मंगलवार, 16 मई 2017

पीवत राम रस लगी खुमारी-(प्रश्नोंत्तर)-प्रवचन-04



पीवत राम रस लगी खुमारी-(प्रश्नोंत्तर)-ओशो

दिनांक: 14 जनवरी, सन् 1981
ओशो आश्रम पूना।
प्रवचन-चौथा-(संन्यास तो आईना है)

पहला प्रश्न: भगवान,
क्या हमारा अंधकार कभी न कटेगा? क्या हम सदा-सदा मूढ़ता में ही डूबे रहेंगे?
स्वामी अक्षयानंद महाराज ने यह भी कहा है कि आचार्य रजनीश जो शिक्षा दे रहे हैं उसे वे भारतीय संस्कृति कहकर लोगों को भ्रमित कर रहे हैं। उनकी शिक्षा भारतीय संस्कृति या शास्त्रों के अनुसार नहीं है। आचार्य रजनीश कलियुगी हैं।
क्या आप इस संबंध में कुछ कहेंगे?

आनंदमूर्ति,
यूं न कहो। अंधकार है तो आलोक भी हो सकता है। अंधकार सबूत है इस बात का कि आलोक की संभावना है। मूढ़ता है तो टूट भी सकती है। जड़ता है तो मिट भी सकती है। श्रम की जरूरत है, अथक श्रम की जरूरत है। चूंकि जड़ता बहुत पुरानी है, उसकी जड़ें गहरी चली गई हैं। हमारे प्राण उस जहर से सदियों से सींचे गए हैं। हमारी हड्डी-मांस-मज्जा में उसका प्रवेश हो गया है। लेकिन फिर भी निराश होने की कोई बात नहीं, हताश होने की कोई बात नहीं। बल्कि ठीक इसके विपरीत, इसे चुनौती समझो। इसे एक निमंत्रण समझो--एक पुकार। यह संघर्ष प्यारा है। इस संघर्ष में मिट भी जाना पड़े तो भी अहोभाग्य है।

ध्यान रहे, असत्य के मार्ग पर सफलता भी मिल जाए तो व्यर्थ है और सत्य के मार्ग पर असफलता भी मिले तो सार्थक है। सवाल मंजिल का नहीं। सवाल कहीं पहुंचने का नहीं, कुछ पाने का नहीं--दिशा का है, आयाम का है। कंकड़-पत्थर इकट्ठे भी कर लिए किसी ने, तो क्या पाएगा? और हीरों की तलाश में खो भी गए, तो भी बहुत कुछ पा लिया जाता है--उस खोने में भी! अनंत की यात्रा पर जो निकलते हैं, वे डूबने को भी उबरना समझते हैं।
माना कि अंधकार है, और अंधकार है तो उल्लू भी बोलेंगे। रात जितनी अंधेरी होगी उतनी ही उल्लुओं की बन आएगी। और उल्लू डरेंगे भी सुबह के होने से। सुबह का आभास भी, उसकी पगध्वनि भी, उनके प्राणों को झकझोर देगी। और स्वभावतः इसी तरह के लोग बेचैन हैं। पर इससे आनंदमूर्ति, तुम्हें बेचैन होने की कोई जरूरत नहीं। तुम्हारे भीतर कुछ है, जिसे मिटा कर भी नहीं मिटाया जा सकता है।
बोली खुदसर हवा एक जर्रा है तू
यूं उड़ा दूंगी मैं, मौजे-दरिया बढ़ी
बोली मेरे लिए एक तिनका है तू
यूं बहा दूंगी मैं, आतिशेत्तुंद की
इक लपट ने कहा, मैं जला डालूंगी
और जमीं ने कहा मैं निगल जाऊंगी
मैंने चेहरे से अपने उलट दी निकाब
और हंसकर कहा--मैं सुलेमान हूं
इब्ने-आदम  हूं  मैं,  यानी  इंसान  हूं
मिटा-मिटाकर भी मिटा न पाओगे। सत्य मिटता नहीं, छिप जाए; फिर-फिर उभर आएगा। न तो हवा मिटा सकती है, न आग। न दरिया मिटा सकता है, न जमीन लील सकती है, न आकाश पोंछ सकता है।
मैंने चेहरे से अपने उलट दी निकाब
और हंसकर कहा--मैं सुलेमान हूं
इब्ने-आदम  हूं  मैं,  यानी  इंसान  हूं
हताश नहीं होते हैं। इसलिए यूं न कहो कि "क्या हमारा अंधकार कभी न कटेगा?'
दीए की जरा सी ज्योति भी पुराने से पुराने अंधकार को, गहन से गहन अंधकार को, अमावस की रात को तोड़ देती है। सवाल अंधकार का नहीं है, सवाल दीए के जलाने का है। उसी श्रम में हम लगे हैं। और यह सौभाग्य का श्रम है। इसमें पुरस्कार अलग नहीं है--श्रम में ही समाया हुआ है।
इसलिए कहता हूं--
यूं न कहो
कभी न इसके भाग खुलेंगे प्यासी मिट्टी रहेगी प्यासी
यूं न कहो मुर्झाए पौधे यूं ही सदा मुर्झाए रहेंगे
चलते-चलते इस मंजिल में आकर धरती रुक जाएगी
यूं न कहो गहनाए सूरज यूं ही सदा गहनाए रहेंगे
तुम तो शफक के घुलते-मिलते रंगों की इक गुलकारी हो
तुम तो सहर का हल्का-हल्का नूर हो जिससे दुनिया जागे
तुम तो महक हो खिलते फूल की चढ़ते दिन का उजलापन हो
तुमने तो सुलझाए हैं आकर जहन के कितने उलझे धागे
तुमको हमने अपना कहा है, तुम तो यूं न कहो जिंदां के
कभी न भारी कुफ्ल खुलेंगे, कभी न जंजीरें टूटेंगी
यूं न कहो
कभी न इसके भाग खुलेंगे प्यासी मिट्टी रहेगी प्यासी
यूं      कहो   मुर्झाए   पौधे   यूं   ही   सदा   मुर्झाए   रहेंगे
ये पौधे मुर्झा तो गए हैं, लेकिन सदा ही मुर्झाए रहेंगे ऐसा कहो ही मत, सोचो ही मत। क्योंकि तुम्हारे सोचने में ही खतरा है। ऐसा तुम्हारे कहने में ही खतरा है। ऐसा कहकर कहीं तुम, जिस सम्यक श्रम के लिए मैंने आमंत्रण दिया है, तुम्हें पुकार दी है और तुम मेरे पास आ गए हो, इकट्ठे हो गए हो, वह श्रम ही बंद हो जाएगा। तोड़ेंगे चट्टानों को! फोड़ेंगे झरनों को! मुक्त करेंगे। और यह आह्लादपूर्ण है। यह परमात्मा का काम है। यही तो प्रार्थना है। इतनी ही तो प्रार्थना है।
और सब प्रार्थनाएं झूठी हैं। और मंदिर-मस्जिद, गिरजे-गुरुद्वारे थोथे हैं। प्रार्थना तभी सत्य होती है जब तुम किसी ऐसे श्रम में संलग्न होते हो, जिससे परमात्मा का पदार्पण हो सके। जब तुम एक ऐसा द्वार खोलते हो, एक ऐसी दीवाल तोड़ते हो, जहां से सूरज आ सके, स्वच्छ हवाएं प्रवेश कर सकें।
तुमने पूछा कि स्वामी अक्षयानंद महाराज ने यह भी कहा है कि "आचार्य रजनीश जो शिक्षा दे रहे हैं, उसे वे भारतीय संस्कृति कहकर लोगों को भ्रमित कर रहे हैं।'
यह बात सरासर झूठ है। क्योंकि मैंने कभी नहीं कहा कि मैं जो शिक्षा दे रहा हूं वह भारतीय संस्कृति है। लेकिन इस देश में तो लोग पता नहीं सपनों में सुन लेते हैं, सपनों में देख लेते हैं और उस पर भरोसा कर लेते हैं।
राजा हरिशचंद्र की कथा है ही कि उन्होंने स्वप्न में एक ब्राह्मण को दान दे दिया राज्य। स्वप्न में! और फिर ढुंढवाया उस ब्राह्मण को। बड़ी गजब की दुनिया थी! सपने में जो ब्राह्मण देखा था, इस बड़ी पृथ्वी पर उसको कैसे खोज लिया! ऐसा लगता है कि उन दिनों सपनों की भी तस्वीरें ली जाती होंगी। कैसे खोज लिया उस ब्राह्मण को जिसको सपने में देखा था! और उसे राज्य दे दिया।
एक राजा हरिशचंद्र हुए, उनकी महिमा गाई जाती है। कोई यह भी नहीं पूछता कि सपने में भरोसा करने वाले लोग विक्षिप्त हैं या उनको समझदार कहें? पागल हैं! अरे, जिंदगी भी सपना है, यह भी भरोसे के योग्य नहीं। और ये राजा हरिशचंद्र हैं, जिन्होंने सपने को भी जिंदगी समझ लिया और उस पर भरोसा कर लिया! लेकिन कहानियां ही जिनको माननी हों उन्हें क्या अड़चन?
