लगन महुरत झूठ सब-(प्रश्नोंत्तर)-ओशो
चौथा प्रवचन-(संसार से पलायन नहीं, मन का रूपांतरण)
दिनांक 24 नवम्बर, 1980,श्री ओशो आश्रम पूना।
पहला प्रश्न: भगवान,
मन
एव मनुष्यानां कारणं
बंधमोक्षयोः।
बंधाय विषयासक्तं मुक्त्यै निर्विषयं स्मृतम्।।
अर्थात मन ही मनुष्यों के बंधन और मोक्ष का कारण
है। जो मन विषयों में आसक्त होगा वह बंधन का तथा जो विषयों से पराङ्मुख होगा वह
मोक्ष का कारण होगा।
शाटयायनीय उपनिषद का यह सूत्र काफी प्रचलित है।
इस उपनिषद के अतिरिक्त अनेक अन्य शास्त्रों में भी इसे स्थान मिला हुआ है।
भगवान, क्या हमारे लिए इस
सूत्र की व्याख्या करने की कृपा करेंगे?
चिदानंद, यह सूत्र तो मूल्यवान
है, लेकिन नासमझों के हाथ में पड़ कर मूल्यवान से मूल्यवान
चीज दो कौड़ी की हो जाती है। कोहिनूर भी पत्थर हो जाता है। उपनिषद के ये अमृत वचन
जिनके हाथों में पड़े उन्होंने जहर कर दिया। सारी बात ही उलटी हो गई। कुछ का कुछ हो
गया। यह पूरा देश उसी पीड़ा में सड़ रहा है।
उपनिषद तो बुद्ध पुरुषों के प्राणों से निकले हुए स्वर हैं। यह तो जब
वीणा बजी है अनाहत की तब ऐसा अपूर्व संगीत पैदा हुआ है। लेकिन फिर पंडित जब
व्याख्या करते हैं तो कमल को कीचड़ में घसीट डालते हैं। कमल यूं तो कीचड़ से ही पैदा
होता है, लेकिन कमल कीचड़ ही नहीं है, कीचड़
का अतिक्रमण है। कीचड़ के भीतर जो कीचड़ नहीं है उसकी अभिव्यक्ति है। लेकिन फिर उसे
कीचड़ में लथोड़ देना सुंदर को असुंदर कर देना है, सत्य को
असत्य कर देना है। व्याख्याओं ने सत्यों को उभारा नहीं है, निखारा
नहीं है, उन पर धार न दी, व्याख्याओं
के कारण सत्य की तलवार चमकी नहीं, उस पर और धूल जमी, और जंग जमी।
ऐसा ही इस सूत्र के साथ भी हुआ। इस सूत्र का मौलिक अर्थ बहुत सरल और
सीधा है। व्याख्या की जैसे कोई जरूरत ही नहीं है। मनुष्य शब्द भी इस बात का इंगित
करता है कि मन ही सब कुछ है। मनुष्य शब्द ही मन से बना है। यूं तो दुनिया में
मनुष्य के लिए अलग-अलग भाषाओं में बहुत से शब्द हैं। जैसे उर्दू में आदमी। वह भी
प्यारा शब्द है। मगर वह कीचड़ की खबर देता है, कमल की नहीं। आदमी
शब्द बनता है मिट्टी से। जो मिट्टी से बनाया गया, ऐसा आदमी
का अर्थ है।
यहूदियों में, ईसाइयों में, मुसलमानों में यह
कहानी है कि परमात्मा ने मिट्टी का पुतला बनाया और उसमें सांसें फूंक दीं। ऐसे
पहले आदमी का, आदम का जन्म हुआ। आदम का अर्थ है: मिट्टी का
पुतला। सच है यह बात, लेकिन बहुत अधूरी-अधूरी। यह केवल
मनुष्य का बाहरी रूप है। निश्चित ही मिट्टी है आदमी, लेकिन
मिट्टी से ज्यादा भी है। हमारा शब्द मनुष्य उस ज्यादा की खबर देता है। मिट्टी है,
मगर मिट्टी ही नहीं। मिट्टीमय है, मगर मिट्टी
से भिन्न भी है। मनुष्य मन है।
अंग्रेजी का शब्द "मैन' मन का ही रूपांतरण
है। वह मनुष्य का ही भिन्न रूप है। दोनों का उदगम एक ही सूत्र से हुआ है: मन से।
मन का अर्थ होता है: मनन की प्रक्रिया, मनन की क्षमता,
सोच-विचार की संभावना। मिट्टी तो क्या खाक सोचेगी! मिट्टी तो सोचना
भी चाहे तो क्या सोचेगी! कौन है जो मनुष्य के भीतर सोचता और विचारता? कौन है जो मनुष्य के भीतर मनन बनता है? वह चैतन्य
है। इसलिए मन सिर्फ मिट्टी से ज्यादा नहीं है और भी कुछ है; मिट्टी
के जो पार है, उसके भी जो पार है, उसकी
तरफ इंगित है, इशारा है।
मनन की प्रक्रिया तो चैतन्य की संभावना है। चैतन्य हो तो ही मनन हो
सकता है। इसलिए कोमा में विक्षिप्त पड़े हुए मनुष्य को मनुष्य नहीं कहना चाहिए।
वहां तो मनन की क्रिया नहीं हो रही है, मनन की क्रिया समाप्त
हो गई है। वहां तो मिट्टी का आकाश से संबंध टूटा-टूटा है, उखड़ा-उखड़ा
है--बीच की सीढ़ी ही गिर गई है।
तो मन है सीढ़ी। एक छोर लगा है मिट्टी से और दूसरा छोर छू रहा है अमृत
को। सीढ़ी एक ही है। जिस सीढ़ी से तुम नीचे आते हो, उसी से ऊपर भी जाते
हो। ऊपर और नीचे आने के लिए दो सीढ़ियों की जरूरत नहीं होती। सिर्फ दिशा बदल जाती
है। यूं भी हो सकता है कि तुम सीढ़ी पर चढ़ते हुए आधी यात्रा पूरी कर लिए हो और एक
सोपान पर खड़े हो, और दूसरा आदमी सीढ़ी से उतर रहा है, वह भी उसी सोपान पर खड़ा है; दोनों एक ही सोपान पर
हैं--एक चढ़ रहा है, एक उतर रहा है--एक ही सोपान पर हैं,
फिर भी बहुत भिन्न हैं। क्योंकि एक चढ़ रहा है, एक उतर रहा है। एक ही जगह हैं, मगर उनका एक ही कोटि
में स्थान नहीं बनाया जा सकता। एक उतर रहा है, गिर रहा है,
एक चढ़ रहा है, ऊर्ध्वगामी हो रहा है।
मन तो सीढ?ी है। अगर विषयों से आसक्त हो जाए तो उतरना शुरू हो
जाता है। विषय अर्थात पृथ्वी, मिट्टी। और अगर विषयों से
अनासक्त हो जाए, तो चढ़ना शुरू हो जाता है। सीढ़ी वही है। जो
विषयों में जीता है, वह रोज-रोज नीचे की तरफ ढलान पर खिसलता
जाता, फिसलता जाता।
और ध्यान रहे, खिसलना आसान है, फिसलना आसान
है। उतार हमेशा आसान होते हैं। क्योंकि गुरुत्वाकर्षण ही खींच लेता है, तुम्हें कुछ करना नहीं पड़ता। चढ़ाव कठिन होते हैं। जैसे कोई गौरीशंकर पर चढ़
रहा हो। जैसे-जैसे ऊंचाई पर पहुंचता है वैसे-वैसे कठिनाई होती है। तब छोटा-सा भार
भी बहुत भार मालूम होता है। एक छोटा-सा झोला भी कंधे पर लटका कर चढ़ना मुश्किल होने
लगता है। तो जैसे-जैसे यात्री ऊपर पहुंचता है वैसे-वैसे वजन उसे छोड़ने पड़ते हैं।
वही अनासक्ति है। वजन छोड़ना।
जमीन पर चल रहे हो तो ढोओ जितना ढोना हो; लदे रहो गधों की भांति, कोई चिंता की बात नहीं।
लेकिन अगर चढ़ना है पहाड़, तो फिर छांटना होगा, फिर असार को छोड़ना होगा। और ऐसी भी घड़ी आएगी जब सब छोड़ना होगा। अंतिम शिखर
पर जब पहुंचोगे तो सब छोड़ कर ही पहुंचोगे। सीढ़ी वही है। एक में बोझ बढ़ता जाता है,
एक में निर्बोझ बढ़ता जाता है। एक में विषय बढ़ते जाते हैं, एक में घटते जाते हैं। एक में विचारों का जाल फैलता जाता है, एक में क्षीण होता चला जाता है।
इसलिए यह सूत्र ठीक कहता है कि मन ही कारण है संसार का और मन ही कारण
है मोक्ष का। मन ही बांधता है, मन ही मुक्त करता है। आदमी
प्रज्ञावान हो तो मन से ही रास्ता खोज लेता है अ-मन का।
अ-मन शब्द बड़ा प्यारा है। नानक ने उसका बहुत उपयोग किया है। कबीर ने
भी। समाधि को अ-मनी दशा कहा है। उर्दू और उर्दू से संबंधित भाषाओं में अमन का अर्थ
होता है: शांति। वह भी प्यारी बात है! क्योंकि जैसे-जैसे ही मन से तुम पार जाने
लगोगे, अ-मन होने लगोगे, वैसे-वैसे
जीवन में शांति की फुहार, बरखा होने लगेगी। फूल खिलेंगे मौन
के। आनंद के स्वर फूटेंगे। जीवन के झरने बहेंगे।
इस सूत्र को अब समझने की कोशिश करो।
मन एव मनुष्यानां कारणं बंधमोक्षयोः।
"मन ही मनुष्यों के बंधन और मोक्ष का कारण है।'
लेकिन न मालूम ऐसे अदभुत सूत्र जिनके हाथ में थे कैसी उन्हें
विक्षिप्तता पैदा हुई, कैसा पागलपन पैदा हुआ, कि मन को
तो न छोड़ा, घर को छोड़ा, दुकान को छोड़ा,
बच्चे छोड़े, पत्नियां छोड़ीं, जंगलों की तरफ भागे!
