मुझे न कोई मिरा राजदां मिला
जो
भी मिला असीर-जमानो-मकां मिला
जो
भी मिला...
क्या
जाने क्या समझ के हमेशा किया गुरेश
क्या
जाने क्या समझ के हमेशा किया गुरेश
सौ
बार बिजलियों को मिरा आशियां मिला
सौ
बार बिजलियों को...
उकता
गया हूं जादा-ए नौ की तलाश में
उकता
गया हूं जादा-ए नौ की तलाश में
हर
राह में कोई न कोई कारवां मिला
हर
राह में ...
किन
हौसलों के कितने दीये बुझ के रह गये
किन
हौसलों के कितने दीये बुझ के रह गये
ऐ
सोजे-आशिकी तू बहुत ही गरां मिला
ऐ
सोजे-आशिकी...
था
एक राजदारे मुहब्बत से लुत्फे-जीस्त
था
एक राजदारे मुहब्बत से लुत्फे-जीस्त
लेकिन
वो राजदारे मुहब्बत कहां मिला
लेकिन
वो राजदारे...
अब
तक मुझे न कोई मिरा राजदां मिला
अब
तक मुझे न कोई...
कहां
मिलता है कोई संगी-साथी,
राजदां? असंभव है मिलना। मगर आशा मिट-मिट कर
भी नहीं मिटती। गिर जाती है, फिर उठा लेते हैं। हर बार गिरती
है, फिर सम्हाल लेते हैं। नये सहारे, नयी
बैसाखियां खोज लेते हैं। कितनी बार तुम्हारा आशियां नहीं जल चुका! कितनी बार
बिजलियां नहीं गिरीं तुम्हारे आशियां पर! देह में पहली बार तो नहीं हो, अनंत बार रह चुके हो। यह अनुभव कोई नया नहीं, मगर भूल-भूल जाते हो, विस्मरण
करते चले जाते हो।
क्या
जाने क्या समझ के हमेशा किया गुरेश
पता
नहीं कैसा है आदमी कि फिर-फिर भरोसा कर लेता है! वही भूलें, वही भरोसे,
कुछ नया नहीं। वर्तुल में घूमता रहता है--कोल्हू के बैल की भांति
घूमता रहता है।
क्या
जाने क्या समझ के हमेशा किया गुरेश
सौ
बार बिजलियां को मिरा आशियां मिला
और फिर भी सौ बार बिजलियां गिर चुकीं, बार-बार
मौत आयी, बार-बार आशियां मिटा। फिर-फिर चार तिनके जोड़ कर तुम
आशियां बना लेते हो--फिर इस आशा में कि अब नहीं बिजलियां गिरेंगी।
क्या
जाने क्या समझ के हमेशा किया गुरेश
सौ
बार बिजलियों को मेरा आशियां मिला
उकता
जाते हो, ऊब जाते हो, घबड़ा जाते हो, बेचैन
हो जाते हो--फिर कोई सांत्वना खोज लेते हो। नहीं मिलती तो गढ़ लेते हो, ईजाद कर लेते हो।
उकता
गया हूं जादा-ए-नौ की तलाश में
हर
राह में कोई न कोई कारवां मिला
और
तुमने देखा, तुम अकेले ही नहीं चल रहे हो--किसी भी राह पर जाओ, धन
के पीछे दौड़ो, पद के पीछे दौड़ो, यश के
पीछे दौड़ो--हर जगह तुम करोड़ों लोगों की भीड़ को जाते देखोगे।
उकता
गया हूं जादा-ए-नौ की तलाश में
हर
राह में कोई न कोई कारवां मिला
कारवां
चले जा रहे हैं। तुम अकेले नहीं हो। इससे और भ्रांति होती है। ऐसा लगता है जहां
इतने लोग जा रहे हैं वहां कुछ जरूर होगा, इतने लोग गलती में नहीं हो सकते।
तो फिर अपने को सम्हाल लेते हो। जागते-जागते रुक जाते हो, फिर
सपने में पड़ जाते हो।
किन
हौसलों के कितने दीये बुझ के रह गये
ऐ
सोजे-आशिकी तू बहुत ही गरां मिला
और
क्या-क्या हौसले ले कर आदमी चलता है! क्या-क्या स्वप्न संजोता है! हर बार दीये बुझ
जाते हैं। जरा सा हवा का झोंका और दीया बुझा। फिर हम जला लेते हैं। दूसरों से मांग
लेते हैं तेल-बाती। दूसरों से मांग लेते हैं ज्योति। फिर-फिर दीये जला लेते हैं। दीये
बुझते जाते हैं,
हम जलाते चले जाते हैं।
िकन
हौसलों के कितने दीये बुझके रह गये
ऐ
सोजे-आशिकी तू बहुत ही गरां मिला
मगर
यह हमारी वासना का विस्तार कुछ ऐसा है,टूटता ही नहीं। होश आता ही नहीं।
अपने को सम्हाल ही नहीं पाते।
था
एक राजदारे मुहब्बत से लुत्फे-जीस्त
लेकिन
वो राजदारे मुहब्बत कहां मिला
आशा
भर रहती है कि कोई मिल जाएगा अपना, कि कोई मिल जाएगा प्रेमी, कि कोई मित्र। इसी आशा में सोचते हैं जिंदगी में रस आ जाएगा, फूल खिल जाएंगे।
था
एक राजदारे मुहब्बत से लुत्फे-जीस्त
लेकिन
वो राजदारे मुहब्बत कहां मिला
सोचो
तो, कितने जमाने हो गये खोजते-खोजते--वो राजदारे मुहब्बत कहां मिला।
अब
तक न मुझे कोई मिरा राजदां मिला
जो
भी मिला असीरे-जमानो-मकां मिला
अब
तक मुझे न कोई मिरा राजदां मिला
यहां
शरीर के तल पर सिवाय असफलता के और कुछ भी नहीं, सिवाय विषाद के और कुछ भी नहीं।
शरीर से ऊपर उठो। तुम शरीर ही नहीं हो, तुम्हारे भीतर और
बहुत है।
शरीर
तो यूं समझो कि अपने घर के कोई बाहर ही बाहर जी रहा हो, अपने घर
के भीतर ही नहीं प्रवेश किया हो। यूं बाहर ही चक्कर काट रहे हो। चलो जरा भीतर चलो।
शरीर से थोड़े भीतर, शरीर से थोड़े ऊपर। और भीतर और ऊपर का एक
ही अर्थ है। भाषाकोश में कुछ भी हो, जीवन के कोश में एक ही
अर्थ है। जितने भीतर गये उतने ऊपर गये। जितने बाहर आये उतने नीचे गये।
भीतर
चलो तो मन है। मन अंतर्यात्रा का पहला पड़ाव है। मन अर्थात मनन की क्षमता, सोचने-विचारने
की कला। मनन पैदा हो तो इतना तो दिखाई पड़ना शुरू हो जाता है कि शरीर के जगत में
सिर्फ भ्रांतियां हैं, मोह है, आसक्तियां
हैं, बंधन हैं, पाश हैं। इसलिए मैंने
कहा कि जो शरीर में जीता है वह पशु--बंधा हुआ पशु। पाश से बंधा हुआ, जकड़ा हुआ।
भोजन, यौन--ये दो छोर हैं जिनके बीच घड़ी
के पेण्डुलम की तरह शरीर में बंधा आदमी घूमता रहता है--एक से दूसरे की तरफ। इसे
समझ लेना। जो लोग अपनी कामवासना को दबा लेंगे उनका भोजन में बहुत रस हो जाएगा,
क्योंकि पेण्डुलम उनका भोजन में अटक रहेगा। जो लोग अपने भोजन पर
दबाव डालेंगे, रुकावट डालेंगे, उनके
जीवन में कामवासना ही कामवासना रह जाएगी।
मन
अर्थात मनन। जरा सोचना अपने जीवन के संबंध में कि यह क्या है, मैं क्या
कर रहा हूं, क्या मेरे हाथ लग रहा है, क्या
किसी और के हाथ लग रहा है? इतने लोग दौड़ते रहे, इतने लोग सदियों-सदियों तक खोजते रहे, किसी को कुछ
भी नहीं मिला है, मुझे कैसे मिल जाएगा? एक व्यक्ति नहीं है पूरी मनुष्य-जाति के इतिहास में, जिसने यह कहा हो--बाहर मैंने खोजा और पाया। जिन्होंने पाया वे थोड़े से लोग
यही कहते हैं: भीतर खोजा और पाया। बाहर खोजने वाला तो एक नहीं कह सका कि मैंने
पाया। है ही नहीं तो कोई कहेगा भी कैसे? किस मुंह से कहेगा?
किस बल पर कहेगा? किस आधार पर कहेगा?