अभी कुछ दिन पहले ब्रेजनेव का भारत आगमन हुआ तो मोरारजी देसाई ने कहा कि ब्रेजनेव ने मुझसे कहा था कि पाकिस्तान को अच्छा पाठ पढ़ा दो। अब मोरारजी देसाई--राजा हरिशचंद्र ही समझो! क्योंकि ब्रेजनेव ने इनकार किया, रूस से इनकार किया गया, सब तरफ से इनकार किया गया। लेकिन वे डटे रहे। सुन लिया होगा सपने में। हो सकता है सपने में ब्रेजनेव ने कह दिया हो। मगर सपने में जो कहा हो उसके लिए ब्रेजनेव जिम्मेवार तो नहीं।
अभी कल उन्होंने बात सच्ची कही। कल उन्होंने कहा कि ब्रेजनेव ने नहीं कहा था, किसी और ने कहा था जिसका नाम लेना मैं अभी ठीक नहीं समझता। लेकिन देश के हित के लिए मैंने ब्रेजनेव का नाम ले दिया था।
ये गांधीवादी, सत्यवादी, सत्याग्रही, अहिंसक! ये सब झूठ के ठेकेदार! ये सब बेईमान! ये सरासर गलत तरह के लोगों के हाथ में इस देश की नीति का निर्धारण पड़ा हुआ है। और ये वे कह भी गए और सारा देश चुपचाप सुन रहा है।
अक्षयानंद महाराज को पता नहीं किस सपने में यह सुनाई पड़ गया। मैंने तो कभी कहा नहीं। मैं तो कह भी कैसे सकता हूं? मेरी तो पूरी जीवन-दृष्टि के यह बात विपरीत है। मेरा भरोसा न भारत में है, न चीन में है, न जापान में है। मेरा भरोसा राष्ट्रों में नहीं है। राष्ट्रों के नाम पर बहुत पाप हो चुका, बहुत युद्ध हो चुके, बहुत हिंसा हो चुकी। और जब तक राष्ट्र रहेंगे तब तक युद्ध रहेंगे। अगर युद्धों को जाना है तो राष्ट्रों को जाना होगा। अगर मनुष्य-जाति को बचाना है तो इस पृथ्वी को एक भाईचारे में बदलना होगा।
इसलिए मुझे भारत इत्यादि में कोई श्रद्धा नहीं है। और यह तो मैं कह ही नहीं सकता--भारतीय संस्कृति! सभ्यताएं कही जा सकती हैं भारत की, चीन की, रूस की, अमरीका की--सभ्यताएं। क्योंकि सभ्यता का अर्थ होता है बाहर की बात।
सभ्यता शब्द समझने जैसा है। सभ्यता बनता है--सभा से। सभा में बैठने की योग्यता जिसमें हो उसको सभ्य कहा जाता है। इसलिए सभ्य का एक अर्थ सदस्य भी होता है। सभा में बैठने की योग्यता, चार लोगों में उठने-बैठने की तरतीब जिसको आ गई, उसको सभ्य कहते हैं। सभ्यता का संबंध औरों से संबंध में है। सभ्यता का अर्थ है दूसरों से हम किस भांति व्यवहार करें, कैसे उठें, कैसे बैठें, कैसे कपड़े पहनें, क्या कहें, क्या न कहें, क्या भोजन...। इस तरह की बातों का नाम सभ्यता है।
निश्चित ही अलग-अलग देश की अलग-अलग होंगी। गर्म देश की परिस्थिति अलग होगी, ठंडे देश की परिस्थिति अलग होगी। तिब्बत में अगर तुम ब्रह्ममुहूर्त में उठकर और ठंडे पानी से स्नान करोगे तो आत्महत्या के भागीदार बनोगे। और भारत में अगर ब्रह्ममुहूर्त में उठकर ठंडे पानी से स्नान न किया तो तुम भारत में जो सुंदरतम क्षण हैं सुबह के, उनसे वंचित रह जाओगे। जो भारत में स्वास्थ्यप्रद है वही तिब्बत में हानिकर हो जाएगा। भारत में उघाड़े बदन बैठा जा सकता है, लेकिन साइबेरिया में नहीं। अगर महावीर साइबेरिया में होते तो नग्न नहीं खड़े होते, इतना मैं भरोसा दिलाता हूं। भारत जैसे देश में, जहां आग बरसती हो, नग्न होने में कोई कठिनाई नहीं है। यही तो कारण है कि जैन धर्म भारत के बाहर नहीं जा सका।
तुम चकित होओगे यह जानकर कि बुद्ध धर्म सारे एशिया पर फैल गया और जैन धर्म भारत के बाहर न जा सका। बुद्ध धर्म ने करोड़ों लोगों को प्रभावित किया और जैन धर्म आज भी पांच हजार सालों के बाद केवल पैंतीस लाख लोगों का धर्म है भारत में। बुद्ध धर्म से ढाई हजार साल पुराना धर्म है। महावीर तो जैनियों के अंतिम तीर्थंकर थे, चौबीसवें तीर्थंकर थे। बुद्ध के समसामयिक थे। लेकिन बुद्ध ने सारे एशिया को रूपांतरित कर दिया। और महावीर जैसा प्रतिभाशाली व्यक्ति वंचित क्यों हो गया? नग्नता ने दिक्कत दे दी। वह नग्नता तिब्बत न ले जा सकी, हिमालय के पार न ले जा सकी। ठंड ही बाधा नहीं थी। नग्न आदमी को न कोई देश स्वीकार कर सकता था, न नग्न आदमी कहीं जा सकता था। वह आबद्ध हो गया, यहीं सिकुड़कर रह गया।
सभ्यता बाहर की चीज है और इसलिए प्रत्येक देश की अलग होगी, प्रत्येक समय की अलग होगी। लेकिन संस्कृति भीतर की बात है। संस्कृति का अर्थ होता है: ध्यान। क्योंकि ध्यान है कीमिया आत्मपरिष्कार की। और भीतर कोई भारतीय होता है कि चीनी होता है कि अरबी होता है कि ईरानी होता है? क्या तुम सोचते हो भीतर भी भूगोल है? क्या तुम सोचते हो भीतर भी इतिहास है? क्या तुम सोचते हो यही उपद्रव भीतर भी हैं? भीतर सन्नाटा है। भीतर परमात्मा है। भीतर तो परम मौन है, निःशब्द निराकार है। वहां कैसी सीमाएं और कैसे विशेषण?
यह स्वामी अक्षयानंद महाराज को अभी यह भी बोध नहीं है कि संस्कृति और सभ्यता में भेद होता है। सभ्यता तो अलग-अलग होगी ही, सदा होगी। लेकिन संस्कृति कभी भिन्न नहीं हो सकती। जीसस की और बुद्ध की, महावीर की और लाओत्सु की, जरथुस्त्र की और अलहिल्लाज की संस्कृति में कोई भेद नहीं। सभ्यता में तो भेद है। सभ्यता में तो भेद होगा ही, होना ही चाहिए।
लेकिन मूढ़ों को इन बारीकियों से क्या लेना-देना!