मगर मन तो तुम्हारे साथ ही जाएगा, तुम जहां भी जाओ;
मन तो भीतर है। मन था बंधन का कारण, उसे छोड़ा
नहीं। कारण तो छोड़ा नहीं, कारण तो साथ ही ले गए, जहर के बीज तो सम्हाल कर ले गए। और संसार का सारा विस्तार तो उन्हीं बीजों
से पैदा हुआ था, उसको छोड़ कर भागे! बीज जहां रहेंगे, फिर विस्तार हो जाएगा। फिर वही उलझन खड़ी हो जाएगी। फिर-फिर होगी उलझन।
मेरा मकान था, "मेरा' मकान से
जुड़ा था; फिर मेरी कुटी हो जाएगी, फिर
"मेरा' कुटी से जुड़ जाएगा। मेरा साम्राज्य था, ममत्व साम्राज्य से बंधा था; छोड़ दो साम्राज्य,
ममत्व को कुछ भेद नहीं पड़ता, लंगोटी से बंध
जाएगा--मेरी लंगोटी, मेरा मंदिर, मेरा
शास्त्र, मेरा धर्म।
आदमी इतना अदभुत है और इतना अंधा कि जिनको तुम धार्मिक कहते हो उनका
भी दावा है: मेरा धर्म! मैं हिंदू हूं, मैं जैन हूं, मैं मुसलमान हूं, मैं ईसाई हूं। धार्मिक आदमी का
"मेरा' हो सकता है! और जहां मेरात्तेरा है वहां कैसा
धर्म! वहां तो धर्म की कोई संभावना नहीं है। वही तो अधर्म है। मेरा शास्त्र! सब
छोड़ देते हैं लोग...।
एक जैन मुनि से, देशभूषण महाराज से मेरा मिलना
हुआ। मिलना चाहते थे, तो मैंने कहा कि जरूर। नग्न हैं,
दिगंबर हैं, सब छोड़ दिया। मुझसे बोले कि आप
गीता पर बोले, आप उपनिषद पर बोले, आप
धम्मपद पर बोले, लेकिन कुंदकुंद के "समयसार' पर क्यों नहीं बोले? उमास्वाति के
"तत्वार्थ-सूत्र' पर क्यों नहीं बोले? अरे, अपने शास्त्रों पर क्यों नहीं बोलते हो?
मैंने उनसे पूछा: अपने और पराए! आप तो सब छोड़ आए, वस्त्र भी छोड़ दिए, और अभी भी अपना-पराया मौजूद है!
अभी गीता पराई! अभी धम्मपद पराया! अभी कुंदकुंद का "समयसार' अपना! अभी उमास्वाति का "तत्वार्थ-सूत्र' अपना!
वही मेरा, वही तेरा। दुकानों में बंटा था, अब मंदिरों में बंटा। बही-खातों में बंटा था, अब
शास्त्रों में बंटा। मगर शास्त्र सिवाय बही-खाते के और क्या हैं? ऐसे आदमियों के हाथ में शास्त्र भी बही-खाते ही हैं।
आदमी आश्चर्यचकित कर देता है अगर उसके संबंध में सोचो! पत्ते छांटता
रहता है, जड़ें नहीं काटता। और पत्ते छांटने से कहीं कोई
क्रांति होने वाली है! जड़ें काटनी होंगी। जड़ है मन।
मन एव मनुष्यानां कारणं बंधमोक्षयोः।
कुछ मत छोड़ो, कहीं भागो मत। इसलिए मैं अपने संन्यासी को कहता हूं:
जहां हो वहीं जागो। भागने वाले जाग नहीं पाते। भागने वाले तो भयभीत हैं, कायर हैं। मगर हम कायरों को भी बड़े प्यारे नाम दे देते हैं, उनको कहते हैं--रणछोड़दास जी! रण छोड़ भागे!
मेरे गांव में एक मंदिर था--रणछोड़दास जी का मंदिर। मैंने उस गांव के
पुजारी को जाकर कहा कि देख, इस मंदिर का नाम बदल! उसने कहा, क्यों? नाम कैसा प्यारा है: रणछोड़दास जी! मैंने कहा,
तूने कभी सोचा भी कि रणछोड़दास जी का मतलब क्या हुआ? भगोड़े! जिन्होंने पीठ दिखा दी जीवन को। वह थोड़ा चौंका, उसने कहा कि तुझे भी उलटी-सीधी बातें सूझती हैं! मुझे जिंदगी हो गई पूजा
करते इस मंदिर में, मैंने कभी यह सोचा ही नहीं कि रणछोड़दास
जी का यह मतलब होता है! बात तो तेरी ठीक, मगर अब तो दूर-दूर
तक इस मंदिर की ख्याति है: रणछोड़दास जी का मंदिर। नाम बदला नहीं जा सकता है। मगर
तूने एक अड़चन मेरे लिए पैदा कर दी। यह शब्द तो गलत है।
कोई अगर युद्ध के क्षेत्र से पीठ दिखा दे, तो हम कायर कहते हैं उसे, और जीवन के संघर्ष से पीठ
दिखा दे तो उसको महात्मा कहते हैं! कैसा बेईमानी का गणित है!
मुझसे लोग पूछते हैं कि आपके संन्यासी कैसे हैं, क्योंकि न घर छोड़ते, न द्वार छोड़ते, न दुकान छोड़ते, न बाजार छोड़ते! मैं उनसे कहता हूं:
मेरे संन्यासी ही संन्यासी हैं। क्योंकि छोड़ना है मन, और कुछ
भी नहीं छोड़ना है। काटनी हैं जड़ें।
मन एव मनुष्यानां कारणं बंधमोक्षयोः।
और क्या सिर पटकते रहते हो उपनिषदों पर, कुछ भी तुम्हारी समझ
में नहीं आया। अब यह उपनिषद सीधा-सीधा कह रहा है कि मन है कारण, पत्नी कारण नहीं है। पत्नी को छोड़ कर भाग जाओगे, कुछ
भी न होगा। फिर कहीं किसी और को पत्नी बना कर बैठ जाओगे। न होगी पत्नी, शिष्या होगी, सेविका होगी--नाम कुछ भी रख लेना। मगर
वही मन और वही जाल। लेबल बदल जाएंगे, मगर भीतर जो भरा है सो
भरा है।
क्या-क्या तरकीबें निकाली हैं लोगों ने! हिंदू शास्त्रों में जिस
भांति आदमी को पकड़ने की कोशिश की है ब्राह्मण पंडितों ने, पुरोहितों ने, महात्माओं ने, उस
भांति दुनिया के किसी शास्त्र में नहीं हुआ। यहूदी भी पकड़ते हैं, मुसलमान भी पकड़ते हैं, ईसाई भी पकड़ते हैं, मगर जरा देर-अबेर करते हैं, मगर हिंदू तो गजब कर
दिए! यहूदियों के बच्चे पैदा हुए कि उनको फिक्र पड़ती है: खतना करवाओ। जल्दी खतना
करवाओ! बड़ा हो जाए, इनकार करने लगे कि नहीं करवाऊंगा,
झंझट खड़ी करे, तो छोटे बच्चे का खतना कर देते
हैं। बना दिया यहूदी उसको। ईसाई हो तो बप्तिस्मा करवाओ।
लेकिन हिंदुओं ने सबको मात कर दिया। कारण भी साफ है। सबसे पुरानी
पंडितों की, पुरोहितों की परंपरा है। ये आदमी को पकड़ते हैं बिलकुल
प्रथम से और अंत तक नहीं छोड़ते, अंत के बाद भी नहीं छोड़ते।
जन्म से लेकर मृत्यु तक संस्कारों की व्यवस्था कर रखी है। आदमी मरेगा तो अंतिम
संस्कार। और मर गया उसके बाद भी उसके बच्चों को सताएंगे। पितृपक्ष आएगा, जो मर गए हैं पुरखे, उनके नाम से श्राद्ध करवाएंगे,
तर्पण करवाएंगे। मर गए उनका भी अभी शोषण, उनके
नाम पर भी शोषण जारी है।
और तुम जान कर चकित होओगे कि यह संस्कारों की यात्रा शुरू कब होती है? हिंदू धर्म में शुरू होती है गर्भधारण से। सब धर्मों को मात कर दिया!
बच्चे का जब गर्भधारण होता है तब से संस्कार की विधि। पहली विधि है: गर्भधारण-विधि,
गर्भधारण-संस्कार।
और तुम अगर गर्भधारण-संस्कार को पूरा समझोगे तो बड़े हैरान होओगे कि
क्या-क्या बेईमानियां! जब पति और पत्नी संभोग करें तो चार ब्राह्मण महात्मा चारों
दिशाओं में खड़े रहें। देखी जालसाजी? अश्लीलता का विरोध
करेंगे; नग्न स्त्री का चित्र भी मत देखना! अरे, स्त्री का ही चित्र मत देखना! स्त्रियों का स्मरण ही मत करना! अनुभव में
आई हुई पुरानी स्त्रियों को बिलकुल विस्मृत कर देना, भूल कर
भी याद न करना! और ये महात्मा क्या कर रहे हैं? ये ऋषि-मुनि
क्या कर रहे हैं? धर्म की आड़ में यह क्या खेल चल रहा है?