सोचो
तो थोड़ा सा शरीर के ऊपर उठना शुरू होता है। लेकिन फिर सोच-विचार में ही उलझे न रह
जाना नहीं तो उठे थोड़े ऊपर,
गये थोड़े भीतर, लेकिन फिर अटकाव खड़ा हो जाता
है। कुछ लोग जो शरीर से थोड़े ऊपर उठते हैं, वे मन में उलझे
रह जाते हैं। उनका रस बदल जाता है, शरीर के रस से बेहतर हो
जाता है। संगीत में उनका रस होगा, काव्य में उनका रस होगा,
कला में उनका रस होगा। कोई पशु, कोई पक्षी
उत्सुक नहीं हैं--कला में, दर्शन में, काव्य
में, मूर्तियों में, चित्रों में,
संगीत में। मनुष्य केवल उस दिशा में यात्रा कर पाता है।
"मनुष्य' शब्द भी मनन से ही बनता है, मन से ही बनता है जब तुम देह के ऊपर उठते हो तो तुम पशु नहीं रह जाते। मन
में आते हो तो मनुष्य हो जाते हो। लेकिन बस मनुष्य। उतना होना काफी नहीं है। वह
शुरुआत है सिर्फ यात्रा की; अंत नहीं, बस
प्रारंभ है। फिर जल्दी ही सोच-विचार करने वाले व्यक्ति को यह ही दिखाई पड़ेगा कि
सोच-विचार भी हवा में महल बनाना है, इससे भी कुछ उपलब्धि
नहीं है। कितना ही तर्कयुक्त सोचो, कोई निष्कर्ष हाथ नहीं
लगता। दर्शनशास्त्र के पास कोई निष्कर्ष नहीं है, कोई
निष्पत्ति नहीं है।
फिर
मन ही मन के ऊपर उठने का पहला बोध देता है, कि शरीर से ऊपर उठे, थोड़ा मुक्त आकाश मिला--अंतरिक्ष मिला, अंतर-आकाश
मिला! एक कदम और उठ कर देखें।
मन
से ऊपर उठने की कला का नाम ध्यान है। शरीर से ऊपर उठने की कला का नाम ध्यान है।
ध्यान से आत्मा मिलेगी। और आत्मा में बहुत सुख है, बहुत अर्थ है, गरिमा है, महिमा है। और इसलिए खतरा भी बहुत है। बहुत
से धार्मिक व्यक्ति आत्मा पर ही अटके रह गये। इतना सुख था कि उन्होंने सोचा,
इससे ज्यादा और क्या हो सकता है? आत्मा में
जितना मिलता है उससे ज्यादा की कल्पना करना भी असंभव है। लेकिन कुछ हिम्मतवर आत्मा
के भी पार गये। उन्होंने कहा: शरीर को छोड़ा, इतना पाया;
मन को छोड़ा, और बहुत पाया। काश, आत्मा को भी छोड़ सकें तो पता नहीं कितना मिले! बड़े साहस की जरूरत है।
और
बद्धत्व केवल उनको उपलब्ध होता है जो आत्मा को भी छोड़ देते हैं। कुछ हिम्मतवर
लोगों ने वह अंतिम कदम भी उठाया। खतरनाक कदम है। किसी अतल अज्ञात में गिरना है, जिसका कोई
ओर छोर नहीं होगा। उसी को अथर्ववेद कह रहा है: "और फिर ज्योतिर्मय देवलोक से
अनंत प्रकाशमान ज्योतिपुंज में विलीन हो जाएं।' फिर विलीन हो
जाने के सिवा कुछ भी नहीं है।
थोड़े
से तुम बचते हो आत्मा में,
बस थोड़े से--अस्मि, मैं-भाव। जरा सी आखिरी
रेखा, जैसे पुच्छल तारा गुजर जाता है और पीछे थोड़ी सी रेखा
छूट जाती है। थोड़ी देर जगमगाती रहती है, फिर विलीन हो जाती
है। या जैसे जैट गुजरता है तो उसके पीछे धुएं की एक रेखा बनी रह जाती है। फिर थोड़ी
देर में वह भी बिखर जाती है।
आत्मा
भी धुएं की एक रेखा मात्र है--मगर बहुत सुखद, बहुत फूलों से भरी, बहुत सुगंधित। इसलिए अटकाने में बहुत समर्थ। और जिन्होंने सिर्फ शरीर ही
जाना है, मन ही जाना है, उनके लिए तो
यूं हो जाता है कि मिल गया धनों का धन। इसलिए बहुत से धार्मिक व्यक्ति आत्मा पर
रुक जाते हैं, सोचते हैं बस आ गया पड़ाव, अंतिम मंजिल आ गयी, अब कहीं जाना नहीं।
अभी
एक कदम और है: तुरीय। अभी चतुर्थ को पाना है। जब तक हो तब तक समझना कि अभी और कुछ
पाने को शेष है। मिट जाना है, तल्लीन हो जाना है, विलीन
हो जाना है। जैसे सरिता सागर में विलीन हो जाती है--ऐसे! तुम्हारी जो ज्योति है
अलग-थलग वह महाज्योति में एक हो जाए। तब मैं बचता ही नहीं।
ऐसा नहीं है कि बुद्धों ने मैं शब्द का उपयोग
नहीं किया--करना पड़ता है लेकिन बस उपयोगिता की द्रष्टि से, क्योंकि
तुमसे बात करनी है। अन्यथा उनके भीतर कोई मैं नहीं है।
यह सूत्र प्यारा है। लेकिन चैतन्य कीर्ति, मत पूछो
कि ये लोक कहां हैं। ये तुम्हारे भीतर हैं। ये तुम्हारी निज की संपदाएं हैं।
अंतर्यात्रा पर निकलो! अथर्ववेद का यह सूत्र तुम्हारी पूरी अंतर्यात्रा के मार्ग
को आलोकित कर सकता है।
दूसरा प्रश्न: भगवान,
क्या आप मसीहा हैं? आप अपने को क्या समझते हैं?
मेलाराम असरानी,
मैं
हूं ही नहीं--कैसा मसीहा,
कैसा अवतार, कैसा तीर्थंकर, कैसा पैगंबर! और हूं ही नहीं तो क्या समझूं? समझे
कौन? समझे किसको? मैं तो गया। मैं तो
बहुत समय हुआ, जा चुका।
यह
बूंद तो कब की सागर में खो गयी। मगर बूंद जब सागर में खोती है तो सागर हो जाती है।
इसलिए तो कबीर ने कहा कि यह देखो मजा, नदी सागर को पी गयी। कबीर की ये
उलटबांसियां कि नदी सागर को पी गयी--सूचक हैं, बड़ी सूचक हैं।
अब
मैं नहीं हूं। अब तो जो है वही है। अब कहां मैं, कहां तू? यह मैं मैं तू तू गयी। अगर मैं कहूं मैं मसीहा हूं तो भूल होगी। अगर मैं
कहूं मैं तीर्थंकर हूं तो भूल होगी। अगर मैं कहूं मैं अवतार हूं तो भूल होगी। मैं
नहीं हूं , अब तो भगवत्ता है। वही भगवत्ता जो तुम्हारे भीतर
भी है। मगर तुम मिटने की तैयारी नहीं जुटा पाते।
मेलाराम
असरानी, तुम तो मेला बने हो। और मेले में तो झमेला होने वाला है। तुम तो भीड़ हो।
मैं शून्य हूं, तुम भीड़ हो। तुम तो क्या क्या नहीं हो!
तुम्हारे भीतर एक भी नहीं है, अनेक तन हैं । एक दौड़ नहीं,
अनेक दौड़ें हैं। और सब दौड़ें एक-दूसरे के विपरीत हैं, इसलिए हंगामा मचा हुआ है। इसलिए भीतर सतत संघर्ष है, द्वंद्व है, उपद्रव है।
और
तुम यहां मेरे पास भी आते हो, तो तुम भी क्या करो, तुम्हारे
उसी उपद्रव में से ऐसे प्रश्न उठते हैं कि क्या आप मसीहा हैं! क्या विचार है,
सूली लगानी है मुझे? क्योंकि बिना सूली लगाए
कहीं कोई मसीहा हुआ है? जीसस को कोई मानता मसीहा जब तक सूली
न लगती? अगर तुम्हारे दिल सूली लगाने के हों तो चलो मैं
मसीहा हूं। तुम अपनी मर्जी पूरी कर लो। या मेरे कानों में खीले ठोंकने हैं या मेरे
ऊपर पागल कुत्ते छोड़ने हैं? क्योंकि जब तक खीले न ठुकें और
पागल कुत्ते न छोड़े जाएं, तब तक कोई तीर्थंकर नहीं होता। जब
तक चट्टानें न गिरायी जाएं, विक्षिप्त हाथियों को न छोड़ा जाए,
भोजन में जहर न दिया जाए, तब तक कोई बुद्ध
नहीं होता। क्या तुम्हारे इरादे हैं?
मैं
किन्हीं कोटियों में बंटने को राजी नहीं हूं। मैं किसी कोटि में खड़े होने को राजी
नहीं हूं। बुद्ध के जीवन में एक प्यारा उल्लेख है, शायद तुम्हारे काम पड़ जाए।
एक महाज्योतिषी काशी से लौट रहा है--अपने ज्योतिष का अध्ययन पूरा करके। उसकी
ख्याति दूर-दूर तक फैलने लगी। उसकी भविष्यवाणियां सच होने लगीं। उसकी बात पत्थर की
लकीर बनने लगी। वह अपने गांव वापिस आ रहा है। राह में एक छोटी सी नदी पड़ती
है--निरंजना। बुद्ध-गया के पास बहती है। उसी निरंजना के तट पर बुद्ध परम ज्योति
में लीन हुए। नदी का नाम भी बड़ा प्यारा है--निरंजना! निरंजन तो परमात्मा का नाम
है। बुद्ध ने भी ठीक जगह चुनी।
निरंजना
के तट पर बुद्ध एक वृक्ष के नीचे ध्यान कर रहे हैं। और वह काशी से आया हुआ पंडित, भरी
दुपहरी है, जब नदी के तट पर पहुंचा तो देख कर हैरान
हुआ--गीली रेत में किसी के पैरों के चिंह बने हैं। वह तो बहुत चौंका,क्योंकि उसके ज्योतिष के अनुसार इन पैरों के चिन्हों में जो लकीरें बनी
हैं, वे तो केवल चक्रवर्ती सम्राट की हो सकती हैं। चक्रवर्ती सम्राट का अर्थ होता है--जो छहों
महाद्वीप, सारी पृथ्वी का सम्राट हो। चक्रवर्ती सम्राट इस
भरी दोपहरी में, इस गरीब नदी के किनारे, नंगे पैर चलने को आएगा! और चक्रवर्ती सम्राट कोई था भी नहीं उन दिनों।
भारत में तो असंभव। भारत में बुद्ध के समय दो हजार राज्य थे, कहां चक्रवर्ती सम्राट! एक-एक जिला, एक-एक राजा।
भारत
कभी राष्ट्र रहा ही नहीं। इसकी बुद्धि में टुकड़ों में बंटने की आदत है, वह अभी भी
नहीं छूटी। इसे इकट्ठा होना नहीं आता। हर चीज टूट जाती है यहां। भारत दो हजार
खंडों में बंटा हुआ था, कौन चक्रवर्ती सम्राट था!
मगर
ये पैर के चिंह बहुत स्पष्ट थे। ज्योतिष को बहुत चिंता हुई कि क्या मेरा शास्त्र
गलत है। उसने पैरों के चिन्हों का पीछा किया। जिस तरफ चिंह जाते मालूम होते थे पैर
के, उसी तरफ चल पड़ा कि इस आदमी को देखना जरूरी है। चलते-चलते पहुंचा उस वृक्ष
के नीचे जहां बुद्ध बैठे थे, तब और मुश्किल में पड़ गया।
बुद्ध के चेहरे को देख कर तो लगे कि है तो चेहरा चक्रवर्ती सम्राट का ही।
व्यक्तित्व में वही आभा है जो चक्रवर्ती सम्राट की होनी चाहिए--वही मंडल है,
वही वर्तुल है प्रकाश का वही सुगंध है! वही ऐश्वर्य! मगर आदमी
भिखमंगा मालूम होता है। पास में भिक्षापात्र रखा हुआ है, बिछाने
को चटाई भी नहीं है। झाड़ के नीचे चट्टान पर बैठा हुआ है। वह पैरों पर गिर पड़ा
ज्यातिषी उसके अपने शास्त्र जो बड़े बहुमूल्य थे वहीं रख दिये और बुद्ध से कहा कि
मेरी जिज्ञासा को शांत कर दें, मैं बहुत अड़चन में पड़ गया
हूं। बारह वर्ष की मेरी चेष्टा और श्रम पानी में मिला दिया आपने। ये पैरों के चिंह
आपके हैं? जरा आपके पैर देख लूं।
बुद्ध
ने पैर आगे बढ़ा दिये,
उसने पैर गौर से देखे और कहा कि निश्चित ही आपको तो चक्रवर्ती
सम्राट होना चाहिये। आप भिखारी कैसे? यह भिक्षापात्र कैसा?