तो मैं तो यह कभी कह ही नहीं सकता कि मैं जो शिक्षा दे रहा हूं वह भारतीय संस्कृति की शिक्षा है। पहले तो इसलिए नहीं कह सकता कि मुझे भारत और अभारत में कोई भेद नहीं। दूसरे इसलिए नहीं कह सकता कि संस्कृति आंतरिक यात्रा है। सभ्यता भिन्न होती है, संस्कृति अभिन्न है। संस्कृति तो एक ही होती है, अनेक नहीं।
और इसलिए भी नहीं यह बात सही है, क्योंकि मैं तो कोई शिक्षा दे ही नहीं रहा हूं। मेरा काम तो शिक्षा से ठीक उलटा है। मेरा काम है कि तुम जो सीखकर बैठे हो उसको तुम से छीन लूं; तुम जो पकड़कर बैठे हो उससे तुम्हारे हाथ खाली कर दूं। वह जो तुम्हारे प्राणों पर जमाने भर की गर्द इकट्ठी हो गई है, उसे झाड़ दूं। तुम्हारे चित्त के दर्पण पर जो धूल जम गई है, उसे पोंछ दूं। मैं तुम्हें कुछ सिखा नहीं रहा हूं, तुम्हें मिटा रहा हूं। कुछ भुलाना है, सिखाना नहीं है। मेरा काम शिक्षा से ठीक उलटा है और उस उलटे काम को ही मैं धर्म कहता हूं।
महर्षि रमण के पास एक जर्मन प्रोफेसर ने जाकर कहा कि मैं सीखने आया हूं आपके पास धर्म। रमण ने कहा, फिर कहीं और जाओ। सीखना हो तो कहीं और जाओ। यहां तो भूलना हो तो रुको।
सीखने के लिए तो कोई अड़चन नहीं है, विश्वविद्यालय हैं, पुस्तकालय हैं, शास्त्र हैं, शिक्षक हैं। सीखने के लिए तो बहुत फैलाव है। कुछ चाहिए लोग जो भुलाएं भी। तुम्हारी स्लेट पर गूदने वाले तो बहुत हैं। तुम पर गुदना खोदने वाले तो बहुत हैं। कुछ ऐसे लोग भी चाहिए जो तुम्हें फिर तुम्हारे बचपन का निर्दोष, निर्विकार चित्त दे दें; वह चेतना दे दें जो तुम लेकर आए थे; संस्कारों के जो पहले तुम्हारे पास थी। तुम्हारे संस्कारों को पोंछ डालें, ताकि तुम पुनः एक बार उसी आश्चर्य, उसी रहस्य से भरकर जगत को देखने में समर्थ हो पाओ। वे ही आंखें, जो छोटे बच्चों के पास होती हैं। वही आह्लाद, वही विस्मय, वही आश्चर्य-विभोर चित्त की दशा!
तो मैं शिक्षा तो दे ही नहीं रहा हूं। मैं तो, तुम शिक्षित बैठे हो, तुम्हारी शिक्षा पोंछ रहा हूं। तुम्हारे प्रमाण-पत्र जलाने हैं। अपने जला चुका हूं, अब तुम्हारे जला रहा हूं। तुमसे तुम्हारे शास्त्र छीनने हैं। अपने गंवा चुका हूं, अब तुम्हारे पर हमला कर रहा हूं।
स्वामी अक्षयानंद महाराज को कुछ पता नहीं कि वे क्या कह रहे हैं। मेरे संबंध में अफवाहें सुनी होंगी। और अफवाहों पर जो भरोसा कर लेते हैं, उनकी गिनती मैं समझदारों में नहीं करता।
और तुमने पूछा आनंदमूर्ति, "उन्होंने यह भी कहा कि आपकी शिक्षा भारतीय संस्कृति या शास्त्रों के अनुसार नहीं है।'
मैंने कहा कब कि है? मैं तो शास्त्र-विरोधी हूं। जरूर मैं उन सत्यों का समर्थन करता हूं जो मैंने अनुभव किए हैं। शास्त्रों में हैं, इसलिए समर्थन नहीं करता। मैंने अनुभव किए हैं और अगर शास्त्र भी उनके समर्थन में हैं, तो जरूर मैं शास्त्रों की पीठ भी ठोंक देता हूं कि बच्चा, ठीक कहते हो! बाकी जो मैं कह रहा हूं, अपना अनुभव है। अपने अनुभव के अतिरिक्त मुझे और किसी बात पर भरोसा नहीं है। जो मैंने नहीं जाना है, जो मेरा स्वानुभव नहीं है, वह मैं तुमसे नहीं कहूंगा। शास्त्रों से मुझे क्या लेना-देना?
इसलिए मुझे सुनने वाले थोड़ी अड़चन में भी पड़ते हैं, थोड़ी झंझट में भी पड़ते हैं। क्योंकि कभी मैं उसी शास्त्र के एक वचन का समर्थन कर देता हूं और कभी उसी शास्त्र के दूसरे वचन का खंडन कर देता हूं। स्वभावतः उनकी समझ में यह बात नहीं आती। उनको समझ में आती है यह बात कि या तो मैं पूरे शास्त्र का समर्थन करूं या पूरे शास्त्र का विरोध करूं। नहीं, मुझे पूरे का विरोध या समर्थन इसमें रस नहीं है। मेरी कसौटी पर जो सच उतर आता है, वह फिर कहीं भी हो, वह कुरान में हो कि बाइबिल में हो, कि जेंदावेस्ता में हो कि वेद में हो, कि ताओत्तेह-किंग में हो कि धम्मपद में हो, मुझे कोई अड़चन नहीं। मैं उसके समर्थन में खड़ा हूं। लेकिन अगर तुम गौर से समझोगे तो तुम पाओगे कि मैं उसका समर्थन इसलिए कर रहा हूं कि वह मेरा समर्थन कर रहा है, अन्यथा जहां मुझसे भिन्न कोई बात हुई, फिर मैं संकोच नहीं करता। फिर सत सिरी अकाल! फिर वाहे गुरुजी की फतह, वाहे गुरुजी का खालसा! फिर मैं कोई शिष्टाचार नहीं मानता, कोई सभ्यता नहीं मानता।
मेरे लिए तो सत्य के अतिरिक्त और कोई परमात्मा नहीं है। सत्य जहां भी प्रतिध्वनित हुआ हो, मेरा समर्थन है। मगर वह सत्य मेरा अनुभूत सत्य हो, तो ही। मैं उधार सत्यों का समर्थन नहीं करता हूं। इसलिए वे क्यों चिंता में पड़ रहे हैं कि मेरी बातें शास्त्रों के अनुसार नहीं हैं? मैंने कभी कहा ही नहीं। होनी चाहिए, यह भी नहीं कहा। तुम्हारे शास्त्रों का सौभाग्य है अगर कोई बात उनकी मेरे अनुसार पड़ती हो, अन्यथा उनका दुर्भाग्य। जीवित आदमी हूं मैं, मैं मुर्दा शास्त्रों में अपना समर्थन खोजूंगा? मुर्दे खोजते हैं, मुर्दा शास्त्रों में समर्थन। जिनका अपना अनुभव नहीं है वे खोजते हैं।
कालिदास का यह प्रसिद्ध वचन है--
पुराणमित्येव न साधु सर्वं
न चापि काव्यं नवमित्यवद्यम्।
संतः परीक्ष्यान्यतरद्भजन्ते
मूढ़ः परप्रत्ययनेयबुद्धिः।।
अर्थात कोई वस्तु पुरानी होने से ही अच्छी नहीं हो जाती; न ही कोई काव्य नया होने से निन्दनीय हो जाता है। सतपुरुष नए-पुराने की परीक्षा करके दोनों में से जो गुणयुक्त होता है, उसको ग्रहण करते हैं; मूढ़ की बुद्धि तो दूसरे के ज्ञान से ही संचालित होती है।
मूढ़ः परप्रत्ययनेयबुद्धिः।
मूढ़ ही केवल दूसरों के ज्ञान से संचालित होते हैं। जिनके पास अपनी प्रज्ञा की कसौटी है, वे तो परीक्षा करते हैं, वे तो जांचते हैं, वे तो प्रयोग करते हैं। सच को सच कहते हैं, झूठ को झूठ कहते हैं। इसलिए तो हमने ऐसे व्यक्तियों को परमहंस कहा है, क्योंकि वे दूध को जल से अलग कर देते हैं; सार को सार, असार को असार कह देते हैं।
और तुम्हारे शास्त्रों में निन्यानबे प्रतिशत असार है, एक प्रतिशत सार है। यह भी चमत्कार है, क्योंकि एक प्रतिशत सत्य भी बच रहा है यह भी अनहोनी घटना है। यह भी कुछ कम नहीं। यह भी न होता तो कोई आश्चर्य की बात न होती। यह है, यही आश्चर्य है। क्योंकि तुम्हारे शास्त्र सदियों-सदियों तक लिखे गए हैं; और किन्हीं एक व्यक्ति ने तो लिखे नहीं हैं, न मालूम कितने व्यक्तियों ने लिखे हैं। उनमें जोड़ होता चला गया है। उनमें जानकारों के वचन हैं, उनमें अज्ञानियों के वचन हैं। उनमें प्रज्ञावानों के वचन हैं, उनमें पंडितों के वचन हैं। और आज उस खिचड़ी में से छांटना बहुत मुश्किल मामला है।