अभी-अभी पश्चिम के बड़े-बड़े होटलों में यह खेल शुरू हुआ है, मगर कम से कम ईमानदारी से भरा हुआ है; कम से कम इतनी
बेईमानी तो नहीं, धर्म की आड़ तो नहीं। पश्चिम के बड़े होटलों
में यह व्यवस्था है कि छोटी-छोटी खिड़कियां उन्होंने बना रखी हैं, जिनमें ऐसे कांच लगे हैं कि भीतर से बाहर दिखाई नहीं पड़ता, बाहर से भीतर दिखाई पड़ता है। तो अंदर तो स्त्री-पुरुष संभोग कर रहे हैं और
खिड़कियों पर भी टिकट खरीद कर लोग बैठे हुए हैं। वे खिड़कियों से देख रहे हैं
स्त्री-पुरुष को संभोग करते हुए।
इनको तुम अश्लील कहोगे। इनको तुम कहोगे, भौतिकवादी। मगर
तुम्हारे महात्माओं ने इनको भी मात कर दिया। क्या गजब के लोग थे, क्या तरकीब निकाली! स्त्री-पुरुष संभोग करें, चार
महात्मा चारों दिशाओं में खड़े हों और महात्माओं के हिसाब से संभोग चलेगा। महात्मा
मंत्र पढ़ेंगे, स्त्री के एक-एक अंग को छूकर वे मंत्र पढ़ेंगे,
और मंत्रों के हिसाब से संभोग चलेगा।
यह तो जालसाजी हुई। अरे, तुम्हें किसी स्त्री
को नग्न देखना था तो देख लेते, कौन मना करता था, मगर यूं धर्म का आडंबर क्यों खड़ा करना! भाग गए संसार को छोड़ कर, महात्मा बन कर बैठे हो और अब संसार को पीछे के रास्ते से वापस ला रहे हो।
कम से कम इतनी ईमानदारी तो होनी चाहिए कि अपने जीवन को जैसा है वैसा स्वीकार करो।
भगोड़ों के जीवन में ये बातें आ जाएंगी। अब उस स्त्री की क्या दशा होती होगी,
यह भी तो सोचो! उस पर मंत्रत्तंत्र पढ़े जा रहे हैं, यज्ञ-हवन किया जा रहा है!
और दयानंद ने तो और गजब कर दिया! उन्होंने उसमें यज्ञ-हवन भी जोड़
दिया। मूल विधि में तो यज्ञ-हवन नहीं था। आहुति भी चढ़ाई जा रही है, धुआं भी पैदा किया जा रहा है, घी और गेहूं और चावल
फेंके जा रहे हैं और मंत्र पढ़े जा रहे हैं--और बेचारी गरीब स्त्री नग्न पड़ी है,
और नग्न उसके पतिदेव खड़े हैं, क्या दृश्य
उपस्थित किया! और संसार को छोड़ कर आ गए हैं। मगर संसार ने नहीं छोड़ा है इन्हें,
संसार पीछे के रास्ते से वापस आ रहा है।
मैं संसार के छोड़ने के पक्ष में नहीं हूं। मन को ही रूपांतरित करना
है। और तुम्हारे सूत्र साफ कह रहे हैं कि मन कारण है। काश, हमने यह समझा होता और मन को ही कारण समझ कर रूपांतरित किया होता, तो आज इस देश की ऐसी दुर्गति न होती। यह इतना पाखंडी न होता जितना यह
पाखंडी है। शायद पृथ्वी पर कहीं ऐसा पाखंड नहीं है जैसा हमारे देश में है। धन का
विरोध करेंगे--और सारे शास्त्र समझा रहे हैं कि धन का दान करो; दान ही पुण्य है, दान ही धर्म है। और धन है पाप! पाप
से कैसे पुण्य हो जाता है, यह भी बड़े आश्चर्य की बात है!
फिर हिंदू कहते हैं कि दान देना तो ब्राह्मण को। क्या ब्राह्मण से पाप
करवाना है? और जैन कहते हैं कि दान देना तो जैन ऋषि-मुनियों को।
और बौद्ध कहते हैं, दान देना तो बौद्ध भिक्षुओं को। और धन को
तीनों कहते हैं पाप। और पाप के लिए ही दान मांग रहे हैं। और इसकी भी वर्जना करते
हैं कि दूसरों को दान मत देना, क्योंकि वह दान व्यर्थ जाएगा।
धन है पाप। तो एक बात तो तय है कि अगर धन पाप है तो ब्राह्मण को पाप करने का उपाय
मत देना--भूल कर मत देना। भ्रष्ट करना है ब्राह्मणों को! मगर हम भी अंधे हैं। धन
को पाप भी मानते हैं और धन को दान भी करते हैं--और दान को पुण्य मानते हैं। अब पाप
से पुण्य को निकाल रहे हो। जालसाजी कर रहे हो। षडयंत्र रच रहे हो।
इसलिए इस देश में...सबसे ज्यादा धनलोलुप हम हैं, सबसे ज्यादा कामलोलुप हम हैं। खजुराहो और कोणार्क जैसे मंदिर हमने बनाए,
दुनिया में किसी जाति ने नहीं बनाए। और हमारे शास्त्रों में पंडितों
ने इस तरह की अश्लील कहानियां लिखी हैं कि कोई फिल्म इतनी अश्लील न बनी है न बन
सकती है। मगर धर्म के नाम पर चलती हो बात तो अंगीकार है, तो
स्वीकार है। हमने धर्म के नाम पर वेश्यावृत्ति चलाई, देवदासियां
बनाईं। देवदासी हो गई--करेगी वेश्यागिरी, लेकिन मंदिर में
करेगी अब। मंदिर को भी वेश्यालय बना दिया। और अब यह काम पुण्य का हो गया। अब इसमें
कुछ पाप न रहा। हम पापों को पुण्यों में बदलने में बड़े होशियार हैं।
मगर इस सबके पीछे जाल का, इस सारे उपद्रव का
कारण क्या है? कारण यह है कि हम ठीक-ठीक समझ नहीं पाए।
जिन्होंने जाना उन्होंने कुछ और कहा, और जिन्होंने हमें
समझाया उन्होंने कुछ और कहा। इस सूत्र के अनुवाद में भी, चिदानंद,
तुम खयाल करो तो तुम्हें पता चल जाएगा कि कहां से भ्रांतियां घुस
जाती हैं।
सूत्र का अनुवाद है: "मन ही मनुष्यों के बंधन और मोक्ष का कारण
है। जो मन विषयों में आसक्त होगा वह बंधन का और जो विषयों से पराङ्मुख होगा वह
मोक्ष का कारण होगा।'
यह पराङ्मुख कहां से आ गया? मूल सूत्र में कहीं भी
नहीं है। मूल सूत्र है:
मन एव मनुष्यानां कारणं बंधमोक्षयोः।
संस्कृत जानना भी जरूरी नहीं, मैं तो संस्कृत जानता
नहीं।
"मनुष्य के बंधन और मोक्ष का कारण मन है।'
बंधाय विषयासक्तं...।
"विषय में आसक्त रहना बंधन है।'
मुक्त्यै निर्विषयं स्मृतम्।
"और जब तुम्हारी स्मृति विषय से मुक्त हो जाए,
शून्य हो जाए, तो मोक्ष।'
इसमें पराङ्मुख होना कहां से आया? पराङ्मुख में तो
भगोड़ापन आ जाएगा। वही रणछोड़दास जी! पराङ्मुख यानी पीठ कर दो, भाग जाओ, पीठ दिखा दो, मुंह
फेर लो! इस तरह की गलत व्याख्या का परिणाम यह हुआ कि इस देश में लाखों स्त्रियां
पतियों के होते विधवा हो गईं। क्योंकि वे पराङ्मुख हो गए। और इसका विरोध भी न कर
सकीं, क्योंकि यह सब धर्म के नाम पर हो रहा था। उन्हीं
पतियों के चरण भी छुए उन्होंने, क्योंकि वे महात्मा हो गए थे
अब। हालांकि उनको दयनीय कर गए थे, उनको भिखमंगा कर गए थे,
उनका महात्मापन महंगा पड़ा था स्त्रियों के लिए। अब उनकी स्त्रियां
या तो भीख मांगेंगी या आटा पीसेंगी या वेश्यागिरी करेंगी। क्या होगा? उनके बच्चे अनाथ हो गए। भिखारी होंगे, चोरी करेंगे,
लुटेरे बनेंगे--पता नहीं क्या होगा। करोड़ों-करोड़ों लोगों का जीवन
विषाक्त हुआ है पराङ्मुखता के कारण। और सूत्र में कहीं पराङ्मुखता नहीं है। सूत्र
तो बड़ा सीधा-साफ है।
निर्विषय चित्त--जिस चित्त में विषयों की तरंगें नहीं उठती हैं। और
विषयासक्तं का भी अर्थ हमने गलत किया। विषय में आसक्ति का यह अर्थ नहीं होता कि
विषय से भाग जाओ। क्योंकि भागने से आसक्ति नहीं मिटेगी। अगर ऐसा होता तो गरीबों को
महलों में कोई आसक्ति न होती। अगर ऐसा होता तो गरीबों को धन में कोई आसक्ति न
होती। अगर ऐसा होता तो दीन-दरिद्र धन्यभागी थे! अभागे थे वे जो दीन-दरिद्र नहीं
हैं।
मगर सचाई उलटी है। सचाई यह है कि धन के अनुभव से आदमी की आसक्ति छूटती
है। और विषय के अनुभव से विषय से मुक्ति होती है। क्योंकि अनुभव कर-करके पाया जाता
है: कुछ भी तो नहीं, हाथ कुछ भी तो नहीं लगता। हाथ खाली के खाली रह जाते
हैं। वही झोली खाली की खाली। विषय के अनुभव से आदमी अपने आप निर्विषय होता है।
सिर्फ जागरूकता से विषय का अनुभव करना है। बस जागरूकता की शर्त जुड़ जाए तो तुम
निर्विषय हो जाओगे। जागरूकता का एक सूत्र समझ लो तो विचार से निर्विचार हो जाओगे,
मन से अ-मन हो जाओगे।
राजे-उल्फत छुपा के देख लिया
दिल बहुत कुछ जला के देख लिया
राजे-उल्फत छुपा के देख लिया
और क्या देखने को बाकी है
आपसे दिल लगा के देख लिया
राजे-उल्फत छुपा के देख लिया
वो मेरे हो के भी मेरे न हुए
उनको अपना बना के देख लिया
राजे-उल्फत छुपा के देख लिया
"फैज' तकमील हम भी हो न सके
इश्क को आजमा के देख लिया
राजे-उल्फत छुपा के देख लिया
दिल बहुत कुछ जला के देख लिया
"फैज' तकमील हम भी हो न सके
इश्क को आजमा के देख लिया
कोई कभी तकमील नहीं हुआ।
"फैज' तकमील हम भी हो न सके
इस जगत में कोई भी संतुष्ट कभी हुआ है! कोई कभी तकमील हुआ है! कोई कभी
पूर्णता को उपलब्ध हुआ है!