इस गरीब नदी के तट पर, गर्मी के दिन हैं,
निरंजना बिलकुल सूख गयी है, जरा-सी पानी की
धार है, आप यहां क्या कर रहे हैं चक्रवर्ती हो कर?
बुद्ध
ने कहा,
" मैं कैसा चक्रवर्ती! इस भिक्षापात्र के सिवाय मेरे पास कुछ
भी नहीं। और यह भी मेरा नहीं है। यहां कुछ भी मेरा नहीं है। अरे यह मेरी देह भी
मेरी नहीं है। यह मेरा मन भी मेरा नहीं है। मैं भी मेरा नहीं हूं।'
तो
उस ज्योतिषी ने पूछा,
"फिर एक ही बात हो सकती है कि आप कोई देवता हैं जो आकाश से
उतरे, पृथ्वी का निरीक्षण करने या किसी और प्रयोजन से?'
बुद्ध ने कहा कि नहीं-नहीं, मैं कोई
देवता भी नहीं हूं।
"तो क्या आप गंधर्व हैं?' गंधर्व हैं देवताओं के
संगीतज्ञ। वह भी देवताओं की एक कोटि है। "क्या आप गंधर्व हैं?'
बुद्ध
ने कहा कि नहीं, मैं कोई
गंधर्व भी नहीं। ज्योतिष मुश्किल में पड़ता जा रहा है। क्रुद्ध भी होता जा रहा है
कि यह आदमी कैसा है, हर बात में इनकार कर रहा है कि मैं यह
भी नहीं। तो कहा, कम से कम आप आदमी तो हैं?
बुद्ध
ने कहा कि नहीं-नहीं,
मैं आदमी भी नहीं। तब तो ज्योतिषी और गुस्से में आ गया। उसका गुस्सा
स्वाभाविक , बारह साल का श्रम व्यर्थ गया, शास्त्र गलत सिद्ध हुए और यह एक आदमी है जो जवाब दे रहा है यूं कि इस पर
कहीं से कोई पकड़ ही नहीं बैठती। इसको किस कोटि में रखें?
तो
कहा, "पशु हैं क्या?'
बुद्ध
ने कहा कि नहीं। "पत्थर हैं क्या?' बुद्ध ने कहा, नहीं। तो उसने कहा कि आप ही कहें, कौन हैं?
बुद्ध ने कहा, "मैं सिर्फ जागरण हूं।
मैं सिर्फ होश हूं, बोध हूं। मैं नहीं हूं, बोध मात्र है।'
इसलिए
मैं यह भी नहीं कह सकता कि मैं बुद्ध हूं--सिर्फ बोध है। और मैं मिटा तब बोध हुआ।
अगर मैं रहे तो बोध नहीं।
मेलाराम
असरानी, मैं न मसीहा हूं, न तीर्थंकर , न पैगंबर न अवतार। मैं नहीं हूं।
एक शून्य है। इस शून्य में तुम जो चाहो देख लो, तुम जो चाहो
प्रक्षेपित कर लो। इसलिए किसी को भगवान दिख सकता है, किसी को
शैतान दिख सकता है। यह शून्य तो दर्पण मात्र है, तुम्हारा
चेहरा ही दिखाई पड़ेगा।
अब
मेलाराम असरानी देखेंगे तो इनको मेला दिखाई पड़ेगा--कुंभ मेला भरा हुआ! क्या नाम
चुना है--मेलाराम! अरे राम ही काफी थे, राम तक को मेला बना दिया! राम को
ही बचा लो, मेले को जाने दो। और राम तभी बचता है जब तुम
मिटते हो। मेला मिटा यानी तुम मिटे। मेला अहंकार की भीड़-भाड? है, उपद्रव है, शोरगुल है।
मेला गया कि राम बचा। और राम जहां है वहां कोई मैं-भाव नहीं है। मेरा अर्थ दशरथ
पुत्र राम से नहीं है,ध्यान रहे। राम से मेरा अर्थ भगवत्ता
से है, भगवान से है। तुम्हारे भीतर भी भगवान पड़ा है, मगर उपेक्षित हीरे की तरह और तुम कचरे में भटके हुए हो।
मुझसे
क्या पूछते हो मैं कौन हूं! मुझे तुम तभी पहचान लोगे, उससे पहले
कोई उपाय नहीं है। जागे हुए को पहचानना हो तो नींद से जाग जाओ। मगर तुम नींद में
ही पूछ रहे हो--"क्या आप मसीहा हैं?' यह तुम नींद में
बड़बड़ा रहे हो। ये तुम्हारे स्वप्न की बातें हैं। और अगर मैं कह दूं हां मैं मसीहा
हूं , तो स्वप्न वाले दो काम कर सकते हैं--कुछ हैं, जो मसीहा को मिटाने में लग जाएंगे, सूली बनाने में
लग जाएंगे; और कुछ हैं जो मसीहा की पूजा करने लग जाएंगे।
दोनों ही मसीहा को मिटाने में लगे हैं--एक हिंसात्मक ढंग से, एक अहिंसात्मक ढंग से। सूली चढ़ाने वाला भी मिटा रहा है, पूजा करने वाला भी मिटा रहा है। पूजा करने वाला कह रहा है कि आप बड़े पूज्य
हो,बस कृपा करो, दूर-दूर रहो; दो फूल हम चढ़ा देते हैं, इससे ज्यादा हमसे कुछ और न
हो सकेगा। हमें माफ करो, हम पर कृपा करो। ये दो फूल ले लो और
हमें छुटकारा दो।
सूली
चढ़ाने वाला भी यही कह रहा है। जरा उसका ढंग हिंसात्मक है। वह कह रहा है कि हम नहीं
चाहते तुम रहो,
क्योंकि तुम्हारी मौजूदगी हमें अड़चन देती है। हम तुम्हारी मौजूदगी
को मिटा देना चाहते हैं। वह भी मिटा रहा है, पूजा करने वाला
भी मिटा रहा है। पूजा करने वाला कह रहा है कि तुम मसीहा हो, भगवान
हो, तीर्थंकर हो, पैगंबर हो, अवतार हो। हम मनुष्य ठहरे। हम हैं मेलाराम, तुम हो
राम, क्या लेना-देना? मगर अब मिल गये
हो राह पर तो जयराम जी! ये दो फूल ले लो और हमें जाने दो!
दोनों
अपने-अपने ढंग से इनकार करने की कोशिश कर रहे हैं। समझने की चेष्टा करो, जानने की
चेष्टा करो। तभी तुम पहचान पाओगे कि शून्य होना भी एक ढंग है। वही तो
अथर्ववेद की ऋचा है--
पृष्ठात्पृथिव्या
अहमन्तरिक्षमारुहम्
अन्तरिक्षादिद्
विमारुहम्, दिवोनाकस्य
पृष्ठात्र्ऽस्वज्योतिरगाहम्
चले
चलो, उठ चलो--शरीर से, पार्थिव लोक से अंतरिक्ष लोक;
अंतरिक्ष लोक से ज्योतिषमान लोक,से परम
ज्योतिपुंज में लीन हो जाओ। शून्य हो जाओगे तो महाशून्य तुम्हारा है। मिटोगे तो सब
कुछ तुम्हारा है।
तीसरा प्रश्न: भगवान,
आप कहते हैं कि कीचड़ से ही कमल पैदा होता है। क्या राजनीति की
कीचड़ से बुद्धत्व का कमल संभव नहीं?
कृष्णतीर्थ भारती,
निश्चित
ही कीचड़ से ही कमल पैदा होता है, लेकिन कीचड़ को भी थोड़ी शांति चाहिए। झील की
तलहटी में कीचड़ को भी थोड़ा विश्राम चाहिए। उस पर धमाचौकड़ी मचाए रखो तो कमल पैदा
नहीं होगा। और राजनीति धमाचौकड़ी है। कीचड़ तो है ही, मगर कीचड़
को भी शांति नहीं है वहां। कीचड़ भी एक दूसरे पर फेंकी जा रही है। कीचड़ को फुरसत
कहां कि कमल को उगा ले, राहत कहां? कमल
उगाने के लिए थोड़ा समय तो चाहिए।
मगर
ये जो राजनीति के उपद्रवी हैं, ये न खुद चैन से बैठते हैं, न किसी और को चैन से बैठने देते हैं। इनका धंधा ही खुद बेचैन रहना और
दूसरों को बेचैन करना है। ये अपनी मिट्टी खराब करते हैं, दूसरों
की मिट्टी खराब करते हैं।
राजनीति
से कमल पैदा होना असंभव है,
क्योंकि तुम राजनीति का मतलब समझो। कीचड़ है इतना तो तुम समझ गये,
मगर कीचड़ भी बड़ी उथल पुथल में है। भूकंप चल रहा है, प्रतिक्षण भूकंप आ रहा है। तो कमल कब पैदा हो? कीचड़
को भी खदेड़ा जा रहा है--यहां से वहां, फेंका जा रहा है,
उलटाया जा रहा है, पुलटाया जा रहा है। कीचड़ को
भी मौका तो दो थोड़ा विश्राम कर ले।
और
फिर जब मैं कहता हूं कीचड़ से कमल पैदा होता है, तो एक बात ख्याल रखना, कहीं चूक न हो जाए--जरूर कीचड़ से कमल पैदा होता है, लेकिन
कमल के बीज भी चाहिए, नहीं तो अकेली कीचड़ से कमल पैदा नहीं
हो जाता। अकेले बीज से भी पैदा नहीं होता। कीचड़ और कमल के बीजों को मिलन होना
चाहिए।
तुम्हारे
भीतर कमल पैदा हो सकता है मगर कम से कम कमल के बीज तो तुम्हें बोनें ही होंगे। और
राजनीति कमल के बीज नहीं बोने देगी,क्योंकि
कमल के बीज का अर्थ होता है--बुद्धिमत्ता के बीज, ध्यान के
बीज, जागरण के बीज। और राजनीति में तो वही जीतता है जो सौ-सौ
जूते खाए तमाशा घुस कर देखे। कितनी कुटाई-पिटाई हो, कोई टांग
खींच रहा है, कोई लंगोटी ले भागता है, कोई
टोपी फेंक देता है, कोई फिक्र नहीं, अपनी
टोपी संभाल लेते हैं,फिर अपनी लंगोटी बांध लेते हैं, फिर जूझ पड़ते हैं। कितना ही घसीटो, पटको, कुछ भी करो, मगर बड़े धुन के पक्के लोग होते हैं। वे
तो कुर्सी पर बिलकुल चढ कर ही रहेंगे, हालांकि कुर्सी पर चढ़
कर भी चैन नहीं है। वहां भी चैन मिल जाए तो कमल खिल सकते हैं। वहां भी चैन कैसे!