मेरा शास्त्रों में कोई रस नहीं है। हां, जरूर अगर मेरे सत्य से कोई शास्त्र अनुकूल पड़ जाता है तो मैं तुम्हें उसकी याद दिला देता हूं। जैसे कालिदास के इस वचन से मैं राजी हूं कि कोई वस्तु पुरानी होने से ही अच्छी नहीं होती। पुराना होना सत्य होने का कोई प्रमाण नहीं है। और न ही कोई वस्तु नई होने से गलत होती है। नया होना गलत होने का प्रमाण नहीं है। इससे उलटी बात भी सच है। नए होने से ही कोई बात सच नहीं होती और पुराने होने से ही कुछ गलत नहीं होती। गलत और सही का नए और पुराने से क्या लेना-देना है? शराब तो जितनी पुरानी हो उतनी अच्छी होती है और फूल जितना ताजा हो उतना अच्छा होता है। कुछ चीजें पुरानी अच्छी होती हैं, कुछ चीजें नई अच्छी होती हैं। और हमें दोनों में भेद कर लेने चाहिए। और हमारी निष्ठा सत्य के प्रति होनी चाहिए; न तो शास्त्रों के प्रति होनी चाहिए, न अतीत के प्रति होनी चाहिए।
मेरी निष्ठा अतीत में नहीं है। मेरी निष्ठा वर्तमान में है। मेरी निष्ठा शब्दों में नहीं है, अनुभूति में है। मेरी निष्ठा मन में नहीं है, ध्यान में है--अमनी दशा में है।
लेकिन ये बेचारे स्वामी अक्षयानंद महाराज जैसे लोग, इन्हें न तो कुछ पता है कि मैं क्या कर रहा हूं, क्या कह रहा हूं। न आते हैं, न सुनते हैं, न समझते हैं। अफवाहों पर जीते हैं। और अपनी मनगढ़ंत धारणाओं को मुझ पर आरोपित करते रहते हैं और फिर उन्हीं का खंडन करते रहते हैं। खुद ही धारणाएं बना लेते हैं, खुद ही उनका खंडन कर लेते हैं। खूब खेल है! जो बात मैंने कभी कही ही नहीं, वह मेरे ऊपर थोप देते हैं। खंडन करना हो तो मैं जो कह रहा हूं उसका खंडन करो। और मैं जो कह रहा हूं उसका अगर खंडन तुम करो तो तुम्हें सारे सत्यों का खंडन करना पड़ेगा। क्योंकि मैं तो सिर्फ सत्य के अतिरिक्त और किसी चीज के प्रति श्रद्धा नहीं रखता हूं।
फिर उन्होंने यह भी कहा कि "आचार्य रजनीश कलियुगी हैं।'
इस धारणा का भी तुम्हें विचार कर लेना चाहिए। भारत में यह धारणा है कि सबसे पहले हुआ सतयुग-स्वर्णयुग। फिर हुआ त्रेता। फिर हुआ द्वापर। फिर हुआ कलियुग। सतयुग में यूं समझो कि आदमी के चार पैर थे, त्रेता में तीन पैर, द्वापर में दो। और कलियुग में बिलकुल लंगड़ा गया है, एक ही पैर बचा।
हिंदुओं की यह धारणा ह्रास की धारणा है। पहले सब श्रेष्ठ था, फिर गिरता गया, फिर भ्रष्ट होता गया। यह धारणा ही रुग्ण है। यह रुग्णचित्त की ही प्रतीक है। मेरी धारणा उलटी है। कलियुग पहले थे, फिर आया द्वापर। लंगड़ा आदमी फिर दो पैर से खड़ा हुआ। फिर आया त्रेता। और अब है सतयुग। अब आदमी पूरा संतुलित है, पूरा प्रौढ़ है। और यही जीवन की व्यवस्था है। सारा विज्ञान मुझसे सहमत है। विज्ञान है विकासवादी और भारतीय धारणा है ह्रासवादी, विकास-विरोधी। विज्ञान है प्रगतिशील और भारत की धारणा है प्रतिक्रियावादी, अप्रगतिशील। ह्रास हो रहा है। और जब ह्रास होता हो, ऐसा हम मानकर ही बैठ गए हों, तो फिर ह्रास होगा। फिर कैसे विकास होगा? विकास आएगा कहां से? विकास करेगा कौन? हारे हुए लोग, पराजित लोग निश्चित ही ह्रासमान हो जाएंगे।
हम सदियों से गुलामी में सड़ रहे हैं, गरीबी में सड़ रहे हैं, दुख-दारिद्रय में सड़ रहे हैं। और कारण? कारण हैं हमारी धारणाएं। जब तुमने यह मान ही लिया कि आगे-आगे बात बिगड़ती ही चली जाएगी। जब तुम इस बात को बिलकुल दृढ़ता से पकड़ लिए तो जब बात बिगड़ेगी तब तुम कहोगे, हमने पहले ही कहा था कि बात तो बिगड़नी ही है, सुधारने का तो सवाल उठता ही नहीं।
यह हताशा तोड़नी है। आगे-आगे बात बिगड़ेगी क्यों? आगे-आगे बात सुधरेगी, क्योंकि सारा अनुभव हमारे पास होगा अतीत का, उस अनुभव से हम ऊपर चढ़ेंगे। उन भूलों से हम सीखेंगे। इसलिए मैं तुमसे कहता हूं कि परशुराम जैसे व्यक्तियों को हम आज भगवान नहीं कह सकते; जिस समय कहा गया होगा, कलियुग रहा होगा। जिस व्यक्ति ने इतनी हिंसा की और हत्या की, जो परशु लिए घूमता रहा और पृथ्वी को अठारह बार क्षत्रियों से नष्ट कर दिया...और इसका परिणाम तुम समझते हो क्या हुआ? सारे क्षत्रिय तो मार डाले, लेकिन उनकी स्त्रियां बच गईं। तो व्यभिचार फैला, भ्रष्टाचार फैला, वेश्यागामी लोग हुए, क्योंकि उन स्त्रियों का क्या हो? और क्षत्रिय मिटे तो नहीं, फिर क्षत्रिय आए कहां से? जब सब क्षत्रिय अठारह बार मार डाले तो बार-बार क्षत्रिय आते कैसे रहे? ये स्त्रियां जो बच रहीं, उनसे पैदा होते रहे। इसलिए तो अब कोई क्षत्रिय नहीं है--सब खत्री हैं। क्ष कभी का ख हो चुका, खराब हो चुका। यह खत्रियों की जमात है, जो आज दुनिया में दिखाई पड़ती है। अगर परशुराम ने अठारह बार साफ ही कर दिया मामला, तो ये कोई साधारण खत्री भी नहीं हैं; अठारह बार खतम हो चुके, मगर फिर-फिर लौट आए। तो जरूर दूसरों ने लौटाया।
तो उस समय एक अच्छी प्रथा थी। कलियुग में ही हो सकती है ऐसी प्रथा। उस प्रथा को कहते थे: नियोग। कोई भी स्त्री ऋषि-मुनियों के पास जाकर निवेदन कर सकती थी कि मुझे बच्चा चाहिए और ऋषि-मुनियों का काम ही यही था कि स्त्रियों को बच्चों की जरूरत पड़ जाए, कोई विधवा हो जाए, बच्चा न हो या किसी जोड़े को बच्चा न होता हो, तो ऋषि-मुनि बेचारे सेवा कर देते थे। अरे, जो सेवा करे वह मेवा पाए! तो थोड़ा मेवा उनको मिलता था, थोड़ी सेवा वे कर देते थे। ऋषि-मुनि क्या हुए, महादेव जी के सांड हुए! ये वेटरिनरी डाक्टर तो अब जो कर रहे हैं, यह कलियुग में जब परशुराम भगवान थे तब होता ही रहा। इसको नियोग कहते थे। मगर ऋषि-मुनि जो करें सो ठीक! इसमें कुछ पाप नहीं। इस तरह क्षत्रिय फिर-फिर बनते रहे।
आज परशुराम को तुम हत्यारा कहोगे, महाहत्यारा कहोगे। चंगेजखां और तैमूरलंग और नादिरशाह और एडोल्फ हिटलर और स्टैलिन और माओत्सेत्तुंग सब फीके पड़ जाएंगे। ये सब मिलकर भी इतनी हत्या नहीं किए जितनी उस अकेले आदमी ने की, अगर तुम्हारे पुराणों पर भरोसा किया जाए--तो परशुराम जैसा बड़ा हत्यारा कभी हुआ ही नहीं। और जब परशुराम को भगवान माना जा सका तो तुम समझ सकते हो कि लोगों की बुद्धि क्या रही होगी, कितनी अपरिष्कृत रही होगी, कितनी जड़ रही होगी।
कृष्ण को भगवान माना जा सका, दूसरों की सोलह हजार स्त्रियां उठा लाए। इनके बच्चे तड़फे होंगे, इनके पति तड़फे होंगे, इनके परिवार नष्ट हुए होंगे। और ये स्त्रियां सब अपने मन से नहीं आ गई होंगी; इनको जबर्दस्ती छीन-झपटकर लाया गया था। और फिर भी कृष्ण को भगवान माना जा सका! यह कलियुग में ही संभव है। यह सतयुग में कैसे संभव हो सकता है?