"फैज' तकमील हम भी हो न सके
इश्क को आजमा के
देख लिया
इस जगत के सारे प्यार, सारी प्रीतियां,
सारे लगाव, सारी आसक्तियां अनुभव करना जरूरी
है। अनुभव के सिवाय और कोई मुक्ति नहीं है। मन की पीड़ा से गुजरना ही होगा। मन के
विषाद को सहना ही होगा। मन की हार को अनुभव करना ही होगा। कोई सस्ता रास्ता नहीं
है। और भगोड़े सस्ता रास्ता खोज रहे हैं। वे अनुभव से वंचित रह जाएंगे। और जो अनुभव
से वंचित रह जाएगा, वह मुक्त नहीं हो सकेगा। उसके भीतर वासना
दबी ही रह जाएगी।
और दबी हुई वासना और भी खतरनाक है; क्योंकि उभरेगी,
बार-बार उभरेगी, फिर-फिर उभरेगी। तुम दबाओगे
और उभरेगी। इधर से दबाओगे, उधर से उभरेगी। एक दरवाजा बंद
करोगे, दूसरा दरवाजा खोलेगी। और हर दरवाजा पहले दरवाजे से
ज्यादा सूक्ष्म होगा। अच्छा यही है कि वासना को उसके सहज प्राकृतिक रूप में जान
लिया जाए, पहचान लिया जाए।
मुक्त हो जाना कठिन नहीं है, वासना से मुक्त हो
जाना कठिन नहीं है, लेकिन दमित वासना से मुक्त होना बहुत
कठिन है।
मुझसे पहली-सी मुहब्बत मेरे महबूब न मांग
मैंने समझा था कि तू है तो दरख्शां है हयात
तेरा गम है तो गमे-दहर का झगड़ा क्या है
तेरी सूरत से है आलम में बहारां-ओ-शबाब
तेरी आंखों के सिवा दुनिया में रक्खा क्या है
तू जो मिल जाए तो तकदीर में रूह आ जाए
यूं न था, मैंने फकत चाहा था यूं हो जाए
मुझसे पहली-सी मुहब्बत मेरे महबूब न मांग
अनगिनत सदियों के तारीक बहीमाना तलिस्म
रेशमो-अतलसो-कमखाब में बुनवाए हुए
जां-ब-जां बिकते हुए कूचा-ओ-बाजार में जिस्म
खाक में लिथड़े हुए खून में नहलाए हुए
लौट जाती है उधर को भी नजर क्या कीजै
अब भी दिलकश है तेरा हुस्न मगर क्या कीजै
और भी दुख हैं जमाने में मुहब्बत के सिवा
राहतें और भी हैं वस्ल की राहत के सिवा
मुझसे पहली-सी मुहब्बत मेरे महबूब न मांग
तुम जिंदगी को अनुभव करो--उसके सारे फूल, उसके सारे कांटे; उसके सारे दिन, उसकी सारी रातें; उसके सारे सुख, उसके सारे दुख। चुनाव नहीं किया जा सकता! कोई यह कहे कि मैं तो फूल ही फूल
का अनुभव करूंगा, कांटों का नहीं; कि
मैं तो दिन ही दिन जीऊंगा, रातें नहीं; कि मैं तो सफलताएं ही भोगूंगा, विफलताएं नहीं;
तो ऐसा व्यक्ति जीवन के अनुभव से वंचित रह जाएगा।
ये तो जीवन के दोनों पहलू हैं। यहां हर चीज जो आशा में शुरू होती है, निराशा में परिणत हो जाती है। यहां हर सुबह सांझ होती है। यहां जिंदगी के
सब सुख धीरे-धीरे कड़वे हो जाते हैं और दुख बन जाते हैं। यह सारा अनुभव जरूरी है।
यही अनुभव पकाता है। इसी अनुभव की आंच में जो पकता है, एक
दिन मन से मुक्त हो पाता है। वह पक जाना ही मुक्ति है।
मन एव मनुष्यानां कारणं बंधमोक्षयोः।
मन है कारण बंध का और मोक्ष का। कच्चा मन बंध का कारण, पक गया मन मोक्ष का कारण। मगर मन पके कैसे? संसार की
आंच के सिवाय मन को पकने का और कोई उपाय नहीं है। इसीलिए तो संसार है। इसीलिए तो
इस संसार को परमात्मा के द्वारा दी गई चुनौती समझो। यह परमात्मा के द्वारा दी गई
एक परीक्षा है। यहां सभी बड़ी आशाओं से यात्रा शुरू करते हैं--कुछ बुरा नहीं है--और
यहां सभी आज नहीं कल, कल नहीं परसों, असफलताओं
के गङ्ढों में गिर जाते हैं।
मुझसे पहली-सी मुहब्बत मेरे महबूब न मांग
मैंने समझा था कि तू है तो दरख्शां है हयात
तेरा गम है तो गमे-दहर का झगड़ा क्या है
तेरी सूरत से है आलम में बहारां-ओ-शबाब
तेरी आंखों के सिवा दुनिया में रक्खा क्या है
तू जो मिल जाए तो तकदीर में रूह आ जाए
यूं न था, मैंने फकत चाहा था यूं हो जाए
मुझसे पहली-सी मुहब्बत मेरे महबूब न मांग
अनगिनत सदियों के तारीक बहीमाना तलिस्म
रेशमो-अतलसो-कमखाब में बुनवाए हुए
जां-ब-जां बिकते हुए कूचा-ओ-बाजार में जिस्म
खाक में लिथड़े हुए खून में नहलाए हुए
लौट जाती है उधर को भी नजर क्या कीजै
अब भी दिलकश है तेरा हुस्न मगर क्या कीजै
और भी दुख हैं जमाने में मुहब्बत के सिवा
राहतें और भी हैं वस्ल की राहत के सिवा
मुझसे पहली-सी मुहब्बत मेरे महबूब न मांग
लेकिन मुहब्बत को जानना होगा, पहचानना होगा,
जीना होगा, भोगना होगा।
इसलिए मैं अपने संन्यासी को भोग से भागने को नहीं कहता, भोग में पकने को कहता हूं। भोग में ही योग का फल पकता है। यह विरोधाभास
है। लेकिन जिंदगी के सारे राज विरोधाभासों में हैं। यहां जो भूलें नहीं करता,
वह कभी सीखता नहीं। जो भूलों से बचेगा, सीखने
से बच जाएगा। अगर सीखना हो तो भूलें करना, डरना नहीं। हां,
एक ही भूल दुबारा मत करना।
बंधाय विषयासक्तं...।
"विषय में आसक्ति बंधन है।'
आसक्ति कैसे छूटेगी? जबरदस्ती न छुड़ा सकोगे।
छुड़ा-छुड़ा कर भागोगे, आसक्ति लौट-लौट आएगी। क्योंकि बाहर
नहीं है आसक्ति, भीतर है--कैसे छूटेगी? तुम्हें दिखाई पड़ रहा है कि यह हीरा है और तुम भाग खड़े हुए, तो तुम्हारे सपनों में आएगा हीरा। तुम्हें पुकारेगा। तुम्हें खींचेगा। तुम
देख ही लो कि यह हीरा नहीं है। किसी और की मत मान लेना। अपने अनुभव के सिवाय और
कोई जानना नहीं है। न कभी था, न कभी होगा। तुम इस हीरे को
परख ही लो। इस हीरे को उठा ही लो। इसका हार बना ही लो। जब यह तुम्हीं को पत्थर हो
जाएगा, तो यूं गिर जाएगा जैसे सूखे पत्ते वृक्षों से गिर
जाते हैं। न वृक्ष को छोड़ना पड़ता, न उन्हें छूटना पड़ता। और
जब इस संसार में जो व्यर्थ है वह सूखे पत्तों की तरह गिर जाता है, तो जो सार्थक है उसके नए अंकुर तुम्हारे भीतर उग आते हैं।
बंधन हमारा अज्ञान है। मगर ज्ञान कैसे हो? अनुभव से ही होगा। ठोकरें खानी होंगी, दर-दर की
ठोकरें खानी होंगी; बहुत बार गिरना पड़ेगा, बहुत बार उठना पड़ेगा। उठ-उठ कर ही तो तुम सीखोगे चलना। अगर छोटे-से बच्चों
को तुम्हारे महात्मा मिल जाएं और कहें कि बेटा, गिरना मत! और
बच्चा सोच ले, तय कर ले कि गिरूंगा नहीं, तो फिर घिसटता ही रहेगा जिंदगी भर, कभी खड़ा न हो
पाएगा। चल ही न पाएगा। क्योंकि गिरने का डर चलने न देगा। जो चलेगा बच्चा, उसको गिरना ही पड़ेगा।
तो बच्चे सौभाग्य से मां-बाप की सुनते ही नहीं! मां-बाप तो बहुत कहते
हैं कि बेटा, सम्हल कर, सम्हल कर, मगर बेटे के भीतर तो प्रकृति की ऊर्जा तूफान ले रही है, वह खड़ा होना चाहता है। एक दफा बच्चा खड़ा हो जाता है, दो कदम चल लेता है, कि उसको एकदम पागलपन चढ़ जाता है।
चलने ही चलने की धुन रहती है उसको। जरा मौका पाया कि "चलूं'! गिर-गिर पड़ता है, घुटने टूट जाते हैं, लहूलुहान हो जाता है, मगर फिर-फिर उठ आता है। अगर
सयाना हो, तो पड़ा ही रह जाए। अगर सयानों की मान ले, तो बचपन में ही बूढ़ा हो जाए। और बचपन में ही बूढ़ा हो जाना दुर्भाग्य है।
वैसा ही दुर्भाग्य जैसे कुछ बूढ़े बुढ़ापे में भी बचकाने रह जाते हैं।
न बच्चों को बूढ़ा होने की जरूरत है, न बूढ़ों को बचकाना
रहने की जरूरत है। जिंदगी में सहज विकास होना चाहिए। एक संतुलन होना चाहिए। सीखो!