कुर्सी से चिपके रहना पड़ता है, क्योंकि लोग दूसरे खींच रहे हैं कि हटो। उठा पटक जारी है। यह तो
मल्लयुद्ध है। यहां चारों तरफ दंड-बैठक लोग लगा रहे हैं, भुजाएं
फाड़ रहे हैं। वह जो कुर्सी पर बैठा है उसको डरवा रहे हैं कि भागो, हटो! कोई उसकी स्तुति कर रहा है, पैर दबा रहा है।
लेकिन जो पैर दबा रहा है, उससे भी उसको सावधान रहना पड़ता है,
क्योंकि जो पैर दबा रहा है वह गर्दन दबाएगा। असल में गर्दन ही दबाना
चाहता है, पैर से शुरू कर रहा है। हर चीज क ख ग से ही शुरू
करनी पड़ती है। एकदम से किसी की गर्दन दबाओगे
तो वह भी नाराज हो जाएगा। पैर दबाते दबाते पहुंचोगे, समझोगे
मालिश ही कर रहा है। फिर गर्दन कब दबा देगा, पता नहीं चलेगा।
राजनीति
में कोई मित्र तो होता ही नहीं, सब शत्रु होते हैं। मित्र भी शत्रु होते हैं,
शत्रु तो शत्रु होते ही हैं। जितना ही निकट होता है आदमी उतना ही
खतरनाक होता है राजनीति में। क्योंकि जो जितने निकट है उतनी ही उसकी आशा बंध जाती
है कि अब मैं भी पद पर हो सकता हूं। अगर मोरारजी देसाई पद पर हो सकते हैं तो
चरणसिंह क्यों नहीं हो सकते? जरूर हो सकते हैं। जब देखा कि मोरारजी देसाई चढ़ गये तो चरणसिंह क्यों पीछे
रहें! कोई भी चढ़ सकता है। जब देख लिया कि एक लंगूर चढ़ गया, तो
दूसरे लंगूर तुम सोचते हो चुपचाप बैठे रहेंगे?
राजनीति
के लंगूरों में कहां से बीज बोओगे? उनको तुम कमल के भी दोगे, कुछ का कुछ कर लेंगे। तुमने राजनीतिज्ञों को जरा देखा गौर से? इनमें बुद्धि के कोई लक्षण दिखाई पड़ते हैं?
एक
नेताजी को किसी मुशायरे की अध्यक्षता करनी पड़ी। मुशायरा शुरू होते ही मुकर्रर
मुकर्रर की आवाजें सुन उन्होंने धीरे से अपने सेक्रेटरी से पूछा,"मुकर्रर
क्या होता है?' मुशायरे की अध्यक्षता कर रहे हैं और मुकर्रर
क्या होता है, यह भी पता नहीं! सेक्रेटरी ने कहा,
"सर, लोग इस शेर को फिर से सुनना चाहते
हैं। वे कह रहे हैं--वंस मोर, एक बार फिर। मुकर्रर का मतलब
एक बार फिर और हो जाए।'
यह सुनना ही था कि नेताजी ने माइक अपनी ओर खींचा
और बोला,
"देखिए साहबो, एक बार में शेर सुनिए।
मेरे होते हुए आप इस तरह शायर को तंग नहीं कर सकते।'
बुद्धि
भी तो होनी चाहिए। कमल तो पैदा हो जाए, मगर बुद्धि कहां? एक नेताजी अपने विदेश यात्रा के संस्मरण लोगों को विस्तारपूर्वक सुना रहे
थे कि मैं अमरीका गया, इंग्लैंड घूमा, अफ्रीका
के जंगल देखे, बर्फानी प्रदेशों में फंसा। पास बैठे एक सज्जन
ने हैरत से कहा, "फिर तो आपको भूगोल की अच्छी जानकारी
होगी?'
उन
नेताजी ने कहा,"नहीं, मैं वहां नहीं गया।' अक्ल
नाम की चीज और नेता में मिल जाए, बिलकुल असंभव।
एक नेता जी पहली ही पहली बार दिल्ली आए हुए थे।
जब अन्य सब काम हो गये तो नेता जी ने सोचा
कि जब यहां आए हैं तो दिल्ली शहर के किसी अच्छे नाई से हजामत ही क्यों न बनवा ले।
ऐसा सोच एक बड़ी नाई की दुकान पर जा पहुंचे और बोले कि मुझे हजामत बनवानी है, कितने
पैसे लगेंगे?
नाई
बोला, "नेता जी, आपको जितने पैसे वाली बनवानी हो, पचास पैसे, एक रुपये, दो रुपये,
पांच रुपये, दस रुपये, जैसी
भी आप चाहें।'
नेता जी बोले, "अच्छा ऐसा करो,
आठ आने वाली बनाओ।'
नाई
ने उस्तरा उठाया और नेताजी की पूरी नाक साफ कर दी। जब नाई अपना काम कर चुका तो
उसने कहा कि लाइये नेताजी,
पैसे दीजिए। इस पर नेताजी बोले, अब एक रुपये
वाली हजामत बनाओ।' नाई तो घबड़ाया कि अब एक रुपये वाली हजामत
के लिए जगह ही कहां बची है! उसे घबड़ाया देख नेताजी बोले, "घबड़ा मत, अभी तो धीरे-धीरे दस रुपये वाली तक
बनवाऊंगा। बेफिक्री से बना।'
बुद्धि
तो नाममात्र को नहीं। बुद्धि हो तो राजनीति में क्यों हों? कीचड़ तो
है, मगर कमल के बीज कहां? और कमल के
बीज हों तो पता नहीं उनको चना-फुटाना समझ कर चबा जाएं, क्या
करें! इनका कुछ भरोसा नहीं।
इन
लंगरों की एक जमात खड़ी हो गयी पूरे देश में। एक से एक लंगूर हैं इसमें।
अकालग्रस्त
क्षेत्र के दौरे पर गए
एक
खाद्दमंत्रीजी,
बताया
गया उन्हें
कि
यहां लोग घास खा रहे हैं
बड़े
प्रसन्न हुए
और
सभा में भाषण देते हुए बोले,
"मेरे अकालग्रस्त क्षेत्र के भाइयो!
मुझे
प्रसन्नता है
यह
जान कर
कि
आप लोग
घास
खा रहे हैं,
मैंने
सुना है
कि
आजादी की रक्षा के लिए
प्रताप
ने भी घास खाई थी
और
नेताजी
सुभाष बोस ने भी कहा था
कि
गुलामी की डबल रोटी से
तो
आजादी की घास बेहतर है
मैं
आपको मुबारकबाद देता हूं
कि
आप भी आजादी की रक्षा के लिए
घास
खा रहे हैं,
अपना
फर्ज निभा रहे हैं,
अब
ज्यादा क्या कहें
हमारे
लंच का वक्त हो गया
हम
जा रहे हैं!
जयहिंद!'
राजनीति
का जरा सरकस तो देखो! एक से एक जोकर, क्या-क्या करतब दिखा रहे हैं! एक
नेताजी हैं--राजनारायण। वही सिर्फ नेताजी के नाम से जाने जाते हैं, बाकी तो सिर्फ ठीक ही हैं, नेता ही हैं--नेताजी तो
राजनारायण हैं!
श्री
राजनारायण सुमिर मन,
कोटि जनगण रंजनम्
नित
जोड़त्तोड़म्, तोड़-फोड़म्, जनतापार्टी-भजनम्
सिर
नवल हरित रूमाल,
मुख पर मूंछ-दाढ़ी शोभितम्
तव
देह अति विकराल,
रुप कराल, जिमि वनमानुषम्
सुद्दढ़
अंग-प्रत्यंग,
कलि-बजरंग, कपि-कुल भूषणम्
नित
सांझ घोटत भंग,
पीवत प्रात उठ-जीवन-जलम्
तन
रमत सुरभित तेल,
इत्र-फुलेल वस्त्र-विभूषणम्
नित साम दामम्, दण्ड भेदम्, सकल संसद-दूषणम्
जय
पतित-पावन नगर काशी,
पाप-पुण्य समर्पणम्
पुनि
पहुंच गंगात्तट त्रिपाठी,
कीन्हि अन्तिम तर्पणम्
इति
वदति अल्हड़दास जोकर-चरित विकट विलक्षणम्
कलिकाल
जगजीवन विनाशम् चरण-शरण-सुरक्षणम्
श्री
राजनारायण सुमिर मन,
कोटि जन-गण-रंजनम्
नित
जोड़त्तोड़म्, तोड़-फोड़म्, जनता-पार्टी भजनम्
एक
से एक अद्भुत लोग हैं। अब तुम सोचते हो कि राजनारायण में और कमल पैदा हो जाएं? असंभव और
इनमें से कोई कमल पैदा करना चाहता भी नहीं। ये तो कुछ और चाहते हैं। ये पद चाहते
हैं, प्रतिष्ठा चाहते हैं, अहंकार के
लिए आभूषण चाहते हैं। ये तुम्हारे सिर पर चढ़ना चाहते हैं। इनको कमल चाहिए? कमल के लिए कोमलता चाहिए। कमल होने के लिए इतनी उपद्रवग्रस्त चित्त अवस्था
कैसे भूमिका बन सकती है?
और
देखते हो इनको घुटने टेके हुए? भिखमंगे से लेकर राष्ट्रपति तक बस यह भीख ही
मांग रहे हैं। कभी वोट मांग रहे हैं, किसी से पद मांग रहे
हैं। जगह-जगह इनका एक ही काम है: अपने से नीचे जो है, उसको
दबाना; अपने से ऊपर जो है, उसकी खुशामद
करना, उसकी मालिश करना, उसकी सेवा में
रत। उसका बदला नीचे जो है उससे लेना।
मैंने
सुना है, अकबर ने एक दफा गुस्से में आकर बीरबल को चांटा मार दिया। बीरबल ने आव देखा
न ताव, बगल में खड़े एक आदमी को चांटा मार दिया। वह आदमी बहुत
भन्नाया। उसने कहा कि यह हो गयी, मैंने तो कुछ तुम्हारा
बिगाड़ा नहीं। और अकबर ने तुम्हें चांटा मारा, मारना हो अकबर
को मारो, मुझे क्यों मारते हो?