और फिर कृष्ण के जीवन में ऐसा कुछ भी नहीं है, जिसमें भगवत्ता जैसी बात झलकती हो। और कृष्ण ही जिम्मेवार हैं महाभारत के। महाभारत में ही भारत की रीढ़ टूट गई, उसके बाद भारत फिर कभी उठा नहीं। जो गिरा सो आज तक नहीं उठ सका है। ये पांच हजार साल जो भारत की दुर्दशा के साल हैं, इनके लिए अगर कोई एक व्यक्ति सर्वाधिक जिम्मेवार है तो वह कृष्ण। उनको अगर भगवान माना जा सका तो जरूर लोगों की भगवान की धारणा बताती है कि लोग किस बुद्धि के रहे होंगे।
मेरे हिसाब में, मैं विकासवादी हूं, ह्रासवादी नहीं। मेरे लिए तो बाद-बाद में लोग अच्छे आए। परशुराम से बुद्ध तक आते-आते भगवत्ता निखरी। बुद्ध को भगवान कहा जा सकता है, परशुराम को नहीं। मैं कबीर को भगवान कह सकता हूं, राम को नहीं। भगवत्ता निखरती आई, निखरती आई। आज हम सतयुग में जी रहे हैं, आज पहली दफा पृथ्वी पर मनुष्य प्रौढ़ हुआ है। और आगे-आगे दिन और सुंदर होंगे। आगे-आगे और फूल खिलेंगे इस बगिया में।
और पूरा विज्ञान मेरे समर्थन में है। पूरा विज्ञान विकास की धारणा पर खड़ा हुआ है। मगर अभी भी मूढ़जन दोहराए चले जा रहे हैं कि यह कलियुग है और आशा कर रहे हैं कि और चीजें बिगड़ेंगी, और बिगड़ेंगी, सब नाश होगा। यह सड़ी-गली धारणा, यह रुग्ण-जर्जर चित्त त्याग देने योग्य है, मुक्त हो जाने योग्य है। तो मैं इस तरह की धारणाओं का समर्थन नहीं कर सकता हूं।
आनंदमूर्ति, स्वामी अक्षयानंद महाराज को कहना कि मैं उनकी हर बात से राजी हूं--अर्थात न तो मैं भारतीय संस्कृति का समर्थक हूं, न शास्त्रों का समर्थक हूं और न ही किसी को धोखा दे रहा हूं कि जो मैं सिखा रहा हूं वह भारतीय संस्कृति है, या भारतीय धर्म है। मेरी बात तो दो टूक साफ है कि जो मैं सिखा रहा हूं वह मेरा अनुभव है; उस पर मेरे हस्ताक्षर हैं; उस पर किसी की बपौती नहीं है। जो मैं सिखा रहा हूं वह शिक्षा जैसी चीज नहीं है; वह शिक्षा से बिलकुल उलटी है, विपरीत है। उसे तुम ज्ञान से मुक्ति तो कह सकते हो, लेकिन ज्ञान का देना नहीं कह सकते हो। ज्ञान दिया नहीं जाता। तुम्हारा थोथा ज्ञान गिर जाए तो तुम्हारे भीतर से ज्ञान के झरने फूटते हैं। बाहर से नहीं आता ज्ञान। ज्ञान तुम्हारा स्वभाव है।
देखा न कल, बुल्लेशाह ने कहा कि परमात्मा को क्या खोजना? अरे, यहां का यहां! कहां जाते हो खोजने? न शास्त्रों में है, न शब्दों में है, न सिद्धांतों में है--तुम्हारे भीतर की शून्यता में है। उस शून्य को ही मैं ध्यान कहता हूं, समाधि कहता हूं, निर्वाण कहता हूं।

दूसरा प्रश्न: भगवान,
मैं प्रश्नों से भरा हूं, आप उत्तरों से।
क्या मैं आशा करूं कि आप मेरी सारी जिज्ञासाओं का समाधान कर देंगे?
यदि आप आश्वासन दें तो मैं संन्यास तक लेने को तैयार हूं।

भाईदास भाई,
भाई, कैसी बहकी-बहकी बातें कर रहे हो! संन्यास तक! जैसे कि कोई कहे कि जहर तक पीने को तैयार हूं! ऐसी झंझट में न पड़ो। अच्छे-भले आदमी, चंगे आए, चंगे ही जाओ! क्या बिगड़ना है?
और तुमसे किसने कहा कि मैं उत्तरों से भरा हूं। हां, प्रश्नों से खाली हो गया हूं। तुम प्रश्नों से भरे हो, मैं प्रश्नों से खाली हूं। उत्तरों से मैं भरा हूं, इस भ्रांति में न रहो। मैं कोई पंडित नहीं हूं। हां, तुम्हें भी प्रश्नों से खाली होना हो तो मुझसे जुड़ सकते हो--वही संन्यास है। प्रश्नों के उत्तर नहीं होते।
सदगुरु प्रश्नों के उत्तर नहीं देता है, प्रश्नों को तोड़ता है। तुम जरा गौर तो करो कि मैं तुम्हारे जो प्रश्नों के उत्तर देता हूं, वे उत्तर हैं? कि इधर से लंगड़ी मारी, उधर से एक दचका दिया, इधर खोपड़ी पर लट्ठ मारा! एक हुद्दा आगे से, एक पीछे से। इसको तुम उत्तर कहते हो? उत्तर होते हैं शास्त्रों में। यहां तो कुटाई-पिटाई हो जाती है।
और तुम कह रहे हो कि "आप मेरी जिज्ञासाओं का समाधान कर देंगे। यदि आप आश्वासन दें...!'
गारंटी चाहते हो! एक ही बात की गारंटी दे सकता हूं कि तुम्हारे प्रश्नों को नष्ट कर दूंगा। एक-एक प्रश्न को उखाड़कर फेंक दूंगा। और उत्तर बाहर से नहीं आते। जब सारे प्रश्न गिर जाते हैं तो तुम्हारे भीतर ही उत्तरों का उत्तर, समाधानों का समाधान। इसीलिए तो हम उस अवस्था को समाधि कहते हैं, क्योंकि वह समाधानों का समाधान है। उत्तर नहीं है। जिंदगी कोई स्कूल की परीक्षा नहीं है कि प्रश्न पूछे और उत्तर दे दिए। लेकिन आदतें हमारी खराब हैं; सड़ी-गली आदतें हैं; दकियानूसी आदतें हैं।
गुलाम रूहों के कारवां में
जरस की आवाज भी नहीं है
उठो, तमद्दुन के पासबानो!
तुम्हारे आकाओं की जमीं से
उबल चुके जिंदगी के चश्मे
निशान सिजदों के अब जबीं से
मिटाओ, देखो छुपा न ले वो
लहू टपकता है आस्तीं से
गुलाम रूहों के कारवां में
नफस की आवाज भी नहीं है
उठो, मुहब्बत के पासबानो!