सीखने का एक ही उपाय है: भूल से मत डरना। आसक्ति को अनुभव करो। कांटे चुभेंगे,
यह मैं कहे देता हूं। मगर मेरे कहने से कि कांटे चुभेंगे, तुम रुकना मत! क्योंकि मेरी बात तुम्हारे किस काम की? तुम्हें कांटे चुभने चाहिए। वह कांटे की चुभन तुम्हारे जीवन के पकाव में
अनिवार्य है, अपरिहार्य है।
बंधाय विषयासक्तं...।
विषयों से वे ही बंधे रह जाते हैं जिन्होंने ठीक-ठीक उनका अनुभव नहीं
किया। जिन्होंने अनुभव कर लिया, वे तो मुक्त हो जाते हैं।
मुक्त्यै निर्विषयं स्मृतम्।
कौन होता है मुक्त? जिसकी स्मृति से, जिसके अंतःस्मरण के लोक से विषयों की खींचत्तान समाप्त हो जाती है। जिसने
धन को भोगा, वह धन से मुक्त हो जाता है। जिसने काम को भोगा,
वह काम से मुक्त हो जाता है। मुक्त होने का एक ही उपाय है: जी लो,
सारा कड़वा-मीठा अनुभव ले लो। और समय रहते ले लेना, नहीं तो पीछे बड़ा पछतावा होता है। जब समय था तब ज्ञान की बातों में उलझ
गए। और उधार ज्ञान तो उधार ही रहेगा।
अब जिसने भी इस सूत्र का हिंदी में अनुवाद किया, चिदानंद, उसने समझा ही नहीं। उसने बात को बिगाड़
दिया। उसने कह दिया, "जो विषयों से पराङ्मुख होगा,
वह मोक्ष का कारण होगा।'
पराङ्मुख जो होगा, वह तो बंधा ही रह जाएगा। बुरी
तरह बंधा रह जाएगा। विकृत हो जाएगा। मोक्ष नहीं मिलेगा। हां, विषयों का जो अतिक्रमण करता है, विषयों को जान लेता,
पहचान लेता, उसके भीतर ही अब इतनी बात साफ हो
जाती है, स्वच्छ हो जाती है कि कुछ भी सार नहीं है। वह
चिल्लाता भी नहीं फिरता कि विषय असार हैं। जो अभी चिल्ला रहा है कि विषय असार हैं,
जो दूसरों को समझा रहा है कि सावधान धन से, पद
से; सावधान स्त्रियों से, स्त्री नर्क
का द्वार है, समझ लेना एक बात पक्की कि अभी यह स्वयं मुक्त
नहीं हुआ है। नहीं तो इसे क्या स्त्री नर्क का द्वार दिखाई पड़ेगी!
कहानी मैंने सुनी है कि मीरा जब वृंदावन पहुंची तो वृंदावन में जो
कृष्ण का सबसे प्रमुख मंदिर था, उसका जो पुजारी था, उसने तीस वर्षों से किसी स्त्री को नहीं देखा था। वह बाहर नहीं निकलता था
और स्त्रियों को मंदिर में आने की मनाही थी। द्वारपाल थे, जो
स्त्रियों को रोक देते थे।
कैसी अजीब दुनिया है! कृष्ण का भक्त और कृष्ण के मंदिर में स्त्रियों
को न घुसने दे! और कृष्ण का जीवन किसी पलायनवादी संन्यासी का जीवन नहीं है, मेरे संन्यासी का जीवन है! सोलह हजार स्त्रियों के बीच यह नृत्य चलता रहा
कृष्ण का! अगर नर्क ही जाना है तो कृष्ण जितने गहरे नर्क में गए होंगे, तुम क्या जाओगे! कैसे जाओगे! इतनी सुविधा तुम न जुटा पाओगे। इतनी लंबी
सीढ़ी न लगा पाओगे। सोलह हजार पायदान! अरे, एकाध पायदान,
दो पायदान बिठाल लिए, उतने में तो जिंदगी उखड़
जाती है! एकाध-दो नर्क के द्वार खोज लिए, उतना ही तो काफी
है! उन्हीं दोनों के बीच में ऐसी घिसान, ऐसी पिटान हो जाती
है! सोलह हजार स्त्रियां!
मगर यह सज्जन जो पुरोहित थे, इनकी बड़ी प्रतिष्ठा
थी महात्मा की तरह! प्रतिष्ठा का कुल कारण इतना था कि वे स्त्री को नहीं देखते थे।
हम अजीब बातों को आदर देते हैं! हम मूढ़ताओं को आदर देते हैं। हम रुग्णताओं को आदर
देते हैं। हम विक्षिप्तताओं को आदर देते हैं। हमने कभी किसी सृजनात्मक मूल्य को
आदर दिया ही नहीं। हमने यह नहीं कहा कि इस महात्मा ने एक सुंदर मूर्ति बनाई थी,
कि एक सुंदर गीत रचा था, कि इसने सुंदर वीणा
बजाई थी, कि बांसुरी पर आनंद का राग गाया था। नहीं, यह सब कुछ नहीं; इसने स्त्री नहीं देखी तीस साल तक।
बहुत गजब का काम किया था!
मीरा आई। मीरा तो इस तरह के व्यर्थ के आग्रहों को मानती नहीं थी।
फक्कड़ थी। वह नाचती हुई वृंदावन के मंदिर में पहुंच गई। द्वारपालों को सचेत कर
दिया गया था, क्योंकि मंदिर का प्रधान बहुत घबड़ाया हुआ था कि मीरा
आई है, गांव में नाच रही है, उसके गीत
की खबरें आ रही हैं, उसकी मस्ती की खबरें आ रही हैं, कृष्ण की भक्त है, जरूर मंदिर आएगी, तो द्वार पर पहरेदार बढ़ा दिए थे। नंगी तलवारें लिए खड़े थे, कि रोक देना उसे। भीतर प्रवेश करने मत देना। दीवानी है, पागल है, सुनेगी नहीं, जबरदस्ती
करनी पड़े तो करना, मगर मंदिर में प्रवेश नहीं करने देना।
यही सज्जन मालूम होता है स्वामी नारायण संप्रदाय में पैदा हो गए हैं, श्री प्रमुख स्वामी के नाम से। यह स्त्रियां नहीं देखते। हवाई जहाज पर
चलते हैं तो इनके चारों तरफ एक बुर्का ओढ़ा दिया जाता है। क्योंकि एयर होस्टेस
वगैरह, उनको देख कर कहीं इनको भ्रम हो जाए कि उर्वशी,
मेनका--अप्सराएं आ गईं, क्या हो रहा है! क्या
इंद्र डर गया श्री प्रमुख स्वामी से? छोटे-मोटे स्वामी नहीं,
श्री प्रमुख स्वामी! नाम भी क्या चुना है! यह वही सज्जन मालूम होते
हैं।
मीरा नाचती गई। द्वार पर नाचने लगी, भीड़ लग गई। नाच ऐसा
था, ऐसा रस भरा था कि मस्त हो गए द्वारपाल भी, भूल ही गए कि रोकना है। तलवारें तो हाथ में रहीं मगर स्मरण न रहा तलवारों
का। और मीरा नाचती हुई भीतर प्रवेश कर गई। पुजारी पूजा कर रहा था, मीरा को देख कर उसके हाथ से थाल छूट गया पूजा का। झनझना कर थाल नीचे गिर
पड़ा। चिल्लाया क्रोध से कि ऐ स्त्री, तू भीतर कैसे आई?
बाहर निकल!