बीरबल ने कहा, " जो जिसको मार सकता
है, उसको मारेगा। तू आगे वाले को बढ़ा दे।'
और
उस आदमी की भी बात समझ में आ गयी, उसने आगे वाले को बढ़ा दिया। उसने दिया एक चांटा
बगल में खड़े आदमी को। और फिर तो पूरे दरबार में चांटा घूम गया। चपरासी तक पहुंच
गया। यूं चलती है यात्रा।
एक आदमी जब इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री थीं पहले, तो उनकी
प्रशंसा करता था। फिर मोरारजी देसाई प्रधानमंत्री हो गये, उनकी
भी प्रशंसा करता था। और जब इंदिरा पुनः प्रधानमंत्री हो गयीं तो वह आदमी फिर आकर
प्रशंसा करने लगा। मैंने कहा कि मेरे भाई, तू कुछ तो सोच,
कभी इंदिरा की प्रशंसा करता, कभी मोरारजी
देसाई की, कभी चरणसिंह की! तेरे पास कुछ लाज-शरम भी है या
नहीं?
उसने कहा कि इसमें मैं क्या गलती कर रहा हूं? अरे मुझे
क्या लेना मोरारजी से, मुझे क्या लेना इंदिरा से? जो भी प्रधानमंत्री , मेरी निष्ठा तो प्रधानमंत्री
से है। मैं तो प्रधानमंत्री की प्रशंसा करता हूं। मुझे क्या लेना देना इन लोगों से?
कि कौन आया गया? ये तो आते-जाते रहते हैं
मैंने
उससे पूछा,
"तेरा काम क्या है?' उसने कहा कि मैं
चपरासी हूं प्रधानमंत्री का। और यह तो टेंपररी हैं, मैं तो
परमानेंट! ये तो आते-जाते रहते हैं, ये तो बरसा के मेंढक की
भांति टांय-टांय किये और गये। मैं तो परमानेंट हूं! मैं तो यहीं जमा हूं। अब मुझे
क्या लेना-देना, कौन बैठा कुर्सी पर! जो बैठा सो मालिक।
एक नेता जी, जो इंदिरा को धोखा दे गये थे और
मोरारजी के साथ हो गये थे, जब इंदिरा वापस सत्ता में आ गयी,
तो उनका इस पद में वर्णन है--
मैया
मोरी मैं नहिं कोउ पद पायौ।।
नई
सरकार बनाई तैने,
ऐसी खोट कियौ का मैंने,
आंख
फारि देखे सब पेपर,
मेरौ नाम न आयौ।
प्रतिपक्षितन
ने बहुत सतायौ,
घेरि-घेरि कै जेल पठायौ,
जब-जब
मांगो न्याय,
कोर्ट को कुत्ता हू गर्रायौ।
मैया
मोरी मैं नहिं कोउ पद पायौ।।
फूंक-फूंक
कर पांव धरूंगो,
आज्ञा देगी सोहि करूंगो,
अब
नहिं खाऊंगौ जैसे पहिलै धोखौ खायौ।
मैया
मोरी मैं नहिं कोउ पद पायौ
नसबन्दी
कौ सोर मचायौ,
भोरी जनता को भरमायो,
जबरन
करी पुलिस नै,
मेरौ झूठो नाम लगायौ।
मैया
मोरी मैं नहिं कोउ पद पायौ।
द्वारे
खड़े किसोर-किसारी,
मन्त्रिन के कछु छोरा-छोरी,
खेलन
दे दिल्ली में होरी,
यह सुभ अवसर पायौ।
मैया
मोरी मैं नहिं कोउ पद पायौ।।
फेल
भयौ किस्सा कुर्सी कौ,
अब दै-दै हिस्सा कुर्सी कौ,
जोर
मारिकै मर गए बैरी,
तऊ संसद में आयौ।
मैया
मोरी मैं नहिं कोउ पद पायौ।।
वात्सल्य
उमङग्या मन मैया,
धीरज धर मेरे कुवंर-कन्हैया,
तोहि
"प्रधान'
बनाइकै मानूं, हाथ फेरि दुलरायौ।
मैया
मोरी मैं नहिं कोउ पद पायौ।।
इन
मूढ़ों में, तुम सोचते हो कमल खिल सकते हैं? कीचड़ में जरूर। मगर
ये तो कीचड़ से भी गये-बीते हैं। ये तो कीचड़ से भी बदतर।
राजनीति
तो मनुष्य के जीवन का निम्नतम जो रूप है, उसको प्रगट करती है। राजनीति में
कोई संभावना नहीं है। कैसे तो वहां ध्यान बनेगा, कैसे वहां
समाधि? और समाधि के
बिना कैसे कमल? वह सहस्र-दल-कमल, जिसकी
बुद्धों ने चर्चा की सदा, तुम्हारी चैतन्य की परम शांति में
ही खिल सकता है, मौन में ही खिल सकता है। उसके लिए अति
बुद्धिमत्ता चाहिए। उसकी पूरी कला सीखनी होती है। यह धोखाधड़ी की दुनिया, यह बेईमानी, यह चालबाजों की दुनिया, यह एक-दूसरे की गर्दन काटते हुए लोगों की दुनिया, यहां
कैसे सहस्र-दल-कमल खिले? असंभव।
राजनीति
से मुक्त होना पड़े,
तो जरूर कमल खिल सकता है। राजनीति से मुक्ति का अर्थ
है--महत्वाकांक्षा से मुक्ति। राजनीति अर्थात महत्वाकांक्षा। और महत्वाकांक्षा से
मुक्ति अर्थात परम शांति। जहां महत्वाकांक्षा नहीं है वहां अशांति का कोई कारण न
रहा। जब तक तुम कुछ और होना चाहते हो, जब तक तुम कुछ पाना
चाहते हो, जब तक तुम्हारी दौड़ है, तब
तक चैन नहीं, विश्राम नहीं। ठहरना होगा, रुकना होगा, बैठना होगा। आंख बंद करके भीतर झांकना
होगा। जरूर कमल खिल सकता है। कुछ मैं यह नहीं कह रहा हूं कि राजनीति के जीवन में
कमल खिल ही नहीं सकता। राजनीति में रहते हुए नहीं खिल सकता। नहीं तो राजनीतिज्ञ भी
तुम्हारे जैसा मनुष्य है। थोड़ा पगला गया है, सो पागलपन छोड़
सकता है; क्योंकि पागलपन ने उसे नहीं पकड़ा है, उसने ही पागलपन को पकड़ा है। जब चाहे तब छोड़ दे। छोड़ दे तो कीचड़ ठहर जाए।
छोड़ दे तो उस छोड़ने में ही बीज बो जाएं। महत्वाकांक्षा चली जाए, तो कमल के खिलने में क्या देर लगती है? वह तो हमारा
स्वभाव है।
इस
जगत में जो भी पाने योग्य है वह तुम्हें मिला ही हुआ है, सिर्फ उसे
मौका दो। आपाधापी न करो।
जीसस
कहते थे: तुम बीज फेंको,
कुछ पड़ जाएंगे रास्ते पर जहां से लोग गुजरते हैं, वे कभी अंकुरित न हो पाएंगे? कैसे अंकुरित होंगे?
राह दिन-रात चलती है, बीज पैरों में दबते
रहेंगे, इधर से उधर हटते रहेंगे। गाड़ियां गुजरेंगी, घोड़े गुजरेंगे, टापें पड़ेंगी, चाक
घूमेंगे, कैसे बीजों में अंकुर आएंगे? लेकिन
कुछ बीज राह के किनारे पड़ जाते हैं, उनमें अंकुर शायद आ जाएं,
मगर कभी फूल न खिलेंगे। क्योंकि राह के किनारे माना कि उतने लोग
नहीं चलते, लेकिन फिर भी कभी-कभी लोग चलते हैं। जब रास्ते पर
गाड़ियां निकल रही हों, घोड़े निकल रहे हों, गधे निकल रहे हों, तो लोग रास्ते के किनारे चलते
हैं। तो हो सकता है रास्ते के किनारे कोई बीज अंकुरित हो जाए मगर अंकुरित ही हो कर
मर जाएगा। फिर कुछ बीज रास्ते से दूर हट कर खेत की मेड़ पर पड़ सकते हैं। तो शायद
अंकुर पौधे बन जाएं, मगर खेत की मेड़ से भी किसान कभी-कभी
गुजरता है। बहुत लोग नहीं गुजरते, मगर खेत का मालिक गुजरता
है। उसकी पत्नी रोटी ले कर आती है। उसके बच्चे उससे मिलने आते हैं। कभी उसके
मेहमान भी आ जाते हैं। पौधे भी बन जाएंगे तो भी मर जाएंगे। और कुछ बीज खेत में पड़
जाते हैं। जो खेत में जाते हैं, वे अंकुरित भी होंगे,
पौधे भी बनेंगे, उनमें फूल भी लगेंगे, उनमें फल भी लगेंगे। उनकी छाया के नीचे शायद कोई विश्राम भी कर सके। उनसे
गंध भी उठेगी। वे नाचेंगे आकाश में तारों के साथ। वे चांद और सूरज से बातचीत
करेंगे। नृत्य भी होगा, उत्सव भी होगा। क्योंकि जो वृक्ष
अपने फूलों पर आ जाता है वह वृक्ष परितृप्त हो गया।
और
वही मनुष्य परितृप्त होता है जो अपने सहस्र-दल-कमल को खिला सकता है। हजारों
पंखुड़ियों वाला यह कमल है तुम्हारे भीतर। मगर इन बीजों को रास्ते पर मत डालो।
राजनीति
तो ऐसे है जैसे चलता हुआ रास्ता। वहां तो बीज डाले तो बीज मर जाएंगे। लेकिन
राजनीति में जो है हट सकता है।
मेरे
एक संन्यासी अमृत चैतन्य ने लिखा है कि बरसों हो गये, आपने मुझे
समझाया था कि राजनीति में मत गिर जाना। मगर मैंने आपकी न सुनी, मैं राजनीति में पड़ गया विधान-सभा का सदस्य बन गया। अब सोचता हूं कि मैंने
इतने वर्ष व्यर्थ गंवाए। अब आपकी बात समझ में आती है कि मैं नाहक कुटा-पिटा,
नाहक समय गया। अब पश्चाताप होता है।
अब
उन्होंने पूछा है कि अब क्या करूं। इस पश्चाताप से कैसे छुटकारा हो?