ये कोहरो-सहरा, ये दश्तो-दरिया
तुम्हारे अजदाद गा चुके हैं
यहां पे वो आतिशीं तराना
जो गर्मिए-बज्म था, मगर अब
गुजर गया उसको इक जमाना
समंदे-अय्याम बर्क-पा है
उठो कि तारीख हर वरक पर
तुम्हारा शुभ नाम ढूंढती है
न देंगे आवाज उसके शहपर
जो वक्त उड़ता चला गया है
जमीन आंखों से मत कुरेदो
न मिल सकेंगी वो हड्डियां जो
जमीं का तारीक गहरा सीना
निगल चुका है--नया करीना
सिखाओ पामाल जिंदगी को
उठो, मजारों के पासबानो!
चलो न गर्माओ जिंदगी को
ये ढेर सूने पड़े हैं, इन पर
कहीं से दो फूल ही चढ़ाओ
गुलाम रूहों के कारवां में
जरस  की  आवाज  भी  नहीं  है
यह देश क्या है--एक गुलाम रूहों का कारवां हो गया है, जिसमें कोई जीवन की घंटियां भी नहीं बजतीं!
गुलाम रूहों के कारवां में
जरस की आवाज भी नहीं है
गुलाम रूहों के कारवां में
नफस  की  आवाज  भी  नहीं  है
घड़ियाल तो क्या बजेंगे, यहां सांस की आवाज तक खो गई है!
उठो,   तमद्दुन   के   पासबानो!
हे संस्कृति के पागलो!
उठो,   मुहब्बत   के   पासबानो!
बहुत हो चुकीं प्रेम की बातें, अब उठो!
उठो,   मजारों   के   पासबानो!
पूज चुके कब्रों को बहुत, उठो अब थोड़े जिंदगी को जीओ।
ये ढेर सूने पड़े हैं, इन पर
कहीं  से  दो  फूल  ही  चढ़ाओ
भाईदास भाई, तुम कहते हो कि प्रश्नों से भरे हो। तुम्हारे प्रश्न तुम्हारे ही प्रश्न होंगे न। और अज्ञान में क्या प्रश्न हो सकते हैं? और ज्ञान में तो प्रश्न होंगे ही क्यों? अज्ञान में व्यर्थ के कुतूहल होते हैं या चालबाजियां होती हैं या धोखा होता है या पाखंड होता है। तुम्हारे प्रश्नों में तुम्हारी ही छाप होगी न! तुम्हारे प्रश्न तुम्हारे ही प्रतिबिंब होंगे न! तुम्हारे प्रश्न आखिर तुम्हारे भीतर ही से तो आएंगे। अब बबूल में कोई गुलाब के फूल तो न लगेंगे। अब बबूल के कांटों को मैं बैठा रहूं, तोड़ता रहूं, इससे भी क्या होगा? नए कांटे उगते रहेंगे।
इसलिए मैं तो जड़-मूल से तुम्हें मिटा दूंगा। भाईदास भाई, अगर तैयारी हो बिलकुल मिटने की तो संन्यासी हो जाओ। आश्वासन एक देता हूं कि मिटाऊंगा, बिलकुल मिटा दूंगा, जड़ों से उखाडूंगा। कहीं कुछ शेष न रहेगा तुम्हारा तुम में। और जब तुम्हारा तुम में कुछ भी शेष न रहेगा तो पा जाओगे तुम सभी समस्याओं का समाधान।
दादा चूहड़मल फूहड़मल बीमार थे। डाक्टर के यहां गए। डाक्टर ने सब जांचा-परखा और दो दवा की गोली देकर कहा, एक सुबह एक शाम खाना। बस एक ही दिन में बिलकुल चंगे नजर आओगे।
दादा घबराकर बोले, क्या बोले बरी डाक्टर, नंगे नजर आओगे!
डाक्टर ने कहा कि नहीं-नहीं, मैंने कहा, चंगे हो जाओगे। यानी मेरी दवा इतनी बढ़िया है कि एक ही दिन में बिलकुल ठीक हो जाओगे।
दादा बोले, अच्छा-अच्छा, यह बात है! बरी यह तो बताओ कि दवा काहे के साथ खानी है?
जवाब मिला, चाय या दूध के साथ खाइएगा। दादा को संतोष न हुआ--बरी डाक्टर हमको तो एक बात बोल दो--या चाय या दूध। हमको दोहरी बातें ठीक नहीं लगतीं।
डाक्टर ने कहा, अच्छा तो दूध के साथ गोली लीजिएगा।
दादा ने पूछा, दूध गाय का या भैंस का?
डाक्टर ने कहा, माफ करिए, मुझे और भी मरीज देखने हैं। अब आप ही अकेले तो नहीं कि आप से ही थोड़े ही सिर मारता रहूं। आपको जो दूध मिल जाए उसी के साथ ले लेना, उसमें कोई फर्क नहीं पड़ता।
दादा बोले, बरी डाक्टर, गुस्सा क्यों होते हो? हम आज पहली बार ही ऐलोपैथी का इलाज करवा रहे हैं, इसलिए सब बातें क्लियर-क्लियर जानना चाहते हैं। न हमारे घर गाय है न भैंस, बकरियां हैं। यदि बकरी के दूध के साथ गोली खा लूं तो कोई नुकसान तो नहीं है न?
उत्तर मिला, नहीं।
मगर दादा की जिज्ञासा अभी समाप्त न हुई--बरी, एक बार और बताओ न! दूध गर्म चाहिए या ठंडा?
डाक्टर ने पिंड छुड़ाने के लिहाज से कह दिया, कुनकुना।
दादा बोले, ठीक। दूध गिलास में पीना कि कटोरी में?
डाक्टर को गुस्सा आ गया--साईं अब घर भी जाइए न! आपको कुछ और काम नहीं है क्या?
दादा बोले, काम क्यों नहीं है। पर जब हमने आपको पूरी फीस दी है तो बदले में हमें भी पूरी-पूरी जानकारी तो दीजिए। बताइए कि दूध खड़े-खड़े पीना है कि बैठकर पीना है?
डाक्टर ने अपना माथा ठोंक लिया--साईं आप यह लीजिए अपनी फीस वापस। दस का नोट पकड़ाते हुए उसने कहा--खुदा के वास्ते अब मेरा पीछा छोड़िए।
दादा बोले, लेकिन बरी तुम तो नाराज होते हो। हम तो सीधा-सादा आदमी है। कभी ऐलोपैथी का इलाज नहीं करवाया, इसलिए पूछता है कि दूध खुद अपने हाथ से पीना है या मेरे मुन्ने की अम्मा यदि पिला दे तो कोई नुकसान है?
डाक्टर को भी हंसी आ गई। बोला, साईं, तुम तो बड़ा जानदार आदमी है! जा अब अपने घर और मुन्ने की अम्मा के हाथ से दूध पी।
दादा ने कहा, अच्छा तो जाता हूं बरी डाक्टर, मगर एक बात तो बताओ कि घर तक पैदल जाऊं या रिक्शे में बैठकर?
डाक्टर ने कहा, रिक्शे में जाओ, इस बुखार में पैदल चलना ठीक नहीं।
दादा डाक्टर से राम-राम बरी साईं कहकर चल दिए। डाक्टर ने संतोष की सांस ली, लेकिन आश्चर्य की बात तो तब घटी जब आधा घंटे बाद दादा लौट आए और बोले, बरी डाक्टर, तुम कैसा इंसान है! हमको यह नहीं बताया कि कौन सी गोली सुबह खानी है और कौन सी शाम को खानी है। हमारा मुन्ने की अम्मा ने हमको बहुत डांटा।
डाक्टर ने संयम साधकर कहा, यह सुबह खाइए और यह शाम को।
दादा बोले, तुम्हारी भूल के कारण हमको वापस आना पड़ा बरी, हमको फिर से घर जाने के लिए दस रुपए रिक्शा का भाड़ा दो, वर्ना हम कैसे जाएंगे?
डाक्टर ने आधा मिनट गंभीरता से सोचा और चुपचाप दस का नोट दादा के हाथ में थमा दिया, इसी में ज्यादा भलाई थी। दादा मुस्काते बाहर आए और वेटिंग रूम में बैठी अपनी बीबी को आंख मारकर बोले कि लोग कहते हैं कि "जाको राखे साइयां, मार सके न कोय', ऐसा कहने वाले निरे मूर्ख हैं, गधे हैं। उनको कहना चाहिए: जाको लूटे साइयां, बचा सके न कोय। बीबी हंसती हुई उठी और बोली, तो फिर आज कौन से पिक्चर चला जाए मुन्ने के पापा? इस डाक्टर से आज कितने रुपए वसूल करे? अरे, बरी बोलो न!