मीरा ने जो उत्तर दिया, बड़ा प्यारा है। मीरा
ने कहा, मैंने तो सुना था कि एक ही पुरुष है--परमात्मा,
कृष्ण--और हम सब तो उसकी ही सखियां हैं, मगर
आज पता चला कि दो पुरुष हैं। एक तुम भी हो! तो तुम सखी नहीं हो! तुम क्यों ये
शृंगार किए खड़े हो, निकलो बाहर! इस मंदिर का पुरोहित होने का
तुम्हें कोई अधिकार नहीं। यह पूजा की थाली अच्छा हुआ तुम्हारे हाथ से गिर गई। यह
पूजा की थाली तुम्हारे हाथ में होनी नहीं चाहिए। तुम्हें अभी स्त्री दिखाई पड़ती है?
तीस साल से स्त्री नहीं देखी तो तुम मुझे पहचान कैसे गए कि यह
स्त्री है?
यूं न देखी हो, सपनों में तो बहुत देखी होगी! जो दिन में बचते हैं,
वे रात में देखते हैं। इधर से बचते हैं तो उधर से देखते हैं। कोई न
कोई उपाय खोज लेते हैं।
और मीरा ने कहा कि यह जो कृष्ण की मूर्ति है, इसके बगल में ही राधा की मूर्ति है--यह स्त्री नहीं है? और अगर तुम यह कहो कि मूर्ति तो मूर्ति है, तो फिर
तुम्हारे कृष्ण की मूर्ति भी बस मूर्ति है, क्यों मूर्खता कर
रहे हो? किसलिए यह पूजा का थाल और यह अर्चना और यह धूप-दीप
और यह सब उपद्रव, यह सब आडंबर? और अगर
कृष्ण की मूर्ति मूर्ति नहीं है, तो फिर यह राधा? राधा पुरुष है? तो मेरे आने में क्या अड़चन हो गई?
मैं सम्हाल लूंगी अब इस मंदिर को, तुम रास्ते
पर लगो!
मीरा ने ठीक कहा।
जीवन को अगर कोई पलायन करेगा तो परिणाम बुरे होंगे। पराङ्मुख मत होना।
जीओ जीवन को, क्योंकि जीने से ही मुक्ति का अपने आप द्वार खुलता
है।
मन एव मनुष्यानां
कारणं बंधमोक्षयोः।
बंधाय विषयासक्तं मुक्त्यै निर्विषयं स्मृतम्।।
चिदानंद, सूत्र तो प्यारा है! सूत्र तो अदभुत है! बहुत रस भरा
है! मगर व्याख्याओं से जरा सावधान रहना! यह अनुवाद तक गलत है। मैं संस्कृत नहीं
जानता, याद रहे! लेकिन मैं उपनिषद जानता हूं। मेरा अपना
अनुभव मैं जानता हूं। इसलिए मैं फिकर नहीं करता भाषा वगैरह की, भाषा से मुझे क्या लेना-देना, अगर मेरी अनुभूति के
अनुकूल पड़ता है तो ठीक, अगर नहीं अनुकूल पड़ता तो गलत! मेरे
लिए और दूसरा कोई मापदंड नहीं है।
प्रत्येक को अपनी अनुभूति के ही मापदंड पर, अपनी अनुभूति की कसौटी पर ही कसना चाहिए, तभी तुम
जीवन में असार को सार से अलग कर पाओगे, नीर-क्षीर-विवेक कर
पाओगे।
यह सूत्र प्यारा है, मगर व्याख्याओं से सावधान!
दूसरा प्रश्न:
भगवान, तरु कहती है,
"लहरू, भगवान को चौपाटी घुमा ला!'
चलोगे न? अपन आइसक्रीम भी खाएंगे।
चैतन्य सागर उर्फ लहरू! तरु तो गहरी
बातें कह रही है। मगर क्या चौपाटी को और चौपट करना है? भारतीय संस्कृति नष्ट न हो जाएगी मुझे चौपाटी ले जाओगे तो? चौपाटी तो भारतीय संस्कृति का प्रतीक है। सब ऋषि-मुनि वहीं तो विराजमान
हैं। पुरुष स्त्रियों की आराधना कर रहे हैं, भक्ति-भाव उमड़
रहा है, फिल्मी गीत गाए जा रहे हैं, गजलें
सुनाई जा रही हैं। और अभी तो दो-चार दिन पहले ही तो हम बात कर रहे थे: यत्रऱ्यत्र
नारी पूज्यंते, तत्रत्तत्र देवता रमंते। जहां-जहां नारी की
पूजा होती है वहां-वहां देवता रमते हैं। रमंते ही रमंते! और देवता कोई थोड़े हैं!
तैंतीस करोड़! मारा-मारी करंते। और बेचारों को काम भी तो नहीं है।
और चौपाटी पर जैसी नारी की पूजा होती है, कहीं और होती है! तो देवी-देवता तो सब वहीं रमण रहे हैं। कोई रमणलाल,
कोई चमनलाल, कोई चिकू भाई, कोई चिपकू भाई--सब वहीं मौजूद हैं। मुझे तो देखते ही वे सब देवता एकदम
शोरगुल मचा देंगे कि इससे चौपाटी चौपट हो जाएगी। वहीं तो सब कुछ चल रहा है--पूरा
धर्म, संस्कृति, सभ्यता; भेल-पुरी चालू आहे! भारतीय संस्कृति चालू आहे! मुझे, लहरू, तू वहां ले जाकर क्या बिलकुल बर्बादी करवाना
है? मैं तो चलूं, मुझे क्या अड़चन! मुझे
तो चौपट ही करना है, कहीं भी रहूं! मैं तो चौपाटी पर ही हूं!
जहां होता हूं वहीं चौपाटी खड़ी हो जाती है। तू मुझे कहीं भी ले चल!
अब मैंने कच्छ का रेगिस्तान चुना था--कच्छ का रन, जिसकी वजह से रणछोड़दास जी पैदा हुए। रन कच्छ का, जहां
से सब भाग गए, सब रणछोड़दास हो गए, चुना
मैंने कि चलो वहां कोई झंझट न होगी, मगर वहां भी भारतीय
संस्कृति को खतरा है--मेरे आने से! जहां कोई है ही नहीं! और चौपाटी पर तो सभी कुछ
है। मैं तो चलूं, मुझे कोई अड़चन नहीं है। और आइसक्रीम तू
खिलाएगा तो जरूर खाएंगे। मुझे उसमें भी कोई अड़चन नहीं है। मगर ऐसे-ऐसे शब्द तुम
उठा देते हो, फिर मुझे झंझट होती है।
अब यह डोंगरे जी महाराज ने क्या उपद्रव करवा दिया! ये बांटें लस्सी, ये बांटें बूंदी प्रसाद में, और प्रश्नों के उत्तर
मुझको देना पड़ें! नालायकी करे कोई, उत्तर दूं मैं! मगर
साधु-संतों की रक्षा तो करनी ही पड़ती है। तो मुझे समझाना पड़ा कि लस्सी से आती
शक्ति और बूंदी से आती भक्ति। और जहां शक्ति और भक्ति का मिलन होता है, वहीं ध्यान रमता--रमंते। कछु और न करंते।
अब ऐसे नास्तिक पड़े हैं, ये शरद जोशी जैसे लोग,
जो कहते हैं: कायकूं रमंते? कोई अपनी मां-बहन
की पूजा कर रहा है, तुम्हारी अपनी मां-बहन नहीं है? देवी-देवता रमंते! अरे, अपने घर जाओ, वहीं रमो! कोई पति अपनी पत्नी की पूजा कर रहा है, आराधना
कर रहा है, करने दो! तुम्हें वहां भीड़-भाड़ क्यों करनी?
तुम्हें क्या जरूरत बीच में अड़ंगा डालने की? नास्तिकता
की बात है!
अब देवी-देवता तो चुप्प रहंते, वे तो बेचारे कुछ
उत्तर न देवंते; मगर शरद जोशी को मैं कह देता हूं कि अरे,
देवी-देवता कितने ही चुप रहें, मैं तो मौजूद
हूं! तुम पूछते, कायकूं रमंते? बंदोबस्त
करंते! इसलिए रमंते। तो रक्षा तो करनी पड़ेगी, बंदोबस्त करना
पड़ेगा।
अब यह डोंगरे महाराज, इनको अगर बांटना ही हो प्रसाद तो
डोंगरे का बालामृत बांटें। कहां लस्सी-बूंदी! मगर मुझे व्याख्या करनी पड़ी। उसी में
से सुभाष ने रसमलाई उठा दी। और एक गंभीर सवाल खड़ा हो गया: रसमलाई। और कोई साधारण
मामला नहीं है, हमारे संन्यासियों में से जो सबसे ज्यादा
गंभीर संन्यासी हैं, पंडित स्वामी योग चिन्मय, उन तक ने प्रश्न पूछ लिया है कि भगवान, आपने
कहा कि लस्सी से शक्ति और बूंदी से भक्ति, रसमलाई का अर्थ
समझाइए! स्वामी योग चिन्मय! ये तो बेचारे समाधिस्थ पुरुष हैं, ये तक डगमगा गए। रसमलाई चीज ऐसी!