अमृत
चैतन्य, जो गया सो गया। सुबह का भूला सांझ भी घर आ जाए तो भुला नहीं कहलाता। अब
पश्चाताप में समय मत खराब करो। एक से एक मजा है! पहले राजनीति में खराब किया,
अब पश्चाताप में खराब करोगे। अब कम से कम पश्चाताप न करो। क्या
पश्चाताप? शायद जरूरी था, तभी तुम नहीं
सुन पाए। भीतर कहीं अभी पड़ा होगा कुछ रस, कोई राग, कोई दौड़। शायद राजनीति में जाना जरूरी था। तो जो बात मैंने तुमसे कही थी
वह अब समझ में आयी। चलो। जब समझ में आ गयी तभी जल्दी है। तब समझ में न आयी थी,
कोई बात नहीं। शायद मैंने समय के पहले कह दी होगी। शायद समय पका
नहीं था। तब तुमने सुना होगा, लेकिन समझे नहीं, समझते कैसे? क्योंकि राजनीति के उपद्रव में न पड़ते
तो तुम्हें मेरी बात समझ में आती भी नहीं। पड़ गये उपद्रव में चलो इतनी समझ आयी,
यह भी कुछ कम लाभ है? अगर पड़े ही रहते तो
बुद्धू थे। निकल आए और पश्चाताप पकड़ गया, यह बुद्धिमत्ता का
लक्षण है। अब पश्चाताप में समय मत खराब करो। बात खतम हो गयी सीख लिया एक पाठ। आखिर
आदमी भूल करके ही सीखता है। इसमें पछताना क्या?
हाथ
जलता है तो ही बच्चा सीखता है कि आग में हाथ नहीं डालना। गङ्ढे में गिरता है तो ही
सीखता है गङ्ढे में से कैसे बचना। मूढ़ तो वे हैं जो गिर गिर कर नहीं सीखते।
तुमसे मैंने पंद्रह साल पहले यह बात कही थी।
जल्दी है कि तुम पंद्रह साल में सीख गये। लोगों के जो पंद्रह जन्म गुजर जाएं तो भी
सीख नहीं सकते। अब मोरारजी देसाई की उम्र पच्चासी वर्ष हो रही है, अभी तक
अकल नहीं। अभी फिर सुगबुगाहट उनको पैदा हो गयी है। कुछ दिन ठंडे हो कर बैठ गये थे
समझ कर कि अब कोई आशा नहीं है। लेकिन अब उनके शागिर्दों ने, दूसरे
लंगूरों ने दंगे-फसाद करवा दिये देश में। चीजों के भाव बढ़ रहे हैं--इन्हीं की कृपा
से बढ़ रहे हैं, इन्हीं सज्जन की कृपा से बढ़ रहे हैं! क्योंकि
संख्या बढ़ा दी इन्होंने तीन साल जब तक सत्ता में रहे, क्योंकि
संतति निरोध को बिलकुल बंद करवा दिया। संख्या बढ़ गयी लोगों की। चीजें उतनी की उतनी
हैं और संख्या बढ़ गयी तो दाम तो बढ़ने वाले हैं। अब दाम नहीं बढ़ने चाहिए, इसका आंदोलन चला रहे हैं। इनकी ही गर्दन पकड़नी चाहिए लोगों को कि तीन साल
में तुमने जो शरारत की है देश के साथ, उसका यह परिणाम है।
परिणाम आने में समय लगता है। तीन साल तुमने जो उपद्रव कर दिया, तीन साल तुमने जो अव्यवस्था फैला कर रखी...तीन साल इन सज्जन ने किया ही
क्या? सिर्फ एक काम किया कि किसी तरह इंदिरा को नेस्तनाबूद
कर दें। शर्म भी होती है संकोच भी होता है कि हारे हुए को नहीं मारता। जो गिर पड़ा
उसको फिर चोट नहीं की जाती। लेकिन इन्होंने तीन साल में उतनी भलमनसाहत भी नहीं
बरती। इंदिरा को जड़-मूल से नष्ट का देने की चेष्टा में लगे रहे। तीन साल में इनका
कुल काम इतना रहा कि किस तरह इंदिरा को बर्बाद कर दें।
और
ध्यान रखना जो दूसरे को बर्बाद करने में लगता है वह खुद बर्बाद हो जाता है। जो
दूसरों के लिए कांटे बोता है, एक दिन उन्हीं कांटों पर उसे खुद चलना होता है।
जो दूसरों के लिए गङ्ढे खोदता है एक दिन उन गङ्ढों में उसे खुद ही गिरना पड़ता है।
वे ही गङ्ढे उसकी कब्र बन जाते हैं।
तीन
साल में देश ने देख लिया कि हमने गधों के हाथ में सत्ता दे दी है। गधे शब्द से
नाराज मत होना। गधा का मतलब है--गंभीर रूप से धार्मिक। वह संक्षिप्त है। गधा मैं
संक्षिप्त कर लिया हूं कि बार-बार क्या कहना--गंभीर रूप से धार्मिक, गंभीर रूप
से धार्मिक! अब जरा इन्होंने देखा कि दूसरे गधों ने, इनके
शार्गिदों ने, लंगूरों ने उपद्रव शुरू कर दिये हैं जगह-जगह
दंगे-फसाद, हिंदु-मुस्लिम दंगे, जिनका
कोई कारण नहीं है और जिसके पीछे निश्चित षडयंत्र दिखाई पड़ता है, क्योंकि एक ही ढंग से वे दंगे सब जगह हो रहे हैं। एक ही रुख और एक ही
व्यवस्था अपनायी गयी है। मुरादाबाद में दंगा हुआ, वही ढंग
था--एक सुअर को ईदगाह में छोड़ दिया। इलाहबाद में दंगा हुआ, वही
तरकीब थी--एक सुअर को मार कर मस्जिद के सामने लटका दिया। जाहिर है कि इस तरह की
घटनाओं के पीछे सुअरों का हाथ है। और किसका हो सकता है? और
इसके पीछे एक सुनियोजित षडयंत्र है: सारे मुल्क को हिंदु-मुस्लिम दंगों के उपद्रव
में फंसा दो। स्वभावतः सरकार को गिरना आसान हो जाएगा।
और
भाव बढ़ रहे हैं चीजों के,
बढ़ेंगे ही--संख्या बढ़ रही है। कोई नहीं रोक सकता भाव बढ़ने से। और
भाव बढ़ने से रोकना हो तो एक ही उपाय है कि जबरदस्ती करनी पड़ेगी। जबरदस्ती करो तो
यही दुष्ट खड़े हो जाएंगे कहने को कि देखो, फिर इमरजेंसी आ
गयी, फिर जबरदस्ती शुरू हो गयी! हम कहते थे कि इंदिरा को
लाये कि जबरदस्ती आएगी। अब तुम देखते हो, किस तरह की राजनीति
का जाल चलता है! जबरदस्ती के बिना भाव नीचे नहीं लाये जा सकते। ये पुलिस के डंडे
की जबरदस्ती से भाव नीचे आ सकते हैं। लेकिन पुलिस का डंडा उठाओ तो इंदिरा गयी,
क्योंकि तुमने जबरदस्ती की जनता के साथ। लोकतंत्र में जबरदस्ती! अगर
डंडा मत उठाओ तो इंदिरा गयी, क्योंकि भाव बढ़ते जा रहे हैं,
जनता पीड़ित हो रही है और तुम अपना आश्वासन पूरा नहीं कर पाये।
इस
तरह के द्वंद्व में फांसने की कोशिश की जा रही है। उसको लगा कि अब संभावना एक बार
फिर प्रधानमंत्री होने की है। तो कुछ दिन बिलकुल ठंडे बैठे रहे। जनता पार्टी के
सदस्यों के चुनाव के प्रचार के लिये भी नहीं गये। और अब फिर सक्रिय हो गये। अब फिर
यात्रा शुरू। अब फिर आशा बंधी। कितने बार हौसले टूट जाते हैं, मगर फिर
भी मरते नहीं हौसले। पच्चासी वर्ष की उम्र में भी आदमी राजनीति से पार न हो पाये,
तो इतना ही मानना होगा कि संभवतः बुद्धि नाम की कोई चीज इस व्यक्ति
में नहीं है। नहीं तो सब देख लिया, अब क्या उसी उपद्रव में
फिर जाना! लेकिन अभी और इनको पिटना है, अभी और इनको कुटाई
पिटाई करवानी है। अभी फिर नशा चढ़ने लगा।
तो
तुम, अमृत चैतन्य, तो ज्यादा बुद्धिमान हो कि ये
दस-पंद्रह वर्ष के उपद्रव में ही तुम्हें समझ में आ गया कि बेवकूफी हो गयी। और
मैंने तो बीज डाल दिया था तुम्हारे मन में कि मत गिरना। और मैंने जब बीज डाला था
और तुमसे कहा था मत गिरना राजनीति में, तो निश्चित ही यही
देख कर कहा होगा कि तुम गिरोगे,नहीं तो क्यों कहता? हर किसी को नहीं कहता हूं कि मत गिरना राजनीति में। तुमसे कहा था मत गिरना
राजनीति में, देखा होगा कि गिरने के करीब हो, कि बिलकुल गङ्ढे के किनारे खड? हो और दिल तुम्हारा
बहुत मचल रहा है कूदने को। बिलकुल लंगोट बांधे हुए खड़े हो। तो ही कहा होगा मैंने
कि भैया,रुक जाओ तो रुक जाओ। हालांकि मैंने यह नहीं सोचा
होगा कि तुम रुक जाओगे। लेकिन इतना जरूर सोचा था कि कोई फिक्र नहीं, गिरे भी तो यह बात पड़ी रह जाएगी, शायद कभी काम आ
जाए। वह आज काम आ गयी।
अब
पश्चाताप की कोई जरूरत नहीं। जल्दी ही बाहर आ गये। जन्म-जन्म लग जाते हैं, लोग बाहर
नहीं आ पाते। बड़ी मुश्किल से बाहर आ पाते हैं। जो बाहर आ जाएं वे बुद्धिमान हैं।
मैत्रेय
को देखते हो,
वे बारह साल तक संसद के सदस्य थे। अभी होते अगर संसद में तो कैबिनट
स्तर के मंत्री निश्चित होते, कोई कारण नहीं था...। नहीं तो
कम से कम बिहार के मुख्यमंत्री तो होते ही। पूरी संभावना थी। लेकिन मैंने उनसे कहा