तुम्हारी जिज्ञासाएं, भाईदास भाई, किसी काम न आएंगी। यहां तो जिज्ञासाएं तोड़नी हैं। यहां तो प्रश्न गिराने हैं। उत्तर मेरे पास कोई नहीं है। उत्तरों का उत्तर है, और वह तुम्हारे भीतर है; उसे खोजने का रास्ता बता सकता हूं।

आखिरी प्रश्न: भगवान,
मैं संन्यासी क्या हो गया हूं, लोग मुझे पागल समझने लगे हैं--अपने ही लोग।
मैं जीवन में पहली बार आनंदित हूं और मेरे परिवार के लोग दुखी।
यह पहेली मेरी कुछ समझ में नहीं आती।
वे यदि मुझे प्रेम करते हैं, जैसा कि वे कहते हैं, तो उन्हें भी आनंदित होना चाहिए न!

कृष्णप्रेम भारती,
इसमें कुछ पहेली नहीं। बात बिलकुल सीधी है। प्रेम के नाम पर और सब चलता है, प्र्रेम नहीं। प्रेम के नाम पर बहुत कुछ चलता है--प्रेम को छोड़कर। बातें करते हैं लोग कि हम चाहते हैं तुम आनंदित होओ; मगर जब तुम आनंदित होओगे तब तुम अड़चन अनुभव करोगे। क्योंकि जैसे ही तुम आनंदित हुए कि लोगों को तुम कांटे की तरह गड़ोगे और खटकोगे। तुम तो फूल बनोगे, मगर लोगों के लिए कांटों की तरह अटकोगे, गड़ोगे। क्यों? क्योंकि वे दुखी हैं। और तुम्हें आनंदित देखकरर् ईष्या जगती है, वैमनस्य पैदा होता है, बैर जगता है। तुम्हें आनंदित देखकर वे यह नहीं मान सकते कि तुम सच में आनंदित हो गए हो। वे यही मानेंगे कि तुम पागल हो गए हो। और अगर तुम फिर भी उनकी न सुने और दुखी न हुए जैसे कि वे दुखी हैं, अगर तुम उन जैसे ही नहीं हो गए, उनकी ही भीड़ में सम्मिलित नहीं हो गए, तो फिर वे तुम्हें जितना भी कष्ट दे सकते हैं, वह भी देंगे। और कहेंगे यही कि तुम्हारे भले के लिए दे रहे हैं कि तुम पागल जो हो गए हो।
संन्यास आनंदित तो करेगा और आनंदित होने में खतरे आते हैं।
एक बार पहले भी नग्मा-बार थीं शाखें
बर्गो-बार आए थे, नख्ल फूल लाया था
लद गई थीं फूलों से खाके-बेसरो-सामां
एक बार पहले भी मैंने घर बसाया था
एक बार पहले भी मैंने घर सजाया था
एक बार पहले भी काफिले बहारों के
ओढ़कर रु-ए-गुल इस तरफ से गुजरे थे
आप ही न जाने क्यों बुझ गए दीए घर के
एक शोला-ए-गम से खाक हो गई महफिल
नेशे-खार फूलों के दिल में चुभ गया जाकर
काफिले बहारों के लुट गए सरे-मंजिल
एक बार पहले भी तीरगी के दामन में
मर्गे-नग्मा-ओ-गुल पर आंसुओं से खेला हूं
आज तुमने फिर आकर सब दीए जलाए हैं
गमकदे  की  दीवारें  जगमगा  उठी  हैं  फिर
संन्यास तो तुम्हारे जीवन में एक दीया है। संन्यास तो तुम्हारे कारागृह में खुले आकाश का आगमन है। संन्यास तो तुम्हारे दुख से भरी हुई दुनिया में आनंद की बरखा है।
मैं न तो तुमसे कहता हूं परमात्मा को खोजो, न तुमसे कहता हूं मोक्ष को खोजो। मैं तो तुमसे कहता हूं कि तुम अगर अभी शांत हो जाओ तो मोक्ष तुम्हारे भीतर उतर आता है और परमात्मा तुम्हें खोजता चला आता है।
संन्यस्त होते ही तुम्हारे जीवन की शैली बदलती है, नया घर बसता है। यूं तुमने बहुत घर बसाए पहले भी, मगर ऐसा घर कभी नहीं बसाया। पहली बार तुम्हारा घर मंदिर बनता है। पहली बार तुम्हारे जीवन में संगीत-बजता है और पहली बार तुम्हारे जीवन में फूल आते हैं, पहली बार मधुमास उतरता है!
निश्चित ही चारों तरफर् ईष्या जगेगी, चारों तरफ विरोध होगा। दुखी लोग चाहते हैं कि तुम भी दुखी रहो। दुखी आदमी के साथ उन्हें कोई अड़चन नहीं। सच तो यह है, दुखी आदमी को देखकर उन्हें अच्छा लगता है कि वे इतने दुखी नहीं जितने दुखी तुम हो--तुलना में। उनको लगता है हम अच्छी हालत में हैं। इसलिए दुखी आदमी से हर आदमी सहानुभूति दिखाता है और सुखी आदमी से हर आदमीर् ईष्या करता है। यह गणित बहुत साफ है, इसमें उलझन कुछ भी नहीं।
तुम जब दुखी आदमी से सहानुभूति दिखाते हो, तब जरा भीतर गौर करना तुम्हारे भीतर सुख आ रहा है। क्योंकि अगर तुम सच में ही दुखी आदमी के दुख में सहानुभूति प्रगट करते हो तो सुखी आदमी के सुख में तुम्हें उत्सव भी मनाना चाहिए; वह कठिन है। तुमसे बहुत बार कहा गया है, सदियों-सदियों में कहा गया है कि दुखी आदमी के साथ सहानुभूति प्रगट करो। मैं तुमसे कहता हूं: सुखी आदमी के उत्सव में उत्सव मनाओ, तब मैं समझूंगा कि तुम धार्मिक हो। वह तो कोई भी मूढ़ कर लेता है। वह तो कोई भी बेईमान कर लेता है। दुखी आदमी के दुख में सहानुभूति प्रगट करने में अहंकार को तृप्ति मिलती है, मजा आता है।
किसी के घर में आग लग जाती है तो तुम सब इकट्ठे हो जाते हो सहानुभूति प्रगट करने, कि बहुत बुरा हुआ भाई, कैसा दुर्भाग्य! ऐसा नहीं होना था। कैसे हो गया! तुम्हारी आंखों में आंसू दिखाई पड़ते हैं, लेकिन भीतर तुम्हारे रस बह रहा है। और जब तुम्हारे पड़ोस में कोई आदमी एक नया आलीशान मकान बनाता है, तब तुम प्रसन्न होते हो? अगर सच में ही तुम किसी के मकान में लगी आग के कारण दुखी हुए थे, तो किसी के बने नए मकान को देखकर तुम्हें भी नाच उठना चाहिए। लेकिन कोई नाच नहीं उठता,र् ईष्या भरती है। तुम उस रास्ते से निकलना छोड़ देते हो; तुम दूसरे रास्ते से, लंबे रास्ते से चले जाते हो। तुम्हें उसके महल देखकर पीड़ा उठती है, घाव तुम्हारे ताजे हो जाते हैं कि अरे, मैं कुछ न कर पाया और इस आदमी ने मकान बना लिया!
मैं तुमसे कहता हूं, फिर से कहता हूं: सच्चा धार्मिक आदमी दूसरे के सुख में सुखी होने की कला जानता है। और जो दूसरे के सुख में सुखी हो सकता है, उसकी ही सहानुभूति सार्थक है, अन्यथा बेईमानी है।
तुम आनंदित हो रहे हो कृष्णप्रेम भारती, इससे तकलीफ तो आएगी। आनंदित होना इस दुनिया में बड़ी खतरनाक बात है। जहां हजारों-हजारों वृक्षों पर फूल न हों, वहां एक वृक्ष पर फूल आ जाएं तो सारे वृक्ष टूट पड़ेंगे उस वृक्ष पर, तोड़ डालेंगे उसे। सारे वृक्ष कुल्हाड़ियां उठा लेंगे, काट डालेंगे उसे। इसीलिए तो तुमने सुकरात को जहर पिलाया। इसीलिए तुमने जीसस को सूली पर लटकाया। इसीलिए तो सरमद की गर्दन काटी। क्या कारण था? इनका क्या कसूर था?