अकथ कहानी स्वाद की, कछु कही न जाए।
गूंगे केरी लस्सी पीकर, बूंदी खा मुसकाय।।
खावत खावत हे सखी, रह्यो कबीर मुटाय।
बुंद समानी पेट में, फिर कस हेरी जाय।।
डंड-बिठक से जग मुवा, संन्यासी नहिं कोय।
लस्सी बूंदी रसमलाई, खाय सो स्वामी होय।।
कहा-सुनी की है नहीं, खाए-पिए की बात।
कोई मिठाई न दे सकी, रसमलाई को मात।।
लस्सी से शक्ति-भक्ति, बूंदी से मिले मिठास।
रसमलाई पलक में, ब्रह्म का हो आभास।।
पलटू सुभ दिन सुभ घड़ी, धन्य है सोहनमाई।
लस्सी-बूंदी सब फीकी हुई, खाई जो रसमलाई।।
अब यह तुम्हें सोहन से पूछना चाहिए कि रसमलाई का क्या अर्थ है? मुझसे पूछते हो! अब मैं क्या इस सबकी व्याख्या करता रहूं? और रसमलाई का तो अर्थ बिलकुल साफ है: रसो वै सः। अरे, वह तो परमात्मा की परिभाषा ही यह है: रसरूप है जो। अब यह लहरू और उपद्रव
करवा रहा है। यह आइसक्रीम शब्द बीच में ले आया! अब आज नहीं कल कोई पूछेगा कि
आइसक्रीम का क्या अर्थ है?
अब मैं किसी तरह तो मन से मुक्त हुआ, बामुश्किल तो मन से
मुक्त हुआ, अब तुम्हारे पीछे मुझे मन फिर लाना पड़ता है--आइसक्रीम
का पता लगाओ कि आइसक्रीम का क्या अर्थ है? इसका क्या
आध्यात्मिक रहस्य है?
नहीं लहरू, ऐसे कठिन सवाल नहीं उठाते! ऐसे कठिन सवाल उठाओगे,
मारा-मारी होवंते!
और चौपाटी यहां आ रही, तुम मुझे कहां ले जा
रहे हो! मैं जहां रहूंगा, वहीं चौपाटी; वहीं देवी-देवता रमंते। अब यहां इतनी नारियां आ गई हैं कि उनके पीछे-पीछे
देवता भी चले आए। अब मैंने कहा देवताओं से क्या काम लेना, आ
ही गए हैं, तो उनको बिठा दिया है--देखते हो तुम, हर खंभे के पास बैठे हैं; बंदोबस्त करंते! चलो बेटा,
बंदोबस्त करो! कुछ तो करो, अब आ ही गए...!
तीसरा प्रश्न:
भगवान, मेरे सारे भ्रम दूर
हो गए हैं, सत्य का पता चल गया है, जब
से आपने यह बताया कि वीणा चितरंजन की पत्नी हैं!
प्रेम प्रज्ञा! अरे, यह तो कुछ भी नहीं है, यह तो अभी आधा ही सत्य
है--आधे से भी कम--वीणा चितरंजन की पत्नी है, यह तो कुछ भी
नहीं, अरे, चितरंजन वीणा के पति भी
हैं! असली राज तो वह है। वह बड़ी कठिन बात है समझना।
मैंने सुना है कि वीणा ने एक नौकरानी रखी। अब वीणा तगड़ी मजबूत, सो उसने नौकरानी भी अपने जैसी चुनी। किसी विवाह में सांझ गई, पहले ही दिन, तो नौकरानी को कह गई कि बच्चों को ठीक
से सुला देना। नौ बजे के बाद किसी को जगने मत देना।
जब रात लौटी ग्यारह-बारह बजे तो पूछा कि सबको सुला दिया? उसने कहा, सबको सुला दिया। सिर्फ बड़े बच्चे ने बहुत
तकलीफ दी। वीणा ने पूछा, बड़ा बच्चा! अरे, मेरे तो दोत्तीन छोटे बच्चे हैं, बड़ा बच्चा कौन-सा
है? अरे, उसने कहा, यह मुछाड़िया! सोए ही न!! मगर मैंने भी दिया पटका, दबा
दिया दुलाई में और बैठ गई ऊपर कि सोता है कि नहीं? और बाई,
यह बड़ा लड़का बड़ा कठिन है! अल्ल-बल्ल बके, उठ-उठ
पड़े, कुछ-कुछ बहाने निकाले। मैंने भी दिए दो लताड़! जब लताड़
खाया तब माना।
तब वीणा को पता चला कि चितरंजन की पिटाई हो गई है।
बेचारे चितरंजन सीधे-सादे आदमी हैं। मगर प्रेम में यही तो झंझटें हो
जाती हैं, इसलिए सयाने लोग कह गए कि प्रेम करना ही मत। विवाह
पहले, प्रेम पीछे। और चितरंजन ने कर लिया उलटा काम: प्रेम
पहले, विवाह पीछे। उसमें यह झंझट हो गई। अब प्रेम तो अंधा
होता ही है, उसने देखा ही नहीं कि किससे प्रेम कर रहे हो,
भैया! कुछ नाप-जोख भी तो करो! कुछ हिसाब-किताब भी तो रखो! प्रेम को
कहा अंधा और विवाह को कहा संस्था, इसलिए मैं कहता हूं,
विवाह जो है वह अंधों की संस्था है। प्रेम में यह उपद्रव हो गया।
सो तू प्रज्ञा, कहती है कि सत्य का पता चल गया है जब से आपने बताया
कि वीणा चितरंजन की पत्नी हैं।
यह अभी आधा सत्य है। अभी आधा और खोज! मगर आधे का पता चला तो आधे और का
भी पता चल ही जाएगा। करीब-करीब आ गई। मगर अभी असली बात रहस्य की है, अभी रह गई है। चितरंजन पति भी हैं। कठिन है मामला! वीणा जैसी पत्नी का पति
होना! कोई भरोसा ही नहीं करता।
अभी भी लोग बेचारे को बस, सोहन ही उनको धक्का
मार रही है, कि सुन लो! और चितरंजन सोहन को तो धक्का मार
नहीं सकते, वह वीणा को धक्का मार रहे हैं, कि सुन लो!
उनको देख कर मुझे खयाल आया कि अकबर ने एक दफा गुस्से में बीरबल को
चांटा मार दिया। अब बीरबल को भी दिल तो हुआ चांटा मारने का, मगर अकबर को चांटा मारे, पीछे महंगा पड़ जाए। सो उसने
बगल वाले आदमी को चांटा मार दिया। उस बगल वाले ने सोचा कि यह तो झंझट की बात है।
बीरबल को मारूं, मुश्किल हो, यह चहेता
राजा का; उसने बगल वाले को जड़ दिया। बगल वाले ने पूछा,
यह हद हो गई! अरे भाई, कोई किसी को मार रहा है,
कोई किसी को; तुमको जिसने मारा उसको तुम क्यों
नहीं मारते? उसने कहा, तू क्या बात-चीत
में पड़ा है, तू जिसको मारना हो उसको मार! अरे, जो जिसको मार सकता है उसको मारता है। ऐसी बात चलती रही, तो आखिर में पहुंच जाएगी। और कहते हैं पहुंच गई। ऐसे मार-पीट होती रही,
चलती रही, और किसी ने सम्राट अकबर की पत्नी को
धौल जमा दिया। और पत्नी को गुस्सा आया, उसने एक धौल अकबर को
जमा दिया। तब चक्कर पूरा हुआ।
अब सोहन धक्का मार रही चितरंजन को, चितरंजन वीणा को धक्का
मार रहे हैं, वीणा इधर-उधर देख रही है, विनोद जरा दूर हैं नहीं तो मारे धक्का उनको! सत्संग का मतलब ही यही होता
है। अरे, सत्य को आगे बढ़ाए जाओ! बांटते चलो, बांटते चलो! वीणा, तू सरक जा बेफिक्री से, मार विनोद को एक धक्का! कभी किसी का धक्का नहीं खाना, उत्तर तो देना ही। जो जिसको मार सके!
तू ठीक समझी, प्रज्ञा! सत्य का तुझे आधा पता चल गया। जितना चला
उतना ही काफी है।
चंदूलाल का बेटा, टिल्लू गुरु, स्कूल से लौटा। बड़ा ट्राफी लिए चला आ रहा था। अरे, चंदूलाल
ने कहा, टिल्लू गुरु, क्या हुआ?
कैसे ट्राफी पाई? टिल्लू गुरु ने कहा कि आज
स्कूल में परीक्षा हुई। प्रधान अध्यापक ने प्रश्न पूछा और मैंने जवाब दिया। वह
सबसे ज्यादा सही था। सो मुझे ट्राफी मिली। चंदूलाल ने कहा, गजब
कर दिया तूने! अरे, हम भी बहुत पढ़े-लिखे, कभी ट्राफी न लाए! मगर यह तो बता क्या पूछा था? टिल्लू
गुरु ने कहा कि प्रधान अध्यापक ने पूछा कि हाथी के कितने पैर होते हैं? तो मैंने कहा, पांच। चंदूलाल ने कहा, अरे मूरख, हाथी के और पांच पैर, और फिर भी तुझे ट्राफी मिली! उसने कहा, हां, क्योंकि दूसरे तो नालायक कोई छह बता रहा था, कोई सात
बता रहा था। मैं करीब से करीब था सत्य के। सो हेड मास्टर ने कहा, भइया, तू करीब से करीब है, तू
ही ले जा ट्राफी!
अभी तू करीब ही पहुंची है, प्रज्ञा! अभी हाथी के
पांच पैर बता रही है। मगर फिर भी दूसरों से करीब पहुंची, आधा
सत्य पता चला, आधा भी कब तक बचेगा! अरे, जिन खोजा तिन पाइयां गहरे पानी पैठ! गहरे बैठते जा, खोज
ही लेगी।
मगर वीणा और चितरंजन सच में पूछो तो पति-पत्नी नहीं हैं, प्रेमी हैं, अब भी प्रेमी हैं। और इसीलिए मेरा उन पर
इतना लगाव है! मेरा लगाव तो प्रेमियों के लिए है। पति-पत्नी तो दुर्गति है। विवाह
उन्होंने किया, औपचारिक है वह, सामाजिक
है। मैं हजारों-लाखों लोगों के संपर्क में आया हूं, उसमें
दो-चार ही जोड़े हैं। जैसे चितरंजन-वीणा का, जैसे माणिक
बाबू-सोहन का। ऐसे दो-चार ही जोड़े हैं। जो पति-पत्नी होकर भी पति-पत्नी नहीं हैं।
जो अब भी प्रेमी हैं।
यह बड़ा कठिन है मामला--पति-पत्नी होकर भी पति-पत्नी न होना। लोग तो
बिना पति-पत्नी हुए पति-पत्नी हो जाते हैं। दो दिन किसी के साथ रह लें कि कब्जा!