और वे बाहर आ ही गये। असल मैं बारह साल देख ही चुके थे, शायद
रास्ते में राह ही देख रहे होंगे कि कोई कहे कि कोई बहाना मिल जाए तो निकल आएं।
तुम गङ्ढे में गिरे नहीं थे। तुमसे मैंने कहा, तुम गिर कर
सीखे। मैत्रेय को मैंने कहा, वे गङ्ढे में गिरे ही हुए थे,
गङ्ढे का अनुभव था। हड्डी-पसली चकनाचूर हो ही रही थी। मैंने कहा कि
निकल आओ, वे निकल आए उसी वक्त।
हर
चीज का समय होता है। पछताने की तो कोई भी जरूरत नहीं है। न पीछे लौट कर देखना है, न पीछे के
विचार में पड़ना है। आगे जाना है। जो हुआ हुआ। और उससे लाभ हो गया। आखिर तुम्हारी
बुद्धिमत्ता बढ़ी। पंद्रह साल पहले जो बात समझ में न आयी थी आज समझ में आने लगी,
यह अच्छा लक्षण है। अब दुबारा न गिरना, बस
इतना ही तुमसे कहता हूं। और पश्चाताप किया तो दुबारा गिर सकते हो, क्योंकि पश्चाताप बड़ा सूक्ष्म और नाजुक मामला है।
तुम
पश्चाताप के विज्ञान को समझ लो। यह खतरनाक
चीज है पश्चाताप। पश्चाताप आदमी करता क्यों है? सोचते तुम हो इसलिए करता है कि भूल
की। नहीं, पश्चाताप आदमी इसलिए करता है कि जो भूल की उसको
पोंछ दे, उस पर पानी फेर दे, ताकि फिर
भूल करने की सुविधा बन जाए। नहीं तो वह भूल खड़ी रहेगी और चेताती रहेगी कि देखो,
अब मत करना भूल। पश्चाताप करके तुम अपने अहंकार को फिर से खड़ा कर
लोगे। वह जो टूट फूट गया, जगह-जगह छेद हो गये, फिर पैबंद लग जाएंगे।
पश्चाताप का मतलब यह है कि तुम अपने को समझा
लोगे कि देखो,
गलती की थी तो पछता भी तो लिया पश्चाताप यानी गंगा स्नान। और जब
गंगा से लौटे तो फिर पाप करने में क्या हर्ज है? अरे जब
रास्ता ही मिल गया, गंगा में जाकर फिर स्नान कर लेंगे। अगर
पश्चाताप किया तो घाव भर जाएगा। यह मलहमपट्टी है पश्चाताप। तुम किसी पर क्रोधित
होते हो, फिर जाकर माफी मांग लेते हो। इसका मतलब नहीं कि तुम
दुबारा क्रोध नहीं करोगे। इसका कुल मतलब इतना है कि क्रोध करने से तुम्हारे अहंकार
को चोट पड़ी, तुम्हारे अहंकार की प्रतिमा गिर गयी। तुम सोचा
करते थे कि मैं तो अक्रोधी हूं, मैं कभी क्रोध नहीं करता।
तुम्हारे मैं को बड़ा घाव पड़ गया। अब तुम किस मुंह से कहोगे कि मैं अक्रोधी हूं,
मैं क्रोध नहीं करता? तुम्हारा सिर झुक गया।
तुम जाकर माफी मांग आते हो, सिर फिर खड़ा हो गया। अब तुम कह
सकते हो कि अगर क्रोध किया भी तो क्षमा मांग ली। देखते हो, मेरे
जैसा विनम्र कोई है! तुमने घाव को फिर भर दिया। इसका कुल परिणाम इतना होगा कि कल
तुम फिर क्रोध करोगे, क्योंकि तुमको तरकीब मिल गयी घाव को
भरने की।
मैं
कहता हूं: घाव को भरो मत,
पश्चाताप करो मत। पश्चाताप पौंछने का इरादा है कि हमने लीप पोत कर
सब साफ कर लिया। फिर खतरा है। तुम उसको जिंदा रहने दो, घाव
को बना रहने दो, ताकि तुम्हें चेताता रहे, इंगित करता रहे कि सावधान। वह एक तीर की तरह इशारा करता रहे कि याद रखो,
भूल मत जाना।
पश्चाताप
भूलने की व्यवस्था है कि देखो भूल की तो पश्चाताप भी तो कर लिया, अब और
क्या करना है! बात खतम हो गयी। काबा हो आए, हाजी हो गए,
गंगा नहा लिए, सब धुल गया मामला। अब फिर जी भर
कर कहो। फिर खतरा है। पश्चाताप करना ही मत। एक तो गलती की राजनीति में आकर,
अब दूसरी गलती मत करना पश्चाताप करके। पहली गलती माफ की जा सकती है,दूसरी गलती माफ करना मुश्किल हो जाएगा।
मुल्ला
नसरुद्दीन अपने दफ्तर से तनख्वाह लेकर चला। पांच सौ रुपये की जगह छह सौ रुपये भूल
से उसको मिल गए। दो नोट चिपके हुए थे। रास्ते में उसने गिने छह थे, बड़ा
प्रसन्न हुआ। सांझ को जब दफ्तर के कोषाध्यक्ष ने जांच-पड़ताल की, तो उसे समझ में आ गया कि किसको उसने सौ-सौ के नोट दिए हैं। मुल्ला
नसरुद्दीन को दिए हैं। तो एक नोट ज्यादा चला गया है। वह चुप रहा कि देखें, यह लौटाता है कि नहीं लौटाता। वह काहे को लौटाए! उसने तो सोचा कि यह अपनी
प्रार्थनाओं का फल है। यह जो रोज नमाज पढ़ता हूं, आखिर उसका
कुछ तो फल मिलना ही चाहिए! और जब परमात्मा देता है तो छप्पर फाड़ कर देता है,
कोई ऐसा थोड़े ही देता है कि एकाध रुपया दे दिया। अरे सौ रुपये का
पूरा नोट! उसने तो समझा यह पुण्य का ही फल है। तो धन्यवाद दिया परमात्मा को,
दिल खोल कर परमात्मा को धन्यवाद दिया, मगर और
किसी की बात न की।
वह
कोषाध्यक्ष भी चुप रहा कि अब कहने से सार भी नहीं है, मुकर ही
जाएगा यह। दूसरे महीने उसने पांच सौ की जगह चार सौ रुपये लिफाफे में रख कर
नसरुद्दीन को पकड़ा दिए। नसरुद्दीन जल्दी बाहर जाकर देखा कि कहीं फिर तो छह नहीं आ
गए, क्योंकि जब परमात्मा देता है छप्पर फाड़ कर देता है।
लेकिन वहां देखा कि पांच की जगह चार ही थे। भनभनाया हुआ भीतर आया। टेबल पर पटक
दिया लिफाफा और कहा कि अंधे हो, गिनती आती है कि नहीं आती?
पांच सौ की जगह कुल चार सौ दिए!
उसने
कहा, "और पहले महीने की याद करो। जब पांच सौ की जगह छह सौ दे दिए थे, तब कुछ न बोले?'
मुल्ला
ने कहा,
"एक दफे कोई गलती करे तो माफ किया जा सकता है। लेकिन दुबारा
कोई गलती करे, मैं माफ नहीं कर सकता।'
यही
मैं तुमसे भी कहता हूं। एक दफा गलती की, चलो कोई बात नहीं, मगर अब दुबारा तो न करो। अब पश्चाताप नहीं। अब तो प्रफुल्लित होओ, आनंदित होओ कि जल्दी सूझ गयी, जल्दी बोध मिल गया।
धन्यवाद दो राजनीति को कि तेरी बड़ी कृपा, मैया कि ज्यादा न
भरमाया, जल्दी से बोध जगाया! अब छोड़ो, पीछे
की बात गयी, जो गयी सो गयी। बीती ताहि बिसार दे, आगे की सुध लेय। आगे का सवाल है अब , पीछे मत लौटो।
जितना पीछे लौट कर देखोगे उतना समय व्यर्थ जाता है, क्योंकि
पीछे तो जा नहीं सकते। इसलिए देखना क्या? आगे देखो।
राजनीति
में समय गंवा दिया,
अब उस ऊर्जा को ध्यान में लगाओ। इतना ही काफी नहीं है कि राजनीति न
करो, अब जरूरी है कि राजनीति से अगर सच में बचना हो तो धर्म
में गति करो, नहीं तो तुम सुरक्षित नहीं हो, खतरा फिर बना रहेगा। बैठे-बैठे क्या करोगे? बैठे-बैठे
ऊबने लगोगे। ऊबोगे तो पुरानी आदतें कहेंगी कि चलो, चुनाव ही
लड़ लो। अब बैठे-बैठे क्या कर रहे हो? समय तो यूं ही खराब जा
रहा है, तो राजनीति में कम से कम उलझे तो रहते थे, व्यस्तता तो रहती थी। इसके पहले कि तुम्हारा खालीपन को आनंद से भर लो,
ध्यान से भर लो। इसके पहले कि राजनीति के कांटो में पड़ने की फिर
खुजलाहट उठे...खुजलाहट है राजनीति। खाज है। और खाज का, तुमने
देखा, नियम क्या है? आदमी खुजाता है तो
तकलीफ होती है, नहीं खुजाता तो तकलीफ होती है। खाज बड़ी
अद्भुत चीज है! न खुजाओ तो बनता नहीं, बात कुछ ऐसी है कि
बनाए न बने। न खुजाओ तो ऐसा मन होता है कि अरे खुजा ही लो। एकदम प्राण कहते हैं कि
क्या कर रहे हो बैठे-बैठे, खुजाओ! अरे चूको मत! यह अवसर चूको
मत! मजा आ जाएगा, खुजा ही लो! और मिठास उठती है भीतर! एकदम
लार टपकने लगती है, खुजा ही लो! और कैसी मिठास उठती है भीतर!
एकदम लार टपकने लगती है, खुजा ही लो! भूल ही जाते हो कि पहले
भी खुजा चुके हो। और जब भी खुजाया तभी तकलीफ पायी,क्योंकि जब
भी खाज खुजलायी, लहू निकल आया। छिल गयी खाल। तकलीफ हुई। वे
सब बातें भूल ही जाती हैं। अब इस मिठास के क्षण में कौन याद करे, इधर मधुमास आया है! कौन सोचता है पतझड़ की! इधर अमृत पुकार रहा है। खाज का
बड़ा आकर्षण है, जैसे खाज न हो शैतान हो!