इनका एक ही कसूर था, इनका एक ही गुनाह था कि ये आनंदित थे, ये परम आनंदित थे, ये आह्लादित थे, ये नाच उठे थे। और तुम लंगड़े हो; नाच तो दूर, तुम चल भी नहीं पाते। तुम्हें तो बैसाखियां चाहिए। और जब बैसाखियां लिए हुए लोग किसी को नाचता हुआ देखें तो अपनी बैसाखियों से ही उसका सिर तोड़ देंगे।
कायनाते-दिल में ये गाता हुआ कौन आ गया
हर तरफ तारे से बरसाता हुआ कौन आ गया
चार जानिब फूल बिखराता हुआ कौन आ गया
ये मुझे नींदों से चौंकाता हुआ कौन आ गया
मीठी-मीठी आग एहसासात में जलने लगी
रूह पर लिपटी हुई जंजीरे-गम गलने लगी
जिंदगी की शाखे-मुर्दा फूलने-फलने लगी
नकहतों से चूर शर्मीली हवा चलने लगी
दहर में मस्ती को नहलाता हुआ कौन आ गया
जर्राऱ्हाए-खाक तारों की खबर लाने लगे
आस्मानों पर धनुक के रंग लहराने लगे
नख्ल अपनी शाने-रानाई पे इतराने लगे
सर्द झोंके डालियों के साज पर गाने लगे
कल्बे-आलम को ये तड़पाता हुआ कौन आ गया
जिंदगी की तल्खियां इक ख्वाब होकर रह गईं
शौक की गहराइयां पायाब होकर रह गईं
काली रातें रूकशे-महताब होकर रह गईं
सुस्त नब्जें रेशा-ए-सीमाब होकर रह गईं
बर्क की मानिंद लहराता हुआ कौन आ गया
चुन लिए किसने मेरी पलकों से अश्कों के शरार
किसने अपने कल्ब से भींचा है मेरा कल्बे-जार
छट गए जज्बात पर छाए हुए गहरे गुबार
मुड़ गई अफ्कार में चुभती हुई इक नोके-खार
बीती घड़ियों को ये लौटाता हुआ कौन आ गया
जो कभी तारों में जाकर झिलमिलाया, वो न हो
जो कभी फूलों में छिपकर मुस्कुराया, वो न हो
जो दूर रहकर भी रग-रग में समाया, वो न हो
जो मेरे अब तक बुलाने पर न आया, वो न हो
ये लजाता, रुकता, बल खाता हुआ कौन आ गया
ये तो खुद मेरे तसव्वुर का है इक अक्से-जमील
ये तो दिल की धड़कनों में हो रही है कालो-कील
आह लेकिन ये रुखे-पुरनूर ये चश्मे-कहील
लड़खड़ाती चाल में पिनहां खिरामे-रोदे-नील
आईना-सा मुझको दिखलाता हुआ कौन आ गया
संन्यास तो आईना है। संन्यास तो वही है जो तारों में झिलमिलाता है, जो फूलों में मुस्कुराता है। संन्यास सूरज की किरण है, चांद की चांदनी है। संन्यास इंद्रधनुषों का रंग है। संन्यास दीए की ज्योति है; दीयों का उत्सव है, दीवाली है। संन्यास होली भी है, दीवाली भी।
और चारों तरफ से विरोध होगा। लेकिन इस विरोध से कृष्णप्रेम भारती, घबड़ाना मत। दुनिया पागल कहे, हंसकर टाल जाना।
                      भोर आ गई
अंधियारे  का  दर्पन  टूटा  पूरब  ने  पौ  बरसाई
अंगारे  का  झूमर  पहने  ऊषा  ने  ली  अंगड़ाई
जंगल महके, पंछी चहके, लहकी बहकी पुरवाई
                भोर आ गई, भोर आ गई
रुकी-रुकी सी, झुकी-झुकी सी, दुखी-दुखी सी आशाएं
मचल-मचलकर उछल-उछलकर, गगन-झरोके छू आएं
मन  में  सपनों  की  महारानी  मन  ही  मन  में  इतराई
               भोर आ गई, भोर आ गई
धुआंधार पच्छम की बस्ती, धड़-धड़ पूरब देश जले
सूरज  देवता  घात  लगाए, रात  की  देवी  हाथ  मले
किरनों  की  गोपी  कुहरे  में  कांप-कांप  के  चिल्लाई
               भोर आ गई, भोर आ गई
एक सुबह का पर्दापण हुआ है तुम्हारे जीवन में। और जो रात के अंधेरे में भटक रहे हैं, नाराज होंगे, निंदा करेंगे, गालियां देंगे।
मगर उनकी गालियों को अभिशाप न समझना; उनकी गालियां सूचनाएं हैं कि तुम्हारी जिंदगी में सुबह की पहली-पहली किरणें फूटने लगीं। उनकी गालियां भोर होने की खबर दे रही हैं। वे तुम्हें पागल कहें, चुपचाप स्वीकार कर लेना। वे तुम्हारी निंदा करें, आनंदमग्न हो सुन लेना। तुम अपनी मस्ती की चिंता करो। तुम उनकी फिक्र ही न लो। यूं ही हुआ है, यूं ही आगे होता रहेगा।

आनंद मैत्रेय ने पूछा है--
भगवान, स्वर्गीय श्री रामधारी सिंह दिनकर बहुत मेधावी, संवेदनशील
और भावप्रवण कवि थे और आपके प्रेमियों में से थे।
उन्नीस सौ अड़सठ में जब पहली दफा उन्होंने पटना में आपका प्रवचन सुना
तो वे बहुत चिंतित हो उठे और उसी दिन उन्होंने मुझसे कहा कि
"तुम्हारे रजनीश जी बिलकुल सुकरात की भांति बोलते हैं
और मुझे डर है कि लोग उनकी हत्या कर देंगे। तुम उन्हें सचेत कर दो।'
मुझे उस समय उनकी यह बात बहुत जंची नहीं और मैंने उनसे कहा कि
आप खुद उनसे मिलकर यह कहें तो अच्छा है।
पता नहीं कि दिनकर जी ने आपसे यह बात कही या नहीं,
लेकिन मैं विस्मित हूं कि इधर कुछ दिनों से मुझे उनकी यह चौदह वर्षों की
भूली-बिसरी बात बार-बार स्मरण आती है।
भगवान क्या इस पर कुछ कहने की अनुकंपा करेंगे?

आनंद मैत्रेय,
उन्होंने मुझे भी कहा था। एक बार नहीं, कम से कम चार बार कहा था। जब भी मिले तभी कहा था। और मैंने उनको कहा कि इसमें चिंता होने की क्या बात है? इसमें परेशान होने की क्या बात है? सुकरात जैसा भाग्य तो कम ही लोगों को मिलता है और उस भाग्य में जहर भी जुड़ा हुआ है। जीसस जैसा जीवन तो कम ही लोगों को मिलता है और उस जीवन में सूली अनिवार्य है। और सरमद होने में या अलहिल्लाज मंसूर होने में क्या चिंता? यूं तो आदमी को मरना ही होता है, आज नहीं कल। मृत्यु तो कोई विचारणीय बात नहीं है। लेकिन अगर सरमद की मौत मिले या सुकरात की, तो धन्यभाग है।
आनंद मैत्रेय, उन्होंने ठीक ही कहा था। और यह बात तुम्हें अब भी याद आती है चौदह वर्षों बाद, स्वाभाविक है, क्योंकि अब मैं और अपनी तलवार पर धार रख रहा हूं। यह धार बढ़ती रहेगी, बढ़ती रहेगी। मैं तो चोट गहन करता जाऊंगा। मेरे संन्यासियों को भी इसके लिए धीरे-धीरे तैयारी करनी चाहिए।
इसलिए तुमने जो पूछा है, कृष्णप्रेम भारती, लोग पागल कहेंगे, शायद लोग पत्थर मारेंगे। लेकिन पत्थरों को फूल समझना और उनके पागल कहने को समझना कि अब तुम परमहंस हुए। यही उन्होंने सदा किया है, यही वे आज भी कर रहे हैं, यही संभावना है कि वे कल भी करेंगे। वे अगर अपनी मूढ़ता से बाज नहीं आते, तो क्या हम अपने बुद्धत्व से बाज आ जाएं?

आज इतना ही।


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