दो दिन किसी के साथ रह लें कि मालकियत! लेकिन जिनके साथ वर्षों रहे हों, जिनके साथ सामाजिक रूप से विवाह का गठबंधन भी हुआ हो, उनके साथ भी कोई आग्रह नहीं, दबाव नहीं--यह सौभाग्य
की बात है! चितरंजन और वीणा सौभाग्यशाली हैं! अब भी उनमें प्रेम वैसा ही है,
जैसे नए-नए प्रेमियों में, जैसे आज ही हुआ हो।
और प्रेम ताजा रहे तो ही प्रेम है। प्रेम बासा हो जाए, तो
प्रेम था ही नहीं।
इतना ही मत, प्रज्ञा, उनके संबंध में सोच कि
पति-पत्नी हैं, उससे ज्यादा समझने की बात है कि प्रेमी हैं।
और प्रेम परमात्मा के निकटतम है। एक व्यक्ति को भी अगर तुमने ठीक से प्रेम किया है,
तो तुमने थोड़ा-सा परमात्मा का स्वाद लिया है। और उसकी एक बूंद भी
पर्याप्त है जीवन की तृप्ति के लिए। प्रेम को थोड़ा-सा भी जान लेना परमात्मा का
एकमात्र प्रमाण है।
आखिरी प्रश्न:
भगवान, आपकी बातें तो बिलकुल
ही समझ में नहीं आतीं। मार्गदर्शन दें!
कैलाशनाथ शास्त्री, मार्गदर्शन भी समझ में नहीं आएगा। मार्गदर्शन ही दे रहा हूं! और अड़चन होगा
तुम्हारा "शास्त्री' होना। मेरा कोई कसूर नहीं, शास्त्री हो, वही खतरा है। शास्त्र को हटाओ तो मेरी
बातें तो बिलकुल सीधी-सरल हैं; छोटे-छोटे बच्चों की समझ में
आ जाएं, ऐसी हैं। मैं कोई कठिन बातें तो नहीं कह रहा हूं।
मैं कोई आकाश की बातें तो नहीं कह रहा हूं। मेरी बातें तो दो और दो चार जैसी
स्पष्ट हैं। लेकिन तुम्हारी अड़चन है। तुम्हारी अपनी धारणाएं होंगी। शास्त्र भरे
होंगे सिर में। वे मेरी बातों को तुम तक पहुंचने ही न देते होंगे।
जब तक तुम अपने पक्षपात न छोड़ोगे, जब तक तुम अपनी
धारणाएं न छोड़ोगे--और मैं नहीं कहता कि छोड़ो; अगर तुम्हारी
धारणाएं तुम्हें तृप्ति दे रही हैं, तो परमात्मा तुम्हारी
रक्षा करे! परमात्मा जाने, तुम जानो! अगर तुम्हारी धारणाएं
तुम्हारे लिए प्रकाश बन रही हैं, तो बड़ी सौभाग्य की बात है!
लेकिन अगर तुम्हारे शास्त्र और तुम्हारे सिद्धांत सिर्फ तुम्हारे अंधकार को बढ़ा
रहे हैं, तुम्हारी अमावस की रात लंबी होती जा रही है,
तो हटाओ उसे! उसके जंगल में से तुम मेरी बात सुनोगे तो कुछ की कुछ
हो जाएगी।
दो मक्खियां पिक्चर देख कर थियेटर से बाहर निकलीं। तो एक दूसरे से
बोली: "पैदल चलें या कुत्ता कर लें?'
मक्खियां ही ठहरीं! क्या गजब की बात उन्होंने कही: "पैदल चलें कि
कुत्ता कर लें?'
तुम्हारी अपनी भाषा होगी।
चंदूलाल एक हकीम से मिले...। रहे होंगे कोई हकीम बीरूमल जैसे, जो गुप्त रोगों का इलाज करते हैं। हिंदुस्तान और पाकिस्तान के बंटवारे में
अगर कोई लाभ हुआ भारत को तो हकीम बीरूमल! हकीम बीरूमल क्या आए, उसके पहले भारत को पता ही नहीं था कि गुप्त रोग भी होते हैं! हकीम बीरूमल
ने खूब गुप्त रोग फैलाए!
और गुप्त रोग का एक मजा यह है कि न रोगी बताता है किसी को कि उसको रोग
है; और ठीक हुआ कि नहीं, यह भी नहीं बताता; दवाइयां भी बिकती हैं और दवाइयां काम कर रही हैं या नहीं कर रही हैं,
इसका भी कोई पता नहीं चलता। क्योंकि वह किसी से कह तो सकता ही नहीं
कि दवाई ने असर नहीं किया! वह रोग ही गुप्त है! हकीम बीरूमल सिंधी, बड़े पहुंचे हुए हकीम। सिंधियों से कौन मुकाबला करे? उन्होंने
सबको पछाड़ दिलवा दी। मारवाड़ियों को चारों खाने चित कर दिया। सब डाक्टर हार गए हकीम
बीरूमल के नाम से।
ऐसे ही किसी हकीम से चंदूलाल ने पूछा कि पत्नी का प्रेम पाने के लिए
क्या करूं? हकीम जी ने कहा: "दस किलोमीटर रोज पंद्रह दिन तक
दौड़ लगाओ।' मैंने पूछा चंदूलाल को कि फिर क्या हुआ? क्या आपको पंद्रह दिन बाद पत्नी-प्रेम मिला? चंदूलाल
बोले: "मुझे क्या पता? पंद्रह दिन बाद तो मैं उससे डेढ़
सौ किलोमीटर दूर पड़ा हुआ था।'
अब तुम अगर अपनी धारणाओं से समझोगे तो अड़चन होने वाली है। कुछ का कुछ
हो जाएगा।
कैलाशनाथ शास्त्री, मैं जो कह रहा हूं वही समझने की
कोशिश करो, अपने को बीच में न लाओ!
चंदूलाल की पत्नी बहुत मोटी। पलंग पर सो रही थी, तभी अचानक भूकंप आया और वह पलंग से नीचे गिर पड़ी। बरामदे में बैठे चंदूलाल
भागे-भागे भीतर आए और पत्नी से बोले: "अरे, भूकंप आने
से तुम नीचे गिरी हो या तुम्हारे गिरने से भूकंप आया है?'
एक पत्रिका में छपी संपादकीय सूचना--
इस पत्रिका में छपी गलतियां छापे की भूल नहीं हैं, बल्कि जान-बूझ कर रखी गई हैं। दरअसल हम पत्रिका में हरेक की रुचि की
सामग्री छापते हैं। और कुछ लोगों की रुचि केवल छापे की भूलों में होती है।
तो अब तुम पता नहीं क्या खोजने यहां आए हो, कि तुमको मेरी बातें समझ में नहीं आ रही हैं! नहीं तो मेरी बातें तो बहुत
सीधी-साफ हैं। यहां जो कुछ अध्यात्म और दर्शनशास्त्र और भूत-प्रेत और स्वर्ग-नर्क
और मरने के बाद क्या होता है और क्या नहीं होता है, इस तरह
की व्यर्थ बातें जानने आया हो, वह गलत जगह आ गया।
कब्रिस्तान के चारों ओर कांटे के तार लगाने के लिए चंदा वसूल किया जा
रहा था। मुल्ला नसरुद्दीन के पास भी चंदा लेने वाले लोग पहुंचे। मुल्ला बोला:
"तार लगाने की क्या जरूरत है? अरे, कब्रिस्तान के अंदर जो हैं, वे बाहर नहीं निकल सकते;
और जो बाहर हैं, उनमें से कोई अंदर जाना नहीं
चाहता। तार की जरूरत क्या है?'
लोग अपने हिसाब से सोचते हैं। और उसकी बात में वजन है। अरे, जो अंदर है वह क्या बाहर आएगा अब? उसको तो रोकना
नहीं है। और जो बाहर हैं, वे भीतर खुद ही नहीं जाना चाहते।
वे तो खुद ही भागे हुए हैं। तार किसके लिए लगा रहे हो! नाहक पैसा खराब करना!
मुल्ला नसरुद्दीन पहली दफा दिल्ली गए। ताजमहल होटल में ठहरे। मैनेजर
से पूछा: "आपके यहां खाने का समय क्या है?' मैनेजर ने कहा:
"सुबह का नाश्ता सात से नौ बजे, खाना दस से एक, दोपहर की चाय दो से चार, रात का खाना छह से दस।'
मुल्ला नसरुद्दीन बड़ी परेशानी में पड़ गए, बड़े
दुख भरे स्वर में बोले: "दिन भर अगर खाना खाता रहूंगा तो शहर कब घूमूंगा?'
कैलाशनाथ शास्त्री, और कोई अड़चन नहीं है, मेरी तरफ से कोई अड़चन नहीं है, तुम्हारी तरफ से अड़चन
है। जरा अपनी बुद्धि को दरवाजे के बाहर छोड़ कर भीतर आओ, और
तत्क्षण मेरी बात समझ में आने वाली है।
आज इतना ही।
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