एक धर्मगुरु सदा अपने उपदेश में कहा करता था:
शैतान से सावधान! कभी उसकी बातों में न आना! शैतान उकसाएगा, उसने जीसस
को भी उकसाया। अरे उसने किसको छोड़ा! उसने बुद्ध को भी उकसाया! उसने हरेक को
उत्तेजना दी।'
मगर
मैं सोचता हूं कि उसने न मालूम कैसी उत्तेजना दी, जीसस को कहा कि तुझे सारे
जगत का सम्राट बना देंगे। इससे तो बेहतर था खाज पैदा कर देता, फिर देखते कि जीसस कैसे बच सकते थे। खाज पैदा होती तो खुजलाते। बुद्ध को
भी बहुत भरमाने की कोशिश की, नहीं भटका पाया। खाज पैदा कर
देनी थी। शायद तब तक शैतान को भी समझ नहीं थी। आखिर शैतान भी तो अनुभव से सीखता
है।
यह
धर्मगुरु सदा समझता था। अपनी पत्नी को भी कहता था कि शैतान से सावधान। एक दिन
पत्नी बजार गयी और वहां से एक मंहगा कोट खरीद लायी। सर्दी आ रही थी और ऊनी नए-नए
कोट बाजार में आए थे। डरते-डरते घर में प्रवेश किया, क्योंकि इतना कीमती कोट
पादरी की हैसियत के बाहर था, पति की हैसियत के बाहर था।
लेकिन वह पत्नी ही क्या, जो पति की हैसियत के बाहर न जाए!
पत्नियों का काम ही यह है कि पतियों की हैसियत बढ़वाती हैं वे। ऐसे खर्च कर डालती
हैं कि पति को और-और तरकीबें खोजनी पड़ती हैं कि कैसे कमाओ, कैसे
रिश्वत खाओ, कहां से लाओ, क्या करो!
एंड्रू
कारनेगी से किसी ने पूछा कि तुमने इतना धन कैसे कमाया? एंड्रू
कारनेगी ने कहा कि मेरी एक प्रतियोगिता चल रही थी मेरी पत्नी से। मैं यह देखना
चाहता था कि क्या मैं इतना कमा सकता हूं कि वह खर्च न कर सके। इसलिए धन कमाया,
मगर मैं हार गया।
एंडरू
कारनेगी दुनिया के बड़े-से-बड़े धनपतियों में से एक था। लेकिन वह भी कहता है, मैं हार
गया। कितना ही कमाओ, तुम लाख तरकीबें खोजो कमाने की, पत्नी करोंड़ तरकीबें खोजती है खर्च करने की। और ऐसी चीजों में खर्च करती
है कि तुम कल्पना भी नहीं कर सकते थे कि ये चीजों पर भी खर्च करेगी।
डरी
थोड़ी घर आते कि पादरी की हैसियत के बाहर हालत हो गयी है। मगर कोट भी ऐसा था कि
क्या किया जा सकता है। अंदर प्रविष्ट हुई। पति ने कोट देखा,"कितने
में खरीदा?' कहा, "पांच सौ में।'
पति
ने कहा,
"तू सोच थोड़ा। डेढ़ सौ तो मुझे तनख्वाह मिलती है, ये पांच सौ कहां से लाऊं? और लाख दफा समझाया कि
शैतान जब उत्तेजित करे तो साफ कह दिया कर--हट जा शैतान! जैसा जीसस ने कहा था--हट
जा शैतान, पीछे हट! तूने नहीं कहा?'
उसने
कहा,"अरे उसी में तो झंझट हो गयी। जब में कोट पहन कर आईने में देख रही थी,
शैतान मुझे उकसाने लगा कि ले ले, ले ले बाई,
ले ही ले, चूक मत। तो मैंने कहा--हट शैतान
पीछे जा। सो वह चला गया। और पीछे से बोला मेरे कंधे के ऊपर से देख कर कि अहा--पीछे
से तो गजब का लग रहा है! इसी में तो फंसी। यह तुम्हारा उपदेश का ही फल है कि
बार-बार पीछे जा, पीछे जा समझाते थे, सो
मैं फंसी कि पीछे जा। वह पीछे से कहने लगा--पीछे से तो गजब का लग रहा है। अरे
कटारें चल जाएंगी! जहां से निकल जाएगी, लाशें बिछ जाएंगी!
एकदम लोग फिल्मी गाने गाने लगेंगे, सीटी बजाने लगेंगे।
मुर्दे भी सीटी बजाएगे देखते ही से तेरे को। कब्रिस्तान में जाएगी, सीटियां बजने लगेंगी। पीछे से तो बड़े गजब का लग रहा है! आगे से तो कुछ भी
नहीं, पीछे से तो बिलकुल जहां जाएगी कहर ढ़ाएगी।...उसने मुझे
वहीं से पीछे से ही तो भरमाया। न तुम यह उपदेश देते, न मैं
इस कोट में फंसती।'
शैतान
कहीं और नहीं,
तुम्हारे मन में ही है। मन का ही दूसरा नाम शैतान है। और मन भी क्या
अजीब है! खाली नहीं बैठने देता। कहावत बिलकुल गलत है। कहावत यह है कि खाली मन
शैतान का घर। बात ठीक नहीं है। खाली मन को शैतान पसंद ही नहीं करता। खालीपन में तो
परमात्मा उतर आता है। अगर तुम शून्य हो जाओ, तो क्या चाहिए?
शैतान मन को खाली होने ही नहीं देता। तुम एक चीज से खाली करो,
जल्दी दूसरी चीज से भर लेता है। तुम खाली नहीं कर पाते, वह भरने लग जाता है, क्योंकि खाली तुम हो गए,
क्षण भर को भी खाली हो गए तो शैतान मरा, सदा
के लिए मरा, उसकी मौत हो गयी।
तो
अमृत चैतन्य,
तुमसे कहूंगा कि अब पंद्रह साल राजनीति के धक्के-मुक्के खाए,
उपद्रव झेले, अब पश्चाताप में मत पड़ो। यह भी
उसी मन की तरकीब है। अब यह पश्चाताप में उलझ रहा है। और पश्चाताप में
उलझाते-उलझाते यह फिर से खुजली पैदा कर देगा। फिर चुनाव आ रहे हैं। और आदमी की
स्मृति ही कितनी है? भूल-भूल जाता है। अरे सांझ कसम खाता है,
सुबह भूल जाता है। और बहाने तो निकाल ही लेता है। सुबह ही जाकर
मसजिद में तोबा कर आता है कि अब नहीं पीऊंगा और सांझ ही पी लेता है। यूं दोनों
दुनिया सम्हल जाती हैं। यह दुनिया भी हाथ रही और जन्नत भी हाथ से न गयी। फिर सुबह
तोबा कर ली और सांझ फिर तोबा तोड़ ली। और फिर बहाने तो खोज ही लेता है कि करें भी
तो क्या कि तोबा तोड़ने के कोई इरादे तो न थे, लेकिन घटाएं
यूं घुमड़ कर उठीं! और फिर यह कमबख्त जी भी कुछ ललचा गया! बहाने खोज लेता है।
घटाएं! अब घटाओं को क्या लेना-देना तुम्हारी शराब से? घटाएं
कुछ यूं घुमड़ कर उठीं और फिर यह कमबख्त् जी भी ललचा गया! मगर कोई फिक्र नहीं है।
सुबह तौबा की, सांझ तोबा की, सांझ तोड़
ली; यूं शराब भी हाथ रही और जन्नत भी न गयी।
तुम
जरा सावधान रहना। यह मन बहुत चालबाज है। जो पंद्रह साल भरमाया वह पंद्रह जन्मों
में भी भरमा सकता है। पश्चाताप में मत पड़ो--पहला काम। अगर पश्चाताप को तोड़ सको तो
तुमने मन का पहला काम बंद कर दिया, दरवाजा ही बंद कर दिया। फिर मन को
दूसरा कदम उठाने का मौका नहीं रहेगा। नहीं तो पछताते पछताते तुम पाओगे--अब मैं यह
क्या कर रहा हूं! जिंदगी में कुछ रस था , दौड़ धूप थी,
कुछ मजा भी था। तुम जल्दी ही भूल जाओगे राजनीति का उपद्रव। राजनीति
का रस याद आने लगेगा। रास्ते पर निकलते थे, लोग नमस्कार करते
थे। जो देखो वही कहता था--आइए नेताजी, विराजिए! पान लेंगे,
चाय पीएंगे, काफी? अब
कोई पूछता भी नहीं। और एम ए?ल ए? हो गए
थे, मंत्री होने में देर ही क्या थी, जरा
टिके रहते! तुमसे पीछे जो गए वे मंत्री हुए जो रहे हैं।
मन
में एक से एक बातें उठ आएंगी। यह कमबख्त मन! यह सच में ही कमबख्त है। यह ललचा
जाएगा। फिर ललचा जाएगा। यह कांटे-कांटे भूल जाएगा। फूल-फूल चुन लेगा। और चुनाव फिर
करीब आता है,
तब तक स्मृति डांवाडोल हो जाएगी। इसलिए तो पांच साल का फासला रखते
हैं चुनाव में, ताकि बुद्धू फिर फिर लौट आएं। जो किस तरह भाग
गए थे, पांच साल का समय काफी है, इतनी
देर में अपने-आप भूल जाते हैं। फिर दिल में सुगबुगाहट उठती है, फिर खुजली उठती है, फिर खाज उठती है, और फिर लगता है कि एक दफा और खुजा लो अरे एक दफा और! बस एक दफा, आखिरी, फिर इसके आगे कभी नहीं। पता नहीं पिछली बार
खुजलाया था तो छिल गए थे, जरूरी नहीं कि इस बार भी ऐसा हो।
इस बार स्वाद ही कुछ और आ रहा है, मिठास ही कुछ और है! खुजा
ही लो।
और
थोड़ी-बहुत देर तुम करवटें बदलोगे, योगासन वगैरह करोगे; मगर
जितना तुम ये करवटें बदलोगे उतनी खुजलाहट पीछा करेगी। वह कहेगी कि जरा-सा खुजलाने
में क्या बिगड़ा जा रहा है? चलो न सही ज्यादा दूर जाओ,
लेकिन थोड़ा करो। खुद नहीं चुनाव लड़ना तो दूसरे को लड़वा दो। चलो किसी
और के कंधे पर बंदूक रख कर चला दो। मगर यह मौका छोड़ने जैसा नहीं है। मंच का मजा
छूटे नहीं छूटता।
न
पश्चाताप करो। और याद रखना,
भूलना मत। और इसके पहले कि मन के खालीपन को शैतान फिर भरने लगे,
इस ,खालीपन को तुम ध्यान में रूपांतरित कर लो।
और यही संन्यास का एकमात्र अर्थ है: मन को ध्यान में रूपांतरित करने की कीमिया। और
जिस दिन मन ध्यान बन जाता है, उस दिन राजनीति गयी और धर्म का
सूरज निकला। एस धम्मो सनंनतनो! यही धर्म का नियम है।
आज इतना ही।
तीसरा प्रवचन; दिनांक २३ सितंबर, १९८०; श्री रजनीश आश्रम, पूना
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